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२४६ जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश
और दूसरे समन्तभद्रका कोई स्पष्टीकरण न होनेसे ) सन्देहात्मक है, और इस लिये यह कहना चाहिये कि 'योगीन्द्र' पदके वाच्यरूपमें आप दूसरे किसी आचार्यका नाम अभी तक निर्धारित नहीं कर सके हैं। ऐसी हालतमें आपकी प्राशंका और कल्पना कुछ बलवती मालूम नहीं होती।
लेखके अन्तमें "समन्तभद्र नामके धारण करनेवाले विद्वान और भी अनेक हो गये हैं" ऐसा लिखकर उदाहरण के तौर पर अष्टसहस्रीकी विषमपद-नात्पर्य. वृत्तिके कर्ताका नाम सूचित किया है और बतलाया है कि वे म० म० सतीशचन्द्र विद्याभूषणके अनुसार ई० मन् १००० के लगभग हर हैं। हो सकता है कि ये 'विषमपद तात्पर्य-वत्ति' के कर्ता सनन्तभद्र ही प्रेमीजी की दृष्टिम उन दूसरे समन्तभद्रके रूपमें स्थित हों जिनके विषय में रत्नकरण्डके कर्ता हानेकी उपर्युक्त कल्पना की गई है । परन्तु एक तो इन्हें 'योगीन्द्र' सिद्ध नही किया गया, जिसमे उक्त पदमे प्रयुक्त योगीन्द्र' पदके साथ इनकी संगति कुछ ठीक बैठ सकती। दूसरे, इन विषमपद-तात्पर्यवृत्तिके कर्ता-विषयमे प्रेमीजी स्वयं ही प्रागे लिखते हैं
"नाम तो इनका भी ममन्नभद्र था; परन्तु स्वामी समन्तभद्रसे अपनेको पृथक् बतलानेके लिए इन्होंने पापको 'लघु विशेषण सहित लिखा है।'
अतः ये लघु ममन्तभद्र ही यदि रत्नकरण्डके कर्ता होते तो अपनी वृत्तिके अनुसार रत्नकरण्डमे भी स्वामी समन्तभद्रसे अपना पृथक् बोध करानेके लिए अपनेको 'लघुममन्तभद्र' के रूपमें ही उल्लेखित करते; परन्तु रत्नकरण्डके पद्यों, गद्यात्मक सन्धियों और टीका तकमें कही भी ग्रन्थके कर्तृत्वरूपसे 'लघुसमन्तभद्र' का नामोल्लेख नही है, तब उसके विषयमें लघुममन्तभद्र-कृत होनेकी कल्पना कैसे की जा सकती है ? नहीं की जा सकती:-खामकर ऐमी हालतमें जब कि
* देवं स्वामिनममलं विद्यानन्दं प्रणम्य निजभक्त्या ।
विवृणोम्यष्टमहस्री-विषमपदं लधुसमन्तभद्रोऽहम् ॥१॥ * इन लघुममन्तभद्रके • अलावा चिक्कस०, गेरुसोप्पे स०, अभिनव म०. भट्टारक स० और गृहस्थ म० नामके पाँच समन्तभद्रोंकी मैंने और खोज की थी और उसे पाजमे कोई २० वर्ष पहले मा० दि० जैन ग्रन्थमालामें प्रकाशित रत्नकरण्ड-श्रावकाचारकी अपनी प्रस्तावनामें प्रकट किया था और उसके द्वारा