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स्वामी समन्तभद्र
१६७ समन्तभद्रके हृदय - मन्दिरमें सरस्वती देवी बिना किसी रोक-टोकके पूरी आज़ादीके साथ विचरती थी और इसलिये समन्तभद्र असाधारण विद्याके धनी थे और उनमें कवित्व वाग्मित्वादि शक्तियाँ उच्च कोटिके विकाशको प्राप्त हुई थीं, यह स्वत: ही स्पष्ट हो जाता है। साथ ही यह भी प्रकट करते हैं कि उनके वचनरूपी वज्रके निपातसे प्रतिपक्षी सिद्धान्तरूपी पर्वतोंकी चोटियाँ खंड खंड हो गई थीं - अर्थात् समन्तभद्रके आगे, बड़े बड़े प्रतिपक्षी सिद्धान्तोंका प्राय: कुछ भी गौरव नहीं रहा था और न उनके प्रतिपादक प्रतिवादीजन ऊँचा मुँह करके ही सामने खड़े हो सकते थे
सरस्वतीस्वैरविहारभूमयः समन्तभद्रप्रमुखा मुनीश्वराः । जयन्ति वाग्वनिपातपाटितप्रतीपराद्धान्तमहीध्रकोटयः ||
(e) श्रवणबेलगोलके शिलालेख नं० १०८ में, जो सं० १३५५ का लिखा हुआ है और जिसका नया नम्बर २५८ है, मंगराजकवि सूचित करते हैं कि समम्नभद्र बलाकपिच्छके बाद ' जिनशासन के प्रणेता' हुए हैं, वे 'भद्रमूर्ति ' थे और उनके वचनरूपी वज्रके कठोर पानसे प्रतिवादीरूपी पर्वत चूर चूर हो गये थे – कोई प्रतिवादी उनके सामने नहीं ठरहरता था -
समन्तभद्रोऽजनि भद्रमूर्तिस्ततः प्रणेता जिनशासनस्य । यदीयवाग्वज्रकठोरपातश्चूर्णीचकार प्रतिवादिशैलान् ॥
(१८) समन्तभद्रके सामने प्रतिवादियोंकी - कुवादियोंकी - क्या हालत होती थी, और वे कैसे नम्र अथवा विषण्णवदन और किंकर्तव्यविमूढ बन जाते थे, इसका कुछ आभास अलंकार - चिन्तामणिमें उद्धृत किये हुए निम्न दो पुरातन पद्योंसे मिलता है
कुवादिनः स्वकान्तानां निकटे परुषोक्तयः । समन्तभद्रयत्य पाहि पाहीति सूक्तयः ।। ४-३१५ श्रीमत्समन्तभद्राख्ये महावादिनि चागते । कुवादिनोऽलिखन्भूमिमं गुष्ठैरा नताननाः ।। ५- १५६
पहले पद्यसे यह सूचित होता है कि कुवादिजन अपनी स्त्रियोंके निकट तो कठोर भाषण किया करते थे- उन्हें अपनी गर्वोक्तियाँ सुनाते थे परन्तु जब