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________________ 376 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश चरमसीमाको पहुँचा हुमा ही नहीं होता बल्कि दूसरे भोंकी प्रभाको भी अपने साथमें लिये हुए होता है। जैनतीर्थकर अहंद्गुणोंकी दृष्टि से प्राय: समान होते हैं, इसलिए व्यक्तित्वविशेषकी कुछ बातोंको छोड़कर महत्सदकी दृष्टिसे एक तीर्थकरके जो गुण अथवा विशेषरण हैं वे ही दूसरेके है-भले ही उनके साथमें उन विशेषणोंका प्रयोग न हुना हो या प्रयोगको अवसर न मिला हो / और इस तरह अन्तिम तीर्थकर श्रीवीरजिनेन्द्र में उन सभी गुणोंकी परिसमाप्ति एवं पूर्णता समझनी चाहिये जिनका अन्य वृषभादि तीर्थकरोंके स्तवनों में उल्लेख हमा प्रथवा प्रदर्शन किया गया है / और उनका शासनतीर्थ उन सब गुगणोंसे विशिष्ट है जो अन्य जैन तीर्थकरोंके शासनमें निर्दिष्ट हुए हैं / तीथंकर नामोंके सार्थक, मन्वयार्थक प्रथवा गुगगार्थक होनेमे एक तीर्थकर का जो नाम है यह दूमगेका विशेषगग अथवा गुरगार्थक पद हो जाता है और इसलिए उन्हें भी विशेषणपदोंमे मंगृहीत किया गया है। * इसी दृष्टिको लेकर द्विमंधानादि चतुर्विमतिमंधान-जैसे काव्य रचे गए है। चतुर्विशतिसंधानको पं० जगन्नाथने एक ही पद्यमे रचा है, जिममें 24 तीर्थंकरोंके नाम पा गए है, और एक-एक तीर्थ करकी अलग-अलग स्तुतिक रूपमें उसकी 24 व्याख्याएँ की गई है और 25 वी व्याख्या ममुच्चय-स्तुतिके रूपमें है ( देखो, वीरसेवामन्दिरमे प्रकाशित 'जैनग्रन्थप्रशस्तिसंग्रह पृ० 78 ) / हालमें 'पंचवटी' नामका एक ऐमा ही ग्रन्थ मुझे जयपुरसे उपलब्ध हुपा है जिसके प्रथम स्तुतिपद्य में 24 तीर्थंकरोंके नाम पा गए हैं और संस्कृत व्यास्पानमें उन नामोंके अर्थको वृषभजिनके सम्बन्धमें स्पष्ट करते हा अजितादिशेष तीर्थकरोंके सम्बन्धमें भी घटित करलेनेकी बात कही गई है। वह पद्य इस प्रकार है श्रीधर्मोवृषभोऽभिनन्दन परः पमप्रभः शीतलः गान्तिः संभव वामपूज्य अजितश्चन्द्रप्रभः सुव्रतः / श्रेयान् कुन्युरनंतवीर विमल: श्रीपुष्पदन्तो नमिः श्रीनेमिः सुमतिः सुपार्वजिनराट् पाश्वों मलिः पातु वः // 1 //
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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