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५२ जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश शामिल है--विक्रम संवत्का ही उल्लेख करना चाहिये, शक-शालिवाहन का नहीं ? कुछ तो बतलाना चाहिये था, जिससे इस प्रमाणकी प्रकृतविषयके साथ कोई संगति ठीक बैठती । मात्र किसी दिगम्बर ग्रन्थमें विक्रम राजाका उल्लेख आजाने और शालिवाहन राजाका उल्लेख न होनेसे यह नतीजा तो नहीं निकाला जा सकता कि शालिवाहन नामका कोई शक राजा हुअा ही नहीं अथवा दिगम्बर साहित्यमे उसके शक संवत्का उल्लेख ही नहीं किया जाता । ऐसे कितने ही दिगम्बर ग्रन्थ प्रमाणमें उपस्थित किये जासकते हैं जिनमें स्पष्टरूपसे शालिवाहनके शकसंवत्का उल्लेख है। ऐसी हालतमें यदि किसी संहिताके संकल्पप्रकरणमें उदाहरणादिरूपसे विक्रमराजाका अथवा उसके संवत्का उल्लेख आ भी गया है तो वह प्रकृत विषयके निर्णयमें किस प्रकार उपयोगी हो सकता है. यह उनके इस प्रमाणसे कुछ भी मालूम नहीं होता, और इसलिये इस प्रमारणका कुछ भी मूल्य नही है । इस तरह आपके पांचों ही प्रमाण विवादापन्न विषयकी गुत्थीको सुलझानेका कोई काम न करनेसे निर्णयक्षेत्रमे कुछ भी महत्त्व नहीं रखते; और इसलिये उन्हे प्रमाण न कहकर प्रमाणाभास कहना चाहिये ।
कुछ पुरातन विद्वानोंने 'शकराजा' का अर्थ यदि विक्रम राजा कर दिया है तो क्या इतनेसे ही वह अर्थ ठीक तथा ग्राह्य होगया ? क्या पुरातनोंसे कोई भूल तथा गलती नहीं होती और नहीं हुई है ? यदि नहीं होती और नहीं हुई है तो फिर पुरातनों-पुरातनों में ही कालगणनादिक सम्बन्धमें मतभेद क्यों पाया जाता है ? क्या वह मतभेद किसी एककी गलतीका सूचक नहीं है ? यदि मूचक है तो फिर किसी एक पुरातनने यदि गलतीमे 'शकराजा' का अर्थ 'विक्रमराजा' कर दिया है तो मात्र पुरातन होनेकी वजहमे उसके कथनको प्रमाण-कोटिमें क्यों रक्खा जाता है और दूसरे पुरातन कथनकी उपेक्षा क्यों की जाती है ? शक राजा अथवा शककालके ही विषयमें दिगम्बर साहित्यमें पाँच पुरातन मतोंका उल्लेख मिलता है, जिनमें से चार मत तो त्रिलोकप्रज्ञप्तिमें पाये जाते हैं और उनमें सबसे पहला मत वीरनिर्वाणसे ४६१ वर्ष बाद शकराजाका उत्पन्न होना बतलाता है * । तीन मत 'धवल' ग्रन्थमें उपलब्ध होते हैं, जिनमेंसे दो तो • * वीरजिणे सिद्धिगदे चउसद-इगसटि-वासपरिमारणे ।
कालम्मिप्रदिक्कते उप्पण्णो एत्य सगरामो ॥