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________________ 667 म्वामी पात्रकेसरी और विद्यानन्द दूसरी गाथा नं०२२६ (२२७)को टीकाके रूपमें रख दिया है !! इस विडम्बनासे ग्रन्थकारकी महामूर्खता पाई जाती है और इस कहने में जरा भी संकोच नहीं होता कि वह कोई पागल-सा सनकी मनुष्य था, उसे अपने घरकी कुछ भी समझ-बूझ नहीं थी पोर न इस बातका ही पता था कि ग्रंथरचना किसे कहते है। इस तरह सम्यक् वप्रकाश ग्रंथ एक बहुत ही प्राधुनिक नया अप्रामाणिक ग्रन्थ है। उसमें पात्रकेसरी तथा विद्यानन्दको जो एक व्यक्ति प्रकट किया गया है वह यों ही सुना-मनाया प्रथवा किसी दन्तकथाके प्राधार पर प्रवनम्बित है / मोर इसलिये उसे रंचमात्र भी कोई महत्त्व नहीं दिया जा सकता और न किसी प्रमागा में पेश ही किया जासकता है। खेद है कि डाक्टर के० बी० पाठकने बिना जांच-पडतालके ही ऐसे प्राधुनिक,प्रप्रामाणिक तथा नगण्य ग्रन्थको प्रमारणमें पेश करके लोकमें भारी भ्रमका सर्जन किया है !! यह उनकी उस भारी असावपानीका ज्वलन्त दृष्टान्त है, जो उनके पदको शोभा नहीं देता / वास्तवमै पाठकमहाशयके जिस एक भ्रमने बहुतमे भ्रमोंको जन्म दिया-बहुतोंको भूलके चक्करमें डाला, जो उनकी अनेक भूलोंका माधार-स्तम्भ है और जिसने उनके प्रकलं. कादि-विषयक दूसरे भी कितने ही निर्णयोंको सदोष बनाया है वह उनका म्वामी पात्रकमरी पोर विद्यानन्दको, बिना किसी गहरे अनुमन्धानके, एक मान लेना है। _मुझे यह देखकर दुःख होता है कि प्राज डाक्टर माहब इस समागमे मौजूद नही है / यदि होते तो वजार अपने भ्रमका सशोधन कर डालते और अपने निर्णयको बदल देते / मैंने अपने पूर्वलेखकी कापी उनके पास भिजवादी थी। सम्भवत: वह उन्हें उनकी रमणावस्थामे मिली यो पोर इमोसे उन्हें उस पर अपने विचार प्रकट करने का प्रवमर नही मिन सका था।
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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