________________
१६०
जैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश
प्रबल गरल ( विष ) के उद्र ेकको दलनेवाली और निरन्तर अनेकान्तरूप अमृत रसके सिंचनसे प्रवृद्ध तथा प्रमाण नयोंके अधीन प्रवृत्त हुई लिखा है । साथ ही, वह वारणी नाना प्रकारकी सिद्धिका विधान करे और सब प्रोरसे मंगल तथा कल्पारणको प्रदान करनेवाली होवे, इस प्रकारके आशीर्वाद भी दिये हैं ।
कार्या एव स्फुटमिह नियतः सर्वथा- कारणादेरित्याद्ये कान्तवादाद्धततरमतयः शांततामाश्रयन्ति । प्रायो यस्योपदेशादविघटितनयान्मानन्यादलंध्यान स्वामी जीयात्म शश्वत्प्रथिततरयतीशोऽकलंकी रुकीर्तिः ॥
अष्टमस्री इस पद्य में लिखा है कि 'वे स्वामी ( समंतभद्र ) मदा जयवंत रहें जो बहुत प्रसिद्ध मुनिराज हैं, जिनकी कीर्ति निर्दोष तथा विशाल है और जिनके नयप्रमाणमूलक अलभ्य उपदेशमे वे महाउद्धतमति एकान्तवादी भी प्राय: शान्तताको प्राप्त हो जाते हैं जो कारण कार्यादिका सर्वथा भेद ही नियत मानते है अथवा यह स्वीकार करते हैं कि वे कारण कार्यादिक सर्वथा अभिन्न ही हे - एक ही है ।
येनाशेपकुनीतिवृनिमरितः प्रेक्षावतां शापिताः यद्वाचोऽप्यकलंकनी तिरुचिरास्त्वार्थसार्थयतः । स श्रीस्वामिममन्तभद्रयतिभद्याविभुर्भानुमान
विद्यानंदघनप्रदोऽनवधियां स्याहारमार्गणीः || सहस्रके इस अन्तिम मंगलपद्यमें श्रीविद्यानन्द ग्रावायनं, मक्षंपमे, मन्द्र- aaee अपने जो उद्गार प्रकट किये हैं ने बड़े ही महत्व है। आप
+ अष्टमहत्रीके प्रारम्भ मे जो मंगल पद्य दिया है उसमे समन्तभद्रको 'श्री वर्द्धमान', 'उद्भूतबोध महिमान्' और 'अनिन्द्ययवाक्' विशेषांक साथ अभिवन्दन किया है । यथा
श्रीवर्द्धमाममभिवंद्यसमंतभद्रमुद्भूत बांधव हिमानमनिन्द्यवानम् ।
शास्त्रावताररचितस्तुनिगोचरासमीर्मासिनं कृतिरलं क्रियते मयाय ॥