________________ -wrwwwwwwwwwwww सन्मतिसूत्र और सिद्धसेन 553 गलतीका कारण 'श्रीवीरविक्रमात्' के स्थानपर 'श्रीवीरवत्सरात्' पाठान्तरका हो जाना सुझाया है / इस प्रकारके पाठान्तरका हो जाना कोई अस्वाभाविक अथवा असंभाव्य नहीं है किन्तु सहजसाध्य जान पड़ता है। इस सुझावके अनुसार यदि शुद्ध पाठ 'वीरविक्रमात्' हो तो मल्लवादीका समय वि० सं० 884 तक पहुँच जाता है और यह समय मल्लवादीके जीवनका प्राय: अन्तिम समय हो सकता है और तब मल्लवादीको हरिभद्रके प्राय: समकालीन कहना होगा; क्योंकि हरिभद्रने उक्त च वादिमुख्येन मल्लवादिना' जैसे शब्दोंके द्वारा अनेकान्तजयपताकाकी टीकामें मल्लवादीका स्पष्ट उल्लेख किया है। हरिभद्रका समय भी विक्रमकी हवी शताब्दीके तृतीय-चतुर्थ चरण तक पहुँचता है; क्योंकि वि० सं० 857 के लगभग बनी हुई भट्टजयन्तकी न्यायमञ्जरीका गम्भीरगजितारम्भ' नामका एक पद्य हरिभद्रके षडदर्शनसमुच्चयमें उद्धृत मिलता है, ऐमा न्यायाचार्य पं० महेन्द्रकुमारजीने न्यायकुमुदचन्द्रके द्वितीय भागकी प्रस्तावनामें उद्घोपित किया है / इसके सिवाय, हरिभद्रने स्वयं शास्त्रवार्तासमुच्चयके चतुर्थस्तवन में 'एतेनैव प्रतिक्षिप्तं यदुक्त सूक्ष्मबुद्धिना' इत्यादि वाक्यके द्वारा बौद्धाचार्य शान्तरक्षितके मतका उल्लेख किया है और स्वोपज्ञटीकामें 'सूक्ष्मबुद्धिना' का 'शान्तरक्षितेन' अर्थ देकर उसे स्पष्ट किया है / शान्तरक्षित धर्मोत्तर तथा विनीतदेवके भी प्रायः उत्तरवर्ती है और उनका समय राहलसांकृत्यायनने वादन्यायके परिशिष्टोंमें ई० सन् 840 ( वि० स० 867) तक बतलाया है / हरिभद्रको उनके समकालीन समझना चाहिये। इससे हरिभद्रका कथन उक्त समय में बाधक नहीं रहता और सब कथनोंकी सङ्गति टीक बैठ जाती है / हवी शताब्दीके द्वितीय चरण तकका समय तो मुनि जिनविजयजीने भी अपने हरिभद्रके समय-निर्णयवाले लेख में बतलाया है। क्योंकि विक्रमसंवत् 835 (शक सं० 700) में बनी हुई कुवलयमालामें उद्योतनसूरिने हरिभद्रको न्यायविद्या में अपना गुरु लिखा है / हरिभद्रके समय, संयतजीवन और उनके साहित्यिक कार्योंकी विशालताको देखते हुए उनकी प्रायुका अनुमान सौ वर्षके लगभग लगाया जा सकता है और वे मल्लवादीके समकालीन होनेके साथ-साथ कुवलयमालाकी रचनाके कितने ही वर्ष बाद तक जीवित रह सकते हैं।