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श्रुतावतार-कथा
कहीं गौतम और जम्बूस्वामीके मध्य लोहाचार्यका ही नाम दिया है; जैसा कि उसके 'भागविहत्ति' प्रकरणके निम्न प्रशसे प्रकट है :
“वि उलगिरिमत्थयत्थवड्ढमाण दिवायरादो विणिग्गमिय गोदम लोहज्ज जंबुसामियादि आइरिय परंपराए आगंतूण गुणहराइरियं पाविय.... ( आराकी प्रति पत्र ३१३ )
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जव धवला और जयधवला दोनों ग्रन्थोंके रचयिता वीरसेनाचार्यने एक ही व्यक्तिके लिये इन दो नामोंका स्वतन्त्रतापूर्वक उल्लेख किया है, तब वे दोनों एक ही व्यक्ति नामान्तर हैं ऐसा समझना चाहिये; परन्तु जहाँ तक मुझे मालूम है, इसका समर्थन अन्यत्र से अथवा किसी दूसरे पुष्ट प्रमाणसे अभी तक नहीं होता -- पूर्ववर्ती ग्रन्थ 'तिलोयपण्णत्ती' में भी 'सुधर्मस्वामी' नामका उल्लेख है । अस्तु; जयधवला परमे शेष कथाकी उपलब्धि निम्न प्रकार होती है:--
आचारांग धारी लोहाचार्य का स्वर्गवास होने पर सर्व अंगों तथा पूर्वोका जो एकदेशश्रुत आचार्य परम्परासे चला आया था वह गुणधराचार्यको प्राप्त हुआ । गुणधराचार्य उस समय पाँचवें ज्ञानप्रवाद-पूर्वस्थित दशम वस्तुके नीमरे 'कसायपाहुड' नामक ग्रन्थ-महार्णवके पारगामी थे। उन्होंने ग्रन्थ-व्युच्छेदके भयसे और प्रवचन - वात्सल्य से प्रेरित होकर, सोलह हजार पद - परिमाण उम 'पेज्जदोसपाहुड' ('कपायपाहुड) का १८०* सूत्र गाथानोंमें उपसंहार किया—सार स्वींचा | साथ ही, इन गाथाओं के सम्बन्ध तथा कुछ वृत्ति प्रादिकी सूचक ५३ विवरणगाथाएँ भी और रचीं, जिससे गाथानोंकी कुल संख्या २३३ हो गई । इसके बाद ये सूत्र - गाथाएँ आचार्य - परम्परासे चलकर प्रार्यमक्षु और नागहस्ती नामके प्राचार्योंको प्राप्त हुई । । इन दोनों प्राचार्योंके पाससे गुरणधराचार्यकी उक्त
* इन्द्रनन्दि- श्रुतावतारमे 'त्र्यधिकाशीत्या युक्तं शतं' पाठके द्वारा मूलसूत्रगाथाओं की संख्या १८३ सूचित की है, जो ठीक नहीं है और समझनेकी किसी गलतीपर निर्भर है । जयधवलामें १८० गाथाओं का खूब खुलासा किया गया है ।
+ इन्द्रनन्दि- श्रुतावतारमें लिखा है कि 'गुणधराचार्यने इन गाथासूत्रोंको रचकर स्वयं ही इनकी व्याख्या नागहस्ती और प्रार्यमक्षुको बतलाई ।' इससे ऐतिहासिक कथन में बहुत बड़ा अन्तर पड़ जाता है ।