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में से छः पदों का उल्लेख यहां हुआ है। गरणधर का पद उल्लिखित नहीं है। पर, भावतः उसे यहां प्रन्तर्गर्भित मान लिया जाना चाहिए। तात्पर्य यह है कि जिस श्रमण का दीक्षा - पर्याय आठ वर्ष का हो चुका है और जिसमें यदि दूसरी प्रपेक्षित योग्यताएँ हों तो वह सभी पदों का अधिकारी है ।
पांच वर्ष के दीक्षित श्रमरण को, यदि अन्य योग्यताएँ उसमें हों तो प्राचार्य और उपाध्याय पद का अधिकारी बताया है ।
तीन वर्ष के दीक्षित श्रमण को और योग्यताएं होने पर उपाध्याय पद के लिए अनुमोदित किया है ।
इन तीन विकल्पों में से दो में प्राचार्य का उल्लेख हुआ है और उपाध्याय का तीनों में ही । इसका आशय यह है कि आचार्य के लिए कम से कम पांच वर्ष का दीक्षा-काल होना श्रावश्यक है । तब यदि उनका पाठ वर्ष का दीक्षा-काल हो तो और भी अच्छा । म्राठ वर्ष के दीक्षा काल की अनिवार्यता वस्तुतः प्रवर्तक, स्थविर, गरणी तथा गरगावच्छेदक के पद के लिए है । पहले विकल्प में क्रमश: सभी पदों का उल्लेख करना था अतः ग्राचार्य का भी समावेश कर दिया गया । उपाध्याय - पद के लिए कम से कम तीन वर्ष का दीक्षा - काल अनिवार्य है । फिर वह यदि पांच या आठ वर्ष का हो तो और भी उत्तम है । जैसा कि कहा गया है, आठ वर्ष के दीक्षा - काल की अनिवार्यता प्राचार्य तथा उपाध्याय के अतिरिक्त अन्य पदों के लिए तथा पांच वर्ष के दीक्षा-काल की अनिवार्यता केवल प्राचार्य पद के लिए है । पहले विकल्प में सभी पदों का और दूसरे विकल्प में दो पदों का उल्लेख करना था अतः दोनों स्थानों पर उपाध्याय का समावेश किया गया ।
श्रुत-योग्यता, प्राचार - प्रवणता, प्रोजस्वी व्यक्तित्व तथा जीवन के अनुभव - ये चार महत्वपूर्ण तथ्य हैं, जिनका संघीय पदों से अंतरंग सम्बन्ध है ।
उपाध्याय का पद श्रुत-प्रधान या मूत्र प्रधान है। श्रात्म-साधना तो जीवन का अविच्छिन्न अंग है ही, उसके अतिरिक्त उपाध्याय का प्रमुख कार्य श्रमणों को सूत्र - वाचना देना है । यदि कोई श्रमण इस ( श्रुतात्मक) विषय में निष्णात हों तो अपने उत्तरदायित्व का भली भांति निर्वाह करने में उन्हें कोई कठिनाई नहीं प्राती । व्यावहारिक जीवन के अनुभव यादि की वहां विशेष अपेक्षा नहीं रहती । वहां सूत्र सम्वन्धी व्यापक अध्ययन, प्रगल्भ पाण्डित्य तथा प्रकृष्ट प्रज्ञा होनी चाहिये | अतः यदि तीन वर्ष के दीक्षित श्रमण में भी ये योग्यताएं हों तो वह उपाध्याय पद का अधिकारी हो सकता है ।
प्राचार्य पद के लिए योग्यता का प्राधार ग्राचार कौशल, शासन - नैपुण्य, ओजस्वी व्यक्तित्व, व्यवहार पटुता, शास्त्रों का तलस्पर्शी, सूक्ष्म ज्ञान तथा जीवन के अनुभव हैं। इनमें अनुभव के अतिरिक्त जो विशेषताएं बतलाई गई हैं, वे कालसापेक्ष कम हैं, क्षयोपशम या संस्कार सापेक्ष अधिक । कतिपय व्यक्ति जन्मजात
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