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वीरनिर्वाण-संवतकी समालोचनापर विचार ५१ ___ इन श्लोकोंमें उल्लिखित हुए महावीर-निर्वाणान्द, विक्रमशकान्द और शालिवाहनशकाब्द इस बातको दृढ़ करते है कि शकराज शब्दका अर्थ विक्रमराजा ही है । महावीर-निर्वाणान्द २४६३ को संख्यामें दानपत्रको उत्पत्तिकालके १११ वर्षोंको मिला देनेपर इस समय वीरनिर्वाणसम्वत् २६०४ हो जाता है । और विक्रम शकान्दको संख्या १८८८ को दानपत्रोत्पत्तिकाल १११ वर्षके साथ जोड़ देने से इस समय विक्रमशकाब्द १९९६ आ जाता है।
(५) चामराजनगरके निवासी पं० ज्ञानेश्वर द्वारा प्रकाशित जैन पंचांगमें भी यही २६०४ वीरनिर्वाणब्द उल्लिखित है।। ___इन पाँच प्रमाणोंमेंसे नं० २ और ३ में तो दो टीकाकारोंके अर्यका उल्लेख है जो गलत भी हो सकता है, और इसलिये वे टीकाकार अर्थ करनेवालोंकी एक कोटिमें ही पाजाते हैं। दूसरे दो प्रमाण नं० ४, ५ टीकाकारों से किसी एकके प्रर्थ का अनुसरण करनेवालोंकी कोटिमें रक्खे जा सकते हैं । इस तरह ये चारों प्रमाग 'शकराज' का गलत अर्थ करनेवालों तथा गलत अर्थका अनुसरण करनेवालोंके भी हो सकनेमे इन्हें अर्थ करनेवालोंकी एक कोटिमें रखनके सिवाय निर्णयके क्षेत्रमें दूसरा कुछ भी महत्व नहीं दिया जा सकता और न निर्णयपर्यन्त इनका दूमरा कोई उपयोग ही किया जा सकता है। मुकाबलेमें ऐसे अनेक प्रमाण रक्खे जा सकते हैं जिनमें 'शकराज' शब्दका अर्थ शालिवाहन राजा मान कर ही प्रवृत्ति की गई है। उदाहरणके तौर पर पांचवें प्रमाणके मुकाबलेमें ज्योतिषरत्न पं. जियालालजी दि० जैनके सुप्रसिद्ध 'असली पंचाङ्ग' को रक्खा जा सकता है, जिसमें वीरनिर्वाण सं० २४६७ का स्पष्ट उल्लेख है-२६०४ की वहाँ कोई गंध भी नहीं है।
रहा शास्त्रीजीका पहला प्रमारण, उसकी शब्दरचना परसे यह स्पष्ट मालूम नही होता कि शास्त्रीजी उसके द्वारा क्या सिद्ध करना चाहते हैं । उल्लिखित संहिताशास्त्रका आपने कोई नाम भी नहीं दिया, न यह बतलाया कि वह किसका बना पा हुअा है और उसमें किस रूपसे विक्रम राजाका उल्लेख पाया है वह उल्लेख उदाहरणपरक है या विधिपरक, और क्या उममें ऐसा कोई आदेश है कि संकल्पमें विक्रम राजाका ही नाम लिया जाना चाहिये-शालिवाहनका नहीं, अथवा जैनियोंको संकल्पादि सभी अवसरों पर--जिसमें ग्रन्थरचना भी