________________ सन्मतिसूत्र और सिद्धसेन में सिद्धसेनकी निश्चित कृति प्रथवा उसके उद्धृत वाक्योंके साथ जरूर उल्ले. खिन मिलता-प्रभावकचरितसे पहले के किसी भी ग्रंथमें इसका उल्लेख नहीं है और यह कि कल्यागामन्दिरको मिद्धमेनकी कृति सिद्ध करनेके लिये कोई निश्चित प्रमाण नही है.-~-वह मन्देहास्पद है।' ऐमी हालनमें कल्याणमन्दिरको बानको यहां छोड़ ही दिया जाता है। प्रकृत-विषयके निर्णयमें वह कोई विशेष माधक-बाधक भी नहीं है। प्रब रही दात्रिशददातिपिका, मन्मतिमूत्र और न्यायावतारकी बात / न्यायावतार एक 32 श्लोकोका प्रमागगनयविषयक लघग्रन्थ है, जिसके मादिग्रन्नमें कोई मंगलाचरण तथा प्रगम्ति नहीं है, जो आमतौरपर स्वेताम्बगनायं सिद्ध मेनदिवाकरको कृति माना जाता है और जिमपर व. सिद्धपि (मं० 662) की विनि पोर उम विवृतिपर दवभद्रकी टिप्पणी उपलब्ध है और ये दोनों टीकाएँ रास पोलवैद्यके द्वारा सम्पादित होकर मन 1928 में प्रकाशित हो चुकी है। मामनिमूत्र का परिचय कर दिया ही जानुका है। उमगर अभयदेवमूरिकी .' हजार इनोक-परिमागा जो मस्कृतटीका है. वह उन दोनों विद्वानोके द्वाग ममादित होकर मवन् 198: में प्रकाशित हो चुकी है। द्वात्रिंशद्वाविगिका 1.32 पोको 32 कनिया बननाई जारी है, जिनमे मे 21 उपलब्ध है। उपनन्ध द्वात्रिशिका भावनगरकी जनधमंप्रमारक मभाकी तरफमे विक्रम मंवत् 1965 में प्रकाशित हो चुमी है। ये जिम क्रम में प्रकाशित हुई है उमी क्रममे निमित हुई हो या उन्हें देखने में मादम नहीं होता-वे बादको किमी लेखक प्रथया पाटक-द्वारा उम क्रममे मद की प्रथवा कगई गई जान परती है। इस बातको सम्बलालजी पादिने भी प्रस्तावनामें व्यन किया है / माथ ही यह बसनाया है कि ये मभीविकिमि मेनने नदीक्षा स्वीकार करने के पीछे ही रवीमा नहीं कहा जा मकना, इनमेमे कितनी हीद त्रि. शिका (बत्तीमिया) उनके पूर्वाधम में भी रची हुई हो सकती हैं। और यह टकहै. परन्तु ये मभी द्वाविशिका नही मिद मेनकी रची हुई हों ऐमा भी नहीं कहा जा सकता मनाचे 21 वी द्वाधिशका विषयमें पं० मस्खलालजी पादिने प्रस्तावनामें यह स्पप स्वीकार भी किया है कि 'उसकी भाषारचना पौर वरिणत वस्तुको दूसरी बत्तीसियोंके माथ तुलना करने पर ऐसा मालूम