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१२% जैमसाहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश पर सुधारा गया है, परन्तु सुधारका यह कार्य बादकी कृति होनेसे यह नहीं कहा जा सकता कि सूत्र और भाष्यमें उक्त प्रसंगति नहीं थी।
यहाँपर मैं इतना और भी बतला देना चाहता हूँ कि श्वेताम्बरीय पागमादि पुरातनग्रन्थोंमें भी साम्प्रायिक प्रास्रवके भेदोंका निर्देश इन्द्रिय, कषाय, अव्रत योग और क्रिया इस सूत्रनिर्दिष्ट क्रमसे पाया जाता है; जैसाकि उपाध्याय मुनि श्रीवात्मारामजी द्वारा 'तत्त्वार्थसूत्र-जैनागमसमन्वय' में उद्धृत स्थानांगसूत्र और नवतत्त्वप्रकरणके निम्न वाक्योंसे प्रकट है:
"पंचिंदिया पण्णत्ता 'चत्तारिकसाया पएणत्ता ..." पंचविरय पएणत्ता "पंचवीसा किरिया पण्णत्ता..."
-स्थानांग स्थान २, उद्देश्य १ सू० ६० (?) "इंदियकसायअव्वयजोगा पंच चउ पंच तिन्नि कमा।" किरियाओ पणवीसं इमाओ ताश्रो अणुकमसो ॥"
-नवतत्त्वप्रकरण इससे उक्त सुधार वैसे भी समुचित प्रतीत नहीं होता, वह आगमके विरुद्ध पडेगा। और इस तरह एक असंगतिमे बचने के लिये दूसरी असंगतिको आमन्त्रित करना होगा। (३) चौथे अध्यायका चौथा सूत्र इस प्रकार है
"इन्द्र-सामानिक-त्रायस्त्रिंश-पारिपद्याऽऽत्मरक्ष-लोकपाला-ऽनीकप्रकीर्णका-ऽऽभियोग्य-किल्विपिकाश्चैकशः ।"
इस सूत्रमें पूर्वसूत्रके निर्देशानुसार देवनिकायोंमें देवोंके दश भेदोंका उल्लेख किया है। परन्तु भाष्यमें 'तद्यथा' शब्दके माथ उन भेदोंको जो गिनाया है उसमें दशके स्थानपर निम्न प्रकारसे ग्यारह भेद दे दिये है:
"तद्यथा, इन्द्राः सामानिकाः त्रायस्त्रिंशा: पारिषद्याः आत्मरक्षाः लोकपाला: अनीकाधिपतयः अनीकानि प्रकीर्णकाः भाभियोग्याः किल्विपिकाश्चेति ।"
इस भाष्यमें 'अनीकाधिपतयः' नामका जो भेद दिया है वह सूत्रसंगत नहीं है। इसीसे सिद्धसेनगणी भी लिखते है कि