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________________ परि०२-अहरसम्बोधन-पदावली चरणों में 20-20 मात्राएं होती है उसे 'पार्यामीति' प्रषवा 'स्कन्धका वृत्त कहते है। गण-लक्षण-पाठगणोंमेंसे जिसके प्रादिमें गुरु वह 'भगण,' जिमके मध्यमें गुरु वह 'जगरण', जिसके अन्तमें गुरु वह 'सगरण,' जिसके मादिमें लघु वह 'यगरण', जिसके मध्यमें लघु वह 'रगण, जिसके अन्तमें लघु वह 'तगण' जिसके तीनों वर्ण गुरु वह 'मगरण' पौर जिसके तीनों वर्ण लघ वह 'नगण' कहलाता है / लघु एकमात्रिक और गुरु द्विमात्रिक होता है / 3. अर्हत्सम्बोधन पदावली म्वामी ममन्तभटने अपने स्वयम्भूस्तोत्रमें तीर्थङ्कर महन्तोंके लिये जिन विशेषणादोंका प्रयोग किया है उनका एक संग्रह स्तवन-क्रममे 'समन्न भद्रका म्वयम्भस्तोत्र' नामक निबन्ध (२१)में दिया गया है पोर उमके देने में यह दृष्टि व्यक्त की गई है कि उसमे अहंम्वरूपपर अच्छा प्रकाश पडता है और वह नय. विवक्षाके माथ प्रथंपर दृष्टि रम्बने हुए उन(विशेषणपदों)का पाठ करनेपर सहज ही प्रवगत हो जाता है / यहाँपर उन मम्बोधन-पदोका स्तोत्र-क्रमस एकत्र संग्रह दिया जाता है जिनमे स्वामीजी अपने इष्ट प्रहन्तदवों को पुकारते थे और जिन्हें म्वामीजीने अपने स्वयम्भू,देवागम, युक्त्यनृगासन पोर स्तुनिविद्या नामके चार उपलब्ध स्तोत्रोंमें प्रयुक्त किया है / इम्मे भी ग्रह नम्वरूपपर अच्छा प्रकाश पड़ता है और यह नय-विवक्षाके माथ प्रथंपर दृष्टि रखते हुए पाठ करनेपर और भी मामने प्राजाता है / माथ ही,इममे पाठकोंको ममन्नभद्रको चितवत्ति और रचनाचातुरीका कितना ही नया एवं विशेष अनुभव भी प्राप्त हो मकेगा / स्तुतिविद्याके अधिकांश सम्बोधनपद तो बड़े ही विचित्र, अनूटे,गम्भीर तथा प्रथंगौरवको लिये हुए जान पड़ते है और वे सब मंस्कृत भाषापर समन्तभद्रके एकाधिपत्यके सूचक है। उनके प्रथंका कितना ही प्राभास पाठकोंको स्तुतिविधाके उस अनुगद परमे हो सकेगा जो वीरसेवा-मन्दिरसे प्रकाशित हुपा है। शेष सम्बोधनपदों का प्रचं सहज ही बोधगम्य है। एक स्तोत्र में जो सम्बोधनपद एकसे अधिक बार प्रयुक्त हुए हरें उस स्तोत्रमें प्रथम प्रयोगके स्थानपर ही पचाके साथ ग्रहण
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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