________________ 338 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश (14) अल्पफल बहुविघातान्मूलकमाणि शृंगवेराणि / नवनीत-निम्बकुसुमं कैतकमित्येवमवहेयम् / / -रत्नकरण्ड०८५ "केतक्यर्जुनपुष्पानि श्रृंगवेर मूल कार्दानि बहुजन्तुयोनिस्थानान्यनन्तकायव्यपदेशार्हाणि परिहर्तव्यानि बहुधाताल्पफलत्वात् / " यहाँ 'बहुतघानाल्पफलत्वात्' पद 'अल्पफलबहुविघातात्' पदका शब्दानुसरणके साथ समानार्थक है 'परिहर्तव्यानि' पद 'हेयं' के प्राशयका लिए हुए है और 'बहजन्तुयोनिस्थानानि' जैसे दो पद स्पष्टीकरणके रूपमें है। (15) "यद निष्टं तद्ब्रयेचानुपसेव्यमेतदपि जह्यात / अभिसन्धिकृता विरतिर्विषयायोग्याव्रतं भवति // " -रत्नकरण्ड 86 "यानवाहनाभरणादिष्वेतावदेवेष्टमतोऽन्यदनिष्टमित्यनिष्टान्निवतन कर्तव्यं काल नियमेन यावज्जीव वा यथाशक्ति / " "तमभिमन्धिकृतो वियमः।" -सर्वार्थसि० प्र०७ सू० 21, 1 यहां यानवाहन' प्रादि पदोंके द्वारा 'अनिष्ट' की व्याख्या की गई है, गंप भोगोपभोगपरिमाणव्रतमें अनिष्ट के निवर्तनका कथन समन्तभद्रका अनुमरगा है। साथमें 'कालनियमेन' और 'यावरजीवं जमे पद ममन्तभद्रके 'नियम' पोर 'यम' के प्राशयको लिए हुए है, जिनका लक्षण रत्नकरण्ड 0 श्रा० के अगले पद्य (87) में ही दिया हुआ है / भौगोपभोगपरिमाणवतके प्रमगानुसार समनभद्रने उक्त पद्यके उत्तरार्ध में यह निर्देश किया था कि अयोग्य विषयसे ही नही किन्तु योग्य विषयसे भी जो 'पभिसन्धिकृता विरति' होती है वह वत कहलाती है। पूज्यपादने इस निर्देशने प्रसंगोपात 'विषयायोग्यात्' पदों को निकाल कर उसे प्रतके साधारण लक्षाके रूपमें ग्रहण किया है, और इसीसे उस लक्षणको प्रकृत अध्याय (नं०१) के प्रथम सूत्रकी व्याख्याने दिया है। (16) "श्राहारोपयोरप्युपकरणायासयोश्च दानेन / पैश्यावृत्यं अवते चतुरात्मस्येन चतुरखाः ।।'--रत्नकरड० 117 "स (अतिथिर्मविभागः) चतुर्विधः- भिक्षोपकरणोपधप्रतिश्रयभेदात् / " -सर्वार्षसिक प्र०७ सू० 21