________________ 530 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश दुरापमाप्तं यदचिन्त्य-भूति-ज्ञान त्यया जन्म-जराऽन्तक / तेनाऽसि लोकानभिभूय सर्वान्सर्वज्ञ ! लोकोत्तमतामुपेतः।।५-२२।। इन पद्योंमें ज्ञान और दर्शनके जो भी त्रिकालवर्ती अनन्त विषय हैं उन सबको युगपत् जानते-देखने की बात कही गई है अर्थात् त्रिकालगत विश्वके सभी साकार-निराकार, व्यक्त-अव्यक्त, सूक्ष्म-स्थूल, दृष्ट-प्रदृष्ट, जात-अज्ञात, व्यवहितप्रव्यवहित प्रादि पदार्थ अपनी-अपनी अनेक-मनन्त प्रवस्थानों अथवा पर्यायोंसहित वीरभगवान्के युगपत् प्रत्यक्ष हैं, ऐमा प्रतिपादन किया गया है। यहां प्रयुक्त हुपा 'युगपत्' शब्द अपनी खास विशेषता रखता है और वह ज्ञान-दर्शनके योगपद्यका उसी प्रकार द्योतक है जिस प्रकार स्वामी समन्तभद्रप्रणीत पासमीमांसा ( देवागम )के तत्त्वज्ञानं प्रमाग ते युगपत्सवंभासनम्' (का० 101) इम वाक्यमें प्रयुक्त हुअा 'युगपन्' शब्द, जिसे ध्यान में लेकर पोर पादटिप्पणीम पूरी कारिकाको उद्धृत करते हुए प० मुखलालजीने ज्ञान बिन्दुके परिचयमे लिखा है-दिगम्बराचार्य ममन्तभद्र ने भी अपनी 'प्राप्तमीमामा में एकमात्र योगपद्यपक्षका उल्लेख किया है।' माथ ही, यह भी बताया है कि "भट्ट प्रकलङ्कन इम कारिकागत प्रपनी 'अष्टशनी' व्याख्या में योगपद्य पक्षका स्थापन करते हुए कमिक पक्षका, सक्षेपमं पर स्पटपमे, वण्डन किया है, जिसे पादटिप्पणी में निम्न प्रकारसे उधृत किया है: "तज्ज्ञान-दर्शनयोः क्रमवृत्ती हि सर्वज्ञत्वं कादाचित्कं म्यान / कुन. स्तत्सिद्धिरिति चन सामान्य-विशेष-विपययाविंगतावरगायोरयुगपत्प्रनिभासायोगान प्रतिवन्धकान्तराऽभावान / ' ऐसी हालतमें इन नीन द्वात्रिगिकामोके कर्ता वे सिद्धमेन प्रनीत नहीं होने जो सन्मतिमूत्रके कर्ता और प्रभेदवादके प्रस्थापक प्रयवा पुरस्कर्ता है, बल्कि ये सिद्धमेन जान पड़ते है जो केवलोके जान और दर्शनका युगपत् होना मानते थे। ऐसे एक युगपद्वादी मिड मेनका उल्लेख विक्रमकी ८त्री.वी शताब्दीके विद्वान् प्राचार्य हरिभद्रने अपनी 'नन्दीवृत्ति' में किया है / नन्दीवृत्तिमें 'केई भगानि जुगवं जाणइ पासइ य केवली नियमा' इत्यादि दो गाथामोको उद्धृत करके. जो कि जिन भद्रक्षमाश्रमणके विशेषणवती' प्रत्यकी है, उनकी व्याख्या करते हुए लिखा है