________________ तिलोयपरणती और यतिवृषभ "वीरसेनस्वामीके सामने राजवातिक मादिमें बसलाये गए प्राकारके विरुद्ध लोकके आकार को सिद्ध करने के लिए केवल उपयुक्त दो गाथाएं ही थीं। इन्हींके पाधारसे वे लोकके प्राकारको भिन्न प्रकारमे सिद्ध कर सके' सषा यह भी कहने में समर्थ हए कि 'जिन ग्रन्यों में लोकका प्रमाण पधोलोकके मूल में सातराजु, मध्यलोकके पास एक राजु, ब्रह्मस्वर्गके पास पांच राजु और लोकाग्रमें एक राजु बसलाया है वह वहां पूर्व और पश्चिम दिशाको अपेक्षासे बतलाया है / उत्तर और दक्षिण दिशाकी पोरसे नहीं। इन दोनों दिशामों की अपेक्षा तो लोकका प्रमाण सर्वत्र सात राजु है / यद्यपि इसका विधानस करणानुयोगके ग्रंथों में नहीं है तो भी वहा निषेध भो नहीं है प्रतः लोकको उत्तर और दक्षिण में सर्वत्र मान राजु मानना चाहिये। वर्तमान तिलोयपणतीमें निम्न तीन गाथाएँ भिन्न स्थलोंपर पाई जाती है, जो वीरसेनस्वामीक उम मनका अनुसरण करती है जिसे उन्होने 'मुइतलसमाम' इत्यादि गाथामी घोर युक्तिपरमे स्थिर किया है: ''जगढियणपमारगालायायासा स पंचद व्यरिती। एस प्रणतागंनलायायासम्म बहुमम || सयला एसय लाश्री णिम्पएणा सढिविंदमारणेगा / तिरियप्पा रणादवा हट्टिमज्झिम उभंगा // 15 // " संदिपमाणायामं भागेमु दक्विगुत्तरेमु पुढे / पुव्यावरेसु वामं भूमिमुहे सन एक्क पचेका // 146 / / " इन पांच गोंगे ठाम लोकाकाको जगश्रेणीके पनप्रमाण बतलाया है। माय हो, "कोकका प्रमाण दक्षिण-उतर दिशामें सर्वत्र जाश्रेणो जितना अर्थात् सात राहु और पूर्व-पश्चिमदिशामें प्रयोलोकके पाम मान राजु. मध्यलोकके पाम एक राजु ब्रह्म नोकके पास पांच राजु पौर लोकाप्र में एक राजु है" ऐसा + ण प तयाण गाहाग मह विरोहो, पत्य वि दोमु रिमामु चबिहविभन्मणादो / ' धवला, क्षेत्रानुयोगद्वार पृ. 21 / ण व सत्तरगहल्लं करणालियोगमुत्त-विरुवं, तत्य विधिपडिसेषाभावादो। -धवला, क्षेत्रानुयोगार पृ०.२२ /