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मेधावी, प्रभावशील, प्रोजस्वी और कर्त्तव्यकुशल होते हैं तथा कतिपय ऐसे होते हैं कि वर्षों के अभ्यास तथा चिर प्रयत्न के बावजूद इस प्रकार का कुछ भी वैशिष्ट्य अजित नहीं कर पाते । प्रत्येक कार्य में पुरुषार्थ और प्रयत्न तो चाहिये पर तरतमता की दृष्टि से वस्तुतः इन विशेषताओं का सम्बन्ध प्रयत्नों से कम और संस्कारों से अधिक है।
प्राचार्य संस्कारी और पूण्यात्मा होते हैं। उनमें ये विशेषताएं स्वाभाविक होती हैं। पर, जीवन का अनुभव भी चाहिए। अतः उनके लिए कम से कम पांच वर्ष के दीक्षा-काल की अनिवार्यता बतलाई गई। संस्कारी एवं प्रतिभा सम्पन्न व्यक्ति के लिए जीवन के बहुमुखी अनुभव अजित करने की दृष्टि के यह समय कम नहीं है।
प्रवर्तक, स्थविर तथा गणावच्छेदक के पद जिस प्रकार के उत्तरदायित्व से जुड़े हैं, उनके निर्वहण के लिए बहुत ही अनुभवी व्यक्तित्व की आवश्यकता है, जो जीवन के अनुकूल-प्रतिकूल, मधुर-कटु, प्रिय-अप्रिय जैसे अनेक क्रम देख चुका हो, परख चूका हो । अनुभव-परिपक्वता की दृष्टि से उन पदों के अधिकारी होने योग्य श्रमण के लिए जो कम से कम आठ वर्ष का दीक्षा-काल स्वीकार किया गया है, वह वास्तव में आवश्यक है।
इसी प्रसंग में व्यवहारसूत्र में एक विशेष बात कही गई है। बताया गया है कि विशेष परिस्थिति में एक दिन के दीक्षित थमण को भी प्राचार्य या उपाध्याय का पद दिया जा सकता है। यह बात विशेषत: निरुद्ध-वास-पर्यायश्रमण को उद्दिष्ट कर कही गई है। निरुद्ध-वास-पर्याय का आशय उस श्रमरण से है, जो पहले श्रमरण-जीवन में था पर दुर्बलता से उससे पृथक् हो गया। यद्यपि ऐसा व्यक्ति संयम से गिरा हुप्रा तो होता है पर उसके पास साधु-जीवन का लम्बा अनुभव रहता है। यदि वह सही रूप में प्रात्मप्रेरित होकर पुनः श्रामण्य अपना लेता है तो उसका विगत श्रमण-जीवन का अनुभव उसके लिए, संघ के लिए क्यों नहीं उपयोगी होगा।
प्राचार्य का पद अत्यन्त महत्वपूर्ण उत्तरदायित्वों को लिए हए होता है। अतः उक्त प्रकार के एक दिवसीय दीक्षित साधु में, जिसे प्राचार्य या उपाध्याय का पद दिया जाना विहित कहा गया है, और भी कुछ असाधारण विशेषताएं होनी चाहिए, जिनका निम्नांकित रूप में उल्लेख किया गया है
वह स्थविर ऐसे कुल का हो, जिसके प्रति संघ की प्रतीति हो अथवा जो संघ के लिए दान, सेवा प्रादि की भावना के कारण प्रीतिकारक हो, जो स्थेय होप्रीतिकर होने के नाते जो संघ की चिन्ता में प्रमाणभूत हो, जो संघ के लिए, सबके लिए वैश्वासिक - विश्वास-स्थान हो - सम्मत हो, कठिनाई या संघर्ष ग्रादि की स्थिति में सहयोग करने के नाते जो संघ के लिए प्रमोदकारक हो, जो संघ के लिए अनुमत हो अथवा श्रमणों को दान देने में जहाँ परिवार के छोटे-बड़े-सभी
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