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________________ जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश लिखा है कि वीरकी द्वात्रिंशद्वात्रिशिका स्तुतिमें जब कोई चमत्कार देखनमें नहीं पाया तब यह पाश्र्धनाथद्वात्रिशिका रची गई है, जिसके ११वें पचसे नहीं किन्तु प्रथम पद्यसे ही चमत्कारका प्रारम्भ हो गया / ऐसी स्थितिमें पाश्वं. नाथद्वात्रिशिकाके रूप में जो कल्याणमन्दिरस्तोत्र रचा गया वह 32 पद्यों का कोई दुमरा ही होना चाहिगे, न कि वर्तमान कल्याणमन्दिरस्तोत्र, जिसकी रचना 44 पद्योंमें हुई है और इससे दोनो कुमुदचन्द्र भी भिन्न होने चाहिये। इसके मिवाय वर्तमान कल्याणामन्दिरम्तोत्रमे 'प्राग्भाग्मभृतनमामि रजामि रोपात्' इत्यादि तीन पद्य ऐसे हैं जो पाश्र्वनाथको देयकृत उपसगंसे युन प्रकट करते है, जो दिगम्बर-मान्यता अनुकून पोर म्वताम्बर मान्यताके प्रति. कूल है; क्योंकि श्वेताम्बरीय प्राचागग-नियुक्तिम वदमानको छोडकर शेष .: तीर्थक गेंके तप:कर्मको निम्पमग वग्गिन किया है / इममें भी प्रस्नुन बन्याणमन्दिर दिगम्बर कृति होनी चाहिये। प्रमुम्ब श्वेताम्बर विद्वान् प. मुखलालजी पोर प. बदामजीने ग्रन्थको गुजराती प्रस्तावना विविधनीयकम्पको छोटकर गांव प्रबन्धोंका मिन विषयक मार बहाई धमके माय दिया है और उमकिना हो परम्पर विराधी तथा मौलिक मतभेडको बानाका भी उल्लम्ब किया है, और माथ ही यह निएकप निकाला है कि सिद्धमेन दिवाकरका नाम पूनम कुमुदचन्द्र नहीं था, होताना दिवाकर-विशेषणकी तरह यह अतिप्रिय नाम भी किसी-न-... प्राचीन ग्रथ "इत्यादिश्री वीरद्वात्रिगात्रिशिका कृता / पर तम्मानाहक्ष चमत्कारमना लोक्य पश्चात् श्रीगश्वनाथद्वाविगिकामभिमन कल्याणमन्दिरस्तव वर्ष प्रयमश्लोके एव प्रासादस्थितान् शिबिगियापादिव लगाद धूमतिदनिष्टत / " नाटनकी हेम चन्द्राचार्य प्रथावली में प्रकाशित प्रबन्धकोग। + "सब्वेसि तवो कम्म निरुवमग वाभिमाय जिगणाग / नवरं तु वड्माणस्म मोवमग मुरणेयम्व / / 276 // * यह प्रस्तावना मन्पके गुजराती अनुवाद-भावार्थक माप सन् १९३०म प्रकाशित हुई है और ग्रंथका यह गुजराती सस्करण बादको पजीमे पनुवालि होकर 'सन्मतितकं' के नामसे सन् 1936 में प्रकाशित हुपा है।
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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