________________ 31 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश राजवातिकके निम्न दो उल्लेखोंसे प्रकट है-- "अधः लोकमूले दिग्विदिक्षु विष्कम्भः सप्तरजवः, तिर्यग्लोके रज्जुरेका, ब्रह्मलोके पंच, पुनर्लोकाग्रे रज्जुरेका। मध्यलोकादधा रज्जुमवगाह्य शकेरान्ते अष्टास्वपि विविदितु विष्कम्भः रज्जुरेका रजिवाश्च षट् सप्तभागाः।" -(प्र० 1 सू० 20 टीका) "ततोऽसंख्यान वएडानपनोयासंख्येयमेकं भागं बुद्धया विरलीकृत्य एकैकस्मिन् पनाङ्गुलं दत्या परस्परेण गुणिता जगच्छे रणी सापरया जगछ एया अभ्यस्ता प्रतरलोकः / स एवापरया जगच्छ ण्या सवर्गितो घनलोकः / " -(प्र० 30 मू० 38 टीका) इनमें से प्रथम उल्लेम्व परमे लोक पाठो दिशामों में समान परिमाणको लिये हुए होने से गोल हुमा और उसका परिमाण भी उपमालोकके प्रमाणानुसार 343 घनराजु नहीं बैठना. जब कि वीरमेनका लोक चौकोर है. वह पूर्व-पश्चिम दिशामें ही उक्त क्रममे घटना है दक्षिण-उत्तर दिशामें नहीं--- इन दोनों दिशामों में वह सर्वत्र सान राजु बना रहना है / पोर इमलिये उसका परिमाण उपमालोकके अनुसार ही 343 घनगजु बैठना है और वह प्रमाग में पेश की हुई निम्न दो माथागोरमे, उक्त प्राकार के साथ भने प्रकार फलिन होता है: "मुहतलसमासश्रद्धं तुमसंघगुणं गुग्णं च बंधेगा / घगगणि जाणेमो वतासणसंठिए खेती / / मूलं मझेग गुगां मुहजहिदद्धमुम्मेधकदिगुणिदं / घणगणि जाणेमो मुइंगमंठाणवेशम्मि // 2 // " -धवला, क्षेत्रानुयोगद्वार पृ. 20) राजतिककं दूसरे उल्लेखपरमे उपमानोकका परिमाण 343 धनराजुको फलित होता है; क्योंकि अगश्रेणीका प्रमाण . रा है और ना धन 34 होता है। यह उपमालोक है परन्तु इस परमे पाप द्रव्योंके प्राधारभूत मोकका प्राकार माठों दिशामों में उक्त क्रममे घटना-बनता हमा 'गोल' फलित नहीं होता।