SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 33
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भ० महावीर और उनका समय २३ रहना चाहिये था वहाँ प्राज सन्नाटासा छाया हुआ है, जैनियोंकी संख्या भी अंगुलियों पर गिनने लायक रह गई है और जो जैन कहे जाते हैं उनमें भी जैनत्वका प्राय: कोई स्पष्ट लक्षण दिखलाई नहीं पड़ता-कहीं भी दया, दम, त्याग और समाधिकी तत्परता नज़र नहीं आती -- लोगोंको महावीरके मंदेशकी ही खबर नहीं, और इसीसे संसारमें सर्वत्र दुःख ही दुःख फैला हुआ है । ऐसी हालत में अब खास जरूरत है कि इस तीर्थका उद्धार किया जाय. इसकी सब रुकावटों को दूर कर दिया जाय, इस पर खुले प्रकाश तथा खुली arat oraस्था की जाय, इसका फाटक सबके लिये हरवक्त खुला रहे, सबोंके लिये इस तीर्थ तक पहुँचनेका मार्ग सुगम किया जाय, इसके नटों तथा घाटोंकी मरम्मत कराई जाय, बन्द रहने तथा अ तक यथेष्ट व्यवहारमें न आनेके कारण तीर्थ- जल पर जो कुछ काई जम गई है अथवा उसमें कही कही शैवाल उत्पन्न हो गया है उसे निकाल कर दूर किया जाय और सर्वसाधारणको इस तीर्थ के महात्म्यका पूरा पूरा परिचय कराया जाय। ऐसा होने पर ग्रथवा इस रूपमें इस तीर्थका उद्धार किया जाने पर आप देखेंगे कि देश-देशान्तरके कितने बेशुमार यात्रियोंकी इस पर भीड़ रहती है, कितने विद्वान इस पर मुग्ध होते हैं, कितने असख्य प्राणी इसका प्राश्रय पाकर और इसमें अवगाहन करके अपने दुःख मनापोंमे छुटकारा पाते है और मंसार में कैसी मुख-शान्तिकी लहर व्याप्त होती है । स्वामी समन्तभद्रने अपने समयमे, जिसे आज १७०० वर्षसे भी ऊपर हो गये हैं, ऐसा ही किया है, और इसीसे कनडी भाषाके एक प्राचीन शिलालेख में यह उल्लेख मिलता है कि स्वामी समन्तभद्र भगवान महावीरके तीर्थकी हजारगुनी वृद्धि करते हुएउदयको प्राप्त हुए - प्रर्थात्, उन्होंने उसके प्रभावको सारे देश-देशान्तरों में व्याप्त कर दिया था । आज भी वैसा ही होना चाहिये । यही भगवान् महावीरकी सच्ची उपासना, सच्ची भक्ति और उनकी सवी जयन्ती मनाना होगा । * यह शिलालेख बेलूर ताल्लुकेका शिलालेख नम्बर १७ है, जो रामानुजाचार्य - मन्दिरके महाते के अन्दर मौम्यनाथकी- मन्दिरकी छतके एक पत्थर पर उत्कीर्ण है और शक संवत् १०५६ का लिखा हुआ है । देखो, एपिग्रेफिका कर्णाfarst free पाँचवीं, प्रथवा 'स्वामी समन्तभद्र' (इतिहास) पृष्ठ ४६ वाँ ।
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy