________________ * 18 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश इन्द्रनन्दि श्रुतावतारके कुछ गलत तथा भ्रान्त उल्लेखोंपरसे बनी हई पौर श्रीधर-श्रुतावतारके उसमे भी अधिक गलत एवं मापत्तिके योग्य उल्लेखोंपरसे पुष्ट हुई कुछ विद्वानोंकी गलत धारणाको स्पष्ट करते हुए, मैने सुहृवर पं० नाथूरामजी प्रेमीको उन युक्तियोंपर विचार किया था जिनके प्राधारपर वे कुन्दकुन्दको यतिवृषभके बादका विद्वान् बतलाते हैं। उनमेंसे एक युक्ति तो इन्द्रनन्दि-श्रुतावतारपर ही अपना प्राधार रखती है। दूसरी प्रवचनसारकी 'एस सुरासुर' नामकी प्राद्य मंगल-गाथामे सम्बन्धित है, जो तियोयपण्णात्तीके अन्तिम अधिकार में भी पाई जाती है और जिसे प्रेमीजीने तिलोयपण्णत्तीपरमे ही प्रवचनसारमें लीगई लिखा था, और तीसरी कुन्दकुन्दके नियममारकी निम्न गाथासे सम्बन्ध रखती है, जिसमें प्रयुक्त हुए 'लायविभागेम' पदमें प्रेमीजी सर्वनन्दीके 'लोकविभाग' ग्रन्थका उल्लेख समझते है और चूंकि उसकी रचना शक सं० 380 में हुई है प्रतः कुन्दकुन्दाचार्यको शक सं० 380 (वि० सं० 515) के बादका विद्वान् ठहराते हैं च उनसभेदा भणिदा तेरिच्छा मुरगणा च उभेदा / एदेसि वित्थारं लोयविभागेसु णादव्यं // 17 // _ 'एम मुरासुर' नामकी गाथाको कुन्दकुन्दकी सिद्ध करने के लिये मैने जो युक्तियां दी थी उनपरसे प्रेमी जीका विचार अपनी दूसरी युक्तिके सम्बन्धमे तो बदल गया है, ऐसा उनके 'जनसाहित्य और इतिहास' नामक ग्रन्थ के प्रथम लेख 'लोकविभाग प्रोर तिनीयपमानि' परम जाना जाता है। उसमें उन्होंने उक्त गाथाको स्थितिको प्रवचनमारमें मुदृढ स्वीकार किया है, उसके प्रभाव में प्रवचनसारको दूसरी गाथा 'सेमे पुरण तित्ययरे' को लटकती हुई माना है और तिलोयपण्ण तीके अन्तिम प्रधिकारके अन्त में पाई जानेवाली कुन्युनाथमे वर्द्धमानत की स्तुति-विषयक 8 गाथानोंके सम्बन्ध में, जिनमें उक्त गाथा भी शामिल है, लिखा है कि-"बहुत संभव है कि ये सब गाथाएँ मूलग्रन्थकी न हों, पीछेसे किसीने जोड़ दी हों और उनमें प्रवचनमारकी उक्त गाथा प्रा गई हो।' दूसरी युक्तिके संबन्धमें मैंने यह बतलाया था कि इन्द्रनन्दि- तावतारके