________________ समन्तभद्रका स्वयम्भूस्तोत्र. 360 बने थे। उन्होंने समाधिचक्र से दुर्जय मोहचक्रको--मोहनीय कर्मके मूलोतरप्रकृति-प्रपंचको-जीता था और उसे जीतकर वे महान् उदयको प्राप्त हुए थे, पाहंन्त्यलक्ष्मीसे युक्त होकर देवों तथा असुरोंकी महती (समवरण ) सभामें सुशोभित हुए थे। उनके चक्रवर्ती राजा होने पर राजचक, मुनि होनेपर दयादीधिति-धर्मचक, पूज्य ( तीर्थ-प्रवर्तक ) होने पर देवचक्र प्राञ्जलि हुप्रा-- हाथ जोड़े खड़ा रहा प्रथवा स्वाधीन बना--और ध्यानोन्मुख होने पर कृतान्तचत्र-कर्मोका प्रवशिष्टममूह-नाशको प्राप्त हुआ था। (17) कुन्थु-जिन कुन्थ्वादि सकल प्राणियोंपर दयाके अनन्य विस्तारको लिये हए थे। उन्होंने पहले चक्रवर्ती राजा होकर पश्चात् धर्मचक्रप्रवर्तन किया था, जिसका लक्ष्य लोकि रूजनोंके ज्वर-जरा-मरणको उपशान्ति और उन्हें प्रात्म विभूति की प्राप्ति कराना था / वे विषय-सौख्यसे पराङ्मुख कैसे हुए, परमदुश्वर बाह्य तपका आचरण उन्होंने किम लिये किया, कोनसे ध्यानोंको अपनाया मोर कोनसी सानिमय अग्नि में अपने (घातिया) कर्मोंकी चार प्रकृतियोको भस्म करके वे शक्तिसम्पन्न हुए और सकल-वेद-विधिके प्रणेता बने, इन सब बातोंको इस स्तवनमें बतलाया गया है। साथ ही, यह भी बनलाया गया है कि लोकके जो पिनामहादिक प्रसिद्ध है वे आपकी विद्या. पौर विभूतिकी एक कणिकाको भी प्राप्त नहीं हुए है, और इसलिये प्रात्महितकी धुनमें लगे हुए श्रेष्ठ मुधीजन ( गणधरादिक ) उनअद्वितीय स्तुत्यकी स्तुति करते है। (18) प्रर-जिन चक्रवर्ती थे, मुमुक्ष होनेपर चक्रवर्तीका सारा साम्राज्य उनके लिये जीणेतृणके समान हो गया और इसलिए उन्होंने निःसार समझकर उसे त्याग दिया। उनके रूा-सौन्दर्यको देखकर द्विनेत्र इन्द्र तृप्त न हो सका और इसलिए ( विक्रियाऋद्धिसे ) महस्रनेत्र बन कर देखने लगा और बहुत ही विस्मयको प्राप्त हुमा / उन्होंने कराय-भटोंकी सेनासे सम्पन्न पापी मोहशत्रुको दृष्टि संविद् और उपेक्षारूप अस्त्रोंसे पराजित किया था और अपनी तृष्णानदीको विद्या नौकासे पार किया था। उनके सामने कामदेव लज्जित तथा हतप्रभ हुमा था और जगत्को रुलानेवाले अन्तकको अपना स्वेच्छ व्यवहार बन्द करना पड़ा था और इस तरह वह भी पराजित हुपा था। उनका रूप