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________________ स्वामी समन्तभद्र १६३ इन पद्यों में, 'पार्श्वनाथचरितको शक सं० ६४७ में बनाकर समाप्त करनेवाले श्रीवादिराजसूरि, समंतभद्रके 'देवागम' और 'रत्नकरंडक' नामके दो प्रवचनों ( ग्रन्थों ) का उल्लेख करते हुए, लिखने है कि 'उन स्वामी ( समंतभद्र ) का चरित्र किसके लिये विस्मयावह ( श्राश्चर्यजनक ) नहीं है जिन्होंने 'देवागम' के द्वारा आज भी सर्वज्ञको प्रदर्शित कर रक्खा है । निश्चयमे वे ही योगीन्द्र ( समन्तभद्र ) त्यागी ( दाता ) हुए है जिन्होंने भव्यसमूहरूपी याचकको अक्षय सुखका कारण रत्नोका पिटारा ( रत्नकरडक) दान दिया है' । समन्तभद्रा भद्रार्थो भातु भारतभूषणः । देवागमेन येनात्र व्यक्तो देवागमः कृतः -- पाण्डवपुराण इस पद्य में श्रीशुभ चंद्राचार्य लिखते हैं कि 'जिन्होंने 'देवागम' नामक अपने aarti द्वारा देवागमको जिनेन्द्रदेव के ग्रागमको इस लोकमे व्यक्त कर दिया है वे 'भारतभूषण और एक मात्र मद्रप्रयाजनके धारक' श्रीसमन्तभद्र लोकमेकमान हो, अर्थात् अपनी किया और गुणोंके द्वारा लोगोके हृदयान्धकारको दूर करनेमें समर्थ हो ।" समन्तभद्रकी भारतीका एक स्वतंत्र हाल, दक्षिण देने प्राप्त हुआ है । यह स्तोत्र कवि नागराज का बनाया हुआ और अभीतक प्राय अप्रकाशित ही जान पड़ता है। यहाँ पर उसे भी अपने पाठकोकी अनुभवबुद्धि के लिये दे देना उचित समता है। वह स्नान इस प्रकार है- साम्मरीमि ताम्रवीमि नंनमीमि भारती, तंननीमि पापठीमि बंभणीमि तेऽमलां । इसकी प्राप्ति के लिये में उन शातिराजजीका याभारी हूँ जो कुछ रह चुके है। अ तक जेनविन धारा के + 'नागराज' नामक एक कवि संवत् १९५३ मे हो गये हैं ऐसा 'कर्णाटककविनति' से मालूम होता है। बहा है कि यह तो उन्हीका बनाया हुया हा, वे उभयविनाविलास' उपाधि भी युक्त थे। उन्होंने उन् मं० में अपना 'पुण्यामवनम्पू बताकर समाप्त किया है।
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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