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________________ ७८ जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश पंचममपि यामं ज्ञातु पालयितुच क्षमाः । यदुक्त-"नो अपरिग्गहिआए, इत्थीएं जेण होइ परिभोगो । ता तबिरईए च्चिन, प्रबंभविरइत्ति पवणाणं ॥१॥ इति तदपेक्षया श्रीपार्श्वस्वामिना चतुर्यामो धर्म उक्तः पूर्वपश्चिमास्तु नेहशा इति श्रीऋषभश्रीवीरस्वामिम्यां पंचव्रतः । तदेवं विचित्रप्रज्ञविनेयानुग्रहाय धर्मस्य द्वविध्यं न तु तात्त्विकं । प्राद्यजिनकथनं चेह प्रसंगादिति सूत्रपंचकार्थः ।।२७॥ इस संवादकी २६वीं और २७वीं गाथामें शासनभेदका जो कारण बतलाया गया है-भेदमें कारणीभूत तत्तत्कालीन शिष्योंकी जिस परिस्थितिविशेषका उल्लेख किया गया है-वह सब वही है जो मूलाचारादि दिगम्बर ग्रन्थोंमें वरिणत है। बाकी, पार्श्वनाथके 'चतुर्याम' धर्मका जो यहाँ उल्लेख किया गया है उसका प्राशय यदि वही है जो टीकाकारने अहिंसादि चार व्रतरूप बतलाया है, तो वह दिगम्बर सम्प्रदायके कथनसे कुछ भिन्न जान पड़ता है। हो सकता है कि पंच प्रकारके चारित्रमेंसे छेदोपस्थापनाको निकाल देनेसे जो शेष चार प्रकारका चारित्र रहता है उसीसे उसका अभिप्राय रहा हो और बादको आगमाविहित चारित्र-भेदोंके स्थानपर व्रत-भेदोंकी कल्पना कर ली गई हो। (३) 'प्रज्ञापनासूत्र' की मलयगिरि-टीकामें भी तीर्थकरोंके शासन भेदका कुछ उल्लेख मिलता है । यथा: "यद्यपि सर्वमपि चारित्रमविशेषतः सामायिक तथापि छेदादिविशेविशिष्यमारणमर्थतः शब्दान्तरतश्च नानात्वं भजते, प्रथमं पुनरविशेषणात् सामान्यशब्द एवावतिष्ठते सामायिकमिति तच्च द्विधा-इत्वर यावत्कथिकं च, तन्वरं भरतरावतेषु प्रथमपश्चिमतीर्थकरतीर्थप्वानारोपितमहाव्रतस्य शक्षकस्य विज्ञेयं, यावत्कथिकं च प्रव्रज्याप्रतिपत्तिकालादारभ्याप्राणोपरमात्, तच्च भरतरावतभाविमध्यद्वाविंशतितीर्थकरतीर्थान्तरगतानां विदेहतीर्थकरतीर्थान्तरगतानां च साधूनामवसेयं तेषामुपस्थापनाया प्रभावात् । उक्त च सव्वमिणं सामाइय छयाइविसेसियं पुण विभिन्नं । अविसेसं सामाइय ठियमिय सामन्नसन्नाए ॥शा सावजजोगविरद त्ति तत्थ सामाइयं दुहा तं च । इत्तरमावकहं ति य पढमंतिमजिणाणं ॥२॥
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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