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________________ आर्य और म्लेच्छ mutam parammarn... -m m -arunama मर्थात्-उच्चगोत्रके उदयादिक कारणसे प्रायं होते हैं और जो नीचगोत्रके उदय मादिको लिये हुए होते हैं उन्हें म्लेच्छ समझना चाहिये। यह परिभाषा भी मार्यम्लेच्छकी कोई व्यावर्तक नहीं है। क्योंकि उच्चनीचगोत्रका उदय तो पतिसूक्ष्म है-वह प्रस्थोंके ज्ञानगोचर नहीं, उसके माधारपर कोई व्यवहार चल नहीं सकता-पोर 'मादि' शब्दका कोई वाच्य बतलाया नहीं गया, जिसमे दूसरे व्यावतंक कारणोंका कुछ बोध हो सकता। शेष रही मार्योकी बात, पायमात्रका कोई खास व्यावतंक लक्षण भी इन ग्रन्थों में नहीं है-पार्योंके ऋद्धिप्राप्त अनृद्धिप्रास ऐसे दो भेद करके ऋद्धिप्राप्तोंके मान नथा पाठ और भनृद्धि प्राप्तोंके क्षेत्रायं, जान्यायं, कर्माय, चारित्रार्य, दर्शनार्य ऐसे पांच भेद किये गये है। राजवातिकमें इन भेदोंका कुछ विस्तारके साथ वर्णन जरूर दिया है। परन्तु क्षेत्रायं तथा जात्यायंके विषयको बहुत कुछ गोल. मोल कर दिया है-"क्षेत्रायो: काशीकौशलादिषु जाताः / इक्ष्वाकुजातिभाजादिकुलए जाना जात्यायोः" इतना ही लिखकर छोड़ दिया है ! मोर कर्मायके मावद्य कर्माय. प्रल्यमावद्यकार्य, अमावद्यकर्यि मे तीन भेद करके उनका जो स्वर दिया है, उसमें दोनोंकी पहचानमें उस प्रकारकी वह सब गडवर प्रायः ज्याको त्यो उपस्थित हो जाती है, जो उक्त भाष्य तथा प्रजापनामूत्रके कथनपर में उत्पन्न होती है। जब अमि, मपि, कृषि, विद्या, गिल्प और वापिगमम भाजीविका करनेवाले, श्रावकका कोई व्रत धारण करनेवाले और मुनि होनेवाले (प्लेच्छ भी मुनि हो सकते है ) सभी 'प्रायं' होते है तब सक-यवनादिकको म्लेच्छ कहने पर काफी भापति खड़ी होजाती है भोर मार्यम्नेस्यकी ठीक व्यावति होने नही पाती। हाँ, सर्वार्थ मिद्धि तथा राजवातिकमें गुणगुणवद्भिर्वा अर्यन्त इत्यार्याः' ऐसी मायंकी निक्ति मोर दी है और राजवातिको पर्यन्ते' का अर्थ 'सेव्यन्ते' भी दिया है। यद्यपि यह मायं शब्दकी निरुक्ति है-लक्षण नहीं / फिर भी इसके द्वारा इतना प्रकट किया गया है कि जो गुणोंके द्वारा तथा युरिणयोंके देखो, जयपवलाका वह प्रमाण जो भगवान महावीर मौर उनका समय' शीपंक निबन्धके 8 22 परके फुटनोटमें दिया गया है।
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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