________________ 518 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश होता है कि वह बत्तीसी किसी जुरे ही मिद्ध सेनकी कृति है और चाहे जिस कारणसे दिवाकर (सिद्ध सेन) की मानी जानेवाली कृतियोंमें दाखिल होकर दिवाकरके नामपर चढ़ गई है।' इसे महावीरद्वात्रिशिका लिखा है-महावीर नामका इसमें उल्लेख भी है; जबकि और किसी द्वात्रिमिकामें 'महावीर' नामका उल्लेख नहीं है-प्राय: 'वीर' या 'वईमान' नामका ही उल्लेख पाया जाता है। इसकी पद्यसंख्या 33 है पोर 33 पद्यमें स्तुतिका माहात्म्य दिया हमा है; ये दोनों बातें दूसरी सभी द्वात्रिशिकायोंमे विलक्षण हे पोर उनमें इसके भिन्नकर्तृत्वको द्योतक है / इमपर टीका भी उपलब्ध है जब कि पोर किमी द्वात्रिशिकापर कोई टीका उपलब्ध नहीं है / चन्द्रप्रभमूरिने प्रभावकचरितम न्यायाबनारकी, जिमपर टीका उपलब्ध है. गगणना भी 32 द्वात्रिगिकामोमे की है एमा कहा जाता है; परन्तु प्रभावकरितमे वंमा कोई उल्लेख नहीं मिलता पोरन उमका समर्थन पूर्ववर्ती तया उनम्वर्ती प्रन्य किमी प्रबन्ध हो होना है। टीका कारोंने भी उसके द्वात्रिमदत्रिविकाका प्रग होने की कोई बात चित नहीं की. मोर इलिये न्यायावतार एक स्वतंय ही प्रय होना चाहिये नया मी माम प्रमिटिको भी प्राप्त है। २१वी द्वात्रिशिकाके अन्त में मिद्धमेन नाम भी लगा हपा है. जक वा द्वात्रिमिकाको छोडकर और किसी द्वाविधिकाम वह नही पाया जाता रहा सकता है कि ये नामवाली दाना द्वात्रियिका पपने ग्यापार में एक नहीं किया दो अलग अलग मिद्धमेनीस मानन्ध रखनी हो पोर शेर बिना नामवाली हात्रि शिकाएं इनमे भिन्न मरे ही मिद्धमेन प्रथवा मिद मेनोंकी कृतिय हो / मुखलालजी और पं. बनारदामजीने पहली पाच द्वाबिभिकानाको, जो न / भगवानको म्नुतिपरक है, एक ग्रप ( ममुदाय में रखा है पोर उम पूर (मात्र (r) यह द्वात्रिशिका अलग ही है ऐमा ताडपत्रीय प्रतिमे भी जाना 'जाता है, जिसमें 20 ही द्वात्रिशिकार किन है और उनके अनमें "प्रथा 80 मंगलमस्तु ' लिखा है, जो ग्रन्थको समाप्ति के माय उसकी इलोकमम्याका भी घोतक है। जैनग्रन्यावली (पृ. 281) में उल्लेखित तापत्रीयप्रतिमें भी / द्वात्रिशिकाएं हैं।