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स्वामी समन्तभद्र
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नामोंका भी प्रायः ऐसा ही हाल है; कोई कोई विद्वान् कई कई प्राचार्यो के भी शिष्य हुए हैं और उन्होंने अपनेको चाहे जहाँ चाहे जिस प्राचार्यका शिष्य सूचित किया है; एक संघ अथवा गच्छके किसी अच्छे प्राचार्यको दूसरे संघ अथवा गच्छने भी अपनाया है और उसे अपने ही संघ तथा गच्छका प्राचार्य सूचित किया है; इसी तरहपर कोई कोई श्राचार्य अनेक मठोंके अधिपति प्रथवा अनेक स्थानोंकी गद्दियोंके स्वामी भी हुए हैं और इससे उनके कई कई पट्टशिष्य हो गये हैं, जिनमें से प्रत्येकने उन्हें अपना ही पट्टगुरु सूचित किया है । इस प्रकार की हालतोंमे किसीके असली नाम और असली कामका पता चलाना कितनी टेढी खीर है, और एक ऐतिहासिक विद्वानके लिये यथार्थ वस्तु वस्तुस्थितिका निर्णय करने अथवा किसी खास घटना या उल्लेखको किसी खास व्यक्ति के साथ संयोजित करने में कितनी अधिक उलझनों तथा कठिनाइयोंका सामना करना पडता है, इसका अच्छा अनुभव वे ही विद्वान् कर सकते हैं जिन्हें ऐतिहासिक क्षेत्रमें कुछ अर्सेनिक काम करनेका अवसर मिला हो । अस्तु ।
rry साधनसामग्री के बिना ही इन सब अथवा इसी प्रकारकी और भी बहुतसी दिक्कतो, उलभनो और कठिनाइयोंमेंसे गुज़रते हुए, मैंने आजतक स्वामी समन्तभद्रके विषय मे जो कुछ अनुसंधान किया है- जो कुछ उनकी कृतियों, दूसरे विद्वानोंके ग्रन्थोमे उनके विपयके उल्लेखवाक्यों और शिलालेखों आदि परसे में मालूम कर सका हूँ - श्रथवा जिसका मुझे अनुभव हुआ है उस सब इतिवृत्तको अब संकलित करके, और अधिक साधन सामग्री के मिलनेकी प्रतीक्षा में न रहकर, प्रकाशित कर देना ही उचित मालूम होता है, और इसलिये नीचे उमीका प्रयत्न किया जाता है ।
पितृकुल और गुरुकुल
स्वामी समन्तभद्रके बाल्यकालका अथवा उनके गृहस्थ जीवनका प्राय: कुछ भी पता नहीं चलता और न यह मालूम होता है कि उनके माता पिताका क्या नाम था । हाँ, आपके 'आतमीमांसा' ग्रन्थकी एक प्राचीन प्रति ताड़पत्रों पर लिखी हुई श्रवणबेलगोलके दौर्बलि-जिनदास शास्त्रीके भंडारमें पाई जाती है उसके अन्त में लिखा है