Book Title: Prakarana Ratnakar Part 4
Author(s): Bhimsinh Manek Shravak Mumbai
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ WA Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AD Daleleasinान्टळक ADMI MEINGMOK नाग ४ थो. जिनवचनामृतमहोदधिजन्य धुरंधर सुविहित गीतार्थज्ञ पूर्वाचार्य वचन तरंग बिंदुरूप या विविध विषयक प्रकरणाख्य ग्रंथोनो यत्किचित् संग्रह करीने ज्ञानवृद्ध्यर्थे उपावी प्रसिक करनार शा० नीमसिंद माणकनी वती शा० नाणजी माया घर नंबर २२४-२३१ शाक गल्ली, मांडवी, मुंबई. आवृत्ति त्रीजी. ___ शके १८३४ संवत् १९६८ अशाड शुदि २ सने १९१२. बा. रा. घाणेकरे "निर्णयसागर" मुपायंत्रमा प्रसिद्ध करनारने माटे गपी ने.Sil सर्व हक्क स्वाधीन. आ पुस्तक सने १८६७ ना २५ मा एक्ट प्रमाणे रजीस्टर्ड करावेलुं छे. Dunqueraenesosenwauaques Emericanान्ान्ाहकालान्नानान्काहान्छा K Yave Aveva_sexoeXboXBOX OXYDOWewezoeXOOX XBOXoexbexsexs XOXOOXorce OUVOJVOOOOOOOOOOXGOROBY 74700AGACHINTAMAN Y ATATASTOTASAGAR Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना. श्रा प्रकरणरत्नाकराख्य पुस्तकनो चतुर्थ नाग, अर्हज्ञानसिंधुनायिसुझ पुरुषोनी पाथी संपूर्ण करीने, यत्किंचित् ग्रंथप्रयोजन संबंधी सूचक लखाण करवाने विकजन पासेथी अनुझा मागी ललं : श्रा चतुर्थ नाग सर्वोत्कृष्ट . तथा सघला सूक्ष्म अने स्थूल बुद्धिमान् सङनोने वाह्लादकारक थाय तेवो बे, कारण के सांप्रतमुजितकृत नागमा मुख्यत्वे करी जे अस्मन्मताजिलाषि साधु, साध्वी, श्रावक तथा श्राविका प्रभृति , तेउने निश्चय करी आपणे अर्हन्मतस्थत्व कहेवाश्ए? ए विषयोनुं यत्किंचित् झान थाय, एवा हेतुथी क्षेत्रसमास, संघयणीसूत्र तथा षट्कर्मग्रंथनो बालावबोध सहित सविस्तर समावेश करेलो . अन्यच्च श्रा प्रकरणरत्नाकराख्य पुस्तकना प्रथम नागथी चतुर्थ नाग पर्यंत श्रीमदर्हत्प्रणीत चतुरनुयोगनो पण यत्किंचित् समावेश करेलो ले. - प्रथम संघयणी नामक ग्रंथ, जे एतत्पुस्तकगत कस्यो बे, तेमां देवादिक चातुर्गतिक जीवोनां प्रत्येक जुवनादि हार कह्यां . तेमां पण देवगति संबंधी व्यक्तता विशेष जे. ज्यांसुधी ए ग्रंथy शान न होय, त्यांसुधी ते मनुष्यने देवादि चातुर्गतिक जीव विगेरेनुं प्रतिपन्नत्व होतुं नथी, माटे एनुं ज्ञान अस्मदादिकने मेलववानी अत्यावश्यकता बे. श्री जिननजगणिक्षमाश्रमणकृत बृहत्संघयणी नणवानो हालमां विशेष परिचय न होवाने सीधे मात्र श्री त्रणसें गाथानो संघयणी ग्रंथ, सांप्रत समयमा बाहुल्ये करी सर्वे सजनो नणे वांचे , माटे तेज ग्रंथ था पुस्तकमां मुजित कस्यो बे. बीजो क्षेत्रसमास नामनो ग्रंथ, था चतुर्थ जागमा दाखल कस्यो बे, ते पण सूत्ररुचिमान् जीवोने जाणवोज जोश्ए, केमके तेमां जंबुद्धीप प्रमुख मनुष्योने रहेवाना अढीछीपना कुलगिरि, प्रह, कुंम, नदी, पर्वत, शिखर इत्यादिक शाश्वता पदार्थोनां मानादिकनुं स्वरूप सविस्तर जणाव्यु डे. जुन के ए सर्व पदार्थ पृथ्वीगत उतां तथा तद्शानदायक एवा मह हिरचित ग्रंथो बतां स्वधर्मानुसारीने तेनुं ज्ञान न होय तो केवी मोटी नूल गणाय? माटे ते ग्रंथ पण एतत्पुस्तक मध्ये दाखल कस्यो . यद्यपि पूर्वाचार्यविरचित महोटा क्षेत्रसमास उपर श्रीमलयगिरि महाराजे सुमारे सप्तसहत्राधिक श्लोक टीका करी, तथापि ते क्षेत्रसमासनो बालावबोध न होवाने लीधे तथा स्थूल बुद्धिवालाथी तेनो लाल न लश् शकाय तेथी तथा दालमा घणा खरा सड़ानो या पुस्तकमा मुजित करेलाज क्षेत्रसमास- अध्ययन अध्यापन करे डे माटे तेनेज आ पुस्तकमां बापी प्रसिहतामां मूक्यो बे. Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना. आ चोथा जागना अंतमा उ कर्मग्रंथ पण लीपीकृत कस्या जे. ते सर्वोत्तमोत्तम बे; केमके तेना परिपूर्ण ज्ञान विना मनुष्यने कर्म अने जीवनुं स्वरूप तेमज जीवने तत् संबंधासंबंधे करी ज्ञानाज्ञानात्मकत्व उत्पन्न थाय ले तेनुं यथार्थ स्वरूप जाणवामा श्रावतुं नथी, अने ज्यांसुधी ज्ञानाजाव होय, त्यांसुधी संपूर्ण कर्मनिर्जरा थाय नहीं, माटे एतद्ग्रंथाच्यासी जीव, श्रात्मस्वरूप ज्ञान पामी, कर्मनिर्जरा करी सिद्धत्वपदने प्राप्त थाय ने अने जेणे कर्मनुं स्वरूप यथार्थ लाध्यु ले तेणेज श्रीवीतरागप्रणीत धर्मनुं निर्मल रहस्य स्पष्ट जाएयु बे, एवो निश्चयज बे. ए कर्मग्रंथ मध्ये कर्म संबंधी विचार अति सूक्ष्म रीते दर्शाव्या बे. तेनो अनुजव बुद्धिमान् श्रोता तथा वक्ताने तुरत थाय . एमां जूदी जूदी बाबतोतुं सविस्तर विवेचन कसु डे के जेश्री स्थूल बुद्धिवाला मनुष्य पण समजी शके. जेमके कर्म एटले शु? ते कर्मनी मूल प्रकृति केटला प्रकारनी ? तथा उत्तर प्रकृति केटला प्रकारनी ? तेनां नाम तथा स्वरूपनुं विस्तार साथे निरूपण जे. वली मोहनीयादिक कर्मप्रकृति साथे जीव, केवी रीते बंधाय अने पाडो केवी रीते बूटे ने? तेनुं यथार्थ ज्ञान ए ग्रंथथी मले, ए रीते ए बए कर्मग्रंथोनी उन्नति प्रसिक डे, माटे यहीं आटवू कहेवू बस डे. केटलाएक देहस्थ इंजियविषयना सुखने सत्य कहेता एवा नास्तिकपकतिप्राप्त लोको मतिमांये करी स्वमुखथकी श्रा प्रमाणे वाग्विदोष निस्सार करे :-जेमके, श्रुतचारित्रात्मक धर्म अने मिथ्यात्वविरतिप्रमादकषायमय अधर्म पण नथी, बंध नंथी, मोद नथी, पुण्य नथी, पाप नथी, आश्रव नथी, संवर नथी, कर्मानुनव नथी, कर्मनुं विनाश नथी, परजव नथी, देव नथी, देवी नथी, नरक नथी. एवा नास्तिकोना वितंडावादना खंमनकारक एवा था उ कर्मग्रंथो , तेजेनो खरेखरोअनु. जव नावपूर्वक वांचवाथी तथा श्रवण करवाथी थशे. ____ ए कर्मग्रंथो उपर मुख्यत्वे करी जूदा जूदा त्रण पंडितवर्योए बालावबोध करेलो . तेमां एक तो पंमितश्रेष्ठ जीवविजयजीनो रचेलो बे, ते घणो सरल बे. तेनी श्लोकसंख्या सुमारे दश सहस्रनी . बीजो बालावबोध टीकानुसारे पंडित मतिचंजी. विरचित , तेनी श्लोकसंख्या सुमारे द्वादश सहस्रनी बे. ते ग्रंथ पण अधिक प्रशंसनीय बे. तृतीय बालावबोध पंमितरत्न यशःसोमशिष्य पंमित श्रीजयसोमकृत ने. था बांसावबोधकर्ताए केटलीएक वातो एवा खुलासाथी तथा सरलताथी समजावी ने के वांचनार तेमज जणनार कदी जाड्य बुद्धिवालो होय तोपण तेने सहजमां सम.. जा जाय. वली ए बए कर्मग्रंथोमा अति सूक्ष्मार्थनी वातो होवाथी ते सर्व, स्मरण, Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना. अज्ञ वाचनार सांजलनारने तुरत उपस्थित रहे एवं नथी, माटे बालावबोधकर्ताए एवी खूबी वापरी के जे जे स्थले एज वात फरी प्रसंगे श्रावे, ते ते स्थले ते वात संलग्न करी बे, के जेथी वांचनार सांजलनारने ते अवश्य याद रहे. वली ज्या ज्यां अपूर्व अपूर्व विषयक सूक्ष्म विचारो श्राव्या नेत्यां त्यां टीकानुसारे तथा अन्य ग्रंथानुसारे ते विषयोना स्पष्ट अर्थ लखीने तेनां रूप दर्शाव्यां ने. एटले 'अमुक वात शी हशे?' एवो संशय किंचित् पण रहे नहीं. वली तहिषयक सविस्तर अधिकार जे ग्रंथमां होय तेनो प्रेक्षणप्रयास पण न रहे. एतादृश रचनाथी बालावबोधप्रबंध कस्यो बे, तेनी शातिमनोदर रचनानी खूबी, सजनोने वकीयदृष्टिपथगत तथा श्रवणातिथि थवाथी मालम पमशे, माटे तेनी श्रति स्तुति प्रस्तावना नूयस्त्वजयथी लखी नथी. ए बालावबोधनी श्लोकसंख्या सुमारे (१७०००) बे. प्रथम ज्यारे लिष्टो प्रसिद्ध कीधां, ते वखते पूर्वोक्त पंमित श्री जीवविजयजीविरचित बालावबोध सहित बए कर्मग्रंथो गपवानो विचार हतो, परंतु ते ग्रंथ जोवाथी ते मध्ये पहेलाथी मामीने पांचमा कर्मग्रंथ पर्यंत पांचे कर्मग्रंथनो बालावबोध सामान्य विस्तृत हतो, पण जेवो जोशए तेवो विस्तारपूर्वक न हतो, तेमां पण वली पांचमा कर्मग्रंथनो बालावबोध तो घणोज संक्षिप्त कस्यो हतो, माटे साधारण बुद्धि वाला मनुष्योने ते सर्व शिरोमणि ग्रंथनो लाज परिपूर्ण रीते नहीं मले, एवा हेतुथी ते बालावबोध, था चतुर्थ नागमा लीधो नथी. कदाचित् जो ते बालावबोध था नागमा बाप्यो होत तो यो ग्रंथ, हाल जेटलो विशाल थयो ने तेटलो थात पण नहीं अने क्षेत्रसमास, संघयणी तथा कर्मग्रंथादिकनां यंत्रो तथा चित्रो श्रने गणितनो पूरतो समावेश पण था जागमा थ जात. वली समावेश थतां बतां पण पूर्वमुजित जागत्रयप्रमाण था जाग विस्तृत थात, परंतु ते बालावबोध बापवानो विचार पूर्वोक्त कारणथी बंध राख्यो. त्यारपडी बीजो उपाय न बता में गए कर्मग्रंथोनो बालावबोध टीका उपरथी करावीने गपवानो समारंज कस्यो. ते बालावबोध, कर्मग्रंथ सहित था पुस्तक मध्ये पृष्ठ (३०५) माथी मांडीने पृष्ठ (३३६) सुधी गप्यो, ते बापतां पूर्वप्रशंसित पंमित जयसोमविरचित बालावबोधनी प्रत, मुज हस्तगत थ तथा तेनी यथार्थ पूर्वकथितसमानस्तुति मदृष्टिमार्गगत थवाथी में मारा हृदयमा विचार कस्यो के, यावा महापंमितकृत बालावबोध बतां श्रापणे अज्ञ थश्ने नवीन कृति करावी गपवो ते उचित नहीं, माटे था अतिरुचिर, पंमित जयसोमविरचित बालावबोधज बापवो, एवो दृढ निश्चय कस्यो. * त्रीजी आवृत्ति पृष्ठ २७६ श्री ३१६ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना. । वली ते महारा विचारने अनुकूल मत्साधर्मी सर्व सुविचार जनोनी सम्मति पण पनी, श्रने तेए कह्यु के, आवा बृहद्ग्रंथो वारंवार शोध करी पाता नथी, माटे यद्यपि था चतुर्थ नाग घणो महोटो थशे, तथापि था अतिकमनीय बालावबोध गपवो ते केटलीएक रीते अत्युत्तम , अने ते बापवाथी समग्र सूत्ररुचि, पठनपाठन करनार सामान्य बुद्धिमाननो पण महोटो उपकार थशे. एतादृश मन्मत्यनुगामी वाक्प्रसार सांजलीने ते टीकापरथी करेला बालावबोधना बापेला चार फारम जे जे, त्यां तेटलांज राखी पुनः पृष्ठ (३३७) माथी पंमित श्री जयसोमविरचित बालावबोध सहित गए कर्मग्रंथनो मुजणारंजनो खरो दृढ विचार करीने ते बए कर्मग्रंथ, मारी अल्पमत्यनुसार शोधी बापीने सुबुद्धिमान् विवेकी जन सान्निध्यमा निवेदन कस्या , ते पूर्वोक्त हेतुथी था नाग पूर्वमुजित जागत्रयथी श्रति गौरव पाम्यो बे. वली श्रा नागनी महत्ताए करीने प्रत्येक पुस्तक दी बार थानानी किमत जेटला पैसा वधारे पण मारे खरचवा पड्या डे, तेम उतां पण यंत्र अने चित्रादिकनो समावेश जेवो जोशए तेवो थर शक्यो नथी. मात्र आरंनथी त्रण कर्मग्रंथनां यंत्रो दाखल थश् शक्यां श्रने शेष ते ग्रंथोना यंत्रादिक जरूर आ चतुर्थ नागमा दाखल थवा जोशए; कारण के यंत्रादिक जो साथे न होय तो ए ग्रंथ अपूर्ण कहेवाय अने साधारण वांचनारने कदाचित् यथार्थ ग्रंथावबोध पण थाय नहीं, परंतु था कर्मग्रंथनो महोटो बालावबोध बापवाथी तेम बनी शक्युं नहीं.. ___ ग्रंथमहत्ताना नयथी या पुस्तक मध्ये रहेला अशुभताना दोषो संबंधी, सुजनो पासे क्षमा पण मागी नथी तथापि प्रथम मुजित नागो मध्ये दाखल करेली क्षमापना ने तेज था तुर्य जागमा जे एम मानी मुज दीनपर दीर्घ दयादृष्टि राखशे. ॥थार्या गीतिवृत्तं ॥ प्रकरणरत्नाकर था, पुस्तक साद्यंत पूर्ण कर लीधूं; अर्हत्प्रसाद पामी, विघ्न रहित श्रेष्ठ काम शुज सीधुं ॥२॥ जिनवर पद वंदन मय, मंगल अवसानरूप करुं प्रेमे ॥श्म निवर्तिपणाथी, अन्य कृति पण थजो पूर्ण नेमे ॥२॥ जिनवर आणा गर्पित, नाना विजानानिरचित गिरा ॥ गद्य पद्य वा सरला, प्रसिसि पामो अखंम सकल धरा ॥ ३ ॥ शार्दूलविक्रीडितवृत्तम् ॥ हे श्री वीर सुधीर ईश अज ने देवाधिदेव प्रजु, वंदूं हुं युत नक्ति नाव धरिने थाजो सहाये वितु ॥ आवां कृत्य अनेक ते करि शकुं रूडी कृपा तेवी, कीजे माणक पुत्र नीमसि शिरे जोये तथा जेहवी ॥१॥ शा० नीमसिंह माणक. * त्रीजी आवृत्ति पृष्ठ. ३१७ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मग्रंथ, शुद्धिपत्रक कर्मग्रंथ पदेवो. १ गाथा ३जी पहेला पारियाफमा १० मी पंक्तिमां नामकर्मना गत्यादिक ७५ तथा पिंमप्रकृति श्७ ते विवेचनमां पिंमप्रकृतिना स्थले प्रत्येक प्रकृति र समजवानी बे. २ गाथा ५ मी नेहा पारिग्राफमां डेवटनी उपरनी पंक्तिमां स्वामी, विषय, प्रमाण, परोक्षता श्रने साधर्म्य एम करेल डे ते बदल काल, कारण, स्वामी, विषय, परोक्ष ए पांच बाबतमा साधर्म्यपणुं . ३ गाथा ४३ मी त्रीजी पंक्तिमां अणुपूर्वीचें त्रिक डे त्यां अणुपूर्वी शब्द काढी नाखी बाधे नारे फक्त त्रिक शब्द जोश्ए. कर्मग्रंथ बीजो. ४ गाथा ६ ही पारिग्राफ बीजानी ६ ही पंक्तिमां मनुष्य ते तिर्यंच अने देवायुज बांधे ते बदल मनुष्य अने तिर्यंच ते बन्ने गतिना जीव देवायुज बांधे एम जोश्ए. सम्यग्दृष्टि डे माटे. ___५ गाथा २७ मी पारिग्राफ बीजामां त्रीजी पंक्तिमा दायोपशमिक अने दायिक ए बेउ सम्यक्त्व बतां एवा शब्द ने तेमा दायिक शब्द काढी ते बदल उपशम लेवु जोश्ए. तेने १४५ नी सत्ता होय. दायिकने तो १३० नी सत्ता होय. कर्मग्रंथ त्रीजो. ६ गाथा १० पारिग्राफ बीजामा बेसी ३ पंक्ति उपरनी बे पंक्तिमा मनुष्यत्रिक, औदारिक शरीर, बहुं संस्थान अने हुं संघयण ए ६ टालीए एम जे ते समीचीन नथी, पण ते बदल मनुष्यत्रिक, औदारिक हिक श्रने प्रथम संघयण मली ६ टालवी ते बराबर लागे , थने तेमांज मेवटनी पंक्तिमा तिर्यंच करतां मनुष्यमां जिननाम उमेरवा जलामण करी तेमां उघे त्रीजे चोथे पांचमे एम बताव्युं तेमां त्रीजे शब्द प्रयोजन वगरनो के. ७ गाथा १६ पारिग्राफ बेसामा ५मी पंक्तिमा एक सुरायुज्नेलीए तेवारे ५० प्रकृतिनो बंध होय ते स्थानके ५७ बदल ५ए ग्रहण करवी. कर्मग्रंथ चोथो. ७ गाथा २४ पारिमाफ पहेलो (मश्सु) पनी मतिज्ञान मार्गणा तथा श्रुतज्ञान मार्गणा ए शब्द वधारवानो बे. Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मग्रंथ चोथो. ए गाथा ३१ पारिग्राफ बीजामां केवली समुद्घातनी हकीकतमा बीजे समये औदारिक अने बीजो मिश्र ए बे योगी होय ते बराबर नश्री, पण तेनी जग्याए एक औदारिक मिश्रयोग होय. १० गाथा ३२ पारिग्राफ बीजो बेवट औदारिके मिश्र कार्मण ने ते बदल श्रौदारिक मिश्र अने कार्मण समजवा योग्य . ११ गाथा ५० मीनी ११ मी पंक्तिमा औदारिक मिश्र ए छिक बदल औदारिक अने औदारिक मिश्र ए हिक जोइए. १२ गाथा ५६ पारिग्राफ ४ आहारक हिक श्रने जिननाम वर्जीने ज्ञानावरणीनी पांच थादि ६५ प्रकृति एम डे तेमां नामकर्मनी ३२ करी ले ते बदल नामनी ३१ बराबर मली रहे बे, अने एक प्रकृति घटे ते बदले देवायु उमेरवानी जरुर ले. १३ गाथा ५७ पारिग्राफ पांचमामां मिथ्यात्व गुणगणा संबंधी दसथी २७ बंधहेतुनी समजणमा बेवट एक नय, बीजी जुगुप्सा, त्रीजो अनंतानुबंधी तथा बकायनो वध एवं ए, दसमुं मिथ्यात्व एक युगल एवं १५, त्रण वेद एवं १५, बे कषाय अने १७ मो योग ए प्रमाणे जे. एमां ३ वेद बदले एक वेद जोशए अने बे कषाय ते बदल त्रण कषाय जोशए अने एक इंजिनी अविरति वधारवानी डे ए ३ बाबतमां सुधार. श्रागल जतां १५ मा पारिग्राफमा तेज गुणगणा संबंधमां दसथी १० बंधहेतुना सरवालामा १६ बंधहेतुना नांगा श्श्६४०० कर्या ने ते बदल २६६४०० समजवा. १४ गाथा ६७ मां डेवट शेष २५ मोह प्रकृतिनो उपशम थयाथी जे स्थिरतारूप चारित्र प्रगट थाय तेने औपशमिक चारित्र कहीए तेमां २५ बदल २१ समजवानी बे. ___ १५ गाथा ६७ प्रथम पारिग्राफमां दायिक चारित्र संबंधी हकीकतमां पण पूर्वोक्त २५ बदल १ समजवी. वली तेना बीजा पारिग्राफनी एमी पंक्तिमा अवधि श्रने मनःपर्यव ज्ञानावरण पडी जे अचकुदर्शनावरण जे ते अत्रे निरुपयोगी होवाथी काढी नाखवू. वली तेमां बेवट बे पंक्ति उपर अनंतानुबंधीया ४ मिथ्यात्व मोहनीयना योपशमे होय अने समकित मोहनीयना उदयने वेदे एवा शब्द बे तेमां अनंतानुबंधीया ४ अने मिथ्यात्व मोहनीयना क्षयोपशमे अने सम्यक्त्व मोहनीयना उदयने वेदे त्यां वेदक सम्यकूत्व होय. १६ गाथा ७१ चोथी पंक्तिमा उपशम सम्यक्दृष्टि बदल दायिक सम्यक्दृष्टि ग्रहण कर. नहि तो अनर्थ थाय. Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मग्रंथ पांचमो. कर्मग्रंथ पांचमो. १७ गाथा ५ मी पारिग्राफ ४ थामां श्रादि अध्रुव लखेल डे त्यां आदि ध्रुव जोश्ए. १० गाथा ६ ही पारिग्राफ जानी बीजी पंक्तिमा वर्ण ४ त्यां वर्णादिक ४ जोश्ए. १ए गाथा ७ मी पारिग्राफ त्रीजामा ७ मी लीटीमा अध्रुवबंधीनी कमु डे त्यां ते बदल अध्रुव उदयी ग्रहण करवी. २० गाथा ए मी पारिग्राफ बीजामां सम्यक्त्व तथा मिश्र मोदनीयनी सत्ता अनादि मिथ्यात्वीने होय ते बदल न होय एम व्याजबी बे. १ गाथा २४ मी पारिग्राफ पहेलामां नमी पंक्तिमा ३३ सागरोपम पूर्वकोडी पृथक्त्व कमु डे त्यां ३३ बदल १३५ सागरोपम संनवे . मिथ्यात्व साखादनना अनाव नणी. २२ गाथा २७ मी पारिग्राफ पहेलामा ६ ही लाइनमा अवधि दर्शनावरणीय पनी केवलझानावरणीय ते ज्ञानावरण शब्द काढी दर्शनावरण शब्द करवानो बे. २३ गाथा श्ए पारिग्राफ बीजामां मी पंक्तिमा पीत वर्ण अने कटु रस ने त्यां नील वर्ण अने कटु रस जोशए. २४ गाथा ३२ बीजी पंक्तिमा खास चतुष्कमां नपघात गएयुं तेने बदले उद्योत जोश्ए, कारण के तेजसू पंचकमां उपघात गणा गयेल . तेज गाथानी वीशमी पंक्तिमां सैकडा वर्ष ते कर्मनी अबाधा जाणवी त्यार पड़ी ते शब्दना बदले अने शब्द जोइए, पली जघन्य शब्द ले तेनी पनी स्थितिबंधे एटला शब्द वधारवा जरुरना लागे . अने तेज गाथामां बेवट १४ प्रकृति मेलवी ने तेमां गाथा २६ मीना श्रावेल नरकायु, देवायुनी हकीकत नेगी गणवी श्रने जे गाथा ३० मां समकित तथा मिश्र मोहनीय गणी जे ते प्रकृति मेलववा माटे समजवू, तेनो स्थितिबंध जूदो होतो नथी. वली १५७ मेलववा माटे आहारक सप्तक तथा जिननाम तथा मनुष्य अने तिर्यंचनुं आयुष्य जे आगल श्रावशे ते दश वधारवाथी १५७ मली रहेशे. २५ गाथा ३३ पारिग्राफ बेखानी पांचमी पंक्तिमा संख्याता वर्षना मनुष्य विना अन्य गतिथी चवी युगलीयुं मनुष्य न थाय ते ठेकाणे संख्याता श्रायुष्यवाला मनुष्य अने तिर्यंच विना एम समजवं. तथा त्रीजी पंक्तिमां मनुष्यनु सख्यु डे त्यां मनुष्य अने तियंचनुं जोश्ए. २६ गाथा ३४ पारिग्राफ पहेलामां बेसी लाश्नमां तेटला काले हीन शब्द ले ते Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मग्रंथ पांचमो. हीन शब्द बाद करवा योग्य , त्यां अने शब्द मूकवानी जरुरीश्रात जे अने तेज गाथामां बेडा पारिग्राफमां बही पंक्तिमां तेटलीज होय एवा शब्द पड़ी थाटवू वधारवा जरुर जणाय , बेवट अंतर्मुहूर्त आयु रहे थके पण परानव श्रायु बांधे. तेथी अंतर्मुहूर्त अबाधा पण होय. २७ गाथा ३५ पारिग्राफ पहेलामां नवमी लाश्नमा आठ अंतरमुहूर्त कस्यां ने त्यां अंतर शब्द काढी नाखवा योग्य . २७ गाथा ३६ पारिग्राफ ४ एकतालीश प्रकृति ने त्यांनीच गोत्र नेलववानी जरुर बे ते नेलवी ४२ ग्रहण करवी, अने तेना ७ मा पारिग्राफमां बीजी लीटीमा रए प्रकृति करी ने त्यां उंच गोत्र नेलवी २० करवा योग्य बे. सबब के प्रथम एकेजियने उत्कृष्ट स्थितिबंध कहेवाय तेमां जंच गोत्र पण एकेजियने पण बंधाय बे. कदाच थामां कोश्ने शंका थाय के बे प्रकृति वधे तेनुं समाधान एवं डे के कृम वर्ण श्रने तीक्त रस बे वखत ग्रहण करेलुं जणाय बे ते बदल एक वखत गणीए तो कुल संख्यामा वांधो श्रावशे नहीं. एमा पारिग्राफनी १० मी पंक्तिमा कोमाकोमी शब्द रद करवा योग्य ले. एए गाथा ४० पारिग्राफ १ लामां अंतरमुहूर्त कर्या ने त्यां अंतर शब्द काढी नाखवो अने २६ ने ठेकाणे ३६ समजवा. ३० गाथा ४४ पारिग्राफ पहेलामा देवलोकनी हकीकतमां त्रीजा ए शब्द वधारी चोथा आदि जोमी देवु तथा पारिग्राफ बीजानी ७ मी पंक्तिमां नरकटिकना बदले नरहिक (मनुष्य ठिक) जोश्ए. ३१ गाथा ४६ पारिग्राफ ४ सातमी पंक्तिमा प्रथम अनुत्कृष्ट शब्द बदल उत्कृष्ट शब्द जोशए थने तेज पंक्तिमा उत्कृष्ट बदल अनुत्कृष्ट जोइए अने मी पंक्तिमा पण प्रथम अनुत्कृष्ट बदल उत्कृष्ट जोश्ए. ३२ गाथा भए पारिग्राफ बीजामा २ जी पंक्तिमा असंख्यातमें जागे होय, नागे शब्द पड़ी हीन शब्द जोमी देवो. ३३ गाथा ५१ पारियाफ त्रीजामां बेबीनी अगाउनी लीटीमां कषायनी मंदताए उत्कृष्ट अने कषायनी तीव्रताए मंद ते ठेकाणे कषायनी तीव्रताए उत्कृष्ट श्रने कषायनी मंदताए मंद एम समजवा योग्य वे. ३४ गाथा ५५ चोथा पारिग्राफमां चोथी पंक्तिमां तेणे करी सहित जे पठी जीव शब्द वधारवादी समजवू सुगम पडे तेम . ३५ गाथा ५६ पारिग्रोफ त्रीजामांत्रीजी लाश्नमा देशविरति लश्३ पक्ष्योपम Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मग्रंथ पांचमो. Ա sage युगलियामां जाय एम बे ते बदले सीधो चार पल्योपम श्रयुए वैमानिक देव याय एम जणाय बे, कारण के देशविरति युगलियां थाय ते बराबर नथी. ३६ गाथा ५७ मनुष्यजव सप्तक तथा कोइ ठेकाणे 9 जव गणेल बे ते बाबतमां पांच जव बे, पण थताज नथी; कदाच देवताना पांच जव कर्या पढीनो मनुष्यजव गए तो ६ याय, सात तो कोइ रीते मली शकता नथी. ३७ गाथा ६० पारिग्राफ पहेलामां देशविरति लइ युगलिया थवानुं व्याजबी लागतुं नयी, पण पूर्वोक्त रीति अनुसार ४ पल्योपम आयुए देव थाय. ३० गाथा ६३ पारिग्राफ बीजामां बेवटनी दोटेक पंक्तिमा बे के शुभ प्रकृतिनी रसापवर्तना शुज परिणामे होय अने अशुभ प्रकृतिनी रसापवर्तना अशुभ परिणामे होय ए विरुद्ध ने तेने बदले शुभ प्रकृतिनी रसापवर्तना अशुभ परिणामे होय अने प्रकृतिनी रसापवर्तना शुभ परिणामे होय एम जोइए. तथा ४ था पारियाफनी पांचमी पंक्तिमा रस बंधाय एम बे त्यां पढी एम समजवुं के मंद कषायोदये शुजनो रस ने तीव्र कषायोदये अशुजनो रस बंधाय. तथा पारिग्राफ पांचमानी त्रीजी पंक्तिमा ते मध्ये शब्द बे पछी तेमां पण पुण्यनो चोवाणीयो पण एटला अक्षरो वधारवा जरुर बे. पारिग्राफ ६ हानी बही पंक्तिमां संज्वलन पछी अने शब्द जोडी संज्वलन ने प्रत्याख्यानीय एम करी पढी श्रप्रत्याख्यानीय पवी अनंतानुबंधीय एम त्रण विभाग समजवा. केमके शुजनो एकठाणीयो रस बंधातो नथी. ३० गाथा ६५ पारिग्राफ पहेलामा १० मी पंक्तिमां सेलमीनो रस काढतां एकगणियो अर्ध शेर विगेरे शब्दो बदल शेलडीनो सहेजनो एकठाणीयो रस बे अने तेने कढतां अर्ध शेर एम शब्दो करवा योग्य बे; अने तेमां काढता शब्दने ठेकाणे कढता शब्द जोइए. ४० गाथा ६० पारिग्राफ ४ यानी पहेली पंक्तिमा दर्शनावरणीय एपठी अशातावेदनीय जोमी देवी ने वली श्रगल जतां प्रथम संघयण विनाने बदले प्रथम अने बेला विना मध्यना ४ संघयण जोइए. ४१ गाथा ७४ पारिग्राफ बीजामां त्रीजी पंक्तिमां झपकना दशमा गुणठाणाना अंतसमये पामीए एम बे त्यां रूपक बदल उपशम शब्द जोइए. उपशम विना पक संवतुं नथी ने पड्या विना सादिपएं केम घटे ? ४२ गाथा ७५ तेजस् अने जाषा संबंधी तथा जाषा श्रने श्वास संबंधी श्रने मन कर्म संबंधी हकीकतमां बेदु शरीरने अग्रहण योग्य बे, त्यां शरीर शब्द लागु तो नथी. बन्ने जोमनां शरीर होय तो ठीक, पण तेम नथी. For Private Personal Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मग्रंथ छो. ४३ गाथा ७७ लेखी त्रण पंक्तिनी उपरनी पंक्तिमा २६ अने तथा बन्ने शब्द काढी नाखवा योग्य . ___Y४ गाथा 3 पहेली पंक्तिमा अरुपी शब्द जे त्यां रुपी समजवो. ४५ गाथा ७ सातमी पंक्तिमां त्रिगुणीथी हीन डे माटे संख्यात गुणीना बदल विशेषाधिक जोश्ए. ४६ गाथा ७ मां पुजल परावर्तननी हकीकत यश् रह्या पली प्रकारांतरे वर्णादिक ११ नुं स्वरूप डे ते २२ अगुरुलघु सहित करी गएया ते समजातुंनथी. २० नेला अगुरुलघु नेलो गणवाश्री ५१ थाय पण ते बराबर नश्री. २० व्याजबी लागे जे. ४ गाथा ए१ बेवटथी उपर जतां ४ थी पंक्तिमां शातावेदनीयनो एम जे त्यां अशातावेदनीयनो एम जोश्ए. शाता संबंधी हकीकत श्रगान १७ प्रकृतिमां श्रावी गइ. ४ गाथा ए पारिग्राफ त्रीजामां ज्यां तिर्यंचनु के नरकनुं आयुष्य बंधातुं होय त्यां पाठ कर्मनो बंधक होय. बीजी प्रकृतिमा ७ कर्मनो बंधक ग्रहण करवो. ४ए गाथा ए६ पारिग्राफ त्रीजामां केवल योगे करीज पढ़ी अगीयारमे शब्द बारमा अगाउ वधारवानो बे. ५० गाथा एG पारिग्राफ चोथामां बे ठेकाणे खपावे शब्द बदले उपशमावे जोश्ए. बेवट ऋण लीटी पड़ी चोथी लीटीमां ज्ञानावरणादिनो बे वे मुहूर्त जे त्यां बे बे अंतमुहूर्त जोश्ए. कर्मग्रंथ हो. ५१ गाथा ए त्रीजा पारियाफमां चोथा पंक्तिमा आठमाना बीजा जागथी मामीने ११ मा गुणगणा लगे एम डे त्यां १९ मा बदल १० गुणगणा सुधी ग्रहण करवू. ५२ गाथा १७ पहेला पारिग्राफमां १० मी पंक्तिमां बीजाअप्रत्याख्यानादि चारेले ते बदल चारे शब्द रद करी त्रणे जोश्ए श्रने बारमी पंक्तिमां बीजा प्रत्याख्यानादिक त्रणे बदले बे शब्द जोशए तथा तेना बीजा पारिग्राफमां एक मिथ्यात्व सातने उदये लहीए तथा श्रावा शब्दमांथी एक मिथ्यात्व बाद करी ते जग्याए मिथ्यात्वादि सातने उदये एम समजवू अने लहीए तथा ए शब्द पण रद करवा योग्य जे. जदये पड़ी हास्यादि जोडी देवु अने वली तेमज बेसी पंक्तिमा ए ७ ने उदये पड़ी मिथ्यात्व लहीए तेवारे एटदुं पण बाद करवा योग्य बे; अने तेना मा पारिग्राफा सातमी पंक्तिमां अनंतानुबंधीना उदय रहित सास्वादनपणुं न घटे तेमांथी न शब्द काढी नाखवा योग्य बे. Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मग्रंथ बो. ५३ गाथा २७ बेवटनी बे उपरनी पंक्तिमां ( इक्विक्की बंध विही) पढी तुरत एक नांगो तथा एटला शब्द वधारी एकविध शब्द बे ते जोमी देवो. ५४ गाथा २० पारिग्राफ मामां पांचनुं बादर बहुं पर्याप्त बे ते बदल पर्याप्त अथवा अपर्याप्त एम समजवुं तथा याज गाथामां बे गति वचाले पर्याप्त गएयुं बे ते संजवनी अपेक्षाए समजवुं ५५ गाथा ३३ पारिग्राफ मामां २० ने बंधे 00 नी सत्ता बदल‍नी सत्ता संजवेबे ने तेज गाथामां जिननामनी सत्ता होय ते जिननामनो बंध पण करे. कदाच जो एम लहीये तो नरके जतां पर्याप्तावस्थाए जिननामनी सत्ता होय, पण बंध होतो नथी, माटे सत्ता होय तेने बंध होयज एम नियम नयी अने तेमां १४ मा पारिग्राफमा चोथी पंक्तिमां एटलुं विशेष जे पड़ी तेजकाय तथा एटलुं जोडवा योग्य बे. ५६ गाथा ३० पारिग्राफ पहेलानी 9 मी पंक्तिमा सयोगी केवलीने योगी केवलीनी पेरे बे ते बदल सयोगी ने योगी केवलीने एम गोठवj. ५१ गाथा ४० पारिग्राफ त्रीजानी चोथी पंक्तिमां सात, आठ, नव अने १० ए ४ उदय स्थानक होय ने श्रेणीथी पकी कोई आवे नहीं, माटे 9 नुं उदयस्थानक बाद करी ३ पीना उदय स्थानक होय. ५० गाथा ४१-४२ ना विवेचनमां बेल्लाना उपला पारिग्राफमां २८ ना बंधे ८० नी सत्ता पण ८० बाद करी ते बदल ८ समजवा योग्य वे अने बेला पारिग्राफनी बीजी पंक्तिमा ४ सत्तास्थानक ११ मे गुणठाणे ते पबी आटलं उमेरवुं होय अने आगलना ४ तेर प्रकृतिना कय कर्या पबीना कीणमोहने लेवा एम जोइए. ५० गाथा ६५ त्रीजी पंक्तिमा अने त्रीशनुं तिर्यंच प्रायोग्यज होय ते समीचीन नयी, पण तिर्यंच प्रायोग्य उद्योत सहित त्रीश मनुष्य प्रायोग्य तीर्थंकर सहित त्रीश ३० नुं आम जोइए. ६० गाथा ११ बीजा पारिग्राफनी त्रीजी पंक्तिमां ने उदय उदीरणा विछेद या पी एम बे त्यां उदय शब्द काढी नाखी उदीरणा एकज ग्रहण करवी. ६१ गाथा ५ मीमां चरम समये ५७ सत्ताथी टाली एम बे त्यां वर्ण चतुष्क लीधुं बे. जो १४८ सत्तामां वर्ण वीश ग्रहीए तो ५७ बदल ७३ याय एम समजवुं. ६२ गाथा मां पारिग्राफ पहेलामां बेल्ली ३ पंक्ति उपरनी पंक्तिमां ४७ बदल ५७ करवी. इति. For Private Personal Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . . . ॥ श्री॥ प्रकरणरत्नाकरानिध पुस्तकना चोथा नाग मांदेला समस्त ग्रंथोनी स्थूल विषयानुक्रमणिका प्रारंजः १ पहेवू इंजियपराजयशतकं बालावबोधसहितम्. २ बीजुं श्रहंदादिस्तवनं विविधपद्यरचनात्मकम्. ३ त्रीजु श्री पार्श्वनाथस्तवनं अनुष्टुववृत्तबछम्. चोथु श्री चतुर्विंशतिजिनस्तवनं नानापद्य निबझम्. .... २ पांचमुं श्री युगादिजिनस्तवनं अनुष्टुवृत्तविरचितम्..... ३ बहुं श्री पार्श्वजिनस्तवनं अनुष्टबवृत्तयुक्तम्. ७ सातमुं श्री जिनप्रजसूरिकृतं अनेकपद्यग्रथितं श्री शांति जिनस्तवनम्. जाग्मुं परागशब्दाष्टोत्तरशतार्थ निबई साधारण जिनस्तवनं विविधवृत्तवलम्. २५ ए नवमुं श्री महावीर जिनस्तवनं बहुलपद्यस्वरूपम्. .... १० दशभु श्री पार्श्वनाथ जिनस्तवनं शार्दूलविक्रीडितवृत्तकथितम्. .... ११ अगीश्रारमुं श्री शषनादिजिनस्तवनं द्रुतविलंबितवृत्तप्रयुतम्. .... .... १२ बारमो संघयणीरत्न त्रैलोक्यदीपिकाख्य ग्रंथ बालावबोध सहित बे, ते .... मध्ये जूदां जूदा चोत्रीश छार , तेनी अनुक्रमणिका लखीए बीए. ..... १ प्रथम दोढ गाथाए करी ग्रंथकर्ताए मंगलाचरण तथा ए ग्रंथ मध्ये कहेवानां चोत्रीश छारनां नाम तथा अनिधेय, प्रयोजन, संबंध अने अधिकारी, ए चारनुं प्रतिपादन कस्युं . .... २ वीजी गाथाना उत्तराईथी मामीने अढारमी गाथा पर्यंत चारे निकायना देवोनी जघन्योत्कृष्टायुनी स्थितिनुं प्रथम हार का बे. ३ उंगणीशमी गाथाथी मांडीने एकशो पांत्रीशमी गाथा पर्यंत चारे निकायना देवोनी जुवनसंख्या- बीजुं हार कडं . ते मध्ये तेमना इंसोनां नाम तथा आजरणो श्रने मुकुटनां चिह्न, शरीरना वर्ण, वस्त्रोना वर्ण, सामानिक देवोनी तथा आत्मरक्षक देवोनी संख्या, सात कटकनां नाम, त्रायस्त्रिंशक देवोनी संख्या, विमानोनुं प्रमाण तथा आकार अने चंजसूर्यना परिवार, चंसूर्यनां मामला तथा तमस्कायर्नु महत्वपणुं अने चौद राजलोकनुं स्वरूप इत्यादिक अनेक वातो प्रसंगे कही बे. .... .... ४१ ४ एकशो ने बत्रीशमी गाथाथी देवोनां शरीरनी अवगाहनानुं त्रीजें छार कह्यु जे. ए Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका. ५ एकशो बेंतालीशमी गाथाथी देवोने उत्पात विरहकालनु चोधुं धार अने चवन विरहकालनुं पांचमुं हार तथा एक समये उत्पातनी संख्या अने चवननी संख्यानां बेझार एम चार बार कह्यां डे. . .... ए३ ६ एकशो सुमतालीशमी गाथाथी देवोनुं श्रापमुं गतिहार कडं बे. त्या प्रसंगे. एकशो सत्तावनमी गाथाथी संघयण तथा व संस्थाननुं स्वरूप पण कडं बे. एए ७ एकशो चोसम्मी गाथाथी देवोनुं नवमुं श्रागतिहार कह्यु बे..... जे देवताने देवांगना साथे संजोग डे तथा जेने संजोग नथी तेनो प्रकार. १०३ ए देवीन उत्पत्तिस्थान कह्यु . .... .... .... .... .... १०४ १० किदिबषिया देवतानां स्थानक कह्यां बे. .... ११ देवताने जे लेश्या होय ते दोढ गाथाए करी कही बे. .... .... १५ वैमानिक देवोनां शरीरना वर्ण कह्या ..... १३ देवताने थाहार तथा श्वासोश्वासना कालनुं मान कह्यु बे. १४ देवताने नवप्रत्ययिक अवधिज्ञानन विषयक्षेत्र कहीने (१ए७) मी गाथा - सुधी देवोनां नवे छारनो अधिकार संपूर्ण कस्यो ..... .... .... ११४ १५ नारकीनां आयुष्यनी जघन्योत्कृष्ट स्थितिनुं प्रथम बार कह्यु ते मध्ये नारकीने विषे विविध प्रकारनी वेदनानुं स्वरूप पण कह्यु बे. .... .... ११६ १६ नारकीनुं बीजुं नवनहार वखाएयुं बे. .... .... .... १२३ १७ नारकीनां शरीरना मानतुं त्रीजुं हार वर्णव्युं बे. .... .... १३१ १७ नारकीना उत्पात विरहनुं हार तथा चवन विरहनुं हार तथा एक समय उपज़वानी संख्यानुं छार थने एक समये चववानी संख्या- छार ए रीते चार छार कह्यांबे. .... .... .... १ए नारकीना आठमा गतिहार मध्ये एने संघयण अने लेश्या कही बे. .... १३६ २० नारकी नरक थकी निकली क्यां श्रावे? तेनुं नवमुं गतिहार कह्यु बे. .... १३ए २१ नारकीने अवधिज्ञाननुं देत्र कहीने नवे धारनो अधिकार संपूर्ण कस्यो . १४० २२ मनुष्यनुं जघन्योत्कृष्टायुनुं धार तथा अवगाहनानुं धार तथा उपपात उछ तनाना विरहकालनां बे हार तथा एक समये केटला उपजे अने केटला चवे, तेनी संख्यानां बे घार, सर्व मली हार कह्यां बे. .... .... .... १४१ २३ कयो जीव मरीने मनुष्यगतिमा उपजे, तेनुं सातमुं गतिहार तथा तदंतर्गत चक्रवर्तिनां चौद रत्न तथा वासुदेवनां सात रत्ननां नाम कह्यां बे. .... १४५ .... १३४ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका. २४ मनुष्य मरीने खजावे क्यां जाय? तेनुं श्राउमुं श्रागतिहार, ए छारमां वेद पाश्री कश् गतिना श्रावेला केटला जीव एक समयमां सिकि पामे, इत्यादिक कहीने मनुष्यनां आवे हारनो अधिकार संपूर्ण कस्यो . .... १४४ २५ तिर्यंचनी आयुःस्थिति, कायस्थिति तथा जवस्थितिनुं प्रथम छार कडं बे. १५० २६ तिर्यंचनां शरीरनी अवगाहनानुं बीजुं हार कडं ..... .... .... १५३ २७ तिर्यंचने उपपातविरहकाल अने चवन विरहकालनां बेछार कह्यां बे. .... १५५ २० तिर्यंचने एक समये उपजवा श्रने मरवानी संख्यानां बे द्वार कह्यां . .... १५५ शए कया कर्मथी जीवने एकेजियपणानी प्राप्ति थाय ते कडं ..... .... १५७ ३० तिर्यंचमां कयो जीव भावी उपजे, एवं सातमुंगतिहार कडं . .... १५७ ३१ तिर्यंचनुं श्रापमुं श्रागतिहार कर्वा , तदंतर्गत तियच तथा मनुष्यने । लेश्या पण कही . श्रहीं तिर्यंचनां आवे छारनो अधिकार संपूर्ण कस्यो . १५७ ३२ चारे गतिना जीवोने सामान्यपणे वेद कहीने उत्सेधांगुल, प्रमाणांगुल अने आत्मांगुलनुं खरूप कडं बे. ते पळी चोराशी लद योनि, कुलकोमीनी संख्या तथा संवृत्तादिक योनि कही जे. ते पडी एकला मनुष्यने योनि कहेल बे. १६० ३३ बंध, अबंध,सोपक्रम, निरुपक्रमादिक सात प्रकारे श्रायुना नेद कह्या ..... १६५ ३४ सर्व जीवने पर्याप्ति तथा पर्याप्तिनुं लक्षण अने दश प्राणनुं स्वरूप कडु बे..... १७० ३५ अतिसंक्षिप्ततर संघयणी चोवीश छारे करी कही बे. .... .... १७२ १३ तेरमो श्रीरत्नशेखरसूरिकृत क्षेत्रसमास नामा ग्रंथ मूल तथा बालावबोध सहित बाप्यो , तेनी अनुक्रमणिका लखीए बीए. .... .... ... २७३ १ ग्रंथनी श्रादि मंगलाचरण कडं . .... २ तिळ देत्रमांदे छीप समुज्नु सामान्यपणे मान, तथा ते छीप, समुन सर्व जगतीए करी विंट्या , माटे जगतीनां स्वरूप सविस्तर कह्यांबे. .... १७३ ३ जंबुद्धीपनांब कुल गिरि तथा सात क्षेत्रनुं स्वरूप तथा कुल गिरि उपर रहेला. पद्मादि अह तथा ते पहने विषे रहेला श्रीदेवी प्रमुखनां कमल उपर जुवन तथा ते देवीउना परिवारनां कमलो वगेरे सविस्तर वर्णव्यां ..... .... १२ ४ पहनां बारणां तथा ते मध्येथी जे नदी नीकली , तेनां नाम तथा गति तथा जीजी तथा कुंम तथा कुंडनी वच्चे बीप तेनुं प्रमाण, नदीनो विस्तार तथा जंडपणुं तथा परिवार तथा संख्या वगेरे कहीजे..... .... १५० ५ कुलगिरिना कूट संबंधी विचारमा तेनुं उंचपणुं तथा तिहां जिननवनो , तेनुं मान तथा सहस्रांक कूट तथा वैताद्यनां कूट तथा सर्व कूटनो विस्तार ___ .... १७३ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका. तथा जंबुवृदनी पीठिकानां पाठ कूट तथा चोत्रीश षनकूट तथा ए सर्व कूटनीसमग्र संख्या तथा जे कूटोपर जिन जवन ते कूटो अने वैताढ्यनुं खरूप वगेरे कह्यु बे..... .... .... .... .... .... १ए ६ चोत्रीश वैताढ्योने विषे वे बे गुफा , तेनुं स्वरूप कां जे. .... .... २०७ दक्षिण जरत मध्ये अयोध्या नगरीनुं प्रमाण तथा मागधादि तीर्थ कह्यांबे. २०ए नरत तथा ऐरवत मध्ये बार बारारूप कालचक्रनुंखरूपादिक कडं . .... २१० ए चार वृत्तवैताढ्यनुं बे गाथाए करी स्वरूप कयुं . .... .... .... २१७ १० जंबुद्धीपना मध्यने विषे मेरु पर्वत जे ते तथा मेरुनां वन तथा जिननवन तथा शिला श्रने ते शिलाने विषे रहेलां सिंहासननुं स्वरूपादि कर्वा . .... २१७ ११ गजदंतगिरि तथा तेनी स्थिति अने वर्ण तथा ऊंचपणुं तथा पहोलपणुं तथा अधोलोकने विषे रहेनारी दिग्रकुमारिकानां स्थानक कह्यां बे तथा कुरुक्षेत्रना मध्य नागनुं पहोलपणुं तथा कुरुक्षेत्रना गिरि तथा कुरुक्षेत्रनी नदीना पह तथा कुलगिरि, जमल पर्वत, तथा पांच सह अने मेरु, एना सात अांतरा वगेरे कह्या . .... .... .... २२५ १५ जंबुवृक्ष तथा शामलीवृद वखाएयां बे..... .... .... शए १३ महाविदेहना बत्रीश विजयनुं पहोलपणुं तथा लांबपणुं तथा सोल वक्षस्कार पर्वत श्रने बार अंतर नदीनां नाम तथा बत्रीश विजयनां नाम तथा बत्रीश विजयनी मुख्य बत्रीश नगरीउनां नाम तथा बत्रीश विजयनी नदी तथा शीता अने शीतोदा नदी, खरूप कत्यु ..... .... .... .... २३५ १४ जगतीनी मांदेली दिशिए बन्ने बाजुनां चार वनमुखनु स्वरूप कडं . .... २३६ १५ विजयादिकनो विस्तार एकठो करी लाख योजन पूर्ण करी देखाड्यो बे. २३७ १६ अधोलोक मध्ये जे गाम ले ते वखाएयां . .... .... .... २३० १७ तीर्थकर तथा चक्रवर्त्ति प्रमुख क्यां उपजे ? तेनां स्थानक कह्यां . .... २३७ १० चंजमा थने सूर्यनां चार क्षेत्र तथा तेनां मामला तथा मामलां मामलानुं अंतर तथा चंछ सूर्यनां मामलांगें परस्पर अंतर तथा ते चंद्र सूर्यना प्रत्येक मांडलाने विष मुहूर्तगति तथा एक चंद्धमानी पळवाडे तारादिकनी संख्या तथा लवण समुज्ने विषे चंड सूर्यनी संख्या तथा गति तथा मनुष्यक्षेत्रथी बाहेरला चंड सूर्यनो विचार कह्यो बे. .... ... .... .... २३० रए जंबुद्दीपनो परिधि तथा गणितपद तेमज परिधि, इकु, जीवा, धनुःपृष्ट प्रमुख श्राव बोल जाणवानो विधि तथा जरतदेवना प्रतर करवानो विधि Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .२५ए .... २१ २३ अनुक्रमणिका. तथा वैताट्य प्रमुखना प्रतर करवानो विधि तथा घनगणित कहीने अहीं सुधी जंबुछीपनो अधिकार संपूर्ण कस्यो बे. २० लवणसमुपनो अधिकार कह्यो बे. .... २५१ १ उपन्न अंतर छीपनी स्थिति कही . .... २५ चंछ सूर्यना लवण समुज्ने विषे जे छीप ते कह्या . .... .... २६२ २३ धातकीखंम नामा बीजा छीपनो अधिकार कह्यो बे.. २६४ २४ कालोद समुनो अधिकार तथा पुष्करदल छीपनो अधिकार कह्यो बे. २७० २५ मनुष्यदेत्र माहेला सर्व पर्वतनी संख्या कही बे. २६ मनुष्यदेवथी बाहेर जे पदार्थ न होय, तेनां नाम कह्यां . .... .... १७६ २७ नंदीश्वर, कुंडल अने रुचक दीपने विषे जे जिनजवन डे ते कयां बे. २७ दिशिकुमरीने वसवानां स्थानक कह्यां बे..... ... १४ चौदमुं श्री सिद्धांतस्तवनं नानापद्यवझम्. १५ पन्नरमुं श्री ऋषनादिवर्डमानांतजिनस्तवनं वसंततिलकावृत्तपथितम्. १६ सोल, यमकमयचतुर्विंशति जिनस्तुतिः...... श्व १७ सत्तरमो टीका उपरथी करेला बालावबोध सहित कर्मग्रंथनां एकत्रीश पृष्ठ जे. २७६ १७ अढारमो कर्मविपाक नामा प्रथम कर्मग्रंथ , तेनी अनुक्रमणिका लखीए बीए. ३१७ १ प्रथम अनीष्ट देवतानी स्तुत्यादिकनुं प्रतिपादन करेलुं बे. .... .... ३१७ २ प्रकृतिबंधादिक चार प्रकार, कर्मबंधना देखाड्या बे..... ..... ....३१ ३ ते चार प्रकार मध्ये प्रथम प्रकृतिबंधना मूल नेद भाव देखाड्या बे. .... ३२० ४ ते आठ कर्मनी अनुक्रमे उत्तर प्रकृति देखाडतां प्रथम झानावरणीय कर्मना मत्यादिक पांच प्रकार दर्शावतां ते मध्ये मतिझानना अहावीश उत्तर नेदमांहे व्यंजनावग्रहादिकनुं स्वरूप सविस्तर देखाड्युं बे. .... .... ५ श्रुतज्ञानना चौद नेद तथा बीजा वीश नेद देखाड्या बे. .... .... ६ अवधिज्ञानना बन्नेद तथा मनःपर्यवज्ञानना बे नेद देखाड्या बे. .... ७ पांच प्रकारना ज्ञानना थावरण कह्या ..... दर्शनावरणीय कर्मना नव नेद तथा वेदनीय कर्मना बे नेद देखाड्या बे..... ३३४ ए मोहनीय कर्मना अहावीश नेद तथा श्रायुना चार नेद कह्या बे..... .... १० नामकर्मना नेद देखाड्या बे. ए मध्ये चौद पिंडप्रकृतिना उत्तर द तथा __ संघयण, संस्थान, बंधन, संघातनादिकनां स्वरूप कह्यांबे. .... .... ३४ए ११ गोत्रकर्मना बे नेद तथा अंतरायना पांच नेद कह्या बे. .... .... ३७५ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका. १५ ए श्राप कर्म बांधवाना स्थूल हेतु दर्शाव्या बे. .... .... .... ३०० रए उंगणीशमो कर्मस्तव नामा बीजो कर्मग्रंथ बे, तेनी अनुक्रमणिका लखीए बीए. .... .:. ...... .... .... ३७ १ प्रथम मंगलाचरण करी पड़ी चौद गुणगणांनां नाम कह्यां ..... .... ३७ २ कया कया गुणगणे केटली केटली कर्मप्रकृति बंधाय ? तथा कया गुणगणे केटली कर्मप्रकृतिनो बंधविच्छेद थाय? ते देखाड्युं बे..... ३ जे गुणगणे जेटली कर्मप्रकृतिनो उदय होय तथा जे गुणगणे जेटली कर्म प्रकृतिनो उदयविछेद होय ते कयुं . .... .... .... .... ४०३ ४ जे गुणगणे जेटली प्रकृतिनी उदीरणा होय ते देखामी बे. .... .... ४१७ ५ चौद गुणगणां मांदेलां कया गुणगणे केटली प्रकृति सत्ताए होय तथा कया गुणगणे केटली प्रकृतिनो सत्ताविछेद थाय ते दर्शाव्युं ..... .... ४१७ ..... .... ३ए २० वीशमो बंधस्वामित्व नामा तृतीय कर्मग्रंथ जे. एमां मंगलाचरण करीने चौद मार्गणानां उत्तर बासठ मार्गणा स्थानकने विषे रहेला जीवो कयी मार्गणाए सामान्य केटली प्रकृतिना बंधाधिकारी होय, तथा विशेषादेशे प्रत्येक मार्गपाए रहेला जीवने केटलां केटलां गुणगणां होय? तथा ते मांदेला कया कया गुणगणे रहेलो जीव, केटली केटली प्रकृतिनो बंधाधिकारी होय. जेमके चौद मार्गणा मध्ये प्रथम गतिमार्गणा बे. तो गतिमार्गणाना नरकादिक चार गतिना नेद करी चार नेद बे. ते मध्ये प्रथम नरकगतिने विष रह्यो थको जीव, जंघे केटली प्रकृतिनो बंधाधिकारी होय तथा विशेषे नरकगति मध्ये चार गुणगणांबे, ते मांदेला कया गुणगणे रह्यो थको जीव, केटली प्रकृतिनो बंधाधिकारी होय. एवी रीते सर्व बासठे मार्गणाने विषे बंधस्वामित्वपणुं देखाड्युं बे. .... ..... .... .... ४२७ २१ एकवीशमो षमशीतिका नामा चतुर्थ कर्मग्रंथ ने तेनी अनुक्रमणिका. .... ४६७ १ प्रथम आ ग्रंथ मध्ये कहेवानां हार तथा प्रतिहारनां नाम कह्यां . .... ४६७ २ चौद जीवस्थानक मांदेला कयां कयां जीवस्थानके कयां कयां गुणगणां तथा केटला योग, उपयोग, लेश्या तथा कर्मप्रकृतिना बंधनां स्थानक, उदयनां स्थानक, उदीरणानां स्थानक तथा सत्तानां स्थानक केटला होय? ए श्राप प्रतिहार दर्शाव्यां बे. .... .... .... .... .... ४२ ३ चौद मूल मार्गणा तथा बासठ उत्तर मार्गणानां नाम कह्यां . .... ४ाए Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका. ४ बासठ मार्गणाद्वारे प्रत्येके चौद जीवन्नेद विचास्या दे. ५ बासठ मार्गणाद्वारे प्रत्येके गुणगणां विचास्यां . .... ....४ ६ बासठ मार्गणाद्वारे प्रत्येके पंदर योग विचास्या ..... ....४एए ७ बासठ मार्गणाधारे प्रत्येके बार उपयोग विचास्या बे. .... ५०६ ७ मन, वचन श्रने काया, ए त्रण योगमार्गणाने विषे जीवस्थान, गुणस्थान, योग अने उपयोग श्राश्री मतांतर कडं . " बासन मार्गणासारे प्रत्येकलेच्या माती लेया माहेला लेश्या कहूँ। बे..... .... ५१० १० बासठ मार्गणाना जीवोनुं मूल चौद मार्गणाए करी प्रत्येक मार्गणाना जीवो विषे अल्पबहुत्व विचायुं . .... .... ५१२ ११ चौद गुणगणाने विष जीवनेद, योग, उपयोग, लेश्या विचास्यां . .... ५१॥ १५ चौद गुणगणाने विष मूल कर्मबंधना बंधहेतु चार श्रने उत्तर बंधहेतु सत्तावन . ते सर्व नांगा सहित विचास्या बे. .... .... .... ५२४ १३ चौद गुणगणे उदय श्रने सत्ता तथा उदीरणानां स्थानक कह्यां . .... ५४० २४ चौद गुणगणे वर्त्तता जीवनुं अस्पबहुत्व कह्यु बे. .... .... ५४२ १५ औपशमादिक पांच नावनु स्वरूप, प्रतिनेद तथा जांगा सहित प्रत्येक गुणगणे विवरीने पली श्राप कर्मने विषे विवरीने कडं . .... .... ५४४ १६ संख्याता, असंख्याता अने अनंताना नेद कह्या बे..... .... .... ५५४ २२ बावीशमो शतक नामा पंचम कर्मग्रंथ , तेनी अनुक्रमणिका लखीए बीए. ५६७ १ मंगलाचरण करी ग्रंथना अनिधेयनूत वीश हारनां नाम कह्या बे. .... ५६७ २ ध्रुवबंधिनी तथा अध्रुवबंधिनी प्रकृतिनां नामोनुं पहेढुं श्रने बीजुं हार. ....५६ए ३ ध्रुवोदयी तथा अध्रुवोदयी प्रकृतिनां नामोनुं त्रीजुं तथा चोथु छार का . ५७५ ४ प्रकृतिनी सत्ताना ध्रुवाध्रुवपणानुं पांचमुं तथा बहुं हार कडं बे. .... .... ५७६ ५ सर्वघाति तथा अघाति प्रकृतिनुं सातमुं अने श्रापमुंहार कडं . ....एर ६ पुण्य तथा पापप्रकृतिनां नामोनुं नवमुं श्रने दशमुंहार कडं . .... ५०५ अपरावर्त परावर्त्तमान प्रकृतिनुं अगीधारभु तथा बारमुंहार कह्यु . ... ५७ ७ देत्रविपाकी प्रकृतिनुं हार, जीव विपाकी प्रकृतिनुं हार, नवविपाकी प्रकृतिनुं छार तथा पुजल विपाकी प्रकृतिनुं हार, ए चार हार कयां बे. .... .... ५ए ए प्रकृति, स्थिति, रस अने प्रदेश ए चार प्रकारना बंधनां चार हार कह्यां जे. एए३ १० मूल प्रकृति पाउनां बंधस्थानक कहीने तेने विषे नूयस्कारादिक चार बंध फलाव्या ले तथा नूयस्कारादिक बंधनां लक्षण कह्यां . .... .... ५५ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका. ११ सर्व उत्तर प्रकृतिनां सामान्ये उगणत्रीश बंधस्थानक डे तेनां नाम कहीने पड़ी तेने विषे नूयस्कारादिक चार बंध कह्या बे. ..... ...... एए १२ प्रत्येक कर्मनी उत्तर प्रकृतिनां विशेषे जूदां जूदां बंधस्थानक कहीने तेने विषे नूयस्कारादिक चार बंध विचास्या . .... .... .... .... ६०० १३ मूल प्रकृतिनो जघन्योत्कृष्ट स्थितिबंध तथा अबाधाकाल कह्यो बे. ... ६०५ १४ उत्तर प्रकृतिनो जघन्योत्कृष्ट स्थितिबंध तथा श्रबाधाकाल सर्व जीवोने विषे कह्यो . ते मध्ये कुक्षक नवनुं मान पण कडं बे. .... .... .... ६०७ १५ उत्तर प्रकृतिना उत्कृष्ट तथा जघन्य स्थितिबंधस्वामी गुणगणे तथा जीव नेदे कहीने प्रकृतिबंधनो अधिकार पूर्ण कस्यो . .... .... .... ६२१ १६ उत्कृष्टादि स्थितिबंधने विषे उत्कृष्टादि तथा साद्यादि चार नांगा कह्या . ६५६ १७ गुणगणा आश्री उत्कृष्ट जघन्य स्थितिबंध कह्यो ..... .... ६ए १० एकेडियादिकने विषे हीनाधिक स्थितिबंधनुं अल्पबहुत्व कयुं . .... ६३० रए मनादिक योगर्नु खरूप तथा योगस्थानकना स्वामी कह्या . .... .... ६३५ २० चौद जातिना जीवने कर्मबंधना जघन्य अने उत्कृष्ट स्थितिना वचमाने आंतरे जेटला समय तेटला स्थितिबंधनां स्थानक ले. तेनुं अल्पबहुत्व तथा एकेकी स्थितिनां अध्यवसायस्थानकनुं अल्पबहुत्व कडं डे. .... .... ६४० १ नरकत्रिकादिक एकतालीश प्रकृति, उत्कृष्ट बंधांतर तथा अबंधकाल पूरवानो उपाय तथा केटलीएक प्रकृतिनो सतत बंधनो काल कहीने स्थितबिधनो अधिकार पूर्ण कस्यो बे..... . .... .... ६४२ २२ रसबंधना अधिकारमा रसविनाग वर्गणा तथा स्पर्डकनुं स्वरूप तथा एक गणीश्रा, बेगणीश्रादिक शुनाशुन रसन स्वरूप कडं जे. .... .... ६५० २३ उत्कृष्ट तथा जघन्य रसबंधना खामी देखाड्या डे. .... २४ जघन्य, अजघन्य, उत्कृष्ट श्रने अनुत्कृष्ट ए चार प्रकारना रसबंधने विषे सायादि चार नाग विचारीने रसबंधनो अधिकार पूर्ण कस्यो . .... २५ प्रदेशबंध कहेतो थको प्रथम औदारिकादिक वर्गणानुं स्वरूप कडं जे. .... ६७० २६ जेवां कर्मदल जीव ग्रहण करे ते कह्यां बे, तथा ते कर्मदलगें अवगाहनादेत्र कडं बे तथा मूल पाठ कर्मनां दलनी नागविजजना कहीने पनी उत्तर प्रकृतिनां दलनी नागविनजना कही बे. कर्मना प्रदेश निर्जराववाने अर्थे सम्यक्त्वादि अगीश्रार अर्थे गुणश्रेणी कही . ६७७ २७ चौद गुणगणांनो अंतरकाल कह्यो . .... .... ६ए? .... ६७७ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका. शए पाठ प्रकारना पुजलपरावर्त्तनुं कालमान समजाववाने कालमानना मुहू तथी मामीने पढ्योपमादिक सर्व नेद विस्तारे कह्यां बे. .... ....दएर ३० उत्कृष्ट तथा जघन्य प्रदेशबंधनुं स्वरूप तथा ते बंधना खामी कह्या . .... ७०५ ३१ प्रदेशबंधने विषे सादि अनाद्यादिक चार नांगा कह्या . ..... ३५ योग्यस्थानक, खरूप तथा अल्पबहुत्व कहीने प्रदेशबंध समाप्त कस्यो ३३ प्रकृतिस्थित्यादिक चार बंधने विषे बंधना विशेष हेतु कह्या ले..... .... ३४ चौद राजलोकनी श्रेणी, प्रतर तथा घनादिकनुं मान कहुं . .... .... ११५ ३५ उपशमश्रेणी तथा ६पकश्रेणीनुं स्वरूप कह्यु . .... .... .... ७१७ २३ त्रेवीशमो सप्ततिका नामा षष्ठ कर्मग्रंथ डे तेनी अनुक्रमणिका लखीए बीए. १२५ १ प्रथम मंगलाचरण तथा प्रयोजनादिक चार वानां कह्यां . .... .... ७५ २ सामान्यपणे मूल आठ प्रकृतिनां नाम तथा खरूप कह्यां . .... .... । ३ मूल आठ प्रकृतिना बंध, उदय अने सत्तानां स्थानक कह्यांने तथा कयुं कर्म बांधतां कयां बंधस्थानक होय ? तथा कयी प्रकृतिने उदये केटलां उदयस्था. नक होय, तथा कयी प्रकृतिनी सत्ताए कयों कयों सत्तास्थानक होय तथा एनां बंध, उदय, सत्ता, स्थानकनो परस्पर संवेध तथा चौद गुणगणे एना नांगा कह्या बे. ४ उत्तर प्रकृति श्राश्री संवेध कह्यो बे, ते मध्ये प्रथम ज्ञानावरणीय श्रने अंत राय बे कर्मनी उत्तर प्रकृतिना पूर्वोक्त रीतेज बंध, उदय तथा सत्तास्थानक संवेधे नांगानी प्ररूपणा सविस्तर करी डे..... .... .... ७३४ ५ तेमज दर्शनावरणीय कर्मनी उत्तर प्रकृति आश्री बंधादिक स्थानक कह्यां ले तथा तेनो परस्पर संवेध देखाड्यो .. .... ६ वेदनीय, श्रायु अने गोत्र, ए त्रण कर्मनी उत्तर प्रकृतिना नांगा कह्या ..... ७३७ मोहनीय कर्म उत्तर प्रकृतिनां बंधादिक स्थानकोनो संवेध कह्यो . ... भर नामकर्मनी उत्तर प्रकृतिनां बंधादि स्थानको कहीने पनी संवेध कह्यो ..... ७६१ एचौद जीवस्थानके प्रथम ज्ञानावरणीय तथा अंतराय कर्मना बंधोदय सत्ता संवेधे नांगा कहीने पठी दर्शनावरणीय, वेदनीय, गोत्र,आयु, मोहनीय अने नामकर्मना बंधादिकने संवेधे मांगा कह्या जे. ___ .... .... अज्ए १० चौद गुणगणे ज्ञानावरणीय अने अंतराय कर्मना नांगा कह्या बे. ११ चौद गुणगणे दर्शनावरणीय कर्मना बंधादि स्थानना नांगा कह्या . .... पुए १५ चौद गुणगणे वेदनीय अने गोत्रकर्मना बंधादि स्थानना नांगा कह्या..... ००१ .... प्रश्न .... ७३५ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका. १३ चौद गुणगणे आयुःकर्मना बंधादि स्थानना नांगा कह्या ..... .... पर १४ चौद गुणगणे मोहनीय कर्मना बंधादि स्थानकना नांगा कह्या बे. १५ मोहनीयना उदय नांगा तथा उदयपदवृंद ते योग, उपयोग अने वेश्या । साथे चौदे गुणगणे गुएया बे..... .... G०६ १६ चौद गुणगणे मोहनीयनां सत्तास्थानक कहीने संवेधे नांगा कह्या बे. .... १४ १७ चौद गुणगणे नामकर्मना बंधोदय, सत्तास्थानक अने नांगा कह्या . .... १६ १७ मिथ्यात्व श्रने साखादन गुणगणे मोहनीयनां बंधस्थानकना नांगानी संख्या __ तथा उदयस्थानकना नांगानी सरवाले संख्या कही अ. .... .... U२७ एए चार गतिने विषे नामकर्मनां बंधादि स्थानक कह्यां . .... २० एकेंजियादिकने विषे नामकर्मनां बंधोदय सत्तास्थानक कह्यां . .... ७३५ १ अहीश्रा उदीरणा न कही तेनुं कारण तथा एकतालीश प्रकृतिनो उदय उदीरणाए अंतर जे ते तथा कया गुणगणे कयी प्रकृति बांधे ? ते तथा जे गतिने विषे जेटली प्रकृति सत्ताए पामीए ते कडं . .... .... .... ३४ २२ उपशमश्रेणीनु स्वरूप विस्तारपूर्वक कडं . .... .... .... ३ २३ पकश्रेणीनुं स्वरूप विस्तारपूर्वक कह्यु बे..... .... .... ५४ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्री॥ ॥ अथ इंद्रियपराजयशतक प्रारंभः॥ सुचिअ सूरो सोचेव पंमि तं पसंसिमो निचं ॥ इंदिय चोरेसिया, न बुंटिअं जस्स चरणधणं ॥१॥ इंदिय चवल तुरंगो, जुग्ग म ग्गाणु धाविरे निचं ॥ नाविअनवस्सरूवो रंजिणवयणरस्सीहिं॥२॥ व्याख्या- तेहज सूरो के शूर, तेहज पंडि के पंडित, तं के तेनेज, प्रसंसिमो निच्चं के निरंतर हुं प्रशंसु डं, के, जेहy सया के सदा, इंदियचोरे के० इंजिउरूप चोरोए, चरणधणं के चारित्ररूपी धन नथी खुंट्यं ॥१॥ इंदियचवलतुरंगो के इंजियोरूप जे चपल घोडा , ते उग्गर के उर्गतिना, मग्गाणु के० मार्गे, निचं के निरंतर, धाविरे के० दोडवानुं करे बे, तेने जवस्सरूवो के संसार स्वरूपने जेणे नावि के जाव्यो , ते प्राणी जिणवयणरस्सीहिं के श्रीवीतरागनां वचनरूप रस्सीहिं के दोरमीए करीने रंजई के रुंधे . १ इंदिय धुत्ताणमहो तिखतुस मित्तंपि देसु मा पसरं॥जश दिनो तो नी उ जबखणो वरिस कोडिसमो॥३॥अजि इंदिएदि चरणं, कळंवघुणे दि किर असारं ॥ तो धम्मबिदिदढं, जइ अचं इंदिय जयंमि॥४॥ व्याख्या- अहो उत्तमजन ! इंदियधुत्ताणं के० इंजियरूप धूर्तने, तिलतुसमित्तंपि के तिखना बोतरा जेटलुं पण प्रसरं के० पसरवा, देसुमा के देश नही. जशदिनो के जो पसरवा दीधो तो नी के लीधुं. शुं लीधुं ? ते कहेजे, जल के ज्यां खणो के क्षणमात्रमा पण वरिसकोडीसमो के० वरसनी कोडी समान उःखमय , ते, छःख लीधुं. ॥३॥ जेणे इंजिन जीती नथी तेनुं चारित्र, कळं विघुणेहिं कीर असारं-कठविघुणेहिं के काष्टमा रहेनारा कीडाए जेम काष्टने करडीने असारं के० असार कीर के को. एवं असार जाणवं. ए माटे धमबि के धर्मना अर्थि जने इदिजयंमि के इंजिर्ड जीतवाने माटे दह जश्श्रव्वं के० दृढ यत्न करवो. ॥४॥ जद कागिणी इदेऊ, कोडिं रयणाणदारए कोई ॥ तद तुब विसय गिधा जीवादारंति सिदिसुहं ॥ ५॥ तिलमित्तं विसयसुदं उदं च गिरिरायसिंगतुंगयरं ॥ नव कोडीदिं न निह जंजाणसुतंकरिद्यासु ॥६॥ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ इंडियपराजयशतक. व्याख्या - जह के० जेम कोइ के० कोइएक कागिणी के० कांगणीने हे के० हेतु एटले अर्थे को मरणापहारए के० कोडिरलने हारे; तह के० तेम तुछ के नीच एवा विसय गिद्धा के० विषयमा लोलुप थएला जीवा के० जीवो बे ते पोताना सिद्धि - सुदं के० मोक्षसुखने दारंति के० हारीजायते ॥ ५ ॥ तिल मित्तं विसयसुहं के० तिमात्र पण विषयसुख, ते डुहंच गिरिरायसिंगतुंगयरं के दुःखरूप गिरिराय के० पर्वत - तेना तुंगयरं के० उंचां एवां सिंग के० शिखर बे, एवं जाणवुं - अर्थात् थोडं पण विषयसुख ने ते महाडुःखनुं देतु जावं. ए विषयसुखने माटे जबकोडीदिं के० जवनी कोडिए दुःख जोगवतां पण न नि5इ के० न निवर्ते. एवं बे, माटे जं के० जे ध्यानमा यावे तं के० तेम करिझासु के० करजे ॥ ६ ॥ जंता मदुरा विवाग विरसा किंपागतुल्ला इमे ॥ कचकंडु एंव डुःक जया दाविंति बुद्धिसुदे || मन हे मयतिरिहव सययं विद्यानि संधि पया ॥ त्तादित्ति कुजम्म जोणिगदां जोगा मदावेरिणो ॥ ७ ॥ व्याख्या - जोग केवा बे ? ते कहे बे. मुंजंता के० जोगवतां थका मदुरा के० मधुरा पण विवाग के परिणामे - श्रथवा विपाके किंपाकतुल्लाइमे के० किंपाकवृक्षतुल्य विरस के० निरस बे, वली कछकंकुश्रणं के०खसनुं जे खणवं - ते खणतां तो सारं लागे, पण परिणामे महा दुःख थाय. तेम ए सुख जोगवे बे, ते पण इकजण्या के० ते खसना खणवा सरखां दुःखनां उपजावणहार एवां बुद्धिसुदं के० बुद्धिसुखने दाविंति देबे ने मन के० मजन करतां थकां अर्थात् जोगमां तल्लीन होतां थकां मयति हि के० मृगतृमा जे जांऊवां तेनी परे सययं के० निरंतर मिठा निसंधिप्पया के० खोटा अभिप्रायना देनारा बे; छाने जुत्ता के० जोगव्या थका, कुजम्मजो णिगहणं के० कुजन्मनी योनिनुं जे ग्रहण, तेने दिंति के० दे बे. ए माटे जोगो महावेरिणो to जोग जे विषयादिक सुख ते महावेरी बे, एम जाणवुं ॥ ७ ॥ सक्का अग्गी निवारेजं वारिणो जलिन विदु ॥ सवोददि जलेणावि कामग्ग पुन्निवार ॥ ८ ॥ विसमिव मुदंमि महुरा परिणाम निकाम दारुणा विसया ॥ कालमणतं जुत्ता विमुत्तं न किं जुत्त ॥ ए ॥ व्याख्या- rasa ho घोज लागेलो एवो जे अग्गी के नि, तेने वारिणो ० पाणी करीने निवारिजसक्का के० निवारण करी शकीए; परंतु कामग्गी के० कामानि जे बेते, सबोद हिजलेणावि के० सर्व समुद्रोना पाणीए करी पण डुन्निवार to निवारण करवो महा दोहलो बे. ॥ ८ ॥ हे मूढ ! या संसारना जोग विषय बेते For Private Personal Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इंख्यिपराजयशतक. मुहंमि के प्रथम श्राधमां महुरा के मधुराबे, पण परिणाम के अंते विस मिव के विषनी परे निकाम के अत्यंत असार अने दारुणा के महा जयंकर एवा . तं के० तें, कालमणंतंजुत्ता के अनंतकाल यावत् नोगव्या, तो पण अऊ के हजी नवीमुत्तं के नथी त्याग करतो ? किंजुत्त के ए विषयसुखमां केम युक्त थ रह्यो ? ॥ ए॥ विषयरसासवमत्तो जुत्ताजुत्तं न जाणई जीवो ॥ र कलुणंपला पत्तो नरयं महाघोरं ॥१०॥जद निंबउम्मपत्तोकीडो कडुपि म नए महुरं ॥ तह सिधिसुदपरुका संसार उहं सुहं विति ॥ ११॥ व्याख्या- ए जीव, विषयरसासवमत्तो के विषयरसरूप श्रासव एटले मदिराए करी मदोन्मत्त होतो थको जुत्ताजुत्त के युक्तायुक्त एटले योग्य अने अयोग्यने नजागई के नथी जाणतो; पण पछा के पड़ी ज्यारे कक्षुणं के महापुःख जय एवा महाघोरं के अतिशय जयंकर नरयं के० नरकने पत्तो के पाम्यो, त्यारे रश के फूरेडे, अर्थात् पश्चात्ताप करे बे. ॥१०॥जह के जेम, निंबधम्मपत्तो के लींबमाना वृदनुं पांदडं ते कडुअंपि के कडवू दे तो पण कीमो के ते पांदडामा रहेनारो कीडो महुरं के मधुर एवं मन्नए के० माने जे; तह के तेम ए जीव सिधिसुहंपरुरका के मोक्षसुखथी परोक्ष जे संसारऽहं के संसारनां दुःख तेने सुहंविंति के० सुख तरिके जाणे . ॥ ११॥ अथिराण चंचलाणय खणमित्त सुहंकराण पावाणं ॥ उग्गइ निबंध गाणं विरमसु एआण नोगाणं ॥१॥पतायकामनोगा सुरेसु असुरेसु तदय मणुएसु॥नयजीवतुप्रतित्ती जलणस्सवकनियरेण ॥१३॥ व्याख्या-रे अजाण जीव ! तुं, अथिराण के अस्थिर, श्रने चंचलाणय के चपल एवा खणमित्त के क्षणमात्र सुहं के सुखने कराण के० करनारा एवा, अने पावाणं के महापापरूप तथा उग्गर के उर्गतिए निबंधणाणं के बंधन थवाना हेतुरूप जे जोगाणं के जोग, तेथी विरमसु के विरम-पागे उसर ? ॥ १२॥ सुरेसु के देवताउने विषे, सुरेसु के असुरदेवतानेविषे, तेमज मणुएसु के मनुष्यने विषे हे जीव ! तुं कामनोग के कामना लोग जे स्त्री विषयादिक सुख ते पत्ता के पाम्यो; तोपण जेम जलण के अग्नि कहनियरेण के काष्टोना समूहे पण तृप्ति पामतो नथी, तेम नयजीव तुप्रतित्ती के० हे जीव ! तने पण तृप्ति थती नथी. ॥ १३ ॥ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इंख्यिपराजयशतक. जहाय किंपागफला मणोरमा रसेणवनेणय मुंजमाणा ॥ तेखुट्टए जीविय पच्चमाणा एउवमा कामगुणा विवागे ॥ १४ ॥ सर्वविलविरं गीअं सर्वनविडंबणा॥ सवेानरणानारा सवेकामाउदावदा ॥१५॥ व्याख्या-जहाय के जेम किंपाग के० किंपाकनामक वृदनां फला के फल ते मणोरमा के मनोहर, रसेण के रसेकरी परिपूर्ण, वन्नेन के वर्णेकरी रूमां पण ते मुंजमाणा के० खाधा थकांपने पञ्चमाणा के पच्यां थकां जीविय के जीवितव्यने खुट्टय के खुटाडे. एउवमा के० ए किंपाकनामक वृक्षना फलनीज उपमा, कामगुणाविवागे के कामना गुणनो जे विपाक-तेनेविषे जाणवी. अर्थात् कामगुण विपाक ते देखता मनोहर, रसेकरी परिपूर्ण अने बाह्यरंगेकरी रुडाबे, पण तेऊनो परिणाम महा पुःखदायक ॥१४॥ संसारमा गीअं केजे गीत जे ते सव्वं के० सर्व विलविथ के० विलापतुल्य जाणवां, सव्वं के सर्व, नट्ट के० नाटक ते विडंबणा के० विटंबना जेवा जाणवां, सव्वे के सर्व आजरणा के जे आजरण ते जारा के नाररूप एवा जाणवां, श्रने सव्वे के० सर्व कामा के काम ते उहावदा के पुःखदा जाणवा.१५ देविंद चक्कवहित्तणारजाइं उत्तमा जोगा॥ पत्ता अणंतखुत्तो नय हं तत्तिं गउत्तेहिं ॥ १६ ॥ संसारचकवाले सवेविय पुग्गलामए बहुसो॥ आदारिआय परिणामिआय नयतेसु तित्तोदं॥१७॥ व्याख्या-रे जीव ! देविंद के इंज, चक्कव हित्तणाई के चक्रवर्तित्वादिक, रचाई के राज्य, अने उत्तमनोगाके उत्तम प्रकारना जोग एटले विषयादिसुख, ते तुं श्रपंतखुत्तो के अनंत वार पत्तो के पाम्यो, तोपण तेहिं के तेउए करीने न यहंतत्ति के तृप्तिने पाम्यो नही ॥ १६ ॥ अहो मए के में, संसारचक्कवाले के संसाररूप चक्रवालनेविषे सव्वेविय के सघलाए पुग्गला के पुजलोने घणीवार याहारियाय परिणामिश्राय के श्राहारिया एटखे खाधा ने थाहारपणे परिणमाव्या खरा, पण तेसु के० तेनेविषे तित्तोहं के हुं तृप्ति नय के पाम्यो नही ॥१७॥ उवलेवो दो लोगेसु अनोगी नोवलिप्पई ॥जोगी नमइ संसारे अनोगी विप्पमुच्चई ॥ १७ ॥ अल्लो सुक्कोअ दो बूटा गोलया महि आमया ॥ दोविआवडिआकूडे जो अल्लो तब लग्गई ॥१॥ व्याख्या-जोगीपुरुषने जोगेसु के जोगनेविषे उबलेवो के लपटावं ते हो के० थाय , श्रने अजोगी के वांछनारहित एवा पुरुषो नोवलिप्पई के न लपेटाय, जोगी जमेर संसारे के श्रा संसारने विषे जोगी होय ते नमे , अजोगीविप्पमुच्चई के० Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इंडियपराजयशतक. अने अजोगी पुरुष संसारथी मुक्त थाय जे. ॥ १७ ॥ श्रहो के लीलो श्रने सुक्को के० सूको एवा दो के बे महिआमया के० माटीमय गोलया के गोला बे, ते बेय गोला जीतने विषे श्रावडिया के अफाल्या, तेमाथी जो के जे अहो के लीलो गोला हतो ते तब के जीतनेविषे लग्ग के लागी रह्यो. ॥ १॥ एवं लगंति उम्मेदा जे नरा कामलालसा ॥ विरत्तोन न लग्गंति जदा सुके अगोलए ॥२०॥ तणकदिव अग्गी लवणसमुद्दो नईसहस्सेहिं ॥ न श्मो जीवो सको तिपेनं कामनोगेदि ॥१॥ व्याख्या-एवं के० ए प्रमाणे लगंति के लागे. उम्मेहा के ऽर्बुद्धि एवाजे नरा के पुरुष, कामलालसा के कामलंपट. एटले जे कामलंपट एवा पुर्बुकि पुरुषो बे, ते श्रा संसारनेविषे जीतने विषे लीला गोलानी पेरे लागी रदेबे, अने जे विरत्तो के संसारथी विरम्यो, ते जेम सूको गोलो जीतने विषे न चोटे-न लागे तेम न लग्गति के नथी लागतो॥२०॥ जेम तृणकठेहिव के जेम तृणकाष्ठे करीने अग्गी के अग्नि तृप्त थतो नथी, अने नदीना सहस्रोएकरी जेम लवण समुष तृप्त थतो नथी, तेम कामनोगे करीने था जीव पण तृप्त श्रवाने शक्तिवंत थतो नथी. ॥१॥ जुत्तूणवि नोगसुदं सुरनर खयरेसु पुण पमाएणं ॥पिसश्नरएसुनेर व कलकलएतनतंब पाणाशं॥२॥को लोनेण न निदर्ज कस्स नरमणीहिं नोलिअं दिअयंको मच्चुणा नगदि को गिछोनेव विसएदि ॥२३ व्याख्या- जीव नोगसुहं के लोगनां जे सुख, सुर के ते देवता, नर के मनुष्य श्रने खयर के खेचरने विषे जुत्तूणं वि के जोगवीने पण पुण के वली, पमाएणं के प्रमादेकरीने नरएसु के नरकने विषे नेरव के जयंकर एवा कलकलए के अग्निएकरी तप्त थएला तंबपाणा के० त्रांबाना पानने पिल के पीए. ॥२॥ को के० कोण पुरुष, लोनेण के लोने न निद के न निहत एटले नथी हणायो ? अने को के कोण पुरुषना हिश्रयं के हृदयने रमणी के स्त्रीए नजोलियं के नथी जोलव्यु ? अने को के कोण पुरुषने मचुणा के मृत्युए नगहि के नथी ग्रह्यो ? श्रने को के० कोण पुरुष, विसएहिं के विषयोए करी नेवगिको के नथी गृह थयो?२३ खणमित्त सुरका बहुकाल उरका ॥ पगाम उरका अनिकाम सुस्का॥ संसार मुकस्स विपक नूया ॥ खाण। अणबाण न कामनोगा ॥२४॥सव गदाणं पनवो मदागदो सब दोसपायहि॥कामग्गदो छरप्पा जेणनितअं जगं सवं ॥ २५॥ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इंज्यिपराजयशतक. व्याख्या-श्रा संसारनेविषे खण मित्त के क्षणमात्र सुका के सुख ,अने पुःरका के कुःख तो बहुकाल के घणाकाल सुधी . ते वली पगामपुरका के अतिशय पुःख डे; अने श्रनिकामसुका के अतिशय तोडं सुख जे. एमाटे संसार मुस्कस्स विपकनूथा के० संसारने मूकवो थने तेथी विपक्षनूत थर्बु अने ए कामनोगा के काम विषयादिकना जे लोगो ने ते, अणबाण के अनर्थनी खाणी के खाण .॥॥ जेण के जेणे जगंसव्वं के सर्वजगत्ने जितूझं के नेद्यं संताप्यु, एवो पुरप्पा के पुरात्मा कामग्गहो के० कामरूपी ग्रह, ते सव्वग्गहाणं के सर्व ग्रहोने पनवो के उपजावानुं मूल कारण बे, अने सव्वदोसपायट्टी के सर्व दोषोनो प्रगट करनार, एवो महागहो के महोटो ग्रह जाणवो. ॥ २५॥ जद कबुल्लोकळ कंडुअमणो उदं मुणश् सुकं ॥ मोहाउरा मणुस्सा तद कामउदं सुदंविति ॥ २६ ॥ सल्लंकामा विसंकामा कामा आसीविसोवमा ॥ कामेपबेयमाणा अकामा जंति उग्गइं ॥॥ . व्याख्या-जह के जेम, कठुलोकलुकमुश्रमाणो के खसनो धणी खसने खणतो थको, जो के परिणामे ऽहं के दुःख जोगवे , तोपण तेने सुहंमुण के सुख माने; तह के तेम मोहाउरा के मोदेकरी आतुर एटले पीमित एवा मणुस्सा के मनुष्यो कामऽहं के कामनोगादिकना विषयपुःखने सुहंविंति के सुखकरी जाणे. ॥ २६ ॥ कामा के काम मे ते सद्धं के सालरूप , विसं के विषरूप ले अने श्रासीविसोवमा के सर्पनी दाढमां जे विष ने तेनी उपमाए बे. कामेपछेयमाणा के० ए कामनी मात्र प्रार्थना करतां श्रने अकामा के अणजोगव्ये थके पण जीव उग्गई के पुर्गतिए जंति के जाय. ॥२७॥ विसए अवश्वंता पडंति संसारसायरे घोरे ॥वीसएसु निराविका तरंति संसार कांतारे॥ ॥ खिया अवश्कता निरावश् का गया अविग्घेणं ॥तम्दापवयणसारे निरावश्केण दोअवं श्॥ व्याख्या-विसए श्रवश्वंता के विषयनी अपेक्षा प्रतिबंध करतां जीव संसार सायरेघोरे के संसाररूपी महा जयंकर एवा समुज्ने विषे पति के पडे डे, अने विसएसु निराविका के विषयने विषे निरपेक्ष होतां थकां संसारकांतारे के संसाररूपी थरण्यने तरंति के तरे जे.॥ २७ ॥बलिया के बलवंत एवा विषयनी अवश्खंता के अपेक्षाथी जे निरावश्का के निरपेक्ष थया, ते श्रविग्घेणं के थविघ्न Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इंद्रियपराजयशतक. ง पणे गया के० मोके गया. तम्हा के० ते माटे पवयणसारे के० प्रवचननुं सार जे चारित्र - वेदने विषे निरावइरकेोव्वं के० निरपेक्ष यवुं ॥ ७ ॥ सियारको निass निरविरको तरइ उत्तर नवोदं ॥ देवीदीवस - मागय जाना कुप्रलेण दितो ॥ ३० ॥ जंप्रइ तिरकंडुकं जंच सुदं उत्तमं तिलोमि ॥ तंजाणसु विसयाणं बुढिस्कय देसवं ॥ ३२ ॥ व्याख्या - विसया विको के० विषयनी अपेक्षा धरतो जीव निवमइ के० संसारनेविषेप बे, अने जे संसारथी निरपेक्ष बे ते उत्तर के० दुस्तर एवो आ जे जव के० संसार तेने तर के० तरे बे. जेम देवीना द्वीपने विषे समागत के आवेला एवा जाउजुले के० जाता एटले जाइनुं युगल. अर्थात् बे जाइ तेना दितो के० दृष्टांते जाणं. एटले बे जाइमाथी एक जाइए देवीना सन्मुख किंचित् जायुं, तेथी ते समुद्रमां जइ पड्यो ने बीजो जाइ निरपेक्ष रह्यो, तो समुद्र पार उतस्यो. ए कथा ज्ञाताजी मां बे, त्यांथी जाणवी ॥ ३० ॥ जं के० जे श्रइ के० अतिशय तिरकंडुकं के० तीक्ष्णडुःखाने जे वली तिलोमि के० त्रैलोक्यने विषे उत्तमंसुहं के० उत्तम प्रकारना सुख बे, तं के० ते सव्वं के० सर्व, विषयाणं के० विषयनी जे वुढिकय के० वृद्धि अने काय एटले हाणी तेनां हेां के० हेतु बे. एम हे जीव, ! तुं जाणसु के० जाणजे. ॥३१॥ इंदिय विसय पत्ती पडंति संसारसायरे जीवा ॥ परिकव चिन्नपंखा सुसील गुणपे हुए विदि ॥ ३२॥नल दइजदा सिदंतो मुदिल्लियं यं द्वियं जदा सुर्ड । सोसई तालुर सिद्धं विविदंतोमन्न सुखं ॥ ३३ ॥ व्याख्या - इंदिय विसयपत्ती के० इंद्रियोना विसयोने विषे विशेष करी यासक्त एवो जीव, परिकव्वन्निपरका के० जेनी पांख बेदाइ बे एवो पक्षी जेम श्राकाशथी पृथ्वी उपर जइ पडे, तेम सुसीलगुण पेहुण विहिया के० सुशील गुणरूपी पांखोविना जीव, संसार सायरे के० संसार सागरने विषे पडंति के० पडे बे ॥ ३२ ॥ जह के० जेम सुके० श्वान मुहिल्लियां हिां के० मदोडं हामकुं लिहतो के चाटतां थकां नलद‍ के० नथी जाणतुं, के तालुअर सिश्रं के० पोताना तालवानो रस शोषे बे !! ए श्वान पोतानाज तालवानो रस चाटे बे, तो पण ते चाटतां थकां विविहंतो के० विविध प्रकरनां सुखं के सुखने मन्नए के० माने बे ॥ ३३ ॥ मिदिलाएकायसेवी न लदइ किंचिवि सुदं तदा पुरिसो ॥ सो मन्नए वराजे सयकाय परिस्समं सुकं ॥ ३४ ॥ सुहुविमग्गितो कवि कयलीनचि जद सारो ॥ इंदिय विसएस तदा नबिसुदं सुहुविगविहं ॥ ३५॥ For Private Personal Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इंज्यिपराजयशतक. ___ व्याख्या-तेम महिलाणकायसेवी के स्त्रीनी कायानो सेवणहार पुरुष ते किंचि के कांड पण सुहं के सुखने न लहर के नथी लहेतो; परंतु ते वराउ के बापमो रांक सयकाय के० पोतानी कायाना परिस्समं के परिश्रमने सुखमन्नए के सुखरूप माने बे.॥ ३४ ॥ सुविमग्गिसंतो के अतिशय अविलोक्युं तो पण कछवि के कहींए पण कयदी के० केविने विषे जह के जेम सारो के सार नहि के नथी, तहा के० तेमज इंदियविसएसु के० इंजिउना विषयोने विषे पण सुहं के सुख ते सुछवि गविहं के अतिशे श्रुष्टु जोश्तुं नहि के० नथी. ॥ ३५ ॥ सिंगारतरंगाए विलासवेलाइ जुवणजलाए॥केके जयंमि पुरिसा नारीनईए न बुढती ॥३६॥ सोअसरी उरिअदरी कवडकुमीमदिलियाकिखेसकरी ॥ वश्रविरोयणअरणी उरकखाणीसुकपडिवरका ॥३७ ॥ व्याख्या-सिंगारतरंगाए के शंगाररूप जेमा तरंग के कबोलो , अने विलास वेला के० विलासरूप जेमां जलत्रमर बे, अने जुव्वण जलाए के० यौवनरूप जेमां जल , एवी नारीनईए के नारीरूप नदीने विषे न बुढंति के नथी बमता, एवा जयंमि के जगत्ने विषे केके के कोण कोण पुरिसा के पुरुष ? अर्थात् नारीरूप नदीने विषे नथी बड्यो एवो कोइ पण पुरुष जगतमा नथी. ॥ ३६॥ सोयसरी के शोकरूप नदी एवी, कुरिथ के कपट, तेनी दरी के० गुफा एवी, कवम के क पटतानी कुमी के कुंमी एवी, किलेसकरी के क्वेशनी करनारी एवी, वश्र के वैर ते रूप विरोयण के० विश्वानर एटले अग्नि, तेने उपजाववा माटे अरणी के० श्ररणीना काष्ठ सरखी, एवी महिलीया के स्त्री , ते उकखाणी के कुःखनी खाण, श्रने सुरकपमिवरका के सुखथी उपरांठी . ॥ ३७॥ अमुणिमणपरिकम्मो सम्मं को नाम नासि तर ॥ वम्मदसरपसरोदे दिम्बिोहे मयडीणं ॥३॥ परिदरसु तऊतासिं दिहिंदिछीवि सस्सव अदिस्स ॥ रमणि नयणबाणा चरित्तपाणे विणासंति॥३॥ व्याख्या- अमुणिश्र मणपरिकम्मो के नथी जाएयुं मन- पराक्रम जेणे एवो को के कोणपुरुष मयहीणं के मृगादिना दिबिोहे के दृष्टिदोने करी वम्महसर के० कंदर्पनां जे बाण, पसरोहे के पसरे; तेनाथी नासितं तर के नासवाने समर्थ थाय? अथात् को समर्थ न थाय, ॥ ३० ॥ एमाटे हे जीव ! अहिस्स के सर्पनी विसस्सवदिति के विषमय दृष्टि तेवी जेनी विषयष्टि, अने जं के जे र Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इंख्यिपराजयशतक. मणि नयणवाणा के स्त्रीनां नयनरूपी बाणो चरित्त के चारित्ररूप पाणे के प्राणने विणासंति के नाश पमाडे , तेवी स्त्रीने परिहर के० परित्याग कर. ॥३५॥ सिईत जलदिपारंगविविजिदिविसूरोवि ॥ दढचित्तोवि बलिजा जुवा पिसाईहिं खुड्डाहिं ॥४०॥ मणय नवणीय विल जद जायर जलणसंनिदाणंमि॥ तद रमणिसंनिदाणे विद्दवइ मणो मुणीणंपि॥४१॥ व्याख्या- दढचित्तो के दृढ चित्त वालो एवो विसुरोवि के विशेष करी शूरो पुरुष जे सिकंतजल हिपारंग के सिद्धांतसमुज्ने विशेषे करीने पार पहोंचेलो एवो श्रने विजिदि के इंजिउने जेणे जीती होय तेहने पण जुवर के० जुवतिरूप पिसाहिंरकुडाहिं के० कुजणी एवी पिशाचणी बलिस के बले बे. ॥४०॥जह के० जेम जलण के अग्नि- तेना संनिहाणं मि के सन्निध एटले समीपनागनेविष मणय के मीण अने नवणीय के नवनीत एटले माखण, विलजाय के जंगली जाय बे; तह के तेम रमणिसंनिहाणे के० स्त्रीना सन्निधे एटले समीपत्नागे मुणीणं पि के मुनिश्वरतुं पण मणो के मन विदव के विशेषे करीवित थाय जे. एटले मन जंगली जाय . ॥४१॥ नीअंगमादि सुपनराहिं प्पिसमंथरगईदिं ॥ महिलाहिं निनग्गाश्व गिरवरगुरुश्रा विनिसंति ॥४॥ विसयजलं मोदकलं विलासविलो अजलयराश्त्तं ॥ मयमयरंउत्तिन्ना तारुममदन्नवं धीरा ॥४३॥ व्याख्या-नीअंगमाहिं के नीची गतीए , तेमाटे सुपजराहिं के पाणीसहित एवी, अने मंथरगढ़ के मंथर गतिए डे माटे उपिछ के जोवा योग्य एवी, महिसाहिं के स्त्री ते निमग्गाश्व के नदीनीपरें गिरिवरगुरुथा के० मेरूपर्वत सरखा स्थिरमनवालाउने पण विनिशंति के विशेषे करीनेदे . ॥४२॥ विसयजलं के विषयरूप ते जल, मोहकलं के मोहरूप कलजोग, अने विलास विद्योअजलयराश्तं के हावनावरूपीथा जलचर जीवो तेणे आकीर्ण एटले जरेलो एवो अने मय के मद- ते रूप मयरं के० मगर मवालो एवो तारुणमहन्नवं के तारुण एटले यौवनावस्थारूप महार्णव एटले महासमुज्ने धीरा के जे धीरपुरुष ते उत्तिन्ना के उतरे. अर्थात् एवा समुप्रने तरी पार उतरेले. ॥ ३ ॥ जवि परिचत्तसंगो तव तणुअंगो तदावि परिवडश् ॥ मिदिखा संसग्मीए कोसानवणू सिमूणिवा ॥ ४४ ॥ सवग्गंथविमुक्को सीईन्नू ऊपसंतिचित्तोत्र ॥ पाव मूत्तिसुदं न चकवट्टीवि तं खद॥४५॥ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इंडियपराजयशतक. व्याख्या - जइवि के० यद्यपि परिचत्तसंगो के समस्त प्रकारे बाह्य कुटुंबादिकना संगने परित्याग को वे जेणे अने तव के तपेकरी तांगो के डुबलुं अंग जेणे कस्बे; तहावी के० तोपण मिहिलासंसग्गीए के० महिला जे स्त्री, तेना संसर्गे परिans के० संसारमांदे पडे. कोनी पेरे ? तो के-कोसा के० वेश्या, तेहना भुवननेविषे निवास करनार एवा जे सिंहगुफावासी मुनिवर तेनी पेठे जाणीलें ॥४४॥ सबगंथ के सर्व ग्रंथथी विमुक्को के० विमुक्त, अर्थात् संसारना सर्व बंधनथी रहित एवो ने जे चित्तोछा के० चित्तनेविषे ऊपसंति के० प्रशांतता पाम्यो अने जं के० जे पावश्मुत्तिसु के० मोदनुं सुख पामे तं के० ते सुख चक्कवहीवि के० चक्रवर्त्ति पण न लहइ के० नयी लेतो. ॥ ४५ ॥ " १० 'खेलंमि पडियमप्पं जह न तर मचिच्याविमोएन ॥ तद विसयखेलपडिप्रं न तरइ अप्पंपि कामंधी ॥४६॥ जं लदइ वीराज सुकं तं मुइ सुच्चिच् न अन्नो ॥ न विगत्ता सूच्परक जाणइ सुरलोइ सुरकं ॥४७॥ व्याख्या - जह के० जेम खेलंमि के श्लेष्मने विषे परि के० परेली एवी जे मविवि के मक्षिका पण अप्पं के० पोताने न मोएकतर के० मूकाववाने समर्थ यती नथी; तह के तेम विसयखेल पनि के० विषयरूप श्लेष्ममांहे पड्यो एवो कामंधो के० कामे करी अंध थलो पुरुष पंपि के० पोताने पण नतरइ के० न मूकावी शके. ॥ ४७ ॥ जं के० जे सुखं के० सुखने वीराज के० वीतराग लहर के लहे, तं ते सुखने श्री वीतरागज जाणे. पण न अन्नो के अन्य कोइ जाणे नहीं. जेम विगत्ता के गर्ता एटले खानामा रहेला कर्द्दमने विषे मग्न थलो एवो जे सूझरऊ के० सूर - तुंग ते सुरलोइथं सुरकं के० स्वर्गलोकनां सुखने न जाएइ के० जाणे नहीं. वि जीवाणं विसएसु उदासवेसु पडिबंधो ॥ तं नजइ गुरुच्याएवि प्रलंघणिको महामोदो ॥ ४८ ॥ जे कामंधा जीवा रमंति विसएस ते विगयसंका ॥ जे पुण जिणवयणरया ते जीरु तेसु विरमंति ॥ ४९ ॥ व्याख्या - जं के० जे कारण माटे झवि के० हजी सुधीपण, जीवाणं के० जीवोने विससुहास वेसु के दुःखनेज श्राश्रव एटले श्रवनारा जे विषय तेने विषे प्रति - बंध बे. तं के० ते कारण माटे गुरुश्राणवि के महोटाने पण महामोहो के० महामोह जे बे ते लंघणो के अलंघनीय बे एवं, नझइ के० जाणिए बीए. ॥ ५८ ॥ जे के० जे कामंधा जीवा के० कामे करी अंध थपला जीवो, ते विगयसंका के० शंकारहित होता था विसएस के० विषयोने विषे रमंती के० रमे बे. जे के० जे पुण के० जं For Private Personal Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इंघियपराजयशतक. वली जिणवयणरया के जिनवचनमां रक्त, तेजी के संसारथी बीकण, तेसु के ते विषयोथी विरमंति के विरमे . ॥ ४ ॥ असुश्मुत्तमलपवादरूवयं वंतपित्तवसमऊफोप्फसंमेअमंस बहुदडुकरंडअंचम्ममित्तपबाश्वे जुवइ अंगयं ॥५॥मंसंश्मंमुत्तपुरीसमीसंसिंघाणखेलाइ अनिनरतं ॥ एवं अणिचं किमिाणवासं पासं नराणं मश्वादिराणं ॥ ५ ॥ व्याख्या-असु के अशुचि, मुत्त के मूत्र अने मलपवाहरूवयं के विष्टाप्रवाह तद्रूप अने वंत के वमन पित्त के पित वसा के चरबी श्रने मसा के हाडकां मांहेलो नुको फोप्फ के सोजो संमे के संमेदा, मंस के मांस बहुहम के० घणां हाडकांउनो करंड के करंडी ते चम्ममितं के चर्ममात्रे करी एवं पठाइ के० प्राबादी एटले थाबादीलं एवं, जुवर के स्त्रीनुं अंगयं के अंग बे. ॥ ५० ॥ श्मं के० ए मसं के मांस मुत्त के मूत्र अने पुरीस के० विष्टा तेणे करी मीसं के मिश्रित अने सिंघाण के नासिकानो मल खेलाइव के बडखा एउनुं निरंतं के निकरण एरं के ए, श्रणिच्चं के निरंतर अनित्य जे. वली किमिाण वासं के करमीश्रानुं आवासस्थान, एबुं स्त्रीउँनुं जे शरीर ते मश्बाहिराणं नराणं के मतिबाहिर अर्थात् बाह्यदृष्टि एवा पुरुषोने पास के पाश रूप . ॥५१॥ पासेण पंजरेणय बऊंति चनप्पयाय परकी॥श्यजुवश् पंजरेणं बझा पुरिसा किलिस्संति ॥ ५ ॥ अहो मोहो मदामल्लो जेण अम्मारिसावितु ॥ जाणंताविअणिवत्तं विरमंति न खणंपिहु ॥ ५३॥ _व्याख्या-जेम पासेण के पाशे करी अने पंजरेण के पांजरेकरी चनप्पयाय पकी के चार पगनां पंखीने बशंति के बांधे, तेम श्य के श्रा जुवश्पंजरेण के युवतिरूप पांजरे करी पुरिसाबका के बांधेला एवा पुरुषो ते किलिस्संति के क्लेश पामे . ॥ ५५ ॥ अहो इति आश्चर्ये मोहो महामहो के मोहरूप महामन . जेण के जेणे करी अम्मारिसाविहु के अमारा सरखा पण अणिव्वत्तं के नयी निवर्तता. जाणंतावि के जाणतां उतां पण खणं पिहु के क्षणमात्र पण न विरमंति के नथी ।वरमता. अर्थात् मोहरूपी महामने, अमे जाणीये बैए तो पण क्षणमात्र तजी शकता नथी.॥५३॥ जुवादिंसद कुणंतो संसग्गिं कुणइ सयलकोई ॥ नदि मुसगाणंसंगो दोश सुदो सह बिमालिदिं ॥५४॥ दरिदर चउराणण चंद सूरखं Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इंख्यिपराजयशतक. दाश्णो विजेदेवा ॥ नारिण किंकरतं कुणंतिधिही विसय तिन्ना ॥ ५५॥ व्याख्या-जुवहिंसह के युवती सहवर्तमान संसगिकुणंतो के संसर्ग करतो थको सयलपुरकेहिं संसगिंग कुणश के समस्त पुःखोनो संसर्ग करे . ए माटे बिडालीसह के बीलामीनी साथे मुसगाणं के मूषक एटले उंदरनो संगो के संसर्ग अथवा संगत नहिहोश्सुहो के सुखदायक न थाय. ॥ ५५ ॥ हरि के वासुदेव, हर के महादेव, चउराणण के चतुरानन एवा ब्रह्मा, चंदसूर के चंड सूर्य श्रने खंदाश्णो के षमानन एवा कार्तिकेयखामि थादे देश्ने विजेदेवा के बीजा जे देवता ते पण नारिण किंकरतं कुणंति के स्त्रीउँनु किंकरपणुं करे . ए माटे ते विसयतिन्ना के० विषयने विषे तृष्णा जे जेने, एवा पूर्वोक्त प्राणीनी तृष्णाने घिकी के० धिकार ने ! धिक्कार ! ॥ ५५ ॥ सीअंच जगदंच सदंति मूढा श्बीसु सत्ता अविवेअवंता॥श्वाश्पुत्तव चयंति जाइंजीअंच नासंति अरावणुछ ॥५६॥ वुत्तूंण विजीवाणं सु उक्करायंति पावचरिआइंजयवं जासासासा पच्चा एसो हुश्णमोते॥५॥ व्याख्या-मूढा के० मूर्ख एवा पुरुषो सीअं के सीत च के अने उण्हं के जल एवो ताप सहंति के सहन करे, अने ते अविवेशवंता के अविवेकवंत एवा होता थका, श्वीसुसत्ता के स्त्रीनेविषे आसक्त ते श्वाश्पुत्तं के० श्लाति पुत्रनी परे चयंति जाई के स्वजातिनो त्याग करे. अने ते रावणुव्व के रावणनी परे जीरंचनासंति के जीवितव्यनो नाश करे . तो पण ते स्त्रीश्रादिकने नथी डांडता.॥५६॥वुत्तुं. णवि के बोलीने पण जीवाणं के जीवोना जे सुक्करायंति पावचरिया के श्रत्यंत पुष्कर एवां पाप चरित्र, जयवं के जगवन् जासा के जेहता ते ? सासा के ते ते पच्चाएसोहुश्ण मोते के एज तने प्रत्यादेश बे ॥ ७ ॥ जललवतरखंजीअंअथिरालबीविनंगुरोदेदो॥तुबाय काम नोगा निबंधणं उस्कलकाणं ॥५॥ नागो जदा पंकजलावसन्नो दुहुंथलं नानिसमेश्तीरं॥ एवं जिआ कामगुणेसुगिहा सुधम्ममग्गे नरया दवंति ॥५ए ॥ व्याख्या-जललव के जलबिंदु एटले जलना परपोटा समान तरल के० चपल एवं जीअं के जीवितव्य डे, अने लडी के लक्ष्मी ते पण अथिरावि के अस्थिर बे, अने नंगुरो देहो के दणनंगुर एवो आ देह बे. कामजोगा के कामनोग जे डे ते तुछाय के तुछ एवा अने पुस्कलरकाणं निबंधणं के लाखो गमे उःखना हेतु एवा . ॥ ५० ॥ जहा के जेम, नागो के हाथी ते पंकजलावसन्नो के कादवने Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इंडियपराजयशतक. जले बूड्यो थको दळं के देखे तो पण ते थलं के स्थलथी तीर के तीरे नानिसमे के न जश् शके; एवं के ए प्रमाणे जिया के जीवो कामगुणेसु के कामसमूहनेविषे गिजा के श्रासक्त थका सुधम्ममम्गे के सुधर्मना मार्गने विषे नरयाहवंति के न रत्ता एटले सावधान न थक्ष शेक. ॥५॥ जदविपुंजखुत्तो किमी सुदं मन्नए सयाकालं ॥ तद विसयासुश्रत्तो जीवो विमुण सुहं मूढो॥६०॥ मयरहरोव जलेहिं तद विहु उप्पूर कश्मे आया ॥ विसया मिसंमि गिछो नवे नवे वच्चश्न तत्तिं ॥६१ ॥ व्याख्या-जह के जेम विघ्पुंजखित्तो के विष्टाना ढगलामांहे खूतेलो किमी के० करमी, सयाकादं के सदाकाल सुहंमन्नए के सुख माने जे; तह के तेम विसयासुश्रत्तो के विषयरूप अशुचिनेविषे रक्त थएलो एवो मूढो के मूढ जीवो के जीव ते विषयनेविषेज सुहं विमुणश के विशेषे करीने सुख माने जे. ॥ ६० ॥ मयरहर एटले मगरदर ते मगरने हरण करनार एवो जे समुज ते जेम जलेहिं के पाणीएकरी उप्पूर के० पूरवो दोहिलो बे. एटले दुःखे पूराय, अर्थात् समुजमांगमे तेटडं पाणी नाखो तोपण ते तेथी तृप्ति पामे नही तेम, ए थाया के आत्मा, विसयामिसंमिगिको के विषयरूप आमिष एटले मांसने विषे सक्त थयो थको जवे जवे के नवजवने विषे तत्तिं के तृप्ति प्रत्ये न वच्चर के न पामे. ॥ ६१ ॥ विसयविसहाजीवा जनडरूवाइएसु विविदेसु॥नवसय सदस्सउलक्ष्नमुणंतिगयंपि निअजम्मं ॥६॥ चिति विसयविवसा मुत्तंलग्नंपिकेवि गयसंका ॥ न गणंति केवि मरणं विसयंकुस सल्लिया जीवा ॥६३ ॥ व्याख्या-विषयविसट्टाजीवा के विषयरूप जे विष तेणे करी आर्त एटले पीमायमान् थएला एवा जीव, उपडरूवाइए के उदनटरूप धादिदेश विविडेसु के विविध प्रकारनों रूप ते नवसयसहस्स के नवना शतसहस्ते करीने एटले लाखो गमे जवे करीने पण मुलहं के पुर्खन एवो निधजम्मं के मनुष्य जन्म ते गयंपि के० गयो थको पण न मुणंति के न जाणे. ॥ ६३ ॥ विसयंकुससलियो जीवा के वि. षयरूप अंकुशे साक्ष्या एवा जीवो, विसयविवसाचिठंति के विषयने वश थया थका तिष्ठंति के रहे . अने लऊपि के० लजाने पण मुत्तं के मूके बे, केटलाएक जीवो गयासंका के गएलीले शंका जेऊनी एवा, अने केवि के केटलाक मरणं न गणंति के मरणने पण नथी गणता ॥ ३ ॥ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18 इंख्यिपराजयशतक. विसय विसेणं जीवा जिणधम्मंदारिमण दा नरयं॥वचंतिजदा चित्तय निवारिउँबंनदत्तनिवो॥६॥धीधी ताण नराणं जे जिणवयणा मयंपिमुत्तूण ॥ चमग विमंबणकरं पियंति विसयासवं घोरं ॥६५॥ व्याख्या-विसयविसेणं के विषयरूप जे विष तेणे करीने जीवा के जीव जिणधम्महारिऊण के० जिनधर्म हारीने हा इति खेदे नरयं के नरके जाय जे. जह के जेम चित्तय के चित्रसाधु एवा जे जा तेणे निवारि के वास्यो एवो जे बंजदत्तनिवो के ब्रह्मदत्तनृप चक्रवर्ति जेम संसारने विषे मनुष्य जव हास्यो तेम. ॥ ६४॥ धीधी के धिक्कार ! धिक्कार ! ताणनराणं के ते नरने, के जे के जे नर जिणवयणामयपि मुतूणं के जिनवचनरूपी अमृतने मूकीने चग विडंबणकरं के चारे गतिनी जे विडंबनानो करनार एवो जे विसयासवंघोरं के रौज एवो विषयासव के विषयरूप मदिरा तेने पियंति के पीए ने. ॥६५॥ मरणेवि दीणवयणं माणधरा जे नरा न जंपंति ॥ ते विहकुणंति लल्लिं बालाणं नेद गद गिदिला ॥ ६६ ॥ सक्कोविनेव सक्क मादप्पमडुप्फुरं जए जेसि ॥ तेवि नरा नारीहिं करावित्रा निअय दासत्तं ॥६॥ व्याख्या-मरणेवि के मरणकाल प्राप्त थयो उतां पण माणधरा जेनरा के मानने धारण करनार जे पुरुष ते दीनवयणं न जंपंति के दीनवचन न बोले, अने तेज पुरुष, बालाणं नेहगह गिहिला के बाला जे स्त्री तेनो जे नेहगह के० स्नेहरूपग्रह तेणे करीने गहिला के घेदेला थया थका लविंकुणंति के लालन करे . ॥ ६६ ॥ जेसिं के जेना माहप्पमफुप्फुरं के माहात्म्य श्रने आडंबर तेने जगत्मां शक्रोपि एटले इंछ पण खंमन नेवसकर के न करी शके. तेवी नरा के तेवा पण पुरुषोने नारीहिं के नारीए निश्रय के पोताना दासत्तं के दासपणा प्रत्ये कराविश्रा के कराव्या ॥ ६ ॥ जन नंदणो मदप्पा जिणनाया वयधरो चरमदेदो ॥ रहनेमी रायमई रायमई कासि दीविसया ॥६नामयण पवणेण जइ तारिसावि सुरसेलनिचला चलिआ॥ता पक पत्तसत्ताण श्अर सत्ताण कावत्ता ॥६॥ व्याख्या-जउनंदणो के यादवनो नंदन एटले पुत्र, महप्पा जिणनाया के महात्मा एवा जिन जे नेमिनाथ तेनो नाइ, वयधरो के व्रत्तधारी अने चरमदेहो के चरमशरीरी एवो जे रहनेमी, ते रायमई के राजीमती उपर रायमर्श के रागने विषे Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इंज्यिपराजयशतक. बे मति जेनी एवो श्रासीत् के होतो हवो. माटे ही विसया के ही इति खेदे धिकार ने विषयने! ॥ ६॥ मयणपवणेण के मदनरूपी पवने करी जर के जो मेरुपर्वत सरखा निच्चलाचलिया के निश्चल एवा चल्या तो पडे पक्कपत्तसत्ताण के पाकां पांदमां सरखां जे जीवनां सत्व बे एवा इअर के इतर सत्ताण के सत्व एवा जीवोनी कावत्ता के शी वार्ता ? अर्थात् कामदेवरूपी पवने करी मेरुपर्वत सरखा धैर्यवंत पुरुषो चलायमान थया, तो पनी अल्पसत्ववाला एवा जीवोनीशी वार्ता? ६ए जिप्पंति सुदेणं चित्र दरि करि सप्पाइणो मदाकूरा ॥ इकु वियोः कामो कय सिवसुद विरामो॥४०॥ विसमा विसय पवासा अणाश्नवनावणा जीवाणं ॥ अश्ऽद्येतह आणिय इंदिआई चंचलंचित्तं ॥७॥ व्याख्या-हरि के सिंह, करि के हाथी अने सप्पाइणो के सादिक महाकरा के महाक्रूर एवाउने सुहेणं जिप्पंति के सुखे करीने जीताए, पण कय सिवसुह विरामो के कस्यो डे मोक्षसुखथी विराम जेणे एवो इक्कुविय के एक पण कामो के कंदर्प, ते उठ के जीतवो उर्लन . ॥ ७० ॥ जीवाणं के जीवने विसमा के विषम एवा विसय के विषयोनी पवासा के पिपासा एटले तरस बे, अने प्रणा के अनादिनी, नवजावणा के संसारनी नावना बे; अने इंदिश्रा के इंजिन डे ते अश्शे के अतिशय पुर्जय डे, तह के० तेमज चित्तं के चित्त ने ते चंचलं के चपल . ॥ ७॥ कलमलअर अनुरकी वाही दादाइ विविद उस्काइ॥ मरणंपित्र विरहाइसु संपनइ कामतविआणं ॥ २ ॥ पंचिंदिय विसय पसंगरेसि मणवयण काय नवि संवरेसि ॥ तं वाहिसि कत्तिअ गलपएसि जंअहकम्म नविनिशारसि ॥७३॥ - व्याख्या-कामतविश्राणं के कामे करी तप्त श्रएला एवा जनोने, कलमल के कलमल, तथा अरश के अरति उपजे, अने जुरकी के नूख, वाही के व्याधि, दाहाश् के दाघ ज्वरादि प्रमुख विविहारकाई के विविध प्रकारनां कुःखो, मरणं के मरण, अने पिथविरहाई के प्रिय वियोगादिक संपनश के संपजे. ॥ ७ ॥ हे जीव ! पंचिंदिय विसय पसंगरेसि के पांच इंजिना विषय प्रसंगने माटे मणवयणकाय के मन वचन अने काया, नविसंवरेसिं के नथी संवरतो; अने जं के जे श्र कम्म के श्राप कर्मोने नवि निसारसि के नथी निर्करा पमाडतो तं के ते तुं वाहिसिकत्तिश्रगलपएसि के गलप्रदेशने गमे कत्ति के काती एटले कातर वाहे .७३ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ इंख्यिपराजयशतक. किंतुमंधोसि किंवासि धत्तुरि अदव किंसंनिवारण आकरि ॥ अमय स मुधम्मजं विसव अवमन्नसे विसय विसविसम अमियंव बहुमन्नसे ॥ ४॥ तुधि तुहनाण विन्नाण गुणडंबरो जलण जालासु निवडंतु जिअ निरो॥ पय वामेसु कामेसु जरङसेजेहिंपुणपुण विनिरयानलेपच्चसे ॥ ५॥ ___ व्याख्या. हे जीव! किंतुमंधोसि के शुं तुं आंधलो ले ? किंवासिधत्तुरि के \ तें धंतुरो पीधोने ? अहव के अथवा तुं शुं संनिवाएणश्राऊरि के सन्निपात रोगेकरी आकुरित के परिपूर्ण ? के जं के० जे माटे अमयसमुधम्म के अमृतसमान धर्म बे, तेने विसव के० विषवत् अवमन्नसे के माने !! श्रने विसय विसविसम के विषयरूप जे महा विषम विष, तेने अमियंवबहुमन्नसे के अमृतवत् बहु माने ! ॥ ४ ॥ जिथ के हे जीव ! तुसि के तुं तुहनाणविन्नाण गुणडंबरो के तारुं ज्ञान तारुं विज्ञान अने गुणोनो आडंबर ते जलण जालासु के ज्वलन ज्वालाने विषे निप्परो के अत्यंतपणे निवडंतु के० पमो. जं के जे कारण माटे पयश्वामेसु के प्रकृतिए करी वांका-विपरीत एवा जे कामेसु के कामनोग तेनेविषे रससे के तुं राचे . माटे जेहिं के जे कामनोगेकरीने तुं पुण पुण के वली वली विशेषे करीने निरयानले के नरकरूपी अग्निने विषे पञ्चसे के पचेडे ॥ ५ ॥ दद गोसीस सिरकंड गरकए बगल गदणह मेरावणं विक्कए ॥कप्पतरुतोडि एरंड सोवावए जुलि विसएहिं माणुअत्तणं दारए ॥ ७॥ अधुवं जीविअंनचा सिक्ष्मिग्गं विप्राणिया ॥ विणि अहिश्त नोगेसु आलं परिमिअमप्पणो ॥ ७॥ व्याख्या-जुझि केण्जे पुरुष विसएहिं के विषये करीने मणुअत्तणंहारए के मनुष्यपणं हारे तो ते दहश्गोसीस सिरखंगबारकए के सूकी राखने माटे गोशीर्ष ते बावना चंदन श्रने सिरखंग एटले सुखम तेने दहश् के बाले बे, अने बगल गहणत के बोकडो सेवाने अर्थे मेरावणं विक्कए के ऐरावतहाथीने वेचेले. अने सो के ते कप्पतरुतोडि के कल्पवृक्षने तोडी एरंगवावए के एरंमाने वावे.॥ ६ ॥ जे उत्तम पुरुषो डे ते अधुवं के श्रशाश्वतुं ए जे जीवियनच्चा के जीवितव्य जाणता थका, अने सिकिमग्ग के मोदमार्गने पण विश्राणिया के जाणता, अने अप्पणो के पोतानं परिमिअं के परिमित एटले प्रमाणसहित श्रायुष्य जाणीने, अर्थात् आटझुंज आयुष्य बे; एवं ते जाणता थका जोगेसु के जोग थकी विणिश्रहित के निवर्ते ॥॥ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इंज्यिपराजयशतक. सिवमग्ग संविआणवि जद उझेा जिआण पणविसया ॥ तद अनं किंपि जए अं ननि सयलेवि ॥ ७ ॥ सविडंकुनडरूवा दिहा मोदे जा मणं शनि॥ आयदिअं चिंतंता दूरयरेणं परिदरंति ॥ ए ॥ व्याख्या-जह के जेम सयले के सर्वजगतनेविषे सिवमग्गसंविधाणवि के मोदमार्गे जे रह्याने, एवा जिआण के जीवोने पण विसया के पांच विषय जे ते उर्जय बे; तह के तेम अन्नंकिंपि के अन्य कोर पण नबी उजेयं के उर्जय नथी. अर्थात् विषय जीतवा तेज पूर्जय बे, पण ते सिवाय बीजुं कांश पूर्जय नथी ॥ ॥ सविडंकुलमरूवा के सविटंक उन्नटरूप एवी इति के० स्त्री, ते दिहा के दीठी थकी मनने मोह पमाडे बे. ते ने श्राय हियं के श्रात्महितने चिंतंता के चिंतवता एवा जे पुरुष ते, ध्यरेणं परिहरंति के पूरथी परिहरे . ॥ ए॥ सवं सुअंपिसीलं विन्नाणं तद तवंपि वेरग्गं ॥ वच्चर खणणसचं विसय विसेणं जईणंपि॥०॥रेजीव मय विगप्पिय निमेस सुदलालसो कई मूढ ॥ सासयसुद मसमतमं दारिसि सिसि सोअरंचजसं ॥१॥ व्याख्या-सव्वंसुधं के सर्वश्रुत, सील के सर्वशील, विन्नाणं के सर्व विज्ञान तह के तेमज वेरग्गं के वैराग्य ते सव्वं के० सर्व जणं पि के यतिने पण विसय विसेणं के विषयरूप विषेकरीने खणेण वच्च के क्षणमात्रमा जतां रहे. ॥ ७० ॥ रे जीव ! सासयसुह मसमतमं के शाश्वतां सुख, जेना समान जगतमां बीजां को सुख नथी तेने, अने जेमां ससिसोबरंचजसं के चंजमा सरखो उज्वल यश , तेने हे मूढ, मयविगप्पिय के पोतानी मतिए कहप्यां एवां निमेससुदलालसो के निमेषमात्र सुखमां लंपट थश्ने कहंहारिसि के केम हारे ! ॥१॥ पसलिन विसयअग्गी चरित्तसारं डदिद्य कसिणंपि॥ सम्मत्तं पिविरादि अणंत संसारिअं कुद्या ॥२॥ नीसण नव कंतारे विसमा जीवाण विसयतिएदा॥जाए नमिचन्दसपुछीविरुलंति हु निगोए७३ व्याख्या-पतसिड के प्रज्वलित थएलो एवो जे विसयश्रग्गी के विषयरूप अग्नि जे ते कसिपि के समस्त एवा चरित्तसारं के० चारित्रना सारने महिद्य के बाले . अने सम्मत्तं के सम्यक्त्वने विराहिय के विराधीने अणंत संसारिश्र के अनंत संसारीपणाने कुश्शा के करे बे. ॥॥ जीवाण के जीवने नीसण के जयंकर एवा जवकं. तारे के संसार रूपी अरएयनेविषे विसमाविसय तिहार्ड के विषम एवी जे विषय mr Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इंख्यिपराजयशनक. रूप तृमा ने. जे तृमाए नमिश्रा के नचावेला एवा चन्दसपुव्वीवि के चौद पूर्वधारी पण हु के निश्चयें करीने निगोए के निगोदने विषे रुलंति के जमे . ॥३॥ हा विसमा दाविसमा विसया जीवाण जेदि पडिब-शा ॥ हिंडंत्ति नवसमुद्दे अणंतऽकाइ पावंता॥७॥मा इंदजालचवला विसया जिवाण विजतेअ समा॥ खणदिशा खणनिहा तातेसिं को हु पडिबंधो ॥ ५ ॥ व्याख्या-हा इति खेदे ! विसमा के० विषम, वली हा इति खेदे ! विसमा के० विषम एवा विसया के विषयो, ते जीवने विषम जे जेहि के जे विषयोए करीने प. मिबंडा के प्रतिबंध थएला एवा जीव अणंतःका पावंता के अनंत दुःख पामता थका नवसमुद्द के संसार समुज्नेविषे हिंमंति के० हिंडेले. ॥ ४ ॥ मातिनिषेधे इंदजालचवला के इंउजालनी पेरे चपल एवा जे विसया के विषयो बे, ते जीवाण के जीवने ते विषयो विहातेयसमा के विजलीना तेज समान खणदिहा के क्षणमात्रमा देखाएला, पण पड़ी खणनिहा के क्षणमात्रमा नाश पामवानुं ने शील जेनुं, एटले एम के-विजली जेम क्षणमा देखवामां आवे श्रने वली क्षणमां न दीगमां श्रावे, तेम ए विषयो पण क्षणमात्र देखवामां आवे अने दणमां न दीगमां श्रावे, ता के ते माटे तेसिं के तेमनो हु के निश्चे कोपडिबंधो के शो प्रतिबंध करवो? ॥५॥ सत्तुविसं पिसाक वेलो हुअवदोविपङ्गुलिन ॥ तं नकुण जं कुविआ कुणंति रागाइणो देदे॥६॥जोरागाईणवसे वसंमि सोसयलउरक लकाणं ॥ जस्स वसे रागाई तस्सवसे सयलसुकाई ॥७॥ व्याख्या-जं के जेटलुं रागाणो के रागद्वेषादिक कुविधा के कोप्या थका देदे के देहनेविषे पुःखप्रत्ये कुणंति के करेले, तं के तेटतुं दुःख सत्त के शत्र विसं के विष, पिसान के पिशाच, वेालो के० वैताल अने पालि हुशवहोवि के प्रज्वलित थएलो अग्नि पण न कुणश् के न करी शके. ॥ ६ ॥ जो के जे पुरुष रागाईणवसे के० रागादिकने वश बे, सो के ते पुरुष सयलपुस्कलकाणं के फुःख समस्त लाखो गमे तेने वसंमि के० वश थ रह्यो एम जाणवू; अने जस्स के जे पुरुषना वसे के वशमां एटले स्वाधीनमा रागाई के रागादिक डे, तस्सवसे के ते पुरुषना वशमां सयलसुस्काई के सघलां सुख डे एम जाणवू ॥ ७ ॥ केवल जुद निम्मविए पडि संसारसायरे जीवो ॥ जं अणुदवा किलेसं तं आसवदेकअं सवं ॥1॥ दी संसारे विदिणा मदिलारू Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ए इंख्यिपराजयशतक. वेण मंडिअं जालंबसंति जब मूढा मणूा तिरिया सुरा असुरा॥नए॥ व्याख्या- केवल दनिम्मविए के निःकेवल पुःखेकरीने नीपजावेलो एवो जे संसारसायरे के संसाररूपी सागर- तेने विषे जीवो के जीव पडि के पड्यो , अने त्यां जे किलेसं अणुहवर के क्लेश अनुजवे , तं सव्वं के ते सघलो क्लेश श्रासवहेजअं के श्राश्रव ने हेतु जेनो एवो . ॥ ॥ ही इतिखेदे श्रदो संसारे के था संसारने विषे कर्म जे बे, तेणे महिलारूवेण के स्त्रीरूपे जालंमंमिश्र के० जाल मांमी. जब के जे जालनेविषे मूढ एवा मणुथा के मनुष्यो, तिरिया के तिर्यंच, सुरा के देवो, अने असुरा के० असुरकुमार देवो बशंति के बंधायडे ॥॥ विसमा विसयनुअंगा जेहिं डंसि जिानववर्णमि॥कीसंति उदग्गीदिं चुलसीईजोणिलकेसु॥एसंसारचारगिझे विसयकुवाएदिलुकि जीवा ॥ दिअमदिअ अमुणंता अणुदवंति अपंतःकाइए। व्याख्या-विसमा के विषम एवा विषयजुअंगा के विषयरूप जुजंगो एटले सर्पो, जेहिं के जेए नववर्णमि के संसाररूप अरण्यनेविषे जिया के जीव, मंसिया के करड्या बतां मुहग्गीहिं के फुःखरूप अग्निए करीने चुलसीईजोणिलरकेसु के चोरासी लाख जीवा योनिनेविष कीसंति के क्लेश पामे. ॥ ए ॥ संसारचार के संसारनुं चालवू, तप गिटे के ग्रीष्मकाल तेने विषे विसय के विषयरूप कुवाय के नगरो वायरो, तेणेकरी खुक्रिया के लुकाया थका एवाजे जीवो, तेहिश्रम हिथं के० हितग्रहितने अमुणंता के अजाणता थका थपंतपुरकाई के अनंत फुःखोने अणुहवंति के अनुनवे . ए? दाहाऽरंतहा विसयतुरंगा कुसिकिया लोए ॥ नीसणनवाडवीए पाडंति जिआण मुम्हाणं ॥ ए॥ विसय पिवासातत्तारत्तानारीसु पंकिलसरंमि ॥ उदिा दीणा खीणा रुवंति जीवा नववणंमि ॥ ए३ ॥ व्याख्या-हाहा इति खेदे ! मुशाणं जियाण के मुग्ध एवा जीवोने पुरंत के जेनो अंत कुःखे करीने बे, एवा पुछा के पुष्ट जे विसयतुरंगा के विषयरूप तु. रंग, एटले घोमा ते कुसिरिकथा के० विपरीत शिखावेला एवा लोए के खोकने विषे नीसणजवाडवीए के जयंकर एवी संसाररूपी अटवीमाहे पाडंति के पाडे . ॥ ए ॥ विसय पिवासा के० विषयरूप पिपासा एटसे तृषा-तेणे करी तत्ता के तप्त थएला एवा, अने नारीसुरत्ता के स्त्रीनेविषे शासक्त एवा जीवा के जीवो जववणं मि के० संसाररूपी वननेविषे स्त्रीरूप पंकिलसरंमि के कादववाला सरोवरमा छ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनस्तवनानि. हिश्रा के पुःखीश्रा, दीणा के० दीन, अने खी णा के० क्षीण एवा होता थका रूलंति के जमे जे. ॥ ए३ ॥ गुणकारि आधणिअंधिश्रअ निति आइंतुद जीवा नियाईदि आई वल्लिनिअत्तातुरंगुव ॥ए॥ मणवयणकायजोगासुनिअत्ता तेवि गुणकराडंति ॥ अनिअत्ता पुण नंजति मत्तकरिणुव सीलवणं ॥ ए५ ॥ व्याख्या-हे जीव ! तुह के तने धणिशंधिरजु के अतिशे धृतिरूप जे रङ् एटले दोरडं तेणे करीनिअंताई के वश थएली एवी निश्रयाइं इंदिया नियत्त के० पोतानी इंजिन डे ते गुणकारी जे. जेम तुरंगुव के तुरंग एटसे वश थएला एवा बांधेला घोडानी पेठे वधि के वासवायोग्य . ॥ ए४ ॥ मण वयण काय के मन वचन अने कायना जे योग बे, ते पण गाढ एवा निवत्ता के नियंत्रिया थका एटले वश थया थका तेविगुणकराहुँति के ते पण विशेषे करी गुणकारी थाय बे. श्रने श्र. नियत्ता के न यंत्रिया थका पुण के वली, मत्त करिणव के मदोन्मत्त हस्तिनी पेठे सिलवणं के शीलरूप वनने मंजंति के नांगे . ॥ ए५ ॥ जद जद दोसा विरम जद जद विसएदि दोश् वेरग्गं॥ तद तद् विनायवं आसन्नं से परम पयं ॥५६॥ उक्करमे जदिंएदि कयंसमणेहिं जुव्वणबेदिं ॥ नग्गं इंदियसिन्नं धिपायारं विलग्गेदिं॥ ए७ ॥ व्याख्या-जहजह के जेम जेम दोसा विरम के दोषो विरमे बे, अने जहजह के जेम जेम विसएहिं होई वैरग्ग के० विषयमी वैराग्य थाय बे; तह तह के० तेम तेम विनायवं के जाणवू के सेब के तेदने परमपयं श्रासन्नं के परमपदनुं श्रासन्न एटले ढुंकडापणुं थाय बे. ॥ ए६ ॥ एहिं पुक्कर मेकयं के तेणे पुष्कर काम कसुं. ते कोणे पुष्कर काम कयुं ? ते कहे . के जेहिंसमणेहिं के जे श्रमणोए जुवणबेहिं के जोबन अवस्थाने विष इंदिशसिन्नं के० इंजियरूप सैन्यने जग्गं के नांग्यु. ते पुरुष धिपायारं के धैर्यरूपपायार एटले प्राकार जे गढ-तेने विलग्गेहिं के वलग्या जाणवा ॥ ए॥ तेधन्ना ताणनमो दासोदं ताणसंजमधराणं ॥ अद्धनि पबिरी जाण नहि अएखडकंति ॥ ॥ किंबहुणा जश्वंसि जीवतुमं सासयं सुदं अरुदं ता पिअसु विसय विमुदो संवेगरसायणं निच्चं ॥ एए॥ व्याख्या-जाण के जे पुरुषने हिथए के हृदयने विषे अझवि पचिरी के अर्धपडियाली आंखे अर्थात् कटाद नेत्र करी जोनारी स्त्री नखडकंति के नश्री खट Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनस्तवनानि. कती; ते के ते पुरुष धन्ना के धन्य बे. ताण के तेने हुँ नमो के नमस्कार करुं बु, ताण के० तेवा संजमधराणं के संयम धारीनो दासोहं के हुँ दास बु. ॥ए॥ किंबहुणा के वधारे शुं कहे ? हे जीव तुमं! श्ररुथं सासयं सुहंजश्वंसि के तुं निरोग एवं शाश्वतुं मोदसुख जो वांडे ने ता के तो विसयविमुहो के विषयथी विमुख था, थने निच्च के नित्य संगेव रसायणं पिथसु के संवेग रसायणने पी एटले पान कर. ॥ एए ॥ ति इंज्यिपराजय शतकं संपूर्णम् ॥ ॥ अथ श्रीअदादिस्तवनम् ॥ मौनेनोर्वी व्यहृतपरितो वत्सराणां सहस्त्रं यो निर्माणश्चरणयुगलं जव्यमालोपकारी ॥ श्रन्नुत्तारयतु हृदयात्स खकीयं कलानां यो निर्माणश्चरणयुगलं जव्यमालोपकारी ॥१॥ नमस्यत्पौलोमीपतिमुकुटरत्नांशुकबरं नतानां दत्तश्रीधनयुवतिरत्नांशुकवरं ॥ त्रिलोकीजंतूनामनिलषितसंपादकमलं जिनस्य श्रीशांतेः स्तुतसरजसं पादकमलं ॥२॥ अपुनर्नवमार्गलंजकक्रमकमलानलिनीप्रजापतेः ॥ शरणं समुपैमि नेमिनः क्रमकमलानलिनीतनुत्विषः ॥३॥ पार्श्वप्रर्जिनः कलिताऽपचयं विदधजगतः कलितापचयं ॥ फणिचक्रमणीरुचिरंजितखः प्रददातु सुखं रुचिरं जितखः॥ ४॥ अगणयंतमुपप्लवमुच्चकै रहितसंगमकाऽमरनिर्मितं नमत वीर जिनं मुनिसत्तमं रहितसंगमकामरसं मुदा ॥५॥ शिवरतो वरतोषवशान्नतो मघवताऽघवतामतिपूरगः॥अमदनो मदनोदनको विदः शममलं मम लंजयताजिनः ॥६॥ अविकलं विकलंकधियां सुखं विदधतं दधतं जगदी शिता॥ अकलहं कलहंसगर्तिश्रये जिनवरं नवरंगतरंगितः ॥७॥ वेद्वत्कल्याणवठ्ठीविपिनवनमुचः स्वर्गगंगातरंग छायादायादरोचिःपटलधवलिताखंड दिङमंडलस्य॥नम्रामा लिमौलिप्रसृतपरिमलोजारमंदारमालाच्यय॑श्चंप्रनस्य प्रजवतु नवतां नूतये पादपद्मः ॥ ७॥ इति श्रीअईदादिस्तवनं समाप्तम् ॥ ॥अथ श्रीपार्श्वनाथस्तवन प्रारंजः ॥ श्रीपाच लावतः स्तौमि महोदधिमगर्हितं ॥ उजरंतं जगदुःखमहोदधिमगर्हितं ॥ १॥ दृग्गोचरं जवान् येषां प्रियंगुरुचिरायते ॥ प्राप्नुवंति सुखं नाथ प्रियंगुरुचिरायते ॥२॥ त्वां चतुःषष्टिरित्राणां तुष्टावामेयवैनवं ॥ समूलकाषं कषितुं तुष्टावामेयवैजवं ॥३॥ पवनीनवितुं कर्म वनददेपणायते ॥ कोनांघ्रिकमले नन्नाऽवनद क्षेपणायते ॥४॥ नवंद्यस्त्वं गतैर्मुक्ताविनतामरसाननः ॥ खप्नेऽपि स्वदते तेन विनतामरसाननः ॥५॥ नुवि स्तुतो येन जवानिंदीवरदलासितः ॥ खकीर्तिपूरस्तेने पुनिंदीवरद लासितः॥६॥ अपि व्यामोहिताशेषसुरदानवमानवा ॥ न त्वामचुकुजन्नारी सुरदाऽनवमा नवा ॥७॥ फुल्लत्फणिफणारत्नरुचिराजितविग्रहे ॥ त्वयि प्रीतिः स्फुरतु मे रुचिराजितविग्रहे ॥॥ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनस्तवनानि. युपतिमुकुटप्रोद्धृष्टांघ्रि जगत्कमलाकर ग्रुपतिमनघं स्तुत्वेति त्वां कृतांजलिरर्थये ॥ प्रशमजलधे मह्यं सद्यःप्रसह्य वितीर्यताप्रशमनविधी नावारीणां जिनप्रनविष्णुता॥ए॥ इति श्रीपार्श्वनाथस्तवनं समाप्तम् ॥ ___ ॥अथ चतुर्विंशतिजिनस्तवन प्रारंजः ॥ जिनर्षज प्रीणितनव्यसार्थ समस्तदोषाजित तीर्थनाथ ॥ श्रीसंजवाखंमलवंद्य नंद्याः स्वामिन् प्रजानामनिदंदनस्त्वं ॥ १॥ सुखाय पुंसां सुमते मुखास्तमृगांकपद्मप्रन गौरकांते ॥ सुपार्श्वनेतर्महसेनपुत्र त्रैलोक्यलोकस्तवनीय नूयाः ॥२॥ विरोचनानं सुविधि जिने खन्नावतःशीतलमर्चयामि॥श्रेयांसमवँ दिविजबजेनासक्तं न संपत्सुनवासुपूज्य ॥३॥ सुवर्णकांते विमलत्वमुच्चकैरनंतविज्ञाननिविष्ट विष्टप ॥ अहर्मणे धर्मपथप्रकाशने कुरुष्व शांतेहितमंजिनां पदं ॥४॥ निःसीमसूरतनय स्थितिमार्गदीप निर्माहि शर्म सुदृशां प्रियमुक्तिदार ॥ निभ्रष्टगारुडरुचे निगृहीतमोह मद्धेश मोदित महाशय सुव्रतेन ॥५॥ अथोनमीनांकनिरासदद संप्रीणिताशेषसमुअनेम ॥ शांतारवामेय गुणानिराम श्रीवर्धमानैघि सुख श्रिये नः ॥ ६॥ निर्व्याजमेधिततमोदरणैकदक्ष सर्वझरा जिमहनीयपदे नयाढ्ये ॥ सर्वोदिते नव सरस्वतिपोतरूपे मिथ्यात्ववारिणिसदा मयि सुप्रसन्ने ॥ ॥ इति चतुर्विशति जिनस्तवनं समाप्तम् ॥ ॥अथ श्रीयुगादिजिनस्तवन प्रारंजः ॥ अस्तु श्रीनानिर्देवो विपनासनकर्मवः ॥ पवित्र पोषयेन्नाकं सुधर्माधिपतिःश्रिये ॥१॥जाड्यखंडनपांमित्यप्रौढो जगतिविश्रुतः॥ हिनस्तुवस्तमःस्तोमं पावको नानिनंदनः ॥२॥ सूर्यानंदीमहोध्यासीसंयमिन्यायधीश्वरः ॥ समवर्तीजगन्नेता जीयादादिजिनेश्वरः ॥ ३ ॥ सनाकीनादृतोदद्यादृषनो निईतिर्मुदं ॥ योदोषाचरण प्रीतीरनिकारेशिवेस्थितः ॥ ४ ॥ असंस्तुतोजडैबिज्रदपाशंसर्वदाशयं ॥ नान्नेयःश्रेयसे नूयादपूर्वोच्नुवनेश्वरः ॥ ५॥ पायादनलसख्यातिबंधुरोहरिणादृतः ॥ अहिंसोझासमातन्वन् श्रीनानेयो महाबलः ॥६॥ नसेवितःकिंपुरुषैः सर्ववित्तापवर्जितः ॥ नवढेषीचषनः श्रीदो जयतिनूतनः ॥ ७॥ चंडावदातदेह श्रीवृषनासनतत्परः ॥ शिवालय मितः पायादीशानः प्रथमो जिनः ॥ ७॥ दमाप्राग्जारधर्तारं यंश्रीमान्श्रयतेहरिः ॥ बिज्राणःकमलंशुभंसोऽनंतःपातुनानिनूः ॥ ॥ वयंजूब्रह्मलोकेशः शुक्लपक्षसमाश्रितः ॥ सकलं कमलासीनः कुरुतामृषनःसुखं ॥ १० ॥ एवमादिममुनेःस्तवनंयः पापपीतिशठतामपहाय॥ विनघातन विधौपटिमानं तस्य बित्रतिदशापिदिगीशाः ॥ ११॥ इति श्रीजिनप्रजसूरिकृतं श्रीयुगादिजिनस्तवनं समाप्तम् ॥ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनस्तवनानि. ॥अथ श्रीपार्श्व जिनस्तवनप्रारंजः ॥ श्रीपार्श्वःश्रेयषेनूयादलितालसमानरुक् ॥ अनंतासंमृतिर्येन दलितालसमानरुक्॥१॥ अज्ञानमेपुरध्वांतकारिणस्त्वगुणानलं ॥ अज्ञानमेपुरध्वांतनानोऽनिष्टातुमीशगीः ॥२॥ तथापिनुन्नोंऽतर्नक्तिरंहसामहितायते ॥ गुणलेशंस्तवीम्युच्चैरंदसामहितायते ॥३॥थ. पारेकामरोगेण ब्रांतोस्मिनववारिधौ ॥ अपारेकामरागणदर्शनेन विनातव ॥४॥ श्राप्येदानींदर्शनंते नरामरसजाजनं ॥ स्पृहयामिप्रनोराज्यं नरामरसनाजनं ॥ ५॥ नेहाचमेऽप्सरोलोकं सकाममनसंप्रति ॥ रुचयेमुक्तिकांतापि सकाममनसंप्रति ॥६॥ पुएयोदयाददमया मुक्तत्वदर्शनेसति ॥ पुण्योदयाददमया स्वात्मायंपरिनिश्चितः ॥७॥ जिनास्यऽसारसंसार किंनेदानींवराकरे ॥ जिनास्यसारसंसारमद्ययहीदितंमया ॥७॥ धन्यास्तप्रेणतास्तुन्यं वासवामेयशक्तये ॥ त्रातुंजगत्सर्वगुणावासवामेयशक्तये ॥ ए॥ कल्याणगिरिधीरेमे त्वयिचेत्परमेश्वर ॥ कल्याण गिरिधीरेमे करस्थाः सर्वसंपदः ॥१०॥ तवांगेलीनदृष्टित्वादूरीकृततमालन्ने ॥ जीवन्मुक्तिदृशांकर्दिधरीकृततमालन्ने ॥ ११ ॥ कमलायतनेत्रानिरकुब्धमनसस्तव ॥ कमलायतनेत्राऽनिरमेतांमदृशौमुखे ॥ १२॥ दृष्टेतवमुखेप्रीत्या रजनीश्वरकोमले ॥ ननिर्वाणपदेस्थास्नुरजनीश्वरकोऽमले ॥ १३ ॥ अदोन्नंगंलीरहितं तवाराध्यवचःप्रजो ॥ श्रदोऽनंगंजीरहितंनिष्कर्मालनतेपदं ॥१४॥ पीत्वावाचोमृतंतेऽस्तकलिकामधुगर्हितं ॥ मेनेजनैःस्वर्गतरोः कलिकामधुगर्हितं ॥ १५॥ क्रमतामरसहंसेवनेतवसादरं ॥ क्रमतामरसमामकीनंमनःसदा ॥ १६ ॥ श्रियस्तवागमोदद्याहिततानयशोनितः ॥ यस्तवैव विदोषत्वा हिततानयशोऽनितः ॥ १७॥ श्रलंतेपदराजीवाच्यर्चनैकरताःप्रनो ॥ अदंतेपदराजीवामुक्तिपुर्गस्वयंग्रहे॥ १० ॥ वशीचक्रेजवान्मुक्तिमहिलांवितविग्रहः ॥ खैर्गुणैस्त्रातराकालमहिलांवितविग्रह ॥ १५॥ सदानमस्तपापायगत्या जितवतेगजं ॥ सदान्नमस्तपापायमेघश्यामांगकायते ॥२०॥ यस्त्वामेकाग्रधीःस्तौति देवपद्मावतीनतं ॥ इष्टार्थलानैरचिरादेवपद्माऽवतीनतं ॥१॥ सदानंदंतिनामोघमाप्यचाश्वीयमत्रके ॥ सदानंदंतिनामोघत्वघ्नक्तिकृतनिश्चयाः॥२५॥ येनम्रास्त्वयिवंद्याःस्युर्मदनागविराजते ॥ तेषांचरूपारतिमदनागविराजते ॥१३॥श्रहीने नसदारेण सेव्यमानकृपानिधे॥ श्रहीनेनसदारेणनंपाह्यांतरेणमां ॥२४॥हत्वांतरारींस्त्वदाझाविद्यास्मरणनूषिताः ॥ जयलक्ष्मीवयंनाथ विद्याःस्मरणनूषिताः॥२५॥ नमोहराजेनब्रह्मशक्रादीनपिजिष्णुना ॥ नमोहराजेनब्रह्मयोनयेविजितायते ॥ २६ ॥ यः स्यात्त्वत्पादपद्मा रुचिरंजितमानसः ॥ सर्वत्रसजतेसौख्यं रुचिरंजितमानसः ॥ ७ ॥ सर्वंकषायमोहेलापतयेाह्यतस्तव ॥ सर्वंकषायमोहेलागासरादूपमंवचः ॥ २७ ॥ सरस्वतीपातुतवोपदेशामृतपूरिता ॥ यत्प्रजावाङनैर्मुक्तिपदेशाऽमृतपूरिता ॥ ए ॥ का. Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ जिनस्तवनानि. मदेहतमोहेऽलिनीलवर्णेनतस्त्वयि ॥ कामदेहतमोऽसितुत्येनाऽनुवतेश्रियं ॥ ३० ॥ स्वर्गायतियशोविश्वप्रकाशंतेऽमरीचयः ॥ यस्याग्रेनैवशीतांशोःप्रकाशं तेमरीचयः ॥ ३१ ॥ दर्पकोपरतायासविदेमुनिगणायते ॥ दर्पकोऽपरतायासस्पृहयाबुनकःखलु ॥ ३५ ॥ कव्याणानांपंचतयं मुद्यत्कुवलयद्युते ॥ कस्यनप्रीतयेजातनुयत्कुवलयद्युते ॥ ३३ ॥ कमलाक्षतपस्त्यागश्रीजुजंगजिनेश्वर ॥ कमलाक्षतपस्त्यागस्तिमिरापुनी हिमां ॥ ३४ ॥ त्वदाननंजगन्नेत्रमुदारामघनोदकं ॥ निर्मिमीतांममप्रीतिमुदारामघनोदकम् ॥ ३५॥ यैस्त्वं कृतेमनःकृत्वाप्रमदाजोगनागिनः॥ नवेयुर्दिविते दिव्यप्रमदानोगनागिनः ॥३६ ॥ नाऽथवाऽरितमोहंसमुक्तिशर्मा पिपुर्खनं ॥ नाथवारितमोहंसतेषामाकलुषात्मनां ॥ ३ ॥ युग्मं ॥ श्रानंदतोयदछायजंतुजातंननामते ॥ आनंदतोयदछायमुक्तिश्रीस्तत्ररागितां ॥ ३० ॥ येनत्वदागमःस्वामीनस्याछादेनोपराजितः ॥ निर्णीतः सतुतीर्थानां स्याहादेनोपराजितः ॥ ३॥ स्मरामित्रस्यते नव्यसमूदायाऽजयप्रदं ॥ स्मराऽमित्रस्यतेजव्यश्रियांधामपदम्यं ॥ ४० ॥ नव्यहृत्पक्षिणांवासक्षणदानायकाननं ॥ त्वांपर्युपासते धन्याःक्षणदानायकाननम् ॥४॥जननव्यसनाधीरश्रीवामेयनवेनवे ॥ जननव्यसनाधीरजूयास्वामीत्वमेवमे ॥ ४२ ॥ त्वगुणस्तुतिरंजोदकांतेयमकहारिणी ॥ जव्यानवतु विज्ञानांकांतेयमकहारिणी ॥ ४३ ॥ इतिप्रजोतेस्तवनंपठंतिये युक्तिश्रियःप्रेत्यबुवंतितेहृदि ॥ जिनप्रजाऽचार्यमनाऽतिशायिनीजागर्तितेषामिदपंमितबजे ॥ ४ ॥ इति श्रीपार्श्वजिनस्तवनं समाप्तम् ॥ ॥ अथ श्रीशांतिजिनस्तवन प्रारंजः ॥ श्रीशांतिनाथोजगवानष्टापदसमानरुक् ॥ विज्रगुणान्मयास्तोतानष्टापदसमानरुक् ॥ १॥ कल्याणकमलोबासश्रीषेणनवतोर्जितं ॥ बोधिरत्नंजगन्नाथश्रीषेणजवतोऽर्जितं ॥ २॥ सुतानयोत्थाजगतीमहसारविरागतः ॥ त्वंयुग्मधर्मिमर्येषुमहसार विरागतः ॥३॥ सौधर्मेऽथनवान्सौख्याद्वैताढ्येसुरतामितः ॥ ततोऽनूतखेचरोर्वीनृत् वैताढ्येसुरता मितः ॥४॥ स्थित्वाऽथप्राणतेज बलदेवोपराजितः ॥ यस्मादरिगणः स्थानाबलदेवोपराजितः ॥ ५ ॥ भूत्वाऽमंदमुदापात्रमच्युताखंडलोजवान् ॥ वज्रायुधोऽजूदयायामच्युताखंड लोजवान् ॥ ६॥ प्राप्यौवेयकंपुण्यैरथोनवममुत्तमैः ॥ सेव्योनृपैरजूदंघरथोऽनवममु त्तमैः ॥७॥ सर्वार्थसिद्धिमित्वाच विश्वसेनांगलूरतूः ॥ चक्रीगजपुरेऽघानांविश्वसेनांगनूरजूः ॥ ७ ॥ जीयात्तेजननीशास्तर चिरादेवसंस्तुता ॥ यांस्तोतुर्जायते मुक्तिरचिरादेवसंस्तुता ॥ ए ॥ जन्मस्नात्रेजवानूहेहरिणांकेन नाविना॥ तन्नाौयन्न सोद्योतंहरिपांकेननाविना ॥ १० ॥ राज्यंप्रजाविपत्राणहयानेकपराजितं ॥ अशाश्चिरंपत्तिरथहयानेकपराजितं ॥ ११ ॥ त्रातुंफुर्गतिजूनेदमहासीरसतःक्षमां ॥ शांतिं वीकृत्यषखंडाम Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्य जिनस्तवनानि. हासीरसतादमां ॥ १५ ॥ जुक्त्वाईत्यंक्रमातीर्थ निर्मायजगतीहितं ॥ पदंप्रापप्रनोख्यातंनिर्मायजगतीहितं ॥ १३ ॥ कल्याणपंचकंस्तोतुंचरणीनूतमीशते ॥ केनामविश्वविश्वाजजरणीचूतमीशते ॥ १४ ॥ त्वदन्योऽलंसतामुच्चैरंहः प्रमथनायकः ॥ परंधत्तेऽधकध्वंसरंहःप्रमथनायकः ॥ १५ ॥ यत्त्वयायुधिजैत्रापिकंदर्पोऽपासितापदः ॥ तत्सतांहं सिगरुमकंदर्पोपासिताऽपदः ॥ १६ ॥ चत्वारिंशझनूचस्त्वंपातान्मानतमोदिनः ॥ निधिानस्य पुःखांधुपातान्मानतमोदिनः ॥१॥ श्मंस्पृशकृपांकृत्वाहृद्यकल्याण नाजनं ॥ दृशानदसमायुस्त्वंहृद्यकल्याणनाजनं ॥ १७॥ कस्यफुःखननाथत्वंशांतेधामनिधेहिनः॥तदःखितान्मृगांकजाकशांतेधामनिधेहिनः ॥१॥ स्तुत्वात्वामितिमार्गयेमुहुरिदंश्रीनर्तकीनर्तने नाट्याचार्यजिनप्रजंजनमहा विघ्नांबुदाबादने ॥ धत्तांसंततमेवतावकगुणग्रामाजिरामस्तवप्रज्ञापारमितामपारमहिमप्रान्नार मन्नाराती ॥ २०॥ इति श्रीजिनप्रनकृतं श्रीशांतिनाथस्तवनं समाप्तम् ॥ अथ परागशब्दाष्टोत्तरशतार्थ निबर्कसाधारण जिनस्तवनं ॥ ॥ शार्दूलविक्रीमित बंद ॥ श्रीदेवेंषनरेंजमौलिमुकुटोद्धृष्टांघ्रियुग्मंजिनं नत्वाकुर्मिपरागशब्द विविधार्थोत्पत्तिमालांचयां ॥ पापंपिं ढितदीयपुण्यवशतोयन्मामकीनं विजोऽनिध्यातीतफलापवर्जनसुधाविष्वाणकार-स्करः १ वसंततिलका बंद ॥ वक्राब्जवायुजितपद्मपरागपूरं हृन्मंदिरस्थखपरागहतप्रचारं ॥ प्रोद्दीप्तकांचनपरागसवर्णवर्णं त्वजापरागरसिकःस्तुतिमानयेत्वां ॥॥ देवापरागनिकृतिप्रततिप्रतानछेदेकुठारसुपरागसमांगगंगं ॥ त्वांसंश्रयाम्यनिमिषाधिपचापराग संसारमुक्तनुविविस्तृतसंपराग ॥३॥ स्वामिञ्जयत्वमनिशंसपरंपरागमादिप्रकाशकचिरंगतपापराग ॥ यश्चाप्युवक्थकषिरा जिषुपुष्परागवृतिविघहितमणीबकचापराग ॥४॥ पूर्वापरस्वर विपर्ययतःपराग तत्वावबोधमिहिरोजमनेपराऽग ॥ त्वंकिंपरागमयसेमयिमुक्तिदाने कुप्तापरागसिजितारिरथप्रसीद ॥ ५॥ तृष्णापरागविरतंनिरतंक्रियायांलीलापरागतिचरंतमघंहरंतं ॥ विश्वापरागपतिशुख्यशोनिरामवंदे प्रियंवदपराऽगणनीयशीलं ॥६॥ नूवाःपरागपुरुषेषुकृपांदधानो मायापरागवनितावधवैनतेयः॥ यःकोपरागरहितस्त्वमसीनतेन सेवेनवंतमपरागमशैलवज्रं ॥७॥ ध्वस्तोपरागपरजागविनूषितांगं सूरापरागमसमीकृतकर्मधर्म ॥ पुण्यापरागजनदत्तजवंजजेयं देवाऽपरागणितलक्षणसंचयंत्वां ॥७॥ सेवापराऽगणितसौख्यकरंश्रयामि हृत्तापरागहरणंकरणंगुणानां ॥ प्रोद्यत्परागतिगतंशरणंजनानामिष्टार्थसाधनसुपर्वपरागकल्पं ॥ ए॥ तेजोविराजितपरांगसमीपरागोषछिदंधनहयछिपरागहीनं ॥ गेमेसतितपरागनमस्करोमि गेस्थेजयेकलितपापपरागमाशु ॥ १० ॥ गेस्थे Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनस्तवनानि. जितेजननमृत्युजरापरागं मादेहितचिवपदं विलसत्परागं ॥ रान्नेहतस्मरपरागपकौपरागरिक्तं परागणधरस्थितिकार्यकारिन् ॥ ११ ॥ पस्थांगदेवकृतचंदनसत्परागोयो छापरागमगिरोस्तिनजंजपूकः ॥ गेयं विधायकृतकृतसंपरागमीडेप्रतीतमपरागमनिख्ययातं ॥ १॥ गेपाग्रगेजितपुनर्नवनापरागरास्थानकेतमुदितेनुवनेपराग ॥ गेशेकृतेनिहतमोहमहापराग गेस्थेपणेकुरुसुखंशमधीपराग ॥ १३ ॥ गेऽर्थेपरागकरणोद्यमिनंनमामिगेसोस्थितेखलपरागजयप्रमुक्तम् ॥ गेन्नेकृतेऽर्पितपरागधराधवत्वंपेहेस्थितेशुचिपरागपवित्रकीर्ति ॥ १४ ॥ गेस्थेनवेसकलजंतुकृतापरागगेदे निबर्हितकषायमहत्पराग॥ गेशेविधेहिसुखमुशितःपरागगेवेसतित्रिजगदंगिकृपापराग ॥ १५ ॥ पेसौपरागसमधैर्यसुवर्यवीर्यपेसेपरागशिवनीरुमनिष्टुवेत्वां ॥ येनीकृतेधनवधूप्रनुतापरागराप्नोदितेशुचिपरागरदालिकांते ॥ १६ ॥ रित्रांकृतेऽनुचित देहपरागलेपरित्रांगते जयपरागनवाधिकश्रीः ॥ उन्नेतिरःसुविहितेजनतापरागगेधेकृते गलितमोहमदापराग ॥१७॥ उपजातयः ॥ परांगनायास्तुपवेपरागसंगेनमुक्तंमनसानतोऽस्मि ॥ पेवेकृतेदेवनमत्परागसंत्यक्तरक्तास्थिपरांग संग ॥ १७ ॥ प्राप्तापरागाधजवाब्धितीरंवंदेपरागारविमुक्तचिंतं ॥ तृष्णापरागर्वरुषानिपूदनंवशापरागार्यगुणोपपन्नं ॥ १ ॥ दिव्यापरागर्जनतामतीतंसेवापराऽगस्त्यमुखर्षिवंद्यं ॥ परागन स्तिबवितोऽधिकप्रनं परागजाविःकृतसमर्तिश्रये ॥२० ॥ परागतार्थप्रतिपादनाप्रियं जनंपराऽगर्घवचःपरंपरं ॥ परागलदूषणधोरणी परागदाधिनमहंनवीमि ॥ २१॥ परागरुत्मस्थितिमूर्तिसेव्यं पराऽगरुषव्यसुधूपयोग्यं ॥ परागमाचारविचारणीयं पराऽगदंकारमहंलजामि ॥२॥ माद्यत्पराऽगम्यपदप्रधानददंपराऽगर्वगुणंश्रयध्वं ॥ सुरूपरागोत्थ विकारतर्जकंजराऽपराऽगत्वरजीतिवर्जितं ॥ २३॥ पराऽगजावारिविशुद्धवंशःपरागरिष्ट स्थितिन्नेददर्शी॥सेवापरारिनतचक्रमाब्जः कृपापराऽगालिदवाक्यजीयाः ॥४॥ योदीपरागांगिसमात्मबोधनो विलापरागादिविमुक्तचेताः ॥ निःस्वापराऽगाह्यतरस्वरूपः सुरापराऽगाह्यगुणःससेव्यः ॥ २५॥ अपूर्वराणांगपरागजातशीलंपराडगंधवचःप्रकाशं ॥परागतिप्राप्तपरागतिझं स्तोष्येपरागोपगतिप्रतीतं ॥६॥ वंदेपरागर्जगतिव्यतीतं सदापरागाढतपःप्रवृत्तं ॥राऽपरांगारकशोणपाणिपरांगरीयःपदवींश्रयंत॥२॥ शार्दूलविक्रीडितबंद ॥ श्रीमहाचकचक्रवर्तिसुगुरुश्रीहर्षकहोलसलिष्यः पंडितमंडलीबहुमतःश्रीलक्ष्मिकबोलकः ॥ सैवेदंरचयांचकारसुपरागार्थाष्टयुक्तंशतं तेनाप्नोतुकृतीजनः शिवसुखंपुरयेनलब्धोदयं ॥२७॥ इति परागशब्दाष्टोत्तरशतार्थ निबर्कसाधारण जिनस्तवनं महोपाध्यायचक्रवर्तिश्रीहर्षकबोलगणिक्रमकमलमरालायमानेन पएिकतलक्ष्मीकबोलगणिना रचयांचवे ॥ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनस्तवनानि. ॥ अथ श्रीमहावीरस्तवन प्रारंजः॥ असमशमनिवासं वासवाचार्यवाचामविषयमहिमानं ज्ञानसंक्रांतविश्वं ॥ प्रणमदमरचूडारत्नघृष्टांधिपीठं जिनवरवरद त्वां नौमि नक्तिप्रयुक्तः॥१॥ बालस्यापि ममोक्तं तव स्तुतावर्थमेष्यति बुधानां ॥ कन्याकर्तितसूत्रे न गौरवं मांत्रिकाः किमु वहेयुः ॥२॥ योमिमीतेंत्यवार्णाघपाथःपलैर्यःपरिछेत्तुमीष्टेननःस्वांगुलैः ॥ योऽनिवेगेनकल्पांतवातंजयेत् त्वगुणानामियत्तामसौवेत्तिचेत् ॥३॥ श्रनिनुत्य जवंतमनंतगुणं स्तुतिकारगिराजिसतीचरितं ॥ यदियंगुणरेणुकणाक्ततनुं स्तवनीयमुपैतिनजातुपरं ॥४॥ नदृष्टेष्टबाधःपरैर्लंघ्यतानत्वमुक्तेनचाशक्यकृत्योपदेशः॥ तथापिश्रितास्तन्नमिथ्यात्वलीना ननिंबप्रियाःकिंहिषंतीकुमुष्ट्राः ॥५॥चितंजनोमृतरुचिर्लजतां वृषसंश्रयेण परमोच्चपदं ॥प्रमदाश्रितेप्यहहतत्रलजां प्रवदंति नवदध्वमुचः॥६॥ फलगोचरलक्षणैरुपेतं गदितं यन्नवता प्रमाणयुग्मं ॥ कृतयत्नशता अपीह दोषानलमुन्नावयितुंनवादिनोऽन्ये ॥ ७॥ संदेहान्युगपदपोहितुंनृतिर्यक् देवानांश्रुतिषुसुधारसंनिषेत्तुं ॥ त्वां हित्वाकलयितुमीश- -नाषातज्ञौप्यं कश्वगिरैकयालमन्यः ॥ ७॥ नकेमनःशुद्धियुगाग्रयोजितप्रबोधचारित्रतुरंगमध्यं ॥ रथंसमारुह्य तवेशशासनं समासदन्मुक्तिपुरीमविनतः ॥ ए ॥ योगेनकि किमथतीर्थपरंपरानिः किंदैवतैःकिमुतपोलिरधीतिनिकिं ॥ मंत्रादरं जिनजिनेतिजपंतुसंतःपारत्रिकैहिकमुपेयमुपेतुकामाः ॥ १० ॥ त्वन्नामकामसामर्थ्यानध्यायध्यायतःसतः ॥ संपनीपद्यतेसद्यः संपत्कंपपराङ्मुखी ॥ ११ ॥ असत्परीणामपरश्वधेन मचित्तपेटांप्रसन्नविनिद्य ॥ ज्ञानादिरत्नानिहरंतिचौरा रागादयस्तानिगृहाणनाथ ॥ १५॥ त्वधेिप्यधिपतौशिवपुर्यां श्रूयतेनहिबहुजनवासः॥ धिरविधिःकुनृपतावपिमोहे वीदयतेलवपुरीजनपूर्णा ॥ १३ ॥ नाथबाधितुमनाथवत्सुधानो जिनोपिविबुधान्यमदमः ॥ मानवांस्तुतवपीतदेशनावाक्सुधान् बतदृशापिनास्पृशत् ॥ १५ ॥ युक्तिस्फूर्जत्तीक्ष्णधाराशयेयैश्चके यौष्माकीणवाणीकृपाणी ॥ तेषांनावारातिनियुद्धकेलिं कुर्वाणानांस्यात्करस्थाजयश्रीः ॥ १५ ॥ प्रमथितमिथोविरोधाः सुहृदीजूयासतेंगिनोनिखिताः ॥ त्वद्देशनाजुवमिता नयवादाश्वजवत्समयं ॥ १६ ॥ इनकुतीर्थिककल्पितगर्हणा वचन जस्मनिरुज्ज्वलितेप्यहो ॥ तवयशोमुकुरेपरदैवतवजयशोनखलप्रतिबिंबितं ॥ १७ ॥ रुंधन्नेधितमन्यतीर्थिकततेरौछत्यवंध्याचलंसच्चेतोजलपंकहन्मधसुहृछातापिसंतापनं ॥ हेलाशोषितमोहराजमहिमांनोधिर्जिनत्वद्यशोगस्तिः सैषबजस्तिहस्तिदशनछेदावदातविः ॥ १७ ॥ शेशोहिर्यस्यमूलंकनकगिरिरपिस्कंधबंधश्चतस्त्रः काष्ठाःशाखाःप्रशाखाविदिशउरुतलं व्योमजालंदलानां ॥ ताराः पुष्पाणि सिकास्पदमथ शिखरंपुष्पदंतौफलश्रीठाया विश्रांत विश्वःस्फुरतितवयशःपादपःसोयमुच्चैः ॥ १ए ॥ अवॉलमारोहतिहन्न Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनस्तवनानि. जोनृणां त्वन्नक्तिरागांशुपतिर्यथायथा ॥ तथातथांहःपटलीबलीयसीनायेवदेवक्ष्यतिप्र. तिक्षणं ॥॥ स्वजनकमनस्तापाधानोनवाघ विपक्रिमव्यसनमपि हीहंतुंकामनशक्तिमधुःपरे ॥ तवपुनरिनश्रीमोहोर्वीपति सबलंबिधापरिदलयितुंकाष्ठाप्येकालगन्न रणांगणे ॥ २१॥ नदोषाणांस्वस्मिन्नधिपनवताऽदायि वसतिर्गुणानांनैवान्यैर्ह रिहर विरंचिप्रनृतितिः ॥ शिवंतेषामुशासयितुमनिसंधिस्तवनवं तदातातेच्यस्तेनतुकिमिववैशिष्टयमधिकं ॥ २२ ॥ श्रापकोटी विघटनपटुः संपदाकृष्टिमंत्रःश्रेयोवहीवनवनधरस्तस्वधीसौधदीपः ॥ विद्याकंदोरतिपतियशःदीरबचुप्रचार श्वेतोवृत्तिं ममरमयतुत्वत्पदाब्ज. प्रणामः ॥ २३ ॥ कषायतपनातपग्लपितमप्रशस्त क्रियानुचिंतनमलीमसं विषयतर्षपर्याकुलं ॥ जवझुणकदंबकस्तुतिसुधाहदे मजानं जिनेशितरनुदणंसृजतुमामकीनंमनः॥२॥ त्रिजुवनजवनाजोगनावनासनगृहमणिसम नतजनतानिमतार्थसार्थ वितरणकल्पद्रुम विविधबंदोजातिरुचिरमितिसंस्तवमकरवमपवृजिनप्रनसूरि निवहमहनीयमहंतवयत्कंठपीउसीमनिलुवतिसैषतस्य पुरुषस्य जिनकरतलमुपैति सकलेटफलसिहिरिगुणतरुविपिन ॥ २५ ॥ इति श्रीमहावीरस्तवनं ॥ ॥अथ श्रीपार्श्वनाथस्तवन प्रारंजः ॥ कामेवामेयशक्तिवतुतवगुणस्तोमलेशप्रशस्तौनस्याद्यस्यामधीशःसुरपतिसचिवस्यापिवाणीविलासः ॥ मानेवावाहिवारांकलयतिकश्वप्रौढिमारूढधारांजक्तिव्यक्तिप्रयुक्तः स्तदपिकिमपितेसंस्तवंप्रस्तवीमि ॥१॥ संसारांनोधिबेमानिबिमजडमतिध्वांतविध्वंसहंसः श्यामाश्यामांगधामाशठकमठतपोधर्मनिर्माथपाथः ॥ स्फारस्फूर्जत्फणींप्रगुणफणमणिज्योतिरुद्योतिताशाचक्रश्चक्रिध्वजत्वंजयतिजिनवि जिदव्यजावारिवार ॥२॥ कम्रानम्रांगिचेतः शिखिकुल विलसत्तांडवाडंबरश्रीहेतुः खन्नखालीरुचिररुचितडिदामनेत्रा. निरामः ॥प्रीतिफुल्लत्फणानाङ्मणिघृणिसुमनश्चापवित्रीकृतद्यौदेया स्त्वंदेशनावास्तनितसुखकरोमेघवन्मेऽघहंतः॥३॥ निंदन्लोकप्रवाहप्रबलतर सरित्पूरमुच्चैर्वहंतंजंतूनांचित्तनूमौसजयतिजगतित्वछचोवारिकांतः॥मुक्त्वागाढगृहीतानपिविनतजनान्यत्प्रनावायार्लोनूयस्तन्मध्यमेवप्रविशतिजटितिक्रूरमोहावहारः॥४॥ लौल्याबावण्यलक्ष्मीमधुरमधुरसंत्वन्मुखांनोरुहोत्थंपायंपायं नरेणप्रणतजवनृतानेत्रपुष्पंधयादयः ॥ नूनंहर्षप्रक|जतनयनपयःपूरदंनेनपूरं मिथ्याक्लोचनाना मसुजगनगवन्सद्यएवोरिंति ॥ ५ ॥ निस्पंदानंदकंदः कलिमलकदलीकांमखंमीकृतोयत्कदाकौदेयकस्यदापितनवशतंनेत्रपी. युषसत्रं ॥ श्रेयाश्रीवतिहसीसकमलयमरुन्नाग्यमारोग्यलदम्यादर्शकंदर्पदर्पद्विजपतिपतनेदर्शनंतावकीनं ॥६॥ विद्या विद्याधरीणांमणिमयमुकुरः क्रूरवैरा रिजैत्रोगात्रश्रीमैत्र्यपात्रीकृतरतिरमणःसच्चरित्रैः पवित्रः॥ सनोगाजोगजागीशुनगिमजवनंश्रीजिनश्रीदसंपन्निः Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनस्तवनानि. श कंपः संपनीपद्यतइहमनुजः साधुनत्वा जिनत्वा ॥ ७ ॥ देव्यावाचो पिवाचाम विषय दिविषन्मंदिरद्वार सेवा देवाकी सर्वनाकी श्वरमुकुटतटी घृष्टपादांबुजस्य || नेताश्चैतन्यशून्यः सकलकलयितुर्मुक्तिमात्रस्य दाताजुक्तिं मुक्तिं चदातुः कथमिवजवतः कल्पवृक्षः सदृशः ॥ ८ ॥ चंप्रः प्रत्युदकाशयंप्रतिफलत्ये कोनचार्थ क्रियाकारीत्येषन वास्तवस्त व पुनर्वृत्तंजयत्यद्भुतं ॥ एकस्त्वंप्रतिमान संवस सियगव्यात्मनामेकदा सर्वेषामथ च प्रयष्ठ सिफलं तेषां मनोवांबितं ॥ यमक गुणस्तुतिं विकिरती झुंडा मिवांतर्गतप्रीतिंस्फीतिमतीमती वसुरनिंदानांबुवा बिव्रती ॥ त्रैलोक्यैकसुरडुमडुमवनानीवोन्मदावा सितायुष्मद्भक्तिरलंजन क्तिन विनामेनां सिहृद्वासिता ॥ १० ॥ श्राधारे स्थिरतो झिते खलुजवत्याधेयमापि स्थिरं सोयंज्ञानपथस्तथापि किमपिस्वार्थेकनिष्ठोवे ॥ थधांतंममचंचलेपिमन सिखा मिन्वधान स्थितित्रैलोक्याधिपशक्तिजा जिय दिवार्किनोपपन्नत्वयि ॥११॥ विश्वेशप्रसत्वदीययशसाव्यालुप्यमाने प्रजास जगदाक्रमै कपटुन नूनं द्विजानांपतिः ॥ शस्त्रीलांउनकैतवात्प्रतिनिशंकुक्षि प्रदेशे दिपनको पाटोपवशाद सावुदयते विपुल हितं ॥ १२ ॥ वक्त्रेणत्वमपाहरः शशिधर स्याखं ममूर्तेःश्रियंव्या कोशस्यकुशेशयस्य सुषमा सर्वस्वमप्यग्रहीः ॥ यत्तुख्यव्यसनाद पिस्मज हितौने तो विरोधं मिथस्तेनाकारिसमानशील विपदांसांख्यप्रवादोमृषा ॥ १३ ॥ पुष्टांगी व्यवहार निश्चयनयप्रोत्तुंग शुंगंशुजद्दानाद्यं त्रिचतुष्टयंच विकसज्ज्ञान क्रियालोचनं ॥ नित्यछेक विवेकपुछलतिकंस्याद्वादपर्युल्लसत्पीनोच्चैः ककुदं कुर्ती तृणमुक्तेवृषंगौस्तव ॥ १४॥ याकंठं कमठांबुदो जितपयः पूरे निमग्नांग कस्योत्फुल्लं मुखपंकजंत व पपौया कौतुकोत्कर्षतः ॥ नागस्त्रैण विलोचनाविपटली संख्यायधुर्यैवतांधन्यानां गणनादणेन खलु सारेखान्यतः सर्पति ॥ १५ ॥ वंदारोः प्रियको पितप्रणयिनीहक्कोण शोण विषः सांद्र स्निग्धसमुच्छलत्कमनखश्रेणी मयूखास्तव ॥ वस्तु तिडूतिका निमु खितपाणौ चिकीर्षोः शिव श्रीरामांनवपद्मरागसहितंवनंति मौलौमम ॥ १६ ॥ एवंनृदेवमहितः सहितः प्रजावभूत्याप्रभूततमया विनुतोमयाऽयं ॥ पार्श्वःप्रजुर्विमल चिन्मय चित्तसौधमुत्तंसयत्ववृजिनप्रनसूरिवर्ण्य ॥ १७ ॥ इति श्रीपा० स० ॥ ॥ अथ श्रीकृषनादिजिनस्तवन प्रारंभः ॥ ऋषज नम्रसुरासुरशेखर प्रपतयालुपरागपिशं गितं ॥ क्रमसरोजमहंतव मौलिना जिनवनवमतद्युते ॥ १ ॥ अपरवस्तु विलोकनलालसा विष निषेधबुधसुखमासुधां ॥ वपुपिते पिबताममचकुषी जितना जितनास्करकांचन ॥२॥ हरिहरादिसुरौघ विलक्षणाहुतचरित्रचमत्कृत विष्टपं ॥ सुजननोः पदपीठ विलोलुवत् सुमनसंमनसं जव दैवतं ॥ ३ ॥ म दनडुर्दमदं तिदमेहरिस्तरुमृगांकित मूर्तिरुपाश्रितान् ॥ डुतमहारजतद्युतिरप्रणीः शमवतामवताद जिनंदनः ॥४॥ चरणलक्ष्मिकरग्रहणोत्सवे विरवितैरयन द्वितयोवधिं ॥ धृतसुखातिशयावसुवर्षणैर्वसुमती सुमती शकृतात्वया ॥ ५ ॥ स्मितजपाकुसुमोपमदीधितिंशरणमीश · For Private Personal Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनस्तवनानि. मुपैमिजगत्रयी। कुमतकोककुलामृतदीधितिमुदरविंदरर्विधरनंदनं ॥६॥सकललोकचमकृतिकारिणीं जिनसुपार्श्वनवगुणधोरणीं ॥ कश्वनोमतिमान्जुवनत्रयेकुमुदनामुदना. वयाच्चकैः ॥ ७॥ शुचियदंगरुचातुपराजितः शशधरोंकमिषाद्यमशिश्रयत् ॥ सपदिलोचनयोर्ममकल्पतांसमहसेमहसेनसुतो जिनः ॥७॥ सुविधितीर्थकरकरुणाकरंकरणविष्किरपाशमुपाश्महे ॥ करणकांतिविराजितकार्तिकी हिमकरंमकरंदधतंध्वजं ॥ ए ॥ जयतिशीतलदेवसरस्वतीत्रिजगतीं पुनतीकविसेविता ॥ मधुरिमातिशयेनतृणीकृतामृतरसातरसास्ततृषातव ॥ १० ॥ जिनवरोऽवतुगंडकलांउनःप्रथम विष्णुनतांघिसरोरुहः ॥ प्रथितविष्णुनृपान्वयपुष्करांबरमणीरमणीयगुणांबुधिः ॥ ११ ॥ मुनिपतिर्वसुपूज्यनृपात्मजूर्जयतिनिर्जितर्जयचित्तनूः ॥ सुजनकोककदंबकलोचनोत्सवर विर्वर विजुमविग्रहः ॥१२॥ सुकृतिनःकृतवर्मधरा धवान्वयननस्तलनासननास्करं ॥ श्रयतकांचनवारिरहनदछविमलं विमलंजगदीश्वरं ॥ १३ ॥ उपनमंतितमीशसमुत्सकं प्रणयतोचरितुंसकलाःश्रियः॥ जगतितुज्यमनंतनमस्क्रियामकलयेकलयेछिनयेनयः ॥१४॥ अवतुधर्मजिनेउकुनावना रजनिनाशनसप्तहयोदयः ॥ शममयःसमयस्तव सुव्रतातनयमांनयमांसलविस्तरः ॥१५॥ हृदयनायकचक्रिजिनश्रियोठिविधवैरिजयोर्जितविक्रमः॥जवनयानिनिनत्तुजवन्मतानुगविशांग विशांतिविजोजवान् ॥१६॥ किमिति तीवतपोबतशीलनैः किमुतयोगरहस्य निषेवणः ॥ दलयितुंकुगतियदिवोरुचिर्वृजिनकुंजिनकुंथुरुपास्यतां ॥ १७ ॥ प्रणतवासवमौलिमणिप्रनापटलसंवलितांघ्रिनखत्विषां ॥ स्मरतनव्यजनाःस्मरकुंजराकुशमरंशमरंजितसजनं ॥ १७॥ अनिनुमःप्रजुमहिमपाकृतस्मरशरप्रसरांशिशुतावधेः ॥ मरकतद्युतिदर्पविलोपनदम विनाम विनाव्यगुण श्रियं ॥ १५ ॥ कमलमणिल दिमनिकेतने परहितवतशालिनिसुव्रते ॥ अविरसंममनक्तिरसःस्फुरत्वनवमेनवमेघतनुद्युतौ ॥ २०॥ अलमनुकुपदेनसृतंधनैर्युवतिनिः कृतमस्तुनृपश्रिया ॥ नरुचयेमममुक्तिपदं तवस्तवनमेनवमेजवतुप्रियं ॥१॥ दनुजजिनुजवीर्यमदज्वरप्रशमनैकनिषग्वरदोर्बलं ॥ ममतनेमि जिनंजुवनत्रयीसुरतरं रतरुपतरुहिपं ॥ २५॥ शिवसुखस्यकथामपि वेदितानखबुसाजनताजिनकर्हि चित् ॥ सजतियाप्रजुपार्श्वकुवासनाशतवशा तवशासनलंघनं ॥ २३॥ चसनकोटिविघट्टनचंचलीकृतसुराचलवीरजगजुरो ॥ त्रिजुवनाऽशिवनाश विधौ जिन प्रनवते जवते जगवन्नमः ॥ २४ ॥ स्वरवतारजनित्रतकेवलादरपदाप्तिदिनानिपुनंतुनः ॥ जगवतांविदधंतिजगत्रयीं मुदमितां दमितांतर विहिषां ॥ २५ ॥ तिजिनप्रनसूरिनिरीडिताः प्रणतिचंचुजनायजनाधिपाः॥ दधतुशीलितसिद्रिवधूमुखांबुजरसाजरसारहितंपदं ॥२६॥ जिनवराःकुनयालिमृणालिनीमुकुलनैकतुषारमरीचयः ॥ विदधतःप्रणतंजतमाहतस्मरचयंरचयंतुमनांसिनः ॥ २७ ॥ जगवताऽनिहितार्थमधीयतां कुपथमाथिकदर्थितमन्मथं ॥ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संग्रदणीसूत्र. श्रुतमुदात्तमुदात्तपुरस्सरःस्वरचितं रचितंगणधारिनिः॥२॥प्रथमकल्पपतिःप्रथिताय. तिःप्रवचनांबुजसौरजषट्पदः।। कुलिशशोनितपाणिरुपप्लवशमयतामयतामिहनम्रतां ॥३॥ ॥श्री वर्धमानस्वामिन्योनमोनमः॥ ॥ अथ श्री संघयणीरत्न त्रैलोक्यदीपिकाख्यग्रंथ बालावबोध सहित प्रारच्यते.॥ प्रथम अर्थक नुं मंगलाचरण. श्रीपार्श्वनाथं फलवृद्धिकाख्यं गुरुं तथा श्रीजिनदत्तसूरिं ॥ वाग्देवतायाश्चरणौचनत्वातमाश्रये श्रीजिनन नाम्ना ॥ १॥ निर्मथ्यजैनागमवारिराशि, प्रकाशितायैरियमप्रपंचा ॥ श्रीचंजसूरिन्प्रणिपत्यसम्यक्, करोमितांसंग्रहणींस्फुटार्थी ॥२॥ युग्मं ॥ श्रीहर्षसार गुरुराजहितप्रसाद, माधायचेतसिचिदर्थकृतेप्रमादं तस्मादिशुक्रवचनोविगतावसादी, व्याख्यांस्फुटांशिवनिधानगणिवितेने ॥३॥ हवे प्रथम ग्रंथकर्ता दोढ गाथाए करी शिष्टाचार पालवाने अर्थे अने विघ्न निवारवा अर्थे मंगल करे . तथा अनिधेय, प्रयोजन, संबंध, अने अधिकारी ए चारनुं प्रतिपादन करे . नमिलं अरिहंताई विनवणो गाहणाय पत्तेयं ॥ सुर नारयाण वुबं नर तिरियाणं विणाजवणं ॥१॥ उववाय चवणविरहं संखं ग समश्यं गमागमणे ॥ व्याख्या-अरिहंताई के थरिहंतादिक पांच परमेष्टीप्रत्ये नमिजं के नमस्कार करी एटले नमस्काररूप मंगल था. ए नमस्कारे करी ग्रंथकर्ता तथा ग्रंथना श्रोताने विघ्न न थाय. एम पांचे परमेष्टीने नमस्कार करीने, सुर के देवता, श्रने नारयाण के ना. रकी, ए बेठने प्रत्येके श्रायुष्यनी विश्के स्थिति, जवण के घर, अवगाहना के शरीरनुमान, वुद्धं के कहीशु. एटले देव तथा नारकीनुं आयुष्य, जुवन तथा शरीरनी श्रवगाहना कहीशुं. पण एटदुं विशेष जे नर के मनुष्य, अने तिरियाणं के तिर्यंच, ए बेजना जुवन ते एकांत निश्चल शाश्वतां नथी, माटे विणाजवणं के जुवन विना बाकीनां श्रायुष्य श्रने अवगाहना कहीशु. वली एक देव उपन्या पली बीजो देव केटला कालने श्रांतरे उपजे ? ते उववायविरहं के उपपातविरहकाल, वली एक देव चव्या पडी बीजो देव केटला कालने थांतरे चवे ? ते चवण के चवनविरहकाल. तथा संखंगसमश्यं के एक समये संख्याए गणतां केटला देव उपजे ? ते एक समये उपपात संख्या, वली एक समये संख्याए गणतां केटला देवो चवे ते एक समय Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ संग्रहणीसूत्र. चवनसंख्या. वली देवो मरीने केटली गतिमां जाय ? ते गमा के० गति, तथा केटली गतिना श्राव्या जीवो देवपणे उपजे ? ते श्रागमणे के० श्रागति. एम ए व बोल जेम देवने तेम नारकी, मनुष्य, तथा तिर्यंचने पण सरखा जाएवा. एटले नत्र नव द्वारदेव तथा नारकीनां कहीशुं. अने जुवन विना आठ आठ द्वार मनुष्य तथा तिर्यंचनां कही शुं. ए रीते सर्व मली चोत्रीश द्वार कही शुं. अहीयां उपर गाथामां यकारनो चकार थाय बे, माटे च शब्द उजयान्वयी बे, तेथी देव, नारकी, मनुष्य, तिर्यंच - ए चारेनां वर्ण, चिन्ह, लेश्यादिक पण कही शुं. एटले निधेयक. ग्रंथकर्त्ता ने हवे ए ग्रंथकर्त्ताने ग्रंथ बांध्यानो बोध थयो बे, तेनुं प्रगटीकरण ते नंतर प्रयोजन थयुं तथा एना अनुग्रह परंपराए मोक्षावाप्ति ते ग्रंथकर्त्ताने परंपर प्रयोजन, तेमज श्रोताने देवादिकनुं स्वरूप जाणवुं, ते अनंतर प्रयोजन परंपराए मोक्षावाति ते परंपर प्रयोजन. ए रीते ग्रंथ करवानुं प्रयोजन कयुं. ने एथी हवे जो संबंध ते बे प्रकारे बे. तेमां एक उपायोपेय लक्षण, बीजो गुरुपर्वक्रमलक्षण. तेमांदे ए संघयणी ग्रंथ ते उपाय, छाने ए ग्रंथ तत्वज्ञान ते उपेय. ए उपायोपेयलक्षण समजवुं. दवे गुरुपर्वक्रमलक्षण ते, ए ग्रंथनो अर्थ श्रीवर्द्धमान स्वामीए वखाएयो; तेवार पढी श्री सुधर्मास्वामीए द्वादशांगीमां गुंथ्यो. त्यांथी श्यामाचार्या दिके पन्नवणा प्रमुख सूत्रोमां उद्धस्यो. वली तेमांथी श्री जिननडगणी क्षमाश्रमणे पांचसें गाथानी महोटी संघयणी करी; तेमां अवतारयो, त्यांथी संक्षेप रुचिवंत जीवोने श्रीचंद्रसूरि ते महोटी संघयणीनो अर्थ संक्षेपीने इहां बांध्यो. ए गुरुपर्वक्रमलक्षण जाणवुं. ए संबंध कह्यो. हवे साधु, साधवी, श्रावक, घने श्राविका - ए चारे या ग्रंथनां अधिकारी जाणवा. ए चोथुं अधिकारीपणुं कयुं. ॥ १ ॥ अवतरण - जेवा अनुक्रमे द्वार कह्यां बे, तेवाज अनुक्रमे पहेलां देवोनी स्थिति प्रमुख नव द्वार कहे बे. तेमां प्रथम चार प्रकारना देवोमांथी भुवनपति देवोना श्रायुष्यनी जघन्य स्थिति गाथाए करी ग्रंथकार कहे . दसवास सदस्साई जवणवईणं जन्नविई ॥ २ ॥ व्याख्या - नवणवईणं के० भुवनपतिना दशे निकायना देवो, अने जुवनपतिनी देवी - ए बनेनी सामान्यपणे दसवाससहस्साई के० दशहजार वर्षेनी जहन्न विई के० जघन्य थकी श्रायुष्यनी स्थिति होय; पण तेथी बी न होय. ॥ २ ॥ For Private Personal Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संग्रहणीसूत्र. अवतरण-नुवनपति देवोना श्रायुष्यनी उत्कृष्टी स्थिति वे गाथाए करी कहे जे. चमर बलि सार महिअं॥ तद्देवीणं तु तिमि चत्तारि ॥ पलियाई सहाई॥ सेसाणं नवनिकायाणं ॥३॥ दाहिणदिवढ पलियं ॥जत्तर हुँति उन्नि देसूणा ॥ तदेवी मह पलियं॥देसूणं आजमुक्कोसं॥४॥ व्याख्या-जुवनपति देवोना दश निकाय डे, ते मेरुना थाठ रुचक प्रदेश बे, त्यांथी एक दक्षिण दिशिनो अने एक उत्तरदिशिनो, एवा अर्कोअः बे खंड करीए, ते बेदिशिमां एकेक दिशिनेविषे एकेक निकायनो एकेक इंज. एम एकेक निकायना बेदिशिए बे इंज बे. तेमां पहेला निकायनेविषे जे दक्षिण दिशिरूप अर्ड तेनो अधिपति असुरकुमारनो राजा चमरेंज बे; तेनुं आयुष्य सार के एक सागरोपमनुं उत्कृष्टुं जाणवू. अहीयां सारपदे सागरोपम कडं, ते पदनो एक देश होय, तोपण पदना समुदायनो उपचार करवो एवो नियम ; माटे कयु. तथा बीजो उत्तराईनो राजा बलिं . तेनुं आयुष्य एक सागरोपम अहियं के अधिक, एटले एक सागरोपम जाकेलं उत्कृष्टथी जाणवु. वली तदेवीणं के० ते चमरेंडनी देवीनुं आयुष्य यथासंख्याये सवातिन्निपलियाई के साढात्रण पट्योपमनुं जाणवू. अने बलिंजनी देवीनुं आयुष्य सवाञ्चत्तारिपलिया के साढाचार पढ्योपमनुं उत्कृष्टुं जाणवू. अने ए चमरेंड, तथा बलिंड, ए बे टालीने शेष जे नव निकाय ॥३॥ तेमां दाहिण के० दक्षिण दिशिना धरणे प्रमुख नवे इंडोनुं दिवढपलियं के दोढ पल्योपम तथा उत्तरदिशिना नूताने प्रमुख नवे इंजोर्नु उन्निदेसूणा के देशेजणुं बे पढ्योपमनुं आयुष्य जाणवू. अने तद्देवीम के० ते धरणे प्रमुख नवे इंजनी देवीउनुं अर्द्धपट्योपमनुं आयुष्य, तथा नृताने प्रमुख नवे इंझोनी देवीउँनु पलियं देसुण के० देशेजणुं एक पल्योपमर्नु आजमुक्कोसं के० श्रायुष्य उत्कृष्टुं जाणवं. अने ते जघन्यायुनी उपर ज्यांसुधी उत्कृष्टायु संपूर्ण थाय नहीं, त्यांसुधी सर्व मध्यमायु जाणवू ॥४॥ ए रीते नवनपति देव तथा देवीनुं जघन्य तथा उत्कृष्टुं श्रायुष्य कमु. ॥ हवे व्यंतर देव अने देवीउनु जघन्योत्कृष्टायु गाथाना त्रण पदे करी कहे जे.॥ वंतरियाण जदन्नं ॥ दस वास सहस्स पलिय मुक्कोसं ॥ देवीणं पलिई ॥ - अर्थ-वंतरियाण के व्यंतरदेव तथा देवीउनुं जहन्नं के0 जघन्यायु दसवास सहस्स के दशहजार वर्षनुं होय, अने पलिय के एक पक्ष्योपमनुं देवोर्नु, तथा पलियऊं के अपठ्योपमनुं देवीउनु, उक्कोसं के उत्कृष्टायु होय. अहींयां कोश्क अजाण एम कहे जे जे, व्यंतरनी देवीउनु एक पक्ष्योपमायु . ते जू कहे . Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ संग्रहणीसूत्र. केमके श्रीपन्नवणासूत्रमध्ये कधुं बे. - वाणमंतरीणं जंते केवश्यं कालं हि पन्नता गोयमा जहन्नेणं दस वास सहस्लाई उक्कोसेणं श्ररुप लिदेवमं ॥ ए वचने व्यंतरीक देवी नुं उत्कृष्टुं श्रायुष्य श्रई पल्योपम बे. अने श्री, ही, धृति, कीर्त्ति, बुद्धि, अने लक्ष्मीए ब देवीउनुं श्रायुष्य एक पल्योपम बे, ते देवी जवनपतिनी बे. व्यंतरी कनी नथी. एम जाणवुं ॥ ४ ॥ हवे चंद्रमा, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र, अने तारा-ए पांच जातना ज्योतबिना देवो तथा देवीना श्रायुष्यनी जघन्योत्कृष्टी स्थिति बे गाथा अने एक पढ़ेकरी कहे. पलियं प्रयिं ससि रवीणं ॥ ५ ॥ लरकेण सदस्सेाय ॥ वासाण गढ़ा पलिय मेएसिं ॥ वि प्र देवीणं ॥ कमेण नरकत्त ताराणं ॥ ६ ॥ पलि चननागो ॥ चन पड जागादिगान देवीणं ॥ चन जुले च जागो जहन्न मड जाग पंचम ॥ ७ ॥ व्याख्या - ज्योत षिदेवोना बे भेद बे. एक चर अने बीजा स्थिर. तेमां छाढी द्वीपमांहे जे ज्योतिषचक्रबे ते चर; छाने अढी द्वीपश्री बाहेर जे ज्योतिषचक्र बे ते स्थिर कद्देवाय बे. त्यां जंबुद्वीप दे देने असंख्याता द्वीप समुद्रमांहे जे ससि के० चंद्रमा श्रने चंद्रमाना विमानवासी देवो बे, तेमनुं उत्कृष्टायु पलिया दिये के० एक पल्योपमनपरे लरके के० एक लाख वर्ष अधिक, तथा रवीणं के० सूर्य ने सूर्यना विमानवासी देवोनुं उत्कृष्टायु एक पल्योपमउपर सदस्सेणयवासाय के० एकहजार वर्ष अधिक बे. तथा गहाण के० ser ग्रहना विमानवासी देवोनुं पलिय के० एक पल्योपमनुं उत्कृष्टायु होय. अने एएसिं के० ए पूर्वोक्त चंद्रमा, सूर्य तथा ग्रह तेमज चंदमा, सूर्याने ग्रहना विमानवासी देवोनुं जे श्रायुष्य कयुं; तेथी तेमनी देवीणं के० देवीना आयुष्यनी विई के० स्थिति ते शुद्धं के० श्रई जाणवी. एटले चंद्रमानी देवी तथा चंद्रमाना विमानवासी देवोनी देवीउनुं उत्कृष्टायु श्र पस्योपम छाने पचास हजार वर्ष उपर तथा सूर्यनी देवी ने सूर्यना विमानवासी देवोनी देवीउनुं उत्कृष्टायु अर्को पल्योपम ने पांचसे वर्ष उपर तथा ग्रहनी देवी तथा ग्रहना विमानवासी देवोनी देवीउनुं उत्कृष्टायु अर्को पल्योपम जाणवुं. एम ए त्रणे ज्योतषिनी देवीना श्रायुष्यनी स्थिति ते देवताना पोताना आयुष्यथी अर्क होय. हवे कमेणनस्कत्तताराणं के० अनुक्रमे नक्षत्र तथा तारानुं उत्कृष्टायु कहे बे. ॥ ६ ॥ नक्षत्र तथा नक्षत्रना विमानवासी देवोनुं उत्कृष्टायु पलिय के० श्रपत्योपमनुं जाणवुं तथा तेमनी देवीउनुं चउजाग के० पल्योपमानो चोथोजाग आयु होय. अने For Private Personal Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५ संग्रहणीसूत्र तारा तथा ताराना विमानवासी देवोनुं उत्कृष्टायु चउन्नागाहिग के पक्ष्योपमनो चोथो नाग विशेषाधिक, एटले काश्क झालं, तथा तेमनी देवीणं के देवीउनु उत्कृष्टायु अमनाग के० पस्योपमनो आग्मोजाग अहिग के कांश्क विशेषाधिक जालं आज के आयु जाणवू. एटले देवो तथा देवी मलीने पांचे ज्योतषिना युगलनुं उत्कृष्टायु कडुं. __ हवे जघन्यायु कहेले. अहींयां नावार्थ ए जे जे, चंप्रमा, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र थने तारा-ए पांच जातना ज्योतषिमां चंप्रमा अने सूर्य ए बे इं . बाकी त्रण विमानना धणीउने, तेथी तेमनुं जघन्य तथा मध्यमायु न होय किंतु उत्कृष्टज होय. ते मूकीने चउजुअले के चार युगल ते-एकतो चंजमाना विमानवासीदेव श्रने विमानवासी देवी, पण चंजमा पोते नही; ए एक युगल. तथा सूर्यना विमानवासी देव अने देवी; ए बीजुं युगल. तथा ग्रहना विमानवासी देव अने देवी, ए त्रीगँ युगल. अने नक्षत्रना विमानवासी देव श्रने देवीउ, ए चोथु युगल.ए चारे युगलनु जघन्यायु, पठ्योपमनो चनजागो के चोथो जाग होय, अने ताराना विमानवासी देव तथा देवी ए पंचमए के पांचमा युगलनु जघन्यायु पढ्योपमनो श्रमजाग के पाठमोजाग जाणवू. एटले ज्योतषि देव तथा देवीउँनाथायुष्यनी जघन्योत्कृष्टस्थिति कही। ॥ हवे वैमानिकदेवोनी उत्कृष्ट श्रायुस्थिति दोढ गाथाए करी कहे ॥ दोसादि सत्त सादिय ॥ दस चनदस सतर अयर जा सुक्को ॥३किक महिय मित्तो ॥जा गती सुवरि गेविजे ॥ ७॥ तित्तीसणुत्तरेसु ॥ सोदम्माश्सु श्मा लिई जिता ॥ व्याख्या-दोसाहिसत्त साहिय दस चउदस सतर श्रयर-एरीते जासुको के० यावत् शुक्र देवलोक सुधी उत्कृष्ट श्रायुस्थिति जाणवी ते कहे.जेहनो घणा काले तरीने पार पामीए ते सागर कहीए. ते सागरेकरी जे काल मविजे तेने सागरोपम कहीए. त्यां सौधर्मदेवलोके बेल्ले तेरमे प्रतरे दो के बे सागरोपमना श्रायुष्यनी उत्कृष्ट स्थिति जाणवी. अने बीजे ईशान देवलोके वे सागरोपम पक्ष्योपमने असंख्यातमे नागे साहि के साधिक एटले जाफेरा. त्रीजे सनत्कुमारे सत्त के० सात सागरोपम, चोथे महेंजदेवलोके सातसागरोपम पढ्योपमने असंख्यातमे जागे साहिय के० साधिक ते फाफेरा. पांचमे ब्रह्मदेवलोके दस के० दश सागरोपम, बछे लांतक देवलोके चउदस के चउद सागरोपम, सातमे शुक्रदेवलोके सत्तरथयर के० सत्तरसागरोपम. इत्तो के ए पली शुक्र देवलोकथी उपरना जे देवलोक डे, त्यां शक्किकम Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ संग्रहणीसूत्र. हिय के० एकेका सागरोपमनी वृद्धि करीए ते जा के० यावत् उवरिगेविजे के० उपरली नवमी ग्रैवेयके इगतीस के० एकत्रीश सागरोपमनुं आयुष्य याय, ते कही। बतावे. आवमा सहस्रार देवलोके ढार सागरोपम, नवमा खानतदेवलोके उगणीश, दशमा प्राणतदेवलोके वीश, अग्यारमा आरणदेवलोके एकवीश, बारमा अद्भुत देवलोके बावीश सागरोपम, प्रथम हे ठिम हे हिम ग्रैवेयके त्रेवीश, बीजे हे हिम मध्यम ग्रैवेयके चोवीश; त्रीजे हे हिमजवरिम ग्रैवेयके पचीश, चोथे मध्यम हे हिम यैवेयके वीश, पांचमे मध्यममध्यम ग्रैवेयके सत्यावीश, बठे मध्यमोवरिम ग्रैवेयके वीश, सातमे वरिम हिम ग्रैवेयके उगणत्रीश, आठमे उवरिम मध्यम ग्रैवेयके त्रीश, नवमे उवरिमजवरिम ग्रैवेयके एकत्रीश सागरोपम उत्कृष्टी आयुष्यनी स्थिति होय ॥ ८ ॥ एही आगल अणुत्तरेसु के० पांच अनुत्तर विमानोनेविषे एकेका सागरोपनी वृद्धि करीए नहीं, किंतु श्रहीयां स्वनावे श्रायुष्य तित्तीस के० तेत्री सागरोपमनुं होय, एरीते सोहम्माइसु के० सौधर्मादिकथी मांडीने पांच अनुत्तर लगी इमा के० ए वैमानिक देवना आयुष्यमी हि के० स्थिति ते जिहा के० उत्कृष्टी कही. व्याख्या ॥ दवे ए वैमानिक देवोना त्र्यायुष्यनी जघन्य स्थिति बे गाथावडे कदे ॥ बे सोढ़म्मे ईसा ॥ जहन्न ठिई पलिय महियं च ॥ ए ॥ दो सादि सत्त दस चनदस ॥ सत्तर यराई जा सहस्सारो ॥ तप्पर इक्किक्कं ॥ दियं जाणुत्तरचनके॥१०॥ इगती ससागराई सबठे पुणजदन्ननिचि सोहम्मे के सौधर्मदेवलोके तेर प्रतरे प्रत्येके पलिय के० एक पढ्योपमनी जहन्नई के० जघन्य स्थिति आयुष्यनी जावी. अने ईसा के ईशान देवलोके पयोपमने श्रसंख्यातमे जागे अहिां के० अधिक एक पल्योपमनुं आयुष्य जावं. ॥ ए ॥ श्रहीयांथी आागल त्रीजा सनत्कुमारे बे सागरोपम जघन्य स्थिति, चोथा महेंद्रे बे सागरोपम जाकेरा, पांचमा ब्रह्मदेवलोके सात सागरोपम, बडा लांतके दश सागरोपम, सातमा महाशुक्रे चउद सागरोपम. एम जा के० यावत् श्रामा सहस्सारो के सहस्रार देवलोके सत्तरसागरोपम, पढे तप्पर के० तेहनाजपर नतादिक देवलोकने विषे इक्किकहियं के० एकेको सागरोपम वधारता जइए ते; जा के० यावत् एत्तरचनके के० चार अनुत्तर विमाने एकत्रीश सागरोपमनी प्रत्येके जघन्य स्थिती याय ते कहे बे. खानते १७ प्राणते १५ आरणे २० ते २१ एमज नवे के एकेक वधारतां नवमे ग्रैवेयके त्रीश सागरोपम जघन्यायुष्यनी स्थिति थाय. तेवारपढी एक विजय, बीजो विजयांत, त्रीजो जयंत, चोथो अपराजित, ए Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संग्रहणी सूत्र. ३७ नूत्तरचतुष्के ॥ १० ॥ इगती ससागराइ के० एकत्रीश सागरोपम श्रायुष्यनी जघन्य स्थिति होय, ने पुए के० वली सवजहन्न विश्न बि के० सवार्थ सिद्धनामा पांचमा अनुत्तर विमाने जघन्यायुनी स्थिति नथी. केमके श्रहीयां अजघन्योत्कृष्ट तेत्री सागरोपमनीज स्थिति बे. माटे. ॥ हवे वैमानिक देवीनी जघन्य तथा उत्कृष्टायु स्थिति दोढगाथा वडे कहे बे ॥ परिगहिच्यापिय राणिय || सोहम्मी सा देवीणं ॥ ११ ॥ पलियं दियंचकमा ॥ विई जहन्ना इजेय नक्कोसा ॥ पलियाई सत्त पमास ॥ तदय नव पंचवन्नाय ॥ १२ ॥ व्याख्या - वैमानिक देवीनी उत्पत्ति सौधर्म तथा ईशान ए बे देवलोकने विषे होय d. ते देवी बे प्रकारनी बे. एक परणेली कुलांगना सरखी ते परिगृहीता देवी कहीए. बीजी साधारण वेश्या सरखी ते अपरिगृहीतादेवी जावी. तेमांहे सौधर्म देवलो - की परिगृहीता तथा अपरिगृहीता देवीनुं जहन्नान के० जघन्यायुष्य पक्षियं के० एक पक्ष्योपमनुं जाणवुं. छाने बीजा ईशान देवलोकनी देवीउनुं जघन्यायु एक पल्यामाहियं के अधिक एटले एक पल्योपम काकेरुं जाणवुं. हवे एनं उक्कासा के० उत्कृष्टुं यु कहे बे. सौधर्मदेवलोके परिगृहीतादेवीनं पलिया सत्त के सांत पल्योपमनुं, ने परिगृहीतादेवीनुं पन्नास के० पचाश पस्योपमनुं उत्कृष्टायु जाणवुं तद के० तेमज ईशानदेवलोके परिगृहीतादेवीनं नव के० नव पल्योपम ने अपरिग्रहीतादेवीनं, पंचवन्ना के पंचावन पढ्योपमनुं श्रायुष्य जाणवुं देवलोकना देवोनी जे जोग्य पतिव्रता देवी बे, तेहने परिगृहीता देवी कहीए. थाने सौधर्मदेवलोके प रिगृहीता देवीनां व लाख विमान बे; ते वेश्यानी जाति बे. माटे एहने देव वेश्या कहीए. तेमां पण जे त्रीजा देवलोकनी निभाए बे, ते त्रीजे देवलोकेज जाय. तथा ईशान देवलोके परिगृहीता देवीनां चारलाख विमान बे, अहीयां पण जे चोथा देवलोकना देवताने जोग्य योग्य बे. ते चोथे देवलोकेज जाय; एम सर्वत्र जाणवुं ॥१२॥ एटले वैमानिक देवी उनी आयु स्थिति कही. हवे देवीने अधिकारे असुरादिकनी महिषीनी संख्या एक गाथावडे हे . इंद्राणी १३ ॥ पण बच्चन चनय ॥ कमेण पत्तेय मग्ग महिसी ॥ असुर नागाइ वंतर ॥ जोईस कप्प इगिंदणं ॥ तेजरमांहे प्रधान पटराणी सरखी जे देवी तेने ग्रमहिषी कहीए. ते असुरा के० असुरकुमारना चमरेंद्र तथा बलिंद्र ए जवनपतिना पहेला निकायना व्याख्या - सर्व Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ संग्रहणीसूत्र. दिशिना इंद्र बे. तेहने एकेकाने पण के० पांच पांच अग्गमहिसी के छात्रमहिषी बे. तथा नागाइ के० नागकुमार श्रदे देईने बाकी जे जुवनपतिना नव निकाय बे, तेहना धरणेंद्र तथा भूतानेंद्र यादे देशने ढारे इंद्रने प्रत्येके के ब 0 महिषी बे. तथा वंतर के० व्यंतर देवताना सोल निकायना काल महाकालादिक बत्री इंद्र बे. तेहने प्रत्येके चल चल के० चार चार ग्रमहिषी बे. अने जोईस के० ज्योतबिना इंद्र चंद्रमा तथा सूर्यने प्रत्येके च च के० चार चार अग्रमहिषी बे. तथा कपडुगिंदा के० सौधर्म छाने ईशान ए वे कल्पना बे इंद्रने प्रत्येके श्रय के० महिषी. पहेला तथा बीजा देवलोकी उपरला देवलोकने विषे देवीनं उपजतुं नथी. तेथी त्यां परिगृहिता देवी पण नथी; किंतु ते देवलोकना इंद्र तथा देवोने जेवारे यथायोग्य विषय सेववानी वांडा याय तेवारे तेने सौधर्म ने ईशान देवलोकन परिगृहीता देवी यथायोग्यपणे उपभोगने श्रर्थे याय. तेमाटे त्यां महिषी संजवे नही ॥ १३ ॥ पूर्वे वैमानिक देवोन आयुस्थिति समुच्चयर्थी कही देखाडी. हवे प्रतरे प्रतरे जघन्य उत्कृष्टी स्थिति कहेवाने अर्थे प्रथम ए देवलोकोनी प्रतर संख्या गाथावके कहे बे. डुसुतेरस डुसु बारस ॥ बप्पण चन चन डुगे डुगेय च गेविज गुत्तरे दस || बिसठ पयरा जवरिखोए ॥ १४ ॥ ॥ व्याख्या - प्रतर शब्दे जेम घरने उपराजपरी माल होय, तेम देवलोकमां उपरा उपरे प्रतर होय . तेमां डुसुतेरस के० सौधर्म, ईशान ए बे देवलोक मल्या तेर प्रतर वलयाकारबे; तेमां पूर्व महाविदेह ने पश्चिममहा विदेह. वचमां अर्द्ध वलयाकार खंमथकी श्रद्धा खंग करीए. एक दक्षिणदिशि खंड, बीजो उत्तरदिशि खंम. तेमां दक्षिणदिशि खंड सौधर्म इंद्रनो, एटले ते दिशिना अर्द्ध वलयखंगना प्रतर सौधर्म इंद्रना बे; अने उत्तर दिशिना श्रर्द्ध वलयखंगना प्रतर ईशानेंद्रना जाणवा. जो अर्को खंग करी प्रतर न कहीए तो तेर प्रतर सौधर्मेंद्रना, अने तेर ईशानेंद्रना मेलवतां नवीश प्रतर थई जाय बे. ते याशंका निवारवाने ा ार्ड खंड करीने प्रतरनी गणना करीए. एम बीजे पण वलयाकार देवलोक युगले एहज व्यवस्था करवी. तेमज डुसुबारस के० सनकुमार ने माहेंद्रे पण मल्या वलयाकार बार प्रतर बे. श्रहीयां पण श्रद्धा करी दक्षिण दिशि सनत्कुमारेंद्रना ने उत्तरदिशि माहेंद्रना प्रतर करवा. ब्रह्मदेवलोके a to a प्रतर बे. अने लांतके पण के० पांच प्रत्तर, तथा शुकदेवलोके च के० चार प्रतर बे, सहस्रारे च के० चार प्रतर, तथा चानत अने प्राणत ए डुगे के० Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संग्रहणीसूत्र बे देवलोके मलीने चउ के चार प्रतर, तथा श्रारण्य श्रने अचुत ए उगेय के बे देवलोके मलीने चन के चार प्रतर. एवं बावन प्रतरथया. तथा गेवि के नव ग्रैवेयके एकेको प्रतर गणतां नव प्रतर थाय. थने अणुत्तरे कहेतां पांचे अनुत्तरविमाने एकप्रतर, एवं मलीने दस के० दश प्रतर, ते पूर्वोक्त बावन साथे मेलवतां बिसहिपयरा के० बासठ प्रतर ते उवरिलोए के उपरला ऊर्ध्वलोकनेविषे .॥ १४ ॥ ॥ दवे प्रतरे प्रतरे जूडं जूठं उत्कृष्ट तथा जघन्यायु जाणवाने अर्थे प्रथम सौधर्म देवलोके उपाय कहे जे.॥ सोहम्मुक्कोस हिश निय पयर विदत्त श्च संगुणि ॥ पयरुक्कोस हि ॥ सबब जहन्नोपलियं ॥ १५॥ अर्थ- सोहम्मुक्कोसहि के सौधर्म देवलोके जे उत्कृष्टिस्थिति बे सागरोपमनी बे, तेने नियपयरसं के पोताना तेर प्रतर साथे विहत्त के वेहेंचीए, पड़ी श्वसंगुणि के अहींयां पांचमा अथवा सातमा जे प्रतरतुं श्रायु काढवाने श्वयं होय, ते प्रतः रनी साथे गुणीए, तेवारे ते पयर के प्रतरनी उकोसहिश के उत्कृष्टि स्थिति पामीए, ते आवी रीते जे, सौधर्मदेवलोकनातेरमा प्रतरे उत्कृष्टी स्थिति बे सागरोपमनी जे, ते एकेका सागरोपमना तेर तेर जाग करीएतेवारेबे सागरोपमना तेरीश्राबवीस नाग थाय,तेने तेरे जागे वेहेंचतां एक सागरोपमना तेरीया बे नागनुं श्रायु पहेले प्रतरे होय. एमज बोजा प्रतरतुं श्रायु काढq होय, तेवारे तेने ते साथे गुणीए तो तेरीया चार जाग यावे, तेम त्रीजे उजाग, चोथे श्राप जाग, पांचमे दशजाग, बछे बार नाग, सातमे चउद जाग एटले एक सागरोपमना तेर नाग अने उपर तेरी एक नाग, बाग्मे एक सागरोपम ने त्रण नाग, नवमे एक सागरोपम ने पांच नाग, दशमे एक सागरोपम ने सात नाग, अग्यारमे एक सागरोपम ने नव नाग, बारमे एक सागरोपम ने अग्यार नाग, अने तेरमे प्रतरे बे सागरोपम पूरूं श्रायु होय. एवीज रीते ईशान देवलोके पण प्रत्येक प्रतरने विषे श्रायुष्य काढवानो उपाय करवो.मात्र एटबुं विशेष जे ए देवलोकना पहेले प्रतरे सागरोपमना तेरीया बे नाग काफेरा कहेवा. एम प्रत्येक प्रतरे काफेरा कहेतां जवू; तेवारे तेरमे प्रतरे वे सागरोपम साधिक आयुस्थिति थाय. अने सबछजहन्नोपलियं के सर्वत्र एटले सौधर्म देवलोकना तेरें प्रतरनेविषे जघन्य एक पख्योपमनीज श्रायुस्थिति जाणवी, अने ईशान देवलोकना प्रत्येक प्रतरनेविषे जघन्यथी एक पक्ष्योपम कारी श्रायुस्थिति जाणवी. ए रीते सौधर्म तथा ईशान देवलोकना तेर प्रतर, तेनेविषे प्रत्येके जघन्योत्कृष्ट श्रायु समजवानोउपाय कह्यो. ॥१५॥ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ყი संग्रहणीसूत्र. ॥ हवे सनत्कुमारादिक उपरना देवलोकोना प्रत्येक प्रतरोनेविषे जघन्योत्कृष्ट श्रायुष्यी स्थिति जाणवाने अर्थे उपाय कहे बे ॥ सुरकप्पविइविसेसो ॥ सगपयरविदत्त इव संगुणि ॥ दिहिल सहि ॥ इतिय पयरंमि नक्कोसा ॥ १६ ॥ अर्थ- सुरकप्प के० देवोना कल्प एटले बार देवलोक तेने कल्प कहीए. अने नव ग्रैवेयक, तथा पांच अनुत्तर विमान एने कल्पातीत कहीए. तेना उत्कृष्टा श्रायुयनी जे विइ के स्थिति बे, तेनुं विसेसो के० विश्लेष करीए. एटले अधिकी स्थितिमांथी बी स्थिति काढी ए. एम विश्लेष कस्या पढी जे वधे, तेने सुरकल्प स्थिति विश्लेष कहीए. पढी ते विश्लेष देवलोकना पोतपोताना पयर के० प्रतरे करी वित्त के० वेर्हेचीए. पढी संगुटि के० अत्र ए स्थाने ते वांबीत प्रतर साथै सम्यक्प्रकारे गुणीए ने जे श्रांक आवे तेने हिल्लि िके० देवली उत्कृष्टि स्थिति तेणें सहि के० सहित करीए, तेवारे इच्छियपयरंमि के० इतिप्रतरनी उक्कोसा के० उकृष्टी स्थिति श्रावे. नुं उदाहरण कहे . सौधर्मदेवलोकना तेरमे प्रतरे उत्कृष्टी स्थिति वे सागरो - पमनी बे. छाने सनत्कुमारनं उत्कुष्टायु सात सागरोपम बे; तेमांथी देवली स्थितिना पूर्वोक्त सौधर्म देवलोकना बे सागरोपम बाद करीए वारे बाकी पांच सागरोपम रहे. ते पांच सागरोपमने सनत् कुमारना बार प्रतर बे, तेणेकरी वेर्हेचीए-ते यावी रीते जे, एक सागरोपमना बार बार जाग करीए, तो पांचे सागरोपमना बारीया साठ जाग याय, तेहने बारे प्रतरे वेहेंचीये तेवारे एकेका प्रतरे सागरोपमना बारीया पांच पांच जाग आवे. पढी देवला सौधर्मदेवलोकनी उत्कृष्टी स्थिति बे सागरोपमनीबे ते तेहनी साथे जेलीए, तेवारे त्रीजा सनत्कुमार देवलोकना पहेला प्रतरने विषे वे सागरोपम ने एक सागरोपमना बारीया पांच जाग उपर एटली उत्कृष्टी आयुष्यनी स्थिति थाय बे. तेमज बीजा प्रतरे बे सागरोपम ने उपर बारीया दश जाग कदेवा. त्रीजे प्रतरे त्रण सागरोपम ने उपर बारीया त्रण नाग कहेवा. ए रीते प्रतरे प्रतरे बारीया पांच पांच जाग वधारता जइए वारे, बेल्ला बारमा प्रतरे संपूर्ण सात सागरोपमनुं उत्कृष्टायु था. एम माहें साधिक स्थिति जाणवी. एहज रीते उपरना सर्व देवलोके प्रतरोना आयुष्यनी स्थिति काढवाने उपाय करवो ॥ १६ ॥ For Private Personal Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१ संग्रदणीसूत्र. ॥ हवे बारे देवलोकोना इंशोने रेहेवानां स्थानक कहे . ॥ कप्पस्स अंतपयरे ॥ निय कप्प वडिंसया विमाणा ॥ इंद निवासा तेसिं ॥ चमदिसि लोगपालाणं ॥१७॥ अर्थ- कप्पस्स के कटप जे देवलोक तेना अंतपयरे के अंतनो प्रतर एटले सर्व देवलोकना बेला प्रतरना मध्य नागनेविषे प्रत्येके नियकप्पवडिं सिया के निजकल्पवतंसक एटले पोतपोताना कल्पने नामे अवतंसकनामा विमान बे. एटले सौधर्मदेवलोकना उपरना तेरमा प्रतरनेविषे सुधर्मावतंसक नामा विमान बे; तेम ईशान देवलोकना तेरमा प्रतरनेविषे ईशानावतंसक नामा विमान बे. ए रीते सर्व देवलोके जाणवू. पण एटलुं विशेष जे नवमा तथा दशमा ए बे देवलोकनो एक इंड बे. त्यां चोथा प्रतरे प्राणावतंसक नामा विमान बे. अने अग्यारमा तथा बारमा ए बे देवलोकनो पण एकज इंस जे. त्यांपण चोथे प्रतरे अचुतावतंसक नामा विमान . ए अ. वतंसकनामा विमानोनेविषे इंदनिवास के इंजनो निवास बे, थने तेसिं के ते विमानने चऊ दिसि के चारेदिशिनेविषे चार विमानो जे बे, त्यां लोगपालाणं के सोम, यम, वरुण ने वैश्रमण ए चार लोकपालोनो निवास बे. ॥ १७ ॥ ॥हवे सौधर्मेजना चार लोकपालोनुं उत्कृष्टायु कहे .॥ सोम जमाणंसतिनाग पलिय वरुणस्स उन्नि देसूणा॥ वेसमणे दो पलिया ॥ एस हि लोगपालाणं॥१७॥ अर्थ- पूर्वदिशिनो लोकपाल सोम, अने दक्षिण दिशिनो लोकपाल यम- ए बेजनो सतिनाग लिय के एक पट्योपमना त्रीजा नाग सहित एक पल्योपम थायुष्य . तथा त्रीजो पश्चिमदिशिनो वरुणनामा लोकपाल , तेहनुं आयुष्य - निदेसूणा के० देशे ऊणा बे पढ्योपम . वली उत्तर दिशिना वैश्रमण नामा चोथा लोकपालतुं आयुष्य दोपलिया के बे पक्ष्योपमनुं बे. एसहिश्लोगपालाणं के ए सौधर्मेजना चारे लोकपालना आयुष्यनी स्थिति जाणवी ॥ १७ ॥ एटले देवताना आयुष्यनुं प्रथम छार संपूर्ण थयुं. ॥हवे देवगतिनेविषे जुवनसंबंधी बीजुं हार कहे जे.॥ असुरा नाग सुवन्ना ॥ वि अग्गीय दीव उदही॥ दिसि पवण थणिय दसविद ॥ लवणवई तेसु उइंदा ॥२॥ अर्थ- देवताना चार निकायमा प्रथम जुवनपतिनो निकायमा जुवन कहेवाने अर्थे पहेला जुवनपतिनी दश जातोनां नाम कहे . जे नहीं सुर ते असुर. एटले Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संग्रहणीसूत्र. वैमानिक नहीं ते असुरा के एक असुरकुमार निकाय, बीजा नाग के नागकुमार, त्रीजा सुवन्ना के सुपर्णकुमार, चोथा विजु के० विद्युतकुमार, पांचमा अग्गीय के अग्निकुमार, बहा दिव के छीपकुमार, सातमा उदहिय के उदधिकुमार, श्रापमा दिशि के दिशिकुमार, नवमा पवण के वायुकुमार, दशमा थणिय के स्तनितकुमार, ए रीते दसविहजवणवई के दशप्रकारना जुवनपतिदेवो, तेसु के० ते एकेका निकायनेविषे एक दक्षिणश्रेणीनो, अने एक उत्तरश्रेणीनो, ए रीते प्रत्येके छ. उदा के बेबे इंकजे. अहींयां ए दशनिकायना देवोने कुमार एवं विशेषण एटलामाटे दीधुं ले के ते बालकनी परे क्रीडा करनारा डे ॥ १५ ॥ ॥ हवे पूर्वोक्त दशनिकायना इंशोनां नाम कहे . ॥ चमरे बलीअ धरणे ॥ नूयाणंदेय वेणुदेवेय ॥ तत्तोय वेणुदाली हरिकंते हरिस्सरे चेव ॥२०॥ अग्गिसिद अग्गिमाणव ॥ पुन्न विसि तदेव जलकंते॥ जलपद तह अमिअगई। मिय वाहण दाहिणुत्तर ॥१॥वेलंबेय पनंजण ॥ घोस महाघोस एसि मन्नयरो॥ जंबुद्दीवं उत्तं ॥ मेरुं दंडं पदुकानं ॥२२॥ अर्थ-श्रहीयां “ दाहिणुत्तर ” ए पद दशे स्थानके जोडीए. केमके एकेक निकायना एक दक्षिण श्रेणीनो इंज, थने बीजो उत्तरश्रेणीनो इं . तेमनां क्रमे करी नाम कहे . त्यां पहेला असुरकुमारनिकायना दक्षिण दिशिनो चमरेंड असुरकुमार, अने उत्तरदिशिनो बलिं असुरकुमार, बीजा नागकुमारनिकायना दक्षिण दिशिनो धरणे अने उत्तर दिशिनो नूताने. त्रीजा सुपर्णकुमारनिकाये दक्षिण दिशिनो वेणुदेवेंश, अने उत्तरदिशिनो वेणुदालिंड, चोथा विद्युत्कुमारनिकाये हरिकंतेंड अने हरिसहेंज. चेव के निश्चेथकी ॥२०॥ पांचमा अग्निकुमार निकाये अग्निशिखें, अने अग्निमाणवेंज. बहा दीपकुमारनिकाये दक्षिण पूर्णे, अने उत्तरे विशिष्टेड. सातमा उदधिकुमारनिकाये दक्षिणे जलकंतें, अने उत्तरे जलप्रनेड. श्रापमा दिशिकुमारनिकाये दक्षिणे अमितगतीं अने उत्तरे अमितवाहनेछः ॥२१॥नवमा वायुकुमारनिकाये दक्षिणे वेलंबेंज अने उत्तरे प्रनंजनें. दशमा स्तनितकुमार निकाये दक्षिणे घोषे अने उत्तरे महाघोज. एसिं के ए वीशे इंज मांहेलो कोई पण इंस जो पोतानी समर्थाई फोरवे तो जंबुद्धीपने बत्राकारे करे, अने मेरुपर्वतनो दंड काऊ के० करवाने समर्थ डे, एटले मेरुपर्वतने डाबाहाथ उपरे धरे तोपण शरीरने का प्रयास जणाय नहीं. एवा ए सर्वे इंजो पहु के प्रनु एटले समर्थ डे. अर्थात् साधारण Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३ संग्रहणीसूत्र. शक्ति ने ते कही. जे वस्तु पूर्वे कीधी ले ते हमणां करे बे, अने आगमिक काले करशे तेने शक्ति कहीए, अने जे शक्ति बे; परंतु कीधी नथी, करतो पण नथी, ने करशे पण नहीं, ते शक्तिविषयी कहीए. ए परमार्थ, वृति थकी जाणजो. ॥१२॥ ॥ हवे असुरकुमारादिक निकायोनी दक्षिणश्रेणिनी नुवनसंख्या देखाडे .॥ चनतीसा चनचत्ता ॥ अहत्तीसाय चत्त पंचण्डं ॥ पन्ना चत्ता कमसो॥लका नवणाण दाहिणजे ॥२३॥ अर्थ- पहेला असुरकुमार देवोनां चलतीसा के चोत्रीशलाख जुवन, नागकुमारनां चचत्ता के चुमालीश लाख नुवन, अने सुपर्णकुमारनां अहत्तीसाय के श्रा. मंत्रीशलाख जुवन. एक विद्युतकुमार, बीजो अग्निकुमार, त्रीजो छीपकुमार, चोथो उदधिकुमार, पांचमो दिशिकुमार, ए पंचण्हं के पांचे निकायनेविषे चत्त के० चालीश चालीश लाख जुवन . अने पवनकुमारनां पन्ना के पचाश लाख जुवन . स्तनितकुमारनां चत्ता के चालीश लाख जुवन बे. कमसो के ए अनुक्रमे लरका के० लाखो दाहिण के दक्षिणश्रेणिनेविषे लवणाण के जुवनोनी संख्या कही. ॥हवे उत्तरश्रेणिनां नुवननी संख्या कहे .॥ ॥चन चन लरक विस्णा ॥तावश्या चेव उत्तर दिसाए सवेवि सत्तकोडी ॥ बावत्तरि हुँति लकाय ॥२४॥ अर्थ- जे दक्षिणश्रेणिए दशे निकायना जुवननी संख्या पूर्वे कही, तेमांहे एकेकाने चउ चन लरक विहणा के चार चार लाखे उबां करयां थकां शेष जेटलां नुवन जे जे निकायनां रहे, तावश्या के तेटला तेटलां चेव के निश्चेथकी हुँति के० होय. उत्तर दिसाए के उत्तरदिशिना निकायने जुवन होय. एम सर्व मली दक्षिण श्रेणिनां जुवन चार क्रोम ने उ लाख थाय. उत्तरश्रेणिनां जुवन त्रण क्रोम अने बासठ लाख थाय. ए रीते सव्वेवि के० सर्वेमलीने सयकोडी के सातकोम अने बावत्तरिलरकाय के बहोतेर लाख नुवन ते डंति के होय. ॥ २४ ॥ ॥ हवे ए पूर्वोक्त जुवन क्यों ? ते स्थानक बतावे .॥ रयणाए दिहुवरि ॥ जोयण सहस्सं विमुत्तु ते नवणा॥ जंबुद्दीवसमा तह ॥ संख मसंखिजा विबारा ॥२५॥ अर्थ- रयणाए के० रत्नप्रजा पृथ्वीनो एक लाख ने एंसी हजार योजननो पिंग जामपणे डे, तेमांथी हितुवरि के हेठे ने उपर, एटले नीचे अने उपर, जोयण सहस्संविमुत्तु के एक एक हजार जोजन मूकीने वचमांना एक लाख अभ्योतेर Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ संग्रहणीसूत्र. हजार योजनमांदे ते के० ते जुवनपति देवोनां जवणा के जुवन जे. ते जुवन न्हानांमां न्हानां, ते पण जंबुद्दीवसमा के जंबुठीप जेवडां महोटां बे. अने तह के तेमज मध्यम ते संख के संख्याताकोटी योजन प्रमाण . तथा उत्कृष्टा ते असंखिऊ के असंख्याता कोमाकोडी योजन प्रमाण विबारा के विस्तारवंत डे. ॥२५॥ श्रहीयां केटलाक श्राचार्य एम कहे जे जे, एक लाख एंसी हचार योजनना पिंड मांडेथी बन्नु हजार उंबा करीए, वाकी चोराशी हजार योजनमांदे यथायोग्यपणे नुवनपतिना जुवन के. जुवन शब्दे महामंमप समान आवास ते नगर बाहेर वाटलाकारे बे, अने मध्यमांहे एटले मांहेलीकोरे चोखूणा , अंतरमध्य समचऊरस, तथा तले कमलनीकर्णिकाने आकारे जाणवा. हवे जेणे करी घणा देवोमां पोतपोताना निकाय उलखवामां आवे एवा प्रत्येके असुरादिक दशे निकायना मुकुट अने सर्वाजरणनेविषे चिन्हो होय ते कहे . चूडामणि फणि गरुडे ॥ व तह कलस सीद अस्सेय ॥ गय मयर वक्ष्माणे ॥ असुराईणं मुणसु चिंधे ॥२६॥ श्रर्थ-असुरकुमारना मुकुटनेविषे चूमामणि- चिन्ह, नागकुमारने सर्वानरणनेविषे सर्पनी फणिनु चिन्ह बे, सुपर्णकुमारने श्रारणे गरुमनु चिन्ह, विद्युत्कुमारने सर्वानरणे वजे के वज्रनुं चिन्ह बे, अग्निकुमारने श्रारणे पूर्ण कलश चिन्ह, हीपकुमारने नरणे सिंहचिन्ह , उदधिकुमारने आनरणने विषे अस्सेय के अश्वचिन्ह, दिशिकुमारने बाजरणनेविषे हस्तिनुं चिन्ह, वायुकुमारने बाजरणनेविषे मयर के मगरनु चिन्ह, स्तनितकुमारने वानरणनेविषे वकमाणे के० वर्डमान एटले सरावसंपूटनु चिन्ह, ए असुराईणं के असुरादिक दशे प्रकारना जुवनपतिनां चिंधे के चिन्हो मुणसु के जाणवां. अहीयां सिद्धांतमाहे चिन्होनां पागंतर बे, ते विरोधता टालीने श्री पन्नवणाजी तथा उववाश्ना पाठ प्रमाण करवा. ॥ हवे ए असुरादिक दशे प्रकारना जुवनपतिना शरीरना वर्ण कहे जे.॥ असुरा काला नागु ददि पंमुरा तह सुवन्न दिसि थणिया ॥ कणगान विजु सिदि दीव अरुणा वान पियंगु निन्ना ॥२॥ अर्थ-असुराकाला के० असुरकुमारनां शरीर काले वर्णे होय, नागुदहि के नागकुमार अने उदधिकुमार ए बेनां शरीर पंगुरा के० गौर वर्णे बे, तह के तेमज सवन्न के सुपर्णकुमार, दिसि के दिशिकुमार, अने थणिया के० स्तनितकुमार, ए त्रणनां शरीर कणगान के० कनकवणे एटले कसवटी उपर सोनानी रेखा समान एवे Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संग्रहणीसूत्र. પ્રય वर्णे ले. अने विज के० विद्युत्कुमार, सिहि के अग्निकुमार, दीव के छीपकुमार, ए ऋणनां शरीर अरुणा के राते वणे , अने वान के वायुकुमारनी पियंगु के० प्रियंगु वृदना वर्णनीपरे नीले वरणे निता के कांति बे. ॥२७॥ ॥ हवे असुरकुमारादिकनां वस्त्रोनो वर्ण कहे बे. ॥ असुराण वन रत्ता ॥ नागोददि विमु दीवसिदि नीला॥ दिसि थणिय सुवन्नाणं ॥धवला वाजण संकरुई॥२॥ अर्थ-असुराण के असुर कुमारनां वन के० वस्त्र ते रत्ता के० रातांबे, अने नागोदहि के नागकुमार, उदधिकुमार तथा विकु के विद्युत्कुमार, दीव के छोपकुमार, सिहि के अग्निकुमार, ए पांचेने नीलां के नीलां वस्त्र बे. वली दिसि के० दिशिकुमार, थणिय के० स्तनितकुमार, सुवन्नाणं के सुपर्णकुमार ए त्रणेनां वस्त्र ते धवला के उज्वल . तथा वाजण के वायुकुमारने संसरुई के संध्याराग सदृश वस्त्र . ॥ २ ॥ ॥ हवे ए नुवनपत्यादिक दशे निकायना सोना जे सामानिक देवो एटले इंश सरखी धिना धणी, तेनी संख्या, तथा इंझोना शरीरनी रदा करनार एवा जे आत्मरक्षक देवो ,तेनी संख्या कहे .॥ चनसहि सहि असुरे॥ बच सहस्साई धरणमाईणं॥ सामाणिया इमेसि ॥ चनग्गुणा आयरकाय ॥२॥ अर्थ-असुरे के० असुरकुमारनिकायना बे इंजे तेमांहे पहेला चमरेंसने चउसहि के चोसठ हजार, अने बीजा बलिंडने सहि के साठ हजार, अने बाकीना धरणमाईणं के धरणे आदेदेश्ने जे नुवनपतिना अढार इंज; तेमांना एकेकाने प्रत्येके बच्चसहस्साई के० हजार सामाणिया के सामानिक देवो , अने ते एकेका इंजना सामानिक देवो थकी चजग्गुणा के चारगुणा करीए तेटला एकेकाना थायरकाय के० अंगरदक देवो जाणवा ॥ ए॥ ए रीते ए दशे जुवनपतिनां नाम' दक्षिणेंड, उत्तरेंज, दक्षिणनुवनसंख्या, उत्तरजुवनसंख्या, चिन्ह ते लक्षण, देहवर्ण, वस्त्रवर्ण, दक्षिण सामानिकदेव, उत्तर सामानिक देव, दक्षिण आत्मरक्षक देव, तथा उत्तरदिशि आत्मरक्षकदेव कह्या. ॥ हवे व्यंतरदेवोनी वक्तव्यता कहेतो थको तेमां प्रथम व्यंतरदेवोनां नुवन कहे .॥ रयणाए पढम जोयण ॥ सहस्से दिवरि सय सय विणे ॥ वंतरियाणं रम्मा ॥नोमा नगरा असंखिझा ॥ ३० ॥ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ संग्रहणोसूत्र. __ अर्थ-रयणाए के रत्नप्रजा पृथ्वीनापिंड माहेला पढम के० पदेला उपरना जोयणसहस्से के० हजार योजन जे मूक्या बे, तेमांथी हिहुवरिसयसय विहूणा के हेलिना अने उपरना सो सो योजन मूकीए,एटले सो योजन नीचे मूकीए भने सो योजन उपर मूकीए, वचमांना आठसे योजन रह्या; तेमां वंतरियाणंरम्मा के व्यंतरदेवोनां घर ते घणां रमणिक मनोहर जोवायोग्य बे. जोमा के पृथ्वीकायसंबंधी नयरा के नगर, ते असं रिकद्या के असंख्याता बे. अने बीजा मनुष्यदेवथी बाहेर असंख्याते हीपसमुझे जे व्यंतरदेवोनां नगर जे; तेनी वक्तव्यता जीवानिगमादि सूत्रथकी जाणवी ॥ ३० ॥ ॥ हवे व्यंतरोना घरना श्राकार कहे . ॥ बाहिं वहा अंतो ॥ चरंस अदो कमियायारा ॥नव ण वईणं तह वंतराण ॥ इंद जवणा नायवा ॥३१॥ अर्थ-ते घरोनो बाहिं के बाहेरनो नाग ते वहा के वृताकारे बे, अने अंतो के। मांहेलीकोरे चउरंस के चोखूणा बे. तथा अहो के श्रधोनागे एटले हेठे कनियाकारा के कमलनी कर्णिकाने श्राकारे , एवा आकारे नवणवईणं के जुवनपति, तह के तेमज वंतराण के० व्यंतरिक देवोनांजवणार्ड के जुवन ते नायबा के जाणवां॥३१ तहिं देवा वंतरिया ॥ वर तरुणी गीय वाश्य खेणं ॥ निच्चं सुदिया पमुश्या ॥ गयंपि कालं नयाणंति ॥ ३२ ॥ अर्थ- तहिं के ते जुवनोमांहे देवावंतरिया के व्यंतरिक देवता जे बे, ते वर के प्रधान एटले नली सोनाग्यवंति सुहामणी, अतिसुंदर, कुसुमलता समान डे सुगंध जेहनी, एवी देदीप्यमान तरुणी के० देवी, ते मनने प्रियकारी एहवा मधुर वचनेकरी गीय के गीत गाय , तथा बत्रीशवक नाटकनी रचनाए मृदंगादिक पटहनेर एहवा वाश्य के वाजिन वगाडे बे. तेहना खेणं के शब्दे करीने ते देवता निच्चंसुहिया के निरंतर सुखीया बे. तथा पमुश्या के प्रमुदित एटले हर्षवान् थका पोताना आयुष्यनो गयंपिकालं के जे गयो काल ते पण नयाणंति के० नयी जाणता. ॥ ३२॥ ॥ हवे ते व्यंतर देवोना नगरोनुं प्रमाण तथा निकायनां नाम कहे .॥ ते जंबुदीव नारद ॥ विदेह सम गुरु जहन्न मझिमगा॥ वंतर पुण अविदा ॥पिसाय नूया तहा जरका ॥ ३३ ॥रकस किंनर किंपुरिसा ॥ मदोरगा अह माय गंधवा ॥ दादिण उत्तर नेया ॥ सोलस तेसिं श्मे इंदा ॥ ३४ ॥ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संग्रहणीसूत्र. अर्थ- ते के ते व्यंतरिक देवोनां नगर जे गुरु के मोहोटां डे, ते जंबुदीव के जंबुद्धीप जेटलां बराबर एक लाख योजन गोल, चूमीने श्राकारे बे. तथा जे जहन्न के जघन्य डे, ते जारह के जरतक्षेत्र जेवडा (५२६) योजन अने एक योजनना उंगणीया बन्नाग उपर डे, अने जे मजिमगा के मध्यम वन डे ते, विदेह के महाविदेहदेवप्रमाण ( ३३६०४ ) योजन अने एक योजनना जंगणीया चारजाग ज. पर एटलां महोटां बे. हवे ते नगर निवासी वंतर के व्यंतरदेवोना पुण के० वली अहविहा के आठ प्रकार बे. ते कहे . एक पिसाय के पिशाच, बीजा नूया के नूत, तहा के तेमज त्रीजा जरका के जद, ॥ ३३ ॥ चोथा रावस, पांचमा किंनर, बहा किंपुरुष, सातमा मदोरग, आठमा गंधर्व, हवे ए आठेना प्रतिन्नेद कहे. त्यां खनावे प्रचुरपणे करीने स्वरूपवान तथा सोम्य दर्शन जेमचं, तथा हस्त अने ग्रीवाने विषे रत्नमय आजूषण धारण करनारा एवा कुष्मांमा, पटका, जोषा, श्रान्हिका, काला, महाकाला, चोदा, अचोक्षा, ताल पिशाचा, मुखरपिशाचा, अधस्तारका, देहा, महादेहा, तूदनीका, अने वनपिशाचा, ए पन्नर प्रकारना पिशाच देवो बे. तथा स्वरूपवंत सौम्य मुखवाला अने विविध प्रकारच् डे विलेपन जेमने, एवा खरूपा, प्रतिरूपा, थतिरूपा, नूतोत्तमा, स्कंदिका, महास्कंदिका, महावेगा, प्रतिबत्रा, अने आकाशगा, ए नव प्रकारना नूतदेवो बे. तथा खनावे गंजीर अने जेमनं दर्शन प्रिय बे, तथा विशेषे करी मान तथा उ. न्माननुं जे प्रमाण- तेणे करी सहित. वली हाथ, अने पगनां तलियां तथा नख, तालु, जीज, होठ, एटलां वानां जेमनां लाल ,अने देदीप्यमान मुकुटना धरनार तथा नानाप्रकारनां श्राजूषणो ने जेमनां, एवा पूर्णजना, माणिना, स्वेतजमा, हरिजना, सुमनोना, व्यतिपाकनडा, सुजा, सर्वतोनमा, मनुष्यपदा, धनाधिपतयो, धनाहारा, रूपयदा अने यदोत्तमा, ए तेर नेद यददेवोना डे. तथा खनावे जयंकर अने जेमनुं दर्शन पण जयंकर तथा विकराल अने रक्त, तथा लांबा होठवाला, तपनीय आन्नूषणवाला, नानाप्रकारनां विलेपन करनार, एवा जीमा, महानीमा, विघ्ना, विनायका, जलराक्षसा, राक्षसराक्षसा, अने ब्रह्मराक्षसा, ए सात प्रकारना राक्षस देवो बे. तथा जेमनुं दर्शन सौम्य बे, तथा जेमना मुखने विषे अधिक रूप अने शोजा बे, तथा मस्तकने विषे मुकुट डे बाजूषण जेमने, एवा किंनरा, किंपुरुषा, किंपुरुषोत्तमा, हृदयंगमा, रूपशालिनः, अनिंदिता, किंनरोत्तमा, मनोरमा, रतिप्रिया अने रतिश्रेष्ठा, ए दश प्रकारना किन्नर देवो . तथा जेमना साथल श्रने नुजाउने विषे अधिक रूप Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 संग्रहणीसूत्र. अने शोजा बे, तथा मुखनी अधिक कांती ने तथा नानाप्रकारनां श्राजरण तथा नूषण धारण करनारा, एवा पुरुषा, सत्पुरुषा, माहापुरुषा, पुरुषवृषना, पुरुषोत्तमा, अतिपुरुषा, महादेवा, मरुता, मेरुप्रना अने यशस्वंत-ए दश नेद किंपुरुष देवोना बे. तथा जेमनो वेग अत्यंत बे, जेमनुं सौम्य दर्शन डे, अने जे महोटा शरीरवाला, वली स्कंध अने ग्रीवा ए बंने जेमनां विस्तारवंत अने पुष्ट डे, तथा विचित्र प्रकारनां श्रानरण अने नूषण जे जेमनां, एवा जुयंगा, जोगशालिन, महाकाया, अतिकाया, स्कंधसाखिनः, मनोरमा, महावेगा, महेश्वदा, मेरुकांता अने नास्वंत-ए दश प्रकारना महोरग देवो बे. तथा प्रिय ले दर्शन जेमन, वली स्वरूपवंत नलो ने मुखाकार जेमनो, तथा नलोडे खर जेमनो, वली मस्तकनेविषे मुकुटने धारण करनारा, तथा हार ने नूषण जेमने, एवा हाहाः, हुहु, तुंबुरव, नारदा, शषिवादका, नूतवादका, कादंबा, महाकादंबा, रैवता, विश्वावसव, गीतरति, अने गीतयश-ए बार प्रकारना गंधर्व देवो . ए रीते आठ व्यंतर निकायना एकेका निकायनेविषे दाहिण उत्तर के दक्षिण अने उत्तरश्रेणिना नेया के नेदे करीने तेसिं के तेना सोलसकंदा के सोल इंडो बे; ते श्मे के० ए आगली बे गाथाए करी कहे . ॥ ३४ ॥ कालेय महाकाले ॥ मुरूव पडिरूव पुन्न नद्देय ॥ तद चेव माणिनद्दे ॥नीमेय तहा मदानीने ॥ ३५ ॥ किंनर किंपुरिसे सप्पुरिसा ॥ महापुरिस तहय अश्काए ॥ महाकाय गीयरई॥गीयजसे उन्नि उन्नि कमा ॥३६ ॥ अर्थ- पहेला पिशाच नामा व्यंतरनिकायने दक्षिण दिशिए कालेंज अने उत्तर दिशिए महाकालेंज, ए अनुक्रमे नूतनिकायने स्वरूपेंड, प्रतिरूपेंड. जदनिकायने पूर्णना तथा माणिजम, राक्षसनिकायने नीमें, महानी में ॥ ३५ ॥ किंनरनिकायने किंनरेंड, किंपुरुष तथा किंपुरिषनिकायने सत्पुरुषे अने महापुरुष, महोरग. निकायने अतिकाय, तथा महाकाय. गंधर्वने गीतरति श्रने गीतयश. ए रीते आठ निकायने मुन्नि मुन्निकमा के बे बे इंछ , ते अहींयां अनुक्रमे कहेवा. ॥ ३६ ॥ ॥ हवे ए पिशाचादिक आठनिकायना देवोनी ध्वजाने विषे चिन्ह होय जे ते कहे .॥ चिंधं कलंब सुलसे ॥वड खडगे असोग चंपयए ॥ ना गे तुंबरुअ नए ॥ खटंग विवजिया रुका ॥ ३७॥ अर्थ-पिशाचने कदंबवृदनुं चिन्ह, नूतने सुलसे के सुलसवृदनु चिन्ह, यदने Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ए संग्रहणीसूत्र. वडवृक्षनु चिन्ह, राक्षसने खटुंगे के तापस विशेष महावृत्तिना उपकरण- चिन्ह, किन्नरने अशोकवृदनु चिन्ह, किंपुरुषने चंपयए के चंपकवृदनु चिन्ह, महोरगने नागवृदनु चिन्ह, गंधर्वने तुंबरुव के तुंबराना वृदनु चिन्ह. एमां खडंगविवजिया के एक खटांग वर्जिने बाकी सर्वेने रुका के वृदनां चिंधे के चिन्ह जाणवां. ते चिन्ह व्यंतरदेवोनी नए के ध्वजानेविषे होय ॥ ३॥ ॥ हवे ए व्यंतरदेवोना शरीरना वर्ण कहे .॥ जक पिसाय महोरग ॥ गंधवा साम किंनरा नीला ॥ रक स किंपुरिसाविय ॥ धवला नूया पुणो काला ॥ ३० ॥ अर्थ- एक जरक के जद, बीजा पिशाच, त्रीजा महोरग, चोथा गांधर्व, ए चारनो वर्ण साम के० श्याम एटले किंचित् कृष्ण जाणवो. अने किनरा के किन्नर घणा श्याम पण नीला के० किंचित् नीलवर्णे जाणवा, अने राक्षस तथा किंपुरिसाविय के० किंपुरुष पण धवला के उज्वल वर्णे , तथा नूया के नूतनिकायना देवो ते पुणो के वली काला के श्यामवर्णे बे, एटले सर्वात्माए कृमवणे . ॥ ३० ॥ ॥ हवे आठ जातना बीजा व्यंतर विशेष देवो ते कहे . ॥ अणपन्नी पणपन्नी ॥ इसिवाई नूयवाईए चेव ॥ कंदीय महा कंदी ॥ कोदंडे चेव पयएय ॥ ३ए॥श्य पढम जोयण सए ॥ रयणाएअ वंतरा अवरे ॥ तेसु इह सोलसिंदा रुयग अहो दादिणुत्तर ॥४०॥ अर्थ- एक श्रणपन्नीनिकाय, बीजो पणपन्नीनिकाय, त्रीजो कृषिवादी निकाय, चोथो जूतवादीनिकाय, चेव के निश्चे, पांचमो कंदित निकाय, बहो महाकंदितनिकाय, सातमो कोहंडिकनिकाय, चेव के निश्चे, थाउमो पयएय के पतंगनिकाय. ॥३ए ॥ श्य के० ए श्रागनिकाय ते रयणाए के रत्नप्रनापृथ्वीना पिंझमाहेला पढमजोयणसए के पदेला सो योजनमांहेला दशयोजन उपर, अने दशयोजन नीचे मूकी वचमांना एंसी योजनमांहे वसनारा अह के आठ जातना व्यंतर ते, पूर्वे जे आठ जातना व्यंतर कह्या तेथी अवरे के निन्न जाणवा. तेसु के० तेना रुयगश्रहो के० श्रावरुचक प्रदेशथकी दशयोजन अधो एटले नीचे जे एंसी योजन बे, तेमा रहेला दाहिणुत्तर के दक्षिण अने उत्तरदिशीना नेदे करी सोलसिंदा के सोल शो . तेमनां नामाई के नाम ते श्य के आगली गाथाए कहेशे. संनिदिए सामाणे ॥श विहाए इसीय इसिवाले ॥ ईसर महे Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० संग्रहणीसूत्र. सरे विय ॥ हवसुवने विसालेय ॥४१॥ दासे दास रईविय ॥ सेएय नवे तदा महासेए ॥ पयगे पयगवईविय ॥ सोलस इंदाण नामा॥४॥ अर्थ-एक संनिहित,बीजो सामानरंज,त्रीजोधाता, चोथो विधाता,पांचमो ऋषी,बहोशषीपालेंज, सातमो ईश्वरज, श्रापमो महेश्वरइंज,हवर के होय. नवमो सुवबइंज, दशमो विसाल ॥४१॥ अगीयारमो हास्यरंज, बारमो हास्यरतिइंज, तेरमों खेत, नवे के होय. तहा के० तेमज चउदमो महास्वेत, पन्नरमो पतंगड, सोलमो पतंगपति इंफ, विय के निश्चे. सोलसदा के सोलनां नामाइं के नामो जाणवां ॥४२॥ ए सोल इंड वाणव्यंतरना कह्या. तेम पूर्वे सोल इंज व्यंतरना कह्या , सर्व मली बत्रीश इंजव्यंतरना थया. तथा नवनपतिना वीश इंफ, वली यद्यपि चंप्रमा, तथा सूर्य तो असंख्याता इं . तथापि जातिनी अपेदाए चंद्र सूर्य बेज गणीए, माटे ज्योतिषीना बे इंस, अने वैमानिकना दश इंछ मली चोसठ इंड गणतीमां ने. ॥हवे व्यंतर तथा ज्योतिषि ए बेउनी सरखी वक्तव्यता नणी एना॥ ॥ सामानिक देवो अने यात्मरक्षक देवो, ए बेनी संख्या कहे .॥ सामाणियाण चनरो॥ सहस्स सोलसय आयरका णं ॥ पत्तेयं सबेसि ॥वंतरवससि रवीणंच ॥४३॥ अर्थ- सामाणियाण के सामानिक देवो ते चउरोसहस्स के चार हजार अने सोखसय के सोल हजार आयरकाणं के श्रात्मरक्षक देवो, ते सव्वेसि के सर्वनिकायनेविषे पत्तेयं के प्रत्येके वंतरवर के व्यंतरना पति जे बत्रीश इंज, तेने तथा ससी रवीणंच के चंद्र अने सूर्य ए बे ज्योतिषीना ऊनी पण वक्तव्यता व्यंतरसरखीज बे; माटे ए सर्वने होय. एटले व्यंतरना नगरोनी वक्तव्यता कही. ॥ ४३ ॥ ॥ हवे बधा देवो केटला प्रकारना ? ते कहे .॥ इंद सम तायतीसा॥ परिसतिया रक लोगपालाय ॥ अणिय पश्न्ना अनिऊंगा ॥ किब्बिसं दस नवण माणी ॥४४॥ अर्थ- एक इंदसम के इंज, श्रने सामानिक देवो, अने तायतीसा के त्रायत्रिंशकदेवो, तथा परिसतिया के त्रण पर्खदाना देवो, आयरक के अंगरक्षक देवो, लोगपालाय के चार लोकपाल, अणिय के अनीय ते कटकना देवो, पन्ना के प्रकीर्ण, प्रजाना देवो, अनिलंग के अनियोगीक ते किंकरदेवो, कि ब्बिसं के० किलविषीक देवो, दश के ए दश जातिना देवो ते जुवण के जुवनपति, व्यंतर तथा वेमाणी के० वैमानिकमां ॥ ४४ ॥ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संग्रदणीसूत्र. ॥ हवे कटकना देवोना सात प्रकार कहे .॥ गंधव नह दय गय ॥रद जम अणियाणि सव्व इंदाणं ॥ वे माणियाण वसदा ॥ महिसाय अहोनिवासीणं ॥४५॥ अर्थ- एक गंधव के गांधर्व देवो ते मृदंगाधर जाणवा, बीजं नट्ट ते नाटक करनार, त्रीजुं हय ते घोमानें, चोथं गय ते हाथीन, पांचमुं रह के रथन, बरुं नम के० पालानु कटक. एक प्रकारना थणियाणि के० अनीक एटले कटक, ते सवइंदाणं के सर्व इंस्रोने होय. अने वेमाणियाण के एक वैमानिकने सातमुं वसहा के वृपनवें कटक होय. तथा अहोनिवासीणं के अधोनिवासी जे जुवनपति तथा व्यंतर , तेने सातमुं कटक महिसाय के महिषानुं होय ॥ ४५ ॥ ॥ हवे त्रायत्रिंशकादिक देवोनी संख्या प्रत्येक इंधनी कहे .॥ तित्तीस तायतीसा॥परिसति लोगपाल चत्तारि ॥अ णियाण सत्त सत्तय॥ अणियाहिव सव इंदाणं ॥४६॥ अर्थ- तित्तीसं के तेत्रीश देवो ते तायतीसा के त्रायत्रिंशक एटले गुरुस्थानीया इंसरखा, इंधने सलाह पूबवा योग्य, सर्वने पूजनीक होय. तथा एक बाह्य, बीजी अत्यंतर, त्रीजी मध्यम, ए रीते सर्व मलीने परिस के० पर्खदा ते, तीया के त्रण होय. तथा एक सोम, बीजो यम, त्रीजो वरुण चोथो कुबेर, ए रीते लोगपाल के लोकपाल ते चत्तारि के चार होय, अने अणियाण के अनिक ते पूर्वोक्त गांधर्व प्रमुख सत्तसत्तय के सातसात जात, कटक ते सर्व इंडोने होय. ते अणियाहिव के० ए साते कटकना अधिपति सव्वदाणं के० सर्व इंजो होय ॥ ४६ ।। नवरं वंतर जोइस ॥ इंदाण न हुँति लोगपाला ॥ तायत्तीस निहाणा ॥ तियसाविय तेसिं नहु हुँति ॥ ४ ॥ अर्थ-पण नवरं के एटवं विशेष जे वंतर के व्यंतरना बत्रीश सोने, तथा जोस के ज्योतिषीना बे इंसोने, लोगपाला के लोकपाल, नटुंति के न होय, तथा तायत्तीस के त्रायत्रिंशक डे अनिधान के नाम जेनुं, एवा तियसावि के जे देवो ते पण तेसिं के० ते व्यंतर तथा ज्योतिषीना इंजोने नहुहुँति के न होय. ॥७॥ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संग्रहणीसूत्र. ॥ हवे ज्योतिषी देवोनां विमानोनी वक्तव्यता कहे जे. ते ज्योतिषी तिर्यक्लोकने विषे बे. ते तिर्यक्लोक मेरुमध्य रुचकथी नवसे योजन नपर, अने नवसे योजन नीचे मली अढारसे योजन प्रमाण बे. त्यां जंचा नवसे योजन जे तिर्यकलोकना बे; तेमां केटलां योजन ऊंचां ज्योतिषिनां विमानो डे ? ते कहे .॥ समनूतलान अहहिं । दसूण जोयणसएहिं आरन ॥ नवरि दसूत्तर जोयण ॥ सयंमि चिंति जोइसिया ॥४॥ अर्थ-मेरुपर्वतना मध्यत्नागे आठ रुचकप्रदेश ते समजूतल कहीए. त्यांथी अहिं जोयण सएहिं के आठसे योजन, ते दसूण के दश योजने अंडा, एटले सातसें ने ने योजन जंचा जएं, त्याहांथी आरन के श्रारंजीने उवरि के उपरे जामपणे-दसूत्तरजोयणसयंमि के एकशो दश योजनमांहे जोरसिया के ज्योतिषी देवो, चिति के रहे . ॥४॥ ॥ते ज्योतिषिदेवो एकसो दश योजनमां केवीरीते रह्या डे ? ते कहे .॥ तब रवी दस जोयण ॥ असी तज्ज्वरि ससीय रिकेसु ॥ अद नरणि सा नगरि ॥ बदि मूलो निंतरे अनिई ॥४ए। श्रर्थ-तब के त्यांथी एटले एकसो दश योजन मांहेला दसजोयण के दश योजन ते, रवी के० सूर्य उंचो . य के वली तमुवरि के तेहना उपर ससी के चंजमा ते असी के एंशी योजन ऊंचो . वली ते थकी चार योजन ऊंचा रिकेसु के नक्षत्र . ते सर्व मली थहावीश नत्र जे. तेमांहे एक जरणीनत्र ते सर्व नक्षत्रथकी अद के अधो एटले नीचे चाले . अने सार के खाति नक्षत्र ते सर्व नदात्रथकी उवार के उपरे चाले . तथा मूलो के० मूलनक्षत्र सर्वथकी बहिं के बाहिरने मंमले चाले बे. सर्व नदात्रने अन्तिरे के वचाले अनिई के अनिचित् नदत्र चाले . ॥ ४ ॥ तार रवि चंद रिका ॥बुद सुका जीव मंगल सणिया ॥ सग सय नजय दस असि॥चन चन कमसो तियाचनसु॥५०॥ अर्थ-समजूतलापृथ्वीथकी सगसय के सातसें ने नजय के नेतु योजन उपरे तार के० तारा बे. ते उपर दश के० दश योजन ऊंचो रवि के सूर्य जे. तेथकी उपर एंसी योजन चंजमा बे. फरी ते थकी उपरे चल के चार योजन ऊंचा रिका के नक्षत्र . तेथी चल के चार योजन ऊंचो बुह के० बुधनामा ग्रह , तेथी ऊंचा तिया के त्रण त्रण योजनने अंतरे चउसु के बाकीना चार ग्रह, ते कमसो के अनुक्रमे डे. ए. Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संग्रहणीसूत्र. ५३. टले तेहथी त्रण योजन उंचो शुक्र बे, त्यांथी त्रण योजन उंचो बृहस्पति बे, त्यांथी त्रण योजन उंचो मंगल बे, त्यांथी त्रण योजन उपरे शनीनो तारो बे, ए रीते समनूतल की सातसें नेवु योजन उपरे एकशोने दश योजनमांहे सर्व ज्योतिषचक चाले बे. सर्व मली समनूतलथी उपर नवसें योजने शनिश्चर बे. अहींयां योजन प्रमाणांगु करी लेवा. ॥ ५० ॥ ॥ हवे मनुष्यक्षेत्रमां चरज्योतिषि मेरुपर्वतथकी केटला योजन इरे चाले ? तथा मनुष्यलोक बेडे लोकश्री रा केटली बाधाए ज्योतिषी रहे ते कहे बे. ॥ इकारस जोयण सय ॥ इगवीसि क्कार साहिया कमसो ॥ मेरुलोगाबाहिं ॥ जोइस चक्कं चरइ हाइ ॥ ५१ ॥ अर्थ-यारसो ने एकवीरा योजन तथा वल्ली अगीयारसो ने इक्कार के० गीयार योजन साहिय के० साधिक, ते कमसो के अनुक्रमे मेरुपर्वत की लोगा बाहिं के० लोक अबाधाए ज्योतिषनुं चक्र ते चरइ के० चाले बे, घने हाई ho स्थिर रहे . वार्थ एम जे मेरुपर्वतथकी अगीयारसो एकवीश योजन बेटे ज्योतिषचक्र चाले . ते मनुष्यदेत्रमांदे चाले बे. अने लोकना बेहेडाथ की गीयारसें ने श्रीयार योजन चारे दिशाए मांहेलीकोरे लोकनी अबाधाए एटले अंतरे ज्योतिषचक्र थिर रहे बे; एटले मनुष्यदेत्रमांहे चर बे; थने बाहिरना क्षेत्रोमांहे स्थिर बे. ॥ ५१ ॥ कविद्यागारा ॥ फलिमया रम्म जोइस विमाणा ॥ वंतर नयरेहिंतो ॥ संखि गुणा इमे हुंति ॥ ५२ ॥ अर्थ-कविहागारा के० अर्द्ध कोठफलाकारे चंद्रादिक ज्योतिषिनां विमान होय. ते फलिमया के स्फटिक रत्नमय सामान्ये स्फटिकनां बे, रम्य के० रमणिक जोवा योग्य मनने आल्हादकारी एवां सर्व जोइस विभाणा के० ज्योत पिनां विमानो बे; ते पूर्वे ह्यां जे वंतरनयरेहिंतो के व्यंतरदेवोनां असंख्यातां नगरो, ते थकी संखितगुणा के० संख्यात गुणा इमे के० ए प्रत्यक्ष देखाता जोतिषिनां विमानो बे. पूर्द्धा को फलाकारे ज्योतिषिनां विमानो बे, तो उदय, स्तने तिर्यक्परिभ्रमणकाले केम प्रकारे देखातां नयी ? माथाउपर श्राव्यां तां वृताकारेज बे, एम देखाय बे, परंतु तिर्यक् परिभ्रमण काले तेम न देखातां म देखा बे ? ए प्रश्ननो उत्तर कहे बे. ज्योतिषिर्तनां विमान सर्वथा प्र को फलाकारे नथी, किंतु विमानोनी पीठ घडीबंध अर्द्ध कोठफलाकारे - कारे For Private Personal Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ संग्रदणीसूत्र. बे. ते उपर चंद्रादिक ज्योतिषिर्जनां प्रासाद बे. ते प्रासाद यद्यपि वर्तुलादिक कोइ पण प्रकारे रह्यां तां पीठिका सहित प्राये वाटलाकार देखाय बे, वांको आकार पण दूर थकी वृत्ताकारे प्रतिजासे बे, तेमाटे दूरथकी सूर्य विमान वाटलं देखाय बे एमां कां दोष नथी. ताइ विमालाई पु ॥ सवाई हुंति फालिमयाई ॥ दग फाली - हमया पुण ॥ लवणे जे जोइस विमाणा ॥ ५३ ॥ अर्थ - ताइ के० ते ज्योतिषीनां विमाणाई के० विमान ते पुण के० वली सव्वाई ० सर्व फालिमया के० स्फाटिकरत्नमय हुंति के० दोय. ने पुए के० वली लवणे to लवण समुद्रने विषे जे जोइसविमाणा के० जे ज्योतषीनां विमान बे, ते दगफालीदमया के० उदकस्फाटिक रत्नमय बे. केमके लवणसमुनी शिखा दश हजार योजन पोहोली, अने सोल हजार योजन उंची बे. छाने ज्योतिषीनां विमान तो नवसें योजन उंचाइमां बे, ते सर्व शिखामांदे चाले बे. पण उदकस्फाटिकरलना प्रजावे करी पाणी फाटीने मोकलुं यई जाय बे, तेथी विमानोने त्यां पाणी मांहे फरवाने बाधा यती नथी. विमानमां पाणी जरातुं नथी. जे स्फाटिकने संयोगे तथाविध जगत् स्वनावे पाणी फाटी जाय, तेने उदकस्फाटिक कहीए. जे माटे सूर्यप्रज्ञप्ति नियुक्तिकार कहे . ज्योतिषिर्तनां सर्व विमानो सदा स्फाटिकमय छाने जे लवणसमुद्रमां विमानो बे, ते उदकस्फाटिकमय बे. जे कारण माटे लवणसमुद्रनी शिखामां चालतां थकां विमानोना तेजनो जे प्रकाश बे, तेनो अंतराय पाणीथी थतो नथी ॥५३ ॥ हवे चंद्रादि ज्योतिषीनां विमानोनुं प्रमाण कहे बे. ॥ जोयणि गसहि जागा ॥ बप्पन्नऽडयाल गानड इग ६ ॥ चंदाइ विमाणायाम || विवडा ६ मुच्चत्तं ॥ ५४ ॥ अर्थ-जोय गिस डिजागा के० एक योजनना एकसठ जाग करीए, तेवा बपन्न के० नृपन्न जागनुं चंद्रमानुं विमान लांबुं बे, अने अडयाल के० श्रमतालीश नागनुं सूर्यनुं विमान लांबुं बे. छाने गाउडुग के० बे गाजनां ग्रहनां विमानो बे तथा इग के० एक गानां नक्षत्रनां विमान बे. अद्ध के अर्द्धगाउनां तारानां विमान बे. कोइक न्हाना पण बे. ए रीते चंदाइ के० चंद्रादिक पांच जातना ज्योतिषिनां विमाणा के० विमान, तेमनो यायाम के लांबपणानो ने पोहोलपणानो ते विवमा के० विस्तार जा वो ने जेटला लांबपणे बे तेथी अर्द्ध के अद्ध उच्चतं के० उंचपणे सर्व पांचे ज्योतिषीनां विमान जाएवां. ए उत्कृष्टायुवाला तारानां विमानोनुं प्रमाण कयुं; पण Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संग्रहणीसूत्र ५५ जघन्यायुवाला तारानां विमानोनुं प्रमाण लंबाइ पोहालाइ पांचसे धनुष्य, अने उंचाश् अदीसें धनुष्य पण जे. ॥५४॥ ॥हवे मनुष्यलोकनुं प्रमाण अने मनुष्यदेवथी बाहेरना स्थिर चंगादि ॥पांचे ज्योतिषीउना विमानोनुं स्वरूप कहे . ॥ पणयाल लक जोयण ॥ नर खित्तं तबिमे सया जमिरा ॥ नरखित्ताउ बदिं पुण॥अपमाणा ख्यिा निचं ॥५५॥ अर्थ- ए पूर्वोक्त रीते पणयाललस्कजोयण के० पिस्तालीशलाखयोजननुं नरखित्तं के मनुष्यत्र ले. तबिमे के तेमांहे ए ज्योतिषि सर्व सयानमिरा के सदाकाल व्रमणशील बे. अने नर खित्ताउबहिं के मनुष्यवेत्रथी बाहेर जे पांचे जातना ज्योतिषी , तेमनां विमान पुण के वली आगल जे मनुष्यक्षेत्रना ज्योतिषीनुं प्रमाण कह्यु बे, तेथकी अपमाणा के अर्ड प्रमाण दे. अने ते निच्चं के० नित्य हिया के स्थिर रह्यां जे. एटले मनुष्यक्षेत्रमाहेला चंद्रनुं विमान योजनना एकसठीश्रा उपन्न जागर्नु बे; तो मनुष्यदेत्रथी बाहेरना चंप्रमानुं विमान अहावीश नागर्नु जे. एम पांचे ज्योतिषीउनां विमान लंबा पोहोलाइए अर्बप्रमाण जाणवां. तेमज उंचाइए पण अईप्रमाण जाणवां. ॥ ५५ ॥ ॥हवे ए मनुष्यवेत्रमाहे ज्योतिषीउनी शीघशीघ्रतरगतिनुं तरतमपणुं॥ कहेतो थको प्रथम मनुष्यदेत्रनुं लक्षण कहे .॥ मनुष्यदेवने विंटी रहेलो सुवर्णमय सत्तरसें एकवीश योजन ऊंचो मानुषोत्तर पर्वत ; त्यांसुधी मनुष्य, जन्म मरण थाय बे; पण तेश्री बाहेर मनुष्यनुं जन्ममरण नथी. कदाचित् कोई देवता पूर्व जवना वैरथी मनुष्यने उपामी अढी छीपथी बाहेर मूके, अथवा गनिणीस्त्रीने मूके, परंतु त्यां जन्ममरण थयुं पण नथी, थातुं पण नथी, अने थशे पण नहीं. केमके वली एवं कारण मले के जेथी संहरीने पालो आणी श्रा मनुष्यदेत्रमा मूके, अने जंघाचारणादिक नंदीश्वर तथा रुचक हीपे यात्रा करवा जाय बे खरा, परंतु ते मनुष्यलोकमाहे पाबा श्रावीनेज मरे; तेमाटे मनुष्य क्षेत्र कहीएं. ते मनुष्यदेवमांहेला चंद्रमा सूर्य श्रादे देश्ने ज्योतिषी देवता श्रेणिबंध . ॥ हवे ए मनुष्य क्षेत्रमाहेला ज्योतिषीउनी चालवानी गति तथा एमनां ॥ ॥ विमानने वहणहार देवता केटला जे ? इत्यादिकनुं स्वरूप कहे .॥ ससि रवि गह नस्कत्ता ॥ ताराङ हुँति जहुत्तरं सिग्घा ॥ विवरीयान मदडिअ॥ विमाण वदगा कमेणेसिं ॥ ५६ ॥सो. Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ संग्रहणीसूत्र. लस सोलस अड चन ॥ दो सुर सहस्सा पुरोय दाहिण ॥ पचिम उत्तर सीहा ॥ हबी वसदा दया कमसो॥५॥ अर्थ-चंड, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र, तारा- ए अनुक्रमे शीघ्रतर जाणवा. तेमां प्रथम सर्वमा ससि के० चंद्रमाने चालवानी गति मंद . ते थकी सूर्य शीघ्रतर, ते थकी ग्रहने चालवानी गति उतावली, ते थकी नदात्र उतावला, ते थकी तारा शीघ्रतर, श्रने हु शब्दे पूर्वे कहेला एक बीजाथी जंचा रहेला ग्रहनो क्रम लहीए; ते श्रावी रीते जे, ग्रहमा वली बुधथकी शुक्रनी गति शीघ्र बे, अने शुक्रथकी मंगल, तथा मंगलथकी बृहस्पति, बृहस्पति थकी शनिश्चरनी शीघ्र गति जाणवी. ए रीते जहत्तरं के यथोत्तरपणे एकेकथकी सिग्घा के शीघ्रगतिवाला ते हुँति के बे. हवे ए गतिनी रीत कही; तेथकी विवरीया के विपरीतपणे ज्योतिषीउनुं महड्डिय के म. हकिपणुं कहेवू. श्रावी रीते जे, सर्वथकी अल्प शकिवंत तारा बे, ते थकी नक्षत्र महर्डिक, तेथकी ग्रह महर्डिक, तेथकी सूर्य महा:क, सूर्यथी चंउमा महर्डिक. हवे एना वर्ण कहे . तारा पंचवर्णा बे, अने बीजा सर्व ज्योतिषि अग्निए तपावेला सोनाने वर्णे जाणवा. तथा ए चंडादिक पांचे ज्योतिषी ते नलां वस्त्र यानरणे अलंकृत मुकुटे मंमित मस्तकवाला , तथा चंजमा थने चंद्रमाना विमानवासी देवोना मुकुटने अग्रजागे चंजमंडलाकारे चिन्ह जाणवां. एमज सूर्यने मुकुटे सूर्यमंमलाकारे चिन्ह होय. अने ग्रहने मुकुटे ग्रहाकारे चिन्ह, नक्षत्रने मुकुटे नक्षत्राकारे चिन्ह, ताराने मुकुटे ताराकारे चिन्ह, तेमज सर्व ज्योतिषीना पोतपोताना विमानवासी दे. वोना मुकुटनेविषे पण एवांज चिन्ह होय. ए चिन्हे करी पांचे ज्योतिषीने उलखीए. हवे ए पांचे ज्योतिषीउना विमाणवहगा के० विमानना वहणहारा देवो ते, कमेणेसि के अनुक्रमे कहे जे ॥ ५६ ॥ प्रथम चंडमाना विमानवाहक सोलस सहस्स के सोल हजार देवो, अने सूर्यना विमानवाहक सोल हजार देवा, अने ग्रहना विमानवाहक अमसहस्स के० आठ हजार देवो, नत्रना विमानवाहक चउसहस्स के चार हजार देवो, तथा ताराना विमानवाहक दो सहस्सा के बे हजार सुर के० देवो जाणवा. अहींयां लावार्थ तो ए ले जे जगत्स्वनावे चंडादिकनां विमान निरालंब आकाशने विषे पोतानी मेले वदेतां रहे बे; पण श्रादेशकारी देवो पोतानी प्रजुता वधारवाने अर्थे अथवा पोता सरखा देवोमांबहुमान देखामवाने अर्थे स्वनावे ते सेवकदेवता विमानतले सिंहादिकने रूपे, हेग थका वहे , पण ए अनियोगीक देवोने विमानतले वहेतां विमाननो नार लागे नही. जेम कोश्क उन्नत स्त्रीने घणा Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संग्रहणीसूत्र. श्रानूषणनो जार लागे नही, तेम अनियोगीक देवोने पण तथाविध कर्मोदयथकी चालवाने विषे रति बे, माटे स्वस्वनावे वहेता विमानोने तले ए पण वहेता रहे. ए पांचे ज्योतिषीनां विमानोना चलावनार देवो ते सरखा चोथे चोथे नागे चारे दिशिए जूदा जूदा रूपे होय ते कहे . प्रथम पुरोय के पूर्व दिशाए सीहा के सिंहने रूपे होय, अने दाहिणो के दक्षिण दिशाए हवि के हाथीने रूपे होय, तथा पछिम के पश्चिम दिशाए वसहा के वृषनने रूपे होय, अने उत्तर के उत्तर दिशाए हया के अश्वने रूपे होय, कमसा के० ए अनुक्रमे विमानवाहक जाणवा.॥५॥ ॥हवे ए सर्व ज्योतिषिउमां अधिक शजिवंत चंद्रमा डे माटे चंडमानो परिवार कहेजे.॥ गद अहासी नकत्त ॥ अडवीसं तार कोडि कोमीणं ॥ ग सहि सहस्स नवसय ॥ पणदत्तरि एग ससि सिन्नं ॥ ५ ॥ । अर्थ- मंगलादिक ग्रह अठासी के अव्याशी बे, अने अनिचित प्रमुख नकत्त के नक्षत्र ते अडवीसं के अहावीश ,श्रने डासहिसहस्स के बगसह हजार, तथा नवसय के नवसें ने पणहत्तरि के पंच्चोतेर एटली कोमीकोमीणं के कोडाकोडी तार के तारा एटले बासह हजार कोडाकोडी नवसे कोडाकोमी अने पंच्चोतेर कोडा कोमी एटला तारानी संख्या. ए सर्व एगससि के एक चंडमानो सिन्नं के० सैन्य एटले परिवार जाणवो ॥ ५ ॥ ___ अहींयां शिष्य पूजे जे के, मनुष्यक्षेत्र तो पिस्तालीश लाख योजन बे, अने ता. रानी संख्या वधारे कहो बो; माटे एटला क्षेत्रमा समावेश न थाय, तो ए वातनो संजव केम थाय ? ए आशंका गुरु आगली गाथाए टाले . कोडा कोमी सन्नं ॥ तरंतु मन्नंति खित्त थोवतया ॥ केई अन्नेनस्से ॥ हंगुल माणेण ताराणं॥ एए॥ अर्थ- अहींयां बे मत जे. केक आचार्य कोडीकोडी संझातर कहेतां नामांतर कहे बे. जेम वीशने पण कोडी कहीए, एटले कोमाकोडी केहेतां कोटी एबुंज नामांतर मन्नंति के माने जे. कारणके खित्त के मनुष्यदेवनी नूमि थोव के थोडी बे. तया के तेमाटे माने . वली केश्यन्ने के अन्य वली कोईक आचार्य ते प्रमाणांगुलने ठेकाणे उस्सहंगुलमाणेण के उत्सेधांगुलने प्रमाणे ताराणं के तारानां विमान कहे . एम करतां प्रमाणांगुल देत्रमा उत्सेधांगुलनां विमान समार जाय. केमके विशेषणवति ग्रंथमां श्रीजिननगणि क्षमाश्रमणे एहज उत्तर दीधा ले. वली " नगपुढविविमाणा मिणसुपमणं गुसेणंच ” ए पाठ प्रायिक बे. क्यांक विघटे पण . Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संग्रहणीसूत्र. अहींयां चारसे उत्सेधांगुले एक प्रमाणांगुल थाय जे. अने केटलाक ग्रंथोमा एक हजार उत्सेधांगुले एक प्रमाणांगुल थाय एम कडं बे. तेथी देत्रना अपत्व माटे उत्सेधांगुलने माने ताराना विमाननुं प्रमाण माने . ॥ ५ ॥ ॥ चंजना परिवारनी वक्तव्यताने प्रस्तावे तेनाज परिवारजूत ॥ ॥ ग्रहोनी अंतर्गत राहुनी वक्तव्यता जूदी कहे जे. ॥ किादं राहु विमाणं ॥ निच्चं चंदेण हो अविरहियं ॥ चनरंगुलमप्पत्तं ॥ हिजाचंदस्स तं चर३॥ ६ ॥ अर्थ- राहुविमाणं के राहुनुं विमान ते किण्हं के कार्यु बे, अने निच्च के नित्यप्रत्ये चंदेण के चंजमाना विमानथी होइ अविरहियं के घर थातुं नथी. पासेज बे. मात्र चउरंगुलं के चार अंगुल अप्पत्तं के अप्राप्त एटले चार अंगुल वेगढुं थकुं हिठाचंदस्स के चंजमाना विमानथकी हेतुं थकुं तं के ते राहुन विमान चरश्के चाले . __अहींयां एक नित्यराहु ने बीजो पर्वराहु ए रीते राहु बे प्रकारना . तेमां पर्वराहु ते जघन्यथी मासे चंद्रमा अने सूर्यने ग्रहण करे, एटले पोताना विमाने करी ते. मना विमानने आवरे. उत्कृष्टुं चंजमाने बेतालीश महीने ग्रहण करे. अने सूर्यने अडतालीश वर्षे ग्रहण करे. तेमज राहुनीपरे केवारेक केतु पण ग्रहण करे. ___ अने बीजुं नित्यराहुनुं विमान ते वर्षे कार्बु , अने ते जगत्वनावे सर्वदा चंडमानी साथे चाले. चंमाथकी चार अंगुल वेगढुं थकुं नीचुं चाले. तेमां अंधारा पदे चंजमंगलना पन्नर नाग करीएं, तेमांना एकेका नागने दिनप्रत्ये आवरे-ढांके. अने अजवाले पदे जे श्रावस्यो होय तेमांयी एकेको नाग पाडगे मूके. एटले ए जे नित्यराहु ते सर्वकाल आवरे नहीं. पण चंजमाना त्रीश दीवसे करी त्रीश नाग करीएं ते एक पखवामीये वहेंचीये, तेवारे दिनप्रत्ये बेबे जाग आवे. ते अंधारे पखवाडीए दररोज बेबे नाग आवरे-ढांके, अने अजुश्राले पखवाडीए दररोज बे बे नाग मूकतो जाय, तेवारे लोकमां चंडममलना तेजनी हाणी वृझिनो नास थाय. अहींयां को पले जे चक्रमानं विमान महोटुं, अने राहनुं विमान न्हान तो राथी चंजमा शीरीते ग्रहेवाय ? तेहने उत्तर कहे के के ग्रहोर्नु विमान बे कोसनुं कडं ले ते प्रायिक बे; माटे प्रायिक शब्द निश्चेवाचक नथी; तेथी ए ग्रहोना विमाननुं जे प्र. माण कयुं , ते थकी अधिकुं पण संजव थाय. तेथी सर्वात्माए चंडमाने राहु ढांके बे. अथवा केटलाएक आचार्य एम कहे जे जे राहुनुं विमान न्हानुं बतां कालुं डे, माटे जो काj थोडं होय तोपण घणा उज्वलाने श्राबादन करी शके बे. ए प्रमाणे Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एए संग्रहणीसूत्र. बेहु रीते प्रश्न करनारनी शंका टाली. जेम मसीना एक टीपाश्री स्फा।टकनो कटको कालो देखाय, तेम राहुना योगे चंडमा कालो देखाय . ॥ हवे जंबुझीपने विषे तथा बीजा पण मनुष्यदेत्रमा एक ताराथी बीजा ॥ ॥ ताराना विमानोर्नु पर्वतादिकना व्याघाते जघन्योत्कृष्ट अंतर, अने ॥ ॥ व्याघातविना जघन्योत्कृष्ट अंतर केटढुं होय ? ते कहे . ॥ तारस्सय तारस्सय ॥ जंबुद्दीवंमि अंतरं गुरुयं ॥ बारस जोयण सहस्सा ॥ उन्निसया चेव बायाला ॥६॥ अर्थ-तारस्सयतारस्सय के एक ताराना विमानथकी बीजा ताराना विमानने जं. बुद्दीवंमि के० था जंबुछीपनेविषे गुरुयं के उत्कृष्टुं जो अंतरं के अंतर होय तो केटलुं होय ? ते कहे . बारसजोयण सहस्सा के बार हजार योजन उपरे उन्निसया के0 बसो चेव के निश्चेथकी. वली बायाला के बेतालीस उपर एटले (१२२४२) योजननुं अंतर होय. ते मेरुपर्वतने व्याघाते ए अंतर जाणवू. जेम मेरु, पृथीवि नीचे दश हजार योजन जामो, तेम वली मेरु तथा ताराने एक बाजुए, (१९५१) योजनन अंतर , तेQज बीजी बाजुए पण (१९२१) योजन- अंतर बे, माटे ए त्रणनी संख्या एकठी करीए, तेवारे एक ताराश्री बीजा ताराचं उत्कृष्टुं अंतर (१२२४२ ) योजन थाय. ॥१॥ ॥ हवे व्याघाते तथा निर्व्याघाते जघन्य तथा उत्कृष्टुं अंतर कहे . ॥ निसढोय नीलवंतो॥चत्तारिसय उच्च पंच सयकूडा॥अनवार रिका ॥चरंति उन्नय 5 बादाए ॥६॥गवहाउन्निसया॥जहन्न मेयं तु दोश्वाघाए॥निवाघाए गुरु लहु॥दोगानय धणुसया पंच॥६३ अर्थ-निसढोय के निषध अने नीलवंत ए बे पर्वत ते चत्तारिसय के चारसे यो. जन नूमीथकी उच्च के ऊंचा बे. अने ते पर्वतनां पंचसय के पांचवें योजनना जंचा, अने तेना अकं के अर्थ एटले अढीसें योजन उवार के उपर पहोलांडे, अने नीचे पांचसे योजन तथा मध्ये पोणाचारसें योजन पहोलां बे, एवां नव नव कूडा के कूट एटले शिखरो, एम सर्व मलीनूमि थकी नवसे योजन ऊंचा थया. ते कूट एटसे शिखरना उन्नय के बे बाजुए यह के आठ आठ योजननी अबाहाए के० अबाधाए रिका के नक्षत्र चरंति के विचरे .॥६॥ एटले अढीसें योजन शिखरनी पहोला तथा बे बाजुना श्राप आठ योजननी अबाधा मलीने बावटा सुन्निसया के0 बसें ने बासठ योजन, ते जहन्न के जघन्य Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० संग्रहणीसूत्र. थकी एयं के० ए तारा ताराने, नक्षत्र नदात्रने मांहोमांहे वाघाए के पर्वतादिकनी व्याघाते अंतर बे. अने निवाघाए के निर्व्याघाते तो गुरु के० उत्कृष्ट अंतर दोगाउ के बे गाउनु, अने लहु के0 जघन्य अंतर ते धणुसया पंच के० पांचसे धनुष्यनुं . एह सूरपन्नति तथा जीवानिगम प्रमुख ग्रंथोमां कडं बे, पण महोटी संघयणी तथा जंबुद्धीपपन्नतिमां ए व्याघातनिर्व्याघात कर्वा नथी. ॥ ६३ ॥ ॥ हवे मनुष्यदेवनी बाहेर घंटाकारे स्थिर रह्या जे चंग ॥ ॥ अने सूर्य- तेमनुं मांहोमांहे अंतर प्रमाण कहे . ॥ माणुस नगान बाहिं ॥ चंदा सूरस्स सूर चंदस्स ॥ जोयण सहस्स पन्नास ॥णुणगा अंतरं दिलं ॥४॥ अर्थ- जे मनुष्यदेवनी सीम एटले मर्यादाकारक माणुस के मानुषोत्तर नामा नगाउ के पर्वत तेने बाहिं के बाहेरना जे चंदा के चंद्रमा अने सूरस्स के सूर्य बे, ते सूर के सूर्य अने चंदस्स के चंजमाने एटले चंडमाथकी सूर्यने अने सूर्यथकी चंजमाने माहोमांहे जोयणसहस्स पन्नास के पचाश हजार योजन- अणूणगा के अन्यून एटले पूर्ण अंतरं के अंतर ते दिड के श्री तीर्थकर गणधरे दी. ॥ ६४ ॥ __ हवे पूर्वनी गाथामां सूर्यथकी पचाश हजार योजन चंडमा, अने चंप्रमाथकी पचाश हजार योजन सूर्यनुं अंतर कडं. तेवारे एक सूर्यथकी बीजा सूर्यनुं अने एक चंथकी बीजा चंजनुं अंतर केटबुं थाय ? ते एक गाथाए करी कहे जे. ससि ससि रवि रवि साहिय॥जोयण खकेण अंतरं होई॥ रवि अंतरिया ससिणो ॥ ससिअंतरिया रवि दित्ता ॥ ६५ ॥ अर्थ- ससि ससि के चं चं, अने रवि रवि के० सूर्य सूर्यन, साहिय के० साधिक जोयण लरकेण के एक लाख योजन अंतर हो के अंतर होय. केमके रवि अंतरिया ससिणो के सूर्यने अंतरे चंमा , अने ससिअंतरियारवि के० चंधमाने अं. तरे सूर्य जे; ते दित्ता के दीप्तवंत नास्वर एटले तेजवंत जे. एटले एक चंद्रमा अने बीजा चंद्रमाने एक लाख योजन उपर एक जोजनना एकसठीया अमतालीश नागे अधिक, तथा एक सूर्य अने बीजा सूर्यने वच्चे एक लाख योजन उपरे एकसठीया बपन्न नागे अधिक अंतर बे. कारण चंजमा अने चंडमा वच्चे सूर्यनुं विमान अधिक होय. अने सूर्य सूर्य वच्चे चंडमानु विमान अधिक होय, तेथी ते विमान जेटलु महोटुं होय, तेटर्बु अधिक अंतर जाणवू. ॥६५॥ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संग्रहणीसूत्र. बहियान माणुसुत्तर ॥ चंदा सूरा अवधिया ॥ चंदानी जुत्ता ॥ सूरा पुणे हुंति पुस्सेदिं ॥ ६६ ॥ -- माणुसुत्तर के मानुषोत्तर पर्वतने बहियाज के० बाहेरे चंदासूरा के० चंद्रमा सूर्य बे; ते के० अवस्थित निश्चल बे. अने सदैव सरखा उतोया के० उद्योत रेबे, एटले सूर्य ते अत्यंत तपता नथी, अने चंद्रमा अत्यंत शीतलता करता नथी. मां चंदा के० चंद्रमा ते सदैव यजीयजुत्ता के० अजिजित नक्षत्रे युक्त बे ने पुण के० वली सूरा के० जेटला सूर्य बे ते सर्व पुस्सेहिं के० पुष्य नक्षत्रे युक्त हुंति के० बे. ६६ हवे द्वीपसमुद्रोने विषे चंद्रादिकोनी संख्याने खर्थे प्रथम द्वीपसमुद्रोनां प्रमाण कहे दे | उदार सागर डुगे ॥ सढे समएदि तुल्ल दीबुददी ॥ 5 गुणा डुगुण पविचर ॥ वलयागारा पढम वज्रं ॥ ६७ ॥ ६१ अर्थ - उद्धारसागर के० उद्धारसागरोपम डुगेसढे के० अढी एटले अढीउद्धार सागरोपमना जेटला समएहिं के० समय होय, तेहने तुल के० बराबर तावत्प्रमाण दीव के द्वीप ने उदही के० समुद्र बे. ते एकेक थकी डुगणा डुगल के० बमला बमा एटले पहेला थकी बीजो बमणो, ते थकी त्रीजो बमणो, एम पविवर के० विस्तारे का बे. तेमां पढम के० पहेलो जंबुद्वीप ते थालीने याकारे बे, ते व के० वर्जीने बीजा सर्व द्वीप तथा समुद्र ते वलयागारा के० वलय एटले चूडीने श्राकारे बे ॥ ६७ ॥ एज अर्थ विशेषपणे वखाणे बे. पढमो जोयण लकं ॥ वट्टतं वेदिन विया सेसा ॥ पढमो जंबुद्दीवो ॥ सयंजुरमणोद ही चरमो ॥ ६८ ॥ अर्थ - पढमो के पहेलो जंबुद्वीप जोयएलकं के० एकलाख योजननो, ते वट्टो ho तेलना पूमा सरखो वाटलो बे, तं के० तेहने सेसा के० शेष सर्व द्वीप समुद्र ते वेदीजं के० वींटीने ठिया के० रह्या बे. ते जेम पढमो के० पहेलो जंबुद्दिवो के० जंबुद्धीप बे. ते सर्व द्वीप समुद्रथी चरमो के० बेल्लो स्वयंमूरमण नामा उदही के० समुद्र बे. ६० ॥ वली केटलाक द्वीप ने समुद्रोनां नाम कहे बे. ॥ जंबुधाय पुरकर ॥ वारुणिवर खीर घय खोय नंदिसरा ॥ अरुण रुवाय कुंडल ॥ संख रुयग जुयग कुस कुंचा ॥ ६० ॥ अर्थ- प्रथम जंबुद्वीप, बीजो धातकीखंडद्वीप, त्रीजो पुष्करवरद्वीप, चोथो वारुणीवरद्वीप, पांचमो क्षीरवरद्वीप, बडो घृतवरद्वीप, सातमो इतुवरद्वीप, श्रमो नंदीश्वरी, नवम अरुणद्वीप, अहींयां अरुणोपपात एवो ए शब्दनो बीजो अर्थ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ संग्रहणीसूत्र थाय बे; पण अहीयांथी एकेका छीपनां त्रण नाम कहेवा माटे अर्थमांदे, दशमो अरुणवरहीप कहेवो, अगीयारमो अरुणवरावजासहीप, ए त्रीजुं नाम कह्यु. एम बारमो कुंडलछीप, तेरमो कुंमलवर छीप, चौदमो कुंडलवरावनासहीप, पन्नरमो संखछीप, सोलमो संखवरहीप, सत्तरमो संखवरावनास, श्रढोरमो रुचक, जंगणीशमो रुचकवर, वीशमो रुचकवरावनास, एकवीशमो नूयंग, बावीशमो नूयंगवर, त्रेवीशमो नूयंगवरावनास, चोवीशमो कुस, पचीशमो कुसवर, वीशमो कुसवरावनास, सता. वीशमो क्रौंच, अहावीशमो क्रौंचवर, गणत्रीशमो क्रौंचवरावनास हीप . ॥ ए समस्त छीप एकेके समुझे वींव्या बे, ते समुझोनां नाम कहे .॥ पढमे लवणो जलहि॥ बीए कालोय पुस्कराईसु ॥दी वेसु हुँति जलही॥ दीव समाणेहिं नामेहिं ॥ ७ ॥ अर्थ- पढमे के पहेले छीपे लवणो के लवण नामा जलही के समु . बीए के बीजे छीपे कालोए के कालोदधि नामा समु. तेथकी आगल त्रीजे दीपे पुरकराईसु के पुष्करवरादिक दीवेसु के छीपनेविषे जे जलही के० समुफ बे, ते दीवसमाणेहिं के छीपने समान नामेहिं के नामेज ते समुखोना नाम हुंति के बे. एटले पागल हीपछीपने नामे समुजनां नाम पण जाणवां. जेम वारुणीवर हीपे वारुणीवरसमुह, ए रीते सर्व हीप सरखेज नामे समुझे वींट्या बे. अने सीप तथा तेना समुज्नुं नाम सर्व एकज बे. तथा जेवू नाम तेहवो गुण बे. जेम जंबुवृदे करी जंबुझीप नाम डे, अने लवण सरखं खारं पाणी माटे लवणसमुफ नाम . धावडी वृके करी धातकीखंड नाम . ए रीते बीजा सर्व बीप समुजनां अर्थ सहित नाम जाणवां. ॥ ७० ॥ श्रहीयां छीप समुज्ना अधिपति जे व्यंतरदेवता, तेहy एक पख्योपम आयुष्य जाणवू. ॥ हवे बीजा छीपसमुज्ना केवां केवां नाम डे ? ते अतिदेशेकरी कहे . ॥ आनरण व गंधे ॥ जप्पल तिलएय पनम निहि रयणे ॥ वासदर दद नई ॥ विजया वस्कार कप्पिदा ॥ १ ॥ कुरु मंदर आवासा ॥ कूडा नरकत्त चंद सूराय ॥ अन्नेवि एव माई ॥ पसब वजूण जे नामा॥७२॥ तन्नामा दीवुददी ॥ तिपडो यायार हुंति अरुणाई॥ जंबूलवणाईया ॥ पत्तेय ते असंखिजा ॥ ३३ ॥ ताणं तिम सूरवरा ॥वनास जलदी परंतु इकिका ॥ देवे नागे जके ॥ नूएय सयंजुरमणेय ॥ ४ ॥ अर्थ-बाजरण के हार प्रमुख जे अलंकार-तेनां जेटलां नाम , ते नामे छीप Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संग्रदणीसूत्र. समुज जे. व के वस्त्रोना जेटलां नाम , ते नामे छीप समुत्र जे. गंध के कूट प्रमुखने नामे, उत्पल ते कुमुद प्रमुख जे चंडविकासी कमलो तेमने नामे, तिलएय के तिलकने नामे, एटले वृततिलक कलशतिलकादिकने नामे, अथवा तिलकादिक वृद प्रमुखने नामे, पजम के० पद्म ते शतपत्र पुंगरिकादिक सूर्य विकाशी कमलने नामे, महा पद्मादि नवनिधिने नामे, कर्केतनादिक रत्नने नामे, अथवा चक्रवर्ति वासुदेवना रत्नने नामे, वासहर के वर्षधर जे हिमवंतादिक पर्वतने नामे, दह के० उहने नामे, गंगा प्रमुख ना के नदीने नामे, कलादिक विजयने नामे, वस्कार के० माल्यवंतादिक वृदस्कारने नामे, एटले वखारादिक पर्वतने नामे कप्प के सौधर्मादिक देवलोकने नामे, इंदा के० शक्रंमादिकने नामे. ॥१॥ देवकुरु उत्तरकुरुने नामे, तिर्यकलोकनेविषे मंदर के मेरुने नामे, इंसादिकोना आवासने नामे, कूडा के० कूटपर्वतने नामे, नकत्त के कृतिकादिक नदत्रने नामे, चंमा सूर्यनां जे नाम ले ते नामे, एम अन्नेवि के अन्य पण एवमाई के० ए पूर्वोक्त आदे देश्ने प्रशस्त नली वस्तुऊनां नाम जे जगत्मां बे. ॥ ॥ त. नामा के० ते नामे दीवुदहि के हीप अने समुनो डे, अने पूर्वे कह्या जे अरुणश्रादे करी त्रिप्रत्ययावतार हुँति के जे. एटले ए अर्थ जे अरुणादिकथी मांडीने कौंचसीम त्रण त्रण नामे करी त्रिपत्ययावतार कह्या डे. तेमज वली बीजा यानरणादिकने नामे जे द्वीप समुमो कह्या, तेमां पण एक एकने त्रिप्रत्ययावतार करी देखाडे जे. जेम हारछीप, हारसमुख, हारवरहीप, हारवरसमुख, हारवरावनासहीप, हारवरावनास समुज. एवीरीते नाम कहेवां. एम ते विपत्ययावतार त्यांलगे करवा, ज्यांलगे देवछीप थकी पहेलो सूर्यवराव जास हीप, सूर्यवरावनास समुख श्रने जंबुछीपनामे छीप असंख्याता, तथा लवणसमुन्नामे समुछ पण असंख्याता. एम जंबुद्वीप तथा लवणसमुष श्रादेदेश्ने असंख्यातो जे छीप अने समुज, पत्तेयते असं खिद्या के ते प्रत्येके असंख्याता असंख्याता समजवा. ॥ ३ ॥ एवा असंख्याताहीप समुजताण के तेनो अंतिम के बेबो जे सूरवरावनास जलही के० सूर्यवरावनास समुष बे, त्यांसीम त्रिपत्ययावतार करीए. तेवार पली वली सर्व तिला लोकने बेडे देवादिक पांच छीप श्रने ए छीपने नामेज देवादिक पांच समुख, ते प्रत्येके एकेका नामे , माटे एनो त्रिपत्ययावतार न थाय. अने ए श्रसंख्याता पण नथी. किंतु पांच नाम, द्वीप समुजनां एकेकांज में, एटले ए नामे बीजो कोहीप समुफ नथी, ए जावार्थ . ए पांचनां नाम कहे . एक देवदीप ने देवसमुफ, बीजो नागहीप ने नागसमुख,त्रीजो जदछीप अने जनसमुज, चोथो Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ संग्रहणीसूत्र. नूतछीप अने नूतसमुख, पांचमो स्वयंजुरमणछीपने स्वयंजुरमण समुज-ए पांचेनां नाम कह्यां. जेम आ जंबुद्धीपे जंबुवृद बे, सर्व रत्नमय जगती , ते पाठ योजन ऊंची बे. तेना विजय, विजयंत, जयंत ने अपराजित एवा चार नामे चार दरवाजाना देव . तेम बीजा जे असंख्याता जंबुनामे बीप, अने लवणनामे समुज, त्या सर्वत्र एज स्थिति जाणवी. ते जंबुद्वीपे था जंबुछीपना अणाढीया देवनी राजधानी बे. तेमज लवणसमुजना देवतानी ते लवणसमुखे राजधानी जे. एम बीजा छीप समुज्याश्री पण समजवू. ॥ ४ ॥ - ॥ हवे समस्त समुजोनां प्राणी तथा मत्सोनुं विशेष स्वरूप कहे .॥ वारुणिवर खीरवरो ॥ घयवर लवणोय हुँति निन्नरसा ॥ कालोय पुस्करो दहि॥ सयंजुरमणोय नदगरसा ॥५॥इस्कुरस सेस जलदी॥खवणे कालोय चरिम बहुमना ॥ पण सग दस जोयण सय ॥ तणु कमा थोव सेसेसु ॥ ६ ॥ - अर्थ-एक वारुणीवर समुज्नुं पाणी मदिरा सरखं, बीजा क्षीरसमुज्नुं पाणी ते त्रण नाग गौध अने चोथो नाग मिश्री, ए रीते मिश्रिमिश्रत दूध सरखं जाणवू. त्रीजा घृतवरसमुज्नुं पाणी गायना घृतथकी सुवादिष्ट, चोथा लवणसमुज्नुं लवण सरखं पाणी. ए चारे समुजनां पाणी ते निन्नरसा के जूदा जूदा स्वादनां हुंति के बे. एटले जेवू नाम तेवो परिणामे पाणीनो स्वाद जे. तथा एक कालोदधि, बीजो पुष्करवर, त्रीजो स्वयंजुरमण, ए त्रण उदहि के० समुज, तेनां पाणी खानाविक उदगरसा के मेघ जे वर्षाद तेना पाणी जेवा पालर पाणीनी माफक स्वादिष्ट बे. ॥ ५ ॥ श्रने सेस के बाकीना नंदीश्वरसमुज आदे देइने नूतसमुज पर्यंत सर्व समुजनां पाणी ते इकरस के० शेलमीना रस जेवां खादिष्ट बे. अहींयां तज, एलची, केसर अने मरी, ए चार जणश सरखे नागे लेश्ने तेनी साथे त्रणजाग अवटायां जे कुरस ते सरखं पाणी जाणवू. लवण, कालोदधि, अने चरिम के बेहो खयंजुरमण-ए त्रण समुजमा बहुमला के० घणा जातना मठ कछपादिक माबलांनी जाति जे; तेना पणसय के पांचवें अंने सग के सातसें दससय के एक हजार जोयण के० योजननां तणु के शरीर ले जेनां, एवा मठो बे. ते कमा के अनुक्रमे श्रावी रीते कडेवा. तेमां लवणसमुखमा उत्कृष्टा पांचसे योजनना शरीरवाला . कालोदधीमां उत्कृष्टा सातसें योजनना शरीरवाला . तथा स्वयंजुरमणमां हजार योजनना शरीरवाला . ए जोयण उत्से Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संग्रहणीसूत्र. ६५ धांगुलना माने जाणवा. अने सेसेसु के शेष बाकीना जे समुजबे, तेमां थोव के थोडा म . अने ते न्हाना पण . वली लवणसमुजमा सातकुलकोडीनी जाती , कालोदधीमां नव कुलकोडीनी जाती बे. अने स्वयंजुरमणमां साढीबार कुलकोमीनी जाती जे. ए परमार्थ श्रीजीवानिगमउपांगमा विस्तारपणे वखाएयो . ए रीते सविस्तरपणे छीप समुजनो अधिकार कह्यो. ॥ ६ ॥ ॥ हवे प्रति छीपे अने प्रति समुझे चंग सूर्यनी संख्या कहे. ॥ दो ससि दो रवि पढमे ॥ उगुणा लवणंमि धायई संडे ॥ बारस ससि बारस रवि॥ तप्पनि निदिह ससिरविणो ॥७॥ तिगुणा पुविन जुया ॥ अणंतरा एंतरंमिखित्तंमि ॥ कालों ए बायाला ॥ बिसत्तरी पुरकर इंमि ॥ ७ ॥ अर्थ- पढमे के पहेला जंबु छीपनेविषे बे चंजमा अने बे सूर्य . तथा लवणसमुज्ने विषे तेथी पुगुणा के बमणा करीए, एटले चार चंद्रमा अने चार सूर्य होय. तथा धातकीखमनेविषे बार चंडमा अने बार सूर्य तप्पनिर के तत्प्रभृति ते धातकीखंग प्रमुख तेहनेविषे निदिह के कह्या जे ससिरविणो के चंजमा अने सूर्य ते. हने ॥ ७६ ॥ तिगुणा के त्रण गुणा करीए तेवारे त्रीश थाय. तेनी साथे पुविल्लजुया के पूर्वना बे जंबुछीपना अने चार लवणसमुना मली व चंद्र युक्त करीए तेवारे बेतालीश चंडमा, तेमज बेतालीश सूर्य ते कालोदधि समुज्ने विष होय . एवी रीते श्रागला छीपसमुखोनेवीषे एज करण करीए तेवारे ते छीपमां चंछ सूयेनी संख्या श्रावे. ते श्रावी रीते जे पूर्वोक्त बेतालीशने त्रिगुणा करतां एकसोने बवीश थाय. तेमां धातकी खंमना बार, लवणसमुज्ना चार, अने जंबुझीपना बे. ए रीते अढार मेलवतां एकसोने चुमालीश चं अने एकसोने चुमालीश सूर्य ते पुकरवर छीपनेविषे डे, पण तेमां अडधुं मनुष्यत्र . माटे बहोतेर सूर्य अने बहोतेर चंजमा अहींयां मनुष्यदेवनी गणतीमां गणवा. माटे उपला पाठमा बिसत्तरी पुरकरकंमि एबुं कडं . अने पाडला अई पुष्करवर बीपमा जे बहोतेर चंड अने बहोतेर सूर्य जे ते स्थिर बे, पण चर नथी. समश्रेणीमां नथी माटे गएया नथी. ते पुष्करवरना एकसो चुमालीशने त्रिगुणा करतां चारसे बत्रीश थाय. तेमा पूर्वना बे जंबूहीपना, चार लवणसमुज्ना, बार धातकीखंडना, अने बेतालीश कालोदधिना मेलवतां चारसे ने बाणु चंड़ तथा चारसे ने बाणु सूर्य पुष्करवरसमुझे थाय . एम श्रागला छीप समुझे अनुक्रमे चंऽसूर्यनी संख्या करवातुं करण एज रीते Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संग्रहणीसूत्र. जाणवू. ते श्रीजिननगणि दामाश्रमणे महोटी संघयणीमां कडं , तथा ज्योतिष् करंगक पयन्नामध्ये अने चंदपन्नति तथा सूरपन्नति प्रमुखमांहे पण एज रीते कडं बे. __ अने केटलाक आचार्य एम कहे जे जे मनुष्यदेवमांहेज ए प्रकार बे, पण मनुष्यदेत्रथी बाहेरना छीप समुझे तो पचाश हजार योजन श्रागल गया एक चंडमा, अने फरी बीजा पचाश हजार योजन बागल गया एक सूर्य. ए रीते एक लाख योजन मध्ये एक चंजमा तथा एक सूर्य होय. ए रीते गणीत करतां मानुषोत्तरपर्वतने बाहेर वाटलो परिधि आठ लाख योजनना श्राप परिधि बे. त्यां पहेला परिधिए एकलो पिस्तालीश चंजमा अने एकसो पिस्तालीश सूर्य, अने बीजा परिधिए प्रत्येके चंद्रमा अने सूर्य ब ब वधारीएं तेवारे ( १५१) चंड (१५१) सूर्य थाय. त्रीजा परिधीए सात चंड अने सात सूर्य वधारीएं तेवारे ( १५७ ) चंड अने(१५७) सूर्य थाय, चोथी पंक्तिए उ वधारतां (१६४) थाय. पांचमीए वधारतां (१७०) थाय. बहीए सात वधारता (१७७) थाय. सातमीए वधारतां (१७३ ) थाय. थामीए ब वधारतां ( १ ) थाय. ए सर्व मली उत्तरार्धना बाहेरला पुष्करामध्ये ( १३३७) प्रत्येक चंडमा तथा सूर्य होय. ए दिगंबरनो मत बे, माटे ते श्रापणने प्रमाण नहीं. एम बीजे मते पण (१९६४) प्रत्येक चंझमा अने सूर्य होय; परंतु महोटी संघयणीसूत्रनी वृत्तिमध्ये तथा क्षेत्रसमासनेविषे “ तिगुणा पुविसजुया" एहज पद मान्योडे. त्यां जे कडं, मनुष्यदेवमां चंजमा सूर्य सूश्नी पेरे श्रेणी रह्या चार चरे बे. त्यां सूर्ये सूर्यने परस्पर चंडे चंड़ने परस्पर एकेक लाख योजन अंतर . ए रीते करतां जंबूटीपे तथा लवणसमुझे अंतर मले, परंतु धातकीखंडे चार लाख योजनमांहे एके दिशाए ब सूर्यनुं अंतर केम मले ? अने कालोदधि समुन श्राठ लाख योजन , तेमां एकवीश सूर्य एक दिशाए लाख लाख योजनने अंतरे केम मसे ? एमज पुष्कराः पण आठ लाख योजनमां एके दिशाए उत्रीश सूर्य केम संचवे ? तथा वलयाकारे परिधिना लाख योजन मानीए तो पूर्वनी रीते सूर्य तथा चंद्र घणा थाय. तेमाटे अहिं लेखक दोषे लाख योजन सूर्य सूर्यनुं मांहोमांहे अंतर लखाएं. ते उपर पूर्वाचार्य गतानुगतिके जेम दीवं तेम लख्यु, पण विचास्युं नहीं, माटे हमणां जेम विचारीए तेम मलतुं नथी. एम बीजा पण ग्रंथोमांहे घणा मत , ते गीतार्थे विचारी समजवा; परंतु समश्रेणीए लाख योजनने अंतरे मनुष्यलोकमांहे चंजमा सूर्य चार चरे , ए पाठ सर्वथा मलतो नथी माटे अनियत अंतरे समश्रेणीए पागंतर. ते माटे अंतरना निश्चयविना समश्रेणीए चंजमा सूर्य चर चारे . ॥ १७ ॥ ७ ॥ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संग्रहणीसूत्र. ॥ हवे मनुष्यलोकमां चंद्रमा सूर्यनी पंक्ति संख्या कहेते. ॥ दो ससि दोरवि पंती ॥ एगंतरिया बसठि संखाया ॥ मेरुं पयादिता ॥ माणुस खित्ते परिप्रडंति ॥ ७९ ॥ अर्थ- दोससि के० वे चंद्रमा अने दोरवि के० बे सूर्यनी पंती के० पंक्ति ते श्रेणी बे; ते एगंतरिया के० एकेकने अंतरेबे. एक यथाक्रमे एक सूर्यनी पंक्तिने अंतरे एक पंक्ति चंद्रमानी एम चंद्र पंक्तिने अंतरे सूर्यनी बे. ए रीते चार पंक्ति बे. ते एकेकी चंद्र पंक्तिए बस हिसंखाया के० बासठ चंद्रमा बे, छाने एकेकी सूर्य पंक्तिए area सूर्य बे; ते चारे पंक्ति जंबूद्वीपना मेरुपया हिता के० मेरुपर्वतने प्रदक्षिणा देती थकी माणुसखित्ते के० मनुष्य क्षेत्रने विषे परिाति के० प्ररिभ्रमण करे बे. एटले फरती रहे . एटले जंबूद्वीपना मेरुथकी एक सूर्य दक्षिण दिशाए चार चरे; तेवारे बीजो सूर्य उत्तर दिशाए चार चरे. तेमज लवणसमुनी एकेक दिशाए बेबे सूर्य चार चरे, धातकीना छ, कालोदधिना एकवीश, पुष्करार्द्धना बत्रीश. एम सर्व मली area सूर्य दक्षिण दिशाए छाने बासव उत्तर दिशाए. ए बेउ समश्रेणी सूर्यनी मये के एकसो बीश सूर्य, तेमज बासठ बासव चंद्रमानी वे पंक्ति मध्ये थके एकसो बत्रीश चंद्रमा मनुष्यलोकमांहे चार चरे ॥ ७९ ॥ ॥ हवे ग्रहनी पंक्ति मनुष्यक्षेत्रमां कहे . ॥ एवं गाइणोवि ॥ नवरं ध्रुव पासवत्तिणो तारा ॥ तं चिय पयादिता ॥ तचैव सया परिजमंति ॥ ८० ॥ ลง अर्थ एवं के० ए पूर्वोक्त सूर्य चंद्रनी पंक्तिनी परेज गहाइयोविदु के० प्रहादिक पण निचे जाणवा. एटले ग्रह तथा नक्षत्रनी पंक्ति जाणवी. ते यावीरीते के, एकेक चंद्रमानी पढवाडे अद्वाशी नक्षत्रनी एक पंक्ति एवी बासठ बासवनी बे पंक्ति मली एकसोने वत्रीश पंक्ति, श्रद्वाशी अहाशी नक्षत्रोनी चंद्रमानी पाउल जाणवी. तेमज अहावीश ग्रहनी एक पंक्ति, एवी बारावनी बे पंक्ति ते सर्व मेरु पांखति फरे बे, नवरं के० एटलुं विशेष जे, श्रीगणांगसूत्रने विषे जंबुद्वीपे चार दिशाए चार ध्रुवतारा बे. धुवपासवत्तिणो तारा के० ए ध्रुव ताराना पार्श्ववर्त्ति जे तारा बे, एटले ध्रुवता पासे जे बीज सत्तरिसादिकना तारा बे, ते तंचिय पयाहिणंता के० ते ध्रुवताराज प्रदक्षिणा फरता वर्त्ते, तब्बेवसया परिजमंति के० त्यांज सदा परिभ्रमण करे. हां प्रस्तावात अल्प वक्तव्यता जणी एक बात कहे बे के, चंद्रमा अने सूर्यनी साथे नक्षत्रोनी गति नियत बे; परंतु मंडल सदा अनवस्थित बे. केमके चं Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संग्रहणीसूत्र. अमा नीचो श्रने नक्षत्र उंचां बे; परंतु उपर नीचे करी संगातेज चार चरे जे. अ. ज्यंतरचारि अनिजित नदात्र ते बाहेर न होय, अने बाहेरचारि मूल नदात्र ते श्रज्यंतरचारि न होय. ते माटे नत्रनो मंगल ते चंद्र सूर्य अने ग्रह संगाते अनियतस्थिति योगीज होय. ॥ हवे जंबूछीपनेविषे चंजसूर्यना मांडलानी वक्तव्यता कहे . ॥ पन्नरस चूलसीइसयं ॥ इहससि रविमंडलाइं त्तकित्तं ॥ जो यण पण सयदसदिय ॥ नागा अडयाल गसहा ॥१॥ अर्थ-मंडल एटले एक सूर्य दक्षिण दिशिथी चाली उत्तर दिशाए श्रावे, अने बीजो उत्तर दिशिथी चाली दक्षिण दिशाए श्रावे, एक अहोरात्रे अर्ड मंडलदेत्र दक्षिण दिशिनो सूर्य अने अर्थ मंडलदेत्र उत्तर दिशिनो सूर्य जखंघे. बेज मत्या मंमलाकार थाय. तेमाटे एने मंडल कहीएं. मंडल, क्षेत्र जेटला क्षेत्रमा चंडमा सूर्य पोत पोतानां मंडल ज्रमण करे, ते देत्र पांचसे दश योजन उपर एक योजनना एकसठीया घडतालीश नाग बे, ते नीचे गाथाना अर्थमां लखे बे. पन्नरस के पंदर मांडला चंप्रमाना , श्रने चुलसीइसयं के० ( १७४) मांडला सूर्यना . इह के ए ससि रवि मंमलाइ के० चं सूर्यना मांडला तकित्तं के तेहनु क्षेत्र जंबुछीपने विषे जेटवू ने तेटर्बु कहे . जोयणपणसय दसहिय के० पांचसे दश योजन अने उपर एक योजनना गसहा के० एकसठीया नागा अभ्याल के अडतालीश नाग अधिक एटला क्षेत्रमा सर्व मामला . ॥१॥ ॥ हवे एनुं गणतीए परिमाण करे बे. ॥ तिसि गसहा चनरो ॥ ग ग सहस्स सत्त नश्यस्स ॥ पणतीसं च छ जोयण ॥ ससि रविणो मंडलं तरयं ॥२॥ अर्थ-एक योजनना गसग के एकशठ नाग करीये, तेवा तिसि के त्रीश नाग श्रने ग के एक गसठस्स के एकसठीथा नागना सत्तनश्यस्स के सात नाग करीएं, तेवा चूरणीया चजरो के चार नाग, अने पणतीसंच जोयण के पांत्रीश योजन उपर एटदुं ससि के चंद्रमाने मांडले मांडले अंतर . श्रने मुजोयण के० बे योजन- रविणो के सूर्यने मंडलं के मंमला मंडलाने अंतरयं के अंतर बे. तेहनी गणती श्रावी रीते बे, जे सूर्यना एकसो चोराशी मांडलाना एकसो त्र्यासी अंतरा , ते एकेका अंतरानुं परिमाण बे योजन , तेहने एकसो व्याशी गुणा करीए, तेवारे सर्व मलीत्रणसे बाश जोजन प्रांतराना थोय. वली सूर्यना Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संग्रहणीसूत्र. एकेका मंगलमा ( विमानतुं ) जाडपणुं जोजनना एकसठीया अडतालीश नागनुं बे, तेने एकसो चोराशी मांगले गुणीये तेवारे (३२ ) नाग थाय. तेहने (६१) जाग दीजे तेवारे ( १४४) योजन अने उपर एक योजनना एकसठीया अडतालीश जाग वधे, ते पूर्वोक्त आंतराना त्रणसें बासठ योजनमां नेलीये तेवारे सर्व मसी पांचसो दश योजन, अने एक योजनना एकसठीश्रा अमतालीश नाग उपर, एटवू सूर्यने चार चरवान; एटले विचरवानुं देत्र होय. ए सूर्यने विचरवाना देवनी गणती कही, तथा चंजमा अने सूर्य ए बेउना मामला मांडलानुं अंतर पण कडं. हवे चंप्रमाना मांडला पन्नर , तेना आंतरा चउद बे. ते एकेका मांडला- जा. डपणुं योजनना एकसठीया उपन्न नागनुं . तेवारे सर्व मली (४०) जाग थया, तेने एकसठे जाग आपीएं, तेवारे तेर योजन उपर एक योजनना एकसठीश्रा समतालीश जाग वधे; तथा पन्नर मांडलाना चउद श्रांतरा , ते एक मांडलाथी बीजा मांडलानुं अंतर पांत्रीश जोजन उपर एकसठीया त्रीश नाग, तथा एक एकसठीथा नागना सात नाग करीएं तेवा चार नाग. एटलं अंतरले. तेवा चउद आंतरा बे; तेमाटे श्रांतराना योजनने चउद गुणा करीएं तेवारे (ए) योजन उपर एकसठी एक नाग वध्यो, ते पूर्वोक्त पन्नरे मांडलाना जामपणानो तेर योजन अने एकसठीया सडतालीस नाग थाय. ए बन्ने साथे मेलवीए तेवारे पांचसो दश योजन अने एक योजनना एकसठीया अडतालीश नाग उपर थाय. एटबुं चंद्रमाना मंडलने विचरवार्नु क्षेत्र जाणवू. ॥ २ ॥ हवे ए चंछ सूर्यना केटला मामला जंबूछीपमां तथा केटला लवण समुअमां ने ? ते कहेले. मंडल दसगं लवणे ॥ पणगं निसढंमि दोश् चंदस्स ॥ मंडल अंतर माणं ॥ जाणपमाणं पुरा कहियं ॥७३ ॥ पणसही निसढंमिय ॥ उन्निय बाहा उजोयणं तरिया ॥ ईगुणवीसंतु सयं ॥ सूरस्सय मंडला लवणे ॥४॥ अर्थ-प्रथम चंडमाना दश मामला लवणसमुरुमां बे, अने पांच मांडला जंबूहीपमाहे निषधपर्वत उपर ले. ए रीते पन्नर मांडला, तेना अंतरनुं माणं के प्रमाण पांत्रीश योजन अने एकसठी त्रीश नाग अने चूर्णीया चार जाग उपर, तथा जाणपमाणं के विमाननुं प्रमाण ते जेम पुराकहियं के पूर्व बपन्न नागनुं कर्तुं बे, तेम जाणवू ॥३॥ अने सूर्यना निषधपर्वत उपरे पांसह मामला, तेमांकुन्निय के० बे मंमल बाहा के० निषध पर्वतने बाहेर हरिवर्षनी जीव्हाने अग्रजागे; ए रीते जं Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० संग्रदणीसूत्र. बूद्वीपमांहे सूर्यना पांसठ मांडला, ते महोटी संघयणीमांहे तथा ज्योतिष् करं क पयन्नामां मंगल विचार प्रकरणमांहे " बासठी निसिढं मिय तिन्निय बाहाए, एहवो पाठ परंतु यांकने वर्त्तारे तो " तेस प्रियनिसढंमी " ए पाठ मलेबे; ते गीतार्थे विचारी जो अने ( ११ ) सूर्यना मंडल लवणसमुद्रमादेवे. ते सर्व मंडलनुं परस्पर महोम जोरिया के० बे योजननुं अंतरबे ॥ ८४ ॥ ॥ दवे जंबूद्वीपमांहे चंद्रमा तथा सूर्यनुं चारक्षेत्र केटला योजन ? ॥ ॥ ने लवण समुद्रमहे केटला योजन ? ते प्रगट कहे. ॥ ससि रवि लवणंमिच्ा ॥ जोयण सय तिन्नि तीस दि याई ॥ सियं तु जोयण सयं ॥ जंबुद्दीवंमि पविसंति ॥ ८५ ॥ अर्थ-ससि के० चंद्रमा छाने रविणो के० सूर्यनुं चारक्षेत्र लवणं मित्र के० लवण समुद्रमां जोयणस्य तिन्नि के० त्रणसो योजन ने तीस के० त्रीश उपर होय. छाने पाढो वलतां सियंतुजोयणसयं के० एकसोने एंशी योजन ने एक योजना एकसया अडताली जागे अहियाई के० अधिक जंबुद्दीवंमि के० जंबूद्धीपमांहे पविसंति to प्रवेश करी सर्व अभ्यंतर मंडल करे. ए सर्व मली (५१० ) योजन छाने एक्स या (४०) जाग उपर थया. ते जंबूद्वीपथकी नीकलीने ( ३३० ) योजन लवण - समुद्रमांदे पेसे, पाठो वलतां ( १०० ) योजन जंबूद्वीपमांदे प्रवेश करी सर्वअभ्यंतर मांडला करे. "" छाने नक्षत्र तारानुं एकज मंडल. जे नक्षत्र जे मंडले चार करे, ते नक्षत्र तेहज मंगले फरे पण दक्षिणा उत्तरायन होय नही. ॥ ८५ ॥ ॥ हवे द्वीपसमुद्रमां ग्रह नक्षत्र अने तारानी संख्या जाणवामाटे उपाय कहे . ॥ गढ़ रिक तार संखं ॥ जबेच्छसि नाउ मुदहि दीवेवा ॥ तसस्ससिद्धि एग ससिणो ॥ गुणसंखं दोइ सवगं ॥ ८६ ॥ अर्थ- गढ़ के ग्रहनी रिस्क के० नक्षत्रनी, छाने तार के० तारानी संखं के० संख्या तेज के० जे उदहि के० उदधि एटले समुद्रनेविषे वा के० अथवा दीवे के० इी. पविषे नासि के० जाणवा इवीए एटले वांबीए, तस के० ते द्वीप समुझे जेटला ससिहि के० चंद्रमा होय तेटला मांडीने एगससिणो के० एक चंद्रमानो जेटला ग्रह, नक्षत्र, तारादिकनो परिवार बे, तेनीसाथे गुण के० गुणीए, तेवारे ग्रह, नक्षत्र, तथा तारानी संखं होइ सव्वगं के० सर्व संख्या यावे. उदाहरण - जेम लवणसमुद्रमां चार चंद्रमा बे; ते एकेका चंद्रमाने अाशी For Private Personal Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संग्रहणीसूत्र. अहाशी ग्रहनो परिवार बे, तेहने चार गुणा करीए तो (३५२ ) ग्रह थाय, एमज अहाविश नत्रने चार गुणा करीए तेवारे एकशोने बार नक्षत्र थाय. तेमज तारानी कोडाकोडी जेटली पूर्वे कही, तेहने चारगुणा करीए, तेवारे बे लाख कोडाकोमी समसठ हजार कोडाकोडी नवसे कोडा कोमी एटली तारानी संख्या होय. ए रीते सर्व छीपसमुज्ने विषे उपाय करतां जवं, तो ग्रह नक्षत्र अने तारानी संख्या श्रावे. ए रीते सर्व ज्योतिषीनी वक्तव्यता विस्तारपणे कही. ॥ ६॥ ॥हवे वैमानिकनी वात कहे. तेमां प्रथम एनां विमान कहेले.॥ बत्तीस हावीसा ॥ बारस अड चन विमाण लकाई॥ पन्नास चत्त ब सदस्स ॥ कमेण सोहम्ममाईसु ॥ ७ ॥ उसुसय चनसुसय तिग ॥ मिगारसदियं सयं तिगेदिहा ॥ मो सत्तुत्तर सय ॥ मुवरि तिगे सय मुवरि पंच ॥ ७ ॥ अर्थ- सौधर्मे बत्रीश लाख, ईशाने अहावीश लाख, सनत्कुमारे बार लाख, मा. हेडे आठ लाख, ब्रह्मदेवलोके चार लाख विमाण के विमान जाणवां. लरका के लाखनी संख्याए. लांतके पचाश हजार विमान, शुक्र देवलोके चत्त के० चालीश हजार, सहस्रारे ब हजार, सहस्स के हजारनी संख्याए. कमेण के० ए अनुक्रमे सोहम्माश्सु के सौधर्मादि देवलोकनेविषे विमाननी संख्या जाणवी. ॥ ॥ श्राणत तथा प्राणत ए उसु के बे देवलोकनेविषे सयचड के चारसे विमान, अने श्रारण तथा अच्चुत ए मुसु के बे देवलोके मली सयतिगं के त्रणसो विमान जाणवां. हेग्ला त्रण ग्रैवेयके गारसहियं के एकसो अगीयार विमान. मने के० वचला त्रण ग्रैवेयके सत्तुत्तरसयं के एकसो सात विमान, उवरितिगे के उपरना ए त्रण ग्रैवेयके सय के सो विमान बे. ने उवरि के उपरे पांच अनुत्तरविमाने पंच के पांच विमान बे. ॥ ७ ॥ ॥ पूर्वोक्त विमानोनी एकंदर संख्या तथा विमानादिकनुं स्वरूप कहे .॥ चुलसी लरक सत्ताणवश ॥ सहस्सा विमाण तेवीसं ॥ सबग्ग मुढ लोगंमि ॥ इंदया बिसहि पयरेसु ॥ नए ॥ अर्थ-चुलसी लरक के० चोराशीलाख सत्ताणव सहस्सा के० सत्ताणुहजार श्रने तेवीसं के त्रेवीश उपरे, एटला सबग्गं के० सर्वाग्र संख्याए जे. अने उढलोगंमि के० जर्वलोके जे बासठ प्रतर , तेहना मध्य नागनेविषे बासठे प्रतरे एकेकुं इंजक विमान बे. तेवारे बासठ प्रतरे बासठ इंधक विमान बे. ॥ ए॥ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संग्रहणीसूत्र. चनदिसि चनपंती ॥ बासह विमाणिया पढम पयरे ॥ न वरि शकिक हीणा ॥ अणुत्तरे जाव इकिकं ॥ ए० ॥ अर्थ-ते एकेका इंधक विमानथकी चारदिशाए बासठ बासठ विमाननी चार श्रेणी बे. अहींयां लावार्थ ए ले जे पहेलु नमुनामे इंधक विमान वाटर्बु जे. तेहनी चारदिशाए चार पंक्ति बासठ बासठ विमाननीनीकली. वलीबीजाप्रतरना बीजा इंडक विमानथीचारेदिशाए चारपंक्ति एकसठ एकसठ विमाननी नीकली. पनी ते उपरे प्रतरे प्रतरे चारे दिशिनी पंक्तिए पंक्तिए एकेकुं विमान हीणा के घटामतां, एम याव के यावत् सर्वार्थसिद्धे बासठमे प्रतरे एकेका विमाननी चार पंक्ति जाणवी. एटले त्यां चार दिशाए चार पंक्ति , अने एकेकी पंक्तिए एकेकुं विमान बे. ॥ ए० ॥ इंदय वहा पंतिसु॥ तो कमसो तंस चनरंसा वट्टा॥ विविदा पुप्फवकिन्ना ॥तयंतरे मुत्तुं पुवदिसिं ॥१॥ अर्थ-पंतिसु के० ते पंक्तिने विषे इंदय के इंजक विमान ले ते वहा के वाटलं.ने सर्वनी वचमां बे. तो के तेवार परी कमसो के अनुक्रमे श्रेणीविषे पहेला तंस के त्रिखूणां विमान बे, ते पड़ी चउरंसा के चोखूणां , ते पनी वली वट्टा के वाटलां बे. ए त्रण रीते पंक्तिगत विमान बे, अने नंदावर्त स्वस्तिकादिक विविहा पुप्फविकन्ना के विविध प्रकारना संस्थाने करी सहित पुष्पावकर्ण विमान दे, तयंतरि के ते पूर्वोक्त चार पंक्तिठना अंतरनी वच्चे ए पुष्पावकिर्ण विमान बे, ते मुत्त पुवदिसि के एक पूर्व दिशि मूकीने बाकीनी त्रण दिशिने विषे पुष्पावकिर्ण विमान बे. जेम रायणनां फूल बुटां विखेस्यां थका जेमतेम बुटां विखरे, ते रीते पुष्पाव किर्ण विमान लुटां . ॥ ए१ ॥ ॥ हवे पहेला प्रतरनी एकेकी पंक्तिनां बासठ बासठ विमान चारे दिशाए ॥ ॥ कीया कीया स्थानके बे ? ते कहे .॥ एगं देवे दीवे ॥ ज्वेय नागोदहीसु बोधये ॥ चत्तारि जकदीवे ॥ नूय समुद्देसु अहेव ॥ ए२॥ सोखस सयंजुरमणे ॥ दीवेसु पहिया य सुरजवणा ॥गतीसंच विमाणा ॥ सयंजुरमणे समुद्देय ॥ ए३ ॥ अर्थ- एगं के पहेला प्रतरतुं पहेलुं पंक्तिविमान ते देवेदीवे के देवछीपे , ते एकेकुं चारदिशाए, अने ज्वेयनागोदहीसु के बे विमान नागसमुप्रने विष बोधवे के जाणवा. तथा चत्तारिजरकदीवे के चार विमान जदछीपने विषे . वली नृय समुद्देसुअठेव के नूतसमुजनेविषे श्राप विमान . ॥ ए॥ अने सोल विमान Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संग्रहणीसूत्र. स्वयंजुरमण नामा छीपनेविषे पठियाय के प्रतिष्ठित एटले रह्यां बे. सुरजवणा के देवतानां जुवन. तथा गतीसंचविमाणा के एकत्रीश पंक्तिनां विमान ते स्वयंनुरमणसमुज्नेविषे . ए सर्व नेलां करीए तेवारे एक दिशाए एक श्रावलि एटले पं. क्तिमांदेला बासठ विमान होय. एम चारदिशाए बे. ॥ ए३॥ हवे चारे दिशाए बीजा प्रतरनां एकसठ विमानोनी समश्रेणी शी रीते ? ते कहे बे. वंह वढे स्सुवरि ॥ तंसं तंसस्स जवरिमं दो॥ चनरंसे चनरंसं॥ नर्सेतु विमाण सेढीए॥ ए४॥ अर्थ-वंहवस्सुवार के वाटला उपरे वाटवू विमान , श्रने तंसंतंसस्सउवरिमहो के० त्रिखूणाउपरे त्रिखूएं विमान होय, तथा चउरंसंचरंसे के चउखूणा उ. पर चउखूणुं विमान जे. एम उपराउपरे नटुंतुविमाणसेढीए के० ए ऊर्ध्वलोकने विषे विमाननी श्रेणी . ते माथकी एकेक घटामीए ते ज्यहां लगे बासठमे प्रतरे सर्वार्थसिके इंजक विमानथकी चारे दिशाए एकेकुं त्रिखूऍविमान देवकीप उपरे , त्यां लगे. सर्व प्रतरनेविषे चारे पंक्तिने मध्यनागे इंकविमान वाटला बे. त्यहां थकी चारे दिशाए विमाननी पंक्तिनेविषे अनुक्रमे त्रिखणां चार विमान, पबीचोखूणां चार विमान, पली वाटलाकारे चारे दिशिनां चार विमान, तेवार पडी वली त्रिखूणां,चजखूणां,वाटलां-एम करतां ज्यहां लगे श्रेणी पूरी थाय,त्यहांलगे अनुक्रमे कहे. "जे वाटलां विमान ते वलयाकार होय. अने संघोडाने आकारे त्रिखणां विमान बे; तथा नाटकना अखामा सरखा श्राकारे चोखूणां विमान जे. ॥ ए४ ॥ सवे वट्ट विमाणा ॥ एग ज्वारा हवंति नायबा ॥ तिमिय तंसविमाणे ॥ चत्तारिय हुँति चनरसे ॥ ए॥ अर्थ- सवेवट्ट विमाणा के० सर्व वाटलां विमाननेविषे एगवाराहवंति के एक एक बारणुं होय ते नायबा के जाणवा योग्य. तथा तिणियतंसविमाणा के० त्रिखूणां विमानने विषेत्रण त्रण दरवाजा होय अने चत्तारियहुँति चउरंसे के० चोखूणां विमा. ननेविषे चार चार दरवाजा होय. ॥ ए५ ॥ पागार परिस्कित्ता ॥ वहविमाणा हवंति सवेवि ॥ चनरंस विमाणाणं ॥ चनदिसिवेश्या होई॥ ए६॥ अर्थ- पागार के० प्राकार ते गढ - तेणे करी परिस्कित्ता के० परिक्षिप्त एटले विंट्या थका वट्टविमाणा के० वाटलां विमान हवंति के होय. सवेवि के सर्वने, अने चउरंस विमाणाणं के जे चतुरंस्त्र एटले चार खूणीयां विमान बे, तेहने चन Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ संग्रहणीसूत्र. हिसिं के चारेदिशिए वेश्या होइ के वेदिका होय. जे कांगरा विना गढ होय तेहने वेदिका कहीये. एटले समस्त वाटलां विमानने कांगरा सहित कोट होय. श्रने चोखूणीयां विमाननी चारे दिशाए कांगरा विना सादो कोट ले तेहने वेदिका कहीए.॥६॥ जत्तो वह विमाणा ॥ तत्तो तंसंस्स वेश्या दो॥ पागारो बोधवो ॥ अवसेसेहिं तु पासेसु ॥ ए॥ अर्थ- जत्तोवदृविमाणा के जे दिशिए वाटलां विमान होय, तत्तो के० ते दि. शाए तंसंस्स के त्रिखूणी विमानने वेश्याहो के वेदिका होय. श्रने अवसेसेहिं के बाकी सर्व पासेसु के बाजुनेविषे पागारो बोधवो के० प्राकार ते गढ जाएवो. त्रिखूणीयां विमाननी जे दिशाए वाटलां विमान डे, ते दिशाए कांगरा विनानो कोट बे, अने बीजी बेज दिशाए कांगरा सहित कोट बे. ॥ ए॥ आवलिय विमाणाणं ॥ अंतरं नियमसो असंखिजी संखिजमसंखिज॥ नणियं पुप्फावकिनाणं ॥ ए॥ अर्थ- श्रावलियविमाणाणं के श्रावलिकागत जे बासठे विमान , तेने विषे माहोमांहे अंतरं के अंतर नियमसो के निश्चयथकी असं खिजं के असंख्याता योजननु बे. अने संखिजामसं खिऊं के संख्याता योजन तथा असंख्याता योजन पण पुप्फाव किन्नाणं के पुष्पाव किर्ण विमान तेने अंतरो नणियं के कडं बे. एटले एक पूर्वदिशि टालीने त्रण दिशिनां पुष्पाव किर्ण विमान डे, तेहने परस्पर अंतर केटलाएकने तो संख्याता योजननु बे, अने केटलाएकने असंख्याता योजन- बे. अचंत सुरदि गंधा ॥ फासे नवणीय मय सुदफासा ॥ निचुजोयारम्मा ॥ सयंपदा ते विरायंति ॥ एए॥ अर्थ- हवे ते विमान अञ्चंत के अत्यंत सुरहिगंधा के सुरजिगंधमय बे, तथा फासे के० स्पर्श करी नवणीय के० माखणनी परे मज्य के मृड बे, एटले सुकुमाल बे. अने सुहफासा के सुखकारी ने स्पर्श जेहनो, वली निचलोया के० नित्यप्रते उद्योतवंत , रम्मा के मनोहर , सयपहा के० ते पोतानी प्रजा जे कांति तेणे करीने विरायंति के विराजमान .॥ एए॥ जे दकिणेण इंदा ॥ दाहिण आवली मुणेयवा ॥ जे पुण उत्तर इंदा॥ उत्तर आवली मुणे तेसिं ॥ १० ॥ अर्थ- जेदरिकणेण इंदा के जे दक्षिण दिशिए सौधर्मे तथा सनत्कुमारेछ , Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संग्रहणीसूत्र. तेहनां दाहिण के दक्षिण दिशिनी श्रावली के विमाननी श्रेणीनां विमान ते मुणेयवा के जाणवां. तथा जे पुण के० जे वली उत्तर के उत्तर दिशिना ईशाने तथा माहें ते उत्तर के उत्तरदिशिनां विमाननी श्रावली के० श्रेणी ते तेसिं के तेमनी मुणे के० जाणवी. ॥ १० ॥ पुत्रेण पत्रिमेणय ॥ साममा आवली मुणेयवा ॥जे पुण वह विमाणा॥ मनिल्ला दादिणल्लाणं ॥ २०१॥ अर्थ- पूर्व दिशि अने पश्चिम दिशिना विमाननी आवली के श्रेणी ते सौधर्म तथा ईशान ए बे इंडने सामला के सामान्यपणे साधारण सरखी जाणवी. तथा जे पुण के० जे वली वदृविमाणा के वाटलां विमान मनिन के मध्य नागने विष बे, ते दाहिणवाणं के दक्षिण दिशिना सौधर्मेजना जाणवां. ॥ १०१॥ पुण पत्रिमेणय ॥ जेवहा तेवि दाहिणिलस्स ॥ तंस चनरंसगा पुण ॥साममा हुँति एहंपि ॥१०॥ अर्थ- पूर्वदिशि अने पश्चिमदिशिनां विमाननी श्रेणीने विषे जेवहा के जेटला वाटलां विमान बे, तेवि दाहिणिबस्स के० ते पण दक्षिणदिशिना सौधर्मेजना . श्रने जे तंस के त्रिखूणीयां अने चउरंसगा के चोखूणां विमान , ते पुण के वली सामना के सामान्यपणे कुएईपि के निश्चेथकी सौधर्म तथा ईशान मली बेउ इंजना हुँति के जे. एटले तेहना बेल इंश अर्को थर्ड धणी जाणवा. ॥ १० ॥ ॥हवे प्रतिदेवलोके श्रेणीनां विमाननी संख्या श्राणवा माटे उपाय कहे जे.॥ पढमं तिम पयरावलि ॥ विमाण मुह नूमि तस्समासई॥ पयर गुणमिह कप्पे ॥ सवग्गं पुप्फकन्नियरे ॥ १०३ ॥ अर्थ-सौधर्म अने ईशानादिदेवलोक क्रमे पढम के पहेला प्रतरनी श्रावली के० पंक्तिनी विमानसंख्या मुह के मुख कहीएं. श्रने अंतिम के बेहा प्रतरनी आवलीना विमाननी संख्या नूमि कहीएं. तस्स के० ते मुख अने नूमिना विमानोने ए. कां करीए तस के तेने समास कहीएं. तेनुं अकं के अर्क करीएं. पली श्व के० इष्ट जे वांबितदेवलोक, तेना जेटला पयर के प्रतर होय, तेटले प्रतरे गुणं के० गुणीए तेवारे ते वांबित कप्प के देवलोके श्रावलीका विमानोनी सवग्गं के० सर्व संख्या लाने. उदाहरण-जेम सौधर्म तथा ईशान ए बेज देवलोकनेविषे मुख (श्वए) वि. मान, अने बसें एक नूमी, ए बे एकगं करीएं तेवारे (४५०) थाय. एहनु थर्ड Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संग्रहणीसूत्र. करीएं तेवारे बसो पचीश थाय. तेने ए बेज देवलोकना पोताना तेर प्रतरे गुणीएं तेवारे सौधर्म तथा ईशाननां विमाननी श्रेणीनी सर्वाग्र संख्या ( शए५) थाय. हवे ए बेउ देवलोकनां सर्व मली साउलाख विमान बे; तेमांहेथी (शएश्५) श्रेणीनां विमान काढीएं तेवारे ( एएएJ०७५ ) एटलां पुष्पाव किर्ण विमानो पबवाडे रहे. ए रीते आगला देवलोके पण विचारणा करवी. ए रीते मुख, नूमि तथा समा. सादि करणना उपाय जाणवा. ॥ १०३ ॥ ॥ हवे कीया देवलोके, कीया प्रतरे, केई पंक्तिए, केटलां त्रिखूणां विमान, केटलां चन. खूणां, केटलां वाटलां विमान होय ? तेनी संख्या करवा सारु उपाय कहे . ॥ गदिसि पंति विमाणा॥ तिविनत्ता तंस चनरंसा वहा ॥ तंसेसु सेस मेगं ॥ खिवसेस उगस्स शकिकं ॥ १०४॥ तंसेसु चरंसेसुय तो रासि तिगंपि चनगुणं कान ॥ वहेसु इंदयं खिव ॥ पयरधणं मीलियं कप्पे ॥ १०५॥ श्रर्थ-वांच्या देवलोके वांज्या प्रतरनी एक दिशिनी पंक्तिनां जेटलां विमान होय तेने तिविजत्ता के त्रण नागे वहेंचीएं, तेवारे अनुक्रमे तंस के त्रिखूणां, यने चउरंसा के चारखूणां, तथा वहा के० वाटलां एवा त्रण नाग थाय. ए रीते करता सेसमेगं के शेष जो एक वधे तो तंस के० त्रिखूणांमांहे खिवसेस के नेलीएं, अने जो पुगस्स के बे वधे तो शकिकं के एकेको नेलीएं ॥ १०४ ॥ एटले एक त्रिखूणामांदे नेलीएं, अने बीजो चारखूणामांहे नेलीएं, तेवारे एक दिशिनां त्रि. खूणां, चारखूणां, अने वाटलां विमाननी संख्या थाय. तो के तेवार पबी ए रासितिगंपि के त्रण राशी मांदेली एकेकी राशीने प्रत्येके चगुणं काउ के चारगुणां करीने पढी वट्टेसु के वाटलां विमानमांहे इंदयंखिव के एक इंधक विमान नाखीएं, तेवारे वांबित पयर के प्रतरने विषे धणं के० त्रिखूणां, चोखूणां अने वाटलां विमान-तेउनी संख्या थाय. सर्व प्रतरतुं धन तेर श्रादि प्रतरनी विमान संख्याने एकठी मिलियं के मेलवीएं तेवारे कप्पे के० सौधर्म ईशानादिक वांडीत देवलोके सर्व धन होय. सर्व विमानोनी संख्या थायः ॥ १०५॥ उदाहरण-जेम सौधर्म तथा ईशान देवलोकना पेहेला प्रतरे एकदिशिए बासठ विमान बे. ते त्रण नागे वहेंचीएं, तेवारे एकेका जागे वीश वीश आवे; बाकी बे वधे, तेमांहेलो एक त्रिखूणामांहे नेलीएं, बीजो चौखूणामांहे नेलीएं तेवारे एकवीश त्रिखूणां थाय, एकवीश चोखूणां थाय अने वीश वाटलां थाय. Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संग्रहणीसूत्र. पी ए त्रण राशीनां बासव विमानने चौगुणां करीने वाटलांमांहे एक इंडक विमान जेलीएं, तेवारे पहेला प्रतरनी चार दिशिनी चारे पंक्तिए मलीने चोराशी त्रिखूणां, तथा चोराशी चारखूणां अने एक्याशी वाटलां - सर्व मली बसें ने उगणपचाश थाय. एमज बीजे प्रतरे एक दिशिए एकसठ विमाननी पंक्ति बे, तेना त्रण जाग क रतां वीश वीश खावे, छाने उपर एक वधे ते त्रिखूणामांहे जेलीएं, पढी ए त्रणे राशीने चार गुणां करीएं, तेमांदे एक इंद्रक विमान वाटलांमांहे नेलीएं, तेवारे बीजे प्रतरे चोराशी विमान त्रिखूणां ने एंसी चारखूणां तथा एक्याशी वाटला मली ( २४५ ) थयां, एम सर्व प्रतरे प्रतरे जावना करीएं; तेवारे तेरमा बेल्ला प्रतरे (२०१) थाय. ए सर्व तेर प्रतरना विमानोनी एकंदर संख्या ( ए८० ) त्रिखूषां, ( ए92 ) चौखूri, (६५) वाटलां मली (२०१५) थाय. बीजा देवलोके पण एज रीते जावना करवी. तथा सौधर्म अने ईशान ए बेट मल्यां थकां वलयाकार बे. तेमांहे & सौधर्मेंद्रनां घने ईशानेंद्रनां, एम एक वलयां बे इंद्र बे. त्यां मध्यजागे तेर इंद्रक विमान बे. तेमांहे तेरमा प्रतरे सौधनुं सौधर्मावतंसकनामा इंद्रकविमान बे. त्यांथी उत्तर दिशाए असंख्याती कोमाकोमी योजन जाइएं; त्यां ईशानेंद्रनुं इंद्रकविमान े. पूर्वनी तथा पश्चिमनी श्रेणीमांहेलां जे वाटला विमान वे ते सौधर्मेंद्रना जाणवां ने त्रिखूणां तथा चौखूणां विमान जेटलांबे, ते सर्व बेज इंद्रनां द्ध अर्द्ध जावां ते प्रथम कह्यां वे. ॥ हवे सौधर्मेंद्रनां वाटलां, तथा त्रिखूणां, छाने चौखूणां केटलां विमान बे ? तथा ईशानेंद्रनां केटला विमान बे ? तथा पुष्पावकि केटलां विमान बे ? ते जुदांजुदां प्रत्येके प्रत्येके महोटी संघयणीनी गाथाए करी कहे . ॥ सत्त सय सत्तवीसा ॥ चत्तारि सयाय हुंति चडणडया ॥ चत्तारिय बासीया ॥ सोहम्मे हुंतिहाइ ॥ १०६ ॥ अर्थ- सौधर्म देवलोके सातसें ने सत्तावीस वाटलां विमान बे, घने चार चोराणुं त्रिखूणां विमान, तथा चारसें ब्याशी चजखूणां विमान. ए सर्व मली सत्तरसो सात विमान पंक्ति एटले श्रेणीनां बे. तथा ( ३१०८२०३ ) एटलां पुष्पाव किर्ण विमानबे, ए ते सर्व मली बत्रीशलाख विमान सौधर्मदेवलोके जाणवां ॥१०६ ॥ एमेवयईसाणे || नवरं वट्टा होइ नाणत्तं ॥ GG दोस हत्तीसा ॥ सेसा जद चैव सोहम्मे ॥ १०७ ॥ अर्थ - ईशान देवलोके एटलुं विशेष जे वाटलां विमान बसो श्रमत्रीश बे, सेसा Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ IG संग्रहणीसूत्र. के शेष एटले बाकी जहचेवसोहम्मे के जेम सौधर्मेऽनां त्रिखूणां विमान (ए४) तथा चोखूणां विमान (४६), तेटलां ईशान देवलोकमां पण बे. ए सर्व मयां थकां बारसो अढार पंक्ति विमान ईशानदेवलोके बे. अने (ए ) एटलां पुपावकिर्ण विमान बे, सर्व मली अहावीश लाख विमान ईशानदेवलोक मध्ये बे. तथा सनत्कुमार अने माहेंज मली वलयरूप थाय त्यां पण सनत्कुमारे (५२५) वाटलां विमान, (३५६ ) त्रिखूणां विमान अने (३४०) चोखूणां विमान मली (१९२६) पंक्तिविमान श्रने ( ११ए७४) एटलां पुष्पावकिर्ण विमान. सर्व मली बारलाख वि. मान ले. माहें ( १७० ) वाटलां, (३५६) त्रिखूणां, (३४७) चौखूणां. एम सर्व मली (४) पंक्ति विमान, तथा (एए१२६ ) पुष्पावतंसक विमान मली थाउलाख विमान. एम बीजा सर्व देवलोकनां विमाननी संख्या यंत्रथी जाणवी. पंक्तिनां विमान विमानने माहोमांहे असंख्याता योजननुं अंतर . अने पुष्पाव किर्ण विमाननुं मांहोमांहे संख्याता योजन, तथा कोश्कनुं असंख्याता योजन- अंतर . ॥ १० ॥ हवे लोकांतिक देव कीया देवलोके अने कीया विमाने वसे बे ? ते श्रहीयां प्रसंगागत कहे . या जंबूहीपथकी तिरबा असंख्याता दीपसमुख उद्धंघीएं तेवारे अरुणवरनामा छीपावे. ते छीपनी वेदिकाना बेडाश्री अरुणवरनामा.समुपनीमांदे बेतालीश हजार योजन जाएं, त्यां पाणीना उपरना तलीयाथी उंचो अपकायमयमहांधकाररूप तमस्काय नीकट्यो बे, ते अगीयारसो योजन सुधी नीत सरखो थश्ने पनी तिरडग विस्तार पामतो पामतो सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, महेंद्र - ए चार देवलोकने थावरी उंचो ब्रह्म देवलोके अरिष्टनामा त्रीजे प्रतरे जई रह्यो, ए तमस्काय नीचे जीतने श्राकारे, शरावलाना तलीयाने आकारे , अने उपर, कूकमाना पांजराने श्राकारे, तेहन संस्थान ने. ते धुरथी संख्याता योजन ऊंचो . नीचे विस्तारे संख्याता योजन, त्यांथी पागल विस्तारे असंख्याता योजन प्रमाण, अहीयांथी असंख्यातमे छीपसमुझे ए तमस्काय उठ्यो, माटे ए तमस्कायनो परिधी असंख्याता योजन प्रमाण जाणवो. ए तमस्कायर्नु महत्वपणुं गीतार्थ एम कहे जे के, कोश्क महर्डिक देवता त्रण चपटी वगामीएं एटला वखतमां एकवीश वार जंबूहीपने प्रदक्षिणा करी थावे, तेहज देवता महीने तमस्कायने संख्याता योजन विस्तारे उलंघे, परंतु उपरे असंख्याता योजन विस्तारे तमस्कायनी जगतिने उलंघे नहीं. हवे ए अरिष्टनामा पांचमा देवलोकनो त्रीजो प्रतर, त्यां अरिष्टविमानने चारे दिशिए सचित्त अचित्त पृथ्वीमय बे बे कलराजी बे; ते देखाडे बे. तेमां उत्तर दिशिनी Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संग्रदणीसूत्र. ୩୯ बेमराज पूर्वपश्चिम दिशाए लांबी डे. अने दक्षिणदिशिनी बे कृमराजी पण पूर्वपश्चिम दिशा लांबी बे. त्यां बेन कुमराजी मांदे ( १ ) पूर्व दिशिनी अभ्यंतर कृमराजी, ते दक्षिण दिशिनी बाहेरनी कुमराजीने फरसे. एमज ( २ ) दक्षिण दिशिनी अभ्यंतर कृमराजी ते पश्चिम दिशिनी बाहेरनी कृमराजीने फरसे. तथा (३) पश्चिमनी अभ्यंतर कुमरोजी ते उत्तरनी बाह्यकुमराजीने फरसे. छाने (४) उत्तरनी अभ्यंतर कृमराजी पूर्वदिशिनी बाह्य कृतराजीने फरसे. ए रीते नाटकना खामाने श्राकारे चारे दिशिनी व कुमराजी बे, तेनी स्थापना करी बे. त्यां पीबानी लेजो. ॥ हवे ए कुमराजीना खूणा कहे बे. ॥ वापरा बलंसा ॥ तंसापु दाहिणुत्तरा बन ॥ अप्रिंतर चरंसा ॥ सधाविय करहराइ ॥ १०८ ॥ अर्थ- पूर्वदिशि ने पश्चिमदिशिनी बाहेरनी कृमराजीना बलंसा के० व खूपा बे. दक्षिणाने उत्तर दिशिनी बाहेरनी कृमराजी त्रिखूणी बे, घने मांहेली चारे कृमराजी चडखूणी बे. ए प्राठे कृमराजी जामपणे संख्यातायोजन तथा लांबपणे पाखति फरति संख्याता हजार योजन. ए कृमराजीनो विचार श्रीजगवतिसूमां जगवाने वखायो बे. ए आठे कृमराजीना आठ यांतरा बे; त्यां श्राव विमान बे, ते कहे बे. ब्रह्मलोकनामा पांचमुं देवलोक, तेने समीपे वसे तेने लोकांतिक कहीएं. अथवा नवमं रिष्टनामा कृमराजीना वचमांना मध्यजागनुं विमान ते विमानना देवता ते एकावतारी बे, माटे लोकशब्दे संसारने ते थया. तेथी एनुं लोकांतिक एहं नाम कहीएं, छाने बीजा व विमानना देवता एकांते एकावतारी न होय, पण नवमा विमानना देवता एकांते एकावतारीज होय. ॥ १०८ ॥ दवे उत्तराने पूर्वी अभ्यंतर कृमराजीना मध्यजागे अर्चि विमान बे, त्यां सारस्वत नामे लोकांतिक देवता वसे बे. तेने सातसो देवतानो परिवार बे. अभ्यंतर बाह्य पूर्वदिशिनी कृक्षराजीने मध्यजागे श्रर्चिमालिनामा विमान बे. त्यां श्रा दित्य नामे देव वसे बे. तेनो सातसो देवतानो परिवार बे. अने पूर्व ने दक्षिणनी अभ्यंतर कृमराजीने मध्यमागे वैरोचन विमाने वन्हिनामे देवता वसे बे. तेने चउद सहस्र देवतानो परिवार बे. तथा अन्यंतर छाने बाह्य दक्षिण दिशिनी कृमराजीना मध्या कर विमाने वरुणनामे देव, तेने चउदसहस्र देवतानो परिवार बे. तथा दक्षिण पश्चिम अभ्यंतर कृमराजीना मध्यमागे चंद्रान विमाने गर्दतोय नामे देव, तेने सात सहस्र देवतानो परिवार बे ने पश्चिमदिशिनी अभ्यंतराने बाह्य कुराजीनी वचमां सूर्याजविमाने तुषितनामे देवता सात सहस्र देवताना परिवारे For Private Personal Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Go संग्रहणीसूत्र. वसे . वली पश्चिम अने उत्तरनी अत्यंतर कृक्षराजीनी वचमां शुक्रान विमाने श्रव्याबाध देवता नवसो देवताना परिवारे वसे . अच्यंतर बाह्य उत्तरदिशिनी कृसराजीनी वचमां सुप्रतिष्टाजविमाने अग्नेयदेव वसे . तेने नवसें देवनो परिवार बे. अने ए समस्त कृलराजीना मध्य नागे रिष्टानविमाने रिष्टालनामे देव बीजा नवसें देवताना परिवार वसे बे. ए नवे विमाने देवतार्नु थायुष्य था सागरोपम . अने ए नवे विमान पांचमा देवलोकने बेडे . ए विमान थकी असंख्याता हजार योजन बेटे लोकांतिक बे. तेवार पड़ी अलोक बे. एटली वात संघयणीना मूलपाठ थकी अधिक वखाणी. ॥ १०७ ॥ ॥ हवे दश वैमानिक इंडोना सामानिक देवता तथा आत्मरक्षकदेवता, कहे .॥ चुलसी असि बावत्तरि ॥ सत्तरि सहीय पन्न चत्ताला ॥तुल्ल सुर तीस वीसा॥ दससहस्स आय रक चनगुणिया ॥१०॥ अर्थ-तुझसुर मध्यस्थपद दशे स्थानके जोमीएं. त्यां सौधर्मेंना सामानिक देव चोराशी हजार जाणवा, ईशानेजना एंसी हजार, सनत्कुमारजना बहोतेर हजार, माहेंजना सित्तर हजार,ब्रह्मेऽना साठ हजार,लांतकेंना पचास हजार, महाशुक्रंजना चालीश हजार, सहस्रारेंजनात्रीश हजार, आणत प्राणतेजना वीश हजार, थारण श्रच्युतेंडना दश हजार. ए सामानिक देवथकी पायरक के आत्मरक्षक देव ते चनगुणिया के प्रत्येक इंजना चार गुणा होय; तेवारे त्रण लाख ने बत्रीश हजार आत्मरदक देव सौधर्मेजना जाणवा. एम सर्वत्र चोगुणा करवा. ॥ १० ॥ ॥ हवे ए सौधर्मादिक बार देवलोकना देवोनां चिन्ह कहे .॥ कप्पेसुय मिय महिसो ॥ वराद सीदाय उगल सालूरा ॥ दय गय जुयंग खग्गी ॥वसदा विडिमाइं चिंधाई॥११॥ अर्थ-कप्पेसुय के देवलोकने विषे सौधर्म देवलोके मिय के मृगर्नु चिन्ह . अने इंशाने महिसो के पामार्नु चिन्ह जे. सनत्कुमारे वराह के सूअरनुं चिन्ह . माहेंडे सीहाय के सिंहनु चिन्ह . ब्रह्मदेवलोके बगल के बोकमार्नु चिन्ह . लांतके सालुरा के देमकानुं चिन्ह . शुक्रे हय के घोडानु चिन्ह . सहस्रारे गय के हाथीन चिन्ह . आणते जुयंग के० सर्पनुं चिन्ह बे, प्राणते खग्गी के गेंडानुं चिन्ह जे. श्रारणे वसहा के वृषन- चिन्ह . अच्युते विडिमाई चिंधाई के मृग विशेष जाति आदे देईने चिन्ह जाणवां. केमके देशी नाममालामांहे विडिमशब्दे मृग कयु , ए चिन्ह सर्व मुकुटनेविषे होय. ए चिन्हे करी देवताना देवलोक उसखाय जे आ देवता अमुक देवलोकनो बे. उववाश् प्रमुख सूत्रे तथा वृत्तिए दशे Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संग्रहणीसूत्र. इंजनां चिन्ह कयां बे, दशे इंछ विमाने बेशी जगवंतने वांदवाने अर्थ श्राव्या वखाण्या . अहींयां तत्व केवली जाणे. ॥ १०॥ ॥ हवे ए उपरनां विमान कोने आधारे रयां ले ? ते कहे .॥ उसु तिसु तिसु कप्पेसु ॥ घणुदहि घणवाय तनयं च कमा ॥ सुरनवण पहाणं ॥ आगास पाठिया जवरिं ॥ ११ ॥ अर्थ-उसु के सौधर्म अने ईशान ए बे देवलोकने घणुदहि के शीतकाले थी' पाणी होय, तेवं जगत् खन्नावे जाम्युं पाणी हाले चाले नहीं. तेवा पाणी जपरे रह्यां विमान वणसे नही, तेमाटे बे देवलोके घणोदधि आधार बे. अनेत्रीजो चोथो तथा पांचमो ए तिसुकप्पेसु के त्रण देवलोकनेविषे घणवाय के० धनवातनो आधार बे, घनवात ते श्रीणो वायु एटले जाम्यो वायु. ते पण स्वजावे हाले चाले नहीं. वली के सातमे अने बाग्मे ए, तिसुकप्पेसु के त्रण देवलोकनेविषे तानयं के घनोदधी अने घनवात ए बन्नेनो आधार डे. कमा के० ए अनुक्रमे आधार जाणवा. ए थकी आगलना देवलोकनेविषे जे सुरजवणपश्ठाणं के देवनां विमान प्रतिष्ठित एटले रह्यां . ते केवल आगासपठिया उवार के आकाशने आधारे प्र. तिष्ठित एटले रह्यांबे, ते आकाश पण श्रीजाण. ॥ ११९ ॥ ॥ हवे जे पृथिवी उपर विमान रह्यां , ते पृथिवीनो पिंम अने पृथिवी॥ ॥ उपर विमान, उंचपणुं त्रण गाथाए करी ग्रंथकार कहे . ॥ सत्तावीस सयाई ॥ पुढवी पिंडो विमाण उच्चत्तं ॥ पंचसया कप्प उगे ॥ पढमे तत्तोय इकिकं ॥ १२॥ दायश् पुढवीसु सयं ॥ वढनवणेसु 5 कप्पेसु ॥ चनगे नवगे पणगे। तदेव जाणुत्तरे सुन्नवे ॥ ११३ ॥ गवीस सया पुढवी ॥ विमाण मिकार सेवय सयाई ॥ बत्तीस जोयण सया ॥ मिलिया सबब नायबा ॥ १२४ ॥ अर्थ-सत्तावीस सयाई के० सत्तावीसो योजननो प्रमाणांगुले पुढवीपिंको के पुथ्वीनो पिंड जामपणे, अने विमाणउच्चत्तं के० विमान, उंचपणुं पंचासया के पांचसें योजननु, ते पढमे के० पदेला कप्पफुगे के बे देवलोके . तत्तोय के तेवार पली शकिकं के एकेकसो योजन ॥ १९ ॥ पुढवीसु के पृथ्वीना दलमांदेथी हाय केन' जंग करता जश्एं. अने नवणेसु के० विमानने विषे, सयंवद्वसु के सोसो योजन वधारता जश्एं. ए रीते 3 के त्रीजो अने चोयो ए बे, तथा वली के पांचमो ។។ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संग्रहणी सूत्र. बोए बे, फरी डु के० सातमो ने आठमो ए वे छाने च के० नवमो, दशमो, अगीयारमो ने बारमो ए चारेनी एक रीत तथा नवगे के० नव ग्रैवेयक तदेव के० तेमज जा के० यावत् पणगे के पांच अणुत्तरे सुजवे के० अनुत्तरविमानने विषे होय ॥ ११३ ॥ इगवीससया के० एकवीशसो योजन पुढवी के० पृथ्वीनो पिंग होय, ने विमाणं के० विमान ते इक्कारसेवय सयाई के० अगीयारसो योजन विमाननुं उंचपणं होय. ए रीते पृथ्वीपिंग तथा विमाननुं उंचपणुं मिलिया के० मलीने सब के सर्वत्र ते बत्तीस जोयण सया के० बत्रीशसो योजन ते नायव्वा के० जाणवा. ॥ ११४ ॥ ते श्रावी रीते - पहेले अने बीजे देवलोके ( 2300 ) योजन पृथ्वी पिंड, अने ( ५०० ) योजन विमान उंचपणे; त्रीजे अने चोथे देवलोके ( २६०० ) योजन पृथ्वी पिंड, छाने ( ६०० ) योजन विमाननी उंचाइ; पांच श्र देवलोके ( २५०० ) योजन पृथ्वीपिंग अने ( 300 ) योजन विमाननुं उंचपणं; सात ने श्रमे देवलोके ( २४०० ) योजन पृथ्वीपिंग ने (८०० ) योजन वि माननुं उंचपणुं; नवमे, दशमे, अगीयारमे अने बारमे ए चार देवलोके ( २३०० ) योजन पृथ्वी पिंडाने ( ए०० ) योजन विमाननुं उंचपणुं; नवग्रैवेयके ( २२०० ) योजन पृथ्वी पिंड ने ( १००० ) योजन विमाननुं उंचपणुं पांच अनुत्तर विमाने ( २१०० ) योजन पृथ्वीपिंग अने ( ११०० ) योजन विमाननुं उंचपणं. सर्व पृथ्वी पिंना योजन तथा विमानना उंचपणाना योजन मेला: करीएं तेवारे बत्री योजन थाय. 2 G‍ ॥ हवे सौधर्मादिक विमानना वर्ण तथा त्यांना पण चति डुवम विमाण ॥ सधय सु जवरि सिय जवण वंतर ॥ जोइसियाणं अर्थ- सहस्रारनामा आठमा देवलोक सुधी गणतां वे बे देवलोके अनुक्रमे पांच, चार, चार, अने बे वर्णनां विमान बे. ते श्रावी रीते जे सौधर्म तथा ईशान देवलोके साय के० ध्वजासहित पण के० पांचे वर्णनां विमान बे घने सनत्कुमार तथा महेंद्रे एक कालो वर्ण वर्जीने बाकी चड के चार वर्णनां विमान बे. ब्रह्म तथा लांतक एबे देवलोके कालो तथा नीलो ए वे वर्ण वर्जीने बाकी ति के० त्रण वर्णनां विमान बे. तथा शुक्र छाने सहस्रारे कालो, नीलो, घने रातो ए त्रण वर्ण वर्जीने बाकी डुवस के० वे वर्णनां विमान बे. त्यांथी उपरना आणतादिक चार दे लोक तथा नव ग्रैवेयक ने पांच अनुत्तर विमान सुधी सिय के० श्वेत एटले धोला देवोना वर्ण कहे . ॥ सुय जा सदस्सारो ॥ विविद वा ॥ ११५ ॥ For Private Personal Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संग्रहणीसूत्र. वर्णनां जवण के० विमान बे, जेवो विमाननो वर्ण तेवोज ध्वजानो वर्ण सर्वत्र जा वो. वली जुवनपतिनां नवन, अने व्यंतरनां नगर तथा ज्योतषीनां विमान ते विविहवाला के विविध प्रकारना वर्णनां जे. एटले कोश कालां, को पीलां, को रातां, को नीलां, कोश् श्वेत वर्णनां जाणवां. ए रीते विमानिकने अधिकारे जुवनपति प्र. मुखना नगरादिकना पण वर्ण कह्या. ॥ ११५ ॥ ॥ हवे सौधर्मादिक विमान, लांबपणुं, पहोलपणुं, विमान मांहेलो परिधि ॥ ॥अने बाहेरनो परिधि मापवानो विधि कहे .॥ रविणो उदय बंतर ॥ चनणव सहस्स पणसय ग्वीसा ॥ बायाल सठि नागा॥ ककड संकंति दियहंमि ॥ १२६ ॥ एयंमि पुणो गुणिए ॥ ति पंच सग नवय होइ कममाणं ॥ तिगुणमिय दोलका ॥ तेसी सहस्स पंच सया ॥ ११७ ॥ असिई सति नागा ॥ जोयण चन लरक बिसतरि सहस्सा ॥ बच्चसया तेत्तीसा ॥ तीस कलायंच गुणियमि ॥ १२७ ॥ सत्त गुणे ब लरका ॥ गसठि सहस्स उसय गसीया ॥ चनपन्न कला तद नव ॥ गुणमि अमलरक सहा॥११॥ सत्त सया चत्ताला॥ अहारस कलाय श्य कमा चउरो ॥ चंडा चवला जयणा ॥ वेगाय तदा गई चनरो ॥ १० ॥ श्चय गई चनबिं ॥ जय णयरिं नाम केइ मन्नंति ॥ एहिं कमेहिं मिमादि ॥ गईदिं चजरो सुरा कमसो ॥ ११ ॥ विस्कंन आयामं ॥ परिहिं अग्नितरंच बाहिरियं ॥ जुगवं मिणंति बम्मास ॥ जाव न तदावि तेपारं ॥ १२ ॥ पावंति विमाणाणं ॥ केसिंपितु अहव तिगुणयाईए ॥ कम चनगे पत्तेयं ॥ चंडाई गईन जोश्जा ॥ १२३ ॥ तिगुणेण कप्प चनगे ॥ पंच गुणेणंतु अह सुमुणिजा ॥ गेविले सत्तगुणेणं ॥ नव गुणे गुत्तर चनक्के ॥ १४ ॥ अर्थ-ए नव गाथा प्रकटार्थ बे, तथापि कांक अर्थ लखीए बैए. रविणो के० सूर्यनो उदयबंतर के उदय थईने अस्त थाय, तेवारे अंतर केटला योजन- थाय ? ते कहे . चजणव सहस्स के0 चोराणु हजार श्रने पणसय के पांचसो, वली - बीसा के बवीश उपरे, तथा बायालसहिनागा के एक योजनना साठीथा बेता Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४. संग्रहणीसूत्र. लीश जाग उपरे एटले ( ४५२६ ) योजन ने साठीच्या (४२) जाग एटलुं सूर्य एक, कक्कड के० कर्क संकंति के० संक्रांतिना पहेला दिदमि के० दिवसने विषे चाले, तेबारे पूर्वोक्त योजननुं अंतर पडे. पटलुं सूर्यनुं तापक्षेत्र कहीएं. ॥ ११६ ॥ हवे एयंमि के० ए चालवानी गतिना जोजनने पुणो के० वली तिगुणीय के० त्रणगणुं करीएं, तथा पंच के० पांचगएं करीए, तथा सग के० सातगं करीएं, वली नवय के० नवगणुं करीएं, तेहनो जे जे त्रांक घ्यावे ते कममाणं के० क्रममान होय, एटले एक पग उपामी बीजो पग मूकीये, तेमांहे एटला योजन वैमानिक देवताने विषे मान होय. तेहज कहे बे. ए सूर्यतापक्षेत्रने त्रिगुणुं करीएं, तेवारे दोलका के० बेलाख त्र्याशी हजार पांचसें ॥ ११७ ॥ ने एंसी योजन तेना उपर साठीचा व जाग याय. एटले ( २०३५०० ) योजन ने एक योजनना साठीच्या ब जाग याय. तथा पंचगुणियंमि के पांचगुणं करतां चढलक के० चार लाख बहोतेर हजार बसें ने तेत्री योजन ने एक योजनना साठीच्या त्रीश जाग उ पर थाय ॥ ९९८ ॥ तथा सत्तगुणे के सातगुणुं करतां ( ६६१६०६ ) योजन उपर साठीचा चोपन नाग यावे. ने तेमज नवगुणंमि के० नवगुणं करता मलक सढार्ज के० साढा आठलाख ॥ ११५ ॥ उपर सातसें ने चालीश योजन, तथा एक योजनना साठी श्रा ढार जाग एटले ( ८५०५४० ) उपर साठीच्या अढार जाग याय. इह के० ए प्रकारना क्षेत्रमा करीने चउरो के चार भेदे वैमानिक देवतानी कमा के० क्रम जे गति ते कवी. ते चउरो के चार प्रकारे बे, तेनां नाम कहे बे. एक चंमा, बीजी चपला, त्रीजी जया अने चोथी वेगा. तहागश्चउरो के० ते चारेगति एकेक थकी शीघ्रतर शीघ्रतम जाणवी ॥ १२० ॥ इय के० अहींयां कोइक याचार्य चोथी वेगवतिनामा गतिने जययरिं के० यवनंतरी एवं नाम माने बे. तेवार पढी एकमेहिं ho ए पूर्वोक्त चार क्रमे करीने चंमादिक चारे गतिये चार देवता इमाहिं के० ए अनुक्रमे विमानोने मापे ॥ १२१ ॥ ते आवी रीते जे एक देवता त्रिगुणीक मे विमान नना विकंa ho पोलपणाने चंडागतिएं करी मिणे एटले मापे, अने बीजो देवता पंचगुणेमे चपलगतिए करी विमानना श्रायाम के० लांबपणाने मिणे एटले मापे. तथा त्री जो देवता सातगुणेक्रमे यवनागतिए विमाननी निंतरं परिहिं के० मांहेला परिधीने मापे, अने च के० वली चोथो देवता नवगुणेक्रमे चोथी वेगवति गतिएं कर विमानन बाहिरियं के० बाहेरना परिधिने मापे . ए रीते युगवं के० स For Private Personal Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ G4 संग्रहणीसूत्र. मकाले ए चारे देवता अनुक्रमे उमाससुधी निरंतर विमानने मापे; तोपण केटलाकविमाननो पार पामे नही. ॥ १२ ॥ .. वली पक्षांतर कहे जे. जेम केटलाएक विमाननो पार पामे नहीं, तेम केटलाएक देवता विमाननो पार पण पामे. पहेला चार देवलोके त्रिगुणेक्रमे चंडागतिए पहोलपणे, अने चपालागतिए लांबपणे त्रिगुणेक्रमे, यवनागतिए अन्यंतर परिधी त्रिगुणेक्रमे, तथा वेगवतिए बाहेरनी परिधी त्रिगुणेकमे कोश्क देवता मापे तो पार पामे तथा ब्रह्मदेवलोकथी मांडीने अच्चुत देवलोकसुधी पाठ देवलोके पांचगुणेक्रमे चंडादिक चारे गतिए लांबा पहोला मध्यपरिधी अने बाहेर परिधी मवे तो पार पामे. ॥ १३ ॥ । श्रने सातगुणेक्रमे चंमादिक चारे गतिए नवौवेयकना लांबपणादिक चारेनो पार पामे. तथा नवगुणेक्रमे एटले पूर्वे नवगुणानो श्रांक श्राव्यो बे, तेटला योजन- एक मगढुं जरता थका चारे देवता चंमादिक चारे गतिए करि अंतरहित मास सुधी चाले. तेवारे पंचानुत्तरविमानमांहेला सर्वार्थ सिद्धि विमान टालीने बाकीना चउके के० चार विमानना लांबपणादिकनो पार पामे. ॥ १२४ ॥ अहींयां को प्रश्न पूजे के, जो ए क्रमे अने चंमादिक गतिए उ मास लगे पण केटलाएक विमाननो पार पामे नहीं, तो दोढ राज प्रमाण सौधर्मदेवलोकथकी बे पहोर रात्रीमांहे देवता श्रावीने तीर्थकरना जन्मानिषेकादिक कल्याणकनो महिमा करवा माटे मनुष्यलोकमां केम आवे जे ? केमके विमाननी लंबाश्थकी सौधर्मदेवलोक तो अत्यंत घर बे. तंत्रोत्तरं- जेम पस्योपमनुं प्रमाण कल्पित , तेम ए क्रममान गतिनुं परिमाण पण कल्पित जाणवु. जगवतिप्रमुख सिद्धांतमाहे ज्यां देवगतिर्नु परिमाण लख्यु; ते सर्व कल्पित कही लोक समजाव्या, परंतु जवस्वनावथकी देवता अत्यंत शक्तिवंत तथा स्वनावे अत्यंत शीघ्रगतिवंत होय. एटले बीजुं एवं दृशंत को नथी के जे कहीने बद्मस्थ मनुष्यने समजाविएं; माटे पूर्वाचार्ये ए चार गतिए क्रममान कल्पीने देवलोकनी अत्यंत महोटा वखाणी. ए रीते सौधर्मादिक देवलोकनेविषे सामान्यपणे विमानतुं प्रमाण कडं. ॥ हवे कांश्क विशेष वखाणे .॥ पढम पयरंमि पढमे ॥ कप्पे नडु नाम इंदय विमाणं ॥ पणयाल लकजोयण ॥ लकं सखुवरिसवठं ॥१२५॥ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ संग्रदणीसूत्र. अर्थ - पहेला देवलोकना पहेला प्रतरनेविषे उकुनामे मुख्य इंद्रकविमान दें, ते वृत्ताकारे थाल सरखं पिस्तालीस लाख योजन प्रमाणे, घने सव्वुवरि के० सर्वना उपर बेल्ला बासवमा प्रतरे एक लाख योजननुं सर्वार्थ सिद्धनामे विमान वृत्ताकारे बे. ॥ हवे बासव प्रतरने विषे मध्यजागे बासठ इंद्रक विमान बे, तेदनां नाम कहे . उडु चंद रयण वग्गु ॥ वीरिय वरुणे तदेव आणंदे ॥ बने कंचण रुने ॥ चंद अरुणेय वरुणेय ॥ १२६ ॥ ॥ मान, - पहेलुं मुविमान, बीजुं चंद्रक विमान, त्रीजुं रतनविमान, चोथुं वपुविपांचमुं वीर्य विमान, ठकुं वरुणविमान, तदेव के० तेमज सातमुं श्रानंद विमान, श्रमुं ब्रह्मविमान, नवमं कांचनविमान, दशमुं रुचिप्रन विमान, अगीयारमुं चंद्र विमान, बारमुं अरुण, तेरमुं वरुण ए तेर सौधर्म तथा ईशानदेवलोके बे. ॥ १२६ ॥ वेरुलिय रुयग रुइरे ॥ अंके फलिदे तदेव तवपि ॥ मेढे ग्घ दलिद्दे ॥ नलिऐ तह लोहियरके य ॥ १२७ ॥ अर्थ - १४ मुं वैकुर्य, १५ मुं रुचक, १६ मुं रुचिर, १७ मुं अंक, १० मुं स्फाटिक, तेमज १७ मुं तपनीय, २० मुं मेघ, २१ मुं श्रर्घ, २२ मुं हासिड, २३ मुं नलिन, तह के० तेमज २४ मुं लोहिता ॥ १२७ ॥ वइरे अंजण वरमाल || रिट्ठ देवेय सोम मंगलए ॥ बलदे चक्क गया ॥ सोवचिय दियावत्ते ॥ १२८ ॥ अर्थ - २५ मुं वज्र, ए बार बीजे तथा चोथे देवलोके बे. छाने २६ मुं अंजन, २७ मुं वरमाल, २० मुं रिष्ट, २७ मुं देवे, ३० मुं सौम्य, ३१ मुं मंगल. ए व विमान ब्रह्म नामा पांचमे देवलोके बे. ३२ मुं बलजद्र, ३३ मुं चक्र, ३४ मुं गदा, ३५ मुं स्वस्तिक, ३६ मुं नंदावर्त्तक, ए पांच प्रतरनां विमान बठे लांतकदेवलोके बे. ॥ १२८ ॥ या करेय गि-६ ॥ केऊ गरु लेय दोइ बोधवे ॥ बने बंज दिए पुंण ॥ बंजुत्तर संतए चेव ॥ १२९ ॥ अर्थ - ३७ मुं जंकर, ३० मुं गृधी, ३० मुं केतु, ४० मुं गरुम, ए चार प्रतर महाशुकदेवलोके होइ के० होय, ते बोध के० जाणवा. ४१ मुं ब्रह्म, ४२ मुं ब्रह्महित, वली ४३ मुं ब्रह्मोत्तर, ४४ मुं लांतक, ए चार ते चेव के० निश्चे सहस्रार देवलोके जावां ॥ १२९ ॥ महसुक्क सहस्सारे ॥ आय तह पाणएय बोधवे ॥ पुप्फेलंकार आरण || तहाविय अच्चुए चेव ।। १३० ।। For Private Personal Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संग्रहणीसूत्र. ៥១ अर्थ- ४५ मुं महाशुक्र, ४६ मुं सहस्त्रार, ४७ मुंआणत, तेम ४ मुं प्राणत, ए चार प्रतर नवमे अने दशमे कहपे ले. ते बोधवे के जाणवां. ४ए मुं पुष्प, ५० मुं अलंकार, ५१ मुंवारण, तेमज ५२ मुं अच्चुत- ए चार चेव के निश्चे श्रारण तथा अचुत ए बे देवलोके . ॥ १३० ॥ सुदंसण सुपडिबझे ॥मणोरमे चेव होइ पढम तिगे ॥ तत्तोय सबनद्दे ॥ विसालए सुमणे चेव ॥ १३ ॥ अर्थ- ५३ मुं सुदर्शन,५४ मुं सुप्रतिबक, ५५ मुं मनोरम, ए त्रण प्रतरे जे इंकविमान ते हो के होय, ग्रैवेयकना पढमतिगे के पहेला त्रिकनेविषे, तत्तोय के० तेवार पबी ५६ मुं सर्वतोनस, ५७ मुं विशाल, ५७ मुं सुमनस, चेव के० निश्चे ए त्रण विमान अवेयकने बीजे त्रिके होय. ॥ १३१ ॥ सोमणसे पीश्करे ॥ आश्च्चे चेव हो तश्य तिगे ॥ सबसिदि नामे ॥ इंदया एव बासठी ॥ १३२ ॥ अर्थ- ५ए मुं सोमनस, ६० मुं प्रीतिकर, ६१ मुंश्रादित्य - ए त्रण प्रतर निश्चेथकी तेमज अवेयकना त्रीजा त्रिकने विषे होय. अने ६५ मुं पांच अनुत्तर विमाने सर्वार्थसिफिनामा एक इंधक विमान . इंदया एव के० ए इंजक विमाननां नाम बासही के० बासठ कह्यां. ॥ १३ ॥ पणयालीसं लका ॥ सीमंतय माणुसं उडु सिवं च ॥ अपयहाणो सबह ॥ जंबुद्दीवोमं लकं ॥ १३३ ॥ अर्थ- पिस्तालीश लाख योजननो सीमंतय के० सीमंत नामे नरकावास बे. बीजुं माणुसं के० मनुष्यक्षेत्र बे. त्रीजुं उडु के उमुविमान बे. चोथु सिवंच के० सिझशिला. ए चार पदार्थ प्रत्येके पिस्तालीश लाख योजनना थायाम विष्कंन्ने बे. अने अपयहाणो के सातमा नरकनो अपाणनामे नरकावास, बीजुं सबक के सर्वार्थसिक विमान, त्रीजो जंबुडीवो के जंबुद्दीप, श्मं के ए त्रण पदार्थ प्रत्येके खरकं के० लाख योजनना . ॥ १३३ ॥ ॥ हवे ऊर्ध्वलोक अने अधोलोकनो विवरो कहे .॥ अद नागासग पुढवीसु ॥ रज्जु शकिक तहय सोहम्मे ॥ माहिंद खंत सदस्सार ॥ अच्चुय गेविज लोगंते ॥१३४॥ अर्थ - हवे मेरुपर्वतनी मध्यवृत्तिमां गोस्तनाकारे रुचक प्रदेश बे, त्यांथकी सात राज उंचो ऊर्ध्वलोक बे, तथा सात राज नीचो अधोलोक , ए रीते सर्व मली लो Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ចិច संग्रहणीसूत्र. काकाश चनद राज उंचपणे बे, तेनो विवरो कहे . अह के० अधोलोक ते रुचक प्रदेश थकी देठे जे पृथ्वी बे; तेहना सात नाग करीएं, ते एकेको जाग एकेक राजप्रमाण जे. एटले रत्नप्रजा पृथ्वीनो उपरनो तलो श्रादे देश्ने यावत् शर्करप्रजानो उपरनो तलो आवे; तेटलो एक राज वचमां घनोदधि, घनवात, तनुवात, अने अवकाश ते सर्व एक राजमांहे . एम साते नरके करी अधोलोके सात राजलोक थाय डे. तेमज रत्नप्रनाना उपरना तलानी उपरनी पीठिकाश्री मांडीने सौधर्मदेवलोकना उपरना तेरमा प्रतरसुधी एक राज लोक जाणवू. तेवारपनी मांहेजदेवलोकने बेडे, बीजो राज, तेवारपनी लंत के० लांतक देवलोकने डे त्रीजो राज. तेवार पनी सहसारे चोयो राज, अच्चुतने अंते पांचमो राज, प्रैवेयकने अंते को राज, अने बेहा लोगंते के लोकांते सातमो राज, ए रीते एकेका जागे करी सात राज लोक उ. पर जाणवा. ॥ १३४ ॥ अहीयां कोश्क-सोहम्ममिदिवढा ॥ अवाजायरामादिंदे ॥ पंचेवसहस्सारे ॥ अचुए सत्तलोगंते ॥१॥ ए गाथा कहे , ते मतांतर अप्रमाण जाणवी. केमके चउद पूर्वधर श्रीनप्रबाहुस्वामी श्रीयावश्यक सूत्रने विषे एहवीगाथा कहे . ते आगल पाठमांज लखी बे. सम्मत्त चरण सहिया ॥ सचं लोगं फुसे निरवसेसं ॥ सत्तय चन्दसनाए ॥पंचय सुय देस विरईए॥ १३५॥ अर्थ- सम्यक्चारित्र सहित जे केवली ते केवलीसमुद्घात अवस्थाए सर्व चउद राजलोक पोताना आत्मप्रदेशे करी फरशे.केमके धर्मास्तिकायना प्रदेश,अधर्मास्तिकायना प्रदेश अने लोकाकाशना प्रदेश, तथा एक जीवसंबंधी प्रदेश -ए चारे मांहोमांहे बराबर बे. तेमाटे जेवारे केवली केवलीसमुद्घात करे, तेवारे एकेका लोकाकाश प्रदेशे एकेको पोताना जीवनो प्रदेश थापे, तेवारे सर्वलाकने फरशे. वली सम्यक्चारित्र सहित उत्कृष्ट तपस्वी श्रुतझान सहित ते जेवारे अनुत्तर विमाने इसिकागतिए उपजे, तेवारे लोकना चौदीया सात राज फरशे. वली सम्यकदृष्टि श्रुत शानीए पूर्वेनरकायु बांध्यु होय, अने पडी सम्यक चारित्र पाम्यो होय, ते जीव बही नरकपृथ्वीए इलिकागतिए उपजे, तेवारे चौदीया पांच नाग फरशे. वली देशविरती इलिकागतिए अच्चुत देवलोके उपजे तेवारे चौदीया पांच लाग फरशे. नरकनुं जेणे पूर्वे आयु बांध्यु होय, ते देशविरतीपणुंन पामे.तेमाटे अधोलोकना चौदीया पांच नाग फरश आश्री विकल्प चिंतव्यो ते कारणे चूर्णिकार कहे जे जे, देशविर हेग, नऊववजाश्तेण पंचउवरिं अञ्चुयं जावतिजणियमिति एटले लोकना चौदनाग क Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नए संग्रहणीसूत्र. रीए. त्यां रुचकथकी नवसे योजन ऊंचा, अने नवसे योजन नीचा. ए रीते अढारसें योजन प्रमाण तिरबो लोक, तेथकी उपरनो ऊर्ध्वलोक कांश्क जणां सात राज . तिर्यक्लोकथी नीचे अधोलोक. ए सात राजयी कांश्क अधिक जे. केमके रत्नप्रजापथ्वीमाहे ज्यारे असंख्याता योजननी कोमी जाएं, तेवारे चनद राजनो मध्य नाग होय. तेमाटे बही नरकपृथ्वीमाहे पण असंख्याता योजन कोडी जशएं तेवारे पांच राज होय. एटले जे, देशविरति ईलिकागतीए बारमे देवलोके उपजे ते चौदीया पांच नाग फरशे. एम उतां जे एह कहे के, देशविरति अच्चुते इलिकागतीए जाय तो चौदीया नाग फरशे. एवी रीते जे कहे , ते मतांतरी जाणवा. केमके श्रुतशानीए अंगीकार कडं नही. तेमाटे अप्रमाण जाणवू, अहीयां तत्व केवली जाणे. ए रीते समस्त लोकनी उंची नीची व्यवस्था कही. हवे अहींयां प्रसंगागत तिरा लोकनी व्यवस्था कहे . तिर्यगलोक मध्यनागे चार प्रदेश उपरना, अने चार प्रदेश नीचेना; ए रीते गोस्तनाकार आठ प्रदेशनो रुचक . हवे हेग्ला चार प्रदेशथकी लोकांत सीम मामाने आकारे मांगो, एक राजप्रमाण, बीजो उपरना चार प्रदेशनो एक राज प्रमाण मांमो, अने चार प्रदेशथकी चार विदिशि एक प्रदेशथकी नीकली ते प्रदेशनी वच्चे क्रमे प्रदेश प्रदेश वर्कमान ते वधती वधती असंख्यात प्रदेशी चारदिशि नीकली. ए बेन प्रदेशना मांमा एक राज प्रमाण, तेमांहे उपरना मांमाथकी ऊर्ध्व लोके प्रदेशे वधतां वधतां ब्रह्म नामा देवलोकमध्ये पांच राजनुं पोहोलपणुं थयु. वली त्यांथी प्रदेशे हाणी करतां सिझशिलाना मस्तकउपरना बेला प्रदेशनो मांगो ते पण एक राज प्रमाण बे, एमज हेग्ला चार प्रदेशथकी प्रदेश वृद्धीए वधता प्रथम नरकथकी लेश्ने सातमा नरक तले सात राज तिरडं प्रमाण काश्क जणुं जाणवू. एटले मोहोटा कुंमाने धुं करी ते उपर सरावसंपुट धरी राखीएं, ते श्राकारे लोक जे. अथवा वलोणुं वलोवतो उनो पुरुष कटिए हाथ दीधा होय, एहवे संस्थाने लोक जाणवो. ते पुरुषना पगतले सात राज पहोलाइ अने नानी प्रदेशे एक राज पहोला, कोणीए पांच राज पहोला, अने शिरतले एक राज, प्रमाण जाणवू. अहींयां पगतले जे सात राज कह्या; ते देशे ऊणा डे; परंतु थोडा ऊणा बे; माटे विवदा करी नथी. पूरा सात राज कह्या तेहनी स्थापनानो यंत्र नाख्यो , तेमांथी जोश् लेवं. एटले देवतानां जुवनहारनो उपसंहार करतो अवगाहना छार, अनिसंधान करे ॥ १३५ ॥ सुरेसुजवणदारसम्मतं. १२ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ B संग्रहणीसूत्र. ॥ हवे श्रीजुं देवना शरीरनी अवगाहनानुं द्वार कहे बे. ॥ इसिंह उगाहणादारंजाइ वणवण जोइ सोदम्मी साणे सत्त दव तणुमाणं ॥ 5 5 5 चटक्के गेवि गुत्तरे हाणि इक्विकं ॥ १३६ ॥ अर्थ - जवनपति तथा व्यंतर तथा ज्योतषी, सौधर्म देवलोक तथा ईशान देवलोक सुधी उत्सेधांगुल प्रमाण सत्तह्बतमाणं के० सात हाथ शरीरनुं मान उत्कृष्टुं जावं. तेवारपठी डु के० त्रीजो अने चोथा ए बे देवलोक, तथा बीजीवार शब्दे पांचमो तथा बठो देवलोक, तथा त्रीजीवार डु शब्दे सातमो तथा आठमो, ने चक्के एटले चतुष्के के० नवमो, दशमो, अगीयारमो, घने बारमो, तथा गेविज के० नव ग्रैवेयक, अणुत्तरे के० अनुत्तर विमाने, ए व ठेकाणे क्रमेकरी हाणि इकिकं के० एक एक हाथ नी हाणी करता जइएं, तेवारे अनुत्तरविमाने एक हाथनुं शरीर याय बे. एटले त्रीजा तथा चोथा देवलोके व हाथ, ब्रह्म ने लांतके पांच हाथ, शुक्र छाने सहस्रारे चार हाथ, आरणादिक चार देवलोके त्रण हाथ, ग्रैवेयके बे हाथ ने अनुत्तर विमाने एक हाथना शरीरनुं मान जावं. ए रीते सामान्यपणे देवताना शरीरनुं मान कयुं ॥ १३६ ॥ हवे विशेषे सागरोपम आयुष्यनी वृद्धिए करी सनत्कुमारादिकने विषे देहमान कहे ते. ॥ कप्प डुगडु टुडु चनगे || नवगे पणगेय जिवि प्रयरा || दो सत्त चन्द द्वारस || बावीसिगती सतित्तीसा ॥ १३७ ॥ विवरे ताणि कुणे ॥ इक्कारस गाउ पामिए सेसा ॥ दचिक्कारस जागा ॥ यरे प्रयरे समदियंमि ॥ १३८ ॥ चय पुत्र सरीरा || कमेण ईगुत्तराइ बुकीए ॥ एवं हिई विसेसा ॥ सकुमाराइ तणुमाणं ॥ १३० ॥ अर्थ - ए पूर्वोक्त रीते प्रथम कप्पडुग के० पहेला छाने बीजा देवलोके, तथा डु के० त्रीजा ने चोथा देवलोके, तथा डु के पांचमा छाने बहा देवलोके, तथा डुं to सातमा ने श्रावमा देवलोके, थने चउगे के० चार ते नवमे, दशमे, अगीयारमे ने बारमे देवलोके, तथा नवगे के० नव ग्रैवेयके, तथा पगे के० पांच अनुत्तर For Private Personal Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संग्रहणीसूत्र. १ विमाने, एटले स्थान के श्रायुष्यनी जिह के० उत्कृष्ट विइ के० स्थिति ते अनुक्रमे कहे बे.' पहेला बे कल्पे यरादो के० बे सागरोपम, बीजा बे देवलोके सत्त के० सात सागरोपम, त्रीजा बे देवलोके चन्द के० चजद सागरोपम. चोथा बे देवलोके एटले सातमा छाने श्रावमा देवशोंके प्रहारस के० अढार सागरोपम, तथा नवमाथी बारमासुधीना चार देवलोके बावीस के० बावीश सागरोपम तथा नव ग्रैवेयके इगतीस के० एकत्रीश सागरोपम, तथा पांच अनुत्तर विमानने विषे तित्तीसा के० तेत्रीश सागरोपमनी उत्कृष्टी स्थिति बे ॥ १३७ ॥ कि स्थितिमांहेथी बी स्थिति काढीएं तेहने विवर एटले विश्लेषक - हीएं. पी बाकी रहे तेमांथी ताकि के० एकरूप जंबो करीए. ते वली इकारस गाउ पाडीए के छागीयार हस्तगतनागमांहेथी पाडेलाने स्थानके जे सेसा के० बाकी रहेला विकारसजागा के० एक हाथना अगीयारीया जाग तेने देवताना श्रायुमांही अरे रे समहियंमि के० एकएक सागरोपम सम अधिक ययुं यकुं ॥ १३८ ॥ - चयपुत्र शरीरा के० पूर्वपूर्व शरीरप्रमाण मांहेथी कमेण के० अनुक्रमे करी एगुत्तराइवुढीए के० एकोत्तर वृद्धीए अगीयारीया जाग उठा करता जइएं, एवंविई विसेसा के० ए रीते श्रायुष्यनी स्थिति विशेषे कर एटले सागरोपम वृद्धीरूपे करीने सकुमाराइ के० सनत्कुमार यादि देवताना तणुमाणं के० शरीरनुं प्रमाण याय. ते व ते जे पूर्वाचार्योंने देवताना शरीरनुं प्रमाण करवानुं कारण बीजुं कोइ उपनुं नहीं, तेवारे त्र्यायुष्यनुं मान विवरीने सागरोपम उपर देहमान कयुं ॥ १३ ॥ यद्यपि ईशान तथा मांहेद्र देवलोके सागरोपम काकेरां जे श्रायु बे ते जाके हीयां गणai नहीं. सौधर्म तथा ईशाननुं सात हाथ देहमान कयुं. हवे सनत्कुमारेंद्रनुं शरीरमान कहे बे. विवरे एटले विवरण ते विश्लेष करीएं. अर्थात् अधिक स्थितिमांदेथकी बी स्थिति काढीएं. जेम सौधर्मादिक सात स्थानक जे कह्यां, तेनी उत्कृष्टी स्थिति बे सागरोपमादि बे. तेनो विवरण करीएं, एटले विश्लेष करीएं; ते एम के महोटी स्थितिमांथी न्हानी स्थिति काये थके बाकी जे रहे तेमांथी एक उंबो करीएं; पढी एक हाथना अगी चार जाग करीएं, ते जागमांथी विश्लेष करतां एक उंबो करतां जे यांक उगरयो बे; ते प्रमाणे हाथना शेष जाग ते यादे देश एकेक सागरोपमे वधते एकेक जाग घटतो यांक मांडीएं. पूर्व शरीरमानथकी एकेक सागरोपमे वधतां एकेक जाग अनुक्रमे चय के० घटाएं. एम स्थिति विशेष सागरोपम वधता सनत्कुमारादिकने विषे देवना शरीरनुं मान थाय. For Private Personal Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए संग्रहणीसूत्र. तेज उदाहरणे करी देखाडीएं निएं. जेम सौधर्म तथा ईशान देवलोके उत्कृष्टी स्थिति बे सागरोपमनी बे. अने सनत्कुमार तथा माहें सात सागरोपम . हवे सात सागरोपममाथी बे काढीएं, केमके बे सागरोपमवाला यायुष्यना देवताना शरीरनुं मान सात हाथ कडं बे. ते बे सागरोपम काढतां बाकी पांच सागरोपम रहे, तेमांहेथी एक उदो करीएं तेवारे चार रहे. हवे सौधर्म अने ईशान ए बे देव. लोकना देवतार्नु सात हाथर्नु शरीर . तेमांहेथी हाथ पूरा राखीएं, अने सातमा हाथना अगीयार नाग करीएं, ते मांहेला चार नाग काढी लश्एं; बाकी सात नाग रहे ते पमता मूकीएं एटले सनत्कुमार, तथा माहेछ देललोकना त्रण सागरोपमना श्रायुष्यवाला देवतानुं शरीरमान उ हाथ पूरा अने एक होथना अगीयार जाग करीएं, तेवा चार नाग उपर शरीरनु मान जाणवू. एम एकेको सागरोपम व. धारतां अने एकेको नाग घटाडतां चार सागरोपमना श्रायुष्यवाला देवताने उ हाथ ने अगीयारीया त्रण नाग देहमान, तथा पांच सागरोपमना आयुष्यवाला देवताने बहाथ ने अगीयारीया बे नाग शरीरमान. तथा ब सागरोपमवाला देवताने ब हाथ ने अगीयारी एक नाग उपर. तथा सात सागरोपमवाला देवताने पूरा उ हाथ शरीरनुं मान जाणवू. एम आगलना सर्व देवलोकना शरीरनां देहमान ए रीतना हिसाबथी जाणवां. ते सर्वना जूदा जूदा यंत्र करेला बे ते उपरथी जोवू सुलल पडशे. बीजं उदाहरण कहे जे. जेम ब्रह्मदेवलोके तथा लांतके चजद सागरोपमनी आयुष्यनी उत्कृष्टी स्थिति बे, तेमांहेथी सनत्कुमार तथा माहेंना सात सागरोपमना सात आंक बाद करीएं. बाकी सात रहे, तेमांथी एक उगो करीएं तेवारे बाकी ब रहे. पली एक हाथना अगीयारीया नाग मांहेला पांच पमता मूकी बाकी 3 जाग रहे ते, अने पांच हाथ उपर. एटबुं आठ सागरोपमवाला देवतानुं शरीरमान थयु. ए रीते एकेको सागरोपमायु वधतां एकेको अगीआरी नाग शरीरनो मानमांहेथी घटामवो. नवधारणिक एसा ॥ उत्तर वीनवि जोयणा लकं ॥ गेविजाणुत्तरेसु ॥ उत्तर वेनचिया ननि ॥ १४० ॥ अर्थ- ए रीते जे देवना शरीरनुं मान पूर्व कर्वा ते नवधारणीय शरीर कहीएं,जे देवताना नवमां ज्यांसुधी देवता जीवे त्यांसुधी जे शरीर धारण करे तेहने नवधारणीय शरीर कहीएं. अने कोश्क कार्य उपने थके जे विकूर्वणा करी शरीर नीप. Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए३ संग्रहणीसूत्र. जावे ते वैक्रियशरीर उत्कृष्टुं लाख योजन प्रमाण करे. अने नव ग्रैवेयक तथा पांच अनुत्तर विमानने विषे जवधारणीयज शरीर बे, परंतु उत्तरवैक्रिय शरीर करवानी शक्ति बतां पण को काम पडतुं नथी, के जे थकी तेमना रहेवासी देवताने उत्तरवैक्रिय शरीर करवू पमे. ॥ १४ ॥ ॥ हवे जवधारणीयशरीर, तथा उत्तरवैक्रियशरीरनी जघन्य अवगाहना कहे . ॥ साहाविय वेनविय ॥ तण जहन्ना कमेण पारंजे ॥ अं गुल असंख नागो॥अंगुल संखिजनागोय ॥२४॥ अर्थ- साहाविय के स्वानाविक ते नवधारणीय अने वेनविय के उत्तरवैक्रिय ए बंने जे तणू के शरीर ते जहन्ना के जघन्यथकी कमेण के अनुक्रमे पारंने के प्रारंजनी वेलाए जवधारणीय शरीर करवा मांडतां अंगुल असंख नागो के जघन्यथी अंगुलने असंख्यातमे नागे होय. अने उत्तरवैक्रिय करवा मांगतां जघन्यथी अंगुलसं. खिड़ नागोय के० अंगुलने संख्यातमे जागे होय. एटलो माहोमांहे फेर बे; ए ज. घन्य शरीर ते प्रारंजकालेज होय. अन्यथा न होय. ॥ १४१ ॥ “ सुरेसु उगाहणादारं सम्मत्तं "-देवताने विषे अवगाहना संबंधी त्रीजुं हार संपूर्ण थयुं. ॥ ( इण्हि विरह कालोववाय उवट्टणाणं दारंजाम ) हवे देवने उत्पात विरहकालनुं अने चवन विरहकाल- ए वे छार साथे कहे जे॥ सामन्नेणं चनविद ॥ सुरेसु बारस मुहुत्तनकोसा ॥ नव वाय विरद कालो॥ अह नवणाईसु पत्तेयं ॥ २४ ॥ अर्थ- सामनेणं के सामान्यपणे चनविहसुरेसु के चारे निकायना देवतानेविषे समुच्चय बार मुहर्तनो उत्कृष्टो उपजवानो विरहकाल जाणवो. ___ अहींयां नावार्थ ए जे के चारे निकायना देवता निरंतर उपजे बे. ते उपजवामां केवारेक उत्कृष्ट अंतर पडे, तो सामान्यपणे बार मुहर्त्तनुं पडे. तेवारपनी अवश्य चारे निकायमांहेला कोश्क निकायमा कोश्क देवता नीपजे. एहनी शाख पंचसंग्रह ग्रंथ कहे जे के, गर्जजतिर्यंच, मनुष्य, देवता अने नारकी, ए चारेने उपपात विरहकाल उत्कृष्टो बार मुहूर्त्तनो होय. तथा समूर्छिम मनुष्यने उत्कृष्टो उपपात विरहकाल चोवीस मुहूर्त्तनो होय. विकलेंडीनुं अंतर मुहूर्त अने मन रहित जीवनुं अंतर मुहूर्त. ग्रंथप्रसंगे ए अर्थ लख्यो. अह के० श्रथ एटले हवे नवनपति प्र. मुख चारे निकायना देवतानेविषे पत्तेयं के प्रत्येके विरहकाल कहीएं बिएं ॥१५॥ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संग्रहणीसूत्र. जवण वण जोइ सोहम्मी ॥ साणेसु मुहुत्त चनवीसं ॥ तो नवदिण वीसमुहू ॥ बारस दिण दस मुहुत्ताय ॥ १४३ ॥ बावीस सढदियहा ॥ पणयाल असीइ दिण सयं तत्तो ॥ संखिजा उसु मासा ॥ सुवासा तिसु तिगेसु कमा ॥१४४॥ वासाण सया सहस्सा ॥लरक तह चनसु विजय माईसु ॥ पलिया असंख नागो ॥ सब संखन्नागोय ॥ २४५ ॥ श्रर्थ-नुवनपति, व्यंतर, ज्योतषी तथा सोहम्मीसाणेसु के सौधर्म थने इंशानवासी देवताने प्रत्येके चोवीश मुहूर्त उत्कृष्टो उपजवानो विरह काल बे. तो के तेवार पनी निश्चे बीजो देवता उपजे, अने सनत्कुमारे नव दिवस अने वीस मुह के वीश मुहर्त तथा माहेंज देवलोके बार दिवस अने दसमुहुत्ताय के० दश मु. हर्त्तः ॥ १४३ ॥ ब्रह्मदेवलोके बावीस सढदियहा के साढीबावीश दिवस, लांतके पणयाल के0 पिस्तालीश दिवस, शुक्रे असी के एंसी दिवस, तत्तो के तेवार पड़ी सहस्रारे सयं के० सो दिवस, थने आणत तथा प्राणत ए मुसु के० बे देवलोके प्र. त्येके संखिजामासा के० संख्याता मासनो उपजवानो विरह, एटले श्राणते मास दश अने प्राणते मास अगीयार, अने आरण तथा अच्चुत ए उसु के बे देवलोके वासा के० संख्याता वर्षनो उपजवानो विरह जाणवो. पठी जरूर बीजो देवता ज. पजे, ते ज्यांसुधी सो वर्ष पूरा न थाय, त्यांसुधी संख्यातां वर्ष गणवां. तथा नवे ग्रैवेयकना त्रण त्रिक करवा. ते त्रण त्रिकने विषे कमा के अनुक्रमे उपजवानो विरहकाल कहे . ॥ १४ ॥ पहेला त्रिके वासाणसया के० संख्याता शतवर्ष एटले संख्यातां सैंकडो वर्ष, बीजा मध्यम त्रिके संख्यातां हजार वर्षनो उपजवानो विरहकाल. त्रीजा उपरना त्रिके संख्यातां लाख वर्षनो उपजवानो विरहकाल, ज्यांसुधी संख्यातांवर्ष सहस्र पूरी न थाय त्यांसुधी संख्यातां वर्ष शत गणवां, ज्यांसुधी लाख वर्ष पूरी न थाय त्यां सुधी संख्यातां वर्ष सहस्र गणवां, ज्यां सुधी क्रोड वर्ष पूरा न थाय त्यां सुधी संख्यातां वर्ष लाख गणवां. तह के० तेम चउसु विजयमाईसु के चार विजयादिक ते विजय, विजयंत, जयंत, ने अपराजित, ए चार विमाननेविषे पख्योपमनो असंख्यातमोजाग विरहकाल होय. अने सब के सर्वार्थसिक विमानने विषे पख्योपमनो संखनागोय के संख्यातमो नाग उपपात विरहकाल होय. पनी अवश्य बीजो देवता उपजे. एटले देवताने उपपात विरहकाल उत्कृष्ट पणे कह्यो. ॥ १४५ ॥ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संग्रदणीसूत्र. ॥ दवे ए देवतार्जुनो जघन्य विरहकाल देखाडी पढी चवण ॥ विरहकाल संदेपे देखाडे बे. ॥ सवेसिंपि जन्नो॥ समर्ज ए मेव चवण विरहोवि ॥ इग ति संख मसंखा ॥ इगसमए हुंतिय चवंति ॥ १४६ ॥ अर्थ- समस्त जुवनपति यादे देश सर्वार्थसिद्ध पर्यंत देवतानां सर्व स्थानके पि ho निश्चय की जन्नो के० जघन्यपणे समर्ज के० एक समये उपजवानो विरहकाल होय. एमेव के० एमज उपपात विरहनी परे चवणविरहो के० चत्रण विरह पण उत्कृष्ट तथा जघन्यपणे जाणवो हवे उपपात छाने चवन ते या श्री देवोनी संख्या कहे बे. इग के० एक ghoda ति के० त्रण यावत् संख के० संख्याता तथा असंखा के० श्रसंख्याता देवता ते इगसमए के० एक समयने विषे हुंति के० होय. एटले उपजे. छाने चवंति के वे. जुवनपतिथी मांगीने सहस्रार देवलोकसुधी जघन्य तो एक समयमांहे जो उपजे तो एक, बे, त्रण उपजे तथा चवे. अने उत्कृष्टा संख्याता अथवा श्रसंख्याता उपजे तथा चवे. केमके सहस्रार देवलोक सुधी तिर्यंच पण जाय बे. माटे असंख्याता उपजे ने चवे. अने ए आवमा देवलोकथी उपरना देवता एक समये संख्याता उपजे ने संख्याता चवे; पण असंख्याता नही. केमके त्यां मनुष्यज जाय बें. नेत्यांनो देवता चवे ते पण मनुष्यज थाय बे. तेमाटे ते मनुष्य संख्याताज बे. माटे त्यां संख्याता उपजे ने चवे ॥ १४६ ॥ एटले उपपात तथा चवन संख्याद्वार संपूर्ण युं. ॥ ॥ दवे देवतानी गतिमांहे कोण कोण यावी उपजे ? ते यागति द्वार कहे बे. नर पंचिदिय तिरिया ॥ गुप्पत्ती सुरनवे पजुत्ताणं ॥ जवसाय विसेसा ॥ तेसिं गइ तारतम्मंतु ॥ १४७ ॥ अर्थ - पत्ता के पर्याप्ता नर के० मनुष्य तथा पर्याप्ता पंचेंद्रिय तिर्यच, ए बेसुरनवे के देवतानी गतिमांहे उप्पत्ति के० उपजे ने शेष देवता, नारकी, एकेंद्रिय, विगलेंद्रिय, वली पर्याप्तापंचेंद्री, तिर्यंच, तथा मनुष्य, एटला मांहेलो कोइ जीव मरीने देवता याय नहीं. हवे देवगतिए उपजवानुं विशेषपएं कहे बे; के एक जुवनपति, एक व्यंतर, एक ज्योतषी, एक वैमानिक, तेमांहे पण वली एक शुद्धिवंत, एक महर्द्धिक, एक अल्प रुद्धिवंत, एक महोटा श्रायुष्यवालो, एक थोडा श्रायुष्यवालो - इत्यादिक विशेषनुं कारण पोताना अवसाय विसेसा के० अध्यवसाना विशेषपणाथ की गतिनुं तारतम्यपएं एटले जिन्न निन्नपएं बे. अध्यवसाय शब्दे For Private Personal Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए६ संग्रहणीसूत्र. मनोव्यापार कहीएं. ते तीव्र, तीव्रतर, तीव्रतम-तेणे करी जूदी जूदी देवतानी गति पामे. तीव्र अध्यवसायथकी उंची देवगती पामे. एम अध्यवसायना विशेषपणायकी देवतानी गतिनुं तारतम्यपणुं जाणवू. ॥ १४७ ॥ ॥वली कोण कोण जीव देवतानीगति पामे ? ते कहे .॥ नर तिरि असंखजीवी ॥ सवे नियमेण जंति देवेसु ॥ निय आनय सम हीणा ॥नएसुईसाण अंतेसु॥२४॥ .. अर्थ- असंख्याता आयुष्यवाला युगलीया, मनुष्य, तथा तिर्यंच होय, ते सो के सर्वे नियमेण के निश्चेथकी जंतिदेवेसु के देवतानी गतिमांहेज अवतरे. पण बीजी गतिमाहे जाय नहीं. ते निय के पोतानुं जेटलुं अहींयां युगलीकपणे भाजय के श्रायुष्य होय, तेटले सम के० सरखे आयुष्ये, अथवा तेहथी हीणा के0 जेबा थायुष्ये देवतामां उपजे, पण वधता आयुष्ये जपजे नहीं. ते उत्कृष्टपणे ईसाण अंतेसु के० ईशानदेवलोकना अंत पर्यंतना देवतामांहे उपजे. केमके युगलियाने उत्कृष्ट आयुष्य त्रण पत्योपमर्नु होय, ते आयुष्य ईशानदेवलोकलगी तेमाटे. हवे विवरीने लखु बु जे, पथ्योपमने असंख्यातमे जागे असंख्याता आयुष्य. वाला युगलीश्रा, पंचेंडी तिर्यंच, पंखी, वली बपन्न अंतरछीपवाला तिर्यंच, मनुष्य, युगलिया मरीने नुवनपति तथा व्यंतरने विषे उपजे, पण ज्योतषी प्रमुखनेविषे उपजे नहीं. केमके ज्योतषीमांहे जघन्यथकी पट्योपमनो श्राठमो नाग श्रायुष्य , माटे. अने बीजा युगलियो यथायोग्यपणे पोतपोताना आयुष्य प्रमाणे अथवा उंडे श्रायुष्ये ईशान देवलोकसुधी उपजे, पण उएसु के० तेथी उंचो उपजवानुं सर्वथा निषेध . ॥ १४ ॥ जंति समुचिम तिरिया ॥ लवण वणेसु न जोश्माईसु ॥ जंतेसिं नववा ॥ पलिया संखंस आजसु ॥ १४ ॥ अर्थ- समूर्बिम तिर्यंच मरीने उत्कृष्टपणे जुवनपति तथा वणेसु के० व्यंतरनेविषे जंतिय के० जाय. पण जोश्माईसु के ज्योतषी श्रादिकनेविषे न के० न जाय. केमके जं के जे तेसिं के ते समूर्बिम तिर्यंच उत्कृष्टपणे पथ्योपमना असंख्यातमा नागना आयुष्यवंत देवतापणेज उववार्ड के उपजे. पण वधारे श्रायुष्यपणे उपजे नहीं. थने तेटर्बु श्रायुष्य तो नुवनपति तथा व्यंतरमांहेज बे; पण ज्योतषी प्रमुखमाहे नथी. ॥ १४ ॥ श्रहींयां को प्रश्न करे के पूर्वे एहवं कडं जे, अध्यवसाय विशेषे एटले मनपरिणामव्यापार विशेषे देवता थाय; तो समूर्छिम तिर्यंच मनरहित Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ pg संग्रहणीसूत्र, . माटे केवी रीते देवता थाय ? तेहने उत्तर श्रापवामाटे जगवतीसूत्रना वृत्तिकार श्रीअजयदेवसूरि एवं समाधान करे के, संाविशेषरूप अध्यवसाए करी मनरहित समूर्छिम पण देवगति पामे. ॥ हवे वली अध्यवसाय विशेषे गतिर्नु तरतमपणुं कहे . ॥ बालतवे पडिबछा ॥ नक्कड रोसा तवेण गारविया ॥ वेरेणय पडिबझा ॥ मरिलं असुरेसु जायंति॥१५॥ अर्थ- जे अरिहंतनी श्राझारहित तत्वज्ञाने शून्य ते बाल एटले मिथ्यात्वी होय, तेहनुं जे पंचाग्नि प्रमुख तप ते तप घणा जीवोनु घातकारी, तेवा तपनेविषे प्रतिबंध एटखे आसक्त होय. वली तपस्वी थकां जकडरोसा के० उत्कृष्टरोषनाधरनार होय, तथा वली तपस्या करीने अहंकार करे. वली तपस्वी थकां कृम दैपायननीपरे कोश्क जीवनी साथे वैरजाव करवानो प्रतिबंक करे. एहवा जीव मरी असुरेसु जायंति के असुरकुमारजुवनपतिमाहे उपजे. ॥ १५० ॥ रअगाद विस नकण ॥ जल जलण पवेस तएह बुद उद गिरिसिर पडणान मुया ॥ सुहनावा हुंति वंतरिया ॥१५॥ वली रझुगाह के जे गले दोरडानो फांसो खाइ मरे, तथा विषनदण करी मरे, वली जल के पाणीमांहे बडीने मरे, तथा जलण के अग्निमांहे प्रवेश करी मरे, तण्ह के तृषाये करी मरे, तथा बुह के० धाये पीड्यो थको मरे, विरहादिक उखे करी मरे, गिरि सिर के० पर्वतना शिखर थकी पमीने मरे. एटलां स्थानके, अभ्यंतर रोज परिणामने अनावे, अने मंद शुज परिणामे, शूलपाणी प्रमुखनीपरे जो शुज परिणाम श्रावे तो मरीने व्यंतर देवतानी गति पामे. ॥ १५१ ॥ तावस जा जोसिया ॥ चरग परिवाय बनलोगो जा ॥ जा सदस्सारो पंचिंदि ॥ तिरिय जा अच्चु सढा ॥ १५ ॥ अर्थ- वली कंद मूल फल श्राहारी वनवासी तावस के तापस जाति मरीने नुवनपति श्रादे देश जा के यावत् उत्कृष्टुं जोसिया के ज्योतषीसुधी जाय. तथा चार पांच नेला थक्ष टोढुं मली निक्षा मागे, तेदने चरक कहीएं. अने कपिलमति परिव्राजक ते त्रिदंमिया कहीएं. ते मरीने जुवनपति आदे देश उत्कृष्टा ब्रह्म देवलोक सुधी जाय. गर्नज पर्याप्ता पंचेनी हाथी, बलद, प्रमुख तिर्यंच संबल कंबल सरखा सम्यक्त्व देशविरति सहित मरीने सहस्रार देवलोकसुधी जाय. देशविरति सहा के० श्रावक मनुष्य मरीने बारमा श्रचुतदेवलोकसुधी जाय. ॥ १५ ॥ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए संग्रहणीसूत्र. जश लिंग मित्र दिही ॥गेविजा जाव जंति उक्कोसं ॥ पयमवि असदहंतो ॥ सुत्तबं मिबदिछी ॥ १५३ ॥ अर्थ-जे रजोहरणादिक साधुनो वेषधारी जतीना लिंगे मिथ्यादृष्टी होय, ते क्रियाना बले करी दशविध चक्रवालसामाचारीना प्रजावे मरीने अंगारमईकाचार्यनीपरे उत्कृष्टा नवमा ग्रैवेयक सुधी उपजे. ते मिथ्यात्वी कोने कहीयें ? जे छादशांगी सूत्र सुधां सबहे, परंतु सूत्रोक एक पदने पण असदहतो रहे तो तेहने देशथकी मिथ्यात्वी कहीएं तथा वीतरागोक्त सूत्रथकी श्रने सूत्रना अर्थथकी पदमात्र पण सहहे नहीं तेने सर्वश्रकी मिथ्यात्वी कहीएं. ॥ १५३ ॥ तेमाटे सूत्रलक्षण कहे . सुत्तं गणहर रश्यं ॥ तदेव पत्तेय बुद्ध रश्यंच ॥ सुय केवलिणा रश्यं ॥ अनिन्नदस पुविणा रश्यं ॥ १५४ ॥ अर्थ- हवे सौधर्मस्वामि प्रमुख गणधरनां रचेलां जे श्राचारांगादिक सूत्र, तेमज नेमिराजा प्रमुख प्रत्येकबुद्धनां रच्यां नेमिप्रव्रज्या दिक, वति चनदपूर्वधर श्रुत केवली संय्यंजवसूरि प्रमुखनां रच्यां दशवैकालिकादिक सूत्र, वली अजिन्नदसपुविणारश्यं के संपूर्ण दशपूर्वधरनां जे रच्यां ए सर्वने सूत्र कहीएं ॥ १५ ॥ बनमन संजयाणं ॥ नववा जक्कोस अ सब॥ तेसिं सढाणं पिय ॥ जदम होइ सोहम्मे ॥ २५५ ॥ अर्थ-बउमठ के बनस्थ संजयाण के संयत जे साधु तेनुं उपज उत्कृष्टपणे सर्वार्थ सिझविमानसुधी होय. तथा तेसिं के तेज बद्मस्थ साधुने तथा सट्ठाणं के० श्रावकने पण अपि के निश्चे जहब के जघन्य थकी सौधर्म कल्पे उपजq थाय. पण तेमांहें एटबुं विशेष जे उद्मस्थ साधुने सौधर्म देवलोके पक्ष्योपम पृथक्वायु होय. अने श्रावकने एक पढ्योपमनुं श्रायुष्य होय. ॥ १५५ ॥ खतमि चनद पुविस्स तावसाईण वंतरेसु तदा ॥ एसिं उववाय विदि ॥ निय किरिय ग्यिाण सबोवि ॥ १५६ ॥ अर्थ- चउदपूर्वी साधु जघन्यथकी लांतक देवलोके उपजे. तापस, संन्यासी, शा क्यादिकने जघन्यथकी व्यंतरनेविषे उपज होय. ए सबोवि के सर्वने उपजवानो विधि ते जे निय के पोतपोतानी क्रियानेविषे ठियाण के० स्थित एटले सावधान रह्या होय तेवा सर्वने जाणवा. ॥ १५६ ॥ अहींयां श्री पन्नवणासूत्रमध्ये तापसने जघन्यथकी जुवनपतिमाहे उपजवू कडं Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संग्रहणीसूत्र. ୧୧ ३. ए उपपातविधी एटवे उपजवानो मार्ग ते आप श्रापणा मार्गना आचारवंतने जाणवो. जेवारे पोतपोताना शास्त्रोक्त मार्गे चाले तेवारे ए ए स्थानके उपजे. ॥ हवे संघयणविशेषे देवतानी गतिविशेष होय तेमाटे संघयणनुं खरूप कहे .॥ वजारिसदनारायं ॥ पढमं बीयं च रिसदनारायं ॥ नारायमनाराय॥ कीलिया तदय देव ॥ १५ ॥ ए एस्संघयणा ॥ रिसहो पट्टोय कीलिया वऊं॥ज न मकड बंधो ॥ नारा दो विने ॥ २५ ॥ अर्थ- जे शरीरना हामनो दृढ दृढतर बंध तेहने संघयण कहीएं. तेहना नेव २. पहेलो वज्रषजनाराच, बीजो रुषजनाराच, त्रीजो नाराच, चोथो अर्डनाराच, पांचमो किलिका, बहो बेवको, एटले सेवा ॥ १५७ ॥ हवे एहनो अर्थ कहे जे. बे हाडनी संधी उपरें विंटणो जे पाटो ते रुषन कहीएं. तेउपरे खीलो ते कालिका वज के वन समान कहीएं. अने जे हामकानी बन्ने सांधने मर्कटाकारे जे बंध माहोमांहे मिलित ते नाराच जाणवो. एत्रणे मियां थकां वज्रषजनाराच संघयण कहीएं. अने कीलिकारहित ते बीजो शषजनाराच, केवल मर्कटबंध ते त्रीजो नाराच, एक पासे मर्कटबंध अने बीजे पासे कीलिका ते चोथो अर्डनाराच, ज्यां हामनो बंध एकली कीलिकाएज होय ते पांचमो कीलिका, श्रने ज्यां बेल हाडकांना बेडा सगारेक लाग्या होय, पण पूर्वना वज्रषजनाराचमांहेनो बंध को होय नहीं, थने सेवा के तेल चोपq तथा विमाणानी वांबा करे. तेथी केटलोक काल रहे. पडी वणसे ते सेवा हो संघयण कहीएं. टीकामां आम कडं जे जे आसपास स्पर्शरूप सेवामात्रे करीने व्याप्त एवां हाड निरंतर स्नेहाच्यंगादिकोनुं वारंवार संघटननी अपेक्षा करे जे ते सेवाए हृत के व्याप्त अथवा सेवाने पामेलुं ते सेवात. एवा पख को ठेकाणे अर्थ . अने बेवळं एवो पण क्यांक क्यांक पाठ , त्यां बेदपृष्टं के बेदेकरी स्पष्ट एवो अर्थ जाणवो. ॥ १५ ॥ ॥ हवे ए गए संघयण किया किया जीवमा लाने ? ते विगतथी कहे .॥ ब गन्न तिरि नराणं ॥ समुचिम पणिदि विगल बेवकं ॥ सुरनेरश्या एगिदियाय ॥ सवेअसंघयणा ॥ १५ ॥ अर्थ- गर्नज, तिर्यंच तथा मनुष्यने छए संघयण होय, वली समूर्छिम पंचेजितिर्येच तथा समूर्छिममनुष्यने एक बेवको संघयण होय. तथा विगल के बेंजी, Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० संग्रदणीसूत्र. तेंडी, चौरेंडी ए ने विगड़ी कहीएं, एहने पण बेवडो संघयण हाय. वली कम्पयमीमांहे समूर्व्विमपंचेंद्री तिर्यंचने बए संघयण कह्या बे ने सुर के देवता तथा नेरया के० नारकी तथा समस्त एकेंद्री ए सर्वने संघयणी कहीए. एमां कोइ संघी नथी. केमके जे अस्थिनी रचना तेहने संघयण कहीएं, ते एमां नथी. - तोप देवतामा स्थिरूप संघयण विना जे शक्तिविशेष तेने पण उपचारे संघयण कहीएं. केमके देवतामांहे चक्रवर्त्ति करतां पण शक्ति घणी बे. ते शक्तिना गुणे देवतामहे पण वज्ररुषजनाराच संघयण कहीएं. हवे थोमी सी शक्ति एकेंद्री मांदे प बे, ते गुणेकरी एकेंडीने पण कोइक बेवडो संघयण कहे बे. परंतु मूलजागे व स्थिरूप संघयण देवतामां नी ॥ १५९ ॥ ॥ हवे संघयण की गति कहे बे. ॥ पणे व जगम्मइ ॥ चनरो जाकप्प कीलियाईसु ॥ चनसुडडु कप्प बुमी ॥ पढमेणं जाव सिद्धीवि ॥ १६० ॥ अर्थ- बेवडे संघयणे करी अध्यवसाय विशेषथकी जुवनपति, व्यंतर, ज्योतषी, वैमानिकांना यावत् चोथा देवलोकसुधी जाय. छाने किलिकादिक विपरीतगणतां चारे संघयणे करी डुडु के० बेबे देवलोक चढतां चढतां उपजे, ते श्रावी ते जे किलिकासंघयणे करी पांचमा ने बहा देवलोकसुधी जाय. अर्द्धनाराच संघयणे करी शुक्र ने सहस्रार देवलोकसुधी जाय. अने नाराच संघयणे करी - तने प्राणत देवलोकसुधी जाय. छाने षननाराचे करी आरण अने अचुत देवलोक सुधी जाय. ने वज्ररुषजनाराच प्रथम संघयणे करी सर्वत्र नुवनपति, व्यंतर, ज्योतिषी, बार देवलोक, नव ग्रैवेयक, अने पांच अनुत्तर विमाने जाय. छाने यावत् सिद्धीवि के० मोहने विषे पण जाय, एटले पहेला संघयणनो धणी अति उत्कृष्ट अध्यवसाये चढती पदवीना देवतामांहे उपजे, छाने कोइक कर्म खपावी केवल पामी मोदे पण जाय. ॥ दवे ज्यां संघयण त्यां संस्थान होय, संस्थान एटले शरीरनो आकार विशेष. ते संस्थान व प्रकारनां बे, तेनां नाम कहे बे. ॥ संमचरंसे नग्गोद ॥ साइ वामणय खुऊ ढुंडेय ॥ जीवा - ए ब संगणा ॥ सङ्घबसु लकणं पढमं ॥ १६२ ॥ नाहीए वरि बीयं ॥ तय मदो पिठि उयर नरवऊं ॥ सिर गीव पाणि पाए ॥ सुलकणं तं चवंतु ॥ १६२ ॥ विवरीयं पं For Private Personal Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०१ संग्रदणीसूत्र. चमगं ॥ सबब अलकणं नवे 5 ॥ गनय नर तिरिय बदा ॥ सुरासमा हुंडया सेसा ॥ १६३ ॥ अर्थ- पहेलु समचउरंस, बीजु न्यग्रोध परिमंगल, त्रीजुं सादि, चोथु वामन, पांचमुं कुज, हुं हुंमक, ए रीते जीवनां ए ब संस्थान होय. अने अजीवनां पांच संस्थान होय. एक परिमंगल, बीजं वट्ट, त्रीजु त्रिंस, चोथु चरंस श्रने पांचमुं आयत. ए पांच संस्थान ते अजीवपुजलस्कंधना होय. पहेला सर्व स्थानके सर्व अवयवनेविषे लक्षणोपेत पहेतुं संस्थान होय. समा के लक्षणोपेत चारेदिशिना चार अस्त्र के शरीरना खूणा ले. ज्यां पद्मासन बेग चारे दोरी सरखी होय ते समचरंस संस्थान तीर्थकरनी प्रतिमाने होय. ___श्रने जे वडवृदनीपरे एटले जेम वडवृद नीचे थोडं हीन होय, अने उपर संपूर्ण पूरूं होय; तेम जे संस्थान नाहीए के नाजिने हेठे हीन होय; अने उपर लदणोपेत होय. ते बीयं के बीजु न्यग्रोध संस्थान जाणवं. त्रीजु सादि के श्रादि ते नानिने अहो के अधो एटले नानिने नीचे लक्षणोपेत अने नाजिउपर हीन ते सादिसंस्थान जाणवू. चोथु वामन के० पूठ, उदर अने उर के हृदय ए हीनलक्षणे होय; एटलांने वजं के वर्जकरीने एटले त्याग करीने बाकी मस्तक, ग्रीवा, पाणी के हाथ, पाए के पग एटलां सुलक्षणां होय ते वामन संस्थान जाणवं. ॥ १६ ॥ विवरीयं पंचमगं के पांचमुं एथकी विपरीत एटले पूठ, उदर, अने हृदय ए सर्व लक्षणोपेत होय. अने मस्तक, ग्रीवा, हाथ, पग, लक्षणे हीन होय. ए रीते वामन संस्थानथकी जे विपरीत अंग होय ते कुब्ज संस्थान कहीएं. हं समस्त शरीरना अवयवरूप अलक्षण एटले विपरीत लक्षण होय. ते हुंडक संस्थान कहीएं. ॥ १३ ॥ ॥हवे ए ब संस्थान ते किया किया जीवने विषे होय ? ते जुदा जुदा विवरिने कहे .॥ गर्नेजमनुष्य तथा गर्नेजतियेंचमांहे बहा के बए संस्थान होय, अने सुरा के देवताने एक समा के० समचरंस्त्र संस्थान होय, अने शेष थाकता नारकी, एकेडी, बेंजी, तेंडी, चनरेंजी तथा समूर्छिमपंचेंजीतिर्यंच, तथा समूर्बिममनुष्य ए सर्व हुंमया के० ढुंमक संस्थानवाला होय. ॥ १६३ ॥ ___ कम्मपयडीनेविषे समूर्छिमपंचेंडीतिर्यंचमांहे बए संस्थान वखाण्यां बे. एकेंजीमांहे ढुंडकसंस्थान, तेमांहे पण पृथ्वी मसूरचंदा, थने अपकायतुं स्तिबुक बिंड जेवं Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०३ संग्रहणीसूत्र. संस्थान; तथा तेउकायतुं सूचीकलाप संस्थान, वायुकायतुं पताकाने श्राकारे संस्थान, अने वनस्पतीकाय वीचित्र प्रकारनां संस्थानवंत होय. ए रीते कम्मपयडीमां वखाण्यां डे. - वायुकाय वैक्रियशरीर करे, तोपण पताका जेवां संस्थाने करे, अने पंचेंजीतिर्यच अने पंचेंडीमनुष्य, तथा बारमा देवलोकना देवतासुधी जे उत्तर वैक्रियरूप करे; ते नानाप्रकारनुं संस्थान जाणवं. श्रने मूलगुरुरूप समचरंत्र जाणवू. तथा नारकी जे उत्तरवैक्रियरूप करे ते पण हुंडकसंस्थाने जाणQ. ए देवता, गतिछार संपूर्ण थयुं. ॥ हवे देवता देवगति थकी चवीने क्या क्या उपजे ? ते आगति छार कहे . ॥ जति सुरा संखाजय ॥ गन्नय पङत्त मण्य तिरिएसु ॥ पजत्ते सुय बायर ॥ नूदग पत्तेय गवणेसु ॥ १६४ ॥ अर्थ- सामान्यपणे चारे निकायनासुरा के देवता ते देवगतिथकी चवीने एक युगलियाविना बीजा गर्नज पर्याता संखाउ के संख्याता आयुष्यना धणीजे मनुष्य तथा तियंच तेने विषे जंति के जाय. वली पङात्ते के पर्याप्ता बायर के बादर, पृथ्वीकाय, अप्पकाय, अने प्रत्येक वनस्पतीकाय ए त्रणमांहे देवता मरीने उपजे. अने शेष सूक्ष्मपृथ्वी, अप्प, साधारण वनस्पती, तथा अपर्याप्ता बादर, पृथ्वी, अप्प तथा प्रत्येक वनस्पति, तेउकाय, वायुकाय, बेंडी, तेजी, चउरेंडी, तथा युगलिया अने स. मूर्बिम अपर्याप्तातिर्यंच, तथा समूर्छिम अपर्याप्तामनुष्य, वली देवता, तथा नारकी-एटले स्थानके देवता चवीने उपजे नहीं. ॥ वली श्रागतिनुं विशेषपणुं कहे . ॥ तबवि सणंकुमारं॥प्पनिई एगिदिएसु नोति ॥ - णय पमुदा चविलं ॥मणुएसु चेव गबंति ॥ १६५॥ अर्थ- तबवि के त्यां ते श्रागतिनेविषे पण सणंकुमारंपनिई के सनत्कुमार श्रादे देईने सहस्रार देवलोक सुधीना देवता चवीने एकेंजीमांहे उपजे नही. पण शेष एटले बाकीना स्थानके गर्नजपर्याप्ता संख्याता श्रायुष्यना धणी एहवा सामान्य मनुष्य तथा तिर्यंच तेमांहे उपजे. वली थाणत प्रमुख देवलोकथी मांमी अनुत्तरवि. मान सुधीना देवता चवीने गर्नज पर्याप्ता संख्याता थायुष्यवाला सामान्य मनुष्यमांहे उपजे. पण पृथ्व्यादिक एकेंजीमांहे नउपजे.तथा तिर्यंचमांहे पण उपजे नहीं॥१६५॥ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०३ संग्रहणीसूत्र. ॥ हवे जे देवताने जे रीते देवांगना साथे संजोग , अने जे देवताने सर्वथा संजोग नथी ते प्रकार कहे .॥ दो कप्प काय सेवी ॥ दो दो दो फरिस रूवसद्देहिं ॥ च उरोमणेणु वरिमा ॥ अप्प वियारा अणंत सुदा ॥ १६६॥ अर्थ- जुवनपति, व्यंतर, ज्योतषी, श्रने दोकप्प के सौधर्म अने ईशान ए बे देवलोकना देवता ते कायसेवी के अति उत्कृष्ट पुरुष वेदने उदये मनुष्यनीपरे विषय सेवा करे. कायसेवाविना देवांगना पण तृप्ति पामे नहीं. मनुष्यनीपरे देवताने पण वीर्य होय. तेश्री देवांगनाने बल तथा कांति अधिक होय. ए वात श्रीपन्नवणा उपांगमाहे कही ले. अने सनतकुमार तथा माहें ए बे देवलोकना देवता ते देवांगनाना स्तन, जुज तेहनां श्रालिंगने करी कायस्पर्शेज संजोगसुख माने. वली ब्रह्म अने लांतक ए बे देवलोकना देवता ते देवांगनानुं रूप देखीनेज सुख पामे.तथा शुक्र अने सहस्त्रार देवलोकना देवता ते पोताने जोग योग्य जे देवांगना, तेहनां गीत, हास्य, विलास, जाषित, नूषण, नेपुर प्रमुखना शब्द सांजलीने कामसुख अनुनवे. तथा श्राणतादिक चारे देवलोकना देवता ते जे रमवा योग्य देवी मनमांहे चिंतवे तेवारे ते देवी पोताना स्थानके बेठी श्रृंगार करी जली बुरी कामचेष्टाने मनमाहे धरती जोगने माटे सावधान थाय, तेवारे ते देवता त्यांज रह्या थका मन संकल्पे पूर्ण सुख पामे. फरसादिक समस्त स्थानके कायसेवीनीपरे देवतानी शक्तिएं करी देवांगनाना शरीरमांदे शुक्रना पुजल संचरे, तेथी देवांगनाने संजोगसुख उपजे. केमके देवताने शुक्रपुजल जे; तेणे करी देवांगनाने सर्व सुख उपजे. परंतु वैक्रिय पुनले गर्न उपजे नहीं. अने जे चक्रवर्तिना वैक्रियशरीरना शुक्रपुमलथकी गर्न उपजे बे, तेहy मूल शरीर औदारिक , तेथी वैक्रियपुजल उदारिकपणे परणमावे; तेथी गर्न उपजे. वैक्रियपुगल उदारिकपणे जे परणमावे बे; ते नावार्थ श्रीरायपसेणीसूत्रनी टीकामांहे मलयगिरिश्राचार्य वखाएयो . तथा उपरना नवग्रैवेयक, अने पंचअनुत्तरविमानना देवता ते अप्रवीचारा एटले विषयसेवारहित पुरुषवेदथकी अत्यंत मंद मने करी पण स्त्रीने प्रार्थे नहीं. - कायसेवीथकी अनंतगणुं सुख स्पर्शसेवीने जाणवं, तेथकी रूपसेवीने अनंतगणुं सुख, तेथकी शब्दसेवीने अनंतमणुं सुख, तेथकी वली मनसेवीने अनंतगणुं सुख, तेथकी अप्रवीचारीने अनंतगणुं सुख जाणवू. हवे श्रहीयां को पूढे के नववेयक तथा पंचानुत्तरविमानना देवता जो विषयसेवा रहित ने तो एहने ब्रह्मचारी केम Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ संग्रहणीसूत्र. न कहीये? तेहने उत्तर कहे जे जे, अविरति नाम कर्मोदयथकी देवताना जवखनावे करी चारित्र परिणामनो अनाव , अने अप्रवीचार सुखथकी उपशम सुख अनंतगणुं . क्यांक अप्रविचारने स्थाने अल्पविकार एवं लख्युं . ॥ १६६ ॥ ॥ तेज सूत्रकार आगली गाथाए कहे .॥ जं च कामसुहं लोए ॥ जं च दिवं महासुदं ॥वी यराग सहस्सेय॥त नागंपिनग्घ॥१६॥ अर्थ- लोए के लोकनेविषे जं के जे कामसुहं के० कामसुख कायसेवारूप, तथा देवतासंबंधी जे महा के परमसुरतसुख ते सर्व श्रीवीतराग एटले विशेषेकरी गया जे राग हेष जेहना, एवा श्रीवीतरागर्नु जे प्रशमसुख तेहने अनंतमे नागे पण ए पूर्वोक्त सुख समर्थे नहीं. एटले वीतरागना सुखना अनंतमा नाग सरखं पण न होय. ॥ हवे देवीनुं उत्पत्तिस्थान कहे .॥ उववा देवीणं ॥ कप्प पुगं जा परो सदस्सारा ॥ गमणा गमणं नही॥ अच्चुय पर सुराणंपि॥१६॥ अर्थ-जुवनपति, व्यंतर, ज्योतषी, सौधर्म, अने ईशान देवलोक सुधी यावत् देवीणं के देवी ने उववा के उपज होय. उपरांत देवीने उपज होय नहीं. अने देवताना जोगने माटे उपरना देवलोकमांहे सौधर्म तथा ईशानदेवलोकनी अपरिगृहिता देवी उपरो के उपर सहस्रार देवलोकसुधी जाय. अने सहस्रार देवलोकथी उपरना देवलोके देवी/नो गमणागमणं नबी के जावु श्राव, नथी. कदाचित् श्राणतादि देवलोक योग्य देवीने कायसेवानी वांडा उपजे, तो मनुष्यसाथे अथवा सौधर्म अने ईशान देवलोकना देवतासाथे कायसेवा पण करे, परंतु विषयसेवामाटे आणतादि देवलोकनेविषे जाय नहीं. तथा ते देवो पण श्रावे नहीं. कदाचित् बारमा देवलोकनो देवता मनसेवी मनुष्यलोकमां श्रावी मनुषणि स्त्रीसाथे कायसेवा करे, तो मरीने तेज स्त्रीने पेटे उपजे. तेमज देवीने पण कायसेवा होय. वली अच्चुत पर सुराणंपि के अचुत देवलोकथकी उपरांत देवतार्नु पण गमनागमन नहीं. हेग्ला देवोने बारमा देवलोकथकी उपरांत जावानी शक्ति नथी. तथा उपरना देवताने अहींयां आववानुं प्रयोजन नथी. केमके ग्रैवेयक तथा पंचानुत्तरनादेवता ते, तीर्थंकरना कल्याणिकमहीमाए पण शय्या थकी नीचे उतरे नहीं. किंतु शय्याएं बेगज नमस्कारादिक नक्ति साचवे. अने संदेह उपजे तो मनवर्गणाए प्रश्न करे, ते केवली केवलज्ञाने जाणीने तेहनो मनोवर्गणाएं उत्तर श्रापे. तीर्थकरनी मनोवर्गणा उत्तरसहित ते प्रश्न अवधिज्ञाने जापीने देवता पोतानो संदेह टाले. परंतु अहीयां आवे नही. ॥ १६७ ॥ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०५ संग्रहणीसूत्र. ॥ हवे कील विषिया देवतानां स्थानक कहे जे.॥ ति पलिय तिसार तेरस ॥ सारा कप्प उग तश्य लंत अहो । किब्बिसिय नहुँति उवरिं॥ अच्चुय परउनिगाई ॥ १६ए ॥ अर्थ-अशुज कर्मना उदयेकरी देवतामांदे चंडाल सरखा, ते किलविषिया देवता कहीएं. ते सौधर्म तथा ईशान देवलोकतले तिपलिय के त्रण पक्ष्योपमने आयुष्ये वसे बे. तेमज सनत्कुमारदेवलोकने तले तिसार केत्रण सागरोपमने आयुष्ये वसे बे. एमज तेरस के तेर सागरोपमने श्रायुष्ये बडे लंत के लांतक देवलोकने श्रहो के अधोजागे वसे . किब्बिसिय न हुँति उवार के ए किविषिया देवता ते लांतकनामा बग देवलोकथी उपरांत उपजे नहीं. वली अच्चुय के अञ्चत देवलोकथी पर के उपरांत अनिउँगाके अनियोगिकादिक देवता तथा श्रादिशब्दथी सामानिकादिक देवता पण न उपजे. किंतु ए नव. ग्रैवेयक, तथा पंचानुत्तर विमानवासी समस्त देवता ते स्वयमेवपणे इंउ सरखा जाणवा. ॥ हवे सौधर्म तथा ईशानदेवलोके अपरिग्रहिता देवीना केटला विमान तथा केटयुं आयुष्य ? तथा किया किया विमानवासी देवताने उपजोग योग्य होय ? ए अर्थ विस्तारथी कहे बे.॥ अपरिग्गद देवीणं ॥ विमाणलरका उ हुँति सोहम्मे ॥ पलियाई समयादिय॥हि जासि जाव दसपलिया ॥ १० ॥ ता सणंकुमारा ॥णेवं वहृति पलिय दसगेदिं ॥ जा बंन सुक आणय ॥ आरण देवाण पन्नासा ॥ १७॥ ईसाणे चन लरका । सादिय पलियाई समय अदिअ विश् ॥ जा पनर पलिय जासि ॥ ताठ माहिंद देवाणं ॥ १३ ॥ एएण कमेण नवे ॥ समयादिय पलिय दसग वुढीए ॥वंत सहसार पाणय ॥ अच्चुय देवाण पण पन्ना ॥ १७३ ॥ अर्थ- केवल अपरिग्रहितादेवीनां उ लाख विमान सौधर्मदेवलोके बे. तेमाहे जे वैमानमांहेली देवीउनु एक पट्योपमर्नु पूर्ण आयुष्य , ते देवी सौधर्मवासी देवताने जोग योग्य जाणवी. अने जे देवीने पलिया के एक पल्योपमादिक एटले एक पट्योपम उपरे समयाहिय के एक समय अधिक, अथवा बे समय, त्रण समय, संख्यातासमय, असंख्यातासमय, अधिक-एम जाव के० यावत् दश पत्योपमना आयुष्यवाली अप. १४ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ संग्रहणीसूत्र. रियहितादेवी ॥७॥ ते सर्व सणंकुमारा के सनत्कुमारवासी देवताने उपलोग योग्य जाणवी. पण ते देवी तेथी उपरना देवलोकना देवताने वांछे नही. एमज फरी दश पक्ष्योपमधी उपरांत एक समय, बे समय, त्रण समय, श्रादे दश्ने दसगेहिं के दश पस्योपमसुधीनी बीजी वृद्धि करीएं, एटले वीश पख्योपमनुं आयुष्य ब्रह्मदेवलोकना देवताने नोगयोग्य देवीनुं जाणवू. ___ वली तेवारपनी ए एमज समय श्रादे देश्ने दश पक्ष्योपमनी वृद्धि सुधी एटले त्रीशपट्योपमना श्रायुष्यवाली देवी ते शुक्रदेवलोकना देवताने जोगयोग्य जाणवी. तेवार पली वली समयादि वृद्धिए चालीश पत्योपमना आयुष्यवाली देवी ते आणतदेवलोकवासी देवताने जोगयोग्य होय. वली तेवारपढी समयादि वृद्धिए यावत् पचाश पस्योपमना श्रायुष्यवाली देवी ते थारण देवलोकना देवताने उपजोग योग्य होय. हवे ईशानदेवलोके अपरिग्रहिता देवीनां चार लाख विमान बे; तेमांहे जे देवीउनु एक पक्ष्योपम साधिक आयुष्य बे; ते देवी ईशानदेवलोकना देवताने लोगयोग्य . तेवार पनी समयादि वृद्धिए यावत् पन्नर पस्योपमना श्रायुष्यनी देवी ते माहेंज देवलोकना देवताने नोगयोग्य होय. ॥ १७२ ॥ एहज क्रमे करी पूर्व रीते दश पट्योपम वधारतां योग्यपणे पचीश पट्योपमना श्रायुष्यनी देवी लांतक देवलोकना देवताने नोगयोग्य होय. तथा पांत्रीश पट्योपमना आयुष्यवाली देवी सहस्त्रार देवलोकना देवताने नोगयोग्य होय. अने पिस्तालीश पस्योपमना श्रायुप्यनी देवी ते प्राणत देवलोकना देवताने नोगयोग्य होय, अने पंचावन पस्योपमना श्रायुष्यवाली देवी ते अच्चुतदेवलोकना देवताने जोगयोग्य होय. ॥ १७३ ॥ ॥हवे देवने लेश्या दोढगाथाए करी कहे ॥ किन्दा नीला काक ॥ तेक पम्हाय सुक्क लेस्सा ॥ नवणवण पढम चनलेस ॥ जोइस कप्प उगे तेज ॥१७॥ कप्पतिय पम्द लेसा ॥ वंताश्सु सुक्कलेस हुंति सुरा ॥ अर्थ-जेणे करी जीव कर्म साथे श्राश्लेष पामे तेने वेश्या कहीएं. ते लेश्याना बे नेद बे. एक अव्यलेश्या तथा बीजी जावलेश्या. त्यां श्रात्माने कालां तथा पीलां अव्यरूप कर्म पुजल संयोग ते अव्यलेश्या, अने आत्माना शुनाशुज परिणाम ते नावलेश्या. ए वात नारकीने अधिकारे प्रकटपणे वखाणशे. ते लेश्याना बनेद . एक कृमा, बीजी नीला, त्रीजी कापोत, चोथी तेजो, पांचमी पद्मथने बही शुक्ल-तेमा जवणवण के० Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संग्रहणीसूत्र. १०७ जवनपति ने व्यंतरने कृम, नील, कापोत ने तेजो ए पढम के० पहेली चलेस to चार लेश्या होय. त्यां परमाधामीने एक कमलेश्याज होय. अने जोइस के० ज्योतषी तथा कप्प डुगे के० सौधर्म तथा ईशान ए बे देवलोकने विषे एक तेऊ के० तेजोलेश्या होय. ॥ १७४ ॥ ते उपरांत कप्पति के सनत्कुमार, माहेंद्र ने ब्रह्म - एत्रण देवलोके एक पम्हलेसा के० पद्मलेश्या होय. तेवार पढी लतासु के० लांतक यादे देशने पंचानुत्तर सुधीनासुरा के० देवोने एकली शुक्ललेश्या होय. ए सर्व लेश्या अनुक्रमे निर्मल शुद्ध शुद्धतर जाणवी. जवनपति यादे देइ नव ग्रैवेयकसुधी जाव परावर्त्ते करी जावलेश्या बए संजवे. पंचानुत्तरना देवो प्राये विशुद्ध द्रव्यलेश्यावंत होय; छाने परित्तसंसारी होय. तेमाटे ते देवो जावतः विशुद्ध वेश्यावंत होय. वनपति, व्यंतर, छाने ज्योतषिना शरीरनो वर्ण पूर्वे ए देवोना अधिकारे कह्यो बे. ॥ हवे वैमानिक देवोनो वर्ण कहे बे. ॥ कणगान पनम केसर ॥ वन्ना सु तिसु उवरि धवला ॥१७५॥ अर्थ- सौधर्म ने ईशान ए डुसु के० बे देवलोकना देवनां शरीर कणगान के० राता सुवर्ण जेवां कांतिवालां जाणवां अने तिसु के० त्रीजो, चोथो ने पांचमो ए त्रण देवलोके देवानां शरीर ते पउम के० पद्म एटले कमलनो केसर जे पराग तेवा वर्णे . ने वरिधवला के० लांतक आदे देइने उपरना देवलोकना देव ते, धवला एटले शुक्ल शुक्लतम वर्णे उत्तरोत्तर जाणवा. यद्यपि श्रीजीवा निगमसूत्रमां वंलोग ांतक देवा महूय पुष्पवन्ना एवं कर्तुं बे, तथापि महुडानुं पाकुं फूल aise गौर होय, ते गौरमांदे गणीएं. घने महुमानुं काचं फूल कांइक पांगुरु होय, माटे धवल मांहे गणएं. तेथी अहींयां सिद्धांत वीरोध नथी. ॥ १७५ ॥ ॥ हवे देवताने आहार तथा श्वासोवासनुं स्वरूप कहे बे. ॥ दसवास सदस्साई ॥ जन्नमानुं धरंति जे देवा ॥ तेसिं चन्या दारो || सत्तदि योवेहिं ऊसासो ॥ १७६ ॥ अर्थ- जे जवनपति ने व्यंतर देवोमां दश हजार वर्षना जघन्यायुवाला देव होय; तेसिं के० ते देवने चथादारो के० चोथ पी एटले एक अहोरात्राने श्रांतरे हारनी इछा उपजे. ते इछा उपना थका सर्व इंडिजने आल्हादकारी मनोज्ञ पु करी इछा तृप्ति पामे, ने सत्तहिंथोवेहिं के० सात स्तोके श्वासोवास होय. शरीर मांदे वायु उंचो नीचो वधे-यावे ते साते स्तोके उंचो श्वास खावे, साते For Private Personal Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २0 संग्रहणीसूत्र. स्तोके नीचो श्वास श्रावे, एटला कालना वचमा निश्चल रहे; साते साते स्तोके श्वासोवास करे. ॥ हवे पूर्वोक्त स्तोकनुं प्रमाण कहे . ॥ आदि वादि विमुक्कस्स ॥ नीसासूस्सास एगगो ॥ पाणु सत्त श्मो थोवो॥ सोवि सत्तगुणो लवो ॥ १७ ॥ लव सत्तहत्तरीए॥ दोश् मुटुत्तोश्ममि ऊसासा॥सगतीससयतिहुत्तर॥ तीसगुणा ते अहोरत्ते ॥१७॥ लकंतेरस सहसा ॥ ननयसयं अयर संखयादेवे ॥ परकेहिं ऊसासे ॥वाससहस्सेहिं आहारो ॥१७॥ अर्थ- श्राहिवाहि विमुक्कस्स के श्राधि ते मननी पीमा, श्रने व्याधि ते शरीरनी पीमा, तेथी वीमुक्कस्स के विशेषे करीने रहित, चिंता तथा श्रमथी रहित एवा मनुष्यनो एक निश्वास-उश्वास तेने प्राण कहीएं. पाणुसत्तश्मो के० एवा साते प्राणे थोवो के एक स्तोक कहीएं. सोविसत्तगुणोलवो के एवा साते स्तोके एक लव होय. ॥ १७७ ॥ अहींयां सात प्राणने एक स्तोक कहीएं. तेने सातगुणा करीएं तेवारे उंगणपचाश प्राणे एक लव थाय ने. __ सव सत्तहत्तरीए के सित्तोतर लवे होश्मुहुत्तो के एक मुहूर्त होय. मंमि के० ए एक मुहूर्तमांहे ऊसासा के केटला श्वासोश्वास होय ? ते कहे . पूर्वोक्त . गणपचाशने सीत्तोतेर गुणा करीएं, तेवारे सगतीससयतहुत्तर के सामत्रीशसें ने तहोतेर श्वासोश्वास होय. ते अहोरत्ते के एक अहोरात्रमाहे त्रीश मुहूर्त थायबे, माटे तेने त्रीशगुणा करीएं; ॥ १७ ॥ तेवारे एक लाख तेर हजार एकशो ने नेवु श्वासोश्वास थाय. एने त्रीश गुणा करीएं, तेवारे तेत्रीश लाख पंचाणु हजार ने सातसे श्वासोश्वास एक मासना थायडे. तेने बारगुणा करतां चार क्रोम सात लाख श्रडतालीश हजार ने चारसे श्वासोश्वास एक वर्षना थायजे. एमज सो वर्षनेविषे पण नावना करवी. हवे अयरसंखयादेवेपरकेहिं के जे देवता- जेटला सागरोपमनुं आयुष्य होय, ते देवताने तेटले पदें श्वासोश्वास होय, अने तेटले हजार वर्षे थाहार होय. ते श्रावी रीते के, जे देवता, एक सागरोपमायु होय तेने एकपदे नश्वास होय, अने एक हजारवर्षे थाहारनी श्छा उपजे. जेम सर्वार्थ सिझे तेत्रीश सागरोपमायु दे, तो तेत्रीश पदे श्वासोश्वास अने तेत्रीश हजारवर्षे थाहारनी श्छा उपजे. ॥ १७ ॥ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संग्रहणीसूत्र. ॥ हवे जे देवोनुं दश हजार वर्ष उपरांत पण एक सागरोपमनुं पूर्णायु न होय तेना वचमांशाहार अने उश्वासनुं कालमान कहे. ॥ दस वास सदस्सुवारें ॥ समयाई जाव सागरं ऊणं ॥ दिवस मुहुत्त पहुत्ता ॥ आदारूसास सेसाणं ॥ १८० ॥ अर्थ- जे देवतानुं दश हजार वर्ष उपरांत, समयाइ के० समयादिक एटले स-मय, आवली, मुहूर्त, दिवस, पक्ष, मास, संवत्सर, युग, एक बे यादि पव्योपम, एम जाव के० यावत् सागरंऊणं के० कांइक ऊणुं सागरोपमायु होय, ते देवताने दिवस पृथक्त्वे आहारा जिलाषा थाय, अने ते मुहूर्त्त पृथक्त्वे उसास करे. सिद्धांतनाषाए पृथक्त्व शब्दनो अर्थ वे यादे देईने नव सीम संख्यानुं मान कहीएं. यहींयां ए जावार्थ जे दश हजार वर्षथी उपरांत एक समयादि वृद्धिए अनुक्रमे दिवस पृथक्त्वे आहार, मुहूर्त्त पृथक्त्वे उसासने वधारता जश्एं, ते त्यांसुधी वधारीएं के ज्यांसुधी पूर्ण सागरोपमायुप्रत्ये पथकी उसास ने एक हजार वर्षथकी आहार थाय ॥ १८० ॥ ॥ हवे सिद्धांतमां हारना ऋण नेद बे ते कडे. ॥ सरिरेण ज्याहारो ॥ तयाइ फासेण लोम आहारो ॥ पकेवा दारो पुण ॥ कावलि दोइ नायवो ॥ १८२ ॥ अर्थ - केवल शरीरे करी जे आहार ते जादारी. यद्यपि शरीर पांच बे. तथापि तेजस ने कार्मण शरीरे करी जीव उत्पत्ति देशे श्रावी पूर्व शरीर त्यागे. विग्रहगति अथवा विग्रह गतिवालो जीव प्रथम समये श्रदारिक शरीर योग्य पुजला - हार करे. बीजा समय आदे देई कार्मणसाथे औदारिक मिश्र आहार करे. ते ज्यांसुधी शरीर पूर्ण नीपजे, त्यांसुधी. ए पूर्वोक्त सर्व गुंजः कदेतां तेजस शरीर, तेणे करी जे आहार ते प्रथम जाहार जाणवो. छाने तथा के० तथा फासे के स्पर्शेडिये करी जे आहार-जेम के तेल चोपनवाथकी मुखे चीकाश थाय. उनाले पाणीनी बांट लागवाथी शीतल पुनले तृषा मटे. ए बीजो लोम श्राहारो के० लोमादार जाणवो. अने परकेवाहारो के० प्रदेपाहार, ते पुण के० वली कावलीउदोइ के० कोली आए करी मुख प्रदेपे जे आहार ते त्रीजो प्रदेपाहार जावो. ॥ १०१ ॥ ॥ दवे एणे आहार के केइ अवस्थाने विषे होय ? ते कहे बे. ॥ ज्यादारा सवे ॥ अपजत्त पजत्त लोम आदारो ॥ सुर निय इगिंदि विणा ॥ सेसा नववा स परकेवा ॥ १८२ ॥ For Private Personal Use Only २०७ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० संग्रहणीसूत्र. अर्थ- केवल तेजस शरीरे करी उत्पत्ति देशविषे श्रापणा शरीरयोग्य जे पुल ते उज, तेना श्राहारी सत्वे के० सर्व जीव एकैछि आदे देने पंचेंति पर्यंत अपर्याताजीव ते उजा आहारी जाणवा. कोइ एम कहे जे के समस्त खयोग्य जेने जेटली पर्याप्ति कही , तेटली पर्याप्तिए अपर्याप्ता होय ते उजाहारी जाणवा. ते जू कहे बे. कारण के, शरीर पर्याप्तिथकी प्रारंजी जीव लोमाहारी लोमे करे, अंग प्रत्यंगे करी पुजलाकर्षी श्राहार करे; तेमाटे अहींयां शरीर पर्याप्ते अपर्याप्त होय ते जाणवं. परंतु आहार पर्याप्ते अपर्याप्तो न जाणवो. केमके ते तो अणाहारी होय, अने शरीर पर्याप्ते पजत्त के पर्याप्ता ते सर्वने लोमाहारो के० लोमाहार होय. ___अने सुर निरयगिदिविणा के देवता,नारकी श्रने एकेंजी ए त्रण विना सेसानवबा के० शेष जे बाकी समस्त नवस्थ एटले संसारी जीव बेंजी, तेंडी, चौरेंजी, पंचेंजि, तिर्यंच, मनुष्य, ते सपकेवा के० सप्रक्षेपा प्रक्षेप ते कवलाहारी होय. अने देवता, नारकी, तथा एकेंजीने कवलहार नथी; किंतु पर्याप्ति पूर्ण कस्या पली लोमाहारी होय. तेमां देवता ते मनकल्पित शुज पुमल सर्व कायाए आहार करे. नारकीने अशुजपणे परिणमे; ते देवता नारकीना श्राहार पुजलने विशुझ, अवधिज्ञानी एवा पंचानुत्तरविमानवासी देवता देखे तथा जाणे, परंतु नारकी श्रादे देश अवेयक सुधीना देवता अवधिझाने आहार पुजल न देखे.. ॥ वली आहार विशेष कहे .॥ सच्चित्ता चित्तो जय ॥रूवो आहार सब तिरियाणं ॥ सव नराणं च तदा ॥ सुरनेरश्याण अञ्चित्तो ॥१७३॥ अर्थ- सवतिरियाणं के सर्व तिर्यंचने, अने सवनराणं के० सर्व मनुष्योने त्रिविधाहार होय. केवारेक सचित्त, केवारेक अचित्त, अने केवारेक उत्नयरूवो के उन्नयरूप; एटले सचित्ताचित्त ते मिश्र आहार होय. च के० वली तहा के० तेमज सुरनेरश्याण के देवता अने नारकीने अचितो के सदा अचित्ताहार होय. आलोगा णानोगा ॥ सवेसिं दो लोम प्रादारो॥ निरयाणं अमणुनो ॥ परिणम सुराण समणुन्नो ॥ १४ ॥ अर्थ-अपर्याप्तावस्थाएं सर्व जीवोने अजाणपणे श्राहार परिणमे. जेम वर्षाकाले शीतल पुजलने फरसवाथी घणुं मूत्र श्रवे, अने पर्याप्तावस्थाएं सर्व लोमाहारी जीवोने आजोग के जाणतां श्रने अणानोग के अजाणतां एटले केवारेक जाणतां अने केवारेक अजाणतां श्राहार परिणमे, अने एकेंडीने तथा समूर्छिम मनुष्यने मनरहितपणे सर्वथा अजाणतांज थाहार परिणमे, ते लोमाहार निरयाणं के० Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संग्रहणीसूत्र. १११ नारकीने अशुद्ध कर्मोदये करी श्रमन्नो के० अमनोज्ञ एटले मनने सुहामणो परिणम केo परिणमे तथा तेहज लोमाहार सुराण के० देवताने शुभ कर्मोदये करी समणुन्नो के० मनोज्ञपणे सहित परिणमे. तेवार पढी तृतिपूर्वक परम संतोष था. ए कारणे देवताने आयुष्य उपर आहार कालमान बे; परंतु नारकीने श्राहारे कालमान न जाणवुं ॥ १८४ ॥ ॥ एज आहार प्रस्तावे नारकी, तिर्यंच तथा मनुष्योने पण आहार कालमान कहे . || तदविगल नारयाणं ॥ अंतमुहुत्ता सदोइ नक्कोसो ॥ पंचिंदि तिरि नराणं ॥ सादाविजे वह अहम ॥ १८५ ॥ अर्थ - तह के० तेमज विगल के० विकलेंडी ते बेंद्री, तेंडी अने चउरेंड़ी, वली नारयाणं के० नारकीने एकवार श्राहार बीघा पढी वली आहारनी इछा उक्कोसो के० उत्कृष्ट अंतमुत्तासहोइ के अंतर मुहूर्त्त उपरांत उपजे ने एकेंद्री पृथ्वीकायादिकने श्राहारा जिलाष सदा एटले निरंतर उपजे ने पंचिंदितिरि के० पंचेंडी तिर्यंचने साहाविर्ड के० स्वनावे ताप रोगादिकना अजावे उत्कृष्टो बघ के० बे अहोरात्रने अंतरे आहारा जिलाष उपजे. अने नराणं के० मनुष्यने अहम के० त्रण अहो - रात्र अंतरे श्राद्वारा जिलाष उपजे. ए बेउ उत्कृष्ट आहारांतर ते उत्तरकुरु, देवकुरु, तथा जरत ने ऐरवते सूषम सूषमाकाले त्रण पल्योपमायुवाला तिर्यंच मनुष्य श्री जावो ॥ १८५ ॥ ॥ हवे की यो जीव आहारक अने कीयो जीव अनाहारक ? ते कड़े बे. ॥ विग्गद गइ मावन्ना ॥ केवलियो समुदया जोगी य ॥ सिद्धाय प्रणादारा ॥ सेसा खादारगा जीवा ॥ २८६ ॥ अर्थ-विग्रहगतिवाला जीव जे समश्रेणी मूकीने विदिशाए देखाय; अथवा विदिशाए उपन्या, एटले विग्गहगइ मावन्ना के० विग्रहगतिने प्राप्त थपला जीव, तथा केवली समुद्घात करतां, अने छ जोगीय के० सैलेशीकरण करतां योगी नामा चौ गुणा थका वली आठ कर्म दय करी जे सिद्ध थया; ए सर्व जीव अणाहारा के० अाहारक जाणवा. अने सेसा आहारगाजीवा के० शेष एटले बाकी बीजा संसारी जीव ते सर्व आहारक जाणवा. ॥ १०६ ॥ जावार्थ ए बे जे विग्रहगतिवाला उत्कृष्टपणे चार समय अणाहारी होय; श्रने आठ समय प्रमाण केवली समुद्घात बे. तेमां त्रीजे चोथे ने पांचमे समये केवल कार्मण काययोगी होय. ते त्यां त्रण समय श्राहारक जाणवा. अने चौदमे गुण For Private Personal Use Only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ संग्रहणीसूत्र. गणे सैलेशीकरणे अंतर मुहुर्तप्रमाण अणाहारक जाणवा. अने सादि अनंत मोदमाहे सिझना जीव अनंतकाल श्रणाहारक जाणवा. ॥ हवे देवता, खरूप कहे .॥ केसहि मंस नद रोम ॥ रुदिर वस चम्म मुत्त पुरिसेहिं ॥ रहिया निम्मल देदा ॥ सुगंध नीसास गय लेवा ॥१७॥ अर्थ-सर्व देवतार्नु पूर्वनवनां उपजावेलां शुजकर्मना उदयथकी केश, अहि के हाम, मंस के मांस, नख, रोम, रुधिर, वसा के मांसनी चरबी, चाममी, मूत्र, पुरिष, ( विष्ठा ), एनए करी रहिया के० रहित एवं निम्मल के मलरहित शरीर होय. कपूर तथा कस्तुरीना सुगंध सरखो मुखनो निश्वास होय. तथा गतलेपा के जाति लावण्यनी पेरे रज प्रश्वेदादिकना उपलेप रहित होय. ॥ १७ ॥ अंतमुहुत्तेणंचिय ॥ पजात्ता तरुण पुरिस संकासा ॥ सवंग नूसणधरा ॥ अजरा निरुया समा देवा ॥ १७ ॥ अर्थ-वली उत्पत्तिकाले अंतरमुहूर्त्तमांदे पर्याप्ति पूर्ण कस्या पली अत्यंत तरुण पुरुष सरखा सवंग के सर्वांगनेवीषे नूषणना धरनार, अहींयां श्रीजीवानिगमसूत्रना अभिप्राये कोश्क कहे डे के, देवता श्राजरण तथा वस्त्रेकरी रहित बे, ते उत्पत्तिकालेज जाणवा. परंतु उपपात सजाए उपजे, अनिषेक सजाए स्नान करे, अलंकार सजाए अलंकार पेहेरे, व्यवसाय सजाए पुस्तक वांची धार्मिक पीबी प्रमुख पूजोपकरण व्यवसाय लीए, पढी सुधर्मा सजाए सिहायतनने विषे जिनप्रतिमाने पूजे. ए सर्व जूदां जूदां कृत्य करे तो तेने सदाकाल श्राजरण अने वस्त्ररहित केम कहिएं? ते माटे जे एम कहे जे ते असंप्रदाय अर्थ जाणवो. मात्र उत्पत्ति वेलाएज बाजरण तथा वस्त्ररहित होय. वली सदा यौवनवय प्राप्त, जरारहित, निरुया के० निरुज ते काश श्वासादिक रोगरहित, समा के समचतुरंत संस्थानी देवा के० देव होय. अणिमिस नयणा मण ॥ कज साहणा पुप्फ दाम अमिला णा॥ चनरंगुलेण नूमि ॥न बिंति सुराजिणाबिंति ॥ एनए॥ अर्थ-वली देवता स्वनावे अणि मिसनयणा के अनिमिषनेत्र एटले देवशक्ति विशेषे आंख मीटकारे नहीं. मणकऊसाहणा के मनेकरी सर्व कार्य साधक होय, अने जेमना उरनेविषे पुप्फदाम के फूलनी माला ते निरंतर श्रमिलाण के अम्लान एटले कुमलाय नहीं एवी होय. वली जे मनुष्यलोकमांहे आव्या थका चउरंगुसेणचूमि के चार अंगुल नूमिकाथकी उंचा पग राखे; पण नूमिकाने नजिवंति के० Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संग्रहणीसूत्र. ११३ फरसे नही. एवा सुरा के० देव जिलाबिंति के० श्रीतीर्थंकर छाने केवलीए कला बे ॥ दवे जे कारणे देवता मनुष्यलोकमां आवे ते कारण कहे बे ॥ पंचसु जिणकलाणेसु ॥ चैव महरिसि तवाणुनावार्ड ॥ जम्मंत्तर नेदेाय ॥ खागचंति सुरा इदयं ॥ १०० ॥ अर्थ- पंचसुजिएकलासु के० श्री तीर्थंकरना जन्मादिक पांच कल्याणकोने विषे तथा महरि सितवाणुजावा के महोटा षीश्वरना तपानुजावे एटले तपने प्रजावे, वली जम्मंतरनेदेय के० जन्मांतरना स्नेहे करी जेम शालिनडना पिता याव्या तेम, अथवा रीश थकी संगमो देव जेम श्राव्यो तेम, ए कारणे गछंतिसुरा इहयं के देवता यावे, पण कारणविना वे नहीं ॥ १० ॥ - ॥ ते देव कारणविना शामाटे न खावे ? ते कहे बे. ॥ संकंति दिवपेमा ॥ विसय पसत्ता समत्त कत्तवा ॥ दी मयका ॥ नरनवमसुदं नईति सुरा ॥ ११ ॥ अर्थ-जेवारे देवता देवलोकने विषे उपजे, तेवारे तत्काल रमणिक देवांगनाना - गविषे दिव्य प्रेम परस्पर संकंति के० संक्रमे एटले मले. वली विषय जे देवांगनाना स्पर्श, शब्द, रूप तेनेविषे अत्यंत पसत्ता के प्रसक्त एटले विशेषे करीने सक्त ते एक घमीपर्यंत पण मूकी शके नहीं. वली स्नान, वनविहार, नाटकविलोकन, प्रमुख देवकार्य पूर्ण यया विना, वली देवताने मनुष्यसारुं कार्य कां नहीं के जेना धिनपणे करी देवता मनुष्यलोकमां यावे. ते कारणे अशु ने दुर्गंधमय एवा मनुष्यलोकनेविषे देवता न यावे. तेहज दुर्गंधपणुं कहे . ॥ १०१ ॥ चत्तारि पंच जोयण ॥ सयाइ गंदोय मणुय लोगस्स ॥ नङ्कं वच्च जेणं ॥ नहुदेवा ते आवंति ॥ १९२॥ अर्थ- जेणं के० जे कारणे चारसें पांच योजन सुधी मणुयलोगस्स के० मनुष्यलोकसंबंधी मृतकलेवर, मूत्र, पुरीषसंबंधी जे दुर्गंध ते उदुंबच्चइ के० उंचे जाय. तेल ho ते कारणे मनुष्य लोकने विषे नहुदेवा श्रावंति के० देवता न घावे. अहीयां नव योजनसुधी मूलगा गंध पुजल तेवार पढी ते पुजले यागला पुल वासी जे, वली ते पुनले आगला पुल वासीजे, एम अन्योन्य अनेरा अनेरा पुल वासतां चार अथवा पांच योजनसुधी ऊंचो गंध जाय. जे काले श्रीश्रजीतनाथने वारे घणा मनुष्य होय, तेवारे कलेवर प्रमुख पण घण होय. त्यां पांच योजन सुधी, तथा बीजी परे चारसें योजनसुधी गंध उंचो जाय. अथवा १५ For Private Personal Use Only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ संग्रहणीसूत्र. देवता अत्यंत शुभ प्रकृतिवंत बे; तेने थोऊं दुःख ते पण घणुं य परिणमे; तेथी चारसें पांच योजन कह्या. नहीं तो मनुष्यने घ्राणेंद्रियनो विषय नव योजन सुधी बे, छाने देवताने एकांते निश्चय नथी. ॥ १०२ ॥ ॥ वे देवताने व प्रत्ययिक अवधिज्ञाननुं विषयक्षेत्र कहे ॥ दो कप्प पढम पुढविं ॥ दो दो दो बीय तइयगं चथिं ॥ च वरिम हीए ॥ पासंति पंचमं पुढविं ॥ १०३ ॥ छार्थ - दोकप के पहेला बे देवलोकना देव ते पढमपुढविं के० पेहेली नरकपृथ्वी सुधी अवधिज्ञाने करी देखे. अहीयां ए जावार्थ बे जे सौधर्म अने ईशानेंद्रना सामानिकादिक उत्कृष्टायुवाला जे देवो, ते रत्नप्रना पृथ्वीना सर्व देवला जागसुधी are करी देखे. पढी ते उपरना दो के० बे सनत्कुमार ने माहेंद्रना देवता बीजी शर्करप्रनाप्रते देखे. एमज ब्रह्म ने लांतक ए वे देवलोकना देवो ते त्रीजी वालुकाप्रजाप्रते देखे. ने शुक्र तथा सहस्रारना देव चोथी पंकजा प्रते देखे तथा चवरिम के० एथकी उपरना आणत, प्राणत, आरण, अने अच्चुत, ए चार देवलोकना देवता ते पासंतिपंचमं पुढविं के० पांचमी धूमप्रजा नामे नरकपृथ्वी सुधी देखे. पण एटलुं विशेष जे आणत ने प्राणत देवकी चारण ने अच्चुतवाला देव पांचमी पृवीना प्रतरे विशुद्धतर घणा पर्यायवंत देखे. एम ज्यां ज्यां वे बे जोडला बे, त्यां पहेला थकी बीजो सुविशेष देखे. ॥ १०३ ॥ बहि ब ग्गेविता ॥ सत्तमीयरे अणुत्तर सुराऊ ॥ किंचू लोगनासिं ॥ संखदी बुदहि तिरियं ॥ १०४ ॥ अर्थ- देवलना, अने त्रण मध्यना एवं ब यैवेयकना देव ते बडी तमप्रजा नरकपृथ्वीसुधी अवधिज्ञाने करी देखे. अने उपरना त्रण ग्रैवेयकना देवता ते सत्तमीयरे के० सातमी तमः तमप्रजा नामा नरकपृथ्वी सुधी देखे. अने पंचानुत्तरवासी देव ते किंचूएलोगनालिके० कांइक ऊणी लोकनाली पंचास्तिकायरूप चौद राज प्रमाण अवधिज्ञाने करी देखे. एतावता पंचानुत्तर उपर बार योजन सिद्ध शिला बे ने पंचानुत्तरना देव उंचुं पोताना विमाननी ध्वजा सुधी देखे. ते माटे कांइक ऊणी लोकनालीने देखे. तथा तिरियंतु के० ती सौधर्म ने ईशानादिकना देव असंख्याता दीवुदहि के० द्वीप समुद्रने देखे. ॥ १०४ ॥ बहुअरगं वरि मगा | उस विमाण चूलिय धयाइ ॥ ऊण सागरे संख ॥ जोया तप्पर मसंखा ॥ १०५ ॥ For Private Personal Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संग्रदणीसूत्र. ११५ अर्थ- वरिमगा के उपर उपर देवलोकवासी देवता ते बहुवरगं के० बहुत्तरक श्रसंख्याता श्रसंख्याते ने करी बहुत्तर बहुत्तम तिहुँ अवधिज्ञाने करी देखे. तेने अवधिज्ञान पण विशुद्ध विशुद्धतर जाणवुं. छाने समस्त देवता ते उस विमाण चूलिय धाइ के० उंचुं पोतपोतानां विमाननी चूलिकानी ध्वजा सुधी देखे- उपरांत देखे नहीं. केमके देवताना जव स्वजावथकी उंचुं ध्वजासुधीज देखे. एटले वैमानिकने उत्कृष्टुं अवधिज्ञान कयुं. अने जघन्य तो वैमानिकने गुलने असंख्यातमे जागे देखे, एटलुं अवधिज्ञान होय. अहीयां सिद्धांतमां सर्व जघन्य अवधिज्ञान मनुष्य तिर्यंचमां कथं ठे. पण देवताने कर्तुं नथी. तो श्रहीयां केम कयुं ? ते जावार्थ श्रीयावश्यकी पीठामध्ये देवताने उपपात काले परजवनुं अवधिज्ञान अंतरमुहूर्त्त सुधी होय. तेवार पछी देवजवसंबंधी अवधिज्ञान उपजे एटले शंका निवृत्तिए पूर्वोक्त उपपातकाले अवधिज्ञान जेने उपजे एवो तो कोइक होय, ते अल्पपणा माटे सूत्रकारे लख्युं नहीं, एटले वैमानिकने उंचुं नीचुं तिहुँ अवधिक्षेत्र क. हवे गाथाना उत्तरार्धवडे शेष देवताने सामान्यपणे अवधिक्षेत्र कहे बे, जुवनपति, व्यंतराने ज्योतषी देवो ऊपद्धसागरे के ऊणेश्रर्द्धसागरोपमायुष्ये अवधिज्ञाने करी संखजोयण के० संख्याता योजनसुधी देखे. छाने तेवार पढी ज्यारे तप्पर के० तेना उपर आयुष्य वधे; त्यारे असंख्याता योजनसुधी देखे, एम जेम जेम श्रायुवृद्धि याय, तेम तेम असंख्यातामां पण वृद्धि यती जाय. ॥ १०५ ॥ पणवीस जोयण लहु ॥ नारय जवणवण जोइकप्पाणं ॥ वित्तराय ॥ जद संखं उदि आगारा ॥ १०६ ॥ अर्थ- जुवनपति तथा व्यंतर जे दश हजार वर्षना आयुष्यवाला, ते लहु ho जघन्यथकी अवधिक्षेत्र पणवीस जोयण के० पचीस योजन देखे. अहींयां फली. तार्थ कहे बे. दशे जुवनपतिने जघन्य तो पचीश योजन ने उत्कृष्टुं असुर कुमारनिकाय असंख्याता द्वीप ने समुद्र देखे, एटलुं अवधि क्षेत्र होय. शेष नव निकाने संख्याता योजन अवधि क्षेत्र ज्योतषीने जघन्योत्कृष्ट संख्याता योजन अवधि क्षेत्र होय. एटले ते संख्याता द्वीपसमुद्र देखे. व्यंतरने जघन्य तो पचीश योजन, अने उत्कृष्टुं संख्याता योजन अवधि क्षेत्र होय. एटले संख्याता द्वीप ने समुद्र अवधिज्ञाने करी देखे. हवे गाथानां पाउलां त्रण पदे करी नारकी, देवता, तिथंच ने मनुष्यने अवधिज्ञानक्षेत्रनुं संस्थान कहे बे. एक नारय के० नारकी, बीजा जवण के० भुवनपति, श्रीजा व के० व्यंतर, चोथा जोइ के ज्योतषी, पांचमा कप्पाण के० बार देवलोकना देव, बघा वि के० ग्रैवेयकना देव, सातमा अणुत्तराणय के अनुत्तर विमानना For Private Personal Use Only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ संग्रहणीसूत्र. देव, ए सातने जहसंखं के यथासंख्याए एटले अनुक्रमे उहि के अवधिज्ञाननोजे आगारा के आकार एटले संस्थान होय ते कहे . ॥ १६ ॥ तप्पागारे पक्षग ॥ पडदग जल्लरि मुदंग पुप्फ जवे ॥ तिरिय मणुएसु उही ॥ नाणाविह संहिउँ नणि ॥ २ ॥ अर्थ- नारकीन अवधिज्ञान तपागारे के० पाणी उपर तरवाना त्रापाने श्राकारे, जुवनपतिनुं अवधिज्ञान पबग के पालाने श्राकारे, व्यंतरर्नु अवधिज्ञान पमहग के ढोलने श्राकारे, ज्योतषीन अवधिज्ञान जहरि के जबरीने आकारे, बार देवलोकना देवोर्नु अवधिज्ञान मुहंग के मृदंगने आकारे, अवेयकना देवर्नु श्रवधिज्ञान पुप्फ के फूलेनरी चंगेरीने आकारे, अनुत्तरदेवोर्नु अवधिज्ञान, जवे के कुमारी कन्यानो गलकंचु जेवो पेशवाद तूरकणी पहिरणो पहेरे एने ऊ सर कंचुक कहे . ए नामे मारवाम देशमां प्रसिफ ने. तेने श्राकारे जाणवू, श्रने तिरियमणुएसुठही के तिर्यंच तथा मनुष्यने अवधिज्ञान नाणाविद के नानाप्रकारना संस्थाने संधि के संस्थित, जणि के कयुं . जेम स्वयंजूरमण समुअमांहे मत्स सर्व श्राकारे बे; परंतु वलयाकार नथी. अने नर तथा तिर्यंचने अवविज्ञान वलयाकार पण . ॥ १७ ॥ ॥ हवे नारकी, देवता, मनुष्य, अने तिर्यंच ए चारमाहे कोने के। दिशाए अधिक अवधिज्ञान होय ? ते कहे. ॥ उढनवण वणाणं ॥ बहुगो वेमाणियाण हो उदी ॥ नार य जोइस तिरियं ॥ नर तिरियाणं अणेगविदो ॥ १एन । अर्थ-जवण के वनपति तथा वणाणं के व्यंतर, ए बेउने अवधिज्ञान उ8 के उंचुं बहुगो के० घणुं होय, अने तीर्छ तथा नीचं थोडं होय. तेमज विमाणियाण के० वैमानिकने श्रहो के नीचु उही के अवधिज्ञान घj होय. अने तीर्छ तथा उंचुं थोडं होय. वली नारकी तथा ज्योतिषीने तिरियं के तिई श्रवधिज्ञान घणुं होय, अने उंचुं तथा नीचं थोडं होय. श्रने नर के मनुष्य तथा तिरियाणं के० तिर्यंचने श्रणेगविहो के अनेक प्रकारचें अवधिज्ञान होय. एटले कोश्ने चुं घणुं होय, कोश्ने नीचुं घणुं होय, कोश्ने तिर्नु घणं होय, एम नानाप्रकारे विचित्र जाणवू. ॥रए ॥ ॥ हवे ए देवोनुं हार पूर्ण करी नारकी, हार जोमतो कहे .॥ श्यदेवाणं नणियं ॥ विश्पमुदं नारयाण वुनामि ॥ग तिनि सत्त दस सतर ॥ अयर बावीस तित्तीसा॥रएए॥ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संग्रदणीसूत्र. सत्तय पुढवी सुविई ॥ जिठो वरिमाइ दिन पुढवीए ॥ दोइ कमेण कणिका ॥ दसवास सदस्स पढमाए ॥ २०० ॥ अर्थ - इति पूर्वोक्त प्रकारे देवाणं के० देवतानां विश्पमुहं के० स्थिति प्रमुख एटले स्थिति, भुवन, अवगाहना ते शरीर प्रमाण, उपपात विरहकाल, चवन विरहकाल, एक समये उपपात संख्या, एक समये चवन संख्या, गति ने श्रागतिरूप नव द्वार जणियं के० कह्यां. दवे एहज नव द्वार नारयाण के० नारकी साथे जोगी ने बुछामि के० हुं कहीश. दवे यथोद्देश, निर्देश, एटले जे द्वारनो पहेलो उद्देश कीधो हतो, तेज द्वार श्र Firi पण प्रथम कहे बे. त्यां साते नरकनी उत्कृष्टी अने जघन्यायु स्थिति श्र नुक्रमे कहे . रत्नप्रजा पृथ्वीने विषे उत्कृष्टी स्थिति एक सागरोपम, एम बीजी शर्करप्रजाने विषे त्रण सागरोपम, त्रीजी वालुकाप्रजाने विषे सात सागरोपम, चोथी पंकप्रजाने विषे दश सागरोपम, पांचमी धूमप्रजाने विषे सतर सागरोपम, बही तमप्रजाने विषे बावीश सागरोपम, सातमी तमः तमप्रजाने विषे तेत्री सागरोपम ॥ १७॥ ए सत्तयपुढवी सुविई to सात नरकपृथ्वीने विषे श्रायुष्यनी स्यति ते जिहो के० ज्येष्ठ एटले उत्कृष्टी कही. हवे वरिमा के० उपरनी उत्कृष्टी स्थिति ते हि के० देवला नरके जघन्य जावी. जेम रत्नप्रजानी उत्कृष्टी एक सागरोपमनी स्थिति ते शर्करप्रजाए जघन्य - स्थिति जाणवी. एम उपरनी उपरनी उत्कृष्टी स्थिति ते देवल देवल अनुक्रमे कणिठा ho arष्ठ एटले जघन्य जाणवी. जेम बडी तमप्रजानी बावीश सागरोपम उत्कृष्टी स्थिति ते सातमी तमः तमप्रजाने विषे जघन्य जाणवी ने पढमाए के० पहेली रत्नप्रजा पृथ्वी एं दश दजार वर्ष जघन्य स्थिति जाणवी तथा जघन्य ठाने उत्कृष्टीनी वचमां जे श्रायुष्यनी स्थिति होय, ते मध्यम स्थिति जाणवी. सबघा नरकने विषे एहज व्यवहार जाणवो. ॥ २०० ॥ ११७ दवे रत्नप्रजा पृथ्वीना तेर प्रतर बे. बीजीना अगीयार, त्रीजीना नव, चोथीना सात, पांचमीना पांच, बहीना त्रण, सातमीनो एक, ए प्रतरसंख्या आगल कहेशे . हाल ते प्रतरो प्रते जघन्य तथा उत्कृष्टी आयुष्य स्थिति कहे . नवइ सम सहस लका | पुवाणं कोडी यर दस जाग ॥ इक्कि नाग वुढी ॥ जाच्प्रयरं तेरसेपयरे ॥ २०१ ॥ इय जिठ जदमा पुण || दस वास सदस्स लक पयर डुगे ॥ सेसेसु नवरी जिठा ॥ प्रदो कपिठाउं पई पुढवी ॥ २०२ ॥ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११७ संग्रहणीसूत्र. अर्थ-रत्नप्रजा पृथ्वीना पहेला प्रतरनेविषे नव सहस्स के नेवु हजार समा के वर्ष,बीजाप्रतरने विषे नेवु लाख वर्ष, त्रीजा प्रतरने विषे एक पूर्वकोडीवर्ष, चोथा प्रतरने विषे एक सागरोपमना दश नाग करीएं, तेवो एक नाग. तेवार पड़ी शकिकनागवुढ्ढी के प्रतरे एकको नाग वधारीएं तेवारे जाव के० यावत् तेरमा प्रतरनेविषे श्रयरं के० एक सागरोपमनी उत्कृष्टी श्रायुस्थिति थाय. एटले पांचमे प्रतरे बे लाग, बहे त्रण जाग, सातमे चार नाग, आम्मे पांच नाग, नवमे उ नाग, दश मेसात नाग, अगीयारमे पाठ नाग, बारमे नव नाग, अने तेरमे प्रतरे दश नाग एटले तेरमा प्रतरे सागरोपम पूर्ण. ॥ २१ ॥ श्यजित के० ए उत्कृष्टी आयुष्यनी स्थिति कही. हवे पुण के० वली जहन्न के जघन्य स्थिति कहे . दसवास सहस्सलकपयर फुगे के प्रथम प्रतरने विषे अनुक्रमे दश हजार वर्ष, बीजे प्रतरे दश लाख वर्ष, यद्यपि दश लाख सूत्र पाउमां न कह्यां, परंतु उत्कृष्टी स्थितिने अधिकारे नेवु सहस्र नेवु लाख उपर जोडी लाख कह्यां; तेने अनुसारे पाठमा दश शब्द कह्या विना पण दश लाख कहेतां दोष नथी. अने सेसेसुनवरि जिहा के हवे बागला त्रीजा प्रतर श्रादे देश्ने जे प्रतरो बे, तेउनेविषे उवरि के उपरना प्रतरनी जे जिहा के उत्कृष्टी स्थिति बे, तेज श्रागले अहोकणिका के अधो एटले नीचे नीचे प्रतरे कनिष्ट एटले जघन्य स्थिति परंपुढवी एटले प्रत्येक पृथ्वी प्रते जाणवी, एटले जघन्य स्थिति होय. ते स्पष्टार्थ यंत्र देखी समजजो. एटले रत्नप्रना पृथ्वीविषे उत्कृष्टी स्थिति कही. अने सर्व पृथ्वी विषे प्रत्येक प्रतरे जघन्य स्थिति कही. ॥ २० ॥ हवे बीजी नरक पृथ्वीश्रादेदेश्शेषपृथ्वीनेविषे उत्कृष्टी स्थिति कहेवाने अर्थे करण कहेले. नवरि खिइ विश विसेसो॥ सग पयर विदत्तु श्च संगुणि ॥ नवरिम खिश वि सहि ॥इबिय पयरंमि उक्कोसा॥२०३॥ अर्थ-उवरि के उपरनी खिइ के क्षिति एटले पृथ्वी, तेनी जे उत्कृष्टी निश के० स्थिति, तेने के वांडित नरक पृथ्वीनी उत्कृष्टी स्थिति साथे विसेसो के० विश्लेष करीएं, एटले अधिक स्थितिमांथी उसी स्थिति काढीएं, शेष रहे तेने पण उपचारथी विश्लेष कहीएं. ते विश्लेषनो श्रांक सगपयरविहत्तुश्व के अहींयां वांडी नरक पृथ्वीने सग एटले स्वस्व ते पोतपोताना प्रतरे वेहेंचियें. ते वेहेंचतां जे आंक श्रावे ते प्रतर संख्याए संगुणि के गुणीएं, ते गुण्ये थके जे श्रांक श्रावे ते उवरिमखिर के उपरनी पृथ्वीनी उत्कृष्टी वि के० स्थिति तेणे सहित करीएं, तेवारे इछियपयरंमिउकोसा के वांडीत प्रतरे उत्कृष्टी स्थिति थाय. Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संग्रढणीसूत्र. ११. ए उदाहरणे देखावे. जेम शर्करप्रजाने विषे उत्कृष्टी स्थिति त्रण सागरोपम बें; छाने रत्नप्रजानी उत्कृष्टी स्थिति एक सागरोपम बे; तेनो विश्लेष करीएं त्यारे शेष बे सागरोपम रहे. ते बे सागरोपमने शर्करप्रजाना अगी खारे प्रतरे जाग यापीएं; तेवारे एक जागमां एक सागरोपमना अगी यारीया बे जाग यावे ते बेने वांबित प्रतर साथे गुणिएं, तेवारे प्रथम प्रतरे एकंस गुण्या बे जागज़ होय. तेने उपर वली रत्नप्रजा पृथ्वीनी उत्कृष्टी स्थिति एक सागरोपमनी बे, ते नेली करीएं, तेवारे प्रथम प्रतरे एक सागरोपम ने उपर एक सागरोपमना श्रगी चारी या बे नाग यावे, एटली शर्करप्रजा पृथ्वीना प्रथम प्रतरे उत्कृष्टि स्थिति जाणवी. एरीते प्रत्येक प्रतरे बे बे जाग वधारीएं, त्यारे गीयार जागे सागरोपम बंधाय. एम यावत् गीयारमे प्रतरे ऋण सागरोपम पूर्णायु याय ने पेहला प्रतरनी उत्कृष्टि स्थिति ते बीजे प्रतरे जघन्य जावी. ए पण यंत्र देखी समजजो. एमज त्रीजी नरकपृथ्वीए पण एहज करण जाणवुं. तो ए त्रीजी वालुप्रजा, चोथी पंकप्रजा; पांचमी धूमप्रजा, बही तमः प्रजा, ए चारेनी यंत्र स्थापना जोजो, ने सातमी तमतमाप्रमाए एकज प्रतर बे. त्यां पांच नरकवासा बे. त्यां काल, महाकाल, रौरव, महारौरव, ए चार स्थानके जघन्य बावीश सागरोपमायु, अने उत्कृष्टुं तेन्रीश सागरोपमायु े. अने पांचमो पश्वाणो नरकावासो बे, त्यां अजघन्योत्कृष्ट तेत्री सागरोपमायु बे. एम साते नरकने विषे ज्यांसुधी जीवे त्यांसुधी सदा वेदना वेदे . यांख मीची उघाडीएं एटलो वखत पण नारकीने सुख नथी. किंतु एकांत दुःखज बांध्युं बे; ते वेदे . दवे नारकीने एक क्षेत्र वेदना, बीजी अन्योन्य वेदना, अने त्रीजी परमाधामिकृत वेदना, ए त्रणे वेदना, किंचित् वि कहे . तेमां प्रथम क्षेत्रवेदना कहे बे. एक रत्नप्रना, बीजी शर्करा, त्रीजी वालुका, एना नारकी शीतयोनिया बे, अने योनि स्थान विना बीजी जे नरकभूमिका बे ते उल बे, तेमाटे नारकी शीतयोनिया ते उस वेदना वेदे बे. त्यां जेवा श्रग्निवर्णखेरना अंगारा ते करतां पण अत्यंत नरकभूमिका उम जाणवी. एम बीजा पण नरकोनेविषे जावना जाणवी. पंकप्रजा नरके उपरना घणा नरकावासा तो उम बे, घने नीचला थोमा नरकावासा थोमा शीत बे. धूमाने विषे नरकावासामा शीतल घणा बे, छाने उम्म थोडा बे. तथा बडी ने सातमीए एकांत शीतल भूमिका बे, छाने नारकी एकांत उभयानिया बे. परंतु नीचे नीचे नरके अनंतगुण तीव्र, तीव्रतर, तीव्रतम बे. ते नरकोमध्ये उमवेदना ने शीतवेदना जे For Private Personal Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संग्रहणीसूत्र. २ तेनुं स्वरूप आगमवेदी एवं कहेडे के, ग्रीष्मस्तुना अंते मध्यान्हसमये सूर्य प्राप्त थयो उतां, अने आकाश मेघरहित उतां, अत्यंत उष्ट पित्तप्रकोपे करी व्याकुल श्रने त्ररहित चारे दिशिए प्रदीप्त थएली श्रग्निज्वाला, तेणे करी व्याप्त एवा कोश पुरुषने जेवी उसवेदना होय, तेकरतां पण उप्लवेदना नरकावासानेविषे रहेला नारकीने अनंतगुणी वेदना जाणवी. श्रने शीतयोनिया नारकीने उलवेदना नरकावासाथी ले खेरना अंगारा मांहे नाखी धमे, तेवारे ते नारकी चंदन जेवी शीतलता पामी अत्यंत सुखी थयातां ते अग्निमांहे निजा पामे. वली पोष तथा माघ महीनामां रात्रीने समये शीतलवायु वाय तेणे करी जेम हृदयादिक कांपे, तथा हिमाचलमांहे वस्त्ररहित बेठे थके उपरथी हिम पमतां जेवी शीतवेदना होय, तेथी अनंतगुणी शीतवेदना नरकावासामां होय. ते शीतवेदना युक्त, नरकमांथी ते नारकीने बाहेर काढी पूर्वोक्त हिमाचलादिक शीतल स्थले जो स्थापन करीएं तो तेवारे ते निरुपम सुखी थया बता निघा प्रते पामे. ॥वली प्रक्षेप गाथा कहे .॥ बंधण गइ संगणा॥नेया वसाय गंध रस फासा ॥ अगुरु लहु सद्द दसहा॥ असुहा ॥ विय पुग्गला निरए ॥२०४॥ अर्थ-नरकनेविषे क्षेत्र स्वजावथकी एवा दश प्रकारना पुद्गलनो परिणाम मुखदायी होय ते जूदा जूदा वखाणे . प्रतिक्षणे जे जे आहारादिक नानाप्रकारना पुजलनुं जे बंधन ते प्रदीप्त थएला अग्नि करतां पण अत्यंत दारुण होय. बीजो ग के गति ते उंट सरखी होय, ते गती तप्तलोह सरखी धरती उपर पग धारण करवा करतां पण अत्यंत तीव्र बे. त्रीजु संगण ते अत्यंत तीव्र तीव्र हुंडक संस्थान ते पांख बेदन थयेलो पदी जेवो मुखी होय तेवो कुखदायक , जे दीठेथके पण माहा उद्वेगकारी होय. चोथु नेया ते नीत प्रमुखना पुजल जे उडीने शरीरे लागे, ते शस्त्र-खड्गधारा सरखा लागे. पांचमुं ते नरकावासानो वर्ण सर्वत्र अंधकारमय, विष्टा, मूत्र, श्लेष्म, मल, लोही, वसा, परु अने मेदे जस्युं तलीश्रानुं नागडे, स्मशाननी पेरे गम गम मांस, केश, हाम, नख, दांत, चर्म, पड्यां बे; एवो वर्ण होय. हो गंधः ते कुतरां, शीयाल, सर्प, मंजार, नोलीथा प्रमुखनां मृतकसेवर पड्यां होय, तेना गंध करतां पण अत्यंत उगंध होय. सातमो रस ते कडवी सुबडी करतां पण अत्यंत कडवो स्वाद होय, बाग्मो फरस ते वींडीना कांटा Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संग्रहणीसूत्र. १२१ सरखो नेकवचना रोम करतां पण तेनो मूंडो स्पर्श जाणवो. नवमो गुरुलघु परिणाम ते पण अत्यंत दुःखनुं घर एवो जावो. दशमो शब्द ते अत्यंत विलापाकंद दुःखकारी शब्दना पुल होय. ए प्रकारे नारकीने पुजल परिणमे. जलो करतां जुंको परिणमे. जेम वैमानिक देवताना हस्तस्पर्शे पण नारकी दुःख पामे ॥ २०४ ॥ ॥ वली नारकीने दश प्रकारनी वेदना प्रदेष गाथाए करी कहे बे. ॥ नरया दस विद वेयण ॥ सी उसिए खुद पिवास कंमूहिं ॥ परवस्सं जर दाहं ॥ जय सोगं चेव वेयंति ॥ २०५ ॥ अर्थ- शीतवेदना श्रने उह्मवेदना ए वे पूर्वे वखाणी बे, तेथीज जाणवी. त्रीजी खुद के कुधा ते समस्त अढीद्वीपनां अन्न तथा घृत आपीएं तोपण नारकीना एक जीवने जूख मटे नहीं. चोथी तृषा ते समस्त समुद्र छाने नदीनां पाणी पाइएं तोप नारकीनुं लुंने तालु, तथा होट सुकातां रहे नही; एवी तेने तृषा बे. पांचमी कंमुहिं ते बुरी करवते करी खणता पण तेनी खसनी खंजवाल मटे नहीं. as नारकीना जीव सदा परवश रहे; सातमो यहींयां रहेनारा पुरुषो करतां पण अनंतगुणो ज्वर सदा सर्वदा होय. श्रावमो दाह, ते शरीर तापमय छाने दाघज्वरमय होय. नवमो जय ने दशमो शोक ए बे- मनुष्य करता त्यां अनंतगुणा होय. अने विनंगज्ञान पण सर्वत्र दुःखदायी बे. परमाधामि लोक ते पण बीजां शस्त्र जे नाल, तलवार, तीर, प्रमुख दथीयार ते देखाडीने महाडुःख देनारा बे, तेणे करी सदा दुःखी होय; छाने शोक करता रहे. ए क्षेत्र वेदना कही. ॥ २०५ ॥ हवे अन्योन्यकृत वेदना कहे बे. नारकीना बे नेद बे; एक मिथ्यादृष्टि, घने बीजा सम्यकदृष्टि. त्यां जेम नील तथा वणजारा प्रमुखनो कुतरो बीजा कुतराने देखी क्रोधांध को लगवा श्रावे; ते दांत धने नखे करी युद्ध करे; तेम मिथ्यात्वी नारकी जे होय, ते पण विनंगज्ञाने करी बीजा नारकीने दूरथकी श्रावतो देखी क्रोधे करी अत्यंत रौद्र एवो नवुं यैक्रियरूप करे. अने पोतपोताना नरकावासने विषे पृथ्वीनां स्वनावोत्पन्न हथीयार अथवा नवां विकूय एवां त्रिशूल छाने जालां प्रमुख अथवा हाथ, पग, दांत छाने नखे करी मांहोमांहे प्रहार करे; ते प्रहारे करी पीडा पामेला एवा ते लोहीना कादवमां आलोटता आनंद शब्द करे. अने जे सम्यकदृष्टि नारकी होय; ते पोताना पूर्वजवकृत पापने स्मरण करी बीजा थकी उत्पन्न यएलुं दुःख सम्यक् प्रकारे सहन करे, पण बीजाने पीडा उपजावे नहीं. ए र ते अन्योन्यकृत वेदना कही. १६ For Private Personal Use Only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ संग्रहणीसूत्र. हवे परमाधामिकृत वेदना कहे जे. नरकावासानी पहेली जीतनेविषे निःकुट श्राला , ते नारकीने उपजवानी योनि जाणवी. त्यां नारकी उपन्या पली अंतमुहर्ते श्रालो न्हानो थने शरीर मोहोटुं तेथी तेमा समाय नहीं; तेवारे नीचे पडे. ते जेवो नीचे पडे के तुरत ते जाणीने परमाधामि त्यां यावे. ते श्रावीने पूर्वकृत पापकर्मने अनुसारे कर्मोपचारीने छुःख आपे. ते उख केवु ? ते कहे . मद्यपानीने तप्तत्रवुड पीवरावे, परस्त्रीसंगी जे होय, तेने श्रग्निमय लोहनी पुतलीनुं आलिंगन करावे; कूटशीमलाना वृक्ष उपर बेसाडे, लोढाना घणे करीने घात करे, वासलाए करी बेदे, क्षत उपरे खार आपे; जमतेलमांहे तसे; कुंत, नालामां शरीरने प्रोवे तथा नहीमांदे शेके घाणीमाहे पीले, करवते करी वेहेरी नाखे; काक, घुबड, कुतरा अने सिंह प्रमुखने विकूर्विने कदर्थना करावे. वैतरणी नदीमांहे बोले. असिपत्रवनमांहे प्रवेश करावे. तप्तवेलुमांहे दोडावे, एवी विविध प्रकारनी वेदना उत्पन्न करीनारकीने पुःख थापे. पठी वज्रमय कुंजीमाहे तीव्र तोपे करी पचतां नारकी उत्कृष्टा पांचसे योजन ऊंचा उबले. त्यांथी तेने पाबा पमतां वज्रमय चंचुएकरी पदी तोडे, पडी कांश अवशेष धरतीनी उपर पड्या थका वाघ चूंटे-खाय. एवा ते परमाधामि अधम, महापापीष्ट, क्रूरकर्मि, जेमने पंचाग्नि प्रमुख कष्ट किया थकी उपन्यु एवं जे क्रूरसुख एवा जे असुर, परमाधामि ते कदीमान एवा नारकीने मांहोमांहे पामा, कूकमा,अने मेंढानी पेरे जूझता देखी युद्धप्रेक्षक मनुष्यनी पेरे ते परमाधामि हर्ष पामे, अट्टहास करे, चेलोत्देप करे; पडहंग दादरी वजावे. जेम अहींयांना लोक नाटक देखी खुशी थाय तेवा परमाधामि; त्रणे जातनी कदर्थना नारकीने देखी खुशी थाय, घणुं शुं कहीएं, परंतु ए नारकीउने कुःख देवामां तथा पुःखी देखीने खुशी थवामां परमाधामीने जेवी प्रीति , तेवीप्रीति अत्यंत रम्य वस्तुना अवलोकने करी पण नथी. ॥ हवे ए त्रण वेदनामांहे कोण वेदना कीया नरके होय ? ते कहे . ॥ सत्तसु खित्तज वियणा ॥ अन्नन्न कयावि पहरणे दिविणा ॥ -- पहरण कयावि पंचसु॥तिसु परमादम्मिय कयाविं॥२०६॥ अर्थ- साते नरकने विषे क्षेत्रवेदना, ते खनावे देत्रथकी वेदना होय. बीजी श्रन्योन्यकृत वेदना बे प्रकारे . एक शरीरथकी, अने बीजी प्रहरण थकी. तेमां पहरणे विणा के० प्रहरण विना मात्र शरीरे करी अन्योन्यकृत वेदना ते साते नरके बे. अने प्रहरणकृतवेदना पहेला पांच नरके . तेमज पहेला त्रण नरकने विषे परमाधामिकृत वेदना . बहा तथा सातमा नरकना नारकी राता कुंथुश्रा जेनां वज्र. मय मोढां अने जेजे गोबरना कीमा सरखा- तेने विकूर्वीने अन्योन्य शरीरमांडे Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संग्रहणीसूत्र. ११३ प्रवेश करावे, ते वेदना उदीरे श्रने शरीरमांहे प्रवेश करी खाय, क्याएक अन्योन्यकृत वेदना ही नरकपृथ्वी सुधी , ए, का बे; ते परमार्थ नथी जाणता; शुं जाणीए तेमणे किया हेतुए कह्यु ? एटले सविस्तर नारकीर्नु स्थितिहार कह्यु. ॥ २०६॥ . ॥ हवे नारकीर्नु नवनधार कहे बे. ॥ रयणप्पह सकरपद ॥ वालुयपद पंकपदय धूमपहा ॥ तमपहा तमतमपदा॥ कमेण पुढवीण गोत्ताइं॥२०॥ अर्थ- पहेली रत्नप्रजा पृथ्वीनो गोत्र, अर्थसहित नाम ते गोत्र कहिएं. त्यां पहेले कांडे घणां रत्न , तेथी रत्नप्रना गोत्र कहीएं. पहेलो खरकांम ते सोल हजार योजन प्रमाण, बीजो पंकबहुलकांम चोराशी हजार योजन प्रमाण, त्रीजो जलबहुलकांम एंशी हजार योजन प्रमाण , अने श्रागली बए पृथ्वी पृथ्वीकायमय जाएवी. बीजीएं शर्करा कांकरा घणा , त्रीजी वालुकप्रनाएं वेलु घणी बे, चोथी पंकप्रजाएं कादव घणो बे, पांचमी धूमप्रजाएं धूम्र घणो बे, बही तमप्रजाएं अंधकार घणो बे, सातमी तमतमप्रजाएं अंधकारनुं बहुलपणुं घणुं बे, एटले सात नरकपथ्वीनां गुणनिष्पन्न गोत्र कह्यां. ॥ २०७॥ • ॥ हवे नरकनां नाम तथा संस्थान ते आकार कहे .॥ घम्मा वंसा सेला ॥ अंजण रिहा मघाय माघवई ॥ नामेहिं पढवी॥त्ताईचत्त संगणा ॥ २० ॥ अर्थ- एक घमा, बीजी वंशा, त्रीजी शेला, चोथी अंजणा, पांचमी रिष्टा, ही मघा, अने सातमी माघक्ती, ए साते नरकनां नाम कह्यां. नाम एटले जे अर्थविना पोतानी श्चाए संज्ञा करीएं ते नाम जाणवू. ए साते नरकपृथ्वी ते उत्ताउत्त संगणा एटले नातिन संस्थान, ते श्रावी रीते जे उपरनुं बत्र न्हार्नु, तेने नीचे मोहोटुं, वली ते नीचे मोहोटुं, वली ते नीचे मोहोटुं, वली ते नीचे अति मोहोटुं, एम नीचे नीचे थति मोहाटुं महाविस्तारवंत संस्थान जाणq. ॥ २० ॥ ॥ हवे पृथ्वीनो पिंड तथा पृथ्वीनो श्राश्रय कहे . ॥ असीय बत्तिस अडविस ॥ वीसा अहार सोल अडसहसा ॥ लकुवरि पुढवि पिंडो॥ घणुदहि घणवाय तणुवाया ॥२०॥ गयणंच पश्गणं ॥ वीस सहस्साइं घणुदही पिमो ॥ घणतणु वायागासा ॥ असंख जोयण जुया पिंडो ॥ १० ॥ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ संग्रहणीसूत्र. अर्थ-- प्रमाणांगुले एक लाख योजन, ते उपर अनुक्रमे एंसी, बत्रीश, अावीश, वीश, श्रढार, सोल ने श्राप योजन - सहस के० ए पूर्वोक्त सर्वने सहस्र जोमीएं. ए रीते ए साते पृथ्वीने प्रत्येके पिंमनुं जामपणुं जाणवू. एटले रत्नप्रजा- एक लाख ने एंसी हजार, शर्करप्रजानु एक लाख ने बत्रीश हजार, वासुप्रनानुं एक लाख अहावीश हजार, पंकप्रना- एक लाख वीश हजार, धूमप्रनानुं एक लाख अढार हजार, तमप्रनानु एक लाख सोल हजार, तमतमप्रजानु एक लाख आठ हजार योजन- पृथ्वीपिंग जाणवू. ए साते पृथ्वीन जाडपणुं कडं. वली घनोदधि, घनवात, तनुवात ॥२०ए ॥ अने गयणंच के० अकाश-- ए चारे एकेक पृथ्वीतले पश्चाणं के प्रतिष्टान एटले आश्रय जाणवां. अहींयां घनोदधि अने घनवातनुं स्वरूप विमानोने अधिकारे वखाएयुं . श्रने तनुवात को पण ठेकाणे वखाएयुं नथी; तनुवात अने श्राकाश ए बे प्रसिक जे. त्या घमा घनोदधि उपर प्रतिष्टित डे, अने घ. नोदधि धनवात उपर प्रतिष्टित बे, अने घनवात तनुवात उपर प्रतिष्टित , तनु. वात आकाश उपर प्रतिष्टित जाणवो. श्राकाश को उपर प्रतिष्टित नथी. __ एम शेष पृथ्वीने तले पण एवी रीते चारे जाणवा. परंतु एटबुं विशेष जे सा. तमी नरकपृथ्वीनी तले घनोदधी, घनवात, तनुवात, ते तले लोकाकाश बाहुल्य बे. हवे घनोदधि प्रमुख चारेने मध्य नागे पिंडस्थूलपणुं कहे . घनोदधि मध्यजागे वीश हजार योजन जामपणे , अने घनवात, तनुवात, ने श्राकाश, ए त्रणे मध्यनागे जाडपणे असंख्याता योजन प्रमाण जुया के युक्त जाणवा. तेमां घनवातथी असंख्यातगणा तनुवात, अने तनुवातथी असंख्यातगणुं श्राकाश जाणवू. ॥ १० ॥ ___ न फुसंति अलोगं ॥ चन दिसंपि पुढवीयवलय संघहिया अर्थ- सात पृथ्वीन घनोदधी, घनवात, अने तनुवात संबंधी वलय- तेणे पृथ्वी वीटाश्थकी चारे दिशाए अलोकने न फुसंति के फरसे नहीं. ते कहे बेःसाते पृथ्वीउने तले मध्यनागे घनोदधि वीश हजार योजन बे, अने घनवातादिक असंख्याता योजन बे. तेवार पडी प्रदेशे घटती घटती आप आपणी पृथ्वीने बेडे बेक थोमी थर थकी वलयाकारे पृथ्वीने वीटी रहे . त्यां वलयर्नु उंचपणुं श्राप आपणी पुथ्वीने अनुसारे जाणवू, अने बेडे जामपणुं कहे . रयणाए वखयाणं ॥ब-पंचम जोयणं सहूं ॥ ११ ॥ विकंनो घणनददी ॥ घण तणुवायाण हो जद संखं ॥ सत्तिनाग गाळयंगाळयंच तद गाजय तिनागो॥२१॥ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संग्रहणीसूत्र. पढम महीवल सुं ॥ खिविक एयं कमेण बीयाए ॥ इति चनपंच चगुणं ॥ तझ्याइ सुतंपि विवकमसो ॥ २१३ ॥ अर्थ - रत्नप्रजा पृथ्वीनो उपरनो समश्रेणि जाग, त्रण वलयनो बेमो, तेनो विकंज एटले जाप ते यथासंख्याए कहे बे. घनोदधि व योजन जाडो, घनवात साढाचार योजन जाडो, तनुवात दोढ योजन जाडो, ए त्रण मध्या थका पहेली नरपृथ्वी की चारे दिशाए बार योजन लोक बे. तेमांहे त्रण प्रक्षेप घालीए, ते यथासंख्याए कहे बे. रत्नप्रजानां त्रण वलयमां एक गाउ अने एक गाउनो त्रीजो जाग घनोदधि वल मांदे नाखीएं, बीजो एक गाउ घनवातवलयमांहे नाखीएं, त्री जो गाउनो त्रीजो जाग तनुत्रात वलयमांहे नाखीएं तेवारे बीजी शर्करप्रजानो वलय, विष्कंन होय. ए सर्व मली बार योजन बे गाउ ने उपर एक गाउना त्रण जाग करीएं तेमांना बे जाग एटलो बीजी नरकपृथ्वी थकी चारे दिशाए अलोक बे. हवे वालुकानरकपृथ्वी यादे देई पांचे नरकनां वलयमांहे- जे बीजी नरक पृथ्वीना वलयां नाखेलुं तेने वे गुणो, त्रणगुणो, चारगुणो, पंचगुणो, ने बगुणो करी अनुक्रमे यथा संख्याए घालीएं, तेवारे वालुकादिकना वलयनो विष्कंन होय; ते कहे बे. १२५ एक व योजन ने बे गाउ, अने एक गाउना त्रण जाग करीएं तेवा बे जाग उपर घनोद धिवलय, बीजुं पाच योजन घनत्रात वलय, त्रीजो एक योजन बे गाउ अने एक गाउनiत्रण जाग करीएं तेवा बे जाग तनुवात वलय, ए सर्व मली तेर योजन एक गाउ ने एक गाउना त्रण जाग करीएं तेवो एक नाग उपर एटलुं वालुका की चारे दिशाए अलोक बे. inare सात योजननो घनोदधि वलय, पांच योजन ने एक गाउनुं घनवात वलय, एक योजन ने त्रण गाउनुं तनुवात वलय, ए सर्व मली पंकप्रनाथकी चौद योजन चारे दिशि लोक बे. धूम जाए सात योजन ने एक गाउ, अनें उपर एक गाउना त्रण जाग करीएं वो एक जाग घनोदधि वलय बे. तथा पांच योजनने बे गाउ घनवात वलय बे, अने एक योजन ने त्रण गाउ तथा एक गाउना त्रण जाग करीएं तेवो एक जाग उपर एटलुं तनुवात वलय. ए सर्व मली चौद योजन ने बे गाउ तथा उपर एक गाउना त्रण जाग करीएं तेवा बे जाग एटलो धूमप्रनाथकी चारे दिशिए अलोक ठे. तमप्रजाए सात योजन ने बे गाउं, तथा एक गाउना त्रण जाग करीएं, तेवा बे जाग उपर एलुं घनोदधि वलय बे. तथा पांच योजन अने त्रण गाउनुं घनवात वलय बे. Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संग्रहणीसूत्र. वली एक योजन श्रने त्रण गाउ, तथा एक गानना त्रण जागे करीएं तेवा बे नाग उपर एटबुं तनुवात वलय . ए सर्व मली पंदर योजन एक गान अने एक गाउना त्रण नाग करीएं तेवो एक नाग उपर एटलुं तमप्रना थकी चारे दिशाए अलोक जे. - तमतमप्रनाए अाठ योजननुं घनोदधि वलय, योजननुं घनवात वलय, बे योजनतनुवात वलय, ए सर्व मली सोल योजन तमतमप्रनाथी चारे दिशाए अलोक जे. - अहींयां शिष्य प्रश्न करे ले के प्रथम कडं जे “वीस सहस्सा घणुदहि पिंडो" ने हमणां “ बऽधपंचम जोयणं सहूं" तो ए ग्रंथमांदे आवी रीते विसंवाद केम ? तेनुं ग्रंथकार समाधान करे बे. मोच्चिय पुढविअहे ॥ घणुदहि पमुहाण पिंडपरिमाणं ॥ नणियंत कमेणं ॥ दायइ जा वलयपरिमाणं ॥१४॥ अर्थ- " वीससहस्ताई घणुदहि पिंमो" ए पाठनो अर्थ. पुढवि अहे के नरकपृथ्वीने हेठे मवेच्चिय के मध्यनागे घणु दहिपमुहाण के घनोदधि प्रमुखनो पिंडपरिमाणं के० पिपरिमाण ते नणियं के कह्यं त के तेवार पली कमेणं अनुक्रमे हाय के घटतां घटतां ते वलय " ऽध पंचम जोयणंसटुं” इत्यादिक जावलयपरिमाणं के० वलय परिमाण ते यावत् बेडे होय, ते कारणे वलय विरोध न होय. ॥ हवे पृथ्वी पृथ्वी प्रत्ये नरकावासानी संख्या कहे .॥ तीस पणवीस पनरस ॥ दसतिन्नि पणूण एग लरकाई॥ पंचय नरया कमसो॥चुलसी लरका सत्तसुवि॥१५॥ अर्थ- नरकावासा ते नारकीनां स्थानक जाणवां. ते पहेली नरकपृथ्वीएं त्रीश लाख नरकावासा . बीजीएं पचीस लाख, त्रीजीएं पन्नर लाख, चोथीएं दश लाख, पांचमीएं त्रण लाख, अने बहीएं पांचे ऊणा एकलाख, सातमीएं पांच अनुत्तर नरकमांहे सर्व अधोजागे नरकावासा ते पांच क्रमे नेला कस्या थका साते नरकना न. रकावासा चोराशी लाख होय. ॥ २१५ ॥ ॥ हवे साते नरकना प्रतर एट जेम घरनी एक नूमि, वे नूमि, त्रण नूमि प्रमुख होय तेनीपरे जे होय ते प्रतर कहेवाय ले. तेनी संख्या कहे .॥ तेरिकारस नव सग ॥ पण तिन्निग पयर सविगुणवन्ना ॥ सीमंताई अप्पश् ॥ गणंता इंदयामद्ये ॥ १६ ॥ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संग्रहणीसूत्र. १२७ अर्थ- प्रथम नरकपृथ्वीएं तेर, बीजीएं अगीयार, त्रीजीएं नव के० नव. चोश्रीएं सात, पांचमीए पण के० पांच, बवीएं तिन्नि के० त्रण, सातमीएं इग के० एक, सविन्ना के सर्व मली गणपचाश पयर के० प्रतर जाणवा. त्यां सीमंताई के० सीमंत प्रतर ते श्रद्यमां जावो, अने श्रपश्वाणंता के प्पश्वाणो प्रतर ते तमां जावो. ए प्रकारे उगणपचाराने मद्ये के० मध्यजागे इंद्रक एटले महोटा नरकावासा जाणवा. तेमनां नाम कहे बे. ॥ २१६ ॥ एक सीमंतो, बीजो रोरुर्ज, त्रीजो रंज, चोथो उद्धांत, पांचमो संत्रांत, बोसंत्रांत, सातमो विज्रांत, आठमो जक्त, नवमो शीत, दशमो वक्रांत, अगीयारमो वक्रांत, बारमो विकल ने तेरमो रोरुक, ए तेर प्रतर प्रथम नरकना जाणवा. स्तः निक, स्तनक, मणक, चणक, घट्ट, संघट्ट, जिन, यवजिन, लोल, लोलवत्त, छाने घणलोक, एअर इंद्रक बीजा नरकना जाणवा. तस, तपिक, तपन, तापन, विदाय, प्रज्वलित, उज्वलित, संज्वलित, अने संप्रज्वलित, ए नव इंद्रक श्रीजा नरकना जाणवा. र, तार, मार, वर्व, तम, खाडखम, अने खंडखम, ए सात इंद्रक चोथा नरकना जाणवा. खात, तमस, ऊस, अंध, अने तिमिस, ए पांच इंद्रक पांचमा नरकना जाणवा. वाही, वादल ने लल्लक, एत्रण इंद्रक बघा नरकना जाणवा. थने - पश्वाणो, ए इंद्रक सातमा नरकनो जावो. ॥ हवे ए इंद्रकथकी जेटली श्रेणि नीकली, अने ते एकेकी श्रेणीने विषे जेटला नरकावासा बे; ते सर्व कहे बे. ॥ तेदितो दिसि विदिसिं ॥ विग्गिया अवनिरय प्रावलिया ॥ पढमे पयरे दिसिगुण || वन्नविदिसासुयडयाला ॥ २२७ ॥ बीयासु पयरेसु || इग इग दीपान ढुंति पंतीजे ॥ जा सतमि मइपयरे ॥ दिसि इक्किको विदिसि नचि ॥ २२८ ॥ अर्थ - तेहिंतो के ते नरकमां इंद्रकथी चार दिशि ने चार विदिशि ए रीते - aa विनिर्गता के विशेषे करी नीकली. त्यां प्रथम सीमंत प्रतरने विषे प्रत्येक दि शिए गणपचाश, अने प्रत्येक विदिशिए श्रमतालीश नरकावासा होय. ॥ २९७ ॥ एम बीयाइसुपयरेसु के बीजो प्रतर यादे देने जे प्रतरो बे, तेने विषे इगइगही - ा हुंतिपती के० एकेक हीन एटले उठो करीएं तेवारे पंक्ति घटतो घटती जा सत्तमिमइपरे के० यावत् सातमी नरकपृथ्वीए उगणपचाशमे प्रतरे दिशिए एकेक विदिनि० विदिशिए एक पण नहीं ॥ २२८ ॥ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संग्रहणीसूत्र. ॥ हवे प्रतर प्रतरप्रत्ये दिशि विदिशिनी श्रावतीना मख्या सर्व नरका- . वासानी संख्या जाणवा माटे करण कहेजे.॥ इप्पयरेग दिसि ॥ संख अढगुणा चनविण सगसंखा ॥ जह सीमंतय पयरे ॥ एगुणनजया सया तिनि ॥ १ ॥ अपयहाणे पंचन ॥ पढमो मुदमंतिमो दवश नमी ॥ मुद नूमि समासई ॥ पयर गुणं हो सबधणं ॥ २२० ॥ अर्थ- श्प्प यर के वांग्यो जे प्रतर तेनी एगदिसि संख के एक दिशाए जे नरकावासानी संख्या, ते श्रावलीनी अपेक्षाए बे; एटले श्रावली आउने,माटे श्रमगुणा के० श्रावगुणा करीएं, पडी विदिशिनी श्रावलीए एकेक उबो डे, माटे चार वि. दिशिना चविणा के चारविना एटले चार वेळा एतावता चार काढीएं. पली एक इंधक विमान तेणे स के० सहित करीएं, तेवारे गसंखा के एक प्रतरे नरकावा. सानी संख्या थावे. जह के जेम पहेली रत्नप्रजा पृथ्वीनेविषे पहेले सीमंत प्रतरे एक दिशिना नरकावासानी संख्या गणपचाश बे; तेने आग्गुणी करीएं तेवारे त्रणसेंने बाणु थाय, तेमाथी चार जणा करतां त्रणसें अव्याशी थाय. तेमां एक इंजक नेलीएं, तेवारे एगुणनजयासयातिनि के त्रणसें ने नेव्याशी थाय. ए रत्नप्र. नाना प्रथम प्रतरे एटला श्रावलिकागत नरकावासा होय. एम बीजे प्रतरे पण ए प्रकार करतांत्रणसें एक्याशी श्रावलिकागत नरकावासा होय. ॥ १५ ॥ एम करतां बेझे उगणपचाशमा अपश्वगणे प्रतरे एक दिशिए एक नरकावासो ते श्रावगुणो करीएं, तेवारे आठ थाय. तेमां चार विदिशिना काढीएं, बाकी चार रहे, तेनी साथे एक इंजक मेलवतां सातमा नरके श्रावलिकागत नरकावासा पांच थाय. हवे एकेक पृथ्वीनेविषे श्रावलिकागत नरकावासा जाणवा माटे पाउली गाथानां पाउला त्रण पदे करी करणांतर कहे जे. पढमो के० पहेलो सीमंत नामे इंजक श्रवास -प्रतर तेना नरकावासाना समूह त्रणसें नेव्याशी जे. तेने मुख कहीएं. अने अंतिम के बेहो उगणपचाशमो अपश्गणो प्रतर तेना पांच नरकावाला हवश के होय; तेने नूमि कहीएं. एनो समास ते मुख तथा नूमिने एका करीएं तेवारे त्रणसे ने चोराणुं थाय. तेनुं अर्ड करतां एकसोने सत्ताणुं थाय. तेने उगणपचाश प्रतरे गुणतां नव हजार बसें ने ओपन थाय. एटला साते पृथ्वीना श्रावलिका प्रविष्ट नरकावासा जाणवा. शेष त्र्याशी लाख नेवु हजार त्रणसे ने सडतालीश ए. टला पुष्पावकीर्ण जाणवा. ॥ २२ ॥ एहज वात सूत्रकार कहे जे. Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संग्रहणीसूत्र. ए गमवश्सय तिवमा ॥ सत्तसुपुढवीसु आवली निरया ॥ से स तियासीलका ॥ तिसय सियाला नवश् सहसा ॥ ११ ॥ अर्थ-उन्नुसे ने त्रेपन एटला साते पृथ्वीना श्रावलिकागत नरकावासा होय. अने शेष त्र्याशी लाख नेवु हजार त्रणसें ने सडतालीश पुष्पावकीर्ण नरकावासा बे. ए बन्ने मच्याथका सर्व पृथ्वीना चोराशीलाख नरकावासा जाणवा. प्रत्येक पृथ्वीए श्रावलिका प्रविष्ट नरकावासा, तथा पुष्पावकीर्ण, तथा समस्तनी संख्या जाणवाने अर्थे यंत्रस्थापना जोवी. ब नरकपृथ्वी सुधी मुख तथा नूमि , अने सातमीए मुख तथा जूमी नथी. कारणके त्यां दिशिएज एकेक करी पांच , ते श्रावलिकाएज बे, पण पुष्पावकीर्ण को नथी. ए समस्त नरकावासा ते मांहेलीकोरे वाटला, बाहेर चउरंस, हेठे बुरपलाने आकारे तीक्षण आकरा जेना उपरथी पगे चालतां बुरपला जे शस्त्रविशेष तेना सरखो फरस होय. तेणे करी पगे चलाय तथा परम पुगंधमय सर्व पीउनी अपेक्षाए देवलोकनां श्रावलिकागत विमाननी परे वाटलां, त्रिखूणां, चोखुणां संस्थान जाणवां. अने पुष्पावकीर्णक अनेक संस्थाने जाणवां. तेमांहे समस्त इंडक नरकावासा जे ते वाटला . तेना आगल आवतिकागत सर्व त्रिखूणा बे, ते श्रागले चोखूणा, ते आगले वाटलां, ए प्रकारे श्रावलिना बेमा सुधी समस्त पृथ्वीमांहे वाटलादिकनी संख्या थाय, ते पूर्वोक्त देवलोकनी श्रेणिना वृत्तादिक संख्यानी परे जाणवा. ग्रंथगौरवना जयश्री अहींयां लख्या नहीं. . ॥ हवे ए नरकावासार्नु लांबपणुं, पहोलपणुं अने लंचपणुं कहे जे. ॥ तिसहस्सुच्चा सवे ॥ संखमसंखिऊ विबडायामा ॥ पण याल लरक सीमं ॥ तय लकं अपश्हाणो ॥२२॥ . अर्थ-समस्त पृथ्वीए एटले साते नरकसंबंधी जे नरकावासा , ते सवे के० सर्व तिसहस्सुच्चा के त्रण हजार योजन ऊंचा बे. तेमां एक हजार योजननी पीठ, हजार योजन वचमां पदोलो, अने हजारनुं शिखर, ए त्रणे मली त्रण हजार योजन थाय. अने विद्यमायामा के विस्तारे अने आयाम एटले लांबपणे तो संखमसं खिजा के कोश्क संख्याता योजन, कोश्क असंख्याता योजन जे. पण तेमां सीमंतो नामे प्रथम इंजक नारकावासो पणयाललरक के पीस्तालीश लाख योजन प्रमाण लांबपणे अने पहोलपणे बे. अने बेलो अपश्वगणो नामे इंजक नरकावासो ते एक लाख यो. जन प्रमाण लांबपणे अने पहोलपणे जे. एने फरता कालादिक चार नरकावासा जे डे ते लांबपणे तथा पहोलपणे अने फरता परिधिए-ए त्रणे स्थानके असंख्याता योजननी कोमाकोडी जाणवी. ॥ २२ ॥ १७ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० संग्रहणीसूत्र. ॥ हवे ए नरकावासा आखी पृथ्वीमांहे थे, किंवा क्याएक खाली जग्या पण जे ते कहे . ॥ बसु दिकोवरि जोयण ॥ सहस्स बावन्न सढचरिमाए ॥ पु ढवीए नरय रहियं ॥ नरया सेसंमि सबासु ॥ २३ ॥ अर्थ- पहेली व नरकपृथ्वीए हेतु अने उपर प्रत्येके एक हजार योजन क्षेत्र न. रकावासाथकी रहित जाणवू. अने चरिमाएं के बेबी सातमी पृथ्वीएं नीचे अने उपर प्रत्येके साढीबावन हजार योजन-एटले साढी बावन हजार योजन नीचे, अने साढीबावन हजार योजन उपर, एटर्बु क्षेत्र पृथ्वीमां नरकावासाथी रहित जाणवू, नरया सेसंमिसवासु के बीजी समस्त पृथ्वीनेविषे यथायोग्यपणे नरकावासा . एटले प्रतरमांहे नरकावासानी वात कही. ॥ २३॥ ॥ हवे प्रतरमांहे अंतर एटले एक प्रतरथकी बीजो प्रतर केटले अंतरे ने ? ते कहे . ॥ बिसहस्सूणा पुढवी ॥ तिसहस गुणिएहिंनियय पयरेहिं ॥ कणा रुवुण निय पयर ॥ नाईया पबडंतरयं ॥ २४ ॥ अर्थ- पहेली नरकपृथ्वीना पिंगमाहेथी बे हजार योजन ऊणा करीएं, एटले एक हजार उपरथी अने एक हजार नीचेथी काढीएं, पडी जे पृथ्वीएं जेटला प्रतर होय, तेटले प्रतरे त्रण हजार गणो पृथ्वीपिंग जणा के कणो करीएं, तेवार पली नियय के पोतपोताना प्रतरमाथी रुवुण के एक रूप ऊणो करी बाकी जे आंक आवे ते आंतरारूप जाणवू; तेणे करी नाग आपीएं, तेवारे परमंतरयं के एक प्रतरथी बीजा प्रतरतुं मांहोमांहे अंतरतुं प्रमाण होय. ए अक्षरार्थ कह्यो. ॥ २४ ॥ हवे ते उदाहरणे करी स्पष्ट देखाडे जे. जेम रत्नप्रना पृथ्वीनो पिंड एक लाख एंशी हजार योजन बे; तेमांहेथी बे हजार योजन काढीएं. बाकी एक लाख अहोतेर हजार रहे. पबी ए पृथ्वीना तेर प्रतर बे, ते त्रण त्रण हजार योजन ऊंचा , माटे तेरने त्रण हजार गुणा करीएं, तेवारे जंगणचालीश हजार योजन थाय, एटला एक लाख अहोतेर हजारमांथी काढीएं. बाकी एक लाखने उंगणचालीश हजार योजन रहे, तेने तेर प्रतरनी वचमांना वार अंतराने, माटे बारे नाग थापीएं, तेवारे एकेक आंतरे अगीबार हजार पांचसे ने ज्याशी योजन, अने उपर एक योजनना त्रण जाग करीएं तेवो एक जाग, एटटुं प्रमाण रत्नप्रजाने विषे प्रतरे प्रतरे मांहो. मांहे अंतर थाय. एज करण बीजी नरक पृथ्वीने विषे पण जाणवू. पोतपोताना प्रतरे जाग दीधा थकी जे आवे ते प्रत्येके कहे जे. Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संग्रहणीसूत्र २३१ बीजी नरक पृथ्वीएं अगीयार प्रतरना दश आंतरे लाग थापीएं तेवारे नव हजार ने सातसे योजन एकेके श्रांतरे आवे, त्रीजी नरक पृथ्वीने विषे श्राप आंतरे जाग आपवाथी प्रत्येके बार हजार त्रणसें पंचोत्तेर योजन श्रावे, चोथी पृथ्वीएं । थांतरे प्रत्येके सोल हजार एकसो बासठ योजन अने त्राहीयां बे नाग उपर एकेक अंतरे थावे, पांचमा नरके चार आंतरे प्रत्येक पचीश हजार बसें ने पचाश योजन एकेक अंतरे आवे, बती नरके बे आंतरे प्रत्येके साढी बावन हजार योजन एकेक अंतरे होय, अने सातमे नरके एक प्रतर बे, माटे अंतरो नथी. एटले सविस्तरपणे नारकीर्नु नवनछार कडं. ॥ हवे नारकीनु शरीरमान कहे जे. ॥ पण धणु ब अंगुल ॥ रयणा ए देहमाणमुक्कोसं ॥से सासुगुण गुणं ॥ पण धणुसय जावचरमाए ॥२५॥ अर्थ- रत्नप्रजाएं नारकीर्नु उत्कृष्टुं देहमान पोणाआठ धनुष्य ने बांगुल होय, श्रने सेसासु उगुण उगुणं के शेष एटले बाकीनी बए नरक पृथ्वीएं शरीरमान घमणुं बमणुं यथाक्रमे करता जश्एं, ते जाव चरमाए के० यावत् बेबी सातमी नरक पृथ्वीएं पांचसे योजन शरीरमान उत्कृष्टुं होय.॥२२५ ॥ ते विस्तारपणे उदाहरणे करी देखाडे जे. जेम रत्नप्रजाए सात धनुष्य त्रण हाथ ने उ आंगुल, तेने बमणुं करतां शर्करप्रना नरके पन्नर धनुष्य बे हाथ ने बार श्रांगुल उपर देहमान थाय. तेनेज बमणुं करीएं तेवारे वालुकाए एकत्रीश धनुष्य ने एक हाथ देहमान थाय, तेने बमणुं करतां पंकप्रनाए बासठ धनुष्य ने बे हाथ देहमान थाय. तेने बमणु करीएं तेबारे धूमप्रनाएं एकसो ने पचीश धनुष्य देहमान थाय. तेने बमएं करीएं तेवारे तमप्रनाएं अढीसें धनुष्य देहमान थाय. तेने बमj करीएं तेवारे तमतमप्रजाएं पांचसे धनुष्यनुं देहमान थाय. एटले साते नरकनेविषे सामान्यपणे उत्कृष्ट देहमान कडं. ॥ हवे प्रतर प्रतरनेविषे जूएं जूठं देहमान कहे . ॥ रयणाय पढम पयरे दबतियं देहमाण मणुपयरं ॥ बप्प मंगुखसढा । वुढीजा तेरसे पुमं ॥ २६॥ अर्थ- चावीश श्रांगुले एक हाथ, तेवा चार हाथे एक धनुष्य कहीएं. त्यां रत्नप्रजाने प्रथम प्रतरे उत्कृष्टुं देहमान हबतियं के त्रण हाथर्नु जाणवू. तेवारपनी श्रणुपयरं के प्रतर प्रतरप्रते पूर्व पूर्व प्रतरथकी देहमानमांहें जे वृद्धि करीएं; ते कहे Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संग्रहणीसूत्र. बे. उपमंगुलसट्ठा के साढी उपन्न अंगुल एटले बे हाथ ने साढाथात श्रांगुलनी वुढी के वृद्धि करतां करतां जा तेरसे के यावत् तेरमे प्रतरे पूर्वोक्त देहमान पुणं के पूर्ण थाय, ते कहे . रत्नप्रजाने पहेले प्रतरे त्रण हाथ, बीजे प्रतरे बे हाथ ने साढाबाठ अंगुल वधारीएं, तेवारे एक धनुष्य एक हाथ ने साढा आठ अंगुल उपर थाय, त्रीजे प्रतरे एक धनुष्य त्रण हाथ ने सत्तर अंगुल, चोथे प्रतरे बे धनुष्य बे हाथ ने दोढ अंगुल, पांचमे प्रतरे त्रण धनुष्य ने दश अंगुल, बठे प्रतरे त्रण धनुष्य बे हाथ ने साढा अढार अंगुल, सातमे प्रतरे चार धनुष्य एक हाथ नेत्रण अंगुल, थाम्मे प्रतरे चार धनुष्य त्रण हाथ ने सामा अगीबार अंगुल, नवमे प्रतरे पांच धनुष्य एक हाथ ने वीश अंगुल, दशमे प्रतरे ब धनुष्य ने साडाचार अंगुल, श्रगीश्रारमे प्रतरे ब धनुष्य बे हाथ ने तेर अंगुल, बारमे प्रतरे सात धनुष्य ने साढी एकवीश अंगुल, तेरमे प्रतरे सात धनुष्य त्रण हाथ ने अंगुल, उत्कृष्टं देहमान थाय बे. एटले रत्नप्रना नरके प्रतरे प्रतरे जूउंजूउं देहमान कयु. ॥ २६ ॥ ॥ हवे शर्करादिकने विषे उत्कृष्टुं देहमान प्रतर प्रतरने विषे कहे . ॥ जंदेद पमाण विरि ॥ माए पुढवी अंतिमे पयरे ॥ तंचिय हिहिम पुढवी ॥ पढमं पयरंमि बोधवं ॥२२ ॥ तंचेगूणग सग पयर ॥नश्यं बीया पयर वुहिनवे ॥ तिकर तिअंगुल करसत ॥ अंगूला सहि गुणवीसं ॥ २२ ॥ पण धणु अंगुल वीसं ॥ पनरस धणु दूणि दब सडाय ॥ बासहि धणुदसड़ा ॥ पण पुढवी पयर वुहि श्मा ॥२२॥ अर्थ-जंदेहपमाण उवरिमाए पुढवीए अंतिमे पयरे- एटले जे जे उपर उपरनी रत्नप्रजादिक पृथ्वीने अंतिमेपयरे के बेदखे प्रतरे उत्कृष्टुं शरीर प्रमाण बे. तंचियहिक मपुढवी के तेते हेग्ली हेवली शर्करादिक पृथ्वीनेविषे पढम पयरंमि बोधव्वं केपहेले प्रतरे देहमान जाणवू. ॥॥ फरी तंच के० ते शर्करादिक पृथ्वीने पहेले प्रतरे जे जे देहमान श्रावे, तेने एगूणग के एके ऊणे सगपयर के श्रापथापापणे प्रतरे नश्यं के विनाग आपीएं, पठी जे श्रांक श्रावे ते शर्करादिक पृथ्वीना बीयाए पयर के० बोजा प्रतर श्रादे देश प्रतरे प्रतरे वुढीनवे के वृद्धि होय. ते वृद्धि बीजी पृथ्वी श्रादे देबछी पृथ्वीसुधी पांच पृथ्वीना बीजे प्रतरे श्रादे दे अनुक्रमे जाणवी. त्यां शर्कराना प्रथम प्रतरे सात धनुष्य त्रण हाथ ने अंगुल देहमान बे. तेमां तिकर तिअंगुल के त्रण हाथ अनेत्रण अंगुलनो प्रक्षेप करीएं. त्रीजा नरके प्रथम प्रतरे पन्नर Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संग्रहणीसूत्र. १३३ धनुष्य वे हाथ ने बार अंगुल देहमान बे; तेमां कर सत्त अंगुला सही गुणवीसं के० सात हाथ सादगी अंगुलनो प्रक्षेप करीएं ॥ २२८ ॥ चोथा नरकने पहेले प्रतरे एकत्री धनुष्य ने एक हाथ देहमान बे, तेमांहे पांच धनुष्य ने वीश अंगुल प्रक्षेप करीएं. पांचमा नरके पहेले प्रतरे साढी बासव धनुष्य देहमान बे; तेमांहे पन्नर धनुष्य ने अढी हाथ पक्षेप करीएं. बहा नरके पहेले प्रतरे एकसो ने पचीश धनुष्य देहमान बे; तेमां बासठ धनुष्य ने वे हाथ प्रक्षेप करीएं. पण पुढवी पयरवुड्डीमा के० पांच पृथ्वीना प्रतरोनेविषे ए रीते वृद्धि करीएं ॥ २२५ ॥ दवे सविस्तरपणे देखाडे बे. शर्कराने प्रथम प्रतरे सात धनुष्य ने त्रण हाथ उपर गुल देहमान बे; ते सात धनुष्यना अहावीश हाथ थाय, तेनी साथे उपरना त्रण हाथ लतां एकत्रीश हाथ थाय. तेना अंगुल करवामाटे चोवीशे गुणिएं तेवारे सातसें चुमालीश अंगुल थाय. तेमां उपरना व अंगुल नेलीएं तेवारे सर्व मली सातसे ने पचाश अंगुल थाय. तेने शर्कराना अगीर प्रतरने एके ऊणा करी दशे नाग पीएं वारे एकेके जागे पंचोतर अंगुल यावे, तेना हाथ करवा माटे चोवीशे जाग आपीएं, तेवारे त्रण हाथ ने त्रण अंगुल एटलुं शर्करापृथ्वीना पहेला प्रतरने विषे देहमाननी वृद्धि थाय; एम प्रत्येके बीजो प्रतर यादे देश शेष दश प्रतरनेविषे एज रीते वृद्धि जाणवी. एम अनेरी नरकपृथ्वीने विषे पण जावना जाणवी. ते सुखावबोधने माटे शर्करा, वालूका, पंका, धूमा अने तमप्रजा, ए पांच पृथ्वीनी स्थापना देखी प्रीबजो अने सातमा नरके एकज प्रतर बे. ते कारणे त्यां प्रतरगत वृद्धि न होय. एके प्रतरे पांचसेंज धनुष्य उत्कृष्ट देहमान थाय. एटले सात नरकना प्रतर प्रतरने विषे नारकीनुं उत्कृष्टुं देहमान कयुं. ॥ हवे नारकीनुं उत्तरवै क्रिय देहमान कहे बे. ॥ सादावि देहो | उत्तर वेजविर्जय तहुगुणो ॥ वि जहन्नकमा ॥ अंगूल असंख संखंसो ॥ २३० ॥ विदो अर्थ-य के० इति पूर्वोक्त प्रकारे साते नरकने विषे नारकीनो साहावियदे हो ho स्वाजाविक देह, एटले जवधारणीय शरीर कयुं. त के० ते खाजाविक शरीरश्री डुगुणो के० बमणुं उत्तरवेदि के० उत्तरवै क्रिय शरीर जाणवुं. जेम रत्नप्रजाने विषे पन्नर धनुष्य हाथ बार गुल उत्तरवै क्रिय शरीर दोय; छाने सातमा नरके एक हजार धनुष्य उत्तरवै क्रिय शरीर होय. एटले वे प्रकारे उत्कृष्टुं देहमान कयुं. हवे विदो विजहन्नकम्मा के अनुक्रमे बे प्रकारे जघन्य देहमान पण कहे बे. एक धारणीय, ने बीजो उत्तरवैक्रिय, ए बने शरीर जघन्यथकी साते नरकने विषे For Private Personal Use Only Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ संग्रहणीसूत्र. अनुक्रमे गुलनो श्रसंख्यातमो जाग, तथा संख्यातमो नाग होय. अहींयां जवधारणीय शरीर पहेलुं उत्पत्ति वेलाए शरीर पर्याप्ति करतां अंगुलने असंख्यातमे जागे होय, अने उत्तरवै क्रिय शरीर प्रारंभ वेलाए प्रथम अंगुलने संख्यातमे जागे होय. ॥ २३० ॥ एटले नारकीनुं अवगाहनाद्वार कयुं. ॥ हवे उत्पातविरह तथा चवनविरहनुं द्वार कहे . በ सत्तसु चवीसमुह ॥ सग पनर दिोग डु चन बम्मासा ॥ उववाय चव विरहो ॥ उदे बारस मुहुत्त गुरू ॥ २३१ ॥ लहुर्ज दावि समर्ज ॥ संखापुण सुरसमा मुणेयवा ॥ संखा - उपजत्त पदि ॥ तिरिनरा जंति निरएस ॥ २३२ ॥ अर्थ- सत्तसु के साते नरके नारकी प्राये निरंतर उपजे बे ने चवे बे. परंतु क्यारेक जो विरह पड़े तो जघन्यथकी तो लहु के० साते नरके एक समय विरह पडे. अने प्रत्येके जूदो जूदो पण एक समयज विरह पडे. वली गुरु के० उत्कृष्ट साते नरकने विषे नेलो विरहकाल पडे तो जंगे के० सामान्यपणे साते नरकमांदे कोइ उपजे नहीं ने कोई चवे पण नहीं, तो उत्कृष्टो बार मुहूर्त्त विरह होय. तेवार पछी सात नरकमांदेली कोइक नरके अवश्य कोइक उपजे, अथवा चवे. ea जूदो जूदो नरक नरकने विषे उत्कृष्टो उपपात छाने चवनविरहकाल गाथाना अर्थी कहे बे. रत्नप्राएं चोवीश मुहूर्त्त, शर्कराएं सग के० सात दिवस, वालुकाए पन्नर दिवस, पंकाप्रजाएं एक मास, धूमप्रजाएं बे मास, तमप्रजाएं चार मास अने तमतमप्रजाएं व मास, ए उववाय चवणविरहो के० उपपात चवननो विरहकाल को. इहां जेनो जेटलो उपपात ने चवनविरहकाल कह्यो, तेटला कालयी उपरांत वश्यए नरकोने विषे प्रत्येके कोइक जीव उपजेज. छाने हे बारसमुहूत्त तथा लहु हासिम ए पदोनो अर्थ प्रथम लखाई गयो बे. दवे एक समये केटला नारकी चवे ? अने केटला नारकी उपजे ? ते पाडली गा - थाना बीजा पदे करी कहे बे. संखापुण सुरसमामुणेयवा के० वली नारकीनी उपजवानी ने चवननी संख्या ते सुरसमा एटले देवता सरखी, जेम देवता एक समये एक, बे, ऋण, संख्याता संख्याता उपजे ने चवे, तेम नारकी पण मुणेयवा एटले जाणवा. एटले नारकीनुं उपपात चवन विरहद्वार कयुं. हवे कोण जीव नरके जाय ? ते कहेतो थको गति द्वार पाटली गाथाना पाटला बे पदे करी कहे बे. संखाउ पजत्तपििद के० संख्याता आयुष्यवाला पर्याप्ता पंचेंडि For Private Personal Use Only Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संग्रदणीसूत्र. १३५ तिर्यंच, तथा पंचेंडि मनुष्य जो नरकायु बांधे तो नरके जाय, बीजा जीव नरकायु बांधे पण नही; अने नरके पण जाय नहीं ॥ २३१ ॥२३॥ मिनादिहि महारंन ॥ परिग्गदो तिवकोद निस्सीलो ॥ _नरयानयनिबंधश्॥पावमई रुद्दपरिणामो ॥ ३३ ॥ अर्थ-जे माटे मिथ्यात्वी, महारंजी, परिग्रही, तीव्रलोजी, निःशील, पापरुची, अने रौज परिणामि एवो जे जीव होय ते नरकायु बांधी नरके जाय. एटले सामान्यपणे नरकगति कही. ॥ ३३ ॥ ॥ हवे विशेषे जूदी जूदी नरकगति कहे . ॥ असन्नि सरिसिव परकी॥ ससीद उरगिं बिति जाहिं॥ कमसो नकोसेणं ॥ सत्तम पुढवी मणुय मना ॥ २३४ ॥ अर्थ-असंही मनुष्य अपर्याप्तो जे मरण पामे, अने अपर्याप्त नरकायु नही बांधेते. माटे असंझी संमूर्छिम पंचेंजि पर्याप्तो तिर्यंच जो नरकायु बांधे तो,पहेली नरके जाय. त्यां जघन्य दश हजार वर्ष, अने उत्कृष्ट पक्ष्योपमनो असंख्यातमो नाग एटले थायुष्ये उपजे. उपरांत आयुष्ये उपजे नहीं. अने सरिसिव के तुजपरिसर्प, गोह, नोलियादिक, गर्जज प्रमुख पहेला नरक आदे देश बीजा नरक सुधी उपजे. वली परकी के पक्षी जे मांसाहारी गृह, सींचाणा, समली अने नीलचास प्रमुख रौ अध्यवसायवाला पदी, ते त्रीजी नरकपृथ्वी सुधी जाय. अने सीह के सिंह प्रमुख एवा हिंसक जीव जे चीतरा, कुतरा, बीलाडी, प्रमुख ते चोथी नरकपृथ्वीसुधी जाय, वली उरगिं के उरपरिसर्प एटले काला, धोला, काबरा, प्रमुख सर्प ते पांचमा नरकसुधी जाय. अने वि के स्त्रीवेदे नरकायु बांधे एवा जे स्त्रीरत्न प्रमुख ते यावत् ब. हा नरकसुधी जाय. अने मनुष्य तथा मह जे जलचर जीव ए बेज गर्नजपर्याप्ता ते उत्कृष्टथी सातमा नरक सुधी जाय. कमसो जकोसेणं के० ए अनुक्रमे प्रर्वोक्त सर्व जीवोनी उत्कृष्टी गति कही. अने जघन्यथी रत्नप्रजाने पहेले प्रतरे जाय, एथकी उपरांत अने उत्कृष्टाथकी आगल जे विचाले जाय, ते सर्व मध्यमगति जाणवी. ॥ हवे केटलाएक तिर्यंचने प्राये गति कहे . ॥ वाला दाढी परकी॥ जलयर नरगा गयान अश्कूरा ॥जं. ति पुणो नरएसु ॥ बाहुल्लेणं ननण नियमो॥ ३५ ॥ अर्थ-वाला के व्याल ते सादिक, अने दाढी के० दाढवाला सिंह प्रमुख, पकी ते गृह प्रमुख, जलचर ते मत्स्यादिक, एटली जातिना जीव ते नरगागयाङ के। Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ संग्रहणीसूत्र. नरक थकी श्राव्या होय, छाने फरी नरकेज जाय. इकुरा के० अत्यंत क्रूर अध्यव सायवाला पंचेंद्रियना वधकारी जंतिपुणोनरएस के० वली फरी नरके जाय. ए बाहुलेणं के० प्राये कहीएं, परंतु नउपनियमो के० पुनः निश्चे नहीं. केमके कोइक जीव नरक की यावी सम्यक्त्व पामी रुडे संघयणे मोक्ष पण पामे. ॥ २३५ ॥ ॥ दवे नारकीने संघयण ने लेश्या कहे बे. ॥ दो पढम पुढवि गमणं ॥ बेवठे कीलियाई संघयणे ॥ इक्किक पुढवि बुट्टी ॥ आइतिलेस्साठ नरएसुं ॥२३६॥ अर्थ- बेवा संघी दो के० बे नरक पृथ्वी सुधी गमणं के० जाय, उपरांत न जाय. पढी पूर्वी गणनाए गणतां कीलिका संघयण यादे देश एकेकी नरक पृथ्वीनी वृद्धि करीएं, जेम कीलिका संघयणी त्रीजी नरकपृथ्वी सुधी जाय, अर्द्धनाराचे चोथी सुधी जाय; नाराचे पांचमी सुधी जाय, रुषजनाराचे बही सुधी जाय, अने वज्रशषजनाराच संघयणे सातमी सुधी जाय. ए उत्कृष्टी गती कही. घने जघन्य गति समस्त संघयणे रत्नप्रजासुधी; त्यां पण प्रथम प्रतरे जाय. ए जघन्य गति कही. अने पूर्वे उत्कृष्ट कही, तेनी वचमां जे जाय, तेने मध्यम गती कहीएं. हवे लेश्या कहे d. इतिले साउन रएस के कुम, नील, छाने कापोत, ए श्राद्यनी त्रण लेश्या नरकविषे होय. ॥ २३६ ॥ || हवे ए लेश्या विवरी ने कहे बे. ॥ सुकाऊ तया ॥ काऊनीलाय नील पंकाए ॥ धूमाय नील किएहा ॥ सु किएहा हुंति लेस्साउं ॥ २३७ ॥ अर्थ- सुके० पहेला बे नरके काल के० कापोत लेश्या होय. पण एटलुं विशेष जे रत्नप्राथकी शर्कर प्रजाने विषे अत्यंत मलीन लेश्या होय. तश्याए के० त्रीजा नरके केटलाक नारकीने कापोत लेश्या बे. एटले पल्योपमने असंख्यातमे जागे अधिक त्र पस्योपमना श्रायुष्यवालासुधीना नारकीने काऊ के० कापोत लेश्या बे. अने तेथी उप तना श्रायुष्यवालाने नीलाय के० नीललेश्या होय. अने नीलपंकाए के० पंकप्रजाने विषे केवल नील लेश्याज होय. धूमाने विषे केटलाक नारकीने नील लेश्या बे. एटले उत्कृष्टी पक्ष्योपमने प्रसंख्यातमे जागे अधिक दश सागरोपम सुधीना आयुष्यवाला नारकीने नील लेश्या होय. अने तेथी उपरांत आयुष्यवालाने केवल कृम लेश्या होय. अने बघा तथा सातमा ए डुसु के० वे नरकने विषे किएहा के० एक कुल बेश्या होय. पण एटलुं विशेष जे ए बड़ी सातमी नरकपृथ्वीएं परम कृम बेश्या जाणवी. हुंतिHeard ho ए साते नरकने विषे लेश्या होय ते कही. ॥ २३७ ॥ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संग्रहणीसूत्र १३० ॥ हवे शिष्य पूजे जे के, नारकीने शरीरवर्णरूप लेश्या बे ? किंवा कृमादिक अव्य संयोगथकी परिणामरूप लेश्या ? ते उपर सूत्रकार कहे जे ॥ सुर नारयाण ता॥ दबल्लेसा अवहिया नणिया ॥नाव परा वत्तीए ॥ पुण एसिं हुंति उ खेस्सा ॥ २३७ ॥ अर्थ-सुर के सौधर्मादिक देवताने तेजो, पद्म, ने शुक्ल ए नामे त्रण लेश्या कही; श्रने नारयाण के नारकीनेविषे कृम, नील,ने कापोत नामे त्रण लेश्या कही. ते अवडिया के अवस्थित कहीएं. ते देत्रसंबंधी दवढेसा के अव्यलेश्या आगमनेविषे नपिता के कही . ते लेश्या अव्य अवस्थित जाणवां, पण बाह्य वर्णरूप न जाणवां; जेमाटे तेवी तेवी, अव्य, क्षेत्र, अने कालादि सामग्री पामीने जावपरावत्तीए के परिणामनी परावर्ति एटले विपर्यासे करीने एसिं के० ए नारकीउँने पुण के वली प्रत्येके बउ लेश्या हुँति के संजवे. ए श्रदरार्थ कह्यो. ॥ २३० ॥ ___ हवे परमार्थ कहे . तिर्यंच तथा मनुष्यने नवांतरे देवता नारकीने नवे उपजतां, अथवा शेष काले मूलगी लेश्याने त्यागे, नवी लेश्याने संयोगे ते लेश्या जाय अने नवी लेश्या थाय. जेम उज्वल वस्त्रे जेवो मजीठ प्रमुखनो रंग लागे, ते धोलो वर्ण गमावे अने राता प्रमुख रंगपणे परिणमे. ते माटे सिद्धांतमाहे लेश्यानो उत्कृष्टो काल अंतरमुहूर्त कह्यो . नहीकां मनुष्यने त्रण पस्योपमायु दे, त्यां एकज लेश्या होय. अंतरमुहत अंतरमुहर्ते नवी नवी लेश्या न होय. __ वली देवता नारकीनी मूलगी वेश्याने नवी लेश्याने संयोगे तेनो थाकार मात्र जंजे, पण तप एटले तेहज रूपपणे न थाय; जेम वैडुर्य नीलमणी, कालोमणो प्रमुख काले नीले सूत्रे प्रोयो थको ते सूत्र संयोगे अप्रगट योगे श्रप्रगटपणे कांश्क तेनो श्राकार मात्र पामे. थने स्फटिक ते जासूसना फूल संयोगे प्रगट तेनुं प्रतिबिंब पामे, परंतु बन्ने तपपणुं न पामे; तेम कृप्लादिक लेश्या अव्यपणे नीलादिक लेश्याए समूह संयोग पामी केवारेक अप्रगट तदाकार मात्र होय. केवारेक प्रगट तेनुं प्रतिबिंब मात्र पामे. पण एम नहीं जे कृमलेश्याना वर्ण, गंध, रस, स्पर्शपणे परिणमीने नीलादि लेश्या - व्यरूप होय. एम न थाय. तेम सातमा नरके मुलगीकृस लेश्याने तेजो लेश्याना व्यसंयोग मस्या थका तदाकार मात्र, तथा प्रतिबिंब मात्र होय. तेवारे नारकीने कृम लेश्या थकाज तेजो लेश्यादि अव्यसंयोगे शुज परिणाम उपजे. जेम जासूस उपर रक्त स्फटिकनेविषे रक्तपणुं होय, तेम एवा परिणामे वर्ततां सम्यक्त्र प्राप्ति होय. एम करतां कांश विरोध नथी. अने एम पण नहीं जे तेजो लेश्यादिक परिणाम बतां कृतलेश्या न होय ? अने Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ संग्रदणीसूत्र. सातमा नरके सदा कमलेश्या बे, घने तेजोलेश्यादिक व्याकार मात्र प्रतिबिंब मात्रे करी केवारेक होय, अने ते उपनी थकी पण घणो काल रहे नहीं. अने जे नरके जे लेश्या बे ते अनेरी लेश्याने संयोगे पोतानुं स्वरूप बांडे, एंम पण न थाय. 66 माटे सातमा नरके एकली कम लेश्याज जाणवी. ए कारणे संगमा देवने श्राकारमात्र कृल लेश्या कदेवी, पण व्यवस्थित तो तेजोलेश्या जाणवी; अने जगवति - मां देवताने वर्ण जूदो को बे, अने लेश्यानो अधिकार पण जूदो को बे. वली असुराकाला " इत्यादि बाह्य वर्ण कह्यो, अने जवणवणपढम चउलेस इत्यादिक बेश्या स्वरूप कयुं, तो जाणीये बैएं जे वर्ण जूदो, अने लेश्या जूदी बे. घणुं शुं ? तथा जे tai Saraश्या यवस्थित कही. जे देवता नारकीने जे लेश्या संजवे ते पोतपोतानी नवस्थिति प्रमाण वस्थित कालप्रमाण जाणवी. त्यां पाउला जवनो एक अंतरमुदुर्त्त, अने एक आगला जवनो अंतरमुहूर्त, ए बेज अंतरमुहूर्त्त अधिक नवस्थिति सुधी लेश्या होय. हवे ए श्यानुं स्वरूप कहे बे. मार्ग थकी परिचष्ट थया एवा व पुरुष वनमां जमतां भूख तृषाये पीड्या थका जंबुवृने देवे श्राव्या. ते मांदोमांदे फल खावानी diar aai चित्तविषे चिंतन करवा लाग्या जे, ए वृनां फल जक्षण करीने क्षुधा तृषाने उपशमाविएं; एम विचारी एक पुरुष फलने अर्थे ते वृने मूल थकी बेदवा लाग्यो; एटले बीजो पुरुष बोल्यो जे थमथी बेदो, त्रीजो बोल्यो जे मालां दो, चोथो पुरुष न्हानी डालीउने बेदो एम बोल्यो, पांचमो पुरुष पाकां फलने तोमो एवं बोल्यो, अने बडो पुरुष बोल्यो जे पृथ्वी उपर खरी पडेलां फल मध्येथी वीणी खार्ड. जेम एव पुरुषना परिणाम जूदा जूदा तेम कृतादिकथी मांडी यावत् शुक् लेश्याना परिणाम पण जूदा जूदा जाणवा. हवे लेश्यानो वर्ण कहे बे. स्निग्ध मेघनी घटा सरखो, जैसना सिंगडां, अरिष्टरत्न, नेत्रनी कीकी ने काला सुरमा सरखो कमलेश्यानो वर्ण महाजयंकर जावो. अशोक वृक्षना अंकुर सरखो, नीलचास पक्षी सरखो, अने वैकुर्य रत्ननी कांति सरखो नील लेश्यानो वर्ण जावो. छालशीना फूल सरखो, जारसी अथवा कोकीलानी पांख सरखो, अने पारेवाना कंठ सरखो कापोतलेश्यानो वर्ण जावो. हींगलोकनो रंग, उगता सूर्यनी कांति, अने दीपक तथा पोपटनी चांच सरखो ते जोलेश्यानो वर्ण जावो. हरियालना मध्यरंग सरखो, हलदरना रंग सरखो, अने सेणानाफूल सरखो पद्मलेश्यानो वर्ण जावो. शंख, सुचकुंदनां फूल, दूध, पूर्ण चंद्रमा, मोतीना हार रूपा सरखो शुक्क लेश्यानो वर्ण जावो. For Private Personal Use Only Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संग्रहणीसूत्र. १३. ए हवे श्याना रस कहे बे. करुवा तुंबडानो रस, अने नींब इंद्रवारुणीनो रस, ए की अनंतगुण कडवो रस कृम लेश्यानो जावो. सुंठ, मरी, पीपर, अने गजपीपर, एनो जेवो तीखोरस थाय बे, ते करतां अनंतगुणो तीखो रस नील वेश्यानो जावो. काचुं श्रां ने काचं कोठफल ते थकी अनंतगुणो तुरो रस कापोत लेश्यानो जाणवो. पाका थांबांना फलनो रस, पाका को फलनो अथवा पाका बीजोरानो जेवो रस, ते करतां अनंतगुणो मीठो रस तेजोलेश्यानो जाणवो. प्रधान वारुणीनो रस, छाने विविध प्रकारना अरग, मधु एना रस थकी अनंतगुणो सारो र पद्म लेश्यानो जावो. खजुर, प्राख, दूध, खांड, साकर, एना रसथकी पण अनंतगुणो गल्यो रस शुक्ल लेश्यानो जावो. दवे लेश्यानो फरस कहे बे. कृम, नील, ने कापोत ए त्रण लेश्यानो फरस प्रशस्त एटले मध्यम जाणवो. गायनी जीजनो फरस तथा करवतनो फरस, ते करत पण अनंतणो कर्कस फरस ते प्रथमनी ऋण लेश्यानो जावो. अने तेजो, पद्म तथा शुक्ल, ए त्रण लेश्यानो प्रशस्त एटले रुमो फरस जाणवो. परवन ने माखनो जेवो कोमल फरस होय, ते करतां पण अनंतगुणो सुकुमाल फरस जाणवो. एटले नारकीनुं श्रागतिद्वार कयुं. दवे नारकी नरक थकी नीकलीने क्यां यावे कहे . श्री पन्ना सूत्रमां कह्युं बे के, सातमा नरक थकी श्राव्यो जीव मत्स याय. ए प्रायिक वचन बे, तेमाटे गर्नज पर्याप्तो तिर्यच होय. एम जणाय बे. केमके, श्रीपार्श्व नाथ चरित्रे कमनो जीव सातमा नरक थकी श्राव्यो सिंह थयो देखाय बे. एटले जे उत्कृष्टायु जोगवी सातमा नरक थकी नीकले ते मत्स याय; छाने मध्यम तथा जघ - न्यायु जोगवी सातमा नरक थकी नीकले, ते गर्जज पर्याप्तो तिर्यंच थाय. ए संअर्थ क्युं बे, विचारी जोजो. 1 निरज वट्टा गनय ॥ पजत्त संखान ल िएएसिं ॥ चक्कि दरि जुअल रिहा | जिए जइ दिसि सम्म पुवि कम्मा ॥२३॥ - रिट्टा के नरकथकी नीकल्या जीव अनंतर आगले जवे गाय के० गहोय; पण समूर्छिम न होय. एतावता समूर्छिम तिर्यंच, तथा समूर्छिम मनुष्य तथा देवता ने नारकी मांहे पण न जाय; मात्र गर्भजपणे पजत्त के० पर्याप्ता होय; पण अपर्याप्ता न होय. वली संखान के संख्याता वर्षने आयुष्ये उपजे, पण युगलियामां न उपजे. वली लएिएस के० ए नारकीने जे जे नरक थकी नीकट्या कां जे जे लब्धि एटले लाज प्राप्ति होय, ते हवे अनुक्रमे कहे बे. पहेली रत्नप्रजा पृथ्वी की जो श्राव्या होय तो, चक्रवर्त्ति होय. पण शेष पृथ्वीना आव्या चक्रवर्त्ति For Private Personal Use Only Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० संग्रहणीसूत्र. न थाय. ए संनव मात्रे , परंतु चक्रवर्तिज थाय, एवो कांश नियम नथी. एम बीजी नरक पृथ्वीनी मर्यादाश्री उधख्या एटले बीजी नरकपृथ्वी सुधीना आव्या जीव ते हरिजुयल के वासुदेव, बलदेव होय. एम सर्वत्र मार्यादा जाणवी. त्रीजी नरकपृथ्वीसुधीना श्राव्या अरिहंत एटले तीर्थकर होय. एटले जे पूर्वे नरकायु बांध्या पली तीर्थंकर गोत्र ऊपार्जी श्रेणिकादिकनी पेरे नरके गया होय ते जीव तीर्थकर थाय. अने चोथी नरकपृथ्वीसुधीना श्राव्या जिन के सामान्य केवली होय. पांचमी नरकपृथ्वीसुधीना श्राव्या सर्व विरति यति होय. बही नरक पृथ्वीसुधीना श्राव्या देशविरति एटले श्रावक होय. अने सातमी नरकपृथ्वी सुधीना श्राव्या सम के सम्यक्त्व मात्र पामे; देशविरति प्रमुख कांश पामे नहीं. ॥ २३ ॥ ॥ हवे नारकी अवधिझाने केटबुं क्षेत्र देखे ? ते कहे .॥ रयणा एजेंदिगाउ॥चत्तारिश्रधु गुरु बहुकमेण ॥ प ३ पुढवि गाज यई॥दायइ जा सत्तमि गई ॥ २४० ॥ अर्थ-रत्नप्रजा पृथ्वीएं नारकीने उत्कृष्टुं उहि के अवधिदेत्र गाउयचत्तारि के चारगाउ जाणवू, श्रने जघन्य तो उठ के सामात्रण गाउ अवधिज्ञाने देखे. गुरुखहुकमेणं के ए उकृष्ट अने जघन्य अनुक्रमे कह्यु. हवे बीजी नरकपृथ्वी आदे देश पश्पुढविगाउयकंहाय के एकेकी पुढवी प्रत्ये थर्ड थर्ड गाउ घटामीएं, ते जासत्तमि के यावत् सातमा नरके गळं के उत्कृष्टुं एक गाउ, अने जघन्य अर्को गाउ अवधिदेत्र होय, ए विवरीने लखे . पहेला नरके अवधिक्षेत्र चार गाउ, बीजाए सामा त्रण गाउ, त्रीजाए त्रण गाउ, चोथाए अढी गाउ, पांचमाए बे गाज, बहाए दोढ गाउ, अने सातमाए एक गाज. ए उत्कृष्टुं अवधिदेत्र कह्यु. ए उत्कृष्टथी प्रत्येक नरकपृथ्वीएं, अर्ड गाउ उनु करीएं, ते जघन्य अवधिदेत्र जाणवु. ॥ १० ॥ श्रहीयां को पूजे जे सातमा नरके ब्रह्मदत्त चक्रवर्ति “ हा कुर्मती हा कुर्मती" पोकारे , ते केम मले ? केमके अवधिदेत्र तो एक गाउनुं बे, ते सातराज केम देखे ? तेनुं समाधान करे ने जे, सम्यक्दृष्टिने मतिज्ञानने बले जातिस्मरण ज्ञान बे; तेणे करी पूर्वजवनी वात जाणे. परंतु कुर्मतीने देखे नहीं. अने कुर्मती " ब्रह्मदत्त ब्रह्मदत्त” एवं पोकारे बे; ते पण जाणे जे जे, पूर्वले नवे ब्रह्मदत्त महारो नतर हतो, ते अवस्था तो जाणे; परंतु नरकमांहे थकी अवधिज्ञाने करी देखे नहीं. एम जाणजो. एटले नारकीर्नु आगतिधार कयु, एटले सविस्तरपणे नवे द्वारे करी नारकीनी वक्तव्यता कही. इति नरयदारंसम्मत्तं ॥ ए नारकीनुं हार समाप्त थयु. Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संग्रहणीसूत्र. १४१ ॥मणुयदारं नल कहेतां हवे मनुष्यकार ते जुवन विना आठे प्रतिधारे करी कहीएं वैये. तेमां प्रथम स्थितिधार अने अवगाहनाहार ए बे द्वार कहे . ॥ गननर ति पलियाक॥तिगान नकोस ते जहन्नेणं ॥ मुबि म उहावि अंत मुहु॥ अंगुल असंख लागतणू ॥ १४ ॥ अर्थ-अहींयां मनुष्य बे प्रकारे . एक गर्नज अने बीजा गर्नविना जे उपन्या ते समुर्बिम. तेमां गर्नज मनुष्यनुं उस्कृष्टुं तिपलियाउ के त्रण पस्योपमनुं आयुष्य जाणवू, अने तेनुं तिगाउ के त्रण गाउनुं देहमान उत्कृष्टुं जाणवू. श्रने जहन्नेणमुनिमाहाविरंतमूहु के गर्नज मनुष्यनुं जघन्यायु अंतरमुहूर्त जाणवू. तथा समूर्बिम मनुष्यनुं जघन्य तथा उत्कृष्टुं अंतरमूहुर्तायु जाणवू. तथा अंगुलासंखजागतणू के गनज मनुष्य, देहमान जघन्यथी अंगुलने असंख्यातमे नागे जाणवू. अने समूर्छिम मनुष्यनुं जघन्य तथा उत्कृष्टुं देहमान अंगुलनो असंख्यातमो नाग जाणवू. ए समूर्डिम मनुष्य ते श्रढीवीप समुअनेविषे गर्नज मनुष्यना उच्चार ते वडिनीत, पासवण-ते लघुनीत, खेल-ते श्लेष्मा, संघान, नासीकामल, वमन करेलुं पित्त, शुक्र, वीर्य, शोणित, लोही, मृत कलेवर, स्त्री पुरुषने संयोगे, नगरने खाले, बीजां सर्व अशुची स्थानक, एटलां स्थानके समुर्छिम मनुष्य उपजे. ए समूर्बिम असंही मनरहित मिथ्यात्वी समस्त पर्याप्तिए अपर्याप्तो. केमके, समूर्डिमने पांच पर्याप्ति , श्रने ए समूर्बिम मनुष्य आहार शरीर पर्यातिएं इंजियपर्याति पूरण करी मरण पामे, ते कारणे समूर्छिम सर्व पर्याप्तिए अपर्याप्तो थको काल करे. वली संख्याता आयुष्यवाला मनुष्यने वैक्रिय शरीर जघन्य अंगुलना संख्यातमा जाग प्रमाण अने उत्कृष्टुं लाख योजन काजेलं होय प्रमत्त यतिने आहारक लब्धिवं. तने, थाहारक शरीर होय. ते थाहारक शरीर जघन्यथी देशे जणुं एक हाथ, अने उत्कृष्टुं एक हाथ पूर्ण होय. तेजस थने कार्मण ए बे शरीर सर्व संसारी जीवने औदारिक, वैक्रिय अने थाहारक शरीरने संयोगे तपपणे परिणमे. एटले मनुष्यने श्रायुष्य अने अवगाहना कही. ॥ २४॥ ॥ हवे उपपात उतना विरहकाल कहे .॥ बारस मुहुत्त गन्ने ॥ श्यरे चनवीस विरदन कोसो ॥ जम्म मरणे सुसम ॥ जदम संखा सुरसमाणा ॥ २४ ॥ अर्थ-गप्ने के गर्नज मनुष्यने जन्मथाश्री विरह, एटले अंतरकाल तथा मरणआश्री अंतरकाल उत्कृष्टो बार मुहूर्त होय, एटले गर्नज मनुष्य एक उपन्या पनी बी Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ संग्रदणीसूत्र. जो उत्कृष्टो बार मुहूर्त्तने यांतरे उपजे. अने मरण पण एक मुवा पढी उत्कृष्ट श्रांतरो पडे तो बार मुहूर्त्त पी अवश्य बीजो कोइ मरण पामे. तेम जन्म पण याय, अने यति एटले इतर जे समूर्धिम मनुष्य बे, तेने उत्कृष्टो जन्म मरण संबंधी विरह पडे तो चोवीस मुहूर्त्त सुधी पडे. अने जघन्य थकी गर्जज मनुष्यने तथा समूर्छिम मनुष्यने जन्ममरणनो विरकाल एक समय जावो. दवे एक समय गर्भज तथा समूर्व्विम मनुष्य उपजे तो केटला उपजे ? ते कहे बे. सुरसमाणा के० देवतानी पेरे ते इंगति संखमसंखा इगसमए हुंतिय चवंति के० एक समये एक, बे, त्रण, संख्याता, असंख्याता उपजे तेम मरण पण पामे. त्यां गज मनुष्य उत्कृष्टे काले अंगणत्रीश श्रांके संख्याता सुधी गणिएं. अने गर्जन समूमि बेज ला गणिएं, तेवारे असंख्यातासुधी गएिं. ॥ २४२ ॥ ॥ हवे कियो जीव मरीने मनुष्यगतिमां आवे ? ते गतिद्वार कहे बे. ॥ सत्तमि मदि नेरइए ॥ तेऊ वाऊ असंख नर तिरिए || मुत्तूण सेस जीवा ॥ उप्पती नरभवंमि ॥ २४३ ॥ अर्थ- सातमी नरकपृथ्वीना नारकी, तेऊकाय, वाऊकाय, असंख्याता आयुष्यवाला युगलिया, एटले मनुष्य तथा तिर्यंच युग लिया. एटला मूत्तणं के० मूकीने सेस जीवा के० शेष बीजा सर्व जीवो ते उप्पजंतिनरजवंमि के० मनुष्यमांदे उपजे ॥ २४३ ॥ ॥ वली अहींयां विशेष कहे . ॥ सुर नेरइएहिं चिय ॥ दवंति दरि अरिद चक्कि बल देवा ॥ चविदसुर चक्किबला ॥ वेमाणिय हुंति दरि अरिदा ॥ २४४ ॥ - वासुदेव, अरिहंत, चक्रवर्ति ने बलदेव-ए चारे सुरनेरइएहिंचिय के० दे वता ने नारकीनी गतिमांथी श्राव्या होय; पण मनुष्य तथा तिर्यंचनी गतिथी श्रावेला न होय. वली चार निकायना देवगतिना श्राव्या पण चक्कि के० चक्रवर्ति अने बला के० बलदेव होय. ने वेमा पियहुंतिहरि रिहा के० अरिहंत तथा वासुदेव ए बने केवल वैमानिक देवगतिनाज व्या होय. बीजी ऋण निकायना श्राव्या न होय. हरिणो मणुस्स रयणा ॥ हुंति नागुत्तरेहिं देवेदिं ॥ जद संभव मुववार्ज ॥ दयगय एगिंदि रयणाणं ॥ २४५ ॥ अर्थ- वैमानिकमांदे विशेष देखाडे बे. हरिणो के० वासुदेव, तथा चक्रवर्त्तिना मणुस्सरयणाई के० मनुष्य रत्न पांच, ते हुंतिनाणुतरेहिं देवेहिं के० पंचानुत्तरना देव चवीने न होय. अहींयां ए जावार्थ बे के वासुदेव तो नारकी तथा वैमानिकथकी श्राव्या For Private Personal Use Only Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४३ संग्रहणीसूत्र. होय, तेमां जो वैमानिकथकी श्राव्या होय तो पंचानुत्तर देव टाली बीजा सर्व स्थानकथी श्राव्या वासुदेव थया होय. अने चक्रवर्तिनां चौद रत्न , तेमां चक्रादिक सात रत्न एकेंजी ने अने पुरोहित श्रादे देश सात रत्न पंचेंजी बे. तेमां हस्तिरत्न अने अश्वरत्न ए बे तिर्यंच जे. बाकीनां पांच मनुष्यरत्न . ते सातमी नरक, तेउकाय, वायुकाय, तिर्यंच अने मनुष्य एमांथी श्राव्या मनुष्यरत्न न होय; शेष स्थानकथी श्राव्या मनुष्यरत्न होय. पुरोहित, सेनापति, गाथापति, वार्षिक ते सुतार अने पांचमुं स्त्रीरत्न-ए पांच मनुष्यरत्न जो वैमानिकथी आव्यां होय तो अनुत्तरदेव वर्जीने बीजा देवता थकी श्राव्यां होय. एम जाणवु. वली हाथी तथा अश्व ए बे रत्न तथा एकेंद्रीय रत्ननी उत्पत्ति तो यथा संजवे जाणवी. एटले ज्यांना श्राव्या तिर्यंच संजवे ते समस्त स्थानकथकी श्रावेलां हां र. त्नपणे होय. अने नारकी तथा संख्याता आयुष्यवाला तिर्यंच अने मनुष्य तथा सइस्रांत देवलोक सुधीना देवता एटला स्थानकना आव्या अश्वरत्न तथा गजरत्न होय. वली संख्याता आयुवाला तिर्यंच अने मनुष्य तथा ईशानांत सुधीना देवता एटला स्थानकना आव्या एकेंजी रत्न होय. ए यथा संजव उपपात कहिएं. ॥ हवे ए रत्नोनां नाम तथा प्रमाण कहे बे. ॥ वामपमाणं चकं ॥ उत्तं दंडं उदबयं चम्म ॥ बत्तीसंगुल खग्गो ॥ सुवम कागिणि चनरंगुलिया ॥ २४६ ॥ चजरंगुलो अंगुलपिठुलोय मणी पुरोदि गय तुरया ॥ सेणाव मादावश्॥पढ़ इथी चकि रयणाई॥ २४ ॥ अर्थ- चक्र, बत्र, ने दंग, ए त्रण रत्न ते वामपमाणं के एक वाम प्रमाण जापवां. वाम शब्दे बेउ बाहु लांबा पसाया थका जे धनुष्य प्रमाण होय, तेने वाम कहे जे. अने मुहव्यंचम्म के चर्मरत्न बे हाथ प्रमाण होय, तथा बत्तीसंगुलखग्गो के खड्गरत्न बत्रीश आंगुल प्रमाण लांबु होय. अने सुवणकागिणि चउरंगुलिया के जात्यवंत सुवर्णमय कांगिणिरत्न ते चार श्रांगुल लांबु होय. ॥ २४६॥ अने चनरंगुलो अंगुलपिहलोयमणी के चार अंगुल लांबुं, अने बे अंगुल पदोढुं मणीरत्न होय. ए साते एकेंजी रत्न चक्रवर्तिने श्रात्मांगुल प्रमाण जाणवां. अने पूरोहित प्र. मुख सात पंचेंडी रत्न जे जे ते, जे काले जेतुं पुरुषना शरीरनुं प्रमाण होय ते काले ते पण तेवा प्रमाणनां होय. __हवे ए चौद रत्नना गुण कहे जे. चक्ररत्न वयरीनुं मस्तकलेदक. बीजुं बत्ररत्न ते चक्रवर्तिने हस्तस्पर्शे बार योजन सुधी विस्तार पामे. एबुं होतुं थकुं वैताढ्य पर्व Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ संग्रहणीसूत्र. तनी उत्तर दिशिए रेहेनारा जे म्लेच तेना देवता मेघ वर्षावे, तेनो निरोध करवाने समर्थ थाय. त्रीजु दंडरत्न ते विषम एटले जे वांकी नूमि होय, तेने समी करे. कामपडे थके हजार योजन अधोजागे धरती विदारे, चोथु चर्मरत्न ते कार्य उपन्ये थके चक्रवर्त्तिना हस्तस्पर्श करी बार योजन विस्तार पामे. एवं होतुं थकुं प्रजातकाले बीज वाविएं अने संध्याकाले सर्व उपजोग करवाने योग्य एवा शालि प्रमुखने उत्पन्न करे . पांचमु खड्गरत्न ते संग्रामने विषे अत्यंत शक्तिवंत होय. बहुं कांगिणिरत्न ते वै. ताढ्य पर्वतनी गुफामांहे एकेकी नीते उंगणपचास उंगणपचास मांगला करवा योग्य होय. सातमुं मणीरत्न ते अधोनागे रेहेना5 जे चर्मरत्न अने ऊर्ध्वजागे रहेनारं जे उत्ररत्न तेना बत्र तुंबा उपर राख्युं बतां तेवारे बार योजन सुधीमां ए मणिरत्व उद्योतकारी थाय. अने हस्तनेविषे श्रथवा मस्तके बांध्यु बतां समस्त रोग हरे. थाउमुं पुरोहितरत्न ते शांतिकर्म करनार होय. नवमुं अश्वरत तथा दशमुं गजरत्न ए बे महापराक्रमवंत होय. अगीश्रारमुं सेनापतिरत्न ते गंसासिंधुने पेले पासे चार खंडनो जीतनार होय. बारमुं गृहपतिरत्न ते घरनां योग्य काम करे, एने गृहचिंतक कहे. तेरमुं वार्डकीरत्न ते घर चणे. वैताढ्य पर्वतनी गुफामांहे उमग्गा अने निमग्गा नदीनां पुल बांधे. चौदमुं स्त्रीरत्न ते अत्यंत अछुत रूपवंत चक्रवर्तिना जोग योग्य होय. ए चौद रत्न ते प्रत्येके एकेक हजार यदोए अधिष्ठित होय. अने बे हजार यद चक्रवर्त्तिने बेउ बाहे होय. एवंकारे सोल हजार यद चक्रवर्तिनी सेवा करे. ते जघन्यथी जंबुद्धीपनेविषे चार चक्रवर्ति होय. तेवारे बपन्न रत्न होय. अने उत्कृष्टपदे अहावीश विजयना अने बे जरत तथा ऐवतना मली त्रीश चक्रवर्ति होय, तेवारे जंबुद्धीपे चारसे ने वीस रत्न होय. ॥ २४ ॥ ॥ हवे वासुदेवनां सात रत्न कहे .॥ चकं धणुहं खग्गो॥ मणी गया तहय होइ वणमाला ॥ संखो सत्त इमाई ॥ रयणाई वासुदेवस्स ॥ २४ ॥ अर्थ-एक चक्र, बीजुं धनुष्य, त्रीजुं खड्ग, चोथु मणी, पांचमुं गदा, तेमज हुं वनमाला, सातमुं शंख, ए सात रत्न वासुदेवनां जाणवां ॥ २४ ॥ ॥ हवे मनुष्य मरीने स्वनावे क्यां जाय ? ते कडे बे. ॥ संख नरा चनसु गईसु॥ जंति पंचसुवि पढम संघयणे ॥ ग उतिजा अहसयं ॥ गसमए जंति ते सिधिं ॥४॥ अर्थ-संख्याता आयुष्यवाला मनुष्य, जे पुरुष, स्त्री तथा नपुंसकरूप ते नरक, तिर्यंच, मनुष्य ने देवतारूप चारे गतिनेविषे वली जंति के जाय. ए मनुष्य जे प. Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४५ संग्रहणीसूत्र. ढम संघयणे के प्रथम संघयणे वर्त्तता होय ते पंचसुवि के पांचमी गति जे मोक्ष ते प्रते पण जाय; तेमाटे मोक्षगतिनी संख्या कहे , ते मनुष्य कर्मक्षये वर्त्ततां एक समये सामान्यपणे जघन्यथी तो एक, बे, त्रण भने उत्कृष्टा जा के यावत् बहसयं के एकसो ने श्राप एटला एक समयनेविषे जंतितेसिकिं के मोक्ष प्रते जाय. श्Yए ॥हवे त्रण वेद श्राश्री सिझगति विशेष कहे . ॥ वीसिबि दस नपुंसग ॥ पुरिस सयं तु एगसमएणं ॥ सिद्यगिदिअन्न सलिंग॥चनदस अबाहिय सयं च ॥२५॥ अर्थ- एक समयनेविषे उत्कृष्टा स्त्रीवेदे वीश मोदे जाय, एक समये नपुंसकवेदी दस मोदे जाय, अने पुरुषवेदी एकसो ने श्राउ एक समयनेविषे मोदे जाय, गृहिलिंगे एक समये चार मोदे जाय, अन्यलिंग एटले तापसादिकने लिंगे एक समये दस मोदे जाय, अने सलिंग ते स्वलिंगें एटले साधुलिंगें अहाहियसयं च के० एकसो ने आठ एक समये मोदे जाय. ॥ २५० ॥ गुरुखहु मस्सिम दोचन ॥ असयं उदो तिरिय लोए॥ चन बावीसऽसयं ॥ उसमुहे तिन्नि सेसजले ॥ २५ ॥ अर्थ- गुरु के० उत्कृष्टी श्रवगाहनाए एटले पांचसे धनुष्य प्रमाण शरीरवाला उत्कृष्टा एक समयने विषे दो के बे मोके जाय. जघन्य अवगाहनाए एटले बे हाथप्रमाण शरीरवाला उत्कृष्टा एक समयनेविषेचन के चार मोदे जाय. अने मनिम के मध्यम अवगाहनाए उत्कृष्टा एक समयनेविषे असयं के० एकसो ने आठ मोक्षनेविषे जाय. थहींयां शिष्य पूजे जे के उत्कृष्ट पांचसे धनुष्य शरीर अने जघन्य बे हाथ शरीरवाला मोक्षयोग्य होय; तो नाजिकुलगरनी नार्या श्रीमरुदेवीस्वामिनी सवापांचसें धनुष्यना शरीरे मोदे केम गइ ? वली जघन्यथी सात हाथ शरीर मोद योग्य बे, तो कूर्मापुत्र बे हाथना शरीरवाला केम मोदे गया ? अहींयां गुरु उत्तर कहे ... ___ उत्कृष्टथी पांचसे धनुष्य, श्रने जघन्यथी सात हाथना शरीरवाला जे मोदे जाय. ए शरीरमान तीर्थंकर आश्री कह्युबे, परंतु सामान्य केवली श्राश्री कद्यु नश्री. जे माटे श्रीजिनजागणिक्षमाश्रमण कहे जे के, जरिथकी स्त्री कांश्क न्यूनशरीरवाली होए के वली वृद्ध माणस खुंधो होय श्रने होथी उपर चड्यां थकां शरीर पण संकोच थयेj होय तेमाटे पांचसे धनुष्य शरीर श्रीमरुदेविजीनुं जाणवू. थने सात हाथना शरीरवाला तीर्थकर मोदे जाय, पण सामान्य केवली कूर्मापुत्र प्रमुख जघन्यथी बे हाथना शरीरवाला पण मोदे जाय. अने सिझांतमाहे पांचसें Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ संग्रहणीसूत्र. धनुष्य उत्कृष्ट अने सात हाथना शरीरवाला मोदे जाय, एवं जे कयु बे, ते प्रायिक कडं . नहीतर श्रधिको उनो पण होय. जे माटे पांचसे धनुष्य पृथक्त्व अधिक त्यां पृथक्त्व शब्दे पचीस धनुष्य जाणवा, अने सिकप्रानतिमांदे पांचसे श्रादे सोमांहे श्रीमरुदेवा गण्या , अने सात हाथ ते पण अंगुल पृथक्त्व हीन जाणवा, ते हीन , माटे बे हाथ गणिएं, एम करतां कांश शंका नथी. वली कुर्व लोके एक समये उत्कृष्टा चार मोदे जाय, अधोलोके बावीस मोदे जाय, तिर्यक लोके एकसो ने थाउ मोदे जाय, वली एक समये समुरुमांथी बे मोदे जाय, शेष पाणी नदि तथा प्रहमांहेथी त्रण मोदे जाय. अहींयां कई लोक ते मेरुचूलिका तो नंदनवन जाणवू, अने अधोलोक ते अधो. ग्रामविषे जाणवं, तथा तिर्यक लोक तो लोक प्रसिक बे; त्यां लब्धी माफक समुजमांहे अथवा बीपे जर काउसग्ग करी मोद जाय, नदिमांहे गंगानदि उतरतां श्रनिका सुत श्राचार्यनी पेरे मोदे जाय. ॥२५१ ॥ ॥ हवे चारे गतिमाहेथी श्रावेला केटला केटला मोदे जाय ते कहे . ॥ नरय तिरिया गयादस ॥ नरदेव गईन वीसहसयं ॥ दस रयणा सकरवालुयान चन पंक न दगजे ॥॥ बच्चवणस्स दसतिरि॥तिरिबि दस मणुय वीस नारी ॥ असुराश्वंतरा दस ॥ पण तदेवीन पत्तेयं ॥ ५३॥ जो दस देवि वीसं ॥ विमाणियहसय वीसदेवी ॥ अर्थ-नरय के नरकगतिथकी निकलीने मनुष्यगतिमां श्राव्या जो एक समये सीजे तो दश सीजे. एम तिर्यंच गतिथकी श्राव्या पण दश सीजे. अने मनुष्यगतिथकी श्राव्या वीश सीजे. देवगतिथकी श्राव्या श्रहसयं के एकसो ने था सीजे.वली ए गतिमांहे विशेष कहे . रत्नप्रना, शर्करा अने वालुकाथकी श्राव्या प्रत्येके दस दस सीजे. पंकप्रनाथकी श्राव्या चार सीजे. अने धूमादिकथकी श्राव्या सीजे नहीं. वलीनू के पृथ्वीकायथकी आव्या चार सीजे. दग के अपकायथकी श्राव्या चार सीजे ॥२५॥ वनस्पतिकायथकी श्राव्या उसीजे, पंचेंजी तिर्यंचयकी श्राव्या दश सीजे, तेमां तिर्यंचनी स्त्रीमांडेथकी आव्या पण दश सीजे. अने मनुष्य नरथकी आव्या दश सीजे, मनुष्य नारीथकी श्राव्या वीस सीजे. असुरादिक दश निकायथकी आव्या दश सीजे, तेम समस्त व्यंतरगतिथकी श्राव्या Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संग्रदणीसूत्र. १४७ दश सीजे, असुर कुमार यादे देने दश निकायनी देवी थकी श्राव्या पांच सीजे, तेमज समस्त व्यंतरजातिनी देवीथकी आव्या पांच सीजे, तद्देवि के० ते असुरादिक तथा व्यंतरनी देवी ते प्रत्येके जूदी जूदी पांच जाणवी ॥ २५३ ॥ छाने ज्योतषी पुरुषथकी श्रव्या दश सीजे, ज्योतषी स्त्रीथकी श्राव्या वीस सीजे, वैमानिक देव ant व्या एकसो ने आठ सीजे, वैमानिक स्त्रीथकी श्राव्या वीश सीजे, इह सर्वत्र एक समय जावो. सिद्धप्रानृतने विषे देवगति, मनुष्यगति, तिर्यंचगति, नरकगति प्रत्येके दश दश सीजे एम कह्युं बे, एतत्व केवली जाणे, अथवा बहुश्रुत जाणे. एटले गतिश्री सिद्धी कही. ॥ दवे वेद श्री सिद्ध कहे बे, तथा सिद्धगतिए उपपात विरहकाल कहे बे. ॥ तद पुढे एहिंतो ॥ पुरिसो दोऊ ऋ सयं ॥ ५४ ॥ सेस जंग || दस दस सिति एग समएणं ॥ विरदो मास गुरु लहु सम चवण मिद नचि ॥ २५५ ॥ अर्थ- पुरुषवेदी देव, मनुष्य तथा तिर्यंचथकी निकली कोइ पुरुष थाय कोइ स्त्री या को नपुंसक था, एमज स्त्रीवेदी पण देवी प्रमुखथकी निकली कोई स्त्री घाय कोइ पुरुष थाय को नपुंसक थाय. एमज नपुंसकवेदी नारकी प्रमुखथकी नीकली कोइ नपुंसक थाय, कोइ स्त्री थाय कोइ पुरुष याय. ए सर्व मली नव जांगा था, मां जे पुरुषवेदथकी घ्यावी फरी पुरुष वेदी यइ सीजे तो उत्कृष्टा एक समयमांदे एकसो ने आठ सीजे ॥ २५४ ॥ श्रने शेष थाकता याव जांगामां प्रत्येके एक समयमां जो सीजे तो दश दश सीजे, ते केवी रीते सीजे ते कहे बे. तेमां (१) केवल पुरुषवेदी वैमानिक देवोथी श्रावी पुरुष थर सीजे तो एक समये एकसो ने आठ सीजे, (२) एम पुरुषवेद की स्त्री थइ सीजे तो दश सीजे, (३) पुरुषथकी नपुंसक थर सीजे तो दश सीजे, (४) एम केवल स्त्रीवेदथकी घ्यावी स्त्री घर सीजे तो पण दश सीजे, (५) स्त्रीथकी पुरुष थइ सीजे तो पण दश सीजे, (६) स्त्रीथकी नपुंसक य सीजे तो पण दश सीजे, ( 9 ) केवल नपुंसक वेदथकी यावी नपुंसक इसीजे तो पण दस सीजे, (८) नपुंसकथकी पुरुष थर सीजे तो पण दश सीजे, (v) नपुंसकथकी स्त्री यइ सीजे तोपण दश सीजे. छाने वैमानिक देवी, ज्योतषि देवी, अने मनुष्यनी स्त्री ए त्रण ठेकाणेथी स्त्री वेदी यावीने प्रत्येके वीरा विश सीजे, त्यां ए विशेष बे. जे स्त्रीवेदयकी यावी मनुष्यपणे पुरुष थइ अथवा स्त्री य‍ अथवा नपुंसक थर सीजे तेवारे सर्व मल्या वीस सीजे. Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० संग्रहणीसूत्र. वली आठे जांगे पूर्वनवे पुरुषते था जवे पुरुष थर सीजे तो एक सो ने आठ सीजे, बीजी रीते आठे नांगे दश सीजे. __ अने वली पूर्वे कयु जे वीस स्त्री एक समये सीजे, त्यां ए विशेष जे कोइ पुरुषवेदथकी श्रावी, कोई स्त्रीवेदथकी श्रावी, को नपुंसकवेदथकी श्रावी स्त्री थइ सीजे तो मिश्रित मली वीश सीजे, पण केवल पुरुषथी श्रावी, केवल स्त्रीथी श्रावी, केवल मपुंसकथी श्रावी वीश सीजे नहीं. इति जावार्थ. . इहां सिझपाहुडानुं विशेष लखिए बैएं. नंदनवने एक समये चार सीजे, पांमुक वने एकसमये बेसीजे, एकेकी विजये वीश वीश सीजे, एकेकी श्रकर्मनूमिए संहरण थकी दश दश सीजे, पन्नर कर्मनूमिए प्रत्येके एकसो ने श्राप आठ सीजे, वली उत्सप्पिणी श्रवसर्पिणीने प्रत्येके त्रीजे चोथे आरे एक समये उत्कृष्टा एकसो ने श्राठ मोदे जाय. श्रवसर्पिणीने पांचमे आरे पांच जरत पांच ऐरवतना वीश सीजे; वली उत्सप्पिणी अवसर्पिणीने शेष थाकते आरे संहरणथकी दश दशसीजे; उत्सर्पिणीने पांचमे श्रारे युगलिया होय तेमाटे शहां सिकि नहोय, बीजुं विशेष सिपाहुडाथकी जाणजो. केमके श्रति विस्तारे लखतां संक्षेप रुचीवालाने व्यामोह उपजे तेमाटे एटर्बु लखी पूर्ण कडे. - हवे गाथाना पाबला बे पदे करी सिद्धगतिनो ऊपपात विरह काल कहे जे. विरहों उमास गुरु के उत्कृष्टो मोद जावानो ब महीनानो ऊपपात विरह जाणवो. अने लहुसम के जघन्यथी तो एक समय जाणवो. तथा चवणमिहनवि के० ए मोद थकी पाडो चवन नथी, जेमाटे मोदना जीव सादिअनंत , एटले श्रादिले पण अंत नथी. जे कर्मे संसारमांहे पाबा श्रावी ऊपजे ते कर्म सिझमाहे नथी. जेम बख्या बीजे अंकूरो न थाय तेम कर्मरूप बीज बल्या थकी संसाररूप अंकूरो फरी प्रगटे नहीं. अड सग पंच चल तिनि उन्नि इकोय सिऊमाणेसु ॥ बत्तीसाश्सुसमया ॥ निरंतरं अंतरं नवरिं ॥ २५६ ॥ बत्तीसा अडयाला ॥ सठी बावत्तरी य बोधवा ॥ चुलसीई बमव॥रदिय महत्तर सयंच ॥॥ अर्थ-श्राप, सात, ब, पांच, चार, त्रण, बे ने एक समये सीजता बत्रीस आदे देश निरंतर सीजे, अने ऊवरि के उपरांत अंतर पडे ए अक्षरार्थ कह्यो. हवे जावार्थ कहे . एक आदे देश बत्रीस सीम निरंतर सीजे तो उत्कृष्टा आठ समय सुधी सीजे ते कहे . एक समये एक, बे, त्रण यावत् बत्रीस सीजे, बीजे समये पण एक, बे, Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संग्रहणीसूत्र. २४ए त्रण यावत् बत्रीस सीजे, एम त्रीजे समये पण एक, बे, त्रण यावत् बत्रीस सीजे, ए रीते श्राप समय सुधी निरंतर बत्रीस सुधी सीजे, अने आठ समय पली एकादि समयनो अंतर पडे, अने जेवारे तेत्रीस श्रादे देश अडतालीस सुधी एके समये सीजे तेवारे उत्कृष्टा सात समय सुधी निरंतर सीजे. पली अंतर पडे अने जेवारे उगणपचास श्रादे देश यावत् सासुधी निरंतर सीजे, तेवारे उ समयसुधी निरंतर सीजे. तेवार पली अंतर पडे, एम सर्वत्र जोडवो. अने जेवारे एकसह श्रादे देश बहुत्तेर सुधी सीजे, तेवारे पांच समय सुधी सीजे, ऊपरांत अंतर पडे. तथा जेवारे तहुत्तर श्रादे देश यावत् चोरासी सुधी सीजे त्यां निरंतर चार समय सुधी सीजे, ऊपरांत अंतर पडे. अने जेवारे पंचासी आदे देश यावत् बन्नु सुधी सीजे त्यारे निरंतर त्रण समय सुधी सीजे. उपरांत अंतर पडे. अने जेवारे सत्ताणु आदे देश एकसो ने बेसुधी सीजे तेवारे निरंतर बे समय सुधी सीजे. उपरांत अंतर पो. अने जेवारे एकसो त्रण श्रादे देश यावत् एकसो आठ सुधी निरंतर सीजे तो एक समय सीजे, पण बीजे समये अवश्य अंतर पडे. ॥ २५६ ॥ ॥ ॥ हवे कोईक सांख्या दिक मतांतरी कहे जे के ज्यां आकाश त्यां सर्वत्र सिझ ले. परंतु सिड्नुं देत्र नहीं, ते मत पूर करवाने अर्थे । विशिष्ट सिझांतिनुं सिकनुं क्षेत्र कहे . ॥ पणयाल बरकजोयण ॥ विस्कंना सिद्धिसिल फलिद वि मला ॥ तज्ज्वरि गजोयणंते ॥ लोगंतो तब सिटिई ॥२५॥ अर्थ- सरवार्थसिकि विमाननी ध्वजाथी ऊपर बार योजन सिफसिला बे, ते वाटला अने लांबपणे तथा पहोलपणे पीस्तालीस लाख योजन प्रमाण , ते सर्व धवला अर्जुन सुवर्णमय स्फटिकनी पेरे निर्मल सिझसिला एटले सिद्धनी नूमिका बे. एने कोश्क ईषत् प्राग्लारा एबुं नाम पण कहे . ए सर्वार्थ सिद्ध विमान थकी बार योजन अलोक पण बे. ए परमार्थ केवली तथा बहुश्रुत जाणे. वली ए सिझसिला सर्वथा मध्यत्नागे या योजन जामी . त्यां थकी चार दिशाएं श्रने चार विदिशाएं घटती घटती मदीना पांख जेवी पातली ऊत्तान उत्रने आकारे सिकसिलानी स्थापना , ते सिकसिलाने ऊपर एक योजनने अांतरे लोकांत बे. त्यां सिझोनी स्थिति एटले रेहेवानुं स्थान जाणq. हां जावार्थ आम ने जे योजननो ऊपरलो चोथो गाऊ तेना ऊपरनो हो नाग जेत्रणसे तेत्रीश धनुष्य भने ऊपर एक धनुष्यनो त्रीजो नाग एटखा क्षेत्रमा सिफ रहे बे, त्यां पांचसे धनुष्यनी उत्कृष्टी अवगाहनायें जे सिक होय तेनोत्रीजो नाग शरी Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० संग्रहणीसूत्र. रनी पहोलाण पूर्वे घटामीएं एटली उत्कृष्टी सिद्धीनी अवगाहना होय. अने जघन्य अवगाहना सात हाथनो त्रीजो नाग घटामीएं तेवारे चार हाथ ने सोल अंगुल जघन्यथी सिफनी श्रावगाहना होय. इति मणुयदारं सम्मत्तं ॥ २५ ॥ तिरियदारं जमई एटले श्राते प्रतिद्वारे करी मनुष्यनुं छार समाप्त थयु. हवे तिर्यंच हार कहे . इहां तिर्यंचने पण एक जुवनहार वर्जीने बाकी आठ प्रतिहार कहेशे. श्हां एकेंजी, बेंडी, तेंडी, चौरेंडी, ने पंचेंडी, ए पांच प्रकारे तिर्यंच जाणवा. तेमां पृथ्वी, आप, तेज, वायु, ने वनस्पति रूप पांच प्रकार एकेंजीना जाणवा. अने तेनी साथे बेंडी, तेंडी, चौरेंजी ने पंचेंडि मली चार नेलतां नव नेद थाय. तेमां वली पंचेंगीना बे नेद . एक गर्जज बीजा संमूर्बिम. तेमां ॥ गर्नजनी अपेक्षा विना सामान्य पणे नव नेदे तिर्यंचनुं स्थितिछार कहे . ॥ बावीस सगति दस वास ॥ सहस गिणिति दिण बेंदियाई सु॥ बारस वासुण पण दिण ॥म्मास तिपलिय हिश जिग ॥श्य॥ अर्थ- पृथ्वीकायनी स्थिति एटले आयुष्य ते उत्कृष्टथी बावीस हजार वर्ष. एम अपकायनी उत्कृष्टि स्थिति सात हजार वर्ष. वायुकायनी उत्कृष्टि स्थिति त्रण हजार वर्ष. वनस्पति कायनी उत्कृष्टि स्थिति दश हजार वर्ष. अग्नीकायनी उत्कृष्टी स्थिति त्रण दिवसनी. बेंजीनी उत्कृष्टी स्थिति गणपचाश दिवशनी. चऊरेंजीनी उत्कृष्टी स्थिति ब महीनानी. पंचेंजीनी उत्कृष्टी स्थिति त्रण पढ्योपमनी. ए उत्कृष्टी स्थिति निरुपजव स्थानके रहेतां जाणवी. अने जघन्यतो सर्वने अंतर मुहर्त स्थिति बे. ते वात श्रागल कहेशे. ए सामान्यपणे तिर्यंचनी स्थिति कही. ॥ श्एए ॥ ॥ हवे प्रथम श्हां पृथ्वीकायना नेद कहे . ॥ सहाय सुझ वालुय ॥ मणोसिला सकरायखर पुढवी ॥ ग बार चनद सोलस ॥छारस बावीस सम सहसा ॥२६॥ अर्थ-सुहाली मारवाड देशनी पृथ्वीनी सुकुमाल माटी तेनुं उत्कृष्टायु एक हजार वर्ष, अने शुरू ते गोपीचंदन अथवा कुमार मृतिकानुं बार हजार वर्षतुं श्रायुष्य, वालुय के नदिप्रमुखनी वेखुनुं चौद हजार वर्षायु, मणसिल- सोल हजार वर्षायु, श्रने सकराय के शर्करा हरताल सुरमादिकनु अढार हजार वर्षायु, अने खर पृथ्वी ते सिला पाषाण रत्नादिक प्रमुखनुं आयुष्य बावीस के बावीस सम के० वर्ष सहसा के हजार एटले बावीस हजार वर्षायु जाणवू. ॥ २६० ॥ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संग्रहणीसूत्र. २५१ ॥ हवे पंचेंति तिर्यंचना नेदनी स्थिति विशेष कहे .॥ गन्न नुय जलयरो जय ॥ गनोरग पुव कोडि नकोसा ॥ गन्नचनप्पय परिकसु॥तिपलिय पलिया असंखंसो॥२६॥ अर्थ- गर्नज जुजपरिसप्पे गोह नोलियादिक तथा जलयर के जलचर ते मत्स्यादिक ते उन्नय के बे प्रकारे बे. एक गर्नज जलचर थने बीजा संमूर्बिम जलचर. तथा गप्लोरग के गर्नज उरपरिसर्प एर्नु उत्कृष्टायु एक पूर्व कोडी वर्षनुं जाणवं. वली गलोचउप्पय के गर्नज चतुष्पद जे गाय, नेस, उंट, घोडा, हाथी प्रमुख तेनुं उत्कृष्टायु त्रण पव्योपमनुं जाणवू. वली गर्नज पंखी जे चली, चास, सारस, मोर प्रमुख तेनुं उत्कृष्टायु पक्ष्योपमनो असंख्यातमो नाग जाणवू. हवे पूर्वनुं मान कहे बे. पुवस्स उपरिमाणं ॥ सय्यरि खलु वास कोडिलका ॥ उप्पन्नं च सहस्सा ॥ बोधवा वास कोडीणं ॥ २६२ ॥ अर्थ-चोरासी लाख वर्षे एक पूर्वांग होय, ते पूर्वांगने पूर्वांग साथे गुणाकार क. रिएं तेवारे सय्यरि खलुवास को डिलका के सीतेर लाख कोडी वर्ष भने बप्पन्नं च सहस्सा के बपन्न सहस्स कोमी वर्ष एटले (७०५६०००0000000 ) एटली संख्या वर्षे पूर्वन प्रमाण थाय. ॥ २६ ॥ ॥ हवे संमूर्बिम पंचेंडी थलचर प्रमुखनी उत्कृष्ठायु स्थिति कहे . ॥ संम्मुडि पणिंदि थलख यर ॥ जरग नूयग जिह हि कमसो ॥ वास सहस्सा चुलसी ॥ बिसत्तरि तिपम बायाला ॥१६३ ॥ अर्थ-संमूर्छिम पंचेंजी थलचर गवादिक ते गाय नेस प्रमुख. अने खयर के खेचर ते पदी बगला प्रमुख, उरग के ऊरपरिसर्प ते अजगर प्रमुख, अने जुयग के चूजपरिसर्प ते गोह नोलिया प्रमुख, जे संमूर्बिम जीवो डे तेनी जिाहिर कमसो के उत्कृष्टी श्रायुस्थिति अनुक्रमे चोरासी हजार वर्ष, बहुत्तेर हजार वर्ष, त्रेपन हजार वर्ष अने बेतालीस हजार वर्षनी जाणवी, ए अक्षरार्थ कह्यो. हवे जावार्थ कहे . संमूर्बिम पंचेंडी गाय प्रमुखनु उत्कृष्टायु चोरासी हजार वर्ष, संमूर्बिम पक्षी, बहुत्तेर हजार वर्ष, संमूर्बिम सर्प प्रमुखनुं त्रेपन हजार वर्ष, संमूर्बिम गोह नकुल- बेतालीस हजार वर्ष, एटले सर्व तिर्यंचनी उत्कृष्टी जवस्थिति कही. ॥ हवे एनी कायस्थिति कहे .॥ एसा पुढवाईणं ॥ नवहिईसंपयंतु कायलिई ॥ चन एगिदि सु णेया॥ उसप्पिणी असंखिजा ॥२६॥ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संग्रहणीसूत्र. अर्थ- एसापुढवाईणं के ए पूर्वे पृथ्व्यादिकना आयुष्यरूप जवस्थिति कही. हवे वली एज पृथ्व्यादिकनी काय स्थिति एटले जे पुनः पुनः मरण पामीने तेज कायमां उपजे तेने कायस्थिति कहींएं, ते कायस्थिति कहे . चउएगिदिसु के वनस्पति टालीने पृथ्वीकाय, अपकाय, तेउकाय अने वायुकाय, ए चार एकेंजीमा प्रत्येके उत्कृष्टी काय स्थिति असंख्याति उत्सपिणी अवसप्पिणी प्रमाण नेया के जाणवी. अंहीयां ए नाव, जे पृथ्वीकायनो जीव मरण पामि पामिने फरी तेज कायमां उपजे, पण पोतानी कायने मूके नही, तो असंख्याति उप्पिणी श्रवसप्पिणी सुधी रहे. एमज अप्पकाय, तेउकाय अने वाउकाय पण जाणवा. दश कोडाकोडी सागरोपमे उत्सर्पिणी थाय. अने दश कोडाकोडी सागरोपमे श्रवसर्पिणी थाय. एवं वीश कोडाकोडी सागरोपमे कालचक्र थाय. ए कालमान जरत ऐरवतनी अपेक्षाएं जाणवू. ए काले करी काय स्थिति कही. हवे क्षेत्रथकी कहे . असंख्याता लोक प्रमाण एटले जेटला चउदराजलोकना आकाश प्रदेश बे, तेटलीज संख्याए असंख्याता लोक कपवा. ते असंख्याता लोकनो एकेक प्रदेश समय समय काढतां असंख्याति उत्सप्पिणी अने अवसर्पिणी थाय. ॥ २६४ ॥ तान वर्णमि अणंता ॥ संखिजा वास सदस विगलेसु ॥ पंचिंदि तिरि नरेसु ॥ सत्तठ नवाउ उक्कोसा ॥२६५ ॥ अर्थ-ताज के तेहिज पूर्वोक्त जे उत्सर्पिणी अने अवसर्पिणी कही तेवी अनंति उत्सर्पिणी अने अनंति अवसपिणी वणं मि के वनस्पतिनी काय स्थिति काले करी जाणवी. अने क्षेत्रथकी अनंता लोकाकाश प्रदेश प्रमाण असंख्याता पुजल परावर्त्त होय, एटले एक श्रावलिकाने असंख्यातमे जागे जेटला समय होय, तेटली संख्या प्रमाणे पुजलपरावर्तनी संख्या जाणवी. ___ए कायस्थिति व्यवहारराशि जीवने संजवे, केमके व्यवहारराशि जीव मरण पामि निगोदमां जाय तो अनंति उत्सपिणी अवसर्पिणी रहीने पढ़ी वली व्यवहारराशिमा श्रावे, एटले अहींयां मरुदेवा साथे व्यनिचार नहीं, केमके मरुदेवा अनादि निगोदि बे, तेमने काय स्थितिनुं ए प्रमाण नहीं. वली बेइंजियादिक विकलेंजीने संख्याता वर्ष एटले बेंजी, तेजी श्रने चनरेंडीने प्रत्येके संख्याता वर्ष सहस्र कायस्थिति जाणवी. वली पंचेंद्रीय तिर्यंचने तथा मनुव्यने, काय स्थिति सात श्राव जव जाणवी. एटले संख्याते आयुष्ये सात जव करे, अने आपमे नवे युगलि होय. ए आवे नवें करी कालमान त्रण पट्योपम अने सात पूर्वकोटी उत्कृष्टी जाणवी. ए उत्कृष्टी कायस्थिति कही. ॥ २६५ ॥ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संग्रहणीसूत्र. ॥ हवे जघन्य जवस्थिति तथा काय स्थिति कहे . ॥ सधेसिंपि जहा ॥ अंतमुहुत्तं जवेय काय ॥ - समस्त पूर्वोक्त पृथिव्यादिकने जघन्य जब स्थिति अने काय स्थिति अंतरमुहूर्त प्रमाण जाणवी. अहींयां काय स्थितिने प्रस्तावे मनुष्यनी पण काय स्थिति कही, देवता नारकी मरण पामी फरी देवता नारकीमां न उपजे, तेमाटे देव तथा नारकीने काय स्थिति नहोय, एटले सविस्तर तिर्यंचनुं स्थिति द्वार कयुं. ॥ हवे ए तिर्यंचनुं श्रवगाहना द्वार कहे बे. ॥ जोयण सदस्स मदियं ॥ एगिंदियदेद मुकोसं ॥ २६६ ॥ बिति चरिंदि सरीरं ॥ बारस जोयण तिकोस चनकोसं ॥ जोयण सदसदिय ॥ उदे वुद्धं विसेसंतु ॥ २६७ ॥ अर्थ - सामान्यपणे एकेंद्रीयनुं शरीर जोयण सहस्सम हियं के० एक हजार योजन जाकेरुं उत्कृष्टुं जाणवु. ॥ २६६ ॥ वली बेंद्रीय जे शंखादिक तेनुं शरीर बार योजननुं जावं. एम तेंडी कीडी मक्कोडादिकनुं शरीर त्रण गाउनुं जाणवुं. ने चरिंडी चमरादिकनुं शरीर चार गाउनुं जाणवुं. पंचेंद्रिीनुं शरीर एक हजार योजननुं जावं. ए शरीरमान हे के० उगे एटले सामान्ये वुढं के० कः हवे विसेसंतु के० विशेषे क . ॥ २६७ ॥ अंगुल असं जागो ॥ सुहमनिगोर्ड असंख गुणवाक ॥ तो अगणित खाऊ ॥ तत्तो मुहुमा नवे पुढवी ॥ २६८ ॥ तो बायर वागणी ॥ आऊ पुढवी निगोय कमसो ॥ पत्तेयवण सरीरं ॥ यदियं जोयणसदस्संतु ॥ २६९ ॥ १५३ - वनस्पतिना वे नेद बे, एक प्रत्येक वनस्पति ने बीजी साधारण वनस्पति. साधारण शब्दे निगोद अनंतकाय कहिएं, ते सूक्ष्म निगोदियानुं शरीर अंगुल असंख्यातमुं जाग एटले प्रमाणे जाणवुं, ते थकी असंख्यातगएं सूक्ष्म वायुकायनुं शरीर जाणवुं. एटले असंख्याते सूक्ष्म निगोदियाने शरीरे एक सूक्ष्म वायुकायनुं शरीर होय, आगल पण गुणाकारे एज विधी जाणवो. ते थकी असंख्यात गणुं एक सूक्ष्म तेजकायनुं शरीर जाणवुं. ते थकी संख्यातगणुं एक सूक्ष्म अप्पकायनुं शरीर जावं, ते थकी असंख्यातगणुं एक सूक्ष्म पृथ्वीकायनुं शरीर जाणं ॥ २६८ ॥ तेथ की असं. ख्यातगणुं एक बादर वायुकायनुं शरीर जाणवुं, तेथकी संख्यातगणुं एक बादर Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ संग्रहणीसूत्र. अग्निकायनुं शरीर जाणवुं, तेथकी असंख्यातगणुं एक बादर अप्पकायनुं शरीर जावं, ते थकी पण असंख्यात गणुं एक बादर पृथ्वी कायनुं शरीर जाणवुं, ते थकी प असंख्यात गणुं एक बादर निगोदनुं शरीर जाणवुं. ए दशे मांदोमांदे असंख्यात गुणाधिक बे, परंतु एकेकुं शरीर अंगुलनुं असंख्यातमुं जाग जाएवं एम अनुक्रमे असंख्यातगणुं जावं. छाने प्रत्येक वनस्पतिनुं शरीर एक हजार योजन काकेरुं बे. ॥ २६ ॥ यां शिष्य प्रश्न करे बे के एटलां सर्व शरीर उत्सेांगुर्ले कह्यां, समुद्र तथा वह प्रमाणांले बे. तो हजार याजन ठंडा समुद्रमांहे पद्मनाल प्रमुख वनस्प तिनां शरीर केम घटे ? माटे अत्यंत दीर्घ होय. हवे ए प्रश्ननो उत्तर गुरु कड़े बे. उस्सेदं गुलजो ॥ सहस्समाणे जलासए नेयं ॥ तं वल्लि पम पमुदं ॥ अपरं पुढविरूवं तु ॥ २७० ॥ अर्थ - उत्सेधांगुले करी हजार याजन प्रमाण उंकुं जलासए के० जलाशय ते नेयं to जावं. त्यां रहेनारा जे वल्लि पम पमुहं के० कमल प्रमुख बे ते वनस्पतिकाय जावां तेनुं शरीर हजार योजन किंचित् अधिक जाणवुं उपरांत जे पद्मना कमल ते पुढविरूवंतु ० पृथ्वी कायरूप जाणवा. जे कारण माटे पद्मद्रह हजार योजन जंको बे, ए जावार्थ विशेषणवति ग्रंथ मांहे श्री जिननद्रगणी क्षमाश्रमणे विशेपणे वखायो बे ॥ २७० ॥ ॥ वे बेदिक विशेष नाम ग्रहणपूर्वक उत्कृष्टुं देहमान कहे . ॥ बारस जोयण संखो ॥ तिकोस गुम्मीय जोयणं नमरो ॥ मुग्मि चपय जुय ॥ गुरंग गाऊधणु जोया पहुंत्तं ॥ २७२ ॥ अर्थ- शंख प्रमुख बेंद्री जीवनुं बार योजननुं शरीर, गुम्मीय कन सिलाईया प्रमुख तेंडीनुं त्रण कोशनुं शरीर जमरा प्रमुख चरिंडीनुं एक योजननुं शरीर. संमूर्तिम चतुष्पद गाय प्रमुखनुं उत्कृष्टुं नव गाउनुं शरीर जावं. संमूर्बिम जुजपरिसर्प गोह नोलिया दिकनुं नव धनुष्यनुं शरीर जावं. संमूर्बिम ऊरपरिसर्प अजगरादिकनुं नव योजननुं शरीर जाणवुं ॥ २७ ॥ न चप्पय बग्गा ॥ उयाइ जुयगान गाउय पहुंत्तं ॥ जोया सहस्स मुरगा ॥ महा ऊनए विय सहस्सं ॥ २७२ ॥ अर्थ- गर्भज चतुष्पद हस्ति प्रमुखनुं व कोशनुं शरीर जाणवुं. गर्जज जुजपरिसर्प गोह प्रमुख नव गाऊनुं शरीर जावं. गर्नज उरगा के० उरपरीसर्पनुं एक हजार योजननुं शरीर जावं. अने महाउनएवि के० गर्जज ने संमूर्तिम ए उजय एटले बने जातना मत्सोनुं शरीर एक हजार योजन प्रमाण जाणवुं ॥ २७२ ॥ For Private Personal Use Only Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संग्रहणीसूत्र. परिक गप्पतं | सघाएंगुल असंखनाग लहू ॥ अर्थ- पक्षी जे गृद्धादिक ते संमूर्तिम तथा गर्जज ए युग के० बे प्रकारना. तेनुं शरीर धणुपतं के० नव धनुष्यनुं जावं. ए समस्त शरीरनुं उत्कृष्टुं प्रमाण सामान्य विशेषे कयुं; हवे लहू के० जघन्यथी सव्वाणं के० सर्वनुं एटले एकेंद्री, बेंद्री, तेंजी, चौरेंद्र ने पंचें तिर्यंचनुं शरीर ते अंगुल असंख जाग के० एक अंगुलनो अंसख्यातमो जाग ते उपपात समये शरीरपर्याप्ति वेलायें होय. हवे प्रसंगागत वैक्रिय अवगाहनानुं प्रमाण कहे बे. वैक्रिय शरीर बादर पर्याप्तो वायु कायनो जीव करे, छाने कोइक पर्याप्तो संख्यातायुवालो गर्जज पंचेंद्रीय होय ते पण करे, तेमां वायु कायनो जीव तो जघन्य अने उत्कृष्टो गुलनुं श्रसंख्यातमुं जाग करे, अने पंचेंद्री तिर्यंच तो जघन्यथी गुलनुं असंख्यातमुं जाग करे, तथा उत्कृष्टो नवसे योजन सुधी करे. एटले तिर्यंचनुं अवगाहना द्वार कयुं. हवे उपपात विरह ने चवन विरह ए वे द्वार कहे बे. तेमां एकेंद्री प्रति समये उपजे अने चवे बे; माटे एने ए द्वार संजवे नही; माटे बेंडी आदे दे‍ जीवोना उपपात चवननो विरहकाल कहे बे. विरहो विगला सन्नी जम्ममरणेसु अंतमृदु ॥ २७३ ॥ गन्ने मुहुत्त बारस ॥ गुरु लहु समय संखसुर तुल्ला ॥ अर्थ- वेंडी, तेंडी ने चौरेंडी ए त्रण विकलेंडी ने सन्नी के० संमूर्तिभ पंचेंद्री तिर्यंच, एनो जम्ममरणेसु के० जन्म मरण याश्री विरहकाल प्रत्येके अंतमूहु के० अंतरमुहूर्त्त गुरु के ऊत्कृष्ट जाणवो, अने गनेसु के० गर्भज पंचेंद्री तिर्यचनो उपपात चवन विरह काल उत्कृष्ट मुदुत्तवारस के० बार मुहूर्त्तनो जावो. अने सर्वत्र लहु के० जघन्य विरहकाल समज के० एक समयनो जावो. छाने ए बेंद्रियादिक एक समये उपजे तो संखसुर तुल्ला के० संख्याये देवताने तुल्य जाणवा, एटले एक, त्रण, संख्याता श्रसंख्याता सुधी उपजे तथा मरण पामे. ॥ हवे एकेंद्रीने उपजवा मरवानी संख्या कहे . ॥ समय मसंखिता । एगिंदिय हंतिय चवंति ॥ काइ अता ॥ इक्तिका जविजं निगोया संखो जागो ॥ प्रांत जीवो चयइ एइ ॥ २७५ ॥ अर्थ समय के० प्रतिसमय एटले समय समय प्रत्ये एगिंदिय के० एकेंद्री ते संखिया के श्रसंख्याता हुंतिय के० उपजे ने चवंति के० चवे. ॥१७४॥ 7 १५५ २७४ ॥ ॥ निञ्चम Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ संग्रहणीसूत्र. अहां एकेंद्री ते पृथ्वी, अप्प, ते अने वाउ ए चार सामान्यपणे प्रति समय संख्याता उपजे, छाने असंख्याता चवे; पण एक समय संख्याता उपजे नहीं, तेम संख्याता चवे पण नही; अवश्य असंख्याताज उपजे तथा चवे. अने वनस्पतिकायना वनस्पतिमांहेश्रीज यावीने अनंता उपजे, अने अनंता चवे. तथा पृथिव्यादिक परस्थानकथकी वनस्पतिमां घ्यावी उपजे तेवारे असंख्याता उपजे. दवे अनंता उपजवानो हेतु कहे बे. जे कारण माटे एकेका निगोदथी असंख्यातमो जाग अनंता जीव प्रमाण नित्य सदा सर्वदा यांतराविना चवे ने उपजे. ए जावार्थ जे अनंत जीवात्मक एक सूक्ष्म अथवा बादर निगोद तेना असंख्याता जाग करिएं, तेवो एक जाग अनंत जीव प्रमाण सदा त्यांथी निकले, छाने वोज एक संख्यातमो जाग सदा ते स्थानके उपजे, ते जाग पण अनंत जीवात्मक . जावो. ए प्रकारे एकेक निगोदे प्रति समये अनंता जीव उपजे ने अनंता चवे. तो सर्व निगोदने विषे अनंता उपजता छाने चवता केम न पामिएं ? ॥ २७५ ॥ ea नगद शब्द अर्थ करे बे, जे अनंता जीवनुं एक साधारण श्रदारिक शरीर स्तिबुकाकार पाणीना पर्पेटा सरखो तेने निगोद कहिएं, ते अनंताजीव एकवारे एका श्वासोश्वास करे, एकता याहार करे, ते निगोद कहिएं. तेवा श्रसंख्याता निगोदना समुदायने गोलो कहिएं, तेवा गोला चउदराजमांहे असंख्याता बे. गोला संखिता ॥ असंख निग्गोय दवइ गोलो ॥ इक्किमि निगोए ॥ प्रांत जीवा मुणेयवा ॥ २७६ ॥ अर्थ- संसारमा असंख्याता गोला बे, ते असंख्याते निगोदे एक गोलो होय. ते एकेक निगोदे अनंता जीव जाणवा. ए निगोदिया जीवना बे नेद बे. एक संव्यवहारिया, बीजा संव्यवहारिया. तेमां जे अनादि निगोद थकी निकली पृथ्वीकाय प्रमुखमांहे उपजे, तेने संव्यवहारियो जीव कहीएं. कदाचित् ते जीव वली फरी पाठो निगोदमांहे जाय तोपण तेने संव्यवहारियोज कहिएं, अने जे जीव अनादि निगोद की निकल्याज नथी, अनादिकालथी सूक्ष्म निगोद तथा बादर निगोदमांहेज रहेबे, तेने असंव्यवहारिया कहिएं, तथा जेटला जीव मोके जाय तेटला जीव निगोदमांथी निकली पृथ्वीकायादिकने विषे यावी उपजे ए विशेषार्थ बे. पिता जीवा ॥ जेहिं न पत्तो तसाइ परिणामो ॥ उप्पति चयंतिय ॥ पुणोवि तचैव तचैव ॥ २७७ ॥ अर्थ- अनंता जीव एवा बे के, जे जीवे त्रसादिक पर्याय पाम्युं नथी; जे पुणो वि For Private Personal Use Only Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संग्रहणीसूत्र. १५७ के फरी फरी त्यां निगोदना निगोदमांहेज उपजे जे ने चवे . एटले निगोदमांहेज उपजे अने निगोदमांहेज मरण पामे . त्यांना त्यांज रहे . ॥१७॥ सबोवि किसल खलु ॥ जगाममाणो अणंत नणि ॥ सोचेव विवढंतो॥ दोश् परित्तो अणंतोवा ॥ २ ॥ अर्थ-सबोवि के समस्त प्रत्येक वनस्पतीकाय अथवा साधारण वनस्पतिकाय प्रथम ऊगतो किसलयरूप तेने खलु इति निश्चें अनंतकाय कहीएं सो के० तेहज किसलय चेव के निश्चे थकी वधतो वधतो अंतरमुहर्त पनी कोश्क परित्तो के प्र. त्येक शरीर होय. वा के अने कोश्क साधारण शरीर होय, जेवो कर्म बांध्यो होय जेवो बीज होय, तेवो शरीर नीपजे. ॥२७॥ ॥ हवे कया कर्मथी जीवने एकेंद्रीपणानी प्राप्ति थाय ते कहे . ॥ जया मोदोद तिवो ॥ अन्नाणंखुमदग्नयं ॥ पेलवं वेयणीयंतु ॥ तया एगिदिय तणं ॥जए॥ अर्थ-जया के जेवारे तिबो के तीव्र एटले अत्यंत मोहोदय विषयानिलाष मैथुन परिणाम होय, अथवा अत्यंत नैरव अज्ञानरूप महाजय जेणे करी सचेतन ते अचेतन थक्ष जाय. तथा पेलवं के० असार वेयणीयं के० असातावेदनी उदय थावी होय. तेवारे एवा परिणामे अथवा संज्ञाएं करी एकेंजीपणानुं कर्म बंधाय, तेथी जीव एकेंडी थाय, एटले तिर्यंचने उपपात विरहकाल, चवन विरहकाल, एक समय उपपात संख्या, एक समय चवन संख्या, ए चार द्वार कह्यां.॥ ए॥ ॥ हवे ए तिर्यंचमां कियो जीव जाय ते गति द्वार कहे . ॥ तिरिएसुजंति संखा ॥ तिरिनराजाउ कप्पदेवा ॥ पजत्तसंख गनय ॥ बायर जूदगपरित्तेसु ॥२०॥ तो सहसारंत सुरा ॥ निरया पडत्त संख गन्नेसु ॥ अर्थ-एकेंसी, बेंजी, तेंडी, चउरेंजी तथा संख्यातावर्षायुवाला पंचेंत्री तिर्यंच, अने संख्यातावर्षायुवाला मनुष्य, एटला स्थानकना जीव मरण पामीने एकेंजी, बेंजी, तेंडी, चउरेंजी ने पंचेंडी तिर्यंचमांहे उपजे. वली नुवनपती, व्यंतर अने ज्योतषी तथा जाऊकप्पदेवा के० यावत् सौधर्म अने ईशान ए बे कल्पविमानवासि देवता ए मरण पामीने पजात्तसंखगप्पय के० पर्याप्ता संख्यातायुवाला गर्नज तिर्यंचमांहें उपजे. वली बायरजूदग के पर्याता बादर, पृथ्वीकाय अने दग एटले अप्पकायमांहे पण उपजे. वली पर्याप्ता परित्तेसु के० प्रत्येक वनस्पतिमाहे पण उपजे ॥२०॥ , Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संग्रहणीसूत्र. सनत्कुमारादिकथी मांगीने सहस्रारांत सुधीना देवता तथा नारकी, ए च बीने पर्याप्त संख्यातायुष्क गर्नज तिर्यंचमां जाय, पण बीजी जातना तिर्यंचमांदे न जाय. एटले तिर्यचनुं गतिद्वार कयुं. ॥ हवे तिर्यंचना जवकी मरण पामीने क्यां जाय ? ते कहे . ॥ संखपा दिय तिरिया ॥ मरिनं चनसु विगइ सुति ॥ २८२ ॥ यावर विगला नियमा ॥ सखाज्य तिरि नरेसु गर्छति ॥ विगला खनिज विरई ॥ सम्मपि न तेज वान चुया ॥ २८२ ॥ 4G अर्थ- संपादिय तिरिया के० संख्याता श्रायुष्यवाला पंचेंद्रिय तिर्यंच मरिजं ho मरण पामीने एक मोक्षविना बाकीनी चारे गतिनेविषे जंति के० जाय. ॥ १०१ ॥ वली यावर ते एकेंद्री ने विकलेंडी, ते मरण पामीने संख्यातायुष्यवाला तिर्यंच अने मनुष्य मां जाय; पण देवता, नारकी, अने असंख्यातायुष्यवाला तिर्यंच तथा असंख्यातायुष्यवाला जे युगलिया मनुष्य, तेमां न जाय. वली विकलेंडी मरीने मनुष्यगति पामी सर्व सावद्य विरतिरूप चारित्र पामे, पण सीजे नही. अने तेजकाय, तथा वाउकाय मरण पामीने मनुष्य तो न थाय, पण कदाचित् पंचेंडी तिर्यंच थाय तो सम्यक्त्व पण पामे नही; तो विरतिपएं क्यांथी पामे ? ए तेजकाय तथा वाउ कायना जवनो ए स्वभाव बे, जे मनुष्य न थाय, छाने सम्यक्त्व पण न पामे. शेष थाकता संमूर्तिम गर्जजतिर्यंच, तथा संमूर्तिमगर्जजमनुष्य, तथा पृथ्वी, अप्प अने वनस्पति, एटलां मरण पामीने मनुष्य थाय; छाने मनुष्य थइने मरुदेवानी पेरे तेज नवे चारित्र पाली मोक्ष पण पामे ॥ २८२ ॥ ॥ हवे तिर्यंचने अवसर जणी मनुष्यने पण लेश्या कहे बे. ॥ पुढवी दग परितवणा || बायर पत्तहुंति चउलेसा ॥ गअय दिरिय नराणं ॥ बल्लेस्सा तिन्नि सेसाणं ॥ २८३ ॥ अर्थ- पुढवि के० पृथ्वीकाय, दग के० पकाय, परितवणा के० प्रत्येक वनस्पतिकाय, ए सर्व बायर पकत के बादर पर्याप्ता जाणवां, तेमां हुंतिचजलेसा के० चार लेश्या होय. केमके जवनपति, व्यंतर, ज्योतषी, सौधर्म ने ईशानांत सुधीना देवता तेजोलेश्यावंत होय. ते पृथ्वी, अप्प, अने वनस्पतिमांहें उपजे. ते पर्याप्ता या पी अंतर्मुहूर्त्तसुधी केटकोएक काल तेजोलेश्यावंत होय; ते कारणे कृम, नील, कापोत ने तेजो ए चार लेश्य एमां होय. छाने गाय तिरियनराणं के० गजतिर्यंच, तथा गर्भजमनुष्यने बए लेश्या होय. केमके मनुष्य तथा तिर्यंचने - Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संग्रहणीसूत्र. २५ए स्थिरलेश्या होय. अने तिनि सेसाणं के शेष तेउकाय, वाजकाय, सूक्ष्म पृथ्वीकाय, सूक्ष्म अप्पकाय, साधारण अपर्याप्त बादर पृथ्वीकाय, अपर्याप्त बादर अप्पकाय, अपर्याप्त प्रत्येक वनस्पतिकाय, बेइंजी, तेंडी, चउरेंनी अने संमृर्बिम पंचेंडी तिर्यंच, तथा संमूर्बिम पंचेंजी मनुष्य, एटलाने कृप्त, नील अने कापोत ए त्रण लेश्या होय. अने पृथ्वी, अप तथा पर्याप्त बादर वनस्पतिमाहे देवताना उपजवा थकी केटलोएक काल तेजोलेश्या संजवे, पर्याप्तावस्थाएं तेजोलेश्या केम संजवे? ते उपर हेतु कहे जे. जोसाए मरई, “ तलेसाए उववऊति” एटले जे वेश्याथकां मरण पामे तेज वेश्या थकां उपजे. ॥ २३ ॥ अहींयां क्षमाश्रमणकृत गाथा कहे .॥ अंत मुहत्तंमि गए ॥ अंत मुहत्तंमि सेस ए चेव ॥लेसा दि परिणयाहिं ॥ जीवा वच्चंति परलोयं ॥ ४ ॥ अर्थ-मनुष्य तथा तिर्यंच ते परजवनी लेश्या श्राव्या पली अंतर्मुहूर्ते मरण पामे. एटले लेश्यानुं अंतर्मुहर्त गया पली मरण पामे. श्रने देवता तथा नारकी पोतानी मूलगी लेश्यानुं मुहूर्त थाकतुं रहे तेवारे मरण पामीने परनवे जाय. त्यां उपन्या पड़ी ते मूलगी लेश्यानुं अंतर्मुहर्त जोगवे. तेमां पर्याप्तिनुं अंतर्मुहर्त्त न्हानुं जाणवू, अने वेश्यानुं अंतर्मुहूर्त महोटुं जाणवू. तेमाटे पर्याप्तावस्थाए पण परजवनी तेजोलेश्या संचवे. अहींयां अंतर्मुहूर्त्तना असंख्याता नेद . ॥ २ ॥ तिरि नर आगामि नवे ॥ लेस्साए अगए सुरानिरया ॥ पुबनव लेस्ससेसे ॥ अंत मुहुत्ते मरणमिति ॥ ५॥ .. अर्थ- तिथंच तथा नर के मनुष्य ते श्रागामिनवे के श्रागला जवनी लेश्याए के लेश्यानुं अंतर्मुहूर्त्त गया पनी मरण पामेः वली सुरा निरया के देव तथा नारकी ए पूर्वना नवनी लेश्यानुं अंतरर्मुहूर्त शेष थाकतुं रहे तेवारे मरण पामी परनवे उपजे, एतावता ए परमार्थ. जे तेजोलेश्यावंत देवता पृथ्वीकाय, अने अपकाय, तथा प्रत्येक वनस्पतिमाहे उपजता तेमने केटलोएक काल तेजोलेश्यानो सन्नाव होय. ॥ २५ ॥ ॥ हवे मनुष्य, तिर्यंच संबंधी लेश्यानी स्थिति कहे . ॥ अंतमुहुत्तहि ॥ तिरिय नराणं दवंति लेस्सा ॥ चरिमानराण पुण नव ॥ वासूणा पुत्र कोडीवि॥२६॥ अर्थ- पृथ्वीकायादिक तिर्यंच अने नराणं के० संमूर्बिम तथा गर्नज मनुष्य एने जे जे लेश्या संनवे, ते ते लेश्याउँनी हि के स्थिति अंतमुहुत्त के अंतर्मुहर्त प्रमाण जाणवी. एतावता पृथ्वीकायमांदे जे लेश्या बे, ते जघन्यथी तथा उत्कृष्टथी अंतर्मु Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० संग्रहणीसूत्र. हुर्त सुधी रही; ने वली संज्ञाए करी फरी जाय, अने वीजी लेश्या थाय. अंतर्मुहर्त उपरांत लेश्या रहे नही. एमज अप्पकाय प्रमुख तिर्यंचने तथा संमूबिम गर्नज मनुष्यने पण जाणवी. अने चरिमा के बेल्ली शुक्ललेश्या ते मनुष्यने उत्कृष्टी नवे वरसे ऊणी एक पूर्वकोडी वर्षसुधी रहे. ते केवी रीते रहे ? ते कहे . गर्नकालना नव महीना रहित आठ वर्षमांहे चारित्र न होय. तेमाटे कोश्क जीव नवमे वरसे चारित्र लेश केवलज्ञान पामे, तेवारपनी नवे वरसे ऊणी एक पूर्वकोडी वर्षपर्यंत जीवतो रहे: त्यांसुधी केवलीने एकज शुक्ललेश्या होय. अने बीजा मनुष्यने शुक्ललेश्या अंतर्मुहूर्त प्रमाण होय. एटले तिर्यंचने सविस्तरपणे गति अने आगति कही. ॥ ६ ॥ तिरियाणवि विश्पमुहं ॥ नणिय मसेसंपि संपई वुलं ॥ अनिहिय दारनहियं ॥चनग जीवाण सामन्नं ॥२ ॥ अर्थ-तिरियाणवि विपमुहं के० धुरथकी मामीने तिर्यंचनी स्थिति प्रमुख समस्त श्रा प्रतिहारसहित तिर्यंचनुं छार जणियं के कयु. अने संपश्वुद्धं के सांप्रत एटले हवे चारे गतिना घारमाहे केटलाएक बोल प्रथम कह्या, अने केटलाएक अधिक बोल डे ते पूर्वे कह्या नथी. माटे ते चारे गतिना जीवोने सामन्नं के० सामान्यपणे सरखा कहे . ॥॥ देवा असंख नर तिरि ॥ इसी पुंवेय गन नर तिरिया ॥ संखाउया तिवेया ॥ नपुंसगा नारया ईया ॥ २ ॥ अर्थ- देवता अने असंख के असंख्याता वर्षायुवाला युगलिया जे मनुष्य तथा तिर्यंच, तेमांहे पुरुष वेद श्रने स्त्री वेद ए बन्ने वेद होय. अने गननरतिरिया संखाउया के० संख्याता आयुष्यना धणी गर्नज मनुष्य, तथा गर्नज तिर्यंच- एमाहे पुरुष, स्त्री ने नपुंसक ए तिवेया केत्रण वेद होय. तथा नारयाश्या के० नारकी श्रादे देश्ने एकेंजी, बेंजी, तेंजी अने चउरेंडी तथा संमुर्बिम मनुष्य अने समूर्बिम तिर्यंच एटला बधा एकज नपुंसगा के नपुंसकवेदी जाणवा. ॥२॥ ॥ हवे पूर्वोक्त वैमानादिक जे कह्यां ने ते जे अंगुले मापीएं ते कहे . ॥ आयंगुलेण वतुं ॥ सरीर मुस्सेद अंगुलेण तहा ॥ नगपुढवि विमाणाईं॥मिणसु पमाणं गुलेणंतु॥श्नए॥ अर्थ-श्रांगुलना त्रण भेद ले. एक आत्मांगुल, बीजुं उत्सेझांगुल, अने त्रीजुं प्रमापांगुल. तेमां आत्मांगुले करी वढं के वस्तु जे धवलगृह, नूमिगृह, तहखाना, कूप, तलाव प्रमुखने मापीएं, जे काले जेटबुं शरीरप्रमाण होय, तेहने अनुसारे घर, हाट, Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संग्रहणीसूत्र. १६१ कूपाने तलाव प्रमुख पोत पोताने अंगुले मापीएं. जरतचक्रवर्तिने वारे जरतने गुले मापीने लोको घर, हाट, कूप प्रमुख करता हता, छाने श्रीमहावीरस्वामीने वारे श्रीमहावीरने गुले मापीने घर प्रमुख लोको करता हता, ए आत्मांगुल कयुं. देवता प्रमुखनुं शरीर उत्सेधांगुले करी मापीएं. तथा प्रमाणांगुले करी नग के० पर्वत तथा पुढवी के० सात नरकनी पृथ्वी अने विमाणाईं के० सौधर्मादिक देवलो - कना विमानावतंसक; घ्यादि शब्दयकी जवनपतिनां भुवन, नरकावासा ने द्वीप, समुद्र ए सर्व प्रमाणांगुले करी मापीएं. ॥ २८५ ॥ ॥ हवे उत्सेद्धांगुलनुं स्वरूप कहे बे. ॥ सासु तिरके ॥ वित्तु नित्तुं च जंकिर न सक्का ॥ तं परमाणुं सिद्धा ॥ वयंति आई पमाणाणं ॥ २० ॥ - तिरके व अत्यंत तीक्ष्ण खड्गादिक जे सण के० शस्त्र, तेथे करीने पठितुं के बेदी ने जंकिरनसक्का के० जेना बे खंग करी शकीएं नहीं. वली नित्तुं ho जेने विदारीने मां सबिद्र पण करी शकीएं नहीं, तंपरमाणुं के० तेने परमाणु कहीएं. ते अत्यंत लघु एम सिद्धा के० सिद्ध जे केवली भगवंत ते कहे बे. वली ते परमाणुने गुल हस्तादिना प्रमाण के० माननुं यदि एटले प्रथम कहीएं. ए परमाणु थकी सर्व परिमाण करीएं. ते परमाणुना बे नेद बे. एक सूक्ष्म परमाणु, बीजो व्यवहारिक बादर परमाणु. ते अनंता सूक्ष्म परमाणु विस्रसा परिणामे मली एकठा थाय, तो ते व्यवहारिक परमाणु कहीएं. ॥ २० ॥ यो बं ध परमाणू तसरेण ॥ रहरेणू वालग्ग लिकाय || जूय जगुणो ॥ कमेण उस्सेद अंगुलयं ॥ २०२ ॥ अंगुल बक्कं पाउं ॥ सोऽगुण विवि सा गुण हो । चन्दसदस ॥ कोसो ते जोयणं चनरो ॥ २९२ ॥ श्रर्थ एवा व व्यवहार परमाणुए एक तसरेणु याय, याठ तसरेणुए एक रथरेणु था, ने व रथरेणुए एक वालाग्र थाय, अने घाव वाला एक लिका ho लीख याय, तथा आठ लीखे एक युका थाय, या युकाए एक यव थाय, आव वे एक उत्सेांगुल थाय. ॥ १०१ ॥ अंगुलबक्कं के० एवो व उत्सेांगुले पार्ट के० एक पग थाय, ते पगनो मध्यभाग तेने डुगुण के० बम करीएं. एटले बे पगे विहि bo एक वेंत थाय. सा के० तेने डुगुण के० बमणु करीएं. तेवारे बे वेंत याय, एटले एक हाथ थाय. एवा चउहबंध के० चार हाथे एक धनुष्य थाय. एवा सहसकोसो Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ संग्रहणीसूत्र. to बे हजार धनुष्ये एक कोश थाय. ते जोयणं चउरो के० तेवा चार कोशे एक योजन थाय ॥ १‍ ॥ ॥ हवे प्रमाणांगुलनुं स्वरूप कहे बे. ॥ चनसयगुणं पमाणं ॥ गुल मुस्सेदं गुलान बोधवं ॥ उस्सेदं गुल डुगुणं ॥ वीरस्सायं गुलं जयिं ॥ २०३ ॥ अर्थ-चारसें उत्सेद्धांगुले एक प्रमाणांगुल थाय. अने एक प्रमाणांगुले चारसें उत्सेSiगुल थाय. ते बोधवं के० जाणवुं. ए प्रमाणांगुले श्रीकृषनदेव जरतचक्रवर्त्तिनुं शरीर एकसो ने वीश गुल लांबुं. ते एकसो ने वीश अंगुलने चारसें गणुं करीएं, तेवारे अड़तालीस हजार अंगुल होय. अहींयां बन्नु अंगुले एक धनुष्य थायबे, माटे - तालीश हजार बन्नु जागे यापीएं, तेवारे पांचसें धनुष्य देहमान थाय. दवे जस्सेंगुल डुगुणं के० उत्सेद्धांगुलने बमणा करीएं, तेवारे वीरस्स के० श्रीमहावीर परमेश्वरनो एक आत्मांगुल थाय. एवा चोराशी अंगुल श्रीमहावीरनुं शरीर हतुं. तेने बम करीएं तेवारे एकसो ने अडसठ अंगुल थाय. त्यां एक हाथमां चोवीश अंगुल होय; माटे एकसो ने अडसठने चोवीशे नाग देतां सात हाथ श्रीमहावीरना शरीरनुं प्रमाण होय. ए कारणे बे उत्सेद्धांगुले श्रीमहावीरनो एक आत्मांगुल होय. नो विस्तारार्थ अंगुल सित्तिरिग्रंथ थकी जाणजो. अहींयां ग्रंथविस्तारना जय थकी लख्युं नथी. ॥ २०३ ॥ ॥ हवे चोराशी लक्ष् जीवायानिना जेद कहे बे. ॥ पुढवाइस पत्तेयं ॥ सग वणपत्तेय ांत दस चन्द ॥ विग - ass सुर नारय ॥ तिरि च चन चउदस नरेसु ॥ २९४ ॥ - पुढवाइस के० पृथिव्यादिकने विषे एटले पृथ्वी, आप, तेज, अने वायु ए चारने विषे प्रत्येके सग के० सात सात लाख योनि होय, अने व पत्ते के० प्रत्येक वनस्पतिने दस के० दशलाख योनि होय, तथा अांत के० अनंतकायने चउद के० चौदलाख योनि होय, छाने विगले के० विकलेंडी एटले बेंडी, तेंडी ने चौरेंद्री, Hit so प्रत्येके वे बे लाख योनि होय, तथा सुर के० देवता ने नारय के० नारकी, वली तिरि के० पंचेंद्री तिर्यंच- एमां प्रत्येके चलचन के० चार चार लाख योनि होय, तथा चउदसनरेषु के० मनुष्यमांदे चौदलाख योनि होय, ए सर्व मली चोराशी लक्ष जीवायोनि होय. ॥ २०४ ॥ हवे योनि शब्दनो अर्थ कहे बे. हयां राशी लाख संख्याने विषे सामान्यपणे योनि जातिए करी एकेक जीवना निकाय, For Private Personal Use Only Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संग्रहणीसूत्र. १६३ वर्ण, गंध, रस छाने स्पर्श सरखो होय; ते एक जातियो निमांहे ग्रहण करीएं, तेवा सर्व मी चोराशी लाख होय. जेम गोबरनुं बाएं एक योनी कहीएं. ते बाणामांदे जूदा जूदा विंडी, ऋमि, कीडा, प्रमुख जे घणा जीव होय ते सर्व जूदा जूदा कुल कहीएं ॥ एक योनिमांदे घणां कुल होय ते कड़े बे. ॥ एगिदिए पंचसु | बार सगति सत्त अठवीसाय ॥ विगलेसु सत्तड नव ॥ जल खद चनपय नरग जुयगे ॥ ||२०|| अद्धत्तेरस बारस ॥ दस दस नवगं नरामरे निरए ॥ बारस वीस पविस ॥ हुंति कुल कोडि लकाई ॥ २०६ ॥ इगकोडि सत्त नवई ॥ लरका सढा कुलाण कोडी ॥ अर्थ- पृथ्वी, छाप, तेज, वाउ, ने वनस्पति ए पांचे एकेंद्रीने यथा संख्या कमेण के० अनुक्रमे वारस के० बार लाख कुल कोडी, सग के० सात लाख कुलकोडी, ति के to लाख कुलकोडी, सत्त के० सात लाख कुलकोडी, वीसा के० अडावीश लाख कुलकोडी, एवे अनुक्रमे जाणवी ने विगलेसु के० विकलेंडी जे बेंडी, तेंडी, ने चरिं तेने अनुक्रमे सात लाख, आठ लाख थाने नव लाख कुलकोडी जाणवी . छाने जल के० एक जलचर, बीजा खह के० खेचर, श्रीजा चउपय के० चतुष्पद, चोथा रग के० उरपरिसर्प, पांचमा नूयगे के० जुजपरिसर्प, ए पांचेने अनुक्रमे साढाबार लाख, ॥ २०५ ॥ बार लाख, दश लाख, दश लाख, अने नव लाख कुलकोडी जाणवी. एमज नरामरे निरए के० मनुष्य, देवता, अने नारकी ए त्रणेने अनुक्रमे बार लाख, वीश लाख ने पचीश लाख कुलकोडी जाणवी ॥ २७६ ॥ ए सर्व एकता करीएं त्यारे एक कोडाकोडी सत्ताणुलाख कोडी पचाश हजार कोडी एटली संख्या थाय. कस्थापन ( ११५००००००००००० ) एटली जीवोने उपजवानी योनिमांदे कुलनी कोडी . ॥ हवे बीजी प्रकारे योनी कहे बे. ॥ संवुडजोणि सुरेगिंदि ॥ नारया वियड विगल गनु नया ॥ २०७ ॥ अर्थ- सुर के चार निकायना देवता, छाने एकेंडी ते पृथिव्यादिक पांच, तथा नारया के साते नरकना नारकी, ए सर्वेनी जोणि के० योनि जे उत्पत्ति स्थानक, ते संवुम के० संवृत्त एटले ढांकेली होय, स्पष्ट देखाय नहीं. त्यां देवतानी देवडुष्ये ढांकेली देवशयनीय होय, तेने विचाले देवो उपजे. अने एकेंद्रीयनी योनि जे पृथ्वी, पाणी ते पण स्पष्टपणे न जाणीए. नारकीने ढांकेला गोखने आकारे श्राला बे, त्यां For Private Personal Use Only Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ संग्रहणीसूत्र. नारकी उपजे, त्यांची नीचे पडे. अने विकलेंजी ते बेंजी, तेंजी ने चउरेंडी, तथा संमूर्बिम पंचेंद्री तिर्यंच, अने संमूर्बिम पंचेंडी मनुष्य, ए पांचनी वियड के० विवृतयोनि एटले विशेषपणे उत्पत्तिस्थानक जे जलाशय सरोवर प्रमुख ते प्रगटयोनि देखाय बे, अने गर्नज पंचेंद्रीय तिर्यंच तथा.मनुष्यने संवृत्त तथा विवृत्त ए बन्ने योनि होय. संवृत्त ते ढांकेली अने विवृत ते प्रगट. ए बे प्रकारे योनि होय. मनुष्य अने तिर्यंचनो गर्न ते बाहेर पेट मोहोडं देखाय, अने मांहे देखाय नही. तेमाटे एने संवृत्तविवृत्त योनि कहीएं. ॥ श्ए ॥ ॥वली पण योनिनेद कहे . ॥ अचित्त जोणि सुरनिरय ॥ मीस ग्गने तिनेय सेसाणं ॥ सी जसिण निरय सुर गन्न ॥ मीसत्ते जसिण सेस तिदा ॥शएन॥ अर्थ- सुर के देवता अने निरय के नारकीनी जोणि के योनि जे उत्पत्तिस्थानक ते, अचित्त के अचेत एटले निर्जीव जाणवू. यद्यपि सूदम जीव सकललोकव्यापी बे, तो पण सूदम एकेंजी जीवने प्रदेशे ते देत्र संबंध नथी; तेमाटे सर्वथा जीवप्रदेशरहित उत्पत्तिस्थानक जाणवू. तथा गर्नज तिर्यंच,अने गर्नज मनुष्यने जे योनि ने ते मिश्र होय. एटले कांश सचेत कांश अचेत होय, तेमां जे शुक्रमिश्रित ऋतु, रुधिर, पुजल योनि संग्राह्य ते सचित्त जाणवी अने बीजी अचेत जाणवी.अने शेष जीवजे एकेंडी, बेंजी, तेंडी, चउरेंडी, संमूर्बिम पंचेनी तिर्यंच अने संमूर्बिम पंचेंजी मनुष्य, एटलानी योनि त्रण नेदे कही ले. त्यां जीवती गाय, नेस प्रमुखने शरीरे ऋमि प्रमुख उपजे ते सचित्त योनि जाणवी. सूका लाकडामाहे घुण प्रमुखनी योनि ते अचित्त जाणवी. कांक सजीव कांश्क अजीव ते अर्धसूकू काष्ट तथा गायना शरीरमा हतादिकनेविषे घुणक्रम्यादिक उपजे ते मिश्रयोनिजाणवी. वलीनारकीनीयोनि केटलाएकनी शीत तथा केटलाएकनी जम जाणवी. पहेली त्रण नरकपुथ्वीए उस वेदना डे, त्यां शीत योनि जाणवी. चोथी नरकपृथ्वीए उपरना नरकावासाए शीत योनि , अने नीचला नरकावासाए उस योनि . पांचमी नरकपृथ्वीए घणा नरकावासामांहे उस योनि अने थोडामां शीतयोनि जे. बही तथा सातमी नरकपृथ्वीए शीत वेदना , त्यां उप्लयोनि जाणवी. एटले शीत योनिवालाने उस वेदना अत्यंत दुःसह थाय; तेमज उस योनि, वालाने शीत वेदना अत्यंत दुःसह थाय, अने देवता, तथा गर्जज तिर्यंच, अने गर्नज मनुष्यने मिश्रयोनि होय. एटले कांश्क शीत अनेकांश्क जम एम उजय खन्नाव योनि होय. तथा तेउकायना जीवोने केवल उस योनि होय. शेष जे पृथ्वीकाय, अपकाय, वाउकाय, वनस्पति श्रने संमूर्बिम तिर्यंच, तथा संमूर्बिम मनुष्य एउएने त्रणे जातनी Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संग्रहणीसूत्र. १६५ योनि होय. कोश्ने शीत श्रने कोने उस तथा कोश्ने मिश्र जाणवी. ॥ ए७ ॥ ॥ हवे एकला मनुष्यने योनि कहेले. ॥ हय गन्न संखवत्ता॥ जोणी कुम्मुन्नया जायेति ॥ अरिद हरि चक्की रामा ॥ वंसी पत्ता सेस नरा ॥श्एए ॥ अर्थ- मनुष्यनी योनि एटले उत्पत्तिस्थानक ते बाह्य अत्यंतर त्रिविध जे. एक संखवत्ता के शंखावर्त्त, बीजी कुम्मुन्नया के कूर्मोन्नत,त्रीजी वंसीपत्ताए के वंसीपत्रा. तेमा प्रथम संखवत्ता एटले शंख सरखो श्रावत होय ते हतगर्ना कहीए, एमां उपनो जे गर्न ते निश्चेथी नीपजे नही,अत्यंत अग्नीने तापे गर्न मरण पामे तेमाटे हयगत के० हतगर्ना कहीएं, ते चक्रवर्तिनी स्त्रीरत्नने होय. बीजी कूर्म ते काचबाना पूगनी पेरे उन्नत्त एटले ऊंची होय ते कूम्र्मोन्नत कहिएं; ए योनि मांहे अरिहंत, चक्रवर्ति, हरि के वासुदेव, रामा के बलदेव उपजे. त्रीजी वंसना पानडाना जोमा जेवी होय ते वंसीपत्रा कहिएं; ए योनिमाहे सेसनरा के शेष सामान्य मनुष्य उपजे. ॥ श्एए॥ ॥ हवे आयुष्य संबंधी विशेष कहे .॥ आनस्सबंध कालो ॥ अबाद कालोय अंत समय ॥ अपवत्तण णपवत्तण ॥ नवकम णुवकम्मा नणिया ॥ ३०० ॥ श्रर्थ- जेटले थाकते आयुष्ये परनवनुं आयुष्य बांधे ते आयुष्यनुं बंधकाल कहिएं. बीजो श्रायुष्य बांध्या पली जेटलो काल गये थके आयुष्य उदय आवे तेना वचमांनो जे काल तेने अबाहकालो के० अबाधाकाल कहिएं. त्रीजो नोगवतो आयुष्य जे समये पूर्ण थाय तेने अंतसमय के अंत समय कहिएं. चोथु जे आयुष्य घणा काले वेदवा योग्य ते आयुष्यने थोमा कालमां वेदिएं, एटले सो वर्षनुं थायुष्य अंतर मुहूर्तमांहे वेदिएं ते अपवर्त्तन कहिएं. पांचमुं जे श्रायुष्य जेटले काले वेदवानुं बे ते श्रायुष्य तेटलेज काले वेदिएं पण उबे काले न वेदिएं ते अनपवर्तन कहिएं, बहुं जेणेकरी श्रायुष्य करिएं उपक्रमीजे ते ऊपक्रम कारण समूह ते सोपक्रम कहिएं. सातमुंजेने कारण मटयां थकां पण आयुष्य घटेनही ते निरुपक्रम जाणवो. ३०० ॥ हवे ए साते द्वार अनुक्रमे विस्तारपणे वखाणे . ॥ बंधंति देव नारय ॥ असंख नरतिरि उमास सेसाक ॥ परनवि याक सेसा ॥ निरुवक्कम तिनाग सेसा ॥३१॥ सोवकमानया पुण ॥ सेस तिनागेअदव नवम नागे ॥ सत्तावीस श्मेवा ॥ अंतमुहुत्तं तिमेवावि ॥ ३०॥ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ संग्रहणीसूत्र. अर्थ- देवता, नारकी, असंख्याता श्रायुष्यवाला तिर्यंच युगलिया तथा नर के मनुष्य युगलिया ए सर्व मास सेसाऊ के मास शेष आयुष्य थाकते परनवर्नु आयुष्य बांधे अने सेसा के शेष बीजा संख्यातायुष्यवाला तिर्यंच तथा मनुष्य, एकेंजी, बेंडी, तेंडी, चौरेंडी अने पंचेंडी निरुपक्रमायुष्यवाला पोताना जोगवता आयुप्यने त्रीजे नागे थाकता निश्चेथकी परनवनुं आयुष्य बांधे.॥३१॥ अने सोपक्रमायुष्यवाला मनुष्य, तिर्यंच, एकेंडी, बेंडी, तेंडी, चौरेंडी थने पंचेंडी ते पोताना श्रायुष्यने त्रीजे नागे थाकता परजवायु बांधे, अथवा नवमे नागे एटले त्रीजा जागना त्रीजे जागे, अथवा सत्तावीसमे नागे एटले नवमा नागना त्रीजे जागे, अथवा अंत मुहुत्तं के बेले अंतर मुहूर्ते अवश्य परजवनुं आयुष्य बांधे. एटखे बंधकासन प्रथम बार कह्यु.॥३०२ ॥ ॥ हवे अबाधाकालादिक, बीजुं श्रादे देश्ने छार कहे .॥ जश्मे नागे बंधो ॥ आनस्स नवे अबाद कालोसो ॥ अं ते नझुगश्ग ॥ समय वक चन पंच समयंता ॥ ३०३ ॥ अर्थ- जेश्मे के जे समे जागे एटले उमास अथवा त्रीजे जागे अथवा अंतरमुहूर्त थाकता परजवनुं आयुष्य बांध्यो बे ते जीवने ते अबाधाकाल, एटले बंध थकी उदयनी विचाले जे काल ते बीजु अबाधाकाल कदिएं. तथा अंते के अंतसमय एटले • श्रायुष्यनो जे लो समय जेना पड़ी परलवर्नु थायुष्य उदय श्रावे ते अंत समये परनवे जाता जीवने बे गति होय. तेमां एक जुगति, बीजी वक्रगति. तेमा जे उजुग के जुगति बे ते गसमय के एक समय प्रमाण बे, केमके समश्रेणीए रह्यो काल करी तेहिज समये उपजवाने स्थानके जश् उपजे तेने जुगति कहिएं. अने वक चल पंच समयंता के बीजी वक्रगति ते बाहुल्यपणे चार समय तथा केवारेक क्यांएक पांच समयनी पण वक्रगति थाय . ॥ ३३॥ ॥ एहिज अर्थ विस्तारे कहे .॥ नझुग पढम समए ॥ परनवियं आनयं तदा दारो ॥ वक्का बीय समए ॥ परनविया उदयमेई ॥ ३०४ ॥ अर्थ- जुगतिए प्रथम समए परजविक श्रायुष्य उदय आवे तहा के तेमज पहेले समये परजवनो आहार पण उदय आवे. वक्रगतिएं बीजे समये, परजवायु श्राहारोदय थावे. ते एक समयनी वक्रगति कहिएं. बीजी वक्राए त्रण समय लागे, त्रीजी वक्रायें चार समय लागे; चोथी वक्रायें पांच समय लागे, श्रहींयां सघले Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संग्रहणीसूत्र. १६७ नागे प्रथम समये अने अंत समये अहारक होय. अने विचाले एक समय, बे समय, अने त्रण समय अणाहारक होय. एक समये वक्रा केवीरीते होय ते कडे बे. सनाडीमांहे सातमी नरक तले मरण पामी, उर्फ लोकनी नावे तिणे दिशिएं उपजतां बे समय लागे, त्यां एक समयनी वक्रगति जाणवी. हवे अधोलोकनी पूर्वदिशिथी एक समये त्रसनामीमांहे श्रावे, बीजे समये उर्सलोकनी पश्चिम दिशिने मुखे आवे, अने त्रीजे समये उत्पत्ति स्थानके जश् उपजे, यहां त्रण समय लागे. एमां बे समयनी वक्रगति जाणवी. जेवारे अधोलोकनी विदिशिथी एक समये अधोलोकनी दिशिए श्रावे, बीजे समये त्रसनाडीमांहे श्रावे, त्रीजे समये चंचो जईलोकनी दिशिने मुखे थावे, अने चोथे समये उत्पत्तिस्थानके श्रावी उपजे, शहां चार समय लागे, तेमां त्रण समयनी वक्रगति जाणवी. अने जेवारे पहेले समये अधोलोकनी विदिशी थकी अधोलोकनी दिशिएं थावे, श्रने बीजे समये त्रसनामीमांहे आवे, त्रीजे समये उर्बलोके श्रावे, चोथे समये उऊलोकनी नावें तिणिदिशि श्रावे अने पांचमे समये विदिशिएं जश् उपजे, श्रहीयां पांच समय लागे, एमां चार समयनी वक्रगति जाणवी. अहींयां जेटला समय वक्र . तेटला समय अणाहारक जाणवा. ॥३०४ ॥ ॥ एहिज अर्थ सूत्रकार कहे .॥ गति चन वकासु ॥ उगाइ समएसु परनवादारो॥ उग वक्काइ सु समया ॥ग दोतिन्निय अणादारा ॥३०॥ अर्थ- एक समय, बे समय, त्रण समय, श्रने चार समयनी वक्रगतिएं बे श्रादि समये परजवर्नु थाहार करे. एटले एक समयनी वक्रगतिएं बीजे समये परनवाहार करे. बे समयनी वक्रगतिएं त्रीजे समये परजवाहार करे. त्रण समयनी वक्रगतिएं चोथे समये परजवाहार करे. चार समयनी वक्रगतिएं पांचमे समये परजवाहार करे, बे श्रादि वक्रादि गतिनेविषे एक, बे थने त्रण समय अणाहारक होय. शहां वात घण। विस्तारे . ते श्रीनगवतिसूत्रनी वृत्तिथी जो ले. त्यां चार समय अणाहारक अने पांचमे समये श्राहारक इति ए त्रीजो कह्यो. ॥ ३५ ॥ बहुकालवेयणिऊं ॥ कम्मं अप्पेण जमिद कालेणं ॥ वेशघर जुगवं चिय॥ जइन्न सबप्पए सग्गं ॥ ३०६ ॥ अपव Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संग्रहणीसूत्र. तणितमेयं ॥ याउं दवा असेस कम्मंपि ॥ बंध समएविबधं ॥ सिढिलं चिय तं जदा जोगं ॥ ३०७ ॥ अर्थ- बहुकालवेयणि के० जे आयुष्य घणाकाले वेदवा योग्य, ते आयुष्य थोडा कालमांहे आत्माना सर्व प्रदेशना जागे उइन्न के० उदय आणी वेइद्य जुगवं चिय के० युगपत् एटले समकाले वेदे अनुजवीने निर्झरे ते चोथुं आयुष्य कर्म अपवर्त्तन कहिएं. अथवा पक्षांतरे आयुष्यनी पेरे असेसकम्मंपि के० प्रशेष एटले समस्त बीजा कर्म पण आयुष्यनी पेरे घणे काले वेदवा योग्य कर्म तेने थोडे कालें वेदे ते पवर्त्तन कहिएं. अहियां शिष्य पूबे बे के जेवीरीते कर्म बांध्युं तेवीरीते वेदे नही, अने अन्यथापणे वेदे तो बांध्या अणबांध्यानं शो विशेष ? ए प्रश्न उपर कारण कहे बे. वंTera ho बांधवाने समये पण तेवाज अध्यवसायादिक कारण मल्या के जे कारणे करी तेवोज सिढिलं चिय के० शिथिल एटले ढीलो बद्धं के० बंध बांध्यो बे. जे देश कालादिक कारण मलेथके अवश्य थोमाकालेज वेदे ते सोपक्रम कहिएं. ॥ ॥ हवे प्रवर्त्तन कहे बे. ॥ पुण गाढ निकाय | बंधेणं पुवमेव किल बधं ॥ तं दोइ प्रणवत्ता ॥ जुग्गंकम वेयणित फलं ॥ ३०८ ॥ अर्थ- जंपुण के० जे वली आयुष्य अथवा शेष बीजा कर्मोनुं गाढनिकायण के० गाढ एटले निमि अत्यंत अवश्य वेद्यपणे जे बंध तेवा गाढे निकाचित् बंधे करी पुवमेव किलबद्धं के० प्रथमज निश्चेकरी बद्धं के० बांध्यो बे होपवत्त के ते पांच प्रवर्त्तन कहिएं. ए कारणे अनुक्रमे परिपाटी यें जेहनो वेदवा योग्य फल बे, ते निरुपक्रम कहिएं. ॥ ३०८ ॥ ॥ दवे कोण जीव सोपक्रमी ने कोण जीव निरुपक्रमी ते कहे बे. ॥ उत्तम चरम सरीरा ॥ सुर नेरइया प्रसंख नरतिरिया || हुतिनिरुवकमा ॥ दावि सेसा मुणेयवा ॥ ३०९ ॥ अर्थ - उत्तम एटले चोवीश तिर्थंकर, बार चक्रवर्त्ति, नव वासुदेव, नव प्रतिवासुदेव ने नव बलदेव ए त्रिषष्टि शिलाका पुरुषने उत्तम कहिएं. ते नोपक्रमी जाणवा. वली चरम सरीरा के० जे तेहिज नवे मोगामी होय, ते पण नोपक्रमी जाणवा. तथा सुर के० चारनिकायना देवता छाने नेरइया के० साते नरकना नारकी, वली असंख के० श्रसंख्यातायुष्यवाला युगलिया नरतिरिया के मनुष्य अने तिर्यंच एटला सर्व तिरुवकमा के० निरुपक्रमायुष्यवाला नोपक्रमी जाणवा. अने शेष थाकता जीव हाव के बेहुदे होय, एटले कोइ सोपक्रमी अने कोइ निरुपक्रमी होय. ॥३०॥ १६८ For Private Personal Use Only Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संग्रहणीसूत्र. २६ए ॥ हवे सोपक्रम अने निरुपक्रमना कारण कहे . ॥ घेणान मुवकमिजाय ॥ अप्पसमुबेण श्यर गेणावि ॥ सो अनवसाणाई ॥ उव कमऽणुवकमो श्यरो ॥३१॥ अर्थ- जेण अप्पसमुद्रण के श्रात्माथी उपने श्रध्यवशाए अथवा श्यगेणावि के इतर केणापि बाहेरले कारणे एटले विष, अग्नी, शस्त्र, पाणी प्रमुख कारणे आयुष्य उपक्रमीए एटले घणाकाल वेद्य होय तेने अल्पकाल वेद्यपणे पमामीएं ते अपवर्तन हेतुक अध्यवसाएं करी उपक्रम एटले उपवर्तन सोपक्रमायु कहीएं, अने अणुवकमोश्यरो के० ए थकी इतर एटले विपरीतपणे अनुपवर्त्तन ते अनुपक्रमायु जाणवो. ॥श्हां उपक्रमना सात प्रकार कहे . ॥ अधवसाण निमित्ते ॥ आदारे वेयणा पराघाए ॥ फासे आणा पाणू ॥ सत्तविहं कियए आलं ॥ ३११ ॥ अर्थ- सत्तविहं के ए सात प्रकारे आयुष्य जिद्यए के क्षय पामे, ते सात प्रकार कहे जे. एक अनवसाण के अध्यवसाय ते राग, स्नेह अने नयरूप मननो विकल्प जाणवो. अने जेने मन न होय तेने संज्ञाथी कदेवो. त्यां रागे करी क्षय ते एम जे कोश्क परबनेविषे पाणीनी पावनारी स्त्री,तरुण पुरुष देखी अनुरागे करीजोती थकी तेनी प्राप्ति न थ तां मरण पामी, स्नेहेकरी क्षय ते जेम कोश्क सार्थवाहीने परदेश थकी तेनो पति सार्थवाह श्राव्यो, तेवारे को मित्रे स्नेह परीक्षा निमित्ते, सार्थवाहनो मरण कह्यो बतां,स्त्री मरण पामी.स्त्रीने मरणे सार्थवाह पण मरण पाम्यो, तथा जय थकी श्रीकृलने देखी सोमिल मरण पाम्यो. बीजु निमित्त ते दंग, चाबक, हथीयार, दोरडादिके मरण पामे. त्रीजो अत्यंत सरस आहार ते घणो खावा थकी मरण पामे. चोथु वेदना सयघाती सूलादिकनी वेदना थकी मरण पामे. पांच, पराघात ते खामामां पड्या थकां मरण पामे. बई फासे ते सर्प, अग्नी श्रने विष प्रमुखना फरसपी मरण पामे. सातमुं आणापाणु के स्वास उसास न्यूनाधिक वहेता अथवा श्वासोश्वास रंधन कख्या थकां मरण पामे. ए साते कारणे सोपक्रमायुष्य घटे ने. एटले जा पाय बे. अने निरुपक्रम जे निकाचित् ते घटे नही. तेमज ए उपक्रम स्कंधकाचार्यना शिष्यसरखा केटलाएक चरम शरीरीने संजवे . तथा श्रीकृष्लन बाह्य उपक्रमे श्रायुष्य पूर्ण थयुं परंतु अंतरंग विचारतां निरुपक्रम एटझुंज श्रायुष्य इतुं तेमाटे सोपक्रम नहतुं. ॥ ३११ ॥ २२ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संग्रहणीसूत्र. ॥ हवे सर्व जीवने पर्याप्ति कहे . ॥ आदार सरीरिंदिय ॥ पजत्ती प्राणपाण नासमणे ॥ चन पंच पंच प्पिय ॥ ग विगला सन्नि सन्नीणं ॥ ३१२ ॥ अर्थ- श्राहार प्रमुखना पुनल ग्रहण परिणमनहेतु जे श्रात्मानी शक्ति विशेष तेने पर्याप्ति कहिएं. त्यां प्रथम आहार पर्याप्ति,बीजी शरीर पर्याप्ति, त्रीजी इंजिय पर्याप्ति, शहां एत्रणनी वचाले जे पर्याप्ति शब्द कह्यो तेनो हेतु एम डे के जे को जीव अपर्याप्तो मरण पामे, तोपण ए त्रण पर्याप्ति पूरण करी मरण पामे, पण ए त्रण पर्याप्ति पुरी कल्या विना को मरण पामेज नही. तेमाटे अहींयां इंजियपदनी साथे पर्याप्ति शब्द जोड्यो बे. चोथी श्वासोश्वास पर्याप्ति, पांचमी नाषा पर्याप्ति,बही मनःपर्याप्ति, ए समस्त पर्याप्ति उपजवाने पहेले समये जे जीवने जेटली पर्याप्ति करवानी, ते जीव ते. टली पर्याति समकाले करवा मांडे,पढी अनुक्रमे पहेली बाहार पर्याप्ति, ते पड़ी शरीर पर्याप्ति, एम सर्व पर्याप्ति यथायोग्यपणे करे. त्यां श्राहार पर्याप्ति प्रथम समयेज करे, अने बीजी समस्त पर्याप्ति ते प्रत्येक असंख्यात समय प्रमाण अंतर मुहर्ते करे, वैक्रिय शरीर अने थाहारक शरीरवाला जीवने, एक शरीर पर्याप्ति अंतरमुहत्तै होय, अने बीजी समस्त पर्याप्ति एकेके समये होय. एवं सर्व मली अंतरमुहूर्त प्रमाण पर्याप्तिकाल जाणवो. अहींयां एकेंडीने चार पर्याप्ति होय, अने विकलेंडीने नाषा सहित पांच पर्याप्ति होय, तथा असंज्ञी संमूर्बिम पंचेंनी तिर्यंच तथा मनुष्यने एक मन विना पांच पर्याप्ति होय, त्यां संमूर्बिम मत्स जे समुअमाहे श्राहार निमित्ते मुख ऊघाडे , ते थाहार संज्ञा जाणवी, पण मन समजवू नही. केमके, असंझीने पांच पर्याप्ति कही बे, परंतु संमूर्बिम मनुष्यने त्रण पर्याप्ति संजवे. श्रीपन्नवणामां एम कडं . यतः "सवाहिं पत्तगा" ए वचन थकी कदाचित् चार पर्याप्ति संनवे, परंतु नाषा पर्याप्ति तो सर्वथा संचवेज नही. वली संझी पंचेंडी गर्जज तिर्यंच तथा मनुष्य तथा देव अने नारकीने मन सहित उ पर्याप्ति जाणवी. जे पोताने योग्य पर्याप्ति पूरण कस्याविना अपर्याप्तो मरण पामे, ते आद्यनी त्रण पर्याप्ति पुरी करी परजवायुनुं बंधकरी अंतर मुहूर्त श्रबाधाकाल जीवीने मरण पामे. ॥ ३१५ ॥ ॥ हवे पर्याप्तिनुं लक्षण कहे जे. ॥ आदारसरिदिय ॥ सास वक मणोनिनिवत्ती दोइज दलियाऊ ॥ करणं पश्सान पजाती ॥३१३ ॥ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संग्रहणीसूत्र. २७१ अर्थ- श्राहार, शरीर, इंजिय, ऊश्वास,वचन अने मन एनी निप्पत्ति के निष्पति होश्जद लियाऊ के जे पुजल थकी होय बे, ते पुजलने आहारादिकनी निष्पतिप्रत्ये जे करण एटले जीव संबंधि शक्तिविशेष ते पर्याप्ति कहीएं. ॥ ३१३ ॥ ॥ हवे जीवने दश प्राण स्वरूप वखाणे . ॥ पण इंदिय तिबलू सा ॥ साऊ दस पाण चन सग अ॥ ग उति चनरिंदीणं ॥ असन्नि सन्नीण नव दसय ॥ ३१४॥ अर्थ- स्पर्शन, रसन, प्राण, चक्कु, अने श्रोतरूप पांच इंशी, अने मनोबल, वचनबल अने कायबलरूप त्रण बल, नवमो श्वासोश्वास, अने दशमुं श्रायुष्य ए सर्व मली दश प्राण होय, जेने धारण कस्यां थकी प्राणी कहिएं. अने जेनाथी विडोड्यां थका जीव मरण पाम्यो एम कहिएं. ते एकेंजीने चार प्राण, बेंजीने ब प्राण, तेंजीने सात प्राण, चौरेंजीने श्राप प्राण, असंझी संमूर्बिमने नव प्राण, त्यां संमूर्बिम पंचेंडी तिर्यंचने नव प्राण, यद्यपि संमूबिम मनुष्य पण असंझी मांहे बे. परंतु प्राण आश्री संमूर्बिम मनुष्यने सात अथवा था प्राण होय, अने संझी गर्नज पंचेंडी तिर्यंच तथा मनुष्य वली देवता अने नारकीने दश प्राण पूरा होय. ॥ हवे ए ग्रंथ ज्यांथी ऊपरी जेजणी कीधो ते खरूप कहे .॥ संखित्ता संघयणी ॥ गुरुतर संघयणि मद्य एसा ॥ सिरि सिरि चंद मुर्णिदेण ॥ निम्मिया अप्प पढणहा ॥ ३२५॥ अर्थ-प्रथम श्रीजिननजगणि क्षमाश्रमणे बुद्धिरूप मंथे समस्त सिद्धांत मथन करी संक्षिप्त संग्रहणी कीधी, ते संघयणी मूलगाथा तथा अनेरी प्रक्षेप गाथाए करी वधति वधति चारसें गाथा पांचसें गाथा प्रमाण गुरुतर एटले महोटी थ. ते मोटी संघयणीने प्रमादी जीव जणतो थको थालस करे, तेमाटे ते गुरुतर संघयणीना मद्य के० मध्ये थकी अर्थ जहरीने हरसोरागबना शृंगार श्री श्रीचं सूरिएं एसा के ए पूर्वे वखाणी एवी जे संग्रहणी ते शास्त्रांतरना अर्थ एका करीने संखित्ता के० संदेपे थोडा सूत्रमांहे संग्रहीने तेनो घणो अर्थ समजाय एवी नवी करी बे. अने जे मूल संघयणी , ते सूत्रे महाटी . तेनो विस्तार पामेलो सर्व अर्थ ग्रहण करनारना मनमां तुरत संग्रह कस्यो जाय नही तेमाटे अप्पढणहा के पोताने जणवाने अर्थे एटले पोतानुं अहंकार मूकी शिष्य जणवाने हेते न कडं पण पोताने देते ए संग्रहणीनी निम्मया के० निर्मित एटले रचना कीधी. महोटी संघयणी जणतां Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ संग्रदणीसूत्र. घणो काल लागे, अने ए संक्षेप संग्रहणी जणतां गुणतां वखत थोमो लागे, अने कार्य घणो सरे, ए प्रयोजने शिष्य जगता थका पण पोताने पुण्य याय ने पपढा एवं पण पाठ कयुं. संखित्तयरीनइमा ॥ सरीर मोगोहणाय संघयणा ॥ संन्ना संठा कसाय लेसिंदिय समुग्धाया ॥ ३१६ ॥ दिट्ठी दंसण नाणे ॥ जोगु वर्उगो ववाय चवा हिई ॥ पति किमादारे || सन्निगई रागई वेए ॥ ३१७ ॥ अर्थ-संखित्तयरी उश्मा के० संक्षिप्ततर एटले अति संदेष संग्रहणी ए चोवीस शरीरादिक द्वारे करी कहे बे. तेमां एक औदारिकादिक शरीर पांच; बीजुं अवगाहना ते शरीरनुं प्रमाण एटले देवता, नारकी, मनुष्य ठाने तिर्यंचनुं पूर्वोक्त देहमान; त्रीजुं वज्ररुषजनाराचादिक व संघयण; चोथुं आहार संज्ञादिक चार संज्ञा; पांचमुं समचौरंसादिक बनेदे जीवनुं संस्थान, तथा परिमंगल वृत्त त्रिरंस चजरंस ने श्रायत ते दीर्घरूप पांच दे जीवनुं संस्थान; बहुं क्रोधादिक चार कषाय; सातमुं कृलादि द्रव्य संबंध आत्मानो शुभाशुभ परिणाम जे लेश्या ते जंबुफल खादक व पुरुषना दृष्टांते करीब दे जाणवुः आठमुं कर्णादिक पांचे प्रकारे इंद्री; नवसुं समुद्घात बे नेदे, तेमां वेदना, कषाय, मरण, वैक्रिय, तेजस आहारक, ने केवली, ए सात जीवसमुद्घात कहिएं, अने अजीवसमुद्घात ते अचित्तमदास्कंध केवली समुद्रघातनी पेरे समए लोके व्यापे, ए वे प्रकारना समुद्घातना बे द्वार जाणवा; अगीधारमुं मिथ्यादृष्टी, सम्यकदृष्टी ने मिश्रदृष्टी, ए त्रण दृष्टी; बारमुं चक्षु, अचछु, अवधि ने केवल, ए चार प्रकारे दर्शन; तेरमुं मत्यादिक पांच प्रकारे ज्ञान; चदमुं योग वीर्य उत्साह पन्नर नेदे होय; पनरमुं बार प्रकारनो उपयोग; सोलमुं उपपात ते उपजवुं; सत्तरमुं चवन ते चवकुं; श्रढारमुं श्रायुष्यनी स्थति; उगणीशमं व प्रकारनी पर्याप्ति; वीशमं किमाहारे के० जीव केवी रीते खाहार करे; एकवीरामुं दीर्घकालादिक त्र संज्ञान; बावीशमं गति; त्रेवीशमं श्रागति; चोवीशमं पुरुष, स्त्री ने नपुंसकरूप वेद; एम चोवीश द्वाररूप संक्षिप्ततर संग्रहणी वखाणी. मलहारि देम सूरी ॥ सीस लेसेण विरइयं सम्मं ॥ "पागंतरे " ॥ सीसलेसेण सृरिणारहियं ॥ संघयणि रयण मेयं ॥ नंदजा वीरजिण तिचं ॥ ३२८ ॥ अर्थ- मलधारीगछीय श्री हेमचंद्रसूरि तेना शिष्यमांदे लव लेशसमान एवा For Private Personal Use Only Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७३ लघुक्षेत्रसमासप्रकरण. श्रीचं सूरि तेणे संघयणी रयणमेयं के श्रा ग्रंथ जे संघयणरूप रत्न ते रहियं के रच्यु. अथवा हेमचंजसूरिना शिष्ये लव लेश एटले संक्षेप मात्रे सम्मं के० सम्यकूप्रकारे रच्यु. एम पण बीजो अर्थ थाय . ए ग्रंथ ज्यांसुधी श्रीमहावीर जगवंतनुं तीर्थ डे त्यांसुधी नंदो एटले साधु साधवी श्रावक श्राविका जणता समृद्धि पामो, ए प्रांत मंगल . शहां केटलोक गाथार्थ थकी समजजो, केटलोएक यंत्र थकी समजजो, केटलोएक गुणाकार जागाकारे करी समजजो, गुरुमुखे जेणे जेवो संघयणीनो अर्थ लीधो होय तेणे तेवो ए उपरथी संजारवो.ए सर्व धर्मध्याननुं बालंबन नेद बे, चित्त स्थिर करण कर्मदय हेतु ने तेमाटे जव्यजीव शुनप्रकृति बांधे. ॥ ३१ ॥ ॥ इति श्रीचंदसूरि रचित श्रीलघुसंग्रहणी सूत्र बालावबोधसहित समाप्तः ॥ ॥ श्रीपार्श्वनाथाय नमः ॥ अथ श्री रत्नशेखरसूरिकृत लघुक्षेत्रसमासप्रकरण बालावबोधसदित प्रारंन्नः वीरं जयसेदरपय ॥ पहियं पणमिकण सुगुरुं च ॥ मंत्ति ससरणा ॥ खित्तवियाराणु मुनामि ॥१॥ श्रर्थ-ग्रंथकर्ता श्रीरत्नशेखराचार्य एम कहे जे के हुँ वीरं के श्रीवर्धमानस्वामिने, ते केवाडे तोके-जयसेहरपयपहियं के जगत्तुं शेखर एटले लोकनुं श्रय एवं जे पद एटले स्थानक त्यां प्रतिष्टित ,अथवा बीजो अर्थ जगत्शेखरसूरि तेनां पटनेविषे प्रतिष्टित एवा श्रीवत्रसेनसूरिने एटले श्रीवीरपरमात्मा तथा गुरु जे श्रीवज्रसेनसूरि ते प्रत्ये पण मिऊण के प्रणाम करीने एटले नमस्कार करीने खित्तवियाराणु के क्षेत्रविचारना अणु एटले खेश प्रत्ये मंडत्ति के हुँ मंदमति एटले मूर्ख बु एमाटे सप्तरणका के पोताने संजारवाने अर्थे उछामि के कहीश. पण पंमित पुरुषोने माटे नहीं॥१॥ ॥ तेमां प्रथम त्रिगक्षेत्रनेविषे छीपसमुज्नुं सामान्यपणे मान कहे जे.॥ तिरिएगरकुखित्ते ॥ असंखदीवो दहीन ते सवे ॥ 3 झार पल्लिय पणविस ॥ कोडाकोडी समयतुल्ला ॥२ ॥ श्रर्थ-तिरि के त्रिनो जे एगरमुखित्ते के एकराज क्षेत्र ,तेनेविषे सवे के सर्वश्रसंखदीवोदही के० असंख्याता बीपसमुहले. ते के ते असंख्यातानुं प्रमाण कहे जे.जकारपलियपण विसकोडाकोडी के० पचीस कोमाकोडी उझार पस्योपमना समयतुझा के जेटला समय थाय, तेने तुल्य एटले तेटला छीपसमुल . Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ लघुदेवसमासप्रकरण. ॥हवे स्थूल उद्धार पक्ष्योपम विचार विशेष संप्रदायोक्त प्रथम स्थूलाणुनी कल्पना कहे ॥ कुरु सग दिणावि अंगुल ॥ रोमे सगवार विहिय अमखं डे ॥ बावन्नसयं सहसा ॥ सगनवई वीस लरकाणू ॥ ३ ॥ अर्थ- कुरु के देवकुरु श्रने उत्तरकुरु-तेनो उपन्यो जे सगदिणावि के सात दिवसनो घेटो तेहनो अंगुल के उत्सेधांगुल प्रमाण जे रोम, तेहना सगवार के सातवार अडखमे के श्राप आउ खंड करीएं, तेवारे वीसलरकाणू के वीश लाख अणु, सगनवसहस्स के सत्ताणुहजार, सयं के एकसो अने उपर बावन्न के बावन-एटला रोमना खेम थाय. ते आवीरीते. प्रथम आठ, बीजीवार पाउने श्राठे गुणतां चोस थाय, त्रीजीवार चोसठने आठे गुणतां पांचसें ने बार थाय, चोथीवार पांचसें बारने श्राठे गुणतां चार हजार ने बर्नु थाय, पांचमीवारे चार हजार बनने आठे गुणतां बत्रीश हजार सातसे ने श्रमश थाय, बीवारे तेने श्रावे गुणतां बे लाख बासठ हजार एकसो ने चुमालीश थाय, सातमीवार ए आंकने श्राठे गुणतां वीश लाख सताणु हजार एकसो ने बावन एटली संख्या थाय. ए प्रमाणे पूर्वे जे रोमना खंड कह्या, तेमनुं जे पट्य-तेने विषे संख्यातपणुं देखाड्यु.॥३॥ ॥ हवे असंख्यातपणुं देखाडवाने माटे सूक्ष्म खेमनी कल्पना कहे .॥ ते थूला पल्ले विहु ॥ संखिजाचेवहुंति सवेवि ॥ ते शकिक असंखे ॥ सुहमे खंडे पकप्पेठ ॥४॥ अर्थ- ते शूल के ते पूर्वे कह्या जे थूल एटले महोटा रोमना खंग-तेणे करी जेनुं चार कोश प्रमाण बे, एवो समवृत्त जे पझेविहु के कुर्च ते नस्योथको-तेनेविषेसवेवि के० सर्व पण चेव के निश्चये करीने संखिजा के० संख्याताज हुँति के होय. ते युक्ति कहे .जेवारे शुचि गुणीएं तेवारे उत्सेधांगुल प्रमाण रोमना खंग सर्व मलीने वीश लाख सत्ताणु हजार एकसो ने बावन थाय. अने चोवीश उत्सेधांगुले एक हाथ थाय. तेमाटे एने चोवीश गुणा करिएं तेवारे ५०३३१६४७ पांच कोटी त्रण लाख एकत्रीश हजार बसें ने अडतालीश थाय. अने चार हाथे एक धनुष्य थाय, तेमाटे ए राशीने वली चार गुणी करतां २०१३२६एएए वीश कोटी तेर लाख बबीश हजार पाचसें ने बाएं थाय. तेवा बे हजार धनुष्य एक कोशमां थाय ने, माटे एने बे सहस्र साथे गुणतां ४,०२,६५,३१,४००० एटला रोम खंम थाय. ते वली चार कोशे एक योजन थाय, तेमाटे ए श्रांकने चारनीसाथे गुणतां १,६१०,६१,२७३,६००० एटले एक लाख एकसठ हजार अने एकसठ एटली कोटि अने सत्तावीश लाख बत्रीश हजार जपर एटला रोमखम शुचिगुणतां थाय. वली एक योजन प्रतरनी वांगए समचरंस करत Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुदेवसमासप्रकरण. २०५ ए राशीने एहज ांकसाथे गुणीएं तेवारे २५ए४,७३३७५३, ६५४०५६ए, ६०००००० पच्चीसें ने चोराणुं कोमाकोमी कोमी, तथा सात लाख तेत्रीश हजार श्रासें त्रेपन एटली कोमाकोडी अने पांसठ लाख चालीश हजार पांचसें अगणोत्तर कोकी, तेना उपर साठ लाख, एटला रोमखंम चनरंस प्रतर योजनमां थाय. पढ़ी जेवारे ए योजननु घन करीएं तेवारे ए श्रांक एहज आंकसाथे गुणीएं तेवारे ४१७४७६३,२५७१५७, ४२४५,४४२५६००,0000000 एटले एकतालीश कोटि कोत्तेर लाख चार हजार सातसें त्रेस कोडाकोडी कोमाकोडी, तथा पचीश लाख अहाशी हजार एकसो ने अहावन कोमाकोडी कोडी, तथा बेतालीश लाख सित्तोत्तर हजार आठसे पिस्तालीश एटली कोमाकोडी, अने चुमालीश लाख पचीश हजार बसें एटली कामी, ए चउरंसघन योजन करीएं, तो तेमां एटला रोमखंग थाय. हवे चजरंसघन पल्यनुं जेवारे वाटवं पव्य करीएं तो ए चनरंस घनयोजननो श्रांक जंगणीश बांके गुणीएं त्यारे पएशए०५०१९१७५०१०११ए०६३४६४००0000000 एटला श्रांक थाय. वली ए - कने चोवीश नागे वेहेंचतां ३३०७६२१०४,२४६५६२५,५२१६०,ए७५३६००,0000000 तेत्रीश कोमी सात लाख बासठ हजार एकसो ने चार कोमाकोमीकोडाकोमी, चोवीशलाख पांसठहजार बसें ने पचीश एटली कोडाकोमी कोडी, तथा बेतालीश लाख उंगणीश हजार नवसे ने साठ एटली कोमाकोडी, तथा सत्ताणु लाख त्रेपन हजार ने बसें कोडी एटली वाटला घनयोजन पट्योपमनेविषे सर्व स्थूल रोमखमनी संख्या होय. तेमाटे ए संख्याता कह्या. हवे असंख्याता करवामाटे कहे . ते के ते पूर्वोक्त रोमखंड तेना शकिक के० एकेका खंमना असंखे के असंख्याता खंम मनसाथे क पिएं; तेवारे असंख्याता सूदमरोमाणु थाय. ॥४॥ ॥ हवे असंख्याता सूक्ष्मरोमखंडने पक्ष्योपमपणुं कहे .॥ सुहमाणु निचियनस्से ॥ हंगुल चनकोस पल्लि घणवढे ॥ पश्समय मणुग्गह, निध्यिमि नछार पल्लि जति ॥ ५॥ - अर्थ- सुहुम के सूक्ष्म, अणु के परमाणु-तेणे करी निचिय के० नरेलो एवोउस्सेहंगुल के उत्सेधांगुलने प्रमाणे करी चउकोस के चार कोशनो पति के पथ्योपम ते घण के निविड वट्टे के वर्तुल एटले गोलाकार एवो जे पढ्योपम तेने पश्समय के प्रतिसमये एकेक रोमाणुने अनुग्रह के० ग्रहण करीने निहियंमि के निष्टांगत ते निर्लेप करे ते एटले खाली करे बते उछारपलिजत्ति के एक उकार पट्योपम थाय. इति उच्यते. एने पहनी उपमाए कह्यो माटे पस्योपम कहीएं. अहींयां पख्योपम ब प्रकारना बे. एक उकारसूक्ष्म, बीजं उझारबादर, त्रीजुं असासूक्ष्म, चोथु Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ लघुक्षेत्रसमासप्रकरण. अझाबादर, पांचमुं देत्रसूक्ष्म, अने बहुं देत्रबादर, ए नेद पस्योपमना . परंतु अहींयां छीपसमुना मानने अर्थे उझार पक्ष्योपम खे. इति. ॥५॥ ॥ हवे केटलाक छीपसमुजनां नाम चार गाथाए करी कहे . ॥ पढमो जंब बी॥धाय संडोय पुरकरो तां॥ वारुणिवरो चनन ॥ खीरवरो पंचमो दीवो॥६॥ अर्थ-पढमो के प्रथम जंबू के जंबुद्धीप बे, बी के बीजो धाश्यसंमो के धातकीखंग डे, य के वली त के त्रीजो पुकरो के पुष्करवर छीप बे, चउडो के चोथो वारुणिवरो के वारुणीवर बीप बे, पंचमो के पांचमो खीरवरो के दीरवर दीवो के बीप . ॥६॥ घयवरदीवो बहो ॥इकुरसो सत्तमोय अहम ॥ नंदीसरोय अरुणो ॥ नवमो श्चाश्त्र संस्किड़ा ॥७॥ अर्थ-उठो घयवर के० घृतवर द्वीप , सत्तमो के सातमो अने य के वली अहम के० आठमो श्कुरसो के कुरस अने नंदीसरो के नंदीश्वर बीप . एटले सातमो श्कुरस अने पाठमो नंदीश्वर बीप छे. य के वली, नवमो के नवमो अरुणो के अरुण छीप जे. श्चाश के० इत्यादिक असं रिकता के असंख्याता छीपो बे.॥७॥ सुपसबवलुनामा ॥ तिपडोयारा तहा रुणाईया ॥ इंगनामेविअसंखा ॥ जावय सूरावना सुत्ति ॥७॥ अर्थ-सुपसबवबुनामा के सुप्रशस्त वस्तुना नामे छीपसमुखो. यदाह जे कारण माटे श्री संग्रहणी मध्ये बाजरण वगंधे इत्यादि गाथा कहेली . ते गाथा लखे बे. यानरणवगंधे ॥ उप्पल तिलएयपउमनिहिरयणे ॥ वासहर दहनजे ॥ विजया वरकारकप्पिदा ॥१॥ कुरुमंदरावासा ॥ कूडानरकत्तचंदसूराय ॥अन्नेविएव. माई ॥ पसब बबुण जेनामा ॥२॥ तन्नामादीवुदही इत्यादि तहा के0 तथा तिपमोयारा के० त्रिप्रत्यावतारा एवा अरुणश्या के अरुणादि छीप . यथा अरुणः अरुपवर, श्रने अरुणवरावनास, ए प्रकारे एकेकानामे करी पण त्रण त्रण नामो ; तेवा गनामेवि के एकेकानामे करीपण असंखा के असंख्याता छीपो . जेम एक जंबुछीप , ते प्रकारे बीजा असंख्याता जंबुद्धीपो . तथा समुसो . एटले सुरवरावनास हीप तथा सुरवरावजास समुज्थकी फरी जंबुझीप अने लवणसमुज आदे देश असंख्याता छीप श्रने समुडो . ते सुरावनाससुधी जाणवा. पली वली जंबुद्धीप धुरथी मांडीने सुरावजाससुधी असंख्याता छीप समुन . एम असंख्यातिवार करता Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७७ लघुदेवसमासप्रकरण. असंख्याता . तथा एकेका नाम, जे बाहुल्यपणुं एटले त्रिप्रत्यावतारपणुं बे, ते जाव के० यावत् एटले ज्यांसुधी य के वली बेला सुरावनासुत्ति के सुरावनास हीप तथा सुरावनास समुज, ते त्रिप्रत्यावतारे सुरवरावनास हीप अने सुरवरावजास समुज बे; त्यांसुधीज बे. परंतु श्रागल नथी. ॥ ७॥ तत्तो देवे नागे ॥ जके नए सयंजुरमणे य ॥ एए पंच वि दीवा ॥ इगेगनामा मुणेयवा ॥ ए॥ अर्थ-तत्तो के ततः त्रिप्रत्यावतार गणतां बेबो जे सुरवरावनास हीप, ते पड़ी देवे के देव दीप बे, ते पड़ी नागे के नाग झीप तथा जके के यद छीप, लूए के० नूत हीप. य के वली सयंजुरमणे के० स्वयंनूरमण हीप एए के ए पंचवि के० पांचे पण दीवा के छीपो . तथा पांच समुखो . ते इगेगनामा के जेमनुं एकेक नाम ले. एवा मुणेयव्वा के जाणवा योग्य . ॥ ५ ॥ ॥ हवे केटलाएक समुनां नामो कहे . ॥ पढमे लवणो बीये ॥ कालोददि सेसएसु सवेसु ॥ दीवसम नामया जा॥ सयंजुरमणोदही चरमो॥१०॥ अर्थ-पढमे के प्रथम जंबुद्धीपने विषे लवणो के लवणोदधि . बीए के बीजो जे धातकीखंड द्वीप तेने विषे कालोदहि के कालोदधि नामे समुन . सेसएसु के बाकी रह्या जे सव्वेसु के सर्व समुप ते दीवसम नामया के० डीप सरखां जेमनां नाम के एवा ने. यथा पुष्करवर छीप, त्यां पुष्करवर समुज इत्यादि. जा के यावत् चरमो के बेहो सयंजुरमणोदहि के स्वयंजुरमण समुज त्यांसुधी जाणवा. १० ॥ हवे एक गाथाए करी समुनोना पाणीनो रस कहे . ॥ बीउ त चरमो॥ उदगरसा पढम चनथ पंचमगा ॥ बहोवि सनामरसा ॥इस्कुरसा सेस जलनिहिणो ॥११॥ अर्थ-बी के बीजो कालोदधि, त के त्रीजो पुष्करवर समुज, चरमो के० बेहो वयंजुरमण समुज, ए त्रण समुख उदगरसा के पाणी सदृश रस जेमनो एवा . पढम के पहेलो लवणसमुख, चउथ के चोथो वारुणीवर समुज, पंचमगा केव पांचमो खीरवर समुज, होवि के हो घृतवरसमुज पण-ए चार समुजसनामरसा के पोताना नाम सदृश जेमनो रस बे एवा जे. अने इकुरसा के तु जे शेलड़ी ते सदृश डे रस.जेमनो एवा सेसजल निहिणो के० शेष एटले बाकीना जलनिधि एटले समुनो . ॥११॥ २३ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ लघुक्षेत्रसमासप्रकरण. ॥ हवे छीप समुसंबंधी विस्तारनुं प्रमाण एक गाथाए करी कहे जे. ॥ जंबूद्दीव पमाणं ॥गुलजोयण लक वट्ट विस्कंनो ॥ लवणाई यासेसा ॥ वलयाना उगुण उगुणाय ॥ १२ ॥ अर्थ- जंबुद्दीव के प्रथम जंबुद्धीप बे, ते पमाणंगुल के प्रमाणांगुले करी लरक जोयण के० लाख योजननो वट्ट के वर्तुल एटले गोलाकारे विस्वं नो के पहोलो . य के० वली सेसा के शेष एटले बाकी रह्या जे लवणाश्या के लवणादि समुन तथा छीप ते उगुणगुणा के० एक बीजा करतां बमणो बमणो जेमनो विस्तार बे, एवा . ॥ १२ ॥ ॥ श्रथ जगतीनुं स्वरूप ब गाथाए करी कहे जे. ॥ वयरामशदि निय निय ॥ दीवोददि मसिगणिय मूलाहिं ॥ अहुचाहिं बारस ॥ चनमूले उवरि रुंदाहिं ॥ १३ ॥ विबार उग विसेसो ॥ उस्सेहि विनत्तु खनच दोश् ॥श्य चूलागिरि कूडा, तुल्ल विस्कंन करणादिं ॥ १४ ॥ गाउजुगुच्चार तय नाग रुंदाइ पनमवेईए ॥ देसूण जोयणवर ॥ वणाहि परिमंडिय सिराहिं ॥ १५ ॥ वेइसमेण महया ॥ गवरक कडएण संपरित्तादिं ॥ अहारसूण चउन्न, त्त परिदिदारं तरादिंच ॥ १६ ॥ अहुच चसविबर ॥ उपास सकोस कुट्टदाराहिं ॥ पुवाइ महडियदे, वदार विजयाइ नामादिं ॥ १७ ॥ नाणामणि मय देदलि ॥ कवाड परिघाइ दारसोदादिं ॥ जगदं ते सव्वे ॥दीवोदहिणो परिस्कित्ता ॥ १७ ॥ अर्थ-ए पूर्वोक्त सर्व छीपसमुज ते श्रागल कहीशुं एवी जगतीए करी विंटेलां ३. ए अर्थनो संबंध अढारमी गाथाए जाणवो. ते जगती केवी बे ? ते कहे जे.वया रामहिं के वज़मय बे. अने नियनिय के पोतपोताना दीवोदहि के छीप समुपनप्रमाण-तेमना मसि के० मध्यने विषे गणिय के गएयु मूलाहिं के मूल जेमनुं. एटले बार योजन प्रमाण जगतिनुं मूल विस्तारे बे. ते लाख योजनना जंबहीपमांहेर्नु . ए प्रमाणे सर्व ठेकाणे जाणवु, वली जगति केवीयो बे ? श्रह के श्राप योजननी उच्च के जंची जे. वली केवीयो के ? बारस के बार योजन बे, मूले के मूलने विषे रुंदाहिं एटले विस्तार जेमनो अने चन के चार योजन उवरि के उपर Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुदेवसमासप्रकरण. डे रुंदाहिं के विस्तार जेमनो. एटले उपर सांकमी . ॥ १३ ॥ वली जगतीयो केवी ? ते कहे . विद्यारफुग के मूल तथा उपरनो ए बे जे विस्तार, तेनो विसेसो के० विश्लेष करीएं एटले अधिकामांहेथी उबो काढीएं बाकी जे रहे ते जमतिना उंचपणाना आंकनी साथे विनत्तु के वहेंचीएं, जे जागे श्रावे तेटलुं चढतां खज के क्षय एटले घटे, अने उतरतां च के चय एटले वधे, ते एमके जगती मूल विस्तारे बार योजननी जे; तेमध्येथी चार योजन उपरतुं काढीएं तो बाकी श्राव रहे. ते श्राप योजनने ऊंचपणाना आठ संगाते वहेंचीएं तेवारे नाग एक श्रावे. ते एक योजन मूलथी उपर चढतां एक योजन जश्एं तेवारे एक योजन विस्तार मांहे घटे; एटले बार योजनना मूल विस्तारमाथी एक योजन घटे, एम क्रमे घटतो घटतो उपर जाता बेडे चार योजन विस्तार थाय. अने एक योजन जगतीना शिखर उपरथी उतरीएं, तेवारे एक योजन वधे. एटले उपरनो चार योजन विस्तार , तेमां एक वधे तेवारे पांच योजन विस्तार थाय, एम अनुक्रमे वधतां वधतां नीचे श्रावतां तलीये बार योजन विस्तार थाय बे. अने ज्यां नाग न पामीएं त्यां मूलगी वहेंचवानी राशीना तेम अंश करीएं के जेम पूरा नाग आवे.वली जगती केवी ?श्य के इति चूला के मेरुनी चूलिका बने गिरि के मेरुपर्वतना कूट के शिखर, तेमनी पेठे , विरकंनकरणाहिं के० विष्कंन कर्ण जेमनो, एटले जेम चूलिकानुं मूल विष्कंन बार योजन , श्रने उपर विष्कंन चार योजन बे, ते चार योजन बारमाहेथी काढीएं, तेवारे श्राप उगरे. श्रने चूलिका चालीश योजन ऊंची बे; ते थाउने चालीश नागे वहेंचतां नाग न थावे तो पाउना तेवी रीते अंश करीएं, के जेम चालीश नागे वहेंचतां नाग पहोंचे. तेमाटे पाउने पांचवार गुणीएं तेवारे चालीश थाय. तेने चालीशे जाग देतां योजननो पांचमो नाग एक आवे ते चूलिकाना मूलथी चढतां एक योजन जाएं तेवारे एक योजननो पांचमो नाग नीचे विस्तारमाथी घटे. अने उपरथी एक योजन उतरीएं तेवारे एक योजननो पांचमो नाग उपरना विस्तारथी विष्कलमांहे वधे. वली गिरि के मेरुपर्वत प्रमुख पर्वतोनो मूल विष्कंन दश सहस्र नेवु योजन अने एक योजनना अगी. यार नाग करीएं ते मांहेला दशनाग एटलो मूले विस्तार बे. श्रने उपरनो विष्कंन एक हजार योजन बे; ते मूल विष्कंनमांथी काढीएं तेवारे नवसहस्र ने नेवुअने उपर अगीयारीया दश नाग वधे, ते उंचपणाना एक लाख योजनसाथे वहेंचतां नाग न आवे, तेमाटे नाग पामवा सारं नव हजार नेवुने अगीयारगणा करीएं, तेवारे नवाणु हजार नवसें ने नेवु थाय, तेमां मूलगा अगीयारीया दश नाग नेलतां एक लाख जाग थाय. ते उंचपणाना लाख योजननी साथे वहेंचीएं तेवारे योजननोनगीयारीयो Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० लघुक्षेत्र समासप्रकरण. एक नाग यावे, तो जेवारे एक योजन चढतां थाय, तेवारे योजननो अगीयारी एक जाग नीचेना मूल विस्तारमाथी घटे ने उपरथी उतरतां उपरना विस्तार मां वधे. वली यमकपर्वत, कांचनगिरि तथा कूटने पण एमज जाणवुं. जेम बल एवे नामे कूटनो मूल विस्तार एक सहस्र योजन बे, अने उपर विस्तार पांचसें योजन बे-ते काढतां पांच योजन उगरे श्रने उंचपणुं तो सहस्र योजन बे. माटे जाग न वे ते माटे पांचसेने बमणा करीएं तो एक हजार थाय. ते सहस्र योजन साथे वर्हेचतां योजननो अर्द्धमाग आवे. ते चढतां घटे अने उतरतां वधे. एम समस्त ठेका जाणवुं ॥ १४ ॥ वली जगतीयो केवी बे ? ते कहेबे - गाउ डुगुच्चाइ के० वे गाउनी उंची, अने तयह जाग के० ते उंचपणानो आठमो जाग बे, रुंदार के० विस्तार जेनो. देसूण के० देशे aur gatam ho बे योजन वर के० प्रधान एवा बने बाजुए वे वणाहि के० वन जेने विषे एवी, पठभवेइए के० पद्मवरवेदिका, तेणे करी परि के० समस्त प्रकारे विंटाणी tra in ho शोजित बे, सिराहिं के मस्तक जेमनां एवी ॥ १५ ॥ वली जगती यो केवी बे ? - वेईसमे के० वेदिका सहरा छाने महया के० मोटा एवा गवरक के० गोखला तेमना करुण के० वलय- तेणे करी संपरित्ताहि के० श्रासमंतात् वेष्टितानिः एटले चारे तरफ वींटेलीज बे. वली जगतीउ केवी बे ? हारसू ho ढार योजन ऊणो जे परिहि के० परिधि बे, ते चउजत्त के० चार जागे वहेंचतां जेटला योजन श्रावे तेटला योजननुं दारंतराहिं के० एकेका विजयादि द्वारनुं अंतर बे, जे जगतिने विषे एवीजे बे. जेम जंबुद्धीपनो परिधि वीखं जवगादहगुण एणी गाथाए करतां त्रण लाख सोल हजार बसें सत्तावीश योजन अने त्रण कोश, अने उपर धनुष्य एकसो अवावीश अने तेर अंगुल थाय बे. तेमांथी अढार काढीएं. पी चारे जागे वर्हेचीएं त्यारे उगणाएंशी हजार बावन योजन एक कोश, पंदरसें बत्रीश धनुष्य, त्रण अंगुल ने त्रण जव एटलुं एकेका वारणानुं अंतर जाणवुं. एम लवणसमुद्र संबंधी परिधि ( १५८११३५ ) योजन बे, एमांथी अढार उणा करी चार जागे वर्हेचतां ३०५२०० योजन ने उपर एक कोश, एटलुं अंतर श्रावे. ते लवणसमुनी जगतीना एकेका वारणानुं अंतर जावं. धातकीखंमनो परिधि एकतालीश लाख दश हजार नवसें एकसठ याजन बे. तेमांथी अढार काढीने बाकीना चारे मागे वचतां २०२७७३५ योजन ने त्रण कोश एटलुं एकेका बारणानुं अंतर जाणवुं. कालोदधि संबंधी परिधि - ९१७०६०२ योजन बे, तेमांथी अढार काढीएं, बाकीनाने Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१ लघुक्षेत्रसमासप्रकरण. चार जागे वहेंचतां श्एV६४६ योजन अने त्रण कोस उपर, एटवू एकेका बारणानुं अंतर जे. एम सर्वत्र जाणवू. ॥ १६ ॥ वली जगती केवी ? अहुंच के श्रायोजन उंचा, चउसु के चार योजन विकर के विस्तारवंत अने पास के बेपासे सकोस के० एकेका कोस सहित एवी कुट्ट के बारसांखनी नींत ने जेमनेविषे एवा दाराइं के दरवाजा जे जगतिउने विषे डे एवी . वली जगती केवी ? पुवाइ के० पुर्वादि चार दिशिउने विषे जे महि हि के० महर्डिक देव के देवता तेना दार के दरवाजा, तेमनां नामे नाम ; ते नाम विजाया के० विजयादि चार अनुत्तर विमाननांनामे बे, जे जगतीने विषे एवी .१७ वली जगती केवी ? नाणा के अनेक प्रकारनां जे मणिमय के मणिरत्नो तेहनी देहली के जंबरो तथा कवाम के कमाम अने परिघा के० नोगल-तेणे करीने दरवाजानी सोहाहिं के शोना बे, जगहिं के जे जगतिउनेविषे. एवी जगतीउए तेसवे के जे पूर्वे कह्या ते सर्व दीवोदहिणो के बीप समुज परिखित्ता के वींच्या जे. ॥ १७ ॥ ॥ हवे एक गाथाए करी वेदिकाना बे बाजुना वन- रमणिकपणुं देखाडे जे. ॥ वरतिण तोरण कय ब, त्तवाविपासाय सेल सिलवट्टे ॥ वेश्वणे वरमंमव ॥ गिहासणेसू रमंति सुरा ॥ १० ॥ अर्थ-वर के पंचेंजियोने पुष्ट करवाने विष तत्पर एवा, तिण के तृण नडादिक एवे नामे वनस्पति तोरण के० बाहेर दरवाजाने शोनाकारक तोरण, जय के ध्वजा, बत्त के बत्र, वावि के वापि, पासाय के प्रासाद एटले देवोने रमवानां घर, सेल के रमवाना पर्वत, अने सिलवट्टे के० विस्तीर्ण एवा पाषाणो ने जेनेविषे एq जे वेश्वणे के वेदिकाना बेहु बाजुनुं वन-तेने विषे वर के मनने गमे एवा मंडव के प्रादादिना जे मांडवा तेनेविषे, तथा गिह के केलीप्रमुखना जे घर तेनेविषे, वली श्रासणेसू के नला बेसवायोग्य सिंहासनादि तेनेविषे, सुरा के देवता ते रमंति के रमे डे, क्रीडा करे बे. ॥ १७ ॥ ॥ हवे अधिकारी देव श्रने देवीनी उत्पत्ति कहे . ॥ इद अदिगारो जेसिं ॥ सुराण देवीण ताण मुप्पत्ति ॥ नियदीवोददि नामे ॥ अस्संखश्मे सनयरीसु ॥२०॥ . अर्थ- इह के० ए जंबूछिप, लवणसमुप, धातकीखंड, तथा पुष्कराई-ए सर्व मली पिस्तालीश लाख योजननो वृत्त विस्तारवालो मनुष्य क्षेत्र बे, तेने विषे जे सिंसु Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८‍ लघुक्षेत्र समासप्रकरण. राण देवी के० जे देवता देवीउनो हिगारो के० अधिकार बे, तारा सुराण देवीप के० ते देवता तथा देवीउनी उप्पत्ति के० उत्पत्ति एटले जे उपज बे, ते असंखश्मे के० श्रहींयांथी असंख्यातमो नियदीवोदहिनामे के० पोतपोताने नामे जे द्वीप अने समुद्र बे; तेमां बार हजार योजन गया पढी असंख्यातमी सनयरीसु के० खनगरीने विषे एटले जे पोताने नामे नगरी बे तेनेविषे उत्पत्ति बे ॥ २० ॥ ॥ हवे जंबुद्वीपना कुल गिरि तथा क्षेत्रनो विचार कड़े बे. ॥ जंबुद्दीवो बर्दिकुल || गिरीदिं सत्तदिं तदेव वासेदिं ॥ पुवावरीदेहिं ॥ परिबन्नो तेइ कमसो ॥ २१ ॥ अर्थ- जंबुद्धीवो के० जंबूद्वीप बे ते पुवावरदी देहिं के० पूर्व ने पश्चिमे दीर्घ एटले लांबा एवा बहिं कुल गिरीहिं के० व कुलगिरि पर्वत, तेमज सत्तहिंवा सेदिं के० सात वर्ष एटले क्षेत्र तेणे करी परिबन्नो के वर्हेचाएलो बे, एटले विजाग करेला बे, तेइमे के० ते या क्षेत्रो तथा कुलगिरी कमसो के० अनुक्रमे करी तेमनां नाम कहीये. ॥ २१ ॥ ॥ प्रथम व कुलगिरिनां नाम एक गाथाए करी कहे . ॥ दिमवं सिदरी मददिम ॥ रुप्पी निसढो य नीलवंतो य ॥ बाहिर ड्ड गिरिणो || जर्ज वि सवेश्या सवे ॥ २२ ॥ अर्थ- प्रथम दक्षिणी धुर मांडीने हिमवं के० हिमवंत पर्वत बे, घने उत्तर दिशिमां सिहरी के शिखरी पर्वत बे. वली दक्षिण दिशाए महहिमवं के० महाहि - मवंत बे, ने उत्तर दिशिमां रुप्पी के० रुपिपर्वत बे. वली दक्षिण दिसाए निसढो के० निषध बे, छाने उत्तर दिशाए नीलवंतो के० नीलवंत ठे. ए ब कुलगिरि पर्वतो a. दक्षिण तथा उत्तर दिशाए बाहिरने के० बाहेरथी डुडुगिरिणो के० वे पासे बेबे पर्वत सरखा बे. तेमाटे बेबे एकता कह्या वली सवे के० ए सर्व पर्वतो केवा बे? तोके वि के बे पासे पण सवेश्या के० वेदिका सहित बे. ते वेदिका तो जगतीना शिखर उपर जे प्रमाणे कहेली बे तेम सर्वत्र ठेकाणे जाणवी ॥ २२ ॥ ॥ हवे एक गाथाए करी सात वर्ष एटले जरदेरवयत्तिगं ॥ डुगंच देमवयर क्षेत्रनां नामो कहे . ॥ वयरूवं ॥ दरिवास रम्मय गं ॥ मकि विदेहुत्ति सगवासा ॥ २३ ॥ अर्थ - नरहे के० प्रथम जरतक्षेत्र दक्षिणदिशिमां बाहेर तरफ बे, तथा उत्तर दिशिमां एरas ho ऐरवतक्षेत्र बे. इति डुगं के० ए द्विक बे ते सरखो बे. वली हेम Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुक्षेत्र समासप्रकरण. १८३ वय रवयरूवंडुगं के० हेमवंत ने ए रमवंतरूपं ठिक ने एटले ए बेनुं जोडलुं वे ते सरखं बे. एटले हिमवंत पर्वत बे ते दक्षिण तरफ बे ने ऐरवत उत्तर दिशिमां बे. तथा हरिवासरम्मयडुगं के० हरीवर्ष अने रम्यकवर्ष द्विकं एटले ए बेनुं जोडलं सरखं बे. अनुक्रमे ए वे दक्षिण अने उत्तरने विषे पूर्वनीपेठे जाणवा. अने मझि के० मध्यजागे विदेहुत्ति के० सातमो महाविदेह क्षेत्र बे. सगवासा के० ए सात क्षेत्र कह्यां. १३ ॥ हवे एक गाथाए करी, सात क्षेत्रमध्ये व कुलगिरि तथा सातमा महा विदेह क्षेत्रने मध्यजागे मेरुपर्वत बे, ए सात गिरिनुं सामान्य प्रकारे स्वरूप कहे बे. ॥ दो दीदाचवट्टा || वेयद्वा खित्त बक्क मझंमि ॥ मेरू विदेह मझे || पमाण मित्तो कुल गिरीणं ॥ २४ ॥ अर्थ- दोवेयवादीहा के० वे दीर्घ एटले लांबा वैताढ्य, ते जरत, तथा ऐखत ए बाहेरना वे क्षेत्रमां . घने चल के० चार, वहा के० वृत्त एटले गोलाकार वेयड्ढा के० वैताढ्य - ते हिमवंत, एरसंवंत, हरिवर्ष अने रम्यक् ए चार क्षेत्रमां चार वृत्त वैताढ्य d. एवैताढ्य ते खित्तकमझंमि के० व क्षेत्रमां बे ने विदेहमझे के० महाविदेहनामध्ये वचमां मेरू के० मेरु पर्वत बे. इत्तो के यहींयांथी आगल कुलगिरिलं पमाणं के० कुल गिरिनुं प्रमाण कड़े बे ॥ २४ ॥ ॥ हवे एक गाथाए करी कुलगिरिनुं उच्चत्वादि प्रमाण कहे बे. ॥ इग दो च सय उच्चा ॥ कणगमया कणगरायया कमसो ॥ तवणि सुबेरु लिया ॥ बढि मद्यतिरा दोदो ॥ २५ ॥ - बहिय के० बाहेरना हिमवंत छाने शिखरी ए बे पर्वत इगसयउच्चा के० एकसो योजन उंचा बे. अने मन के० वचमांना महाहिमवंत घने रुक्मी ए बे पर्वत दोसचा के बसें योजन उंचा बे. मांहेना निषध अने नीलवंत ए बे पर्वत चनसच्चा के० चार योजन उंचा बे. वली पर्वत केवा बे ? बहि के० बाहेरना वे पर्वत कगमया के० सुवर्णवर्णमयी बे. मझ के० मध्यना वे पर्वत, तेमांदे महाहिमवंत कग के० सुवर्णनो बे, छाने बीजो रुक्मी बे ते रायया के० रुपानो बे. अतिरा के० मानो जे निषध पर्वत बे, ते तवणिक के० तपावेला सुवर्णना वर्ण जेवा रक्तवर्ण सुवर्णनो बे, अने नीलवंत पर्वत ते सुवेरुलिया के० सद्वैमुर्यवर्ण एटले वैकुर्य रलनो अने नीले वर्णे . ॥ २५ ॥ ॥ हवे ए कुल गिरि संबंधी पहोलपणं जाणवाने करण कहे . ॥ डुगड तीस अंका | लकगुणा कमिण नजय सय जइया ॥ मूखो वरिसमरुवं ॥ विचारं बिंति जुयलतिगे ॥ २६ ॥ For Private Personal Use Only Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ लघुक्षेत्रसमासप्रकरण. - अर्थ-मुगअंका के बे आंक, अमअंका के आठ आंक, उतीसरंका के बत्रीश श्रांक, ए श्रांक जूदी जूदी राशीएं कमिण के अनुक्रमे करी लकगुणा के लाखगुणा करीएं त्यारे प्रथम राशी बे लाख, बीजी राशी आठ लाख, त्रीजी राशी बत्रीश लाख, एटला थाय. तेवार पनी एकेकी राशी नज्यसय के एकसो नेवु नश्या के जागे वहेंचीएं, ते वहेंचतां जेटला जाग आवे, तेटला योगेन मूले के मूलनेविषे अने उवरि के उपर जुयलतिगे के त्रणे युगलने विषे समरूवं विकारं के सरखा रूपे विस्तार प्रते पामे; ए रीते बिंति के पंडितपुरुषो कहे बे. ते केम ? तो के-प्रथम राशीना बे श्रांक , ते लाखगुणा करीएं तेवारे बे लाख थाय, ते एकसोने नेवु जागे वहेंचतां एक हजार बावन योजन अने उपर बार कला लाने; एटलो हिमवंत तथा शिखरिनो विस्तार , एम जाणवू. एम सर्वत्र जाणवू. हवे एकसो नेवु लागे दीए ने तेहy कारण कहे . नरत अने ऐरवत थकी माहाविदेहसुधी क्षेत्र तथा कुलगिरि जे जे ते बमणा बमणा , तेमाटे बमणा श्रांक मांडीएं, तेनो सरवालो गणतां एकसोने नेवु थाय. ते मूलगी राशी अने नागनी राशिथी एक शून्य टाली वहेंचीएं तो यथोक्त परिमाण लाने, एटले मूलगी राशी बे लाख बे, तेमां एक शून्य टालवाथी वीश हजार थाय, अने जागनी राशी एकसोने नेवू बे, तेमांथी एक शून्य टालवाथी उंगणीशनो अंक रहे ते पूर्वोक्त वीस हजारने ए उंगणीशनो जाग आपीएं तेवारे यथोक्त प्रमाण थाय. एम सघले ठेकाणे जाणवू. २६ ॥ तेहज पामेलो पर्वतोना विस्तारनो थांक बे गाथाएं करी कहे बे.॥ बावमादि सहसो ॥ बारकला बादिराण विबारो॥ मग्नि मगाण दसुत्तर ॥ बायालसया दस कला य ॥२७॥ अर्थ-बावरम हि के बावन योजने करी अधिक सहसो के एक हजार बारकला के बार कला एटले एक हजार बावन योजन अने उपर बार कला एटलो बाहिराण केण्बाहेरना हिमवंत अने शिखरि पर्वतनो प्रत्येके विचारो के विस्तार . तथा मसमगाणं के मध्य एटले वच्चेना जे महाहिमवंत अने रुक्मी पर्वत बे, तेमनो प्रत्येके विचारो के विस्तार बायालसया के बेतालीसें दसुत्तर के दश योजन अने उपर दसकला के० दश कला अर्थात् ४२१० योजन उपर १० कला . ॥२॥ अग्निंतराण उकला ॥ सोल सहस्सड सया सबायाला ॥ चन चत्त सहस दोसय ॥ दसुत्तरा दस कला सवे ॥२॥ अर्थ-अभिंतराण के मांहेला बे पर्वत जे निषध तथा नीलवंत, तेमनी प्रत्येके विचारो के विस्तार सोलसहस्स के सोल सहस्र अने सबायाला के बेतालीश योज Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुक्षेत्र समासप्रकरण. ՇԱ नसहित, खडसा के० यावसे योजन ने उपर डुकला के० वे कला एटले सोल हजार व बेतालीश योजन ने उपर बे कला बे. हवे व कुलगिरिनो सामान्यपणे एक विस्तार कहे बे. चडवत्तसहस के० चुमालीश हजार दोसय के० बसें दसुत्तरा के० दश योजन उपर दसकला के दस कला, बे. एटले चुमालीश हजार बसें दश योजन उपर दश कला. एटलो सवे के० सर्व युगल त्रिकनो विस्तार बे. ॥ २८ ॥ ॥ हवे एक गाथाएं करी सात क्षेत्रनो विस्तार जाणवाने अर्थे करण कहे बे. ॥ इग च सोलस का ॥ पुबुत्त विहीइ खित्त जुयल तिगे ॥ विचारं बिंति तदा ॥ चनसहिंको विदेहस्स ॥ २‍ ॥ अर्थ - इग के० एक, चन के० चार सोलस के० सोल अंका के कने पुत्तविही के० पूर्वोक्त विधिएं करी लाखगुणा करीएं. पठी एकसो नेवु जागे वर्हेचीएं तो खीत्त जुयल तिगे के० क्षेत्रजुगल त्रिकने विषे विवरं के० विस्तारप्रते बिंति के० ज्ञानीपुरुषो कहे . तहा के० तेमज चनसहिंको के० चोसठ यांकने लाखगुणा करीएं. तेने एकसोने ने जागे वर्हेचतां जेटली यांक यावे तेटलो विदेहस्स के० महाविदेहने विषे विचारं के० विस्तार थाय, तेप्रते कहे बे ॥ २७ ॥ ॥ हवे नाग वर्हेचतां जे सात क्षेत्रनुं प्रमाण थाय ते वे गाथाएं कहे बे. ॥ पंचसया बीसा ॥ चच्चकला पढम खित्त जुयलंमि ॥ बीए इग वीस सया ॥ पणुत्तरा पंच य कला यं ॥ ३० ॥ अर्थ- पंचसया के पांच ने बबीसा के बवीश एटले पांचसें ने बवीश योजन ने उपर बच्च कल्ला के० ब कला, एटलुं प्रमाण पढमखित्तजुयलंमि के० पेहेलुं जे क्षेत्रनुं युगल जरत तथा ऐरवत-तेने विषे प्रत्येके जाणवुं. वली बीए के बीजुं क्षेत्रनुं युगल जे हेमवंत तथा एरवंत - तेनो प्रत्येके विस्तार इगवीससया के० एकवीशसें पणुतरा के पांच योजन उपर एटले वे हजार एकसो ने पांच योजन ने उपर पंचकलाय के० पांच कला एटलुं विस्तारनुं प्रमाण बे. ॥ ३० ॥ चुलसीसय इगवीसा ॥ इक्ककला तइयगे विदेदि पुणो ॥ तित्तीस सदस बस्सय ॥ चुलसीया तद कला चउरो ॥ ३१ ॥ अर्थ- चुलसीस के० श्राव सहस्र घने चारसें इगवीसा के० एकवीरा योजन उपर इक्ककला के० एक कला एटलो तश्यगे के० त्रीजो युगल एटले हरिवर्ष तथा रम्यकू क्षेत्रनो प्रत्येके विस्तार बे. पुणो के० वली विदे हि के० महाविदेहने विषे तित्तीस For Private Personal Use Only Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ लघुदेवसमासप्रकरण. सहस के तेत्रीश हजार उस्सय के बसें चुलसीया के चोराशी योजन तह के० तथा कला चउरो के चार कला एटलो सातमुं जे महाविदेह क्षेत्र बे, तेनो विस्तार . ॥३१॥ ॥ हवे एक गाथाएं करी ए साते क्षेत्रनो एकगे विस्तार कहे . ॥ पण पन्न सहस सग सय ॥ गुण नया नवकला सयलवा सा ॥ गिरिखित्तंक समासे॥ जोयण लकं दवइ पुमं॥ ३२॥ अर्थ- पणपन्नसहस के पंचावन सहस्र सगसय के सातसें गुणनऊया के नेव्यासी योजन एटले ५५ए योजन उपर नव कला के नवकला. एटर्बु सयलवासा के ए सघला साते क्षेत्रनुं एक प्रमाण कयुं. गिरिखित्तंक समासे के पूर्वोक्त पर्वत उ तथा क्षेत्र सातना जे आंक ते समासे एटले एकठा कख्या उतां पुमं के० संपूर्ण जोयणलरकं के० लाख योजन हव के० थाय. ॥ ३ ॥ ॥ हवे एक गाथाएं करी मध्यनागने विषे नरत तथा ऐरवतर्नु अर्ज प्रमाण कहे . ॥ परमास सुद्ध बाहिर ॥ खित्ते दलयंमि छ सय अडतीसा ॥ तिमि य कला य एसो॥ खंड चनकस्स विस्कंनो॥३३॥ अर्थ- बाहिर के बाहेरना जे जरत तथा ऐरवत ए बे खित्ते के क्षेत्र, तेमनुं प्रमाण पांचसे वीस योजन अने उ कला डे-ते मध्येथी पलास के पचाश योजन वैताढ्यना सुफ के शोधीएं, एटले काढीएं तेवारे चारसें बहोतेर योजन अने उपर ब कला बाकी रहे.तेनुं दलयंमि के अर्ड कस्ये बते उसय के बसें थमतीसा के पाडत्रीस योजन उपर तिन्निय के त्रण कलाय के० कला एटलुं एसो के० ए खंम चनक्कस्स के खंग चतुष्क एटले बे खंड मध्य जरतना अने बे खंड मध्य ऐरवतना ए चार खंडनुं विस्कंनो के विष्कंन एटले पहोलपणुं . ॥ ३३ ॥ ॥ हवे एक गाथाएं करी उ कुलगिरि उपर जे अह , तेनुं प्रमाण कहे . ॥ गिरि जवरि सवेश्ददा ॥ गिरिजच्चत्तान दसगुणा दीदा ॥ दीदत्ति अरुंदा ॥ सवे दस जोयणुबेदा ॥ ३४ ॥ अर्थ- गिरिउवरि के पर्वत उपर सवेश्दहा के वेदिका सहित अह बे. पण ते अह केवा ? गिरिउच्चत्ताउ के पर्वतना उंचपणाथी दसगुणादीहा के दशगणा दीर्घ एटले लांबा ने अने दीहत्ति के दीर्घपणा थकी अरुंदा के अर्थ विस्तारे एटले पहोला . सवे के० सर्व सह दसजोयण के दश योजन उवेहा के उंडा . ते केम-बाहेरना बे कुल गिरि एकसो योजन ऊंचा बे; ते पर्वतने दश गुणा करतां सहस्र योजन थाय; तेमादे ते अह सहस्र योजन लांबा ने. अने लांबपणानुं थर्ड Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुक्षेत्रसमासप्रकरण. पांचसे योजन- पहोलपणुं , अने दश योजन उंमा; एम समस्त प्रहनुं मान पर्वतने अनुमाने , एम जाणवू. ॥ ३४ ॥ ॥हवे ते पहनां नामो कहे . ॥ बदि पउम पुंडरीआ॥ मले ते चेव हुंति मदपुषा ॥ ते गिछिकेसरीआ॥ अग्जिंतरिया कमेणेसु ॥ ३५ ॥ अर्थ- बहि के बाहेरना हिमवंत श्रने शिखरी-ए बे पर्वत उपर पउम के० पद्मअह, अने पुमरीश्रा के पुंगरीक नामे अहो बे. मले के मध्यना महाहिमवंत, अने रुक्मि-ए बे पर्वत उपर चेव के निश्चयपणे ते के० ते पहेला बे अहनांजे नाम कह्यां ते नामने पाबल, महापुवा के महा शब्द पूर्वे ने जेमने एवा एटले महापद्म तथा महापुंगरीक एवा नामे बे अहो बे. अने अप्रिंतरिश्रा के मांहेला निषध तथा नीलवंत ए बे पर्वत उपर कमेणेसु के अनुक्रमे तेगिडिकेसरीथा के० तिगिछि अने केशरी ए नामे ए बे अहो . ॥ ३५ ॥ ॥ हवे ते प्रहमा जे देवी वास करे ने तेनां नामो कहे . ॥ सिरि सजी हिरि बुद्धी ॥धी कित्तीनामियाज देवी॥ जवणवईपलि ॥वमान वरकमल निलया ॥३६॥ अर्थ-सिरि के० श्री, सही के लक्ष्मी, हिरि के इी, बुद्धी के बुद्धी, धी के० धी,कित्ति के कीर्ति ए डे नामियाक के नाम जेमनां एवी जे देवी के० देवी, ते वसे ले. पण ते देवी केवी ने ?- जवणव के० नवनपति निकायनी उपनी बे. वली केवीयो ?-पसिर्जवमाज के पख्योपमर्नु बे श्रायुष्य जेमन, तथा वरकमलनिलयार्ड के प्रधान जे कमल-तेनेविषे निलय के वसवानुं स्थान जेमनु. वली ए देवी अपरिग्रहिता बे. तेमां हिमवंत पर्वत उपर जे पद्मजह बे, तेमां श्री देवी वसे . तथा शिखरी पर्वत उपर जे पुंगरीक अह बे तेमां लक्ष्मी देवी वसे बे, महा हिमवंत उपर जे महापद्म अह , तेमांहे ही नामे देवी वसे जे. रुक्मि पर्वत उपर जे महापुंडरिक अह ने तेमांहे बुद्धी नामे देवी वसे बे, निषध उपर जे तिगिहि अहले, तेमांहे धी एवे नामे देवी वसे बे. नीलवंत पर्वत उपर जे केसरी अह बे, तेमांडे कीर्ति नामे देवी वसे जे. ए ब देवीउनां नाम कह्यां. ॥ ३६ ॥ ॥ हवे देवीने वसवाना कमलनुं प्रमाण कहे . ॥ जलुवरि कोसगुच्चं ॥ दद विबर पणसयं सविबारं ॥ बादिल्लि विवरई॥ कमलं देवीण मूलिल्लं ॥ ३ ॥ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २.नन लघुदेवसमासप्रकरण. अर्थ- ते श्री, लक्ष्मी प्रमुख सर्व देवीनां कमल जलुवरि के० पाणी उपर कोस उगं के बे कोस उच्चं के उंचां बे, अने दह विलर के पहनो जे विस्तार तेनोपणसयंस के पांचसेंमो नाग विचारं के एटलो विस्तार . तथा पद्म थने पुंमरीकाहमांहे कमलनो विस्तार एक योजन , महापद्म अने महापुंगरीक अहमांहे बे योजन कमलनो विस्तार दे, तिगिदि अने केसरी प्रहमांहे चार योजन कमलनो विस्तार जाणवो. बाहिति के कमलनुं जे जामपणुं बे, ते विचरई के विस्तारथी अर्ध प्रमाण , एटले अर्ड योजन, एक योजन, अने बे योजन, ए अनुक्रमे कमलनुंजाडपणुं जाणवू. एवी रीते मूलगा देवीना कमलनो विस्तार तथा जामपणुं कह्यु. ३७ ॥ हवे कमलनो वर्ण कहे . ॥ मूले कंदे नाले ॥ तं वयरारिक वेरुलियरूवं ॥ जंबू णय मस तवणि, ऊ बहिदलं रत्त केसरयं ॥ ३० ॥ अर्थ- मूले के मूलनेविषे, कंदे के कंदने विषे, नाले के नालनेविषे तं के० ते कमल, वयर के० वज्ररत्नमय, अरिह के अरिष्टरत्नमय, अने वेरुलियरूवं के० वैडुर्यरत्नरूप, अनुक्रमे बे. वज्ररत्न उज्वल वर्णे, अरिष्टरत्न श्यामवर्णे अने वैडुर्यरत्न नीलवणे . वली ते कमल केवां ? जंबूणय के रक्तवर्ण सोनु तेहनां मक्ष के मांहे. लां दल के पत्र , अने बहि के बाहेरनां दल के पत्र ते तवणिस के तपा. वेला वर्णनां जेवा पीतवणे बे; वली रत्त के रातां बे; केसरयं के कमलमांहेला तंतु जेहनेविषे, एवां ते कमल डे. ॥ ३० ॥ ॥ हवे कमल मध्येनी कर्णिका, अने श्रीदेवीने वसवानुं नवन तेहy प्रमाण कहे ॥ कमल-६ पाय पिह लु, च कणगमय कणिगोवरि नवणं ॥ अग कोस पिह दी, द चन्दसय चाल धणुहचं ॥ ३५ ॥ अर्थ- कमल के कमलनो जे विस्तार एक योजन, बे योजन, तथा चार योजन तेहगें अर्ड पिहुल के पहोलपणुं, कमलोनी कर्णिकाउँने विषे बे. अने पाय के० कमलना विस्तारनो जे चोथो नाग ते एम के पा योजन, अर्ड योजन, अने एक योजन-एटर्बु प्रमाण अनुक्रमे कमलोनी कणगमय के कनकमयकर्णिका-तेमनुं जच्चं के जंचपणुं बे, ते कलिग के कर्णिकाने जवरि के उपर श्री देवीनुं नवणं के नवन बे. पण ते नवन केवु बे ? अझ के0 अडधो कोस के गाज पिहु के पहोलु बे; अने एगकोस के एक कोस दीह के दीर्घ एटले लांबुं बे. वली ते नवन के ले ? तो के चजदस के चौदसे ने उपर चाल के चालीश धणु के धनुष्य ने, उच्च के जंचपणुं जे नवननुं, एवं . ॥ ३ ॥ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुदेव समासप्रकरण. पश्चिम दिसि विणुपण ॥ सन्च ढाइज सयप्पिदु पवेसं ॥ दारतिगं इढ जवणे | मझे दददेवि सर्याणि ॥ ४० ॥ - पी के पश्चिम दिशिने वर्जीने इहनवणे के० या श्रीदेवीना जवनने विषे उत्तर तथा पूर्व, तथा दक्षिण, ए त्रण दिशिमां धणु पणसय के पांचसें धनुष्यना उच्च के० उंचा अने अढाइ सय धणु के छठीसें धनुष्यना पिहू के० पहोलपणानुं पवेस के० प्रवेश एटले मांहे पेसतां घढीसें धनुष्यनुं पहोलपणुं बे जेमनुं, एवा दारतिगं के० त्रण दरवाजा त्रण दिशिनेविषे जाणवा. ए मूल कमल त्रण दहनां कह्यां. तथा ते जवनना मझे के० मध्य जागे दह देविसय पिऊं के० प्रहदेवी जे श्री छाने लक्ष्मी प्रमुख तेनां सुवा योग्य स्थान बे ॥ ४० ॥ ॥ हवे परिवारनां कमल कहे . ॥ तंमूल कमल मठ, प्पमाण कमला परिखित्तं तनवणे, सुनूसणाईणि देवी ॥ ४१ ॥ अडदियसरणं ॥ अर्थ - तंमूलकमलमन्द के० ते प्रथम कर्तुं जे मूलकमल तेथी अ प्रमाणे जे महिय के आठे अधिक एवा सणं के० सो-एटले एकसो ने आठ कमलो ते करीने ते मूलकमल जे ते परिरिकत्तं के० विंटेलुं बे. ते जेम गढे करीने नगरी विंटायी होय बे तेम जाणवुं तनवणेसु के० ते कमलनां जवनोनेविषे देवीणं के० देवीdai सु के जला नूसाईलि के० श्रजरणादि वस्तु रहे बे ॥ ४१ ॥ मूलपनमान पुत्रिं ॥ मदरियाणं चनएह चन पडमा ॥ अवराइसत्त पनमा ॥ यणियादिवईण सत्ताहं ॥ ४२ ॥ १८ ए अर्थ- मूलपडमान के० मूलकमलथी पुत्रिं के० पूर्वदिशिएं महरियाणं के० महकि जे म्होटी चहं के० चार देवीज तेमने सर्वने वसवाना चल के चार पउमा के० कमल बे. अने वराइ के० पश्चिम दिशिमां अणियादिवईण के० निकाधिपति तेना एटले निक जे कटक इस एटले तेना अधिप एटले स्वामि सत्ताहं के० सात बे, तेमने वसवा योग्य सत्त के० सात पउमा के० कमलो बे ॥ ४२ ॥ वायवाइस तिसु सुरि ॥ सामन्न सुराण च सदस पनमा ॥ दस बार सदसा ॥ अग्गेयाइसु ति परिसाणं ॥ ४३ ॥ अर्थ- मूलगा कमलथी वायवाइस के० वायव्यादि जे तिसु के० त्रेण ते केइ ? ते ae a. वायव्य कोण, तथा उत्तरदिशि अने ईशान कोण - ए त्रणे दिशाउने विषे सुरि के० देवीसंबंधी जे सामन्नसुराण के० सामानिक देवता, तेमनां च सहस के० For Private Personal Use Only Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रए लघुक्षेत्रसमासप्रकरण. चार सहस्त्र पउमा के कमल बे, तथा अग्गेयाश्सु के अमिकॉणे श्रह के श्राप सहस्र, दक्षिण दिशिएं दस के दश सहस्र, तथा नैत्यकोंणे बारसहस के० बार सहस्र कमल . ए सर्व कमल ने ते अनुक्रमे तिपरिसाणं के श्रादि, मध्य, अने अंत ए त्रण परखदा तेनेविषे बेसवायोग्य जे देवता, तेनां बे. ॥४३॥ श्य बीय परिकेवो ॥ तइए चनसुवि दिसासु देवीणं ॥ चन चन पनमसहस्सा। सोल सहस्सा य रकाणं ॥४४॥ अर्थ-श्यबीय परिकेवो के इतिद्वितीय परिक्षेपःकथितः एटखे ए दिशि विदिशिना जे कमल कह्यां ते मूलगाकमलनो बीजो परिदेप एटले वलय जाणवू- हवे तश्ए के जीजा वलयनेविषे चउसुवि के चार एवीयो पण दिसासु के जे दिशार्ड बे, ते दिशाउँनेविषे देवीणं के० श्री, लक्ष्मी प्रमुख देवीउनां सोल सहस्सायरकाणं के० सोल सहस्र श्रात्मरक्षक देवता बे, तेमने वसवानां चउचउपउमसहस्सा केव चार चार सहस्त्र कमल एकेकी दिशिएं . ॥४४॥ अनिऊंगा तिवलए ॥ उतीस चत्ताऽडयाल खरकाई॥ ग कोडि वीस लरका ॥ पन्नाससदस्स वीससयं ॥ ४५ ॥ अर्थ- अनिलंगा के कह्या कार्यना करणहार एवा देवताउँनां जे कमल बे, ते कमल तिवलय के त्रण वलय-एटले चोथो, पांचमो, तथा बहो ए त्रण वलयनेविषे ने ते कहे . चोथा वलयनेविषे उतीसलका के बत्रीश लोख कमल , तथा पांचमा वलयनेविषे चत्तालका के चालीश लाख कमल , तथा हा वलयनेविषे श्रमयाललरका के अडतालीश लाख कमल , एमअनुक्रमे . हवे ए सर्व कमलनी संख्या एकठी कहे . गकोडी के एक कोडी, वीसलका के वीश लाख, पन्नाससहस्स के पचाश हजार ने वीससयं के एकसो ने वीस. ए सर्व कमल जंबूवृदनीपेठे पृथ्वीकायना पुजलनां जाणवां. ए सर्व कमलना श्राकारे , माटे एने कमल कहीने वाखण्यां . ए जेम पद्माहादिकनेविष कमलनो परिवार वखाण्यो बे, तेम बीजा अहने विषे पण एमज परिवार जाणवो. ॥४५॥ ॥ हवे अहनां बारणां वखाणे .॥ पुवावर मेरुमुहं ॥ उसु दार तिगंपि सदिसि दहमाणा ॥ असी नाग पमाणं ॥ सतोरणं निग्ग नश्यं ॥४६॥ अर्थ-कुसु के० हिमवंत तथा शिखरी ए बे पर्वतो उपर पद्म तथा पुंडरीक ए बे अहनेविषे पुत्वावरमेरुमुहं के० पूर्वदिशि अने पश्चिम दिशि, तथा एक मेरुपर्वतने Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुदेवसमासप्रकरण. २१ सन्मुख दारतिगंपि के० ए त्रण हार बे, ते बारणां पण सदिसिदहमाणा के खस्वदिशिजहना मानथी, असीश्नागपमाणं के एंशीमे नाग प्रमाणे बे. ते केम ? तो के-बहनो जे विस्तार पांचसे योजन पूर्व श्रने पश्चिम दिशिएं डे ते एंसीमे जागे वहेंचीएं तेवारे सवा उ योजन श्रावे; तेमाटे पूर्व अने पश्चिमनां बारणां प्रहनेविषे सवा उ योजन पहोला बे. अने मेरुसन्मुख हजार योजन अह ले ते एंसी जागे वहेंचीएं तेवारे साढावार योजन जागे श्रावे, तेमाटे मेरुसन्मुख सहना बारणांसाढाबार योजन पहोलां के एम जाणवू. वली ते हार केवां ले ?-सतोरणं के तोरणसहित . वली केवां डे ?-निग्गायनश्यं के नीकली नदी जे बारणांथी, एवां बे. ॥४६॥ जामुत्तर दारगं सेसेसु ददेसु ताण मेरुमुदा ॥ सदि सि ददा सिय नागा ॥ तयद्ध माणा य बाहिरिया ॥४॥ अर्थ- सेसेसु के शेष बीजा चार अहनेविषे जामुत्तर के दक्षिण अने उत्तर दिशाए दारगं के बेबे बारणां जे. ताण के तेमना मध्ये जे मेरुमुहा के मेरु सामां बारणां डे ते बारणां सदिसिददासियजागा के खदिशिजहना एंसीमे जागे . जेम महापद्म तथा महापुंगरीक ए बे अह मेरुदिशि सन्मुख बे सहस्त्र योजन , तेमना लांबपणाने एंसीनागे वहेंचतां पचीश योजन श्रावे, तो जे मेरु सन्मुख बारj बे, ते पचीश योजन- जे. अने बाहिरिया के बाहेरनां दक्षिण तथा उत्तर सन्मुख जे बारणां डे ते तयछमाणाय के मांहेला मेरुसन्मुख बारणाथी अमाने एटले साढाबार योजन प्रमाणे बे. वली ए रीते तिगिति तथा केशरी जद मेरुदिशि लांबा चार हजार योजन , ते एंसी नागे वहेंचतां पचाश योजन प्रमाणे मेरु सन्मुखनुं बारणुं बे, अने दक्षिण तथा उत्तरनां जे बारणांबे, ते मांहेला बारणाथी अर्ड एटले पचीश योजन प्रमाणनां बे. पण एटवं विशेष बे के ते सर्व प्रहनां बारणां जे , ते तोरण तथा नदीएं सहित डे एम जाणवू. ॥ ४ ॥ ॥ हवे ते बारणांथी जे नदी नीकली ले तेहनां नाम कहे . ॥ गंगा सिंधूरत्ता ॥रत्तवई बादिरं नइचनकं ॥ बदि दह पुवा वरदा, र विबरं वद गिरि सिहरे ॥४॥ अर्थ- गंगासिंधू के जरत देत्रनेविषे गंगानदी तथा सिंधूनदी ; श्रने ऐरवत क्षेत्रनेविषे रत्तारत्तवई के० रक्तानदी तथा रक्तवती नदी बे. ए बाहिरं के बाहेर रहेली जे नश्चक्कं के चार नदी ले ते बहिदह के बाहेरना जे पद्माह तथा पुंडरीकनामे जे अह बे, तेमांहेथी पुवावरदारविबरं के पूर्वपश्चिमनां जे घार , तेनो Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ लघुक्षेत्रसमासप्रकरण. जे विस्तार , ते प्रमाणे सवा ब योजन पहोलपणे गिरिसिहरे के हिमवंत तथा शिखरी पर्वतना शिखरथी वह के वहे . एटले उतरे बे. इतिगाथार्थ. ॥॥४॥ ॥हवे नदीनी गति बे गाथाए करी कहे .॥ पंचसय गंतु नियगा ॥ वत्तणकूडान बदिमुदंवलइ ॥ पण सय तेवीसेहिं । सादियतिकवादिसिदरा ॥४ए । अर्थ- पूर्वोक्त जे चार नदी , ते अहना बारणाथी पंचसय के पांचसे योजन सुधी पर्वतना शिखर उपर बारणां सन्मुख पूर्व पश्चिमदिशिएं गंतु के जश्ने पनी नियगावत्तणकूडान के निजकावर्तन कूटथी एटले पोतपोताना वर्त्तन कूटथी बहिमुहं के बाहेरना जरत अने ऐरवत क्षेत्रने सन्मुख वल के वले. ते आवी रीते जे गंगानदी ते पहना बारणाथी पांचसे योजन सुधी पर्वत उपरे बारणासामी जाय, त्यां गंगावर्त ए नामे पर्वतनुं जे कूट ते थकी बाहेरनुं जे नरतत्र बे तेने सन्मुख वले. ए रीते सिंधूनदी पण सिंधू आवर्तन कूटथी जरतदिशि वले, तथा रक्तानदी पांचसे योजन बारणा सन्मुख जश्ने पठी रक्तावर्तन कूटथी ऐरवतदिशि वले, एम रक्तवती नदी रक्तवत्यावर्तन कूटथी ऐरवत दिशि वले; तो ए नदी जरत तथा ऐरवत सामी वले, तेवारे पर्वतना मध्यनागथी बाहेर श्रावतां पर्वत उपर केटला योजन चाले? ते कहे . पणसयतेवीसेहिं के पांचवें त्रेवीश योजन अने साहियतिकलाहिं के साधिक एटले काफेरीत्रण कला त्यहांलगे पर्वत उपर चाले. ते केम ? सवा ब.योजन नदीनुं मुख ते, पर्वतनो जे विस्तार एक सहस्त्र अने बावन योजन, अने कला बार-तेमांहेथी काढीएं, तेवारे एक सहस्र श्रने तालीश योजन रहे. अने उपरना एक कोसनी पोणी पांचकला ते उपरनी बार कला मांदेथी काढीएं, तेवारे सवासात कला रहे. तेनुं श्र पांचसें त्रेवीश योजन अने शाढी 'त्रणकला जाफेरी लाने त्यहांलगी पर्वतना शिखर उपर नदी वहे. ॥ ४ ॥ निवड मगरमुदोवम ॥ वयरामय जिनिमयादि वयरतले ॥ नियगे निवाय कुंडे ॥ मुत्तावलि समप्पवाहेण ॥ ५ ॥ अर्थ- शिखरना बेडाथी मगरमुहोवम के मगरमचना मुखने उपमाये तेने आकारे, तथा वयरामय के वज्र रत्नमय एवी जे जिनियाहि के जीनी एनो जीन सरखो आकार , माटे जीनी कहीएं-परनाल ते मध्ये थश्ने वयरतले के वनमय ले तल जेहने विषे, एहवो जे नियगे निवायकुंके के नदीना पोतपोताने नामे जे निपात कुंड, एटले आप आपणे नामे जे निपातकुंड, तेने विषे मुत्तावली समप्प Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५३ लघुदेवसमासप्रकरण. आहेण के मोतीनी तूटेली सेर तेने सदृश प्रवाहे करी अविजिन्न धाराए करी निवडर के पडे. एटले गंगानदी ते गंगानिपात कुंमने विषे पडे बे, अने सिंधुनदी सिंधूनिपात कुंडने विषे पडे बे. एम नदीने नामे निपातकुंड जाणवा. ॥ ५० ॥ ॥ हवे जीनी वखाणे .॥ दददार विबरा ॥ विबर परमास नाग जड्डा ॥ जड्डत्ता चनगुण ॥ दीदा सव जिन्नी ॥५१॥ अर्थ- अहनां बारणानो विस्तार सवा ब योजन बे; तेम नदीप्रवाहमांहे जीजीनो विस्तार पण सवा न योजन बे. तेमाटे सरखो विस्तार . अने दहदार विराजे के अहनां बारणानो जे पहोलपणे विस्तार ते विबर के विस्तारना पलासजागजड्डा के० पचाशमे जागे जीनी जाडी बे. अने ते जड्डत्ता के जाडपणाथी चगुण के चोगुणी सत्वजिनी के सर्व जीनी दीहा के दीर्घ एटले लांबी जे. एम सर्व अहोनी जीनीनुं प्रमाण जाणवू. जेम बाहेरना बे पर्वतने विषे सवा उ योजन जीजी पहोली बे, अने मध्यना बे पर्वतनी जिजी पचीश योजन मांदेली दिशिनी जित्नी पहोली बे. अने बाहेरनी दिशिनी जीनी साढाबार योजन प्रमाणे बे, अने अन्यंतर गिरीनी जीजी महाविदेह देत्रमांहेली पचाश योजन प्रमाणे . अने बाहेरनी जे जीनी डे ते पचीश योजन प्रमाण पहोली बे. ए सर्व जीजीउनु जाडपणुं बे; ते पोतपोताना विस्तारने पचाशमे नागे जाडी बे. अने जाडपणाथी चोगणुं लांबपणुं बे. ॥५१॥ ॥ हवे ते कुंड वच्चे जे छीप तेनुं प्रमाण कहे .॥ कुंडंतो अडजोयण ॥ पिहलो जलनवरि कोस उग मुच्चो ॥ वेश् जु नश् देवी ॥ दीवो दददेवि सम लवणो ॥५॥ अर्थ-कुंडतो के कुंडवच्चे श्रमजोयण के आठ योजन पिहुलो के. पोहलो पाणी बे.अने जलोवरि के० ते पाणी उपर कोसफुगमुच्चो के बे कोस ऊंचो, अने वेश्जु के० वेदिकायुक्त एटले वेदिकाए सहित एवो जे नश्देवीदीवो के नदीनी देवीने वसवानो छीप; पण ते हीप केवो ? दहदेविसमजवणो के० प्रहनी जे श्री, लक्ष्मी प्रमुख देवी तेहनां सरखां ने जवन जे छीपनेविषे एवो बे.. ॥ ५५ ॥ ॥ हवे कुंमोनुं प्रमाण कहे . ॥ जोयण सहि पित्ता॥ सवाय बप्पिदुख वेइति ज्वारा ॥ एए दसुंड कुंडा ॥ एवं अन्नेवि नवरंते ॥ ५३॥ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रए लघुक्षेत्रसमासप्रकरण. ' अर्थ-जोयणसहिपिटुत्ता के ते कुंड साठ योजन पहोला . वली केवा जे? सवाय प्पिहुलवेशतिवारा के० सवा ब योजन पहोलां वेदिकानां त्रण बारणां डे जे कुंमने विषे. एएकुंमा के ए पहेला कह्या जे कुंड ते दसुंड के दश योजन उंडा जे. एवं के० ए प्रकारे अन्नेवि के बीजा पण कुंड डे. पण ते के तेहनु नवरं के एटबुं विशेष ले ते कहे . ॥ ५३॥ एसिं विचर तिगं ॥ पमुच्च समज्गुण चगुण गुणा ॥ - चनसहि सोल चउदो॥ कुंडा सवेवि इद नवई ॥५४॥ अर्थ- एसिंविधारतिगं के० ए कुंडना त्रण विस्तार पमुच्च के श्राश्रीने ते त्रण विस्तार किया ? कुंमनुं पहोलपणुं श्रने छीपनुं पहोलपणुं तथा वेदिकानुं पहोलपणुं ए त्रण विस्तार ते महाविदेह क्षेत्रमा बत्रीश विजयनी नदीना जे चासठ कुंड, तेमांहे जे छीप-तेहनी वेदीका, तेहनो विस्तार ते सम के नरत अने ऐरवतना कुं. म सरखो . ते केम? विदेहना विजयमांहे चसहि के जे चोस कुंड डे, ते साठ योजन पहोला . ते मध्ये छीपाठ योजन , त्यहां वेदिकानां बारणांनो विस्तार सवाब योजन जाणवो. अने हेमवंत देवनी बे नदी, ऐरण्यवत क्षेत्रनी बे नदी, वली बत्रीश विजयनी बार अंतर नदी-एम सोल नदीना जे सोल के सोल कुंड, तेहना द्विप, तेहनां वेदिका घार, तेहनो विस्तार पहेलानाथी उगुण के बमणो जाएवो. ते केम ? तो के-पहेला कुंमनो विस्तार साठ योजन बे, तेने बमणा करीएं तो एकसो वीश योजन थाय; तो ए सोल नदीना कुंड एकसो वीस योजन पहोला बे, पहेलाना हीपाठ योजन पहोला बे, ते बमणा करतां सोल थाय तो ते कुंमनाहीप सोल योजन पहोला . अने वेदिका घारनो विस्तार पहेलां सवा न योजन कह्यो बे, तेथी बमणो करिएं तेवारे साढाबार योजन थाय, तो सोल कुं मना द्विपनी वेदीकाना बारणानो विस्तार पण साढाबार योजन . वली हरिवर्षदेत्रनी बे नदी अने रम्यक्नी बे नदी-ए चार नदीना चल के चार कुंड, तेहना त्रण विस्तार पमुच्च के आश्रीने चउगुण के चोगुणो जाणवो.ते केम?ता के पहेला कुंड साठ योजन पहाला , तो साउने चोगुणा करतां बसें चालीश योजन ए कुंडनो विस्तार .श्रावने चोगणा करतांबत्रीश योजन छीपनो विस्तार . सवाउने चोगुणा करतां पचीश योजन एटलो वेदिका हारनो विस्तार बे. तथा महाविदेहनी बे नदीना दो के बे कुंड, तेहना त्रण विस्तारने पमुच्च के श्राश्रीने आग्गुणो जाणवो. ते कहे . पहेला कुंमनो विस्तार साठ योजन , ते साउने जेवारे श्रावगुणा करीएं तेवारे चार एसी योजन कुंमनो Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुक्षेत्रसमासप्रकरण. २ए विस्तार थाय. पहेलाना छीपनो विस्तार श्राप योजन, तेने गुणा करतां चोसठ थाय. तो महाविदेहना कुंगमाहे छीप चोसठ योजनना जे. वेदिकानां धार सवाल योजन , तेने श्राग्वार गुणतां पचाश थाय; तो विदेहना कुंमनी वेदिकानां बारणां पचाश योजन पहोला बे, सवेवि के० एम सर्व एका गणीएं तो इह के था जंबुछीपमाहे नव के नेवु कुंमा के कुंड थाय. ॥ ५४॥ ॥ हवे बे गाथाएं करी, बाहेरनी जे चार नदी बे, तेमनी गति कहे .॥ एयंच नश् चनकं ॥ कुंडा बहिवार परिवूढं ॥ सगसहसनइ समेयं ॥ वेयढ गिरिप्प निंदेई ॥ ५५॥ अर्थ- एयंच नश् चउकं के ए चार नदी जे गंगा, सिंधू, रक्ता, अने रक्तवती ते कुंडा के पोतपोताना निपातकुंडथी बहिवार परिवूढं के बाहेरना जरत श्रने ऐरवतने सन्मुख बारणे नीकले. ते केम? तो के-गंगा अने सिंधु ए बे दक्षिणने बारणे नरत सामी नीकले बे, अने रक्ता तथा रक्तवती ए बे उत्तरने बारणे उत्तरना ऐरवत दिशि नीकले बे, पण ते चार नदी केवीले ? सगसहसनसमेयं के सात सहस्त्र सामान्य नदीए सहित जे. एटले गंगाप्रमुख नदी कुंडथी जेवारे वैताढ्य लगीश्रावे, तेवारे तेमने सात सहस्र नदी मले .तेमाटे एवी नदीउना परिवारवाली थर थकी वेयढगिरिप्पनिंदेई के वैताढ्य पर्वतने पण नेदे बे. अर्थात् वैताढ्यनी वच्चे थश्ने नीकले . ॥ ५५ ॥ तत्तो बाहिर खित्त, ६ मा वल पुत्व अवर मुदं ॥ नइ सत्त सहस सदियं ॥ जगइ तलेणंउददि मे॥५६॥ अर्थ- तत्तो के० ते वैताढ्य पर्वत नेदीने नीकल्या पली बाहिर खित्तम के० बाहेरना जे देत्र नरत तथा ऐरवत तेमना अर्धनागना मजा के वचमांथी पुवयवरमुहं के पूर्व दिशि अने पश्चिम दिशि समुफ सन्मुख वलर के वले. जरतक्षेत्र माहे गंगानदी पूर्व दिशाए जाय, श्रने सिंधुनदी पश्चिम दिशिएं जाय. तथा ऐरवत मांहे रक्तानदी पूर्वदिशिएं जाय, अने रक्तवती नदी पश्चिम दिशिएं जाय. पण ते चार नदी केवी ? वैताढ्य पर्वतने नेदीने नीकल्या पली वली नसत्तसहससहियं के बीजी जे सात सहस्र नदी, तेउएं करी सहित जे. एटले चौदसहस्त्र नदीने परिवारे परवरी थकी जेम वैताढ्यने नेदी नीकली ले तेनीपरे जगश्तलेणं के जगतीने पण नेदीने उदहिमेश के० समुअमाहे जाय . ॥ ५६ ॥ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६ लघुदेवसमासप्रकरण. ॥ हवे एक गाथाए करी नदीनो विस्तार तथा ठंडपणुं कहे . ॥ धुरि कुंम ज्वार समा॥पऊते दस गुणाय पिहुलत्ते ॥ सबब महनईॐ॥ विबर परमाउँनागुंडा ॥ ५॥ अर्थ- सर्व नदी जे जे, ते धुरि के० पहेला नीकलतां कुंवारसमा के कुंडनाहार सरखो जेमनो विस्तार दे एवी. अने पळते के बेडे एटले अंतने विषे प्रथमना विस्तारथी दसगुणायपिहुलत्ते के दशगुणी विस्तारपणे . ते केम? तो के-जरत तथा ऐरवतनी चार नदी बे, ते प्रथम सवाल योजन विस्तार , तेने दशगुणु करतां साढीबास योजन थाय.तो बेडे एटले समुज्माहे जले तेवारे साढीबासठ योजन थाय; तथा बत्रीश विजयनी नदी चोस .तेहनो पण एज आदिशंतनो विस्तार . तेहना जे चोस कुंड बे, ते बाहेरना कुंमसरखा बे; तेमाटे सरखो विस्तार कह्यो. वली हेमवंत तथा एरण्यवंतनी चार नदी, अने विजयनी बार अंतरनदी; एवं सोल नदीनो श्रादिविस्तार साढाबार योजन . तेने दशगुणो करतां एकसो पचीश योजन थाय; तो बेड़े एकसो पचीश योजननो विस्तार जाणवो. वली हरिवर्ष तथा रम्यक्षेत्रमांहे जे चार नदी ले तेहनो विस्तार पचीश योजन धुरे ले. तेने दशगुणुं करीएं तो बसें पचाश थाय; तो ते चार नदी ले ते अंतने विष बसें पचाश योजन विस्तारपणे बे. श्रने विदेहक्षेत्रे जे बे नदी बे, तेहनो प्रथम विस्तार, पचाश योजननो बे, ते दशगुणुं करतां पांचसे योजन थाय; तो बेडे पांचसे योजन तेनदी पहोली जाणवी. सबब केसघले जे महन के महानदी एटले मोटी नदी , ते विबर पलासनायुमा के० विस्ता. रथी पचासमे नागे उंडी जे. जेम गंगानदीनो आदि विस्तार सवा उ योजन , तेने पचाशे जाग देतां योजननो आठमो जाग श्रावे, तो प्रथम नीकलतां योजनने आपमे जागे उमी , अने बेडे साढी बासठ योजन विस्तार बे, तेने पचाशे नाग देतां सवा योजन श्रावे, तेमाटे लेने सवा योजन जमी नदी जाणवी. एम समस्त नदी बे. ए नरत तथा ऐरवत क्षेत्रनी नदीनी गती कही. ॥२७॥ ॥हवे पांच क्षेत्रनी नदीनी गति कहे बे. ॥ - पण खित्त महनई ॥ सदार दिसि दह विसु गिरि अ६॥ गंतूण सजिग्नीहिं । नियनिय कुंडेसु निवडंति ॥ ॥ ५ ॥ अर्थ- पण खित्तमहन के पांच क्षेत्रनी जे महानदी ले ते सदारदिसिदहविसुखगिरिश्रद्धं के पोतपोताना बारणानी दिशि जहनो जे विस्तार ,ते काढतांजे पर्वतना विस्तारनुं अर्ड थाय तेटला योजन नदी पर्वतना शिखर उपर वहे. ते केम? तो के-हेमवंत अने शिखरीनो विस्तार एक सहस्र बावन्न योजन अने बार कला . तेमाहेथी प्रहनो Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २एस लघुक्षेत्रसमासप्रकरण. विस्तार पांचसे योजन काढीएं तेवारे पांचसें बावन योजन अने बार कला रहे; तेनुं अर्ड बसें बहो तेर योजन अने उ कला थाय. तो पोताना अहधारना मुखथी शिखर उपर बसें बगेतेर योजन अने उ कला वहे . अने महाहिमवंत तथा रुक्मीने विषे चार नदी एक हजार बसें ने पांच योजन अने पांच कला पर्वतना शिखर उपर चाले. वली निषध तथा नीलवंत संबंधी चार नदी सात हजार चारसें एकवीश योजन ने एक कला पर्वतना शिखर उपर चाले. अहनो विस्तार पर्वतना विस्तारमाहेथी काढी अर्क करीएं तेवारे एवं पूर्वोक्त मान लाने; तेवार पबी पर्वतना विस्तार बेडे गंतूण के० जश्ने सजिनीहिं के स्व एटले पोतानी जीनी उपर थश्ने नियनियकुंडेसुनिवडंति के पोतपोताना निपातकुंमने विषे ते नदी पडे . ॥७॥ निय जिनिय पिहुखत्ता॥ पण वीसंसेण मुत्तमनगिरि ॥ जाममुदा पुबुदहिं ॥ श्यरा अवरोय दिमु विति ॥ एए॥ अर्थ-नियजिनियपिटुलत्ता के पोतपोतानी जीजीना पहोलपणाने पणवीसंसेण के० पचीशमे नागे मसगिरिमुत्त के मध्य गिरिजे वृत्त वैताढ्य तथा मेरुने मूकीने जाममुहा के जे नदीनुं मुख दक्षिणसामुंबे, पुवुदहिं के ते नदी पूर्व समुपदिशि वले. श्यरा के स्तर एटले जे नदी उत्तरमुख बे, ते अवरोयहिमुर्विति के पश्चिमसमुअदिशि क्ले. एटले हेमवंत तथा एरएयवंतनी नदी वृत वैताढ्यने बे कोस वेगलो मूकी पूर्व तथा पश्चिम दिशिएं वले. वली हरिवर्ष तथा रम्यकनी नदी चार कोश वृत वैताढ्यने वेगलो मूकीने पूर्वपश्चिम दिशिएं वले. तथा महाविदेहनी नदी मेरुपर्वतने आठ कोस वेगलो मूकी पूर्व पश्चिम दिशिएं वले. ॥ ५ ॥ देमवश रोदियंसा ॥ रोदीया गंगडगुण परीवारा ॥ एरमवय सुवम ॥ रुप्पकूलान ताणसमा ॥ १० ॥ अर्थ- हेमव के हेमवंत क्षेत्रमाहे रोहियंसा के रोहिताशा तथा रोहिया के रोहिता एवे नामे बे नदी , ते गंगफुगुणपरिवारा के गंगानदी करतां जेमनो बमणो परिवार जे. एटले अहावीश हजार नदीना परिवारे परिवरी एवी जाणवी. अने एरमवय के एरमवत देत्रमांहे सुवमरुप्पकुलाज के सुवर्णकुला अने रुप्पकुला एवे नामे बे नदी बे. ते ताणसमा के ते रोहितांशा सरखो जेमनो परिवार ने, एटले रोहितांशा नदीनी परे अहावीश हजार नदीए परिवरी ॥६॥ दरिवासे हरिकंता ॥ दरिसलिला गंगचनगुण नईआ ॥ एसिसमा रम्मवए । नरकंता नारिकंता य ॥६॥ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ୧୯୩ लघुक्षेत्र समासप्रकरण. अर्थ- हरिवासे के० हरिवर्ष क्षेत्रने विषे हरिकंता ने हरिसलिला नामे बे नदी बे. ते नदी व बे ? गंगच गुणनई के० गंगानदी थी चोगणो बे परिवार जेमनो एवीजे वे एटले बप्पन हजार नदीउए परिवरी बे, तथा एसीसमा के० ए पूर्वोक्त नदी सदृश रम्यए के० रम्यक्क्षेत्रने विषे नरकंता अने नारीकंता ए नामे बे नदी बे, तेपण एटलीज नदीए परिवरी बे, एटले बप्पन हजार नदीएं परिवरी बे. ॥ ६१ ॥ सीया सीया ॥ महा विदेहम्मित्तासु पत्तेयं ॥ निवड‍ पालक इत्ती, स सहस अडतीस नइ सलिलं ॥ ६२ ॥ अर्थ- सीया के० सीतोदा तथा सीयार्ड के० सीता ए बे नदी बे ते, महाविदेहम्म के० महाविदेह क्षेत्रने विषे बे. तासु के० ते सीतोदा ने सीता नदीनी मध्ये पत्तेयं के० प्रत्येके एटले एकेकी नदीमांदे पणलरक डुतीस सहस अमतीस नसलिलं के० पांच लाख बत्रीश हजार ने श्रामत्री नदी संबंधी जे पाणी बे, ते नीवss के० पडे बे. ॥ ६२ ॥ ॥ दवे सीतोदामांहे जे नदी जले बे ते कहे बे. ॥ कुरु नइ चुलसी सदसा | बच्चेवंतर नईन पइविजयं ॥ दो दो महा नई ॥ चन दस सहसान पत्तेयं ॥ ६३ ॥ अर्थ- कुरु के कुरुक्षेत्रने विषे चुलसी सहसा के० चोराशी हजार नदीउ बे. वली बच्चेवंतर नई के अंतर नदी बे. वली पइविजयं के० प्रतिविजये एटले एकेकी विजये दो दो महा नई के० गंगा, सिंधु प्रमुख बे बे महानदी बे, तो सोल विजमां वश महोटी नदी बे. ते पत्तेयं के प्रत्येक नदीनो परिवार चउदस सहसान के० चौद हजार नदीनो जावो. ते चौद हजारने बत्रीश विजये बत्रीशवार गुणतां चार लाख डतालीश हजार थाय. तेनीसाथे पाउली कुरुक्षेत्रादिकनी चोराशी हजार ने श्रामत्री नदी एकठी करीएं तेवारे पांच लाख बत्रीश हजार ने आमत्रीश नदी पाणी सीतोदा नदीमांदे जले वे सीतामांदे पण एटली नदीर्जनुं पाणी ज े. ते माटे बम करीएं तेवारे दश लाख चोसठ हजार ने बोतेर एटली नदीd महाविदेह क्षेत्रमांहे जाणवी. ॥ ६३ ॥ ॥ हवे जंबूद्वीपनी सर्व नदीनी संख्या कहे बे. ॥ डसयरि मदान || बारस अंतरनई सेसा ॥ परियर नई चन दस ॥ लका बप्पण सहसा य ॥ ६४ ॥ अर्थ- बत्री विजयनी चोसठ नदी, तथा सीतोदा ने सीता ए बे नदी तथा For Private Personal Use Only Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुक्षेत्र समासप्रकरण. १ गंगा प्रमुख बार नदी, ए सर्व एकठी करतां असयरी महान के० श्रोतेर महानदी एटले महोटी नदी जावी. अने बत्रीश विजयनी बारस अंतर नई to बार अंतर नदी ए मुलगी नदी बे. सेसाई के० बाकी बीजी परियर नइ के० परिवारनी नदी चउदस लरका बप्पन्न सहस्साय के० चौद लाख ने उप्पन्न हजार जावी. इति गाथार्थ ॥ ६४ ॥ ॥ हवे व कुल गिरिना कूट एटले शिखर तेमना संबंधी विचार कहे बे. በ एगारड नवकूडा ॥ कुलगिरि जुयल त्तिगे वि पत्तेयं ॥ इय बप्पा च चन ॥ वरकारेसुत्ति चनसठी ॥ ६५ ॥ अर्थ - कुल गिरिजुयल त्तिगे के० कुल गिरिना त्रण युगलने विषे एगारमनवकूडा के० अगीयार, आठ, नव एम अनुक्रमे कूट जाणवा. ते केम ? हिमवंत ने शिखरीपर्वतने विषे एकेक पर्वते श्रगीयार कूट बे, तथा महाहिमवंत ने रुक्मी पर्वतने विषे एकेक पर्वते या या कूट बे. निषेध तथा निलवंतने विषे एकेक पर्वते नव नव कूट बे. हवे ते कूटनां अनुक्रमे नाम लखे बे. प्रथम हिमवंतना श्रगीयार छूट बे ते, पूर्व दिशि, श्री धुरे मांगी जाणवा. पूर्व दिशिए पहेलो सिद्धकूट, हिमवंतकूट, जरतकूट, इलादेवी कूटगंगावर्त्तनकूट, श्रीकूट, रोहितांशाकूट, सिद्धावर्त्तनकूट, सुरादेवीकूट, हैमवंत कूट, अने वैश्रकूट - हवे शिखरीना अगी यार कूट बे ते पण पूर्वदिशिएं - प्रथम सिद्धकूट, शिखरीकूट, ऐरएयवंतकूट, सुवर्णकूला कूट, श्रीदेवीकूट, रक्तावर्त्तनकूट, लक्ष्मी कूट, रक्तवत्यावर्त्तनकूट, गंधावतीकूट, ऐरवतकूट, अने तिगिकूिट - ए अगी धार कूट शिखरी पर्वतने विषे बे. - हवे महाहिमवंतना या कूट कहे बे. पूर्वदिशिएं पहेलो सिद्धकूट, महाहिमवंतकूट, हेमवंतकूट, रोहितांशकूट, ह्रीकूट, हरिकांताकूट, हरीवर्षकूट अने बैडर्यकूट, ए आठ कूट महाहिमवंतना जाणवा. हवे रुक्मीना आठ कूट कहे बे. प्रथम पूर्व दिशिएं सिद्धकूट, रुक्मीकूट, रम्यकूकूट, नरकांता कूट, बुद्धिकूट, रुप्पकुलाकूट, ऐरण्यवतकूट, मणिकांचनकूट, - ए आठ कूट रुक्मी पर्वत उपर बे. हवे निषधना नव कूट a. प्रथम पूर्वदिशिए सिद्धकूट, निषधकूट, हरिवर्षकूट, पूर्वविदेहकूट, डीकूट, धृति कूट, सीतोदाकूट, अपरविदेहकूट, अने रुचककूट, ए निषध पर्वतना नव कूट जावा. हवे नीलवंतना नव कूट कहे बे. प्रथम पूर्वदिशिएं सिद्धकूट, नीलवंतकूट, पूर्वविदेहकूट, सीताकूट, कीर्तिकूट, नारीकांतकूट, अपर विदेहूकूट, रम्यक्कूट, अने उपदर्शनकूट, ए नीलवंत पर्वतना नव कूट जाणवा. ए बकुल गिरिना सर्व मली बप्पन कूट तेनां नाम कह्यां ते जाणवा. घटचउवरकारेसुत्ति के० सोल वक्षस्कार पर्वतने विषे एकेके वक्षस्कारे चार चार कूट बे. तो सोलने चारे गुणतां चोसठ कूट याय; For Private Personal Use Only Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुदेवसमासप्रकरण. तेमाटे सोल वृक्षस्कारना चोसह कूट जाणवा. तेहनां नाम-बे पासे बेबे विजयने नामे बे कूट, त्रीजो वक्षस्कारकूट, चोथो महानदीनी दिशिए सिझकूट, ए चार नामे सोल वृक्षस्कारना चोसह कूट जाणवा.॥६५॥ सोमणसि गंधमायणि ॥ सग सग विझुपनिमालवंति पुणो॥ अहह सयलतीसं ॥ अड नंदणि अ करिकूडा ॥६६॥ अर्थ-सोमणसिगंधमायणि के सोमनस अने गंधमादन ए नामे जे गजदंतगिरि तेमने विषे सगसग के सात सात कूट जे. तेहनां नाम कहे . पहेला मेरुनी दि. शीथी सिझकूट, तेवारपडी निषधपर्वतनी सन्मुख सोमणसकूट, मंगलावतीकूट, देवकुरुकूट, विमलकूट, कांचनकूट, अने विशिष्टकूट. ए सात कूट सोमनस उपर बे. तथा गंधमादन नामे गजदंत गिरिने विषे जे सात कूट ले ते कहे बेः-मेरुदिशिए सिडकूट, तेवार पडी अनुक्रमे नीलवंत सन्मुख गंधमादनकूट, गंधकूट, उत्तराकूट, स्फाटिककूट, लोहिताकूट, अने आनंदकूट. ए सात कूट गंधमादन उपरे . पुणो के वली विझुपनिमालवंति के विद्युत्प्रन तथा मालवंत ए बे गजदंतगिरिने विषे अहह के० आठ आठ कूट बे. ते मध्ये जे प्रमथ विद्युत्प्रन ले तेहना आठ कूटनां नाम कहे जे. मेरुदिशिएं सिझकूट, त्यारपठी अनुक्रमे निषध सन्मुख विद्युत्प्रनकूट, देवकुरुकूट, ब्रह्मकूट, कनककूट, खस्तिककूट, सीतोदाकूट, अने खयंजलकूट, अहींयां नवमो हरिकूट ,ते सहस्रांककूटमांहे गणशे.अहींयां तो श्राउ गण्या जे. बीजो मालवंत गजदंतगिरि नेविषे बाउ कूट , तेहनां नाम कहे . मेरुदिशिएं सिझकूट, त्यारपबी अनुक्रमे नीलवंत पर्वत सन्मुख मालवंतकूट बे, उत्तरकुरुकूट, कछकूट, सागरकूट, रजतकू. ट, सीताकूट, अने पूर्णनजकूट. अहींयां पण नवमो हरिसहकूट बे; ते सहस्रांकमां गणशे. 'ए प्रमाणे गजदंतगिरि चार, तेमना सयल के सर्व मलीने तीसं के० त्रीश कूट बे. अने बे अधिक वे ते सहस्रांकमां गणशे. तथा नंदणि के० नंदनवननेविषे श्रम के आठ कूट बे. ते ईशाण कोणना प्रासाद बने पूर्व दिशिना जिननवन वच्चे बे. तेहनां नाम कहे बे. नंदनकूट, त्यांथी दक्षिणावर्त्त फरतां मंदरकूट, निषधकूट, हैमवंतकूट, रजतकूट, रुचककूट, सागरचित्रकूट, अने वज्रकूट. अहींयां पण नवमुं ईशानकोंणे बलकूट जे, ते सहस्रांकमांहे गणशे. अने अधकरिकूमा केरा मेरुपर्वतनी पासे समजूतल उपर जे जशाल वन डे, त्यां सीता नदीनी उत्तरदिशिने कांठे प्रथमा पद्मोत्तर कूट, त्यांथी दक्षिणावर्त्त फरतां नीलवंतकूट, सुहस्तिकूट, अंजनगिरिकूट, कुमुदकूट, पलासकूट, अवतंसकूट, अने रोचन गिरिकूट, ए आठ कूट हाथीने Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुदेवसमासप्रकरण. २०१ 3 श्राकारे बे; तेमाटे ए घाव करिकूट एवे नामे जाणवा. ॥ ६६ ॥ ॥ दवे ए कूट एटले शिखर - तेहनुं उंचपणुं ने स्वरूप कहे बे. ॥ इय पासउच्च बास, हि सन कुडा तेसु दीदर गिरीणं ॥ पुव नइमेरु दिसि त सिद्ध कूडेसु जिणनवणा ॥ ६७ ॥ अर्थ - श्य के० ए प्रकारे पणसउच्च के० पांच योजनना उंचा एहवा जे बासहिसकुड़ा के० एकसो बासठ कूट बे. तेसुदीहर गिरीणं के० तेमांदे जे दीर्घ एटले लांबा पर्वत जे बकुल गिरि तथा वदस्कार ने गजदंत गिरि-एहने विषे सिद्ध कूट क्यां बे? ते कहे . पुनमेरु दिसि त सिद्धकूडेसु के० व कुलगिरिना पूर्वदिशिना बेकाए जे सिद्धकूट बे, तथा वक्षस्कार पर्वतनेविषे नदी दिशिना बेडाए जे सिद्धकूट बे, गजदंत गिरिना जे मेरुदिशिना बेमाए सिद्धकूट बे तेहने उपरे जिजवणा के० जिनजवनो बे. एम जाणवुं ॥ ६७ ॥ ॥ हवे ते जिनजवनोनां मान कहे बे. ॥ ते सिरिगिहान दोसय ॥ गुणप्यमाणा तदेव तिडवारा ॥ नवरं अडवी सादिय ॥ सयगुण दारप्यमाणमिद ॥ ६८ ॥ - नो बे ते, सिरिगिहाउ के० श्री देवीना घरथी दोसय गुणप्पमाणा के बसें गुणां अधिकां लांबपणे, पहोलपणे, तथा उंचपणे जाणवतं. ते केम? तो के - श्रीदेवीनं घर एक कोश लांबुंबे, ते बसेंवार गुणतां पचाश योजन थाय; तो जिनजवनो पण पचाश योजन लांबां बे. श्रीदेवीनं घर अर्द्ध कोश पहोलुं बे. तेने बसें वार गुणतां पचीश योजन थाय तो जिनजवनो पण पचीश योजननां विस्तारवंत बे एटले पोलां बे. श्रीदेवीनं घर चौदसें चालीशं धनुष्य उंचुं बे तेने बसेंवार गुणीएं तेवारे बत्री योजन थाय, तो जिनजवनो बे ते पण छत्रीश योजन उंचां बे. तदेव के तेमज श्रीदेवीनां जवननी पेठे तिडवारा के० त्रण बारणे सहित बे. पण नवरं के० एटलुं विशेष बे जे घडवी साहिय के० श्रीदेवीना जवनना वारणाथी उंचपएं, पोलप ने बारणानो प्रवेश तेथी एकसोने अठावीस गणुं अधिक श्रीतीकरना जवनना बारणानुं प्रमाण बे, ते यंत्रथी जाणवुं. ॥ बीजा जे पांच सें योजनना उंचा कूट बे त्यां प्रासादनां मान कहे बे. ॥ • पणवीसं कोससयं ॥ समचरसविचमा डुगुणमुच्चा ॥ पासाया कुडेसु ॥ पणसयउच्चेसु सेसेसु ॥ ६० ॥ अर्थ- सेसेसुकूडे के सिद्धकूटविना शेष एटले बाकी जे कूट बे, तेहने विषे Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०३ लघुक्षेत्रसमासप्रकरण. पासाया के अधिष्ठायक देवताउने वसवानां प्रासाद एटले घर बे. पण ते कूट केवा बे? पणसयउच्चेसु के पांचसे योजन ऊंचां बे. ते कूटनेविषे प्रासाद केवां ? तो केपणवीसंकोससय के एकसो पचीश कोश समचरस के० समचरंस संस्थाने बे. एटले चारे तरफ सरखा मूलने विषे डे, विउमा के विस्तार जेनो. अने विस्तारथी उगुणमुच्चा के बमणां उंचां बे. एटले अढीसें कोस उंचां अने एकसो पचीश कोश पहोला . एवां देवतानां प्रासाद बे. ॥ ६ ॥ ॥ हवे सहस्रांक कूट कहे . ॥ बल दरिसद हरिकुडा ॥ नंदणवणि मालवंति विपने॥ ईसाणुत्तरदादिण, दिसासु सदसुच्च कणगमया ॥ ७० ॥ अर्थ-बल के बलकूट, तथा हरिसह के हरिसहकूट, हरिकूमा के हरिकूट. ए नामे त्रण कूट ले ते, अनुक्रमे नंदणवणि के० नंदनवननेविषेसाण के इशानकोण बे, त्यां बलकूट ले. अने हरिसहकूट ले ते मालवंति के मालवंतनामे जे गजदंतगिरि, तेहनेविषे उत्तर के उत्तरदिशिएं जाणवो. तथा हरिकूट जे ते विपिने के० विद्युत् प्रन नामे जे गजदंतगिरि तेने विषे दाहिणदिसासु के दक्षिण दिशाने विषे जाणवोपण ए त्रण कूट ले ते केवा बे? तो के-सहसुच्च के० हजार योजन ऊंचा बे. माटे एने सहस्रांक कहीएं. अने कणगमया के० सुवर्णमय जे. ॥ ७० ॥ ॥हवे वैताढ्यना कूट कहे . ॥ वेयढेसुवि नवनव ॥ कुडा पणवीस कोस उच्चाते ॥ सवे तिसय उडुत्तर ॥ एसुवि पुवंति जिणकुडा ॥ १ ॥ - अर्थ-वेयद्वेसुवि के जरत अने ऐरवतना जे बे वैताढ्य बे. अने वत्रीश विजयना वत्रीश वैताढ्य बे. एवं चोत्रीश दीर्घ वैताढ्यने विषे नवनव कूमा के० नवनव कूट जाणवा. ते सवे के ते सर्व कूटो जे जे ते, पणवीस कोसनच्चा के पचीश कोश उंचा बे. वली ते सर्व कूट एकठा गणतां तिसयबडुत्तर के त्रणसें ने थाय. एसुवि के० ए कूटोनेविषे पण जिणकूडा के जे जिनकूट , एटले सिद्धकूट बे, ते पुवंति के० पूर्वदिशिने बेडे बे. इति गाथार्थ. ॥१॥ ॥ हवे ते वैताढ्यना सिझकूट उपर जिनभवन, मान कहे . ॥ ताणूवरि चेहरा ॥ दददेवीलवणतुल्ल परिमाणा॥ सेसेसु य पासाया ॥ अझेगकोसं पिहुचते ॥ १२॥ अर्थ-ताणूवरी के० ते वैताढ्यना सिझकूट उपर जे चेहरा के० चैत्यग्रह एटले Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुदेवसमासप्रकरण. २०३ जिननवन जे; ते केवा जे? तो के-दहदेवीजवणतुबपरिमाणा के अहदेवी जे श्री तथा सदी प्रमुख-तेमनां जे जवन बे, ते सर ने परिमाण जेमनुं एवां जिननवन बे. सेसेसु के० वैताढ्यना बीजा सर्व कूट उपरे जे पासाया के देवतानां प्रासाद बे, ते केवां जे? अङ्ग्रेगकोसं पिहुच्चत्ते के अर्डकोश पहोला बे, अने एक कोश उंचां एहवां देवताउँनां नवन ने. इति गाथार्थ. ॥ ७ ॥ ॥ हवे ए सर्व कूटनो विस्तार कहे जे.॥ गिरिकरिकुडा उच्च, त्तणान सम अक्ष्मूलुवरि रुंदा॥ रयणमया नवरि विय, ह मङिमा ति त्ति कणगरुवा ॥ ३ ॥ अर्थ-गिरि के सर्व पर्वतोना कट अने करिडा के नशालना वननेविषे जे करी एटले हाथीने श्राकारे आठ कूट बे, ते कूट उच्चत्तणाज के उंचपणाएं सम के सरखा, मूल के मूलने विषे रुंदा के विस्तारे एटले पहोला . अर्थात् जेटला योजन ऊंचपणे जे तेटलाज योजन मूलने विषे पहोला बे. अने उच्चत्तणाज के ते उंचपणाथी अफ के अर्ड उवरि के उपर शिखरनेविषे रुंदा के विस्तारे बे. एटले पहोलपणे बे. ते केम ? जे कूट सहस्त्र योजन ऊंचां बे, ते मूलनेविषे सहस्त्र योजन पहोला . अने सहस्रनुं थर्ड पांचसे योजन उपर शिखरने विषे पहोला बे. वली जे कूट पांचसे योजन ऊंचां बे, ते मूलने विषे पांचसे योजन पहोलां बे. अने पांचर्से योजननु अई अढीसे योजन शिखर उपर पहोला . वली जे कूट पचीश कोश जंचां , ते मूलने विषे पचीश कोश पहोला .अने पचीशन अर्ज साढाबार कोश शिखर उपरे पहोलां . अने ए सर्व कूटनी चढतां उतरतांनी जे हानी वृद्धि ते जगतीनी पेठे कही , तेम जाणवी. वली ते कूट केवां ? रयणमया के० ते सर्व कूट रत्नमय बे. पण नवरि के० एटदुं विशेष बे के, जे वैताढ्यपर्वतोना नवनव कूट जे डे तेमांदे मजिमातित्ति के वचला त्रण त्रण कूट जे ले ते कणगरुवा के तपाव्या सुवर्णमय . अने सहस्रांक नामे जे त्रण कूट ले ते तो कनकमयी बे; एम प्रथमज कहेला . शति गाथार्थ ॥ ३ ॥ ॥ हवे जंबूवृदनी पीठिकाने विषेश्राप कूट ते तरुकूट कहेवाय जे ते कहे जे.॥ जंबूणयरययमया ॥ जगइसमा जंबुसामलीकूडा ॥ . अ तेसु दददे, वि गिदसमा चारुचेहरा ॥ ४॥ अर्थ-जंबू के जंबूवृक्ष अने सामली के शीमलानुं वृक्ष, तेहनेविषे जंबूणय के जंबूनद ते रक्तकनक अने रयय के० रुपुं तेहना कूट अनुक्रमे जाणवा. पण ते कूट Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ लघुक्षेत्रसमासप्रकरण. केवा ? तो के-जगश्समा के जगतीनी पेठे बार योजन मूले विस्तार अने चार योजन शिखर उपर विस्तार, तथा पाठ योजन ऊंचा जगती सरखा बे. तेसु के ते जंबु तथा शीमलाना कूटनेविषे दहदेविगिहसमा के जहनी देवीना जवन सरखां एटसे एक कोश सांबा, अने अर्ड कोश पहोला, तथा चौदसें चालीश धनुष्य उंचां, एवां प्रत्येके अहह के आठ आठ चारुचेहरा के० मनोहर चैत्य घर बे. एटले ते एकेकाकूट उपर आठ आठ जिननवन बे. इति गाथार्थ ॥ ४ ॥ ॥ हवे चोत्रीश रुषन कूट कहे जे. ॥ तेसिसमा रिसदकुडा॥ चनतीसं चुल्लकुंड जुयलंतो॥ जंबूण एसु तेसु य ॥ वेयढे सुत्व पासाया ॥५॥ अर्थ- तेसिसमा के० ते जंबू थने शीमलाना कूट सरखा चउतीसं रिसहकूमा के चोत्रीश षनकूट जंबू द्वीपमाहे डे. ते झषनकूट कोण स्थानके डे ? तो केचुल्लकुंमजुयलंतो-चुल के नाना एटले साठ योजनना जे पहोला कुंम बे, ते बे कुंक बच्चे बे, एटले गंगा सिंधु तथा रक्ता अने रक्तवती एहना बेल कुंभ वच्चे जरत तथा ऐरवत, तथा बत्रीश विजयमांहे मली चोत्रीश षन कूट ले. जंबूणएसु के जंबुनद जे रक्त सुवर्ण मयी एवां जे तेसु के० ते झषनकूट, तेमने विषे वेयवेसुव के वैताढ्य. ना कूटनी पेठे पासाया के० प्रासाद एटले देवनवन जाणवां; यहीं वैताट्य सरखां कह्यां माटे एक कोश उंचां अने अर्ड कोश पहोला जे एम जाणवू. ॥ ६ ॥ ॥ हवे सर्व कूटनी एकठी संख्या कहे जे. ॥ पंचसए पणवीसे ॥ कूडा सवेवि जंबुदीवंमि ॥ ते पत्तेयं वरवण, जुयादि वेदि परिकित्ता ॥ ६॥ अर्थ- पंचसएपणवीसे के पांचवें पचीश कूट सर्व मलीने जंबुदीवंमि के जंबुबीपने विषे बे. ते कूट केवा? तो के-पत्तेयं के प्रत्येके प्रत्येके वरवण जुयाहिं एटले प्रधान जेवण के वन तेणे करी जुयाहिं के सहित जे वेहि के वेदिका तेणे ए परिखित्ता के० विंटेला . ॥ इति गाथार्थ ॥ ६ ॥ ॥ हवे जंबूछीपमाहे जे कूट उपरे जिनजवन डे ते कूट कहे . ॥ बसयरि कुंडेसु तदा ॥चूलाचनवणतरूसु जिणनव णा ॥ नणिया जंबूदीवे ॥ सदेवया सेसगणेसु ॥ ७॥ अर्थ-जंबूदीवे के जंबूटीपने विषे उ कुलगिरिना ब कूट, चार गजदंताना चारकूट, सोल वृक्षस्कारना सोल कूट, चोत्रीश वैताढ्य पर्वतना चोत्रीश कूट, तथा जंबू Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुक्षेत्रसमासप्रकरण. २०५ वृक्ष ने शीमला वृना सोल ए जे बसयरिकूडेसु के० जे बोतेर कूट बे, तेमने विषे जिजवणा के० जिनजवन जलिया के० का बे. तहा के० तेमज चूला के० मेरु पवर्तनी चूलिकाने विषे तथा मेरुपर्वतना चडवण के चार वनने विषे तथा तरुसु के० जंबू तथा शीमलाना वृक्ष उपर, एटले स्थानके जिनजवन कह्यां बे. ए जिनजवनने विषे पांचसें धनुष्य प्रमाणे रत्नमय कूपन, चंद्रानन, वर्द्धमान ने वारिषेण ए चार नामे जिनप्रतिमा बे. सेसवगणेसु के० शेष बीजा कूटनेविषे जे बे स के० ते देवया के० देवतानां जवन जावां त्यां श्राप थापणे कूटने नामे देवतानां स्थानक बे ॥ ७७ ॥ ॥ दवे बीजा कूटोने विषे जिनजवननुं विसंवाद एटले बे किंवा नथी तेनो विचार कहे बे. ॥ करि कुड कुंड नदद ॥ कुरु कंच जमल सम वियह्ने जिणनवण विसंवार्ज ॥ जो तं जाणंति गीयता ॥ ७८ ॥ ॥ अर्थ - करिकूम के करिकूट तथा कुंड के० कुंड बे तेमां तथा नइ के० नदी ने दह के० द्रह तथा कुरु के० कुरुक्षेत्रने विषे जे कंचण के० बसें कंचनगिरि बे, तेहने विषे तथा सीतोदा ने सीताना हनी पासे जे जमग नामे चार पर्वत बे त्यां, तथा समविसु के० वृत वैताढ्य, एटलां स्थानकने विषे जिजवणविसंवार्ड के० जिनजवननो विसंवाद बे. एटले संदेह बे. जोतं जाणंति गीयता के० तेहना निश्चयनी वार्ता गीतार्थ ज्ञानवंत जाणे. ॥ इति गाथार्थ ॥ ७८ ॥ ॥ हवे चार गाथाए करी वैताढ्यनुं स्वरूप कहे . ॥ पुधावरजलहिंता || दसुच्च दसपिहुल मेहलचनका ॥ पणवीसुच्चापमा, सतीस दस जोयण पिहुत्ता ॥ ७९ ॥ अर्थ- पुवावरजलहिंता के० जंबुद्वीपने विषे जरत ऐरवतना जे बे दीर्घ वैताढ्य बे पूर्व समुद्र ने पश्चिम समुलगी दीर्घ एटले लांबा जाणवा. पण ते वैताढ्य केवा बे ? दसुच्च के० समभूतल थकी दश योजननी उंची अने दस पिहुल के० दश योजन पहोली एवी ने पासानी थइने मेहलचलका के चार मेखला बे जे वैताढ्य - विषे एटले एकेकी वैताढ्ये चार मेखला, ते दक्षण अने उत्तर एकेकी दिशाए बे बे मेखला बे. तथा ए वैताढ्य बे ते पणवी सुच्चा के० पचीश योजन उंचा बे. वली ते वैताढ्य केवा बे ? पचास, त्रीस ने दश, एटला योजन पहोला बे; एटले समभूतलयी मांगी दश योजन उंचे जइए त्यहांलगे पलास के० पचास योजन पहोलाइ ए प्रथम मेखला, त्यहांथी उपरे दश योजन उंचपणालगी ते वैताढ्य बे ते तीसजोयण पित्ता के० त्रीश योजन पहोलाइएं बीजी मेखला बे. त्यहां बीजी मेखला उपरथी पांच Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ लघुक्षेत्रसमासप्रकरण. योजन लगी दसजोयण पिंहुत्ता के० दश योजन पहोला बे. एटले उंचपणाना पचीश योजन पूर्ण यया ॥ ७ ॥ ईदि परिखित्ता ॥ संखयरपुर पन्नस हिंसेडिगा ॥ सदिसिंदलोगपालो | वनोगउवरिल्लमेहलया ॥ ८० ॥ अर्थ- वली वैताढ्य केवा बे ? पचाश, तथा त्रीश, तथा दश योजननो बे विस्तार जेमनो एवा वैताढ्यना बे पासाने विषे वेई हिंपरिखित्ता के० ब वेदिका तेणीएं सहित d. एटले प्रथम पासानी बे मेखलाने विषे वे बे वेदिका वे. छाने उपरनी जे बे मेखला , तेहने विषे एकेकी वेदिका बे. एम व वेदिका जाणवी. ते वली वैताढ्य केवा बे ? सखयरपुरपन्नस हिसे डुगा के० खेचर जे विद्याधर - तेना जे नगर पचाश अने सावनी एवी जे बे श्रणि, तेणीएं सहित बे. एटले दक्षिण दिशिए देशनी राजधानीए संहित पचास विद्याधरोना पुर एटले नगरनी श्रेणि बे, अने उत्तर दिशिएं पण देशनी राजधानीए सहित साठ विद्याधरना नगरनी श्रेणि बे. वली केवा बे ? सदिसिंदलोगपालोव जोग उवरिल मेहलया के० सदिसि एटले स्वदिशि ते पोतानी दिशिना इंद्रना जे लोकपाल एटले सौधर्मेंद्रना जे लोकपाल तेमने रमवा योग्य बे उपबेमेखला जे वैताढ्यने विषे एवा बे, एटले पहेली मेखलाए विद्याधर ने उपरनी बे मेखलाए लोकपाल बे. खंड विदिय जरदे, रखया डुडु गुरु गुहा य रुप्पम या ॥ दोदीदा वेया ॥ तदा पुतीसं च विजयेसु ॥ ८१ ॥ अर्थ- वली वैताढ्य केवा बे ? डुडुखंमविदिय जरहे वया के० बेबे खंड कस्या बे, भरत ने ऐरवतना जेणे. जरत ने ऐरवत वच्चे पंड्या माटे खंड कीधा बे. च के० वली केवा बे ? डुडुगुरुगुहा के० वे बे मोहोटी गुफा जेमने विषे बे. वली केवा बे ? रुपमया के० केवल रुपाना बे. एवा दोदीहा के० वे दीर्घ वेडा के० वैताढ्य बे. ते क्यों बे ? तो के-जरत तथा ऐरवत क्षेत्रमांहे बे. च के० वली तहा के० तेमज विजयेसु के० बत्रीश विजयने विषे डुतीसं के० बत्रीश वैताढ्य जाणवा ॥ ८१ ॥ नवरं विजयंता ॥ सखयर पणपन्नपुरडुसेलीया ॥ एवं खयर पुराई ॥ सग तीस सयाई चालाई ॥ ८२ ॥ अर्थ - नवरंते विजयंता के० ते बत्रीश विजयना बत्रीश वैताढ्यने विषे एटलुं विशेष जे, विजय विजय लगी बेका बे, पण समुद्र लगी बेडा नथी. वली केवा बे ? सखयरपणपन्नपुरडुसेणीया के० खेचर जे विद्याधर, तेना पंचावन नगरनी बे पासे जे For Private Personal Use Only Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुक्षेत्रसमासप्रकरण. ០៦ बे श्रेणि, तेणीएं सहित जे. एटले दक्षिण दिशाएं पंचावन नगर अने उत्तर दिशाएं पण पंचावन नगर ते देशनी राजधानी सहित जे. एवं के एणे प्रकारे खयरपुरा के विद्याधरनां नगर सर्व एकगं गणीएं तेवारे सगतीस सयाईचालाई के० त्रण सहस्त्र अने सातसें चालीश थाय. ति गाथार्थ ॥ २ ॥ ॥ ते चोत्रीश वैताढ्यने विषे बेबे गुफा जे तेहन स्वरूप कहे . ॥ गिरिविबर दीदा ॥ अडुच्च चउ पिहुपवेसदारा ॥ बारस पिहलाज अड, च्च यान वेयगुदा ॥७३॥ - अर्थ-वेयहागुहा के वैताढ्य पर्वतने विषे बेबे गुफा . ते गुफा केवी ? गिरि विवरदीहा के गिरि जे वैताढ्यपर्वत तेनुं जे विस्तार ले ते सरखी पचाश योजन दीर्घ एटले लांबी जे; वली ते गुफा केवी ? अमुच्च के श्राप योजन ऊंचा अने चलपिहु के चार योजन पहोला अने चार योजन पवेस के प्रवेश एवा दक्षण अने उत्तरने सन्मुख दारा के बे बारणां तेणे करी सहित जे. वली गुफाउं केवी ? बारस पिहलाज के बार बार योजन मांहेली कोरे पहोली तथा अडुच्चयाज के पाठ योजन ऊंची एवी बेबे गुफा ते गंगा, सिंधु, रक्ता, अने रक्तवतीने विचाले जे चोत्रीश वैताढ्य तेने विषे जे. ॥ ३ ॥ ॥ ते गुफाने विचाले बे नदी ले ते वखाणे . ॥ तम्मजिज्जोयण अं, तरान ति ति विबरान उनई॥ जम्मग्ग निमग्गा ॥ कमगान महान गया ॥४॥ अर्थ- तम्मन पुजोयण अंतरा के ते गुफा लांबपणे पचास योजननी बे, ते गुफाना मन एटले विचेना उजोयण एटले पचीसमुं तथा वीसमुंए बे योजन- आंतरं जेबे नदी विचे एहवीबे नदी ले जे गुफाने विषे. वली ते बे नदी केहवी ? तिति के त्रणत्रण योजनने विस्तारे बे. वली केहवी ? उम्मग्गा निमग्गा एहवां के नाम जेमना. वली नदी केहवी ? कमगाउ के पर्वतमांदेला जे मोहोटा पाषाण तेमांथी निकलीने महानगया के महामोहोटीनदी जे गंगासिंधूप्रमुख ने तेमांहे गमन करनारी ॥ इह पइनित्तिंगुणव, नमंडले लिदइ चक्कि उसमुदे ॥ .. पण सय धणुहपमाणे बारेगडजोयणुजोए ॥ ५॥ ___ अर्थ-श्ह के ए गुफामांहे पश्नित्ति के प्रतिनितीएं एटले बन्ने बाजुनी जितने विषे चकि के चक्रवर्ति जे जे ते गुणवन्न मंमले के गणपचास मामलाप्रते लिहर के लिखे डे, पण ते मामला केहवा ने? कुछ समुहे के बेबे साहमा सूर्यमंडल सरखा Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० लघुक्षेत्र समासप्रकरण. काकीणि रतें करी अजुश्रालुं करवा माटे चक्रवर्त्तिएं कीधा बे वली मंडल केदवा ? तो पण सहपमाणे के० उत्सेद्धांगुले करी पांचसें धनुष्यनुं वे प्रमाण जेमनुं; वली मंडल केहवा बे ? तो के बारेगडजोय जोए के० बार योजन, एक योजन अने एटले आयोजन ए रीते अनुक्रमे प्रकाशना करनार बे; ते केमके प्रमाणांगुले करी गुफा बार योजन पोहोली बे, तथा एकेका मंगलना वचमां एकेक योजननुं तरुंबे, तथा मांडलाथी देठे तथा उपरे सर्व थइने गुफा आठ योजन उंची बे, तेमाटे पोहोलपणे बार योजन प्रकाश करे बे ने मंगलने यांतरे एकेक योजन प्रकाश करे बे, तथा वली उंचपणे या योजन प्रकाश करे बे एम जाणवुं. तथा बन्ने पासें योजनने यांतरे गोमूत्रिकाने आकारे मांमलां करतां एक जींतें चडवीश मंडल थाए, अने बीजी जींतें पचीश मंगल थाए, एम चक्रवर्ती बन्नेपासें मली ढंगपचास मंगल करे बे एम जंबुद्वीपपन्नत्ती मांडे वखाप्यो बे. केटलाक आचार्य एम कहे जे एके कि जीतें उगणपचाश मांगला करेबे तेवारे बन्ने बाजु एकठां गणतां वाणुं मंगल थाए ते विरुद्धार्थ देखाय बे ॥ ८५ ॥ ॥ हवे ते गुफानां नाम कहे बे. ॥ सा तिमिसगुदा जीए ॥ चक्की पविसेइ मऊखंमं तो ॥ जसदं अंकिय सो जी, ए वलइ सा खंडगपवाया ॥ ८६ ॥ अर्थ - सा के० ते सिंधूदी ने पासें तिमिसगुहा के तिमिस्रा नामे गुफा बे, ते जीए के० जे तमिस्रा गुफामांदे थने चक्की के० चक्रवर्त्ति जे बे ते दक्षणमध्यखंमथी मऊखंडतो के० उत्तरनरतना मध्यखं मांहे पविसेर के० प्रवेश करे बे, त्यां मध्यखंडने साधी पाठो वलतां सहं के० षनकूटप्रते अंकिय के० पोतानुं नाम लखिने जीए के० जे बीजी गंगानदीपासे गुफा बे तेनेविषे वलइ के० मध्यदक्षिण जरतमांहे पाठो वले एटले यावे, साखंडगपवाया के० ते खंडक प्रपाता नामे गुफा कहिएं ॥ ८६ ॥ ॥ दवे गुफा उघाडी रेहेवानी स्थिति कहे . ॥ कयमालनहमालय || सुरान वह निब-इसलिला ॥ जा चक्की ता चिइ ॥ ता उग्घडियदाराजे ॥ ८७ ॥ अर्थ - ते गुफा केहवी बे ? कयमालनहमालयसुराज के० कृतमाल अने नाट्यमाल बेधष्ठायक देवता रखवाला बे जेहनेविषे, एटले तमिस्रागुफानो रखवाला कृतमाल नामे देवता बे, छाने खंडकप्रपाता गुफानो रखवालो नाट्यमाल नामे देबता दे. वली ते गुफा केवी बे ? चक्रवर्त्तिनो जे वह के० सूत्रधार तेने निबद्ध For Private Personal Use Only Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुक्षेत्र समासप्रकरण. २०० to बांध्यो ठे, पांखनी रचनाएं करी सलिलाई के० पाणी जेमनो. वली ते गुफा के - हवी बे ? जाचक्की के० ज्यांसुधी चक्रवर्त्ति जीवे ता के० त्यांसुधी ता के० ते गुफाउं बे. ते जग्घमियदारा के० उघाडेला बे कमाम जेमना एहवी थकी चिडंति के० रहे बे. इति गाथार्थ ॥ ८१ ॥ || हवे दक्षिणनरतमांदे अयोध्यानगरीनो परिमाण कहे बे. ॥ बदिखंडतो बारस ॥ दीहानव विचडा अनऊपुरी ॥ सालवणावेयढा ॥ चजददि यसयं चिगारकला ॥ ८८ ॥ अर्थ- बहिखंडतो के दक्षिणार्द्ध जरतना मध्यखंडनी वचमां बारसदीदा के० बारयोजन दीर्घ एटले लांबी अने नवविवडा के० नव योजन पोहोली एहवी - पुरी केoयोध्या नामे पुरी एटले नगरी सा के० ते अयोध्यानगरी जे बे ते लवगावेया के लवणसमुद्र ने वैताढ्यथी चउदहियसयं चिगारकला के० एकसो चद योजन ने उपर अगर कलाने यांतरे जाणवी. ते केमके दक्षिणा - रतना मध्यखंनो विस्तार बसें खात्रीस योजनाने त्रण कला बे. ते मध्येथी - याध्यानगरीनो विस्तार नव योजन काढीएं तेवारे बसें ने उगणत्रीस योजन अने उपर कला त्रण रहे बे. तेहनुं अर्द्ध एकसो चउद योजन तथा एक योजन उगस्यो तेहनी जंगणीश कला करिएं तेनी साथे मूलगी त्रण कला जेलतां बावीश कला थाए तेइनुं अर्द्ध श्रगीचार कला थाय, एटले एकसो चौद योजन अने उपर अगीयार कला बे, तेटली लवणसमुद्र ने वैताढयने अंतरे अयोध्यानगरी वेगली जाणवी : इति गाथार्थ ॥ ८८ ॥ ॥ हवे मगधादि तीर्थ कहे बे. ॥ चक्विसनइपवेसे ॥ चिगं मागदो पन्नासो य ॥ तातो वरदामी ॥ इद सधे बिडुत्तर सयंति ॥ ८० ॥ अर्थ- चक्किवसनपवेसे के० चक्रवर्त्तिने वसवर्त्ति एवी क्षेत्रनी जे नदी एटले जरत, ऐरवत ने बत्रीश विजय एवं चक्रवर्त्तिनां चोत्रीस क्षेत्र बे. तेहनी जे गंगा, सिंधू, रक्ता छाने रक्तवती जे नदी बे, एहने समुद्रमांदे प्रवेश करतां तथा बत्रीश विजयने विषे सीतोदा नदी तथा सीता नदीमांहे प्रवेश करतां तिबडुगं के बे तीर्थ जावा. तीर्थ एटले जे स्थानकनेविषे नदी समुद्रमांदे तथा सीतोदा सीतामां प्रवेश करे ते स्थानक विशेष नदी सागर संगम उत्तम स्थानक कहीएं. ते तीर्थना नाम एक पूर्व दिशिएं मागहो के० मागध, बीजुं पश्चिम दिशिएं पासो के० प्रजास ए बेनाम तीर्थनां बे; ताणंतर के० ते मागध तथा प्रजास ए बे तीर्थना वचमां एक Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० लघुक्षेत्रसमासप्रकरण. वरदामो के० वरदाम एवे नामे तीर्थ . ए रीतेश्ह केल्या जंबुद्धीपनेविषेजे चोत्रीश क्षेत्र के तेमाहे एकेक क्षेत्रे त्रण त्रण तीर्थ गणतां सवे के सर्वे बिमुत्तरसयंति के एकसो ने बे तीर्थ थाय, माटे आ जंबूछीपनेविषे सर्व मलीने एकसो ने बे तीर्थ जाणवां. ॥ हवे जरत तथा ऐरवतमांहे कालचक्रनुं स्वरूप कहे . ॥ जरदेवए ब ब अर ॥ मयवसप्पिणि जसप्पिणीरूवं ॥ परिनम कालचकं ॥ ज्वालसारं सयावि कमा॥ ए० ॥ अर्थ- जरहेरवए के जरत तथा ऐरवत क्षेत्रमांहे बबरमयावसप्पिणीउसप्पिपीरूवं के बारे करी अवसर्पिणी अने आरे करी उत्सपिणी ते रूप वालसारंकालचकं के बार आरान कालचक्र . ते सयावि के सदाकाल अनादिअनंतपणे पण परिजमश्कमा के अनुक्रमे ब्रमण पामे .॥ ए॥ ॥ हवे ए बार थारानां नाम कहे . ॥ सुसमसुसमा य सुसमा ॥ सुसमउसमा य उसमसुसमा य ॥ उसमाय उसमसमा ॥ कमुक्कमा उसुवि अरबकं ॥ २ ॥ अर्थ- प्रथम आरो सुसमसुसमा के सुखम सुखमा, य के० वली बीजो थारो सुसमा के० सुखमा, त्रीजो श्रारो सुसमासमा के सुखमकुखमा, य के० वली चोथो आरो उसमसुसमा के० मुखमसुखमा, य के वली पांचमो थारो उसमा के उखमा, बगे यारो उसमसमा के पुखम मुखमा, ए अरबकं के० ए आरा बे ते अवसप्पिणिकालने विषे कम के अनुक्रमे एटले प्रथम सुखमसुखमाथी गणीएं, अने उत्सपिणी कालें जकमा के श्रवला एटले मुखमपुखमाथी धुरमांमी गणीएं, एम बार बारा चमता पमता जाणवा, चक्रनी पेठे फिरतां आवे माटे कालचक्र कहीएं. अवसप्पिणी ते घटतो काल होए अने उत्सप्पिणी ते चडतो काल होए. ॥ ए१॥ ॥ हवे सागरोपमनुं मान कहे . ॥ पुवुत्त पक्षिसमसय ॥ अणुगदणा निहिए दव पलि ॥ दसकोडिकोमि पलिए ॥ हिं सागरो होइ कालस्स ॥ ए॥ अर्थ-पुवुत्तपति के पूर्वोक्त पठ्य एटले प्रथम कडं जे असंख्यात रोम अणुए जस्यो जे योजन प्रमाणे पख्य तेमांथी समसय के सोसोवरसें अणुगहणानिहिए के एकेक सूक्ष्म खंग काढतां जेटले कालें ते पथ्य खाली थाए तेटले कालें पति के पथ्योपमनुं कालस्स के कालमान हव के० थाय. दस कोमिकोमि पलिएहिं के एहवा दस कोमाकोडि पत्योपमेकरी सागरोहोर के एक सागरोपम कालनुं मान Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुक्षेत्र समासप्रकरण. २११ थाय. सागर एटले समुद्र तेहनी पेठे जेनुं पार पामकुं दुर्लन होय तेणे करी सरखामाटे सागरोपम कहीएं. इति गाथार्थ ॥ २ ॥ ॥ हवे व रानुं प्रमाण कहे . ॥ सागरचति कोडा, कोडिमिए अरतिगे नराण कमा ॥ आऊ तिङग पलिया ॥ तिङइगकोसा तमुच्चत्तं ॥ ५३ ॥ अर्थ - सागरचति डुकोमाको मिमिए के पहेलो आरो चार कोडाकोमी सागरनो ने बीजो थारो त्रण कोडाकोडी सागर प्रमाणे बे, त्री जो आरो बे कोडाकोडी सागर प्रमाणे जाणवो; अरतिगे के० एत्रण खाराने विषे कमा के० अनुक्रमे करी नराण के० मनुष्योना या के० आयुष्य कहे. तिडुश्गपलिया के० प्रथम आरे त्रण पस्योपमनुं तथा बीजे रे वे पल्योपमनुं ने श्रीजे खारे एक पल्योपमनुं ए मनुष्यनुं आयुष्य जावं. हवे शरीरनुं मान कहे. तिडुगको सातणुच्चत्तं के० प्रथम आराने विषे त्र कोस उंचां मनुष्यनां शरीर होय, छाने बीजे खारे बे कोस, त्रीजे खरे एक कोश ए शरीरनुं उंचपणं जाणवुं ॥ ९३ ॥ ॥ हवे त्र याराने विषे श्राहारनुं प्रमाण कहे. ॥ तिङग दिदि तृच्प्ररि ॥ वयरामल मित्त मेसिमादारो ॥ पिठकरंडा दोसय || बप्पन्ना तद्दलं च दलं ॥ ए४ ॥ अर्थ - तिडुश्ग दिषे हितू रिवयरामल मित्तमे सिमाहारोएसि के० ए मनुष्योने आहारो के० जे हारनी इछा थाएबे ते कहेते. प्रथम धाराने विषे चोथे दिवसे तुर प्रमाणे आहारी वांछा थाय. अने बीजे धारे त्रीजे दिवसे बोर प्रमाणे श्रहारनी वांछा होए. तथा त्रीजे खारे एकांतरे आमला प्रमाणे आहारनी वांछा होए. हवे शरीरने विषे पांसलीनी संख्या कहेबे. प्रथम यारामा पिठकरंगा दोसय उपन्ना to बसें ने पन्न पिठकरंड एटले पांसली होए. अने बीजे श्ररे तद्दलं के० ते पूर्वोक पांसलीनुं श्र एटले एकसो ने हावीस पांसली होए. च के० तथा त्रीजे खरे दल ho ते पूर्वोक्तनुं अर्द्ध एटले चोसठ पांसलीनी संख्या जाणवी ॥ ४ ॥ ॥ हवे त्र खाराने विषे अपत्य पालना कहे . ॥ गुणवदि तद पनर || पन्नर दिया अवच्च पालणया ॥ प्रवि सयलजिया जुयला ॥ सुमणसरूवा सुरगईया ॥ ए५ ॥ अर्थ- गुणवदि के० प्रथम आरानेविषे युगलने प्रसव्या पढी उगणपचास दिवससुधी ते पञ्चपालण्या के० अपत्य एटले बोरु युगल तेहनी प्रतिपालना करे. Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुदेवसमासप्रकरण. तह के तथा प्रकारे बीजे आरे पनरपन्नरअहिया के पंदर पंदर दिवस अधिक प्रतिपालना जाणवी. ते आवी रीते के, बीजे बारे चोसठ दिवस अपत्यपालना होए, अने त्रीजे थारे जंगणाएंसी दिवससुधी अपत्यपालना जाणवी. तेवारपडी ते युगलनां मातपिता मरण पामे. ए त्रण भारानेविषे अवि के थपि इति निश्चये सयलजियाजुयला के समस्त पंचेंजी जीव ते युगलिया जाणवा. पण ते युगलिक केहवा ? तो केसुमणसरूवा के जलु डे मन जेमने एटले अस्प कषाय , तथा सरूवा एटले रूपवंत बे, तथा समचरंस संस्थान ने तेमाटे सुंदराकार बे. वली ते युगलिक केहवा ? तो के-सुरगश्या के देवताने विषे जे उपज जेमनुं, एटले युगलिया मनुष्य तथा तिर्यंच ते सर्व पोताना आयुष्यथी उजे आयुष्य प्रमाणे अथवा पोताना आयुष्य प्रमाणेज देवतामांहे जश् उपजे. ॥ ए५ ॥ ॥ हवे एत्रण श्राराने विषे युगलियाने कल्पवृक्ष जे ___ वांछित थापे ते बे गाथाएं कहे . ॥ तेसि मत्तंग लिंगा॥ तुमियंगा जो दीव चित्तंगा ॥ चित्तरसा मणियंगा ॥ गेहागारा अणिययरका ॥ए॥पाणं नायण पिबाण ॥ रविपद दीवपह कुसुम माहारो ॥नूसण गिद वासण ॥ कप्पडमा दसविदा दिति ॥ ए ॥ .. अर्थ- तेसि के० ते युगलियाने विषे मत्तंग प्रमुख दश जातिना कल्पवृक्ष बे; ते पानक प्रमुख दश प्रकारना वांछित पदार्थ आपे . ते श्रावीरीते-अहिंयां बे गाथानो अर्थ एकगे सांकलीने कहे - मत्तंग के मत्तंग नामे जे कल्पवृक्ष डे ते पाणं के प्राद खारेक प्रमुखना रस सरखा मीगरस आपे, यथा ॥ सरस सुगंध मनोहर विसिम्बल विरिय कंतिचयहेऊ॥ मत्तरसंगामेसुनपस विविहमजारसो ॥ इति. बीजो निंगा के नंगनामे जे कल्पवृक्ष ते जायणं के नाजन ते थाली तथा वाटली तथा चरु अने कलश प्रमुख आपे- यथा ॥ निंगालथालवय कच्चोलय वकमाणमाईणि ॥ कंचणरयणमया, जायंतियजायणंगेसु ॥ इति. त्रीजो तुडीयंगा के तुर्यांग नामे जे कल्पवृद ते पिछण के महावा जित्रसहित बत्रीस बझनाटक देखाडे बे. यथा ॥ सजलघणगुहिरकलरव, चउन्नेय विजत्तपवराउजं ॥ जुयलंमियनराणंतुडियंगनरापमाणंति ॥ चोथो जोश के ज्योतिरंग नामे जे कल्पवृक्ष ले ते रात्रिनेविषे पण रविपह के सूर्यनीपेरे प्रकाश करे बे. यथा ॥ जोईपुम्मणमुवरि ॥ ससिसूराजल वच्चमाणावि ॥ ताणपहावोपहया ॥ निययंचायं विमुंचंति ॥ तथा पांचमो दीव के० दीपांग नामे जे कल्पवृद ते घरनेविषे दीवपह के दीवानीपरे अजुयालु करे . Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ लघुदेवसमासप्रकरण. यथा ॥ ससिसूरस रिसतेया ॥ निचंचियजगजगंतिबहुविडवा ॥ विविहायदी वियंगा ॥ नासंति तमंधयारंति ॥१॥ तथा हो चित्तंगा के चित्रांग नामे जे कल्पवृकले ते कुसुम के पंचवर्ण अने सुगंधिक फूल सहस्रदल कमल माल प्रमुख आपे. यथा ॥ वर वजलतिलयचंपय ॥ यासोगपुन्नागनागमाईणं ॥ कुसुमाश्बहुविहा॥ कुसुमंगामप्पमाणंति ॥ तथा सातमो चित्तरसा के चित्ररसा नामे जे कल्पवृक्ष ते आहार कहिएं मनोवांछित मिष्टान्न षटस नोजन श्रापे. यथा ॥ अहसयखजागजु ॥ चउसहीतदयवंजण वियप्पो उप्पजाश्याहारो॥ नोयणरुरकेसुरसकलि ॥ तथा था. मो मणियंगा के मणितांग नामे जे कल्पवृक्ष बेते नूसणं के नूषण, तथा थानरण, मुकुट, मुडिका, हार, तथा कुंडल अने नेउर प्रमुख आपे. यथा ॥ वरहारकडयकुंडल ॥ मउडालंकारनेउराईणं ॥ निययं पिलूसणा॥ श्रानरणकुमेसुजायंति ॥ तथा नवमो गेहागारा के गेहाकार नामे जे कल्पवृक्ष लेते गिह के घर सप्तनूमिना, पंचनूमिना, तथा त्रिनूमिना मनोहर आवास थापे. यथा ॥ बहुरयण विनिम्माया ॥ लवणकुमाअनूमिया दिवा ॥ सयणासणसन्निहिया तेएणनिदाहरा विसरिसा ॥ तथा दसमो अणिययका के० अनितांग नामे जे कल्पवृक्ष ते वहा के लला वस्त्र तथा देवपुष्यचीर वरपटकूलादि श्रासन बेसवा योग्य तथा नजासन तथा शय्या प्रमुख श्रापे. यथा ॥ खोमउगवयवालय चीणीसुयपट्टमाश्श्रायंच ॥ वडाश्बहुमिहारं वलंगउमापणाणंति ॥ १० ॥ एयारिसेसुनोग ॥ उमेसुझुंजंतिजलमहुणाई॥ सवंगसुंदराई॥ बुढ्ढीनेहाणुरागाई॥११॥नयपछिवाननिच्चा।नयखुजानेयवामणापंगूनयमू याबहिरंधा नस्कियानेवदारिदा ॥ १५ ॥ समचरंससंगणा वलियपलिय विवङियायनीरोगा चउसहीलकणधरा मणुयादेवाश्वसुरूवा ॥ १३ ॥ ताणंचियमहिला वियसियवरकमलपत्तनयणा सवंगसुंदरी कोमलसिस वयणसोहार्ड ॥ १४ ॥ जुजंतिविसयसुकं जे पुरिसातबनोगनूमिसू कालं चिअश्यदीहं तंदाणफलं मुणेयवं ॥ १५ ॥ दसविहाकप्पपुमा के० ए दश जातिना जे कल्पवृद ते ए पूर्वोक्त वांवित दश पदार्थ युगलियाने पूरे . इति गाथार्थ. ॥ ए६ ॥ ए७ ॥ ॥ हवे सर्व श्राराने विषे सामान्यपणे तिर्यंचनां पण आयुष्य कहे .॥ मणुानसमगयाई॥ चयाइ चनरंस जाइ अहंसा ॥ गोम इसुट्टखराई॥ पणंस साणा दसमंसा ॥ एG ॥ अर्थ- मणुथाउसमगयाई के मनुष्यना आयुष्य सरखा गज, हाथी, सिंह ने अष्टापद प्रमुखना आयुष्य होए. अने मनुष्यना आयुष्यनो चउरंस के चोथो नाग Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ लघुदेवसमासप्रकरण. हया के घोमा अने वेसर प्रमुखनां श्रायुष्य जाणवां. तथा अजा के बागी श्रने गामर तथा सीयाल प्रमुखनु केटद्धं श्रायुष्य होए ? तो के-मनुष्यना आयुष्यनाथहंसा के बाग्मे नागे तेमनां आयुष्य जाणवां. गोमश्सुट्टखराश्के० गाय, नेंस, उंट अने गर्दन प्रमुख तेमनुं श्रायुष्य ते मनुष्यना आयुष्यनुं पणंस के पांचमे जागे जाणवू. तथा साणा के स्वान जे कूतरा प्रमुख तेना आयुष्य ते मनुष्यना श्रायुष्यने दसमंसा के दसमे नागे बे. इति गाथार्थ. ॥ ए॥ इच्चा तिरगण वि॥ पायं सवार एसु सारि ॥ तश्यारसेसि कुलगर ॥ नयजिणधम्माश्नप्पत्ती ॥ एए॥ अर्थ-श्चाइतिरछाणविपायं सवारएसु सारिखं के ए तिर्यंचनां आयुष्य प्रमुख प्राएं सर्व थारानेविषे ए प्रकारे सरखां होए. तथा तश्यारसेसकुलगरनय जिणधम्माइजप्पत्ती-हवे त्रीजा श्राराने अंते नवकुलकरनी नय एटले नीती ते राजनीति अने सर्व संसार व्यवहार तथा जिण धम्माश्के जिनधर्म आदि शब्दथी बादर अनिकाय तथा ज्ञान विज्ञान प्रमुख सर्वनी उत्पत्ति थाए. इति गाथार्थ. ॥ ए ॥ कालगे तिचनबा ॥ रगेसु एगणनवश्परकेसु ॥ सेसग एसुय सिजं॥ ति हुँति पढर्मतिमजिणिंदा ॥ १० ॥ अर्थ-कालगे के बे काल ते अवसर्पिणी तथा उत्सर्पिणीना तिचउबारगेसु के त्रीजा ने चोथा श्राराने विषे एगुणनवश्परकेसु के नेव्यासी पखवाडा पाडला श्रवसर्पिणी कालना जेवारे सेस के रहे तेवारे पढमंतिमजिणिंदा के पेहेला तथा अंतिम एटले चोवीसमा तीर्थकर जे जे ते सिशंति के सिछिपद पामे. अने उत्सपिणी कालना त्रीजा तथा चोथा श्राराना नेव्यासी पखवाडा जेवारे गएसु के जाए तेवारे पेहेला तथा बेला जे चोवीशमा तीर्थकर ते ढुंति के उपजे. ॥ १० ॥ ॥ हवे चोथा श्रारानुं स्वरूप कहे . ॥ बायाल सदस वरिसू॥णिगकोडाकोडि अयरमाणाए ॥ तुरिए नरानपुवा ॥ एकोडितणुकोसचनरंसं ॥ १०१ ॥ अर्थ-बायाल सहस वरिसूणिगकोडाकोडि अयरमाणाए के० बेतालीस सहस्र वरसें उणुं एक कोमाकोमि सागरोपमनुं प्रमाण जे जे श्राराने विषे एवो जे तुरिए के० चोथो थारो तेदने विषे नराज के मनुष्यनुं थायुष्य ले ते पुवाणकोडि के पूर्वकोमि वर्षनुं जाणवू अने तणु के शरीर, मान डे ते कोसचरंसं के कोसनो चोथो जाग एटले पांचसे धनुष्य प्रमाणे जाणवू. इति गाथार्थ ॥ १०१॥ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुक्षेत्रसमासप्रकरण. १५ ॥ हवे पांचमा श्रारानु स्वरूप कहे . ॥ वरिसेगवीससदस, प्पमाण पंचमरए सगकरुवा ॥ तीसहियसया उ नरा ॥ तयंतधम्माश्याएंतो ॥१०॥ अर्थ- वरिसेगविससहसप्पमाणपंचमरएके एकवीस सहस्र वरसनुं प्रमाण पांचमा श्रारानुं बे, ते पांचमा आराने विषे सगकरुच्चा के सात हाथ ऊंचा नरा के मनुष्य होय उ के तुपुनःतीसहियसया के त्रीसें अधिक सो एटलें एकसो ने त्रीस वरसनां श्रायुष्य मनुष्यनां होए तथा तयंतधम्माश्याएंतो के ते पांचमा थाराने अंते जिनधर्मादि पदार्थ- पण अंत एटले नाश थशे. व्यवहार, आचार, नीति, जाति सर्वनुं अंत श्रावशे, ए वात सिद्धांतमां कही जे. एटला बोल विछेद जशे ते कहे . यथा ॥ सुयसूरि संघधम्मो ॥ पुत्वन्हे निहिही अगणि सायं ॥ निव विमलवाहणो सुह, ममंति तझम्म मकण्हे ॥ १॥ उप्पसहो समणाणं फग्गुसिरि हो। साहुणिणंच सट्ठो नाश्व नामा सच्चसिरि सावियाणंच ॥२॥ पुवाए संजाए वोडेहोश्चरणधम्मस्स मान्नेरायाणं अवसरणे जायतेयस्स ॥ इति गाथार्थ. ॥ १० ॥ तेवारपडी शुं थशे ते कहे . ॥ खारग्गिविसाईहिं । दाहानूया कया पुदवीए ॥ खग बीयवियहाइस ॥ नाराश्वीयं बिलाईसु ॥ १०३ ॥ - अर्थ- खारम्गिविसाईहिं के लवणादिखार तथा अग्नी अने विष ते कालकूटादि तेनी वृष्टि तेणेकरी हाहानूयाकयाश्पुहवीए के पृथ्वि जे जे ते हाहाकार करशे, तथा खगबीय के० पदी जाति प्रमुखनां जे बीज डे ते वियद्वाश्सु के० वैताढ्य प्रमुख पर्वतने विषे रहेशे, तथा नराश्वीयं के मनुष्य तथा तिर्यंचनां बीज ते सर्व विलासु के बिलादि स्थाननेविषे रहेशे. इति गाथार्थ ॥ १०३ ॥ ॥हवे ते बिल वखाणे . ॥ बहुमउचकवदन ॥ चनक्कपासेसु नव नव बिलाइं॥ वेयहोनयपासे ॥ चनयालसयं बिलाणेवं ॥ १०४ ॥ अर्थ- वेयवोनयपासे के० वैताढ्यना बे पासाने विषे बहुमछचकवहनश्चउक्कपासेसु के० घणां ने माउला ज्यां वली चक्क केशकट जे गाउँ तेनुं चक्र तेदनी धारा सरखो डे वद के प्रवाह जेहनो एहवी जे गंगा अने सिंधू तथा रक्ता अने रक्तवती नामे जे न के नदी तेहना बे तटनेविषे नवनवबिलाई के नव नव बिल ते गुफासरखा जाणवा. एटले दक्षिणनरतमांहे बे नदीना तट चार . अने उत्तरजरतमांहे बे नदीना Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ लघुक्षेत्र समासप्रकरण. तट चार बे, ते सर्व मलीने श्राव तट बे, ते एकेक तटे नव नव बिल गणिएं, वारे बहुत्तर बिल याय. एम ऐरवतनेविषे पण बहुत्तर बिल बे, ते सर्व एकता करीएं तो जंबुद्वीपने विषे चन्यालसयं बिलाणेवं के० एकसो ने चुमालीस बिल जाणवा ॥ १०४ ॥ ॥ हवे बाराने विषे मनुष्यादिकनुं जे स्वरूप बे ते बे गाथाए करी कहे बे. ॥ पंचमसमबारे || करुच्चा वीसवरिस आउनरा ॥ मासि कुरूवा ॥ कूरा बिलवासि कुगइगमा ॥ १०५ ॥ अर्थ - पंचममा के० एकवीस सहस्र वरस प्रमाणे पांचमा धारा सरखो जे रोबे, तेहने विषे डुकरुचा के० वे हाथ उंचा शरीर अने वीसवरिस श्राउनरा के० वी वरस यायुष्य जेमनुं एहवा मनुष्य होए. पण ते मनुष्य केहवां होय ते कहे . मासिणो के मनो बे आहार जेमने तथा कुरुवा के० कुत्सित एटले मातुं बे, रूप जेमनुं एवा बे, वली केहवा बे ? कुरा के० निर्दय बे परिणाम जेमनां वली केहवा a. बिलवास के० बिलनेविषे रहेनारा बे. कुगइगमा के० नरक तिर्यचरूप दुर्गतिनेविषे गमन एटले जावुं बे जेमनुं, एवा बे. ॥ १०५ ॥ ॥ वली पण बघा याराना मनुष्यनुं स्वरूप कहे . ॥ निल्ला निव्वसा ॥ खरवयणा पियसुयाइ विइर दिया || थी वरिसगना ॥ अहिहप्पसवा बहुसुया य ॥ १०६ ॥ अर्थ - निल्ला के निर्लज एटले लकारहित बे, तथा निवसणा के० वस्त्ररहित बे, एटले पशुनीपेठे नग्न फिरे बे. तथा खरवयणा के० कठोरवचनना बोलनार बे. तथा पियसुयाइ विश्रहिया के० पितापुत्रनी जे स्थिति तेणेकरी रहित बे, एटले या पिता, ए पुत्र, ए स्त्री, एबहिन, इत्यादि व्यवहार नथी. एटले तिर्यंचनी पेरे विवेक रहित बे. तथा बाराने विषे श्री व रिसगना के स्त्री बे ते ब वरसनी गर्न धारण करे . पिसवा के० पण अतिदुःखे प्रसव करे बे. य के० वली ते स्त्री बे बहुसुया घात के० बोरु जेने एहवी स्त्रीयो बे. ॥ १०६ ॥ इय बक्के वस ॥ प्पिणित्ति उस्सप्पिणी विविवरीया ॥ वीसं सागर कोडा, कोमी कालचक्कंमि ॥ १०७ ॥ अर्थ - इयर के० ए पूर्वोक्त व यारा तेणे करी श्रवसप्पिणिनि के० अबसर्पिणी काल होए अने तेने विवरीया के० विपरित ते अवला गणीएं तेवारे उस्सrua ho उत्सर्पिणीकाल पण थाए. त्यां अवसर्पिणी ते प्रथम यारात्री घटतो काल होए ने उत्सर्पिणी ते प्रथम याराथी चढतो काल होए, माटे अवसर्पिणी For Private Personal Use Only Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वघुदेवसमासप्रकरण. २१७ तथा उत्सर्पिणीना बार आराना कालचकमि के कालचक्रनेविषे वीसंसागरकोमाकोमी के वीस कोमाकोडी सागरोपम थाए. इति गाथार्थ. ॥ १७ ॥ ॥हवे चार क्षेत्रनेविषे चार श्रारानुं सरखापणुं कहे .॥ कुरुगि दरिरम्मयगि ॥ देमवएरमवश्गि विदेहे ॥ कमसो सया वसप्पिणि ॥ अरयचउक्काइसमकालो॥१०॥ अर्थ- कुरुपुगि के देवकुरु तथा उत्तरकुरु ए बे देोत्रनेविषे तथा हरिरम्मयऽगि के हरिवर्ष तथा रम्यक ए बे देत्रनेविषे तथा हेमवएरमवश्ऽगि के हेमवत तथा एरण्यवत ए बे क्षेत्रने विषे तथा विदेहे के पूर्व विदेह श्रने पश्चिम विदेह क्षेत्रनेविषे ए चार क्षेत्रना युगलनेविषे कमसो के अनुक्रमें करी सया के सदाकाले अवसप्पिणीअरयचजकाइसमकालो के अवसप्पिणिकालना चार आरानो प्रथम काल जाणवो. ते केम? अवसप्पिणी कालनो पेहेलो आरो सुखमसुखमा तेहना धुरनो जेहवो काल होए तेहवो काल सदैव देवकुरु अने उत्तरकुरु ए बे कुरुक्षेत्रनेविषे होए. यथा ॥ दोसुविकुरुसुमणुश्रापबपरमाउणोतिकोसुच्चा ॥ पिठकरंमसयाई दोबप्पन्नाश्मणुयाणं ॥१॥ सुसमसुसमाणुनावं अणुनवमाणाणवञ्चगोवणया अजणापन्न दिणार अहमनत्तस्साहारो ॥२॥ एम बीजा थारानो जेहवो प्रथम काल होए तेहवो सदैव हरिवर्ष तथा रम्यक ए बे देोत्रनेविषे होए. यथा ॥ हरिवासरम्मएसु ॥ आउपमाणंसरीरमुस्सेहो पलिवमाणिन्निज उन्नीकोसुस्सियानणिया ॥३॥ बहस्सयाहारो चउसहिदिणाणुपालणातेसि पिछिकरंडाणसयं अहावीसयमुणेयवं ॥४॥वली त्रीजा थारानो जेहवो प्रथम काल होए तेहवो सदैव हेमवंत तथा एरण्यवतमांदे होए. यथा ॥ गाउयमुच्चापलिउवमाश्णो वारिसहसंघयणो हेमवएरमवए अहंमिहनरा मिषुणवासी ॥५॥ चउसहिपिंडयाणि मणुआणीतेसिमाहारो जत्तस्सयचउबस्सय अउणासिदिपाणवचपालण्या ॥६॥ तथा चोथा आरानो जेहवो प्रथम काल होए तेहवो महाविदेहक्षेत्रनेविषे सदा जाणवो. यथा ॥ पंचसुजरहेरवएसु तय विदेहेसु पंचदशसंखा॥ नणियाउकम्मनूमीसुतीसपुणजोगनूमीसु ॥ ७॥ हेमवयंह रिवासं उत्तरकुरुतहयदेवकुरुनामा रम्मयएरमवयं एयाउँनोगनूमी. ॥ १० ॥ ॥ हवे चार वैताढ्यनुं स्वरूप बे गाथाए करी कहे.॥ देमवएरमवए ॥ दरिवासे रम्मए य रयणमया ॥ सदा व वियडावश्॥गंधावश् मालवंतरका ॥१०ए॥चन ववियहा सा, इ अरुण पनम पत्नास सुरवासा ॥ मूलुवरि पिटुत्ते तद ॥ उच्चत्ते जोयणं सहसं॥१२॥ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुदेवसमासप्रकरण. अर्थ- हेमवएरमवए के हेमवंत अने ऐरण्यवत तथा हरिवासे के हरिवर्ष क्षेत्र य के वली रम्मए के० रम्यकदेत्र ए चार क्षेत्रनेविषे रयणमया के सर्वरत्नमय एदवा सदावर के शब्दापाती तथा वियडाव के विकटापाती अने गंधावर के गंधापाती तथा मालवंतका के मान्यवंत ए नामे चउवदृवियड्ढा के चार वृतवैताढ्य अनुक्रमे जाणवा. ए वृतवैताढ्य केहवा ? तो के-सा के स्वाति तथा अरुण के अरुण तथा पजम के० पद्म तथा प्रजास एहवा नामे देवताना आवास ने जेमनेविषे, एवा. तेमां शब्दापाति वैताढ्यने विषे स्वातिदेव वसे. तथा विकटापाती वैतात्यने विषे अरुणदेव अने गंधापाति वैताढ्यने विषे पद्मदेव तथा मालवंत वैताढ्यनेविषे प्रजासदेव वसेजे. एम अनुक्रमे जाणवा. हवे ए वृतवैताढ्यनो परिमाण कहे. मूलुवरि के० मूलनेविषे तथा उपर जे शिखर ले तेहनेविषे जोयणंसहसंपिहुत्ते के सहस्र योजन पहोला , तह के तथा प्रकारे उच्चत्ते के ऊंचपणे पण सहस्र योजन जाणवा. शति गाथार्थ. ॥ १०ए ॥ ११०॥ ॥ हवे जंबूछीपना मध्यनेविषे जे मेरुपर्वत ,ते मेरुनु स्वरूप कहे. ॥ मेरू वट्टो सदस्स ॥ कंदो खस्कूसि सदसनवरि ॥ दसगु णजुवि तं सनव॥ दसिगारंसं पिहुल मूले ॥ १११ ॥ अर्थ- मेरूवट्रो के मेरुपर्वत ते कनकमय वाटलो जाणवो. तथासहस्सकंदो के० सहल योजननो कंद एटले मूल सहस्र योजन पृथ्वीमांहे , तथा लस्कूसिड के लाख योजन ऊंचो बे. अहीं ए नावार्थ जे जे सहस्र योजननो कंद अने उपर नवाणु सहस्र योजन, उंचपणुं . एरीते कंदसहित लाख योजन उंचो बे. तथा सहसनवार के उपर एटले शिखरनेविषे सहस्र योजन पिहुल के विस्तीर्ण डे, तं के ते सहल योजनने दसगुण के० दशवार गुणतां दस सहस्र थाए, तो दस सहस्र यो. जन नुवि के पृथ्वीने विषे पिहल के०पोहोलो जे. वली मेरु केहवो? तंसनव के ते दससहस्त्र योजनने नेवुएं सहित करी उपरे दसिगारंसं के० योजनना अगीश्रार जाग करीए तेवा दस नाग एटले दससहस्र नेवु योजन अने उपर एक योजनना अगीयार नागमाहेला दसनाग एटलो मूलश्री हेगे कंदने विषे पोहोलो डे ॥ १११ ॥ ॥हवे मेरुना त्रण खंग एटले नाग तेहनुं स्वरूप कहे.॥ पुढवुवल वयर सकर ॥ मयकंदो जवरि जाव सोमणसं॥ फलिहंक रयय कंचण ॥ मय जंबूण सेसो॥१२॥ अर्थ- पुढवुवलवयरसकरमयकंदो केव पृथ्वी एटले माटी अने उपल एटले पाषाण तथा वयर के वज्ररत्न तथा सकर के कांकरा ए चार पदार्थनो मेरुनो कंद जाणवो. Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुक्षेत्र समासप्रकरण. २२० एटले एक सहस्र योजननो पहेलो जाग थयो. तथा उवरि के० पृथ्वी थकी उपर जावसोमणसं के० यावत् सोमनसनामा वन सुधी फसिहंक रयय कंचणमय के० स्फाटिक रत्न तथा रत्न तथा रूपं तथा कांचन एहनो मेरु बे ते त्रिसह सहस्र योजन प्रमाण बे, ए बीजो जाग जावो. सेसो के० शेष त्यांथी उपर बत्रीश सहस्र योजन जे बे ते जंबू के० जंबूनद एटले रक्तवर्णकनकनो त्रीजो जाग जावो. ए मेरुना जाग कह्या इति गाथार्थ ॥ ११२ ॥ तडवर चालीसुच्चा ॥ वा मूलुवरि बार चढ़ पिहुला || वेरुलिया वरचूला || सिरिजवण माण चेहरा ॥ ११३ ॥ अर्थ - तडुवरि के० ते लाख योजन प्रमाणना उंचा मेरुपर्वत उपरे चाली सुच्चा के० चालीस योजननी उंची अने वहा के० वर्तुल तथा मूलुवरिवारचन पिडुला के० मूख विषे बार योजन पोहोली अने उपर चार योजन पोहोली तथा वेरुलिया के० बैडुर्य नामे जे नीलारत्न तेनी वर के० प्रधान चूला के० चूलिका बे. ते वली चूलीका केवी बे? सिरिजवणपमाणचेश्हरा के० श्रीदेवींना जवन सरखा चैत्यग्रह एटले जिनजवन तेणेकरि महाशो जित इति गाथार्थ ॥ ११३ ॥ ॥ हवे मेरु उपरे चूलिकाना मूलने विषे पंमकवन वखाणे बे. ॥ चूलातलाई चडसय ॥ चणनए वलयरूव विकंनं ॥ बहुजल कुंड पंडग, वणं च सिदरे सवेईयं ॥ ११४ ॥ अर्थ- चूलातलाई के० चूली काना तलायकी सिहरे के० मेरु शिखरने विषे चडसयचजण एवलयरूव विरकंनं के० चारसें चोराएं योजन परिमाण वलयनुं विष्कंग है जेनुं, तथा बहुजलकुंडं के० घणुं वे पाणी जेहनेविषे एहवे कुंके करी सहित एह पंरुगवणं के० पंक नामे वन बे. वली ते वन केहवं बे ? तो के-सवेईयं के० वेदिकार करी सहित बे. इति गाथार्थ ॥ ११४ ॥ ॥ ते पंडक वनने विषे जिनजवननी छाने प्रासादनी स्थिति कहे बे. ॥ पन्नास जोयणेदिं ॥ चूलाई चउदिसासु जिणनवणा ॥ विदिसि सक्कीसा ॥ चनवाविजुया य पासाया ॥ ११५ ॥ अर्थ- चूलाई के० चूला थकी चउदिसासु के० चार दिशिने वीषे पन्नास जोयणेहिं के० पचास योजन, वेगला जिबनवणा के चार जिनजवन बे. तथा सविदिसिसकी सायं के० पोतपोतानी विदिसिने विषे सौधर्मेंद्र तथा ईशानेंद्र बे, तेमना पासाया के० प्रासाद बे. पण ते प्रासाद केहवा बे ? तो के-प्रत्येक प्रासाद चलवाविजुवा ho चार वावडिए युक्त एटले सहित बे ॥ ११५ ॥ For Private Personal Use Only Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० लघुक्षेत्रसमासप्रकरण. ॥ हवे ते जिनजवन तथा प्रासादनां प्रमाण कहे . ॥ कुलगिरिचेश्हराणं ॥ पासायाणं चिमे समठ गुणा ॥ पणवीस रुंद गुणा ॥यामाज इमान वावी ॥१२६॥ अर्थ- कुलगिरिचेश्हराणंसम के कुल गिरिना जिननवन सरखा पंडगवनमांदे चैत्य जाणवा, जेम कुलगिरिना चैत्य बे, ते पचास योजन लांबा अने पचीस योजन पहोला ने अने बत्रीस योजन ऊंचा ले तेम मेरुना पंगवनने विषे पण एहवा चैत्य जाणवा. च के वली श्मे पासाया के आ मेरुना प्रासाद जे जे ते श्रगुणा के कुल गिरिना प्रोसादथी श्रावगुणा मोहोटा जाणवा.ते केमके कुल गिरिना प्रासाद एकसो पचीस कोश समचउरंस लांबां पोहोलां , अने बसें ने पचास कोस उंचां बे. तो एकसो पचीस कोशने श्रावगुणा करिए तेवारे एक सहस्र कोश थाए, तेहना बसें ने पचास योजन थाय एटला ए लांबां पहोला . हवे उंचपणाना बसें ने पचास कोश बे तेहने बाउगुणा करिए तो वे सहस्र कोस थाए, तेहना योजन करिए तो पांचसें योजन थाय एटला उंचां ए प्रासाद जाणवा. एहवा चार प्रासाद विदिशिने विषेले. हवे वावमी वखाणे बे. पणवीस रुंदमुगुण के पचीस योजन पोहोली थने तेथी बमणी पचास योजन लांबी एहवी चार वावडी जाणवी. इशान कूणथी दक्षिणावर्त चार चार वावमीनां जे नाम ते कहे . पुंगा, पुंड्रप्रना, रक्ता श्रने रक्तवती ए चार वावमी बे, ते ईशान कूणे .अने दीररसा, श्कुरसा, अमृतरसा, अने वारुणीरसा ए चार वावडी ते अग्निकूणे जाणवी. तथा शंखोत्तरा, शंखा, शंखावर्ता अने बलादका ए चार वावडी नैत्य कूणे बे. तथा पुष्पोत्तरा, पुष्पवती, सुपुष्पा अने पुष्पमालिनी ए चार वावडी ते वायु कूणे जाणवी. ए सोल वावनीनां नाम जाणवां. ए विदिशिना चार प्रासादनी चोरे दिशे एकेकी वावमी . ए रीते सोल वावमीयो . ति गाथार्थ ॥ ११६ ॥ ॥ हवे जिनजवननी बाहेर जे चार शिला ले ते वखाणे . ॥ जिणहर बदिदिससि जोयण ॥ पणसय दीह पिहुल चन उच्चा ॥ अससिसमा चनरो॥ सियकणग सिला सवेश्या ॥११७ ॥ अर्थ-जिणहरबहिदिसिजोयणपणसयदीहरूपिहुल चनजच्चा के जिननवननी बाहेरनी दिशिने विषे पांचसे योजननी दीर्घ एटले लांबी अने अढीसें योजन पोहोली तथा चार योजन ऊंची अने अफस सिसमा के० अर्ब चंद्रमाने आकारे एवी चजरो के चार शिला . वली ते केहवी जे ? सियकणगसिला के खेत कनकनी शिला बे, तथा सवेश्या के मनोहर वेदिकासहित . ॥ ११७ ॥ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुक्षेत्रसमासप्रकरण. २२१ || हवे पूर्वोक्त जे शिला तेहने उपर जे सिंहासन वे तेहनुं प्रमाण कहे बे. ॥ सिलमाण्ड सहस्सं ॥ समाण सीदास दिं दोदि जुया ॥ सिलपंडु कंबलार ॥ त कंबलापुर पश्चिम ॥ ११८ ॥ अर्थ - सिलमा के० सिलानुं मान जे उंचपणुं तथा लांबपएं तथा पहोलपणुं तेने सहस्संसमाण के० घाव सहस्रजागे वर्हेचतां जे जाग श्रावे ते प्रमाणे एकेकी सिला उपर सीदासहिंदोहिं के० वे बे सिंहासन वे तेणे करी जुया के० युक्त एहवी पं कंबलारत्तकंबला के० पंडुकंबला तथा रक्तकंबला एहवे नामे बे सिल के० सिला बे. मां पुत्र के० पूर्वदिशिनेविषे पंडुकंबला नामे सिला बे, तथा पश्चिम के० पश्चिम दिशिनेविषे रक्तकंबला नामे सिला बे इति अक्षरार्थ. हवे विस्तारार्थ कहे बे. ते सिलानुं लांबपणुं पांच योजन बे, तेने आठ सहस्र जागें वर्हेचतां पांचसें धनुष्य श्रावे तो सिंहासन पांचसें धनुष्य लांबा बे, तथा सिलानुं पोहोलपणुं वढी सें योजन बे ते या सहस्र जागे वर्हेचतां श्रढीसें धनुष्य लाने तो सिंहासन छाढीसें धनुष्य पोहोलां बे, तथा सिला चार योजन उंची बे, तो चार योजनने श्रावसहस्र जागे वर्हेचतां चार धनुष्य लाने तो सिंहासन चार धनुष्य उंचां बे. एहवां वे सिंहासन एकेकी सिलाउपरे बे. इति गाथार्थ ॥ ११८ ॥ जामुत्तराज ता || इगेगसिंहासन प्रपुवं ॥ चनसुवि तास नियासण, दिसिनवजिणमजणं दोइ ॥ ११९ ॥ अर्थ - ते सिलाने विषे जामुत्तरातार्ज के० दक्षिण अने उत्तर दिशे इगेगसिंहास पाउ के० एकेक सिंहासन जाणवुं तेनां नाम ते शिलाना नामने विषे पुत्रं के० श्रतिशब्द पूर्वे जोड, ते म? दक्षिण दिशे प्रतिपांमुकंबला नामे शिला बे, अने उत्तर दिशे तिरक्त कंबला नामे शिला बे. ए वे शिला उपरे एकेकुं सिंहासन बे. तासु चसुवि के० ते चार शिलाने विषे नियासपदिसि जवजियमजणं एटले नियास के० निजासन ते पापा सन्मुख जे दिसि बे तेनेविषे जव के० उत्पन्न यया एवा जे जिए के० तीर्थंकर महाराज तेमनुं मजणं के० स्नात्रमहोधव होइ के० थाए. पूर्व अने पश्चिम दिशिनी जे शिला बे ते दक्षिण तथा उत्तरदिशि लांबी बे, अने पूर्व तथा पश्चिमदिशि पोहोली बे. तथा दक्षिण ने उत्तर दिशिनी जे शिला बे ते पूर्व तथा पश्चिमदिशि लांबी डे ने दक्षिण तथा उत्तरदिशि पोहोली बे. तथा चंद्रमानी श्राकृतिनुं जे वऋपएं बे ते मांहेली दिशिनेविषे लेख विएं. यहींयां पूर्वपश्चिम महाविदेह क्षेत्रने विषे समकाले चार तीर्थंकर उपजे तेहना समकाले महोत्सव थवा माटे पूर्व छाने पश्चिमनां For Private Personal Use Only Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ लघुक्षेत्रसमासप्रकरण. चार सिंहासन , ते कह्यां. तथा जरत अने ऐरवतनेविषे समकाले वे तीर्थंकर जन्म पामे, तेमाटे दक्षिण तथा उत्तरदिशिनेविषेबे सिंहासन ने ते कह्यां. इति गाथार्थ. ॥११॥ ॥ हवे शिखरथी हेठल सोमनस वन वखाणे . ॥ .. सिहरा बत्तीसेहिं ॥ सहसदि मेहलाइ पंच सए ॥ पिहुलं सोमणसवणं ॥ सिलविणु पंडगवण सरिना ॥ १० ॥ - अर्थ- सिहरा के मेरुना शिखरथी उत्तीसेहिंसहसेहिं के बत्रीस सहस्र योजन हेग्ल थाविएं तेवारे पंचसए के पांचसे योजन पिहुल के पोहोली एहवी मेहसार के मेखला . ते मेखला वलयने थाकारे बे, ते मेखलानेविषे सोमणसवणं के सो. मनस नामे वन . पण ते वन केहवं ? तो के-सिलविणुपंडगवणसरिछ के चारशिलाविना पंमकवन सदृश , एटले पंमकवननीपेठे चारदिशिने विषे चार जिनजवन डे, अने विदिशिने विषे चार प्रासाद बे, ते चार प्रासाद जे ते एकेका प्रासादनेकेडे चार चार वावडी जे. पण जिननवन आगल चार शिला नश्री. हवे ते पूर्वोक्त वावडीनां नाम कहे जे. सुमना, सौमनसा, सौमनस्या, अने मनोरमा, ए चार वावडि ईशान कूणे , तथा उत्तरकुरा, देवकूरा, वारिषेणी अने सरस्वति, ए चार वावमी अग्निकूणे बे. तथा विशाला, मणिजमा, अजयसेना अने रोहिणी ए चार वावडी नैत्य कुणे . तथा नसोत्तरा, नडा, सुनलो अने नवती, ए चार वावडी वायुकूणे . ए सोल वावडीयोनानामनुं थांतरं सोमनसवनने विषे जाणवू.अपर सर्वपंगकवननी पेठे ॥१२० ॥ हवे जिहां सोमनसवन बे, तिहां मेरुनु पोहोलपणुं कहे .॥ तब्बादिरि विकंन्नो॥ बायालसयादि उसयरि जुयाई॥ अहे गारसनागा ॥ मजे तं चेव सहसूणं ॥ ११ ॥ अर्थ- तब्बाहिरिविरकंनो के ते सोमनसवनसंबंधी जे बाहेरना बे बेडा एटखे पूर्व पश्चिम अथवा दक्षिणउत्तर दिशिनुं मध्यअंतरने विषे मेरुनु विष्कंन ते कहे . बायालसयाहिउसयरिजुया थके गारसजागा के चार सहस्र बसें ने बहुत्तर उपर अगीश्रारिया आठ जाग एटलो विष्कंन जाणवो. तेहy परिधि तेर सहस्त्र पांचसें ने अगीवार योजन उपर अगिधारीश्रा नाग एटलो बाहिरनो परिधि होय. मोतं चेवसहसूणं के सोमनसवननेविषे मांहेली परिधि अंतर एक सहस्र योजन जणुं जाणवं. केमके ते सोमनसवनन पोहोलपणुं जे जे तेमांथी पांचपांचसे योजन बे पासना जेवारे काढिएं तेवारे मांहेनुं विष्कंन त्रणसहस्र बसें ने बहुत्तेर योजन उपर Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुदेवसमासप्रकरण. २२३ अगीआरीश्रा आठ जाग होय. तेहy परिधि दशसहस्र त्रणसें ने गणपचाश याजन उपर अगीधारिया बे नाग जाणवू. हवे विष्कंन जाणवानी परे कहे . मेरुना मध्य विस्तार जिहां वांबिएं ते स्थानके मूलगु जेटला योजन ऊंचुं होए तेटला योजन अगीबार नागे वहेंचतां जे नाग थावे ते मूलगाविस्तार मांडेथी काढतां जे उगरे तेटलो विष्कंन जाणवो. ते आवी रीते जे-समनूतलथी त्रेसठ सहस्र योजन ऊंचुंसोमनसवन बे, तेने अगीबार जागे वहेंचतां पांच सहस्र सातसें ने सत्तावीस योजन अने उपर त्रण कला श्रावे, ते मूलनुं विस्तार दश सहस्र योजन तेमांथी काढीएं, तेश्रावी रीते के प्रथम सहस्र माहेथी एक योजन लेश तेहना अगीथार नाग करी तेमांथी त्रण कला काढीएं तेवारे दशसहस्रमांहे नवसहस्र नवसे नवाणु योजन अने उपर अगीश्रारिया आठ जाग रहे तेमांहेथी पूर्वला सत्तावन्नसे सत्तावीश योजन काढीएं तेवारे चार सहस्र बसें बहुत्तेर योजन अने उपर अगीबारीश्रा आठ जाग रहे तेटर्बु मेरुनु विष्कंन सोमनसवननी बाहेरनी परिधिने विषे जाणवू. एम नंदनवनने विषे पण करण जाणवो. ॥ ११॥ ॥ हवे नंदनवन वखाणे .॥ तत्तो सढसही ॥ सहसेदि नंदणंपि तद चेव ॥ नवरं लवण पासायं ॥ तरहदिसि कुमरिकुडावि ॥ १२२ ॥ अर्थ- तत्तो के० ते सोमनस वनथी हेग्ल सढसहीसहसेहिं के सामाबासठ सहस्र योजन नीचे नंदनवन जाणवं. नंदणं पितहचेव के० ते नंदनवन पण तेमज एटले सोमनसवननी पेठे तेना सदृश चेव के निश्चे जाणवू. नवरं के एटा विशेष डे जे, जवण पासायंतरह के जिननवन अने प्रासाद तेहना आठ आंतराने विषे दिसिकुमरिकूमावि के० दिकुमारिकाना आठ कूट ले ते कूट पांचसे योजन ऊंचा जाएवा. अने नवमुं बल कूट ले ते सहस्र योजन उंचुं बे माटे सहस्रांक मध्ये गएयु जे. ते कूटनुं स्थान विशेष सिझांतथी जाणवू. ए दिकुमारिका समजूतलथी एक सहस्र योजन ऊंची अने कूट उपरे नवनमाहे वसे . तेमाटे जके लोकवासिनी कहिएं. तेहनां नाम कहे . मेघकरी, मेघवती, सुमेघा, मेघमालिनी, सुवत्सा, वत्स मित्रा, वलाका अने वारिषेणा, ए आठ कुमारीका जाणवी. तिहां जे वावमी ले तेनां नाम कहे . नंदोत्तरा, नंदा, सुनंदा अने नंदवईनी, ए चार वावमी इशान कूणे . तथा नंदिषणा, अमोघा, गोस्तूपा अने सुदर्शना, ए चार वावमी श्रग्नि कूणे . तथा नडा, विशाला, कुमुदा अने पुंडरकीणी, ए चार वावमी नैईत्यकूणे . तथा विजया, वैजयंती, जयंती अने अपराजिता, ए चार वावडी वायुकूणे . ॥ १५ ॥ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुक्षेत्र समासप्रकरण. ॥ सौमनसवननी पेठे नंदनवन प्रदेशने विषे गिरिविस्तार कहे बे. ॥ नवसदस नवसयाई ॥ चपन्ना वचिगारनागाय ॥ नंदवदिविकं ॥ सदसूणो दोइममि ॥ १२३ ॥ अर्थ - नवसहस के० नव सहस्र छाने नवसयाई के० नवसें चउपन्ना के० चोपन्न योजन उपरे बच्चिगार जागा के० श्रागीधारिया व जाग एटलो नंदनव हि विकंजो ho नंदनवनने विषे बाहिरनी दिशिनुं विष्कंन जाणवो अने तेहूनुं परिधि एकत्रीस सहस्र चारसें थाने उगणाएंसि योजन ए बाहिरनुं परिधि बे. तथा नंदनवनने मझं मि ho मांहेनुं परिधिनुं विष्कंन ते पूर्वोक्त विष्कंनथी सहसूणो के० एक सहस्र योजने jो जावो, एटले श्राव सहस्र नवसें ने चोपन्न योजन उपरे श्रीश्ररीख व जाग जावो. तथा तेनुं परिधि अठावीस सहस्र त्रणसें ने सोल योजन उपर अगी - रिश्रा व जाग ए मांहेनो परिधि जाणवो ॥ १२३ ॥ ॥ दवे नशाल वन वखाणे बे. ॥ २२४ तददो पंच सरहिं ॥ महियलि तद चेव मद्दसालवणं ॥ नव रंमिद दिग्गयच्चिय ॥ कूडा वण विवरंतुइमं ॥ १२४ ॥ अर्थ - तदहो के० ते नंदनवनथी हेतुं पंचसएहिं के० पांच योजन महियलि के० समभूतल पृथ्वीने विषे तदचेव के० तेमज एटले नंदनवननी पेठेंज नसालवणं के० साल नामे वन जावं. नवरं के० एटलुं विशेष बे जे इद के० आ जडशाल वननेविषे जे जिनजवन अने प्रासादना जे आवश्रांतराने तेने विषे हाथीने याकारे करिकूट बे, ते दिग्गज के० दिग्गजकूट कदेवाय बे. ए जडशाल वनने विषे मेरुनी चारदिशि ते सीतोदा तथा सीताने प्रवाहे रुंधी बे. तेमाटे नदीना तट उपरे जिनजवन बे, ने गजदंत गिरिनीपासे प्रासाद बे ने जिनजवन तथा प्रासादने बच्चे दिग्गजकूट एटले आठ करिकूट बे. हवे तिहां जे वावडी वे तेमनां नाम कहे बे. पद्मा, पद्मजा, कुमुदा ने कुमुदाना, ए चार वावडी इशान कूपे बे. तथा उत्पaaौमा, नलिना, उत्पलोज्वला ने उत्पला, ए चार वावडी अग्नि कुणे बे. तथा लूंगा, भृंगिनी, जलप्रजा अने वज्रा ए चार वावडी नैर्ऋत्य कूऐ बे. तथा श्रीकांता, श्री माता, श्रीमंदा ने श्रीनिलया, ए चार वावडी वायुकूणे जाणवी तथा वणविवरं - तुइमं के० ए जशाल वननुं जे चार दिशि विस्तार बे, ते आगली गाथाए कहे बे ॥ १२४ ॥ बावीस सदस्साई ॥ मेरू पुव य पचिम ॥ तं चाडसी वित्तं ॥ वणमाणं दाहिणुत्तरजं ॥ १२५ ॥ अर्थ- मेरुर्ज के० मेरुपर्वत थकी पुवयपश्चिम के पूर्व छाने पश्चिम दिशे - Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुदेवसमासप्रकरण. श्श्य शाल वननी बाहिरनी दिशिनुं विष्कंन बावीस सहस्साई के बावीस सहस्त्र योजन होय. तंचाम्सीविहत्तं के० ते बावीस सहस्र योजनने अठ्यासी जागे वहेंचतां बसें ने पचास योजन लाने तो एटलो दाहिणुत्तर के दक्षिण अने उत्तर दिशिनेविषे वणमाणं के नशाल नामे जे वन डे, तेना विस्तारनुं प्रमाण जाणवू. ॥ १२५ ॥ ___॥ हवे गजदंत गिरि वखाणे जे. ॥ बच्चीससदस चनसय ॥ पणदत्तरि गंतु कुरुनइपवाया ॥ उन वि निग्गया गय ॥ दंता मेरुम्मुदा चनरो ॥ १२६॥ अर्थ-कुरुनश्पवाया के० कुरुक्षेत्रनी जे नदी सीतोदा तथा सीता तेहनुं प्रपात के पमवा नीकलवान स्थानक जे जीजी तिहांथी गंतु के जश्ने बवीस सहस चउसयपणहत्तरि के बवीस सहस्त्र चारसे ने पंचोत्तेर योजन उनवि के बे पासे मेरुम्मुहा के मेरुपर्वत साहामा चउरो के चार गयदंता के गजदंत गिरि . ते निषध तथा नीलवंत पर्वतमाहेथी निग्गया के नीकल्या , ते गजदंता हाथीना दांतने आकारे देखाय ने माटे एने गजदंत गिरि कहिएं ॥ १२६ ॥ .. ॥ हवे गजदंत गिरिनी स्थिति तथा वर्ण अने नाम कहे बे. ॥ अग्गेयाश्सु पयादि, णेण दिसासु सियरत्तपियनीला ॥ नासोमणस विङ्गुपद ॥ गंधमायण मालवंतरका ॥ २२ ॥ अर्थ-अग्गेयाश्सु के अग्नि कूणश्री श्रादि एटले धुरमांमीने पयाहिणेण के प्रदक्षिणावर्त्त गणतां दिसासु के चार दिशीने विषे अनुक्रमे चार गजदंत गिरि बे. तेमां सिय के उज्वलवणे गजदंतगिरि अग्निकूणे , अने नैर्शत कूणे रत्त के रक्तवर्णे गजदंत गिरि दे, तथा वायुकूणे पिय के पीत एटले पीले वर्णे गजदंतगिरि , तथा श्शान कूणे नीला के० नीलवर्णे गजदंतगिरि , हवे अनुक्रमे श्रग्निकूणथी उज्वला गजदंतगिरि प्रमुख चार गजदंतानां नाम कहे . पेहेलो अग्निकूणे सोमनस, बीजो नैईत्य कूणे विद्युत्प्रन, त्रीजो वायुकूणे गंधमायण के गंधमादन तथा चोथो श्शानकूणे मालवंतरका के० माल्यवंत नामे गजदंतगिरि जाणवो. ॥ १७ ॥ ॥ हवे अधो लोके दिक्कुमारिका ज्यां रहे जे ते स्थानक कहे . ॥ अहलोगवासिणी ॥ दिसाकुमारीन अह ए एसिं ॥ गयदंतगिरिवराणं ॥ दिशा चिति नवणेसु ॥१२॥ अर्थ-श्रहलोगवासिणी के अधोलोकने विषे वसनारी जे अहदिसाकुमारीज के श्राप दिकुमारिका ले ते एएसिंगयदंत गिरिवराणं के० ए गजदंतगिरिना नीचे जे Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ लघुक्षेत्रसमासप्रकरण. नवणेसु के जवन डे ते जवनने विषे चिति के ते दिक्कुमारिका रहे . ए रवाना स्थानकनु सामान्यपणुं कह्यु. हवे विशेषपणे तेमने रदेवानां जे स्थानक बे, ते ज्ञानवंत गुरुना वचनश्री जाणवां. तथा जोगंकरा, जोगवती, सुनोगा, नोगमालिनी, सुवत्सा, वत्स मित्रा, पुष्पमाला अने अनंदिता ए तेमनां नाम जाणवां. ॥ १२ ॥ ॥ हवे गजदंतगिरिनु उंचपणुं तथा पहोलपणुं कहे जे.॥ धुरि अंते चल पणसय ॥ उच्चत्ति पिडुत्ति पणसयाऽसिसमा ॥ दीहत्ति श्मे उकला ॥ उसयनवुत्तरसदसतीसं ॥ २२ए ॥ अर्थ-इमे के ए चार जगदंत गिरि ते धुरि के ज्यां कुलगिरि थकी नीकल्या बे, त्यां नीलवंत निषधनीपरेंचसय के चारसे योजन उच्चत्ति के उंचा, तथा अंते के अंतने विषे मेरुने ज्यां मल्या बे, त्यां पणसय के पांचसे योजन उच्च के ऊंचा , श्रने मूलने विषे पणसयपिहुत्ति के पांचवें योजन पोहोला , अने अंते के डे तो असिसमा के तरवारनी धारनी पेठे अंगुलने असंख्यातमे जागे पोहोला बे; तेमाटे असि एटले जे तरवार ते सदृश बे. तथा ते गजदंतगिरिनुंलांबपणुं सहसतीसं के त्रीस हजार अने उसय के० बसें ने नवुत्तर के नव योजन श्रने उपर ब कला के कला एटलुं . ए चार गजदंतगिरिनु दीर्घपणुं कह्यु. तथा ते बे गजदंतगिरि लांबपणे जेवारे एका करीएं तेवारे कुरुक्षेत्र धनुष्यने थाकारे डे, ते धनुष्यन पृष्ट कहिए बाहेरनुं पुग्नुं जाग थर्डचंडाकार, थाए, तेहना योजन साठ सहस्र चारसें ने अढार तथा उपर कला बार एटले कुरुक्षेत्रनुं धनुपृष्ट थाए; सीतोदा तथा सीतानदीनी पचास योजन प्रमाण पोहोली जे जीजी बे, ते थकी बबीससहस्र चारसें ने पंचोतेर योजन बे पासे वेगला गजदंतगिरि , ते बे पासे एटला वेगला बे,माटे बबीस सहस्र चारसे ने पंचोतेर योजन . तेने बमणा करी जीजीनो विस्तार पचास योजनमांदे नेलतां त्रेपन्न सहस्र योजन कुरुक्षेत्रनी जीवा थाय. जीवा एटले धनुष्यनी पणन ते सरिखी माटे जीवा कहिए. इति गाथार्थ ॥ १२॥ ॥ इवे कुरुक्षेत्रना मध्यनागनुं पहोलपणुं कहे , मध्यनागना पोहोलपणाने खु कहिएं. ते केम के श्खु एटले तीर तेनुं जे गम तेने श्खु कहिएं, ते कहे जे.॥ ताणं तो देवुत्तर ॥ कुरान चंदसंठियान ज्वे ॥ दससदस विसुद्धमदा ॥ विदेददलमाणपिहुला ॥ १३० ॥ अर्थ-ताएंतोदेव के ते गजदंत गिरिमध्ये मेरुपर्वत थकी दक्षिण दिशनेविषे देवकुरुक्षेत्र बे, अने मेरुथी उत्तरदिशिनेविषे उत्तरकुरान के उत्तरकुरुक्षेत्र ने, ज्वे Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुदेत्रसमासप्रकरण. २२७ ho ए वे युगलियानां क्षेत्र बे, ते चंदद्धसंठिया के० श्रर्द्धचंद्रमाने श्राकारे रह्यांबे, दशसहस विसुद्ध के० दश सहस्र योजने रहित जे महाविदेह क्षेत्रनुं पिहुलाई के० विस्तार तेनो दलमाण एटले अर्द्ध करता जेटला योजन थाए तेटला योजन कुरुक्षेत्रना मध्यजागनुं पोहोलपणं जाणवुं. ते केम? तो के महा विदेद क्षेत्रनो विस्तार तेत्रीस सहस्र बसें ने चोरासी योजन थने उपर चार कला बे; तेमांदेषी मेरुनुं विष्कंन दश सहस्र योजन काढिएं तेवारे तेवीस सहस्र बसें ने चोरासी योजन छाने उपर चार कला उगरे; तेहनुं श्रर्द्ध अगी धार सहस्र याठसें ने बेतालीस योजन उपर कला बे एटलो विष्कं कुरुक्षेत्रना मध्यजागने विषे जावो. ॥ १३० ॥ ॥ हवे कुरुक्षेत्रना गिरि कहे बे. ॥ नइ पुवावरकुले ॥ कणगमया बल समा गिरी दो दो ॥ उत्तरकुरान जमगा ॥ विचित्तचित्ता य इयरीए ॥ १३१ ॥ - नवावरले के० नदी जे सीतोदा तथा सीता तेमना पूर्व अने पश्चिमदिशें जे बे तट तेहने विषे कणगमया के० कनकमयी एवा तथा बलसमा के० बलकूट बे ते समा एटले सरखा सहस्र योजन उंचपणुं वे अने सहस्र योजन मूर्खे विस्तार तथा पांच योजन उपर शिखरने विषे विस्तार बे जेमनो एहवा गिरिदोदो के० बे बे पर्वत बे. ते उत्तर कुराज के० उत्तर कुरुक्षेत्रने विषे जमगा के० जमक एवेविचित्तचित्तायश्यरीए के० देवकुरुक्षेत्रने विषे सीतोदा नदीना पूर्वदिशिना तटने विषे विचित्रनामे कनकगिरि बे, अने पश्चिम दिशिना तढ़ने विषे चित्रनामे कनक पर्वत बे ॥ १३१ ॥ पर्वत, ॥ दवे कुरुक्षेत्रनी नदीना यह वखाणे बे. ॥ नवद दीदा पण पण || दरया उडदारया इमे कमसो ॥ सिदो तद देवकुरु ॥ सूरो सुलसो य विकुपदो ॥ १३२ ॥ अर्थ - नवहदीदा के० नदीना प्रवाहने विषे दीर्घ एटले लांबपएं बे जेमनुं एहवा पण पण के पांच पांच दरया के० अह एकेका कुरुक्षेत्रने विषे बे, वली ते Se heard ? दारया के० दक्षिण ने उत्तर दिशे वे वे बे बारां जेमने विषे एहवा पांच ह बे, तेनां नाम बे ते इमे के० या कमसो के० अनुक्रमे कहे बे. एक सिहो के० निषध तह के० तथा बीजो देवकुरू, त्रीजो सूरा के० सूरः, य के० वली चोथो सुलसो के० सुलस ने पांचो विकुपदो के० विद्युत्प्रन, ए पांच ग्रह देवकुरुक्षेत्रमा सीतोदानदीना जाणवा. इति गाथार्थ ॥ १३२ ॥ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुक्षेत्र समासप्रकरण. ॥ हवे सीता नदीना पांच अहनां नाम कहे बे. ॥ तद नीलवंत उत्तर, कुरुचंदे वय मालवंतो त्ति ॥ प मददसमा नवरं ॥ एएसु सुरा ददसनामा ॥ १३३ ॥ अर्थ - तह के० तेमज नीलवंत, उत्तर कुरु, चंदे के० चंद्र, एरवय के० एरवत अने मालवतोत्ति के० मालवंत इति, ए पांच उत्तर कुरुक्षेत्रमांहे सीतानदीना उह जाणवा. एहनां नाम विद्धह कहिएं. ए सर्व द्रह बे ते पउम दहसमा के० पद्मद्रह सरखा सहस्र योजन लांबा ने पांच योजन पोहोला ने दस योजन ढंका जाएवा. नवरं के० एटलुं विशेष बे जे एएस के० ए उहने विषे जे सुरा के० अधिष्टायक देव बे ते दहस नामा के० पोतपोताना डहने नामे तेमनां नाम बे. ॥ १३३ ॥ ॥ दवे कुल गिरि, जमलपर्वत, पांच यह थाने मेरु एहना सात श्रांतरा कहे बे. ॥ डसय चउतिस जोय ॥ णाई तह सेगसत्तनागाउं ॥ २२० के इक्का रसयकलाई ॥ गिरिजमलदहाण मंतरयं ॥ १३४॥ अर्थ- सय के० श्रवसें अने चउतिस जोयणाई के० चोत्रीस योजन तह तथा प्रकारे सेगसत्त जागार्ड के० एक कलाना सात जाग करीएं, एहवे एक जाग सहित कारला के० अगीधार कला एटलुं कुलगिरि, जमलपर्वत, पांच ह तथा मेरुनो प्रत्येके अंतर जाणवो. ते केम ? देवकुरुनो विस्तार अगी आर सहस्र श्रावसें बेतालीश योजनाने बे कला बे; ते मांहेथी यमलपर्वत ने पांच इह तेणे रुंधेला जे व सहस्र योजन बे ते काढिएं तेवारे अठावनसें बेतालीस योजन छाने कला बे वधे; ते सात जागे वर्हेचतां यावसें चोत्रीस योजन यावे, शेष चार उगरे ते जंगलीसवार गणीएं तेवारे बहुतेर कला थाए तेनीसाथे मूलगी बे कला एकटी करतां होत्तर कला थाए. ते वली सात जागे व्हेंचता जंगली सी अगी आर कला श्रावे, वली एक कला उगरे तेहना सात जाग करिए तेहनुं सातश्यो एक जाग ने श्रीश्रार कला पटलु कुल गिरि तथा जमलपर्वत तथा इह पांच तथा मेरुनुं अंतर जाणवुं ॥ १३४ ॥ ॥ हवे कांचन गिरिनी स्थिति वखाणे बे. ॥ दवावर दस जो ॥ यदि दस दस वियकुडाणं ॥ सोलसगुणप्पमाणा ॥ कंचणगिरिणो ऽसय सवे ॥ १३५ ॥ अर्थ- दहपुवावर दसजोयणेहि के० हथकी पूर्व छाने पश्चिमदिशे दस योजननी वेगलाइएं एकेक ऽहना बने पासाने विषे दसदसकंचण गिरिणो के० दस दस कंचन गिरि जाणवा. ते कंचनगिरि केहवा बे ? तो के- वियहकूमाणं के० वैताढ्यनाकूटथी सोलसगु For Private Personal Use Only Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुक्षेत्रसमासप्रकरण. शए पप्पमाणं के सोलगुणा मोहोटा , एहवा कंचनगिरि जंबूछीपने विषे सवे के सर्वे मुसय के बसें जाणवा. ते केम? देवकुरू तथा उत्तरकुरूना दश अह डे ते एकेक ज. हने बे पासे दश दश गुणतां वीश थाय. ते वीशने दशवार गुणतां बसें पूरा थाय. वैताढ्यना कूटथी कंचनगिरि जे जे ते सोलगुणा मोहोटा ते यंत्रथी जाणवा. ॥ हवे जंबूवृक्ष वखाणे .॥ उत्तरकुरुपुवझे ॥ जंबूणय जंबूपीढमतेसु ॥ कोसङ गुच्चं कमि व ॥ ढमाण चवीसगुण मजे ॥१३६॥ अर्थ-उत्तरकुरुपुबळे के उत्तरकुरुक्षेत्रना पूर्वदिशिना अर्डनेविषे जंबूणय के रक्तवर्ण कनकनुं जंबूपीढ के जंबूवृदनुं पीठ जाणवू. ते पीठ केहबुं बे ? तो के-अंतेसु के नेमानेविषे कोसगुच्चं के बे कोस समजूतलथी उंचं बे. तिहाथी कमि के अनुक्रमे वढ्ढमाण के वधतुं वधतुं मले के मध्यत्नागे चनवीसगुणं के० चवीसगुणुं ; एटले मध्यजागे बार योजन ऊंचं. ए बंधा एटले उलटा सरावने श्राकारे जाणवू. इति गाथार्थ ॥१३६॥ ॥ वली तेहज पीठ वखाणे .॥ पणसयवपिहुत्तं ॥ तं परिखित्तं च पनमवेईए ॥ गान उगे गुच्चपिहु॥त्त चारुचनदारकलियाए ॥१३॥ अर्थ- ते पीठ केहq डे ? तो के-पणसयवट्टपिहुत्तं के पांचसे योजन वर्तुल तथा पोहोलं . तं के ते पीठ ते सर्व पलमवेईए के० पद्मवरनामे जे वेदिका बे, तेणिएं परिखित्तं के० विट्युं बे. ते वेदिका केहवी डे ? गाउपुगेगुच्च के बे कोश उंचा अने एक कोश पोहोला एहवा चारु के मनोहर जे चउदार के चार बारणां तेणे करी कलियाए के सहित जे. ॥ १३७ ॥ इति गाथार्थ. तंमजे अडविबर ॥ चउच्च मणिपीढियाइ जंबूतरू ॥ मूले कंदे खंधे ॥ वरवयरारिध्वेरुलिङ ॥ १३ ॥ अर्थ- तंमले के ते पीठिकाना मध्य नागे अमविचर के आठ योजन में विस्तार जेनो एटले पहोली बे. तथा चनच्च के चार योजन ऊंची एहवी जे मणि पीढिया के मणिमयपीविका तेहनेविषे जंब्रतरु के जंबवृक्ष बे. ते जंबूवृदनी मूले के मूलनेविषे जे जटा डे ते वरवयर के प्रधान जे वज्ररत्न ते मयी . तथा कंदे के मूलथी उपर जे कंद ते अरिह के० श्यामवर्णरत्न तेहy . तथा खंधे के जंबूवृदनी जे डाल ते वेरुलिई के वैर्यरत्न एटले नीलवर्ण रत्न तेहनी .॥ १३ ॥ . Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० लघुक्षेत्र समासप्रकरण. तस्स य साद पसादा || दलाय विंटाय पल्लवा कमसो ॥ सोवन्नजायरूवा ॥ वेरुलितवणिजंबूणया ॥ १३९ ॥ अर्थ - तस्स के० ते जंबूवृनी साह के० शाखा एटले मोहोटी डाल अने पसाहा के० प्रशाखा एटले लघुशाखा ते न्हानी डाल तथा दला के० पत्र य के० वली विंटा to वीट ते पत्रना मूल य के० वली पल्लव के० नवांकूरा ते नवा जगतां पत्र एकमसो to अनुक्रमे सोवन्न के० सुवर्ण तथा जायरूवा के० जातरूप ते कांइक धवलवर्ण कनक, तथा वेरु लिय के वैकुर्यरत्न तथा तवणिऊ के० तपनीय एटले तपावेलुं सुवर्ण तथा जंबूया के० रक्तसुवर्णना जाणवा. एटले जंबूवृनी मोहोटी शाखा बे ते पीलावर्णनुं कनक ते संबंधी बे, तथा जे लघु शाखा बे ते पूर्वे जातरूप कह्युं जे कांक धोलुं कनक तेहनी बे, तथा जंबूवृक्षना जे पत्र बे ते वैमुर्यरलना एटले नीलारलना बे, तथा पत्रना विंबे ते पूर्वोक्त तपनीयसुवर्ण सरखा महातेजवंत बे, तथा जे पल्लव ते जंबूनद पटले रक्तसुवर्ण तेहना डे ॥ १३५ ॥ सो रययमयपवालो | राययविडिमो य रयणपुप्फफलो ॥ कोसडुगं घेो ॥ थुडसादा विडिमविस्कंनो ॥ १४० ॥ अर्थ- सो के० ते जंबूवृक्ष केहवुं बे ? रययमयपवालो के० रूपामयी बे नवां प्रवाल एटले पत्र जेहने विषे. वली केहवुं बे ? रायय विडियो के० रूपानी विकिम एटले मध्यजानी वच्चेनी मोहोटी बे डाल जेहनी. वली केहबुं बे ? रयणपुप्फफलो के० सर्व फलफूल रत्नमय बे जेहनां. वली जंबूवृक्ष केहवुं बे ? कोसगंजोहो के० बे कोश भूमिमध्ये मप जाऊं बे थुड के थमने विषे तथा साहा के० मोटी शाखाने विषे तथा विडिम के मध्यजागे जे मूल शाखा बे, तेहने विषे बे कोशनुं विरकंजो के० पोहोलपहुं जाणवुं ॥ १४० ॥ इति गाथार्थ. थुडसादव डिमदीद, त्ति गाउए अपनर चनवीसं ॥ सादा सिरिसमनवा || तम्माण सचेश्यं विडिमं ॥ १४२ ॥ अर्थ- मसामि के० ते जंबूवृनुं थम तथा शाखा तथा वडिम एटले मूलगी उंची माली जे मध्यजागनी मोहोटी डाल ते लांबपणे अनुक्रमे गाजा दित्ति ho ाठ कोश थडनी माल लांबी बे तथा शाखा एटले चार दिशे चार मोहोटी जे डाल जे थडनी शाखा थकी नीकली बे त्यां थकी पन्नर के पन्नर कोश लांबी बे तथा व किम के० मध्यजागनी मूलगी लांबी डाल उंची बे ते चडवीस के० चोवीश कोश लांबी . ए चार दिशिनी चार शाखाने विषे सिरिसमजवणा के० श्रीदेवीना जवन Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुक्षेत्र समासप्रकरण. २३१ सरखा चार जवन जाणवा. तथा तम्माणसचेश्यंव डिमं के० ते श्रीदेवीना जवन सदृश जे पांचमी वमिमं के० मोहोटी चोवीश कोशनी माल बे ते उपर जिनजवन जावं. १४१ पुधिसि सि तिसु ॥ सणाणि जवणेसु पाढियसुरस्स ॥ सा जंबू बारसवे ॥ इयादि कमसो परिकित्ता ॥ १४२ ॥ पुलिस के पूर्व दिशीनी शाखाना जवनने विषे जंबूद्दीपनो अनाट्ठित नामे जेधष्ठायक देव तेने सुवानी सिता बे, तथा तिसुनवणेसु के० शेष जे त्रण वन ते विषे या सणाणि के० बेसवायोग्य सिंहासन बे, ते कोनां बे? तो के- -अणाढियसुरस के अनाहत बे नाम जेनुं एवो जे जंबूदीपनो अधिष्ठायक देव बे, तेनां बे, तथा सा के० ते जंबूदनी जे पीठीका बे, ते बारसवेश्यादिं के० बार वेदिकाए करी कमसो के० अनुक्रमे परिरिकत्ता के० वींटेली बे. ॥ १४२ ॥ दहपमाणं जंवि, वरं तु तमिदावि जंबूरुरकाणं ॥ नवरं महरियाणं ॥ गणे इद अग्गम दिसीउं ॥ १४३ ॥ अर्थ- दहप माणं के० पद्महना कमलनो जे परिवार तथा जंविवरं के० जे पद्मनो विस्तार पूर्वे को बे, तमिहावि के० तेम यहींयां पण जंबूरुरकाणं के० जंबूवृनो जे परिवार ते पण तेमज जाणवो. एटले अहींयां पण बीजा लघु जंबूनो परिवार जाणवो. नवरं के० एटलुं विशेष बे जे तिहां जे चार महत्तरिका देवी कही बे ते महरियाणंठाणे के० ते महत्तरिकाने स्थानके इह के यहींघां अग्गमted to महिषी जाणवी ॥ १४३ ॥ इति गाथार्थ. ० कोस इसएदि जंबू ॥ चनद्दिसिं पुवसालसमजवणा ॥ विदिसासु सेस तिसमा ॥ चडवाविजुया य पासाया ॥ १४४ ॥ अर्थ- जंबू के जंबूवृने चउद्दिसिं के० चारदिशे कोसडसएहिं के० बसें कोशे पुवसाल समजवणा के पूर्व दिशिनी शाखा सरखां जवन जाणवां एटले ए जावार्थ जे जवन जे चैत्यगृह नेते चार दिशिनेविषे जंबूवृथकी बसें कोशें दूर बे तथा विदिसासु के० विदिशने विषे सेसतिसमा के० बीजी त्रण डालने विषे जेवां जवन बे तेवा विदिशिनेविषे चढवा विजुया के० चार वाव किएं सहित पासाया के० चार प्रासाद जावा ॥ १४४ ॥ ताणंतरेसु प्रड जिए, कुडा तद सुरकुराइ प्रवर-दे ॥ राय यपीढे सामलि ॥ रुरको एमेव गरुलस्स ॥ १४८ ॥ अर्थ - ताणंतरेसु के० ते जिननवन तथा प्रासादना श्राव अंतरने विषे श्रड जि For Private Personal Use Only Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ लघुदेत्रसमासप्रकरण. कूडा के जिननवने सहित आठ कूट जाणवा. पण ते कूट केहवा जे? तो के-बार योजन मूलें विस्तार दे श्रने चार योजन शिखरे विस्तार बे तथा पाठ योजन ऊंचा एवा पाठ कूट बे. ते तरुकूट कह्या ले. तह के तथा प्रकारे सुरकुरा के देवकुरुके. त्रना अवरके के पश्चिम दिशिना अर्डनेविषे राययपीढे के० रूपानी पीठिकानी उपर सामलिरुको के० शाल्मलीवृद ले ते गरुलस्स के गरुलदेवताने वसवायोग्य जाणवो. एवमेव के एहनो पण विस्तार एज जंबूवृक्षनी पेठे जाणवो. ॥ १४५ ॥ ॥ हवे महाविदेहमा बत्रीस विजय वखाणे बे. ॥ बत्तीस सोल बारस ॥ विजया वरकार अंतरनई ॥ मेरुवणार्ड पुवा ॥वरासुकुलगिरिमद नयंता ॥१४६॥ अर्थ- बत्तीस के बत्रीस तथा सोल के सोल अने बारस के0 बार ए सर्व अनुक्रमे विजया के विजय तथा वरकार के वृक्षस्कार पर्वत अने अंतरनज़ के० अंतरनदी जाणवी. एटले बत्रीस विजय तथा सोल वक्षस्कार पर्वत अने बार अंतरनदी जाणवी. ते मेरुवणा के मेरुना जमशालवन थकी पुवावरासु के पूर्व दिशि अने पश्चिम दिशिनेविषे कुल गिरिमहनयंता के प्रथम बे विजय पड़ी बे वक्षस्कारपर्वत वली बे विजय तेवार पली बे अंतरनदी वली बे विजय एम अनुक्रमे एकेकीदिशे सोलविजय तथा आठ वदस्कार पर्वत तथा अंतरनदी थाय. ते बेपासाना एकग करिएं त्यारे बत्रीस विजय तथा सोल वक्षस्कार पर्वत अने बार अंतर नदी थाय. ॥१४६ ॥ शति गाथार्थ. ॥ ॥ हवे बत्रीस विजयना पोहोलपणानुं प्रमाण कहे जे.॥ विजयाण पित्ति सग, ह नाग बारुत्तरा वीससया॥ सेवाणं पंचसए ॥ सवेश् नइ पन्नवीससयं ॥ १४ ॥ अर्थ-वीससया के बावीससें अने बारुत्तरा के बार योजन उपर एक योजनना श्रह के आठ जाग करिएं तेहवा सग के सात नाग एटटुं विजयाण पिहुत्ति के एकेका विजयतुं पोहोलपणुं जाणवं. तथा सेलाणं के वक्षस्कार पर्वत जे जे ते पंचसए के पांचसे योजन पोहोला . तथा सवेश्नश्पन्नवीससयं के सर्व जे अंतरनदी ले ते एकसो ने पचीस योजन पोहोली बे. हवे ए विजयादिनुं पोहोलपणुंजाणवानो उपाय लखे . चउपन्न सहस्र योजन नूमि मेरु अने नशालवने रंधी, तथा चार सहस्र योजन नूमी वक्षस्कारपर्वतोए रंधी , तथा सातसें ने पचास योजन नूमिना अंतरनदीए रुंध्या , तथा पांच सहस्र बाउसें चुमालीस योजन नूमी बे Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३३ लघुदेवसमासप्रकरण. वन मुखे रुंधी, ए सर्व योजन एकग करीएं तेवारे चोस सहस्र अने पांचवें चो. राणु योजन थाय. ए एक लद योजन प्रमाण जे जंबु बीप, तेमांहेश्री काढीएं, तेवारे पांत्रीश सहस्र चारसे ने बयोजन गरे. हवे अहींयां विजयनुं परिमाण वांबीएं बैएं तेमाटे गया जे पांत्रीस सहस्त्र अने चारसें योजन ते सोल विजय ने माटे सोल नागे वहेंचीएं तेवारे बावीससे अने बार योजन लाने अने उपर चउद योजन जगरे, तेना प्रत्येक योजनना श्राप नाग करिएं तेवारे एकसो ने बार जाग थाएं. ते सोल नागे वहेंचतां आगया सात नाग लाने एटले एकेक विजयतुं परिमाण बावीससे ने बार योजन उपर आठीश्रा सात जाग, एटवू जाणवू. ॥ १४ ॥ ॥ हवे विजयादिकनुं लांबपणुं कहे .॥ सोलससहस्स पण सय ॥ बाणनया तह य दो कला य॥ एएसिं सवेसि ॥ आयामो वणमुदाणं च ॥१४॥ अर्थ- सोलससहस्स के सोल सहस्र अने पणसय के पांचवें ने बाण उया के बाणु योजन तहय के तेमज दोकलाय के बे कला उपर एटचं एएसिसवेसि के ए सर्व विजय तथा वदस्कार तथा अंतर नदी जे जे ते सर्वनुं थायामो के लांबपणुं जाणवू. च के वली सीतोदा तथा सीताने अंते पूर्व तथा पश्चिम दिशे जे वणमुहाणं के चार वनमुख , तेहy पण एटर्बु लांबपणुं जाणवू. ॥ १७ ॥ ॥ हवे वदस्कारर्नु उंचपणुं कहे जे.॥ गयदंत गिरिखुच्चा ॥ वस्कारा ताणमंतरनईणं ॥ वि. जयाणंच निहाणा, मालवंता पयादिण ॥ २४ए॥ अर्थ- ते वक्षस्कार पर्वत गयदंतगिरिवुच्चा के गजदंत गिरिनी पेरे उंचा बे, जेम गजदंतगिरि कुल गिरिने समीपे चारसे योजन ऊंचा बे, बेहेडे मेरुपर्वतनी पासे पांचसें योजन ऊंचा , तेम ए वक्षस्कार पण कुलगिरिने समीपे चारसंयोजन उंचा, अने बेहेडे सीतोदा तथा सीताने समीपे पांचसें योजन ऊंचा बे. हवे वरकाराताणमंतरनईणं विजयाणंच के सोल वक्षस्कार पर्वतना तथा बार अंतरनदीना अने बत्रीस विजयना अनिहाणा के नाम कहे बे. ते सर्व मालवंता के माल्यवंत नामे जे गजदंतगिरि , ते थकी पयाहिण के दक्षिणावर्ते जाणवा. ॥ १४ ॥ ॥हवे अहीं प्रथम सोल वक्षस्कारनां नाम कहे .॥ चित्ते य बनकूडे ॥ नलिणी कूडे य एगसेले य॥ तिजडे वेसमणे वि य ॥ अंजण मायंजणे चेव ॥१५॥ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुक्षेत्र समासप्रकरण. कावइ पदावर | सीविस तद सुदावदे चंदे ॥ सुरे नागे देवे ॥ सोलस वरकार गिरिनामा ॥ १५१ ॥ - एक चित्र, बीजुं ब्रह्मकूट, त्रीजुं नलिनीकूट, चोथुं एकशेल कूट, य के० वली पांच त्रिकूट, बहुं वैश्रमण, अहींयां विय ए शब्द पादपूरणार्थे बे. सातमुं खंजन, आठमुं मातंजन, चेव पदपूरणार्थे बे ॥ १५० ॥ नवमं अंकापाति, दशमं पद्मापाति, गीमुंशीविष, तह के० तथा बारमुं सुखावह, तेरमुं चंद्र, चजदमुं सूर, पंदरमुं नाग, अने सोलमुं देव, ए सोल वक्षस्कार गिरिनां नाम जाणवां ॥ १५१ ॥ ॥ दवे बार अंतर नदीनां नाम कहे . ॥ गादाव दाहावर || वेगवई तत्त मत्त उम्मत्ता ॥ खीरोय ॥ सीय सोया ॥ तद तो वादिणी चेव ॥ १५२ ॥ नम्मी मालिणि गंजी, रमालिणी फेणमालिणी चेव ॥ सच्चवि दस जोय || उंमा कुंडुनवाएया ॥ १५३ ॥ अर्थ- ग्राहवति, प्रवति, वेगवति, तप्ता, मत्ता, उन्मत्ता, खीरोदा, शीतस्रोता, तथा अंतर्वाहिणी, चेव पदपूरणार्थे बे ॥ १५२ ॥ उन्मीमालिनी, गंजीरमालिनी, फेनमालिनी, चेव पदपूर्णार्थ जाणवुं. एवा नामे बार अंतर नदी जाणवी. ते धुरे तथा Masala o सर्व नदिर्ज पण दस जोयण ठंडा के० दश योजन प्रमाण ठंडा जे कुंकुनवा के० नीलवंतने नीचे व कुंड बे, तथा निषधने नीचे पण व कुंड बे, ते थकी व एटवे निकली एकी एया के० ए बार अंतर नदी ते कुंमने नामेज जाणवी. जेम ग्राहवंत कुंम थकी ग्राहवती नदी निकली. ए रीते नदीने नामे कुंडनां नाम जवां हीं नदीनी देवीनो द्वीप प्रमुख जे विशेष प्रकार बे ते सर्व रोहितांशाने परिमाणे जाणवो ॥ १५३ ॥ २३४ ॥ वे बत्रीश विजयनां नाम चार अनुष्टुप् छंदे करी कहे बे. ॥ har सुकच य महा, को कच्चावई तदा ॥ यावत्तो मंगलावत्तो ॥ पुरकलो पुस्कलावई ॥ १५४ ॥ वचो सुवचो य महा, वो वच्चावई विया ॥ रम्मो य रम्मर्ज चेव ॥ रम मंगलावई ॥ १५५ ॥ पम्दो सुपम्दो य मदा, पम्दोपम्हावई तदा ॥ संखो नलिए नामा य ॥ कुमुदो नखिणावई ॥ १५६ ॥ वप्पो सुवप्पो य मदा, वप्पो वप्पावई विय ॥ वग्गू तदा सुवग्गू य ॥ गंधिलो गंधिलावइ ॥ १५७ ॥ For Private Personal Use Only Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुदेवसमासप्रकरण. २३५ अर्थ- एक कल, बीजो सुकन्छ, त्रीजो महाकछ, चोथो कछावर्त, तथा प्रकारे पांचमो श्रावर्त्त, बहो मंगलावर्त्त, सातमो पुष्कल, श्राठमो पुष्कलावति, ॥ १५४ ॥ नवमो वन, दशमो सुवछ, अगीधारमो महावछ, बारमो वहावर्त, विय शब्द पदपूर्णार्थ बे. तेरमो रम्य, चौदमो रम्यक, चेव के निश्चे पंदरमो रमणि, सोलमो मंगलावती, ॥ १५५ ॥ सत्तरमो पद्म, अढारमो सुपद्म, उगणीशमो महापद्म, वीशमो पद्मावती, तो के तेवार पड़ी एकवीशमो शंख, बावीशमो नलिन एवे नामे विजय डे. त्रेवीशमो कुमुद, चोवीशमो नलिनावती, ॥१५६॥ पचीशमो वप्र, बबीशमो सुवप्र, सत्तावीशमो महावप्र, अहावीशमो वप्रावती, तिय शब्द पदपूरणार्थे बे. उगणत्रीशमो वल्गु, तदा के० तथा प्रकारे त्रीशमो सुवल्यु, एकत्रीशमो गंधिल अने बत्रीशमो गंधिलावती.१५७ ॥ हवे वली गाथा बंद कहे .॥ एए पुत्वावर गय, वियह दलियत्तिनई दिसिदलेसु ॥ नर-पुरीसमा ॥श्मेहि नामेदि नयरी ॥ १५॥ अर्थ-एएपुवावरगय के ए कलादिक बत्रीश विजय जे ते पूर्व अने पश्चिम दिशि गत जे वियन के लांबा वैताढ्य पर्वत तेणे जरत तथा ऐरवतनी पेरे विजयना दलियत्ति के अर्ड कीधा ने एटले एकेकी विजयना बे बे खंग कीधा , वली एकेका विजयने विषे बेबे नदी के तेणे करी खंग कीधा बे. नईदिसि के० नदीदिशि दक्षणार्ड विजयने विषे नरक पुरीसमा के दक्षण जरतनी अयोध्या नगरी सरखी श्मेहि नामे हिनयरी के० ए श्रागली गाथामां कहेशे एवा नामे बत्रीस नगरी . ॥ १७ ॥ ॥ हवे ए बत्रीस नगरीउनां नाम अनुक्रमे कहे जे. ॥ खेमा खेमपुरा वीय ॥ रिहा रिहावा य नायबा ॥ खग्गी मंजूसा विय ॥ सहपुरी पुंडरीगिणीय ॥२५॥ सुसीमा कुंडला चेव ॥ऽवराश्य पहंकरा ॥ अंकाव पम्हा वश्॥ सुना रयणसंचया॥१६०॥आसपुरा सींदपुरा महापुरा॥ तद य चेव विजयपुरा ॥ अवराश्या य अवरा ॥ असोग तद य वीयसोगा य॥ १६१ ॥ विजयाय वेजयंति ॥ ज.. यंति अपराजिया य बोधवा ॥ चक्कपुरा खग्गपुरा ॥ हो अवजा अर्मजाय ॥१६॥ अर्थ- देमा, देमपुरा, विय के० वली अरिष्टा, अरिष्टवती, नायवा के जाणवी. Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ लघुदेवसमासप्रकरण. खड्गी, मंजूर्षा, विय के० निश्चे षनपुरी, पुंडरिगिणी, चेव शब्द पदपूरणार्थ जे. ए श्राउ नगरीनां नाम कह्यां ॥ १५ए ॥ सुसीमा, कुंमला, चेव पदपूर्णार्थ बे. अपरावती, प्रनंकरा, अंकावती, पद्मावती, शुजा, रत्नसंचया, ॥ १६० ॥ अश्वपुरा, सिंहपुरा, महापुरा, चेव शब्द पदपूर्णार्थ , तहय के तथा प्रकारे विजयपुरा, अपिराजिता, अपरा, अशोका, तथा प्रकारे वीतशोका, ॥ १६१ ॥ चेव पदपूर्णार्थ . विजया, चेव पद पूर्णार्थ बे, वैजयंति, जयंती, अपराजिता, ते बोधवा के जाणवी. चक्रपुरी, खजपुरी, होश के होए श्रवध्या अने बत्रीसमी अयाध्या नगरी जाणवी. ए बत्रीस नगरी ते नदीनी दिशिए जे विजयतुं थर्ड जे, तेमांहे जाणवी. ॥ १६ ॥ ॥ हवे विजयनी नदी कहे .॥ कुंडुनवा नगंगा ॥ सिंधू कवपम्हपमुहेसु ॥ अह एसु विजए, सु सेसेसु रत्त रत्तवई ॥ १६३ ॥ अर्थ- निषध तथा नीलवंतने समी- जे कुंड के कुंड ते थकी उन्नव के नीकली जे गंगासिंधू के गंगा, सिंधु, नामे जे नदी ते कळपम्हपमुहेसु अपसु विजएसु के कछादिक श्राप विजयने विषे अने पद्मादिक श्राप विजयनेविषे गंगा अने सिंधू ए बे बे नदी जाणवी. अने सेसेसु के शेष बीजा जे वछादिक आठ विजय अने वप्रादिक श्राप विजय तेनेविषे रत्तरत्तवई के० रक्ता श्रने रक्तवती नामा बेबे नदी बे, ते सर्व नदी वैताढ्य प्रते नेदीने सीतोदा तथा सीता मांहे प्रवेश करे बे. ए कलादिक विजयथी दक्षिणावर्त गपीएं. ॥ १६३ ॥ ॥ हवे माहाविदेह क्षेत्रने विषेपूर्व तथा पश्चिम दिशिएं सीतोदा तथा सीतानदी जगतीने नेदीने ज्यां समुषमाहे मले बे, त्यां जगती मांहेनी दिशि सीतोदा सीताने बन्ने बाजु चार वनमुख ले तेहy परिमाण कहे . ॥ अविव स्किमण जगई। सवेश्वणमुहचजकपिहुलत्तं ॥गु णतीससय ज्वीसा ॥ नति गिरिश्रति एगकला ॥ १६४ ॥ अर्थ- अविव रिकऊणजगई के जगतीनी विवक्षाविना एटले जगतीरहित अने सवेश के वेदिका सहित जे वणमुहचजक के चार वनमुख . पिहुलत्तं के तेनुं पहोलपणुं गुणतीससयऽवीसा के उंगणत्रीशसें ने बावीस योजननुं नइंति के० सीतोदा तथा सीतानदीने समीपे जाणवू. अने पढी संकोचता संकोचता गिरि अंतिएगकला के निषध तथा नीलवंतने पासे वनमुखनो विस्तार एक कला जाणवो. हवे कुलगिरि थकी नदी दिशि जातां वांबीत स्थानकनेविषे वनमुखनो विस्तार जाणवानो विधि कहे Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुत्रसमासप्रकरण. २३७ बे. निषध तथा नीलवंतने समीपे वनमुखनो विस्तार एक कला बे, तो नदीने समीपे निषेध तथा नीलवंत थकी सोल हजार पाचसें ने बाणु योजन उपर बे कला जइए तेवारे वनमुखनो विस्तार जाणवो. माटे ए पूर्वोक्त सोल हजार पांचसें ने बाणु योजननी कला करीएं ते कला त्रण लाख पंदर हजार बसें ने पचाश थाय, अने ते नदीने समीपे वनमुखनो विस्तार उगणत्री ससें ने बावीश योजन बे तेनी साथे गुणी एं वारे बा को गीखार लाख साठ हजार ने पांचसें उपर थाय, तेने ते क्षेत्रनो विस्तार त्रण लाख पंदर हजार बसें ने पचाशसाथे जाग आपीएं तेवारे उगणत्रीशसें बावी योजन वनमुखनो विस्तार थाय ते जाणवो. ए प्रकारे ज्या वांबिएं त्यां वनमुखनो विस्तार लाने. ॥ १६४ ॥ ॥ हवे विजयादिकनो विस्तार एकठो करतां लाख योजन पूर्ण थाय ते कहे . ॥ पणतीससदस चनस्य ॥ बडुत्तरा सयल विजय विकंजो ॥ वणमुद डुंग विकंजो ॥ च्प्रडवन्नसया य चनच्याला ॥ १६५ ॥ अर्थ - पणतीससहस चसयनमुत्तरा के० पांत्रीस हजार चारसें ने ब योजन एटला सयल विजय विरकंजो के० सर्व विजयनो विष्कंन जावो. अने वणमुहडुग विरकंजो ho बे वनमुखनुं विष्कंन ते अडवन्नसयाय चयाला के० श्रावनसें ने चुमालीश योजन बे ॥ १६५ ॥ सगसय पन्नासा नइ ॥ पिहुत्ति चनवस सदस मेरुवणे ॥ गिरिविचर च सदसा ॥ सवसमासो दवइ लकं ॥ १६६ ॥ अर्थ- सगसय पन्नासा के० सातसें ने पचास योजन नइपिडुत्ति के अंतरनदीनुं पहोलपणुं बे, ने चडवससहसमेरुवणे के० चोपन हजार योजन मेरु अने जयशाल वन बे, ते केमके शाल वन जे बे, ते मेरुथ की पूर्वदिशि ने पश्चिमदिशि बावीश बावीश हजार योजन बे, तेमाटे बे बाजुना चुमालीश हजार योजन थया, अने मेरुनो मध्य विस्तार दश हजार योजन बे. ए एकठा करतां चोपन्न हजार योजन पूरण थाय; तथा गिरिविवरच सहसा के० गिरि जे वक्षस्कार पर्वत तेनो विस्तार चार हजार योजन बे. सब के० ए सर्वनो विस्तार तेने समास के० एकठो करिएं तेवारे हवइलरकं के० लाख योजन पूर्ण थाय बे. ॥ १६६ ॥ ॥ हवे अधोलोकमां गाम वखाणे बे. ॥ जो सयदसते ॥ समधरणी बायाली ससदसेदि ॥ गंतुं मेरुस्स पश्चिम हो For Private Personal Use Only हो गामा ॥ ॥ १६७ ॥ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ लघुक्षेत्र समासप्रकरण. अर्थ- समधरणी के० मेरुना समजूतलनी अपेक्षाए मात्राएं मात्राएं भूमी अहो अहो के० नीची नीची थती जाय बे. ते मेरुस्सपछिम के० मेरुपर्वत थकी पश्चिम दिशिनेविषे बायालीस सह से हिगंतुं के० बेतालीश हजार योजन भूमिनेविषे गया पी त्यां जोयणसयदसगंते के० एक हजार योजन भूमी समजूतलयी ठंडी बे. त्यां अहोगामा ho अधोगामी माणस वसे बे. समजूतलथी नवसे योजन देवा ने नवसे योजन उंचा त्यां सुधी तिर्छौ लोक कहिएं, तथा नवसेंथी उंचुं ते उर्ध्वलोक कहिएं, नवसेंथी नीचुं ते अधोलोक कहिए. १६७ ॥ ॥ हवे तीर्थंकर तथा चक्रवर्ति प्रमुख क्यां उपजे ते कहे बे. ॥ चन दतीसं च जिणा ॥ जहन्नमुकोसर्ज य हुंति कमा ॥ हरिचक्किबला चउरो ॥ तीसं पत्तेय निहदीवे ॥ १६८ ॥ अर्थ - इहदीवे के० या जंबूद्वीपने विषे जहन्नं के० जघन्य तो चउ के० चार तीर्थंकर समकाले होए. च के० वली उक्कोस के० उत्कृष्ट तो चउत्तीसं के० चोत्रीस तीर्थंकर समकाले हुंति के० होए. एम कमा के० ए अनुक्रमे जाणवा. बत्रीश विजना बत्री ने जरत तथा ऐखतना बे सलीने चोत्रीश समकाले होए. अने हरिच किबला के० वासुदेव, चक्रवर्ति ने बलदेव, ए त्रण पुरुष जघन्य तो समकाले पत्ते के० प्रत्येके चउरो के चार चार होए. घने उत्कृष्टा तीसं के० त्रीश होए. जेवारे चक्रवर्ति होए, तेवारे वासुदेव न होए, छाने जेवारे वासुदेव होए तेवारे चक्रवर्ति न होए. तेमाटे त्रीश समकाले होए. पण चोत्रीश न होए, बत्रीश विजय तथा जरत ने ऐरवत ए चोत्रीश क्षेत्र उपजवाना जाणवा ॥ १६८ ॥ ॥ हवे चंद्रमा छाने सूर्यनुं चारक्षेत्र कहे बे. ॥ ससिङग रविडग चारो ॥ इह दीवे तेसिं चारखित्तंतु ॥ पण सय दसुत्तराई ॥ इग सविजागा य प्रमयाला ॥ १६९ ॥ अर्थ - इहदीवे के० या जंबूदीपने विषे ससिडुगर विडुग के० बे चंद्रमा ने बे सूर्य तेनुं चार bo चाल तेसिं के० ते चंद्रमा सूर्यनुं चार के० चार क्षेत्र एटले दक्षणाने उत्तर दिशिनुं जे गमनागमन तेहनुं खित्ततु के० क्षेत्र ते पणसय दसुत्तराई इस विजागायाडयाला के० पांचसें दश योजन उपर एक योजनना एकसठी श्रा अडतालीश जाग जाणवुं ॥ १६५ ॥ ॥ हवे चंद्रमा छाने सूर्यना मंडलनी संख्या अने प्रमाण कहे बे. ॥ पन्नरस चुलसीइसयं ॥ बपन्न म्यालनागमाणाई ॥ ससि सूर मंडलाई ॥ तयं तराणि गिगढ़ीलाई ॥ १७० ॥ For Private Personal Use Only Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुदेवसमासप्रकरण. २३ए अर्थ- पनरस के चंद्रमाना पंदर मांडला , अने चुलसीश्सयं के सूर्यना एकसोने चोरासी मामलां ते मंडल केवां बे? तो के-एक योजनना एकसठ नाग करिएं तेवा उपन्न के बपन्न नाग प्रमाण चंडनां मांडलांबे, अने अमयाल के श्रमतालीश नाग प्रमाण सूर्यनां मांडला . ए चंछ सूर्यना विमाने रोधन करेली जे क्षेत्रनूमी तेने मंगल कहीएं, अने तयंतराणि गिग हीणा के० ते मंडलना आंतरा एकेके उठा जाणवा, एटले चंडमानां मामला पंदर , तेना चउद अंतरा थाय. अने सूर्यनां मांडला एकसो ने चोरासी बे, तेना अंतरा एकसो ने त्र्यासी थाय. ॥ १० ॥ ॥ हवे चंजमाना एक मंडलने बीजा मंडलनी वचमां अंतर कहे .॥ पण तीस जोयणेना, ग तीस चनरो नाग सगन्नाया॥ अंतरमाणं संसिणो ॥ रविणो पुण जोयणे उन्नि ॥१७॥ अर्थ-पांत्रीश योजन उपर एकसठीयात्रीश नाग. वली एकशीया एक नागना सात नाग करिएं तेवा चार जाग अधिक, एटलुं अंतरमाणं ससिणो के चंद्रमाना एक मंडलथी बीजा मंडलनी वचमां अंतरतुं प्रमाण जाणवू. ते जाणवानी परे लखीएं बे के, मंडल मिश् परिमाणगुणिज॥ तसुगसहिहिनागु हरिजश् ॥ सक मूल रासिहि सोहिडा सेसएगऊणंतर बिजाई॥१॥ जेपुण उप्परि थक्करकेश्॥ तेपुण इंगसही हिगुणेश ॥ अंतर हरिपुण विजेश्यक ॥ सत्तगुण विपडिनाग रहिंतहि ॥२॥ ए रीते मंडल, अंतर जाणीएं. ते केम ? चंजमंगल पंदर डे, ते एकेका, परिमाण जे एकसठीश्रा उपन्न नाग तेनी साथे गुणतां बाउसे चालीश जाग थाय, तेने एकसठ जागे हरतां तेर योजन उपर एकसठीया समतालीश नाग थाय, ते मूलगी जे चारना क्षेत्रनी राशि पांचसे दश योजन उपर एकसठीया अडतालीस नागनी , तेमांहेथी बाद करतां बाकी चारसं सताए॒ योजन उपर एक नाग रहे, तेने चन्द श्रांतरे वहेंचीएं तेवारे पांत्रीस योजन श्रावे, उपर सात योजन रहे तेना एकसठीश्रा चारसे ने सत्तावीश नाग थाय, तेनी साथे प्रथमनो उगस्यो एक नाग नेलीएं तेवारे चारसे ने श्रहावीश नाग थाय, तेने चउद नागे वहेंचतां त्रीश नाग थावे, उपर श्राप वधे, ते एकेकाना सात नाग कल्पीएं तेवारे सातने आठे गुणतां बपन्न थाय, तेने चजदे नाग देतां चार नाग लाने, ए रीते जमाना मंगलनो अांतरो पांत्रीश योजन उपर एकसठीश्रा त्रीश नाग, तथा एकसीथा एक जागना सात नाग करीएं तेवा चार जाग, अधिक थाय. हवे सूर्यमंडल, अंतर कहे बे. सूर्यमंगल एकसो ने चोरासी बे, ते एकेकन परिमाण एकसठी अडतालीश नागर्नु बे; अने चार क्षेत्रनुं परिमाण पांचसे दश यो Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० लघुदेवसमासप्रकरण. जन उपर एकसठीथा श्रमतालीश नाग बे, तेमांश्री एकसो ने चोरासी मंडलना परिमाणना एकसठीया थाठ हजार आठसें ने बत्रीश नाग थाय, तेना योजन एकसो चुमालीस उपर एकसठीथा श्रमतालीश नाग आवे, ते बाद करतां त्रणसें ने बासठ योजन रहे, तेने एकसो नेत्र्यासीअंतरे वहेंचतांबे योजन श्रावे, तो एक सूर्यमंमल अने बीजा सूर्यमंमलनी वचमां अंतर बे योजन . ॥ १७॥ ॥चंद्रमा तथा सूर्य जंबूद्वीपमांदे तथा लवणसमुअमाहे केटला योजन आवे ते कहे .॥ दीवंतो असिय सए ॥ पण पणसही य मंडला तेसिं ॥ ती सदिय तिसय लवणे ॥ दसगुणवीसं सयं कमसो ॥१७॥ अर्थ-दीवंतो असियसए के जंब्रहीपमांहे एकसो ने एंसी योजन प्रमाण क्षेत्रने विषे पणपणसहीयमंडलातेर्सि के पांच मंडल चंजमाना बे, अने पांसठ मंडल सूर्यना बे, श्रने तीसहियतिसयलवणे के लवण समुजमाहे त्रणसें नेत्रीश योजन प्रमाण क्षेत्रनेविषे दसएगुणवीसंसयं कमसो के० दश चंजमाना बे, अने एकसो ने जंगणीस मंगल सूर्यना , एटले एकसो ने एंसी योजन चंद्रमा अने सूर्य जंबूहीपमाहे श्रावे, अने लवणसमुखमाहे त्रणसें ने त्रीश योजन चंजमा अने सूर्य जाए. ॥ १७ ॥ ॥ हवे चंद्रमानुं मंगल अने सूर्य, जे मंडल ने तेनो परस्पर अंतर कहे .॥ ससि ससि रवि रवि अंतरि ॥ मगला तिसयसाठूणो॥ सादिय उसयरि पणचय ॥ बहिलको उसय सागदि ॥१३॥ अर्थ- मस्र के सर्व मामलामांना मध्यना मंडलने विषे रहेला जे ससिससि रवि रवि के बे चंजमंडल अने बे सूर्यमंगल तेनुं अंतरि के० परस्पर जे अंतर , ते तिसयसाचूणो के त्रणसें ने साठे ऊणा एवा गलरकु के एक लाख योजन जाणवा. एटले नवाणु हजार बसो ने चालीस योजन- सूर्यमंडल अने चंजमंमलनुं मांहोमांहे अंतर जाणवू. तदनंतर चंउमंमलोना प्रतिमंगलने विषे साहिय ऽसयरि पणचय के बहुत्तेर योजन साधिक एटले बहुत्तेर योजन अने एक योजनना एकसठ नाग करिएं तेवा बावन नाग उपर एवी अंतर वृद्धि, अने सूर्यमंडलोमां प्रतिमंडलनेविषे पण के पांच योजन अने एक योजनना एकसठ नाग करिएं तेवा पांत्रीस जाग उपर, एटली अंतर चय एटले वृद्धि, तेमज बहि के बाह्य मंडलोने विषे रहेला जे बे चंजमंडल अने बे सूर्यमंडल तेनुं परस्पर अंतर लरकोउसय सारहि के एक लद बसें ने साठ योजननुं वचमां अंतर जाणवू. ॥ १७३ ॥ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुक्षेत्रसमासप्रकरण. ३४१ ॥ हवे चंडमाना प्रत्येक मंडलने विषे मूहूर्त गति कहे .॥ साहियपणसहस तिहु, त्तराइ ससिणो मुहुत्तगइ म ॥ बावसहिया सा बदि ॥ पश्मंडल पजणचवुढी ॥ १४ ॥ - अर्थ- ससिणो के चंजमा जेवारे निषध पर्वतने माथे मले के सर्वाच्यंतर मंगले जगे तेवारे एक मुहर्तमांहे साहिय पण सहसतिहत्तरा के० साधिक पांच हजार ने तहुत्तेर योजन चाले, एटले पांच हजार तहुत्तेर योजन, अने उपर एक योजनना तेर हजार सातसो ने पचीश नाग करीएं तेवा सीतोतेरसोने चुमालीश जाग उपर एटली मुहर्तगति करे. त्यार पड़ी जेवारे बीजे त्रीजे मांगले जाय तेवारे पक्ष मंगल पठणचवुट्ठी के प्रतिमंमले पोणाचार योजननी बुद्धि करीएं. एम मंडल प्रते मुहर्त दीठ पोणाचार योजन वधारतां जेवारे पंदर मंडल सुधी सा के ते मुहर्तगतिए जेवारे चंडमा बहि के लवण समुसमांहे सर्व बाह्य मांडले उगे तेवारे बावन हिया के बावन योजन अधिक करिएं तेवारे एकेक मूहुर्ते पांच हजार एकसो ने पचीस योजन उपर एक योजनना तेर हजार सातसें ने पचीश नाग करिएं तेवा ब हजार नवसें ने नेवुनाग अधिक जाणवी, एटली बाहेरने मंगले चंजमा एक मुहूर्त्तमांहे गति करे. ॥१॥ जा ससिणो सा रविणो ॥ अडसयरिसरण सीसएण दि. या ॥ किंचूणाणं अमा, रसहिनागाणमिद वुढी ॥ २७५ ॥ अर्थ- जाससियो के जे चंडमानी मांहेना मामलानी मुहूर्तगति, पांच हजार ने तहुत्तेर योजन काज़ेरी कही सा के तेज सर्वाच्यंतर मांडले रविणो के० सूर्यनी गति बे, परंतु तेमांहे अमसयरिसएण के० एकसो ने अहोतेर योजन सहीत करिएं, एटभी अधिक सूर्यनी मांहेले मंडले मुहूर्त गती जाणवी. एटले जेवारे पांच हजार तहो. तेरमांहे एकसो ने अहोतेर नेलीएं तेवारे पांच हजार बसें ने एकावन्न योजन, अने एक योजनना साठ जाग करिएं तेवा गणत्रीस नाग काजेरी सूर्यनी गति जाणवी. अने चंजमानी बाहेरने मंडले जे मुहर्तगति एकावनसें ने पचीस योजन कही, तेमाहे असीसएणहिया के० एकसो ने एंसी योजननी वृद्धि करिएं तेवारे त्रेपनसें ने पांच योजन अने साठीथा पंदर नाग एटली बाहेरने मांडले सूर्यनी मुहूर्त्तगती जाणवी. किंचूणाणंअहारसहिनागाणमिहबुढ्ढी के कांश्क जणा साठीथा अढार जाग एटला मांना मंडलश्री बाहेरने मंडले श्रावतां प्रत्येक मंगले सूर्यनी इह एट ए मुहर्तगतिमाहे वृद्धि जाणवी. ॥ १७५॥ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ लघुक्षेत्रसमासप्रकरण. ॥ ॥ दवे सूर्य उदय पामे त्यांथ । केटले योजने अस्त याय ते कहे बे.. मझे उदय चंतरि ॥ चनणवइसदस्स पणसय बवीसा ॥ बायालसहिनागा ॥ दिणं च प्रहारसमुहुत्तं ॥ १७६ ॥ अर्थ- मझेउदय के० सूर्य जेवारे मांहेने मंडले उदय पामे तेवारे चोराए हजार पांच से ने बवीस योजन उपर साठीच्या बेतालीश नाग एटला योजनने अंतरि के० श्रांतरे वेगलो सूर्य थमे तेवारे दिणंच द्वारसमुडूतं के० दिवस अढार मुहूर्त्तनो होय. ॥ १७६ ॥ ॥ हवे मांहेथी बाहेर मंडले श्रावतां केटलो दिवस घटे ते कहे बे. ॥ पमंडल दिदा ॥ एद मुदुत्तेगसठिनागाणं ॥ - ते वारमुत्तं ॥ दिनिसा तस्स विवरीया ॥ १७॥ अर्थ- सूर्यने मांहेना मंगल थकी बाहेर धावतां पश्मंडल के० एकेका मंगलप्र मुत्ते सहिनागाणं के० एक मुहूर्त्तना एकसठ जाग करिएं एवा डुएट के० बे जाग दिपहाणी के अढारमुहूर्त्तना दिवसमांथी दिन प्रते घटे, एम घटामतां अंते के० बेले एकसो ने चोरासीमे मंडले जेवारे सूर्य यावे तेवारे बारमुदुत्तंदिलं के० दिवस बार मुहूर्त्तनो होए, अने निसा के० रात्री ते तस्सविवरीया के० दिवस थकी विपरित जाणवी. ते केम? जेवारे दिवस बार मुहूर्तनो होए तेवारे रात्री अढार मुहूर्त्तनी कर्कसंक्रांतीथी मकरसंक्रांती सुधी जाणवी, अने जेवारे मांहेना मंडलथी सूर्य बाहेर वारे दिवसमा मुहूर्तना एकसठीया बे जाग घटे, अने जेवारे मकरसंक्रांतीमी बाहेरना मंडलथी मांहे यावे तेवारे मुहूर्त्तना एकसठीया बे जाग दिवसमां वधे; एम रात्रीने विषे घटे ते विपरीत जाणवुं ॥ १७ ॥ ॥ हवे सूर्य बाहेर मांडले आवे तेवारे उदय अस्तनुं अंतर कहे बे ॥ उदयवंतरि बादि ॥ सहसा तेसठि ब सय तेसठि ॥ तद इस सिपरिवारो || रिकड वीसामसीइ गढ़ा ॥ १७८ ॥ अर्थ - उदयवंत रिबाहिं सहसा तेसह बसय तेसहि के० सूर्य जेवारे बाहेरने एकसोने चोरासी मे मांडले श्रावे तेवारे त्रेसठ हजर बसें ने त्रेसठ योजन वेगलो स्त था, कर्क संक्रांतिथी धुर मांगीने मकरसंक्रांति सुधी एकसो ने अडसठ योजन प्रतिमंगले उबी गति करे. तह के० तथा प्रकारे एक चंद्रमाने परिवारे रिरकवीस के० अनि जित प्रमुख वीस नक्षत्र तथा अंगारक प्रमुख अमसीइगहा के० श्रासी ग्रहो जागवा ॥ १७८ ॥ For Private Personal Use Only Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुक्षेत्र समासप्रकरण. ॥ हवे एक चंद्रमानी पढवाडे तारानी संख्या कडे बे. ॥ बास सिदस नवसय || पणदत्तरि तारकोमिकोडी ॥ सत्तरेणमुस्से, दंगुलमाणेण वा हुंति ॥ १७९ ॥ अर्थ- बासठ हजार नवसें ने पंचोत्तेर कोमाकोडी एटला तारा, एक चंद्रमानी पबवाडे जाणवा. ए ताराना बाहुल्यपणा थकी क्षेत्र थोडुं बे, माटे केक श्राचार्य को माकोमीने ससंतरेण के० संज्ञांतर एटले कोमीनुं बीजुं नाम कड़े बे, वा के० अथवा मुस्से हंगुलमा हुंति के० उत्सेधांगुले जेवारे ताराना विमान लेखवीएं तेवारे कोडाकोडीनो संजव होय. पढ़ी निश्चेनी वात ज्ञानवंत जाणे ॥ १७५ ॥ ॥ दवे ग्रहादिकनी संख्या जाणवानुं करण कहे बे. ॥ गदरिकतारगाणं ॥ संखं ससिसंखसंगुणं कानं ॥ इचिय दीवुदहिंमिय ॥ गदाइमाणं वियाणिका ॥ १८० ॥ अर्थ- गहरिरकतारगाणं संखं के० ग्रह नक्षत्र घने तारा ए त्रणनी संख्या, एक चंद्रमा श्री जे कही ते, जे द्वीप समुद्रने विषे जेटला ससिसंख के० चंद्रमानी संख्या होए संगुणं काउ के० तेटला चंद्रमानी साथे गुणाकार करिएं, एम करतां जे ग्रहादिकनी संख्या श्रावे तेटलो परिवार जाणवो. ए रीते इष्ठियदी वुदहिं मिय के० वांबित द्वीप समुद्रनेविषे ए गदाइमाणं वियाणिका के० ग्रहादिकनुं प्रमाण जाणीएं. ते यंत्र थकी जावं. ॥१८॥ २४३ ॥ हवे लवण समुद्र प्रमुखने विषे चंद्र सूर्यनी संख्या कहे . ॥ चल चन बारस बारस ॥ लवणे तद धाइयंमि ससिसूरा ॥ परद दिदीवेसु य ॥ तिगुणा पुविलसंजुत्ता ॥ १८२ ॥ अर्थ - लवणसमुद्रने विषे चार चंद्रमा अने चार सूर्य जाणवा. तथा प्रकारे धातकीखंडने विषे बार चंद्रमा ने बार सूर्य जाणवा. परनंदहिदीवेसु के० तेवारे पी कालोद समुद्र तथा पुष्करवर द्वीप प्रमुखने विषे पूर्वे जे कथा वे तेणे सहीत त्रिगुणा जाणवा, ते केमके धातकी खंडने विषे बार चंद्र तथा बार सूर्य कह्या बे, तेने त्रिगुणा करिएं तेवारे बत्रीश याय; तेमांहे पहेला जंबूद्वीपना बे ने लवण समुड़ना चार एवं छं जेलीएं तेवारे बेतालीश सूर्य ने बेतालीश चंद्र कालोद समुद्रनेविषे थाय, हवे ए बेतालीने त्रिगुणा करिएं तेवारे एकसो ने बवीश थाय, तेनी साथै पूर्वोक्त के, चार अने बार एवं अढार जेलीएं तेवारे एकसो ने चुमालीस चंद्र ने एकसोने चुमालीस सूर्य, पुष्करवर द्वीपने विषे बे, तेनुं अर्द्ध एटले बहुत्तेर सूर्य छाने बहुत्तेर चंद्र पुष्कराने विषे जाणवा ॥ १०१ ॥ For Private Personal Use Only Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुक्षेत्रसमासप्रकरण. नरखितं जा समसे, णिचारिणो सिग्घसिग्धतरगणो॥ दिहिपदमिति खित्ता, णुमाण ते नराणजदा ॥१७॥ अर्थ- ते चंड सूर्य नरखित्तं के नरदेत्र जे अढी छीप ने त्यांसुधी जासमसेणिचारिणो के० यावत् समश्रेणीएं चाले . संघयणी मांहे पण एमज कडं बे. दोससि दोरविती ॥ एगंतरिया सहि संखाय ॥ मेरुपया हिणंता ॥ माणुसखित्तंपरिश्रमंति ॥१॥ वली ते चं सूर्य केहवा बे? सिग्घसिग्घतरगश्णो के० शीघ्र शीघ्रतर गति डे जेमनी एवा , एटले चंजमा थकी सूर्यनी गति उतावली . सूर्य थकी ग्रहनी गति उतावली , ग्रहथकी नक्षत्रनी गति उतावली बे, ते के० ते चंद्र सूर्यादिकना खित्ताएमाण के क्षेत्रना अनुमान एटले प्रमाण थकी केटलां वेगलां नराणदिति पहमिति के मनुष्यनी दृष्टी गोचरनेविषे आवे ते कहे बे. पणसय सत्तत्तीसा॥ चनत्तीस सदस्स लक गवीसा॥ पुरस्करदीवद्धनरा ॥ पुवेण वरेण पिबंति ॥ १३ ॥ श्रर्थ- एकवीश खाख चोत्रीश हजार पांचवें ने सामतीश योजन प्रमाण क्षेत्रथी पुस्करदीवजनरा के० पुष्कराई छीपना मनुष्य ते पुवेणवरेण पिछंति के पूर्व दिशि उदय पामता अने अवरेण एटले पश्चिमदिशि अस्त पामता एवा सूर्य चंजमा प्रत्ये देखे बे, एटले त्यां तेटला क्षेत्रना वेगला विस्तारथकी देखे ॥ १३ ॥ ॥ हवे मनुष्य देव थकी बाहेर चं सूर्यनो विचार कहे . ॥ नरखित्तबहिं ससिरवि ॥ संखाकरणंतरेदि वा दोई ॥ तह तब य जोसिया ॥ अचलरूपमाणसुविमाणा ॥२४॥ अर्थ- नरखित्तबहिंससिरविसंखा के० मनुष्यदेत्र थकी बाहेर चंड सूर्यनी संख्या प्रथम कही, तेमज होए. वा के अथवा करणंतरे हिहो के बीजो करण एटले उपाय तेणे करी पण होए. ते उपाय शास्त्रांतरथकी जाणवो. पण संघयणी प्रमुख ग्रंथने विषे एज करण विधि श्रादयुं . तह के तथा प्रकारे तब के ते मनुष्य क्षेत्रथी बाहेर जे जोसिया के ज्योतषी चंज सूर्यादिक , ते अचल एटले स्थिर जाणवा. अने मनुष्य क्षेत्रना चंज सूर्यना विमानथी अझ पमाणसुविमाणा के० तेमना विमान अर्क प्रमाणे एवा रुडा मनोहर विमान जाणवा, ॥ १४ ॥ ॥ हवे लक्ष योजन प्रमाण जंबहीपनो परिधि कहे .॥ जंबूपरिदि तिलका ॥ सोलसहस उसय पनणअडवीसा ॥ धणुअडवीस सयंगुल ॥ तेरससढासमदिया य॥२५॥ Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुक्षेत्र समासप्रकरण. २४५ अर्थ - इह के० या जंबूद्वीपने विषे वलयाकारे परिधि, ते फरता त्रण लाख सोल हजार बसें ने सत्तावीश योजन त्रण कोश छाने एकसो ने अहावीस धनुष्य उपर साडातेर अंगुल समहियाय के० समाधिक एटले किंचित् अधिक जाणवो. ॥ १०५ ॥ || हवे जंबूद्वीपनुं गणित पद कहे बे. ॥ सगस नया कोडी ॥ लका उप्पल चडणवइ सदस्सा ॥ ससयं पणडुको, ससढबास ठिकरगणियं ॥ १०६ ॥ 10 अर्थ - सातसें नेवु कोमी उपन्न लाख चोराए हजार ने सहसयं के० एकसो ने पचाश एटला योजन उपर पोणाबे कोश अने सढबास ठिकर के० साडाबासठ हाथ एट गयिं के गणितपद थाय. गणित एटले लाख योजननुं जे वृत्त विष्कंन प्रमाण जंबू द्वीप बे, तेना जेवारे एक योजन प्रमाण समचरंस खंग करिएं, तेवारे तेनेगतिपद कहिएं. ते खंगनी संख्या १९०५६००४१५० योजन अने पोणाबे कोश उपर साढाबासठ हाथ जाणवी ॥ १०६ ॥ ॥ दवे परिधि प्रमुख आठ बोल कहे बे. ॥ वट्टपरिदिं च गणियं ॥ अंतिमखंडाइ सुजियं च धणुं ॥ बादं पयरं च घणं ॥ गणियवममेदि करणेदिं ॥ २८७ ॥ अर्थ-एक, वह के० वाटला क्षेत्रनुं परिहिंच के० परिधि; बीजुं, वृत्तक्षेत्रना जे समचरंस योजन प्रमाण खंम करिएं ते गणितपद; त्रीजुं, अंतिम के० बेहेला खंगादि - कनुं जसु के० इखु एटले बाण करिएं; चोथुं, जियं के० जीवा ते धनुष्यने याकारे जरत वैताढ्य प्रमुखनी पणन; पांचमुं धणु के० ते श्रर्द्ध चंद्रमाने श्राकारे जरत प्रमुख जे क्षेत्र बे तेनुं पुग्नुं जाग, तेने धनुष्पृष्ट कहे बे; बहुं, बाहं के० वैताढ्य प्रमुख पर्वत तथा क्षेत्रना बेहेडानुं जे परिमाण ते, करवुं ते बाद जाणवी; सातमुं, पयरं के० प्रतर एटले लांबपण, तथा पहोलपणुं ज्यां सरखुं होय ते; आठमुं, घन के० लांबपणे, पहोलपणे अने जामपणे जे सरखुं होय ते, घन कदेवाय बे. ए घाव बोल ते एएहि के० आागल कहे बे जे करणेहिं के० उपाय ते विधिएं करी गणियव के गुणो वर्त्तारो करो, जेम सर्व परिधि प्रमुख जे आठ बोल बे ते जाणवामां आवे ॥ २८७ ॥ ॥ हवे प्रथम परिधि जाणवानो विधि, अर्द्ध गाथाएं करि कहे बे. ॥ विजवग्गदद्गुण || मूलं वट्टस्स परिरर्ज दोई ॥ अर्थ - विरकंज के० वाटला क्षेत्रनो जे मध्य विस्तार तेने विष्कंन कहिएं, ते प्रथम जेटला योजननो विस्तार होए तेटला योजन मांडीएं तेनो वग्ग के० वर्ग करिएं, ते या रीते के, जेटला यांक मांड्या होए तेने तेटलागुणा करिएं तेने वर्ग कहिएं. For Private Personal Use Only Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ लघुदेवसमासप्रकरण. जेम नवने नवगुणा करिएं तेवारे एक्यासी थाय, ते वर्ग कहेवाय ने एम जाणवू. ते वर्ग कर्या पली तेने दशगुण के दशगुणा करिएं. एटले ते वर्गना श्रांकने श्रागले एक शून्य श्रापीएं तेवारे ते दशगुणा थाय. ते दशगुणा कर्या पली ते श्रांकनुं मूल शोधीएं. ते श्रावी रीते के, बेहेला श्रांक थकी विषम सम करतां धुरना कसुधी श्रावीएं, जो धुरने के विषम थावे तो एकलो धुरनुं क तेने वर्गने बांके शोधीएं, अने जो सम आवे तो धुरना बे श्रांक वर्गने बांके शोधीएं; एम करतां जे श्रांक लाने ते बमणो करी जपली पंक्तिना एकेका आंकने रासी मांडीएं, वली जपला श्रांकनी राशी साथे जेम सर्व नीचेना आंकनो नाग पहोंचे तेम वहेंचीएं, पड़ी जे यांक लाने तेना वर्गमां एक उपरनी श्रेणीनो अधिक अंक लेश्ने काढीएं, ए रीते उपरनी श्रेणीना बेहेमाना आंकसुधी वहेंचीएं. एम वर्गमूल करतां जे नीचेनी श्रेणीनेविषे श्रांक आवे तेनो अर्ड करिएं, तेटलो वाटला क्षेत्रनो परिधि जाणवो. वली वर्गमूल करतां जे गरे तेना जो कोश करवा होय तो चारवार गुणीएं, अने. जो धनुष्य करवा होए तो बे हजारवार गुणीएं, तथा अंगुल करिएं तो एक धनुष्यना बन्नु अंगुल करी गुणीएं. एम जे रीते नाग पहोंचतो होय तेवा प्रकारे गुणाकार करी पहेलाना बेद नाग पामीएं, पनी अनुक्रमे कोश, धनुष्य, अंगुल प्रमुख जे योजन उपर थावे, ते यंत्रथी जाणवू. ए रीते कमल, बीप, चूलिका, कूट, कांचनगिरि, कुंम अने मेरु प्रमुखनो परिधि जाणवो. ॥हवे पाडली गाथाना अर्डवडे गणित पद एटले योजन प्रमाण समचरंस करवानो विधि कहे ॥ विस्कंनपाय गुणि ॥ परिर तस्स गणीयपयं ॥१७॥ अर्थ-विरकंजपायगुणि के विष्कंचनो जे चोथो नाग तेनी साथे जेवारे परिधिनी संख्याए गुणीए तेवारे तस्सगणियपयं के तेनुं गणित पद थाय, ते एक जंबूझीप श्राश्री देखाडे बे. जेम जंबू छीपनुं परिधि त्रणलाख सोलहजार बसें ने सत्तावीश योजन , ते, विकंजना एकलाख योजननो चोथो जाग जे पचीश हजार योजन, तेनी साथे गुणिएं तेवारे सातसें नेवु कोमी बपन्न लाख ने पंचोत्तेर हजार थाय. वली परिधिने विषे त्रण कोश बे ते, पचीश हजार साथे गुणतां पंचोत्तर हजार कोश थाय. वली परिधिना धनुष्य एकसो ने श्रहावीश बे ते, पचीश हजार साथे गुणतां बत्रीश लाख धनुष्य थाय. वली परिधिना साडातेर अंगुलने, पचीस हजार साथे गुणीएं तेवारे त्रण लाख Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४७ लघुक्षेत्रसमासप्रकरण. सामीसामत्रीस हजार अंगुल थाय. ए सर्व श्रांकनी राशी जुदी जुदी मांमीएं, पब पूर्वोक्त पंचोतेर हजार कोशने चारजागे वहेंचतां पोणीगणीश हजार योजन थाय. पली धनुष्यना बत्रीस लाख श्रांकने श्राठ हजार जागे वहेंचतां चारसे योजन थाए. ए बंधा एकग करीएं तेवारे सातसें नेवु कोमी उपन्न लाख चोराणु हजार एकसो ने पचाश योजन थाय. तेवार पड़ी त्रण लाख ने साडीसाडत्रीस हजार अंगुलना श्रांक , तेने बन्नुजागे वहेंचतां पत्रिीससो ने पन्नर धनुष्य थाय. तेना कोश करीएं तो पोणावे कोश थाय. उपर पंदर धनुष्य ने साठ अंगुल वधे. तो पंदर धनुष्यना साठ हाथ थाय, अने साठ अंगुलना अढी हाथ थाय. ए बधा मली सामीबासठ हाथ थाय. ए. सर्व मली सातसें नेवु कोमी उपन्न लाख चोराणु हजार एकसो ने पचाश योजन उपर पोणाबे कोश अने साडीबास हाथ एटटुं जंबूझीपनुं गणित पद थाय बे. ते सूत्रनी गाथामा प्रथम कह्यु तेथी जाणवं. ॥ १७ ॥ ॥ हवे श्खु अने जीवानुं करण एक गाथामांहे कहे . ॥ - उगाहु नसूसुच्चि य ॥ जगणीसगुणो उसूकला होई ॥ विड सुपिहत्ते चगुण ॥ सुगुणिए मूलमिह जीवा ॥ १७ ॥ अर्थ- उगाहुउसूसुच्चिय के श्रा जंबूछीपनेविषे एक देश जे नरत देत्र ते चढावे. ला धनुष्यने श्राकारे बे, त्यां बाणना गमनी वचेनुं जे विष्कंन तेने श्खु कहीएं, ते श्खुना योजनने उगणीसगुणोउसूकलाहो के जंगणीशवार गुणीएं तेवारे कलानुं खु थाय. तो दक्षिण जरतनुं श्खु बसें आडत्रीस योजन उपर त्रण कला ले तेने उगणीसे गुणतां चार हजार पाचसें ने पचीश कला थाय, एटटुं कलानु श्खु जाणवू. हवे जीवातुं करण कहे जे. जेवारे जीवा करीएं तेवारे विजसुपिटुत्ते के० विगत एटले गयुं ने इखु एटखे बाण- पहोलपणुं ज्यांथी एटले कलारूप वृत्त क्षेत्र १ए00000 तेमांथी खुकला (४५२५ ) काढीएं बाकी रहे ( १७एप४७५) तेने चउगुण के० चारगुणा करीएं पली सुगुणिए मूल मिहजीवा के० खुकला साथे गुणीने तेनुं मूल शोधतां जे आंक श्रावे ते जीवा जाणवी. दक्षिण जरतादिकनेविष जीवा करवानो ए विधि जाणवो. ए जीवानुं मान यंत्र थकी जाणवु ॥ १७ ॥ ॥ हवे नरत वैताढ्य प्रमुख, धनुःपृष्ट कहे . ॥ जसुवग्गि गुणजीवा ॥ वग्ग जुए मूल दोश् धणुपिठं ॥ धणुउगविसेस सेसं ॥ दलियं बाहाउगं होई॥ १० ॥ अर्थ- उसुवग्गि के खुनो वर्ग करी तथा गुण जीवा के गुणो जीवानो वर्ग करी वग्गजुए के ए बे वर्गयुक्त एटले नेलीने पड़ी तेनुं मूल के मूख शोधता जे Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ लघुक्षेत्र समासप्रकरण. यांक श्रावे ते होई धणु पिठं के० धनुपृष्ट थाय. एम दक्षिण जरतादिकनुं धनुष्पृष्ट • जाणवुं. एरीते सर्व क्षेत्रनुं पर्वता दिकनुं धनुष्पृष्ट लाने ते धनुष्पृष्ट यंत्रयी जाणवुं. हवे बाहा करण कहे बे - धणुडुग विसेससेसं के० बे धनुष्यनुं विश्लेष करिएं, दक्षिण जरत . अने वैताढ्य ए वे धनुष्य कहिएं, तेमां जे न्हानुं धनुष्य होय ते मोहोटा धनुष्यमांtal काढएं, जे बाकी रहे तेनुं दलियंबाहाडुगंहोई के० तेनुं छाई करिएं एटले वैताढ्य प्रमुख पर्वत तथा हेमवंत प्रमुख क्षेत्रनी बे बाहा होए. बाहा एटले पर्वत 'क्षेत्रना बेमानो विस्तार. तेनुं प्रमाण यंत्रथकी जावं. ॥ १५० ॥ ॥ हवे बेहेलो खंड जे जरत तेहना प्रतर करवानो विधि कहे बे ॥ अंतिमखंडस्सुसुणा ॥ जीवं संगुणिय चदि नश्क णं ॥ लमि वग्गिए दस, गुणंमि मूलं हवइ पयरो ॥ १०१ ॥ अर्थ - अंतिम खंडेसुसुणा के बेहेलो खंग जे जरत खंड तेना इखु साथे जीवसंगुणिय के० जीवा गुणिएं पढी तेने च हिजकां के० चार जागे वर्हेचतां जे लद्धं मि के० लाने एटले जे नाग यावे, तेनो वग्गिए के० वर्ग करिएं, ते वर्गने दसगुणं मिमूलं के० दशगुणो करी मूल शोधीएं तेनो जे झांक आवे, ते हवश्पयरो के० प्रतर जावो. ते प्रतरने वली उगणीश जागे वर्हेचतां जे प्रांक यावे ते कला जाणवी. बीजी शेष रहे ते प्रतिकला जाणवी. वली उगणीश जागें वहेंचतां योजन थाय, छाने जे शेष रहे ते कला जाणवी. ते यंत्रथी जाणजो एम समचजरंस जरतक्षेत्र 'प्रमुख करवानो विधि जावो. ॥ १०१ ॥ ॥ हवे वैताढ्य प्रमुखना प्रतर कहे डे. ॥ जीवा वग्गेण डुगे । मिलिए दलिए य होइ जं मूलं ॥ तयं ॥ सपित्तगुणं दवइ पयरो ॥ १०२ ॥ वे अर्थ- जीवावरण के० न्हानी जीवानुं वर्ग ने महोटी जीवानुं वर्ग ए डुगे के बे मिलिए के० एकता करी पढी तेनुं दलिएय के० अर्द्ध करिएं, पढी तेनुं मूल शोवीएं, होश्जंमूलं के० ते मूलनो जे खांक श्रावे ते मूल सपित्तगुणं के० पोताना विस्तार साथे गुणीएं. तयं के० वारे वेयद्वाईण के० वैताढ्यादिक पर्वतनुं हवश्पयरो के० प्रतर होए. ते सर्व पर्वतादिकना प्रतर यंत्रथी जाणवा. ॥ १०२ ॥ एयं च पयरगुणियं ॥ संववहारेण देसियं तेण ॥ किंचूएां दोइ फलं ॥ इदंपि दवइ सुदुमगणणा ॥ १९३॥ For Private Personal Use Only Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुक्षेत्रसमासप्रकरण. २४० अर्थ - एयंचपयरगुणियं के० ए प्रतरनुं गणित दक्षिण जरतादिक क्षेत्र तथा गिरिनुं गणितपद ते संववहारेण के० संव्यवहारे देसियं के० देखाड्यं बे, ते के० ते कारण माटे किंचूहोइफलं के० कांइक उएं फल होए, अ के० तथा इपिके० ए सर्व प्रतर एकठाक बमणा करिएं तेवारे सातसें ने उगणाएंसी कोडी, अठार लाख, सीतोतेर हजार, चारसे ने उप्पन्न होए. ते सगसय नऊयाकोमी ए गाथाएं जोतां अंतर पडे बे ने जो शेष नाग जगरे तेना वल्ली जाग करीने गणिएं तो हवश्सुडुमगणणा के० सुक्ष्म गणना, थाय, तो ते सुक्ष्मगणनानी पेरे पूर्ण पण याय ते करण - नुं विशेष जाणवुं ॥ १८५३ ॥ " ॥ हवे घनगणित कहे बे. ॥ पयरो सोरसेदगुणो ॥ दोइ घणोपरिरयाइ सवं वा ॥ करण गणणालसेदिं ॥ जंतगल हियान दग्धं ॥ १९४॥ ॥ इति जंबू दिवादिगारोपढमो समत्तो ॥ अर्थ- जे वैताढ्य प्रमुख पर्वतनुं पयरो के० प्रतर गणित बे, सो के तेने जेवारे वैताढ्य प्रमुख पर्वतना उस्से गुणो के० उंचपणानी साथे गुणीएं तेवारे वैताढ्य प्रमुख पर्वतनुं दो घणो के घनगणित याय, ते वैताढ्य प्रमुखना प्रतर जेवारे उंचपणा साथै गणी वारे जाणीएं. ए परिरयाइ के० परिध्यादिक यवनो वर्त्तारो को. वा to अथवा ए स के० सर्व परिधि प्रमुखनुं जे करण गणण के० करणनो विधि साथे गणवाने जे मनुष्य घालसेहिं के० बालसवंत होय ते मनुष्ये पूर्वाचार्ये जे जंतग के० यंत्र लहियाउ के० लख्या वे, त्यांथकी दिघ्व के देखवुं, एटले यंत्र उपरथीज जोवुं, चिंतaj ॥ १०४ ॥ ॥ हवे ए जीवाप्रमुख गणितनी संग्रह गाथा कहे . ॥ जोयणसहस्सनवर्ग | सत्ते वसया हवं तिश्रमयाला ॥ बारसयकला सकला ॥ दाहिएजरहरू जीवार्ड || १|| दसचेवसदस्साई || जीवासत्तयसया श्वीसाई ॥ बारकला - या || वे गिरिस्सविन्नेया ॥ २ ॥ चउदस यसदस्साई ॥ सयाश्चत्तारिएग सयराई ॥ नरहनुत्तरजीवा ॥ वञ्चकलाऊणियाकिंचि ॥ ३ ॥ चोवीस सहस्साई ॥ नवसय याजोयणाण बत्तीसे ॥ चुल्ल हिमवंतजीवा ॥ श्रायामेां कलऊंच ॥ ४ ॥ सततीससहस्साई ॥ बच्चया जोयपाण चउसयरा ॥ देमव यवासजीवा ॥ किंचूणा सोलसकलाय ॥ ५ ॥ तेपन्न सहस्साई ॥ नवसय्या जोयणाण गतीसा ॥ जीवामदा हिमवए ॥ श्रकला बक्कलाय ॥ ६ ॥ एगुत्तरानवसया ॥ तेवत्तरिमेव जोयणसहस्सा ॥ जीवासत्तरकला ॥ श्रद्धकला चेवह्निवासे ॥ ७ ॥ चणवर सहसा || उप्पन्न हि यं Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुदेवसमासप्रकरण. सयंकला दोय ॥ जीवानि सहेसापुण ॥ लकंजीवाविदे हले॥७॥ जीवासंग्रहगाथा ॥ नवचेवसहस्साई॥ बावाश्य सया सत्तेव ॥ सविसे सकलाचेगा दाहिणजरहरू धणुपी ॥ए ॥ दसचेवसहस्सा॥ सत्ते वसयाहवंतितेयाला ॥धणुपीठं वेयवे ॥ कलायपन्नर सहवंति ॥ १० ॥ सोलसचेव कला ॥ श्रहियाउँहूं तिअनागेणं ॥ बाहावेयह्रसय ॥ अहावीसा सयाचउरो ॥ ११॥ चउदसय सहस्सा ॥ पंचेवसया अहवीसाई॥श्कारसयकला ॥धणुपीठं उत्तर छस्सं ॥ १२॥ नरहत्तर बाहा ॥अहारसहुँति जोयण सयाई॥ बाणवजायणाणिय ॥ अझकला सत्तरकलाय ॥ १३ ॥ धणुहिमवेकलचउरो ॥ पणवीस सहस्स उसयती सहिया ॥ बाहा सोलद्धकला ॥ तेवन्न सयाय पन्नहिया ॥ १४ ॥ अमतीस सहस्स सगसय ॥ चत्तधणुदसकलाय हेमवए ॥ वाहासत्तहिसए ॥ पणपन्नेत्तिन्नियकला ॥ १५ ॥ धणुमह हिमवेदसकल ॥ दोसय ते. उसहस्ससगवन्ना ॥ बाहाबाणज्यसए ॥ बहत्तरेनवकलउंच ॥ १६ ॥ चुलसी सहसासोलस धणुहरिवासे कलाचजकंच ॥ बाहातेरस सहसा ॥ तिसयश्गसाहबकलासढा ॥ १७ ॥ तिसहधणुनकलेगलख ॥ सहसच्चोवीसतिसय बायाला ॥ बाहापन्न हिसयं ॥ सहसावीसासकलक ॥ १० ॥ सोलस सहस्सअसय ॥ तेसीया सझतेरसकलाय । बाहाविदेहमसे ॥ धनुपीठं परिरयस्सकं ॥ १ए ॥ इतिधनुपृष्ट बाहासंग्रहगाथा ॥ लकहारसयणती, ससहस्स चउस्सया यपणसीया ॥ बारकलाठिकला ॥ दाहिण जरहरूपयरमिमं ॥ २० ॥ सत्तहियातिन्निसया ॥ बारसहस्सायपंचलकाय ॥ बारसकलायपयरं ।। वेयद्वगिरिस्सधरणितले ॥२१॥ योयण तीसं वासे ॥ पढमाए मेहलाय पयरमिमं ॥ लकतिगतिसय रिसया ॥ चुलसीकार सकला ॥२२॥ दस जोयण विरकंने ॥ बीयाएमेहलयपयरमिमं ॥ लस्कोचवीससया गसहाद सकलाय ॥३॥ अमसीया अहसया ॥ बत्तीस सहस्सतीसलकाय ॥ कलबार विकलिगारस ॥ उत्तरजरहरूपयरमिमं ॥ २४ ॥ दोको डिचजदलका ॥ सहसाबपन्ननवसगसयरा ॥ अहकला दस विकला ॥ पयर मिमं चुंबहिमवंते ॥ २५ ॥ हेमवएबकोमी ॥ बावत्तरिलख सहसतेवन्ना ॥ पणयालसयंपयरे ॥ पंचकलाहविकलाय ॥ ॥ २६ ॥ गुणवीसकोमि अमव, न्न लरक अडसहि सहस सयमेगं । बासीयंद सयकला ॥ पणायकला पयरमिह हिमवे ॥ २७ ॥ चउपन्नंकोमी ॥ लरकासीयालतिसयरि सहस्सा ॥ अहसयसतरिसत्तय कलाउपयरंतुहरिवासे ॥ ॥ बायालं को डिसयं ॥ लरकाचउपन्न सहसबासही ॥पणसयगुणहुत्तरकल ॥ अहारसनिसहपयरमिमं ॥शए ॥ तेसहि कोमिसयं ॥ लकासगवन्नसहस गुणयाला ॥ तिसयमुत्तर दसकल पन्नरसकलाविदेहरू ॥३०॥ इतिप्रतरसंग्रहगाथा ॥ दसजोयऐसएपुण तेवीस सहस्स लरकगवन्ना ॥ जोयणगवत्तरिब, Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुक्षेत्र समासप्रकरण. २५१ कलाय वेढघणगणियं ॥ ३१ ॥ अस्यापण्याला || तीसंलरकाति हत्तरीसहसा ॥ पंनरस कलायघणो ॥ दस्सुस होइ बीयम्मि ॥ ३२ ॥ सतहिया तिन्निसया बारस सहसाय पंचलरकाय ॥ अवराय बार सकला ॥ पणुस्सए होइघण गिरियं ॥ ३३ ॥ सत्तासीइगलरका ॥ उणतीस हियाय बिवश्सयाई ॥ उपत्ती सइजागा ॥ चउदसवेयढ घणगणियं ॥ ३४ ॥ हिमवंति सय चउदस, कोडी उत्पन्नलरकसगनउई ॥ सहसा चडयालसयं ॥ सोलसकलबार विकलघणं ॥ ३५ ॥ गुणयाल सयासत्तर ॥ कोमी बत्ती - स लरकसगतीसा ॥ सहसा तिसय अत्तर ॥ बार विकलघणमहादिमवे ॥ ३६ ॥ बगन्नसहसा, रको बासहिल रकसगवीसं, सहसानव सयएगु, एसी हिनिसहस्सघगयिं ॥ ३७ ॥ इतिघनसंग्रहगाथा ॥ ॥ इति श्रीलघुक्षेत्र समास वार्तिके जंबूहीपाधिकारः प्रथमः समाप्तः ॥ उनमो विश्वनाथाय तत्वदर्शिने ॥ ॥ दवे बीजो लवण समुद्रनो अधिकार वखाणे बे. ॥ ad लवण समुद्दा दिगारो जमइ || मूलगाया ॥ गोतिवं लवणोय | जोयण पणनवइ सहसजा तब ॥ समनू - तलान सगस्य ॥ जलवुडी सदसमो गाढो ॥ १९५ ॥ अर्थ- लवणोजय के० जगती थकी बाहेर लवण समुद्रना उजय एटले बन्ने पा साथी जेवारे वचमां शिखानी सन्मुख जोयण पण नवइसहसजा के० ज्यांसुधी पंचाहजार योजन लवण समुद्रमांदे याविएं त्यांसुधी तब के० ते लवण समुद्रमादे गोति के० गोतीर्थ सरखो बे, एटले जेम गाय पाणी पीवाने तलावां प्रवेश करें तेवारे पाठली बाजु उंची होय, अने आगली बाजु नीची होए तेने गोतीर्थ कहीएं. तेम लवणसमुद्रमांदे पण बे पासाथी नीकलीने वचमां श्रावतां पंचाणु हजार योजन सुधी पाउली मी उंची अने आगली भूमी नीची बे, समनूतलथकी एटले धातकीखंडनी दिशिथी, ने जंबूदीपनी जगतीथकी लवणसमुद्रमांदे दिग्मालजणी जतां थोडी थोमी जलवृद्धि यतां पंचाणु हजार योजन ज्यां थाय बे, त्यां समनूतलथकी सातसें योजन पाणीनी उंची वृद्धि बे, अने हजार योजन पाणी उंकुं बे ॥ १०५ ॥ ॥ दवे ए लवण समुद्रनेविषे जलवृद्धि जाणवानुं करण कहे . ॥ तेरासिएण मशि, ल्ल रासिणा संगुणिक अंतिमगं ॥ तं पदमरासिनइयं ॥ वेदं मुणसु लवणजले ॥ १९६॥ अर्थ - तेरा सिए के पहेली त्रण राशी थापीएं. एक धातकीखंडनी राशि पंचाणु हजार योजननी, अने जंबूद्वीपनी दिशिथी जे पंचाणु हजार योजन लवण समुद्रमां For Private Personal Use Only Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्५२ लघुक्षेत्रसमासप्रकरण. जए ए बीजी राशी, तथा वचमां एक हजार योजननी मध्यराशी जे कहिएं, ए त्रीजी राशी, एम त्रण यांकनी श्रेणी मांडीएं, पढी मझिल्लरासिया संगु पिऊ - तिमगं के० वचमांनी यांनी जे श्रेणी ते बेदेली श्रेणी साथे गुणीएं, पढी तंपढमरा सिइयं के० तेने पेहेली श्रेणीना यांक साथे वेहेंची एं. एरीते उबेहंमुणसुलवणजले ho लवणसमुद्रनेविषे जलवृद्धिप्रते मुसु एटले जाणजो. ए गायानो स्पष्ट अर्थ न वगुणहत्तरि जोयण, ए श्रागल बसें ने दशमी गाथा श्रावशे तेने विषे विशेषेथी क देशे . श्रहीयां मात्र सूत्रार्थ जावो. ॥ १०६ ॥ ॥ हवे लवण समुद्रनी शिखा वखाणे बे. ॥ विरि सदसदसगं ॥ पिहुलामूलान सतरसहसुच्चा ॥ सदा सावरि ॥ गाउडुगं वह डुवेलं ॥ १७ ॥ अर्थ - हिहुवरि के देवे तथा उपर सदसदसगं पिहुला के० हजार योजन पदोली ने मूला के मूलयकी सत्तरसहसुच्चा के० सत्तर हजार योजन उंची बे, एवी लवणसिहा के लवणसमुनी शिखा जाणवी. सा के० ते शिखा जे बे, तडुवरि ho ते सत्तर सहस्र योजन उपरे गाडुगंवगुडुवेलं के० बेगाउ उंची एवी वेल ते बेवार एक अहोरात्र मां वधे ॥ १०७ ॥ ॥ हवे पातालकलशा वखाणे बे. ॥ बहुमसे चउदिसि च ॥ पायाला वयरकलस संगणा ॥ जोय सदस्स जडा ॥ तदसगुणदिहुवरि रुंदा ॥ १९८ ॥ अर्थ - लवण समुद्रने विषे बहुमझे के० घणुं वचमां पाणीनी मेखलाए चउदिशि चपायाला के० चारदिशिने विषे चार पाताला बे. ते पाताला केहवा बे ? वयरकलस के० वज्रमय जे कलश तेने संगणा के० श्राकारे बे. वली केहवा बे ? जोयणसहरसजड्डा के० एक हजार योजननी ते कलशानी ठीकरी जाडी बे, तथा तदसगुण हिहुवरिरुंदा के० ते जामपणा थकी दशगणा एटले दशहजार योजन हेवल तथा उपर रुंदी एं बे एटले पहोला बे ॥ १८ ॥ ॥ वली पातालकलश केहवा बे, ते कड़े बे. ॥ लकं च मझि पिहुला ॥ जोयलकं च भूमिमो गाढा ॥ पुवाइ वडवमुद || केजुव जूवे सर निदाणा ॥ १९ ॥ अर्थ - लरकंचमझि पिहुला के० लाख योजननुं पेट पहोलुं बे, वली जोयएलकंच भूमिमोगाढा के० लाख योजन भूमिकामांदे अवगाढ एटले जंमा बे, बली For Private Personal Use Only Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुक्षेत्रसमासप्रकरण. २५३ पुवाश्सु के पूर्वदिशि थकी धुरमांडीने दक्षिणावर्त्त गणतां एक वडवामुख बीजो केजुव के० केयूप, त्रीजो जूवे के यूप, चोथो श्सर के ईश्वर, अनिहाणा के० एवे नामे चार पातालकलशो जाणवा. ॥ ९एए॥ ॥ हवे न्हाना पातालकलश वखाणे . ॥ अले बहुपायाला ॥ सगसहसा अडसया सचुलसीया ॥ पुवुत्त सयंसपमा, णा तब तबप्पएसेसु ॥२०॥ अर्थ- असे के बीजा लहुपायाला के न्हाना पाताल कलशा ते सगसहसा अडसयासचुलसीया के सात हजार बाउसो ने चोराशी , ते केहवा ? तो के-पुवत्त के पूर्वे वखाएया बे, जे चार महोटा पाताल कलशा ते थकी सयंसपमाणा के सोमा अंसे जेमनुं प्रमाण ने एहवा बे, एटले सोमे नागे , अर्थात् तेनी दश योजननी ठीकरी जाडी , तथा एकसो योजन प्रत्येक हेठे तथा उपर पहोला , अने एक हजार योजन नूमिमांहे जंडा बे, एवा न्हाना कलश ते जे स्थानके महोटा कलशे नूमीका रूंधी नथी; तेवा जलमेखलाना तह तप्पएसेसु के० ते ते प्रदेशे ए कलश बे, एटले गमगमने विषे . ते केमके समुजमाहे दश हजार योजन विस्तार जे पाणी बे, तेहनी मांहेली परिधि श्राणीएं. ते आवी रीते के-जंब्रहीप थकी पंचाणु हजार योजन जातां बे लाख ने नेवु हजार योजन विष्कंन , तेनो वर्ग करीएं तेवारे आठ हजार चारसे ने दश कोमी थाय. तेने दशगुणा करीएं तेवारे चोरासी हजार ने एकसो कोमी थाय. तेनुं मूल शोधीएं तेवारे नव लाख सत्तर हजार ने उपर साठ लन्यमान थाय. तेमाहेथी चार कलशे चालीस हजार योजन संध्या बे, ते बादकरतां बाकी श्राप लाख सीतोत्तेर हजार ने उपर साठ रहे . तेने चारजागे वहेंचीएं तेवारे बे लाख उंगणीस हजार बसो ने पांसठ एकत्नागे श्रावे; तो एक महोटो पूर्वदिशिनो पातालकलश श्रने बीजो दक्षिण दिशिनो पातालकलश ते बेहुनु एटबुं अंतर जाणवू. हवे त्यां एकेका अंतरे एकेक श्रेणीनेविष बसें ने पन्नर कलश होएं, ते कलशोएं बे लाख पन्नर हजार योजन संध्या डे. अने बाकीना चार हजार बसो ने पांसठ योजन में रह्या ते कलशनी ठीकरीने जामपणे रुंध्या बे, एम प्रथम न्हाना कलशनी श्रेणीने विषे बसें पन्नर कलश, बीजीनेविषे बसें ने सोल, एम एकेको कलश वधारतां बधी नव श्रेणी , तो नवमी श्रेणीनेविषे बसें ने त्रेवीश कलश . एरीते एक श्रांतरानेविषे न्हाना कलश एक हजार नवसे ने एकोत्तर थाय. तेवा चारेदिशिना एकठा करतां सात हजार श्रावसो ने चोराशी न्हाना कलश थाय.इति २०० Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ लघुदेवसमासप्रकरण. . .. ॥ हवे चार पाताल कलशना देवता कहे बे.॥ . कालो य महाकालो॥ वेलंब पनंजणोय चनसु सुरा ॥ पलिउवमानणो तद ॥ सेसेसु सुरा तया ॥२०॥ श्रर्थ- चार महोटा पाताल कलशने विषे पूर्वदिशिथी अनुक्रमे दक्षिणावर्त्त जोतां एक काल, बीजो महाकाल, त्रीजो वेलंब अने चोथो प्रनंजन एवे नामे चउसुसुरा के चार देवता अधिष्टायक जाणवा. पण ते देवता केहवा , तो के- पलिवमाउणो के एक पल्योपमनुं श्रायुष्य धरे डे एवा . तह के तथा सेसेसुसुरा के शेष बीजा न्हाना जे कलश तेने विषे जे देवता अधिष्टायक डे, तेमनुं आयुष्य तयझाक के ते पूर्वोक्त देवताना आयुष्य थकी थर्ड ने एटले अर्क पढ्योपमनुं . ॥ २०१॥ सवे सिमदो नागे॥ वाऊ मसिल्लयंमि जलवाऊ ॥के वल जलमुवरिखे ॥नाग उगे तब सासुब्वे॥ २० ॥ अर्थ- सवे सिमहोजागेवाऊ के सर्व महोटा पाताल कलशाना अधो नागें एटले नीचे वायु , अने मजिलयंमिजलवाऊ के मध्य एटले वचला नागें वायु अने जल ए बंने मिश्र . तथा केवल जल मुवरिखे के उपरले नागे केवल पाणीज बे. तो एकेका त्रीजा नागने विषे तेत्रीश हजार त्रणसें ने तेत्रीश योजन उपर एक योजननो त्रीजो नाग होए. एवा नागडुगेतबसासुवे के नीचेना नागनेविषे अने वचला जागनेविषे श्वासनी परे वायु बे, ते आगली गाथाएं वखाणे बे. ॥ २० ॥ बदवे जयारवाया ॥ मुबंति खुति उमिवारा ॥ एग अढोरत्तो॥ तया तया वेल परिही ॥ २०३ ॥ अर्थ- एवा बे नागना वायुनेविष बीजा बहवे के घणा उयार के उदार एटले महोटा वाया के वायरा ते मुळंति के मले बे, ते मलीने पाणीने खुहंति के दोन पमाडे जे. जेम माणसना पेटमांहे वायुनी वृद्धि थवाथी दोन पमाडे, शब्द करे तेम पातालकलश ते एग अहोरत्तो के एक अहोरात्र मांहे पुलिवारा के बे वखत दोन पमामे , तयातयावेलपरिवुढ्ढी के ते तेवारे पाणीना वेलनी वृद्धि थाय बे; एटले जेवारे वायुना जोरथकी कलशा उत्नराय ने तेवार समुज्नुं पाणी वधे , एवो अनादिकालनो सहेजश्री चाल जे. जे एक अहोरात्रमांहे बे वार पाणीनी वेल वधे एम जाणवू. ॥ २३ ॥ ॥ हवे समुज्माहे वेलंधर देवता ले ते वखाणे .॥ बायालसहि उसयरि॥ सहसा नागाण मसवरि बाहिं॥ वेलं धरंति कमसो॥ चनहत्तरुलकु ते सवे ॥ २०४ ॥ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुक्षेत्र समासप्रकरण. श्य अर्थ- बायल के बेतालीश हजार नागाण के० नागकुमार देवताने मऊ के० मांहे पेसती वेलं के० वेल प्रते धरंति के० घरी राखे बे, एटले निवारे बे. वली सठ के साठ हजार नागकुमार देवता ते लवणसमुद्रनी शिखाने उवरि के० उपरना बे कोश उपरांत जे वेल वधे बे, ते प्रते वारे बे. अने दुसरिसहसा के० बहुतेर हजार नागकुमार देवता ते बाहिं के० बाहेरनी वेलि जे धातकी खंडमां प्रवेश करे बे, ते वेलिने निवारे बे, अर्थात् धरी राखे बे, ए रीते नागकुमारना देवो कमसो के अनुक्रमे पाणी नीवेलि प्रते धरी राखे बे. माटे ए देवोने वेलंधर कहिए. तेसवे के० ते सर्व देवता एकता गणिएं तेवारे चहत्तरुलरकु के० एकलाख ने चमोत्तेर हजारनी संख्या थाय बे. ॥ २०४ ॥ ॥ हवे वेलंधरनां स्थानक तथा तेना अधिपति कहे . ॥ बाया सदस्सेदिं ॥ पुवेसाणाइदिसि विदिसि लवणे ॥ वेलंधराणुवेलं ॥ धरराईणं गिरिसु वासा ॥ २०५ ॥ अर्थ - लवणे के लवण समुद्रमांदे पुवेसाणाइदिसिविदिसि के० पूर्वादि चार दिशि ने इशानादिक चार विदिशिनेविषे बायालसहस्सेहिं के० बेतालीश हजार योजन गयाथी एटले जंबूद्वीपनी जगतिनी वेदिका थकी बेतालीश हजार योजन लवण समुद्रमां पूर्वप्रमुख चार दिशिनेविषे वेलंधर के० वेलंधर नामे जे देवता तेने वसवा योग्य पर्वतने विषे आवास जाणवा. अने इशानप्रमुख चार विदिशिनेविषे लवणसमुद्रमां बेतालीस हजार योजने अणुवेलंधर के अनुवेलंधर नामे जे राई ० अधिपति एवा चार देवताने रमवाना गिरिसु के० पर्वतनेविषे वासा के० श्रा वास जाणवा. ॥ २०५ ॥ ॥ हवे आवास पर्वतनां नाम कहे बे. ॥ गोथ दगनासे ॥ संखे दगसीमनामि दिसि सेले ॥ गोथूनो सिवदेवो ॥ संखो य मपोसिलो राया ॥ २०६ ॥ अर्थ - पूर्वदिशि गोथुन नामे आवास पर्वत बे, अने दक्षिण दिशि दुगुनास नामे आवास पर्वत बे, पश्चिमदिशि संख नामे श्रावास पर्वत बे, ने उत्तरदिशि दससीम आवास पर्वत . ए रीते दिसिसेले के० ए चार दिशिना पर्वतने विषे अनुक्रमे एक गोथु, बीजो शिवदेव, त्री जो शंख, छाने चोथो मणोसिल एवे नामे वेलंधर देवताना राया के० राजा एवा नागकुमार देवो रहे वे, एटले जे दिशाउने विषे रहे तेने वेलंधर कहीपं, थने जे विदिशाउने विषे रहे तेने अनुवेलंधर कहिएं ॥ २०६ ॥ For Private Personal Use Only Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ लघुक्षेत्रसमासप्रकरण. कक्कोडे विझुपदे ॥ केलासरुणप्पदे विदिसि सेले ॥ कक्कोडग कदम ॥ केलास रुणप्पहो सामी॥२०॥ अर्थ- हवे इशान प्रमुख चार विदिशिने विषे कर्कोटक, विद्युत्प्रन, कैलाश श्रने अरुणप्रन एवे नामे जे चार आवास पर्वत , तेने विषे अनुक्रमे कर्कोटक, कदम, कैलाश अने अरुणप्पदो के विद्युत्प्रन एवे नामे चार अनुवेलंधर नागकुमार देवताना सामी के खामि जाणवा. जे विदिशिने विषे रहे तेने अनुवेलंधर कहिएं. ॥२०॥ ॥ हवे ए पर्वतना मान श्रने वरण कहे .॥ एए गिरिणो सवे ॥ बावीसदिया य दससया मूखे ॥ चन सय चनवीसदिया ॥ विबिला हुंति सिहरतले ॥२०॥ अर्थ- एएगिरिणोसवे के ए सर्व वेलंधर, अने अनुवेलंधर नामे जे आवास प. वंत , ते बावीसहियाय दससयामूले के एक हजार ने बावीश योजन मूलने विषे पोहोला जाणवा. अने चउसय चवीसहिया के चारसे ने चोवीश योजन सिहर तले के० शिखरस्थले एटले शिखरने विषे विहिला के विस्तारेपोहोला हुँति के ले.२०७ सतरससय इगवीसे ॥ उच्चत्ते ते सवेश्या सवे॥ कणगं करययफालिद, दिसासु विदिसासु रयणमया॥ २०॥ अर्थ- वली ते पर्वत केहवा बे? तो के-एक हजार सातसें ने एकवीश योजन जच्चा त्ते के ऊंचा , वली ते सव्वे के० ते आठ पर्वत केहवा बे, सवेश्या के वेदिकानवनखंम तेणे करीने सहित बे, वली कणगंकरयय फालिह के कनक, शंकरत्न, रू', अने स्फाटिकरत्न एनी पूर्वदिशिथी अनुक्रमे गोधनादिक चार पर्वत जे. अने विदिसासुरयणमया के० विदिशिनेविषे जे कर्कोटादिक चार पर्वत , ते रत्नमय जाणवा. ॥ २० ॥ ॥ हवे ए श्राव पर्वत पाणी उपरे केटला देखाय बे ते कहे . ॥ नवगुणहत्तरि जोयण ॥ बहिजखुवरि चत्त पण नवनाया ॥ एए मले नवसय ॥ तेसहा नागसगसयरी॥१०॥ अर्थ- ए भाउ पर्वत बदि के जंबूछीपनी विशिएं मवगुणहत्तरिजोयण के नवसे ने जंगपोतेर योजन उपर एक योजनना, पमनवजाया के पंचाणु नाग करिएं, तेवा चत्त के चालीश नाग अधिक एटला योजन जंबछीपनी दिशिएं जलुवरि के पाणी उपर देखाय बे. तथा, एए के ए पर्वत मके के मांहेली लवण समुनी शिखानी विशिथी जोतां नवसयतेसहा के नवसेने त्रेसवयोजन उपर एक योजनना Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुदेवसमासप्रकरण. पंचाणु नाग करिएं तेवा सीत्तोतेर नाग एटला पाणी उपर पर्वतो देखाय बे ते जाणवा. - लवण समुफ मध्ये पंचाणु हजार योजन जतां सातसें योजननी जलवृद्धि बे. तो बेतालीश हजार योजन जाएं त्यां वेलंधर पर्वत , ते स्थानके केटली जलवृद्धि होए, ते जाणवानी.रीति बतावे . अहीं प्रथम श्रेणी पंचाणु हजारनी, बीजी सातसेंनी, अनेत्रीजी श्रेणी बेतालीस हजारनी, एवी श्रांकनी त्रण श्रेणी मांडीएं. ए त्रण श्रांकनी राशि मांड्या पडी ते रासीएणमजिल ए गाथाना विधिएं गणीएं, ते श्रावी रीते के, वचमांनी जे सातसेंनी श्रेणी तेने बेली बेतालीश हजारनी श्रेणीएं गुपीएं तेवारे बे क्रोम ने चोराणु लाख थाय, पबी पेहेली श्रेणी जे पंचाणु हजारनी ने, तेनी साथे नाग वेहेंचीएं तेवारे त्रणसें ने नव योजन उपर एक योजनना पंचाणु नाग करीएं, तेवारे पीस्तालीस नाग आवे, ए रीते समनूतले जंबूहीपे जोतां बेतालीश हजार योजने एटली जलवृद्धि होए. थने पंचाणु हजार योजने एक हजार योजन लवण समुफ उमो बे, तो बेतालीस हजार योजने केटलो जंडो जे? तेनुं गणीत आवी रीते करवू के बेतालीश हजार योजनने हजारना थांके गुणीएं तेवारे चार कोमी ने वीश लाख थाय. तेने पंचाणु हजार नागे वेहेंचीएं तेवारे चारसे ने बेतालीश योजन उपर एक योजनना पंचाणु नाग करीएं तेवा दश नाग यावे, एटलो समुड जंमो बे, पनी जलवृद्धि तथा जंगपणुं ए बे एकां करिएं तेवारे सातसें ने एकावन्न योजन उपर एक योजनना पंचाणु नाग करिएं तेवा पंचावन्न नाग थाय, ते सतरसें ने एकवीश योजन वेलंधर पर्वतर्नु जंचपणुं , तेमांवेथी बाद करीएं तेवारे नवसें उंगणोतेर योजन, अने उपर पंचाणुश्रा चालीस नाग रहे. एटलो जंबूद्वीपथी जतां वेलंधर पर्वत पाणीथी उंचा . हवे त्यां पर्वतनो विस्तार केटलो , ते थाणवानो विधि केहे . जलवृद्धि अनै जंडपणुं ए बे सातसें एकावन्न योजन उपर पंचाणुया पंचावन्न नागडे, ते सर्वना पंचाणुश्रा नाग करीएं तेवारे एकोत्तेर हजार ने चारसे नाग थाय, पली विबारफुगविसे सो ए करण गाथाएं करतां पर्वतनो मूल विस्तार एक हजार ने बावीश योजन , अने शिखर विस्तार चारसे ने चोवीश योजन , ते अधिका माथी उडे काढता बाकी पांचवें ने शहाणुं रहे ते पर्वत, सत्तरसे ने एकवीश योजन ऊंचपणुं , तेनी साथे नाग वेहेंचतां नाग पोहोंचे नही, ते माटे एकोत्तेर हजार ने चारसें एटली जलवृद्धि, तथा जंडपणाना पंचाणुया जागबे, तेने पांचसें ने बहाएं साथे गुणीएं तेबारे चार कोड वीश लाख सत्ताणुं हजार ने बसें थाय, तेने पर्वतना उंचपणाना सत्तरसें ने एकवीश योजन साथे नाग वेहेंचीएं तेवारे चोवीश हजार आठसें ने नव Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ա लघुत्रसमासप्रकरण. यावे, शेष नवसें ने अगी चार वधे, तेमाटे ते चोवीस हजार श्रावसें ने नव जे बे तेमांदे एक जेलीएं, पढी पंचाणु जागे वेर्हेचीएं तेवारे बसें ने एकसठ योजन उपर पंचाय पंदर जाग यावे.. दवे पर्वतनो मूल विस्तार एक हजार ने बावीश योजन बे. माथी जेवारे ए बसें एकसठ योजन, अने पंचाणुया पन्नर जाग काढीएं, तेवारे सातसो ने साठ योजन उपर पंचाणुथा एंसी जाग रहे, एटलो पर्वतनो विस्तार जाणवो.. वे मांहेली दिशिएं जलनी वृद्धि आणवाने का ए पर्वतना विस्तारनो थांक जे सातसें साठ योजन उपर पंचाणुया एंसी जाग बे, तेने पंचाणुए गुणी तेवारे बहुतेर हजार बसें ने एंसी एटला पंचाणुत्रा जाग याय. पढी एक पंचाणु हजारनी, बीजी सातसेंनी, अने त्रीजी बहुतेर हजार बसें ने एंसीनी, एवी यांकनी त्रण राशी मांगीएं; तेमां बच्चेनी जे सातसेंनी श्रेणी बे, तेनी साथे जेवारे बेहेली श्रेणी गुणीएं तेवारे पांच क्रोड पांच लाख ने बन्नु हजार एटलां प्रतिजंग थाय पढी जे पहेली राशि पंचाणु हजारनी बे, तेना प्रतिजंग करवामाटे तेने पंचाणुए गुणीएं तेवारे नेवु लाख ने पचीस हजार थाय. एटला प्रतिनंगे उपरना प्रतिनंगनी राशी वेढेंची एं तेवारे योजन पांच यावे, शेष पांच हजार चारसें ने एकोत्तेर वधे. तेने पंचाणु जागे वेहेंचर्ता सत्तावन्न कला यावे, शेष बपन्न उगरे, तेमाटे एक जेलीएं तेवारे कला श्रावन्न याय; एटले पांच योजन उपर श्रावन्न कला एटली मांहेली दिशिएं जलवृद्धि बे, ते जल की पर्वतनुं उंचपणुं नवसें उगणोत्तर योजन ने उपर पंचाणुया चालीश जाग बे, मांदेषी पांच योजन ने अट्ठावन्न जाग बाद करीएं तेवारे नवसें त्रेसठ योजन उपर पंचाणुया सीतोतेर नाग; एटलो लवण समुद्रनी शिखादिशिथी जोतां वेलंधर पर्वत ऊंचा बे. तथा ए या पर्वतना मूलने विषे त्रण हजार बसें ने बत्रीश योजननो परिधिबे, ने शिखरने विषे तेरसें ने चौद योजननो परिधि बे. हवे मांदोमां ते पर्वतनो यांत आणवानो विधि कहे बे. जंबुद्वीपनी जगतीथकी बेतालीश हजार पांचसें ने अगी आर योजन लवण समुमांदे गया पछी पर्वतना विष्कंजनुं मध्य बे, त्यां समुद्रनुं वृत्त विष्कंन एक लाख पंचासी हजार ने बावीश योजन बे, तेनो परिधि पांच लाख पंचासी हजार ने एका योजन था, तेमां थी या वेलंधरनुं विष्कंन आठ हजार एकसो ने बहुंत्तेर योजन बाद करिएं तेवारे पांच लाख बहुतेर हजार नवसें ने पन्नर योजन बाकी रहे; तेने व जागे वेर्हेचीएं तेवारें बहुतेर हजार एकसो ने चउद् योजन उपर एक योजनना तेर जाग करिएं, तेवा आठ जाग एटलुं वेलंधर पर्वतने वच्चे अंतर जाणवुं ॥ ११०॥ For Private Personal Use Only Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुक्षेत्रसमासप्रकरण. श्यए ॥ हवे उपन्न अंतरछीपनी स्थिति केहे .॥ हिमवंतंता विदिसी॥ साणाश्गयासु चनसु दाढासु ॥ सग सग अंतरदीवा पढमचनकं च जगई ॥१२॥ अर्थ- हिमवंतंता के हेमवंत पर्वतना अंत एटले बन्ने बेडानेविषे समुनमांदे वे बे दाढा विदिशिनेविषे नीकली , हवे ते साणाश्गयासु के इशानकूण प्रमुख चार विदिशिने विषे चनसु दाढासु के चार दाढा प्राप्त थया उतां ते प्रत्येक दाढानेविषे सगसग अंतरदीवा के सात सात अंतरछीप बे, ते अंतरछीपमाहे पढमचउकं के पेहेला जे चार अंतरछीप ने ते जग के जगती थकी केटले र बे, ते कहे . ॥ ११॥ जोयणतिसएहि त ॥ सयसयवुढी य बसु चनक्केसु ॥ अन्नुन्न जगश्अंतरि ॥ अंतरसमविबरा सवे ॥२१॥ अर्थ- पेहेला चार अंतरछीप जगतीथकी त्रणसें योजन पूर , अने त के ते छीपनो विस्तार पण त्रणसे योजन बे. पडी सुचउक्केसु के चतुष्कनेविषे प्रत्येके अन्नुन्न के एक दीप श्रने बीजाबीपनी वच्चे जगतीवच्चे, अने छीपना विस्तारनेविषे सयसयवुट्ठी के सो सो योजननी वृद्धि जाणवी. एटले जे छीपने जगश्वंतरि के० जेटलो जगती थकी अांतरो , ते छीपनो अंतरसमविबरासवे के० ते अंतरसमान तेटलो विस्तार पण जाणवो. एटले पेहेला चार अंतरहीप जगती थकी त्रणसें योजन दे, तो तेनो विस्तार पण त्रणसें योजन प्रमाणे जाणवो. बीजुं चतुष्क जगती थकी चारसें योजन पूर बे, तो तेनो विस्तार पण चारसे योजन . एम सर्वनेविषे एकसो योजननी वृद्धि करतां सातमुं अंतरछीपनुं चतुष्क जगती थकी नवसे योजन पूर , तेहनो विस्तार पण नवसें योजन प्रमाण जे. ते यंत्रयी जाणवो. ॥१॥ ॥ हवे ए अंतरछीप पाणी उपर केटला उंचा ते कहे .॥ पढमचनक्कुच्चबहिं ॥ अढाइ य जोयण य वीसंसो॥ सयरिं सवुढिपुर ॥ मादिसिं सवि कोसगं ॥१३॥ अर्थ- अंतर छीपनुं पढमचनक्क के पेहेढुं चतुष्क ते बहिं के बाहेर जंबू की. पनी दिशाए अवाश्यजोयणश्यवीसंसो के अढी योजन उपर वीश अंस एटले पंचाणुथा वीश जाग एटलुं पाणीथी उपर उंचं जाणवू. उर के बीजा अंतरछीपना चतुष्कनेविषे पंचाणुथा सयरिसवुटि के सीत्तेर नागनी वृद्धि जाणवी, एटले बीजुं चतुष्क अढी योजन उपर पंचाणुश्रा नेवु जाग पाणीथी उंचं जाणवू, अने मसदिसिं Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुदेवसमासप्रकरण. के लवण समुज्नी शिखानी दिशिए कोसगं के बे कोश प्रमाण सब के सर्व कीपनो प्रकाश जाणवो. ते यंत्रमाहे लख्युं . ॥ १३॥ ॥ हवे अंतरछीपना नाम कहे . ॥ सवे सवेश्यंता॥ पढमचनकमि तेसि नामाई॥ एगोरुय आनासिय ॥ वेसाणिय चेव लांगूले ॥१४॥ अर्थ- सत्वेसवेश्यता के सर्व अंतरछीप वेदिकावनखंडे करी मंमित जाणवा. अंतरछीपना पढमचउकमि के पेहेला चतुष्कने विष ईशानकूणथी दक्षिणावर्त गणतां तेसिनामाइं के ते छीपना जे नाम , ते कहे . एगोरुय के एक रुचक.बी थानाशिक, त्रीजुं वैषाणीक, चोथु लांगुलीक, ए चार नाम अनुक्रमे जाणवां ॥१४ बीयचनक्के हयगय ॥ गो सक्कुलि पुवकस्मनामाणो॥ ___ आयंस मिंढग अ॥ गोपुवमुदा य तश्यंमि॥१५॥ - अर्थ-बीयचउक्के के अंतरछीपना वीजा चतुष्कनेविष हय, गय, गो, भने शकुली, ए चार शब्दने प्रत्येके कम के कर्ण शब्द जोमीएं, तेवारे जे नाम थाय ते नामे छीप जाणवा. एटले हयकर्ण, गजकर्ण, गोकर्ण, अने शत्कुलीकर्ण, एवां नाम जाणवा. हवे तश्यंमि के त्रीजा चतुष्कनेविषे आदर्श, मिंढक, श्रयः, गो, ए चार शब्दने प्रत्येके पुत्वमुदाय के पूर्वे मुख शब्द जोमीएं, तेवारे आदर्शमुख, मेंढमख. श्रयोमुख अने गोमुख, एवे नामे चार डीप बे. ॥ १५ ॥. दय गय दरि वग्घ मुहा ॥ चनबए आसकरम दरिकम्मो ॥ __ अकस्म कम प्पावर, ण दीव पंचमचनकंमि ॥१६॥ अर्थ-चउनए के चोथा चतुष्कनेविषे हय, गय, हरी अने व्याघ्र, ए चार नामने आगल प्रत्येके मुहा के मुख शब्द जोमीएं तेवारे हयमुख, गजमुख, हरीमुख अने व्याघ्रमुख, एवा चार नामे चार छीपडे,अने अश्वकर्ण,सिंहकर्ण, अकर्ण अने कर्णप्रावरण एवे नामे दीव पंचमचनकमि के पांचमा चतुष्कने विषे अंतरछीप जाणवा ॥१६॥ उक्कमुदो मेदमुहो ॥ विकुमुदो विङादंत मि॥ सत्तमगे दंतंता ॥ घण वह निगूढ सुझाय ॥२१॥ अर्थ- उस्कामुख, मेघमुख, विद्युन्मुख अने विद्युदंत, एवे नामे बहा चतुष्कना अंतरछीप बे, हवे सातमा चतुष्कनेविषे दंतंता के दंत शब्द चारेना अंतने विषे जोमीएं तेवारे घनदंत, लष्टदंत, गूढदंत अने सिझदंत, एवां चार नाम जाणवां. ए अहावीश अंतरछीपनां नाम कह्यां. ॥१७॥ Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुक्षेत्रसमासप्रकरण. १६१ हवे अंतरछीपनो परिधि कहे बे. पेहेला चतुष्कनेविषे नवसे ने उगणपचास योजननो परिधि , पनीना चतुष्कने विषेत्रणसो ने सोल योजननी वृद्धि करीएं. यथा ॥ सोबुत्तरतिसयजुय ॥ सपढमपरिहिवरावरचउकं पढमेनवगुणवन्न ॥ सावीएबारपणसही ॥१॥ तश्एपनरिकारसि ॥ चउडएपुणअढारसगणग्या ॥ जोयणबावीससया॥ तेरहियापंचमचउक॥२॥ पणवीसश्गुणतीसा ॥ बठेचरमेड वीसपणयाला॥परि हिअंतरदीवा सत्तचनकाणनायबा ॥११७ एमेव य सिदरिंमि वि॥ अडवीसं सवि हुँति बप्पन्ना ॥ एएसु जुअलरूवा ॥ पलिआसंखंसआज नरा ॥१७॥ अर्थ- एमेव के० ए पूर्वोक्त प्रकारे जे य के० वली सिहरिमिवि के शिखरी पर्वतने विषे पण ईशानकूण प्रमुख चार विदिशिनेविषे चार दाढा , तो एकेकी दाढाएं सात सात अंतर बीपले, तेवारे चारे दाढाना अडवीसं के बहावीश थाय. ए रीते हेमवंत तथा शिखरीना एका गणतां सविडंतिबप्पन्ना के सर्व मलीने बपन्न अंतरछीप जाणवा. एएसु के० ए सर्व बपन्न अंतर बीपोनेविषे जुअलरूवा के युगलरूप एवा नरा के मनुष्य जाणवा. अने पलियासंखंसथाउ के पक्ष्योपमना असंख्यातमे जागे तेनुं श्रायुष्य जाणवू, एवा युगलीश्रा त्यां वास करे . ॥ १० ॥ जोयणदस मंसतणू ॥ पहिकरंमाणमेसि चउसही ॥ अ सणं च चनबा ॥ गुणसीदिण वच्चपालणया ॥१॥ अर्थ-ते युगलीथाना तणू के शरीर तेजोयणदसमंस के एक योजनने दशमे जागे जे, एटले बाउसे धनुष्यनां जंचां शरीर बे, वली एसि के ए युगलीयाना शरीरनेविषे पिहिकरंडाणचउसही के चोस पांसली . च के० वली ते युगलीआने असणं के० थाहारनी श्छा चउबाजे के एकांतरे उपजे . अने ए गुणसीदिणवच्चपालणया के जंगणाएंसी दिवश लगे अपत्य पालना करे . ॥ १५ ॥ पबिमदिसि सुध्यि लव, णसामिणो गोयमुत्ति श्गुदीवो ॥ उन वि जंबूलवणे ॥ रविदीया य तेसिं च ॥१०॥ अर्थ-मेरुपर्वतथकी पछिमदिसि के पश्चिम दिशिने विषे जगतीथकी बार हजार योजन लवणसमुखमांहे सुहियलवणसामिणो के सूस्थित एवे नामे जे लवणसमुजनो स्वामी देव , तेनो गोयमुत्तिश्गुदीवो के गौतम एवे नामे एक द्वीप ने, ते गौतमछीपना उनवि के बन्नेबाजु जंबूलवणेपुरवि के जंबुद्धीपना बे सूर्य अने Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लधुदेवसमासप्रकरण. लवणसमुजना बे सूर्य तेसिं के तेना दीवाय के बेबे द्वीप जाणवा. एटले वचमां गौतमछीप , अने बन्ने पासे बे बे सूर्यवीप . ॥ २ ॥ जग परुप्परि अंतरि ॥ तद विबर बारजोयणसहस्सा ॥ एमेव य पुवदिसि ॥ चंदचनकस्स चल दीवा ॥२१॥ अर्थ- जग के जगतीथकी बीपनुं वेगलापणुं अने परुप्परि अंतरि के छीपन परस्पर एटले माहोमांहे अंतर तह के तथा छीपनो विबर के० विस्तार ते बारजोयणसहस्सा के बार हजार योजन जाणवो. य के वली एमेव के ए प्रकारेज पुवदिसि के पूर्वदिशिनेविषे जगती थकी बार हजार योजन लवणसमुज्मांहे बे चंजमा जंब्रहीपना अने बे चंजमा लवणसमुना ए रीते चंदचजकस्स चउदीवा के चार चंजमाना चार छीप बे. २५१ एवंचिय बादिर ॥ दीवा अ6 पुवपबिम ॥3 लवणे उधायश्, संड ससीणं रवीणंच ॥२२॥ अर्थ- एवंचिय के ए प्रकारे बाहिर के बाहेर थकी धातकी खंडनेविषे तथा मंदर पर्वत थकी पूर्वपश्चिम दिशे लवणसमुनी जगती थकी बार हजार योजन लवण समुअमांहे शिखानी दिशि फरे, ते बे चंजमा लवण समुजना, श्रने चंद्रमा धातकी खंडना, ए रीते आठ चंजमाना छीप पूर्वदिशिएं , तथा बे सूर्य, लवणसमुजना, अने उ सूर्य धातकीखंडना, एवं थाउ सूर्यना द्वीप पश्चिम दिशे .॥२॥ ॥ए चंजमा थने सूर्यना छीप पाणी उपर केटला जे ते कहे . ॥ एए दीवा जलुवरि ॥ बदि जोयण सहअहसीइ तदा ॥ व भागावि य चालीसा ॥ मधे पुण कोस उगमेव ॥ २३ ॥ - अर्थ- एएदीवा के ए पूर्वे कह्या जे चंजमा अने सूर्यना छीप ते जवुवरि के० पाणी उपर बहि के जंबलीप धातकीखंमनी दिशिथी जोतां जोयणसवयहसी के साडीहासी योजन तहा के तथा प्रकारे नागावियचालीसा के उपरे पंचाणुथा चालीश जाग एटला पाणीथी उपर जे, ते जाणवाने श्रर्थे प्रथमनी पेरे यांकनी त्रण राशि मांडीएं. एक पंचाणु हजार, बीजी सातसे अने त्रीजी चोवीश हजार, सुलनपणामाटे बिंछ टालीने वच्चेनी राशि हेली राशिसाथे गणतां सोल हजार ने श्रासो थाय, तेने पेहेली राशिना पंचाणु हजार , तेना बिंदु टालतां पंचाणुजागे वेहेंचीएं तेवारे एकसो उत्तेर योजन उपर पंचाणुश्रा एंसी नाग श्रावे. एटली लवणसमुनी शिखादिशि जलवृद्धि, तेनुं बर्ड अठासी योजन थाय . तेनी साथे पाणी थकी Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुदेवसमासप्रकरण. २६३ बाहेरनी उंचाश्ना बे कोश नेलीएं तेवारे साडीहासी योजन उपर पंचाणुया चालीश जाग, एटला जंबृहीप तथा धातकी खंमनी दिशिथी जोतां पाणी उपर छीप जे. पुण के वली मने के मांदेनी लवण शिखानी दिशिथकी जोतां कोस उगमेव के बन्ने बाजुए वे कोश पाणी थकी सर्व डीप उंचा ठे. हवे छीपनो परिधि कहे जे. उक्तंचसगतीससहस्सनवसया, डयालपरिहिंजलाउकोसबहिं ॥ उच्चा अंतोजोयण, अडसी पणनउपचत्तंसा ॥१॥२३॥ ॥ हवे ते चंऽसूर्यछीपमांहे प्रासादनां प्रमाण कहे . ॥ कुलगिरिपासायसमा ॥ पासाया एसु नियनिय पदणं ॥ तद खवणे जोसिया ॥ दगफालिद जलेसागा॥२४॥ इति श्रीलवणसमुजाधिकारो द्वितीयः समाप्तः॥ अर्थ- एसु के ए चंडसूर्यछीपने विषे कुल गिरिपासायसमा के कुलगिरिना प्रासाद सरखा सामीबासठ योजन उंचा, अने तेनुं थर्ड सवाएकत्रीश योजन पहोला, एवा रमवा योग्य नियनियपहणं के पोतपोताना प्रनु एटले स्वामी जे सुस्थितदेव तथा चंड सूर्य तेमना एवा पासाया के० प्रासाद , तथा ए सर्व चं सूर्य प्रमुख जे ज्योतषीनां विमान ते स्फाटिक रत्ननां डे. तह के० तथा लवणे के लवण समुपने विषे जे जोसिया के ज्योतषी ने तेनां विमान दगफालिद केन्दगपाटन जे स्फाटिकरत्न तेनां बे, ते विमानने संयोगे लवण समुज्नां पाणी फाटे डे, ए रत्ननो जातिगुण जे. वली ते रत्ननी कान्ति उद्बुलेसागा के उंची लवण शिखानेविषे पण प्रकाश करे . लवण समुज्ने विषे चार चंजमा, चार सूर्य, त्रणसें ने बावन ग्रह, एकसोने बार नक्षत्र, अने बे लाख सडसह हजार ने नवसें एटली तारानी कोमाकोडी जाणवी. लवणसमुनो परिधि पन्नर लाख एक्यासी हजार एकसो ने उंगणचालीश योजन जाणवो. समुज्नी जगतिना चार हारनुं अंतर, त्रण लाख पंचाणु हजार बसें ने सवाएंसी योजन . हवे लवण समुज्नुं प्रतर घन करवानी गाथा लखे दे ॥ दससहसरहियमिबर ॥ अछंदससहससंजुअंतेण ॥ गणियायमऊपरिही ॥ पयरोलवणस्सिमोहोई ॥ १॥ नवनवको डिसया ॥ एकसहीकोडीसत्तरसलका ॥ पन्नरससहसायश्मो ॥ घणोसवेसत्तरसहस्सगुणो ॥२॥ सोसोलको डिकोडी ॥ तिणवश्लकीगुणचत्तसहसाया ॥ नवसयकोडीपन्नर ॥ कोडीपन्नासलकाय ॥३॥ ॥ २४ ॥ ॥ इतिवाचनाचार्यश्रीसहजरत्नविरचिते क्षेत्रसमासवार्त्तिके लवणोदाधिकारः समाप्तः ॥ Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ គុម लघुदेवसमासप्रकरण. ॥ हवे धातकीखंड नामा बीजा छीपनो अधिकार वखाणे .॥ - जामुत्तरदीदेणं ॥ दससयसमपिहुल पणसयनच्चेण ॥ जसुयार गिरिजगणं ॥धायश्संडो जुद विदत्तो॥२५॥ . अर्थ-लवण समुपनी जगती थकी बाहेर वलयने थाकारे चार लाख योजन पहोलो एवो बीजो धातकीखंग नामे हीप बे, ते धायश्संडो के धातकीखंग केहवो बे? तो के-उसुयारगिरिगेणं के खुकार नामे जे बे पर्वत तेणे मुह विहत्तो केबे जागे वेहेंच्यो बे, एटले एक पूर्व धातकीखंड, अने बीजो पश्चिम धातकीखंड ए बे जाग जाणवा. हवे ते षुकार पर्वत केहवा ? तो के-जाम के दक्षिण दिशे, अने उत्तर के उत्तरदिशिएं, दीहेणं के दीर्घ एटले लांबा जे. वली दशसय के दशसो एटले एक हजार योजन समपिहुल के मूलने विषे, अने शिखरने विषे, सरखा पोहोला . तथा पणसयजच्चेण के पांचसे योजन ऊंचा बे. लबण समुज्नी जगतीना दक्षिण उत्तरदिशिना वैजयंत, अपराजित एवे नामे जे बारणांबे, तेमांथी खु एटले बाणने श्राकारे चार लाख योजन धातकीखंगना विस्तार सुधी लांबा निकल्या ले, एवा ते पर्वतो . ॥२५॥ ॥ हवे बे खंमने विषे कुल गिरि क्षेत्र वखाणे .॥ .. खंडगे गिरिणो ॥ सग सग वासा य अर विवररूवा ॥ धुरि अंति समा गिरिणो॥वासा पुणपिलपिहुबयरा॥१६॥ अर्थ- खंमागे के धातकीखंडना पूर्व अने पश्चिम दिशाना एकेका खमनेविषे बगिरिणो के कुलगिरि जाणवा, अने सगसगवासाय के सात सात देत्र जाणवां. ते कुल गिरिदेत्र केवां बे? तो के-घर विवररूबा के० श्खुकार कुलगिरि ते थारा सरखां ने, अने क्षेत्र ते श्राराना विवर एटले जे श्रांतरा होय तेना सरखां बे. जेम गाडीनां पश्माने विषे, वच्चेनी नानि थकी आराना आंतरा होए; तेम जंबछोप अने लवण समुफ ने, ते नानि सरखा ले. अने धातकी खंडमांहे जे खुकार तथा कुलगिरि प्रमुख पर्वत बे ते श्रारा सरखा ने, अने क्षेत्र ते तेना आंतरा सरखां बे. वली गिरिणो के ते कुलगिरि खुकार केहवा ? तो के-धुरि के० मूलने विषे अने अंति के आदेमाने विष समा के० सरखा पहोला . पुण के० वली वासा के० क्षेत्र जे जे, ते लवण समुपथकी मामीने पिहल पिछलयरा के पिहल पिहलतर बे. ॥२६॥ ॥ हवे धातकीखंममाहे जे पदार्थ जंबूलीप माहेला पदार्थ सरखा डे ते कहे जे. ॥ दहकुंडंमत्तममे, रुमुस्सयं विबरं वियढाणं ॥ वट्टगिरिणंच सुमे, रुवजामिद जाण पुवसमं ॥२२॥ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुदेवसमासप्रकरण. अर्थ- धातकीखंमनेविषे जे अह, कुंमनुं जंमत के उमपणुं तथा मेरुपर्वत टालीने कुलगिरि, गयदंतगिरि, वक्षस्कार, यमल गिरि, कांचन गिरि अने वैताढ्य प्रमुख पर्वतर्नु मुस्सयं के जंचपणुं, तथा च के वली सुमेरुवज के सुमेरुपर्वत वर्जिने वैताढ्यनो विबरं के विस्तार अने वगिरिणं के बीजा वैताढ्य प्रमुख वृत्तपर्वतनों विस्तार ते सर्व पुवसमंजाण के० पहेलाना सरखो जाणवो. एटले जंबछीपनी पेरे जाणवो. ॥२७॥ ॥ हवे धातकीखंडनेविषे बे मेरु ले ते वखाणे . ॥ मेरुगंपि तहच्चिय ॥ नवरं सोमणसहिहुवरि देसे ॥ सग अडसहस्सऊण, त्तिसहस पणसी उच्चते॥ ॥ अर्थ- धातकीखंमना जे मेरुगंपि के बे मेरुपर्वत बे, ते तहच्चिय के जंब्रहीपना मेरु सरखा जाणवा. पण नवरं के एटटुं विशेष डे के, जे सोमणसहिहवरिदेसेलगअडसहस्सऊण त्ति के सोमनस वन थकी देठे सात हजार योजन, अने सोमनस वन थकी उपरे यार हजार योजन उणा करिएं. इति एटले ए नाव जे जंवछीपना मेरुनी नूमिथी पांचसे योजन उपर चडिएं, त्यां नंदन वन बे. ते थकी उपर साडा बासठ हजार योजन चडीएं, तेवारे सोमनस वन डे, त्यां त्रीश हजार योजन उंचुं पांमुकवन , अने धातकीखंमना मेरुनु एटबुं विशेष जे नूमिथकी पांचसें योजन चंचुं नंदनवन बे, ते थकी साडा पंचावन्न हजार योजन ऊंचे. चडीएं, त्यां सोमनस वन , त्यांथी अहावीश हजार योजन ऊंचा चडीएं, त्यां पांमुक वन , ए चोरासी हजार योजन थया. अने एक हजार योजन नूमिमांहे जंमा बे, एम सर्व मली सहस पण सोश उच्चते के० धातकी खंडना मेरु पंचासी हजार योजन उंचावे.॥२॥ ॥ हवे ते मेरुनो विस्तार कहे .॥ तदपणनवश्चनम्मन ॥ अचनमज य अहत्तीसा य॥ दस य सया य कमेणं ॥ पणगण पित्ति दिहा य ॥२॥ अर्थ- तह के तथा प्रकारे पण नव के नव हजार ने पांचसें, श्रने चमन के नव हजार ने चारसें य के तथा अचजलन के नव हजार त्रणसें ने पचास अने अहतीसा के० त्रण हजार ने आउसो तथा दसयसया के एक हजार एवा पणगय के पांच स्थानकने विषे पिटुत्ति के पहोलपणानो विस्तार, हिघा के मेरुना मूल थकी कमेणं के अनुक्रमे जाणवो. ते आवी रीते जे नव हजार ने पांचसें योजन मूलमा विस्तार बे, अने नव हजार ने चारसो योजन नूतल विस्तार , तथा नव हजार ने साडात्रणसे योजन नंदनवननो विस्तार जाणवो, त्रण हजार ने शौरसें Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ लघुक्षेत्र समासप्रकरण. योजन सोमनस वननो विस्तार जावो; अने एक हजार योजन शिखानो विस्तार जाणवो. हवे व स्थानकने विषे विस्तार प्राणवानो विधि विचारडुगविसेसो ए गाथा थकी जावो, ते श्रावी रीते के - भूतलनुं पहोलपणुं नव हजार ने चारसें योजन बे, तेमांधी शिखरनुं पहोलपणुं एक हजार योजन काढीएं, तो बाकी आठ हजार ने चार योजन रहे. ते भूतल थकी उंचुं चोरासी हजार योजन बे, तेनी साथे जाग पतां जाग पोहोंचे नहीं. ते माटे आठ हजार चारसेंने दसगुणा करिएं, तेवारे चोरासी हजार थाय, ते उंचपणाना चोरासी हजार योजन साथे गुणीएं तेवारे एक योजननो दशमो जाग श्रावे. तो नूतल थकी जेवारे एक योजन उंचे चमीएं, तेवारे विष्कं मां हे एक योजनना दश जाग मांहेलो एक जाग घटे छाने उतरतां बधे, एम प्रथमनी पेरे जावुं ॥ २२७ ॥ नकुंडीववणमुह ॥ दददीदरसेल कमल विचारं ॥ नइनंमत्तंच तहा ॥ दद दीदत्तं च इद डुगुणं ॥ २३० ॥ अर्थ- प्रथम जे जंबूद्धीपने विषे नदी, प्रपात कुंड, कुंडमांहेला द्वीप, वनमुख, Se, दीरसेल के० दीर्घ एटले लांबा पर्वत तथा कमल एटला पदार्थनो विचारं के० विस्तार तहा के० तथा प्रकारे नइ जंमतं के० नदीनुं जंडपणुं च के० वली दहदी हत्तं to हनुं दीर्घपणुं एटले लांबपणुं जे कयुं, तेथी ते इह के० या धातकी खंडने विषे डुगुण के० बमणुं जावं. ॥ २३० ॥ ॥ हवे शाल वननुं परिमाण कहे . ॥ इगलक सत्तसहसा ॥ अडसय गुणसीइ नद्दसालवणं ॥ पुवावरदीदंतं ॥ जामुत्तर असी नइयं ॥ २३२ ॥ अर्थ - एक लाख सात हजार श्रवसें ने उंगणाएंसी योजन मेरुपर्वत यकी पुत्रावर ho पूर्व पश्चिम दिशाए दीहंतं के० लांबपणे नशाल वन बे, एने जेवारे असीइयं के खासी जागे वेर्हेचीएं तेवारे बारसें ने बवीस योजन कांइक उणा श्रावे; एटलुं मेरुथकी नशालवन जामुत्तर के० उत्तर तथा दक्षिण दिशाए पहोलुं बे. कुvadi जीवा बे लाख त्रेवीश हजार एकसो ने अट्ठावन योजन एटली जावी. २३१ ॥ हवे गयदंत गिरि वखाणे बे. ॥ बढिगयदंता दीदा || पलका सयरिसस डुगुणडा ॥ इयरे तिलक बप्प, ससदस सय मि सगवीसा ॥ २३२ ॥ अर्थ- पूर्व ने पश्चिम दिशाना बेदु धातकी खंडने विषे बहि के० बाहेरनी For Private Personal Use Only Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुदेवसमासप्रकरण. दिशाए धातकी खंडनी जगतीना पासाना गयदंता के चार गयदंत गिरि ते दीहा के दीर्घ एटले केटला लांबा ? तो के-पणलरकणसय रिसहसपुगुणा के० पांच लाख उंगणोतेर हजार बसो ने उंगणसाठ एटला योजन खांबा जाणवा. अने श्यरे के० इतर एटले बीजा जंबूहीपनी जगतीनी दिशाना मांहेला चार गयदंत गिरि, जे बे ते त्रण लाख बपन्न हजार बसो ने सत्तावीश योजन लांबा जाणवा. तथा एक बाहेरनो गयदंतगिरि, अने एक मांहेनो गजदंतगिरि ते बन्ने एका करिएं तेवारे कुरुक्षेत्रनुं धनुपृष्ट थाय, तेनुं प्रमाण नव लाख पचीश हजार चारसे ने बयासी योजन थाय. एटलुं धातकी खंमने विषे कुरुक्षेत्रनुं धनुपृष्ट जाणवू. ॥२३॥ ॥ हवे वक्षस्कार अंतर नदी प्रमुखनां प्रमाण कहे .॥ खित्ताणुमाणसे, ससेखन विजयवणमुदायामो॥ चनलकुदीदवासा ॥ वासविजयविबरो उश्मो ॥२३३॥ - अर्थ- कुल गिरि तथा गजदंतानां प्रमाण कह्यां अने सेस के तेपली अन्य जे वक्षस्कार, अंतरनदी, विजय, अने वनमुख एनो श्रआयाम के विस्तार ते खित्ताणुमा. ण के क्षेत्रना अनुमाने करी जाणवो. एटले पूर्व धातकी खंड तथा पश्चिम धातकी खंडनु बन्ने खुकार दिशिएं जेवं क्षेत्रनुं लांवपणुं , तेवु वक्षस्कारादिकनुं पण लांबपणुं जाणवू. तथा वासा के पूर्व धातकी खंडनां सात क्षेत्र, अने पश्चिम धातकी खंडनां सात क्षेत्र, ते चजलक के चार लाख योजन दीह के दीर्घ एटले लांबां जाणवां. हवे वास के क्षेत्रना विजयनो विरोउ के विस्तार जे , ते श्मो के आगली गाथाएं कहे डे, ते प्रमाणे जाणवो. ॥ २३३ ॥ खितंकगुणधुवंके ॥ दोसय बारुत्तरेदि पवित्नत्ते ॥ सवन वासावासो॥ हवे इह पुण श्य धुवंका ॥२३४॥ अर्थ- खित्तंक के क्षेत्रना आंक जे एक, चार, सोल ने चोस; एनी साथे गुणधुवंके के ध्रुवांक गुणीएं. पडी दोसयबारुत्तरेहि के बसें ने बारे करी पविनत्ते के० प्रतिजक्त एटले जागे वेहेंचीएं, तेवारे वास के क्षेत्रनुं सबब के सर्वत्र एटसे श्रादि, मध्य अने अंत्य वासो के व्यास एटले विस्तार, ते हवे के होय. पुण के वली श्ह के० ए क्षेत्रने विषेधुवंका के ध्रुवांक जे जे, तेश्य के बागली गाथाए कहे ॥३॥ ॥ हवे धातकी खंमना ध्रुवांक कहे . ॥ धुरि चनद लक उसहस ॥ दो सगनल्या धुवं तदा मजे ॥ उसय अडुत्तर सतस, हिसदस बीस लरका य ॥२३५ ॥ .. Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६५ लघुदेवसमासप्रकरण. अर्थ- धुरि के प्रथम दोत्रना चउदलकसहस दोसगनउया धुवं के चउद लाख, बे हजार बसें ने सत्ताणुं एटला ध्रुवांक जाणवा. तहा के तथा प्रकारे मसे के मध्यदेवना ध्रुवांक बीश लाख सडसठ हजार बसो ने श्राप जाणवा. : अहींयां प्रथम देवना ध्रुवांक जे चौद लाख बे हजार बसें ने सत्ताणु ने अने दे. नो श्रांक एक बे. माटे एके गुणीएं तेवारे तेहिज श्रांक श्रावे. तेने बसें ने बार जागे वेहेंचतां हजार बसो ने चौद योजन कारा, एटलो नरत तथा ऐरवतनो श्रादिविस्तार जाणवो. अने बार हजार पांचसें ने एक्याशी योजन कारो मध्य विस्तार , तथा अढार हजार पांचसें ने समतालीश योजन जाफेरो अंत्यविस्तार दे. हेमवंत ने ऐरण्यवंतनो श्रादि विस्तार बीश हजार चारसे ने अहावन योजन का. केरो बे, मध्यविस्तार पचाश हजार त्रणसे ने चोवीश योजन काफेरो ने, श्रने अंत्य विस्तार चमोत्तेर हजार, एकसो ने नेवु योजन काफेरो . .. हरीवर्ष अने रम्यक क्षेत्रनो आदिविस्तार एक लाख पाँच हजार आठसे ने तेत्रीश योजन कारो , अने मध्सविस्तार बे लाख एक हजार बसें ने अहाणुं योजन का. फेरो , तथा अंत्यविस्तार बे लाख, बन्नु हजार, सातसें ने त्रेसठ योजन काफेरो . विदेहनो आदि विस्तार चार लाख, त्रेवीश हजार,त्रणसें ने चोत्रीश योजन काफेरो बे, अने मध्य विस्तार आठ लाख, पांच हजार एकसो ने चोराणुं योजन काफेरो, तथा अंत्यविस्तार अगीबार लाख सत्याशी हजार ने चोपन योजन काफेरो जे. ए रीते ए चार स्थानकनो श्रादि, मध्य तथा अंत्यनो विस्तार कह्यो. अहीं आदि ध्रुवांक चौद लाख, बे हजार, बसें ने सत्ताणुं योजन जाफेरा बे. तेने एक, बार, सोलने चोसठ साथे गुणीएं, पबी बसें ने बार नागे वेहेंचतां यथाक्त मान लाने. अने मध्यध्रुवांक बबीश लाख सडसठ हजार बसें ने श्राप बे. तेने एक, चार, सोल ने चोसठ साथे गुणीने पली बसें बार नागे वेहेचतां पूर्वोक्त मध्य विस्तार लाने, तथा अंत्यनो विस्तार श्रागली गाथामां ३५३११ए बे. तेने एक, चार, सोल, अने चोसठ साये गुणीएं, पडी बसें ने बार नागे वेहेंचतां पूर्वोक्त क्षेत्रनो अंत्य विस्तार यावे. अने उपर जे योजन रहे, तेनी कला करी बसें ने बार नागे वेहेंचीएं, तेलु उपर श्रावे. तेमाटे काफेरा लख्या जे. ॥ २३५ ॥ गुणवीस सयं बत्ती ॥ स सदस गुणयाल लक धुवमते ॥ नश्गिरिवणमाण विसु ॥ इखित्त सोलं सपिहुविजया ॥ २३६॥ अर्थ- जंगणचालीश लाख बत्रीश हजार एकसो ने गणीश एटला धुवमंते के अंत एटले बेमाना ध्रुवांक जाणवा. हवे विजय, परिमाण कहे बे. न के0 अंतर Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुक्षेत्र समासप्रकरण. २६५ नदी, गिरि के० वक्षस्कार पर्वत, वण के० मेरुवन, वनमुख एनां जे माल के० प्रमाण कह्यांबे, ते प्रमाण खित्त के० क्षेत्रना विस्तारमाथी विसुद्ध के० शोधीएं एटले काढीएं. बाकी जे उगरे ते सोलसं के० सोल जागे वेर्हेचतां जे खांक यावे, तेटला योजन पिहू विजया के० विजयनुं पढ़ोलपणं जाणवुं. तेनी रीत देखाडे :- अंतरनदीएं पन्नरसें योजन संध्या बे, वक्षस्कारे घाव हजार योजन संध्या बे, मेरुथकी पूर्व पश्चिमे नशालवने तथा मेरुपर्वते वे लाख पचीश हजार एकसो ने घावन योजन संध्या बे, वनमुखे श्रगीयार हजार बसें ने अय्यासी योजना, सर्व एकता करिएं तो बे लाख, बेतालीश हजार, त्रण से ने बेतालीश योजन थाय. ते धातकीखंडनो विस्तार चार लाख योजननो बे, तेमां थी काढीएं, तेवारे एक लाख, त्रेपन हजार बसें ने चोपन योजन बाकी रहे. तेने सोल विजय बे, माटे सोल जागे वेर्हेचीएं तेवारे नव हजार बसें ने त्रण योजन उपर सोलही व जागावे. एटलं एकेका विजयनुं प्रमाण पहोलपणे बे ॥ २३६ ॥ ॥ दवे ए विजयनो विस्तार गाथाए करी कहे . ॥ नवसदसा बस तिहु ॥ तरा य ब च्चैव सोलजायाय ॥ विजयपित्त नईगिरि । व विजयसमास चढलका ॥ २३७ ॥ अर्थ - नव हजार, बसें ने त्रण योजन उपर सोलहीया व जाग एटलं विजयपि - हुत्त के० एकेका विजयनुं पहोलपएं जाणं. ए नदी, गिरि, वन छाने विजय ए सर्वनां प्रमाण जेवारे समास के० एकठां करिएं, तेवारे चचलका के चार लाख योजन धातकी खंडनो विस्तार पूर्ण थाय छाने विजयनां नाम प्रथम जरतत्रनां सरखां कच्छादिक जाणवां. हवे कंचन प्रमुख गिरिनी स्थिति संग्रहीए बैएं. कंचण विचित्तचित्ता ॥ जमगनगा दीह वह वेयढ्ढा || पुसमुस्सयवासा ॥ हियगारस यंतरा पढमा ॥ १ ॥ मेरुण विदेह पिटुत्तद्धं कुरु विश्वरोसलरकतिगं ॥ सगनवइस हस्तइयं ॥ सय सगनवयाविषयंसा ॥ २ ॥ तंचेव सत्तनईयं ॥ पणवन्नसहस्सडुलयइगसयरी ॥ तंजमगदहंतरयं ॥ गहियं गणिषाणुसारेण ॥ ३ ॥ २३८ ॥ ॥ हवे नगरी छाने वृक्ष वखाणे बे. ॥ पुपुरी तरू ॥ परमुत्तरकुरुसु धाइ मदधाई ॥ रुका तेसु सुदंसण || पियदंसणनामया देवा ॥ २३८ ॥ अर्थ - ए धातकी खंमने विषे पुरी के० नगरी अने तरु के० वृक्ष ते पुढंव के० पहेला जंबूद्वीपने विषे जे रीते कह्या ते रीते जाणवा. पर के० परंतु एटलुं विशेष ah, जे पूर्व पश्चिमना बेहुखंडने विषे मुत्तरकुरुसु के० वे उत्तर कुरुक्षेत्र मांहे For Private Personal Use Only Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० लघुदेवसमासप्रकरण. धाइ महधाई के धातकी ने महाधातकी एवे नामे बे रुरका के वृद , तेसु के ते बे वृदने विषे सुदंसण पियदसण नामया देवा के सुदर्शन अने प्रियदर्शन एवे नामे बे देवता अनुक्रमे वसे बे, अने बे देवकुरुक्षेत्रने विषे तो जंबूहीपनी पेरे गरुल देवताने वसवायोग्य बे साल्मली वृद . ॥ २३ ॥ ॥ हवे धातकी खंमना त्रण परिधि कहे जे. ॥ . धुवरासीसु य मिलिया॥ एगो लस्को य अडसयरि सहसा ॥ अहसया बायाला ॥परिहितिगं धायईसंमे ॥१३॥ अर्थ- प्रथम कही जे ध्रुवांकनी त्रण राशी तेनी साथे एक लाख अहोत्तेर हजार आठसे ने बेतालीस एटला योजन मिलिया के मेलवीएं, तेवारे अनुक्रमे परिहितिगंधायसंडे के० धातकी खंडना त्रणे परिधिनु परिमाण थाय, ते यंत्रथी समजवु. हवे ए ध्रुवांक केवी रीते नीपजे, तेनो विधि ग्रंथातरथी कहे . यमुक्तं ॥ इहवासहराजंबु ॥ सेलगुण विचराचसुधारा ॥ रिकत्तंफुसं तिलको ॥ अमसय रिसहसबियाला ॥१॥ तणूणलवणपरिहि ॥ धायसंमस्सश्राइधुवरासी ॥ गिरिपिछणा तम्मऊ ॥ परिहीसमऊधुवरासी ॥२॥ अंतस्स विजापरिही ॥ गिरिविचररहियअंतधुवरासी ॥ गिरिविछरेण मिलियं ॥ परिहिंतिगणुकमेणजवे ॥ ३ ॥ २३॥ ॥ इति श्रीसहेजरत्नविरचित्ते क्षेत्रसमास वार्तिके धातकीखंमाधिकारे तृतियः परिछेदः॥ ॥हवे कालोद समुनो चोथो अधिकार कहे .॥ कालोददि सबनवि ॥ सहसुंडो वेलविरदिउँ तब ॥ सु वि यसम कालमहा ॥ कालसुरा पुवपछिम ॥ २४०॥ अर्थ- कालोदधि नामे जे समुद्र ते धातकीखेमनी जगती बाहेर वलयने आकारे बे. ते केवो ? सबनवि के सर्वत्र सहसंमो के हजार योजन ऊंडो बे, एटले गोतिर्थनी परे नथी. वली केवो ? वेल के जे पाणीनी हानी वृद्धि ते थकी विरहि के रहित . तब के ते कालोद समुज्ने विषे सुलियसमकाल महाकालसुरापुवपलिम के० लवणसमुज्ना सुस्थितदेव सरखा काल, अने महाकाल नामे जे बे देवता तेने रेहेवायोग्य पूर्व अने पश्चिम दिशाने विषे गौतमहीप सरखा बेबीप बे. ॥४०॥ लवणंमिव जहसंनव ॥ ससिरविदीवा इपिनायवा ॥ नवरं समंतउते ॥ कोसगुच्चा जलस्सुवरिं ॥ २४ ॥ अर्थ- लवणं मिव के लवण समुनी पेरे हंपि के०. श्रहींयां कालोद समुननेविषे पण जहसंजव के जेटला संनविएं तेटला ससिरविदिवा के चंद्रमा भने Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुदेव समासप्रकरण. २०१ सूर्यना द्वीप ते नायवा के० जाणवा. ते यावीरीते के:- धातकी खंगनी जगतीथकी वार हजार योजन कालोद समुद्रमांहे पूर्व दिशाने विषे धातकीखंगना बार चंद्रमाना बार द्वीप बे ने पश्चिम दिशाने विषे बार सूर्यना बार द्वीप बे, तथा कालोदनी जगती थकी कालोद समुद्रमांदे बार हजार योजने पूर्व दिशाने विषे कालोदधिना वेतालीश चंद्र माना बेतालीश द्वीप बे, छाने पश्चिम दिशाए बेतालीश सूर्यना बेतालीश द्वीप ठे. नवरं के० एटलुं विशेष जे समंतर ते के० ते सर्व द्वीप बाहेरनी दिशाए सर्वत्र जोतां जलस्सुवारें के० पाणी थकी उपरे कोसडुगुच्चा के० बे कोश उंचा बे; तथा एकाएं लाख सित्तोत्तर हजार बसें ने पांच योजन कालोद समुद्रनो परिधि जावो. अने बावीश लाख बाणु हजार बसें ने बेतालीश योजनाने उपर त्रण कोश एटलुं जगतीद्वारांतर जाणवुं ॥ २४९ ॥ इति श्रीक्षेत्रसमास वार्तिके कालोदाधिकारश्चतुर्थः समाप्तः ॥ ॥ दवे पांचमो पुष्करदल द्वीपनो अधिकार कहे बे. 11 पुस्करदलब हिजगाइ ॥ वसंवि माणुसुत्तरो सेलो ॥ वेखंधरगिरिमाणो ॥ सींह निसाई निसढवासो ॥ २४२ ॥ अर्थ- कालोद समुनी जगती थी बाहेर वलयने श्राकारे सोल लाख योजन पहोली पुष्कर द्वीप बे, ते पुरकर के० पुष्कर द्वीपनुं दल के० अर्द्ध आठ लाख योजन बे, त्यां की बाहेरनी दिशाए जगश्व के० जगतीनी पेरे वलय सरखो माणुसुत्तरोसेलो के० मानुष्योत्तर एवे नामे पर्वत ते संवि के० रह्यो बे, पण ते केवो बे? तो के - वेलंधर गिरिमाणो के० वेलंधर गिरिने माने वे एटले मूलने विषे एक हजार बावीश योजन ने शिखरने विषे चारसें ने चोवीश योजन पहोलो बे, ने सत्तरसें एकवीश योजन उंचो . वली सींह निसार के० सिंहनी पेरे निसादी बे, जेम सिंह बेशे तेवारे श्रागल उंचो होय, अने पाठले जागे नीचो होए तेम मानुष्योत्तर पण मांहेनी दि शाएं उंचोबे, छाने बाहेरनी दिशाएं नीचो ढाल मांहे बे. वली केहवो बे? तो केrecard के० निषेध पर्वतने वर्षे राता सुवर्णनो बे ॥ २४२ ॥ ॥ हवे त्यां क्षेत्र ने पर्वतनां स्वरूप वखाणे बे. ॥ जद खित्तनगाईं ॥ संगणो धायए तदेव इदं ॥ डुगुगोय नसाली ॥ मेरु सुयारा तहा चेव ॥ २४३ ॥ अर्थ- जह. के ० जैम खित्त के० क्षेत्र ते जरतादिक ने नगाई के० पर्वत हैमवंत प्रमुख तेनां संठाणो के० संस्थान जे आकार विशेष ते धायए के० धातकी खंगनेविषे कांबे. एटले त्यां जेम चक्रना थारा ने विवर सरखा बे, तदेव के० तेमज Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७३ लघुदेवसमासप्रकरण. हं के० ए पुष्करवर छीपनेविषे पण जाणवा. उगुणोयनदसालो के० धातकीखंगना नशाल वन थकी पुष्कराईनुं नमशाल वन ते लांबपणे अने पहोलपणे बमणुं जाणवं. तो मेरुनी पूर्व पश्चिम दिशाए जमशालवनना धातकीखंमनेविषे विस्तार एक लाख सात हजार आठसे ने उंगणाएंसी योजन बे. तेने बमणां करीएं तेवारे बे लाख पन्नर हजार सातसें ने बहावन योजन थाय. ने एने जेवारे श्रव्यासी नागे वेहेंचीएं, तेवारे बे हजार चारसें एकावन योजन उपर एक योजनना अट्यासी नाग करिएं, तेवा सोतेर नाग एटलो दक्षिण उत्तर दिशाना जशाल वननो विस्तार पुष्कराईनेविषे जाणवो. मेरुसुयारा के पुष्कराना बे मेरु अने खुकारा पर्वत तेनो विस्तार तहाचेव के ते धातकी खंग सरखो जाणवो. ॥ २४३ ॥ ॥हवे बाहेरना चार गजदंता वखाणे . ॥ इद बाहिरगयदंता॥ चनरो दीदत्ति वीससय सहसा॥ तेयालीससहस्सा ॥ गुणवीसहिया सया उन्नि ॥४४॥ अर्थ- इह के ए पुष्कराऊने विषे मानुषोत्तर पर्वतनी दिशाए वाहिरगयदंताचजरो के बाहेरना चार गजदंतगिरि ते वीससयसहस्सा के वीश लाख तेतालीश हजार बसें ने उंगणीश योजन दीहत्ति के दीर्घ इति एटले लांबा . ॥ २४ ॥ अजिंतरं गयदंता ॥ सोलसलरका य सहस ब्बीसा ॥ सोलदिय सयंचेगं ॥ दीदत्ते हुँति चनरोवि ॥४५॥ . अर्थ- कालोद समुनी जगतीनी दिशाना अप्रिंतर के मांहेला चारे गजदंतगिरिजे, ते सोल लाख बबीश हजार एकसो ने सोल योजन एटला दीर्घ एटले लांबा, हुंति के जे. तथा चार लाख बत्रीश हजार नवसे ने सोल योजन एटली कुरुक्षेत्रनी जीवा होय, वली सत्तर लाख सात हजार सातसें ने चनद उपर एक योजनना बसें बार नाग करिएं, तेवा आठ नाग एटलो कुरुक्षेत्रनो विस्तार जाणवो. त्रणसें तेत्रीस योजन उपर एक योजननो त्रीजो नाग एटलुं कंचनगिरिनुं मांहोमांहे अंतर जाणवू. बे लाख चालीश हजार नवसें ने जंगणसाठ योजन उपर साती एक नाग एटडं अंतर कुल गिरि, जमक अने अहनुं अंतर जाणवू, तथा उत्रीश लाख जंगणोतेर हजार त्रणसे ने पत्रिीश योजन एटर्बु कुरुदेत्रनुं धनुपृष्ट जाणवू. ॥२५॥ हवे शेष, नदी तथा पर्वतनां परिमाण कहे . ॥ सेसा पमाण जद ॥ जंबूदीवाज धाइए जणिया । उगुणासमा यते तद॥धायईसंडाउ इह नेया॥श्४६॥ Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खघुक्षेत्रसमासप्रकरण. अर्थ- शेष बीजा देत्र, नदी अने जद प्रमुखनु पमाण के प्रमाण ते जह के० जेम जंबूदीवाउ के जंबूझीपथकी कोश्क जुगुणा के बमणा, कोश्क समा के सरखा, ते धाश्ए के० धातकीखंडने विषे जेम कह्या बे, तह के० तेम इहं के अहींयां पुष्कराईने विषे कोश्क धायसंमाज के० धातकीखंडथी बमणा, कोश्क धातकीखम सरखा पण नेया के जाणवा. एटले जे जंबूद्वीप सरखा धातकीखंड मांहे , ते धातकीखंड सरखा पुष्कराई मांहे डे, अने जे जंबूझीप थकी धातकीखंडमांहे बमणा कह्या वे ते पुष्कराईने विषे धातकी खंमथकी बमणा जाणवा; तथा धातकी खंमनेविषे दीर्घ वैताढ्य जंबूहीप सरखा वखाणे , यथा ॥ कंचण यमसुरकुरुनग ॥ वेयद्वाचेववहदीहाय ॥ विखंजबाहसमुस्सएणजहबूदीवुच्चा ॥१॥ पुष्कराईनेविषे तो दीर्घ वैताढ्यनो विस्तार बसें योजन कह्यो बे. यथा ॥ जवेहोवेयवाणं ॥ जोयणातु. उसयकोसाइं ॥ पणवीसंजविढो ॥ दोचेवसयाविचिना ॥२॥ अहींयां निश्चयनी वात झानी जाणे. ॥१४६ ॥ अडसीलरका चनदस ॥ सहसा तद नवसया य इगवीसा ॥ अग्निंतरधुवरासी ॥ पुत्वत्त विदीय गणियवो ॥२४॥ अर्थ- खित्तंकगुणधुवं के ए गाथामां जे रीते विधि कह्यो , ते रीते पुष्कराई क्षेत्रनो विस्तार आदि, मध्य तथा अंतनो जाणीएं. तेना ध्रुवांक कहे , अग्यासी लाख चउद हजार नवसें ने एकवीश एटला योजन तह के तथा प्रकारे ए अन्यंतर के० आदि क्षेत्रना ध्रुवांकनी राशि जाणवी. ते सर्व पुवत्त के प्रथमनी पेरे क्षेत्रना श्रांक साथे गणियवो के गणीएं, पडी बसें ने बार जागे विही के वेहेंचतां परिमाण लन्यमान थाय. ॥ २४ ॥ ग कोडि तेरलरका ॥ सहसा चचत्त सगसय तियाला॥ पुरकरवरदीवढे ॥ धुवरासी एस मशंमि ॥ १४ ॥ अर्थ- एक कोमी, तेर लाख चुमालीस हजार सातसें ने तेतालीश योजन एटली पुष्करवर छीपना मद्यमि के मध्य क्षेत्रनी एधुवरासी के ध्रुवांकराशी जाणवी. ॥श्व०॥ एगा कोडी अमती, सलक चनदत्तरीसहस्सा य ॥ पंचसया पणसहा ॥धुवरासी पुरकर ईते ॥४॥ अर्थ- एक करोड आडत्रीश लाख चमोतेर हजार पांचसे ने पांसठ एटली पुष्कराना अंत के० अंत्य क्षेत्रनी ध्रुवांक राशी जाणवी. हवे ए ध्रुवांक जाणवानी पेरे लखीए बैए. यथा ॥ पुरकरदलंमिसुयार ॥ धायश्संभाउजुगुणवासहरा ॥ खित्तंफ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ लघुक्षेत्रसमासप्रकरण. संतिलकति ॥ पणवन्नसदस्सबसयचुलसी ॥ तेणूणाकालोयहि || परिहि इह पढ महोधुवरा सि ॥ दी वर्द्धमद्यपरिहि ॥ गिरिपीद्वणोयमीधूवो ॥ २ ॥ नरखित्तचंड परिहि ॥ गिरि पहुणाय अंतधूवरासि ॥ पुचगणणहरणो ॥ खित्तपमाणंजवेपयमं ॥ ३ ॥ हवे अनुक्रमे क्षेत्रप्रमाण विवरीने लखीएं बैएं. yosराने विषे जरत ऐवतना या दिध्रुवांक अव्यासी लाख चउद हजार नवसेंने एकवीशतेने एक साथे गुणीएं, तेवारे तेहीज खांक श्रावे, तेने बसें ने बार जागे वेहेंची एं, तेवारे एकतालीश हजार पांचसें ने रंगणाएंसी योजन लज्यमान थाय: उपर एकसो ने तहोत्तेर योजन वधे, ते एक योजनना बसें बार जाग करी तेने बसें ने बार जागे वेर्हेचीएं, तेवारे उपर बसें ने बारीच्या एकसो ने तहोत्तर जाग आवे, लो प्रथम विस्तार बे. तेमाटे गाथामां सर्वत्र जाजेरा लख्या बे, तेमज त्रेपन हजार पाँच ने बार योजन उपर बसें बारीच्या एकसो ने नवाणु जाग एटलो मध्य विस्तार जावो. पांसठ हजार चारसें ने बेतालीस योजन उपर बसें ने बारीया तेर जाग एटलो अंत्य विस्तार जाणवो. एट हेमवंत ऐरण्यवंतनो यदि विस्तार एक लाख बासठ हजार त्रणसें ने अंगणीश योजन उपर बसें ने बारीया बपन्न जाग बे, छाने मध्यविस्तार बे लाख चउद हजार ने एकावन्न योजन उपर बसें बारीया एकसो ने साठ जाग बे, तथा अंत्यनो विस्तार बे लाख एकसठ हजार सातसें ने चोराशी योजन उपर बसें ने बारीया बावन जाग बे. हरीवर्ष तथा रम्यकनो श्रादिविस्तार व लाख पांसठ हजार बसें ने सीतोतेर यो - जन उपर बसें ने बारीच्या बार जाग बे, अने मध्य विस्तार आठ लाख बपन्न हजार बसें ने सात योजन उपर बसें ने बारीया चार जाग बे, तथा अंत्य विस्तार दश लाख सडतालीश हजार एकसो ने बत्रीस योजन उपर, बसें ने बारीया बसें ने आठ जाग बे. विदेह क्षेत्रनो यदि विस्तार बवीश लाख एकसठ हजार एकसो ने आठ योजन उपर बसें ने बारीया श्रमतालीश नाग बे, छाने मध्यविस्तार चोत्रीश लाख चोवीश हजार श्रावसें ने श्रद्वावीश योजन उपर बसें ने बारीया सोल नाग बे, तथा अंत्यविस्तार एकतालीस लाख श्रव्यासी हजार पांचसें ने बेतालीस योजन उपर बसें ने बारी एकसो ने बनुं जाग बे. ए गुणांक, क्षेत्रांकाने ध्रुवांक ते सर्व यंत्रथी जाणवा. २४०७ ॥ वे प्रथमनी पेरे नदी, गिरि छाने वनमुखनुं परिमाण काढिने शेष रहे तेने ॥ ॥ सोलमे जागे एक विजयनुं परिमाण थाय ते कहे बे. ॥ गुण वीससहस सगस्य ॥ चनणनय सवाय विजविकंनो ॥ तद इद बदिवदसलिला ॥ पविसंति य नरनगरसादो ॥ २५० ॥ For Private Personal Use Only Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुक्षेत्रसमासप्रकरण. ... अर्थ- उंगणीश हजार सातसें ने सवाचोराणु योजन एटबुं विजयतुं विष्कंज थाय, तह के तथा प्रकारे इह के ए पुष्कराई हीपने विषे, बहि के बाहेरनी दिशाए जेना पाणी वह के वहे , एवी जे सलिला के नदी तेनी नजीक को समुफ नथी; ते माटे नरनगस्स के मानुष्योत्तरने अहो के हेठे मूलमा पविसंति के० पेसे . ॥ २५ ॥ श्द पनममदापनमो ॥ रुका उत्तरकुरूसु पुचिव ॥ तेसु य वसंति देवा ॥ परमो तद पुंडरीय ॥ २१ ॥ अर्थ- श्ह के ए पुष्कराईने विषे उत्तर कुरूसु के बन्ने उत्तर कुरुक्षेत्रमांहे प. उम महापजमोरुका के० पद्म अने महापद्म एवे नामे वृक डे, ते पुस्विंव के पूर्वे जंबूझीपवत् एटले जंबूछीपनी पेरे तेसुय के ते पद्म अने महापद्मने विषे पलमो तहपुमरीयदेवावसंति के० पद्म तथा पुंडरीक एवे नामे बे देवता रहे जे. अने देवकुरुक्षेत्रनेविषे तो जंबूहीपनी पेरे गरुमदेवने वसवायोग्य बे सामलीनां वृक्ष जे. ॥२५॥ पुरस्करदल पुवादर ॥ खंड तो सदस उग पिहुकुडा ॥ नणियातहाणपुण ॥ गीयबा चेवजाणंति ॥२५॥ अर्थ- पुष्कराई क्षेत्रने विषे पूर्व पश्चिम दिशाना बन्ने खममांहे बे हजार योजन पोहोला एवा बे कूट कह्या बे, ते कूटनां स्थानक तो पुण के वली जे गीतार्थ ज्ञानवंत होय ते जाणे. यमुक्तं ग्रंथांतरे ॥ इसितलेकमसोजुवि ॥ सहसजोयणपिहुदसोगाढा ॥ श्रगेविडुकुंमा ॥ तिबकनवनवइंसहसगमे ॥१॥ ५५ ॥ ॥ हवे मनुष्य क्षेत्रमांहे सर्व पर्वतनी संख्या कहे .॥ दो गुणदत्तरि पढमे ॥ अड लवणे बीयदीव तश्य॥ पितु पिडपण सय चाला, श्य नरखित्ते सयलगिरिणो ॥ श्५३ ॥ अर्थ-प्रथम जंबूझीपने विषे बसें ने उगणोतेर पर्वत ले. ते कहे . एक मेरु, उ कुलगिरि, चार गयदंता, सोल वदस्कार, चोत्रीश लांबा वैताढ्य, चार वृत्त वैताट्य, चार यमलगिरि, अने बसें कांचन गिरि. ए सर्व मली बसें ने उंगणोतेर पर्वत जंबबीपमांहे जाणवा. अने अमलवणे के० श्राउ पर्वत लवणसमुज मांहे . बीयदीव के बीजा धातकीखंग मांहे पांचसें ने चालीस पर्वत बे, केमके जंब्रहीपना बसें नेगणोतेरने बमणा करीने बे षुकार पर्वत नेलीएं, तेवारे पांचसे ने चालीश थाय. अने ह के निश्चे तश्यऽपि के त्रीजो थर्ड एटले पुष्कराने विषे पण पांचसे ने चा Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुक्षेत्रसमासप्रकरण. लीश पर्वत जाणवा. श्य के ए नरखितेसयलगिरिणो के मनुष्य क्षेत्रमांहे सर्व पवेत जाणवा. ॥ २५३ ॥ ॥हवे सर्व पर्वतनी एकत्र संख्या कहे .॥ तेरद सय सगवला ॥ ते पणमेरूहि विरहिया सवे ॥ उस्से दपायकंदो॥ माणुससेलो वि एमेव ॥ ३५४ ॥ अर्थ- तेरसो ने सत्तावन पर्वत सर्व मलीने मनुष्य क्षेत्रमांहे जाणवा, ते पण मेरूहिविरहिया के ते पांच मेरुपर्वतविना सवे के सर्व पर्वतो जस्सेहपायकंदो के जंच्चपणाना चोथे जागे कंद एटले नूमीमांहे जाणवा, अने माणुससेलोवि के मानुष्योत्तर पर्वत, ते पण एमेव के एज रीते एटले उंचपणाने चोथे नागे नूमीमांहे . ॥ पुष्कराई छीपना श्रादि, मध्य अने अंत्यना त्रण परिधि कहे . ॥ धुवरासीसु तिलका ॥ पण परम सदस्स सय चुलसीया॥ मिलिया हवंति कमसो॥ परिदितिगं पुस्कर धस्स ॥२५॥ अर्थ- प्रथम जे धुवरासीसु के ध्रुवांकनी श्रेणी कही , तेमांहे त्रण लाख पंचावन्न हजार बसें ने चोराशी एटला योजन जेवारे त्रणे परिधिमांहे मिलिया के मेलवीएं, तेवारे कमसो के अनुक्रमे पुरकरफरस के० पुष्कराईनी परिहितिगं के० त्रण परिधि, हवंति के होय, ते संख्या यंत्र थकी जाणवी. उक्तंच ॥ अट्ठाश्दीव उसमुदरूव ॥तप्परिहिं जोयणिगकोमी ॥ बायाललरकतीसं ॥ सहसा दोसयश्गुणवन्ना ॥१॥ सोलसकोमीलरका ॥ नवको डिसयातिकोडिगलका ॥ पणवीससहस्सासे ॥गणियपयंमुणसुकरणेहिं ॥ २५५ ॥ ॥ हवे मनुष्यदेत्र बाहेर जे पदार्थ न होय ते कहे . ॥ नश्दघण घणियागणि ॥ जिणाश्नरजम्ममरणकालाई॥ पणयाललरकजोयण ॥ नरखितं मुत्तु नो पुरां ॥ २५६ ॥ अर्थ- नदी, अह, घन के मेघ, घणिय के मेघनो गर्जाव, अगणि के बादर अग्नि काय, जिणा के तिर्थकर, आदिशब्दथकी बलदेव, वासुदेव, चक्रवर्ति ने बीजा पण नर के सामान्य मनुष्य तेना जम्ममरण के जन्म अने मरण तथा कालाई के मुहर्त, प्रहर, दिवस प्रमुख आदिशब्द थकी चंज सूर्यना परिवेष विजली, चय, अपचय, अने उपराग एटला पदार्थ पीस्तालीस लाख योजन प्रमाण मनुष्यदेत्र मांदे होय. पण नरखित मुत्तु के नरक्षेत्र मूकीने नोपरां के बाहेर न होय, एवं नर Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुदेवसमासप्रकरण. २७ क्षेत्रना खलावनुं विशेष जाणवु ॥ इति श्री सहेजरत्न विरचित्ते क्षेत्रसमासवार्तिके पं. चमोधिकारः ॥ २५६ ॥ . ॥ हवे पुष्कराई पर्वत प्रमुखने विषे जिनजवन ते कहे .॥ चसु वि इसुयोरसु ॥ इकिकं नरनगंमि चत्तारि ॥ कूडोवरि जिणनवणा ॥ कुलगिरिजिणनवणपरिमाणा ॥ २५ ॥ अर्थ-प्रथम कह्यां जे धातकीखंडने विषे बे इषुकार, श्रने बे खुकार पुष्करा:नेविषे ए चउसुवि के चारे पण सुयारेसु के० खुकार पर्वतने विषे प्रत्येके चार कूट , तेमांहे बेला सिद्धकूटने विषे चार पर्वते कि के० एकेक जिननवन , बधा मली चार जिनजवन डे, अने नरनग के मानुष्योत्तर पर्वतना चतारिकुमोवरि के चार कूटना उपर जिणजवणा के चार जिनजवन , ते जिननवन केहवां ? तो के-कुल गिरिजिण जवणपरिमाणा के कुलगिरिना जिननवनने परिमाणे ते जिनजवन जाणवा. एटले पचाश योजन लांबां, पचीश योजन पहोला अने त्रीश योजन उंचां एवां जिनजवन जाणवां. ॥ २५॥ ॥ हवे नंदीश्वर, कुंडल अने रुचक छीपनेविषे जिननवन कहे . ॥ तत्तो गुण पमाणा ॥ चनदारा थुत्तवलियसुरूवा ॥ नंदि सर बावमा ॥ चन कुंडलि रुयगिचत्तारि ॥ २५ ॥ अर्थ- तत्तो के ते मानुष्योत्तर तथा षुकार पर्वतना जिननवन थकी उगुणपमाणा के बमणुं प्रमाण जेमनु, अर्थात् एकसो योजन लांबां अने पचाश योजन पहोला तथा बहोत्तेर योजन ऊंचां एवां अने चउदारा के चार बारणे सहित थुत्तवणियसुरूवा के पूर्वसूरिकृत स्तोत्रने विषे वखाएयु के स्वरूप जेमर्नु एवा, श्रापमा नंदीश्वर बीपनेविषे बावन्न जिननवन जाणवां, तथा कुंडल छीपनेविषे कुंमलने श्राकारे जे मध्य गिरि ने तेने कुंडलगिरि कहे , तेनी चार दिशाने विषे एवाज प्रकारनां चार जिननवन जाणवां. एम रुयगिचत्तारि के रूचकहीपने विषे पण चार जिननवन डे, एम साठ जिननवन ते चार बारणांनां बे. बहुसंखविगप्पे रुय, गदीव उच्चत्ति सहस चुलसीई ॥ नर नगसमरुयगो पुण ॥ विबरि सयगणसदसको ॥२५॥ अर्थ- बहुसंख के० घणी संख्याना विगप्पे के विकल्प एटले विचार जे जेने विषे, एवो रुचक छीप ते विकल्प देखाडे . यथा ॥ दोकोडीसहस्साशं ॥ बच्चेवस Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ JIG लघुदेवसमासप्रकरण. याकवीसा ॥ चग्यालसयसहस्सा ॥ विकंजो कुंडलोदीवो ॥ १॥ दसकोमीसहस्साइं॥ चत्तारिसया पंचसीयाई ॥ बावत्तरिंचलका ॥ विख्नोख्यगदीवस्स ॥२॥ एम बीपपन्नतिनी नियुक्तिमांहे कुंमलदीप श्रने रुचकछीपनुं विष्कंन कडं ने, ते लाख योजन प्रमाण जंबूझीप थकी, बमणा द्वीपसमुख गणतां गाथोक्त बे हजार बसें ने एकवीश कोमी चुमालीश लाख योजन एटलुं दशमा कुंडलछीपनुं मान श्रावे. बीजी गाथाए रुचक छीपर्नु परिमाण दश हजार चारसे ने पंचासी कोमी ने बहोतेर लाख योजन कह्या बे ते श्रगीधारमा छीप, मान श्रावे . एटले ए एक विकल्पः॥ तथा- जंबुधायईपुरकर ॥ वारुणीखीरघयखोयनंदीसरा ॥ थरुणरूणवायकुंडल ॥ संखस्यगन्जुयगकुसकुचा ॥१॥ ए संघयणीनी गाथाने अनुसारे अगीधारमो कुंमलजीप थने तेरमो रुचकहीप. ए बीजो विकल्पः॥ तथा तिपडोयारातहारुणाश्या ए रीते जोतां एक नामे त्रण नाम करतां पन्नरमो कुंमलदीप श्रावे बे, अने एकवीशमो रुचकहीप थावे जे, ते एवी रीते के-श्राग्मो नंदीश्वर बीप बे, त्यारपती नवमो अरुण, दशमोथरुणवर, श्रगीश्रारमो अरुणवरावनास, बारमो अरुणोपपात, तेरमो अरुणोपपातवर, चउदमो अरुणोपपातवरावनास, पनरमो कुंमल, सोलमो कुंमलवर, सत्तरमोकुंमलवरावनास, अढारमो संख,उंगणीशमो संखवर, वीशमो संखवरावनास, एकवीशमो रुचक, ए रीते एकवीशमो रुचकछीप श्रावे . ए त्रीजो विकल्प जाणवो. जीवानिगमने विषे पेहेला विकल्पनी संख्या कही बे. यथा ॥ जंबूदीवेलवणे ॥ धायश्कालोयपुरकरेवरुणे ॥ खीरवयखोयनंदी ॥ अरुणवरे कुंमले रुयगे ॥ ए चोथो विकल्प ॥ एम चार विकल्प बे. तथा ते रुचकछीपना बहुमध्यदेशनेविषे वलयने श्राकारे रुचकशैल बे. ते चोराशी हजार योजन ऊंचो , वली नरनगसम के मानुष्योत्तर पर्वत सरखो विस्तार . पुण के वली एटलुं विशेष जे ए विस्तारना शत आंकने स्थानके सहस्रनो श्रांक जाणवो. जेम मानुष्योत्तर पर्वतनो मूल विस्तार एक हजार ने बावीश योजन . तो रुचक पर्वतनो मूल विस्तार दश हजार ने बावीश योजन जाणवो. वली मानुष्योत्तर पर्वतनो शिखर विस्तार चारसे ने चोवीश योजन , तो रुचक पर्वतनो शिखर विस्तार चार हजार ने चोवीश योजन . ॥ २५ ॥ तस्स सिहरंमि चनदिसि ॥ बीयसदस्सिगिगु चनबि अहह ॥ विदिसि चक श्य चत्ता॥ दिसि कुमरिकूड सहस्सुच्चा ॥२६॥ अर्थ-तस्स के ते रुचकशैलना सिहरंमि के शिखरनेविषे चउदिसि के पूर्वादिक चार दिशाने विषे बीयसस्सिगिगु के बे हजार योजन ज्यां थाय डे, त्यां ए Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुक्षेत्रसमासप्रकरण. जए केक कूट बे, अने चलि के चोथा सहस्रनेविषे के० श्राव श्राप कूट ले. ते श्राप कूट दिशाकुमरीनां कह्यां., नहींकां त्यां नवमुं सिझकूट पण बे. तथा विदिसि के० विदिशिने विषे जे चऊ के० चार कूट , ते सहस्रांक जाणवा. ते एक हजार योजन मूल विस्तार तथा एक हजार योजन ऊंचा अने पांचसे योजन शिखरविस्तार एवां कूट . श्यचत्ता के० ए सर्व मली चालीश कूटनेविषे रुचकवासीनी दिसिकुमरी के दिशिने विषे जे कुमरी वसे ले ते दिशिकुमरीनां नाम लखीएं बैएं. नंदोत्तरा, नंदा, सुनंदा, नंदवर्कनी, विजया, वैजयंती, जयंती,अपराजिता, ए आठ कुमरी पूर्व रुचकने विषे वसे बे. समाचारा, सुप्रदत्ता, सुप्रबुझा, यशोधरा, लक्ष्मीवती, शेषवती, चित्रगुप्ता, वसुंधरा, ए आठ दक्षिण रुचकने विषे वसे . इलादेवी, सुरादेवी, पृथ्वी, पद्मावती, एकनाशा, अनवमिका, जमा, अशोका, ए श्राप पश्चिम रुचके वसे . अलंबुसा, मिश्रकेशी, पुंडरीका, वारुणी, हासा, सर्वप्रना, श्री, ही, ए आठ उत्तर रुचके वसे . चित्रा, चित्रनाशा, तेजा, सुदामिनी, ए चार विदिशिना रुचके वसे . रूपा, रूपांतिका, सुरूपा, रूपवती, ए चार मध्य रुचके वसे डे. ए संख्या एकत्र गणतां चालीश थाय, अने प्रथम सोल वखाणी बे, ए सर्व मलीने बप्पन्न दिक्कुमारिका जाणवी, ए सर्व दिशाकुमारी ते श्रीतीर्थकर देवना ज. न्मदिवसनेविषे श्रावीने सूतिकार्य करी पोतपोताने स्थानके जाय.॥ २६० ॥ ॥ हवे ग्रंथनी समाप्ति कहे .॥ श्य कयवयदीवोददि ॥ वियारलेसो मए विमणावि ॥लि दि जिणगणदरगुरु ॥ सुयसुयदेवीपसाएण ॥ २६ ॥ अर्थ-श्य के० था जे पूर्वे कडं ते कयवयदीवोदहि के कोश्क द्वीप समुपना वियार के विचारनुं खेसो के लेश एटले परमाणुमात्र ते विमरणावि के० विगत एटले जेनी बुझिग , एवो मूर्ख थको पण मए के हुँ रत्नशेखर नामा आचार्य तेणे जिण के परम केवलज्ञान तेणे करी विराजमान सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, संसारपारंगत, जेणे समस्त अष्टकर्मरूप शत्रु जीत्या बे. जेमने देवोनी कोमाकोमी वंदे . अ. ष्टमहाप्रातिहार्य, बत्रत्रय, चामर युग्म, समवसरण इत्यादिक शोजा जेने विषे डे, ने जे समस्त जीवनी गति आगति तथा सुख दुःख ते ज्ञानने बले जाणे बे. जे चउद राजना सर्व जीवादि पदार्थने करतलामलकनी पेरे देखे बे. तेने जिनराज देव कहिएं. अने गणहरगुरु केजे जिनेश्वरनी आझाना प्रतिपालक एवा शिष्य जे गौतम, सौधर्मादिक तेने गुरु कहीएं, गुरु एटले जे धर्मनी तथा तत्वज्ञाननी वातो कहे, पोते Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० खघुक्षेत्रसमासप्रकरण. धर्मना मार्गनेविषे प्रवर्ते, बीजाने प्रवर्तीवे, तेने गुरु कहीएं. अने सुय के सिझांत जे तीर्थंकरनां वचन प्रमाणे प्रकाश्यां, ते प्रकाशना करनार गणधर चनद पूर्वधर एटसे श्रुतकेवली अने दशपूर्वधर तेमना करेलां ते सिद्धांत कहीएं. श्रुतदेवी ते सरस्वती, सिद्धांत प्रमुख सर्व शास्त्रनी जे अधिष्ठायिका तेने सरस्वती कहिए. तथा बीजा पू. चार्य जे महंत जिनजागणी क्षमाश्रमण, मलय गिरि, वज्रसेन, हेमतिलकसूरि प्रमुख गुरु तेमनो जे प्रसाद तेणे करी ए मनुष्यादिक जीवोना क्षेत्रनो विचार में लेशमात्र लख्यो . ॥ २६१ ॥ सेसाण दीवाण तदोदहीणं ॥ वियारविचारमणोरपारं ॥ स या सुयाउँ परिनावयंतु ॥ सर्वपि सवन्नुयश्कचित्ता ॥२६॥ अर्थ- शेष बीजा असंख्याता दीवाण के छीपनो तह के० तथा उदहीणं के समुनो वियार के० विचार तेनो जे वीबार के विस्तार ते प्रत्ये सया के सदासर्वदा सुया के सिद्धांत थकी सवन्नु के सर्वज्ञ जे तीर्थंकर देव तेना धर्म वचनने विषे कचित्ता के एक अद्वितीय चित्त जेमतुं ले एहवा थका सवंपि के समस्त विचारने परिजावयंतु के० जाणो, पण ए बीपसमुज्नो विचार केवो ने ? तो के-अणोरपारं के अनंत अपार बे. तो तीर्थकरना धर्मनेविषे एकचित्तपणा थकी अनुक्रमे केवल ज्ञान पामीने ए सर्व छीप समुज्नो विचार जाणवो, ए परमार्थ ॥ २६॥ सूरीदि जं रयणसेदर नाम एहिं ॥ अप्परमेव रश्यं नरखित्तविरकं ॥ तं सोहियं पयरणं सुयणाहि खोए ॥ पावेजतं कुसलरंगमयप्पसिहि॥२६३॥ ॥ श्यखित्तसमासपकणस्सबछोअहिगारोसम्मत्तो ॥ अर्थ- श्रीरत्नशेखर नामे जे सूरि के प्राचार्य तेणे अप्परमेव के श्रात्माने अर्थे एहिंनर खित्तविरकं के० ए नरक्षेत्रनुं वखाण ते रश्यं के रच्यु. ते केवु डे ? ता के-सुयणा के० सुजन जे राग द्वेष रहित एवा उत्तम जीव तेणे सम्यक् प्रकारे एक चित्तपणे सोहियं के सोध्यु, निषित कीधुं , एबुं जे था पयरणं के क्षेत्रसमासप्रकरण ते कुशल, आरोग्य, रंग, आनंद प्रमुख घणा नला पदार्थ डे जेने विषे एवं. ए शास्त्र लोकने विषे पसिद्धी के० विस्तार प्रत्ये पावेतं के पामो. ए ग्रंथनो बाशिर्वाद मंगल स्वरूपे कह्यो बे. ॥३६३॥ Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुक्षेत्र समासप्रकरण. २०१ संवप्रससाधयतस्कंदाननकुमुदबांधवप्रमिते ॥ इषसु दि विजयदशम्यामुदयपुरे नियत: सुविदिने ॥ १ ॥ श्रीमत्खरतरगडे स्वच्छे श्री साधुधर्मगणी मुख्याः ॥ तविष्य सहजरत्ना जयंतु शरदः शतं जगति ॥ २ ॥ तस्याश्रवेषु मुख्यो नाम्नोदयसागरः श्रुताधारात् ॥ क्षेत्रसमासप्रकरणबाल विबोधंसुसंक्षिप्तं ॥ ३ ॥ गंगाजल निर्मलया सद्वृत्ताकारयातपखिन्या मंत्रिधनराजसुतया सुगंगयान्यर्थितो व्यदधत् ॥ ४ ॥ मतिमांद्यतः प्रमादात्समय विरुऊं लिखितमत्रमया ॥ संशोध्यंश्रुतवद्भिः प्रसादमाधायतत्सर्वं ॥२॥ इतिदेत्रसमासप्रकरणं बालावबोधसहितं समाप्तमिदम् ॥ ॥ अथ श्री सिद्धांतस्तवन प्रारंभः ॥ त्वा गुरुन्यः श्रुतदेवतायै सुधर्मणेच श्रुतनक्किनुन्नः ॥ निरुद्धनानावृजिनागमानां जिनागमानां स्तवनं तनोमि ॥१॥ सामायिका दिकषडध्ययन खरूपमावश्यकं शिवरमावदनात्मदर्श ॥ निर्युक्तिजाप्यवरचूर्णि विचित्रवृत्ति स्पष्टीकृतार्थ निव हृदये वहामि ॥ २ ॥ युक्तिमुक्ताखातिनीरं प्रमेयोर्मिमहोदधिं ॥ विशेषावश्यकंस्तौमि महाजाप्यापरा निधं ॥३॥ दशवैकालिकं मेरुमिवरोचिष्णुचूलिकं ॥ प्रीतिक्षेत्रं सुमनसां सत्कल्याणमयं स्तुमः ॥४॥ उद्घामुपोद्घात विकल्पकाल नेदप्रभेदप्रतिनेदरूपां ॥ मिता निधानाममिता निधेयां नौम्याद्यनिर्युक्किममोघयुक्तिं ॥ ५ ॥ पिंकविधिप्रतिपत्तावखंडपांडित्यदानडुर्ललितां ॥ जलितपदश्रुतिमिष्टाम निष्टुमः पिंड नियुक्तिं ॥ ६ ॥ प्रवचननाटकनांदी प्रपंचितज्ञानपंचकसतत्त्वा ॥ श्रस्माकममंदतमं कंदलयतुनंदिरानंदं ॥ ७ ॥ अनुयोगद्वाराणी द्वारणीवा - पुनर्नवरस्य ॥ जीयासुः श्रुति सौधाधिरोदसोपानरूपाणि ॥ ८ ॥ नवमनवमरससुधाइ दिनीं पत्रिंशत्तराध्ययनीं ॥ चामिपंचचवा, रिंशतमृषिजाषितानि तथा ॥ ए॥ उच्चैस्तरोदंचितपंचचूरुमाचार माचार विचारचारुं ॥ महापरिज्ञानसुजोग विद्यमाद्यंप्रपद्ये गमनंगजैत्रं ॥ १० ॥ त्रिषष्टिसंयुक्तशनत्रयी मितप्रवादिदर्पाडि विनेदहा दिनी ॥ प्रयश्रुतस्कंधमयं शिव श्रिये कृतस्पृहः सूत्रकृतांगमप्रिये ॥ ११ ॥ स्थानांगाय दशस्थान स्थापिताखिलवस्तु ॥ नमामिका मितफल प्रदान सुरशाखिने ॥ १२ ॥ तत्तत्संख्या विशिष्टार्थ प्ररूपणपरायणं ॥ संस्तुमः समवायांगं समवायैःस्तुतं सतां ॥ १३ ॥ याषट्त्रिंशत्सहस्रान् प्रतिविधिसुजुषां विज्रती प्रश्नवाचां चत्वारिंशवतेषु प्रथयतिपरितः श्रेणिमुदेशकानां ॥ रंग गोतरंगानयगमगहना दुर्विगाहा विवाह प्रकृतिः पंचमांगं जयति जगवती साविचित्रार्थकोशः ॥ १४ ॥ कथानकानां यत्रा चतस्रः कोटयः स्थिताः ॥ सोहिप्तादिज्ञानहृद्याज्ञाताधर्मकथाः श्रिये ॥ १५ ॥ आनंदादिश्रमणोपासकदेषे तिवृत्तसुनगार्थाः ॥ विशदामुपासकदशा जावदृशं मम दिशंतुसदा ॥ १६ ॥ महरुषिमहासतीनां गौतमपद्मावतीपुरोगाणां ॥ श्रधिकृत शिवांतसुकृताः स्मरतोच्चैरंतकृदशाः कृतिनः ॥ १७ ॥ गुणैर्यद ३६ For Private Personal Use Only Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्य लघुदेवसमासप्रकरण. ध्ययनकलापकीर्तिता अनुत्तराःप्रशमिषुजालिमुख्यकाः ॥ अनुत्तर श्रियमनजन्ननुत्तरोपपातिकोपपदृशःश्रया मिताः ॥१०॥ अंगुष्ठाद्यवतरदिष्टदेवतानां विद्यानांजवनमुदात्तवैजवानां ॥ निर्णीताश्रवविधिसंवरखरूपाः प्रश्नव्याकरणदशादिशंतुशंनः ॥ १५ ॥ ज्ञातैर्मूगापुत्रसुबाहुवादिनिः शासहिपाकंसुखःखकर्मणां ॥ द्विपंक्तिसंख्याध्ययनोपशोनितं श्रीमहिपाकश्रुतमस्तुनःश्रिये ॥ २० ॥ प्रणिधाययत्प्रवृत्ता शास्त्रांतरवर्णनातिदेशततिः॥ नमतोपपातिकंतत् प्रकटयमुपपातवैचित्रीं ॥१॥ सूर्याजवैजव विनावनहृष्टतीर्थ प्रश्नादनंतरमिनानननिर्गतेन ॥ केशप्रदेशिचरितेनविराजिराजप्रश्नीयमिमुपपत्तिशतैर्वहामि ॥ २५ ॥ जीवाजीवनिरूपिछेधाप्रतिपत्तिनवककमनीयं ॥ जीवानिगमाध्ययनं ध्यायेमासुगमगमगहनं ॥ ३ ॥ षटत्रिंशतापदैर्जीवा जीवनाव विनाविनीं ॥ प्रज्ञापनांयथायामिश्यामार्यस्यामलंयशः ॥ २४ ॥ विवृताय छीपस्थिति जिनजनमहचक्रिदिग्विजयविधये ॥ जगवतिजंबु बीपप्रज्ञतेतुज्यमस्तुनमः ॥ २५ ॥ प्रणमामिचं सूर्यप्राप्ती यमखजातिकेनव्ये ॥ ग्रंथवपुषैवनवरंनातिनिदात्मनापिययोः ॥ २६ ॥ कालादिकुमाराणां महाहवारंजसंनृतैर्डरितैः ॥ दर्शितनरकातिथ्यानिरयावलिका विजेषीरन् ॥७॥ पद्मादयःकल्पवसंतनूयमुपेयिवांसःसुकृतैः शमीशाः ॥ यत्रोदिताःश्रेणिकराजवंश्या उपास्महेकल्पवसंतिकास्ताः ॥ २७ ॥ चंसूर्यबहुपुत्रिकादिनियंत्रसंयमविरोधनाफलं ॥ तुज्यमानमगुणामणाधिपैः पुष्पिताः शमनिपुष्पयंतुताः ॥ २५ ॥ श्रीही प्रवृतिदेवीना चरित्रं यत्र सूरितं ॥ ताः संतुमेप्रसादानुकूलिकाःपुष्पचूलीकाः ॥३॥ वृष्णीनांनिषधादीनां छादशानांयशः स्रजः ॥ पुष्णंतुनक्तिनिष्णातां दशांवृष्णिदशाःशुजां ॥३१॥वंदेमरणसमाधि प्रत्याख्यानेमहातुरोपपदे ॥ संस्तारचंप्रवेध्यकजक्तपरिज्ञाचतुःशरणं॥ ३ ॥ वीरस्तवदोचं स्तवगछाचारमपिचगणि विद्यां ॥ छीपाब्धिप्राप्तिं तंउलवैचारिकंचनुमः ॥३३ ॥ शिवाध्वदीपायोदतानुद्घातारोपणात्मने ॥ चित्रोत्सर्गापवादायनिशीथायनमो नमः ॥ ३४ ॥ संकल्पव्यवहारेणाधुनातेनापिमुख्यता ॥ तंजीतकल्पमाकदपकल्पंतीर्थश्रियःश्रिये ॥ ३५ ॥ अंचामिपंचननवप्रमाणाचामाम्लसाध्यंकुमतैरबाध्यं ॥ महानिशीथमहि मौषधीनांनिशिथिनीशंशिववीतिनूतं ॥ ३६ ॥ नियुक्तिनाष्यवार्तिकसंग्रहणीचूणि टिप्पनकटीकाः ॥ सर्वेषामप्येषां चेतसिनिवसंतुनःसततं ॥ ३ ॥ परिकर्मसूत्रपूर्वानुयोगपूर्वगतचूलिकानेदं ॥ ध्यायामिदृष्टिवादकालिकमुत्कालिकंश्रुतंचान्यत् ॥ ३० ॥ यस्यानवंत्यवितथा अद्याप्येकोनषोमशादेशाः सानगवतीप्रसीदतुममांगविद्यानवद्यविधिसाध्या ॥ ३ए ॥ वंदे विशेषणवती संमतिनयचक्रबालतत्वार्थान् ॥ ज्योतिः करंमसिद्धप्रानृतवसुदेवहिंडीश्च ॥ ४० ॥ कर्मप्रकृतिप्रमुखान्यपराण्य पिपूर्वसूरिरचितानि ॥ समयसुधांबुधिपृषतान् परिचिनुमः प्रकरणानिचिरं ॥४१॥ उच्चैर्योजनलदमानविदितोबि Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुदेवसमासप्रकरण श्३ प्रत्सुवर्णात्मनां नव्यानंदननशालमहिमारोचिष्णुचूलांचितः ॥ अस्तुश्रीजिनगेहलाखररुचिस्थानलसन्निर्जरः सोयंवःपरमेष्टिपंचकनमस्कारः सुमेरुः श्रिये ॥ ४२ ॥ सर्वश्रुतान्यंतरगांकृतैनस्तिरस्कृतिपंचनमस्कृतिंच ॥ तीर्थप्रवृत्ते प्रथमंनिमित्तमाचार्यमंत्रंचनमस्करोमि ॥ ४३ ॥ व्याकरणबंदोलंकृतिनाटककाव्यतर्कगणितादि ॥ सम्यग्दृष्टिपरिप्रहपूतंजयतिश्रुतझानं ॥ ४ ॥ इतिजगवतःसिद्धांतस्यप्रसिझफलप्रथा, गुणगणकाकंठेकुर्याजिनप्रनवस्ययः ॥ वितरतितरांतस्मैतोषाधरंश्रुतदेवता स्पृहयतिचसामुक्तिश्रीमत्समागमनोत्सवं ॥ ४५ ॥ ॥अथ श्रीषलादिवर्षमानांतजिनस्तवन प्रारंजः॥ थानम्रनाकिपतिरत्नकिरीटरोचिर्नीरा जितक्रमसरोजनिवासलक्ष्मीः ॥ उत्तत्पदेमपरमाणुमयप्रनोवः ॥ श्रीनाजिनंदनजिनाधिपतिःपुनातु ॥ १॥ चाणूर जिच्चरणनिर्गतसिंधुवारिधारानिधौतगरुमच्छदधौतकांतिः॥ कंदर्परूपपवनाशननाशनैकविश्रध्वजोविजयतामजितोजिनेंडः ॥२॥ वंदारुसादरपुरंदरमौलिमौलि रत्नांशुमांसलितपादनखप्रजौघः ॥ पुष्पेषुपन्नगपतिक्षयपक्षिराजः श्रीशंनवोनवतुलाग्यविनूतयेवः ॥३॥ नालीकसंश्रय निबरसोमरालीसंसेवितोचितगतिःशुचिपदशाली॥ नित्यंमनःसरसिवीतमलेमराललीलायितं कलयतादभिनंदनोवः ॥ ४ ॥ अर्तिनिवर्तयतु कार्तिकपूर्णिमेंऽसंवावकवदनःसदनंगुणानां ॥ व्याकोशचंपकविरोचिशरीररोचिर्नव्यांमतिददतुवःसुमतिर्मुनीशः ॥५॥ कल्यामवलिवनपल्लववारिवाहः प्रत्यूषपूषकिरणारुणकायकांतिः ॥ गीर्वाणमौलिमणिचुंबितपादपद्मः पद्मप्रनोदिशतुनःपदवीमपंकां ॥६॥ जव्येषुतोषमतनुं वितनोतुसेवाहेवा किनाकिमुकुटोपलघटितांधिः॥ देवेंज्वाहनकरेणुसलीलगामी चामीकरोज्वलरुचिर्नगवान्सुपार्श्वः॥७॥ देवःशरजालधरोज्जितवारिधाराधौतत्रिलोचनशिलोच्चयगौरमूर्तिः॥ त्रैलोक्यलोककुमुदाकरपूर्णचंऽश्चंतप्रजोदिशतुवःशिवदानौंमः ॥॥ खन्नाखवलिमयूखशिखानुविझावालातपबुरितपंकजकांतिजैत्री ॥ कुंदावदातगुणमौक्तिकताम्रपर्णि पादयीमममुदंसुविधेविधतां ॥ए ॥ उद्दामकामकरटीपमृगाधिराजस्त्रैलोक्यलोचनचकोरसुधामरीचिः ॥ योगीउहृत्कमलवासविलासहंसः श्रीशीतलःसफलयत्व निवांछितंवः ॥ १० ॥ श्क्ष्वाकुवंशसुरमंदिरहेमकुंनः कायप्रजापहसिताद्भुतशातकुंजः ॥ज्ञानात्मदर्शतलबिंबितविश्वविश्वः श्रेयांसतीर्थपतिरर्पयतुप्रियंवः ॥११॥ जीयाङगत्रयपतिःप्रतिपक्षपदनक्षत्रमंमल निरस्तिगनस्तिमाली॥प्रौढप्रनावजवनंजुवनैकबंधुर्वधूकबंधुररुचिःप्रजुवासुपूज्यः ॥ १५ ॥ त्रैलोक्यशेख रितशासनमोहराजमाद्ययशःशशधरग्रसनैकराहुः ॥ पोतःप्रमादजलधौकलधौतकांतिर्मचेतसोविमलतांविमलस्तनोतु ॥ १३ ॥ श्रानंदमेपुरनमस्त्रिदशेशमौलिमंदारदामविगलन्मकरंदधौतं ॥ लक्ष्मी Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ लघुक्षेत्रसमासप्रकरण. निकेतनमनंत जिनेश्वरस्य पादारविंदम जिनंदतुमानसंनः ॥ १४ ॥ श्रीजानुनूपकुल कैरवशीतजानुः संमोहसंतमससंचयचंडजानुः ॥ पुष्यत्कषाय दनुजान्वयचक्रपाणिः पाणिस्थमावतुवः शिवशर्मधर्मः ॥ १५ ॥ वाह्यांतरा रिकुलकानन धूमकेतुः संकेतधाम जिनचकिरमारमण्योः ॥ सौवर्णपद्मदलको मलकायकांतिः श्रीशां तिरंतयतुसंततिमेनसांनः ॥१६ सिद्धांत सिद्धत टिनीतु हिनाचलाय श्रीवल्लिवेल्लनकलामलयानिलाय ॥ निःशेषजंतुपरिरक्षपदी हिताय श्री कुंथवे गुणगणैः पृथवेनमोस्तु ॥ १७ ॥ देवःसुदर्शननराधिपवंशवंशमुक्ताफलसफलितप्रणतानिलाषः ॥ लोलाक्षपदिकुलसंयमनैकपाशः श्रीमान्नरः स्फुरतुमानसमंदिरेमे ॥ १८ ॥ चिंतामणि त्रिदशपादपकामधेनुमाहात्म्यजैत्रचरणांबुरुदप्रणामः ॥ मारप्रवीरजयमल्लमतलिकास्तुमलिर्मदीयह दिपल्लवितप्रमोदः ॥ १७ ॥ निर्वाणराज्यकमलाह दितारहारः संसारवारिनिधितारणकर्णधारः ॥ अंजोदसोदरवपुः खपदारविंदे श्रीसुब्रतो दिशतुषट्चरणमे ॥ २० ॥ नम्रद्युसन्मणिकिरीटघटप्रसा रिज्योत्स्ना जलस्त्र पितपादपयोरुश्रीः || कीर्तिप्रतानधवलीकृतभूर्भुवः खर्नद्राणिसांद्रयतुवोन मितीर्थनाथः ॥२१ सेवापरायणनरायणचारुचूडारल प्रजापटलपाटलितांघ्रिपीठः ॥ राजीमती हृदयपंकजचंचरीकः श्रीने मिरस्तुजवतांनवतां तिशांत्यै ॥ २२ ॥ फुल्लत्फणींद्र फणरा जिमणी मरीचिवी चिप्रपंचितशचीपतिकार्मुकश्रीः ॥ दुर्गापसर्गजलशोष विधौतपर्तुः खामी पिपर्तुजवतांरुचितानिपार्श्वः ॥ २३ ॥ नवेंद्रशेखरपराग पिशं गितां त्रिरुत्तुंग संगमकगर्व गिरींद्रवज्रः ॥ सिद्धार्थ पार्थिवकुलार्णवकौस्तुजोवः श्रेय सिमांसलयतात् प्रभुवर्द्धमानः ॥ २४ ॥ प्रज्ञावलंवित जिनप्रजसू विर्यवाक्पारवर्ति विजवा विजवाऽधिकाराः ॥ यछंतुयोगिवृषनाइषजादयोवः श्रीवर्द्धमानचरमाः परमार्थ सिद्धिं ॥ २५ ॥ तत्त्वानित्तत्त्वानिनृतेषु सिद्धंनावारिनावारिविशोषधर्मं ॥ दुर्बोध दुर्बोधमतं द्रतमारंज मारंजजतादिदेवं ॥ १ ॥ नेंद्रा जिनेंद्राजित तेस्तवेलंका हं तु कादंतुरथंनयस्य ॥ मामत्रमामत्रतथा पिकुंददं तावदंतावल चिन्हदीनं ॥ २ ॥ बाहांकबादांक लिपेकमग्नकर्षेप्रकर्षेप्रवणांकृपायाः ॥ तांशंजतांशंनववर्द्धयंती मेकांतमेकांतववाचमीडे ॥ ३ वंदे शिवंदे शितधर्मज्ञ द्विवस्वर्णवस्वर्णरुचेऽधिगंतुं ॥ विश्वस्य विश्वस्यजयेतवोच्चैरक्षामरक्षाम जिनंदनाज्ञां ॥ ४ ॥ माराधिमाराधितवासवैर्मे वीराजिवीराजितमोह जित्ते ॥ धामासुधामासुमतेम यित्वमीतिप्रमीतिप्रगुणोजयानि ॥५॥ संसक्तसंसक्तहृदः शिवेंदिरावध्वांतवध्वांतनिरासलालसां ॥ रक्तांकरक्तांकरण प्रनांप्रनोपद्माजपद्माजरदायिनींस्तुमः ॥ ६॥ पृथ्वीज पृथ्वीजन भृंग चूतांकस्वस्तिकस्वस्तिकृतः सुपार्श्व ॥ कामांतकामांतनुयुर्विमुक्तयजी कास्तजी कास्तववाग्विलासाः ॥७॥ शीतांशुशीतांशुनदयशस्तुति सोमांक सोमांकवयेत्तवेशयः ॥ संगत्यसंगत्यजनाचमश्रिया सौभाग्य सौभाग्य निधिर्व्रजे - छिवं ॥८॥ संकल्पसंकल्पनकृन्मनोद्यराजीवराजीवलवत्तुषारं ॥ रुच्यासुरुच्या सुविधेनृना Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुदेवसमासप्रकरण. किरामासुरामासुतनासजत्ते॥एा संपन्नसंपन्नरनाथपूजितंसत्कीर्तिसत्कीर्तितचारुचेष्टितं॥ यंनिर्नयंनिर्जरमर्चयन्जवेन्नारंसनारंसपुनातुशीतलः ॥ १०॥ नव्यानजव्यानणुमोह कूपांतःपाततःपातरिगंगकांके॥सश्रेयसःश्रेयसिकस्यनास्तुरागःस्मरागःस्मय जिद्यधीशे ॥१॥ बंधूकबंधूकरणप्रशक्तिगात्रालगात्राजववासुपूज्य ॥ सद्योगसद्योगरयप्रसादं जायेयजायेययथाननूयः ॥ १५ ॥ माधुर्यमाधुर्यगिरागुण रामेणरामेण किरणलक्ष्मणा ॥ तेतेगतेतेगरिमाणमन्तंनीताविनीता विमलेश्वरत्वया ॥ १३॥ नाजालनाजाललितामलांगुलीलेखेनलेखेननुतेननूषितं ॥ मानंतमानंतपदांबुजेनतेकंदर्पकंदर्पमुपैतुकिं मम॥१४॥ पद्मास्य पद्मास्यदतस्तमेतिविश्वेन विश्वेनरुजतिरोगाः॥ यःसन्नयःसन्नकुवासनाकोनाधर्मनाधर्मरतस्तुतेत्वां ॥ १५ ॥ शांतेनिशांतेनिवसन्ननीता वन्यायवन्यायतिमद्दवाग्ने ॥ हेमालहे. मानवनप्रसीदनीताननीतानमपाप्मनोनः॥१६॥ सत्यागसत्यागमचं पद्मदासत्वदासत्वनिकेतकूथ ॥ पायादपायादहितार्थपंक्ता वंतीनवंतीनवदाननश्रीः ॥१७॥ मंदेतमंदेतरयानिरस्तगांगेयगांगेयगुणातवार ॥ योगायोगाधरितांतरारेरा निर्वरानिर्वरिवस्यतेऽसौ ॥ २० ॥ नासावन्नासावनितेंडनीला सत्कायसत्कायशसस्तुतेऽग्रे ॥ नव्यापिनव्यापिहियानजातीकामझिकामद्विजिनाधिनाथ ॥ १ए ॥ निर्माय निर्मायगुणतिीर्थयोगेनयोगेनहढेनसिकः॥ कल्याणकल्याणसुमेरुरस्तुदेवोमुदेवोमुनिसुव्रतःसः॥२०॥ विद्यातिविद्यातिशयैककोशंलोकेशलोकेशरणंनमत्वां॥ निष्कोपनिष्कोपमदेहदीधिते वाजवप्राजजगअयस्य ॥१॥ येनानयेनानरणीकृताझा चारित्रचारित्रतवस्वशीर्षे ॥ नेमेसनेमेसकलैः समुद्यदामोददामोदरवंद्यशकैः ॥ १२॥ विनंतु विनंतुलितामरेखाः पार्श्वस्यपार्श्वस्यसुरवसेव्याः ॥ जातानजातानवपंकजानांपादास्त्रपादास्त्रसतांशरण्याः॥ २३ ॥ निष्काम निष्कामलकायवीरसिझार्थ सिद्धार्थकुलप्रदीप ॥ सर्वझसर्वइनमस्कृतां पुण्यानिपुण्या निसतांचिनुष्व ॥ २४ ॥ धीरा निधीरानिखिलागिरदा विज्ञान विज्ञानतकल्पवृक्षाः॥ देवाधिदेवाधिनुतप्रणीतकल्याणकल्याणकपंचकानः ॥ २५॥ वारिंनवारिंजयहस्तिनोस्ताचारोपचारोपरिशीलयस्त्वां ॥ नालीकनालीक विधौतजैन सिद्धांतसिझांतकनिग्रहः स्यात् ॥२६॥ शुत्रांशुकत्रांशुकनूत्करस्थवीणाप्रवीणाप्रणतेष्टदाने ॥ दाहंसदाहंसरथा तिवात्सपद्मास्य पद्मास्यतुजारतीवः ॥ २७ ॥ एवंश्रीषनादयो जिनवराः श्रीवर्कमानांतिमाः सांजानंदमखमखमयमकैजूताश्चतुर्विशतिः ॥प्रझोलासलसजिनप्रनकविव्यावर्ण्यमानोदयाया सुमयिसुप्रसन्नहृदयास्त्रैलोक्यलक्ष्मीश्वराः॥ २७ ॥ इतियमकमयचतुर्विंशतिजिनस्तुतिः॥ %3 Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्६ कर्मविपाकनामे कर्मग्रंथ. १ ॥ श्रीवर्डमान जिनाय नमः॥ ॥ अथ श्री कर्मविपाक नामक प्रथम कर्मग्रंथ प्रारंजः ॥ ॥ टीकाकर्ता श्रीदेवेंजसूरि श्राद्यमा मंगल करे:-उपजातिबंद.॥ दिनेशवध्यानवरप्रतापै, रनंतकालप्रचितं समंतात् ॥ योऽशोषयत्कर्मविपाकपंकं, देवो मुदे वोऽस्तु स वईमानः॥१॥ अर्थ- अनंत कालनो संचय करेलो जे कर्मविपाकरूप पंक एटले कादव तेनुं उप्रध्यान रूप तापवडे शोषण करवाने जे सूर्यना जेवा बे, एवा श्रीवर्षमान देव मने हर्ष करनारा था. ॥१॥ ॥आर्यावृत्तम् ॥ ज्ञानादिगुणगुरूणां, धर्मगुरूणां प्रणम्य पदकमलं ॥ कर्मविपाकेविवृत्तिं, स्मृतिबीजविक्ष्ये विदधे ॥२॥ अर्थ- ज्ञान, दर्शन अने चारित्ररूप जे सर्वोत्कृष्ट गुण तेउए करीने महत्ताने पामेला अथवा तेउनी प्राप्ति करावनारा एवा जे धर्मगुरु, तेमना पदकमलने प्रणाम करीने स्मरणरूप अंकुरनी वृद्धि करवाने अर्थे था कर्मविपाक नामना प्रथम कर्मग्रंथनी वृत्ति हूं करुंवं. ॥२॥ हवे कर्मग्रंथ ते शुं कहीए? तो के-जीवे मिथ्यात्वादिक हेतुए करीने जे आत्मासाथे पुल बांधे तेने कर्म कहीएं,यथा क्रियते इति कर्म इति व्युत्पत्या.ते कर्म- मूलोत्तर प्रकृति नेदे करी, तथा प्रकृति, स्थिति, रस अने प्रदेशादि बंधनेदे करी, तथा बंधोदयोदीरणासत्तादि नेदे करीने ग्रंथy रचq प्रतिपादन जे जेहनेविषे; ते कर्मग्रंथ कहीएं. त्यां प्रथम कर्मविपाकनामा कर्मग्रंथ कहेडे. ए बधी वात प्रसंगथी कही बे. ॥ हवे बालावबोध कर्ता मंगलाचरण कहे जे. ॥ श्रेयोमार्गस्य वक्तारं ॥ बेतारंकर्मबत्रिणां ॥ चेत्तारं विश्वतत्वानां ॥ वंदे वीरं जगत्प्रनुं ॥१॥ गुणचं गुरुं नत्वा ॥ मतिरेण धीमता ॥ क्रियते कर्मग्रंथस्य ॥ व्याख्या बालाऽवबोधिनी॥ २ ॥ ॥ हवे ग्रंथकर्ता श्रीदेवेंषसूरि पहेली गाथाए करी अजिष्टदेवतानी _ स्तुत्यादिकनुं प्रतिपादन करे डे. मूल गाथा ॥ सिरिवीरजिणं वंदिय ॥ कम्मविवागं समास वुडं ॥ कीर जिएण देनदिं॥ जेणंतो जन्नए कम्मं ॥ १ ॥ Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मविपाकनामे कर्मग्रंथ. १ शन् - अर्थ- सकल त्रिजुवन जनना मनने चमत्कार उपजावे, तथा परमाईत्य महा महीमाने विस्तारे एवी जे अष्ट महा प्रातिहार्य लक्षण सिरि के श्री एटले शोला. यथा ॥ अशोकवृदः सुरपुष्पवृष्टि, दिव्योध्वनिश्चा मरमासनंच; लामंडलं इंजिरातपत्रं, सत्प्रातिहार्याणि जिनेश्वराणां ॥ ए अष्ट महाप्रातिहार्य कहिएं, अथवा चोत्रीश अतिशय लक्षण शोजा तेणे करीबिराजमान एवा जे वीरजिणं के श्रीवर्धमान जिन एटले राग द्वेष तथा मोह प्रमुख वैरीउनो पराजय कस्याथी जिन कहेवाय . अने ते वैरीउरूप वीर एटले सुजट तेउने जीतवाथी वीर जिन ए नाम सार्थकज बे. एवा श्रीवर्डमान स्वामीने मने करी, प्रणिधान एटले विशुद्ध मनसहित जे वचन योग ते वडे स्तुति तथा काया ए करी प्रणामरूप वंदिय के वंदना करीने, अहीं वंदना शब्दे स्तवना अने प्रमाण ए बेहु श्रर्थ कहीएं बैएं. वंदिस्तुत्य निवादनयोरिति वचनात् एणे करी मंगलाचरणने अर्थे अनिष्ट देवनी स्तुति करीने झानावरणादि कर्मोना अनुजवने कम्म विवागं के कर्मविपाक कहिये. तेने समास के संदेपे करी अर्थात् वर्तमान पुषमकालना लोकोनी बुद्धि तथा श्रायु बल प्रमुख श्रति अल्प होवाथी घणा विस्तारवंत ग्रंथोमांप्रवृत्त थवामां विघ्न पडवाना जयथी तेवी कृति तेऊनी ऊपर उपकाररूप कदाच न थाय, माटे था टुंकामा वुद्धं के० कहीश. एथी प्रयोजन सूचव्यु, जपायोपेय एटले कारण कार्य लक्षण, साध्य साधन लक्षण, तथा गुरुपर्वक्रमलक्षण संबंध, अर्थात् सिम थाय ; सम्यकदृष्टीजीव अधिकारी बे; श्रने अनिधेय जे कर्मविपाक ते एमां विषय बे. हवे आगला बे पदे करी कर्म शब्दनो अर्थ करे बे. जे कराय ते कर्म कहीए. तेना पुजल अंजन चूर्णथी नरेला दाबलानी पेठे सर्व लोकाकाशमा निरंतर व्यापी रहेला बे; तेने दीर अने नीरनी पेरे तथा अग्नि अने लोहनी पेठे कर्मवर्गणा अव्य श्रने श्रात्मानो तादात्म्य संबंध जे कारणमाटे थई रहेलो बे; ते कारणमाटे ते कर्म कहेवाय . ए कर्म कोण करे ? तो के-जिएण के जीवे करी कीर के० कराय बे. ते जीव कोने कहीएं ? पांच इंजिय, त्रण योग ते त्रण बल, श्वासोश्वास तथा थायु ए दश प्राणसुधी जे यथायोग्य धारण करी शके तेने जीव कहिएं, ते जीव थावा लक्षणवालो -मिथ्यात्वादिके करी मलीनस्वरूप थको सातादि वेदनीयादि कर्मोनो कर्त्ता बे, तथा तेउना फल जे साता असाता तेनो जोक्ता, तथा एवा एवा कर्मविपाकनो उदय तेने अनुसारे करी नरकादिक गतिनेविषे संसर्ता, अने सम्यक्दर्शन ज्ञान तथा चारित्र लक्षण जे रत्नत्रय तेना श्रन्यासनी बाहुल्यताना वशेकरी अशेष कर्म मलपटलनो परिनिर्वाता, ए चारे लदणे बिराजमान ते जीव, सत्व, प्राणी तथा श्रात्मा इत्यादि पर्यायवडे उलखाय बे; उक्तंच ॥ यः क Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शनन कर्मविपाकनामे कर्मग्रंथ.१ किर्मजेदानां जोक्ता कर्मफलस्यच; संसर्ता परिनिर्वाता सह्यात्मा नान्यलक्षणः ॥ कया कारणनी योग्यता पामीने जीव कर्मने करे ले ? तो के-मिथ्यात्व, अविरति, कषाय तथा योग ए चार लक्षणवाला सामान्यरूप हेजहिं के हेतुए करी जीव कमने करे बे. यतः “ पमिणी यत्तण निन्दव उवघायपउस्स अंतराएण ॥ श्रच्चासा ययाए थावरणगंजिऊजयश्" इत्यादि विशेष कारणनी योग्यता पामीने ते विशेष करी श्री ग्रंथनेविषेज पागल कहेवाशे. आटवू कडं तेनो तात्पर्यार्थ श्रा :- जेण के० जे कारणमाटे हेतुएं करी जीववडे कराय ने तो के० ते कारणमाटे तेने कमंजणए के कर्म कहेवाय जे. एटले जीव हेतु पामीने जेने करे तेने कर्म कहीएं; क्रियते तत् कर्म इत्यर्थात् एवं जे पुजलमय मूर्तिककर्म ते केवा प्रमाणे करी सिक डे, ते कहे . संसारनेविषे समस्त जीव वर्ते बे, तेने आत्मत्वपणुं समान बे. पण तेमाहे कोश्क देवताबे,कोश्क नारकीबे, कोश्क तिर्यंच , कोश्क मनुष्य , एम नरनारक तिर्यंच अने मनुष्यरूप विचित्रता बे. एम वली मनुष्यत्वपणुं पण सर्व मनुष्यने विषे समान बे. तथापि तेमाहे कोश्क राजा ने, कोश्क रंक बे, कोश्क पंमित डे,कोश्क मूर्ख बे, कोश्क महर्डिक बे, कोश्क दरिखी बे, कोश्क स्वरूपवान , कोश्क कुरूपवान बे, इत्यादिक जे विचित्रपणुं बे, ते विचित्रपणुं निर्हेतुक नयी पण हेतुसहीतज . जो निर्हेतुक मानीएं तो नित्यं सत्व किंवा असत्वनो प्रसंग थाय.नित्यंसत्व मसत्वंवा ॥ देतोरन्यानपेक्षणादितिवचनात् ॥ ते माटे ए विचित्रता सहेतुक मानवी. ते हेतुने अमे कर्म कहीएं जैएं, एतमुक्तंश्रीदिनकृतटीकायां ॥ मातृडंककयार्मनीषिजडंयोः सपनीरूपयोः श्रीमदुर्गतयोर्बलाबलवतोर्नीरोगरोगार्त्तयोः सौजाग्याऽसुलगत्वसंगमजुषोस्तुत्येपिनृत्वंतरं यत्तत्कर्म निबंधनं तदपिनोजीवं विनायुक्तिमत् ॥ एनो श्रर्थ कहे जे. - ए वात श्री दिनकृत टीकानेविषे जीवस्थापना अधिकारे श्रावी रीते कहेली ले के;-महर्द्धिवंत श्रने रंक, बुद्धिवंत अने मूर्ख, सुरूप अने कुरूप, सातिवान अने पुर्गतिवान, बलवान अने निर्बल, निरोग अने रोगात, तेमज सौजाग्य तथा उर्जाग्य, एवा उंछ जगतमां दीगमां श्रावे बे, तेमां अंतर जे जे ते कर्मनुं निबंध बे; तथापि ते जीवविना संजवे नही. ए विषे बीजे ठेकाणे पण कयु डे के " श्रात्मत्वेना विशिष्टस्य, वैचित्र्यं तस्य यशात्, नरादिरूपं तच्चित्र, मदृष्टं कर्मसंज्ञितं.” वली पौराणिक पण कर्मसिद्धिनुं प्रतिपादन करे बे, ते श्रा प्रकारे के “यथायथा पूर्वकृतस्य कर्मणः, फलं निधानस्थमिवावतिष्ठति ॥ तथा तथा तत्प्रतिपादनोद्यता, प्रदीपहस्तेव मतिः प्रवर्त्तते ॥१॥ यद्यत्पुराकृतंकर्म, नस्मरंतीह मानवाः, तदिदंपांडवश्रेष्ठ, दैवमित्यनिधीयते॥२॥मुदितान्यपिमित्राणि, सुक्रुझाश्चैवशत्रवः; नही मेतत्करिष्यंति,यन्नपूर्वकृतं Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मविपाकनामे कर्मग्रंथ.१ नए त्वया"॥३॥ बौछ पण आम कहे डे के, "श्तएकनवतौकल्पे शत्यामे पुरुषो इतः, तेन कर्म विपाकेन पादेविकोस्मिनिदवः” एवी रीते कर्मना अस्तित्वनो यद्यपि सर्व अंगी. कार करे , तथापि ते अमूर्तिमंत माने बे, पण तेम नथी. कर्म पुगल वरूपी बे; तेमाटे मूर्तिवंत बे, अमूर्त नथी, तेम बतां जो कर्मने श्राकाशादिवत् श्रमूर्ति मानशं; तो जेम श्रमूर्त आकाशथी कांश श्रात्माने अनुग्रह उपघात नथी, तेम कर्मना योगे पण श्रात्माने अनुग्रह तथा उपघातनो संजव थशे नही. यतः “अन्नेउप्रमुत्तंचिय, कम्ममंतिवासणारूवं; तंतुनजद्यश्तत्तो, उवाघयाणुग्गहानावा. नागासंउवघायं, श्रणुग्गरं वाविकुणश्सत्ताणं.” हवे ते कर्म प्रवाहे करी अनादि . यतः “ अणाश्यं तं पवाहेण" इति वचनात्, जो प्रवाहनी अपेक्षाथी पण कर्मने सादि मानियें, तो जीवोने पूर्वे कर्मर हितपणानो संजव थशे. अने पालथी कर्म कस्याथी जीवने कमनो संयोग उत्पन्न थाय बे एम मानवं जोश. एम अंगीकार कस्याथी मुक्त जीवोने पण कर्मनो संयोग संचव थशे, केमके ते तो कर्मरहित बे. तेथी मुक्त जीवोने अमुक्तता थशे. एम मानतुं तो इष्ट नथी. माटे जीवने कर्मनी साथे अनादि कालनो संयोग डे एम मानतुं योग्य बे, मात्र कर्मज अनादि जे एम नथी. आशंका-जीवनी साथे कर्मनो अनादि संयोग बतां तेनो वियोग केम संनवे ? उत्तर- अनादि संयोग बतां पण वियोग दीगमां थावे जे. जे कांचन श्रने उपल एटले पथरानो अनादि संयोग , तोपण तथाविध सामग्रीना सनावथी एटले धमनादिकनी सहायतावडे कीटीनो वियोग दीगमां आवे बे, तेमज जीवने पण सम्यक् ज्ञान, सम्यकदर्शन तथा चारित्रना ध्यानरूप अग्निए करी अनादि कर्ममलनीसाथे वियोगनी सिद्धि थाय बे, ए विषे नाष्यसुधांनो निधिर्नगवान पण श्राम कहे डे के, “जहश्य कंचणोवल संजोगोणा संतश् गऊवि; वुबिजाश्सोवायं, तहजोगोजीवकम्माणं ॥१॥ इति प्रथम गाथार्थ ॥ ॥ हवे बीजी गाथाए कर्मना केटला नेद ? ते कहे जे. ॥ पय विश रस पएसा ॥ तं चनदा मोअगस्स दिहता ॥ मूल पग उत्तर ॥ पगई अडवन्न सयनेयं ॥ २ ॥ अर्थ- तंचउहा के ते कर्मना चार प्रकार थाय जे; ते आ प्रमाणे- पयहिश रस पएसा के प्रकृति, स्थिति, रस तथा प्रदेश, जेम प्रासाद प्रमुखना श्राधारजूत स्तंज होय जे; तेम कर्मना ए चार स्तंन बे. तेथी प्रकृतिबंध, स्थितिबंध, रसबंध तथा प्रदेशबंध कह्या डे. तेमां स्थिति, तथा रस जे अनुनाग, तथा प्रदेश ए त्रण Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० कर्म विपाकनामे कर्मग्रंथ. १ बंधनो जे समुदाय तेने प्रकृतिबंध कहियें; अध्यवसाय विशेषें करी ग्रहण करेला जे कर्मना दलिक, तेनी स्थिति एटले जे कालनो नियम, तेने स्थितिबंध कहियें; कर्मना पुरुलोना शुजाऽशुन अथवा घाती अघाती जे रस तेने अनुजागबंध अथवा रसबंध कदीयें; अने स्थिति तथा रसनी अपेक्षा विना कर्मपुङ्गलोना दलिकोनुं जे ग्रहण कर, तेने प्रदेशबंध कहीयें. उक्तंच "विश्बंध दलस्स विई, पएसबंधो पएस गहणं जं; ताणरसो अणुजागो, तस्समुदार्ज पगबंधो. ” बीजे ठेकाणे पण कयुं बेः- “ प्रकृतिः समुदायः स्यात्, स्थितिः कालावधारणं; अनुजागो रसः प्रोक्तः प्रदेशो दलसंचयः " ए उक्त चार प्रकार ते मोगस्स दिहंता के० मोदकना दृष्टांतेकरी समजी लेवा, ते श्र प्रमाणेजेम वातरोगने हरण करनारा द्रव्यथी बनावेलो जे मोदक होय बे, तेनी वातरोगनो नाश करवानी प्रकृति अथवा स्वभाव होय बे; पित्तरोगापहारक द्रव्यथी बनेला मोGrah पित्तनो उपशम थाय बे; यने कफरोगनाशक द्रव्यथी उत्पन्न थरला मोदकथी कफनो ध्वंस थाय बे; एवो जे स्वभाव तेने प्रकृति कहियें; ते मोदक कोइ एक दिवस, कोइ बे दिवस, एम यावत् कोइ एक माससुधी बगडी न जतां जेमनो तेमज रही शके बे; पढी विनाश पामे बे, ए तेनो स्थितिकाल कहियें; ते मोदकने विषे स्निग्ध तथा मधुरादिक रस एक गुणो, द्विगुणों तथा त्रिगुणो इत्यादिक जे होय बे, तेने रसबंध कहीयें; अने ते मोदकमांना कोइमां एक प्रसृति एटले एक पली, कोईमां ने पली तथा कोइमां त्रण पली एम यावत् कणिकनुं प्रमाण होय तेने प्रदेशबंध कहीयें; एवीज रीते कर्मने विषे पण कोइ कर्मनी प्रकृति ज्ञानने वा दन करनारी होय, कोइ कर्मनो स्वभाव दर्शनने यावरण करवाना होय, कोइ क प्रकृति नंदने देनारी होय ने कोइ कर्मनो खजाव सम्यक् दर्शनादिकनो विघात करवानो होय बे, तेने कर्मप्रकृति कहीयें. तेज कर्म कोइ त्रीश कोटाकोटी सागरोपमसुधी, अने कोइ सित्तेर कोटाकोटी सागरोपमसुधी इत्यादि टकी शके बे, ने की स्थिति कहीयें; ते कर्मनेविषे कोईमां एक वाणीयुं, कोईमां बे वाणीयुं, ने कोकमां त्र ठाणीयुं रस होय बे, ते अनुजागबंध कहियें, अने तेज कर्मने विषे कोईमां प्रदेश अल्प होय, कोईमां बहु, कोईमां बहुतर तथा कोईमां बहुतमरूप इत्यादि प्रदेशोनो संचय होय बे, ते प्रदेशबंध कहेवाय बे. मूलपगइ अ के० ए कर्मनी मूल प्रकृति सामान्यरूप श्राव बे, घने उत्तर पगई अडवन्नसय ज्ञेयं के० उत्तर प्रकृति विशेषरूप एकशो ने अट्ठावन बे. एज एकसो ने श्रावन कर्मप्रकृति कदेवाय बे. Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मविपाकनामे कर्मग्रंथ, र शएर ॥ हवे मूल प्रकृति आउनां नाम तथा ते एकेकना जेटला उत्तर नेद डे ते कहे . ॥ श्द नाण दंसणावर ॥ णवेअ मोदाज नाम गोआणी ॥ वि ग्धं च पण नव अ॥वीस चन तिसय ७ पण विहं ॥२॥ अर्थ- इह के ए प्रवचनने विषे कर्म एटला प्रकारनुं बे. इहां कर्मपद गाथामांहे नथी, माटे उपचारथी लहीए. ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र तथा विग्धंच के अंतराय, ए आठ मूलप्रकृति . तेमां प्रथम ज्ञानावरणीय कर्मनुं विवेचन श्रावी रीते - जेणे करी वस्तु जाण्यामां आवे अथवा जेणे करी वस्तुनी इयत्ता एटले परिमाण थाय, तेने ज्ञान कहीएं; अथवा इप्तिने ज्ञान कहिएं; अथवा सामान्य विशेषात्मक वस्तुने विषे विशेष ग्रहणात्मक जे बोध तेने ज्ञान कहियें; अने जेणे करीने देखाय तेने दर्शन कहीयें; अथवा दृष्टीने दर्शन कहीये अथवा सामान्य विशेषात्मकवस्तुनेविषे सामान्य ग्रहणात्मक जे बोध तेने दर्शन कहीयें तथा जेणे करी आवरीएं, छादिएं तेने आवरण कहीएं; अथवा आवरे, श्राबादे तेने श्रावरण कहिये. आवरणतुं रूप आq बेः-मिथ्यात्वादिकना मेलापेकरी जीवने व्यापारे आकर्षण करेली कर्मवर्गणा मांदेलो विशिष्ट पुजल समूह तेने आवरण कहीएं. तेमांहे जे झान- आबादन करे , ते ज्ञानावरणीय कर्म कहेवाय बे. श्रने दर्शननुं श्राबादन करे बे, ते दर्शनावरणीय कर्म कहेवाय ने, तथा वेद्यते एटले जेनो सुख तथा कुःखरूपपणे अनुजव कराय , तेने वेदनीय कर्म कहीयें, यद्यपि सर्व कर्मोनो अनुभव करायज बे, तेथी सर्व कर्म वेदनीय होवां जोश्य, तथापि पंकजादि शब्दनीपेठे वेद्य शब्द रूढिविषयक जे; माटे साता तथा असाता कर्मज वेद्य होवाथी एनेज वेदनीय कहीये. पण शेष कर्मने न कहीयें; तथा जाणनारा प्राणीप्रत्ये मोह उपजावे सद्सद्विवेकथी जे विकल करी नाखे तेने मोह कहीयें; अने एज मोहनीय कर्म कहेवाय बे. तथा जेथी गत्यंतरने विषे जq थाय ने तेने श्रायु कहे जे; अथवा पोते करेला कर्मना वशे प्राप्त थएली जे नरकादिक पुर्गति तेमांथी निकलवानी श्छा करनारो प्राणी प्रतिबंधकताने पामे. अर्थात् जे त्यांची निकलवा न दिये ते थायु कहेवाय . अथवा जवांतरने विषे जीवोने जे निश्चये उदय आवे तेने आयु कहीयें. यद्यपि सर्व कर्म उदय आवे , तथापि आयुष्यनी कांइएक विशेषता होय . केमके, बीजां बांधेलां सर्व कर्म कोई तेज जवमा उदयें आवे , कोश्क वली प्रदेशे जदये करी जुक्त कीधा ते जन्मांतरनेविषे विपाकोदये करी उदय श्रावतां नथी, अने श्रायु कर्मने विषे एम नथी. जे नवनुं श्रायु बांध्यु Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शएश कर्मविपाकनामे कर्मग्रंथ. १ होय तेज जवमा जोगवाय बे. एटले मनुष्य नव वेदता थका जो देवतानुं श्रायुष्य बांध्यु होय तो कांश मनुष्यनवमां वेदाय नही, किंतु अवश्य जन्मांतरेज वेदाय. श्रायुष्यना उदयनी विवदा विशिष्ट थकी कही . पण प्रदेश थकी नयी कही. ते विशिष्टपणुं तो ते श्रायुष्यना सनाव वर्त्तन थकी होय , अथवा जेनो उदय थयाथी तनवयोग्य यावत् शेष कर्म उपनोगपणे श्रावी प्राप्त थाय तेने श्रायु कही. तथा जे जीवप्रत्ये गति जाति प्रमुख पर्यायना अनुजवने करे तेने नाम कर्म कहीये. तथा जेणे करी थात्माने उंचनीच शब्दे करी बोलवाय ने तेने गोत्रकर्म कहीयें. तथा जेणे करी दानादिक लब्धिठनो नाश थाय ने, अथवा जे उक्त लब्धिऊनो विशेषे करी नाश करे ने तेने अंतराय कर्म कहीये. तेमां ज्ञानावरणीय, पण के पांच प्रकारचें बे, दर्शनावरणीय नव के नव प्रकारचें बे, वेदनीय छ के बे प्रकारचं बे, मोहनीय अमवीस के अहावीस प्रकारचें , श्रायु चट के चार प्रकारनुं बे, नामकर्म तिसय के एकसो ने त्रण प्रकारनुं ; गोत्र छ के बे प्रकारनुं बे, श्रने अंतराय कर्म पण विहं के पांच प्रकारचें . एवी रीते मूल पाठ प्रकृतिनी उत्तर एकसो ने श्रावन प्रकृति थाय बे. आशंका-एवा अनुक्रमथी ज्ञानावरणादि कर्मोनो उपन्यास कस्यानुं का प्रयोजन डे के खानाविक एवो अनुक्रम श्रावी गयो ? उत्तर- अनुक्रम करवानुं प्रयोजन , ते था प्रमाणेः- अहीं ज्ञान तथा दर्शन ए जीवनुं स्वतत्व नूत डे; केम के, ए विना जीवत्व कहेवाय नही. जीव चेतना लक्षणवंत बे. ते चेतना लक्षण ज्ञान तथा दर्शनना अनावे केम संनवे, तथा ज्ञान अने दर्शनमाहे पण ज्ञान प्रधान बे. जे झाने करी सकल शास्त्रार्थ विचारनी संतति प्रवर्त बे. ते माटे अथवा सर्व लब्धि साकारोपयोगे उपयुक्त जीवने उपजे . पण निराकारोपयोगे एटले दर्शनोपयोगे उपयुक्त जीवने न उपजे. यतः "सबा लडीसागारोव गोवउत्तस्स नो अणागारोव उगोवउत्तस्स” इति वचनप्रामाण्यात् माटे ज्ञान प्रधान . अथवा जे समयें सकल कर्म विनिर्मुक्त जीव थाय बे, ते समयें जीव ज्ञानोपयोगोपयुक्त होय बे, श्रने दर्शनोपयोग तो द्वितीय समयमां थाय , तेमाटे झान प्रधान बे, तेनुं जे श्राबादन करनारं ते ज्ञानावरणीय कर्म बे, तेने सर्व कर्म बे, तेने सर्व कर्ममा प्रथम गण्यं बे; अने ज्ञानोपयोगथी पतित जीवने दर्शनोपयोगने विषे श्रवस्थान बे, तेमाटे ते ज्ञानानंतर द्वितीयस्थाने दर्शनावरण कर्म गण्युं बे. ___ए ज्ञानावरण तथा दर्शनावरण कर्म पोताना विपाकने उदय करता थका यथायोग्य अवश्य करी वेदनीय कर्मविपाकना उदयतुं निमित्तजूत थाय डे, ते देखाडे Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मविपाकनामे कर्मग्रंथ. १ । शए३ बे-झानावरणीय कर्मप्रत्ये उपचयोत्कर्षथी, प्राप्त विपाकथी श्रनुजवतो थको सूक्ष्म तथा सूक्ष्मतर वस्तुनो विचार करवामां पोताने असमर्थ जाणतो थको जीव खेदने पामे बे. तेमज वली सकल लोको ज्ञानावरण कर्मना क्षयोपशमने लीधे पाटव एटले चतुर थईने पोतानी बुद्धिथी सूक्ष्म तथा सूक्ष्मतर वस्तुविचार करवाने समर्थ होवाथी सुखने वेदे . एवी रीते वेदनीय कर्मर्नु निमित्त कारण ज्ञानावरणीय कर्म . ते प्रमाणेज श्रतिनिबिग दर्शनावरणीय कर्मना उदयथी प्राणी जात्यंधादि थयो थको, वचनने अगोचर एवा फुःखसंदोह एटले फुःखना समुदायने अनुजवे बे. तेमज दर्शनावरणीय कर्मना दायोपशमथी स्पष्ट चकुरादि युक्त थईने यथाविध वस्तुसमूह एटले निकुरंबने सम्यक् प्रकारे अवलोकन कस्याथी प्राणी श्रमंद श्रानंदसंदोह प्रते अनुनवे डे; तेमाटे वेदनीय कर्मनुं निमित्त कारण दर्शनावरणीय कर्म पण , ज्ञान दर्शनावरण कर्मनुं वेदनीय कर्म वेद्य बे. तेमाटे वेदनीय कर्म त्रीजुं गप्युं . वेदनीय कर्मने विषे पण इष्ट अने अनीष्ट विषयना संबंधथी सुख तथा दुःखनो जे अनुनव थाय ते वेदनीयनुं लक्षण बे; अने विषयने विषे इष्ट अने अनिष्टतापणुं ते राग अने वेषजनित बे अने ते राग केष तो मोहना हेतु . तेमाटे वेदनीय कमेथी अनंतर मोहनीय कर्म चो) कडं बे. मोहमूढ प्राणी बहु थारंनरूप परिग्रहथी कर्मादानमां श्रासक्त थईने नरकादिकनुं आयुष्य बांधे बे, माटे मोहनीय कर्मानंतर पंचमस्थाने आयु कर्म गएयु बे. नरकादि श्रायुष्यनो उदय श्राव्याथी अवश्यपणे नरक गत्यादिक नाम कर्मनो उदय थाय बे. माटे श्रायुष्यानंतर नामकर्म बहुं गएयुं बे. नाम कर्मनो उदय थयाथी अवश्येकरी उंच अथवा नीच गोत्रनो उदय थाय बे, माटे नामकर्मानंतर गोत्रकर्म सातमुं गएयुं . उंच गोत्रोत्पन्न जीवने प्रायें करी दान तथा लानांतरायादि कर्मनो दय होय डे, केमके, राजादिक जे उंच कुलवान कहेवाय बे, ते नेविषे दान तथा लानादिक दीगमां आवे बे, जो अंतराय कर्मनो क्षय न थयो होय तो दान तथा लानादिकनो संनव थाय नही. माटे घjकरी दान तथा लानांतरायादि कर्मो उत्तम कुलनेविषे क्षयनेज पामेला होय . तेमज नीच गोत्रोत्पन्न प्राणीनेविषे प्रायेंकरी दान तथा लानांतराय कर्मनो उदयज होय . केम के, नीच गोत्रोत्पन्न मनुष्य दरिद्धी होवाथी त्यां दानादिक दीठामा आवतुं नथी. ए रीते गोत्र कर्मनो उदय थया पली अंतराय कर्मनो उदय होवाथी गोत्रकर्मानंतर श्रापमुं अंतराय कर्म गएयुं . एवीरीते कर्मानुक्रम वर्णन सप्रयोजन . ॥३॥ Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शए। कर्मविपाकनामे कर्मग्रंथ. १ - “ हवे यथोद्देशं निर्देशः " ए न्यायें करी एटले प्रथम जेवो मनमां संकेत थाय , तेवं प्रसिद्धपणे कथन अथवा स्पष्टीकरण थाय बे; एवो न्याय बे. ते न्याये करी . प्रथम पांच प्रकारचें ज्ञानावरणीय कर्म कहे . म सुय उंदी मण के ॥ वलाणि नाणाणि तब मश्नाणं ॥ वंजण वग्गद चनदा ॥ मण नयण विणिंदिय चनका ॥४॥ अर्थ- मूलसूत्रमा जेनां नाममात्र कह्यां , तेऊनीसाथे प्रत्येके ज्ञान शब्द जोमीने श्रावीरीते गणना करवी-मर के मतिज्ञान, सुय के श्रुतज्ञान, उही के० अवधिज्ञान, मण के मनःपर्यवज्ञान, तथा केवलाणि के० केवलानी एटले केवलज्ञान, ए पांच नाणाणि के ज्ञान बे ते जाणवां. 'पदैकदेशे पदसमुदायोपचारात्' एटले पदनो एक देश होय तो पण आखा पदनो उपचार करी लेवो एवो न्याय . ए प्रमाणे मूलमां मन शब्द बे तेथी मनपर्यवज्ञान जाणी लेवं. _ तब के तत्र जाणे तेने मति कहीये, जेथी मनन थाय अथवा जे मनन करे तेने मति कहीयें; अथवा इंडिय तथा मनोछारे करी निश्चत वस्तुने जेणेकरी जणाय अथवा मनाय तेने मति कहीये. योग्य देशने विषे अवस्थित वस्तु विषयक इंज्यि मनोनिमित्त जे श्रात्माने अवगमविशेष एटले कोईक ठेकाणे कोई वस्तु पमी होय, तेने विषय करनारां मन तथा इंजियो होय , तेमां निमित्त कारण ज्ञान , ते झान यथार्थ श्रात्माने थयुं होय तेने मतिज्ञान कहीये. एनेज आगममा अनिनिबोधिक ज्ञान कडं . ते विषे नगवान् देवदिमाश्रमण एमणे आम कह्यु :"नाणं पंचविहं पन्नत्तं, तंजहा श्रानिणिवोहिय नाणं, सुयनाणं, उहिनाणं, मणपय्यवनाणं, केवलनाणं. " अत्र आनिनिबोधिक ज्ञाननो अर्थ थाम करेलो - अनि उपसर्ग , तेनो अर्थ अनिमुख एटले सन्मुख एवो थाय बे; नि शब्दनो नियत एटले निश्चित अर्थ थाय बे; एवी अनिमुख नियत के वस्तु योग्य देशावस्थान अपेदी इंडिय मनोनिमित्त स्वस्व विषयनी अपेदाए जे बोध थाय ने तेने श्रनिनिबोधक ज्ञान कहिये. __ श्रवणं श्रुतम् एटले जे संजलाय तेने श्रुत कहिये. अनिलापेप्लावित जे अर्थ तेने ग्रहण करवानी जे उपलब्धि विशेष हेतु होय तेने श्रुत कहिये. कंबुग्रीवादिमान्, पृथुबुनोदराद्याकार, जलधारणादिक अर्थ क्रियाने समर्थ, एवी जे वस्तु ते घट शब्दे करी बोलाय बे. यहीं वस्तु वाच्य डे ने शब्द वाचक बे, माटे उक्त वस्तु वाच्य , अने घट शब्द वाचक डे, एवा वाच्य वाचक संबंधे करी त्रिकाल साधारण समान Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मविपाकनामे कर्मग्रंथ. १ १५ परिणाम शब्दार्थ पर्याय आलोचनानुसारी इंद्रिय मनोनिमित्त जे श्रात्मानुं श्रवगम विशेष तेने श्रुतज्ञान कहियें. इंद्रियादिकनी अपेक्षा विना श्रात्माने विषे जे साक्षात् अवधान एटले अर्थ ग्रहण बे, ते अधिकहीयें. अने साक्षात् अर्थनुं ग्रहण होवाथी एने प्रत्यक्ष ज्ञान पण कहे बे. यडुक्तं नंद्यऽध्ययने- “ नोइंदियपच्चकं तिविहं पन्नत्तं, तंजदा, हिनाणपच्चरकं, मनपवनाए पञ्चरकं, केवलनाणपच्चरकमिति.” अथवा छाव शब्दनो अर्थ अधः एवो समजवो. एटले जेणे करी श्रधो एटले नीचो विस्तृत जे वस्तु तेने जायें तेने वधि कहियें अथवा अवधि शब्दनो अर्थ मर्यादा वाचक थाय बे; एटले रूपी द्रव्यने विषेज जाणवानी प्रवृत्ति बे जेनी, एवी मर्यादा, उपलक्षित जे ज्ञान तेने अवधिज्ञान कहियें. मनपर्यव ज्ञाननो अर्थ अ प्रमाणे- परि शब्दनो अर्थ सर्वतोभाववाचक बे. अव शब्दनो अर्थ जाणवा वाचक बे. केमके, अवन वेदन इत्यादिक शब्दो पर्याय वाचक बे. हीं परिव तेनो पर्यव थाय बे. तेथी मननुं जे सर्व थकी जाएवं तेने मनपर्यव कहीयें, अथवा मनःपर्यव ज्ञान कहीयें, अथवा मनःपर्याय ज्ञान पण एनेज कहीयें. वो शब्दार्थ करीएं जे संज्ञी जीवे काययोगे करी ग्रहण करेली जे मनःप्रायोग्य वर्गणाव्य जेने चिंतनीय वस्तुनेविषे चिंतनीयपणे व्यापारयो एवो जे मनोयोग, तेने मनपणे परिणमावीने जे पर्यायोनुं श्रालंबन कस्युं बे, तेने मन कहीयें. तेना पएटले समस्त प्रकारे जाणवुं तेने मनपर्यव कहीएं, अथवा जे मन चिंतनानुगत परिणाम तेनुं जे ज्ञान तेने मनःपर्याय कहीयें. अथवा श्रात्मा करी वस्तु चिंतननेविषे व्यापारया जे मन तेने पर्याय के० जाणे; तेने मनःपर्याय कहीयें. तत्संबंधी जे ज्ञान तेने मनःपर्याय ज्ञान कहीयें. केवल एटले एक, अर्थात् जे मति श्रादिक ज्ञाननी अपेक्षाविनानुं होय तेने केवलज्ञान कहीयें. " नमिठार्ड मच्चिएनाऐ" इति वचन प्रामाण्यात्. आशंका - मत्यादिक ज्ञान पोतपोताना यावरणना क्षयोपशम जावे पण प्रगट थाय बे; तो निःशेष स्वस्व यावरणनो दय थवाने लीधे सर्व प्रकारे सारी रीते मत्यादिक ज्ञान प्रगट थवानो संजव बे. चारित्र परिणामनी पेरे जेम चारित्रावरणीय कर्मना क्षयोपशमे सामायकादि चारित्र प्रगट थाय बे. छाने चारित्रावरणीयनो निःशेषपणे य थयाथी विशेषताथी यथाख्यात चारित्र प्रगट थाय बे. परंतु केवल ज्ञान उत्पन्न थयाथी कांइ चारित्र जतुं रहेतुं नथी. तेमज केवल ज्ञान उत्पन्न थयाथी मति तथा For Private Personal Use Only Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शए कर्मविपाकनामे कर्मग्रंथ. १ श्रुतादिकनो पण अनाव संजवे नही. उलटुं विशेषताथी संपूर्ण प्रगट थाय बे. कडं ले के, " श्रावरण देसविगमे, जाई विति मश्सुयाईणि आवरण सबविगमे, कहताश न हुँति जीवस्स.” उत्तर- अहीं जेम घनाघन पटलांतरित एटले मेघने बाडे रहेलो जे सहस्रनानु एटले सूर्य तेनुं अपरांतरालवर्ति जे कटकुट्यादि आवरण तेना विवरांतर गत जे प्रकाश ते घटपटादिक वस्तुने प्रकाशे बे. एटले एक तो पूर्ण जलश्री नरेलो मेघ भाडे श्रावेलो तेथी पूर्ण प्रकाश पड़ी शके नहीं, तेमा वली कुट्यादिक त्राटीनी नीतने श्राडे जे पदार्थो होय तेउनी ऊपर जेम यथार्थ प्रकाश पमी शकतो नथी. ते वस्तु केटलाएक अंशे देखाय अने केटलाएक अंशे न देखाय अथवा थोमी देखाय बे, तेम केवल ज्ञानावरणीय कर्मथी श्रावृत जे केवल ज्ञान, तेमां अपरांतरालवर्ती मतिज्ञानावरणीय आदि, तेजना क्षयोपशमरूप जे विवर एटले सूक्ष्म बिस्रो, तेउमाथी गएलो प्रकाश जीवाजीवादिक वस्तुने प्रकाशे . ते तेवी रीते प्रकाश करतो थको मतिझानादि लक्षण तेहवं तेहबुं क्षयोपशमनुं रूप अनिधानप्रत्ये पामे बे. ते कारणमाटे जेम सकल घनपटल तथा कटकुट्यादिक श्रावरणनो नाश थया पली तथाविध सूर्यनो प्रकाश तेवो अस्पष्ट नथी थतो. किंतु सर्वात्मपणे स्पष्टरूप अन्यरूपपणे नासे बे. तेम अहीं पण सकल केवल ज्ञानावरण तथा मतिज्ञानावरणादि थावरणोनो विलय थयाथी, तथाविध मतिज्ञानादिसंझिक केवल ज्ञाननो प्रकाश नथी होतो, किंतु सर्वात्मपणे यथावस्थित वस्तुनो परिछेदक स्पष्ट श्रन्यरूपज नासे बे, उक्तंच श्रीपूज्यैः " कडविवरागय किरणा, मेहंतरियस्त जद दिणेसस्स; ते कममेहावगमे, न हुँति जह तह श्माईपि.” अन्य आचार्योएं पण कह्यु :- “मलविद्यमणेर्व्यक्ति, यथा नेक प्रकारतः ॥ कर्म विकात्मकज्ञप्ति, स्तथानेकप्रकारतः ॥ १॥ यथाजात्यस्य रत्नस्य, निःशेषमलदानितः ॥ स्फुटै करूपा जिव्यक्ति, विज्ञप्ति स्तम्दात्मनः ” ॥२॥ अन्य श्राचार्य एनुं श्रावी रीते समाधान करे ते कहे -सयोगि केवलीने विषे पण, मात श्रुतादिक शान बे, पण ते केवल फलशून्य बे, तेमाटे तेनी विवदा करता नथी. जेम सूर्यनो उदय थया पली पण नक्षत्रादिक होय बे, तोपण ते निःप्रयोजक होवाथी विवदा करवायोग्य नथी. तेम अहीं पण जाणी लेवू. उक्तंच "अन्नेयानिणिबोहिय, नाणाणिजिणस्त विद्युति; अफलाविणियसूरुदये, जव नकत्तमाणि." अथवा केवल शब्द शुरू वाचक . एटले आवरणमलकलंकपंक रहित तेने केवल झान कहीएं. अथवा केवल शब्द संपूर्ण अर्थ वाचक . केमके, प्रथमथीज तदावरणकर्मनो निःशेषपणे नाश थयो बे. तेणे करी संपूर्ण उपनुं ने तेमाटे केवल ज्ञान कहे जे. अथवा केवल शब्द असाधारण वाचक अन्य कोश्ने सदृश नथी. जे सामान्य Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म विपाकनामे कर्मग्रंथ. १ श न होय तेने असाधारण कहीयें, सामान्य पदार्थ ते सादृश होय बे, तेनो ज्यां श्राव होय तेने असामान्य अथवा असाधारण कही यें. केवल ज्ञान जेवो बीजो कोई पदार्थ नथी, तेथी अनन्य सदृश बे, माटे तेने केवलज्ञान कहीयें अथवा अनंतार्थ वाचक केवल शब्द बे; केमके, अनंतज्ञेय पदार्थोने जाणे माटे तेने केवलज्ञान कहीयें. अथवा निर्व्याघातार्थ वाचक केवल शब्द बे, केमके, लोकालोकने विषे क्यांएं पण एनो व्याघात तो नथी तेथी केवलज्ञान कहीएं. एवी रीते ए पांच ज्ञाननो शब्दार्थ जावो. - थवा केवलंच तत् ज्ञानंच केवलज्ञानं यथावस्थित नूतनवद्भावि जाव स्वभाव जासि ज्ञानमिति जावना. एटले केवल एवं जे ज्ञान ते केवलज्ञान एटले नूत, जविष्य तथा वर्त्तमानकालनो यथावस्थित जाव जेथी प्रगट थाय तेने केवल ज्ञान कहीयें. आशंका- पांच ज्ञानोनो एवा अनुक्रमे करी उपन्यास करवानुं शुं कारण दतुं ? उत्तर- ए पांच ज्ञानमां मति अने श्रुत ए बन्न ज्ञान एकत्र जयां बे. केमके, एना परस्पर स्वामी, काल, कारण, विषय तथा परोक्ष ए पांच धर्म सरखा बे. जेमके मतिज्ञाननो स्वामी बे, तेज श्रुत ज्ञाननो स्वामी बे; अने जे श्रुतज्ञाननो स्वामी, तेज मतिज्ञाननो स्वामी जब मनाएं तब सुयनाणं, जबसुयनाणं तचमनाएं इत्यादि, वचन प्रमाण्यात्. माटे स्वामी साधर्म्य बे. जेटलो मतिज्ञाननो स्थिति काल बे, तेटलोज श्रुतज्ञाननो स्थिति काल बे. ते प्रवाहनी अपेक्षाए जो लेईएं तो अतीत अनागत तथा वर्त्तमानरूप सर्व काल बे, छाने प्रतिपाती एक जीवनी अपेक्षाए लैयें तो साधिक बासठ सागरोपम प्रमाण काल बे. उक्तंच " दोवारे विजयाइसु, गयस्स तिन व ताई; श्रइरेगं नर जवियं, नाणा जीवाण सवद्धा. " एवीते काल साधर्म्य वे. तथा इंद्रियरूप निमित्त कारणवान मतिज्ञान बे, तेम श्रुत ज्ञान पण इंद्रिय निमित्त बे. एवीरीते कारण साधर्म्यपणुं बे. तथा जेम मतिज्ञानना श्रा - देशी सर्व द्रव्य विषय बे, तेमज श्रुत ज्ञानना प्रदेशथी पण सर्व द्रव्य विषय होवाथी विषय साधर्म्य बे. अने जेम मतिज्ञान परोक्ष बे, तेमज श्रुतज्ञान पण परोक होवाथी परोक्ष साधर्म्य बे. ते कारण माटे स्वाम्यादि साधर्म्य होवाथी मति तथा श्रुत नियमयी एकत्र कथन करवा योग्य बे. तथा प्रथम ए बे ज्ञान होय तोज पश्चात् अवधि श्रादिक बीजां ज्ञानो उत्पन्न थाय बे, माटे अवधि ज्ञानादिकथी पहेला गण्या बे. उक्तंच " जं सामि काल कारण, विसय परोरकत्तणेहिं तुलाई; तनावे सेसाणिय, तेपाईए मइ सुयाई. "" शंका-मति अने श्रुत ए बे ज्ञानोमां मतिज्ञान प्रथम गएयुं छाने श्रुतज्ञान पढी गएयुं तेनुं कारण शुं ? ३८ For Private Personal Use Only Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शएन कर्मविपाकनामे कर्मग्रंथ. १ उत्तर- श्रुतज्ञान मतिपूर्वक जे. प्रथम सर्वत्र अवग्रहादिरूप जो मतिज्ञान उदय पामे तो पड़ी श्रुतान होय ; माटे मतिज्ञान प्रथम कर्तुं . ए विषे श्री जिनजअगणि क्षमाश्रमण आम कहे - “ म पुवं सुयमुत्तं, न मई सुयपुश्विया विसेसोऽयं; पुवं पालण पूरण, जावाऊ जं मई तस्स.” तथा नंदि अध्ययननी चूर्णिमां पण कडं - " तेसुविउम पुत्वं सुयंति किच्चा पुर्व मश्नाणं कयं तिप्पटउंसुयंति." - श्राशंका- स्वामित्वादिकेकरी ज्यारे ए बन्ने ज्ञानोनुं अनेदपणुं , त्यारे बन्नेनुं एकपणुं ठरे जे. केमके, जो कोई बीजो हेतु होए तो बेकहीएं माटे नेदगें कोई कारण नथी; अने अनेदताना हेतु तो कहेला बे. तेथी नेद संनवे नहीं. उत्तर-ए श्राशंका अयुक्त जे. केमके, स्वाम्यादि नेदना हेतुनो अनाव . यद्यपिस्वाम्यादिक हेतु समान ने तेथी अनेदता , तथापि लक्षणनो नेद होवाथी बन्ने जुदा मानवां जोश्य बीयें. ते था प्रमाणे- मन्यते योग्योर्थोऽनयेतिमतिः एटले जेथी योग्य श्रर्थ जणाय तेने मति कहीये. अने श्रवणं श्रुतं एटले जेथी संचलाए तेने श्रुत कहीये. एवीरीते लक्षणे करी नेद . तथा हेतुफल नावेकरी नेद . केमके, मतिज्ञान ते श्रुतज्ञान- कारण , अने श्रुतज्ञान मतिज्ञान, कार्य जे. जेना उत्कर्षापकर्षे करी जेनो उत्कर्षापकर्ष थाय ते तेनुं कारण होय . जेम मृत्मिना उत्कर्षापकर्षे करी घटनो उत्कर्षापकर्ष थाय , माटे मृत्पिम घटनुं कारण बे, तेम अत्रे पण घणा ग्रंथो सांध्याथी जे ग्रंथना विषय स्मरण अथवा ईहापोहादिक अधिकतर प्रवृत्ति थाय बे, ते ग्रंथ स्फुटतर प्रतिनासे . परंतु बीजा ग्रंथो तेवीरीने स्पष्टपणे नासता नथी, माटे मतिझान ते श्रुतज्ञाननुं कारण , अथवा नेदेकरीने मति तथा श्रुतनो नेद बे. मतिज्ञान अगवीश प्रकारचें , अने श्रुतझान चौद प्रकारनु , अथवा ईप्रियविजागे करीनेद बे. श्रुतझान श्रवणेंघिय प्रनव बे. अने शेषेजिय प्रनव मतिझान बे, ते पूर्वांतरगत गाथाए करी कयु , यतः " सोइंदिउँवलजी, होश सुयं सेसयंतु मश्नाणं; मुत्तूणं दवसुयं, अकरलंजाय सेसेसु." अथवा मतिज्ञान वल्क समान बे; तेथी कारण डे, अने श्रुतझान शुंब समान बे, तेथी कार्य . अथवा मतिज्ञान अनदर बे; अने सादर पण जे. केमके, अवग्रह झान ते अनदार होय . ते अनिर्देश्य सामान्यमात्र प्रतिनासात्मकपणे करी निर्विकल्परूप . अने हादि ज्ञान ते सादर डे, ते परामर्शादिरूपपणे अवश्यवर्णरूप , अने श्रुतज्ञान तो केवल साक्षरज जे. केमके, श्रदरविना शब्दार्थ पर्याया लोचनपणुं उपजे नहीं, माटे मति श्रने श्रुतज्ञानमां नेद बे. अथवा मतिज्ञान मूक समान बे; केमके, ते पोतानेज प्रत्यय उपजावे बे; अने श्रुतझान ते अमूक समान बे; केमके, ते पोताने तेम परने पण प्र Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मविपाकनामे कर्मग्रंथ. १. श त्यय उत्पन्न करे बे. एटले ते परने दीधुं जाय बे. माटे ऐ बन्ने ज्ञानमां नेद बे, यदाद जाप्यसुधांजो निधिः " लकण नेयादेऊ, फलजाव उजेय इंदिय विजागा; वग्गकरमूयेयर, या जे मइ सुयाणं. " अवधिज्ञान त्रीजुं गएयुं बे तेनो हेतु श्रा बे- काल, विपर्यय, स्वामि तथा लाज़ ए चार धर्मोनुं तेनी साथे सरखापएं बे. तेमाटे मति श्रुतज्ञानांतरे अवधिज्ञान कह्युं छे. ते कड़े बे. तेमां एक प्रतिपाती एक जीवने मति तथा श्रुतनी पेठे साधिक Tea सागरोपम कालसुधी अवधिज्ञान रही शके बे तेथी काल साधर्म्य बे. तथा मिथ्यात्वनो उदय थयाथी जेम मति छाने श्रुत विपर्यय जावने पामे बे, तेम अवधिज्ञान पण विपर्यय जावने पामे बे. तेथी मति अज्ञान, श्रुत अज्ञान तथा विनंगज्ञान विनंगता पामे बे. एवी रीते विपर्यय साधर्म्य बे. उक्तंच " आद्यत्रयम ज्ञानमपिजवति मिध्यात्वसंयुक्तमिति " जे मति तथा श्रुतज्ञाननो स्वामि तेज अवधिज्ञाननो स्वामि होवाथी स्वामी साधर्म्य बे. तथा देवतादिक जे विनंग ज्ञानवान होय बे, तेने ज्यारे सम्यक्त्वनी प्राप्ति थाय बे; त्यारे युगपत् मति, श्रुत तथा अवधि एत्रनो लाज थाय बे, माटे लान साधर्म्य बे. मनः पर्यव ज्ञान चोथुं गएयुं बे, तेनो देतु या बे-उद्मस्थ, विषय जाव तथा प्रत्यक्ष ए चार धर्मोनुं तेर्जनी साथै सरखापएं बे. जेम अवधिज्ञान ब्रद्मस्थने थाय बे, तेम मनः पर्यव ज्ञान पण बद्मस्थने थाय बे; माटे बद्मस्थ साधर्म्य बे. जेम अवधिज्ञानरूपी द्रव्य विषयक बे, तेम मनः पर्यव ज्ञान पण रूपी द्रव्यविषयक बे, तेथी विषय साधर्म्य बे. जेम अवधिज्ञान क्षयोपशमिक जावे बे. तेम मनःपर्यव पण क्षयोपशमिक जावे माटे जाव साधर्म्य बे, तथा जेम अवधिज्ञान प्रत्यक्ष बे, तेम मनःपव ज्ञान पण प्रत्यक्ष बे, माटे प्रत्यक्ष साधर्म्य बे. उक्तंच " काल विवयसामि, तलाज साहंम जवहीतत्तो; माणस मित्तो बनम, छविसय जावाइ साइंमा " ॥ १ ॥ तथा मनपर्यव ज्ञानांतरे केवलज्ञान कर्तुं बे. ते केवलज्ञान सर्वोत्तम बे, माटे कयुं बे; श्रथवा श्रप्रमत्तयतिरूप स्वामि साधर्म्य बे, माटे, अथवा सर्वने वसाने लाज दोa. केमके मतिज्ञानादि चार ज्ञानो जे बे ते वस्तुनो देशथी परिछेद केटलाएक परिमाण करनार बे, अने केवल ज्ञान जे बे, ते सकल वस्तु स्तोमपरिछेदक एसमय विषे विषयसमूहनुं परिमाण करनारो बे. सर्वनुं मस्तकरूप होवाथी सर्वोत्तम बे तेथी बेवटे कयुं ते. जेम मनपर्यवज्ञान अप्रमत्तयतिने उत्पन्न याय बे, म केवलज्ञान पण अप्रमत्तयतिने उत्पन्न थवाथी स्वामि साधर्म्य बे. तथा जेने बीजां चारे ज्ञान उत्पन्न थयां होय तेने नियमे करी सर्व ज्ञानना अवसान ( अंत) मां For Private Personal Use Only Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० कर्मविपाकनामे कर्मग्रंथ.१ केवलझाननी प्राप्ति थाय बे. माटे सर्वना अंतमां केवलज्ञान कयु बे. उक्तंच " अंते केवल मुत्तम, जश्सामित्तावसाण लाना शति.” एवी रीते नाममात्रे नाणाणि के पांच ज्ञान कह्यां, हवे एउनु सविस्तर वर्णन करतां प्रथम मतिज्ञानने प्रगट करे - कहेलां पांच ज्ञानोमां प्रथम मतिझान अठावीश प्रकारे बे. एनो हवे पबीनी गाथानी साथे संबंध . तबमश्नाणं के तत्र मतिज्ञान प्रथम बेनेदे थाय - एक श्रुतनिश्रित, बीजो अश्रुतनिश्रित. तेमां प्राये करी श्रुत अज्यासविना सहज दयोपमवशे करी जे उत्पन्न थाय तेने अश्रुतनिश्रित कहीये. ते चार प्रकारचें - उत्पात्तिकी बुद्धि, वैनयिकीबुद्धि, पारिणामिकी बुद्धि त. था कर्मजा बुधि. ए विषे श्री देवर्हिवाचक आम कहे :- "सेकितं मश्नाणं, पुविहं मश्नाणंपन्नतं; तं जहा, सुयनिस्सियं च असुयनिस्सियंच सेकितं असुय निस्सियं असुयनिस्सियं चनविहं पन्नतं तं जहा, उप्पत्तिया वेणश्या, कमिया परिणामिया, बुकिचनविदावुत्ता, पंचमानोवलप.” तथा विशेषावश्यकमां पण कडं - " पुर्वसुय परिकम्मिय, मश्स्स जं संपयं सुयाय; तं निस्सिय मियरं पुण, अणिस्सिथं मर चजकंतं” तेमां जे सहेजे पोतानी मेले उपजे ते उत्पात्तिकी बुद्धि, अने गुरुनो विनय शुश्रुषा सेवा करतां श्रावे ते वैनयिकी बुद्धि, कर्म करतां उपजे ते का. र्मिकी बुद्धि, अने परिणाम ते दीर्घकालनु पूर्वापर अर्थन अवलोकन ते पारिणामिकी बुद्धि. एनुं विशेष खरूप नंदीसूत्र तथा आवश्यकवृहकृत्ति प्रमुख थकी जाणवू. पूर्वश्रुत परिकम्मित मतिना उत्पाद कालनेविषे शास्त्रार्थ पर्यायलोचन करतां जे उत्पन्न थाय तेने श्रुतनिश्रित मतिज्ञान कहीये. तेना चार प्रकार -श्रवग्रह, श्हा, अपाय, तथा धारणा. यमुक्तं "सेकितं सुयनिस्सियं मश्नाणं चढविहं पन्नतं जहा, जग्गहो, ईहा, अवाय, धारणा". तेमां अवग्रह बे प्रकार -व्यंजनावग्रह तथा श्रविग्रह. ए विषे पण कडं बे-" सेकितं जग्गहे, जग्गहे सुविहे पन्नते तं जहा, वंजगुग्गहे, अत्थुग्गहेय” तेमां जेम प्रदीपवडे घटने प्रगट करीएं, तेम जेणे करी अर्थने प्रगट कराय तेने व्यंजन कहीयें. कहुं ले " वं जिजाश्जेणडो, घमुवदीवेण वंजणंतंच" व्यंजन ते उपकरणे जियो जाणवी.ते इंजियो पणं कदंब पुष्प, अतिमुक्त, चंड, कुरप्ररूप नानाकृति संस्थित जे श्रोत्र, घाण, चक्षु, रसना तथा स्पर्शन लक्षण जाणवी. अथवा शब्द, गंध, रस, तथा स्पर्शपणे परिणामने पाम्यो जे पुजलनो संघात तेने पण व्यंजन कहीये. माटे व्यंजन उपकरण इंजियो तेणे करी व्यंजन एटले जे शब्दा. दिकपणे परिणामने पामेला अव्य तेनुं जे ग्रहण परिवेदन तेने व्यंजनावग्रह कहीये. केम के, एक व्यंजन शब्दनो लोप थयो . ' किमपीई' एटले आ झुंबे, एवो थ Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मविपाकनामे कर्मग्रंथ. १ ३०१ व्यक्त (अप्रगट ) ज्ञानरूप जे अर्थावग्रह थाय , तेनी पूर्वे अत्यंत श्रव्यक्ततर (अतिबानुं जे ज्ञान ) होय जे तेने व्यंजनावग्रह कहीये. ते चार प्रकारनुं बेते मू. स पाठमांज कयु डे के, 'वंजणवग्गह चहा' एटले व्यंजनावग्रह चतुर्धा बे. ते श्रा प्रमाणे- 'मण नयम विणिं दिय चनक्का' मन तथा नयन ए बे विना बाकीनी चार इंजियोने श्राश्रयी चार न्नेदे . ए विषे श्री नंदीसूत्रमा कडं - " सेकितं वंजणुग्गहे वंजणुग्गहे, चहुउविहे पन्नते तं जहा, सो इंदिय वंजणुग्गहे, घाणिं दियवंजणुग्गहे, रसणिं दिय वंजणुग्गहे, फासिं दिय वंजणुग्गहे.” आशंका- मन अने नयन ए बेनी वर्जना शा माटे करी ? उत्तर- मन अने नयन ए बे प्राप्यकारी नथी, किंतु अप्राप्यकारी . कारण, जेनो विषय थकी अनुग्रह तथा उपघात न थाय, माटे तेने अप्राप्यकारी कहीये. प्राप्यकारी कहीएं तो अनल (अग्नि) जल (पाणी) तथा शूली (शूलायुध ) इत्यादिकनुं चिंतवन अवलोकन (देखq ) दहन (बल) क्लेदन (नीजq ) तथा पाटन (नोकीने फाडवू ) प्रमुख थाशे, ते कारणथी तेने अप्राप्यकारी कहीये. तथा चदुइंजिय जे जे ते विषयदेशप्रते जाने देखती नथी, तेम प्राप्त थर्थर्नु अवलंबन पण करती नथी, एवो नियम , तो पण मूर्तिमंत चंड तथा सूर्यनां किरणोनी प्राप्ति थएथी कदाचित् तेने अनुग्रह उपघात थाय बे, माटे अत्र कोश्क ए चकुने अनुमाने करी प्राप्यकारी पण कहे बे, ते श्रावी रीते अनुमान करे -लोचनं पक्षीकृत्य, प्राप्यकारित्वं साध्यते, व्यवहितार्थानुपलब्धेः इति हेतुः रसनावत् इति दृ. ष्टांतः । एनो जावार्थ- लोचन प्राप्यकारी बे, व्यवहितार्थना अमादक होवा माटे, रसनेंजियनी पेठे , ए अनुमान समीचिन नथी, केमके, व्यवहितार्थानुपलब्धिरूप जे हेतु बे, ते अनेकांतिक , एकांतिक नथी. केमके, काच, अज्रपटल तथा स्फटिक प्रमुखनी अंतरित वस्तुने पण नयन ग्रहण करी शके . कोई कहेशे के, नेत्रने विषे तैजस किरणा , ते काचादिकने नेदीने अंतरित वस्तुनुं ग्रहण करती वखते प्रकाश करे , माटे नेत्र प्राप्यकारी होवाथी व्यवहितार्थानुपलब्धिरूप हेतु साचो . तेजोजव्य कोई ठेकाणे पण स्खलित थतुं नथी. एवी रीते अनेकांतिक दोषनो उद्धार करनाराने श्राम उत्तर दैयें-महाज्वालादिकने विषे पण स्खलना दीगमां आवे , तो वली नेत्रोनां किरणोनी स्खलना थाय तेमां शुं कहे? श्रही घणी चर्चा ले पण ग्रंथ विस्तारना नयथी लखी नथी. व्यंजनावग्रहनो जघन्य काल एक श्रावलिकानो असंख्यातमो नाग होय . उत्कृष्टथी पहुत्तश्वासोश्वास जेटलो होय , Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०१ कमविपाकनामे कर्मग्रंथ. १ " ॥४॥ बे स्वासोश्वासथ मांगीने नव पर्यंत पहुत्त संज्ञा बे. उक्तंच " वंजणवग्ग कालो, वलिय असंखनाग तुलान; योवो कोसो पुरा, आणापाणप्पहृतंति ॥ एवी रीते चार प्रकारनो व्यंजनावग्रह कह्यो; दवे अर्थावग्रहादिक कड़े बे. ॥ प्रग्गद ईदावा, य धारणाकरण माणसेदिं बढ़ा ॥ वीस जेयं, चउदसदा वीसहा चसुयं ॥ ५ ॥ इय व्याख्या - शब्दरूपादिक अथवा ते मांदेला अन्यतर जेदेकरी अनिर्धारित सामान्यरूप अर्थनुं जे ग्रहण तेने अनुग्गह के० अर्थावग्रह कहीयें. अर्थात् या कईपण बे, एवं जे अव्यक्त ज्ञान ते अर्थावग्रह जाणवुं, ते पांच इंद्रियो ने बतुं मन एउए करीब प्रकार - श्रोतेंद्रियार्थावग्रह, चक्कुद्रियार्थावग्रह, घ्राणेंद्रियार्थावग्रह, रसनेंद्रियार्थावग्रद्, स्पर्शनेंद्रियार्थावग्रह तथा मानसार्थावग्रह. हवे ते गृहीत वस्तुनेविषे जे धर्मनी गवेषणा करवी, एटले या स्थाणु बे किंवा पुरुष बे ? तेमां पण दमणां संध्याकाल बे अने मादा अरण्य बे, तेमां सूर्य अस्त या पढी संध्या समये पुरुष होवानो संजव थाय नहीं. इत्यादिक व्यतिरेक धर्मनुं निराकरण कर अने एने पक्षी नजे बे, तथा वक्र कोटरादि सहित बे, 5त्यादिक अन्य धर्मनो अंगीकार करवो. एवं जे ज्ञान विशेष तेने ईहा कहीयें. ए पण पांच इंडियो तथा मने करी व प्रकारनी बे. तथा- ईहित वस्तुनेविषे, या निश्चये करी स्थाणुज बे, एवो जे बोध एटले एक कोटीनो निश्चय तेने अपाय कही यें. ए. पण पांच इंडियो तथा मने करीब प्रकारे बे. तथा निश्चित वस्तुविषे अविच्युतिपणे, अथवा स्मृतिपणे अथवा वासना - पणे जे धारण करवुं तेने धारणा कहीयें. ते पण पांच इंद्रियो अने मने करीब प्रकारे बे. कहेला अर्थावग्रहादिनुं कालप्रमाण यावी रीते बे- उग्गह एकं समय, हावा - यामुदुत्तमर्द्धतुः कालमसंखं संखं, वधारणा होइ नायवा. एवी रीते चारने उए गुयाथी चोवीश था, ने चार पूर्वे व्यंजनावग्रह कह्या, ए सर्व मली अद्यावीश द श्रुतनिश्रित मतिज्ञानना जाणवा. ते वली प्रत्येके विवरीने लखी ये बैयें. कोक पुरुषे अव्यक्त शब्द सांजल्यो ते जाषाना पुल ते पुरुषना कर्णमांदे पेशीने श्रोडिने फरश्या तेवारे अत्यंत अव्यक्तपणे जे शब्दज्ञान ते श्रोत्रेंडियनो व्यंजनावग्रह, ते पी कोइके मुजने साद कीधो एहवुं जे अव्यक्तज्ञान ते श्रोत्रेंडयनो अर्थावग्रह, पी ए अमुकामुकानो साद वे एहवी विचारणा ते ईहा कहीयें, Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म विपाकनामे कर्मग्रंथ. १ ३०३ ए तो खर जेवो स्वर बे, माटे अमुकानोज साद बे, एड्वो निश्चय करे ते पाय, वारी ने घणाकाल सुधी धारी राखे ते धारणा. कोक पुरुषे अव्यक्त रूप दीव्रं, ते रूपना पुल चकुइंडियने फरश्या नथी अप्राप्यकारी माटे एहनो व्यंजनावग्रह न होय. देखवाने पहेले समयेज श्रव्यक्त ज्ञानरूप चक्षुरिंडियन अर्थावग्रह याय. तेवार पढी ए स्थाणु बे के पुरुष बे? जो स्थाणु होय तो स्थिर होय छाने पुरुष होय तो हाले चाले एहवी विचारणा ते ईहा, पढी ए तो स्थिर a. माटे निचे की स्थाणु बे एहवुं ज्ञान ते पाय, पढी तेने धारी राखे ते धारणा. कोक पुरुषे व्यक्त गंध आघ्रायो, ते गंधना पुल घ्राणेंद्रिय साथे बद्ध स्पृष्ट या तेवारे ति श्रव्यक्तपणे जे गंध ज्ञान ते घ्राणेंद्रियनो व्यंजनावग्रह. तेवार पढी aise सुगंध वे एहवं जे अव्यक्त ज्ञान ते घ्राणेंद्रियनो श्रर्थावग्रह. पढी ए कपूर अथवा कूनो गंध एड्वी विचारणा ते ईहा, एतो शीतल बे माटे कपूरनोज गंध बे एवं निश्चय ज्ञान ते अपाय; तेवारपढी तेहने धारी राखे ते धारणा. कोइक पुरुषे श्रव्यक्तपणे रस श्राखाद्यो ते रसना पुगल रसनेंद्रिय साथे बद्ध स्पृटयाते समय अति अव्यक्तपणे जे रसनुं ज्ञान ते रसनेंद्रियनो व्यंजनावग्रह, तेपी एकांक स्वाद जणाय बे, एहवं अव्यक्तज्ञान ते रसनेंद्रियनो अर्थावग्रह, पबी ए गोल के साकर हशे एहवी विचारणा ते ईहा, एतो ति मधुर साकरनोज रस एवं निश्चय ज्ञान ते अपाय, तेवार पढी तेहने धारी राखे ते धारणा. कोइक पुरुषे अव्यक्तपणे फरश वेध्यो ते फरशना पुल स्पर्शनेंद्रिय साथे बद्ध स्पृष्ट यया ते समय अति अव्यक्त स्पर्शनुं जे ज्ञान ते स्पर्शनें प्रियनो व्यंजनावग्रह. ते वापढी कांइक महारे शरीरे स्पर्श थयो एड्वुं अव्यक्त ज्ञान ते स्पर्शनेंद्रियनो अर्था वग्रह, पढी ए रज्जु के सर्प दशे ? एहवी विचारणा ते ईहा. ए तो सुकुमाल माटे निश्चें सर्पनो स्पर्श एवं ज्ञान ते अपाय पढी तेहने धारी राखे ते धारणा. कोइक पुरुष व्यक्त स्वप्न देखीने जाग्यो ते स्वप्नमांदे कोइक वस्तु संजवी पण तेहना पुल मनने फरशता नथी तेमाटे मननुं व्यंजनावग्रह न होय. चिंतववाने प्रथम समयेज अव्यक्त ज्ञानरूप ते मननो यर्थावग्रह थाय. ते पी ए में स्वप्नमां शुं दीतुं ? एहवी विचारणा ते ईहा. एतो में अमुकज स्वप्न दीव्रं एड्वो निर्धार ते पाय. पढी तेहने धारी राखे ते धारणा. ए मतिज्ञानना श्रद्यावीश नेद नंदीसूत्रने अनुसारे विवरीने देखाड्या. एमां चार श्रुत निश्रितना एटले चार प्रकारनी बुद्धिना नेलीएं तो बत्रीश थाय. तथा जातिस्मरण पण अतीत कालना संज्ञी पंचेंद्रियना संख्याता जव देखे. सं Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ कर्मविपाकनामे कर्मग्रंथ.१ ख्यात नवावगम स्वरूप मति ज्ञाननोज नेद बे. श्री श्राचारांगनी टीकामां जाती स्मरण झानने धारणानो नेद कह्यो -"जातिस्मरणं त्वानिनिबोधिक ज्ञान विशेष मिति.” तथा को एक सनाने विष बेठेला घणा श्रोता जनोए शंख तथा जेरी प्रमुखनो नाद अथवा शब्द समकाले एकठगे सांजल्यो बता, सर्वनी क्षयोपशमनी विचित्रताथी अधिक न्यून प्रमुख सांजव्यामां आवे बे, जेमके, कोश्ने ते शंख नेरी थादि तुरीनो नाद जिन्नचिन्न सांख्यामां आवे . तेना जाणवामां एवं श्रावे के, एटली नेरी थाटला संख इत्यादि वाजे ने. तेने बहु अवग्रह कहीये; कोश्ने अव्यक्तपणे मात्र वाजिन वाजे के एटर्बुज सांजव्यामां श्रावे , तेने अबहु अवग्रह कहिएं.. __तथा ते शब्दमां पण कोश्कने मधुर मंजत्वादि बहु पर्यायोपेत जे शंखादिक ध्वनि पृथक् पृथक् घणा प्रकारे सांजल्यामां श्रावे तेने बहुविध अवग्रह कहीयें; कोईने एक बे पर्यायोपेत ते ध्वनि सांजस्यामां आवे जे तेने अबहुविध अवग्रह कहीये. कोईकने तुरत ते नाद जाणवामां आवे ने तेने विप्रवग्रह कहीयें, कोईकने विचार विचारीने घणीवार पालथी जाणवामां आवे , ते श्रदिप अवग्रह. ___ कोई जेम ध्वजारूप लिंगे करी देवकुल उलखाय . तेम लिंगसहित जाणे तेने निश्रितावग्रह कहीएं. को उक्त प्रकारे लिंगरहित जाणे तेने अनिश्रितावग्रह कहीये. कोईने संशयरहित संनलाय , तेने असंदिग्धावग्रह कहीयें; कोईने संशयसहित संजलाय , तेने संदिग्धावग्रह कहीयें. ___ कोईके एक वेला सांजली ग्रहण करी लीधेनुं ते सदा सर्वदा स्मरण रहे पण वीसरे नहीं तेने ध्रुव श्रवग्रद कहीयें; श्रने कोईकने एकवार ग्रहण करेलुं सर्वदा रहे नहीं, तेने अध्रुवावग्रह कहीये. ___एवी रीते एक अवग्रहना बार नेद ले. ते ने पूर्वोक्त श्रहावीश नेदोथी गुणतांत्रणसें ने बत्रीश नेद मतिज्ञानना थाय. ए विष नाष्यपियूषपयोधिए पण कत्यु जे. ___ "जंबहु बहुविह खिप्पा, निस्सियनिबियधुवेयरविनत्ता; पुणरुग्गहादर्जतो, तं उत्तीसत्ति सयनेयं ॥ १॥ नाणा सद्द समूह, बहुविहंमुण निन्नजाश्यं; बहुविह मणेगनेयं, इकिकं निझमहराई. ॥॥ खिप्पमचिरेण तंचिय, सरूवतं श्रणिस्सिय मलिंग; निलियमसंसयंज, धुवमच्चंतं नयकया ॥३॥ तथा एमां अश्रुत निश्रितना चार नेद नाखीएं, तो त्रणसो ने चालीश नेद मतिज्ञानना थाय . अहीं अर्थावग्रह एक समय प्रमाण जे. श्हा अने अपाय अंतर्मुहूर्त प्रमाण दे. धारणा संख्यात असंख्यात कालसुधी . अथवा अव्य, क्षेत्र, काल तथा नाव लक्षण चार नेदे करी मतिझान चार प्रकारचं . मतिज्ञानी आदेश थकी सर्व अव्य जाणे, पण देखे नही. क्षेत्र थकी Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मविपाकनामे कर्मग्रंथ.१। ३०५ श्रादेशे सर्व क्षेत्र लोकालोक जाणे पण देखे नहीं. काल थकी श्रादेशे सर्वकाल जा. णे पण देखे नही. नाव थकी श्रादेशे सर्व जाव जाणे पण देखें नही. ए विषे निदलिताऽज्ञान संचार प्रसर श्री देवर्षिवाचक वर कहे डे के “ तं समास चनविहंपन्नतं, तं जहा, दवर्ड, खेत्त, काल, नाव दवर्डणं यानिणिबोहिय नाणी श्रीएसेणं सबनावा जाण न पास खित्तठणं आनिणिबोहियनाणी श्राएसेणं सबंखित्तं जाण न पास कालणं श्राजिणिबोहियनाणी आएसेणं सब कालं जाणश्न पासश, जावठणं यानिणिबोहियनाणीश्राएसेणं सवं जावे जाण न पास. इति मति ज्ञानना नेद कह्या. ॥५॥ ॥ हवे श्रुतज्ञानना नेद कहे जे. चौदसहा वीसहा वसुयंति. श्रुतझान चौद अने॥ ॥ वीश प्रकारचं डे तेमांना प्रथम चौद प्रकार कहे जे ॥ अस्कर सन्नी सम्म, सायं खलु सपद्य वसियंच ॥ गमियं अंग पविठं, सत्तविए एस पडिवका ॥६॥ अर्थ- अक्षरश्रुत, अनकरश्रुत, संझीश्रुत, असंझीश्रुत, सम्यक्श्रुत, असम्यकश्रुत, श्रादिश्रुत, अनादिश्रुत, पर्यवसितश्रुत, अपर्यवसितश्रुत, गमिकश्रुत, अगमिकश्रुत, अंगप्रविष्टश्रुत तथा अंगबाह्यश्रुत, एवीरीते एस के ए सत्तविए के सात सूत्रोक्त नेद ते पमिवरका के पोताना प्रतिपक्षी सहित कहेवा. एटले श्रुतज्ञानना चौद नेद थाय ते जाणवा. इति गाथा शब्दार्थ ॥ ६ ॥ - अहीं श्रुत शब्दनो संबंध पूर्व गाथाथी जाणवो. हवे उक्त चौद नेदर्नु विवरण लखिये बैये, तेमांना प्रथम अक्षर श्रुतना त्रण नेद बे. संज्ञाकर, व्यंजनाकर तथा लब्ध्यकर. उक्तंच- " तं संना वंजण लकि, संनियंतिविद मकरं नणियं, सुबहलिविनेय निययं संनकर मरकरागारो” तेमां प्रथम संझाकर अढार प्रकारनी बीपी अदरना श्राकारे करीअढार प्रकारनुं बे,- तथाहि "हंसलिवी नूय लिवी, जकातह रस्कसी य बोधवा; उड्डी जवणितुरुक्की कीरी दवमीय सिंधविया ॥१॥ मालविणीनडि नागरि, लाडलिवी पारसी य बोधवा; तह अनमित्ती य लिवी, चाणकी मूल देवीय ॥२॥ बीजो व्यंजनाहर प्रकार ते अकार आदि लश्ने हकारपर्यंत बावन्न श्रदर मुखे उच्चारवारूप जाणवो. ए बन्ने प्रकारो यद्यपि अज्ञानात्मक डे, तथापि श्रुतना कारण होवाथी उपचारे करी एने श्रुतज्ञाननी संज्ञा आपी बे, तथा त्रीजो प्रकार जे लब्धि श्रदर ते शब्दश्रवण तथा रूप दर्शनादिक थकी अर्थ परिझान गर्चित जे श्रकरनी उपलब्धि ते लब्ध्यदर श्रुत जाणवू. यदाह- "जो अस्करोवलंजो, सा लझी , Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ कर्मविपाकनामे कर्मग्रंथ. १ तंच हो विनाणं; इंदिय मणो निमित्तं, जो आवरणक विसमो,” जे अक्षरोए करी अनिलाप्य जावोनुं प्रतिपादन करवाने प्रधान श्रुत ते श्रदरश्रुत कहीयें. . आशंका- जेणे करी अजिलाप्यजाव प्रतिपादन करवाने प्रधान श्रुत कहेवाय डे, तेमाटे अननिलाप्यनाव पण होवा जोशए ? उत्तर- अनजिलाप्यनाव पण लोकमां अनंता . यदाहुः श्रीपूज्या:- “नवणिजा जावा, अणंत नागोउ अणनिलप्पाणं, पनवणिजाणं पुण, अणंत जागोसुयनिबको ॥ १॥ जं चउदसपुवधरा, ठाणगया परुप्परं डंति; तेणउअणंत नागो, पन्नवणिजाण जंबुत्तं ॥ ३॥ अकर लंनेण समा, जणहिया हुंति मविसेसेणं, तेविहुमई विसेसा, सुयनाणपंतरे जाण. इति अक्षरश्रुतं ॥३॥ बीजु अनदर श्रुत, ते दवेमित शिरकंपन हस्तचालन प्रमुख, समस्याएकरी गमनागमनादिक मनना अभिप्रायनुं जे परिज्ञान तेने जाणवू. एटले कोई माणस कोईने पूढे के नाई, तमारे बाहेर जवं के ? तेनो मुखथी जवाब न देतां माथु हलावीने अथवा हाथवती शान करीने पोतानी नामरजी जणाववी तेथी पूबनारने तेना मनना थनिप्रायन परिझान एटले जाणपणुं थाय तेने अनक्षरश्रुत कहीएं. - त्रीगँ संझिश्रुत, ते संज्ञा त्रण प्रकारनी बे-दीर्घकालिकी, हेतुवादोपदेशिकी तथा दृष्टिवादोपदेशिकी. यदाह नाष्यसुधांनोनिधिः “शहदीहकालिगी का, लिगित्ति संना जया सुदी हंपि; संजर श्लूयमिस्सं, चिंतेश्य किहणुकायवं ॥ १॥ जे पुण संचिंतेलं, इछापिठेसु विसय वसु, वहति नियत्तंतिय, सदेह परिचालणाहे ॥२॥पाएण संपयंचिय, कालं मिनयावि दीदकालंता; ते देउवायसन्नी, निश्चिता हुँति अस्सनी. ॥३॥ सम्यदिछी संनी, संते नाणे खर्डवसमियंमि; अस्सनी मिछत्तं, मिदिहिवावएसेणं"॥४॥ तेमां ए केम करवू, केम थशे, इत्यादिक अतित अनागत घणा कालनुं जे चिंतवतुं ते दीर्घ कालिकी संज्ञा. अने जे तात्कालिक श्ष्ट अनिष्ट वस्तु जाणीने प्रवृत्ति निवृत्ति ते हेतु वादोषदेशिकी. अनेक्षायोपशिम ज्ञानेकरीसम्यकदृष्टीपणुं होय, ते दृष्टिवादोपदेशिकी, ए त्रण संज्ञा , तेमां विकलेंजिय असंझीने हेतुवादोपदेशिकी संज्ञा बे,अने संज्ञी पंचेंडीने दीर्घकालिकी संज्ञा , ते माटे सर्वत्र श्रागममांहे दीर्घकालिकी संज्ञाए करी संझिपणुं कहीये. थने ते संझीविषयक जे श्रुत तेने संझिश्रुत कहीये. अर्थात् समनस्क प्राणीने जे मन अने इंजियोएं करी उत्पन्न थएडं शान तेने संझिश्रुत कहीये. चोथं असं शिश्रुत, ते मनविना मात्र इंजियोएं करी उत्पन्न थएवं जे असंझीनुं श्रुत. पांचमुं सम्यक् श्रुत, ते सम्यक् दृष्टिये करी, अर्हत्प्रणीत अथवा मिथ्यादृष्टि प्रणीत Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मविपाकनामे कर्मग्रंथ.१ ३०७ वाक्यादिकनुं यथावस्थित जावना अवगम थकी, एटले पक्षपात विनानी बुछिए करी को विषयना स्वरूपने जे यथार्थ जाणवू तेने सम्यक्श्रुत कहीयें.. ___बहुं मिथ्याश्रुत, ते यथावस्थित बोधना अनाव थकी मिथ्यादृष्टीये करी थईत्प्रणीत अथवा मिथ्यादृष्टी प्रणीत वाक्यादिक, जाणवू. एटले पक्षपात प्रमुख बुझिए करी कोश विषयना स्वरूपने जे यथार्थ न जाणवू तेने असम्यक्श्रुत कहीयें. - आशंका- सम्यकदृष्टीनी पेठे मिथ्यादृष्टिने पण मतिज्ञानावरणीय तथा श्रुतज्ञानावरणीय कर्मोनो क्षयोपशम नाव होवाली ते ज्ञानोए करी पृथुबुनोदरायाकार एवा घटादिकने जाणे , तेथी तेने विषे अज्ञान केम संजवे ? उत्तर- मिथ्यादृष्टि ते सर्व प्रकारने पण एकांत पुरःसर कहे . केमके, तेउनेविषे सदसद्विवेकना परिज्ञाननो अनाव .ते जगवमुक्तस्याहाद नीति अनुसरता नथी. जेम के, 'घटएवायं ' एटले थाज घट डे एवं ज्यारे प्रतिपादन करे ,त्यारे ते घटनेविषे घट पर्यायविना बीजा जे सत्व, शेयत्व तथा प्रमेयत्व प्रमुख व्यतिरेकपणे रहेला जे घटना पर्याय तेउनुं श्रपलपन (गोपन ) करे जे. अन्यथा (जो एम न कहीए तो) 'आज घट ' एम एकांते करी अवधारणा संजवे नही. वली मिथ्याष्टि, घटने सर्वथा अस्ति कहे , पण तेने पररूपे करी नास्तिपणुं बे एवं ज्ञान नथी. तेथी तेने उलवे बे. तेमज तेनुं ज्यारे नास्तिपणे प्रतिपादन करे ने त्यारे पण तेने सर्वथा नास्तिज कहे , तेवारे अव्यार्थिकनये सत्पणुं तेने उलवे ने तेमाटे ते सदसद्विवेक शून्य बे, अने मिथ्याष्टिने विषे जे मति अने श्रुत ए बे शानो होय डे, ते जवहेतुक डे तथा मतिश्रुत ज्ञानोए करी युक्त मिलादृष्टि पशुवध तथा मैथुनादिकनेविषे धर्म साधकता जाणे , तेथी तेऊनी संसारमार्गनेविषे दीर्घतर प्रवृत्ति थाय ने माटे अज्ञान कहीएं, तथा जेम उन्मत्त कवि यथेला कल्पना करे बे, तेमां किंचित् वस्तुने पण कहे बे. तथापि विशेषे ते वस्तुनी अपेक्षा न करतां जे ते प्रकारे कल्पना करी दीये ; तेनी पेठे ते यद्यपि कचित् यथावस्थित वस्तुनुं प्रतिपादन करे , तथापि सम्यक यथावस्थित वस्तुतत्व- पर्यायालोचनना विरहे करीअपरमार्थिकोबे,तथा मिडाष्टिनां मति तथा श्रुत ए बे शानो यथावत् वस्तुनो विचार कस्याविना प्रवतें बे, तेथी यद्यपि तेक्वचित थारस बे,अने या विरस ने इत्यादि अवधारणाना संवाद करनारा , तथापि स्याछादयुक्त परिनावनाए करी तेजेनी प्रवृत्ति नथी. किंतु यथाकथंचित्पणे प्रवृत्ति ने माटे ते अज्ञानज . तथा ज्ञान- फल विरतिपणुं ने ते मिठादृष्टिने नहीं तेथी ते श्रझानज जे. तथाचाहजगवानुमाखातिवाचकः-'ज्ञानस्य फलं विरतिरिति साच मिथ्यादृष्टेर्नास्तीति शानफलाजावादज्ञानं मिथ्यादृष्टेम तिश्रुते' यदाहजाण्यसुधांजोनिधिः सद Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मविपाकनाम कर्मग्रंथ. १ सदविसे सणा,नवदेउजहि निवसंजा नाणफलानावा मिलदिहिस्स अन्नाणं” इति. ___ हवे श्रादिश्रुत, अनादिश्रुत, सपर्यवसितश्रुत तथा अपर्यवसितश्रुत ए चार नेदर्नु साथे वर्णन करे बे. तथा साध्यं, सपङावसियं श्रणाश्यं, अपञ्जवसियं श्वेयं जुवालसंगंवुछित्तिनयच्या एसाईयं, सपजवसियं, अवुवित्तिनयच्याए अणायं अपजावसियंतं, समास चनविहं पंन्नतं तं जहा, दवड, खेत, कालजे, नाव. । दवउणं संमसुयं, एगं पुरिसं पमुच्चसायं, सपजावसियं, बहवे, पुरिसे, पमुच्च अणाश्यं, अपऊवसिय कित्तजणं पंचजरहाई पंचएरवयाई पमुच्चसायं सपनावसियं पंचमहा विदेहाई पमुच्च अणाश्कं अपद्यवसिझं कालजणं उस्स प्पिणिं अवसपिणिं च प. उच्चसायंसपळवसियं नो उस्सपिणि नो अवस्सप्पिणिं पमुच्च अणाश्यं श्रपजावसिकं नो उसप्पिणीनो अवसप्पिणी चेति कालो महा विदेहेषुझेयस्तत्रोत्सपिण्यवसर्पिणी लक्षण कालाजावात् । नावणं जे जिया, जिणपन्नत्ता, नावाआघविऊंति परूविजांति पलविङति दंसिर्जति निदंसिझांति ते तयापमुच्चसायं सपजावसियं खाउँवस मियं पुणनावं पमुच्चश्रणाश्यं अपऊवसियं अहवा नवसिडियस सुयं साईयंसपज वसियं केवलज्ञानोत्पत्तौ तदनावात् नमिल बाउमबिए नाणे इति वचनात् अजवसिद्धियस्स सुयं श्रणाश्यं अपजावसियं श्हच सामान्यतः श्रुतशब्देनश्रुतज्ञानं श्रुताशानं चोच्यते यदाह-श्रवसे सियं सुयं सुयनाणं सुययनाणं च. . एनो नावार्थ भावी रीते -श्रुतान सादिसपर्यवसित ले तेमज अनादि अपर्यवसित पण बे. ए चारेना ऽव्य, क्षेत्र, काल तथा नाव ए चार प्रकार थई शके बेतेमां अव्यथी एक पुरुष श्राश्री लैये तो सादि सपर्यवसित बे. अने घणा पुरुषो श्राश्री सैये तो अनादि अपर्यवसित जे. ते आवी रीते-एक जीवाव्यने ज्यारे सम्यक्त्वनी प्राप्ति थाय डे त्यारेज श्रुतज्ञान पामवाथी ते श्रादि कहेवाय; अने ज्यारे सम्यक्त्व मटी जाय अथवा केवल ज्ञाननी प्राप्ति थाय त्यारे तेनो अंत थयो कहेवाय बे तेथी अव्ये करी सादिसपर्यवसित बे. अने घणा जीवरूप अव्यविषे विचार करीएं तो अमूक जीवने सर्व करतां पहेलां श्रुत ज्ञाननी उत्पत्ति थर अने अमुक जीवना श्रुतनो अंत थयो एम कहेवाय नहीं; केमके, ए अनादि अनंत कालपणे प्रवाहरूप बे. तेथी अव्यथी अनादि अपर्यवसित पण बे. - क्षेत्रे करी जरत तथा ऐरवतनेविषे ज्यारे तीर्थकर तीर्थ वर्ते , त्यारे द्वादशांगीरूप श्रुत होय . अने ते तीर्थनो विच्छेद थयाथी ते श्रुतनो पण विखेद होय तेथी सादि सपर्यवसित कहीयें अने महाविदेह क्षेत्रमा तीर्थनो विछेद नहीं होवा. थी श्रुतनो विछेद पण नथी होतो, तेथी त्यां अनादि अपर्यवसित कहीये... Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मविपाकनामे कर्मग्रंथ. १ ३०ए कालेकरी उत्सर्पिणी तथा अवसर्पिणीनेविषे चोथे तथा पांचमे बारे श्रुतझान होय, अने बड़े आरे विछेद थाय ने तेथी सादि सपर्यवसित के अने महाविदेह क्षेत्रनेविषे एवं कालचक्र नहीं होवाने लीधेत्यांश्रुतज्ञान पण अनादि अपर्यवसित जे. ___ अने जावथी जव्य सिडिआ जीवने ज्यारे सम्यक्त्वनी प्राप्ति थाय ने, त्यारे आदि अने केवल छाननी प्राप्ति थाय ने त्यारे अंत होवाथी सादि सपर्यवसित ने; अने अजव्य सिद्धिया जीव आश्रयी क्षयोपशमिक जावे श्रुतज्ञान अनादि अपर्यवसित . --- अग्यारमुं गमिक श्रुत, ते ज्यां सूत्रना सरखा घालावा एटले पाठ दीगमां श्रावे त्यां जाणवू. ते प्रायें करी दृष्टिवाद सूत्रने विषे जे. बारमुं अगमिक श्रुत, ते जेने विषे अण सरखा अदरोना आलावा होय ते जा. ण. ते प्रायें कालिक श्रुतने विषे बे. . तेरमुं अंगप्रविष्ट, ते छादशांगी रूप जाणवं. तथाहि-"श्रहारस पय सहसा, आयारे उगुण उगुण सेसेसुः सूयगम गण समवा, य नगवई नाय धम्मकहा ॥१॥ अंगंजवासगदसा, अंतगम अणुत्तरोववाश् दसा, पन्हावागरणंवा विवाग सुयमिगदसं अंगं ॥ २ ॥ परिकम्म सुत्तपुवा, णुउँग पुवगयचूलिया एवं, पण विहिवायनेया ॥ चउदस पुवाई पुवगयं ॥ ३॥ उप्पाए पयकोमी, अग्गाणी अंमि बन्नवर लरका; वि. रियपवाए अनि, प्पवाश्लकंसरिय सही ॥४॥ एग पजणी कोमी, पयाणनाणप्प. वायपुवंमि । सिच्चप्पवायपुवे एगापयको डिबच्चपया ॥ ५॥ बबीसंपयकोमी, पुवेयथा यप्पवायनामंमि । कम्मप्पवायपुवे, पयकोमी असिश्लक जुया ॥६॥ पञ्चरकाणनिहाणे, पुवेचुलसीपय सय सहस्सा ॥ दसपयसहस जुयापय, कोमीविजापवायंमि॥ कहाणनामधिो, पुवं मिपयाणको डिब्बीसा । उत्पन्न लरक कोडी, पयाण पाणा उ पुवंमि ॥ ॥ किरियाविशालपुवे, नवपयकोमीउबितिसमय विउ । सिरिलोक बिंदु सारे, सढवाल सयपयलरका.॥ ए॥ चौदमुं अंगबाह्यश्रुत, ते श्रावश्यक तथा दश वैकालिकादिक जाणवं. अर्थात् श्र. ग्यार अंगथी जे बाह्य उपांग प्रमुख तेने अंगवाह्यश्रुत कहीये. ॥ ६ ॥ एवी रीते श्रुतज्ञानना चौद नेद कह्या. ॥ हवे बीजा जे वीश नेद थाय ते कहे .॥ पद्यय अरकर पय संघाया, पडिवत्ति तहय अणुउंगो ॥ .. पाहड पाहम पाहुड, वथपुवाय ससमासा ॥॥ ७ ॥ अर्थ- आ गाथामा दश नेद कह्या , तेनी साथे बीजा दश बेरा ससमासा Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० कर्मविपाकनामे कर्मग्रंथ. १ के समाससहित एटखे समास शब्दथी जोमी लेवा. ते श्रावी रीते-पर्यायश्रुत, पर्याय समासश्रुत अक्षरश्रुत, अक्षरसमासश्रुत, पदश्रुत, पदसमासश्रुत, संघातश्रुत, संघातसमासश्रुत, प्रतिपत्तिश्रुत, प्रतिपत्तिसमासश्रुत, अनुयोगश्रुत, अनुयोगसमा. सश्रुत, प्राभृतप्राभृतश्रुत, प्राभूतप्राभूतसमासश्रुत, प्राभृतश्रुत, प्राभृतसमासश्रुत, वस्तुश्रुत, वस्तुसमासश्रुत, पूर्वश्रुत, तथा पूर्वसमासश्रुत. इतिगाथाऽक्षरार्थ. अत्र पर्याय ते ज्ञाननो अंश कहीये, यावत् शब्दे विनाग तथा परिछेद तेने प. र्याय कहीये. तेमां ज्ञानना एक अंशने पर्याय श्रुत कहीये अने झानना अनेक शं. शने पर्यायसमासश्रुत कहीये. प्रथम पर्यायश्रुत, ते लब्धिथपर्याप्त निगोदनो जे सू. क्ष्मजीव, तेने विषे सर्व जघन्य ( उडामा उलु) रहेलु जे श्रुतमात्र, तेथकी अन्यत्र जीवनेविषे जे एक श्रुत ज्ञाननो परिवेदरूप अंश अथवा विनाग जे वृद्धिने पामे जे ते पर्यायश्रुत जाणवू. बीजं पर्यायसमासश्रुत, ते जे श्रुत शानना बेत्रण प्रमुख विनाग परिद नाना जीवोनेविषे वृद्धिने पामेला दीगमां श्रावे , एवी जे जीवने विषे श्रुतज्ञानना अनेक अंशोनी वृद्धि होय , तेना समुदायने पर्यायसमासश्रुत कहीये. : त्रीजुं श्रदरश्रुत, ते अकारादिक लब्ध्यदरोमांना जे एक अक्षरनुं जाणवू तेने कहीये. - चोथु अक्षरसमासश्रुत, ते तेवा बेत्रण अदरोनुं जे जाणवू तेने कहीये. पांचमुं पदश्रुत, ते ज्यां अर्थनी परिसमाप्ति होय तेने पद कहे , तथा विजतत्यंतंपदं एवी उक्ति बतां पण अत्रे ए लक्षण ग्रहण कर नहीं. किंतु जेणे करी श्री श्राचारांगादि ग्रंथोनुं मान अढार हजार पदनुं कहेवाय डे. ते लक्षण अत्रे ग्रहण करवू. केमके तेनो छादशांगश्रुत परिमाणने विषे अंगीकार बे. अने वली श्रहीं श्रुतना नेदोर्नु प्रस्तुतपणुं बे, तेथी ते पद ले पण ते पदनी तथा विधिश्रा. नायनो अनाव बे. माटे तेनुं प्रमाण केवली जाणे. एवं जे एक पदनुं ज्ञान तेने पदश्रुत कहीयें बहुं पद समासश्रुत, ते एवा एकथी वधारे एटले घणा पदोनुं जे ज्ञान तेने कहीयें. सातमु संघातश्रुत, ते 'गदियकाए' इत्यादिक गाथाए करी प्रतिपादित जे छारसमुदाय, तेनो गत्यादिक जे एक देश, तेनो पण एक देश जे नरकगत्यादिक तेनेविषे जीवादिकनी जे मार्गणा अथवा गवेषणा करीये बैये तेने संघातश्रुत कहीये. .. आठमुं संघातसमासश्रुत, ते बे प्रमुख गत्यादिक अवयव मार्गणानुं ज्ञान तेने कहीयें. Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मविपाकनामे कर्मग्रंथ. १ नवमुं प्रतिपत्तिश्रुत, ते गतिश्रादि धारोनी अन्यतर एक परिपूर्ण गत्यादि छारे करी जे जीवादिकनी मार्गणा करवी तेने प्रतिपत्ति श्रुत जाणवू. दशमुं प्रतिपत्तिसमासश्रुत, ते पूर्ववत् घार घ्यादिकनी मार्गणा करवी तेने जाणवू. अग्यारमुं अनुयोगहार श्रुत, ते संतपय परूवणया, दवपमाणं, इत्यादिक अनुयोग कहीयें, ते धारमांना अन्यतर एक अनुयोग ज्ञान ते अनुयोग द्वारश्रुत जाणवू. बारमुं अनुयोगहारसमास श्रुत, ते बे प्रमुख अनुयोगहारोनुं जे जाणपणुं तेने जाणवू. तेरमुं प्रातृतप्रातृतश्रुत, ते प्रावृतांतरवर्ती अधिकार विशेष जाणवो. चौदमुं प्रानृतप्राभृतसमासश्रुत, ते प्राभृतांतरवर्ती एकथी वधारे अधिकारोना समुदायतुं ज्ञान तेने जाणवू. पंदरमुं प्राभृतश्रुत, ते वस्तु अंतर्वर्ती अधिकार विशेष तेने जाणवं. सोलमुं प्राभृतसमासश्रुत, ते वस्तु अंतर्वर्ती एकथी वधारे बेत्रण अधिकारोनो जे समुदाय तेने जाणवू. सत्तरमुंवस्तुश्रुत, ते पूर्व मांहेलो अधिकार विशेष तेने जाणवु. श्रढारमुंवस्तुसमासश्रुत, ते पूर्व अंतर्वर्ती अधिकारनो समुदाय तेना झानने जाणवू. उगणीशमुं पूर्वश्रुत, ते उत्पात पूर्वादि एक पूर्व जे ज्ञान तेने जाणवू. वीशमुंपूर्वसमासश्रुत,ते तेमांना एकथी वधारे बेत्रण पूर्वमुंजे ज्ञान तथा संपूर्ण चउद पूर्व- जे ज्ञान तेने जाणवं. ___एवी रीते संदेपथी श्रुतज्ञानना वीश नेद कह्या जे. एनो विस्तार जोवो होय तेणे वृहत्कर्म प्रकृतिमा जोई लेवु. ए वीश जे श्रुत शानना नेद ते जेवी रीते उत्तरोत्तर तीव्रतीवतरादि क्षयोपशमथी प्राप्त थाय तेवाज अनुक्रमे कह्या बे. अथवा श्रुतज्ञान बीजा चार प्रकारे बे, ते आ प्रमाणे-जव्य, क्षेत्र, काल तथा जाव. तेमां श्रुतज्ञानी अव्यथी उपयोगवंत थको सर्व अव्यने जाणे देखे बे; क्षेत्र थकी उपयोगवंत थको सर्व क्षेत्र लोकालोकने जाणे देखे बे; काल थकी उपयोगी श्रुतझानी सर्व कालने जाणे देखे बे; तेमज नावथकी उपयोगी श्रुतज्ञानी सर्व जावने जाणे देखे; ते माटे संपूर्ण श्रुतज्ञानी ते केवली सरखो कहीयें. एवी रीते श्रुतज्ञाननुं सविस्तर व्याख्यान कझुं. ॥७॥ सांप्रत ( हवे) अवधिज्ञाननी व्याख्या करीये बैये; ते बे प्रकारनुं बे. एक नवप्रत्ययिक, बीजुं गुणप्रत्ययिक. तेमां जवप्रत्ययिक ते देव तथा नारकीउने होय बे; अने गुणप्रत्ययिक ते मनुष्य तथा तिर्यंचने होय . ए गुणप्रत्ययिक 3 प्रकारनुं बे. ते अर्ड गाथावडे कहे , अने गाथाना उत्तराईवडे मनपर्यव तथा केवलज्ञान कहे . Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ कर्मविपाकनामे कर्मग्रंथ. १ अणुगामि वढमाणय, पडिवाईयर विदा बहा उदी ॥ रि जम विनलमई मण, नाणं केवल मिगविहाणं ॥ ७ ॥ अर्थ- अणुगामि के० अनुगामि, वढमाणय के० ' वर्धमान, 'पमिवाई के' प्रतिपाति, 'इयर' के स्तर ते अनानुगामी, हीयमान तथा अप्रतिपाति; ए 'विहा के' (विधा एटले, ) प्रकार, 'बहा के' (षमधा ) 3 प्रकारे, 'उही के०' अवधि ज्ञान जाणवू, अने 'रिउमर के' जुमति विउलमा के० ' विपुलमति, ए बे प्रकारे 'मणनाणं के' मनपर्यवज्ञान जाणवू, तथा केवलं के केवलज्ञान 'ग के एक,' 'विहाणं' के प्रकारे . ॥ ॥ अनुगामि, वर्षमान, प्रतिपाति, अनानुगामि, हीयमान, तथा अप्रतिपाति ए प्रकार गुणप्रत्यय अवधिज्ञानना बे. उक्तंच नंद्यध्ययने-“तं समास बविहं पन्नतं तं जहा, थाणुगामियं, श्रणाणुगामियं, वठ्ठमाणयं, हीयमाणयं, पडिवाई, अपमिवा६,” तेमां प्रथम जे ठेकाणे अवधिज्ञान उत्पन्न थयुं होय, ते ठेकाणुं मूकीने बीजे देशांतर प्रमुखनेविषे ज्यां जाय त्यां लोचननी पेठे जे साये आवे, तेने बानुगामिक अवधि कहीयें; अर्थात् ज्यां पुरुष विचरे त्यां साथे श्रावे ते. बीजु जे ठेकाणे रह्यां अवधि उत्पन्न थयुं होय ते स्थानके श्रावे तेवारेज होय पण अन्यत्र जाय तेवारे न होय. श्रृंखलाबद्ध प्रदीपनी पेठे ते क्षेत्र प्रत्ययि क्षयोपशमने लीधे माटे साथे न आवे तेने अनानुगामि कहीयें; यदाद नगवान् श्री देवर्डिगणि क्षमाश्रमणः- "सेकिंतं अणाणुगामियं, हिनाणं, हिन्नाणंतंजहा नामएगेश पुरिसे एगं महं जोशहाणं काळं तस्सेव जोश्हाणस्स परिपेरंतेसु परिहिंडमाणे परिहिंडमाणे परिघोलमाणे तमेव जो श्हाणं पास अनबगए न पास एवमेव अणाणुगामियं हिनाणं जव समुपद्यश् तव. संखिद्याणिवा असंखिद्याणिवा जोयणा पासश्न अन्नब." नाष्यकारोप्याह-- "अणुगामिन अणुगबश, गतं लोयणं जहा पुरिसं; श्यरोउनाणु गड, ठियप्पश्ववगळतं.” इति. त्रीजु जे वधे तेने वर्षमान कहीये. एटले शलगेली अग्निमां जेम जेम सरपण नाखता यावीएं तेम तेम वधती वधतीज्वाला थती आवे. तेनी पेठे यथायोग प्रशस्त अति प्रशस्ततर अध्यवसायने लीधे, पूर्वावस्थाथी जे उत्तरोत्तर समय समय वधतुं जाय तेने वर्षमान अवधिज्ञान कहीये. अर्थात् प्रथम उपजती वखते अंगुलना असंख्यातमा जाग जेटलुं क्षेत्र जाणे देखे, पठी वधतां वधतां यावत् अलोकाकाशनेविषे खोक जेवडा असंख्याता खंमुक देखे.. चोथु, पूर्वे शुजवपरिणामने वसे घणुं उपजे अने पड़ी तथाविध सामग्रीनो अ Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मविपाकनामे कर्मग्रंथ. १ ३१३ जाव थयाथी पमता परिणामे करी हानीने पामे ने तेने हीयमान अवधिज्ञान कहीये. उक्तंच नंदिचूर्णी- "हीयमाणं पुवावबाउँ अहो होहस्समाणंति." पांचमुं, जे संख्याता असंख्याता योजन उत्कृष्टपणे यावत् समग्र लोक देखीने प. ण पडे एटले जे श्राव्युं जाय तेने प्रतिपाति कहीये. यदाह- "सेकिंतं परिवार अपडिवाइ जं तं जहन्नेणं अंगुलस्स असं खिद्यनागंवा संखिद्यनागंवा वालग्गंवा वालग्रपुहत्तंवा एवं लिकंवा जूयंवा जवा जवपुहत्तंवा अंगुलंवा अंगुलपुदत्तंवा एवंएएणं अहि लावणं विहळिवा हलिंवा कुळिवा (कुदिर्हस्त घ्यमुच्यते) धऍवागाउयंवा जोयणंवा जोयणसयंवा जोयणसहस्संवा संखिद्याणिवा असंखद्याणिवा जोयणसहस्साई उक्कोसेणं लोगं पासित्ताणं परिवमिद्यासेत्तं परिवार." ठे, जे उत्पन्न थया पड़ी दीणताने न पामे, ते लोकसमग्र देखीने अलोकना एक प्रदेशने देखे तेने अप्रतिपाति कहीयें. ए अवधि श्राव्युं जाय नहीं. आशंका-हीयमान अने प्रतिपाति ए बन्नेनां लक्षणो तो सरखां ने तेम बतां जुदां बताववानुं शुं कारण ले ? उत्तर- जे पूर्वावस्थाथी हलवे हलवे घटतुं जाय एटले क्षीणताने पामे ते हीयमान कहेवाय जे; अने जे विध्यात प्रदीपनी पेठे एक कालने विषेज निर्मल थाय ने ते प्रतिपाति कहेवाय बे, ए विशेष . ए अवधिज्ञान जे बे, ते अनंत अव्य तथा नावनो विषय बे, तेथी तारतम्य विवदायें करी तेना अनंत नेद बे. अने असंख्येय देत्र तथा कालनो विषय होवाथी तेना तारतम्यतानी विवदाए करी असंख्य नेद ले. अथवा अवधिज्ञानना था चार प्रकार - अव्य, देत्र, काल तथा नाव. तथा चाह. "तं समास चनविहं पन्नत्तं, तं जहा, दवउ खेत्त काल नाव दवणं उहिन्नाणी जहन्नेणं अणंतारूवी दवाइं जाण पास उकोसेणं सवंरूवि दवाई जाण पास खित्तणं उहिन्नाणी जहनेणं अंगुलस्स असंखेद्यनागं नकोसेणं असं खिद्या अलोए लोय प्पमाण मित्ता खंगाईजाण पास कालर्जणं हिन्नाणी जहन्नेणं श्रावलियाए असं खिद्य नागं उकोसेणं असं खिद्या उस्सपिणी अवसप्पिणी अतीयंच अणागयंचकालं जाण पासश् नावणं उहिन्नाणी जहन्नेणं वि अणंते जावे जाण पास उक्कोसेणंवि अणंते जावे जाण पास सवनावाणं अणंत जागं" इत्युक्त मवधिज्ञानं. __एनो जावार्थ श्रा -ए अवधिज्ञानी अव्यथी जघन्यपणे अनंता रूपी अव्यने जाणे देखे अने उत्कृष्टपणे सर्व रूपी अव्यने जाणे देखे. ते अव्यावधि खेत्र थकी जघन्यपणे अंगुलनो असंख्यातमो नाग जाणे देखे, अने उत्कृष्टपणे थलोकाकाशनेविषे Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ कर्मविपाकनामें कर्मग्रंथ. १ लोकप्रमाण असंख्याता खंगने जाणे देखे ते क्षेत्रावधि; कालथकी, जघन्यथी श्रावलिकानो असंख्यातमो नाग जाणे देखे अने उत्कृष्टपणे असंख्यात उत्सप्पिणी अवसपिणी लगे अतीत अनागतकालने जाणे देखे ते कालावधि; तथा जाव थकी जघन्यपणे अनंत नावने जाणे देखे अने उत्कृष्टथी पण अनंता नावने जाणे देखे ते नावावधि ज्ञान जाणq. एवी रीते अवधिज्ञान कह्यु. विजंगज्ञान ते मिथ्यात्वीने होय, ते माटे मलीन डे, अवधं सवयूँ जाणे पण ते अवधि छाननीज जाती जे. ते माटे एकत्र जाणवू. इति ॥ .. हवे मनःपर्ययज्ञान कहे जे. एना बे प्रकार - एक जुमति, बीजुं विपुलमति. तेमां एणे घडो चिंतव्यो ने एटर्बु सामान्यपणे मननो अध्यवसाय ग्रहे तेने जुमति कहीएं. यदाह-रिसामन्नं तंम्मत्त, गाहिणी रिउमई मणोनाणं, पायंविसेस विमुई घडमित्तं चितियंमुणश्, तथा एणे घट चिंतव्यो ने ते अव्यथी सुवर्णनो बे, क्षेत्र थकी पामलीपुरनो निष्पन्न, काल थकी शीतकालनो, अने नाव थकी पीतवर्ण सुकुमाल इत्यादि विशेष ग्राहिणी मति ते विपुलमति कहीयें. एटले सामान्य ग्राहिणी मति ते रुजुमति कहीयें; अने विशेष ग्राहिणी मति ते विपुलमति; अथवा मनःपर्यायझान चार प्रकारनुं - उव्य, क्षेत्र, काल तथा जाव; ए चारे नेदे करी. उक्तंच-"तं समास चनविहं पन्नत्तं तंजहा, दव खेत्त काल नाव:। दवणं रिउमईणं ते अणंत पएसिए खंधे जाण पास । तेचेव विउलमई अप्नहियतराए विमल तराए जाण पास. " ... एनोनाव- व्यथकी झजुमती अनंतप्रदेशी अनंता स्कंध जाणे देखे अने विपुलमति तेहिज स्कंध कांक अधिकेरा विशुद्धपणे जाणे देखे. देवथी जुमती नीचे रत्नप्रजा पृथ्वीनुं तुझक प्रतरलगे अने उंचुं ज्योतषीना उपरे तललगे; तिरड़े अढी छीप, बे समुज, पन्नर कर्मचूमि, त्रीश अकर्मनूमी अने उपन्न अंतर छीपनेविषे संज्ञीपंचेंडीअपर्याप्ताना मनोगत जाव जाणे देखे, अने विपुलमति तेहिज देत्र अढी अंगुले अधिक देखे, अने विशुक देखे. काल थकी जघन्यपणे जुमति पक्ष्योपमनो असंख्यातमो नाग अने उत्कृष्टपणे अतीत अनागत जाणे देखे अने विपुलमति तेहिज अधिकेरो अने विशुद्धतर जाणे देखे. नावथकी जुमति अनंतानाव जाणे देखे, सर्व नावनो अनंतमो नाग जाणे देखे, अने विपुलमति तेहिज अधिकेरो अने विशुद्धपणे जाणे देखे. यदाहुश्चतुर्दशप्रकरणशतप्रासादसूत्रधारकल्पश्रीहरिनजसूरि पादानंदिवृत्तौ “हाऽधोलौकिक ग्रामान्, तिर्यग लोकवर्तिनः मनोगतां स्त्वसौजावान् वेत्ति तर्तिनामपि अर्बयावज्योतिश्चक्रस्योपरितलं । तिरियं जाव अंतो मणुस्स खि Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१५ कर्मविपाकनामे कर्मग्रंथ. १ ते अवाश्येसु दीवेसु दोसुयसमुद्देसु पन्नरससु कम्मजूमीसु तीसाए अकम्मजूमीसु बप्पन्नाए अंतरदीवेसु सन्नीणं पंचेंदियाणं पद्यत्तगाणं मनोगए नावे जाण पास। तंचेव विजलमई अवाश्यहिं अंगुलेहिं अपहियतरयं विसुङतरयं खेत्तं जाण पास।" हवे केवल ज्ञान- खरूप कहे - केवलज्ञान उत्पन्न थतांज समकाले सर्व पदार्थोना अव्य, क्षेत्र, काल तथा नाव समकाले जाण्यामां तथा दीगमां आवी जाय बे; माटे केवलज्ञान मिगविहाणं के एकज प्रकारचें कडं . ॥ ॥ ॥ एवीरीते पांचे ज्ञानोनुं वर्णन करी; हवे पांचे ज्ञानोना आवरण कहे . ॥ एसिं जं आवरणं, पडुच्चचकुस्स तं तयावरणं ॥ दं सण चनपण निद्दा, वित्ति समं दंसणावरणं ॥ ए॥ व्याख्या-एसि के ए मति प्रमुख पांच झानोनुज जे श्रावरणं के आगदन करे तेने झानावरणीय कर्म कहीयें. जेम चरकुस्स के नेत्रोनी आडे पमुच्च के पाटो बांधवाथी दृष्टिना विषय पदार्थने जोवामां हरकत पडे बे; तेम मति ज्ञानादिकना विषय पदार्थने जाणवाने जे हरकत करे तं के० ते तया के तेनुं आवरणं के आवरण कहेवाय . ते आवी रीते-जेम चनु अति निर्मल उतां पण जो घन (साधारण घट्ट ) घनतर ( कांक वधारे घट्ट) तथा घनतम (अति घट्ट) एवं कपडं श्राद्धं श्रावे तो मंद (थोडं)मंदतर (वधारेथोड़ें) मंदतम (अतिथों) दीगमांबावे. तेमथा जीव ज्ञानावरणीय कर्मे करी घन, घनतर तथा घनतमपणे आवरायो बतां शरद् रुतुना निर्मल चंजमानां वह किरणोनुं पण मंद, मंदतर तथा मंदतम ज्ञान थाय बे; माटे पटनी उपमाए ज्ञानावरणी कर्म कहेवाय . ते आवरणर्नु सामान्यपणे एक रूप . पण पूर्वे मतिज्ञानना जे अनेक नेद कह्या तेथी मति आवरणी कर्मना पण तेटला नेद जाणवा. अने जेटला श्रुतझाननानेद कह्या , तेटलाजन्नेद श्रुतज्ञानावरणीय कर्मना थाय . तथा पूर्वे जे अवधिज्ञानना नेदनो समूह कह्यो तेने आवरण करवाना वनाववायूँ जे कर्म तेश्रवधिज्ञानावरणीय कहेवाय बे. तथा बे नेदोए करीपूर्वे मनःपर्यव ज्ञान कयु तेने श्रावरण करवाना खजाववाढं जे कर्म ते मनपर्यव ज्ञानावरणीय कहेवाय . तथा पूर्व प्ररूपित स्वरूपवावँ जे केवलज्ञान तेने श्रावरण करवानो जेनो स्वनाव होय तेने केवलज्ञानावरणीय कहेवु. उक्तंच बृहत्कर्मविपाके-"सरजग्गय ससिनिम्मल, तरस्स जीवस्स डायणं जमिह; नाणावरणं कम्मं, पमोवमं होश एवंतु.॥१॥ जह निम्मलावि चस्कु, पडेण केणावि गश्यासंति; मंद मंदतरागं, पिबश्सा निम्मलाजशवि. ॥२॥ तह म सुय नाणावरण, अवहि मण केवलाण आवरणं; जीवं निम्मल रूवं, श्रावर श्मेहिं नेएहिं. ॥३॥ पांच ज्ञानना नेदे करी पांच उत्तर प्रकृ Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मविपाकनामे कर्मग्रंथ. १ तिरूप जे ज्ञानावरणीय कर्म, तेणे करी निष्पन्न ते सामान्य ज्ञानावरण मूल प्रकृति कहेवाय . जेम पांच बांगलीए करी एक मुष्टी निष्पन्न थाय बे; मूल, बाल, पत्र तथा शाखायादि समुदायथी जेम एक वृद निष्पन्न थाय बे; अने घृत, गोल तथा कणिकाए करी जेम लामु निष्पन्न थाय डे, तेम मूल पांच प्रकृतिए करी सामान्य झानावरणीय कर्म प्रकृति निष्पन्न थाय बे; तेमज एक एक झानावरणनी उत्तर प्र. कृतिए करी ते ते ज्ञानावरण विशेष निष्पन्न थाय बे. एवी रीते पांच प्रकारनुं झानावरणीय कर्म कर्दा. हवे नव प्रकारचें दर्शनावरणीय कर्म कहे .-गाथामा दर्शनावरणी पदने ठेकाणे काव्य रचनानेलीधे मात्र दंसण शब्द . तेथी श्राखुं पद जाणी लेवु. जेमके, जीम शब्दना उच्चारथी जीमसेन जाणी सेवाय बे; तेम ए पण जाणी लेवं. ते वास्ते शास्त्रोमां कडं डे के पदना एक देशथी आखा पदनो उपचार थाय . ए रीते दंसणचज ए शब्दे करी दर्शनावरणी चतुष्क जाणी लेवं. दृष्टिने दर्शन कहे . अथवा जेणे करी वस्तुनु सामान्यरूप देखाय अथवा परिमाण थाय तेने दर्शन कहिये. तेने श्राबादन करवाना स्वजाववाला जे कर्म ते दर्शनावरणीय कर्म कहेवाय बे. तेनुं जे चतुष्क ते दर्शनावरणचतुष्क कहीयें तथा 'पण निदा' एटले पांच निघा. तेनेविषे चैतन्य कुत्सित एटले अविस्पष्टपणाने पामे ने तेने निघा कहे . तेना पांच प्रकार था बे-निडा, निडा निखा, प्रचला, प्रचला प्रचला, तथा स्त्यानईि ( थीपजी) ए ताप पांच निखाने निडा पंचक कहे बे. एवी रीते चार दर्शनावरणश्रने पांच निझा ए नव प्रकारचें दर्शनावरणीय कर्म . ए दर्शनावरणीय कर्म के डे, ते कहे - वित्तिसमं' वेत्री एटले पोलीथा समान बे. एने प्रतिहार पण कहे . जेम कोई माणसने राजानी पासे कामे जq होय. Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मविपाकनामा कर्मग्रंथ. १ ॥श्री परमगुरुभ्यो नमः ॥ ॥अथ ॥ ॥श्री यशःसोमकृत बालावबोधसहित श्री देवें सूरिविरचित कर्मग्रंथ प्रारंजः ॥ ॥ तत्र॥ ॥ प्रथम कर्मविपाकनामा कर्मग्रंथः प्रारच्यते ॥ ॥ श्रादौ वालावबोधकार विहितं मंगलाचरणम् ॥ अनुष्टुप वृत्तम् ॥ ऐंदवीयकलां शौक्ती, सहसौंदर्यशालिनीं ॥ सच्चित्कलाम विकलां, स्मरामोंतस्तमोपहाम् ॥१॥ ॥आर्यावृत्तम् ॥ कर्मविपाकाविष्कृत, स्वसं विदे विश्ववंद्यमनिवंद्य ॥ वीरं कर्मविपाके, टबार्थ लिखनश्रमं कुर्वे ॥२॥ ते संतु संतु संतः, संततमतयोऽपरात्महितनिरताः॥ विमलीकुरुते कुवलय, मुदितश्रीर्यद्यशस्तोमः॥३॥ केचित्परात्मसंवि; ठिकला विकलाः कलौ खलायंते॥ तेच्यो न कापिजीतिः, संतः संतोषनाजश्चेत् ॥४॥ ॥श्रीमत्परमगुरुभ्यो नमः ॥ श्री सरस्वत्यै नमः॥ हवे प्रथम गाथायें ग्रंथकर्ता, अनीष्ट देवतानी स्तुत्यादिक, प्रतिपादन करे बे. ॥ मूल गाथा ॥ सिरि वीरजिणं वंदिय, कम्मविवागं समास वुचं ॥ कीर जिएण देनहिं, जेणं तो नणए कम्मं ॥१॥ अर्थ-(सिरि के०) अष्ट महाप्रातिहार्यरूप बाह्यलक्ष्मी तथा केवलज्ञानादिक अंतरंग लक्ष्मी, तेणे करीसहित अथवा चोत्रीश अतिशयरूप लक्ष्मीयें करीने बाह्य शोलायमान अने श्रन्यंतर, केवल तीर्थकर प्रतिज्ञानरूपिणी लक्ष्मी करी शोजायमान बे, एवा वीर जिणं के श्रीमहावीर जिन. वीर एटले कर्मशत्रुने विदारे तथा तपे करीने विराजे ते जणी श्रीवीर कहेतां चरम तीर्थंकर, ते प्रत्ये वंदिय के वांदीने मन, वचन, कायायें नम्र थश्ने. एटले ग्रंथारंन्ने समुचितेष्टदेवतास्तुतिरूपमंगलाचरण कयुं. Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१७ कर्मविपाकनामा कर्मग्रंथ. १ कम्म के कर्मनो विवागं के अनुजव तेनुं जणावना जे शास्त्र ते कर्मविपाक कहीयें, तेने समास के संदेपें करी एटले थोडे शब्दें अर्थ घणो जणाय, ते पेरें वुद्धं के कहीश, एटले संदेपरुचि जे जीव, ते महाटां शास्त्र जणवाने आलसु, थोडा श्रदरें घणुं ज्ञान वांछे तेने निमित्तें कहीश. एटले यहीं अधिकारी तथा प्रयोजन, आठ कर्म स्वरूप ते विषय, अने संबंध. ए चारे देखाड्यां. __ अहीं जे कर्मनो विचार, ते अनिधेय श्रने अनिधायक, ए वचनरूप ग्रंथ तिहां वाच्य वाचक ए संबंध जाणवो. संदेपरुचि एना अधिकारी जाणवा. संदेपें व्युत्पत्ति ए सादात्प्रयोजन अने परंपरा प्रयोजन मोद. ए चार वानां ग्रंथ नणावा सांजलवानी प्रवृत्तिनां हेतु देखाड्यां. एम निःप्रयोजनादिक शंका टालीने, हवे कर्म ए शब्दनुं व्युत्पत्तिलक्षण कहे जे. व्यवहारनयें जेणं के जे कारण माटे जिएण के जीवें पांच मिथ्यात्व, बार थविरति, पञ्चीश कषाय, अने पंदर योग, ए सत्तावन बंधना हेजहिं के हेतुयें करी तथा "पडिणीयत्तणनिन्हव" इत्यादिक विशेष हेतुयें करी कीर के करीयें नीपजावीयें, तो के ते कारण माटे एनुं नाम कम्मं के कर्म जमए के कहेवाय. एटले अंजनकूपलीनी पेरें अनंतानंत कर्मपुजलें जया जीवलोकमांहे ए जीवनी कषायादि चीकणतायें, जेम तेल चोपडेले शरीरें रजोमल लागे, तेम अनंतानंतकर्मवर्गणाथी असंख्याता श्रात्मप्रदेश वींटाय, तेणे करी ज्ञानादिक श्रात्मगुण श्रवराय तेथी जीव, मलिनरूप कहेवाय. जेम दूधमांहे पाणी मले तथा लोहमा अग्नि मले, तेम सर्वात्मप्रदेशे कर्मदलनुं मल, होय. ते कर्मबंधनुं नाम, सत्तावन्न बंध हेतुयें करी करीयें, बांधीयें. जीवें, तेजणी एनुं कर्म एवं नाम कहीयें. ए नावार्थ . ए कर्म, पुजलरूपी बे, ते नणि मूर्तिमान् जाणवू तथा प्रवाहरू अनादि जाणवं; केमके जो कर्मनो संबंध जीवने प्रथम थयो, एम मानी तो कर्मरहित जीवने पण कर्म संबंध मानवो जोश्यें. एम मानतां थकां पुष्करतपश्चरणादिकें करी सकल कर्म सिद्ध करी सिक थया; तेने पण कालांतरे वली कर्मसंबंध थातो केम निषेधाय ? तेवारें ते कर्म क्ष्यनिमित्त पुष्करक्रिया करीये ते पण व्यर्थ थाय. ते माटे ए झूषण टालवाने अर्थे प्रवाहरूपें जीवनी साथे कर्मसंबंध अनादि मानीयें. तथा सुवर्णादिक धातुने पाषाणनो अनादिपणे मलसंबंध, तीवथग्निसंयोगें बले, सुवर्ण निन्न थाय. तेम जीवने पण अनादिकर्ममलसंबंध, शुक्लध्यानरूप तीव्र अग्नि संयोगें टले, अने सहजस्वरूप शुधात्मरूप प्रगट थाय. ते परमात्माने पली बंधहे. तुना अजावें कर्मसंबंध न थाय, अनंतकाल सुधी ते शुकात्मरूप रहे, निःकर्मने कर्म न लागे ॥ इति प्रथम गाथार्थः॥१॥ Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१ए कर्मविपाकनामा कर्मग्रंथ. १ ॥ हवे ते कर्म, केटला प्रकारें , ते कहे . ॥ पय विश रस पएसा, तं चनदा मोअगस्स दिठंता ॥ मूलपगह उत्तर, पगई अडवन्न सयनेअं ॥ ३ ॥ अर्थ- पयर के प्रकृतिबंध एटले स्वनावबंध हिश के० स्थितिबंध ते कालमान रस के रसबंध पएसा के प्रदेशबंध, ते कर्मदलगें मान तं चउहा के० ते कर्म, चतुर्धा एटले चार नेदें मोअगस्सदिता के मोदक एटले लामवाने दृष्टांतें नाववो मूलपगश्त के० ए कर्मनीमूलप्रकृति ज्ञानावर्णादि आप होय. उत्तरपग के० एना विशेषनेद ते उत्तरप्रकृति, ते मतिज्ञानावर्णादिक ए सर्व श्रावे कर्मनी मलीने अमवन्नसयन्नेयं के एकसो ने अगवन नेदें होय ॥ इत्यदरार्थः ॥२॥ ते कर्म, जेनो व्युत्पतिलक्षण श्रर्थ, प्रथम गाथामध्ये कह्यो ते, चव्हा के चार नेदे जाणवो, ते चार नेद कहे . त्यां जे स्थिति, रस, प्रदेश अने बंधनो समुदाय ते प्रथम प्रकृतिबंध जाणवो. अने ते प्रकृति, बांधी थकी एटला काल सुधी रहे, एम कालनुं मान, ते बीजो स्थितिबंध जाणवो. तथा जे कषायिक अध्यवसाय विशेष गृह्या जे कर्मदल, तेनो देशघातीयो रस अने सर्व घातीयो रस, श्रघातियो रस तथा अशुन प्रकृतिनो रस, लींबमानी पेरे कमवो अने शुनप्रकृतिनो रस धनी पेरें मीठो. ते त्रीजो रसबंध जाणवो. तथा स्थितिरस ते निरपेक्ष जे कर्मदलनुं ग्रह योगनैमित्तिक, ते चोथो प्रदेशबंध जाणवो. ए चार प्रकारे कर्मबंध जाणवो. तेमज प्रथम उदय, बीजी उदीरणा, त्रीजो संक्रम, चोथो निकत्त, पांचमो निकाचना, बहो उकतना, सातमी अपवर्तना, अने श्राठमी उपशमनादिकरण पण चार प्रकारे जाणवां. ए कर्मस्वरूप पण विवदायें करी चार प्रकारे होय. अहीं बालने समजाववा निमित्ते खामवानुं दृष्टांत देखाडवू. जेम कोइएक लामवो त्रिकटुनो बनावेलो होय एटले शंख, पीपर अने मरी, एने त्रिकटु कहीये. कटुप्रमुख चीज, वायुने टाले एवा 5व्यथकी नीपनो जे लाकु, तेमां वायु हरवानो स्वनाव होय. तेमज शीतल अव्ये नीपन्यो लासु, तेमां पित्तहरण करवानो स्वन्नाव होय, एने प्रथम प्रकृतिबंध कहीयें. तथा कोश्एक मोदक एक दीवस सुधी, को पद सुधी विणसे नहीं; एवं कालमान, ते बीजो स्थितिबंध कहीये. वली तेहीज लामवानो रस, कोश्नो मीठगे, को. श्नो अत्यंत मधुर, कोश्नो कम्वो, कोश्नो कषायेलो, इत्यादिक रस होय ते त्रीजो रसबंध कहीयें. तथा को लामवो शेर प्रमाण, कोश्शे र प्रमाण, को पाशेर प्रमाणे सदलमान, ते चोथो प्रदेशबंध कहीये. एम दृष्टांत देखाडी दार्टीतिक कर्मने विषे जोडिये. Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मविपाकनामा कर्मग्रंथ. १ जे कर्मदलनो ज्ञान आवरवानो स्वनाव, ते प्रथम ज्ञानावरणीयकर्म. दर्शन श्रावरवानो स्वजाव, ते बीजु दर्शनावरणीय कर्म. शुजाशुज वेदवानो खन्नाव ते त्रीजुं वेदनीयकर्म. हिताहित विकल करवानो स्वनाव, ते चोथुमोदनीयकर्म. हमनी जेवो स्वजाव, ते पांचमुंथायुःकर्म. इत्यादिक बधां कर्मो विषे जाणी लेवू. एम मूल प्रकृति , ने उत्तर प्रकृति एकसो ने बहावन होय ए प्रकृतिबंध जाणवो. तथा कोशएक प्रकृति बांधी थकी वीश कोमाकोमी सागरोपम सुधी रहे, कोइएक त्रीश कोडाकोमी सागर सुधी रहे, ए स्थितिबंध जाणवो. तथा कोशएक कर्मनो रस कडवो तथा घाति, कोश्एकनो अघाति तथा मीठगे, एक गणी; बे गणी, इत्यादिक रसबंध जाणवो. तथा कोइएक कर्म मंद, मन वचन कायायोगयोगें करी अल्पप्रदेशिक होय, पातला होय अने कोइएक उत्कटयोगें करी बहुप्रदेशिक स्थूल होय, ए प्रदेशबंध ॥२॥ ॥ ए चार नेद मध्ये पण प्रथम प्रकृतिबंध कह्यो, तेमाटे ते प्रकृतिना मूल नेद आठ बे, तेनां नाम अनुक्रमें त्रीजी गाथायें कहे . ॥ इह नाण दसणावर, ण वेअ मोदान नाम गोआणी॥ विग्धं च पण नव ७ अ, वीस चउ तिसय पण विहं ॥३॥ अर्थ-इह केन्हींनाण के ज्ञान ते गुणपर्यायें करी वस्तुनो निर्णय, सणावरण के बीजुं दर्शनसामान्यावबोधर्नु आवरण . वेत्र के त्रीजु वेदनीयकर्म; मोहान के चोथु मोहनीयकर्म अने पांचमुं आयुःकर्म; नाम के बहु नामकर्म; गोवाणी के सातमुं गोत्रकर्म; विग्धंच के आठमुं अंतरायकर्म. त्यां प्रथम ज्ञानावरणीय कर्मना मतिज्ञानावरणादिक पण के पांच नेद बे. बीजा दर्शनावरणीय कर्मना चार दर्शनावरण तथा पांच निडा मलीने नव के नव नेद . त्रीजा वेदनीय कर्मना शाता ने अशाता मली 3 के बे नेद जे. चोथा मोहनीय कर्मना दर्शनमोहनीय त्रण, श्रने चारित्र मोहनीय पच्चीश मलीने अहवीस के अहावीश नेद थाय. एम चारे कमैना चुम्मालीश नेद थया. पांचमा आयुःकर्मना देवायुःप्रमुख चन के चारनेद थाय. एवं अडतालीश. बहा नामकर्मना गत्यादिक पंच्चोत्तर तथा पिंप्रकृति अहावीश मलीने तिसय के एकशो ने त्रण नेद थाय. सातमा गोत्रकर्मना ऊंच नीच नेदें करी मु के बे नेद थाय. बाग्मा अंतरायकर्मना पण विहं के० पांच नेद. एम सर्व म. लीने श्राप मूलप्रकृतिना नेदना एकशो ने अहावन उत्तरप्रकृतिनेद थाय ॥ ३त्यदरार्थः॥३॥ जाणवू ते ज्ञान अथवा जाणीये. सामान्य विशेषात्मक वस्तुमांहे नाम, जाति, गुण, क्रियादिक विशेषयोजनासहित वस्तुखरूप जाणीयें, तेमाटे एने ज्ञान कहीये. जाणी. सामान्य विशेषात्मक वस्तुमांझे नाम, जहावि, Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२१ कर्मविपाकनामा कर्मग्रंथ. १ जेम पुरुष, नामें चैत्र, जाति ब्राह्मण, गुणें कालो, परिमाणे दीर्घ, संख्यायें एक, एम जण जण विशेषे वस्तु निर्धारीयें, ते ज्ञान कहीये. तथा देखवू अथवा देखीयें जेणे करी, ते दर्शन. सामान्य विशेषात्मक वस्तुने विषे सामान्यांशें नाम, जाति, गुण, क्रियादिक विशेषयोजनारहित कोश्एक वस्तु धर्मी डे एवो अव्यक्तबोध, ते बीजो दर्शन निराकारउपयोग जाणवो. ए बन्ने आगल शावरण शब्द जोमीयें, एटले झानने आवरे, ते प्रथम ज्ञानावरणीय कर्म; अने जे दर्शनने आवरे, ते बीजं दर्शनावरणीय कर्म. जेणे करी जg, खंडं,सुख, उःख वेदियें.तेमाटे तेनुं नाम वेदनीय कर्म त्रीजुं कहीये. जे मोहें मुंजावे, जे ए कार्य कीधे मुजने हित किंवा श्रहित थशे ? इत्यादिक सम्यक् विचारणारहित आत्माने पण जेणे करी करे, एटले हितना हेतु जे पच्चरकाणादिक ते फुःखदायक जाणीने तेनो त्याग कस्यो जाय अने अहितना हेतु जे विषयादिक ते हितबुकिये ग्रह्या जाय, ते मोहनीय कर्म चोथं जाणवू. तथा जे श्रा नवथी बीजा नवने विषे उदय आवे, तेने आयुःकर्म कहीयें. यद्यपि बीजा पण कर्म जवांतरें उदय श्रावे अने ते नवमां पण उदय आवे ने अने ए श्रायुःकम तो ते नवमां उदय न श्रावे, परंतु अवश्यपणे बीजे नवेंज उदय आवे, ए नियम जणाव्यो. ए पांचमुं श्रायुःकर्म. तथा गतिजात्यादिक उदयिक पर्यायें करी जीवने नमावे, शुद्धस्वरूपने पण नारकी तिर्यंच एकेंघिय इत्यादिक हीन नामें करी स. दित जणावे ते जणी ए नामकर्म बहुं जाणवं. तथा उच्च एटले गुणाश्रयपणे अने तेथकी विपरीत ते नीच जाणवू. एवे शब्दें करी बोलावीयें, तेनुं नाम गोत्रकर्म सातमु जाणवू. तथा जेणे करी विशेष दान, लान, नोग, उपनोग, विर्यादिक जे थास्मानी लब्धि के तेने हणीयें, ते नणी ए विघ्नकर्म थाउमुं कहीये. ॥ हवे ए आठे कर्मनी संगति कहीयें यें. ॥ १ अहीं ज्ञान, दर्शन, ते जीवनुं स्वरूप ले. जे जणी उपयोगलक्षण श्रात्मा कह्यो तेने श्राश्रयें कर्मविचार तेमां पण सकल शास्त्रविचार ज्ञानथी प्रवर्त, लब्धि पण स. घली ज्ञानोपयोगें उपजे, मोक्षगमन पण केवलझानोपयोगयुक्तने होय, तेमाटे ज्ञाननी प्रधानता कही, ते कारणे तेनुं आवरण पण पहेवू कडं. २ ते पड़ी ज्ञानोपयोगथकी दर्शनोपयोगें रहे, ते माटे तेनुं आवरण बीजु कयु. ३ ए बेहु श्रावरणनो तीव्रविपाक वेदतां अजाणपणादिकें करी अशाता थाय अने एनाज तीवदयोपशमें सूक्ष्म अर्थ जाणतां, देखतां, शाता वेदे, ते नणी ए पली वेदनीयकर्म त्रीजुं कडं. Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३३ कर्मविपाकनामा कर्मग्रंथ. १ ४ तथा ए ए आवरणक्षयोपशमें इंजियना अनुकूल तथा प्रतिकूल विषय पामी रागडेथे जीव मुंकाय, ते नणी मोहनीय कर्म चोधुं कडं. ५ तथा मोहें मुंझ्या जीव, श्रारंजादिकें करी नरकादिकनुं आयुष्य बांधे, ते जणी पांचभु श्रायुःकर्म कर्दा. ६ तथा ते आयुष्य अवश्य गतिजात्यादिक नामें करीने निधत्त ते स्थापीजें निधत्त करीयें, ते जणी पड़ी नामकर्म हुं कडं. ७ तथा ते पढी नरकादिक गतिने उदयें नीचपणुं श्रने देवादिक गतिने उदयें जंचपणुं जीव वेदे, ते जणी ते पनी सातमुं गोत्रकर्म कर्दा. तथा उच्चगोत्रने उदयें राजा तथा शेठ प्रमुखने दान, लाल, नोगादिक लब्धि होय अने नीचगोत्रने उदयें पामरादिकने दानादिक लब्धि हणाय. ते जण गोत्रकर्म, पडी ते श्रापमुं अंतरायकर्म कह्यु. एम आठ कर्मने अनुक्रमें कहेवाना हेतु कह्या. ॥३॥ ॥ हवे ए श्राप कर्मनी अनुक्रमें उत्तर प्रकृति कहीयें बैयें. ॥ म सुअ उहीमण के, वलाणि नाणाणि तब मश्नाणं ॥ वंजणवग्गद चनदा, मण नयण विणिंदिय चनका ॥४॥ अर्थ- मश के० पहेलु मतिज्ञान, सुश्र के बीजुं श्रुतज्ञान, उही के० त्रीजु अवविज्ञान, मण के चोथु मनःपर्यवज्ञान, केवलाणि के० पाचमुं केवलज्ञान. ए पांच नाणाणि के ज्ञान तब के त्यां प्रथम मश्नाणं के मतिज्ञानना, अहावीश नेद .ते कहे . वंजणवग्गह के वंजनावग्रह चउहा के चार न्नेदें मणनयण विणि दियचजक्का के० मन अने नयन एटले लोचन, ए बे विना शेष इंडियना चतुष्कं करी चार नेद जाणवा. इत्यदरार्थः ॥४॥ ___ त्यां प्रथम ज्ञानावरणीय कर्मना उत्तर नेद पांच , ते कहे . ते श्रावरवा योग्य ज्ञानगुणनेदें करी तेना आवरणना नेद सुखें समजाय, तेमाटे प्रथम ज्ञान पांच कहे. श्रहीं इंसमासांतने प्रांतें नएयो ज्ञानशब्द, ते प्रत्येकें जोडीयें तेथी एक मतिज्ञान,बीजुं श्रुतझान, त्रीजुं अवधिज्ञान,चोथु मनःपर्यवज्ञान अने पांचमुं केवलज्ञान. १ त्यां जे पांच इंडिय अने हो नोइंघिय जे मन, तेना व्यापार करी जे वस्तुनुं विशेष जाणवू ते मतिज्ञान. ... ५ तथा एवा श्राकारे जे वस्तु होय घट ते नामें, जल आणे. एवं पूर्वापर पर्यालोचन खरूपव्यंजनपर्याय विशिष्टमतिपूर्वकज्ञान, ते श्रुतज्ञान. एबे झान ते श्रद के० Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मविपाकनामा कर्मग्रंथ. १ ३२३ श्रात्मा ते थकी ए पर जे पांच इंजिय, ते निमित्त होय, ते नणी परमार्थे परोद कहीयें, अने लोकव्यवहारे प्रत्यद कहीये. __ ३ तथा अव्य, क्षेत्र, काल, अने नाव, ए चार मर्यादायें जे इंडियनिरपेक्षरूपी जव्यविषयक प्रत्यद, ते अवधिज्ञान. त्यां व्यश्री जघन्य तो अनंत प्रदेशीथानो एक खंध एवा अनंता खंध जाणे, अने उत्कृष्ट तो परमाणुमात्र जाणे, ते ऽव्यावधि. तेमज देवथी जघन्य तो बादर निगोदना जीवनुं शरीर जे अनंता नील, फूल, जीवनी एक काया वे एवा सूक्ष्म पनक शरीर प्रमाण लगें जाणे, अने उत्कृष्टथी तो सर्वलोक प्रमाणे असंख्याता खंग अलोक मध्ये स्थापियें, तेटर्बु जाणे. ए देत्रावधि अने कालथी जघन्य तो आवलिकानो असंख्यातमो नाग पूर्वापर जाणे, अने उत्कृष्टथी तो असंख्यात कालचक्रमध्ये थयो अने थशे, ते जाणे, ए कालावधि. तथा नावथी जघन्य सर्व पर्यायनो अनंतमो नाग जाणे, उत्कृष्टथी तो एक अव्यना असंख्याता पर्याय एम अनंत व्यना असंख्याता असंख्याता पर्याय जाणतां सर्व अव्यनाथ अनंत पर्याय जाणे,ए नावावधि. एम चार मर्यादायें परिमितमानोपेत अवधिज्ञानजाणवं. ४ मनुष्यलोकने विषे सन्नीया पंचेंजियना मनोगत जावनुं जाणवू, ते मनःपर्यवझान. ए बेहु विकल प्रत्यक्ष एटले देशप्रत्यक्ष दे. ५ तथा केवल संपूर्ण सर्व अव्यपर्यायने विषे अनंत ज्ञान ते केवलज्ञान. ए सकल प्रत्यक्ष केवलज्ञान जाणवू. एम ए पांच शान कह्यां, ते मध्ये प्रथम कडं जे मतिज्ञान, तेना उत्तरलेद अहावीश , ते विवरण करीने कहे बे. त्यां घटादिक अर्थ, व्यंजीयें प्रकाशीये जेणे करी. जेम दीवे करी पदार्थ प्रकाशीये ते. व्यंजन कहेतां स्पर्शनादिक अव्ये प्रिय तथा जिहां स्पर्शादिक व्यक्त थाय ते घटपटादिक पण व्यंजन कहीये.तेणे व्यंजन कहेतां अव्येडिय ते ऽव्ये डिये करी व्यंजन एटले घटादिक व्यक्तिनुं अवग्रह एटले समस्तपणे ग्रह, मल, ते व्यंजनावग्रह कहीये. ते स्पर्श, रस, घ्राण अने श्रोत्र, ए चार इंजियथी होय; परंतु मन अने लोचन ए बेहु अणमत्यां वस्तुने यथायोग्यतायें प्रकाशे, तेथी एनो व्यंजनावग्रह न पामीये, जे जणी जो एने वस्तु पामीने प्रकाशे एम मानीयें तो अग्नि, तीदण शसादिक, केम प्रकाशे ? जे जणी तेनी साथै मलतां दाह, बेद, इंडियनो थाय. तथा काचकूपा मांहेबुं तैलादिक ग्रहतां केम तेलथी संबंध थाय ? जो लोचन जर त्यां मले, एम मानीयें तो कूपें बिछ थर्बु जोश्य ? अने जो बिल थयुं तो पाणी, तेल, केम रहे ? इत्यादिक घणां झूषण लागे, ते जणी मन तथा नयनना व्यंजननो व्यंजनावग्रह. परमपरुषे न मान्यो. ए बे अप्राप्यकारी कह्यां अने शेष चार इंडिय प्राप्य Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ कर्मविपाकनामा कर्मग्रंथ. १ कारी , तेना चार व्यंजनावग्रहें करी चार नेद जाणवा. एनी जघन्यस्थिति आवलिना असंख्यात नाग प्रमाण जे अने उत्कृष्ट श्वासोश्वास पृथक् जेटलो मिश्रगुणगणानो काल, तेटलो काल एनो पण जाणवो. ॥४॥ ॥ ए रीतें चार प्रकारनो व्यंजनावग्रह कह्यो. हवे अर्थावग्रहादिक कहे . ॥ अबुग्गद ईदावा ॥ य धारणा करण माणसेहिं बहा ॥ इस अवीस नेअं॥ चन्दसहा वीसहा चसुअं॥५॥ अर्थ-अतुग्गह, के एक अर्थावग्रह ईहा के बीजी हा एटले अर्थ विचारणा, अवाय के त्रीजो अपाय, धारणा के चोथी धारणा, करण के चक्कु, कान, जीन, नासिका अने त्वचा. ए पांच इंजियो अने माणसेहिं के० मनथी उपजे बहा के ए बने करी प्रकारने अर्थावग्रहादिक चारें गुणतां चोवीश नेद थाय. तेनी साथ पूर्वोक्त व्यंजनावग्रहना चार नेद मेलवतां श्श के० एम अहवीस नेअं के अहावीश नेद जिन्न, मतिज्ञान होय. अने चउदसहा के चउद नेदनिन्न श्रुत, वीसहाचसुधे के अथवा वीश नेदें श्रुतझान होय ॥ इत्यदरार्थः ॥५॥ १अर्थ कहेता स्पर्शनादिकना व्यंजनावग्रह थया पडी तथा लोचनादिकें प्रथम जे कोश् एक धर्मी डे एq नाम, वर्ण, गंध, परिमाणादिकें योजनाहीन अव्यक्तज्ञान, ते नैश्चयिकश्रवग्रह एक समयकाल प्रमाण जे. तथा जेम कोश्एके शब्दना अर्थावग्रह पड़ी इहापूर्वक ए शब्द सांजल्यो, एवो अपाय थयो, ते पनी ए केनो शब्द ? एवी ईहा उपजावी, ते जणी ते अपायर्नु नाम, व्यावहारिक अर्थावग्रह कहीयें. ए. म वली वली जे अपायविशेष ईहा उपजावे, ते व्यावहारिक अर्थावग्रह अंतर मुहूप्रमाण होय. २ ते श्रवग्रहित अर्थनी वर्ण, गंध, रस, स्पर्शादिक धर्मविषयिणी विचारणा ते हा जे, ए अव्यनुं नाम घट, किंवा पट, वर्षे रातो, किंवा नीलो, गंधे सुगंध, किंवा पुगंध, परिमाणे लघु, किंवा महोटो, क्रियायें चालतो, किंवा बेठगे, एम जाति, गुप, क्रियानुं विचारवं, ते ईहा, ते अंतर मुहर्त्तप्रमाण जाणवी. ३ ते पड़ी ईहित अर्थनुं एक अंतरधर्मसहितपणे निर्धार, जे, ए अर्थनुं नाम घट, वणे रातो, परिमाणे मोरीयाथी महोटो, बेगे. ए रीतें जो बते धर्मे निर्धारे, तो ते सम्यक् ज्ञान. अने अबते धर्मे निर्धारे, तो मिथ्याज्ञान. ते अपाय अंतरमुहूत्तेप्रमोण जाणवो. ४ तेवार पड़ी ते निर्णीत अर्थ, वासनासंस्कारपूर्वक चित्तमांहे धरे तेणे करी कालांतरें ते सरखी वस्तु देखी अथवा विचारतां सांजरे ते धारणा जाणवी. एनो काल Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मविपाकनामा कर्मग्रंथ. १ ३२५ असंख्यातो पण होय. जे माटे सागरोपमादिकने अांतरें पूर्वबुं कर्त्तव्य सांजरे बे. जातिस्मरण झानने पण श्राचारांगवृत्तिमध्ये धारणानो नेद कह्यो . ते करण के स्पर्श प्रियादिक पांच बायें जिय श्रने मानस के बहुं नोइंडिय जे मन, ए उथकी उपना ब अर्थावग्रह, ते पनी एज इंडियनी अपेदायें ब ईहा, ते पबीते बना अपाय, ते पडी बनी धारणा. ए चोवीश नेद थया. अने नयन तथा मन विना शेष चार इंडियोना चार व्यंजनावग्रह जे पूर्वली गाथामां कह्या, ते मेलवतां श्रुतनिःसृतमतिझानना अहावीश नेद कह्या. तथा कार्यसमये ते कार्यने पार पमामवानी अक्कल, रोहानी पेरें उपजे, ते पहेली श्रौत्पातिकी मति जाणवी. तथा जे गुरुनो विनय करतां मतिनी वृद्धि थाय, ते बीजी वैनयिकी मति जाणवी. जे कार्य करता करतां अज्यास विशेषे विशेषमति उत्पन थाय, ते त्रीजी कार्मिकी मति जाणवी. तथा जे वयना परिपक्वत्वथी वृद्धने अक्कल उपजे, ते चोथी पारिणा मिकी मति जाणवी. ए चार अश्रुतनिःसृत मतिना नेद जे, ते पूर्वोक्त अहावीश साथें मेलवतां बत्रीश नेद पण मतिझानना थाय. अथवा अवग्रहादिक अहावीश मतिज्ञानना नेद, प्रर्वे कह्या, ते एकेकना बह, श्रबहु, बहुविध, अबहुविधादिक बार बार नेद , ते कहे जे. त्यां अनेक जीवो, घणा वाजितना शब्द सानले बे ते मध्ये क्षयोपशमनी विचित्रतायें करी कोइएक जीव, घणा शब्द ग्रहे, ते पहेलुं बहु. अने कोइएक जीव, थोका शब्द ग्रहे, ते वीजुं अबहु. कोइएक जीव, एक शब्दना तार, मंज, तार कहेतां गाढो अने मंड कहेतां मंद हलको. इत्यादिक घणा विशेष जाणे, ते त्रीजुं बहुविध. कोशएक थोडा विशेष जाणे, ते चोथु अबहुविध. कोइएक तुरत आहे, ते पांचमुं क्षिप्र. कोइएक हलके शांसते आहे, ते बहुं अदिप्र. कोइएक धूमादिक लिंगें करी अग्न्यादिक जाणे, ते सातमु सलिंग. कोइएक लिंगविना जाणे, ते थाउमुं अलिंग. कोशएक संदेहसहित जाणे, ते नवमुं संदिग्ध. कोश्एक संदेहरहित जाणे, ते दशमुं असंदिग्ध. कोशएक एक वेला का, ते बीजी वेला श्रण कहेतां जाणे, ते अगीथारमुं ध्रुव. कोशएक वारंवार जणाव्याथी जाणे ते बारमुं अध्रुव. ते अर्थावग्रहादिक, अहावीश नेदने बार गुणा करतांत्रणसें ने बत्रीश नेद थाय. तेमां औत्पातिकी प्रमुख चार प्रकारनी बुकि नेलतां त्रणसेंने चालीश नेद मतिज्ञानना थाय. एम थनेक प्रकारें मतिज्ञानना नेद कहीयें. __हवे श्रुतझानना नेद कहे . त्यां प्रथम मतिज्ञानथकी श्रुतज्ञान जिन्न केवी रीतें जाणीयें ? ते कहीयें बैयें. मति ते श्रुतनुं कारण श्रने नावश्रुत ते मतिनुं Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ कर्म विपाकनामा कर्मग्रंथ. १ कार्य बे. तथा मति ते निरक्षर घने श्रुत ते साक्षरविचारणा वर्णरूप बे; तथा मति ज्ञान तो मूंगुं वे कोने पोतानुं स्वरूप कही न शके श्रने श्रुतज्ञान अक्षर रूप बे तेणे करी परने दीधुं जाय बे, तेथी बोलतुं. ए रीते श्रुतज्ञान, मतिज्ञानथकी जिन्न बे. तेथी मति पठी श्रुत होय. ते जणी स्वामी, विषय, प्रमाण, परोक्षता अनेसा - धणी मति, पी श्रुत कयुं बे, ते श्रुत चौद दें अथवा वीश नेदें होय. ॥५॥ ॥ श्रुत निःसृतमतिज्ञानना श्रद्वावीश दनुं यंत्र. ॥ स्पर्शनेंद्रिय | प्राणेंद्रिय | रसनेंद्रिय श्रवणेंद्रिय. चक्षुरिंप्रिय. मन नोइंद्रिय | व्यंजनाव व्यंजनाव व्यंजनाव व्यंजनाव ग्रह. १ अर्था ग्रह. २ ईहा. ३ अपाय ४ धारणा. ए ग्रह. १ श्र ग्रह. २ ईहा. ३ श्रपाय a ग्रह. १ अर्था ग्रह. १ ० अर्था अर्था अर्था ग्रह. १ ग्रह. १. ग्रह. १ ग्रह. १ ईहा. ३ ईहा. ३ ईहा. २ ईहा. २ छापाय. ४ अपाय ४ अपाय. ३ अपाय. ३ धारणा. ९ धारणा. ५ धारणा. ९ धारणा. ४ | धारणा. ४ ॥ हवे प्रथम चौद नेद, श्रुतज्ञानना देखाडे बे. ॥ अकर सन्नी सम्मं, साईयं खलु सपवसिद्धं च ॥ गपवि, सत्तविए ए सपडिवरका ॥ ६ ॥ गमि ० For Private Personal Use Only २० Ч ६ ६ अर्थ - ( अरकर के० ) अक्षरश्रुत, ( सन्नी के० ) संशिश्रुत ( सम्मं के० ) सम्यकुश्रुत ( साई के० ) सादिश्रुत ( खलु के० ) निश्चें ( सपतवसित्र्ांच के० ) सपर्य - वसितश्रुत अथवा सांतश्रुत ( गमि के० ) गमिकश्रुत ते पाठ, बंद, श्रालावा, सरखा होय. ( अंगपविहं के० ) अंगप्रविष्टश्रुत, ते श्राचारांगादिक ( ए के० ) ए ( सत्तविए के० ) साते श्रुतना नेद ते ( सपडिवरका के० ) सप्रतिपक्ष करीयें एटले ए सातेने पोताना प्रतिपक्ष सहित करीएं. जेम अक्षरश्रुत, त्यां बीजं अनकूर श्रुत; संश्रुित त्यां बीजं असं शिश्रुत. एवी रीतें प्रतिपक्षी सात नेद मेलवतां चौद नेद श्रुतज्ञानना थाय ॥ इत्यरार्थः ॥ ६ ॥ ६ ६ ॥ हवे चौद दनुं विवरण लखीयें बीयें. ॥ त्यां र त्रण दें बे. एक संज्ञाक्षर, बीजा व्यंजनाहर, त्रीजा लब्ध्याकर. त्यां जे पत्रादिकें लख्या ते संज्ञाक्षर, मुखें करी उच्चार करीयें जे अकार ककारादिक, ते व्यंजनाकर. ए बन्ने की जावश्रुत होय, तेमाटे ते श्रुतना कारणपणाने लीधे एने द्रव्यश्रुत कहीयें. तथा शब्द सांजले थके तथा रूपादिक ग्रहे थके “ श्रमुको ए Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० कर्मविपाकनामा कर्मग्रंथ. १ अर्थ” एवं जे अनिधेयपणे अर्थशाननो हेतु, इंडियावरणक्षयोपशमलब्धि जघन्य झान, ते श्रुत एटले अननिधेय पदार्थने अनंतमे नागें अनिधेय पदार्थ बे तेनुं जा. एवं, ते लब्ध्यदर ए जावादर. एनुं नाम थदरश्रुत जाणवू. २ अने एनुं प्रतिपक्षी बीजं अनदर श्रुत ते कहीये जे श्वासें, उनकारें, अने बीकें, खांसीयें करी पुरुषादिक, शान, ते अनदरशब्दश्रुत. ए बीजो नेद जाणवो. ___त्रीजु संज्ञाश्रुत. ते संझा त्रण बे. एक हेतूपदेशिकी, बीजी दैर्घकालिकी, त्रीजी दृष्टिवादौपदेशिकी, ए त्रण मांहे थहीं दैर्घकालिकी संज्ञायें करी जे सन्नीया पंचेंजिय मनोज्ञानवंत जीव तेनुं श्रुत, ते संझिश्रुत, ए त्रीजो नेद जाणवो. ___४ चोथु तेनुं प्रतिपद जे दैर्घकालिकी संज्ञा रहित जे जीवने मन विना इंजियथी थयु, ते संझिश्रुत, ए चोथो नेद जाणवो. ___५ पांचमुं सम्यकदृष्टिजीवनुं श्रुत. ते असम्यक् श्रुत. ग्रहण करे, तो पण सम्यक् श्रुत थाय. कारण के ते खोटाने खोटुं जाणे तेथी ए पांचमुं सम्यक् श्रुत. ६ बहुं मिथ्यादृष्टि जीवने जे परिणमे ते मिथ्याश्रुत. जे जणी मिथ्यात्वदृष्टि जीव, खोटाने खरं श्रने खराने खोटुं जाणे, तेथी ते मिथ्यात्वश्रुत बहुं जाणवू. ७ सातमुं श्रादिसहित ते सादिश्रुत. ते श्रादि अव्य,क्षेत्र, काल अने जावनी थपेदायें चार प्रकारें .तेमज सपर्यवसान कहेतां अंत तेणे सहित ते सपर्यवसित श्रुतते पण तेमज चार नेदें जे. त्यांजव्यथी एक जीवनी अपेक्षायें श्रुतझान, ते सादिश्रने सपर्यवसित . केम के जव्यजीव सम्यक्त्व पामे, तेवारें श्रुत पामे. ते सादिश्रुत. अने वली सम्यक्त्व वमे तिहां, अथवा केवलझान पामे तेवारें नावश्रुत टली जाय, एटले श्रुतनो अंत थाय, तेथी सपर्यवसित, एटले सादि अने सपर्यवसति, ए बेच्नेद व्यथी कह्या.अने सर्वजीवनी अपेक्षायें श्रुत,अनादि तथा अपर्यवसित बे. जेनणी एम कडं न जाय जे था संसारमा सर्वथी पडेलु श्रमुकने श्रुतज्ञान प्राप्त थयुं अथवा अमुकथी श्रुताननो अंत थशे, एम अनादि अनंत कालजणी प्रवाहरू श्रुत पण अनादि अनंत जे. एटले अनादि अने अपर्यवसित ए बे नेद, अव्यथी कह्या. ए रीतें चारे प्रकार श्रुतना अव्यथी कहेवाणा. हवे देत्रथी कहे . त्यां जरत ऐरवतें जेवारें प्र. थम तीर्थ प्रवर्ते तेवारे द्वादशांगरूप श्रुत होय, ते दीवसथी सादि कहेवाय. तेवार पड़ी जे वारे तीर्थविछेद थाय, तेवारें श्रुतविछेद होय, तेमाटे सांत कहेवाय. तथा महाविदेहमांहे तीर्थविछेद न थाय तेथी श्रुतनो पण विछेद न थाय तेथी अनादि अनंत. तथा कालनी अपेक्षायें उत्सप्पिणी अवसप्पिणीकालें त्रीजा श्राराने प्रांते, चोथे अने पांचमे होय. अने हा आरामां विछेद थाय, तेथी सादि, सांत कहीयें. Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३श्न कर्मविपाकनामा कर्मग्रंथ.१ तथा उत्सर्पिणी अवसर्पिणी काले महाविदेहें अनादि अने अनंत जाणवू. अने जावथी जव्यनी अपेक्षायें सम्यक्त्व पामे तेवारें सादि अने केवलज्ञान पामे तेवारें सांत. तथा अजव्यनी अपेदाये कुश्रुत अनादि अनंत बे. ए रीतें सादिश्रुत, अनादिश्रुत तथा सपर्यवसितश्रुत अने अपर्यवसितश्रुत. ए चार नेद पूर्वोक्त नेद साथें मेलवतां बझा मली दश नेद श्रुतज्ञाननो थया. ११ तथा अगीश्रारमुं गमिक एटले सरखा पाठ, लावा, तेणे करी बांध्यु जे श्रुत दृष्टिवाद प्रमुख, ते गमिक श्रुत. १२ बारमुं एनुं प्रतिपक्षी अगमिक श्रुत. ते जिहां पाठ सरखा न होय कालिक श्रुतनी पेरें, ते बारमुं अगमिक श्रुत जाणवू. १३ तेरमुं अंगप्रविष्टश्रुत. ते याचारांगादिक हादशांगीतुं ज्ञान, ते तेरमो नेद. . १४ चौदमुं ते अंगथी बाहेर उपांग, दशवैकालिक, उत्तराध्ययनादिक तथा प्रकरणादिकनुं ज्ञान, ते अंगवाह्यश्रुत. ए चौदमो नेद जाणवो. .. ए रीतें अदरश्रुत, संझी श्रुत, सम्यक् श्रुत, सादि श्रुत, सपर्यवसितश्रुत, गमिक श्रुत, अंगप्रविष्ट श्रुत, ए सात श्रुतना प्रातिपादिक विरोधी सात नेद. जे अनदर श्रुत, असंझि श्रुत, मिथ्या श्रुत, अनादि श्रुत, अपर्यवसित श्रुत, अगमिक श्रुत, अंगबाह्य श्रुत. ए सात नेद मेलवतां चौद नेद श्रुतना कह्या. . तथा अव्य, क्षेत्र, काल, अने नाव. ए चार प्रकारे श्रुतना नेद कहे . त्यां ज. व्यथी पूर्ण श्रुतज्ञानी, श्रादेशे जिनवचनथी सर्वव्य जाणे. क्षेत्रथी सर्वक्षेत्र श्रादेशें जाणे. कालथी श्रादेशे सर्वकाल जाणे, नावथी श्रुतज्ञानी आदेशे सर्वव्यना अनिधेय पर्याय जाणे. एम चार प्रकारें श्रुतज्ञान बे, अने आवरणक्षयोपशम विचित्रतायें अनेक नेद थाय. जे जणी चौद पूर्वधरमांहे एक एकथी अनंतगुण वृद्धि हानीयें करी, चढता पडता गण वलिया होय. ॥६॥ ॥ हवे वीश नेद, श्रुतना कहे . ॥ पजय अस्कर पय सं, घाय पडिवत्ति तहय अणुउँगो ॥ पाहुडपाहुड पाहुम, वतु पुवाय ससमासा॥ ७ ॥ अर्थ-पडाय के पर्याय श्रुत, अस्कर के अदर श्रुत, पय के० पद श्रुत, संघाय के० संघातश्रुत, पमिवत्ति के प्रतिपत्तिश्रुत; तहय के तेमज वली अणुगो के अनुयोगश्रुत, पाहुडपाहुड के० प्राभूतप्राभृतश्रुत, पाहुड के० प्राभृतश्रुत. वनु के वस्तुश्रुत, पुवाय के पूर्वश्रुत, ए दशने वली आगल ससमासा के० समास सहित करीयें एटले पर्यायसमासश्रुत, अदरसमासश्रुत, पदसमासश्रुत,संघातसमासश्रुत, प्रतिप Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मविपाकनामा कर्मग्रंथ. १ ३२ त्तिसमासश्रुत, अनुयोगसमासश्रुत, पाभृतप्राभृतसमासश्रुत, प्राभृतसमासश्रुत, वस्तुसमासश्रुत, ए रीतें ए दश साथै पूर्वोक्त दश मेलवतां श्रुतज्ञानना वीश जेद थाय ॥ इत्यक्षरार्थः ॥ ७ ॥ त्यां सूक्ष्म निगोदि लब्धिपर्याप्तो जीव, तेहने जव प्रथम समयें जेटलो जघन्य कुश्रुत तेथी बीजे समयें जेटलो ज्ञाननो एक विभाग परिछेद अंश वधे, ते प्रथम प्रर्यायश्रुत जाणवुं, तेवा बे चार पर्याय. ते बीजुं पर्यायसमासश्रुत जाणवुं. अकारादि लब्ध्यक्षर अनेक व्यंजन पर्याय सहित जाणवो, ते त्रीजुं अक्षर श्रुत. एवा बे चार लब्ध्यक्षरनुं ज्ञान, ते श्ररसमासश्रुत चोथुं जाणं. तिहां अकारादिक ककारादिक जे बे ते जिन्न निन्न अक्षर संयोगे जिन्न जिन्न श्रर्थना वाचक थाय, ते व्यंजनपर्याय. जिदां अर्थ पूर्ण थाय तेटला अक्षरसमूहनुं नाम पद कहीयें. तेनुं ज्ञान पदश्रुत पांचमुं जाणवुं. एवा घणा पदनुं ज्ञान, ते पदसमासश्रुत बहुं जाणवुं. तथा गत्यादिक अन्यतर मार्गणा द्वारमध्ये एक मनुष्यादिक गतिना जीवनेदनुं ज्ञान, ते संघातश्रुत सातमुं जाणवुं. छाने मनुष्य, तिर्यंच, देवतादिक, एम बे त्रण गत्यादिकना जीवनेदनुं ज्ञान, ते संघातसमासश्रुत श्रमुं जाणवुं. गत्यादिक मार्गणा द्वारमध्यें एक गत्यादिक द्वारमांदे सर्व संसारी जीवना नेद अवतारवानुं ज्ञान, ते प्रतिपत्तिश्रुत नवसुं जाणवुं. एवो बे चार मार्गणा द्वारें जीवभेद विवरे, ते प्रतिपत्तिसमासश्रुत दशमुं जाणवुं. तेमज गत्यादिक मार्गणा द्वार अवलंबीने जीवादिक पदार्थनुं सत्पदप्ररूपणादिक अर्थ कदेवाता द्वार ते मध्ये एक अनुयोग द्वारें निरूपण करवुं. जेम देव पद, एक द जी बता अर्थनो वाचक बे जे अति वस्तुनो वाचक ते पद न होय. जेम खर, श्रृंग, देव. ए बे पद नथी, ते जणी ए प्रति वस्तु न होय. एम बता पदनी प्ररूपणा करवी तथा देवना श्रसंख्याता ने मनुष्य संख्याता द्रव्य प्रमाण बे एम के सूत्रो अर्थ साथै जोडवो, ते श्रगीआरमुं अनुयोगश्रुत जाणवुं. एम घणी जातियें अनुयोग कहेवो, ते बारमुं अनुयोगसमासश्रुत जाणवुं. प्राभृतपाभृत एवे नामे, दृष्टिवादमध्ये अधिकार विशेष बे. जेम अंगमांदे अध्ययनना उद्देशा होय बे. तेम पूर्वमांदे कषायपाहुड, कर्मपाहुड, ते मध्यें अधिकार विशेषे पूर्ण पूर्ण यये पाहुक पाहुड पूर्ण थाय, तेवा एकनुं ज्ञान, ते तेरमुं प्राभृतप्राभृतश्रुत जावं. ने एवां बे चार प्राभृत प्राभृतनुं ज्ञान, ते चौदमुं प्राभृतप्राभृतसमासश्रुत जाणवुं. ४२ Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० कर्मविपाकनामा कर्मग्रंथ. १ तथा घणे पाहुडे पाहुडे एक पाहुम होय. जेम घणे उद्देशे एक अध्ययन होय बे, एवं एक पाहुडनुं ज्ञान, ते पंदरमुं प्राभृतश्रुत जाणवुं. तेवा बे चार प्राभृतनुं ज्ञान, ते शोलमुं प्राभृतसमासश्रुत जाणवुं. ते घणे पाहुडे एक वस्तु एवे नामें अधिकार थाय बे. जेम अध्ययनना समुदायें सुयरकंध थाय बे, एवो एक पूर्वाधिकार ते सत्तरमुं वस्तुश्रुत जाणवुं. अने एवी बे चार वस्तुनुं ज्ञान, ते अढारमुं वस्तुसमासश्रुत जाणवुं. तथा घणी वस्तुयें एक पूर्व होय, एवा एक उत्पादादिक पूर्वनुं जे ज्ञान, ते जंगपीश पूर्वश्रुत जाणवुं तेमज एक उत्पादपूर्व, बीजुं अप्रायणीय, त्रीजुं वीर्यप्रवाद, चोथुं श्रास्तिप्रवाद, पांचमुं ज्ञानप्रवाद, बहु सत्यप्रवाद, सातमुं श्रात्मप्रवाद, आठमुं कर्मप्रवाद, नवसुं प्रत्याख्यानप्रवाद, दशमं विद्याप्रवाद, अगीयारमुं कल्याण, बारमुं प्राणवाद, तेरमुं क्रियाविशाल, चौदमुं लोकबिंदुसार. ए चौद पूर्वनुं ज्ञान, ते वीशमं पूर्वसमासश्रुत जावं. एम श्रुतना वीश जेद थाय ॥ ७ ॥ ॥ हवे ज्ञान प्रविरत्यादि स्वामिसाधर्म्यजणी श्रुतज्ञान, पढी अवधिज्ञान कयुं. तेना व नेद कहे बे. ॥ अणुगामिवमाणय, पडिवाईयर विदा बढ़ा दी || रिजम विलमई मण, नाणं केवल मिगविदाणं ॥८॥ - अणुगामि के० लोचननी पेरें साथै चाले, ते अनुगामि अवधि ज्ञान. वमाणय के० तथा निरंतर वधे, ते वर्द्धमान अवधिज्ञान परिवार के० खावीने पा जाय, ते प्रतिपाति अवधिज्ञान कहीयें. ए त्रणथकी इयरविदा के० इतरविधा एटले प्रतिपक्षीपणे जेद. जेम के अननुगामि, हीयमान अने प्रतिपाति, ए त्रण मेलवतां बहाही के० व नेदें अवधिज्ञान होय. हवे गाथाना उत्तरार्द्धवमे मनःपर्यव तथा केवल ज्ञान कहे बे, रिजम के० रुजु सामान्यपणे जाणे, ते रुजुमति. अने विजलमई के० विस्तारें जाणे, ते विपुलमति. ए रीतें मपनाएं के० मनः पर्यव ज्ञान बे ने केवल मिगविहाणं के० केवलज्ञान ते एकज विधान एटले नेदें जावं. ए बद्धा मली पांचे ज्ञानना एकावन जेद कह्या ॥ इत्यरार्थः ॥ ८ ॥ १ त्यां जे जीवने, जे स्थानकें अवधिज्ञान उपनुं त्यांथी जेटलुं देत्र, चारे दिशातरफ देखे, तेटलुं क्षेत्र ज्यां ज्यां जे जे देनें जाय, त्यांथी आगल आगल तेटलुं तेटलुंज देखे, ए लोचननी पेरें अनुगामिक अवधिज्ञाननो प्रथम ज्ञेद जाणवो. २ थाने जे दाटना दीपकनी पेरें अथवा श्रृंखलाबद्ध दीवाना प्रकाशनी पेरें ज्यां For Private Personal Use Only Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मविषाकनामा कर्मग्रंथ. १ अवधिज्ञान उपनुं त्यांधी चारे दिशायें तेटबुंज देखे, परंतु ते क्षेत्र अतिक्रम्या पली आगल न देखे, ते अननुगामि अवधिज्ञाननो बीजो नेद जाणवो. ३ तथा जे जीवने जेटलुं अवधिज्ञान उपर्नु , ते थकी दिवस दिवस प्रत्ये अध्यवसाय विशुद्ध करी अव्य, देत्र, काल अने जावापेदायें अवधिज्ञान वधतुं जाय, विषय पण वधतो जाय, विशुद्ध थाय. ते त्रीगँ वर्षमान अवधिज्ञान जाणवं.. ४ श्रने जे संक्लेशें करी मलिन थाय, निरंतर हलवे हलवे घटतुं जाय, ते हीयमान चोथु अवधिज्ञान जाणवू. ५ तथा जे अवधिज्ञान याव्यु, नवदये देवता तथा नारकीने जाय. श्रने गुणकये जेम चेलाने काजो उभरतां नावविशुद्धियें अवधिज्ञान उपर्नु तेटलामा इंजनी साथे इंशाणी रीशावी हती, ते इंजे इंशाणी मनावतां देखी ते चेलाने हास्य श्राव्यु; ते संक्लेशें करी अवधिज्ञान गयु. ए पांचमुं प्रतिपाति अवधिज्ञान जाणवू. ए दीपक उलवायानी पेठे एक कालने विषेज निर्मूल थाय.. तथा जे परमावधिज्ञान, केवलज्ञानथी पदेवु अंतरमूहर्त्त अति विशुद्ध श्रावे, ते पली अंतर मुहूर्त्तने श्रांतरे केवलज्ञान उपजे, तेमांहे ते अवधि समाश जाय. जेम तारादिकनां तेज, सूर्यना प्रकाशमांहे समा जाय अने प्रकाश एकला सूर्यनो कहेवाय, तेम अहीं पण बगद्मस्थिक ज्ञान नागं कहेवाय. एकलो केवलालोक कदेवाय. पण झेयविषय जाणवानो विरह न होय तेथी ते बहुं अवधिज्ञान अप्रतिपाति जाणवू. एरीतें अनुगामि, मान, प्रतिपाति. ए त्रण नेदना इतर एटले उपरांग बीजा विरोधिनेद अननुगामि, हीयमान, अने अप्रतिपाति. ए त्रण नेद एका मेलवतां बनेद थाय. १ अवधिज्ञानी अव्यश्री जघन्यपणे अनंत रूपी अव्यने जाणे तथा देखे अने उत्कृष्टथी सर्वरूपी अव्यने जाणे, देखे. एम अव्य विषयन्नेदे अनंता नेद थाय.. २ तथा क्षेत्रथी अंगुलनो असंख्यातमो जाग, विषश्श्राधी मामीने प्रदेशाधिक प्रदेशाधिक क्षेत्र विषश्या वधतां वधतां असंख्यात लोकाकाशदेत्रविषश्या उत्कृष्ट क्षेत्रावधि लगे असंख्यात नेद होय. ३ तथा कालथी जघन्यपणे श्रावलिना असंख्यनागपरिमाण, अतीत अनागतकाल उत्कृष्टपणे तो असंख्यात कालचक्र समय प्रमाणावधिथी मामीने समय समय प्रमाण अतीत अनागत रूपी अव्य विषयिक जाणे, देखे, एम असंख्य नेद थाय. ४ तथा जावथकी जघन्यपणे अनंत जावने जाणे, देखे, अने उत्कृष्टथी. पण अनं. तनावने जाणे, देखे, ते जावावधिज्ञान जाणवू. विजंगझान ते मिथ्यात्वीने होय, ते Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३‍ कर्म विपाकनामा कर्मग्रंथ. १ मा मलिन बे, व सवलुं जाणे, पण ते अवधि ज्ञाननीज जाति बे ते माटे एकत्र जावं. एम अवधिज्ञान, जेदसहित कयुं. दवे जे अवधिज्ञान विकल प्रत्यक्ष, तेम मनःपर्यवज्ञान पण विकलप्रत्यक्ष बे. जेम अवधि बद्मथने दोय तेम मनःपर्यव पण ब्रद्मस्थने होय, एवी सरखारपणे करी, हवे अवधिज्ञान पढी मनः पर्यव ज्ञान कहे बे. ते मनःपर्यवज्ञान, बे नेदें बे. प्रथम रुजु के० सामान्यपणे स्थूलपणे ए पुरुष घट लावु, मूकुं ? एम चिंतव्युं, एवं जे पारका मननुं जाणवुं, ते मनः पर्यवज्ञाननो रुजुमतिनामे प्रथमभेद जावो. तथा विपुल के० विस्तीर्णपणे घणा पर्याय सहित जाणवुं, ते यावी रीतें के एणें चिंतवेलो घट अमुक नगरमां थयेलो, वर्षे रातो, परिमाणे एक, मण पाणीनो समावेश याय एवो, द्रव्येंत्रांबानो, अमुकनो घडेलो, इत्यादिक घणा विशेष सहित पारका मनमां चिंतवेलो घट, तेने जाणे, ते विपुलमतिनामें मनःपर्यवज्ञाननो बीजो भेद जावो. ए बे नेदें मनः पर्यवज्ञान कयुं. ॥ दवे ए एकेकना वली चार चार भेदविशेष कहे बे. ॥ १ प्रथम द्रव्यथकी रुजुमति, मनोवर्गणाद्रव्य अनंतानंतप्रदेशी श्रा जाणे. तेथी विपुलमति बहु प्रदेशीय प्रति सूक्ष्म मनोद्रव्य जाणे. २ बीजुं त्रयी रुजुम तिवालो मनुष्य, क्षेत्रमांहे ती अढी द्वीप लगें तथा उंचुं ज्योतिषीना उपरना तला लगें अने नीचुं डंडिविजय बे त्यां लगें. एटले रत्नप्रजा पृथ्वीना दुक प्रतर लगें एम अढारसें योजनमां रह्या जे संज्ञी पंचेंद्रियजीव तेना मनने जाणे. अने तेथकी अढी अंगुल क्षेत्र अधिक विपुलमति विषय, विशुद्धपणे जाणे बे. ३ काल की जुमतिवालो पल्योपमनो असंख्यानमो जाग छातीत अनागत चिंतव्युं तथा चिंतवशे, तेने जाणे ने विपुलमति तेथकी कांक अधिकेरुं जाणे. ४ जावथी रुजुमति, चिंतवेला द्रव्यना असंख्याता पर्याय जाणे अने विपुल - मति ते अधिक जाणे. एम मनः पर्यवज्ञान कयुं. हवे जेम मनः पर्यवज्ञान, सर्वविरति बते होय, तेम केवलज्ञान पण सर्वविरति ब होय. ए संगते मनः पर्यवज्ञान कह्या पछि केवस ज्ञानकहे बे. तिहां द्रव्यथी रूपी तथा रूपी सर्व द्रव्य जाणे, अने देत्रथी लोक अलोक क्षेत्र अनंतो जाणे. कालथी सवा विषय जाणे, जावथी सर्वगुणपर्याय विष एकरूप शुद्ध निरुपाधि प्रतिपाति सकलज्ञानावरणकयें प्रगट थयो जे शुद्धात्मगुण, सर्व विशेष प्रकाशरूप, ते केवलज्ञान Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मविपाकनामा कर्मग्रंथ. १ ३३३ कहीये, तेहने सर्वपदार्थप्रकाशें करी थावरणरूप उपाधिने अनावें शेयवस्तुने श्रवि. शेषे करी गविहाणं कहेतां एक सरखो ने तेथी ए ज्ञाननो बीजो नेद कोश नथी. - ए रीतें मतिना अहावीश, श्रुतना चौद अथवा वीश, अवधिना , मनःपर्यवना बे तथा केवलज्ञाननो एक, एम सर्व मली पांचे ज्ञानना एकावन नेद अथवा सत्तावन नेद कह्या ॥ ॥ ॥ हवे ए पांचे ज्ञाननां श्रावरण कहे .॥ एसिं जं आवरणं, पडुच्च चस्कुस्स तं तयावरणं ॥ दंसण चन पण निद्दा, वित्तिसमं दंसणावरणं ॥ए॥ अर्थ-- एसिंजं के ए मतिप्रमुख पांच ज्ञान- जे श्रावरणं के रोधक श्राछादन करनारं तेने झानावरणीय कर्म कहीये. जेम पमुच्चवरकुस्स के० आंखनो पाटो, थांख प्रकाशनुं श्रावरण. तेम मतिज्ञानादिकना जाणवाना विषय पदार्थने जे हरकत करे, तं के० ते तयावरणं के० ते झाननु आवरण जाण. दसणचन के दर्शन चारना श्रावरण चार पण निदा के पांच न्नेदें निशा वित्तिसमं के० पोलीा सरखं दसणावरणं के दर्शनावरणीय कर्म जाणवू ॥ इत्यक्षरार्थः ॥ ए॥ ज्ञान पांच प्रकारे तेथी तेना थावरणना पण पांच नेद . तेमां जेम पाटो बांधे थके श्रांखन तेज अवराय, तेम जे कम्मै करी मतिझान अवराय, ते मतिज्ञानावरणीय कर्म कहिये. एवीज रीते जे कम्मै करी श्रुतझान अवराय, ते श्रुनझानावरणीयकर्म कहीयें तेमज जे अवधिझानने थावरे, ते अवधिज्ञानावरणीय कर्म कहीयें. तथा मनःपर्यव झानने आवरे,ते मनःपर्यवझानावरणीय कर्म कहीये. केवल संपूर्णज्ञान थावरे जेम मेघ सर्व सूर्यनी प्रनाने थावरे एवं जे कर्म, ते केवलज्ञानावरणीय कर्म कहीये. . अहीं जीव चेतनप्रकाशखरूप, जीवरूप सूर्य ते केवलझानावरणरूप वादले करी सर्व ढंकाय तो पण अक्षरनो अनंतमो नाग सर्व जीवने उघामो रहे. अहीं श्रुत केवलझान साधारण पर्यवाहर लेवु. जे जणी अनिधेयवस्तुधर्म, ते स्वपर्याय जे अने अननिधेयवस्तुधर्म ते परपर्याय डे अने केवलज्ञानना तो ते अनिधेय, अननिधेय बेहु स्वपर्याय . एम बेहु छानना पर्याय सरखा होय, ते पर्यवादर. तेहनो अनंतमो नाग उत्कृष्टो श्रुतकेवलीने होय अने जघन्य नाग निगोदिया जीवने आहार संज्ञादि चेतनारूप होय. कदापि ते पण ढंकाय तो जीव चैतन्यपणाने अनावें श्रजीव कहेवाय. तेथी ते वादलें करी पण ढांकी न शकायो एवो जे रात्रीदिवस विनागकारी सूर्य तेज सरखो चेतनारूप जीव गुण करड्या कांबला सरखो सहित Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ कर्मविपाकनामा कर्मग्रंथ. देशघाति मतिज्ञानावरणादिक चार प्रकृतियें श्रावरी, तेथी तेने दयोपशमविशेषे न्हाने महोटे अर्डडि प्रसरतां रविप्रकाशनी पेरें ज्ञाननु तरतमपणुं होय. तेमांदे पण एक मनःपर्यवज्ञान, बीजं अवधिज्ञान, ए बेहु ज्ञानना श्रावरणना केटलाएक रसस्पडक, सर्वघातिया, शेष देशघातियापणे ए बेहु क्षयोपशमथी अविरोधनणी दे. शघाति कह्यां. अने केवलज्ञानावरण सर्वघाती होय. ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोइनीय, अंतराय, ए चार घातिकर्म कहीये. एम ज्ञानावरणीयना पांच नेद कह्या. हवे नव नेदसहित दर्शनावरणीय नामें बीजुं कर्म विवरे बे. देखीयें सामान्य प्रकारें रूपें निर्विशेषपणे वस्तुने जेणे करी अथवा देखवो सामान्यरूपें वस्तुनो श्रवबोध ते दर्शन कहीयें. ते एक चकुदर्शन, बीजुं श्रचकुदर्शन, त्रीजुं अवधिदर्शन अने चोथु केवलदर्शन. ए चार नेद अने एक निजी, बीजी निमानिडा, त्रीजी प्रचला, चोथी प्रचलाप्रचला,पांचमी थीनबी.ए पांच निडा पण इंजियावबोधने रुंधे ,तेथी ए पांचने पण दर्शनावरणीयकर्म कहीयें. एम चार दर्शनना थावरण भने पांच निसा मली नव नेद दर्शनावरणीय कर्मना थाय. ते दर्शनावरणीय कर्मनो खनाव (वेत्री के०) पोलीथा सरखो जे. जेम पोलीपायें मार्ग दीधाविना लोक, राजाने मली शके नहीं अने राजा पण कशुं लोकनुं स्वरूप देखे जाणे नहीं, शुजाणे के लोकमांहे सुखी कोण तथा पुःखी कोण ? तथा नलो कोण जे के जूमो कोण ? एवं कांश जाणी शके नहीं; तेवी रीतें चनुप्रमुख दर्शनावरणरूप दरवान पूर थया विना जीवरूप राजा ते घटादिक लोकनुं स्वरूप देखे नहीं. तेने क्षयोपशमें घटादिक लोक, दर्शनस्पर्शन विषय थाय. ते नणी पोलीया समान दर्शनावरण कर्म कयं ॥ ए॥ चस्कूदिहि अचरकू, सेसिदिय उदि केवलदिं च ॥दसण मिद सामन्नं, तस्सावरणं तयं चनदा ॥ पागंतर “दवश् चनदा" ॥१०॥ अर्थ-एक चस्कूदिहि के चकुदर्शन, बीजं अचस्कू के अचनुदर्शन, ते सेसिंदिय के अांखविना बीजां इंजियथकी थयेनुं दर्शन, त्रीजुं उहि के अवधिदर्शन, चोथु केवलेडिंच के० केवलदर्शन, दसणमिद सामन्नं के० ए दर्शन एटखे सामान्यावबोध तस्सावरणं के तेनां चार दर्शनावरण पण तयंचउहा के तेज नामें चार नेदें होय. पाठांतरें हवश्चउहा के० को एक एम कहे जे जे चार नेदें दर्शनावरण होय ॥ इत्यदरार्थः ॥ १० ॥ १.चा के आंख तेणे करी घटादिक पदार्थर्नु सामान्यपणुं देखवू, ते पहेतुं चकु Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मविपाकनामा कर्मग्रंथ. १ ३३५ दर्शन. श्रही लोकांद देखवानो व्यवहार, श्रांखने विषे प्रसिद्ध ले. तेथी तेनुं दर्शन जिन्न कझुं. २ तथा ते चारित्रिय विना शेषेजिय जे श्रवण, नासिका, जीन, स्पशेषिय, तथा नोइंजिय जे मन एणे करी जे शब्दादिक अर्थनो सामान्यावबोध थाय, तथा परजवथी श्रावतां रस्तामांहे अव्यजिय विना पण जे, जीवने सामान्यावबोध होय, ते अचकुदर्शन कहीये. एणे अव्ये जियें करीज लोकांहे देखे . एवो व्यवहार न होय, तेथी ते सर्वनुं एकज, दर्शन बीजुं कडं. ३ अवधि के अव्य, देत्र, काल अने नाव. ए चार मर्यादामांहे रह्यां जे रूपिअव्य, तेना सामान्यांशनो अवबोध, ते अवधिदर्शन त्रीजुं जाणवू. केवल के सर्वप्रव्यनो सामान्यांशनो अवबोध ते केवलदर्शन, निरावर्ण, अप्रतिपाति चोथं जाणवू. हवे दर्शनपदनों अर्थ कहे. सामान्य, विशेष. ए बेहु रूप, पदार्थनां ने तेमाहे सामान्यपणे निराकारोपयोगरूप वस्तुनो अवबोध जाति, गुण, क्रियादिक विशेषपणे रहित धर्मी मात्र विषय करे, ते निर्विकल्परूप अवबोध, ते दर्शन कहीये. ते दर्शनने जे थावरे, रोके, ते दर्शनावरणीय कर्म कहियें. जेम पोली श्रामो होय त्यां खगें लोकने रोकी राखे तेथी ते लोकोनुं स्वरूप राजा पामे नहीं; तेम ए कर्म ज्यां लगे विवर न थापे, त्यां लगे अर्थनो सामान्यपणे अवबोध न थाय. ए चार दर्शन मध्ये जे कर्मदलें करी जे दर्शन श्रवराय, ते नामें श्रावरण चार जाणवां. त्यां प्रथम जे चकुदर्शनने रुंधे, ते चतुदर्शनावरण. बीजु जे अचकुदर्शनने रुंधे, ते अचकुदर्शनावरण. त्रीजु अवधिदर्शननें रंधे, ते अवधिदर्शनावरण. चोथु केवलदर्शनने रुंधे, ते केवलदर्शनावरण जाणवू. एम ए चार आवरण कह्या अने मनने विषे चिंतव्यो अर्थ, विशेषरूपज होय पण अव्यक्तबोध सामान्यरूप न होय, तेथी तेने विषे करे एवं मनःपर्यवज्ञान प. ण तेनुं दर्शन न कह्यु. शेष ज्ञाननां चार दर्शन कह्यां, तेमांहे पण श्रुतज्ञान, मतिपूर्वक होय तेथी मतिज्ञाननां चक्कु ने अच? ए बे दर्शन कह्यां ॥ १० ॥ ॥ हवे पांच निखानु स्वरूप कहे .॥ सुद पडिबोदा निद्दा, निहानिहाय उकपडिबोदा ॥ पयला विविधस्स पयल पयलाय चंकम ॥११॥ अर्थ-सुहपमिबोहा के प्रथम सुखें प्रतिबोध एटले जागवू जे ज्यां ते निदा के Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ कर्मविपाकनामा कर्मग्रंथ. १ निसा कहीये. बीजी निहानिदाय के निजानिला ते कहीये ज्यां उस्कपडिबोहा के० दोहिलो प्रतिबोध एटले जागवू बे, त्रीजी पयला के० प्रचला नामें निझा ते निवविठस्स के उनाने, बेगने थावे, पयल पयलायचंकम के प्रचला प्रचला ते कदिये जे चालतां थकां श्रावे ॥ इत्यदरार्थः ॥ ११॥ निमायें करी इंजियना विषय रंधाय, तेथी समस्त दर्शननो घात थाय, ते जणी सर्व घातिनी प्रकृति कही तथापि मेधे श्रावरित सूर्यनी पेरें अंशमात्र अनावृत रहे बे. तो शब्दादिक सांजले ले. तेमां जे सुखें सादमात्रै करी जागे; ते निघा, जे कर्मप्रकृतिना उदयथी होय, ते कर्मप्रकृतिनुं नाम पण निजा कहीये. कारणे कार्यनो जपचार जाणवो. तथा पुःखे करी धूधणावीने घणा घणा श्राकरा शब्दें करी दोहिलो जगावीयें एहवी निघा, जे कर्मप्रकृतिना उदयथी जीवने आवे, ते कर्मप्रकृतिनुं नाम निजानिमा कहीये. प्रचलायें घूमे प्राणी जेणे, एवी निमा श्रावे, ते निखानुं नाम प्रचला, ते स्थित एटले उत्नाने तथा उपविष्ट एटले बेगने पण आवे एवी निझा, जे कर्मप्रकृतिना उदयथी होय ते कर्मप्रकृतिनुं नाम प्रचला कहीये. प्रचलाप्रचला निजाते कहीये जे हस्तीनी पेरें चालतां हालतां पण श्रावे, तो सुतां बेगं श्रने उना थकां श्रावे, तेनुं तो कहेज शुं ? एवी घणी निमा जे कर्मप्रकृतिना उदयथी श्रावे, ते प्रकृतिनुं नाम प्रचलाप्रचला कही. तथा अश्वनी परें जेवारें श्रश्वने दाणो चरतां कांकरो दाढ वच्चे श्रावे, ते वारें निजामांहे जागे, तथा रणमांहे जागे, ते पण प्रचलाप्रचला निमा कहियें ॥ ११ ॥ दिण चिंतिअब करणी, थीणही अचकि अबला ॥ महुलित्त खग्गधारा, लिदणं वउदान वेअणिअं॥१२॥ अर्थ-पांचमी दिणचिंतिश्रकरणी के० दिवसें चिंतव्या अर्थनी करनारी निझा, ते थीणद्धी कहीयें, श्रद्धचकि के० अर्पचक्रवर्ति जे वासुदेव तेना बलथो अझबला के अर्डबल होय जेमां. महुलित्तखग्गधाग के मधुलिप्त खड्गधारा एटले मधुयें खरमेली तरवारनी धारा सरखी धाराने लिहणंव के चाटवा सरखी शाता अने अशाता एवा उहाउ के बे नेदे वेधणीअं के वेदनीय कर्म कर्वा ॥ इत्यदरार्थः ॥ १२॥ जे निमा श्रावे थके ते पहेलां दिवसमध्ये तथा रात्रिमध्ये पण जागतां जे कार्य चिंतव्युं बे ते कार्य करे, ते थीनही. तथा स्त्यान कहेतां एकठी थक्ष एवी शकिकहेतां यात्मानी शक्ति ज्यां ते स्त्यानार्ड कहीयें तथा गृकि कहेतां ज्यां मननी श्छा एकठी थर ते स्त्यानकि पण कहीयें एवी अत्यंत अशुननिता जे कर्मप्रकृतिना Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मविपाकनामा कर्मग्रंथ. १ ३३७ उदयथी आवे, ते कर्मप्रकृतिनुं नाम पण स्त्यान िस्त्यानकि कहीये. थर्ड चक्री कहेतां चक्रवर्त्तिनुं बल, अने शद्धि तेथकी अर्क बल तथा अर्जी इफि जेनी एटले त्रिखंडनोक्ता वासुदेव, तेना बलथकी अर्ड बल वज्रषजनाराच संघयण वालाने ए निजामांहे आवे तथा बेवहा संघयणवालाने पण ए निजामांहे बमणुं त्रम' जोर वधे. ए नव दर्शनावरणीय कर्मना नेद कह्या. एटले बीजुं कर्म, दर्शनावरण कयु. हवे त्रीजा वेदनीयकर्मनु स्वरूप, नेद, संख्या, कहे . त्यां मधुलिप्त एवी खगनी धारा तेने विहण कहेतां जीने करी चाट, ते सरखं बे प्रकारे वेदनीयकर्म कडं जे. एटले जेम मधुलिप्त खड्गधारा चाटतां प्रथम मीगशनो रस वेदतो थको जीव, सुख माने पण खडधाराथी जीन बेदाय तेथी फुःख पामे. तेम पंचेंजियना रूप शब्दादिक अनुकूल पामी शाता वेदे ते मधु सरखो अने तेनी अप्राप्तें विरह फुःख वेदे, ते जीन बेदन सरखं जाणवू. एम वेदनीयकर्म त्रीजुं बे नेदे कह्यु. उसन्नं सुरमणुए, सायमसायं तु तिरिम निरएसु ॥ मांव मोदणीअं, विहं दसण चरणमोदा ॥१३॥ अर्थ-उसन्नं के० प्राये सुरमणुएसाय के देवताने अने मनुष्यने शातावेदनीयनो उदय होय अने मसायंतु के अशातानो उदय होय. ते क्यां होय ? तोके-तिरिअनिरएसु के तिर्यंचगति अने नरकगतिमांहे प्रायें घणो होय. अने मांव के मदिरानी पेरें मोदणीअं के मोहनीय कर्म जीवने विकल करे, ते विहं के वे नेदें बे, एक दंसण के दर्शनमोहनीय अने बीजुं चरणमोहा के चारित्र मोहनीय ॥ इत्यदरार्थः ॥ १३ ॥ उसन्नं ए देशीय शब्द प्रायिकवाची ने तेथी उसन्नं एटले प्रायें सुर के देवता श्रने मणुए के० मनुष्य ए बे गतिमाहे शातानो उदय होय ते जणी ए बेहु गति पुण्यनी प्रकृति ते माटे एमांहे शातानी बहुलता डे अने क्यारेक स्त्रीवियोगादिकें अशाता पण वेदे तेथी प्राये कयुं अने तिर्यंचगति तथा नरकगति ए बेहु पापप्रकृति ने तेथी अशातावेदनीनो त्यां घणो उदय ने अने तिर्यंचमां कोइएक हस्ती रत्नप्रमुख श्रादर महत्व पामे, तथा नारकी पण श्रीजिनकल्याणिक समयें कांश एक छुःखमंदतायें शाता पण वेदे, तेथी प्रायें शब्द कह्यो. ए रीतें त्रीजुं वेदनीयकर्म बे नेदें कडं. हवे चोथा मोहनीय कर्मनुं स्वरूप तथा नेद कहे . ए कर्मनो मदिरा जेवो स्वजाव . जेम मद्यपान कत्या पली जीव विकल थाय तेम मोहनीयना उदये जीव Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मविपाकनामा कर्मग्रंथ. १ पोतानुं हित न समजे, कदापि समजे तो पण मोहें करी न शके, ते मोहनीयकर्म बे प्रकारे कहे . ___ एक दर्शन एटले सहहणारुचिरूप त्यां जीव मुंजाय. जेम तापना जोरथी पथ्य रुचे नहीं, तेम मिथ्यात्वना उदयथी शुद्धदेव, शुद्धगुरु, शुद्धधर्म, जे श्रात्महितकारी ने ते रुचे नहीं. कुगुरु, कुदेव ने कुधर्म पुर्गतिना दायक जे ते रुचे, एवी रुचि जेना उदयथी होय, ते दर्शनमोहनीयकर्म कहीयें. . तथा जे कर्मना उदयथी पोतानां हितकारी जे धर्मध्यानादिक तेने आचरी न शके, जेम परवश पड्यो मनुष्य, पोतार्नु हित करीन शके; एवो क्रियाविपर्यास जेणे करी होय, ते चारित्रमोहनीय कर्म बीजुं जाणवू. ॥ १३ ॥ दसणमोहं तिविहं, समं मोसं तहेव मिबत्तं ॥ सुई अ६ विसुद्ध, अविसुई तं दवइ कमसो॥ १४ ॥ अर्थ- दसणमोहं के ते मांहे दर्शनमोहनीय तिविहं के त्रण नेदें कहे जे. एक सम्मं के० सम्यक्त्वमोहनीय, बीजं मीसं के मिश्रमोहनीय तहेव के तेमज त्रीजें मिछत्तं के मिथ्यात्वमोहनीय ते सुद्धं के शोध्युं पुंज ते सम्यक्त्व, अविशुद्धं के अर्द्धविशुद्ध पुंज ते मिश्र अने अविसुरूं के० अणशोध्यु पुंज ते मिथ्यात्व, तं के० ते हवश् के होय, कमसो के अनुक्रमें ॥ इत्यदरार्थः ॥ १४ ॥ , तथा जेवी वस्तु जेवा धर्मे करी सहित ने तेवीज विश्वासपूर्वक जाणे, तेने दर्शन कहीये. तिहां मुंजावे विकल करे तेणे संदेह, विपर्यय, मूढतायें तत्व परखी न शके, ते दर्शनमोहनीय कर्म त्रण नेदें बे, ते कहीयें बैयें. १ जेम मदनकोडवा, जेने खाधे मीणो चढे, तेने खांझी, तुश उतारी, बाणपाणी देशोधी ते कोजवाथी विशेष प्रकारें मादकता न होय, तेम जीवने विकल करे एवां जे मिथ्यात्वनां दल, ते पण त्रण करण प्रयोगें एटले करणना त्रण प्रकार-एक यथाप्रवृत्तिकरण तेहने विषे जे मनना परिणाम उजला थया, तेथी घणेरा जजला थाय ते अपूर्वकरण; तेथी पण घणा परिणाम उजला थाय, ते अनिवृत्तिकरण; ए करण, ते मनना परिणाम विशेष .तथा उपशमसम्यक्त्वें करी शोध्यां तेनो चोगणि, त्रण गणी, बेगणिजे रस टाली शेष एक गणीथा मात्र रससहित राख्या, ते दलद्यु जीव तत्वनी परीक्षा विषे मुंजाय नहीं, पण यात्मस्वनावरूप उपशमिकदायिकसम्यक्त्व तेने उदयें न होय. तथा सूक्ष्मपदार्थने विषे देशशंकायें सम्यक्त्वें मेल उपजावे. ते जणी ते शुझदलनु नाम सम्यक्त्वमोहनीय कडं. Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मविपाकनामा कर्मग्रंथ. १ २ अने जे मिथ्यात्वदल, अणबड्या मदनकोजवानी पेरें अविशुद्ध दल जे जिहांथी बेठाणी मात्र रस रह्यो, ते बीजुं मिश्रमोहनीयकर्म. ३ तेम जेहवो बांध्यो हतो, तेहवोज जे चोगणी, त्रिगणी, बेगणीश्रा रस सहित अनुपहत सर्व घाति रस तत्वसदहणा विपर्यासनुं करनार, तुष सहित अणखांड्या मदनकोजवानी पेरें उन्मादजन्य कर्मदल, ते त्रीजुं मिथ्यात्वमोहनीयकर्म. १ तथा शोध्यु दल ते जेम चसमा दृष्टितेजने थावरतां पण सूक्ष्म अर्थे दृष्टिपहरावे, तेम जीवने तत्वरुचि ठहरावे, ते सम्यक्त्वमोहनीयकर्म. २ तथा अऊ विशुद्ध एटले अर्डखांड्या अर्डबड्या एवा मदनकोजवानी पेरें विकारजन्य. कांश्क कार्य करे, कांश्क कार्य न करे जेथी तत्वरुचि न होय श्रने श्रतत्वरुचि पण न होय, एवी मिश्ररुचि उपजावे, ते बीजं मिश्रमोहनीयकर्म. ___३ तथा अशुद्धपुंज, मदनकोऽवानी पेरें तथा धतुरानी पेरें दृष्टिने फेरवे, तेणे करी तेहने दृष्टियें अबतो वस्तुधर्म प्रतिनासे. जेम धोला शंखने पीलो जाणीयें, तेम उज्ज्वल जिनमत तेने मलिन देखे अने मलिन एवा जे कुमार्ग, तेने उज्ज्वल देखे, ते त्रीजें मिथ्यात्वमोहनीयकर्म. ए मिथ्यात्वमोहनीयादि त्रण बे. __ अहीं जे सम्यक्त्वमोहनीयादिक प्रकृति ते कारण. तेणे करी तत्व विषयिणी शुद्धमिश्र, अने श्रशुधरुचि जीवनी होय ते कार्य. एम कारण ते अव्य, अने कार्य ते नाव. ए विवदायें एक सम्यक्त्व, बीजुं मिश्र, त्रीजें मिथ्यात्व. ए त्रण मोहनीय, अव्य नावथी जाणवी. कारण ते अव्यकर्म, काय ते नावकर्म, अव्यकर्म केवली जाणे अने अव्यकर्मथी चेष्टादिक थाय ते नावकर्म, ते पणे पण जाणीयें ॥ १४ ॥ ॥ हवे तत्वार्थसदहणा ते सम्यक्त्व कहीयें, ते माटे तत्व कहे जे. ॥ जिअ अजिअ पुल पावा, सव संवर बंध मुक ॥ . निफरणा जेणं सद्दहरु तयं, सम्म खगाई बहुनेअं॥१५॥ अर्थ- जिश्र के जीवतत्वना चौद नेद, अजिअ के अजीव तत्वना चौद नेद, पुल के पुण्यतत्वना बेंतालीश नेद, पाव के पापतत्वना व्याशी नेद, थासव के थाश्रवतत्वना बेतालीश नेद, संवर के संवरतत्वना सत्तावन नेद, बंध के बंधतत्वना चार नेद, मुरक के मोदतत्वना नव नेद, निझारणा के निरातत्वना बार नेद, जेणं के जेहने उपष्टंने सदहश् के सदहे तयं के तेनुं नाम सम्मं के सम्यक्त्व ते खंगाई के दायकादिकें करी बहुन्नेयं के बहु नेदें ॥ इत्यदरार्थः ॥ १५॥ १ त्यां प्रथम जीवतत्व कहे . पांच इंजिय, त्रण बल, एक वासोवास ने श्रायु. Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० कर्मविपाकनामा कर्मग्रंथ. १ ए दश द्रव्यप्राण तथा उपयोगरूप जावप्राणधारी लोकाकाशप्रदेश प्रमाण, प्रदेशात्मक, ज्ञानदर्शनखनाव. द्रव्यार्थिकनयें नित्य, अने पर्यायार्थिकनयें अनि त्यपरिणामि 5व्य. व्यवहारनयें कर्मनो कर्त्ता, जोक्ता, अने निश्चयनयें शुद्धचित्पर्यायनो कर्त्ता, निजस्वरूपनो जोक्ता. औदयिक, औौपशमिक, क्षायिक, मिश्र, पारिणामिका दिजावमेलापकरूप, ब्रद्मस्थने चेष्टादिलिंगगम्य, केवलीने प्रत्यक्ष शरीरप्रमाण, अरूपी जीवद्रव्य, जिनवचनें सदहवुं ए जीवतत्व, अने एथी विपरीत निजमतिकल्पनायें जाणे, ते तत्व कहीयें. ते एक, जीव तत्वना चौद नेद बे. २ जे जीव ने जीवने उपजोग्य चेतनारहित गति, स्थिति, वर्त्तना, छाने काश दानसमर्थ, एवा धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, काल, आकाश, अने पुलरूप जीवने तथाप्रकारे सद्दहयुं, ते बीजुं जीवतत्व. ते चौद दवे. जीवतत्वना पण ३. ते जीवनुं दान, दयालुता, सरागसंयमादिक शुनपरिणाम, ते जावपुण्य; अने शातावेदनीयादिक शुभकर्मप्रकृति ते द्रव्य पुण्य. ए पुण्यप्रकृतिना बेंतालीश नेद बे. ४ तथा मिथ्यात्वादि उदयें उपहत जीवने मलिन परिणाम, ते जावपाप अने . मिथ्यात्वादिक कर्मप्रकृति, ते द्रव्यपाप. ए पापतत्वना व्याशी नेद बे. ५ तथा मिथ्यात्वाऽविरत्यादिक औौदयिकनावपरिणत जीव, ते जावाश्रव. तन्निमित कर्मदलनुं याववुं, ते द्रव्याश्रव. ए श्राश्रवतत्वना बेतालीश नेड़ बे. ६ कर्म्म रंधवा समर्थ क्षायिक क्षयोपशमिका दिकनावें करी जे जे अंश, निरुपाधिक था. निरुपाधिक कहेतां स्वाभाविक ते जावसंवर छाने तेथे करी जे जे खानवनुं रुंध, ते द्रव्यसंवर. ते पांच समिति, त्रण गुप्ति, बाबीश परीसहनो जय, दश यतिधर्म, बार जावना, ने पांच चारित्र. ए बद्धा मली सत्तावन नेदें बे. ७ तथा शुद्धात्मने प्रतिकूल कषायादि संबंधजन्य कर्मबंध हेतुची कणता, ते जावबंध. ने तेणे करी श्रात्मप्रदेशें कर्मदल बंधाय ते द्रव्यबंध चार दें. कर्म निर्मूलवा समर्थ शुद्धात्मानो अनुभव, ते जावमोक्ष. तेणे करी जे जीवप्रदेशनुं सर्वशें कर्म्मप्रदेशथी मूकाववुं, ते द्रव्यमोक्ष, नव ने बे. कर्मशक्तिने हीन करे, एवा तपसंयमसंवरजावनाजन्य शुद्धोपयोग शक्ति, ते जाव निर्जरा; तेणे करी जे जे कर्म्मप्रदेशनुं श्रात्मप्रदेशथी खेरखुं; ते द्रव्य निर्झरा. ते बार दें तप, ते निर्जरा. जेणेकरी ए पूर्वोक्त नव पदार्थ जेम श्री जिनेंद्रदेवें जांख्या द्रव्यार्थिकनयें नित्य, पर्यायार्थिक अनित्य, निश्चयनयें जिन्न, व्यवहारनयें जिन्न, सामान्यनयें एक, For Private Personal Use Only Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मविपाकनामे कर्मग्रंथ.१ ३४१ विशेषनये अनेक, ज्ञाननयें शेय, क्रियानये हेयोपादेय, एम नयनिदेपासहित परस्पर सापेक्ष, अनंतधर्मात्मक, कथंचित् उत्पन्न, कथं चिहिनष्ट, कथंचिद्धव. एम त्रिरूप एकसमये सदहे, ए जिनवाणी रुचे, ते एक दायिकसम्यक्त्व. बीजं औपशमिकस. म्यक्त्व, त्रीजुं दायोपशमिकसम्यक्त्व इत्यादिक बहु नेद ने, ते देखामीयें बैयें. - तत्वार्थनी सदहणाएं एकविधसम्यक्त्व तथा आत्मानो शुझझानादिक परिणाम अथवा शुद्धपरिणति आत्मा, ते निश्चें सम्यक्त्व, अथवा वीतराग सम्यक्त्व, ते निश्चयसम्यक्त्व अने सरागसम्यक्त्व ते व्यवहारसम्यक्त्व, अथवा कुगुरु, कुदेव ने कुमागनो त्याग अने सुगुरु, सुदेव अने सुमार्गनुं श्रादरवू, एम व्यवहार सम्यक्त्व बे नेदें बे. तथा अनंतानुबंधीया चार कषाय अने दर्शनमोहनीय त्रण. ए सात प्रकृतिना हयथी प्रगटी जे तत्वरुचि ते दायिकसम्यक्त्व अने ए सात प्रकृतिने उपशमावे, ते औपशमिकसम्यक्त्व अने ए सात प्रकृतिनो रसोदय थाव्यो ते खपाव्यो शेष जदय नथी श्राव्यो, ते क्षायोपश मिक. एने यांतरे सम्यक्त्वमोहनीयोदय जपष्टं नजन्य तत्वरुचि ते वेदकसम्यक्त्व. एम त्रिविध सम्यक्त्व जाणवं. तथा जि. नोक्त करे, ते कारकसम्यक्त्व. तेहने रुचीयें करी रोचकसम्यक्त्व. प्ररूप करी दीपावे, ते दीपकसम्यक्त्व. एम अनेक प्रकारे सम्यक्त्व जाणवू ॥ १५॥ मीसा न रागदोसो, जिणधम्मे अंतमुहु जदा अन्ने ॥ नालिअर दीवमणुणो, मिदं जिणधम्म विवरीअं ॥१६॥ अर्थ- मीसा के मिश्रमोहनीयना उदयथी जिणधम्मे के जिनधर्मने विषे नरागदोसो के राग द्वेष न होय. अंतमुहु के अंतरमुहूर्तसुधीनो काल जहा के जेम नालिअरदीवमणुणो के नालिकेरछीपना मनुष्यने अन्ने के अन्नने विषे राग द्वेष न होय तेनी पेरें जाणवू. अने मिळं के मिथ्यात्व ते जिणधम्म विवरीअं के० श्री जिनधर्मथकी विपरीत जाणवू ॥ इत्यदरार्थः ॥ १६ ॥ मिश्रमोहनीयना उदयथी जीवने श्रीसर्वज्ञानाषित धर्म उपरें अन्यंतरराग न होय एटले श्रीवीतराग देवें कडं, ते तेमज पण अन्यथा नहीं. ए सरखं बीजें कोई जीवने हितकारी नथी, एवो अत्यंतर चित्तप्रतिबंध ते पण न होय तथा ए धर्म खोटो एम निंदारूप अत्यंतर अरुचिरूप द्वेष पण न होय: जिनधर्मने विषे मिश्रजाव होय तेनो काल अंतरमुहर्त प्रमाण बे. जेटलो व्यंजनावग्रहनो काल श्वासोश्वास पृथक्त्व प्रमाण तेटलो जाणवो. ते उपरांत मिथ्यात्व तथा सम्यक्त्व पामे. अहीं दृष्टांत देखाडे जे. जेम अन्न के० धान्यरसवती उपरें रुचि जे अत्यंत प्रा. Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ कर्म विपाकनामे कर्मग्रंथ. १ दर एटले ते विना नज चाले एवो राग पण न होय तथा अरुचि एटले दीतुं न सुहाय, एवो द्वेष पण न होय. ते कोने न होय ? तो के ज्यां घणां नालियेरनां वृक्ष वो जे द्वीप त्यानां लोक, सदा नालियेरादिक फलथी उदरवृद्धि करे बे परंतु ते द्वीप निवासी अन्न, केवारें पण दीव्रं नथी, तेथी तेनो स्वाद लह्याविना अन्न उ पराग पण नथी उपजतो तेम द्वेष पण नथी उपजतो. तेम मिश्र मोहनीय सैद्धां तिकमतें मिथ्यात्वथी मिश्र यावे पण सम्यक्त्वथी मिश्रे नावे, तेथी तेणे सम्यक्त्व रस लह्या विना जिन धर्मने विषे रुचि तथा अरुचि न होय, ए जाव. मिथ्यात्व तेने कहीयें, जेने उदये जिनोक्त पदार्थथी विपरीत पदार्थ सदहे. जेम धतुरो खाधाथकी जीव, विकल घाय, तेथी सुवर्ण न होय, पण सुवर्ण करी सहदे, माने तथा तापना जोरथकी जीवने छान्न न जावे, अपथ्य रुचे, तेम ए मिथ्यात्वी जीवने राग, द्वेष, मोहादिक दोषवंतने विषे देवरुचि थाय ने रंज तथा परीग्रहवंतने गुरु करी सहदे. खमतिकल्पितधर्म सदहे. त्यां १ साधुने साधु करी माने, २ साधु साधुकरी माने, पूजे, ३ कांत्यादिक धर्मने अधर्म माने, ४ स्नानहोमादिक धर्म धर्म करी माने, ए छाजीवने जीव करी माने, ६ जीवने जीव करी माने, 9 गतानुगतिकउन्मार्गने मार्ग करी सद्ददे, सम्यक ज्ञानादिक मोक्षमार्गने उन्मार्ग करी सद्दढ़े, " कर्मरहितने कर्मसहीत करी माने, १० सकम्मी कुमादिकने परमेश्वर करी माने, ए दश मिध्यात्व ते विपरीतश्रद्धान ते मिथ्यात्वमति, तेने दर्शनमोहनीय कहीयें. ॥ हवे पच्चीश चारित्र मोहनीयनी प्रकृति कहे बे. ॥ सोलस कसाय नवनो, कसाय डुविदं चरित्त मोहणियं ॥ ण अपच्चकाणा, पच्चरकाणाय संजला ॥ १७ ॥ अर्थ- सोलसकसाय के० शोल कषाय मोहनीय, नवनोकसायं के० नव नोकषायमोहनीय, डुबिच रित्तमोहणीयं के० ए बे नेदें चारित्र मोहनीयना पच्चीश नेद, के अनंतानुबंधीचा चार, अप्पञ्चरकाणा के० अप्रत्याख्यानावरणीयना चार, पच्चकाणाय के० प्रत्याख्यानावरणीयचार, संजलणा के० संज्वलनकषाय चार. ए शोल कषायमोहनीय ॥ इत्यर्थः ॥ १७ ॥ त्यां प्रथम शोल कषायमोहनीय कहे बे. कष के० संसार तेना आय के लाज होय जेना उदयश्री जीवने, ते जणी एनुं नाम कषाय ते क्रोध, मान, माया अते लोन. ए चार अनंतानुबंधादिक प्रत्येंकें चार चार नेदें बे. एम चार चोक शोल नेद. एणे कर For Private Personal Use Only Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मविपाकनामे कर्मग्रंथ. १ ३४३ जीव संसारमाहे रहे तथा हास्यादिक उ अने त्रण वेद, ए नवनें नोकषाय एवं नाम कही. जे जणी एथी कषाय उपजे; हास्यथी क्रोध तथा राग जपजे तथा रागादिकथी हास्यादिक होय; एम कषायने समीपे कार्यताये तथा कारणतायें होय. ते जणी एने नोकषाय कहीये. एम जीवने अहिताचरण प्रवृत्तिहेतु अने हिताचरणरोधक, ए बेहु क्रियाविपर्यास करे, ते माटे ए चारित्रमोहनीयना उत्तरनेद पच्चीश होय. ॥हवे ए पच्चीश नेदनां स्वरूप कहे .॥ तिहां सूत्र ते सूचनमात्र होय तेथी एक पदांश कहे थके पण श्राद्म पद बेवं. जेम नीम कहेवा थकी नीमसेन समजाय .तेम अण एवं पद कह्या थकां अनंतानुबंधीया कषाय लीजें, जे माटे जेनो अंत नहीं तेने अनंत कहीयें एटले अनंत संसार तेहना अनुबंधी कहेतां वृद्धि करनारा जे कषाय, ते अनंतानुबंधी कषाय जाणवा. कदाग्रहरूप युक्तिये बुद्धिशून्यपणे एकांतवादिनी रुचि टले नहीं. ए अनंतानुबंध। रागयुक्तियुक्तपणे जिनमत उपरें अरुचिरूप वेष, ते अनंतानुबंधी. तेणे बाह्यवृत्तियें जो पण कषायोदय मंद देखाय ले तो पण युक्तिहीन स्वमतपक्षपातिने नियमा अनं. तानुबंधीयानो उदय जाणवो. अहीं श्रीशीलंगाचार्य ए चार अनंतानुबंधी अनेत्रण मिथ्यात्वमोहनीयादिक, एवं सात प्रकृति सदहणा फेरवे ने एम कडं , ते माटे ए सातने दर्शनमोहनीयमां गणी जे अने शेष एकवीश प्रकृति चारित्र मोह. नीयनी कहीये. विशेषार्थीयें श्री श्राचारांगनी टीका जोवी. ए अनंतानुबंधी चार कषाय कह्या. जेना उदयथी अप्पच्चरकाणा के अप्रत्याख्यान एटले देशविरतिपणुं तेने पण आवरे, रोके, तो सर्व विरतिपणुं होयज केम ? एवी क्रोधादिक प्रकृतिनुं नाम अप्रत्याख्यानावरणीय कषाय चार जाणवा. आत्माने प्रवृतिमार्गथी प्रतिकूल करवो ते प्रत्याख्यान सर्व विरतियात्मगुणरूप जाणवू. तेना उदयने जे थावरे, श्राववा न दिये, ते प्रत्याख्यानावरण क्रोधादिक चार कषाय जाणवा. सं के० थोडंशं परीसहादिकें करी यतिने ज्वले के दीपे, पठी तरत विसराल थाय ते संज्वलन, क्रोध, मान, माया अने लोज जाणवो. एम चार कषायना शोल नेद कह्या. ॥ हवे मुग्धजनने एनो नेद जणाववाने गाथा कहे . ॥ जाजीव वरिस चनमास, परकग्गा निरय तिरिय नर अमरा॥ सम्माणु सवविरई, अदखाय चरित्त घायकरा ॥ १७ ॥ अर्थ-जाजीव के प्रथम जावजीव सुधी रहे, ते अनंतानुबंधी कषाय कहीयें: Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ कर्मविपाकनामे कर्मग्रंथ.१ बीजो अप्रत्याख्यानी कषाय ते वरिस के एक वर्ष सुधी रहे, त्रीजो प्रत्याख्यानी कषाय, चउमास के चार मास सुधी रहे, चोथो संज्वलनकषाय ते पकग्गा के पंदर दिवस सुधी रहे, पहेलो निरय के नरकगतिहेतु, बीजो तिरिय के० तिर्यंचगतिहेतु, त्रीजो नर के मनुष्यगतिहेतु, चोथो अमरा के देवगतिहेतु, पहेलो सम्म के सम्यक्त्वनो घात करे, बीजो अणु के देशविरतिनो घात करे, त्रीजो सब विरई के सर्वविरतिनो घात करे, चोथो अहखायचरित्त के यथाख्यात चारित्रनो घात करे. ए रीतें चार पूर्वोक्त पदार्थना घायकरा के घातना करनारा जाणवा. __ जावजीव सुधी जे क्रोधादिक चारे कोई रीतें निवृत्ते नहीं, एवा दुःसाध्य, ते अनंतानुबंधीया क्रोधादिक चारे अनुक्रमें लेवा. जे कषाय, एक वर्ष सुधी घणा उपायें को पण रीते निवृत्ते नहीं ते अप्रत्याख्यानावरण क्रोधादिक चार कषाय कुःसाध्य जाणवा. जे चार महीना सुधी निवृत्ते नहीं, ते प्रत्याख्यानावरण क्रोधादिक चार कषाय जाणवा. जे पंदर दिवस सुधी उत्कृष्टा रहे, ते सुसाध्य क्रोधादिक चार कषाय संज्वलना कहीयें. हवे संक्लेशतारतम्य कहे जे. अनंतानुबंधीयाने उदयें जीवने नरकप्रायोग्यकर्म बंधाय, अप्रत्याख्यानावरण कषाय चारने जदयें जीवने तिर्यंचप्रायोग्यकर्म बंधाय, प्रत्याख्यानावरणकषाय चारने उदयें जीवने मनुष्यगतिप्रायोग्य कर्म बंधाय,संज्वलनाकषाय चारने उदयें जीवने देवगति प्रायोग्य कर्म बंधाय. हवे एना घातगुण कहे बे. __ अनंतानुबंधीया कषायनो उदय, सम्यक्त्वनो घात करे. अप्रत्याख्यानावरण कषायनो उदय, अणुव्रतनो घात करे, प्रत्याख्यानावरण कषायनो उदय, सर्व विरतिनो घात करे. संज्वलनाकषाय चारनो उदय, यथाख्यातचारित्रनो घात करे. एना उदयथी यथाख्यातचारित्र नावे, केम के उपशांतमोहगुणगणुं आव्युं ते पण संज्वलनाने उदयें जाय. तथा सरागसंयमने विषे पण देशनंगरूप अतिचार उपजावे, जे जणी सर्वविरतिने विषे अतिचार, ते संज्वलनाने उदय होय. अने शेष बार कषायने उदयें अनाचाररूप मूलग्नंग थाय. तथा अंहीं जावजीव, वर्ष, चारमास, पदा, इत्यादिक कालमान कह्यु तथा नरकादिकगतिप्रायोग्यवंध कह्यो, ते सर्व मुग्धजन समजाववाने प्रायिक जाणवू. अन्यथा बाहुबलीने एक वर्षसुधी मान रह्यं पण ते थकी चारित्रनो सर्वघात न थयो ते जणी संज्वलनो मान तथा प्रसन्नचं राजर्षिनी पेरें अंतरमुहुर्त्तमात्र पण अनंतानुबंधी रहे, तेथी अनियम जाणवो ॥१७॥ Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म विपाकनामा कर्मग्रंथ. १ ॥ दवे बाह्यदृष्टांत देखावापूर्वक कषायस्वरूपनेद कहे बे. ॥ जल रेणु पुढवि पवय, राईसरिसो च विदो कोदो ॥ तिणसलया कos, सेलइंनोवमोमाणो ॥ १९ ॥ अर्थ - जल के० जलरेखासरखो, रेणु के० धूलिरेखासरखो, पुढवि के० माटीनी रेखासरखो, पवय के० पाषाणनी राईस रिसो के० राइसरखो, चविहो के० चार नेदें कोहो के क्रोध होय. तिणसलया के नेत्रनी बडीनी पेरें नमे, ते संज्वलनो कहीयें. कठ के० काष्टनी पेरें प्रत्याख्यानी, हित्र के हामनी पेरें पुर्नम श्रप्रत्याख्यानी, सेलचं जोवमो के० पाषाणस्तंजनी पेरें नमे नहीं, ते अनंतानुबंधी माणो के० मान जावो ॥ इत्यक्षरार्थ ॥ १७ ॥ ३४५ जेम पाणी मां लीक करतां पालथी मलती जाय, एम जे क्रोधें करी मनादिक विघट्यो ते तरत मले, ते संज्वलनो क्रोध. जेम धूलिमांहे लीक कीधे जे धूल जूदी याय, ते केटलाएक कालें वायुविशेषें पाठी मले, ए रीतें जांगु मन, उपायें मले, ते वीजो प्रत्याख्यानक्रोध जाणवो. सूका तलावमां माटी फाटी, ते मेघ वरसवार्थी मले तेम जेमन जांगु होय ते घणे उपायें काले काले मले, ते त्रीजो अप्रत्याख्या निर्ज क्रोध. तथा पर्वत फाट्यो ते कोइ रीतें न मले, तेम जेहनुं मन जांगु ते कोइ उपायें न मिले, ते चोथो अनंतानुबंध क्रोध. एम चार प्रकारें क्रोध कह्यो, जे माटे विघटनस्वभाव क्रोध बे. ते सरखाइयें, चार रेखाने दृष्टांतें करी चार भेदें क्रोध समजाव्यो. अहीं कषायमोहनीयप्रकृति ते द्रव्यक्रोधादिक ते पांच वर्ण, पांच रस, बे गंध, चार स्पर्श, तेना शोल नेद. अने तेहना उदययी थया जे जीवना मलिन अध्यवसायरूप जावक्रोधादिक ते वर्ण, गंध, अरस ने स्पर्श. तेना असंख्याता नेद थाय जे माटे रसबंधहेतु अध्यवसाय स्थानक असंख्याता कह्या बे. एम क्रोध चार का. हवे मानना चार भेद कहे बे. तिसलया के० नेत्रनी बमी ते जेम सुखें नमें, तेम जे मानने उदयें जन्यदव निर्गुण पक्षपातरूप सुखें सनुरूपदेशमात्रे नमे, वाल्यो वले, ते माननुं नाम संज्वलनो मान जाणवो. जेम सूकां काटने तैलादिक चोपमी दुःखे नमावीयें तेम जे मानना उदयवंत जीवने घणा प्रयासें वालीयें, मार्गसन्मुख श्रणीयें, ते बीजो प्रत्याख्यानी मान जाणवो. जे अत्यंत घणे कष्टें हानडी पेरें नमावीयें, मार्गसन्मुख करीयें तेवो दुःसाध्य, ते त्रीजो प्रत्याख्यानी मान जाणवो. जेम पञ्चरनो स्तंभ कोइ रीतें नमे नहीं तेम जे कदाग्रह, कोश्पण उपायें न ढांडे, ते चोथो अनंतानुबंधी मान जाणवो. एम मानमि ૪ For Private Personal Use Only Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ कर्मविपाकनामा कर्मग्रंथ. १ थ्यानिनिवेशरूप अनमनस्वनाव, तेथी ए तिणसलयादिकशुं नाम्य पुर्नाम्य नेदें चतुविधमान कह्यो. नावथी एना असंख्य नेद कहीये. ॥ हवे माया तथा लोजना नेद कहे .॥ मायावलेदि गोमु, त्ति मिंढसिंग घणवंसमूलसमा ॥ लोदो दलिद्द खंजण, कद्दम किमिराग सारिबो ॥ २० ॥ अर्थ- माया के माया ते अवलेह के वंशनी नोति सरखी, गोमुत्ति के बलद मुतरे ते सरखी, मिंदसिंग के0 मेंढाना शिंगमा सरखी वांकार, घणवंसमूलसमा के कठिन वांसना मूल सरखी वांकी माया डे; लोहो के संज्वलना लोननो रंग हलिद्द के० हलदर सरखो जाणवो, खंजण के सरावलानो मेल कदम के कईमपास सरखो, किमिराग के करमजीपाटनो रंग ते सारिबो के समानरंग अनंतानुबंधी लोजनो जाणवो. प्रत्यक्षरार्थ ॥२०॥ मायावक्रतास्वजाव थापणा अनिप्रायथी जिन्न वचन कायचेष्टा देखाडवी. ते माया जाणवी; त्यां कां सुसाध्य फुःसाध्यपणाने विषे दृष्टांत कहे जे. जेम अवलेही के वंशादिक बोलतां बोती नीकले, तेनुं वांकाशपणुं जेम करग्रहण मात्र टली जाय, तेम जेनी माया सुखे टले, ते संज्वलनी माया जाणवी. तथा जेम गो के० बलद चालतो मूतरे, तेनी वक्रता धूल मांहे सूकाया पली टली जाय, तेम जे उपायें करी जे माया बुटे, ते प्रत्याख्यानी माया जाणवी. तथा मेंढाना शिंगमानी वक्रता अत्यंत घणा कष्टें कोश्एक टाले, तेम जेना मननी वांका दोहली टले, ते त्रीजी अप्रत्याख्यानी माया जाणवी. तथा वांसनुं मूल तेनी वक्रता कोइ पण उपायथी टले नहीं, तेम अनंतानुबंधिनी मायाने उदयें करी जे जीवने वक्रता होय, ते घणे उपदेशे तथा घणा उपायें टले नहीं. ते अनंतानुबंधी माया जाणवी. एटले दृष्टांतपूर्वक चार प्रकारनी माया कही. हवे लोजना चार नेद कहे . जे खोजना उदयथी जीवने धनादिक परिग्रह उपरें ममत्वनो रंग होय, परंतु हलदरना रंगनी पेरें सुखे उताख्यो जाय, ते लोननाम संज्वलनलोन जाणवो. तथा खंजन के० सरावलानो चीकणो मेल जेम उपायें टले, तेम जे लोजना उदयथी थयो जे धनादिकनो रंग, तेने जपायें टाली शकाय, ते प्रत्याख्यानी लोन जाणवो. तथा कादव जे गामाना पश्मानो कचरो वस्त्रे लागो, ते घणा साबू प्रमुख अव्ये करी पुःखें उतरें, तेम जे लोजना उदयथी एवो पुःखसाध्य परीग्रह उपर रंग होय, ते त्रीजो अप्रत्याख्यानी लोन जाणवो. तथा किरमजी पाटनो रंग, कोश् पण रीतें उतास्यो न जाय, ते जेम लोजना उदयथी थयो जे धना. Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मविपाकनामा कर्मग्रंथ. १ ३४७ दिक नवविध परिग्रहनो रंग,जे को रीतें उतास्यो न जाय, ते अनंतानुबंधी लोज. ए लोजनो स्वनाव रंजन ले. जे नणी परप्रव्यसाथै तन्मय थावे करीने श्रात्माने रंगे. एम शोल कषायमोहनीयना जेद, दृष्टांतपूर्वक कह्या ॥२०॥ ॥ हवे नव नोकषायमोहनीनू नेदस्वरूप कहे . ॥ जस्सुदया हो जिए दास र अरश सोग जय कुबा ॥ सनिमित्त मन्नदा वा, तं इद दासा मोदणिअं॥२॥ अर्थ-जस्सुदयाहोजिए के जेना उदयथी जीवने होय हास के हांसी, रश्के रति वेदे, अर के० अरति नग, सोग के शोक जूरवादिक, जय के नय बीक, कुला के जुगुप्सा ते उगंछा ते सनिमित्त के सकारण, निमित्तसहित वा केस तथा अथवा अन्नहा के अन्यथा एटले कारण विना होय तं के० ते श्ह के० अहीं हासाश्मोहणिकं के हास्यादिक मोहनीयकर्म जाणवू ॥ इत्यदरार्थः॥१॥ तेमां पण जे कर्मना उदयथी तथा विध नांडचेष्टादिक देखवे करी सकारण तथा कारण विना सहेजें हांसी श्रावे, ते प्रथम हास्यमोहनीय. तथा जे प्रकृतिना उदयथी सकारण तथा कारण विना इंडियानुकूल विषय पामे, ते रति एटले ते वस्तुने विषे अंतरचित्तप्रतिबंध होय, ते बीजं रतिमोहनीय. तथा इंडियना प्रतिकूल विषयसाधक अर्थ मन्याथकी जे चित्तोद्वेग उपजे ते सकारण, ते विना सहेजें उठेग, उपांपलो उपजे ते निष्कारण, ए त्रीजु अरतिमोहनीय जाणवू. तथा जे प्रकृतिना उदयथी इष्टवियोगादिक कारण मले थके तथा कारण मल्या विना पण रुदनादिक होय, ते चो) शोकमोहनीय जाणवू. तथा जे प्रकृतिना उदयश्री आ लोकने विषे पुष्ट मनुध्यादिक देखीने बीहे, ते इहलोकनय. तथा इष्ट सर्प व्याघ्रादिक तथा नूत प्रेतादिकथी बीहे, ते बीजो परलोकलय. तथा जयना हेतु जे चोरादिक, ते अव्य बेश जशे ? एम बीहे, ते त्रीजो श्रादाननय. तथा जे वीजली तथा बंदूकना शब्दश्री अणचिंतव्यो नय थाय, ते चोथो अकस्मात् नय. पांचमो दरिद्धीने श्राजीविकानो जय. बहो मरवानो नय. सातमो अपयश थवानो जय. ए सात लय तथा बीजा पण जय सकारण तथा निःकारण उपजे, ते पांचमुं नयमोहनीय जाणवु. तथा जे कर्मना उदयश्री पुगंध, करूप पदार्थ देखी सकारण अन्यथा निःकारण सूग उपजे, तेथी नाक मचकोडे, धुंके, इत्यादिक चिन्ह करे, ते बहुं फुगंठाजुगुप्सामोहनीयकर्म जाणQ. एम हास्य, रति, अरति, शोक, नय ने पुगंडा. एब नाकषायमोहनीयना नेद कह्या ॥१॥ Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४७ कर्मविपाकनामा कर्मग्रंथ. १ ॥ हवे त्रण वेदनो कषाय कहे . ॥ पुरिसिबि तउन्नयं पश्, अहिलासो जवसा दवइ सो उ ॥ थी नर नपुं वेद, फुफुम तण नगर दाहसमो॥१२॥ अर्थ-पुरिसि के पुरुषनी ला, लि के स्त्रीनी श्छा, तनयं के पुरुष तथा स्त्री बेहु पक्ष के प्रत्ये अहिलासो के० अनिलाष मैथुनसंज्ञारूप जवसा के जे कर्मने वशें जीवने हवश् के हाय सो के० ते 7 के तु शब्द परस्परनी अपेक्षायें की पुनःशब्दनो वाचक . थी के स्त्रीवेद, नर के पुरुषवेद, नपुं के नपुंसकवेद, ए वेद के वेदना उदयथी विषयनो ताप, फुफुम के कोउदाह, तण के तृणदाह श्रने नगरदाहसमो के नगरदाह सरखो, एम अनुक्रमे देवा ॥ इत्यक्षरार्थः ॥ २॥ वेद एटले जे कर्मना उदयथी जीवने पुरुषनुं दर्शन, स्पर्शन, आलिंगनादिक विष अजिलाष उपजे, जेम पित्तना जोरथी मिष्टान्न नावे, तेम पुरुष सोहामणो लागे, ते प्रथम स्त्रीवेदनोकषायमोहनीयकर्म. तथा जे कर्मप्रकृतिना उदयथी जीवने स्त्रीनुं दर्शन, थालिंगन, मैथुनादिकनी श्छा थाय, जेम श्लेष्मना जोरे करी खटाश जावे, ते पुरुषवेदनोकषायमोहनीय बीजुं जाणवं. तथा जे कर्मना उदयथी जीवने स्त्री अने पुरुष, ए बन्ने वेदनो अनिलाष उपजे; जेम पित्तश्लेष्मने जोरें करी खाटा, खारा उपर अनिलाष उपजे, तेम जे उजयवेद विषयिणी श्वारूप, ते त्रीजुं नपुंसकवेदनोकषायमोदनीय जाणवू. हवे ए वेदमाहे कया वेदनो विषय, केवो तीव, मंद होय ? ते दृष्टांतपूर्वक कहे बे. स्त्री, पुरुष, अने नपुंसक. ए त्रण वेदना उदयने विषे अनुक्रमें कोनो अग्नि, तृणनो अग्नि, अने नगर दाह, ते सरखा जाणवा. एटले स्त्रीवेदना उदयथी जीवने विषय, फुफुम एटले गणानो गोर तेनो अग्नि एटले कोज. ते जेम जेम खोरीयें, तेम तेम बलतो जाय. तेम, जेम जेम पुरुषना करस्पर्शादिक होय, तेम तेम स्त्रीने विषयानि वधतो जाय, ए प्रथम स्त्रीवेद. तथा पुरुषवेदने उदयें तृणखलाना अग्निनी पेरें अनिलाष थाय. जेम तृणाग्निनी ज्वाला, एकवार उठे पण पनी तरत समार जाय, तेम पुरुष पण स्त्रीसेवन करवाने उतावलो थाय, पण सेव्या पनी तरत समार जाय, ए बीजो पुरुषवेद जाणवो. तथा जेम नगर बलतां उकरडादिक लाग्या ते घणा दिवस सुधी बले, तेम नपुंसकवेदोदयें थयो जे विषय, ते कोश् रीतें निवृत्ते नहीं, ते त्रीजो नपुंसकवेद. एम वेदने कदेवे नव, नोकषाय कह्या, तेथी अहावीश मोहनीयनी प्रकृति कही ॥ २५ ॥ Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ए कर्मविपाकनामा कर्मग्रंथ. ॥ हवे पांचमुं श्रायुःकर्म तथा बहुं नामकर्म कहे . ॥ सुर नर तिरि निरयाऊ, दडिसरिसं नामकम्मचित्तिसमं॥ बायाल तिनवविहं, तिउत्तरसयं च सत्तठी॥२३॥ अर्थ-एक सुर के देवायु, बीजुं नर के मनुष्यायु, त्रीजु तिरि के० तिर्यंचायु, चोथु निरया के नरकायु ते श्रायुःकर्मनो हमिसरिसं के० इडिनासरखो स्वनाव जाणवो. अने नामकम्मचित्तिसमं के नामकर्मनो स्वनाव, चितारा सरिखो, ते बायाल के बेंतालीश नेदे तथा तिनवविहं के त्राणुं नेद पण नामकर्मना जाणवा, अने तिउत्तरसयंच के त्रण अधिक एकसो नेद पण होय. वली सत्तही के शमशठ नेद पण नामकर्मना . ॥ इत्यदरार्थः ॥२३॥ तेमध्ये जे नामकर्मना उदयथी सुर कहेतां देव प्रायोग्यगत्यादिक हेतु जे सुरजोगर्नु नाजननूत, ते प्रथम सुरायु. नर कदेतां मनुष्यगति प्रायोग्यजोगनुं नाजननूत, ते बीजुं मनुष्यायु. तिरि कहेतां तिर्यंचगति प्रायोग्यनोगर्नु जाजननूत, ते त्रीजें स्चिायु. नरकगतिप्रायोग्यत्नोगनुं नाजनन्नूत, ते चोथु नरकायु. जेम हडि के काष्ठनो खोडो, तेमांहे रोक्यो जीव ते निकली शके नहीं. हमि नांगे तेवारें निकले। तेम गतिनो आयुष्योदय श्राव्यो ते जोगव्या विना त्यांथी जीव निकली शके नहीं परंतु श्रायु पूर्ण नोगवी रह्या पली सुखें निकले. ए श्रायुःकर्मनो स्वनाव जे. एम थायुःकर्मना चार नेद कह्या. __ हवे नामकर्मना नेद कहे . नामकर्मनो स्वन्नाव, चिताराना सरखो बे. जेम चितारो विचित्र वाने की विविध श्राकारना हस्ती, घोडा, मनुष्यादिकनां चला तथा जूंमां रूप श्रालेखे, तेम नामकर्म पण देव, मनुष्य, तिर्यंचादिक अनेकरूप, नाना संस्थान, नानावर्ण घडे. ते नामकर्मनी एक अपेक्षायें बेतालीश प्रकृति पण कहीये. तथा अवांतर स्वनावनी अपेक्षायें त्राणुं पण नामकर्मना नेद कहीये. एकसो अडतालीश सर्व प्रकृति सत्तायें लेतां, तथा कर्मस्तवसित्तरीने मतें तथा कर्मप्रकृतिने मतें पांच बंधनना पन्नर नेद लेखवतां एकसो त्रण प्रकृति नामकर्मनी, एकसो ने अहावन प्रकृति सत्तानी अपेक्षायें थाय. तथा बंध, उदय, अने उदीरणानी अपेक्षायें नामकर्मनी प्रकृति शमशह ने जाणवी ॥३॥ ॥ हवे प्रथम बेंतालीश नेद कदेवाने पिंडप्रकृति चौद कहे . ॥ ग जाइ तणु उवंगा, बंधण संघायणाणि संघयणा ॥ संगण वाम गंध रस, फास अणुपुछि विदगगई॥२४॥ अर्थ- एक गश् के गतिनाम, बीजुं जा के जातिनाम, त्रीजुं तणु के शरीर Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० कर्म विपाकनामा कर्मग्रंथ. १ नाम, चोथुं उवंगा के० उपांगनाम, पांचमुं बंधण के० बंधणनाम, बहुं संघाय पाणि के० संघातननाम, सातमुं संघयणा के० संघयण नाम, आठमुं संवाण के० संस्थाननाम, नवमं वस के० वर्णनाम, दशमुं गंध के गंधनाम, अगी आरमुं रस के० रसनाम, बारमुं फास के स्पर्शनाम, तेरमुं पुवि के० श्रनुपूर्वीनाम, चौदमुं विहगगई के० विहायोग तिनाम, नाम कवां ॥ इत्यर्थः ॥ २४ ॥ १ देवता मनुष्यादिक पर्यायनुं कारण, ते गतिनामकर्म. २ एकेंद्रियादिक जीवपर्यानुं कारण, ते जातिनामकर्म ३ श्रदारिक शरीर पामवाना तथा परिणामवाना हेतु, ते शरीरनामकर्म. ४ हस्तादिकपणे पुत्र परिणामवाना हेतु, ते उपांगनामकर्म. ए दारिकादिक पुलनुं परिणामवानुं मांहोम हे जोवानुं हेतु जे कर्म, ते बंधननामकर्म. ६ पांच शरीरना पुफलनो निचय करवानी हेतु जे कर्म प्रकृति, ते संघातननामकर्म. तेणे करी आपणा शरीरयोग्य कर्म पुलस्कंधनो राशि एकतो करीयें. जेम खीलादिर्केकरी कमाडादिकना संधि दृढ करीयें, तेम शरीरने विषे हाम संधिनुं दृढ करवानुं हेतु, ते संघयणनामकर्म शरीरनो शुभ तथा अशुन आकार, ते संस्थान तेनुं हेतुनूत जे कर्म, ते संस्थाननामकर्म. ए शरीर पुनलें कृम, गौर वर्णादि यवानुं देतुनूत जे कर्म ते वर्णनामकर्म. १० शरीरें सुगंध दुर्गंधपणुं यावानुं हेतुनूत जे कर्म ते गंध नामकर्म. ११ शरीरें तिक्तादिक रस थवानी हेतुनूत जे कर्म प्रकृति, ते रसनामकर्म. १२ जे कर्म थी शरीरमां शीत, उह्मादिक स्पर्श होय, ते स्पर्शनामकर्म. १३ जे कर्मना उदययी वक्रगतिथी रारों ताएया बलदनी पेरें उत्पत्तिस्थानकरूप गमाणे जीव यावे, ते आणुपूर्वी नाम कर्म. १४ जे कर्मथी जीवने शून तथा अशुन चाल होय ते विहायोगति नाम कर्म. पूर्वे गतिनाम कयुं तेथी निन्नप जणाववाने एनुं विहायोगति नाम कहीयें. पिंडपयमित्ति चउदस, परघा जस्सास याय वुजो ॥ अगुरुलहु तिच निमिणो वघाय मित्र ग्रहपत्ते खा ॥ २५ ॥ अर्थ - पिंडपय डित्तिचउदस के० ए पूर्वोक्त पिंडप्रकृति चौद कहीयें. परघा के० पराघातनामकर्म, उस्सास के० २ उद्दासनामकर्म, आयव के० ३ तपनामकर्म, उतोत्रं के० ४ उद्योतनामकर्म, अगुरुलहु के० ५ अगुरुलघुनामकर्म, तिल के० ६ तीर्थकरनामकर्म, निमिण के० ७ निर्माणनामकर्म, उवघाय के० ८ उपघातनामकर्म, मिश्र - पत्ते के० एम ए आठ प्रत्येक प्रकृति जाणवी ॥ इत्यक्षरार्थः ॥ २५ ॥ जे मध्ये एकेक प्रकृतिमांहे चार तथा पांच तथा ब, एम अवांतर जेद होय. जेम For Private Personal Use Only Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५१ कर्मविपाकनामा कर्मग्रंथ. १ गतिमाहे चार नेद, जातिमाहे पांच नेद. एम प्रकृतिनो पिंक एटले समुदाय, ते सामान्य विवदायें चौद अने विशेषापेक्षायें पंच्चोतेर तथा पांसठ जे. १ जे कर्मथी परनी शक्ति हणीयें एटले परें गंज्यो न जाय, ते पराघातनामकर्म. २ जे कर्मथी श्वासोडास पूर्ण करे, एवो लब्धिवंत जीव होय, ते उडासनामकर्म. ३ जे कर्मने उदयें जीवनुं शरीर, उष्णप्रकाशवान् होय, ते आतपनामकर्म. ४ जे कर्मने उदयें अनुष्णप्रकाशवंत जीवनुं शरीर होय, ते उद्योतनामकर्म. ५ जे कर्मना उदयथी जीवन शरीर, अत्यंत स्थूल पण न होय तथा अत्यंत कृश पण न होय, ते अगुरुलघुनामकर्म. ६ जे कर्मना उदयथी आठ प्रातिहार्या दिक चतुर्विध संघस्थापनादिकतीर्थकर पदवी लहे, ते तीर्थकरनामकर्म. ७ जे कर्मना उदय जीवना अंगोपांग गमना गम आवे, पण फेरफार न थाय, ते निर्माणनामकर्म. जे कर्मना उदय थकी जीव, पोतानां श्रधिके तथा उडे अंगें करी पीडा पामे, ते उपघातनामकर्म. ए पाठ प्रत्येक प्रकृति कहीये. कारण के ए मांहे बीजा विशेष नेद कोश न पामीयें, ए प्रकृति एकलीज होय ॥ २५॥ तस बायर पछत्तं, पत्तेय थिरं सुन्नं च सुनगं च ॥ सुसरा इजा जसं तस, दसगं थावर दसं तु श्मं ॥२६॥ अर्थ- १ तस के त्रसनामकर्म, २ बायर के बादरनामकर्म, ३ पत्तं के० पर्यासनामकर्म, ४ पत्तेय के प्रत्येकनामकर्म, ५ थिरं के० स्थिरनामकर्म, ६ सुन्नंच के० शुजनामकर्म, सुनगंच के सौनाग्यनामकर्म, सुसर के सुखरनामकर्म. ए श्रश्जा के आदेयनामकर्म. १० जसं के यशःकीर्तिनामकर्म. ए तसदसगं के० सदशक जाणवो अने थावरदसंतुश्मं के स्थावरदशक, एमज, ए आगली गाथामां कहेशे ॥ इत्यदरार्थः ॥२६॥ १जे कर्मना उदयथी जीव, स्थावर फीटीने त्रस थाय; हाले, चाले, ते त्रसनामकर्म. २ जे कर्मने उदय जीव, सूक्ष्मशरीर मूकी बादर चकुर्याह्य शरीरने पामे, ते बादरनामकर्म. ३ जे कर्मना उदयथी जीव, श्रारंनेली पर्याप्ति सर्व पूर्ण करे, ते कर्मप्रकृतिनुं नाम पर्याप्तनामकर्म. ४ जे कर्मने उदयजीव, साधारण शरीरने मूकी पोताना एक शरीरनो खामी थाय, ते कर्मनुं नाम प्रत्येकनामकर्म. ५ जे कर्मने उदयें जीवना दांत, हाड प्रमुख दृढबंध होय, ते स्थिरनामकर्म. ६ जे कर्मना उदय जीवनी नानी उपरलो नाग जे मस्तकादिक अंग ते शुन होय, परने लागे तोपण ते फुःख न माने, ते शुजनामकर्म. जे कर्मने उदयें जीव, उपकारादिक कख्या विना तथा संबंध विना पण लोकने वलन होय, ते सौजाग्यनामकर्म. ७. जे कर्मने उदय जीवनो कोकीला Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ कर्मविपाकनामा कर्मग्रंथ. १ दिकनी पेरें मधुर स्वर होय, ते सुस्वरनामकर्म. एए जे कर्मने उदयें जीवनुं वचन सर्वने मानवा यादवा योग्य होय, ते आदेयनामकर्म. १० जे कर्मना उदयश्री जीवनी यश, कीर्त्ति, सर्वत्र प्रसरी जाय, ते यशःकीर्त्तिनामकर्म. ए त्रसादिक दश प्रकृतिनुं नाम, त्रसदशक कहीयें, ए संज्ञा बे. हवे स्थावरादिक दश प्रकृतिनो समुदाय ते स्थावरदशक कहीयें, ते इम कहेतां ए हवे आागल कहेशुं, ते जाणवुं ॥ २६ ॥ यावर सुहुम अप, सादारण अथिर प्रसून जगाणि ॥ इस्सर पाइजा जस, मिनामे सेरा वीसं ॥ २७ ॥ अर्थ-१ थावर के० स्थावरनामकर्म, २ सुदुम के० सूक्ष्ानामकर्म, ३ अपऊं के० अपर्यातनामकर्म, ४ सादारण के० साधारणनामकर्म, ५ अथिर के अस्थिरनामकर्म, ६ शु के नामकर्म, ७ डुनगाणि के० दौर्भाग्यनामकर्म, दुसर के० दु:स्वरनामकर्म, ए अणाइऊ के० श्रनादेयनामकर्म, १० अजस के० अपयश अपकीर्तिनामकर्म, मिनामे के० ए नामे स्थावरदशक से के० ते श्रावीसं के० इतर जे त्रसदशक, ते साथै मेलवतां वीश प्रकृति थाय. ए रीतें नामकर्मनी बेंतालीश प्रकृति इ एटले पिंडप्रकृति चौद, प्रत्येक प्रकृति आठ तथा सदशक ने स्थावरदशक - एवं बेतालीश नेद यया ॥ इत्यक्षरार्थः ॥ २७ ॥ श् जे कर्मना उदयश्री जीव, त्रस फीटी स्थावर थाय, हाली चाली न शके, ते स्थावरनामकर्म. २ जे कर्मना उदयथी घणां शरीर मदयां थकां पण चतुर्ग्राह्य न याय, एवं सूक्ष्म शरीर जीव पामे, ते सूक्ष्मनामकर्म. ३ जे कर्मने उदयें जीव श्रारंजेली पर्याप्त पूरी करया विना मरण पामे, ते पर्याप्तनामकर्म. ४ जे कर्मने उदयें अनंत जीवनुं साधारण एक शरीर होय, निगोदिया जीवमां प्रत्येक शरीर न पामे, ते साधारण नामकर्म. ५ जे कर्मने उदयें जीव लोहीलाले इत्यादिक शिथिल श्रावयव होय, ते स्थिरनामकर्म. ६ जे कर्मने उदयें जीवना पग प्रमुख अशुन अंग होय जे बजाने लागे थके ते प्रीति पामे, ते अशुभनामकर्म. ७ जे कर्मने उदयें जीव, अवगुण कस्याविना तथा वैरादिक संबंध विना पण परने दुर्लन लागे, ते दौर्भाग्यनामकर्म. जे कर्मने उदयें जीवनो स्वर, खर, मार्जार अने उंट सरखो मूंगो होय, ते दुःस्वरनामकर्म. ७ जे कर्मने उदयें जीवनुं वचन जलुं होय तो पण कोइ यादर करी माने नहीं, ते अनादेयनामकर्म. १० जे कर्मने उदयें जीवनुं अपयश निंदा, सर्वत्र विस्तरे, ते अपयश अपकीर्त्तिनामकर्म. ए रीतें नामकर्मने विषे स्थावरदशक तेथी इतर केहेतां एनी प्रतिपक्षीभूत त्रसादिक दशप्रकृति सहित करतां त्रसविंशतिक कहीयें. ए डावीश प्रत्येक प्रकृति कहीयें ॥ २७ ॥ ง Ե Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मविपाकनामा कर्मग्रंथ. १ ३५३ ॥ हवे ग्रंथलाघव करवाने चतुष्कत्रिकादिक संज्ञा जाणवानो बीजो प्रकार कहे .॥ तसचन थिरबकं अथि, रबक्क सुहमतिग थावरचनकं ॥ सुन्नगतिगाइ विनासा, तयाइ संखादि पयडीदिं ॥ ॥ अर्थ-तसचउ के त्रस चतुष्क, थिरबकं के स्थिरादिक प्रकृति, अथिरबक के० अस्थिरषट्रक, सुहमतिग के सूदमत्रिक, थावरचजकं के स्थावरचतुष्क, सुजगतिगाइ के सौजाग्य त्रिक. इत्यादिक विनासा के० विकल्पविनाषा संज्ञा, तयार के० ते ते प्रकृतिथी श्रादे दे जेटली संखाहि के० संख्या कहीयें, तेटली पयमीहिं के प्रकृति लश्य ॥॥ - त्रस, बादर, पर्याप्त ने प्रत्येक. ए चार प्रकृतिनी संज्ञा त्रसचतुष्क कहीये. स्थिरनाम, शुजनाम, सोनाग्यनाम, सुखरनाम, श्रादेयनाम, यशःकीर्तिनाम, एक प्रकृतिनो समुदाय, तेनी संज्ञा स्थिरषट्रक कहीये. अस्थिरनाम, अशुजनाम, दौर्नाग्यनाम, फुःवरनाम, अनादेयनाम, अयशःकीर्त्तिनाम, ए प्रकृतिना समुदायनी संज्ञा अस्थिरषट्रक कहीयें. सूदमनाम,अपर्याप्तनाम, साधारणनाम, ए त्रण प्रकृतिनो समुदाय, तेनी संज्ञा सूक्ष्म त्रिक कहीये. स्थावरनाम,सूदमनाम, अपर्याप्तनाम, साधारण नाम, ए चार प्रकृतिनी संज्ञा स्थावरचतुष्क कहीयें. सोनाग्यनाम, सुस्वरनाम, ने आदेयनाम, ए त्रण प्रकृतिनीसंझा, सौनाग्य त्रिक कहीयें. इत्यादिक ए शास्त्रमाहे विनासा के विशिष्टप्ररूपण संझा जाणवी. तेथी संकेत पामे थके शास्त्रज्ञान सुगम थाय. जे प्रकृतिथी जेटली संख्यावाची शब्द कह्यो, ते प्रकृतिथी तेटली प्रकृति गुणतां ते ते विनाषा होय, जेम त्रसथी मांमी चार प्रकृति खेतां त्रसचतुष्क कहीयें, एम सर्वत्र समजी लेवु. ए शास्त्रनुं रहस्य जाणवू ॥ २७ ॥ वाचन अगुरुवहु चन, तसा ति चउर बक्क मिच्चाइ॥ श्य अन्नावि विनासा, तया संखादि पयडीदि ॥ श्ए॥ अर्थ-वचन के वर्णचतुष्क, अगुरुलहुचन के अगुरुलघुचतुष्क, तसा के प्रसादिछिक, ति के त्रसत्रिक, चनर के त्रसचतुष्क, बैंक के त्रसषट्रक, मिच्चाइ के० इत्यादिक श्य के एह, अन्नावि के अनेरी पण विनासा के संझा जाणवी. श्रागल सूत्रमादे जे प्रकृतिनुं नाम कदेशे, तयाश्संखाहिपयमीहिं के० त्यांथकी मांडीने तेटली संख्यायें प्रकृतिनी विचाषा जाणवी ॥ इत्यदरार्थः ॥ २५ ॥ Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ कर्मविपाकनामा कर्मग्रंथ. १ ज्यां वर्णचतुष्क सामान्यें कयुं होय, त्यां १ वर्णनाम, २ गंधनाम, ३ रसनाम, ४ स्पर्शनाम, ए चार प्रकृति लीजें. गुरुलघुचतुष्क कर्तुं होय, त्यां १ अगुरुलघुनाम, २ उपघातनाम, ३ पराघातनाम, ४ उद्दासनाम, ए चार प्रकृति लीजें. १ त्रसनाम, २ बादरनाम, ए बेने सद्विक कहीयें. त्रस, बादर अने पर्याप्त, ए त्रण प्रकृतिनुं नाम, त्रसत्रिक कहीयें त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, ए चार प्रकृतिनुं नाम, त्रसचतुष्क कहीयें. स, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर अने शुज, ए त्रषट्क कहीयें. एम जेटली प्रकृति त्रसादिकथी जोइयें, तेटली संख्या लेतां तेहवो संकेत, पंमितें जाणवो. श्रीपद्धत्रिक ज्यां कयुं होय, त्यां थीद्धी, निद्रानिद्रा अने प्रचलाप्रचला, ए ऋण प्रकृति लेवी, ए विशेष डे. पाउलो अर्थ अक्षरार्थमां लखायो बे ॥ २५ ॥ वे बेतालीश नामकर्मप्रकृति कही. ते मांहे गत्यादिक चौद पिंडप्रकृति कही वी प्रत्येक प्रकृति कही. एम एकत्र बेतालीश, तेमध्यें चौद पिंडप्रकृतिना उत्तर जेद पांशठ आणवाने अनुक्रमें एकेक प्रकृतिनी उत्तरनेदसंख्या कड़े बे. एम सर्व चौद पिंडप्रकृतिना सर्व उत्तर नेद मर्ली विशेषापेक्षायें पांशठ नेद होय, विशेष द गुणतां सामान्य नेद चौद न लेवा. जे जणी विशेषनयें सामान्य न दे - खाय ने सामान्यें विशेष न देखाय. ॥ हवे चौद पिंप्रकृतिनी उत्तर प्रकृति कड़े बे. ॥ गाई उक्कमसो, चड पण पण ति पण पंच व बक्कं ॥ पण डुग पण ८ चन डुग, इ उत्तर ने पासठी ॥ ३० ॥ अर्थ- श्राईक्कमसो के० गत्यादिक चौद पिंडप्रकृतिना अनुक्रमे उत्तरनेद कहे . प्रथम गति चल के० चार भेदे बे. जाति पण के० पांच नेदे बे. शरीर पण to पांच जे बे. उपांग ति के० त्रण नेदे बे. बंधन पण के० पांच ने बे. संघातन पंच के० पांच नेदे बे. संघयण व के० ब नेदे बे. संस्थान बक्कं के० ब नेदे बे. वर्ण पण के० पांच नेदे बे. गंध युग के० बे भेदे बे. रस पण के० पांच नेदे बे. स्पर्श अह के० आठ ने बे. यानुपूर्वी च के० चार भेदे बे. विहायोगति डुग के० बे जेदे बे. इ उत्तरने अपणसी के० एम सर्व चौद पिंडप्रकृतिना सर्व मली विशेष नेद गुणतां सामान्य न दिसे, ए रीते उत्तर जेद पांशठ थाय ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ ३० ॥ डवीस जुआ तिनव, संते वा पनरबंधणे तिसयं ॥ बंध संघाय गढ़ो, तणूस साम व चक्र ॥ ३१ ॥ For Private Personal Use Only Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म विपाकनामा कर्मग्रंथ. १ ३५५ अर्थ-ए पूर्वोक्त पांशठ प्रकृतिने या पराघातादिक, दश सादिक अने दश थावरादिक, एवं घडवी सजुया के० अहावीश प्रत्येक एटले बूटी प्रकृति जेमांदे उत्तर नेद न होय, एवी प्रकृति तेणे करी युक्त करीयें, तेवारें सर्व मलीने नामकर्मनी सत्ताये तिनवइ के० त्राएं प्रकृति थाय, ए एकसो ने अमतालीश प्रकृतिनी सत्तानी अपेकायें थाय. संते के संति ए प्राकृत शब्द होवाथी सत्ता वाचक बे एथी सत्कर्मनी प्रतीतिनो बोध थाय बे. वा शब्द, विकल्पना अर्थवालो बे एटले एनाची व्यवहित संबंधी योजना थाय बे एटले अथवा पनरबंधणे के० एनी साथे पांच बंधनने स्थानके विशेष अपेक्षाये पंदर बंधण लेखवतां मेलवीयें, तेवारे पिंडप्रकृतिना पांशव उत्तर भेदने स्थानके पंच्चोतेर थाय, एटले दश वधे. तेमां वली अहावीश प्र त्येक प्रकृति मेलवीयें तेवारे सिद्धांतने मते, कम्मपयमीने मते, सर्व मली तिसयं ho एकसो ने त्रण प्रकृति नामकर्मनी थाय, तेवारे सर्व कर्मनी मली एकसो ने - हान प्रकृति सत्ताये होय. हवे नामकर्मनी शडशव प्रकृति एवी रीते थाय, ते he a. वारे दारिकादिक पंदर बंधण के० बंधन तथा औदारिकादिक पांच संघाय के० संघातन, ए वीश प्रकृति, तेनुं गहो के० ग्रहण ते तणूसु के० केवल पांच शरीरसाज विवदिये ग्रहण करीयें, एटले ए वीश जेद जूदा न गणीयें, केवल पांच शरीरमांदे पोत पोतानां बंधन, संघातन जेलवीयें, जे माटे प्रदेशबंधन करतां पिंडप्रकृतिaाग, ते बंधन संघातनो जूदो न होय, शरीर नामकर्ममांदे श्रावे, ते कारणमा ए वी प्रकृति शरीरमांदेज घ्यावी, ते बी करवी. तथा सामसवसचऊ के० सामान्यपणे वर्ण, गंध, रस ने स्पर्श, ए चार गणतां एटले वर्ण, गंध, रस, स्पर्शना उत्तर द वीश थाय बे. तेनी त्यां सामान्यपणे चार प्रकृति लेवी, बाकीनी वर्णादिक शोल प्रकृति बी करवी अने वीश पूर्वली, ए रीते बद्धी मली बत्रीश प्रकृति, ते पूर्वोक्त एकसो ने त्रण प्रकृतिमांधी कहाढीयें, तेवारे शेष शडशठ प्रकृति नामकर्मनी रहे ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ ३१ ॥ 3 ॥ वली तेहीज कहे . ॥ सत्ती बंधो, दए नय सम्म मीसया बंधे ॥ बंधुदए सत्ताए, वीस वीसऽवस्मयं ॥ ३२ ॥ अर्थ- सत्ती के० एम शमशह नामकर्मनी प्रकृति ते बंधोद के बंधन अपेक्षायें तथा उदयनी अपेक्षायें अने उदीरणानी अपेक्षायें होय. वली सम्म के० सम्यक्त्वमोहनीयाने मीसाबंधे के० मिश्रमोहनीयनो बंध, नय के० न होय. माटे बंध के बंधें वीश के० एकसो ने वीश प्रकृति अने उदए के० उदयें डुवीस के० For Private Personal Use Only Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ कर्मविपाकनामा कर्मग्रंथ.१ एकसो बावीश प्रकृति तथा सत्ताए के सत्तायें अध्वमसयं के० एकसो ने अहावन प्रकृति होय. इति ॥ ३ ॥ ___ एम एज शडशह नामकर्मनी प्रकृतिनो ज्यां बंध तथा उदय तथा उदीरणा तथा चशब्दथकी बीजा पण कारणे त्यां शडशठ लेवी, तथा बीजां सात कर्ममाहे मोहनीयकर्मनी अहावीश प्रकृति बे, तेमाहे सम्यक्त्वमोहनीय तथा मिश्रमोहनीय, ए बे प्रकृतिनो बंध नथी. कारण के ए बेहु प्रकृतिनुं दल मिथ्यात्वमोहनीयतुं जे लणी उपशमसम्यक्त्वें करी शुद्ध कस्यो विपर्यासजनक स्व नाव जेधी टाख्यो, ते सम्यक्त्वमोहनीय कहीये. जे थकी अविरोधस्वजाव टल्यो, ते मिश्रमोहनीय. तेथी ए बन्ने प्रकृतिबंधमां न लेखवीयें श्रने एनो उदय निन्न होय जेमाटे सम्यक्त्वमोहनीयनो देशघातिठ रसोदय देशघातिक कदेतां समकितने कांक हणे ते देशघातिक कहीयें, मिश्रमोहनीयना नावथी कांश्क अधिक सम्यक्त्वने हणे, ते देशघाति रसोदय. अने मिश्रमोहनीयनो बेगणी रसोदय तथा मिथ्यात्वमोहनीयनो चउगणी सर्वघाति रसोदय तेमाटे सर्व कर्मनी प्रकृति, बंधविचारे एकसो ने वीश लेखवीये. अने उदय तथा उदीरणाविचारे सम्यक्त्वमोहनीय अने मिश्रमोदनीयनो उदय अधिक लेखवतां एकसो ने बावीश प्रकृति लेखववी. तथा कर्मनी सत्ता विचारतां नामकर्मनी त्राणुं तथा एकसो ने त्रण प्रकृति गुणतां सर्वश्राप कर्मनी एकसो ने अडतालीश तथा एकसो ने अहावन प्रकृति होय, ते जूदी जूदी लखी देखाडीयें बैयें. .. ज्ञानावरणीयनी पांच, दर्शनावरणीयनी नव, वेदनीयनी बे, मोहनीयनी बबीश, श्रायुनी चार, नामकर्मनी शडशक, गोत्रकर्मनी बे, अंतरायनी पांच, ए सर्व थक्ष एकसो ने वीश प्रकृति बंधयोग्य जाणवी. अने ए पूर्वोक्त प्रकृतिमां मोहनीयनी अहावीश प्रकृति गणतां सर्व कर्मनी एकसो ने बावीश प्रकृति उदय उदीरणायें जाणवी; तथा उपशमनायें पण सर्वोपशमनायें मोहनीयनी अहावीश संक्रमे, माटे एकसो ने बावीश जाणवी. तथा मोहनीयनी अहावीश,नामकर्मनी एकसोने त्रण, शेष बकमनी सत्तावीश; एम सर्व मली सत्तायें एकसो ने अहावन्न प्रकृति होय. अने जो पंदर बंधनने स्थानके पांच बंधन गणीये, तेवारें नामकर्मनी त्राणुं प्रकृति लेखवतां एकसो ने अमतालीश प्रकृति सत्तायें होय. ॥ ३ ॥ ॥ हवे प्रकृतिना उत्तर भेद, नाम अने अर्थ कहे जे. ॥ नरय तिरि नर सुरगई, इग बिअ तिअ चन पणिंदि जाठ ॥ जराल विनवा दा, र तेअ कम्मण पण सरीरा (पागंतरे ) उरा लिअ वेविअ, आदारगे तेज कम्मश्गा ॥३३॥ Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मविपाकनामा कर्मग्रंथ. १ ३५७ अर्थ- जे कर्मप्रकृतिना उदयथी जीवने नारकी एवे नामें बोलावीयें, ते कर्मनुं नाम निरय के नरकगति कहीये. जे थकी तिर्यंच नाम कहेवाय, ते कर्मनुं नाम तिरि के तिर्यंचगति. जे कर्मना उदयथी जीव, मनुष्य कहेवाय, ते कर्मनुं नाम नर के मनुष्यगति. जे कर्मना उदयथी जीव, देवता कहेवाय, ते कर्मनुं नाम सुर के देवगति. एम चार औदयिक पर्याय माहेला एक पर्यायथी बीजे पर्यायें जीव जाय, ते माटे एने गश् के गति कहीये. ए गतिनाम कर्म चार कह्यां. जे कर्मप्रकृतिना उदयथी जीव, एकेजिय कहेवाय, ते कर्मनुं नाम ग के० एकेडिय जाति. जे कर्मप्रकृतिना उदयथी जीव, बेणिय कहेवाय, ते कर्मनुं नाम विश्र के बेंजियजाति. जे कर्मना उदयथी जीव, चरिंडिय कहेवाय, ते कर्मनुं नाम चल के चलरिंजियजाति. जे कर्मना उदयथी जीव, पंचेंडिय कहेवाय ते कर्मप्रकृतिनुं नाम पकिंदिजान के पंचेंजियजातिनामकर्म कहीयें. ए जातिनामकर्म पांच कह्यां. जो पण नावेंजिय इंडियावरणक्षयोपशमथी होय श्रने अव्ये जिय इंडियपर्याप्तिनामकमना उदयथी होय पण एज जीव, एकेंघिय बे. एवं नाम जातिनाम उदयथी होय. हवे शरीरनामकर्म, पांच कहे . उराल के औदारिकनामकर्म, विजय के वैकियनामकर्म, आहार के श्राहारकनामकर्म, तेत्र के तैजसनामकर्म, कम्मण के कार्मणनामकर्म, पण शरीरा के ए पांच, शरीरनामकर्म कह्यां. तथा पागंतरें बीजा पदोनो अर्थ तो मलतोज डे परंतु कम्मश्गा के एक कार्मिक कार्मण शरीर, पांचमुं लख्युं बे. १ जे उदार एटले सर्व शरीरमांहे प्रधान, जे कारण माटे ए शरीरें करी मोद साधीयें, तीर्थकर गणधरादिक पदवी नोगवियें, ते नणी मनुष्य, तिर्यंचनुं औदारिकशरीर, जे कर्मना उदयश्री लहीयें तथा औदारिकपणे पुजल परिणमावियें, ते औदारिक शरीर. २ तथा जेणे करी नूचरथी खेचर थाय, खेचरथी नूचर थाय, न्हानुं टाली महोटुं करे अने महोटुं टाली न्हानुं करे, सुरूप कुरूप करे. इत्यादिक विविधक्रियावंत ज्यां होय, ते वैक्रिय बे नेदे बे. एक औपपातिक ते देवता तथा नारकीनां शरीर जवप्रत्ययी जाणवां. बीजं तिर्यंच तथा मनुष्यने लब्धिप्रत्यय ते वैक्रियपणे पुजल परिणमावीयें, ते जे कर्मना उदयथी लहीयें, ते बीजुं वैक्रियशरीर कहीये. ..३ तथा लब्धिवंत चौद पूर्वधर तीर्थकरनी शछि देखवा निमित्तें तथा संशय नांजवा निमित्तें मुंग हस्त प्रमाण थाकाश स्फटिक सरखं खल अतिसूक्ष्म थाहारकवर्गणाना स्कंधे करी शरीर नीपजावीने जिनेश्वर पासें मूके, ते थाहारकशरीर जाणवू, ते जे कर्मना उदयश्री थाय तथा थाहारकपणे पुजल परिणमावे, ते कर्मप्रकृतिनुं नाम त्रीजु थाहारकशरीरनामकर्म जाणवू. Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५ कर्मविपाकनामा कर्मग्रंथ. १ . ४ तथा जमेला आहारने पचाववानुं हेतु तथा तेजोलेश्या निर्गमहेतु, ते तैजसशरीर जाणवं, ते जे कर्मना उदयथीलहीयें, ते कर्मप्रकृतिनुं नाम तैजसशरीर जाणवं. ___५ जे कर्मदल, जीव प्रदेशसाथे कीर नीरनी पेरे मली रह्यां ते कार्मण शरीर सर्व शरीरनुं बीजनूत, जे कर्मना उदयथी कर्मवर्गणादल लेइ कर्मपणे परिणमावे, ते पांचमं कार्मण शरीर जाणवं. तथा (पागंतरे) टीकाकारे कहेलु डे जे कर्म परमाणुने विषे निष्पन्न थयु होय तेने कार्मिक एक कार्मण शरीर कहीये. कर्म परमाणुज आत्मप्रदेश सहित दीर नीरनी पेठे अन्योऽन्य अनुगत थाय बे ते कार्मण शरीर कदेवाय . कर्मनो विकार, तेज कार्मण एवी व्युत्पत्ति ॥ इति समुच्चयार्थः॥३३॥ ॥ हवे ए पूर्वोक्त औदारिकादिक शरीरे अंगोपांग होय, ते माटे अंगोपांग कहे . ॥ बाहु रु पिकि सिर उर, उअरंग उवंग अंगुलीपमुहा ॥ सेसा अंगोवंगा, पढम तणुतिगस्सुवंगाणि ॥ ३४॥ अर्थ-तेमां प्रथम श्राप अंगनां नाम कहे जे. बाहू के बाहुबे एटले जुजा बे, अरु के बे जंघा साथल, एवं चार, पिठि के पुंठि वांसो, एवं पांच, सिर के मस्तक, एवं ब, उर के हृदय हैयुं, एवं सात, उधरंग के उदर एटले पेट, एवं श्राउ, ए श्राठे अंग कहीयें. उवंगअंगुलीपमुहा के उपांग ते अंगुली प्रमुख जाणवां. एटले ए अंगने लाग्या जेम हाथ, तेम हाथने लागी अंगुली, जंघाने लाग्या ढींचण प्रमुख तेने उपांग, एवी संज्ञा कहीयें; सेसाअंगोवंगा के ए थकी शेष थाकता एवा जे आंगलीना पर्व, रेखा प्रमुख ते अंगोपांग जाणवा. ए अंगोपांग पढमतणुतिस्सुवंगाणि के० पहेला त्रण शरीर जे औदारिक, वैक्रिय अने थाहारक, एने होय. त्यां औदारिक शरीरें औदारिक अंगोपांग, अने वैक्रियशरीरे वै क्रियशंगोपांग, श्राहारकशरीरे थाहारक अंगोपांग, एम त्रण जाणवां. ए अंग अने उपांग थकी शेष रह्या जे अंगुलीना विसुथा, हाथ पगनी रेखा, नख, केश, रोमादिक, तेने अंगोपांग कहीयें. एम एक अंग, बीजां उपांग अने त्रीजां अंगोपांग. ए पण त्रण कहीयें. पढमतणु एटले जे कर्मना उदयथी औदारिकादिक शरीरपणे परिणम्या पण ते पुजल एहवे अंगोपांगने श्राकारपणे परिणमे, हस्तादिक आकार नीपजे, ते अंगोपांगकर्म अथवा एत्रण शरीरें होय अने तैजस तथा कार्मण ए बे शरीर जीवप्रदेशनी साथें वीर नीरनी पेरें मली रह्या ले तेहy कशुं संस्थान नथी, तेथी तेनां अंगोपांग न होय ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ ३४ ॥. Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मविपाकनामा कर्मग्रंथ. १ ३५ए ॥ हवे ए अंगोपांगना पुल बंधन, नामकर्मविना न बंधाय, ते जणी पडी बंधन नाम कहे ॥ उरलाइ पुग्गलाणं, निब बक्षं तयाण संबंधं ॥ जं कुणइ जन समं तं, बंधण मुरखाई तणु नामा ॥ ३५॥ अर्थ-उरलाइपुग्गलाणं के औदारिकादिक शरीरना पुजलने निबद्ध के प्रर्वे बांधेला अने बऊं के हमणां बंधाता, तयाण के० तेनी साथे संबंध के संबंध करे. जोडे अने जं के जे कुण के करे, जउसमं के० लाख, राल सरखं तं के ते बंधण के बंधननामकर्म, मुरलाश्तणुनामा के० औदारिकादिक पांच शरीरने नामें जाणवू ॥ इत्यदरार्थः ॥ ३५ ॥ __ औदारिकशरीरें तथा श्रादिशब्द थकी वैक्रियें, श्राहारकें तथा तैजसें श्रने कामणे, ए पांच शरीरनामकर्म उदयें शरीरपणे परिणम्या पण पुजल मांहोमांहे पूर्वे बांध्या ले अने वली बांधतो जोडतो जाय , ते पुमलनो माहोमांहे बंध पडे बे. तेणे करी जदा विखरता नथी, जे कर्मनाउदयथी ते कर्मनुं नाम बंधननाम ए मान्युं जोश्यें अन्यथा माहोमांहे पुल मली न रहे, जेम राल, लाख अने गुंदरादिकें करी जे जिन्न वस्तु जोमीये ते केटलोएक काल सुधी मली रहे, निन्न न थाय, तेम जे कर्मने उदयें जे पूर्व ग्रयां वे एवां औदारिक पुल तेणे करी नवां ग्रही ते औदारिक पुजल मेलवी मेलवी जोडी शरीर वधारे जे जे कर्मने उदयें, ते औदारिक बधन. एम जे कर्मनेउदये पूर्व बांध्यां वैक्रिय पुजल साथै बंधातानवा वैक्रिय पुजल बांधी शरीर वधारे, ते बीजुं वैक्रियबंधनां ते. मज जे कर्मने उदये थाहारक पुजनसाथे थाहारकपुजलनो बंध करी करी शरीर बांधे, वधारे, ते श्राहारकबंधननाम. ए त्रण शरीरना आरंजने समये सर्व बंध जाणवो, पनी ज्यांसुधी ते शरीर धारण करे, त्यांसुधी देशबंध जाणवो भने तैजस तथा कार्मण, ए बे शरीरनो सर्वथा देशबंधज होय, पण सर्वबंध न होय, जे जणी ए बे शरीरनो केवारें श्रबंधक होय ने बंधक नथी होतो तेथी ए शरीरनो प्रथम श्रारंज समय न पा. मीयें, तेथी सर्वबंध न होय. जे कर्मने उदयें तैजस शरीरना पुजलने पूर्व बांधेला तैजसपुगवनी साथें बंध पाडे, ते तैजसबंधननाम. तेमज जे कर्मना उदयथी पूर्वे ग्रहां कर्मदलसाये नवा कर्म पुजलनो संबंध करे, ते कार्मणबंधननाम. एम पुजलन बंधन तो थाय, जो पूर्व मस्या होय तो थाय, ते माटे बंधननाम कहीयें ॥ ३५ ॥ ॥ हवे संघातननाम कहेजे. ॥ जं संघाय उरखा, पुग्गले तणगणं वदंताली॥ तं संघायं बंधण, मिव तणु नामेण पंचविदं ॥३६॥ Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० कर्मविपाकनामा कर्मग्रंथ. १ अर्थ- जं के जे कर्म संघाय के एकगं करवां, उरलाइ के औदारिकादिक पांच शरीरना जे पुग्गले के पुजल, ते प्रत्ये तणगणंवदंताली के जेम तृणखलाना समूह प्रत्यें दंताली एकगे करे, तेनी पेरें करवा तं के ते संघायं के संघातननामकर्म कहीये. बंधणमिव के बंधननी पेरें तेना पण तणुनामे के पांच शरीरने नामे पंचविहं के पांच नेद बे. इत्यदरार्थः ॥ ३५॥ - जे कर्मना उदयथी औदारिकादिक योग्य पुजलने संघातयति कहेतां एकठा करे, ते संघातन. हवे जीव, प्रथम संघातननामने उदयें करी औदारिकादिक पुजसनो राशि करे, ते बंधननामें करी बांधे अने अंगोपांगनामथी हाथ, पगना श्राकार घडे. श्रहीं दृष्टांत देखामे जे. जेम दंताली कहेतां मारवाडमां प्रसिद्ध काष्ठ उपकरण विशेष तेणे करी जेम विखरेलां तृणखलाने बहारीने एकगं करीयें पड़ी तेनो सुखें जारो बंधाय, तेम संघातननामकर्मे करी एकठां कस्यां एवां जे दल तेनो बंधननामे बंध होय, ते संघातननामकर्म; ते पण जेम पांच शरीरनां पांच बंधन कह्यां, तेम ए संघातन पण पांच न्नेदें बे, ते सूत्रथी कहीयें बैयें. जे कर्मने उदयें जीव, औदारिकपुजल मेलवे, ते पहेलु औदारिक संघातन. जे कर्मने उदयें जीव, वैक्रिय पुजल मेलवे, ते बीजं वैकियसंघातन. जे कर्मने उदयें जीव, थाहारकना पुजल मेलवे, ते त्रीजुं श्राहारकसंघातन. जे कर्मने उदयें जीव, तैजस शरीरना पुजल मेलवे, ते चो) तैजससंघातन. जे कर्मने उदयें जीव, कार्मणना पुजल मेलवे, ते पांचमुं कार्मणसंघातन.एम पांच संघातननाम कह्यां. ते पली संघयण कहेशे. ॥ ३६ ॥ ॥ तथा प्रकारांतरें सत्तायें पन्नर बंधन श्राणवाने गाथा कहे जे. ॥ __ उराल विनवा दा, र याणं सग तेज कम्मजुत्ताणं ॥ .. .. नव बंधणाणि इअर, उसदिआणि तिन्नि तेसिं च ॥३७॥ अर्थ- राल के औदारिक, विजव्व के वैक्रिय तथा थाहारयाणं के आहारक, ए त्रणने सग के पोतपोतानी साथें जोमतां त्रण बंधन थाय, अने ए त्रण शरीरने, तेश्र के तैजससाथें बने कम्म के कार्मण साथें, जुत्ताणं के युक्त करतां पण त्रण त्रण थाय. नवबंधणाणि के० एम त्रण शरीरना नव बंधन थाय. तथा श्यर के स्तर जे तैजस अने कार्मण, ए 3 के बेनी साथै सहिथाणि के सहित करतां तिन्नितेसिंच के त्रण त्रण बंधन तैजस कार्मणनां. ए पंदर बंधन थाय ॥ इत्यदरार्थः ॥ ३७॥ औदारिक, वैक्रिय अने थाहारक, ए त्रणने पोतपोतानी साथें जोमतां त्रण बंधन थाय. तथा ए त्रण साथें तैजस शरीर जोडतां पण त्रण बंधन थाय तथा ए त्रण साथें कार्मण शरीर जोमतां त्रण बंधन थाय. एवं नव बंधन देखामीयें बैयें. Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मविपाकनामे कर्मग्रंथ.१ ३६१ १ जे कर्मना उदयथी औदारिक साथें औदारिक पुजल बंधाय, ते औदारिक औदारिकबंधन. २ जे कर्मना उदयथी वैक्रिय साथें वैक्रिय दलनो बंध थाय, ते वैक्रिय वैक्रियबंधन. ३ जे कर्मना उदयथी थाहारक साथे श्राहारकदलनो बंध थाय, ते थाहारक थाहारकबंधन. ४ जे कर्मना उदयश्री औदारिकदल साथें तैजस दलनो बंध थाय, ते औदारिकतैजसबंधन. ५ जे कर्मना उदयें वैक्रिय साथे तैजस दलनु बंधन होय, ते वैक्रियतैजसबंधन. ६ जे कर्मना उदय थाहारकनुं तैजसदल साथै बंधन होय, ते थाहारकतैजसबंधन. एम एज त्रण साथै कार्मण पण खेबुं. ७ जेना उदयें औदारिक साथे कार्मण दलनो बंध थाय, ते औदारिककार्मणबंधन. 6 जेना उदयें वैक्रियदल साथ कार्मण दलनो बंध थाय, ते वैक्रियकार्मणबंधन. ए जेहना उदये थाहारक साथें कार्मणदलनुं बंधन होय, ते आहारककार्मण बंधन. ए रीतें नव बंधन कह्यां. ए मिश्रयोगने विषे नाववां तथा बीजे पण नाववां. . १० तेमज औदारिकादिक त्रणनी साथे इतर कहेतां जूदां जे तैजस अने कामण तेना मिश्रस्कंध साथै एटले ए बन्नेनी साथें औदारिकनो जेने उदयें बंध होय, ते दशभु औदारिकतैजसकार्मण बंधन. ११ जेना जदयें वैक्रिय साथें तैजसकार्मणदल मले, ते वैक्रियतैजसकामणबंधन. १५ जेना उदयें आहारक साथें तैजसकार्मणबंधन होय, ते थाहारकतैजसकार्मणबंधन. हवे त्रण तैजस कार्मणनांज बंधन कहे . ए. टले-१३ जेना उदयें तैजसदल साथें तैजसनो बंध होय, ते तैजसतैजसनुं बंधन. १४ जेना उदयें कार्मण साथै तैजसनो बंध होय, ते तैजसकार्मणबंधन. १५ जेना उदयें कार्मण साथै कार्मणकर्मदलनो माहोमांहे बंध होय, ते पंदरमुं कार्मणकार्मणबंधन. ए पंदर बंधन कह्यां ॥३७॥ हवे ए पन्नर बंधनने गुणवाने प्रकारांतरें पागंतर गाथा कहे . "उरलाईणसग ते, अकम्म सहिश्राण पण चउ ति बंधा ॥ पढमाण तेथ कम्मेहिं, तिन्नि इव पनर बंधणया" ॥१॥ हवे ए गाथानो अर्थ कहे जे. उरलाईणजे के औदारिकादिक पांच शरीरनां पुमलनां सग के श्राप थाप साथै मलवानां हेतुनृत प्रथम पांच बंधन, ते कम्मसहियाणपणचउतिबंधा के० ते तैजसव्यतिरिक्त शेष चार शरीरना दलने तैजससाथै मलवानां हेतुनूत चार बंधन तथा तैजसकार्मण विना अनेरां जेत्रण शरी. रदल, तेने कार्मण साथें मेलववानां त्रण बंधन तथा तेने तैजसकार्मणसंबंधे त्रण बंधन. एवं पंदर बंधननां नाम लखीयें बैयें.प्रथम औदारिकऔदारिकबंधन,बीजं वैक्रियवैक्रिय. बंधन,त्रीजुं श्राहारकथाहारकबंधन,चोथु तैजसतैजसबंधन,पांचमुं कार्मणकार्मणबंधन, ए पांच पोतपोताथी तथा बहुं औदारिकतैजसबंधन, सातमुं वैक्रियतैजसबंधन, श्रा Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ . कर्मविपाकनामें प्रथम कर्मग्रंथ. १ उमुं श्राहारकतैजसबंधन, नवमुं कार्मणतैजसबंधन, दशमुं औदारिककार्मणबंधन, श्रगीयारमुं वैक्रियकार्मणबंधन, बारमुंश्राहारककामणबंधन, तेरमुं औदारिकतैजसकार्मणबंधन, चौदमुं वैक्रियतैजसकार्मणबंधन, पंदरमुं श्राहारकतैजसकार्मणबंधन. ए (पढमाणतेश्रकम्महिंतिन्नि के०) ए पाबला त्रण बंधन, ते तैजसकामणनी साथें प्रथमना औदारिकादिक त्रणने विषे मलवानां हेतु जाणवां. एम पंदर बंधन ग्रंथांतरें कह्यां ॥ ३ ॥ हवे औदारिक शरीरपणे परिणम्या जे सात साधु, तेमध्ये अस्थिसंधिने दृढता थवाना हेतुजूत ब संघयण बे. तेनां नाम कहीयें बैयें. संघयण महिनिचउँ, तं उघा वऊरिसह नारायं ॥ तदय रिसद नारायं, नारायं अनारायं ॥ ३० ॥ - अर्थ-(संघयणं ) संघयण ते श्रमिनिच के अस्थि जे हाड तेनो मेलापक, संबका के ते उन्नेदे . त्यां प्रथम वारिसहनारायं के वज्रषजनाराचसंघयणनामकर्म, तहय के० तेम बीजुं रिसहनारायं के कषजनाराचसंघयणनामकर्म, त्रीजु नारायं के नाराचसंघयणनामकर्म. चो, अझनारायं के० अर्धनाराचसंघयणनामकर्म ॥ इत्यदरार्थः ॥ ३ ॥ - त्यां प्रथम संघयणनुं स्वरूप कहेडे. अस्थिना संधिनुं मल, जोगबु, तेनुं निमित्तजूत जे नामकर्म, जेने उदये जेहवं संघयण होय, ते तेवा नामें संघयण नामकर्म जाणवू. ते संघयणना बनेद बे. तेणे ते नामकर्मना पण नेद, कार्यन्नेदें कारणनेद थाय ने. १ त्यां पढमसंघयण ते ज्यां बेहु हाम बेहु पासें मर्कटबंधे बांध्यां, ते जपर षन एवे नामे त्रीजुं दाम, तेणे पाटानी पेरें बींव्या ते उपरे ते त्रण हाडने नेदे, एवा वज्रखीलियें खील्या थकां अस्थि स्थिर होय, एवं संघयण, जे कर्मना उदयथी होय, ते प्रथम वज्रषजनाराचसंघयणनामकर्म. . २ ज्यां बन्ने दाम बेहु पासे मर्कटबंधे बांध्यां, ते उपर त्रीजे पाटा सरखे हाडे बांध्यां, पण ज्यां खीती न होय, ते वीजुं षननाराचसंघयण, जे कर्मने उदये होय, ते कर्मप्रकृतिनुं नाम पण तेज जाणवू. . ३ ज्यां बन्ने पासें दामने मर्कटबंध होय, पण पाटो अने खोली न होय, ते नाराचसंघयण, जे कर्मना उदयथी होय, ते कर्मप्रकृतिनुं नाम पण तेज जाणवं. . ४ ज्यां एक पासें मर्कटबंध अने बीजे पासे खीली, एवो हाडनो संधि जिहां Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मविपाकनामे कर्मग्रंथ. १ ३६३. होय, ते अर्धनाराचसंघयण, जे कर्मप्रकृतिना उदयथी सहीयें, ते कर्मप्रकृतिनुं नाम पण तेज जाणवू ॥३॥ कीलिअ देवळं इद, रिसहो पट्टो अ कीलिवऊं ॥ उन मक्कडबंधो, नारायं इममुराखंगे ॥ ३ ॥ अर्थ-पांचमुं कीविश्र के कीलिकासंघयणनामकर्म, हुं बेवळं के बेवहुं संघयपनामकर्म. शह के इहां रिसहोपट्टो के रिषन ते पाट सर हाड. कीलिया के खीलीरूप ते वजं के० वन कहीये. उन के बेहु पासें श्रांकडा जराववा, ते मकडबंधो के मर्कटबंध एने नारायं के० नाराच कहीयें. ममुरादंगे के ए संघयण, औदारिकशरीरे होय ॥ इत्यदरार्थः ॥ ३॥ जेम खीलिमात्र सांधि, काष्ठसंधि होय, तेम ज्यां हाडसंधि होय, पण मर्कटबंध पाटो न होय, ते कीलिकासंघयण; जे कर्मप्रकृतिना उदये ते कीलिकासंघयण प्राप्त थाय, तेने तेज नामकर्म कहीयें. ज्यां अस्थिनो अंतर एकेकने स्पर्शीने रहे पण खीली, नाराच अने झपन, ए त्रणमांहे एके पण न होय, लगारेक धको लागवाथकी जूदा थर जाय, एवो थत्यंत निर्बल ज्यां संधि होय, ते उडु डेवहुं संघयण, जे कर्मना उदयथी थाय, तेने तेज नामकर्म कहीये. - अहीं समयनाषायें जैनशास्त्रसंकेतें रुषन के बे हामना संधि स्थिर करवाने पाटा सरखं बीजं हाड, ते परिवेष्टितपट्ट कहीयें. तथा ते बे, त्रण हा नेदीने संधि दृढ करे, एवं चो, अथवा त्रीजुं हाड खोलीरूप ते वन कही. अने ज्यां बन्ने हाड एक एक साथे आंकडे यांकडो जराय, ते को पण रीतें बूटे नहीं. एवो बन्ने अस्थिनी माहोमांहे दृढसंधिनो करनार मर्कटबंध, ते नाराचशब्दनो अर्थ जाणवो.. मर्कटबंध, ते वानर- बालक, माताने हए वलगी रहे. तेम दामना बेडा बीजा हामने वलगी रहे, ते मर्कटबंध जाणवो. ए त्रण शब्द समयनाषायें लेवा. ए संघयण, हाडसंधिरूप दे. ते अस्थि, औदारिक शरीरें होय ते माटे औदारिक शरीरेंसंघयण होय पण वैक्रिय बने थाहारकशरीरें न होय, ए अपेक्षायें एकेजियने असंघयणी कह्यां ॥ ३ ॥ ॥ हवे ए संघयण बनां अवश्य संस्थान होय, माटे संघयण पनी संस्थान कहे .॥ सम चउरंसं निग्गो, द सा खुजाइ वामणं हुंडं ।। संगणा वाम कीएह, नील लोदिय दलिद्द सिआ ॥४०॥ Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ कर्मविपाकनामे प्रथम कर्मग्रंथ. १ अर्थ-समचउरंसं के १ समचतुरस्रसंस्थान, निग्गोह के २ न्यग्रोधसंस्थान, सा के०३ सादिसंस्थान, खुजा के० ४ कुजसंस्थान, वामणं के० ५ वामनसंस्थान, हुंडं के० ६ हुंमसंस्थान, ए संगणा के संस्थाननां नाम कह्यां. वम किएह के० १ कृमवर्णनामकर्म, नील के०२ नीलवर्णनामकर्म, लोहिय के० ३ लोहितवर्णनामकर्म, हलिद्द के० ४ हरिजकपीतवर्णनामकर्म, सिधा के० ५ श्वेतवर्णनामकर्म ॥ श्त्यदरार्थः॥४०॥ १ सम एटले समा सरखा चतुः एटले चार अस्र एटले खूणा ज्यां होय, एटले पलोंठी वाली बेगं थकां दोरी साथें, मवीयें ज्यां बंन्ने जानुनुं अंतर, अने डाबा जानुनो जमणो खंनो तथा जमणा जानुनो डाबो खंगो पलोंगी पीठ साथे ललाट मलतां ए चारे दोरी सरखी थाय, ते समचतुरस्त्रसंस्थान. अथवा समस्त अंग सामुजिक शास्त्रोक्तलक्षणसहित शुन होय, ते समचतुरस्रसंस्थान कहीयें. ते जे कर्मप्रकृतिना उदयथी होय, ते समचतुरस्त्रसंस्थाननामकर्म जाणवू. ते देवता सर्वने समचतुरस्त्र संस्थान होय. २ जेम वटवृदनो उपरलो नाग पूर्ण होय, तेम जे संस्थाने करी नाजी उपरनो नाग निकलक्षणोपेत पूर्ण प्रमाण होय अने नीचलो नाग हीन होय, एवं न्यग्रोधसंस्थान, जे कर्मना उदयथी पामीयें, ते कर्मप्रकृतिनुं नाम, न्यग्रोधसंस्थान जाणवू. ३ ज्यां नाजी थकी नीचेनां अंग, उत्तममानोपेत होय अने पेट उपरनां अंग हीन होय, ते सादिसंस्थान, जे कर्मना उदयथी थाय, ते कर्मनुं नाम पण तेज जाणवू. ४ ज्यां हाथ, पग, मुख अने ग्रीवादिक उत्तम होय अने हृदय, पेट, पूंठ, श्रधम हीन होय, ते कुब्जसंस्थान, जे कर्मना उदयथी पामीयें, ते कर्मनुं नाम तेज जाणवू. ५ ज्यां हाथ अने पग, हीन होय अने बीजां अंग उत्तम होय,ते वामनसंस्थान, जे कर्मना उदयथी पामीयें, ते कर्मनुं नाम तेज जाणवू. ६ ज्यां समस्त अंगना अवयव लक्षण हीन जूडा होय, ते हुंमसंस्थान, जे कर्मना उदयथी प्राप्त थाय, ते कर्मनुं नाम पण तेहीज जाणवू. संस्थान ते शरीरनो श्राकार विशेष, तेनुं हेतुजूत जे नामकर्मप्रकृति, ते संस्थाननामकर्म कहीये. गर्नज, तिर्यंच, मनुष्यने । संस्थान होय श्रने शेष सर्व जीवने हुँमसंस्थान होय. हवे पौगलिकशरीरने विषे व्यवहारें जे वर्णादिक होय तेना हेतुजूत वर्णादिक चारनां नाम कहे . तेमा प्रथम पांच वर्णनां नाम कहे . Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मविपाकनामा कर्मग्रंथ. १ १ जे कर्मना उदयथी जीवनुं शरीर, मशीनी पेरें तथा गुलीनी पेरें नीबुं, कालु, होय, ते कर्मप्रकृतिनुं नाम कृष्णवर्ण कहीये. २ जे कर्मना उदयथकी जीवनुं शरीर, शुकपिल सरखं तथा जंगाल सरखं नील होय, ते कर्मप्रकृतिनुं नाम नीलवर्ण कहीये. ३ जे कर्मना उदयथी जीवनुं शरीर हलदर तथा हरियाल तथा चंपाना फूलः सरखं पीले वर्णे होय, ते हरिजकपीतवर्णनामकर्म जाणवू. ४ जे कर्मना उदयथी जीवन शरीर, हिंगलो तथा सिंदूर तथा जासूलनां फूल जेवू लोहित के रातुं होय, ते कर्मनुं नाम लोहितनामकर्म जाणवू. ५ जे कर्मना उदयथी जीवनुं शरीर शंख, कुंद, चंऽकिरण सरखं तथा गौरवर्ण होय, ते श्वेतवर्णनामकर्म जाणवू. ॥ एम वर्णनाम कही, ते पुलगुणसादृश्ये गंधनाम कहे. ॥ सुरदी उरही रस पण, तित्त कडु कसाय अंबिला महरा फासा गुरु खहु मिन खर, सी नएद सिणि६ रुकहा॥४१॥ अर्थ- सुरही के सुर जिगंधनामकर्म, उरही के० पुरनिगंधनामकर्म, रसपण के० रस पांच कहे . तित्त के तिक्तरसनामकर्म, ते तिक्तरस; क के० कटुकरसनामकर्म. ते कटुरस, ३ कसाय के कषायलरसनामकर्म, ते कषायेलो रस; अंबिला के थाम्बरसनामकर्म, ते खाटो रस, आंबलीनो रस; ५ महुरा के मधुररसनामकर्म ते मीगे रस. फासा के हवे श्राप फरस कहे . १ गुरु के० गुरुस्पर्शनामकर्म, २ लहु के लघुस्पर्शनामकर्म, ३ मिउ के मृफुस्पर्शनामकर्म, ४ खर के खरस्पर्शनामकर्म, ५ सी के० शीतस्पर्शनामकर्म, ६ जएह के उष्णस्पर्शनामकर्म, ७ सिणिक के। स्निग्धस्पर्शनामकर्म, ७ रुक के रूदस्पर्शनामकर्म, ए श्रह के श्राप स्पर्श जाणवा ॥ इत्यदरार्थः ॥४१॥ ते गंधना बे नेद . १ जे कर्मने उदयें कर्पूर, कस्तुरी, अने फूलना सुगंध स. रखो शरीरनो गंध होय, ते कर्मनुं नाम सुरनिगंधनामकर्म कहीये. ए शरीर श्री तीर्थकर तथा पद्मिनी स्त्रीनेज होय. २ जे कर्मने उदये जीवनुं शरीर, लशणादिकनी पेरे मृतकनी पेरे पुगंधवायूँ होय, ते कर्मनुं नाम, पुर जिगंधनामकर्म कहीये. ए बे गंधनां नाम कह्यां. हवे रसनां नाम कहे . ते रसना पांच नेद बे. जो पण क्षारादिक रस ग्रंथांतरे मान्या जे ते पण एमांहे अंतर्नावे . १ जे कर्मना उदयें जीवनुं शरीर, लींब करियाताना सरखं तिक्त कड होय, ते तिक्तरसनामकर्म. २ जे कर्मना उदय जीवन Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ कर्मविपाकनामा प्रथम कर्मग्रंथ. १ शरीर, शुंठ ने मरी सरखं करु कहेतां तीखा रस जेवुं होय, ते कर्मनुं नाम कटुरसनामकर्म. ३ जे कर्मना उदयश्री जीवनुं शरीर, हरडे ने बहेमा सरखुं कषायेला रस जेतुं होय, ते कर्मनुं नाम पण तेज जाणवुं. ४ जे कर्मना उदयें जीवनुं शरीर, लींबू ने बलीना रस जेवुं आम्ल एटले खार्ड होय, ते कर्मनुं नाम तेज जापं. जे कर्मने उदयें जीवने शरीरें शेलडी, दूध, अने साकर जेवो मीठो रस लदीयें, ते कर्मनुं नाम, मधुररसनामकर्म. ए पांच रसनां नाम कह्यां. दवे व स्पर्शनां नाम कहे बे. १ जे कर्मने उदयें जीवनुं शरीर, लोहना गोलानी पेरें जारी होय, सहेजें नीची गति होय, ते कर्मनुं नाम गुरुस्पर्श जाणवुं. २ जे कर्म उदयें जीवनुं शरीर, अर्कतूलनी पेरें हलकं होय, ते लघुस्पर्शनामकर्म. ३ जे कर्मने - दयें जीवना शरीरनो स्पर्श, वेतस तथा माखणनी पेरें सुकुमाल मृडु होय, ते मृडुनामकर्म, ४ जे कर्मने उदयें जीवना शरीरनो स्पर्श, गायनी जीननी पेरें बरसठ होय, ते बरसवनामकर्म. ५ जे कर्मना उदयें जीवना शरीरनो स्पर्श, हीमनी पेरे अत्यंत शीतल होय, ते शीतनामकर्म. ६ जे कर्मना उदयें जीवना शरीरनो स्पर्श, अग्निनीपेरें उम होय, ते उम्मनामकर्म 9 जे कर्मना उदयें जीवना शरीरनो स्पर्श, घृत तैलनी पेरें चीकट स्नेहवंत होय, ते कर्मप्रकृतिनुं नाम स्निग्ध जाणवुं. जे कर्मना उदयें जीवना शरीरनो स्पर्श, राखनी पेरें लू निःस्नेह होय, तेनुं नाम रूक्ष जाणवुं. ॥ ४१ ॥ ॥ ए वर्णादिक वीश प्रकृतिमांहे शुज केटली ? अने केटली ? ते कहे बे. ॥ नील कसिणं डुगंधं, तित्तं कमयं गुरुं खरं रुकं ॥ सीच असुद नवगं, इक्कारसगं सुनं सेसं ॥ ४२ ॥ अर्थ - नील के० नीलवर्ण, कसिणं के० कृतवर्ण, ए वे वर्ण ने डुगंधं, के० 5गंध, ए एक गंध, तथा तित्तं के० तिक्तरस, करुषं के० कटुकरस. ए बे रस, अने गुरुं के० गुरुस्पर्श, खरं के० खरस्पर्श, रुकं जे० रूक्षस्पर्श, सीांच के० शीतस्पर्श, ए चार स्पर्श. असुनवर्ग के० एवं अशुन पापप्रकृतिनुं नवक जाणवुं. अने सेसं के० शेष रही जे इक्कारसगं के० अगीचार प्रकृति, ते शुभ जाणवी ॥ इत्यक्षरार्थः ॥ ४२ ॥ दारिकशरीरश्री मांगीने इहां सुधी जे कर्मप्रकृति कही, ते सर्वपुल विपाकनी कही, जेजणी एनो विपाक एटले रसोदय ते जीवाश्रित औदारिक शरीर था For Private Personal Use Only Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मविपाकनामा कर्मग्रंथ. १ ३६० श्रयीने होय. शरीर, अंगोपांग, बंधन, संघातन, संघयण, संस्थान, वर्ण, गंध, रस अने स्पर्श. ए समस्त विशेष जे कह्यां, ते शरीरपुजलने विषे होय. तेथी एनां हेतुजूत कर्म, ते पुजल विपाकी कहीये. तथा अहीं शरीरना वर्णादिक, लोकव्यवहारनयथी लेवा, अन्यथा निश्चयनयमतें तो औदारिकादिकशरीर पुजलें पांच वर्ण, बे गंध, पांच रस, आठ स्पर्श, एवं वीश गुण होय. पण अहीं जे वर्णादिक लोकव्यवहारें कहेवाय ते उत्कट वर्णादिक पर्याय हेतुनूत नामकर्म, तेनी प्रकृति कही, तेमाहे एक नीलो, बीजो कालो, ए बे वर्ण; तथा एक पुगंध, एवं त्रण तथा तिक्त अने कटु ए बे रस, एवं पांच; तथा गुरु, खर, रूद अने शीत, ए चार स्पर्श; ए नव प्रकृति लोकने विषे अनिष्ट होय. ते माटे अशुजबे तेथी एना देतचूत कर्मनुं नाम पण अशुन्न जाणवू, जे कारण माटे संक्शे एनो कदरस वधे, अने विशोधे घटे, तेथी ए नव, पापप्रकृतिमध्ये लेखवीयें, तेथी ए अशुजनवक कयु. पाप प्रकृतिमाहे सामान्य वर्णादि चार अशुज कह्यां . अने अहीं विशेषे नव कह्यां. ए नव नेदथी शेष रह्या अगीआर नेद, ते शुज बे, सर्व लोकने इष्ट होय, ते नणी तेनुं निमित्तनूत जे कर्म, ते पण विशुळं तेनो मिष्टरस वधे, ते माटे शुज पु. एयप्रकृति कही. ते अगीआरनां नाम कहे . श्वेत, पीत ने रक्त, ए त्रण वर्ण. एक सुरनिगंध. कषायल, आम्ल ने मधुर, ए त्रण रस. लघु, मृदु, स्निग्ध अने जस, ए चार स्पर्श. एवं अगीधारने विशेषनये पुण्यप्रकृति कहीये. ए वर्णादिक वीश नामनी प्रकृति कही ॥४॥ ॥ हवे आनुपूर्वी नामकर्म कहे .॥ चनदगश्वणुपुत्री, गई पुविज्गं तिगं निआउजुअं ॥ पुबीनद वक्के, सुह असुह वसुदृ विदग ग॥४३ ॥ अर्थ-चउहगश्च के चार नेद गतिनी पेरें, अणुपुत्री के अनुपूर्वी नाम . गश्पुवीधुगं के गति ने श्रानुपूर्वी, ए बेहु खेतां द्विक कहेवाय. अने तिगंनिआउजुआं के जे वारें एने पोताना आयुसहित लहिये, तेवारे आनुपूर्वीनुं त्रिक थाय. पुवीउदउँवक्के के श्रानुपूर्वीनो उदय ते विग्रहगतियें, सुह के शुज चाल, श्रसुद के अशुन चाल, वस के बलदनी पेरें, उम्र के उंटनी पेरें, ए बे प्रकारे विहगगई के० विहायोगतिनामकर्म ॥ इत्यक्षरार्थः ॥४३॥ , चार नेदें गतिनी पेरें श्रानुपूर्वीनामकर्म . एक नरकानुपूर्वी, बीजी मनुष्यानुपूर्वी, श्रीजी देवानुपूर्वी, चोथी तिर्यंचानुपूर्वी. ए चार आनुपूर्वीनाम बे. श्हांथी सम Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६७ कर्मविपाकनामा प्रथम कर्मग्रंथ. १ श्रेणिव्यतिरिक्त नरकमांहे अवतरतां एक समय त्यां लगे समश्रेणिये जाये, त्यांची जेम बलदने नाथे काली गमाणे बांधियें, तेम नरकानुपूर्वीनी उदय, उत्पत्तिदेत्र नरके आणे. तेम तिर्यंचमांहेपण हिसमय, त्रीसमय, चतुःसमय, एक वक्रादिक गति अवतरतां तिर्यगानुपुर्वीनो उदय होय, तेम मनुष्यगतिमध्ये उपजतां वक्रगति मनुष्यानुपूर्वीनो उदय नाववो, तेम देवतामांहे अवतरतां वक्रगतिदे। देवानुपूर्वीनो उदय. ए चारे आनुपूर्वी, देत्रविपाकनी , तेथी ज्यां श्रमश्रेणिथी वले, ते क्षेत्रे श्रानुपूर्वी उदय श्रावे. तथा ज्यां पागल नरकटिक कह्यु, त्यां नरकगति अने नरकानुपूर्वी, ज्यां तिर्यक्छिक का, त्यां तिर्यंचगति तिर्यंचानुपूर्वी. ज्यां मनुष्यहिक त्यां मनुष्यगति, मनुष्यो. नुपूर्वी. ज्यां सुरहिक त्यां देवगति ने देवानुपूर्वी. ए बे वे प्रकृति हिकशब्दें लेवी. ए संज्ञा पूर्व नथी कही, ते माटे अहीं कही. __ ज्यां त्रिक कहे, त्यां आयु सहित त्रण लेवी. नरकत्रिक ते नरकगति, नरकानुपूर्वी, नरकायु. तिर्यचत्रिक ते तिर्यंचगति, तिर्यगानुपूर्वी, तिर्यगायु, ए त्रिकसंज्ञा कहीये. एम मनुष्यत्रिक ते मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी, मनुष्यायु. देवत्रिक ते देवगति, देवानुपूर्वि, देवायु.ए आनुपूर्वी नामकर्मनो उदय,जीवने जेवारें बे समयादिकनी विग्रहगति करे, तिहां थाय. एम आनुपूर्वीनाम कर्दा. हवे विहायोगति नाम कहे जे. जे कर्मना उदयथी प्राणी चालतो थको वृषन ए. टले बलदनी पेरें, तेमज हाथीनी पेरें, हंसादिकनी पेरें, जली रीतें चाले, ते कर्मप्रकृतिनुं नाम शुजविहायोगति कहीये. तथा जे कर्म उदयें ऊंटनी पेरें, खरनी पेरें, तीडनी पेरें, चालतां बन्ने पग घसाय,एवी माठी चालने जीव पामे, ते अशुन विहायोगति कहीये. पूर्वे गतिनाम का, तेथी एने जिन्नपणुं जणाववाने विहाय के थाकाशनाम पूर्व जोड्यु, तेथी खगति पण कहीये. अवकाशे चालवू, ते विहायोगति कहीये, ए त्रण जीवने होय. एम चौद पिंडप्रकृतिना पांशठ तथा पंच्चोत्तेरे नेदर्नु स्वरूप कर्वा ॥४३॥ ॥ हवे श्राउ प्रत्येक प्रकृतितुं खरूप कहे .॥ परघा उदया पाणी, परेसिं बलिणंपि दोइ मरिसो॥ उससिण लइिजुत्तो, हवेश ऊसासनामवसा ॥४४॥ अर्थ- परघाउदया के पराघातनामकर्मना उदयथी पाणी के० प्राणी एटले जीव, ते परेसिं के पोताथकी बीजा बलिणंपि के बलवंत जीवने पण होकरिसो Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मविपाकनामा कर्मग्रंथ. १ ३६ए के० पुःखें जीपवा योग्य अंग होय. अने उस सिणलछिजुत्तो के० श्वासोडासन लब्धि युक्त एटले पाम ते हवेश्ऊसासनामवसा के जश्वासनामकर्मने वशे एटले उदयें करी होय ॥ इत्यदरार्थः ॥ ४ ॥ __ पराघात नामकर्मना उदयथी जीव, अव्यप्राण जे पांचेंजिय, त्रण बल, श्वासोवास श्रने आयु. ए दश अव्य प्राणने धरे तथा जावप्राण ते ज्ञान, दर्शन अने चारित्ररूपने धरे, तेने प्राणिशब्दें जीव कहीये. ते परेसिं के आप विना बीजा जीवने तथा वैरीने पण उर्बर्ष एटले फुःखें, घणे उपायें करी एह पराजव्यो जाशे ? एवी बुद्धि, बलवंतने पण उपजावे, तो निर्बल वैरीथी केवी रीतें श्रासंग्यो जाय ? एटले जे कर्मना उदयथी सबल राजसनामां पण बोलतो थको बीक न राखे, परंतु उलटा तेनाथी बीजा घणा जण बीहे, तेना दर्शनमात्रथी पण वैरी कंपायमान थाय. एवो प्रतापवान् जे जीव होय, ते पराघात नामकर्म. ए प्रथम प्रत्येक प्रकृति जाणवी.. .. उश्वास के ऊंचो श्वास शरीराच्यंतरचारि वायुविशेष, आनप्राण एवे नामे, एना कहेवाथकी निःश्वास पण लेवो,जे नीचो उश्वास मूकवो, ते निःश्वास जाणवो, ए बेहु जे कर्मना उदयथी सुखें लही शके, ते कर्मनुं नाम, श्वासोबासनामकर्म जाणवू. ए लधिनुं नाम श्वासोवासलब्धि, ए बेहु कर्मना उदयथी होय ते जणी औदायकी प्रकृति कहीये. तेणे लब्धियुक्त एटले सहित जीव होय अने श्वासोवास पण पर्याप्तिने उदयें तद्योग्य पुजल ग्रही श्वासोश्वासपणे परिणमावी अवलंबि मूकीयें एवी शक्ति होय, अने श्वासोश्वास व्यापारव्यय करी श्वासोश्वास प्राण ए त्रणनो नेद तथा सर्व लब्धि दायोपशमिकी शास्त्रे कहीयें बैये पण ते प्रायिक वचन जे जे जणी वैक्रियलब्धि, आहारकलब्धि इत्यादिक औदयिकी पण होय. तथा वीर्यातराय दयोपशम पण एनो निमित्त होय. ते माटे औदयिकी थकां दायोपशमिकी केदेतांथकां पण विरोध नथी. ॥ हवे आतपनामकर्मनुं स्वरूप कहे .॥ रवीबिबेन जिअंगं, तावजुअं आयवान ननजलणे॥ जमुसिण फासस्स तदि, लोदियवरमस्स उदत्ति ॥४५॥ अर्थ-रविबिंबेउजिअंग के सूर्यमंडलने विषे रत्नना जीवन अंग, तावजुओं के ताप नष्ण प्रकाश सहित ते श्रायवाज के श्रातपनामकर्मना उदयथी होय, पण नजजलणे के० ते श्रातपनामकर्म अग्नि शरीरें न होय. जमुसिएफासस्सतहिं के जे जणी उष्णस्पर्शनो उदय ते अमिना शरीरें ले तथा लोहियवसस्सउदउत्ति के राता Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७० कर्मविपाकनामा प्रथम कर्मग्रंथ. १ वर्णनो उदय जे तेथी उष्ण थको पण रातो प्रकाश करे ने ॥ इत्यदरार्थः ॥ ४५ ॥ सूर्यने विमाने जे रत्नना बादर एकेंजिय पर्याप्ता पृथिवीकायिथा जीव ले तेनां शरीर, शीतस्पर्शवंत , तेम उतां पण तेजः प्रकाशनष्णता करे, तावमादिक ताप नीपजावे उष्णप्रकाश अजवाद्धं करे सूर्यमंडलने विषे रत्नना जीवन अंग. ते आतपनामकर्मना उदयथी एवो शरीरनो तेजःप्रकाश पामे ए कर्म, बादर पृथिवीकायिथा पर्याप्ताने प्रायोग्य होय, ते लणी बीजाने एनो उदय न होय; को कहेशे के ए कर्मनो उदय अग्निना जीवने पण हशे, जे माटे ते पण जष्णप्रकाश करे ले ? ते निषेधे जे. ज्वलन एटले अग्निना जीवने ते कर्मनो उदय नथी, तेउकायिथा जीवने शरीरथा. श्रयी उष्णस्पर्शनो उदय ने तेथी ते अग्नि जेम जेम ढकमो होय, तेम तेम ते अग्निमांहेथी वीबडेला केटलाएक अग्निकायिया जीव तेना शरीरनो उष्णस्पर्श आपणा शरीरे लागे बे. पण ते प्रकाश नष्ण जाणवो नहीं. ते नणी अत्यंत पूरथको ताप न करे. जेम जेम नजीक होय, तेम तेम ताप करे अने सूर्यमंगल तो दूर थकी तपे. तथा अग्निना शरीरें व्यवहारें करी राता वर्णनो उदय ने तेथी करी तेनो प्रकाश रातो थाय ने माटे रक्तवर्ण जे प्रना ते तेउकायिआजीवनां शरीर जाणवां पण यातप नथी. ए जाव . ॥ ४५ ॥ ॥ हवे उद्योतनुं स्वरूप कहे.॥ अणुसिण पयासरूवं, जिअंगमुजो अए जजोआ॥ जय देवुत्तर विकिन, जोइस खजो माश्व ॥ ४६॥ अर्थ-अणुसिण के जे अनुष्ण एटले उष्ण नहीं, परंतु शीत होय अने पयासरूवं के प्रकाशरूप एटले प्रकाश सहित जे जिअंगमुजोपएश्ह के जे जीवनुं शरीर, उद्योत करे ते शहां उजोआ के उद्योतनामना उदयथी जाणवो. जर के यति अने देव के देवताने उत्तरवि किश के उत्तरवै क्रियरूप करतां होय जोस के ज्योतिषीमंगलें विमान खजोअमाश्व के खद्योता दिकनी पेरें शरीरे उद्योततानो उदय होय. ॥ इत्यदरार्थः॥४६॥ उष्णप्रकाशश्री निन्न जे शीत प्रकाशरूप अजवायूँ करे, जे उष्णस्पर्शप्रकाश अग्नि करे तेथी जिन्न प्रकाश करे, तेना उदयथी जीवन अंग कहेतां शरीर, शीतप्रकाश अजवायूँ करे. ते कर्मप्रकृतिनुं नाम उद्योत कहीये. अहीं उद्योतना उदय खामी देखाडे . यति एटले साधु, वैक्रिय लब्धियें करी उत्तर वैक्रियरूप करे तथा देवता पण Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मविपाकनामा कर्मग्रंथ. १ ३७१ मूलगा जवधारणीय शरीरथी बीजुं जावा श्राववा सारु उत्तरवै क्रियरूप करे, तेनो प्रकाश शीत होय, ते उद्योतनामना उदयथी जीवने जाणवो. तथा ज्योतिषी जे चंद्रमा, ग्रह, नक्षत्र, तारा, ए चारे जातिना ज्योतिषीना विमानें जे पृथिवीका यिया रत्नना जीव, तेनां शरीर बे; तेने उद्योतनो उदय जाणवो. तेम खजुखाने पण जावो. यदि शब्द की रत्न औषधि प्रमुख रात्रें दीपक सरखी देखाय बे, ए रीतें ज्यां शीतप्रकाश देखाय, त्यां उद्योतनामकर्म उदय जावो. ॥ ४६ ॥ ॥ दवे गुरु लघु तथा तीर्थंकरनामनुं स्वरूप कहे . ॥ गं न गुरु न लहु, जाय जीवरस अगुरु लहु उदया ॥ तिचे तिहुच्प्रस्सवि, पुजो से उदर्ज केवलिणो ॥ ४७ ॥ अर्थ - अंगं के० शरीर, नगुरुनलहुश्रं के० जारी पण न थाय छाने हलवुं पण न थाय, जायजी वस्सागुरुल हुनदया के० जीवने अगुरु लघुनामकर्मना उदयथी होय ति के तीर्थंकरनामकर्मना उदयथी तिहुश्रणस्सवि के त्रिभुवनने एटले स्वर्ग मृत्यु पातालवासी जीवोने पण पुको के० पूजनीय होय. उदकेवलियो के० तेनो उदय केवलीने होय ॥ इत्यरार्थः ॥ ४७ ॥ ii ho जीवनुं श्रदारिकादिक शरीर, ते गुरु एटले नारी अत्यंत स्थूल निर्वयुं न जाय एवं पण न होय तथा लघु एटले हलवुं अत्यंत दुर्बल पण न होय, जो अत्यंत लघु होय तो वायरे उमाडतां राख्युं न जाय, तेथी अत्यंत स्थूल पण नहीं अने अत्यंत कुश पण नहीं. एवं समधारण शरीर, जे कर्मना उदयथी लहीयें, ते कर्मनुं नाम गुरुलघुनामकर्म जावं. वे तीर्थंकर नामकर्म कडे वे तीर्थंकर नामकर्मना प्रदेशोदयाथी पण श्राज्ञाऐश्वर्य अन्य प्राणीनी अपेक्षायें विशेष होय तथा जे नवें तीर्थंकर पदवी पामशे, ते जवने विषे कल्याणक महोत्सवें इंद्रादिक पूजे, स्तवे तथा एक आहारनिहार करतां कोइ देखे नहीं, बीजं रोगरहित सुगंधिसहित प्रस्वेद, मल रहित शरीर होय. त्रीजुं सुगंधिमान् श्वासोश्वास होय. चोथुं लोही, मांस उज्ज्वल. ए चार अतिशय जन्मथी प्रदेशोदय होय तथा चार घातीयां कर्म, क्षय करया पढी केवलज्ञान पामे थके तीर्थकरनामकर्मने उदयें समवसरणादि विजूति होय, पांत्रीश गुण सहित वाणीयें करी व्यजनने प्रतिबोधि तीर्थंकर कहेतां साधु, साधवी, श्रावक, श्राविकारूप चतुर्विध संघनी स्थापना करे तथा प्रथम गणधरनी स्थापना करे तथा देशना फल न थाय तथा कर्मी गीयार अतिशय थाय. देवताना कस्या उंगणीश अतिशय होय, ए सर्व तीर्थंकर नामकर्मना रसोदयथी थाय ॥ ४७ ॥ For Private Personal Use Only Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७३ कर्मविपाकनामा प्रथम कर्मग्रंथ. १ __॥ हवे निर्माण नामकर्मनुं स्वरूप कहीयें बैयें. ॥ अंगोवंग नियमिणं, निम्माणं कुणइ सुत्तहारसमं ॥ उवघाया उव हम्मइ, सतणु अवयवलंबि गाहिं ॥४७॥ अर्थ-अंगोवंग के अंगोपांग नियमिणं के गमर्नु गम थाणवू, ते निम्माणंकुण के निर्माणनामकर्म करे, सुत्तहारसमं के ते सूत्रधार सरखं जाणवू. उवघाया के० उपघातनामकर्मथी उवहम्मर के हणाय, पीडाय, सतणु के० पोताना शरीरना,श्रवयव के अवयवें करी लंबिगाहिं के पडजीनी चोरदंतादिकें करी ॥श्त्यदरार्थः॥४॥ __ औदारिकादिक त्रण शरीरनां अंगोपांग हाथ, पग, पेट, पुंठ, मस्तकादिक जे ज्यां जोश्ये, ते त्यां थापे, पण फेरफार न होय. हाथने गमें पग न होय,अने पगने ठामे हाथ न होय, परंतु पगने स्थानकें पग अने हाथने स्थानके हाथ होय, एम पंचेंजियपणुं जे ज्यां ते त्यां होय, एम अंगोपांगनो नियम निर्धार, जे कर्मना उदयथी जीव करे, ते निर्माणनामकर्म. ए कम करी अंगोपांगनामें करी नीपजाव्यां जे अंगोपांग तेनां गम, व्यवस्था होय. अहीं दृष्टांत देखाडे जे. जेम सूत्रधार,काष्टपाषाणनी पुतलीनो करनार पूतलीने घडतो जूदां जूदां हाथ पगना श्राकारना काष्ठखंग ते ज्यां जेवा जोश्ये त्यां तेवा मेलीने पूतली करे, ते निर्माणनामकर्म. हवे उपघात नामकर्मनुं स्वरूप कहे . उपघात नामकर्मथी जीव हणाय, पीमाय, स्खलना पामे. शेणे करी स्खलना पामे? ते कहे . सतणुअवयव के पोतानां अंग, पडजीजी, चोरदंत, तथा अधिक अंगुलि होय. तथा रसोली प्रमुख अधिक अंगें करी तथा ने अंगें करी जीव दुःख पामे,ते उपघातनामकर्मनो उदय जाणवो. ॥ हवे त्रसादिक दश प्रकृतिनुं स्वरूप कहेले ॥ विति चन पणिंदि तस्सा, बायर बायराजिआ थूला ॥ निअ निअ पजाति जुआ, पजाता ल६ि करणेहिं॥४ए॥ अर्थ-वि के बे इंजिय, ति के तेंजिय, चट के० चौरिंजिय, पणिंदि के पंचेंजिय जीव, ते तस्सा के प्रथम त्रस नामकर्म. बीजुं बायर के बादरनामकर्मना उदयथी बायरा जियाथूला के जीव बादर, स्थूल कहेवाय, सूक्ष्म फीटी बादर थाय. त्रीजु नियनिअपऊतिजुश्रा के पोतपोतानी जेटली पर्याप्ति होय तेटली पर्याप्ति सहित जीव होय,ते पऊत्तालकिकरणे हिं के० अपर्याप्ता लब्धियें करी तथा करणे करी ए बे नेदें करी पर्याप्ता तेमज अपर्याप्ता पण बे नेदें जाणवा ॥ इत्यक्षरार्थः ॥ ४ ॥ १जे त्रास पामे तापादिकें करी फुःखथकी बीक पामतो बायायें आवे तथा था Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मविपाकनामा कर्मग्रंथ. १ ३७३ हारादिकने स्थानातरें जाय ते त्रस जे कर्मने उदयें जीव स्थावरपणुं बांकी बे इंद्रियादिकत्रपणुं पामे, त्रस नाम धरावे जे कर्मना उदयथी ते त्रसनामकर्म. तथा जे कर्मश्री जीव, त्रसपणुं मूकी थावरपणुं पामे ते स्थावरनामकर्म. बीजो बादर एटले इंद्रियें ग्रहवा योग्य, जो पण एकेंद्रिय पृथिव्यादिक चारनां शरीर, एक, बे तथा संख्यातां मयां थकां पण इंद्रियें ग्रहवाय नहीं, केवल असंख्याता शरीरनो पिंक ईजियें ग्रहवाय, ते पण बादर कदेवाय श्रने जो असंख्याता असंख्याता नेदें मले, तो पण जे इंद्रियें न ग्रहवाय, ते सूक्ष्मशरीर कहीयें. ए बे प्रकृति पण पुल विपाकीनी a. तेथी आपणुं विपाकशरीर, पुल देखावे, ते जणी बादरपर्यायनुं निमित्त, ते बा - दरनामकर्म थने जे सूकापर्यायनुं निमित्त, ते सूक्ष्मनामकर्म. एम वादरनाकर्म ने सू नामकर्म बे सायें कह्यां. ३ हवे त्रीजुं पर्याप्तिनामकर्म कहे बे. जे कर्मना उदथी जीव, आरंजेली पर्याप्त पूर्ण करया विना मरे नहीं, ते पर्यासिनामकर्म जाणवुं. त्यां एकेंद्रियने घूरनी चार पर्याति तथा विकलेंद्रियने अने सन्निया पंचेंद्रियने जाषा होय, ते जणी पांच पर्या ति होय, तथा सन्निया पंचेंद्रियने मन होय, ते जणी व पर्याप्ति उत्पत्तिना प्रथम समयी रंने. ते याप थापणी आरंभेली पर्याप्ति पूर्ण करया पढी मरे, पण अधुरियें न मरे, ते लब्धिपर्याप्तो तथा करण एटले आहार, शरीर ने इंद्रिय पर्याप्त पूर्ण नथी थ, त्यां सुधी तेने करण पर्याप्तो कहीयें. अने पूर्ण थाय पढी करणार्याप्तो कहीयें. अथवा जे जे पर्याप्ति पूरी करी नथी ते तेनी अपेक्षायें करण पर्यातो ने पूरी करी तेनी अपेक्षायें करणपर्याप्तो अने जे कर्मना उदयथी खरंनेली पर्याप्ति, पूर्ण करया विना मरे, ते लब्धिपर्याप्तो होय. ते पर्याप्तनाम कर्म. त्यां पर्याप्तिकहेतां पुजलना उपचयथी थयुं जे पुलपरिणमनहेतुशक्ति विशेष, ते विषय नेदें व प्रकारे बे. १ आहार, २ शरीर, ३ इंद्रिय, ४ स्वासोश्वास, ५ जाषा, ६ मन. ए व पर्याप्ति बे. ते मध्ये १ जे शक्तिविशेषें जीव, पुजल यही खल रस जूदा करे, ते श्राहारपर्याप्ति. २ जे शक्तिविशेषें रस थयो तेने सात धातुपणे परिमावे, ते बीजी शरीरपर्याप्ति. ते धातुने द्रव्येंद्रियपणे परिणमाववानी शक्ति, ते श्रीजी इंद्रियपर्याप्ति. ४ श्वासोश्वास वर्गणादल लइ श्वासपणे परिणमावी अवलंबी मूकवानी, ते चोथी श्वासोश्वासपर्याप्ति ५ जाषाद्रव्य लइ जाषपणे परिणमावी - वलंबी मूकवानी शक्ति, ते पांचमी जाषापर्याप्ति. ६ मनोद्रव्य लेइ मनपणे परिणमावी वलंबी मूकवानी शक्ति, ते बही मनःपर्याप्ति. ए बए पर्याप्तिनो आरंभ समकालें होय, ते पछी एक समयें श्राहार पर्याप्ति पूर्ण करे, ते पछी अंतरमुहर्त्ते शरीरपर्या सि For Private Personal Use Only Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ कर्मविपाकनामा प्रथम कर्मग्रंथ. १ पूर्ण करे, ते पड़ी औदारिक शरीरवालो अंतरमुहूर्त मुहर्त्तने आंतरे शेष चार पर्याप्ति पूर्ण करे धने वैक्रिय तथा आहारक शरीरवालो समयने अंतरे पूर्ण करे. आगली बे पर्याप्ति सूक्ष्म , तेथी कालनो फेर थाय. जेम उजणी कांतनारी, साथें कांतवा बेठी तेमां जे स्थूल कांते, ते वहेवू कोकहुं पुरुं करे अने सूक्ष्म कांते ते, मोड़ें कोकहुँ जरे, एम पर्यातिने पण नाववी ॥ ४ ॥ ॥ हवे प्रत्येक नामकर्म कहे . ॥ पत्ते अतणू पत्ते, उदएणं दंतअघ्मिाइ थिरं ॥ नाजुवरि सिराइ सुहं, सुनगाउँ सवजणश्छो ॥ ५ ॥ अर्थः-पत्तेअतणू के औदारिक तथा वैक्रिय शरीर, प्रत्येक एटले जीव जीवप्रत्ये जाई जुई निरादुं श्राप आपणी निष्टानुं शरीर होय.' उदएणं के जे कर्मना ज. दयश्री ते पत्ते के प्रत्येक नामकर्म, एटले साधारण अनंता जीवन एक शरीर नि. गोद ले. ते मूकीने प्रत्येक शरीरपणुं पामे जे कर्मथी; ते प्रत्येकनामकर्म. तथा प्रत्ये. कपणुं मूकी साधारणमांहे अवतरे, साधारण नाम धरावे जे कर्मना उदयथी ते साधारणनामकर्म. तथा ५ दंतहिमाथिरं के० दंत अस्थि प्रमुख अवयवनो दृढ बंध होय स्थिर निश्चल होय, जे कर्मना उदयथी ते स्थिरनामकर्म. तथा कान, पापण, जीन प्रमुख शरीरावयव, जे कर्मना उदयथी अस्थिर एटले चपल होय, ते अस्थिरनामकर्म. ए बे प्रकृतिनो उदय अविरोधी , ध्रुवोदय जणी साथे होय. ६ हवे शुजनामकर्म कहे . नानिवरि सिराश्सुहं के नाजी उपरलां अंग हस्त प्रमुख मस्तकादिक अवयव शुजनामकर्मना उदयथी शुज होय, तेने स्पर्शे को श्रप्रीति न पामे तथा नाजीनी नीचेनां अंग जे पग प्रमुख,ते जेने लागे तेथी ते अप्री. ति पामे,ते अशुजनाम कर्मथी होय. एबे प्रकृति पण ध्रुवोदयी उदयें अविरोधिनी बे. हवे सौजाग्यनामकमे कहे जे. सुनगाउँसवजणाश्ठो के सौनाग्यनामकर्मना उदयथी जीव तथाविध उपकार कस्या विना तथा स्वजनादिक संबंध विना पण सर्वजनने इष्ट, वखन होय, सुबाहुनी पेरें. तथा दो ग्यनामकर्मना उदयथी जीव, कोश्ने घणा उपकार करे तो पण तथा स्वजनादिकने पण वसुदेवना पूर्वनवनो जीव, नंदीषेणनी पेरें अनिष्ट लागे, ते दौर्जाग्यनामकर्म ॥ ५० ॥ ॥ हवे सुस्वरनामकर्म कहे . ॥ सुसरा महुर सुद कुणी, आश्झा सवलोअ गिनव ॥ . जस जसकित्ती, थावरदसगं विवजा ॥ १ ॥ Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मविपाकनामा कर्मग्रंथ. १ ३७५ अर्थ-सुसरा के सुखरनामकर्मना उदयश्री महुर के मधुर मीठो, सुह के सुखदायि, कुणी के ध्वनि एटले स्वर होय. आश्जा के श्रादेयनामकर्मथी ते पुरुषनुं सवलोश के सर्व लोकने गिन के० ग्रहवायोग्य एवं वर्ड के वचन होय, जसजसकित्ती के यशकीर्तिनामकर्मथी जीवनी यश,कीर्ति सर्वत्र होय. थावरदसगंविवऊळ के स्थावरदशको ए थकी विपरीतार्थ जाणवो ॥ इत्यक्षरार्थः ॥५१॥ कोकीलानी पेरें जीणो, मीगे, शुक, शुक सालही कहेता मेना तथा मयूरनी पेरें शुन सुखदायि पुःखवारक स्वर लहीयें, ते सुस्वरनामकर्मना उदयथी जाणवो. तथा खर, उंट, फेतकारी, लुंकमी, मार्जार, घूडना शब्दनी पेरें कमवो, कागना स्वरनी पेरें अनिष्ट, घोघरो विरूप स्वर पामीयें, ते फुःस्वरनामकर्मनो उदय, ए नाषापर्याप्ति पूरी कस्या पली होय, ते नणी वचनप्रतिबंध के अने श्रोत्रंजियने सुखदायी तथा उःखदायि होय. _ए आदेयनामकर्मना उदयथी जीवनुं वचन, शुन शकुनना वचननी पेरें इष्ट मानवा योग्य सुखें समजवा योग्य होय, तेमज अनादेयनामकर्मना उदयथी जीव जो पण मायुं हितकारक वचन कहे, तोपण तेनुं वचन कोश्ने सुहाय नहीं, अशुन शकुननी पेरें अनिष्टपणे माने, सुस्वर थका पण अपशकुननी पेरें सुहाय नहीं.अहीं थादेयथी मान्य वचन होय अने सुस्वरनामकर्मथी सुकंठ होय एटलो नेद जाणवो. १० जे एकदिशें नाम विस्तरे, ते कीर्ति; अने जे चारे दिशायें शोना बोलाय, ते यश, अथवा दान शीलादिक गुणें करी शोजा वधे, ते कीर्ति अने पोताना पराक्रमें अव्यन्नाव शत्रुजयादिक गुण विस्तरें, तेने यश कहीयें. ए बे वानां जे कर्मना उदयथी जीव लहे, ते यशःकीर्तिनामकर्म. तथा जेना उदयथी यशःकीर्ति न लहे, ते अयशः. कीर्तिनामकर्म. ए त्रस दशको कह्यो. अने ए थकी विपरीत उलटो अर्थ स्थावरादिक दश नामकर्मनो जे नेद, जे जणी त्रस फीटी स्थावर थाय, ते स्थावर नाम कर्म, तेमज बादरपणुं फीटी सूक्ष्मपणुं पामे, एम अनुक्रमें स्थावर दशक जाणवू. एटले त्रसविंशतिनुं स्वरूप कह्यु. ए रीतें नामकर्मना शमशह तथा त्राणु तथा एकसो ने त्रण नेदतुं स्वरूप कडुं. ॥५१॥ ॥ हवे गोत्र तथा अंतराय ए वे कर्म कहे . ॥ गोअंहुच्च नीअं, कुलाल इव सुघम जुंनलाईनं ॥ विग्धं दाणे लाने, नोगुवनोगेसु विरिएअ ॥५॥ Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ कर्मविपाकनामा प्रथम कर्मग्रंथ. १ अर्थ- गोयं के गोत्रकर्म, उह के बे नेदें . एक उच्च के उच्चैर्गोत्र, बीजुं नीशं के नीचैर्गोत्र, त्यां कुलालश्वसुघड के कुंजारनी पेरें घडेला नला घमा सरखं उच्चैर्गोत्र, अने झुंजलाईओं के कुंजार अशुन झुंजल एटले मदिरा प्रमुखनो घमो पण घडे, तेना सरखं नीच्चैर्गोत्र, तथा विग्धं के अंतरायकर्म पांच नेदें एक दाणे के दानांतरायकर्म, लाने के लानांतरायकर्म, जोग के जोगांतरायकर्म, उवनोगेसु के उपजोगांतरायकर्म, विरिए के वीर्यांतरायकर्म ॥ इत्यक्षरार्थः॥ ५ ॥ ते गोत्रकर्मना बे नेद. एक उच्चैर्गोत्र, बीजं नीच्चैर्गोत्र, ते बे दृष्टांतें करी समजावे ३. विशिष्टजाति क्षत्रियकाश्यपादिक, उग्रादिककुल, उत्तम बलविशिष्टरूप ऐश्वर्य, तपो गुण, विद्यागुण सहित होय ते उच्चैर्गोत्र तथा निकादिक, कुलहीन जात्यादिक लहे. ते नीचैर्गोत्र. जेम कुलास एटले कुंजार ते नला घमा नीपजावे, ते लोकमां कुसुम, चंदन, श्राखा एटले अक्षतशं पूजा पामे, मंगलकार्ये कलश स्थापे, तेम उच्चैर्गोत्रना उदयथी जीव विशिष्ट जात्यादिक गुणें करी जो पण बुष्ट्यादिकें हीन होय तोपण उत्तम जातिकुलादिक गुणे करी मनाय. तथा नीच्चैर्गोत्रना उदयथी जीव जुजला एटले मदिरानुं गम जे घमो ते जोपण मदिराहीन होय तोपण मान न पामे, तेमज जो बुट्यादिक गुणवंत होय, तो पण नीचकुल माटे ते जीव पांति न पामे. ए रीतें गोत्रकर्म कडं.. हवे श्रापमुं अंतरायकर्म कहे जे. एना पांच नेद जे. जे कर्मना उदयथी जीव, शुद्धअव्य बते, शुद्ध पात्र मले थके दान देवाने वांडतो पण दान थापी न शके, ते पहेलु दानांतरायकर्म. जे कर्मने वशे देवावालो बता इष्ट वस्तु वांबतो याचे तथा व्यापारें माह्यो थको पण इष्ट वस्तु न पामे, तेनुं नाम बीजं लानांतरायकर्म. तथा जे एक वेला जोगवाय, ते फूल आहारादिक लोग अव्य उते जोगववा वांडतो, विरति विना नोगवी न शके, ते त्रीजु नोगांतरायकर्म. तथा जे घणा वखत नोगवाय, ते उपत्नोग, एवा स्त्री तथा आजरणादिकना उपनोग वांबतो, आचरणादिक बते हुँते जे कर्मना उदयथी पहेरी जोगवी न शके, ते चोथु उपनोगांतरायकर्म. तथा जे कर्मना उदयथी मिथ्या क्रियाने समर्थ थको पण जीव, ते क्रिया करी न शके, ते बालवीतिरायकर्म. तथा जे सम्यक्दृष्टि साधु मोक्षार्थे क्रिया करवाने हीडे, एटले प्रवर्ते, तो पण करी न शके, ते पंमितवीर्यांतरायकर्म. तथा जेणे करी देशविरतिपणुं वांडतो पाली न शके, ते बालपंमितवीर्यातरायकर्म. ए पांचमुं वीर्यांतरायकर्म जाणवू. ॥ ५ ॥ Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मविपाकनामा कर्मग्रंथ. १ ३७७ G कर्मनी मूलप्रकृति ७. ३ मिथ्यात्वमोहनीय. १ज्ञानावरणीय कर्म. ४ अनंतानुबंधकोध. २ दर्शनावरणीय कर्म. ५ अप्रत्याख्यान क्रोध. ३ वेदनीय कर्म. ६ प्रत्याख्यान क्रोध. ४ मोहनीय कर्म ७ संज्वलन क्रोध. ५ आयुः कर्म. ७ अनंतानुबंधीमान. ६ नाम कर्म. ए अप्रत्याख्यानमान. ७ गोत्र कर्म. १० प्रत्याख्यानमान. G अंतराय कर्म. ११ संज्वलनमान, ५ ज्ञानावरणीयनी प्रकृति ५. १५ अनंतानुबंधीमाया. १ मतिज्ञानावरणीय. १३ अप्रत्याख्यानमाया. १४ प्रत्याख्यानमाया. २ श्रुतझानावरणीय. १५ संज्वलनमाया ३ अवधिज्ञानावरणीय. ४ मनःपर्यवझानावरणीय. १६ अनंतानुबंधी लोन. ५ केवलज्ञानावरणीय. १७ अप्रत्याख्यान लोन. ए दर्शनावरणीयनी प्रकृति ए. १७ प्रत्याख्यान लोन. १ संज्वलन लोन. चक्षुदर्शनावरणीय. २० हास्यनोकषाय. अचकुदर्शनावरणीय. २१ रतिनोकषाय. ३ अवधिदर्शनावरणीय. २२ अरतिनोकषाय. ४ केवलदर्शनावरणीय. २३ शोकनोकषाय. २४ नयनोकषाय. ६ निशानिशा. २५ जुगुप्सानोकषाय. ७ प्रचला. २६ पुरुषवेदनोकषाय. प्रचलाप्रचला. २७ स्त्रीवेदनोकषाय. एए थीणची. २७ नपुंसकवेदनोकषाय. २ वेदनीय कर्मनी प्रकृति . ४ आयुःकर्मनी प्रकृति ४. १ शातावेदनीय. १ देवायु. २ अशातावेदनीय. ५ मनुष्यायु. २७ मोदनीयनी प्रकृति ७. १ सम्यक्त्वमोहनीय. - २ मिश्रमोहनीय. ५ निजा. ३ तिर्यगायु. ४ नरकायु. Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ច कर्मविपाकनामा प्रथम कर्मग्रंथ. १ १०३ नामकर्मनी प्रकृति १०३. ३१ तैजसकामण बंधन १ नरकगति नामकर्म. ३२ कार्मणकार्मण बंधन. २ तिर्यग्गति नामकर्म ३३ औदारिकसंघातन३ मनुष्यगति नामकर्म ३४ वैक्रियसंघातन. ४ देवगति नामकर्म. ३५ आहारकसंघातन. ५ एकेडिय जातिनाम. ३६ तैजसूसंघातननाम. ६ वेंघिय जातिनाम. ३७ कार्मणसंघातननाम७ तेंजिय जातिनाम. ३७ वजषजनाराचसंघयण. 6 चतुरिंजिय जातिनाम. ३ए षननाराचसंघयण. ए पंचेंजिय जातिनाम. ४० नाराचसंघयण. १० औदारिक शरीरनाम. ४१ अर्धनाराचसंघयण. ११ वैक्रिय शरीरनाम. ४२ कीलिकासंहनन. १५ श्राहारकशरीरनाम. ४३ बेवहुसंहनन, १३ तेजस्शरीरनाम. ४३ समचतुरस्त्रसंस्थान. १५ कार्मणशरीरनाम. ४५ न्यग्रोधसंस्थान. १५ औदारिक अंगोपांग. ४६ सादिसंस्थान. १६ वैक्रिय अंगोपांग. ४७ वामनसंस्थान. १७ आहारक अंगोपांग. ४० कुब्जसंस्थान. १७ औदारिकौदारिक बंधन. ४ए ढुंमसंस्थान. १ए औदारिक तैजसूबंधन. | ५० कृलवर्णनाम. २० औदारिक कार्मणबंधन. ५१ नीलवर्णनाम. २१ औदारिकतैजस कार्मणबंधन. ५५ लोहितवर्णनाम. २५ वैक्रियवैक्रिय बंधन. ५३ हारिजवर्णनाम. २३ वैक्रियतैजस बंधन. ५४ श्वेतवर्णनाम. २४ वैक्रियकार्मणबंधन. ५५ सुरनिगंध. २५ वैक्रियतैजस्कार्मणबंधन. ५६ पुरनिगंध. २६ श्राहारक आहारक बंधन. ५७ तिक्तरस. २७ आहारक तेजस् बंधन. ५७ कटुकरस. २७ श्राहारक कार्मण बंधन. एए कषायरसनामकर्म. ए आहारक तैजस् कार्मण बंधन. ६० आम्लरसनामकर्म. ३० तैजस्तैजसु बंधन. ६१ मधुररसनामकर्म. Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मविपाकनामा कर्मग्रंथ. १ ३७ए ६२ कर्कशस्पर्शनामकर्म. ७ स्थिरनामकर्म. ६३ मृऽस्पर्शनामकर्म. ए शुजनामकर्म. ६४ गुरुस्पर्शनामकर्म. ए सोनाग्यनामकर्म. ६५ लघुस्पर्शनामकर्म. ए सुखरनामकर्म. ६६ शीतस्पर्शनामकर्म. ए श्रादेयनामकर्म. ६७ उप्लस्पर्शनामकर्म. ए३ यशःकीर्त्तिनामकर्मः ६० स्निग्धस्पर्शनामकर्म. ए४ स्थावरनामकर्म. ६ए रुक्षस्पर्शनामकर्म. ए५ सूक्ष्मनामकर्म.. ७० नरकानुपूर्वी. ए६ अपर्याप्तनामकर्मः ७१ तिर्यगानुपूर्वी. ए साधारणनामकर्म. ७२ मनुष्यानुपूर्वी. एज अस्थिरनामकर्म. ७३ देवानुपूर्वी. एए अशुजनामकर्म. ७४ शुनविहायोगति. १०० पुर्जगनामकर्म. ७५ अशुनविहायोगति. १०१ दुःस्वरनामकर्म. ७६ पराघातनामकर्म. १०२ अनादेयनामकर्मः 39 जश्वासनामकर्म. १०३ अयशःअकीर्तिनामकर्म. उज्यातपनामकर्म. गोत्रकर्मनी प्रकृति ३. जए उद्योतनामकर्म. १ उच्चैर्गोत्र. ७० अगुरुलघुनामकर्म. २ नीचैर्गोत्र. र तीर्थकरनामकर्म. ५ अंतरायनी प्रकृति ५. निर्माणनामकर्म. १ दानांतराय. ७३ उपघातनामकर्म. २ लानांतराय. ७४ सनामकर्म. ३ जोगांतराय. ज्य बादरनामकर्म ४ उपजोगांतराय. ७६ पर्याप्तनामकर्म. ५ वीर्यांतराय. छ प्रत्येकनामकर्म. एवं कर्मनी १५७ कर्म प्रकृति जाणवी. कर्मनाम. शा. द. वे. मो. आयु. नाम. गो. अं० समग्र. बंधप्रकृति. ५ ए २ ६ ४ ६७ २ ५ १२० उदय. ५ ए २ ० ४ ६७ ५ ५ १२२ उदीरणा. ५ ए २ ख ४ ६७ ५ १२५ सत्ता. ५ ए २. २७४ १०३ ५ ५ १५८ १४८ Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० कर्मविपाकनामा प्रथम कर्मग्रंथ. १ सिरि हरिअसमं एअं, जह पडिकूलेण तेण रायाई॥ नकुण दाणाईअं, एवं विग्घेण जीवोवि ॥ ५३ ॥ थर्थ- सिरिहरिश्र के लक्ष्मीनु घर एटले श्रीगृह ते जंमार, तेनो अधिकारी ते पण श्रीग्रही एटले नंमारी समंएवं के० ते सरखुं, ए अंतरायकर्म कां वे जह के० जेम ते नंडारी पमिकूलेण के प्रतिकूल थके, तेणरायाई के० ते राजादिक दानादिक करवा वांजे, पण ते योगें नकुणदाणाई के० दान लान नोगादिक न करी शके. एवं विग्घेणजीवोवि के एम अंतरायकर्मे करी जीवरूप राजापण जाणवो ॥श्त्यदरार्थ॥ नंमारीनुं दीधुं, जेम राजा दीये, लान्ने, नोगवे, तेम अंतरायकर्मनो जेवो दयो. पशम तेवो जीव दीये, लाने, जोगवे, जेम ते भंडारी, उते माले देवराववा नहिं दे, तालुं न खोले तो राजा मालनो धणी ने तो पण दक्ष, लेझ, जोगवी न शके. एम आदिशब्दथकी मंत्रीश्वर, श्रेष्ठी, सार्थवाहादिक पण नंडारी रूंधि वस्तुनुं दान, लान, जोग न पामे, तेम जीवरूप राजा पण अंतरायकर्मरूप नंडारीने वश थको दान, लान, नोग, उपनोग, वीर्य, वांडतो पण दव, लक्ष, जोगवी, उपनोगवी तथा वीर्यवल फोरवी न शके, जेवारे तेने क्षयोपशमें तथा दयें करी तथा आत्माने श्रायत वस्तु होय, तेवारे ते यथेलायें देश, लेश, जोगवे, बल वीर्य फोरवे. एटले अंतरायकर्मनी पांच प्रकृति कही. ए रीतें थावे कर्मनी मूल उत्तर एकसो ने अहावन प्रकृतिनां लक्षण स्वरूप कह्यां तेनो यंत्र लख्यो ॥ ५३ ॥ हवे ए श्राप कर्म बांधवाना मुख्यहेतु तो मिथ्यात्व, अविरति, कषाय अने योग, ए चार बे. ते तो आगल चोथा कर्मग्रंथने विषे सविस्तरपणे कशे, परंतु इहां स्थूल हेतु कहे जे. त्यां प्रथम ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीयना हेतु कहे जे. पमिणीअत्तण निन्दव, जवघाय पस अंतराएणं॥ अच्चासायण याए, आवरण उगं जि जयई ॥५४॥ श्रर्थ-पमिणीश्रत्तण के गुर्वादिकनुं प्रत्यनीक एटले अनिष्ट आचरणनो करनार, निन्दव के उलववे करी, उवघाय के उपघाय एटले हणवे विनाशवे करी, पस के प्रोष राखवे करी, अंतराएणं के अंतराय करवे करी, श्रच्चासायणयाए के० ज्ञानदर्शननी अत्यंत आशातना करवे करी, श्रावरणपुगं के ज्ञानावरण थने दर्शनावरण ए बे आवरणने जि के जीव, जयई के० उपाय ॥ इत्यदरार्थः ॥ ५४ ॥ १ मतिश्रुत प्रमुख पांच ज्ञाननी तथा ज्ञानवंतनी तथा ज्ञानोपकरण पुस्तकादिकनी प्रत्यनीकता एटले अनिष्टपणुं, प्रतिकूलपणुं करवं, जेम ज्ञान, ज्ञानवंतने मा थाय Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मविपाकनामा कर्मग्रंथ. १ ३८१ वस्त्र, तेम करे; २ तथा निन्दव एटले जेनी पासेंथी जल्यो होय ते गुरुने उलवतां, तथा जाण्याने जाएयुं कहेतां; ३ तथा ज्ञानवंत तथा ज्ञानोपकरणनो उपघात एटले अग्निशस्त्रादिकें करी विनाश करतां; ४ तथा ज्ञानवंत उपर तथा ज्ञानोपकरण उपर प्रद्वेष करतां, अंतरंग अरुचि, मत्सर धरतां; ५ जणताने अंतराय एटले अन्न, पाणी, वस्ति, निषेधतां, कार्यंतरें जोडतां वार्तांतरें लगावतां, पवनविछेद करतां; ६ ज्ञानवंतनीत्याशातना करतां, ए हीनजाति बे, इत्यादिक मर्म बेदवे करी, झाल देवे करी, प्राणांत कष्ट देवे करी तथा श्राचार्य उपाध्यायने मत्सर करतां खकालें सजाय करतां, योगोपधान हीन जणतां, खसकायें सकाय करतां, ज्ञानोपकरण पासे बते त्यां लघुनीति, वडीनीति, मैथुन करतां, पग लगाडतां, थूक लगाडतां, ज्ञानद्रव्य विनाशतां, विणसतो वेखतां ज्ञानावरणकर्म बंधाय. तेम दर्शनावरण पण दर्शनप्रत्यनीकता दिक दोषें करी बंधाय. पण एटलुं विशेष जे दर्शन एटले चक्कु, श्रच प्रमुखदर्शनी साधु, तेना पांचे इंद्रिय तेना उपर विरून चिंतत्रतां, तथा सम्मति तत्वार्थ नयचक्रवालादिक दर्शनप्रजावक शास्त्र, तेनां पुस्तक ते उपर प्रत्यनीकतादि समाचरतां थकां दर्शनावरणकर्म बंधाय, एम आवरण बंध हेतु बेना का ॥ ५४ ॥ ॥ दवे शाता तथा शातावेदनीय बंधहेतु कहे बे. ॥ गुरुजत्ति खंति करुणा, वय जोग कसाय विजय दा जुर्ज दढ धम्माई, सायमसायं विवजय ॥ ५५ ॥ अर्थ- गुरुजत्ति के० गुरुनक्तियें करी, खंति के० क्षमायें करी, करुणा के० करुणाजावें करी, वय के व्रत पालतां, जोग के० संयमयोगें करी, कसाय विजय के० कषाय कींपतां, दाजु के० दानशीलादिक गुणें करी सहित होय. दढधम्माई के० दृढधर्मी प्रियधर्मी इत्यादिक शुजकारणे करी, अइ के० उपा, सायं के० शातावेदनीयनेने सायं विवाय के० शातावेदनीय एथी विपरीतपणे बांधे ॥ इत्यरार्थः ५५ १ गुरु एटले पोतानां माता, पिता, धर्माचार्य, तेनी नक्ति एटले सेवा करतां; क्षमा एटले समर्था बते पारका अपराधने सहन करतां; ३ परजीवने दुखीया देखी तेनां दुःख टालवानी वांछा धरतां; ४ पांच महाव्रत तथा अणुव्रत निर्झषण पालतां; ५ योग एटले दशविध चक्रवाल समाचारीरूप संयमयोग साचवतां; ६ क्रोध, मान, माया ने लोजरूप कषाय तथा हास्यादिकनोकषाय, तेनो विजय एटले जीपवे करी, उदय श्राव्याने निःफल करतां; ७ सुपात्र दान तथा अजय दान देतां, सर्व जीवने उपकार करतां, हित चिंतवतां; ८ धर्मने विषे स्थिरपरिणाम राखतां, एटले मरणांत heard के पण धर्मने न मूकतां, एवो धर्मरागसहित जीव तथा घ्यादिशब्दथकी For Private Personal Use Only Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ कर्मविपाकनामा प्रथम कर्मग्रंथ. १ बाल, वृक्ष, ग्लानादिकनुं वैयावच्च करतो, धर्मवंतने धर्म कर्त्तव्यमां वर्ततां सहाय देतो, चैत्यत्नक्ति रुडी पेरें करतो, सरागसंयमें देशविरति पालतो, तथा अकामनिर्जरा, बालतप, शौच, सत्यादिक शुजपरिणामें वर्त्ततो जीव, शातावेदनीय कर्म उपाऊँ, बांधे. ए शातावेदनीयना बंधहेतु कह्या. तेथी विपरीते चालतो अशातावेदनीय बांधे, एटले गुरुने विराधतो, अक्षमायें वर्ततो, निःकरुणायें प्रवर्ततो, व्रत लय विराधतो, समाचारी लोपतो, घणो कषाय उदीरतो, कृपणतायें धर्मने अस्थिरपणे चैत्यादिकनी श्राशातनायें, तथा शील लोपतां, हाथी, घोमा, बदल, उंट, प्रमुखने दमतां, नाथतां, थंकतां, पीमा देतां, परने शोक संतापउपजावतां, अविरति, अहित परिणामें जीव, अशातावेदनीय बांधे ॥ ५५॥ ॥ हवे मिथ्यात्वमोहनीयना बंध हेतु कहे. ॥ उमग्ग देसणामग्ग, नासणा देव दत्व दरणेहिं ॥ दसणमोहं जिण मुणि, चेश्अ संघाइ पमिणी ॥५६॥ ' अर्थ- उमग्गदेसणा के उन्मार्गनी देशनायें, मग्गनासणा के० झानादिक सन्मागनो विनाश करतां, देवदवहरणेहिं के० देवतुं अव्य हरण करतो जीव, दसणमोहं के दर्शनमोहनीयकर्म बांधे. वली जिण के तीर्थकर, मुणि के० साधु, चेन के० चैत्य, ते जिनप्रतिमा, संघाश् के संघ प्रमुखना पमिणी के प्रत्यनीकपणे दर्शनमोहनीय कर्म बांधे. ॥ - १ उन्मार्ग एटले संसारहेतु जे हिंसादिक श्राश्रव तेने मोदहेतुपणे देखामतां, एकांतनयें एकली क्रिया अथवा एकला ज्ञानश्री मोक्ष एमज विनय दयादिक एकांतें उपदेशता; २ तथा मार्ग एटले विशिष्ट क्षयोपशमजन्य विशिष्टगुणज्ञान, दर्शन, चारित्र, समुदायरूप मोक्षप्राप्तिहेतुस्वरूप फलशुद्ध, तेने नसामवे करी एटले सन्मार्गे रह्या जे परजीव, तेने एकांतनयनी देशनायें करी मार्गथकी चूकवतो; ३ देवप्रव्य, ज्ञानव्यादिक. त्यां देराशरने उपयोगी एटले काम थावे, एवां काष्ठ, पाषाण मृत्तिकादिक तथा तन्निमित्त हीरण्य, धनादिक तथा देराशरनी नूमिप्रमुख तेने हरतो तथा देवपव्ये करी घरकार्य करतो, व्यापार करतो, परने देवाव्य विणाशतो देखी, बती शक्तियें उवेखी मूकतो थको पण जीव, अहीं दर्शनमोहनीय कहेतां मिथ्यात्वमोहनीयकर्म बांधे. जे जणी एटलां कार्य मिथ्यात्वने उदय होय. त्यां बंध, मिथ्यात्वनोज होय. वली बीजा पण हेतु कहे . जिन के केवली तथा तीर्थकरनी प्रत्यनीकता एटले अवर्णवाद बोले, जे ए सर्वइ बे तो अशुचिरस स्वाद लहे ? तथा समवसरणादिक शति जोगवे ले तो वीतराग शाना ? इत्यादिक निंदा करतो, तथा मुनि एटले सुसाधु, Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मविपाकनामा कर्मग्रंथ. १ ३७३ चैत्य एटले जिनप्रतिमा देहरादिक तथा संघ जे साधु, साधवी, श्रावक अने श्राविकानो समुदाय. आदि शब्दथकी सिफ श्रुतादिक, तेनी प्रत्यनीकता प्रतिकूलपणुं श्राचरतां, प्रहेष धरतां, अवर्णवाद बोलतां, एमना गुणवर्णन अणकरतो, जिनप्रवचनमा देखामतो, उड्डाह वधारतो, अयश करतो, घणा जीवना बोधबीज हणे, तेणे करी मिथ्यात्व मोहनीय बांधे, अने पूर्वे बांध्यु होय, तेने निकाचित करे ॥ ५६ ॥ ॥ हवे चारित्र मोहनीयना बंध हेतु कहे .॥ विहंपि चरणमोहं, कसाय दासा विसय विव समणो ॥ बंध निरया महा, रंन परिग्गह र रुद्दो ॥ ५७ ॥ अर्थ-विहं पिचरणमोहं के पहेलु कषायमोहनीय, ने बीजुं नोकषायमोहनीय, ए बेप्रकारनुं चारित्रमोहनीय बांधे,ते कसाय के कषाय हासा के हास्यादिक तथा विसयविवसमणो के विषयने विषे तत्पर लोलुपी परवश चित्त थको बांधे अने जे बंधश्निरयाज के नरकायु बांधे, ते जीव, महारंज के महारंने वर्ततो, परिग्गहर के परीग्रहमा रातो थको रुद्दो के रौअध्याने वर्ततो, एटले महाकषायवंत, जीवघातनो करनार, पुष्ट परिणामी होय ॥ ५ ॥ १ एक कायमोहनीय, बीजुं नोकषायमोहनीय, एम बे ने चारित्र मोहनीय कर्म बांधे. तेमाहे जे कषायने उदय जीव वर्ते, ते कषायनी चोकडी बांधे, जेम अनं. तानुबंधीया क्रोधादिकने उदयें सघला कषाय बांधे, अप्रत्याख्यानीयाने उदयें बार कषाय बांधे, प्रत्याख्यानीयाने उदय प्रत्याख्यानीया चार कषाय, तथा संज्वलना चार कषाय, ए रीतें श्राप कषाय बांधे. संज्वलनाकषायने उदयें संज्वलना चार कषाय बांधे तथा हास्य करतो, नांम कुचेष्टा करतो तथा बहु बोलतो थको जीव, हास्यमोहनीयकर्म बांधे. ५ देश देखवाने रसें, विचित्र क्रीमारसें, मुखरीपणे एटले लबामीपणे, कामण, मोहन करतो, परने कुतूहल देखाडतो जीव, रतिमोहनीयकर्म बांधे. ३राजवेध करतो, नवो राजा स्थापतो, परस्परें संनेडा लगाडतो, परने अरति, उच्चाट उपजावतो, अशुजकर्म कराववाने उत्साह वधारतो, शुज कार्ये उत्साह नांजतो, निष्कारण आर्तध्याने वर्त्ततो जीव, अरतिमोहनीयकर्म बांधे. ४ परजीवने त्रास पमाडतो, निर्दय परणामी थको, जयमोहनीयकर्म बांधे. ५ परने शोक, चिंता, संताप, उपजावतो, तपावतो थको जीव,शोकमोहनीयकर्म बांधे.६ धर्मावतंससाधुजननी निंदा करतो, तेनां मलमलिन गात्र देखी सूग करतो जीव, जुगुप्सामोहनीयकर्म बांधे. १ शब्द, रूप, रस, गंध, स्पर्श, ए अनुकूल विषयने विषे अत्यंत श्रासक्त थको परनी श्रादेखाइ, मत्सर धरतो, माया मृषा सेवतो, कुटिल परिणामें परदारा सेवतो जीव, Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ कर्मविपाकनामा प्रथम कर्मग्रंथ. १ स्त्रीवेद बांधे. २ सरलपणे स्वदारा संतोषें ईर्ष्यारहित मंदकषायें जीव, पुरुषवेद बांधे. ३ तीव्रकषायें दर्शत्रीनुं शील जंजावतो, तीव्रविषयी, पशुघातक, मिथ्यात्वी जीव, नपुंसकवेद बांधे. चारित्रियानो दोष देखामतो, असाधुना गुण ग्रहण करतो, कषाय उदीरतो जीव, चारित्रमोहनीयकर्म बांधे. हवेयुः कर्मना हेतु कहे बे. महाश्रारंभ चक्रवर्त्ति प्रमुख कृद्धि जोगवतो मूर्छा परिग्रह सहित, घविरतिपरिणामी, अनंतानुवंधिया कषायने उदयें पंचेंयिनी हत्या निःशंकपणे करतो, मद्य, मांसादिक साते कुव्यसन सेवतो, कृतघ्नतापएं, विश्वासsोहादिक महोटां पाप श्राचरतो, उत्सूत्र नांखतो. मिथ्यात्वनो महिमा वधारतो, परिणामें कृमादिक ऋण लेश्यायें वर्त्ततो जीव अशुभ परिणामें करी नारकीनुं श्रायु बांधे. ॥ ५७ ॥ 9 ॥ वे तियंचना थायुबंध हेतु कहे. ॥ तिरिया गूढ दिप, सढो ससल्लो तहा मगुस्सा ॥ पयईयत कसा, दारुई मत्रिमगुणो ॥ ५८ ॥ अर्थ - तिरिया के० तिर्यंचनुं ययु बांधे. गूढ हि के० गूढ हृदयनो धणी, सढो के० मूर्ख, धूर्त, ससल्लो के० मिथ्यात्वादिक शव्यसहित, तहा के० तेमज हवे मस्सा के० मनुष्यनुं श्रायु बांधे, ते पयईय के० प्रकृति एटले स्वजावें तणुकसा horer कषायवंत होय. दारुइ के० दान देवाने रुचिवंत होय. मनिमगुणो के मध्यम गुणवंत होय. इत्यक्षरार्थः ॥ ५८ ॥ गूढ हृदय एटले जेना अभिप्रायनी कोइने खबर न पडे, उदायिन राजाने मारवानी पेरें गूढानिप्राय होय, तथा शव एटले मायावी, कपटी कहे तेम करे तथा वाणी यें मधुर, परिणामें दारुण होय, जुडुं उवट प्रकाशे, यतिध्यानी, या लोकें मान पूजादेतुयें तप करतो, सशस्य एटले आपणी पूजा महत्व न्यून थर जशे ? एवा जयें करी जेवां पापकर्म श्राचरयां होय, तेवां पूर्ण आलोचे नहीं, शब्य राखे, इत्यादि माया ज्ञाना तीव्र मोहादिकें जीव, तीर्यगायु बांधे. तेमज मनुष्यायु बांधवाना पण विशेष हेतु कहे बे. त्यां देवता तथा नारकी तो सम्यक्त्व कर्त्तव्यतायें शुभजावें करी मनुष्यनुं श्रायु बांधे, ते जणी जवप्रत्ययें तेहने देवायु न बंधाय तथा मनुष्य, तिर्यंच, जेह प्रकृति कक्षेतां सहेजें उपाय कस्या विना मिथ्यात्वने मंदरसोदयें करी कषायनो पण मंदरसोदय होय. तेथी तणु एटले दुर्बल पढ्या एवा कषाय, जेम धान्य न मलवाथी दुर्बलता याय, एवो प्रकृतियें जड़क धूलि - रेखा समान कषायें वर्त्ततो, सहेजें सुपात्र, कुपात्र परीक्षा कस्या विना विशेष यश: For Private Personal Use Only Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मविपाकनामे कर्मग्रंथ. १ ३न्य कीर्ति, प्रमुख श्रणवांछतो पण स्वनावें दान देवानी रुचि तीव्र होय जेने एवो, क्षमा, श्राजैव, माईव, सत्य, शौचादिक,मध्यम गुणें वर्त्ततो. एटले अनागाढ मिथ्यात्वी, गुणहीन सम्यक्दृष्टि उत्कृष्टगुणना ते जणी अनागाढ, मिथ्यात्वी, मध्यम गुणशुं संबोध्य एटले बूजव्यो, देव, गुरुपूजा प्रीय कापोतलेश्या परिणामें जीव, मनुष्यायु बांधे. ॥ ५० ॥ ॥हवे देवायुना बंधहेतु कहे . ॥ अविरय मा सुराज, बालतवोऽकाम निजरोजय॥ सरखो अगार विल्लो, सुदनामं अन्नदा असुहं ॥५॥ अर्थ-अविरयमाश्सुरा के अविरतिसम्यकदृष्टयादिक देवायु बांधे, बालतवोऽकामनिङरोजाय के बालत करी, तथा ब्रह्मचर्ये करी, थकामनिर्जरा जपा?, श्रने सरलो के निष्कपटी, श्रगार विलो के गारवरहित थको सुहनामं के शुजनामकमनी प्रकृति बांधे, तथा अन्नहायसुहं के अन्यथा कपट गारवसहित अशुन नामकर्मनी प्रकृति बांधे. ॥ ५ ॥ __ अविरतिसम्यक्दृष्टि, मनुष्य, तिर्यंच, देवायु बांधे, घोलना परिणामें सुमित्र संयोगें, धर्मरुचिपणे, देशविरतिगुणे, सरागसंयमें देवायु बांधे. बालतप एटले फुःखगनित, मोहगर्जित वैरागें करी पुष्कर कष्ट पंचाग्निसाधन रसपरित्यागादिक अनेक मिथ्यात्वज्ञाने तप करतो, सनिदान उत्कट एटले अत्यंत थाकरो, रोष गारवें तप करतो, असुरादिकयोग्य थायु बांधे. तथा अकामनिओरायें, अज्ञानपणे नूख, तृषा, टाढ, ताप, रोगादिक कष्ट सहेतो, स्त्री श्रण मिलते शील धारण करतो, विषयसंपतिने अनावें विषय श्रणसेवतो. इत्यादिक अकामनिर्जरायें तथा बालमरण एटले कांहिंएक तत्प्रायोग्य शुजपरिणामें वर्ततो, रत्नत्रय विराधनायें व्यंतरादि योग्य वायु बांधे, तथा श्राचार्यप्रत्यनीकतायें किल्बिषिकायु बांधे, तथा मुग्धजन मिथ्यात्वीना गुण प्रशंसतो, महिमा वधारतो, परमाधामी- श्रायु बांधे. एम श्रायुःकर्मना बंधहेतु कह्या. तथा अकर्मनूमिना मनुष्यने अणुव्रत, महाव्रत, बालतप, थकामनिर्जरादिक देवायुना बंधहेतु विशेष को नश्री, तथा अही केटलाएक मिथ्यात्वी जे तेथी तेने देवायु केम संचवे? परंतु तेने शीलवतत्वपणे देवायुनो बंधहेतु कहेवो, एम तत्वा टीकामांहे कयुं . ___ हवे नामकर्मना बंधहेतु कहे . सुरगत्यादिकने त्रीश शुजनामकर्मप्रकृतिना बं. धहेतु होय ते कहे . सरल एटले कपटरहित जेवो हृदयमांहे होय तेवो आचार बोले, कोश्ने पण कूमां तोल, मापें करी उगे नहीं, परवंचनबुधिरहित, शकिगारव, रसगारव, शातोगारव रहित, पापनीरु, परोपकारी, सर्वजनप्रिय, क्षमादिगुणयुक्त, Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६ कर्म विपाकनामा प्रथम कर्मग्रंथ. १ एवो पुरुष, शुजनामकर्मनी प्रकृति त्रीश बांधे तथा श्रप्रमत्तपणे चारित्र पालतो यादारद्विक बांधे, अरिहंतादिक वीश स्थानक श्राराधतो, गुणवंतनुं वैयावच्च करतो, जिननामकर्म बांधे. तथा ए थकी विपरीत एटले घणो कपटी, कूडां तोलां, मान, माप करतो, परने वंचतो, परद्रोही, हिंसादिक पांच श्राश्रवें रातो, चैत्यादिकनो विराधक, व्रत लइ विराधतो, त्रण गारवें मातो, हीनाचारी, एवो जीव, नरकगत्यादिक चोत्री शुज नामकर्मनी प्रकृति बांधे. ए शमशठ प्रकृतिना बंधहेतु का. ॥ ५ ॥ ॥ दवे उच्चैर्गोत्रकर्मना बंधहेतु कहे . ॥ गुणपेदी मय रदिर्ज, अजय नावणा रुई निचं ॥ पकुणइ जिलाइ नत्तो, उच्चं नि ईअरदा ॥ ६० ॥ अर्थ- गुणही के० गुणप्रेक्षी पारका गुणनो देखनार, मयर हिउँ के० आठ मदरहित, अयणावणा रुई निश्चं के० जणवा जणाववा उपर रुचि नित्य निरंतर होय. पण के० प्रकर्षै करी करे, जिणाइनत्तो के जिन अरिहंतादिकनो जक्त, उच्चं के० उच्चैत्र उपार्जे ने निरहार्ड के० ते थकी इतर अन्यथा विपरीत गुण द्वेषमदवंत होय, ते नीचैर्गोत्र बांधे ॥ इत्यक्षरार्थः ॥ ६० ॥ ज्ञान, दर्शन, चारित्रादिकगुण ज्यां जेटलो जाणे, त्यां तेटलो प्रकाशे, अवगुण देखीने निंदे नहीं, ते गुणप्रेक्षी कद्दीयें. १ जातिमद, २ कुलमद, ३ बलमद, ५रूपमद, ५ श्रुतमद, ६ ऐश्वर्यमद, ७ लाजमद, छ तपोमद, ए आठ मद रहित संपदा बतां मद न होय जेने एवो जीव, अध्ययन एटले सूत्र सिद्धांत सूत्रयी, अर्थथी, जणवा जणाववानी रुचि बे जेने, निरंकार थको सुबुद्धिने शास्त्र हितबुद्धियें करी अर्थ स मजावे, हेतुदृष्टांत देखामी, सुमति पमाडे, कुमति टाले. इत्यादिक परहित करतो, नित्य एटले सदाकाल पकुणइ एटले प्रकर्षे करे. एटले वाने करी जीव, उच्चैर्गोत्रकर्म बांधे, जिन एटले तीर्थंकर देव, श्रादिशब्दथकी सिद्ध तथा प्रवचन संघादिकनो अंतरंगप्रतिबंधवंत एवो जीव, उच्चैगोंत्र उच्चजाति, कुलादिकगम्य कर्म बांधे. एक विपरीत गुणवालो एटले मत्सरी, जात्यादिक आठ मदसहित श्रहंकारें कर कोने णे णावे नहीं, जिन सिद्ध प्रवचन चैत्यादिकनो अजक्त एवो जीव, दीन जात्यादिगम्य नीचगोत्रकर्म बांधे ॥ ६० ॥ ॥ दवे अंतरायकर्मना बंधहेतु कहे. ॥ जिणपूच्या विग्धकरो, हिंसाइ परायणोऽजयइ विग्धं ॥ इय कम्मविवागोयं, लिर्जि देविंदसूरीदिं ॥ ६१ ॥ इति कर्मविपाकनामा प्रथमः कर्मग्रंथः ॥ For Private Personal Use Only Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मविपाकनामे कर्मग्रंथ. १ ३८७ - जिया के जिनपूजादिकनो विग्धकरो के० विन करनार, पूजा निषे. धतो, हिंसाइपरायणो के० हिंसादिक श्राश्रवने विषे तत्पर थको, अजय विग्धं के० अंतरायकर्म उपा. श्यकम्मविवागो के० एणी पेरें कर्म विपाक एवे नामें ग्रंथ, ते लिहि देविंदसूरी हिं के० तपागच्छाधिराज श्री देवेंद्रसूरीश्वरें लख्या ॥ इत्यक्षरार्थः॥ ६१ ॥ श्री जिनप्रतिमानी पूजानो निषेधनार, पूजायें पुष्प, फल, जलादिकना अनेक जीवनो घात थाय, ते जणी मलिनारंजी, ते गृहस्थने पण देय बे. जेम कोइएक मूर्ख, कटुकौषध पान साजा मनुष्यनी पेरें मांदाने पण निषेधे, तेनी शातानो अंतराय करे, ते कुमति जीव, अनारंजी साधुनी पेरें मलीनारंजरोगक्षयकारी श्रौषधप्राय पूजादिक प्रतिमारंभ निषेधतो, परना हितनुं विघ्न करतो, अंतरायकर्म बांधे. तथा पोतानी मतियें करी जिनमत विपरीतार्थ प्ररूपतो, अनंत संसार वधारे, तेवारें अनंत जीवनो घातक थाय तथा बीजाने पण उन्मार्गे प्रवर्त्तावी अनंत जीवघात करे, तेथ अनुबंधहिंसावंत तथा अनुबंध मृषाभाषी तीर्थंकर दत्तमार्गप्रवर्तक इत्यादिक अनुबंधेंढार पापस्थानकनो सेवनार जीव, अंतरायकर्म बांधे. तथा साधुने दानलाजादिकन अंतराय करतो, मोक्षमार्ग हणतो, एवो जीव, पण तेमज जाणवो. एपेरें कर्मप्रकृति, पंचसंग्रहादिक प्राचीनकर्मग्रंथ, सविस्तर जोड़ मुग्धबुद्धि, सं परुचि जीवने समजाववा सारुं तथा श्रात्माने पण परहितकरणरूप करुणाजन्य निर्जरा अर्थे थोडे अक्षरें करी, जेम विशेषज्ञान पामे, तेम लख्यो, पुस्तकें चढाव्यो, ते कहे. परम गुरुगछाधिराज शिथिलाचार निवारक, तपाबिरुदधारक, जहारक श्री १००८ श्रीजगचंद्रसूरीश्वर, पट्टप्रजावक, श्रीदेवेंद्रसूरिश्वरें तपगठनायकें लख्यो, पुस्तकें चढायो. ॥ अथ प्रशस्तिः ॥ इति कर्मव्यथोमा थिकर्मग्रंथार्थसंविदे ॥ गुरूपा स्तिरताः संतो, जवंतु जव निस्पृहाः ॥ १ ॥ नाद्य विद्याविवित्यै, साद्यनंतपदातये ॥ श्राद्यः कर्मविपाकाऽर्थो, जाव्यो जावविशारदैः ॥ २ ॥ छं कर्म विपाकपाकहतयोपाका हितायंतवैः, पाकनापरनामसू रिसुरुपगूढं ततः ॥ एतत्कर्म विपाकस च्चिदशनिं सात्मीकुरुध्वं जनाः ! इमेध्याज्ञान गिरिछिंदैकवियशः, सोमोक्तया सद्दिशा ॥ ३ ॥ कर्म विपाकटबार्थो ऽन्वर्थः प्राथ्यर्थि जिः स्वगुरुनक्ताः ॥ प्रथमादर्शे लिखिता मुनिना कल्याणसोमेन ॥ ४ ॥ प्रत्यक्षगणनया ग्रंथमानं ससूत्रं ॥ इति श्रीबालावबोधः प्रथमकर्मग्रंथसहितः संपूर्णः ॥ 5 " For Private Personal Use Only Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३नत कर्मस्तवनामा द्वितीय कर्मग्रंथ. ॥ॐ नमोऽर्दते ॥ ॥ श्रथ ॥ ॥श्री बालावबोधसहित कर्मस्तवनामा द्वितीयकर्मग्रंथः प्रारच्यते ॥ ॥ तत्र ॥ ॥ श्रादौ बालावबोधकृत मंगलाचरणम् ॥ ॥अनुष्टुप वृत्तम् ॥ त्रिजगत्सृष्टिसंतान, स्थितिनाशव्यवस्थिति ॥ दिशत्यै सममाईत्यै त्रिपथै हृद्यहठिये ॥१॥ कर्म बंधोदयावस्था, त्रिपुर धृक् दृशा ध्रुवम् ॥ तस्यै यस्याप्रशस्याझा, वरिवस्य शिवोजवेत् ॥२॥ ध्यान धाम्नि निधायोच्चैः, स्वगुरु गुरुगौरवान ॥ श्रीमत्कर्मस्तवे कुर्वे, टबार्थ लिखनक्रमम् ॥३॥ ॥ मूल गाथा ॥ तद थुणिमो वीरजिणं, जद गुणगणेसु सयस कम्माइं॥ बंधुदयोदीरणया, सत्तापत्ताणि खवित्राणि ॥१॥ अर्थ-तह के तेम थुणिमो के स्तवीश. वीरजिणं के० श्रीमहावीरदेवप्रत्ये, जह के जेम गुणगणेसु के० गुणगणाने विषे सयलकम्मा के० सघलायें कर्म प्रकृतिप्रत्ये बंधुदयोदीरणया के बंध, उदय, उदीरणायें करी सत्तापत्ताणि के सत्तायें पामीने खविश्राणि के पितानि एटले खपाव्यां, निर्जस्यां ॥ इत्यक्षरार्थः ॥१॥ __अथ वार्तिकं लिख्यते ॥ जेम कर्म खपाववारूप थपायापगम गुण वर्णवशे, कर्मशत्र विदारवे करी वीर कहीये. जेम मिथ्यादृष्ट्यादिक गुणगणा, शिवमंदिर चढवाने पावमीश्रा एटले पगथियां सरखा जीवनी शुध, शुद्धतर, शुद्धतम अध्यवसाय वि. शेष. यद्यपि ते अध्यवसाय असंख्याता , तो पण स्थूलव्यवहारें चौद कहीये. तेने विषे झानावरणीयादिक आठ मूलप्रकृति, मतिज्ञानावरणीयादिक उत्तरप्रकृतिबंध. योग्य एकसो ने वीश उदय उदीरणायें योग्य, एकसो ने बावीश, सत्तायें एकसो ने अडतालीश, ते जिहां जेटली लही, तथा जिहां जेटलीनो विछेद करी जे कर्मवर्गणा दलसाथें मिथ्यात्वादिक श्रावें करी जीवप्रदेशने दूध पाणीनी पेरें तथा लोह अग्नि मले, तेवी रीतें एकमेक था, ते बंध कहीयें. ५ ते बांध्यां कर्मनुं सहेजें अबाधा काल वीते थके अपवर्तनादिक करण विशेष Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मस्तवनामा द्वितीय कर्मग्रंथ. ए करी स्थितिघात थर थकी मिष्ट तथा कटुक, घातीया तथा अघातीश्रा रसनुं वे. द, ते उदय कहीये. ३ तेहज कर्मनो उदयावलि, प्राप्तरसथी उपरला रसनुं जीववीर्य विशेषे करी खेंची उदयाव लिमहे श्राणी वेदवू, ते उदीरणा. ते पण उदयविशेषज जाणवो. ___४ ते कर्मर्नु बांधवू तथा संक्रमणकरणे करी आपणा स्वरूपने पामी जे कर्म प्र. कृति, तेनुं जीवप्रदेश साथे मली रहे, खरवं नहीं, निधाननी पेरें रहे, ते सत्ता कहीये. ए चार मध्ये बंधन तथा उदीरणा, ए बेहु जीवनां करण, वीर्य विशेष के अने उदय, तथा सत्ता, ए बेहु करण नहीं, एटले ए नावार्थ जे. जेम श्रीवीर जिने जे जे गुणगणे जेटली प्रकृति कर्मनी बांधी, उदय पामी, उदीरी तथा सत्तायें धरी तथा जिहां जिहां जेटली प्रकृतिनो बंध, उदय, उदीरणा, सत्ता, विछेद लही जे जे गुणगणे जेटली प्रकृति खपावीने अनुक्रमें शुखरूपी थया, ए अपायापगमातिशय गुण प्रगटवारूप असाधारण गुणस्तवन करशे. ॥१॥ ॥हवे प्रथम गुणगणानां नाम तथा स्वरूप कहे . ॥ मि सासण मीसे, अविरय देसे पमत्त अपमत्ते ॥ निअष्टि अनिअहि सुहुमु, वसम खीण सजोगि अजोगि गुणा ॥२॥ अर्थ-पहेवु मि के मिथ्यादृष्टिगुणस्थानक, बीजुं सासण के सास्वादनसम्यक्दृष्टिगुणस्थानक, त्रीजुं मीसे के मिश्रगुणस्थानक, चोथु अविरय के० थविरतिसम्यकदृष्टिगुणस्थानक, पांचमुं देसे के० देशविरतिगुणस्थानक, बहुं पमत्त के प्रमत्तगुणस्थानक, सातमुं अपमत्ते के अप्रमत्तगुणस्थानक, थाउमुं नियहि के निवृत्तिगुणस्थानक, नवमुं अनियहि के थनिवृत्तिगुणस्थानक, दशमुं सुहुम के सूक्ष्मसंपरायगुणस्थानक, अगीधारमुं उवसम के उपशांतमोहगुणस्थानक, बारमुं खीण के० क्षीणमोहवीतरागगुणस्थानक, तेरमुं सजोगी के सयोगीकेवलीगुणस्थानक, चौदमुं थजोगीगुणा के0 अयोगीगुणस्थानक. ए चौद गुणगणानां नाम बे. इत्यक्षरार्थः ॥२॥ ___ त्यां जीवना गुण, ज्ञान दर्शन, चारित्ररूप जीवस्वनाव, तेनो तरतमविशेषकृतनेदें करी गुणगणानां स्थानक डे ते जीवना पण नेद जाणवा. १ प्रथम मिथ्यात्व कहेतां जिनवचनथी विपरीतदृष्टि एटले जीवादिक तत्वनी प्रतिपत्ति जेम धत्तुरानां बीज खाधे थके श्वेत वस्तुने पण पीली वस्तु करी पडिवडे, अंगीकार करे तेम मिथ्यात्वमोहनीयना जोरथी राग, द्वेष मोहादिकना चिन्हसहित जे देवपणाना गुणे करी हीन होय, तेने देव करी माने, आरंज परिग्रहादिकवंत Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० कर्मस्तवनामा द्वितीय कर्मग्रंथ. गुरुनां लक्षणे हीन होय, तेने गुरु करी पडिवो, हिंसादिकने धर्म करी माने, यथा नयवचनें प्रमाण की माने, नित्यता, अनित्यता, निन्नता, अनिन्नता, सत्ता, सत्ता, लघुता, दीर्घता, एम वस्तुनी एकांतता माने पण सापेक्षपणे न माने तथा संपूर्ण जिनवचन सदहतो पण जे एक अक्षर मात्रनो अविश्वास थाणे, ते पण जमालीनी पेरें मिथ्यादृष्टि जाणवो. अहीं को कदेशे जे मिथ्यात्वदोषे इष्टने गुणगणी केम कहीयें ? तेनो उत्तर. के जो पण मिथ्यात्वमोहनीय प्रकृति, सर्वघातीनी ने तेणे सर्व ते स्वप्रतिपत्ति हणाय, तोपण ते मेघघटा श्रावरित सूर्यप्रजानी पेरें रात्रीदिवस वि. जागनी करनार, एवी प्रजा, अनावृति होय, तेम जीवने पण एकांशे घटादिकनी प्रतिपत्ति अविरुक होय. तथा अक्षरनो अनंतमो जाग उघाडो सदा सर्वदा सर्व जीवने रहे, ते परम निकृष्ट गुणनी अपेक्षायें मिथ्यात्वीने पण गुणस्थानक कह्यु. तथा कोइएक कहे के जेवारे मिथ्यात्वी पण मुक्तिहेतु क्रिया करे, त्यां गुणगणुं होय अन्यथा मिथ्यात्वनूमिस्थ कहीयें. तथा ए सम्यक्त्वादिक गुण पामशे, ते माटे गुणगणुं कहीये. २ तथा औपशमिक सम्यक्त्व पामी एक समयें तथा उ श्रावति शेष सम्यक्त्व काल होये थके अनंतानुबंधियाना उदयथी औपशमिक सम्यक्त्व वमतां, दीरना स्वाद सरखो नाव, मिथ्यात्वगुणस्थानक पाम्या पहेला, जे होय, ते सास्वादनसम्यक्दृष्टि. गुणगणुं बीजं जाणवू. - ३ तथा मिश्रमोहनीयना उदयथी जिनवचन उपर रुचि थरुचि बेह न होय, मि. श्रता होय, एवा जे अध्यवसाय ते मिश्रदृष्टिगुणगणुं, त्रीजुं जाणवू. मिथ्यात्व अने मिश्र ए बे गुणगणा औदयिकनावें होय. - ४ तथा विरतिगुण जाणतो, नवप्रत्ययें तथा अप्रत्याख्यानावरणकषायोदयें करी श्रादरी न शके एटले एक जाणी न थादरे, न पाले ते श्रेणिकराजानी पेठे तथा जाणी, न श्रादरे, पाले, ते अनुत्तर विमानना देवता, तथा जाणी श्रादरे न पाले, ते संविग्न, पाक्षिक ए त्रण नांगे वर्त्ततो १ दायिक र औपशमिक अने ३ वेदक. ए मांहेलो एक तत्वरुचिरूप सम्यक्त्व पामी जे जे अध्यवसायें जिनवचन यथावस्थितपणे परिणमे, तेनुं नाम अविरतिसम्यकदृष्टिगुणगणुं चोथु जाणवू. ५ तथा सावद्ययोगनी एकदेशे विरति करे, जेम निरपराध, निरपेक्ष, संकल्पी प्रस जीव न हणवो. इत्यादिक हिंसानिषेधरूप सम्यक्त्व सहित अध्यवसाय जे जाणे, थादरे, पाले, ए नांगें वत्ततां देशविरतिगुणगणुं पांचमुं जाणवू. अहीं सम्यक्त्वसहित नोकारसी करे, ते पण एमां जाणवी. Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१ कर्मस्तवनामा द्वितीय कर्मग्रंथ. ६ तथा मद, विषय, कषाय, निजा, अने विकथा. ए पांच प्रमादें करी चारित्र, मलिनाध्यवसाय होय अप्रमत्तना अध्यवसायनी अपेदायें अनंतगुणदीनमलिन जाएवो. देशविरतिनी अपेक्षायें अनंत गुणविशुरू होय, एवी माया परिणामें वर्त्ततां, प्रमत्तसंयत गुणगणुं हुं जाणवू. ७ तथा ते पांच प्रमाद रहित अनंत गुणविशुफ, निश्चयचारित्रे स्थिरतारूप ते सहित जे अध्यवसाय, ते अप्रमत्तसंयतगुणगणुं सातमुं जाणवू. तथा चारित्रमोहनीयनी प्रकृति एकवीश उपशमाववा तथा खपाववाने अर्थे जेणे अत्यंत विशुद्ध अध्यवसायें करी वीर्य विशेष उबसे थके तेनो रसघात, स्थितिघात, गुणश्रेणि, गुणसंक्रम, अपूर्वस्थितिबंध. ए पांच वानां धुरसमयथी अपूर्व करणे कहीयें. तथा एक समये अनेक जीव गुणगणे चढ्या, ते शुक शुद्धतरादिक अध्यवसायन्नेदें की निवृत्ति कहेतां फेरफार होय, त्यां एनुं नाम निवृत्तिगुणगणुं पण कहीयें, ए श्रापमुं जाणवू. श्रही समय समय, अनंतगुण विशुद्धि होय. ___ए तथा नवमे गुणगणे अनेक जीव एक समये चढे, तेने अध्यवसायें फेरफार न होय, तेथी एनुं नाम थनिवृत्ति कयु. तथा बादर के० महोटा खंम संपसय के कषायना अहीं करे, एटसे ए गुणगणे कषायना महोटा खंड करे, तेथी एनुं बीजुं नाम बादरसंपराय पण कहीयें. १० सूक्ष्म कीट्टीकर्मकृत लोन वेदतां शेष मोहनीयने दयें तथा उपशमें थया जे विशुझाध्यवसाय ते सूक्ष्मसंपरायगुणगणुं दशमुं जाणवू. ११ जलने तलीये मल, नीचो बेसे तेथी पाणी निर्मल थाय, तेम मोहनीयना उपशमें अध्यवसाय निर्मल थाय, वली कषाय सत्तामाहे रह्या दे, ते माटे कषाय उदय पामे, तेवारें मोहला नीरनी पेरें फरी मेला थवानो संजव बे, जे जणी एनुं नाम उपशांतमोहनीय, ए बद्मस्थ वीतरागगुणगणुं अगीधारमुं जाणवू. इहांथी अवश्य पडे अने जो मरण पामे, तो अनुत्तरवासी देवता थाय. तेवारे त्यांचोथे गुणगणे आवीने रहे, अन्यथा पडे तो दशमे थावे. १२ तथा सर्व मोहनीयप्रकृति खपावे थके, मोहसत्ता टाले थके, जे अत्यंत वि. शुभ अध्यवसायस्थानक, ते क्षीणमोहवीतरागद्मस्थगुणगणुं बारमुं जाणवू. १३ केवलज्ञान पाम्या पली ज्यां सुधी बादर योग मन, वचन, काया प्रवर्ते, हाले, चासे, बोले, त्यांसुधी सयोगीकेवलीगुणगणुं तेरमुं जाणवं. १४ बादरयोग बंधे थके मन वचन, कायाना व्यापारने अजावें करण वीर्यरहित मेरुनी पेरें निःप्रकंप जणी शैलेसीकरण करतां, अयोगीकेवलीगुणगणुं चौदमुं जाणवू Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३एवं कर्मस्तवनामा द्वितीय कर्मग्रंथ. अहीं व्युपरतक्रिय एटले ग ने क्रिया ज्यां, श्रप्रतिपाति एवे नामे शुक्लध्याननो चोथो पायो होय, ते जणी सूक्ष्मकाययोग ने ते जणी केवलीने योगनिरोधध्यान होय तेतो सर्वथा योगने बनावें न होय अने योगीपणुं ते बादरयोगना अनावनी अ. पेक्षायें सेवं. ए चौद गुणगणानुं स्वरूप कडुं. हवे ए चौद गुणगणानुं कालमान कहे जे. मिथ्यात्वनो तो अजव्यने अनादि अनंत अने जव्यने अनादि सांत तथा सादिसांत जाणवो, अने पांचमा, तेरमा, हा अने सातमार्नु कालमान, देशे जणी पूर्व कोमी जाणवू. चोथार्नु तेत्रीश सागरसाधिक कालमान डे. सास्वादननो श्रावलिप्रमाण, चौदमानो पांच हृस्वाक्षरनो काल जाएवो. अने शेष उ गुणगणानो काल अंतर मुहूर्त. ए उत्कृष्ट कालमान जाणवू. ॥ हवे यहीं बंधप्रकृति कहे जे. ॥ अभिनव कम्मग्गदणं, बंधोउदेण तब वीस सयं ॥ तिबयरा दारग उग, वऊं मिबंमि सतर सयं ॥३॥ अर्थ-श्रजिनवकम्मग्गहणं के नवा कर्मनुं ग्रह, जीवप्रदेश साथै कर्ममलनुं मेलवq ते बंधो के, बंध जाणवो, त के त्यां उदण के० उघे एटले सामान्य नये वीससयं के० एकसो ने वीश प्रकृतिनो बंध जाणवो भने तिबयर के एक तीर्थकरनामकर्म अने थाहारगपुग के आहारकछिक, एवं त्रण प्रकृति वशं के० वर्जीने मिळमिसतरसयं के मिथ्यात्वगुणगणे एकसो ने सत्तर बंधाय. ॥ इत्यक्षरार्थः ॥ ३ ॥ मिथ्यात्वविरत्यादिक सत्तावन सामान्य बंधहेतु अने ज्ञानज्ञानवंतादिकनी प्रत्यनीकतादिक ते विशेष बंधहेतु बे, तेणे करी नवां कर्म, पूर्वे बांध्यां , तेनी अ. पेक्षायें नवां बंधातां जे ज्ञानावरणीयादिक मूल पाठ प्रकृति तथा मतिज्ञानावरणीयादिक उत्तर प्रकृति एकसो वीश, तेनो स्थितिरस अने प्रदेशपणे निर्धारवो, जीवप्रदेश साथै मेलाववो, ते बंधनकरणजीववीर्य विशेष तजन्य ते बंध कहीये. तिहां उघ एटले सामान्य चउद गुणगणां गुणनेद, जीवनेदादिक विशेष निरपेद सर्वजीवने सामान्यप्रकारे झानावरण पांच, दर्शनावरण नव, वेदनीय बे, मोहनीय बबश, श्रायुनी चार, नामकर्मनी शमशन, गोत्रनी बे, श्रने अंतरायनी पांच. एम सर्व मली एकसो ने वीश उत्तर प्रकृति बंधाय. ए रीतें सामान्य सर्व जीवने बंध कहीमें. हवे गुणस्थानक विशेष कही, बंधप्रकृति विशेषे कहीये .यें. तिहांप्रथम मिथ्यात्व गुणगणे वर्तमान जीवने बंध कहेले. ते पूर्वोक्त एकसो ने वीश बंधयोग प्रकृतिमाहे एक जिननामकर्म, बीजु थाहारकशरीरनामकर्म, त्रीजें याहारकअंगोपांगनामकर्म, Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मस्तवनामा द्वितीय कर्मग्रंथ. । ३५३ ए त्रण प्रकृति, मिथ्यात्वी जीव, न बांधे. कारण के जिननामकर्म, सम्यक्त्व विना न बंधाय अने हारकठिक, शुद्धचारित्र विना न बंधाय, ते सम्यक्त्व अने चारित्र ए बेवानां मिथ्यात्वें नथी, तेथी ए त्रण प्रकृति न बंधाय. तेथी ते वर्जीने शेष ज्ञानावरणीयनी पांच, दर्शनावरणीयनी नव, वेदनीयनी बे, मोहनीयनी बबीश, श्रायुनी चार, नामकर्मनी चोशल, गोत्रकर्मनी बे अने अंतरायकर्मनी पांच. एम सर्व मली एकसी ने सत्तर प्रकृति सर्व मिथ्यात्वीजीवनी अपेक्षायें प्रथमगुणगणे बंध योग्य होय. केमके मिथ्यात्व, अविरति, कषाय अने योग, ए चार मूलहेतु त्यां होय तेथी ते निमित्तें एकसो ने सत्तर प्रकृति बंधाय, अने सम्यक्त्वप्रत्ययिक जिननाम तथा चारित्रप्रत्ययिक, श्राहारकछिक, ए त्रण प्रकृति न होय. ॥३॥ ॥ हवे मिथ्यात्वगुणगणे केटली प्रकृतिनो बंधविछेद थाय, ते कहे. ॥ नरय तिग जाइ थावर, चन हुँमा यव निवळ नपु मि॥ सोलंतो गदिअसय, सासणि तिरि थीण उदग तिगं ॥४॥ अर्थ-नरयतिग के नरकत्रिक, जा के० एकेडियादिक जाति चार, थावरच के स्थावरचतुष्क, हुंड के हुँमसंस्थान, आयव के श्रातपनामकर्म, विवाह के बेवहुं संघयण, नपु के नपुंसकवेद मिछं के मिथ्यात्वमोहनीय, सोलंतो के ए शोल प्रकृतिनो अंत करे, गहिसय के शेष एकसो ने एक प्रकृतिनो बंध सासणि के साखादन बीजे गुणगणे होय. त्यां तिरि के तिर्यंचत्रिक, श्रीण के० थीणझित्रिक, उहगतिगं के दौ ग्यत्रिक, ए त्रण त्रिक ॥४॥ नरकगति, नरकानुपूर्वी, नरकायु. ए नरकत्रिक तथा एकेंजियजाति, बेंजियजाति, तेंजियजातिअने चौरिंजियजाति,ए जातिचतुष्क. एसात प्रकृति तथा स्थावरनामकर्म, सूक्ष्मनामकर्म, अपर्याप्तनामकर्म अने साधारणनामकर्म. एवं चार साधारणनाम प्रत्यश्च ए स्थावरचतुष्क कहीयें, एवं अगीधार. बारमुं हुंग संस्थान, तेरमुं श्रातपनाम, चौदमुं बेवकुं संघयण, पंदरमुं नपुंसकवेद, शोलमुं मिथ्यात्वमोहनीय. एमां बे मोहनीयनी प्रकृति तथा एक नरकायु ते थायुनी प्रकृति, शेष तेर प्रकृति नामकर्मनी. एम सर्व मली शोल प्रकृतिनो बंधविछेद मिथ्यात्वगुणगणे थाय. केम के ए शोख प्रकृति, मिथ्यात्व प्रत्ययीनी तेथी ते मिथ्यात्व उदयेंज बंधाय. ते विना न बंधाय तेथी भागले गुणगणे मिथ्यात्वीनोरसोदय न लाने तेथी ए शोल प्रकृतिनो बंध पण त्यां न लाने मात्रै ए शोल प्रकृतिना बंधनो प्रारंन मिथ्यात्वगुणगणे होय, एने बंधविछेद कहीये. एम पागल पण बंधविछेदनो अर्थ जाणवो. तेवारें मिथ्यात्वे ५० Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ कर्मस्तवनामा द्वितीय कर्मग्रंथ. एकसो ने सत्तर प्रकृतिनो बंध हतो तेमांथी ए शोल प्रकृतिनो बंध टल्यो शेष ज्ञानावरणीय पांच, दर्शनावरणीय नव, वेदनीय बे, मोहनीयनी चोवीश, श्रायुनी त्रण, नामकर्मनी एकावन, गोत्रनी बे, अंतरायनी पांच, एम सर्व मली एकसो ने एक कमप्रकृतिनो बंध सास्वादनगुणगणे सर्वजीवनी अपेक्षायें होय. हवे सास्वादने जेटली प्रकृतिनो बंधविच्छेद होय, ते कहे . तिर्यंचादिक त्रण श्रागल त्रिक शब्द जोडियें, तेवारे तिर्यंचत्रिक, श्रीणीत्रिक, दौर्जाग्यत्रिक, ए त्रण त्रिक कहिये. तिथंचगति, तिर्यंचानुपूर्वी, अने तिर्यंचायु, ए तिर्यचत्रिक, थीणजी, निसानिमा श्रने प्रचलाप्रचला. ए श्रीणजीत्रिक, दौ ग्यनाम, पुःस्वरनाम, अने अनादेयनाम, ए दौ ग्यत्रिक एवं नव प्रकृति थइ ॥४॥ अण मजागिइ संघय, ण चन नि नजोअ कुखग बित्ति ॥ पणवीसंतो मीसे, चनसयरि उदानअ अबंधा ॥५॥ अर्थ-श्रण के अनंतानुबंधी चतुष्क, मशागिर के मध्याकृति एटले मध्यसंस्थानचतुष्क, संघयणचन के मध्य संघयणचतुष्क, चउ के० ए त्रण चतुष्कनी बार प्र. कृति थइ. नि के नीचैर्गोत्रकर्म, उजोश के उद्यातनामकर्म, कुखग के अशुजविहायोगति, वित्ति के० स्त्रीवेदमोहनीय. इति एटले ए पणवीसंतो के० ए पच्चीश प्रकृतिनो अंत बंधविच्छेद सास्वादने थाय. तेथी मीसे के मिश्र गुणगणे चउसयरि के चम्मोतेर प्रकृतिनो बंध होय. जे जणी ए गुणगणे उहाउथश्रबंधा के० मनुष्यायु तथा देवायु, ए बे श्रायुनो श्रबंध डे माटे चम्मोतेरनो बंध थाय.॥श्त्यदरार्थः ॥५॥ । श्रहीं श्रण कहेतां अनंतानुबंधी प्रमुख त्रण शब्द डे ते आगल चल शब्द जोडी, तेवारें त्रणचजक थाय. एटले अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया अने लोन. ए चारने अनंतानुबंधी चजक कहीयें. श्रने न्यग्रोध, सादि, वामन अने कुज. ए चार मध्य एटले वचलां संस्थान, ए मध्यमसंस्थानचउक. यहीं श्राकृति एटले शरीराकार ते संस्थानरूप तन्निमित्तक कर्म प्रकृति पण श्राकृतिनाम जाणवी. तथा ऋषजनाराचसंघयण, नाराचसंघयण, अर्डनाराचसंघयण अने कीलिकासंघयण, ए चार वचला संघयण ने एने मध्यसंघयणचजक कहीयें. एटले त्रण चोक बार प्रकृति कही थने त्रण त्रिक नव प्रकृति पूर्वली गाथामां कही, एवं एकवीश प्रकृति थइ. बावीशमुं नीचगोत्र, त्रेवीशमुं उद्योतनामकर्म, चोवीशमुं अशुनविहायोगति, पच्चीशमुं स्त्रीवेद. एवं पञ्चीश प्रकृतिमध्ये एक उद्योतनाम अने बीजु तिर्यगायु. ए वे प्रकृति विना शेष त्रेवीश पापप्रकृति, तीवसंक्लेशे बंधाय श्रने ते तीवसंक्वेश अनंतानुबंधीयाने उदय होय Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मस्तवनामा द्वितीय कर्मग्रंथ. ३ए श्रने ए मिश्र प्रमुख श्रागले गुणगणे अनंतानुबंधीयानो उदय न होय, तेवारें ए गुणगणे एनो पण बंध न होय अने उद्योतनाम, तथा तिर्यगायु. ए बे पुण्यप्रकृति पण तिर्यप्रायोग्य प्रकृतिबंध टलेथी एनो पण बंध न होय. ए पच्चीशमध्ये थीणकीत्रिक, दर्शनावरणकर्मनी अने अनंतानुबंधीया चार तथा स्त्रीवेद ए पांच प्रकृति, मोहनीयकर्मनी एक गोत्रप्रकृति, एक तिर्यगायुप्रकृति. एवं दश थर श्रने शेष पंदर प्रकृति नामकर्मनी एवं पच्चीश प्रकृतिनो बंध प्रांतसास्वादने होय, तेवारे ज्ञानावरपीय पांच, दर्शनावरणीय उ, वेदनीय बे, मोहनीयनी उंगणीश, नामकर्मनी बत्रीश, गोत्रनी एक अने अंतरायनी पांच. एवं चम्मोतेर प्रकृति मिश्रगुणगणे सर्व जीवनी अपेक्षायें बंधाय. जे माटे सास्वादनगुणगणे एकसो ने एक प्रकृतिनो बंध हतो, तेमांहेथी अनंतानुबंधीयाना उदयने अनावें तन्निमित्तक पच्चीश प्रकृतिनो बंध टल्यो तेवारें होंतेर प्रकृतिनो बंध रह्यो, ते मध्ये पण मिश्रगुणगणे श्रायुबंध योग्य अध्यवसाय नथी, तेथी त्यां देवायु; मनुष्यायु, ए बे थायु पण न बंधाय. जे जणी शास्त्रे कडं के “समामिबदिहिवाग बंधपि न करेई" पण श्रोगलें चोथे गुणगणे बंध करशे तेथी ए बेश्रायुनो बंध विछेद न कह्यो, पण प्रबंध कह्यो तेथी चम्मोतेर प्रकृ. तिनो बंध, मिश्र गुणगणे होय, यहां को प्रकृतिनो बंधविच्छेद नथी. ॥५॥ सम्मे सग सयरि जिणा, उबंधि वर नरतिष बिज कसाया ॥ उरल गंतो देसे, सत्तही तिय कसायं तो ॥६॥ ते वहि पमत्ते सो, ग अरश् अथिर उग अजस अ स्सायं ॥ वुबिक बच्च सत्तव, नेश सुराउंजया निळं ॥७॥ अर्थ-सम्मे के अविरतिसम्यक्दृष्टिगुणगणे सगसयरि के सत्योतेर प्रकृतिनो बंध होय. जिणाउ के० जिननाम अने मनुष्यायु तथा देवायु, ए बे आयु. एवं त्रण प्रकृति बंधि के बांधे तेमाटे. अने वर के वज्रषजनाराचसंघयण, नरतिष के० मनुष्यत्रिक, विश्रकसाया के बीजा अप्रत्याख्यानीथा चार कषाय अने उरलगंतो के औदारिकछिक. ए दश प्रकृतिना बंधनो अंत करे, तेवारे देसे के० देशविरतिगुणगणे सत्तही के शमसठ प्रकृतिनो बंध करे श्रने त्यां तियकसायंतो के० त्रीजा प्रत्याख्यानावरण चार कषायनो अंत करे ॥६॥ तेवार तेवहिपमत्ते के वेशव प्रकृतिनो बंध, प्रमत्तगुणगणे होय अने एक सोग के शोकमोहनीय, बीजी अरश के० घरतिमोहनीय, अथिराग के अस्थिरछिक, एवं चार. पांचमुं अजस के अयशःकीर्तिनामकर्म, उहुं अस्सायं के० अशातावेदनीय, उच्च के एक प्रकृति वुबिक केप Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ कर्मस्तवनामा द्वितीय कर्मग्रंथ. बंधधी विछेद पामे. सत्तव के अथवा सात प्रकृति विछेद पामे. नेसुराउजयानिई के जो कोश् प्रमत्त साधु देवायु बांधवा मांडे, अने संपूर्ण करी नेष्टा पमाडे पोचाडे, तो सात प्रकृतिनो अंत करे ॥७॥ - अविरतिसम्यकदृष्टिगुणगणे ज्ञानावरणीय पांच, दर्शनावरणीय ब, वेदनीय बे, मोहनीय उगणीश, आयुनी बे, नामकर्मनी साडनीश, गोत्रकर्मनी एक, अने अंतरायकर्मनी पांच, ए रीतें सत्त्योतेर प्रकृतिनो बंध बे, ते मध्ये चम्मोतेर प्रकृतिनो बंध जे मिश्रगुणगणे कह्यो तेज बाहिं लेवो अने अहीं सम्यकदृष्टि के तेथी तन्निमित्त जिननामकर्मनो पण बंध लाने तथा सम्यकदृष्टि देवता, तथा नारकी, ए बेह मनुष्यायुज बांधे अने सम्यकूदृष्टि मनुष्य, ते तिर्यंच अने देवायुज बांधे, तेथी सर्वजीवनी अपेक्षायें चोथे गुणगणे सत्योतेर प्रकृतिनो बंध पामे. हवे अहीं विछेद कहे . वज्रषजनाराचसंघयण, मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी, मनुष्यायु, ए मनुष्यत्रिक, औदारिकशरीर अने औदारिक अंगोपांग ए औदारिकछिक. एवं उ प्रकृतिनो बंध चोथे गुणगणे देवता श्रने नारकीने होय. मनुष्यगति प्रायोग्य बांधे, श्रागला गुणगणां देवता श्रने नारकीने न होय. तेथी ए प्रकृतिनो बंध न पामीयें, तेथी विछेद तथा अप्रत्याख्यानी चार कषायनो बंध पण आगले गुणगणे न लाने. आपणा उदयने अनावें कषायनो बंध पण न होय, तेथी ए दश प्रकृतिनो बंध विछेद चोथे गुणगणे. ते मध्ये अप्रत्याख्यानीथा चार ते मोहनीयनी प्रकृति, मनुष्यायु ते श्रायुनी प्रकृति, शेष पांच नामकर्मनी प्रकृति, एवं दश प्रकृति टली. शेष ज्ञानावरणीयनी पांच,दर्शनावरणीयनी उ, वेदनीयनी बे, मोहनीयनी पंदर, श्रायुनी एक, नामनी बत्रीश, गोत्रनी एक श्रने अंतरायनी पांच, ए शमशव प्रकृतिनो बंध, देशविरतिगुणगणे उचे होय, तिहां बंधविछेद त्रीजो कषाय जे प्रत्याख्यानावरण, तेनी चोकडी ए चार कषायनी प्रकृतिना बंधनो अंत थाय. जे जणी प्रथम बार कषायनो बंध थापणे उदय होते थके पागल उदय नथी तेथी बंध पण न होय. तेवारें शमश: प्रकृतिमाहेथी मोहनीयनी चार टालवी ॥६॥ बाकी ज्ञानावरणीय पांच, दर्शनावरणीय ब, वेदनीय बे, मोहनीय अगीवार, श्रायुनी एक, नामनी बत्रीश, गोत्रनी एक अने अंतरायनी पांच, ए त्रेशठ प्रकृ. तिनो बंध, प्रमत्तगुणगणे मनुष्यने होय. त्यां ब तथा सात कर्मप्रकृतिनो बंधविछेद अने बंधप्रांत होय, ते हवे कहे जे. एक शाक, अने बीजी अरति. ए बे मोहनीयनी प्रकृति. एक अस्थिरनामकर्म, Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मस्तवनामा द्वितीय कर्मग्रंथ. GUI बीजं श्रशुभनामकर्म, ए अस्थिर द्विक. त्रीजुं यशः कीर्त्तिनामकर्म, ए त्रण नामक - प्रकृति ने एक अशातावेदनीयनी प्रकृति. ए त्रण कर्मनी व प्रकृतिनो निमित्तप्रमाद वे ते प्रमाद बते ए अशुनप्रकृति बंधाय. आगले गुणठाणे विशुद्धाध्यवसायजणी दुष्टयोगजन्य जे प्रकृति, ते प्रमादने जावें न बंधाय, तेथी त्यां शुभयोग निवर्ते, त्यां ए प्रकृतिनो बंध पण निवर्त्ते, तेथी बनो बंध विच्छेद ने आयुः कर्मनो बंध अतिविशुद्धपरिणामें न होय तिहां घोलना परिणामें प्रमत्तगुणवर्णे देवा बांध्या पढी सातमे गुणठाणे चढतो सात प्रकृतिनो बंध विछेद जे जणी अति विशुद्ध अध्यवसाय जणी श्रायुबंध पण यागले गुणठाणे नथी, तेवारें व प्रकृति प्र थम कही ते अने सातमुं सुरायु. ए सात प्रकृतिबंधनी अपेक्षायें प्रमत्तगुणगणे वि. छेद पामे ने जो प्रमत्तें देवायुनो बंध करतो ते बंध पूर्ण करया विना श्रप्रमत्तें चढे तो केवल देवायुनोज ज्यांसुधी बंध पूर्ण करे, त्यांसुधी श्रप्रमत्तें पण श्रायुबंध पामीयें, तो व प्रकृतिना बंधनो विछेद होय ते वारे ज्ञानावरणीय पांच, दर्शनावरणीय छ, वेदनीय एक, मोहनीय नव, श्रायुनी एक, नामनी एकत्रीश, गोत्रनी एक छाने अंतरायनी पांच ॥ ७ ॥ गुणस अप्पमत्ते, सुराज बधं तु जइ इहा गढे ॥ अन्नद अठावन्ना, जं आहारग डुगं बंधे ॥ ८ ॥ अर्थ - ए सर्व मली गुणस श्रिप्पमत्ते के० गणशाव प्रकृतिनो बंध श्रप्रमत्तगुणगणे होय. सुराजबद्धंतु के० देवायु बांधतो थको ज‍ के० यदि एटले जो इहागडे के० प्रमत्तगुणठाणे यावे तो श्रने अन्नह के अन्यथा देवायु विना तो अठावन्ना ho वनप्रकृतिबंध होय. जंश्राहारगडुगंबंधे के० जे जणी आहारकद्विक बांधे, तेवारें श्रावन्न अथवा उगणशाठ प्रकृतिनो बंध थाय ॥ इत्यक्षरार्थः ॥ ८ ॥ ए अंगणात प्रकृति श्रप्रमत्त संयतगुणठाणे प्रवर्त्ततो बांधे. वहीं शिष्य पूढे बे के हे जगवन् ! श्रायुबंध घोलना परिणामे होय बे, ते यहीं घोलना परिणाम नथी तो केम श्रायुबंध होय ? तत्रोत्तरं. हे शिष्य ! जो प्रमत्त थको घोलना परिणामे करी देवायुबंध करतो प्रमत्तनो काल पूर्ण थये देवायुबंध पूर्ण दुवे थके श्रप्रमत्तगुणठाणे पण यावे, तिहां कुंजारना चक्र मणन्यायें करी पूर्वले घोलना परिणामें श्ररंजेलो श्रायुबंध ज्यांसुधी पूर्ण करे, त्यांसुधी श्रप्रमत्तगुणठाणे पण देवायु बंध पामीयें, तेथी गणशाव प्रकृतिनो बंध वे पण अप्रमत्त बते श्रायुबंध श्रारंजे For Private Personal Use Only Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३एन कर्मस्तवनामा द्वितीय कर्मग्रंथ. नहिं. अन्यथा एटले जो प्रमत्तगुणगणे सुरायुबंध आरंजी पूर्ण करतो, वलतो अप्रमत्तगुणगणे आवे, तो आयु विना सात कर्ममांहेली ज्ञानावरणीय पांच, दर्शनावरणीय ब, वेदनीय एक, मोहनीय नव, नामनी एकत्रीश, गोत्रनी एक, थने आंतरायनी पांच, ए अहावन्न प्रकृति बाँधे. तिहां शिष्य पूढे डे के, ए केम होय जे जणी प्रमत्तबंध, त्रेशठ प्रकृतिनो डे तेमांथी उ प्रकृतिनो बंधविछेद थयो, तेवारें सत्तावन प्रकृति होय अने सात प्रकृतिबंधविच्छेद करतां उत्पन्न प्रकृति होय, पण उंगणशात अने बहावन्न प्रकृति केवी रीतें होय? तिहां गुरु उत्तर कहे जे के, अहीं अतिविशु चारित्रने सनावें तन्नैमित्तिक आहारकशरीर अने आहार• कअंगोपांग, ए बे प्रकृति अधिक बंधाय, ते नेलतां श्रोगणशात अने असावन थाय. ए रीतें सुरायु विना शेष बहावन प्रकृतिनो बंध अप्रमत्तसंयतने कह्यो. ॥ ७॥ अमवन्न अपुवा इमि, निदगंतो उपन्न पण नागे॥ सुर जुग पणिदि सुखग३, तस नव उरल विणु तणु वंगा ॥॥ अर्थ- श्रमवन्न के श्रावन प्रकृतिनो बंध अपुवाशमि के अपूर्वकरणना प्रथमनागने विषे निदगंतो के त्यां निमाछिकनो अंत थाय, तेवारें बप्पन्न पणनागें के उप्पन्न प्रकृतिनो बंध, द्वितीयादिकथी मांडी कहासुधीना पांच लांगें होय, पांचे नागे सत्तातो बप्पन्ननीज पण स्थितिघात, रसघात, गुणसेढी, गुणसंक्रम, अपूर्वबंध, ए पांच वानां करे, सुरजग के० सुरहिक, पणिं दि के पंचेंजियजाति, सुखग के शुजविहायोगति, तसनव के त्रसनवक, उरलविणुतणुवंगा के एक औदारिक विना शेष चार शरीर अने वैक्रियोपांग तथा श्राहारकोपांग, ए बे उपांग. एवं उंगणीश प्रकृति ॥ श्त्यदरार्थः ॥ ए॥ तेहज अपूर्वकरण एवे नामे आग्मुं गुणगणुं अंतरमुहूर्त्तकाल प्रमाणन, तेना सात जाग करीयें. तेमांदेला प्रथम नागने विषे असावन प्रकृति बांधे, तिहां निजा अने प्रचला, ए बे दर्शनावरणीयनी प्रकृति तेना बंधनो अंत आवे, ते श्रागडे अतिविशुद्धपणे करी ए बे प्रकृति न बंधाय, शेष ज्ञानावरणीय पांच, दर्शनावरणीय चार, वेदनीय एक, मोहनीय नव, नामनी एकत्रीश, गोत्रनी एक अने अंतरायनी पांच, एवं बप्पन्न प्रकृति, बीजे, त्रीजे, चोथे, पांचमे अने बहे, ए पांच जागें बंधाय, ए रीते अपूर्व करणना उ जोगने विषे बंध कह्यो. हवे बछे नागें जे प्रकृतिनो बंधविच्छेद होय, ते कहे. अहीं देवगतिप्रायोग्य एकत्रीश नामकर्मना Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मस्वनामा द्वितीय कर्मग्रंथ. ३० बंधमांदेलो त्रीश प्रकृतिनो बंध विछेद थाय, ते कहे बे. देवगति ने देवानुपूर्वी, ए सुरद्विक. त्रीजुं पंचेंद्रियजातिनाम, चोथुं शुभ विहायोगति तथा एक त्रसनाम, बीजं बादरनाम, त्रीजुं पर्याप्तनाम, चोथुं प्रत्येकनाम, पांचमुं स्थिरनाम, बहु शुभनाम, सातमुं सौभाग्यनाम, श्रावसुं सुस्वर नाम, नवमुं श्रादेयनाम, ए त्रस - नवक कहीयें. एवं तेर. तथा श्रदारिकशरीर ने चौदारिक अंगोपांग, ए बेनो बंध विच्छेद चोथे गुणठाणे थयो तेथी ते बे विना शेष वैक्रियशरीर, आहारकशरीर, तैजसशरीर ने कार्मणशरीर ए चार शरीरनाम छाने वैक्रिय ांगोपांग तथा श्रहा - कांगोपांग, ए बे अंगोपांग एवं व प्रकृति. ए रीतें धुरथी सर्व मली अंगणीश प्रकृति यइ ॥ ए ॥ समचर निमिण जिए व, न अगुरु लहु चन बलंसि तीसंतो चरमे वीस बंधो, दास रई कुछ जय जे ॥ १० ॥ अर्थ- वीशमं समचउर के० नमचतुरस्रसंस्थान, एकवीरामुं निमिष के० निर्मानाम, बावीशमं जिए के० जिननाम, तथा वन्न के० वर्ण चतुष्क ने अगुरुलहुच के गुरुलघुचतुष्क, बलंसिती संतो के बठे जागें ए त्रीश प्रकृतिना बंधनो अंत थाय, एटले विछेद थाय, तेवारें चरमे के० बेलें, सातमे जागे बहीस बंधो के प्रकृतिनो बंध होय, त्यां दास के० हास्यमोहनीय, रई के० रतिमोहनीय, कुछ ho जुगुप्सामोहनीय, जयने के० जयमोहनीय. ए चार प्रकृतिनें बंधथी टाले | इत्यक्षरार्थः ॥ १० ॥ वीमं समचतुरस्त्र संस्थान, एकवीशभुं निर्माणनाम, बावीशमुं तीर्थकरनाम तथा वर्ण, गंध, रस, अने स्पर्श, ए वर्णचतुष्क एटले ए चार नाम कर्मनी प्रकृति, एवं ब. वी. तथा अगुरुलघुनाम, उपघातनाम, उच्चासनाम, पराघातनाम, ए अगुरुलघुचतुष्क एवं सर्व मली नामकर्मनी त्रीश प्रकृतिनो बंध विच्छेद याय, जे जणी चारित्रमोहनने खपावतो तथा उपशमावतो पूर्वकरण करे, तिहां विशुद्धाध्यवसायें करी संसारमणहेतुगतिप्रायोग्य नामकर्मनो बंध विठोडे. अहीं शेष सुरगतिप्रायोग्यना कर्मप्रकृति एकत्रीशनो बंध रह्यो हतो, तेमांहेथी एक यशः कीर्त्ति विना शेष त्रीश प्रकृतिनो बंध दे, तेथी जवज्रमणनुं बीज न करे, अतिविशुद्ध बे माटे न करे. ए रीतें as a त्री प्रकृतिनो बंधविच्छेद करें, तेवारें पूर्व करणने बेहले सातमे जागें ज्ञानावरणीय पांच, दर्शनावरणीय चार, शातावेदनीय एक, तथा संज्वलनकषाय For Private Personal Use Only Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०० कर्मस्तवनामा द्वितीय कर्मग्रंथ. चार, हास्य, रति, जय, जुगुप्सा, पुरुषवेद एवं मोहनीनी नव, यशः कीर्त्तिनाम, उचैत्र ने पांच अंतराय, एवं सात कर्मनी उत्तरप्रकृति बबीश बांधे, त्यां बंधविछेद क. पूर्वकरणना सातमा जागने प्रांतें श्रुतिविशुद्ध श्रध्यवसाय थया, तेमाटे एक हास्यमोहनी, बीजुं रतिमोहनी, त्रीजुं जुगुप्सामोहनी, चोयुं जयमोहनी, ए चार प्रकृतिना बंधयोग्य अध्यवसायस्थानक टली जाय. तेवारें शेष बावीश प्रकृतिनो बंध रहे ॥ १० ॥ निहि नाग पणगे, इगेगदीणो वीसविद बंधो ॥ पुम संजल चनएदं, कमेण बेर्ड सतर सुदुमे ॥ ११ ॥ अर्थ-निहिनागपणगे के० श्रनिवृत्तिकरण नामे नवमा गुणठाणांना पांच भागने विषे इगेगहीणो के० जागजाग दीठ एकेक प्रकृतियें हीन, डुवीस विदबंधो के बावी प्रकृतिनो बंध होय, ते केम ? तोके पहेले जागें बावीशनो बंध होय, बीजे जागें पुम के० पुरुषवेद उठो करतां एकवीशनो बंध तथा तेवार पढी तृतीयादिक जागने विषे संजल एच एहं के० संज्वलन कषायनी चोकमीमांहेली एकेक प्रकृतिनो बंध, कमेण के० अनुक्रमें बंधथी बेठे के० बेदाय, तेवारें सतरसुहुमे के० सत्तर प्रकृतिनो बंध सूक्ष्म संपरायनामा दशमे गुणठामे जावो ॥ इत्यरार्थः ॥ ११ ॥ निवृत्तिकरण एवे नामे नवमं गुणठाएं बे तेनो काल अंतर मूहूर्त्त प्रमाण. तेना पांच जाग कल्पीयें; तेमध्यें प्रथम जागें ज्ञानावरणीय पांच, दर्शनावरणीय चार, वे - दनीय एक, मोहनीय पांच, यशः कीर्त्तिनाम, उच्चैर्गोत्र ने अंतराय पांच एवं बाairat बंध बे, तिहां पुरुषवेदनो बंध विछेद थाय, तेवारें बीजे जागें एकवीश प्रकृतिनो बंध तिहां संज्वलना क्रोधनो बंध विछेद यये थके त्रीजे जागें वीश प्रकृतिनो बंध, तिहां संज्वलना माननो बंधविच्छेद थाय तेवारें चोथे जागें उगणीश प्रकृतिनो बंध, त्यां संज्वलननी मायानो बंध विच्छेद पामे, तेवारें पी ए अनिवृत्तिकरण गुणापाना पांचमां जागें ज्ञानावरणीय पांच, दर्शनावरणीय चार, वेदनीय एक, मोहनीय मांहेलो संज्वलनो लोज एक, अने यशः कीर्त्ति नाम, एवं बार उच्चैर्गो ने पांच अंतराय एवं ढार प्रकृतिनो बंध होय. नवमा गुणठाणाने बेडे संज्वलना लोजनो बंध पण विछेद पामे, जे कारण माटे एनो बंध बादरकषायोदय प्रत्य बे, ते बादरकषायोदल टले, तेथी तेनो बंध पण टले, तेवारें सूक्ष्मसंपरायनामें दशमे गुणठाणे For Private Personal Use Only Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मस्तवनामा द्वितीय कर्मग्रंथ. ज्ञानावरणीय पाँच, दर्शनावरणीय चार, वेदनीय एक, यशः कीर्त्ति एक, अंतराय पांच, ए सत्तर प्रकृतिनो बंध होय, ते को• ॥ ११ ॥ ॥ हवे दशमा गुणठाणे सोल प्रकृतिनो अंत करे, ते कहे. ॥ चन दंसणुच्च जस ना, ण विग्ध दसगंति सोलसुते ॥ तिसु साय बंध बेर्ड, सजोगि बंधंत अणं तो ॥ बंधो सम्मत्तो ॥ १२ ॥ अर्थ - चदंसणुच्च के० चार दर्शनावरणीय, अने पांचमुं उच्चैर्गोत्र, बहुं जस के० यशः कीर्त्तिनामकर्म, नाण के० पांच ज्ञानावरणीय, विग्घ के० पांच अंतराय, दसगंति के० 50 ए दश प्रकृति एवं सर्व मली सोलस के० सोल प्रकृतिना बंधनो उच्छे के० विछेद होय छाने तिसु के० त्रण गुणठाणे सायबंध बेर्ड के० एक शातावेदनीय बंध बे, ते पण बेदाय. एटले सजोगीबंधंत के० सयोगी गुणठाणाने तें शातावेदनीयना बंधनो पण अंत तो के० अनंतो करे ॥ बंधोसम्मत्तो के० बंधाधिकार संपूर्ण थयो ॥ इत्यर्थः ॥ १२ ॥ पांच निद्रा विना चचुरादिक दर्शनावरणीय चार प्रकृति, पांचमुं उच्चैर्गोत्र, बहुं यशः कीर्त्तिनाम, तथा पांच ज्ञानावरण ने पांच अंतराय, ए दश प्रकृतिने ज्ञान वि नदशक कहीयें. एवं सोल प्रकृतिनो बंधकषाय प्रत्ययिक बे, तो अगले गुणठाणे वीतराग दशायें कषायोदय न होय, ते जणी बंधाय नहीं, तेथी अहींयां बंधविच्छेद थाय. तेवारें शेष एक शातावेदनीयज एक उपशांतमोह, बीजो क्षीणमोह, अने त्री जो सयोगी केवली, ए त्रण गुणठाणे योग बे तेथी योगप्रत्ययें करी बंधाय, अने योगनिरोधें एनो पण बंध विच्छेद होय. जिहां जेना कारणनूत मिथ्यात्व श्रविरत्यादिक बंध हेतु तथा विशिष्टबंधाध्यवसाय तत्प्रायोग्य टले, तिहां तिहां ते ते प्रकृतिनो बंध विछेद थाय. ज्यां सुधी कारणनो अंत न होय, त्यां सुधी कार्यनो पण अंत न होय, तथा सयोगी गुणठाणे जे बंधनो अंत होय, ते अंत अनंत जाणवो. एटले ए बंधन एवो करे के तेना तनो त नावे, एवो करे, माटे अनंतो को जे जणी वलतो को वारे ते जीवने बंध करवो न थाय. एरीतें श्रीवीर जिनेश्वरें चउद गुण ठाणे कर्मबंध विच्छेद कस्यो तेने कार्थे नमस्कार होय. इति श्रेयः ॥ एम चौद गुणश्रीने कर्मप्रकृतिनो बंधाधिकार पूर्ण थयो. ॥ १२ ॥ ५१ ४०१ गोत्र एक, Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ COR कर्मविपाकनामा द्वितीय कर्मग्रंथ. ॥ बंध यंत्रकम् ॥ गुणस्थानकर्मप्रकृति. मूलप्रकृति. उत्तरप्रकृति. ज्ञानावरणीय. दर्शनावरणीय. वेदनीय. मोहनीय. आयुःकर्म. नामकर्म. गोत्रकर्म. अंतरायकर्म. ए am ५६४६७२ १६४६४ २५ १०१ مهم است اعم जेधे मिथ्यावे. सास्वादने. मिश्रे. अविरतें. देशविरतें. प्रमत्तसंयतें. अप्रमत्तसंयते. maan ===== धा ३६ १५ ३७१५ ७७ ५ ( ३५ १५ ३५१ . ס 2 ס ه ه ه ه ס م ס م ס م ur ur uruw w wwwwwwwwww ه ס comlam CC00... ५६ ५ wo ODDDDDDDDDD ه م ס /2/2/2/ 2war or m ३२ ए ס - مه - ס مه ס - مه - ס مه ס - مه सूदमसंपरायें. उपशांतमोहें. क्षीणमोहें. सयोगी केवलीयें. अयोगीकेवलीये. १३ १४ 000 । ०० ० ० ० ए चनद गुणगणे बंधयंत्र जाणवो. Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मस्तवनामा द्वितीय कर्मग्रंथ. ४०३ हवे बांधेली प्रकृति, पोतपोतानो अबाधाकालायें विपाक देखाडे, जेमाटे बंध पनी उदय करे, तिहां प्रथम उदयलक्षण तथा ते सरखा जणी उदीरणा करण विशेष तेनुं पण लक्षण कदेवापूर्वक चौद गुणगणा श्राश्रयीने उदय खामित्व विवरे . उद विवाग वेषण, मुदीरण मपत्ति इह ज्वीस सयं ॥ सतर सयं मि मी, ससम्म आहार जिणणुदया ॥१३॥ अर्थ- उदविवागवेषण के० कर्मरसतुं विपाककालें वेद, ते उदय. अने मुदीरणमपत्ति के उदय काल अणपहोंचे खेंचीने वेदवं, ते उदीरणा जाणवी. इहवीससयं के एवी ए एकसो ने बावीश कर्मप्रकृति ये होय अने सतरसयं मिले के। एकसो ने सत्तर प्रकृतिनो उदय, मिथ्यात्वगुणगणे होय, केमके ए गुणगणे मीस के० मिश्रमोहनीय, सम्म के सम्यक्त्वमोहनीय, थाहार के थाहारकट्रिक, अने जिण के जिननामकर्म. ए पांच प्रकृतिनो अणुदया के उदय न होय ॥ इत्यदरार्थः ॥१३॥ त्यां उदय एटले बांधेला जे कर्म, तेनो जे विपाक एटले तीव्र, मंद, घाती, श्रघाती, कटुक, मिश्र, इत्यादिक रस, सहेजें उदयकाल आवे थके वेदे, जोगवे, ते उदय कहीये. अने जे कर्मदलने उदयकाल श्रण आवे थके जीव पोतानुं करणवीर्य विशेष तेणे करी उदयावलिकामांहे प्राणी अप्राप्तकालें जोगवे, ते उदीरणा कहीयें तेथी उदयना बे नेद बे. एक उदयोदय श्रने बीजो उदीरणोदय. त्यां यहीं सामान्यपणे गुणगणां जीव नेदादिक विवदा कस्या विना सर्व जीवनी अपेक्षायें एकसो बावीश प्रकृति होय, जे जणी सम्यक्त्वमोहनीय, अने मिश्रमोहनीय, ए बे प्रकृति बंधे न लेखवी अने उदय उदीरणायें विशेषजणी जिन्न लेखववी, तेथी ज्ञानावरणादिक एकसो ने बावीश प्रकृति सेवी. हवे गुणगणादिक विशेषापेदायें उदय प्रकृतिविचार पूजे, त्यां प्रथम मिथ्यात्वगुणगणे सर्व मिथ्यात्वी जीवनी अपेदायें एकसो ने सत्तरप्रकृतिनो उदय लाने. तेम उदीरणायें पण एकसो सत्तर लाने, केमके मिश्रमोहनीयनो उदय, मिश्रगुणगणेज होय अने सम्यक्त्वमोहनीयनो उदय, चोथा गुणगणाथी लेश ते सातमा गुणगणा सुधी होय अने थाहारकशरीर, तथा आहारक अंगोपांग, ए बे प्रकृतिनो उदय, चौद पूर्वधरने जे ते प्रमत्तगुणगणे लाने. तीर्थकरनामकर्मना दलनो उदय, चोथा गुणगणाधी मामीने बारमा गुणगणा लगें होय. पण उपशांत मोहपणुं तीर्थकरने नज होय. तीर्थकरनामकर्मनो रसोदय तो तेरमे अने चउदमे गुणगणे होय. तीर्थकरने मिथ्यात्व, साखादन, मिश्र धने उपशांतमोह, ए चार गुणगणां न होय. ते तीर्थंक Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४ कर्मस्तवनामा द्वितीय कर्मग्रंथ. रनामकर्मनो उदय तेरमे चौदमे गुणगणे लाने, पण बीजा बार गुणगणे न लाने, तेथी ए पांच प्रकृतिनो उदय, मिथ्यात्व गुणगणे न लाने. ते पांच अनुदय उघ एकसो बावीशमाहेथी काढतां शेष एकसो सत्तर प्रकृतिनो उदय, आगले गुणगणे जाणवो, पण ए पांचनो उदय यथावस्थान लानशे ते नणी उदय विछेद न कह्यो. ॥ १३ ॥ ॥ हवे जे प्रकृतिनो उदय, मिथ्यात्वेज , पण आगल नथी ते कडे. ॥ सुहुम तिगायव मिडं, मिडतं सासणे गारसयं ॥ निरयाणुपुविणुदया, अण थावर इग विगल अंतो॥२४॥ अर्थ- सुहुमतिग के सूक्ष्म त्रिक, थायव के आतपनामकर्म, मिठं के० मिथ्यात्वमोदनीय, ए पांचनो मितं के मिथ्यात्वगुणगणाने अंतें उदयविछेद थाय, तेथी सासणे के सास्वादनगुणगणे गारसयं के एकसो ने अगीबार प्रकृतिनो उदय लाने. केमके निरयाणुपुविणुदया के नरकानुपूर्वीनो श्हां अनुदय बे ते माटे. अने श्रण के अनंतानुबंधीया चार, थावर के स्थावरनाम, इग के एकेंजियजाति, विगल के विकलत्रिकजाति, एवं नव प्रकृतिना उदयनो अंतो के अंत सास्वादने होय ॥ इत्यदरार्थः॥१४॥ सूक्ष्मनाम, अपर्याप्तनाम, साधारणनाम, ए सूक्ष्म त्रिक. एनो उदयविद प्रथम गुणगणे थाय, जे जणी सूक्ष्म नामनो उदय,सूक्ष्म एकेंजिय जीवने होय,अपर्याप्तनामनो उदय, एकेजियादिक लब्धिथपर्याप्ताने होय. साधारणनामनो उदय, निगोदिया जीवने होय. ए त्रणे तो नियमा, मिथ्यात्वीज होय. तथा आतपनामनो उदय, बादरएकेंजियने पर्याप्तावस्थायें होय. ते मिथ्यात्वीज होय, अने अपर्याप्तावस्थायें सास्वादनगुण होय, पण त्यां श्रातपनो उदय न होय. मिथ्यात्वमोहनीयने रसोदयें तो मिथ्यात्वगुणगणुंज होय पण बीजां तेर गुणगणां न होय. बादरअपर्याप्ता पृथ्वीकायस्फटिकने आतपनामकर्मनो उदय न होय. ते वेलायें सास्वादन गुणगणुं होय, पण मिथ्यात्व गुणगणुं न होय. ___एम एकसो ने सत्तर प्रकृतिमांदेथी ए पांचना उदयनो अंतप्रांत मिथ्यात्वेज होय. तेथी सास्वादनगुणगणे एकसो ने अगीश्रार प्रकृतिनो उदय रह्यो. अहीं शिष्य प्रश्न करे बे, के एकसो ने सत्तर प्रकृतिनो उदय, मिथ्यात्वे हतो तेमांथी पांच प्रकृतिनो उदय टले, तेवारें शेष एकसो ने बार प्रकृतिनो उदय रह्यो जोश्ये, तो एकसो ने श्रगीआर प्रकृतिनो उदय, सास्वादने होय ए केम घटे ? अहीं गुरु उत्तर कहेडे, के एकसो बार प्रकृतिनो उदय रह्यो तेमाहे पण नरकानुपूर्वीनुं उदयपणुं सास्वादने न Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मस्तवनामा द्वितीय कर्मग्रंथ. ४०५ होय. जे जणी नरकानुपूर्वीनो उदय, वक्रगतिये नरकगतिमाहे जातां वचले समय होय अने औपशमिक सम्यक्त्व वमतां नरकगतिमाहे न जाय. परंतु मिथ्यात्वी थकोज नरकगतिमाहे जाय. सास्वादनगुणगणानो धणी मनुष्य अथवा तिर्यचजेवारे वक्र नरके जाय, तेवारें पहेले समय, सास्वादननो उदय ने तेवारें मनुष्य होय ता मनुष्यायु अने तिर्यंच होय तो तिर्यंचायुनो उदय होय एम जाणवू, अने तेवार पड़ी सम्यक्त्व वमतां नरकानुपूर्वीनो उदय होय अने वम्या पठी नरकायुनो उदय होय. जेमाटे मिथ्यात्वी थक्ष नरकें जाय पछी त्यां नरके उपन्या थका त्यां पर्याप्ता थया पली उपशमसम्यक्त्व आवे. वली तेने वमे; ते वम्या पली सास्वादनगुणगणुं होय, तेवारें नरकायुनो पण उदय अने दायिकसम्यक्त्वनो धणी तो श्रेणिकराजानी पेरें सम्यक्व सहितज नरकें जाय, अने सास्वादन औपशमिक अने दायोपशमिक सम्यक्त्वनो धणी, सम्यक्त्व वमीने नरकें जाय. तेथी एनो पण अनुदय जाणवो. तेथी शेष ज्ञानावरणीय पांच, दर्शनावरणीय नव, वेदनीय बे, मोहनीय पच्चीश, आयुनी चार, नामनी उंगणसाठ, गोत्रनी बे अने अंतरायनी पांच, एवं एकसो ने अगीआर प्रकृतिनो उदय, सास्वादने होय. अहीं उदयविछेद नव प्रकृतिनो होय, ते केवी रीतें? तो के अनंतानुबंधीया कषायने उदयें, आगलां गुणगणां न होय तथा स्थावरनाम, एकेंजियजाति, ए बे प्रकृतिनो उदय, एकेजियने होय तथा बेइंडियजातिनो उदय, बेईजियने होय. तेंजियजातिनो उदय, त्रेजियने होय अने चौरिंजियजातिनो उदय, चौरिंजिय जीवने होय. अने ए एप्रिय तथा विकलेंजियने मिथ्यात्व अने सास्वा. दन ए बे गुणगणां विना शेष मिश्रादिक बार गुणगणां न होय, तेथीए पांच प्रकृति तथा अनंतानुबंधीया चार, एवं नव प्रकृतिनो उदय विछेद, सास्वादने होय ॥ १४ ॥ मीसे सय मणुपुची, णुदया मीसो दएण मीसंतो॥ चनसय मजए सम्मा, णु पुछि खेवा बिअ कसाया ॥ १५ ॥ अर्थ-मीसेसय के मिश्रगुणगणे एकसो प्रकृतिनो उदय होय, मणुपुत्रीणुदया के त्रण आनुपूर्वीनो उदय, अहीं होय नहीं अने मीसोदएण के मिश्रमोहनीयनो उदय होय, तेथी. तथा मीसंतो के मिश्रनो अंत होय, तेवारें चउसय मजए के एकसो ने चारनो उदय श्रविरतिसम्यक्दृष्टिगुणगणे होय. सम्माणुपुविखेवा के एक सम्यक्त्वमोहनीय श्रने चार आनुपूर्वी, ए पांच उदयप्रकृति क्षेपवियें तेवारें एकसो ने चार थाय. अहीं विपकसाया के बीजा अप्रत्याख्यानावरणीय कषायनी चोकमी ॥ इत्यदरार्थः ॥ १५ ॥ Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६ कर्मस्तवनामा द्वितीय कर्मग्रंथ. तेवारें एकसो अरमांथी नव काढि, शेष एकसो ने वे रही तेमांहेथी पण देवानुपूर्वी, मनुष्यानुपूर्वी अने तिचानुपूर्वी ए त्रण आनुपूर्वीनो उदय, मिश्रगुणगणे न होय, जे जण मिश्रगुणठाणे वर्त्ततो जीव, मरे नहीं. जेथी करी अंतरातें वक्रगति न पामीयें तेथी आनुपूर्वीनो उदय यहीं न लाने, तेवारें शेष नवाएं प्रकृतिनो उदय रह्यो मिश्रमोहनीयनो उदय छाहीं पामीयें. केमके एना उदयथीज ए गुणठाएं होय बे, तेथी ज्ञानावरणीय पांच, दर्शनावरणीय नव, वेदनीय बे, मोहनीय बावीश, युनी चार, नामनी एकावन, गोत्रनी बे ने अंतरायनी पांच, एवं सो प्रकृतिनो उदय, मिश्रगुणठाणे होय. त्यां एक मिश्रमोहनीयनो उदय विछेद. जे जी मिश्रगुearer विना बीजे को गुणठाणे मिश्रमोहनीयनो उदय न होय. ॥ हवे श्रविरतिसम्यकदृष्टि नामे चोथे गुणठाणे उदयप्रकृति कड़े ते. एकसो चार मां नवाएं मिश्र हती छाने इहां सम्यक्त्व बतां पण चारे गतिमाहें जीवनी उत्पत्ति लाजे. तेथ वक्रगति करतां चार धानुपूर्वीनो उदय लाने अने क्षायोपशमिक सम्यक् ष्टिने सम्यक्त्वमोहनीयनो उदय होय, माटे ए पांच प्रकृतिनो उदय नेलतां एकसो चार प्रकृतिनो उदय चोथे गुणठाणे लाने. यहीं सत्तर प्रकृतिनो उदय विछेदाय, ते कहे बे. बीजा प्रत्याख्यानावरणीय कषाय चार ॥ १५ ॥ मतिरऽणु पुवि विडव छ डुदग प्रणाइऊडुग सतर बेर्ज ॥ सगसीइ देसि तिरि गई, आउनि नको ति कसाया ॥ १६ ॥ अर्थ तथा मतिरिपुत्रि के० मनुष्यानुपूर्वी अने तिर्यंचानुपूर्वी, विजवs o वैकियाष्टक, हग के दौर्भाग्यनामकर्म, अलाऊडुग के० श्रनादेयद्विक, ए सतरado ए सत्तर प्रकृतिनो उदयविछेद थाय तथा बाकी सगसीइ के० सत्याशी प्रकृतिनो उदय, देसि के० देशविरति पांचमे गुणठाणे होय. अहींयां तिरिगइ केव तिर्यंचगति, उ के० तिर्यंचायु, नि के० नीचैर्गोत्र, उशोध के० उद्योतनाम, तिकसाया के० त्रीजा प्रत्याख्यानावरण कषायनी चोककी ॥ इत्यरार्थः ॥ १६ ॥ मनुष्यानुपूर्वी, तिचानुपूर्वी, ए बेनो उदय, मनुष्य, तियंचगतिमांदे श्रवतरतां वक्रगति जीवने होय. त्यां विरति न होय, केमके विरति सहित जीव परजवें अवतरे नहीं तथा वैयिशरीर, वैक्रियांगोपांग, देवत्रिक ने नरकत्रिक ए वैक्रियाष्टक एनो उदय देवता तथा नारकीने होय, तेने चोथा गुणवाणाथी उपरला गुणठाणांन होय, तेथी ए व प्रकृतिनो उदय, अहीं विछेद पामे. तथा वैक्रियशरीराने वैकिय अंगोपांग, ए बे प्रकृतिना उदय, मनुष्य, तिथंचने लब्धिप्रत्ययवैक्रिय शरीर करतां Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मस्तवनामा द्वितीय कर्मग्रंथ. होय, तेथी देशविरति तथा प्रमत्त गुणगणे एनो उदय लाने, केमके विष्णुकुमारादिकने करतां सांजल्यो बे, तो पण ते उदय स्वाभाविक नहीं, तथा अल्पकाल होय माटे. अथवा बीजे कोइ कारणे अहीं कह्यो नहीं. ते वात, ज्ञानवंत जाणे, तथा देशविरति, सर्वविरति, गुण बतां जीवने दौर्भाग्य, श्रनादेय वचन अने यशः कीर्त्ति, ए त्रmनो उदय न होय. ए सत्तर प्रकृतिनो उदय, चोथा गुणवाणा सुधी लाने, पण यागले न लाने. ए रीतें मोहनीयनी प्रकृति अप्रत्याख्यानी या चार कषाय ाने देवायु, नरकायु, ए वे श्रायुनी प्रकृति, शेष अगीधार नामकर्मनी. एवं सत्तर प्रकृतिनो उदविछेद चोथे गुणगणे जाणवो. शेष सत्याशी प्रकृतिनो उदय, देशविरतिनामें पांचमे गुणठाणे लाने. त्यांनीचैर्गोत्र तो ध्रुवोदय तियंचगतिमांदे होय, तेथी तिर्यंचने देश विर तिनी थपेक्षायें लेवो ने मनुष्यने चोथे गुणठाणे विछेद होय. १ तिर्यंचगति, २ तिर्यंचायु, ३ उद्योतनाम, ४ नीचैर्गोत्र, ए चार प्रकृतिनो उदय स्वामी तिर्यच, तेने देशविर तिथी उपरलां गुणवाणां न होय. नवप्रत्ययें तेने सर्वविरतिनो निषेध कह्यो, जो पण निंदमणीयानो जीव, देको हतो तेथे अनशनने समयें " सवपालाईवायं पच्चरकामी " इत्यादिक उच्चार श्रीज्ञातासूत्रमध्ये को बे, पण ते देशविर तिनें रूपें जावो, जो सर्वविरतिपणुं तिर्यचने होय, तो केवलज्ञान केम निषेधाय ? तथा उद्योतनामकर्मना उदय, जोपण प्रमत्तगुणठाणे वैक्रिय शरीर करतां साधुने होय, तोपण ते लब्धिप्रत्यय जणी विवयुं नहीं. तथा प्रत्याख्यानावरणीय कषाय चारने उदयें सर्वविरतिपणुं न होय. ॥ १६ ॥ इगसी, पमत्ति आहार जुअल परकेवा ॥ श्रीतिगादारग डुग, बेर्ड व सयरि अपमत्ते ॥ १७ ॥ GOR अर्थ- अछे के० एवं श्रव प्रकृतिनो उदय विछेद थाय, तेवारें शेष इगसी के० एकाशी प्रकृतिनो उदय पमत्ति के० प्रमत्तगुणगणे होय. आहारजुअल परकेचा के० आहारकशरीर अने आहारक अंगोपांग, ए वे प्रकृति उगणाएंशी मांहे प्रक्षेपीयें, तेवारे एकाश। थाय. छाने त्यां थी तिग के० श्री एडीत्रिक आहारगडुगबेजे के० आहारकद्विक, ए पांच प्रकृतिनो उदय विछेद थाय, तेवारें शेष बसयरिापमत्ते के० बद्दोंतेर प्रकृतिनो उदय, सातमे श्रप्रमत्तगुणगणे होय ॥ इत्यर्थः ॥ १७ ॥ तेथी ए व प्रकृतिनो उदयविछेद देशविर तिगुणठाणे होय, एटले मोहनीयनी चार कषायप्रकृति तथा तीर्थगाय एक, नामकर्मनी बे, गोत्रनी एक. एवं आठ प्रकृ - For Private Personal Use Only Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ១០ច कर्मस्तवनामा वितीय कर्मग्रंथ. तिनो उदयविछेद सत्याशीमांथी थाय, तेवारें उंगणाएंशी प्रकृतिनो उदय रह्यो तेमांहे वली थाहारक शरीर अने थाहारक अंगोपांग, ए बे प्रकृतिनो उदय चौद पूर्वधर मुनिने श्रीतीर्थकरनी शछि देखवा निमित्तें, तथा सूमार्थ संदेह टालवा निमित्ते, आहारक शरीर श्रारंजता, लब्धि प्रयुंजतां होय. तेथी ते उगणाएंशी माहे ए प्रकृति नेलतां एकाशी प्रकृतिनो उदय, प्रमत्तगुणगणे लाने; एटले ज्ञानावरणीय पांच, दर्शनावरणीय नव, वेदनीय बे, मोहनीय चौद, मनुष्यायु एक, नामनी चुम्मालीश, उचैर्गोत्रनी एक, थने अंतरायनी पांच, एवं एकाशीनो उदय डे, ते मांडेथी पांच प्रकृतिनो उदय, थहीं विछेद पामे, जे नणी एक थीणकी, बीजी निसानिमा अने त्रीजी प्रचलाप्रचला, ए त्रण निझा स्थूलप्रमाद तेमाटे अप्रमत्तें न होय. तथा थाहारकशरीर बने थाहारकअंगोपांग, ए बेनो उदय लब्धिप्रत्यय थाहारक शरीर उतां विशुद्धपणे, अप्रमत्तपणे होय, ते अपेदायें थाहारकछिकनो उदय अप्रमत्तगुणगणे पामीये, पण अहीं शा कारणें कह्यो नहीं ? ते जाणवामां श्रावतुं नथी. तथा अल्प जणी विवदयुं नहीं; तथा " स्वकृत टीकामां ए विषे श्राम लखे बे के, आहारकछिक करनारो यति, औत्सुकें करी अवश्य प्रमादवश थाय बे, माटे ए पण अप्रमत्तने विषे उदयनो आश्रय घटे नहीं. ए विषे श्राम पण सांजलवामां श्राव्यु ले के प्रमत्त यतिज आहारकने विकृत करीने पली विशुभ परिणामना वशथी थाहारकवंत थकोज अप्रमत्त गुणगणा प्रत्ये पामे , ते कांश पण स्वल्पकालादि कारणे करी पूर्वाचायें विवयुं नथी." एम त्रण दर्शनावरणीय तथा बे नामकर्मनी मलीने पांच प्रकृतिनो उदय, एकाशीमांहेथी टाले थके शेष ज्ञानावरणीय पांच, दर्शनावरणीय ब. वेदनीय बे, मोहनीय चौद, श्रायुनी एक, नामनी बैंतालीश, उच्चैर्गोत्रनी एक अनेअंतरायनी पांच. एवं बहोंतेर प्रकृतिनो उदय, अप्रमत्तसाधुने सातमे गुणगणे होय. ॥१७॥ सम्मत्तं तिम संघयण, तिअग ने बिसत्तरि अपुवे ॥ दासाइ बक्क अंतो, बसहि अनिअहि वेअतिगं॥१७॥ अर्थ- त्यां सम्मत्त के० सम्यक्त्वमोहनीय, अंतिमसंघयणतिश्रग के बेला त्रण संघयण, ए चार प्रकृतिनो उदय, छेउ के० विछेद होय, तेवारें बिसत्तरित्रपुच्चे के० बहोंतेर प्रकृतिनो उदय, अपूर्वकरणगुणगणे होय, त्यां हासाश्बकअंतो के हास्यादिक उ प्रकृतिना उदयनो अंत एटले विछेद होय, तेवारें उसहिअनियहि के गशठ प्रकृतिनो उदय अनिवृत्तिकरण गुणगणे होय. तेमांथी वेअतिगं के वेदत्रिक ॥श्त्यक्षरार्थः ॥ २० ॥ Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मस्तवनामा द्वितीय कर्मग्रंथ. ყდ त्यां चार प्रकृतिनो उदयविछेद थाय, तेनां नाम कहे बे. एक सम्यक्त्वमोहनी - यना उदयें क्षायोपशमिक सम्यक्त्व पुलिक होय, ते तो सातमा गुणठाणा सुधी होय, माथी लेइ आगले गुणगणे दायिक तथा औपशमिक सम्यक्त्व जीव 'स्वजावरुचिरूप पुलिक होय. त्यां सम्यक्त्वमोहनीयनो उदय, न लाने तथा प्रथमसंघ रूपकश्रेणि करे ने प्रथमना त्रण संघयणे औपशमश्रेणि आरंने, शेष अर्द्धश्रागले गुण ठाणे ए त्रण संघयणनो उदय न लाने, तेवारें बहोंतेरमांदेथी ए चार प्रकृतिनो उदय काढतां, नाराच, की लिका ने बेवा संघयणना धणी श्रेणि रंजे नहीं. तेथी शेष बहोंतेर प्रकृतिनो उदय श्रवमे गुणठाणे लाने. तेमांथी हास्य, रति, रति, जय, शोक, जुगुप्सा, ए व मोहनीय पापप्रकृति बन्ने श्रेणिना विशुद्धपरिणामें रंजना उदयथी श्रावमा गुणगणाने प्रांतें बेदें, तेवारें पूर्वोक्त बहोंतेरमांथी व प्रकृतिनो उदय विछेदे, तेवारें शेष बाशठ प्रकृतिनो उदय, निवृत्ति बादर संपरायनामा नवमा गुणठाणे लाने. त्यां वली व प्रकृतिनो उदय विच्छेदे, तेनां नाम कहे बे. स्त्री वेदोदयें श्रेणि श्रारंजे ते, प्रथम स्त्रीवेदोदय बेदे पढी पुरुषवेदोदय बेदे, पढी नपुंसक वेदोदय बेदे पढी संज्वलना क्रोधादिक चारनो उदय विच्छेद होय; पुरुष वेदें श्रेणि मांडे ते, प्रथम पुरुषवेदोदय विच्छेदे, पठी स्त्री वेदोदय विछेदे, पी नपुंसक वेदोदय विछेदे; त्रण पढी संज्वलना कषायनो उदय विछेदे. नपुंसकवेदे श्रेणी मांडे ते, प्रथम नपुंसक वेदोदय बेदे, पठी स्त्रीवेदोदय बेदे, पढी पुरुषवेदोदय बेदे. १० संजलण तिगं बबेर्ड, सठी सुहुमंमि तुरिच्य लोगंतो ॥ वसंत गुणे गुण स, हि रिसद नाराय डुग तो ॥ १९ ॥ अर्थ - ने संजल तिगं के० संज्वलन त्रिक, बबेर्ड के० ए व प्रकृतिनो उदयविछेद याय तेवारें सही सुदुमंमि के० सूक्ष्मसंपराय दशमे गुणठाणे शाठ प्रकृतिनो उदय होय, तिहां तुरिलोमंतो के संज्वलननी चोकडीमांडेला चोथा लोजना उदयनो अंत थाय, तेवारें उवसंतगुणे के० उपशांतमोगुणठाणे गुणसहि के० जंगपाठ प्रकृतिनो उदय होय, त्यां रिसदनारायडुग तो के० षजनाराचसंघयण, ने नाराचसंघण, ए वे प्रकृतिनो उदय, विच्छेद पामे ॥ इत्यक्षरार्थः ॥ १७ ॥ पी संज्वलनक्रोध, मान, माया, ए त्रणनो उदयविछेद थाय, केमके एने उदयें, सूक्ष्मसंपराय चारित्र न होय तेमाटे ए व प्रकृतिनो उदय विच्छेद याय तेवारें शेष ज्ञानावरणीय पांच, दर्शनावरणीय ब, वेदनीय बे, मोहनीय एक, खायुनी एक, ५२ For Private Personal Use Only Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१० कर्मस्तवनामा द्वितीय कर्मग्रंथ. नामनी उंगणचालीश, गोत्रनी एक, अने अंतरायनी पांच, एवं शाठ प्रकृतिनो उदय सूदमसंपरायनामा दशमे गुणगणे लाने. त्यां चोथा संज्वलनना लोननो उदय दाय, केमके संज्वलनने उदयें यथाख्यातचारित्र हणाय बे, अने पागले चार गुणगणे यथाख्यातचारित्र होय तेथी त्यां संज्वलननो लोन न होय, तेवारें शेष उंगणशा प्रकृतिनो जदय उपशांतमोह वीतरागद्मस्थनामा अगीश्रारमे गुणगणे लाने, त्यां झषजनाराचसंघयण, बीजुं नाराचसंघयण, ए बे नामकर्मनी प्रकृतिनो उदय विछेद थाय, केमके वज्रषजनाराचसंघयण विना बीजा संघयणना धणी, दपकश्रेणि आरंने नहीं, अने आगलांत्रण गुणगणानी प्राप्ति झपकश्रेणि विना थाय नहीं. तेथी ए बे संघयणनो उदय न होय माटे पूर्वोक्त जंगणशा प्रकृतिना उदय मांहेथी बे संघयणनो उदय टाले थके ॥ १५ ॥ सगवन्न खीण उचरिमि, निद्द गंतो अचरिमि पणवन्ना ॥ नाणंतराय दंसण, चन जे सजोगि बायाला ॥२०॥ श्रर्थ-सगवन्न के तेवारें सत्तावन प्रकृतिनो उदय ते खीणचरिमि के दीणमोहगुणगणाना बेला छिचरमसमययी अर्वांग बीजा समयलगें होय. निदगंतो. अचरिमि के त्यां वली निझा ने प्रचला ए बे प्रकृतिनो उदयविछेद थाय, तेवारें बेले समये पणवन्ना के पंचावन प्रकृतिनो उदय होय, त्यां नाण के ज्ञानावरणीय पांच, अंतराय के अंतराय पांच, दंसणचन के दर्शनावरणीय चार, एवं चौद प्रकृ. तिनो उदय, बे के दाय, तेवारें सजोगि के० सयोगीगुणगणे बायाला के बेंतालिश प्रकृतिनो उदय होय ॥ इत्यदरार्थः ॥ २० ॥ शेष ज्ञानावरणीय पांच, दर्शनावरणीय ब, वेदनीय बे, आयु एक, नामनी साडत्रीस, गोत्रनी एक, अंतरायनी पांच, एवं सत्तावन्न प्रकृतिनो उदय वीतरागबद्मस्थ क्षीणमोह गुणगणाना फुचरिम एटले ए गुणगणानो काल अंतर मुहर्त प्रमाण २ तेना बेला बे समय ते मांहेलो प्रथम बेलाथी पहेलो समय त्यां लगे होय. त्यां निमा श्रने प्रचला, ए बे दर्शनावरणीयनी प्रकृतिनो उदय विछेद पामे. अहीं केटलाएक श्राचार्य कहे के उपशांत मोहेंज वे निजानो उदय होय पण वीणमोहें न होय तथा सत्तरिनामे बहा कर्मग्रंथना अभिप्रायें तो दपक श्रेणिना धणीने अति विशुरू जणी निसानो उदय, निषेध्यो बे. पण आ ठेकाणे शुं जाणीयें, केवा अनिप्रायथी निजानो उदय, आपकने मान्यो ? ते जणातुं नथी ते अपेक्षायें Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मस्तवनामाद्वितीय कर्मग्रंथ. ४११ बारमा गुणवाणाने बेहेले समयें पंचावन प्रकृतिनो उदय लाने, त्यां चौद प्रकृतिनो उदय विवेद याय, तेनां नाम कहे बे. ज्ञानावरणीय पांच, दर्शनावरणीय चार, अंतराय पांच, ए चौद प्रकृति आत्मगुणघातीनी बे ते विशुद्धपरिणामें करी उदय तथा सत्तायें सार्थेज टले तेवारें केवलज्ञानादिक श्रात्मगुणनिश्चयनया निप्रायें वारमा गुणगणाना अंतसमयें छाने व्यवहारनयथी तेरमा गुणवाणाने पहेले समयें, प्रगट थाय. त्यां केवलज्ञान, केवलदर्शन, तथा दान, लाज, जोग, उपजोग, वीर्य, ए पांच क्षायिक लब्धि गुण प्रगटे तेवारे पूर्वोक्त पंचावन प्रकृतिमांथी चौद प्रकृतिनो उदय विछेद् के शेष एकतालीश प्रकृतिनो उदय रहे श्रने मूलपाठें बेतालीशनो उदय को ते केवी रीतें ? तेनुं श्रगली गाथायें समाधान करे. तिबुदया उरलाथिर, खगइ डुग परित्त तिग ब संगणा ॥ गुरु लहु वन्न च निमि, ए ते कम्माग संघयण ॥ २१ ॥ अर्थ-दिया के० त्यां तीर्थंकरनामकर्मनो उदय होय माटे बेंतालीश कही. वहीं उरल के दारिकद्विक, अथिर के० अथिर द्विक, खगइडुग के० खगतिद्विक, परितति के० प्रत्येक त्रिक, बसंगणा के बसंस्थान, अगुरुलहु के० छागुरुलघुचतुष्क, वन्नच के० वर्णचतुष्क, निमिण के निर्माणनाम, तेहा के० तैजसशरीर, कम्मा to कार्मणशरीर, इगसंघयण के० एक वज्ररुषननाराचसंघयण एवं सत्तावीश प्रकृति ॥ इत्यर्थः ॥ २१ ॥ जेमाटे रसोदयनी अपेक्षायें करीने जिननामकर्मनो उदय यहीं लाने े तेणे करीने पोतानी देशनायें चतुर्विधसंघ स्थापे. बीजो जिननामनो बाधाकाल, अंतरमुहूर्त्तनो को. ते प्रदेशोदयनी अपेक्षायें जाणवो. जिननामने प्रदेशोदय यये थके पण बीजा जीवनी अपेक्षायें तेनी श्राज्ञा ऐश्वर्यादिक वधे पण ते हीं विवदयुं नथी. यहीं सघले स्थानकें रसोदय विवदयो बे तेथी ते एकतालीश प्रकृतिमांहे जिननामोद तां नामकर्मनी मत्रीश तथा मनुष्यायुनी एक, वेदनीयनी वे अपने उच्चै - गनी एक. एवं बेतालीश प्रकृतिनो उदय, सयोगी गुणगणे लाने, त्यां त्रीश प्रकृतिनो उदय विछेद होय, ते कहे बे. औदारिक शरीर अने औौदारिक अंगोपांग, ए दारिकः स्थिर ने अशुभ ए अस्थिर द्विक; शुभ विहायोगति अने शुविहायोगति, ए खगतिद्विक; प्रत्येकनाम, स्थिरनाम, शुजनाम, ए प्रत्येक त्रिक; समचतुरस्र, न्यग्रोध, सादि, वामन, कुल, छाने हुं. ए व संस्थान; अगुरुलघु, उप For Private Personal Use Only Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१३ कर्मस्तवनामा द्वितीय कर्मग्रंथ. घात, पराघात ने उहास, ए अगुरुलघुचतुष्क. वर्ण, गंध, रस ने स्पर्श, ए वर्णचतुष्क; एवं त्रेवीश प्रकृति थ. निर्माण नाम, तैजसशरीरनाम, कार्मणशरीरनाम, वज्रषज. नाराचसंघयण, ए सत्तावीश प्रकृति काययोग रुंधे थके काययोगने बनावें करीयोगीगुणगणे एनो उदय न होय. ॥२१॥ सूसर दूसर साया, ऽसाए गयरं च तीस वुजेठ ॥ बारस अजोगि सुनगा, इज जसऽन्नयर वेअणिअं॥१२॥ अर्थ-सूसर के सुस्वरनामकर्म, इसर के फुःस्वरनामकर्म, तथा सायाऽसाएगयरंच के शातावेदनी अने आशाता वेदनी ए मांहेली एक प्रकृति ए रीते तीसबुछेउ के त्रीश प्रकृतिनो उदय विदे, तेवारें बारसथजोगि के बार प्रकृतिनो उदय श्रयोगीगुणगणे होय. तेनां नाम कहे. सुजग के सौजाग्यनामकर्म, श्राश्ज के० था. देयनाम, जस के यशःकीर्ति नाम, अन्नयरवेषणिकं के बे मांहेतुं अनेकै एक वेदनीय, एवं चार प्रकृति थ॥ १२ ॥ . ए पुजलविपाकनी प्रकृति जीवने कायसंबंध टले थके यहां प्रदेश घन करे. अने वचनयोग रुंध्या पली चौदमे गुणगणे स्वर निरोधे सुस्वरें पुःस्वरनामनो उदय विछेद पामे. ए गणत्रीश थर तथा शातावेदनीय उदय प्राप्त होय तो अशातावेदनोयनो उदय छेद थाय अने अशातावेदनीयनो उदय प्राप्त होय तो शातावेदनीयनो उदय छेद थाय. एम बेहु प्रकृतिमाहेथी एक प्रकृतिनो उदय बेदे, पण नानाजीवनी अपेकायें बेहुनो उदय अयोगी गुणगाणे लाने तथापि एक जीवने स्तोककाल नणी एकनोज उदय पामीयें, ते अपेक्षायें त्रीश प्रकृतिनो उदय विछेद सयोगी गुणगणे कह्यो माटे बेंतालीशमाहेथी त्रीश प्रकृतिनो उदय टव्यो, तेवारें शेष वेदनीय एक, थायु एक, नामनी नव, गोत्रनी एक, ए बार प्रकृतिनो उदय चौदमा अयोगी गुणगणाना चरम समयसुधी लाने अने बेले समय ए बार प्रकृतिनो उदयविछेद थाय, ते कहे. सौजाग्यनामकर्मजीवविपाकी, आदेयनामकर्मजीवविपाकी, यशनामकर्मजीवविपाकी, जेनो उदय विछेद सयोगी गुणगणाने प्रांतें नथी तथा शाता अशातामांहेलो एक वेदनीयकर्मजीवविपाकी. ए चार प्रकृति जीवविपाकीनी जाणवी ॥ १५ ॥ तस तिग पणिदि मणुआ, उगइ जिणु चंति चरिम समयंतो ॥ उदउँ सम्मत्तो ॥ उदनबुदीरणया, परमपमत्ता सग गुणेसु॥ (पागंतरे) पमत्ताई सगतिगुणा ॥ २३ ॥ Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मस्तवनामा द्वितीय कर्मग्रंथ. ४१३ पाठांतर गाया ॥ जंवेणि याहार डुंग, श्रीणातिग नराज म पमत्तता गुणयालस जोगिनदी, रणंतु अणुदीगु जोगी ॥ २४ ॥ अर्थ-तसतिग के० त्रसत्रिक, पणिदि के पंचेंद्रिय जाति, मणुश्राजग‍ के० मनुष्यायु ने मनुष्यगति, जिणुच्चंति के० जिननाम ने उच्चैर्गोत्र. ए बार प्रकृतिना उदयनो योगी गुणठाणाने चरिमसमयंतो के अंतसमयें अंत थाय. एटले उदर्जसामत्तो के उदयाधिकार संपूर्ण थयो. उदउवुदीरणयापरमपमत्ताइसगगुणेसु के० उदयनी पेरें उदीरणा जाणवी. पण एटलुं विशेष जे, अप्रमत्तादिक सात गुणठाणे उदीरात्रिक न्यून जावो. पाठांतरें पमत्ताईसगतिगुणा के० श्रप्रमतादिक सात गुणठाणे उदयन प्रकृति कही बे, ते थकी उदीरणात्रिक ऊएं कहेवुं. ॥ २३ ॥ - ॥ हवे पाठांतर गाथानो अक्षरार्थ कहे . ॥ वेणि के० जे वेदनीय बे तथा आहारडुग के० श्राहारकद्विक, श्रीप तिग के० श्रीत्रिक, नराज के० मनुष्यायु, ए ड के० श्राठ प्रकृतिनो उदीरणानो विछेद पमत्तता के० प्रमत्तगुणठाणे याय. तेथी श्रप्रमत्तादिक गुणठाणे उदयश्री उदीरणा त्रण त्रण प्रकृतिनी करीयें, तेवारें यावत् गुणयालसजो गिजदीरणंतु के० जंगणचालीश प्रकृतिनी उदीरणा सयोगी गुणठाणे होय. अणुदी राजोगी के अने योगी गुणअनुदीरक होय ॥ इत्यक्षरार्थः ॥ २४ ॥ त्रसनाम, बादरनाम, पर्याप्तिनाम ए त्रसत्रिक ए जीवविपाकीनी, एवं सात. पंचेंप्रियजातिनामकर्म, पंचेंद्रिय एवा उदयिकपर्याय हेतु जवचरमसमय सुधी होय, एवं श्रा, मनुष्यायुप्रकृति ते मनुष्य जव विपाकीनी जणी जवचरमसमयसुधी एनो उदय होय, एवं नव, मनुष्यगतिनामकर्म पण मनुष्य एवा उदयिकपर्याय हेतु एवं दश, जिननामकर्म पण तीर्थंकरपर्यायहेतु चरमसमयसुधी होय. एवं अगी चार प्रकृति थ‍ ाने उचैर्गोत्र पण जीवविपाकी जणी चरमसमयसुधी लाजे. ए बार प्रकृतिना उदयनो तथा एनी सत्तानो विछेद योगी गुणवाणाने बेहेले समयें होय, जेमाटे तेवार पढी कर्म कलंकरहित मनुष्यत्वादिक उदयिक पर्याय अनभिधेय सहजानंदस्वरूपी, शुद्धोपयोगी, ध्येयसिद्धदशा अनुभवे, तेथी ए उदय विछेद अनंत होय ॥ इति श्रीकर्मस्तवटबार्थे उदयाधिकारः समाप्तः ॥ Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ १ श् ३ ४ ए 9. G 2 १० ११ १२ १३ १४ गुणठाणे उदयप्रकृति. घें. मिथ्यात्वें. सास्वादनें. मिश्र. कर्मस्तवनामा द्वितीय कर्मग्रंथ. ॥ उदय यंत्रकम् ॥ विरतें. देशविरतें. मूलप्रकृति. उत्तरप्रकृति. सूक्ष्मसंपरायें. उपशांत मोहें. श्री मोहें. सयोगी केवलीयें. योगी केवलीयें. ८ १२२ U ט G ८ G ט D 1 ११७ 6 १११ ย १०० ย १०४ 60 ६० ज्ञानावरणीय. दर्शनावरणीय. वेदनीय. मोहनीय. आयुःकर्म. नामकर्म. ี एए ६ प्रमत्तसंयतें. ८०१५ ९ २ १४ १ ५३ २ ५ श्रप्रमत्तसंयतें. पूर्वकर. निवृत्तिकरणें. eeeeeeeeeeee / ४२ 2/ १२ ० ६ 2 २६ 2 ० ६ २ D ० ७६ ५ ६ २ १७ १ ५२ १ ५ ༢༠་༥་ལཿ བ་སུ༢་༥ ་ཇ་༢་སྣཟླ་་རྩྭ་རྡལ་རྩྭ་ ༥ ६६ १ ए བ ་ བ ་ བ ། ” ཞ ། ཾ ླ ོ ྴ | ༅ ༅ ༅ སྐ མྦ ५. 2 **** or on a For Private Personal Use Only १ ย एए ६ ३ २२ ९ ३ २ ० १ २७ पद ย ५१ ४ մա ६४ १ ୫୫ १ १ ० १ ३७ गोत्रकर्म. अंतरायकर्म. ३ ศ 2 ३८ ‍ ५ ५ 2 ए 2 ५ २ ए १ ५ १ १ ५ ५ ० ० Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मस्तवनामा द्वितीय कर्मग्रंथ. हवे उदय सहचारिणी नणी उदीरणा कहीयें जैये. उदयोदय तथा उदीरणोदय, ते मध्ये उदीरणोदय उदीरणानामकरणजीव विशेष तेणे करी जे सहज जदयावलि उपरांत दलिया तथा रस श्राकर्षी उदयावलिमांहे आणी जोगवे तेना उदयथकी जे वीशेषखामित्वपणुं तेने उदीरणा कहीयें बैयें. ते उ तथा मिथ्यात्वादिक व गुणगणे नेम उदयस्वामित्व कडं, तेम त्यां तेटबुंज उदीरणा स्वामित्वपणुं जाणवू. श्हां उदय दीरणांनो विशेष नथी, पण एटळ विशेष जे प्रमत्त गुणगणाने अंतें थीणनीत्रिक मे श्राहारकटिक, ए पांच प्रकृतिनो उदयविछेद कह्यो अने उदीरणा विछेद तो थाहीनिला एक, निसानिमा बे, प्रचला प्रचला त्रण, श्राहारकछिक, शाता अशातानीय , अने मनुष्यायु. ए आठ प्रकृतिनी उदीरणा विबेद होय, तेवारें अप्रमत्तगुजणे शेष तहोंतेर प्रकृतिनी उदीरणा होय. जेमाटे मनुष्यायु प्रमर्तना योगें करी उरी तेथी बहु काल वेदवा योग्य ते थोडा कालमां वेदी, अपवर्तन करणविशेषे कुवेदे तेथी सोपक्रम श्रायु होय, अकाल मरण पामे अने अप्रमत्तादिक गुणगणे काल मरण न होय तथा शाता थशातानी उदीरणा पण प्रमत्तपणे होय अने उदय आर्वगुणाणे लाने, तेथी ए त्रण प्रकृतिनो उदय, उदीरणाविना अप्रमत्तें लाने॥२३॥ हवे पागंतरें चोवीशमी गाथानो अर्थ कहे जे. जे जणी शाता थशाता ए बेहु दिनीय प्रमुख प्रमत्तगुणगणे पण उदोरी वेदे पण अप्रमत्तपणे उदीरणा नथी. तेथी प्रप्रमत्तादिक आठ गुणगणे ए प्रकृतिनो उदय होय पण उदीरणा न होय. तथा माहारकशरीर थने आहारक अंगोपांग, ए प्रकृति नामकर्मनी बे. तेनो उदय तथा दीरणा प्रमत्तगुणगाणे होय पण अप्रमत्तें न होय अने थीणजी, निशानिशा तथा 'चला प्रचला, ए त्रण दर्शनावरणीयप्रकृतिनो उदय अने उदीरणा पण प्रमत्तपणे भय पण अप्रमत्तगुणगणे न होय, एवं सात. तथा मनुष्यायु पण अप्रमत्तपणे उदीरे गौं, तेथी थकालमरण न होय. तेमाटे ए ग्राम प्रकृतिनो उदीरणाविछेद प्रमत्तगुपाणे होय, तेवारे शेष ज्ञानावरणीय पांच, दर्शनावरणीय ब, मोहनीय चौद, नामनी मालीश, गोत्रनी एक, अंतरायनी पांच, ए तहोंतेर प्रकृतिनी उदीरणा अप्रमत्तगुगणे होय, एम अपूर्वकरणादिक गुणगणे पण उदयथीत्रण प्रकृति फेर उदीरणायें बी जाणवी. एम यावत् सयोगीगुणगणे उदय बेंतालीश प्रकृति श्रने उदीरणा उंगचालीश प्रकृतिनी होय, अने अजोगी गुणगणे उदीरणा नथी,योगने अनावें समस्त गरहित होय अने उदीरणा तो त्रिकरण विशेषकरणवीर्ययोगबल एकार्थपर्यायनाम तेथी करणवीर्यने अनावें अयोगी जगवंतने यद्यपि अनंतबल हतो पण कोश कर्म देरी न शके, ते जणी अनुदीरक कह्यु, तेमज १ बंधन, २ संक्रम, ३ उपर्तना, ४ Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६ कर्मस्तवनामा वितीय कर्मयंक. अपवर्तना,५ उपशमना, ६ निधत्त, निकाचनादिकरण पण अयोगीगुणगणे न होय, जो पण बार उदयवती प्रकृतिमाहे अनुदयवती तहोंतेर प्रकृति स्तिबुक संक्रमे संक्र मावती कही, पण संक्रमणकरण न होय, ए तत्व ॥ २४ ॥ एसा पयडी तिगुणा, वेअणि आदार जुअल थीण तिगं ॥ मणु आउ पमत्तंता, अजोगिअणुदीरगो जयवं॥श्यानदीरणा सम्मत्ता ॥ अर्थ-एसापयमी के ए उदीरणाप्रकृति ते उदयथकी तिगुणा के त्रण ऊणी जाणवी वेथणि के वेदनीय बे, आहारजुथल के अहारकटिक, थीण तिगं के० श्रीणनीत्रिक मणुश्राज के मनुष्यायु, ए आठ प्रकृतिनी उदीरणा, पमत्ता के प्रमत्तगुणगणान अंतलगेज होय. अजोगिअणुदीरगोजयवं के अयोगी नगवान् सर्वकर्मनो अनुदीरर जाणवो. ॥२५॥ उदीरणासम्मत्ता के ए उदीरणाधिकार संपूर्ण थयो.॥ ए उदीरणा अप्रमत्तादिक सात गुणगाणे उदयथी त्रण प्रकृति उठी उणी जाण केमके ए सर्वगुणगणे मूलनी प्रकृतिनी उदीरणा होय, एटले वेदनीयनी बे, श्रम मनुष्यायु, ए त्रण प्रकृतिनो उदय होय पण उदीरणा न होय, तेथी मूल प्रकृति तेनी, उत्तरप्रकृति तहोंतेरनी उदीरणा लेवी, तेथी अप्रमत्तगुणगणे बहोंतेर प्रकृति उदय श्रने तहोंतेर प्रकृतिनी उदीरणा तेमांडेथी एक सम्यक्त्वमोहनीय अने थर्ड नाराच, कीलिका अने वहुं, ए त्रण संघयण, एवं चार प्रकृतिनी उदीरणाविले श्रये थके आपमे गुणगणे जंगणोतेर प्रकृतिनी उदीरणा होय, तेमांथी हास्य, रति,अर ति, जय, शोक, जुगुप्सा, ए ब प्रकृतिनी उदीरणा विछेदे, नवमे गुणगणे त्रेशन प्रकृति उदीरणा जाणवी. तेमांथीत्रण वेद,संज्वलनोक्रोध, संज्वलनो मान,अनेसंज्वलनीमा. या, एत्रण संज्वलनी प्रकृती मलीन प्रकृतिनी उदीरणा विजेद थये थके दशमे गुणगारे सत्तावन प्रकृतिनी उदीरणा जाणवी. तिहां सूक्ष्मलोचनी उदीरणा विछेद थये हो मोहनीयनी उदीरणा विछेद थर, तेवारें शेष पांच कर्मनी प्रकृति एटले ज्ञानावरण पांच, दर्शनावरणीयनी ब, नामनी उंगणचालीश, गोत्रनी एक अने अंतरायनी पांड उप्पन प्रकृतिनी उदीरणा अगीश्रारमे गुणगणे होय. तिहां षजनाराच अने ना ए बे प्रकृतिनी उदीरणा विछेदें शेष चोपन्न प्रकृतिनी उदीरणा वीणमोहगुणगाणे हर तेना त्रण नांगा करतां समयाधिक श्रावलिशेष निजा अने प्रचलानी उदीरणानि अने आवविशेषे ज्ञानावरणीय पांच, दर्शनावरणीय चार अने अंतराय पांच, ५ चौद प्रकृतिनी उदीरणाविछेदे, तेवारें बारमा गुणगणानी अंत आवलीयें नामकर्म सामंत्रीश, श्रने गोत्रनी एक. एवं थामत्रीश प्रकृतिनी उदीरणा लाने. जे जणी इ Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मस्तवनामा द्वितीय कर्मग्रंथ. ४१७ वरणादिक अंतयाव लियें उदीरवा योग्य अधिक दल नयी रह्यां, तेमाटे शुं उदीरे ? तथा सयोगी गुणठाणे जिननामकर्मनो उदय होय, तेथी उदीरणा पण लाजे. ते जेलतां आडीश नामकर्माने एक उच्चैर्गोत्र, एवं जंगलचालीशनी उदीरणा होय. तिहां एक जिननाम, श्रदारिक द्विक, अस्थिर, अशुजखगति द्विक, प्रेत्यक त्रिक, संस्थान अगुरुलघु, उपघात, पराघात, उखास, वर्णचतुष्क, तैजसनाम, कार्म्मणनाम, निर्मानाम, प्रथमसंघयण, स्वरद्विक, सौभाग्यनाम, आदेयनाम, यशः कीर्त्तिनाम, त्रसत्रिक, रगति, पंचेंद्रियजाति, उच्चैर्गोत्र. ए जंगणचालीश प्रकृतिनी उदीरणा विछेद थये थके मे गुणठाणे अनुदीरक जगवंत होय || उदीरणाधिकार संपूर्ण थयो. ॥ २५ ॥ ॥ उदीरणा यंत्रकम् ॥ ० १ २ ३ ४ ए w Da ६ 6 G ए १० ११ १२ १३ १४ ५३ गुणठाणे उदीरणा प्रकृति. उधे मिथ्यावें. सास्वादने. मिश्र. अविरतें. देश विरतें. प्रमत्तसंयतें. पूर्वर निवृत्तिर. मूलप्रकृति. उत्तरप्रकृति. प्रमत्तसंयते. ६ ६ ६ सूक्ष्म परायें. शांत मोहें. दमोहें. सयोगी केवलीयें. योगी केवलीये. ט ט ט טטט ט ६ ५ U २ ० १२२ ५ ११७ - ५ 起 १११ ५ १०४ ज्ञानावरणीय. दर्शनावरणीय. १०० ए 世 ए ८७ ५ ६० ए ८ १ ५ 巴 ७३५ ६३ ५ ५७ ५ ५४ ५३ ३ ם For Private 222/2/aa U ० ० ६ vw w w ६ ६ ४ ० वेदनीय. मोहनीय. O or or or Dr r Personal Use Only २ २ ५६ ५ ६ ० v 0 २ Dr Y ० D ० CY Y Y Y ० २० Dw 0 २६ २ १४ २५ D १४ २२ २२ ܫ or or 15 ु ए १८ १३ 6 १ ם ० O श्रायुःकर्म. नामकर्म. गोत्रकर्म. अंत रायकर्म. ० ४ ย ย ५ ย ४ ora १ ४४ ० ם. २ ধধ २ १ O ६७ ६४ ० ० ८ ४२ १ ० ० २ ५१ २ ५५ २ pree २ २ ३८ न D १ ३० १ ३५ १ ३ १ ३७ १ ३० १ ० ५ ووووو ૫ v ए ५ ए ए ५ ए ए ५ ० U Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१८ कर्म स्तवनामा द्वितीय कर्मग्रंथ. ॥ हवे अनुक्रमे उदयउदीरणा प्रकृति विचारीने चौद गुणठाणे सत्ता विचारे बे. ॥ सत्ता कम्माण हिइ, बंधारा ल६ अत्त लाजाणं ॥ संते मयाल सयं, जा नवसमु विजिणु बिच तइए ॥ २६ ॥ अर्थ- सत्ताकम्माणइ के० सत्ता सद्भावकर्मनी स्थिती अवस्थान, बंधारा के बंधन संक्रमणादिककरणें करी ( लद्ध ) लाधुं बे अत्तलाजाणं के० श्रात्मलानकर्मी; पणुं जेणे, एवी संते के० सत्तायें होय. घडयालसयं के० एकसो ने घडतालीश प्रकृ ति ते जानवसमुवि के० यावत् उपशांत मोहनामें श्रीश्रारमुं गुणठाएं बे त्यां सु । जाणवी, परंतु जिवितइए के० जिननाम विना बीजे सास्वादन गुणठाणे तथा त्री जे मिश्र ठाणे एकसो ने समतालीश प्रकृतिनी सत्ता होय. सत्ता एटले कर्मदलनुं जीवसायें संबंधपणुं कर्मस्वरूपें रहेतुं, ज्यांसुधी बाँध्य कर्मनां दल, जीव प्रदेशथी खरे नहीं, तथा अन्यप्रकृतिपणे संक्रमे नहीं, त्यांसुधी तेन सत्ता जाणवी. ते कर्म केवां बे के जेने बांधवे करी तथा संक्रमणे करी ला पाम्यो बे जे खात्मलान मतिज्ञानावरणादि श्रात्मस्वजाव जेणे, एवां कर्म एटले सज तिय उत्तर प्रकृतिमांदे निज स्थितिरसदलनुं परिक्रमावावं. जेम देवगति, मनुष्यगत्या दिकमांदे संक्रमावीने सत्तायें रहेतुं, ते कर्मप्रकृति सत्तायें उधें एकसो ने अकालीशनी विवक्षा करवी. अहीं बंधननाम, शरीरनी पेरें पांच लीधां तेथी एकसो ने ड तालीश उचें तथा मिथ्यात्व अविरति, देश विरति, प्रमत्त, श्रप्रमत्त, निवृत्ति, छानिवृत्ति, सूक्ष्म संपराय, उपशांतमोह लगें उधें एकसो ने श्रमतालीश प्रकृति सत्तायें होय. तीर्थं करनाम कर्मनी सत्ता होय. ते जीव, बीजे, त्रीजे, गुणठाणे न यावे तेमाटे जिननामनी सत्ता, एबेहु गुणठाणे न लाने अने मिथ्यात्व गुणठाणे जिननामनी सत्ता अंत मुहूर्त्त संजवे, जेम कोइएक क्षायोपशमिक सम्यक्रदृष्टि जीव पूर्वे मिध्यात्वप्रत्यये नरका बांधी पी सम्यक्त्व पामी जिननाम बांधी ते मरण समयें सम्यक्त्वर्थ मिथ्यात्वें जाय, पण सास्वादनें न जाय; तेथी मिथ्यात्वे अंतरमुहूर्त्त मात्र जिन नाम सत्तायें होय, पण सास्वादन छाने मिनें न होय, तेथी ए बने गुणठाणे एकसो समताली शनी सत्ता होय ॥ २६ ॥ अपूवाइ चटक्के, अण तिरि निरयान विष्णु विद्यालयं ॥ सम्माइ च सुसत्तग, खयंमि इग चत्तसय मदवा ॥ २७ ॥ अर्थ- वाचके के० पूर्वकरणादिक चार गुणठाणे श्रण के० अनंता श्रीयानी चोकमी, तिरि के० तिर्यंचायु, निरयाउ के० नरकायु, ए व प्रकृति, विणु के विना शेष, विद्यालयं के० एकसो ने बेंतालीश प्रकृतिनी सत्ता होय अने सम्म For Private Personal Use Only Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मस्तवनामा द्वितीय कर्मग्रंथ. ४१ए चसु के अविरतिसम्यकदृष्टि चार गुणगणा प्रमुखें दायिक सम्यकदृष्टिने सत्तगखयंमि के सात प्रकृति दय गइ ते नणी गचत्तसय के० एकसो एकतालीश प्रकृति सत्तायें होय. अहवा के अथवा पक्षांतरें ए अर्थ, धागली गाथामां लखाशे ॥७॥ ___ ए हवे विशेषे कहे . अहीं पंच संग्रहने मते अनंतानुबंधीया कषाय चारनी विसंयोजना तथा क्षपणा कस्या विना उपशमश्रेणीयें तथा दपकश्रेणीयें था,,नवमुं, दशमु, अने श्रगीधारमुं ए चार गुणगणां स्पर्शे नहीं. विसंयोजना एटले विशेष जे खपाव्यां हतां पण मिथ्यात्वादिक प्रत्ययें वली बंधाय, ते खपणानुं नाम विसंयोजना कहीयें बने बल्या बीजनी पेरें फरी पद्धवे नहीं, ते खपणा कहीयें. बेहुपरि सत्ता न होय. तथा नरकायु, तिर्यगायु बांध्या पली उपशमश्रेणि न करे तेथी ते बे श्रायुनी सत्ता ढुंते थके ए चार गुणगणां न होय, तेथी अनंतानुबंधी कषायनी चोकमी, तथा नरकायु, ने तिर्यंचायु, ए प्रकृतिनी सत्ता विना शेष एकसो ने बेंतालीश प्रकृतिनी सत्ता होय. तथा देवायु बांधे थके उपशमश्रेणि करवानुं संजवे तेथी देवायुनी सत्ता अने मनुष्यायुयें वर्ते तेथी तेनी पण सत्ता हुँते ए चार गुणगणां होय, तथा पूर्वे अगीधारमा गुणगणा सुधी एकसो ने अडतालीशनी सत्ता कही ते संजव, सत्तानी अपेक्षायें जाणवो, जेजणी उपशमश्रेणिना धणी पण तिहांथी पाबा पमी मिथ्यात्वा. दिक प्रत्ययें वली ते प्रकृति बांधशे, ए सत्तानो संजव . योग्यतापणे अपेदायें एकसो ने अमतालीशनी सत्ता कहीयें, शहां कांश विरोध नथी. १ अविरतिसम्यकदृष्टि, २ देशविरति, ३ प्रमत्त, ४ अप्रमत्त, ए चार गुणगणे वर्त्तता दायिक सम्यकदृष्टि जीवने अनंतानुबंधिया चार कषाय, मिथ्यात्वमोहनीय, मिश्रमोहनीय, अने सम्यक्त्वमोहनीय, ए सात प्रकृति खपावी ते जणी ते सातनी सत्ता टली, तेवारें शेष एकसो ने एकतालीशनी सत्ता होय ए अचरम शरीर दायिक सम्यकदृष्टिनी अपेक्षायें चरम शरीरदायिक सम्यकूदृष्टिनो विशेष. ए अर्थ वली पदांतर बागली गाथामां कहेशे ॥॥ खवगंतु पप्प चनसुवि, पणयालं निरय तिरि सुराज विणा ॥ सत्तगविणु अडतीसं, जा अनिअट्टी पढम नागो ॥ २ ॥ अर्थ- पदांतरे खवगंतुपप्पच सुवि के तथा क्षपक केवली, चरम शरीरीने ए चार गुणगाणे निरयतिरिसुराजविणा के नरकायु, तिर्यंचायु, अने देवायु, ए त्रण बाउखां विना पणयालं के० एकसो पीस्तालीश प्रकृति कही. अने सत्तगविणुअडतीसं के० सप्तक कयें दायिकसम्यकदृष्टिने एकसो ने श्रामत्रीशनी सत्ता जायनिअट्टीपढमजागो के चोथा गुणगणाथी लश्ने यावत् अनिवृत्ति नवमा गुणगणाना प्रथम जाग लगें होय ॥ इत्यदरार्थः॥ २० ॥ Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२० कर्मस्तवनामा द्वितीय कर्मग्रंथ. अथवा एटले पदांतरें दपक एटले तेहीज नवमां सर्व प्रकृतिनो खपावनार थशे एवो जे मनुष्य, चरमशरीरी तेने चोथे, पांचमे, बके, अने सातमे, ए चार गुणगणे दायोपशमिक, अने दायिक ए बेहु सम्यक्त्व बतां तथा मिथ्यात्वादिकें पण चरमशरीरी , ते नणी देवायु, नरकायु ने तिर्यगायु, ए त्रण पोतपोताना चरमजवने विषे लोगवीने खपाव्यां ने तेथी तेने सत्तायें एकसो ने अमतालीशमांथी त्रण काहाढतां शेष एकसो पीस्तालीश प्रकृति सत्तायें होय. ए स्वरूप, सत्तानी अपेक्षायें जाणवू, तेथी शतकनामे कर्मग्रंथमध्ये सात प्रकृति खपाव्या पली ए त्रण आयुनी दपणा, संनव सत्तापेक्षायें कही. तेहशुं विरोध न होय जे जणी तिहां खपणा के ए त्रण आयुना बंधयोग्य टाली तेणे जीव करे नहीं. एटले वली ए त्रण आयु बांधे नही, तथा दायिकसम्यदृष्टिने चरम शरीरें चोथा गुणगणेथी मांगीने पांचमे,बले, सातमे, आठमे, ए पांच गुणगणे तथा नवमा गुणगणाना अंतर मुहर्त कालना नव जाग करीयें, तेना प्रथमनाग सुधी एकसो ने आडत्रीश प्रकृतिनी सत्ता होय, ते श्रावी रीतें के चरम शरीरीनणी पूर्वोक्त प्रकारे देवायु, नरकायु, तियेंगायु, एत्रणनी सत्ता टली अने दायिक सम्यक्त्व डे माटे अनंतानुबंधीया कषाय चार तथा मिथ्यात्व, मिश्र ने सम्यक्त्व, ए त्रण मोहनी. एवं सात प्रकृतिनी पण सत्ता टली एटले एकसो ने श्रमतालीशमाहेथी ए दश प्रकृतिनी सत्ता विना शेष एकसो ने आमत्रीश प्रकृतिनी सत्ता नवमा गुणगणाना नव नागमाहेला प्रथम नाग लगे होय. तेवार पड़ी तेर नामकर्मनी अने त्रण दर्शनावरणीयनी, एवं शोल प्रकृतिनी सत्ता विद थाय, ते कहे . ॥२॥ थावर तिरि निरया यव, उग थीण तिगे ग विगल सादारं ॥ . सोल ख ऽविस सयं, बिअंसि बिअ तिअ कसायंतो ॥२॥ अर्थ- थावर के स्थावरकि, तिरि के तिर्यंचटिक, निरय के नरकछिक, आयव के श्रातपछिक, ए चार उंग के छिक अने थीणतिग के थीणजीत्रिक, एग के० एकेंजियजाति, विगल के विकलेंजियत्रिक, साहारं के साधारणनाम, एवं सोलख के शोल प्रकृतिनो दय होय, तेवारें मुविससयं के एकसो बावीश प्रकृतिनी सत्ता, विरंसि के नवमा गुणगणाना बीजे अंशे एटले बीजे नागें होय, तिहां बिअतिकसायंतो के बीजा अने त्रीजा कषायनी चोकडीनो अंत थायः॥ इत्यदरार्थः॥४॥ ___ स्थावरनामकर्म अने सूक्ष्मनाम कर्म. एवं बे प्रकृतिनी सत्ता विशुद्ध परिणामे टले अने तिर्यंचगति तथा तिर्यगानुपूर्वी, ए तिर्यंचछिक टले. नरकगति, नरकानुपूर्वी, ए नरकट्रिक टले, श्रातपनाम, उद्योतनाम, ए श्रातपछिक. ए बेहु यद्यपि पुण्यप्रकृति डे Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मस्तवनामा द्वितीय कर्मग्रंथ. ४२ तथापि सहेजें तिर्यग्गति प्रायोग्य जे ते जणी विशुद्ध अध्यवसायें एनी सत्ता पण टले, थीणकी, निडानिडा अने प्रचला प्रचला, ए थीणजीत्रिक दर्शनावरणीय कर्मनी ने तेनी सत्ता टले. एकेजिय, बेंजिय, तेंजिय, अने चौरिंजियजातिनामकर्म तथा साधारणनामकर्म. एवं शोल प्रकृतिमध्ये श्रीणहीत्रिक दर्शनावरणीयर्नु बे. शेष तेर प्रकृति, नामकर्मनी बे. ए शोल प्रकृतिनो उदय नवमाने प्रथमनागें करे तथा एक श्राचार्यने मतें अनंतानुबंध्यादिक सात प्रकृति खपावी अने बीजा चार तथा त्रीजा चार कषाय खपाववा मांडे, तेनी दपणाविचालें ए शोल प्रकृति खपावे, तेवारें एकसो ने थामत्री शमाहेथी शोल खपावे थके शेष एकसो ने बावीश प्रकृतिनी सत्ता बीजे नागें रहे, तिहां बीजा अप्रत्याख्यानावरणीय कषाय चार, तथा त्रीजा प्रत्याख्यानांवरणीय कषाय चार, ए श्राप कषायनी प्रकृति खपावे, तेवारें एकसो ने बावीश प्रकृतिमाहेथी आठ कषाय दय गये थके शेष एकसो ने चौद प्रकृतिनी सत्ता, नवमाना बीजे नागें रहे॥ए॥ तआश्सु चनदस ते, र बार ब पण चन तिदिअ सय कम सो॥ नपु शनि दासग पुस, तुरिअ कोदो मय माय ख ॥३०॥ अर्थ- तश्श्राश्सु के० तृतीयादिकनागने विषे एटले नवमाना त्रीजा नागने विषे चन्दस के० एकसो ने चौद प्रकृतिनी सत्ता होय,चोथे नागें तेर के० एकसो तेर,पांचमे नागें बार के एकसो बार,बहे नागें ब के एकशोब, सातमे नागेपण के० एकसो पांच, थामे नागें चज के एकसो चार, नवमे नागें ति हिअसय के० एकसो नेत्रण,ए कमसो के अनुकमें सत्ताप्रकृति जाणवी. त्यां नपु के नपुंसकवेद, इलि के स्त्रीवेद, हासबग के हास्यादिक उ, पुस के० पुरुषवेद, तुरिअकोहो के चोथो संज्वलनोक्रोध, मय के मद एटले संज्वलनमान,माय के संज्वलन माया, तेनो खर्ड के दय,अनुक्रमें थाय ३० झानावरणीय पांच, दर्शनावरणीय ब, वेदनीय बे, मोहनीय तेर, आयुनी एक, नामनी एंशी, गोत्रनी बे अने अंतरायनी पांच, एवं एकसो ने चौद प्रकृतिनी सत्ता रही, ते अनुक्रमें तश्याश्सु के त्रीजो नाग श्रादें देश् अनिवृत्तिकरणना नवमा नाग लगें अनुक्रमें एकसो तेर, एकसो बार, यावत् नवमे नागे एकसो ने त्रण प्रकृतिनी संख्या जोमवी, ते श्रावी रीतें के त्रीजे नागें एकसो ने चौद प्रकृतिनी सत्ता रही, तेमांहेथी नपुंसकवेद दय करे. तेवारें चोथे नागें एकसो ने तेरनी सत्ता रहे, त्या स्त्रीवेद दय करे, तेवारें पांचमे नागे एकसो ने बार प्रकृतिनी सत्ता रहे, त्यां हास्यादिक उ प्रकृति क्षय करे, तेवारें के नागें एकसो ब प्रकृतिनी सत्ता रहे, त्यां पुरुषवेदनो क्षय करे, तेवारें सातमे नागें एकसो पांच प्रकृतिनी सत्ता रहे, त्यां संज्वलन क्रोधनो क्षय करें, तेवारें आपमे नागें एकसो चारनी सत्ता रहे, त्यां संज्वलन माननो दय करे, तेवारें Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२३ कर्मस्तवनामा द्वितीय कर्मग्रंथ. नवमे नागें एकशो ने त्रण प्रकृतिनी सत्ता रहे, त्यां संज्वलनी मायानो क्षय करे, सत्ता विजेदे, एटले नवमा गुणगणानो प्रांत होय. सूक्ष्मसंपराय चारित्र पामे ते पांचमा यथाख्यातचारित्रथी कांश्क जणुंडे केमके सूदमलोजना निदान कांश्क बे तेथी दशमे गुणगणे एकसो बे प्रकृतिनी सत्ता होय अने यथाख्यात ते सर्वथा वीतराग होय. सुहुमि उसय लोहंतो, खीण ७ चरिमेगसय ऽ निद्द खर्च ॥ नवनवश् चरिम समए, चन दसण नाण विग्धंतो॥ ३१ ॥ अर्थ- सुहुमि के सुक्ष्म संपरायगुणगणे ऽसय के एकसो ने बे प्रकृतिनी सत्ता होय, त्यां लोहंतो के संज्वलना लोजनो क्षय होय, तेवारें खीणचरिमेगसय के क्षीणमोहगुणगणे हिचरम समय एकसो ने एक प्रकृति सत्तायें होय, त्यां मुनिदख के बे निखानो क्ष्य थाय, तेवारें नवनवश्चरिमसमए के० नवाणुं प्रकृतिनी सत्ता, बेले समय होय. त्यां चउदसण के चार दर्शनोवरणीय,नोण के पांच झानावरणीय अने विग्धंतो के पाच अंतराय. एवं चौद प्रकृतिनो दय थाय ॥श्त्यदरार्थः॥३१॥ सूक्ष्मसंपराय दशमे गुणगणे ज्ञानावरणीय पांच, दर्शनावरणीय ब, वेदनीय बे, मोहनीय एक, मनुष्यायु एक, नामनी एंशी, गोत्रनी बे, अंतरायनी पांच, एवं एकसो ने बे प्रकृतिनी सत्ता रदी. पनी त्यां रह्यो थको अध्यवसाय विशु करी सूक्ष्म लोज पण खपावे, तेथी तेनी सत्ता विछेद थाय. तेवारें एकसो ने एक प्रकृति सत्तायें रही, रूपकश्रेणिमांहे उपशांतमोह अगीआरमुं गुणगणुं न होय. केमके मोहने उपशमावे थके उपशांतमोह कहेवाय डे, अने अहींयांतो मोहने खपावतो गयो २ तेथी तेनी सत्ता पण टालतो गयो जे तेणे करी ते दीपमोहवीतराग बद्मस्थ गुणगणी कडेवाय. अहींतो तेने समय ऊन निजगुणस्थानकाल लगें एकसो एक प्रकृतिनी सत्ता होय. त्यां बेहला समयथी पहेलो समय ते उचरिम समय कहीये. त्यां निजा,प्रचला, ए बे प्रकृति खपावे, तेवारें बारमा गुणगणाने बेदले समयें नवाणुं प्रकृतिनी सत्ता रहे. वहींयां मतांतरे बारमा गुणगणाना बेहले समय चक्षुदर्शनावरणीय, थचकुदर्शनावरणीय, अवधिदर्शनावरणीय, केवलदर्शनावरणीय, ए चार दर्शनावरणीय अने पांच ज्ञानावरणीय तथा पांच अंतराय, एवं चौद प्रकृतिना आयें तेनी सत्ताविछेद होय, तेवारें केवल ज्ञान उपजे. ए नवाणुंमांहेथी चौदनी सत्ता टली ॥३१॥ पणसी सजोगी अजो, गि चरिमे देव खग गंध उगं ॥ फासह वम रस तणु, बंधण संघाय पण निमिणं ॥ ३२॥ अर्थ- पणसीसजोगि के० तेवारें पंचाशी प्रकृतिनी सत्ता सयोगीगुणगणे होय, Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मस्तवनामा द्वितीय कर्मग्रंथ. ४२३ अने अजोगिचरिमे के अयोगीगुणगणे पण उचरमसमयलगें पंचाशीनी सत्ता होय, त्यां देव के देवहिक, खगर के खगतिहिक, गंध के गंधछिक, सुगं के० ए त्रपछिक, फासक, के स्पर्श थार, वम के पांच वर्ण, रस के पांच रस, तणु के० शरीर पांच, बंधण के बंधन पांच, संघाय के संघातन पांच, पण के० ए सौं पांच पांच, कहेवा. निमिणं के निर्माणनाम. एवं चालीश प्रकृति थ ॥ इत्यदरार्थः॥३५॥ तेवारे तेरमे सयोगीगुणगणे तथा चौदमा अयोगीकेवलीगुणगणाना बेहला समयना उपरला समय लगें वेदनीय बे, नामनी एंशी, आयुनी एक अने गोत्रनी बे, ए पंचाशी प्रकृतिनी सत्ता रहे; त्यां अयोगीगुणगणाना शंतना समयथी पहेलो जे समय तिहां अनुदयवती, बहोतेर प्रकृति खपावे, ते प्रकृतिनां नाम कहेजे. देवगति, देवानुपूर्वी, ए देवधिक. शुनविहायोगति भने अशुजविहायोगति, ए खगतिछिक, सुरजिगंध अने पुरनिगंध, ए गंधछिक, ए त्रण आगल ठिक शब्द जोमीयें, तेवारें ब प्रकृति थाय, आठ स्पर्श, पांच वर्ण, पांच रस, पांच शरीर नाम प्रकृति, तेमज ते नामे औदारिकादिक पांच, बंधननी प्रकृति, तथा औदारिकादिक पांच संघातननी प्रकृति, वर्णादिक पांचथी श्रागल जेटला शब्द कह्या, ते सर्वनी आगल पण शब्द जोडीयें तथा निर्माणनाम, ए चालीश प्रकृति थ॥३२॥ संघयण अथिर संग, ण बक्क अगुरुवहु चन अपजातं ॥ सायं च असायं वा, परित्तुवंगातिग सुसर निअं॥३३॥ अर्थ- संघयण के संघयण , अथिर के अस्थिरषट्रक, संगण के संस्थान ब, बक के ए त्रण बक जाणवां. गुरुलहुचउ के गुरुलघुचतुष्क, अपात्तं के अपर्याप्तनाम, सायंच के शातावेदनीय, असायंवा के अथवा अशातावेदनीय, एबे प्रकृतिमाहेथी एक लेवी. परित्त के प्रत्येकत्रिक, उवंगातिग के उपांगत्रिक, सुपर के सुखरनाम, निरं के नीच्चैर्गोत्र, एवं बहोंतेर प्रकृति थ ॥ इत्यदरार्थः ॥ ३३ ॥ पूर्वती गाथामां कहेली चालीश प्रकृति तथा संघयण, अस्थिरनाम, अशुननाम, दो ग्यनाम, पुःखरनाम, अनादेयनाम, अयश कीर्तिनाम. ए अस्थिरषट्क, संस्थान, ए त्रण पद बागल बक जोमीयें. गुरुलघु, उपघात, पराघात, अने उश्वास ए थगुरुलघुचतुष्क कहीयें. अपर्याप्तनाम, शाता अथवा अशाता, ए बे वेदनीयनी प्रकृतिमांहेली जे उदय होय, ते विना बीजी एक प्रकृति अनुदयवती होय, ते खपावे. प्रत्येकनाम, स्थिरनाम, शुजनाम, ए प्रत्येकत्रिक. औदारिक, वैक्रिय ने आहारक, ए उपांग त्रण, सुस्वरनाम, नीचैर्गोत्र, एवं बहातेर प्रकृति थ तेमांहे सीत्तेर नाम. Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ कर्मस्तवनामा द्वितीय कर्मग्रंथ. कर्मनी, एक वेदनीय, एक नीच्चैर्गोत्री जाणवी. ए बहोंतेर प्रकृतिनो पण त्यां उदय नहीं, तेथी बहोंतेर प्रकृतिनी सत्ताविछेद थाय ॥ ३३ ॥ बिसयरि ख अ चरिमे, तेरस मणुअ तसतिग जसाइज ॥ सुलग जिणुच्च पणिदिअ, सायासा एगयर ॥ ३४ ॥ अर्थ- बिसयरिखध के ए बहोतेर प्रकृतिनो क्षय होय. चरिमे के वली बेहले समयें तेरस के तेर प्रकृतिनी सत्ता विछेद थाय, ते कहेले. मणुश के मनुष्यत्रिक, तस के त्रसत्रिक, ए बे तिग के त्रिक जाणवा. जस के यशःकीर्तिनाम, श्राऊं के श्रादेयनाम, सुजग के सौनाग्यनाम, जिण के जिननाम, उच्च के उच्चैर्गोत्र, पणिं दिध के पंचेंजियजाति, अने सायासाएगयर के शाता अशातामांहेली एक उदयवती प्रकृतिनो विछेद होय. ॥ ३४ ॥ ते बहोतेर प्रकृति थापणुं दल अन्यसजातिय उदयवती प्रकृतिमाहे स्तिबुक संक्रमे, संक्रमावी खपावे, जेम मनुष्यगति उदयवती बे, तेमध्ये शेष त्रण गतिनुं दलिक संक्रमावी खपावे, तेम बीजी पण यथायोग्य जाणवी. स्तिबुकसंक्रम ते कहीयें जेम पाणीनो पर्पोटो सहेजें पाणीमांहे संक्रमे, तेम जे सहेजें स्व स्तोकदलिक परप्रकृतिमाहे संक्रमे, पण जीववीर्ये न संक्रमे तेथी ए स्तिबुकसंक्रमण करणमांहे गएयो, तेथी ते अयोगीगुणगणाने बेहले समय मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी अने मनुष्यायु. ए मनुष्यत्रिक, त्रसनाम, बादरनाम अने पर्याप्तनाम, ए त्रसत्रिक. यशःकीर्तिनाम, आदेय. नाम, सौजाग्यनाम, तीर्थंकरनाम, एच्चैर्गोत्र, पंचेंजियजाति नाम, अशाता ने शाता, ए बे वेदनीयमांहेथी जेनो उदय होय, ते एक लेवी. एवं तेर प्रकृतिनी सत्ता होय. तेमां एक वेदनीयनी, एक आयुनी, एक उच्चैर्गोत्रनी अने शेष दश प्रकृति नामकमनी रहे. ए सत्तरी प्रमुख शास्त्रने विरुक जे जे जणी त्यां बादर नामकर्मनी प्रकृ. तिनां सत्तास्थानक कह्यां, ते मध्ये श्राप प्रकृति तथा जिननाम सहित होय, तेवारें नव प्रकृतिरूप सत्ता स्थानक कडं, पण दश प्रकृतिरूप सत्तास्थानक न कयु. ए अपेक्षायें अही ते केम संनवे ? तथा बार उदयवती प्रकृति स्तिबुक संक्रम विना खपावे अने मनुष्यानुपूर्वीने उदयें वक्रगति होय ते पण अहीं नहीं होय तेणे स्तिबुकसंक्रम विना केम खपावे ? तेणे अहींओं को आचार्य मनुष्यानुपूर्वीनो वि. छेद पण पुचरिमसमय माने जे तेने मतें अयोगीगुणगणाना बेहला बे समय, तेमध्ये पहेले समय तहोंतेर प्रकृति खपावे थने बेहले समय बार प्रकृति खपावे. अहीं व्यवहारनय लेवो. अने निश्चयनयें तो सिगमन समयेंज बे तेहिज मतांतरें श्रागली गाथायें देखाडे बे. ॥ ३४ ॥ Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रणना नाग नव. 26 | मि. नघे. १४ अयोगीकेवलीयें. | H सयोगीकेवलीये. क्षीणमोहें. उपशांतमोहें. सूक्ष्मसंपरायें. ६ | प्रमत्तसंयतें. अपूर्वकरणे. अप्रमत्तसंयतें. देशविरतें. अविरते. सास्वादने. मिथ्यात्वे. | | गुणगणे सत्ता. leaamCC0pm BRE ERS OR REORS ooooaaaa w ROM १३७ १०१ ५ ३७१०२५ REP OMG || १३०१३०५ ॥ सत्ता यंत्रकम् ॥ कर्मस्तवनामा द्वितीय कर्मग्रंथ. مریم م م م م م मूलप्रकृति. | उत्तरप्रकृति. नपशमश्रेणी. । पकश्रेणी. -- - - | ज्ञानावरणीय. re_eeeeeeee | दर्शनावरणीय. xnnnnnn वेदनीय. 2005-0322 २४ | | मोहनीय. Janwar xxxwww.sex anim_cccc | आयुःकर्म. SEE नामकर्म. م mmmmmmmm/e ६ ६ ICY مع مع مع مع مع مع مع مع مع ए३२ । Go ५० مع مع مع مع مع مع م م م م م م م ا م م م د ا م ا | مع | مع ام ا م ira , === ==== - - - - - - - | अंतरायकर्म. ४२५ Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२६ कर्मस्तवनामा द्वितीय कर्मग्रंथ. नर अणुपुवि विणा वा, बारस चरिम समयंमि जोखविन ॥ पत्तोसिहिं देविं, द वंदिरं नमह तं वीरं ॥ ३५ ॥ सत्ता सम्मत्ता ॥ इति कर्मस्तवाख्यो द्वितीयः कर्मग्रंथः संपूर्णः ॥२॥ अर्थ-नरअणुपुश्विविणावा के० मनुष्यानुपूर्वीनो उदय नथी, तेथी ते विना मतांतरें बारसचरिमसमयंमि के बार प्रकृति, बेले समय जोखविउ के जे खपावीने पत्तो के प्राप्तो एटले पाम्यो, सिडिं के० सिझगति एटले मोक्षगति, ते प्रत्ये देविं. दवं दिथं के० देवेंखें वंदित तथा देवें सूरियें वंदित, नमहतंवीरं के० एवा श्रीमहावीरदेवनां चरणकमल डे, तेने नमस्कार करो ॥ ३५ ॥ पूर्वोक्त कारणचणी मनुष्यानुपूर्वीनो उदय नथी ते विना मनुष्यगति, मनुष्यायु, त्रस, बादर, पर्याप्ति, यशःकीर्ति, श्रादेय, सौजाग्य, तीर्थंकरनाम, उच्चैर्गोत्र, पंचेंजियजाति, एक वेदनीय, ए बार प्रकृति चरमसमयें उदयवती डे ते जणी ए स्तिबुकसंक्रम विना खजावें स्थितिक्ष्य थाय, ते माटे ए बार प्रकृति शुक्लध्याननो चोथो पायो समुछिन्नक्रियायनिवृत्ति एवे नामे . तेणे करी खपावीने साकारोपयोगें वर्त्ततां सकल कर्म टाली शुरू सहजरूप निरुपाधिक शुकोपयोगी एक समय समणि ज्यां श्रीअपापानगरीयें हस्तिपालराजानी राजसनायें देशना देतां थकां त्यां जे आकाशप्रदेश अवगाह्या हता, तेहनी ऊर्ध्वसमश्रेणिये जे सिफदेवना आकाशप्रदेश, ते आकाशप्रदेश श्रवगाहि, अचलरूप रह्या, पण ते श्रेणिना वचला आकाशप्रदेश स्पा नहीं, ए अचिंत्यशक्तिना धणी जो आत्मप्रदेशना दंम विना स्पर्श हुँतें जाय तो असंख्याता समय लागे, तेजणी सिद्धनी अस्पृशजति मानवी. एवा श्रीमहावीर वईमान चरम तीर्थकर अनेक देवेंद्र कहेतां चोशठ इंजें पूजित अथवा ग्रंथकर्ता तपागबाधिराज नहारक श्रीदेवेंजसूरियें वंदित, तेह प्रत्ये वांदो तेने नक्तिपूर्वक नमस्कार करो ॥ ३५ ॥ इतिश्री हितीयकर्मस्तवाख्यस्य बालावबोधः संपूर्णः ॥२॥ ២២២២២២២២២២២២២២២២២២២២២ ॥ इति श्री बालावबोधसहित कर्मस्तवनामा - द्वितीय कर्मग्रंथः संपूर्णः ॥५॥ @gayaayeeyonyaayonyooooooosyorycoomycoyoyoyoyeGyaayoyos.sg 1०००Y Y Y Y Y Y Y Y Y Y Y Y Y Y Y Y Y Y Y Y600 Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२० . बंधस्वामित्वनामा तृतीय कर्मग्रंथ. ॥ श्रथ ॥ ॥ बालावबोध सदित बंधस्वामित्वाख्य तृतीयकर्मग्रंथः प्रारच्यते ॥ तत्र ॥ आदौ बालावबोधकृत मंगलाचरणम् ॥ ऐंचा पदवी न स्थविष्ठा, विश्वविश्वगुरुता न गरिष्ठा ॥ चेतसि स्फुरति चेदलधिष्ठा, जैनगीर्गमनयोधपविष्टा ॥१॥ ॥श्रार्यावृत्तम् ॥ किंचिगुरूपदेशादवचूर्णं किंचिदन्यशास्त्रेभ्यः ॥ बंधखामित्वेऽस्मिन् लिखामि सारं समधिगम्य ॥२॥ ॥ मूल गाथा ॥ बंधविदाण विमुक्कं, वंदिअ सिरिवक्ष्माण जिणचं दं ॥ गई आईसुवुलं, समास बंधसामित्तं ॥१॥ अर्थ-बंध के कर्मनो बंध तेनुं विधान के० करवं, तेथी विमुकं के विशेषे मुकाणा एवा सिरिवछमाण के श्रीवर्डमान एवे नामे जिणचंदं के० सामान्य केवलीमाहे चंद्रमा सरखो, ते प्रत्ये वंदिश के० वांदीने गईआईसु के० गत्या दिक चौद मार्गणास्थानकने विषे समास के संदेपथी बंधसामित्तं के बंधस्वामित्वपणुं वुद्धं के० कहीशुं ॥ इत्यदरार्थः॥१॥ झानावरणीयादिक आठ कर्म, तेनुं विधान के करवू, तेणे करी विमुक्त एटसे रहित एटले बख्या बीजथी अंकूर न होय, तेम जे नावकर्मरहित थया एवा श्री के अष्ट महाप्रातिहार्यादिक बाह्यलक्ष्मी अने केवलज्ञानादिक अध्यंतर लदमी, तेणे करी वर्धमान एटले वधतो तथा तेणे सहित श्रीवर्डमान एवे नामे जिन के० केवलीमांडे चनमानी पेरें अधिक, ते प्रत्ये मन, वचन अने काया, ए त्रिकरणशुळे वांदी नमः स्कार करी ध्यायीने गति श्रादे देश्ने चौद मूल मार्गणा स्थानक, तेना बासठ उत्तर नेद, ते मार्गणाधारनेदें गुणगणे हुँ बोलीश, एम शिष्यने सावधान करवाने प्रतिज्ञा. करी संपें करी एटले पूर्वाचार्यकृत ग्रंथ सविस्तर बे, त्यां संदेपरुचि जीव, अनधिकारी ले तो तेने निमित्तें ए बंधप्रकृतिनुं स्वामित्वपणुं कयो जीव, कया गुणगणे केटली प्रकृतिनो बंधाधिकारी होय ? ते कहीशुं॥१॥ Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४श्न बंधस्वामित्वनामा तृतीय कर्मग्रंथ. ॥ हवे चौद मार्गणानां नाम कहेले. ॥ गइ इंदीए काए, जोए वेए कसाय नाणेय ॥ संजम दसण लेसा, नवसम्मे सन्नि आदारे ॥२॥ अर्थ-प्रथम गइ के गतिमार्गणा, बीजी इंदीए के इंजियमार्गणा, त्रीजी काए के० कायमार्गणा, चोथी जोए के० योगमार्गणा, पांचमी वेए के वेदमार्गणा, बही कसाए के० कषायमार्गणा, सातमी नाणेय के ज्ञानमार्गणा,आठमी संजम के चारित्रमार्गणा, नवमी दसण के दर्शनमार्गणा, दशमी लेसा के लेश्यामार्गणा, अगीयारमी नव के जव्यमार्गणा, बारमी सम्मे के सम्यक्त्वमार्गणा, तेरमीसन्नि के संझिमार्गणा, चौदमी थाहारे के अहारकमार्गणा ॥ इत्यक्षरार्थः॥२॥ __गति श्राश्री सर्व जीव विचारीयें तो देव, मनुष्य, नारकी अने तिर्यंच, एम चार नेदें जाणवा. इंजियापेक्षायें एकेंजिय, बेंजिय, तेंजिय, चौरिंजिय, अने पंचेजिय, एम पाँच नेदें जाणवा. कायापेक्षायें पृथिवी, अप, तेज, वायु, वनस्पति अने त्रस, एम नेदे जाणवा. योगापेक्षायें मनोयोग, वचनयोग अने काययोग, एम त्रण न्नेदें जाणवा. वेदापेक्षायें स्त्री, पुरुष ने नपुंसक, एम त्रण नेदे जाणवा. कषायापेक्षायें क्रोधी, मानी, मायी ने लोनी, एम चार न्नेदें सर्व जीव जाणवा. ज्ञानापेक्षायें मतिझानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्यवज्ञानी, केवलज्ञानी,मति अज्ञानी, श्रुत अज्ञानी ने विनंगझानी, ए बाठ ने जाणवा. चारित्रापेक्षायें सामायकचारित्र, दोपस्थापनीय, परिहारविशुद्धि, सूदमसंपराय, यथाख्यात, देशविरति श्रने अविरति, एम विरतिनी अपेदायें सात नेदें जाणवा. दर्शनापेक्षायें चकुदर्शनीय, अचकुदर्शनीय, अवधिदर्शनीय अने केवलदर्शनीय, एम चार नेदें जाणवा. लेश्यापेक्षायें कृष्ल, नील, कापोत, तेज, पद्म ने शुक्कलेश्यावंत, ए बनेदें जाणवा. जव्य एटले मुक्तिगमन योग्यायोग्यनी अपेक्षायें विविध जीव, जव्य अने अनव्य, ए बेनेदें जाणवा. सम्यकदृष्टिश्रमानगुणनी अपेक्षायें मिथ्यात्वी, सास्वादनीय, मिश्र, दायोपशमिक, औपशमिक, अने दायिक, एम ने जाणवा. मनोझाननी अपेक्षायें सन्निश्रा जीव, तेथी विपरीत ते असनिश्रा जीव, एम बे नेदें जीव जाणवा. श्राहारनी अपेक्षायें आहारक अने अनाहारक, एम बे नेदें सर्व जीव जाणवा. ए रीतें मार्गणाना मूल नेद चौद अने उत्तर नेद बाशठ जाणवा ॥२॥ जिण सुर विनवा दार, देवान अ निरय सुहुम विगल तिगं ॥ एगिदि थावरा यव, नपु मिहं हुंम ब्वळं ॥ ३ ॥ Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधस्वामित्वनामा तृतीय कर्मग्रंथ. ४२ अर्थ - जि के० जिननाम, सुर के० सुरद्विक, विजव के० वैक्रियद्विक, आहार to हारकद्विक, टु के० ए त्राद्विक, एवं सात प्रकृति य. देवाजा के० देवायु, निरय के० नरकत्रिक, सुदुम के० सूक्ष्मत्रिक, विगल के० विकल त्रिक, तिगं के० एत्रण त्रिक जाणवां. एगिंदि के० एकेंद्रियजाति, यावर के० स्थावरनाम - कर्म, वायव के० यातपनामकर्म, नपु के० नपुंसकवेद, मित्रं के० मिथ्यात्वमोहनीय, हुंक के हुंमसंस्थान, बेव के० बेवहुं संघयण ॥ इत्यरार्थः ॥ ३ ॥ हवे ग्रंथ गौरव टालवा जणी कर्मप्रकृति न्यूनाधिक करवा निमित्त जेम व्याकरणादिकमां वर्ण संख्या अल्पाक्षरें जाणवा निमित्त श्राद्यकरांत्याक्षर साथै कहेतां प्रत्याहार संज्ञा करी बे. तेम हींयां पण जे प्रकृति यगले संख्यापद होय, ते प्रकृतिथी तेटली प्रकृति लेवी, एवी संज्ञा करे बे. जेम जिननामथी आागली प्रकृति १ जिननाम, २ देवगति, ३ देवानुपूर्वी, ४ वैक्रियशरीर, ५ वैक्रियांगोपांग, ६ आहारकशरीर, याहारक अंगोपांग, देवायु, to नरकगति, १० नरकानुपूर्वी, ११ नरकायु. ए जिनैकादश कहीयें. ए एकेंद्रिय ने विकलें प्रियने नवप्रत्ययें न बंधाय सूक्ष्मयी लेइ तेर प्रकृति कहेवी, ते सूक्ष्मत्रयोदशक. १ सूक्ष्मनाम, २ अपर्याप्तनाम, ३ साधारणनाम, ४ बेंद्रियजाति, ५ तेंद्रियजाति, ६ चरिंद्रियजाति, 9 एकें - डियजाति, स्थावरनाम, ए श्रातपनाम, १० नपुंसक वेद, ११ मिथ्यात्वमोहनीय, १२ हुंकसंस्थान, १३ बेवहुं संघयण, ए सूक्ष्मत्रयोदशक; ए मिथ्यात्वप्रत्ययिक मिथ्यात्वें बंधाय तथा सुरद्विक, वैक्रियद्विक, याहारकद्विक, सुरायु, एवं सात. नरकत्रिक, सूक्ष्मत्रिक, विकलजातित्रिक, एवं शोल. एकेंद्रियजाति, स्थावरनाम, प्रातपनाम, एटंगणी प्रकृतिनुं नाम सुरएकोनविंशतिक कहीयें. १ नपुंसक, २ मिथ्यात्व, ३ हुंडसंस्थान, ४ बेबहुं संघयण, ए नपुंसकचतुष्क कहीयें. ए रीतें ज्यां ज्यां जेटली प्रकृतिनुं काम होय, त्यां त्यां ते ते प्रकृति धुर देश तेटली तेटली संख्या जोमीयें, ते संज्ञा होय. ए गाथामां चोवीश प्रकृति कही, ते मध्यें एक मिथ्यात्व, बीजी नपुंसकवेद, ए बे प्रकृति मोहनीयनी. अने देवायु, नरकायु, ए बे आयुनी. शेष वीश प्रकृति, नामकर्मनी बे ॥ ३ ॥ पण मजागिर सँघयण, कुखगइ नि इवि दग श्रीतिगं ॥ नको तिरिडुगं तिरि, नरान नर नरल डुग रिसदं ॥ ४ ॥ अर्थ- पूर्वोक्त चोवीश ने ए के अनंतानुबंधी कषाय चार, मजागिर के० मध्याकृति एटले मध्यसंस्थान चार, सँघयण के० मध्यसंघयण चार, एवं बत्रीश. कुख Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३० बंधस्वामित्वनाम तृतीय कर्मग्रंथ. ग के अशुजखगति, निश्र के नीच्चैर्गोत्र, इलि के स्त्रीवेद, एवं उंगणचालीश. उहग के दौ ग्यत्रिक, थीणतिगं के थीणनीत्रिक, एवं पीस्तालीश. उजोथ के उद्योतनाम. तिरिगं के० तिर्यंचहिक, तिरि के० तिर्यंचायु, नराउ के मनुष्यायु, नर के मनुष्यछिक, उरलयुग के औदारिकछिक, रिसहं के वज्रषजनाराचसंघयण. एवं पंचावन्न प्रकृति थ ॥ इत्यदरार्थः ॥ ४॥ अनंतानुबंधीनी चोकमी अने मध्य एटले पहेला श्रने देहला ए बे विना वचला आकृति कहेतां श्राकार विशेष एटले संस्थान चार, तेमज वचलां संघयण चार, एवं बार प्रकृति थ. कु एटले अशुन खगति, एटले हिंमवानी गति जेथकी अशुन होय, ते नामप्रकृति, नीचैर्गोत्र, स्त्रीवेदनोकषाय, मोहनीय, दौर्जाग्य, उःस्वर, अना. देय, ए दौ ग्यत्रिक. एवं अढार प्रकृति थ. श्रीणही, निसानिका ने प्रचलाप्रचला, ए थीणद्धीत्रिक; नद्योतनामकर्म, तिर्यंचगति, तिर्यंचानुपूर्वी, ए तिर्यंचहिक एवं चोवीश प्रकृति अनंतानुबंधीयाने उदयें बंधाय, ते नणी मिश्रादिक गुणगणे न बंधाय. ए अनंतानुबंधी चतुर्विशतिक कदेवाय. ते मध्ये तिर्यंचायु अने मनुष्यायु, ए बे प्रकृति सहित करतां अनंतानुबंध्यादिक षड्विंशतिक कहीयें. तथा मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी, एवं थहावीश. अने औदारिकशरीर, औदारिकअंगोपांग, ए औदारिकहिक, अने वजषजनाराचसंघयण, एम ए बीजी गाथामध्ये अनंतानुबंध्यादिक एकत्रीश प्रकृति कही. तथा पूर्वली गाथामां चोवीश प्रकृति कही, ए बेहु मली पंचा. वन्न प्रकृति कही, तेमां दर्शनावरणीयनी त्रण, मोहनीयनी सात, श्रायुनी चार, गोत्रनी एक, शेष नामकर्मनी चालीश प्रकृति कही, एम संज्ञासंग्रहगाथा बे कही॥ ४॥ ॥ हवे प्रथम गतिमार्गणामध्ये नरकगतिनेविषे बंधस्वामित्वपणुं विचारे ने ॥ सुरगुण वीस वज, इगस उदेण बंधहिं निरया ॥ तिबविणा मिचि सयं, सासणि नपु चनविणा ग्नु ॥५॥ श्रर्य-सुरश्गुणवीसव के सुरादिक जंगणीश प्रकृति, एकसो वीशमाहेथी वर्जीयें, तेवारें गस के० एकसो ने एक प्रकृति, उहेण के उचें एटले सामान्यपणे बंधहिंनिरया के० नरकगतिना जीव बांधे. अने तिबविणामिबिसयं के तीर्थकरनामकर्म विना तेह मिथ्यात्व गुणगणे सो प्रकृति बांधे अने सासणि के सास्वादनगुणगणे नपुचजविणा के नपुंसकादिक चतुष्क विना बनु के० बन्न प्रकृति बांधे ॥ ३० ॥५॥ १ सुरहिकादिक उंगणीश प्रकृतिमध्ये सुरहिक, वैक्रियहिक, देवायु, नरकगति, नरकानुपूर्वी, नरकायु, ए आठ प्रकृतिनो बंध, नारकीने न होय, जेमाटे ए श्राप Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधस्वामित्वनामा तृतीय कर्मग्रंथ. ४३१ प्रकृति देवता अने नारकी प्रायोग्यत्वे के अने नारकी तो मरीने फरी देवगति तथा नरकगतिमांहे उपजे नहीं, तेथी ए आठ प्रकृति न बांधे. तथा सूक्ष्मनाम, अपर्याप्तनाम अने साधारणनाम, ए त्रण प्रकृति पण न बांधे. केमके सूक्ष्म एकेंजियमध्ये तथा थपर्याप्तातिर्यच अने मनुष्यमध्ये तथा साधारण वनस्पतिमध्ये पण नारकी अवतरे नहीं. एवं अगीआर प्रकृति थ. तथा एकेजियजाति, स्थावरनाम, आतपनाम, ए त्रण प्रकृति एकेंपिय प्रायोग्य , तथा विकलजातित्रिक. ते विकलेंजिय प्रायोग्य जे. ते पण नारकीने एकेंजिय तथा विकलेंजियमांहे अवतर नथी, तेमाटे एन प्रकृति पण नारकी न बांधे तथा थाहारकछिक पण चारित्रने अनावें न बांधे. ए रीतें नरकगतिना जीव, नवप्रत्ययें ए जंगणीश प्रकृति न बांधे, तेमाटे ए जंगणीश वर्जीने शेष ज्ञानावरणीय पांच, दर्शनावरणीय नव, वेदनीय बे, मोहनीय बवीश, श्रायुनी बे, नामनी पचाश, गोत्रनी बे, अंतरायनी पांच, ए रीतें एकसो ने एक प्रकृतिनो बंध, उघे के सामान्य होय. एटले अमुक नरकगतिमां तथा अमुक गुणगणे इत्यादिक विशेषपणुं कस्याविना बांधे. नारे नरकगतिमा कर्मप्रकृतिनो बंध होय, ते कह्यो. हवे गुणगणादिक विशेषापेक्षायें नरकगतिमांहे बंधस्वामित्व कहे. ते एकसो ने एक प्रकृतिमध्ये पण तीर्थंकरनामकर्म, मिथ्यात्वगुणगणे न बांधे. जेमाटे तीर्थंकरनामकर्म, सम्यक्त्व विना न बंधाय. अने मिथ्यात्व गुणगणे सम्यक्त्व नथी तेमाटे जिननाम पण न बांधे. शेष एकसो प्रकृतिज बांधे. ___ त्यां नपुंसकादिक चार प्रकृतिनो विछेद होय जे जणी नरकत्रिक, जातिचतुष्क, थावरचतुष्क, हुंमसंस्थान, श्रातपनाम, बेवडंसंघयण, नपुंसकवेद, मिथ्यात्वमोहनीय, ए शोल प्रकृति मिथ्यात्वप्रत्ययिकी बे ते मांहे नरकत्रिक, सूक्ष्म त्रिक, विकलत्रिक, एकेंजियजाति, स्थावरनाम, पातपनाम, ए बार प्रकृतिनो तो नारकीने नवप्रत्ययें श्रबंध , तेथी ते अहीं लोधी नथी. शेष नपुंसकवेद, मिथ्यात्वमोहनीय, हुंमसंस्थान अने बेवहं संघयण. ए चार प्रकृति मिथ्यात्वथी बंधाय अने सास्वादनगुण. गणे मिथ्यात्व नथी, पण अविरति बे तेथी पूर्वोक्त सो प्रकृतिमाहेथी ए चार प्रकृति टालीये, ते वारें बन्नु प्रकृतिनो बंध नरकगीतमाहे सास्वादनगुणगणे होय ॥५॥ ___ त्यां सास्वादनगुणगणे मिथ्यात्व अविरति प्रत्ययिकी पच्चीश प्रकृतिनो बंधविछेद थाय ते पागले गुणगणे न बंधाय, ते कहेले. विणु अण वीस मीसे, बिसयरि सम्मंमि जिण नरान जुआ ॥ श्य रयणाइसु नंगो, पंकाइसु तिवयर हीणो ॥ ६॥ Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३२ बंधस्वामित्वनामा तृतीय कर्मग्रंथ. अर्थ-विणुश्रणवीस के अनंतानुबंध्यादिक बबीश प्रकृति विना, मीसे के मिश्रगुणगणे शेष सीत्तेर प्रकृति बांधे, ते जिण के जिननाम अने नराउ के मनुष्यायुयें करी, जुश्रा के युक्त करतां बिसयरि के बहोतेर प्रकृति सम्मंमि के अविरतिसम्यक् ष्टिगुणगणे बांधे. अरयणासुजंगो के एम रत्नप्रनादिक त्रण नरकें उग्रंथी चार गुणगणा सुधी एहिज नांगो जाणवो, अने पंकाश्सु के पंकप्रनादिक त्रण नरकपृथवीयें तिबयरहीणो के तीर्थकरनामकर्मनो बंध न लाने, तेश्री ते प्रकृति हीन करीयें ॥ इत्यदरार्थः॥६॥ अनंतानुबंधिया कषाय चार, मध्यसंस्थान चार,मध्यसंघयण चार, कुखगति, निच्चैगर्गोत्र, स्त्रीवेद, दो ग्य, पुःस्वर, अनादेय, थीणीत्रिक, उद्योतनाम, तिर्यचत्रिक, ए पच्चीश प्रकृति अनंतानुबंधीयाने उदयें बंधाय, ते अनंतानुबंधीया मिश्रगुणगणे नथी ते माटे ए पच्चीशना बंधनो अंत, बीजे गुणगणे होय.अने मिश्रगुणगणे वर्त्ततो जीव को श्रायुबंध न करे तेथी अहीं मनुष्यायुनो बंध पण न थाय, ए रीतें बन्न प्रकृतिमाहेथी ए वीश प्रकृति विना मिश्रगुणगणे सीत्तेर प्रकृतिनो बंध नारकीने जाणवो. तथा नारकी अविरतिसम्यकदृष्टि चोथे गुणगणे वर्त्ततो को एक सम्यक्त्व गुणे करी जिननामकर्म पण अहींां बांधे तथा सम्यक्दृष्टि नारकी, कोइएक मनुष्यायु पण बांधे. तेथी ते सीत्तेर प्रकृतिमाहे ए बे प्रकृति नेलीये, तेवारें बहोंतेर प्रकृति चोथे गुणगणे बांधे, एम नारकीने प्रथमना गुणगणां चार होय, जे नणी देवता तथा नारकीने नवप्रत्ययें विरतिपणुं न होय तेथी ए आगला दश गुणगणे न होय. एम नरकगतिने विषे उघे तथा गुणस्थानकविशेषे प्रतिबंधस्वामित्व विनाग कही, हवे रत्नप्रनादिक पृथिवीनेदें करी निन्न नारकी विशेषने उचें तथा मिथ्यात्वादिक गुणस्थानकविशेष प्रकृतिबंधस्वामित्व विनाग कडेले. ___ ए रीतें एटले नरकगतिमध्ये उचे एटले सामान्यपणे तथा मिथ्यात्वादिक गुणस्था. नविशेषे जेह पूर्वे बंधस्वामित्व कयुं, तेहज घम्मानामे रत्नप्रनागोत्रं प्रथम नरकपृथ्वी, बीजी वंशानामें शर्करप्रनागोत्रं, त्रीजी शैलानामें वालुकप्रनागोयें, ए त्रण नरक पृथ्वीना नारकीने उघे एकसो ने वीश प्रकृतिमाहेथी सुर एकोनविंशतिक विना शेष एकसो ने एक प्रकृतिनो बंध होय. तेमांथी जिननामहीन सो प्रकृतिनो बंध मिथ्यात्वगुणगणे होय ते वली नपुंसकादिक चतुष्कविना अन्नु प्रकृतिनो बंध, सास्वादनगुणगणे होय. ते मध्ये अनंतानुबंध्यादिक बबीश प्रकृति हीन करीयें, तेवारें सीत्तेर प्रकृतिनो बंध मिश्रगुणगणे होय. ते सीत्तेरने जिननाम, मनुष्यायु सहित करतां बहोंतेर प्रकृतिनो बंध चोथे गुणगणे पहेली, बीजी तथा त्रीजी, नरकना नारकी बांधे. Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधस्वामित्वनामा तृतीय कर्मग्रंथ. ४३३ तथा अंजनानामें पंकप्रजागोत्रे चोथी नरकपृथिवी, रिष्टानामें धूमप्रजागोत्रे पांचमी नरकपृथिवी, मघानामें तमप्रनागोत्रं बही नरकपृथिवी, एत्रण नरकना नारकीने तीर्थकरनामकर्मनो बंध न होय. जेमाटे ए त्रण नरकपृथिवीथी श्राव्यो जीव, तीर्थंकरपदवी न पामे. केमके शास्त्रमा कडं वे के प्रश्रम नरकनो श्राव्यो चक्रवर्ति थाय. बीजीनो आव्यो वासुदेव थाय, त्रीजी सुधीनो आव्यो तीर्थंकर थाय, चोथी सुधीनो श्राव्यो केवली थाय, पांचमी सुधीनो श्राव्यो यति थाय, बही सुधीनो आव्यो देशविरति थाय, सातमी सुधीनो श्राव्यो मत्सादिक सम्यक्त्व पामे, पण देशविरतिपणुं न पामे, तेमाटें पंकप्रनादिकथी श्राव्यो तीर्थकर न होय, तेजणी सामान्य ए नरकगतिना जीवनो बंध जिननामकर्मथी हीन कीजें, तेथी पंकप्रनादित्रण नरकें एकोतेर प्रकृत्तिनो बंध, सम्यक्त्वगुणगणे लाने ॥ ६॥ ॥ए ब पृथिवीनुं बंधवामित्वपणुं विचारी, हवे सात मीनुं बंधस्वामित्वपणुं विचारे .॥ अ जिण मणु आज उदे, सत्तमिणए नरगुच्च विणु मि ॥ ग नवई सासाणे, तिरिआउ नपुंस चनवऊं ॥ ७॥ अर्थ-अजिणमणुबाउ के० जिननाम तथा मनुष्यायु ए बे प्रकृतियें हीन उहे के जंघे नवाणुं प्रकृति सत्तमिए के सातमी नरकें बंधाय. अने नरगुच्चविणु के मनुष्यहिक अने उच्चैर्गोत्र, एत्रण प्रकृति विनामी के मिथ्यात्वगुणगणे बन्नु प्रकृति बंधाय. अने तिरिआउ के० तिर्यंचायु तथा नपुंसचनवऊ के नपुंसकादिक चार प्रकृति वर्जीने गनवईसासाणे के एकाएं प्रकृति सास्वादनगुणगणे बंधाय॥श्त्यदरार्थः ॥७॥ जिननामकर्म तथा मनुष्यायु ए बे प्रकृति तथा विध विशुमताने अनावें माघवतीनामें तमतमप्रनागोत्रे जे सातमी नरकपृथिवी, तेना नारकीने न बंधाय, तेषी सामान्यनारकौघ एकसो एक प्रकृतिरूप बंधमांहेश्री ए वे प्रकृति हीन करीयें. जे जणी सातमीनो श्राव्यो को मनुष्य, न थाय. तेवारे तीर्थंकर पण न थाय, तेथी तत्प्रायोग्य मनुष्यना नवने योग्य ए बे प्रकृति पण न बंधाय. शेष नवाणुं प्रकृति उधे बंधाय, अने जेवारे ते नरकने विषे गुणस्थानकविशेषे बंध विचारीयें, तेवारें सातमी नरकना मिथ्यात्वी, नारकी, एक मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी, उच्चैर्गोत्र, एत्रण प्रकृति न बांधे. जे जणी सातमी नरकना नारकीने उत्कृष्ट पुण्यप्रकृति एहिजडे ते तो उत्कृष्ट विशुझाध्यवसायें बंधाय अने उत्कृष्ट विशुशाध्यवसायस्थानक तो तेने चोथुगुणगणुंडे, तेथी ए त्रण प्रकृति तिहां बांधे पण मिथ्यात्वगुणगणे न बंधाय.तेथी नवा. ए॒मांदेथी ए त्रण प्रकृति हीन करीयें,तेवारें शेष अg प्रकृति मिथ्यात्वगुणगणे बंधाय. Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३४ बंधस्वामित्वनामा तृतीय कर्मग्रंथ. ते बन्नु प्रकृतिमाहेली ज्ञानावरणीय पांच, दर्शनावरणीय नव, वेदनीय बे, मोहनीय चोवीश, नामनी पीस्तालीश, गोत्रनी एक, अने अंतरायनी पांच, ए एकाएं प्रकृति, सास्वादनगुणगाणे सातमी पृथिवीना नारकी बांधे. शेष पांच प्रकृति न बांधे. केमके, ए गुणठाणे रह्या थका मिथ्यात्वोदय विना श्रायु न बांधे, माटे तिर्यगायुनो बंध सास्वादने न होय तथा नपुंसकवेद, मिथ्यात्वमोहनीय, हुंडसंस्थान श्रने बेवहुं संघयण, ए चार प्रकृति मिथ्यात्वोदयी बे. ते नणी ते श्हां न बांधे तेथी ए पांच प्रकृति, बन्नमांदेथी काढीयें, तेवारें शेष एकाएं प्रकृति बांधे ॥७॥ - नरकगतौ बंधस्वामित्वयंत्रकं तथा रत्नप्रना, शर्करप्रना, वालुकप्रना, नारकेष्वपि पंकप्रना, धूमप्रजा, तमःप्रना, नारकाणां उघे तथा चतुर्थ गुणस्थानके जिनहीनयंत्रकम् ॥ | नरकगतौघरत्नप्रनादिकत्रय पंकप्रलादित्रयजिनहीन. आयुप्रकृतयः | बंधप्रकृतयः 626 | अबंधप्रकृतयः . . |बंधविच्छेदप्रकृतयः नामप्रकृतयः मूलप्रकृतयः ज्ञानावरणीय. mm | दर्शनावरणीय. | वेदनीयप्रकृतयः मोहनीय प्रकृतयः - | अविरतें. मिथें. सास्वादने. मिथ्यावे. ___उधे गोत्रप्रकृतयः - | अंतरायप्रकृतयः ~~ ---- n JSO एए२ २६ 950 33 २०२५ 9s तमतमायां. o | बंधप्रकृतयः अबंधप्रकृतयः | बंधविच्छेदप्रकृतयः झानावरणीय. १ वेदनीय. ३ | | दर्शनावरणीय. | मोहनीय. ४ आयुकर्म. ५ | नामकर्म. ६ अंतराय. ७ | ---| गोत्रकर्म. ७ ० | 6 ० --- | ५६२१०३२ अविरतें. मिळे. सास्वादने. _मिथ्यात्वे. । पं. |ए? ए २४ ए ए २४ ०४५१५ ए | १ ए६ २४ ५ १ ५ २ २६ १ | २६ , ५ ५ ए २ Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधस्वामित्वनामा तृतीय कर्मग्रंथ. ४३५ अण चन वीस विरहिआ, सनर गुच्चाय सयरि मीसगे॥ सतरस उहि मिजे, पज तिरिया विणु जिणादारं ॥ ७ ॥ अर्थ- अणचवीस के अनंतानुबंध्यादिकथी तिरिग लगें चोवीश प्रकृति. विरहिया के विरहित करीयें, अने नरफुगुच्चाय के मनुष्यहिक तथा उच्चैर्गोत्र, ए त्रण प्रकृतियें स के सहित करीयें, तेवारें सयरि के सीत्तेर प्रकृतिनो बंध, मीसफुगे के मिश्र अने अविरति, ए बे गुणगणे होय अने पजतिरिया के पर्याप्ता पंचेंजियतिथंच ने विणुजिणाहारं के तीर्थकरनामकर्म अने आहारकछिक विना सतरसहिमिन्छे के० एकशो सत्तर प्रकृतिनो बंध उचे सामान्य मिथ्यात्वगुणगणे होय ॥ इत्यदरार्थः ॥ ७ ॥ अनंतानुबंधीया कषाय चार, मध्यसंस्थान चार, मध्यसंघयण चार, कुखगति, नीचैर्गोत्र, स्त्रीवेद, दो ग्यत्रिक, श्रीणीत्रिक, उद्योतनाम, तिर्यंचगति, तिर्यगानुपूर्वी, ए चोवीश प्रकृति अनंतानुबंधीना उदय विना न बंधाय, तेथी ते कषायोदय हीन . माटे मिश्र श्रने अविरतिगुणगणे पूर्वोक्त एकाए॒मांहेश्री चोवीश हीन करीयें, तेवारें शेष शमशठ प्रकृति रहे, तेमांहे मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी, अने जच्चैर्गोत्र, ए त्रण प्रकृति एउने अतिविशुरू अध्यवसायें बंधाय, जे जणी ए थकी अ. धिक पुण्यप्रकृतिबंध सातमी पृथिवीना नारकीने नथी, तेथी अहींयां विशुझाध्यवसायें ए त्रण प्रकृति बंधाय, तेणे सहित करतां ज्ञानावरणीय पांच, दर्शनावरणीय ब, वेदनीय बे, मोहनीय उंगणीश, नामनी बत्रीश, गोत्रनी एक अने अंतरायनी पांच, एम सीत्तर प्रकृतिनो बंध त्रीजे, चोथे, गुणगणे जाणवो. एम नरकगतिमध्ये उपें एटले सामान्य तथा विशेषे बंधखामित्व कही, हवे तिर्यंचने उपें तथा विशेषे बंधस्वामित्व कहे. २ एकसो वीश प्रकृतिमाहेथी त्रण प्रकृतिनो वंध, तिर्यंचगतिमध्ये न लाने, तेथी तिर्यंच विशेष पर्याप्ता लब्धियें करीने पंचेंजिय तिर्यंचने उ तथा मिथ्यात्वगुणस्थानकविशेषे एकसो ने सत्तर प्रकृतिनो बंध होय, अने नामकर्मनीत्रण प्रकृति न बंधाय, जे जणी तिर्यंचने जवप्रत्ययें तीर्थकरनामकर्म सत्तायें पण न होय,तो बंधे केम होय ? तथा थाहारकशरीर, श्राहारकअंगोपांग, ए बे कर्मप्रकृति विशिष्टचारित्र विना न बंधाय, अने तिर्यंचने तो सर्व विरति न होय, तेथी ए त्रण नामकर्मनी प्रकृति लब्धिपर्याप्ता तिर्यंच न बांधे, शेष एकसो ने सत्तर बांधे. ॥ ७ ॥ Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३६ __बंधस्वामित्वनामा तृतीय कर्मग्रंथ, ॥ ते हवे मिथ्यात्वं शोल प्रकृतिनो बंधविछेद करे, ते कहे .॥ विणु निरय सोल सासणि, सुराज अण एग तीस विणु मी से ॥ ससुराज सयरि सम्मे, बीअ कसाए विणा देसे ॥ ए॥ अर्थ- विणुनिरयसोल के नरकत्रिकादिक शोल प्रकृति विना सासणि के सास्वादनगुणगणे एकसो ने एक प्रकृति बांधे, सुरान के देवायु अने अणएगतीस के० अनंतानुबंध्यादिक एकत्रीश प्रकृति, एवं बत्रीश प्रकृति. विणु के विना मीसे के० मिश्रगुणगणे उंगणोतेर प्रकृति बांधे, तेने ससुराज के देवायुयें सहित करतां सयरि के सीत्तेर प्रकृति सम्मे के0 अविरतिसम्यकुदृष्टिगुणगाणे बांधे. तथा बीअकसाए विणा के बीजा अप्रत्याख्यानावरण चार कषाय विना देसे के देशविर तिगुणगणे गसठ प्रकृति बांधे. ॥ए॥ तेवारे सास्वादनगुणगणे नरकत्रिक, चार जाति, थावरचतुष्क, हुंमसंस्थान, बे. वहुं संघयण, शातपनाम, ए चौद प्रकृतिमांहे तेर नामकर्मनी अने एक नरकायुनी तथा मिथ्यात्व भने नपुंसक, ए बे मोहनीयनी. एवं शोल प्रकृतिनो बंध मिथ्यात्वने उदयें करी होय, ते मिथ्यात्वनो उदय अहीं नथी ते माटे ए शोल प्रकृति विना शेष एकसो ने एक प्रकृति लब्धिपर्याप्ता पंचेंजिय, तिर्यंच बीजे सास्वादनगुणगणे बांधे. ते एकसो ने एक प्रकृतिमाहेश्री सुरायु अने अनंतानुबंध्यादिक एकत्रीश. एवं बत्रीश प्रकृति विना शेष ज्ञानावरणीय पांच, दर्शनावरणीय ब, वेदनीय बे, मोहनीय जंगणीश, नामनी एकत्रीश, गोत्रनी एक, अंतरायनी पांच, एवं उंगणोतेर प्रकृति मिश्रगुणगणे लब्धिपर्याप्ता पंचेंजिय तिर्यंच बांधे. केमके त्यां मिश्रगुणगणे श्रायुबंध न होय, ते माटे सुरायुनो अबंध कह्यो भने अनंतानुबंधीश्रा चार, मध्यसंस्थान चार, मध्यमसंघयण चार, कुखगति, नीच्चैर्गोत्र, स्त्रीवेद, दौर्जाग्यत्रिक, थीणकीत्रिक, उद्योतनाम, तिर्यंचत्रिक, ए पच्चीश प्रकृति अनंतानुबंधीयानो उदय अ. ही नथी, ते माटे न बंधाय. अने नरकत्रिक, औदारिकहिक अने प्रथम संघयण. एवं उ प्रकृति मनुष्यप्रायोग्य देवता अने नारकी जेहवी विशुद्धियें बांधे, तेवी विशुछिये तिर्यंच अने मनुष्यने देवप्रायोग्य बंधाय तेथी एक प्रकृति न बंधाय. हवे ए उंगणोतेर प्रकृतिमाहे वली चोथे गुणगणे थायु बंधाय तेथी सुरायु बंध नेलतां सीत्तेर प्रकृतिनो बंध, अविर तिसम्यक्दृष्टिगुणगणे लब्धिपर्याप्ता पंचेंजिय तिर्यंच बांधे. ___ ए सीत्तेर प्रकृतिमाहे मोहनीयनी प्रकृति जे अप्रत्याख्यानावरणकषाय चार. तेनो बंध विछेद होय, जेमाटे ए कषाय तो पोतानो उदय ज्यांसुधी बतो होय त्यांसुधी बंधाय अने अ.. Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधस्वामित्वनामा तृतीय कर्मग्रंथ. ४३० प्रत्याख्यानावरणकषायनो उदय, देशविरतिगुणगणे रसस्थान अप्रत्याख्यानीश्रा चार कषायनां दल, प्रत्याख्यानीश्रा कषाय चार, लेश जीत्या माटे तेथी त्यां न बंधाय, तेथी सीत्तरमाहेथी चार काढतां शेष बाशठ प्रकति देशविरति पांचमे गुणगणे लब्धि पर्याप्ता पंचेंजिय गर्जज तिर्यंच बांधे. श्रागलां गुणगणां जवप्रत्यये तिर्यंचने न होय, तेथी तेनुं बंधवामित्व न कह्यु.॥ ए॥ ॥ गर्मजसं झिपर्याप्ता पंचेंजिय तिर्यंचगति बंधयंत्रकम् ॥ तिर्यचगतौ बंध स्वामित्व. मूलप्रकृतयः बंधप्रकृतयः अबंधप्रकृतयः विश्वेदप्रकृतयः ज्ञानावरणीय. १ revere| दर्शनायरणीय.२ auranवेदनीय. ३ ema मोहनीय. |aucc) श्रायुकर्म. ५ Saनामकर्म ६ on गोत्रकर्म. ७ -- अंतरायप्रकृतयः اسم JSO ISO ISO ३१ ए नघे. मिथ्यात्वे. सास्वादने. १०१ मि. ६ए ५१ ० अविरतें. ७० २०४५६२ १० १३१ १५gso देशविरतें. ६६ । ५५० | ५ ६२/१५ १३१ १।५ | s | ॥ एम तिर्यंचमध्ये सामान्य तथा विशेषे बंधखामित्व का, हवे मनुष्यमध्ये कहेले. ॥ इअ चनगुणेसु वि नरा, परमजया सजिण उहु देसा॥ जिण इकारस दीणं, नव सय अपजत्त तिरिअ नरा ॥ १० ॥ अर्थ-श्यचनगुणेसुवि के० एमज चार गुणगणाने विषे तिर्यंचनी पेरें नरा के मनुष्यने पण एमज कहे. परमजयास जिण के० पण एटटुं विशेष जे अविरतिसम्यक्त्व गुणगणे जिननाम सहित एकोतेर प्रकृति बांधे. उहुदेसाई के देशविरति प्रमुख गुणगणे उघ एटले कर्मस्तवोक्तनी परें कहे अने जिपकारसहीणं के जिनएकादशके हीन एटले जिनादिकथी नरकत्रिक लगें अगीयार प्रकृति हीन कीधे, नवसय के एकसो ने नव प्रकृतिनो बंध, अपजत्ततिरिक्षनरा के० अपर्याप्ता पंचेंजिय तिर्यंच तथा मनुष्य बांधे. ३ एम पर्याता गज तिर्यचनी पेरें गर्नज मनुष्यने पण मिथ्यात्वादिक प्रथमनां चार गुणगणाने विषे प्रकृतिनो बंध जाणवो. तेथी उचें मनुष्यने एकसो वीस प्रकृतिनो बंध कहेवो, जे माटे श्राहारकहिक बंधहेतुविशिष्टचारित्र बे ते तथा जिनना Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३७ बंधस्वामित्वनामा तृतीय कर्मग्रंथ. म बंधहेतु एने संजवे, तेथी उ ए त्रण प्रकृति सहित गजमनुष्यने उ एकसो ने वीश प्रकृतिनो बंध जाणवो, तेमध्ये जिननाम अने श्राहारकटिक, ए त्रण प्रकृ. ति मिथ्यात्वं न बांधे, तेथी प्रथमगुणगणे एकसो ने सत्तरनो बंध जाणवो, तेमध्ये नरकादिक शोल प्रकृति हीन करतां साखादने ( १०१) नो बंध, तेमांथी सुरायु तथा अनंतानुबंध्यादिक एकत्रीश, एवं बत्रीश हीन करतां शेष (६५) नो मिश्रगुणगणे बंध, तेमध्ये सुरायु तथा जिननाम ए बे प्रकृति, चोथे गुणगणे मनुष्य बांधे, तेवारें उंगणोतेर मांही बे मेलवतां (१) प्रकृतिनो चोथे गुणगणे बंध. एटसे बीजा कर्मग्रंथमां चोथे गुणगणे सत्त्योतेर प्रकृतिनो बंध कह्यो , तेमांथी प्रकृति हीन करीयें तेनां नाम कहेजे. मनुष्य त्रिक, औदारिक शरीर, बहुं संस्थान, अने हुं सं. घयण, ए बटालीये, तेवारें एकोतेर प्रकृति रहे ते, अहींयां चोथे गुणगणे मनुष्यने बंध कडेवी. तेमांथी बीजा कषायनी चोकमीनो बंध टाले, तेवारें पांचमे (६७) नो बंध. तेथी उचे त्रीजे, चोथे अने पांचमे ए त्रण गुणगणे श्रागला तिर्यंचना नवनो बंध जिननाम सहित करीयें, एटलुं विशेष बे. अने प्रमत्तादिकगुणगणे कर्मस्तवोक्त बंध बे, जे जणी मनुष्य विना बीजाने ए गुणगणां न संजवे, तेथी तेनो बंधवामी मनुष्य के एटले प्रमत्ते त्रीजा कषायनी चोकडी हीन करतां (६३) नो बंध. तेमांथी शोक, अरति, अस्थिरहिक, अयश अने अशाता, ए 3 प्रकृति हीन करतां अने आहारहिक न्नेलतां अप्रमत्तें जंगणशाउनो बंध. तेमांथी सुरायु हीन करतां श्रापमाना प्रथमत्नागें (५७) नो बंध. तेमांथी निमाछिक दीन करतां आठमाना बीजाथी मांडीने बहा सुधीना पांच जागे (५६) नो बंध. सातमे जागेत्रसनवक, तथा औदारिकछिक विना शेष अंगोपांगबक, एवं पंदर. तथा देवछिक, श्रगुरुलघुचतुष्क. वर्णचतुष्क, पंचेंजिय, शुजविहायोगति, प्रथमसंस्थान, निर्माण, जिननाम, एवं त्रीश प्रकृति हीन करतां (२६) नो बंध. तेमांथी हास्यचतुष्क हीन करतां नवमा गुणगणाना प्रथमन्नागें (२२) नो बंध. पुरुषवे. दहीन करतां बीजे नागें (१) नो बंध. संज्वलनक्रोध हीन करतां त्रीजे जागें (२०)नो बंध. संज्वलनमान हीन करतां चोथे नागें (१ए) नो बंध. संज्वलनमाया हीन करतां पांचमे जागे (१७) नो बंध. संज्वलनो लोज हीन करतां दशमे गुणगणे (१७)नो बंध.तेमांथी ज्ञानावरणीय पांच,दर्शनावरणीय चार, नामनी एक,गोत्रनी एक श्रने अंतरायनी पांच, ए शोल प्रकृति हीन करतां श्रगीधारमा प्रमुख त्रण गुणगणे एक शातानो बंध जाणवो. अने अयोगी अबंधक जे.एम उचे कर्मस्तवोक्त वंधप्रमत्तादिकगुणगणे मनुष्यने लेवो. जे जणी ए नव गुणगणां मनुष्य विना बीजाने न होय. Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधस्वामित्वनामा तृतीय कर्मग्रंथ. ४३ए जिनादिक अगीआर प्रकृति एटले जिननाम, देवधिक, वैक्रियधिक, श्राहारक हिक, देवायु अने नरकत्रिक,ए श्रगीश्रार प्रकृति एकसो ने वीशमांथी हीन करीयें, तेवारें शेष एकसो ने नव प्रकृतिनो बंध, उपें तथा मिथ्यात्वगुणगणे लब्धि अपर्याप्ता मनुष्य तथा तिर्यंचने होय. एने बीजां तेर गुणगाणां न संजवे. ए मिथ्यात्वीज होय, ते जणी जिननाम तथा आहारकदिक न बांधे. तथा ते मरीने देवगतिमां पण न जाय, तेथी देवत्रिक तथा वैक्रियहिक न बांधे, तथा नरकगतिमाहे पण न उपजे माटे नरकत्रिक पण न बांधे, तेथी ए अगीश्रार प्रकृति हीन कीजें, तेवारें एकसो ने नव प्रकृतिनो बंध, उचे तथा मिथ्यात्वे होय, ए लब्धि अपर्याप्ता लेवा थने करण अपर्याप्तातिर्यंच तथा मनुष्यने अपर्याप्तावस्थायें पण देवछिकादिकनो बंध थातो कह्यो तेथी ते न कह्या, करणपर्याप्ता देव तथा मनुष्य तथा तीर्थकरनाम कर्म बांधे, ते लब्धिपर्याप्तो चोथे गुणगणे जाणवो. ॥ १० ॥ ॥ मनुष्य मार्गणा यंत्रकम् ॥ आयुःकर्म. नामकर्म. गोत्रकर्म. ====| अंतरायकर्म. Mall मूखप्रकृति. २६ ४ २६४ २४ ३ बंधप्रकृति. वेदनीय. ao विशेदप्रकृति. मोहनीय. Esan • | अबंधप्रकृति. ~ Grace a •======ज्ञानावरणीय. • cccccene on an aman amre vera| दर्शनावरणीय. Pelae६६/- مع مع مع مع م م ६७ । २ ६४ ५१ । ५ ३१ ३२ ३२ | ५ ७० V 950 उ. १२० | मिथ्यात्वे. सास्वादने. मिश्रं. ६ए अविरतें. देशविरतें. प्रमत्तसंयतें. अप्रमत्तसंयतें. निवृत्ते. अनिवृत्ते लागे. अनिवृत्ते नागें. सूक्ष्मसंपरायें. १७ १०३ १६ ५४ उपशांतमोहें. १ ११ए वीणमोहें. सयोगीकेवलीये. अयोगीकेवलीयें. । gSG ३१ م مه مه مه مهمه |amasxe १ DD DD Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४० बंधस्वामित्वनामा तृतीय कर्मग्रंथ. एम मनुष्य तथा तिर्यंचगतियें, उचें तथा गुणस्थानादिकविशेषे बंधस्वामित्व कही, ॥ हवे देवगतिने विषे उ तथा विशेषे बंधस्वामित्व कहे.॥ निरयव सुरा नवरं, उहे मि इगिदि तिग सहि ॥ कप्पउगे विअ एवं, जीणहीणो जोइ लवण वणे ॥ ११ ॥ अर्थ- निरयवसुरा के नरकगतिना बंधनी पेरें देवतानो पण बंध जाणवो. परंतु नवरं के एटलुं विशेष जे उहे के0 उचे एकसो चार प्रकृति अने मिले के मिथ्यात्वगुणगणे एकसो ने त्रण प्रकृति ते गिदितिगसहिया के० एकेंजियादिक त्रण प्रकृति सहित बांधे, एटले एकेंजियादिक त्रण प्रकृति नारकीथी अधिक बांधे. कप्पपुगेविथएवं के बे देवलोकें पण सुरघनी पेरें ये एकसो चार, मिथ्यात्वे एकसो त्रण, सास्वादने बन्नु, मिों सीत्तेर, अविरतियें बहोंतेर, अने जिणहीणो के० जिननाम विना शेष एकसो त्रण प्रकृति ऊंचे जोश के ज्योतिषी तथा नवण के० जुवनपतिने अने वणे के व्यंतर एत्रणेने घे एकसो त्रण, मिथ्यात्वें एकसो त्रण, सास्वादने बन्नु, मिों सीत्तेर, अने अविरतिये एकोतेरनो बंध जाणवो. ॥ इत्यदरार्थः ॥ ११॥ ४ जेम नरकगतिमध्ये बंधस्वामित्व कह्यु, तेमज देवगतिमध्ये पण जाणवू. केमके जेम नारकीने नरकगति तथा देवगतिमाहे उपज नथी, तेम देवताने पण चवीने ए बे गतिमाहे उपजवू नथी. तेथी तत्प्रायोग्य देवत्रिक, नरकत्रिक, वैक्रियहिक, ए आठ प्रकृति न बंधाय, अने विरति न होय, तेथी थाहारकहिक न बंधाय, सूक्ष्म एकेद्धियमध्ये तथा विकलेंजियमध्ये पण देवता न उपजे, तेथी सूदमत्रिक अने विकलत्रिक, ए प्रकृति पण न बंधाय. एम विंशोत्तरशत प्रकृतिमाहेथी ए शोल प्रकृति टले, तेवारें एकसो ने चार प्रकृति उधे बंधाय, तेमाथी मिथ्यात्व गुणगणे जिननाम न बंधाय. तेथी ते हीन करीयें, तेवारें एकसो त्रण प्रकृतिनो बंध मिथ्यात्वें होय, तेणे नारकीने शुं विशेष? जे नारकी एकेडियमध्ये न जाय अने देवता सूदम एकेदि. यमाहे न जाय पण बादर एकेंजिय मांहे जाय तेथी बादर एकेंजिय प्रायोग्य एकेंजियजाति, स्थावरनाम, श्रातपनाम, ए त्रण प्रकृति नारकीथी देवता अधिकी बांधे, तेथी उचे एकसो चार अने मिथ्यात्वे एकसो त्रण बंधाय. त्यां मिथ्यात्वप्रत्ययिकी एकेंजियजाति, थावर, आतप, नपुंसकवेद,मिथ्यात्वमोहनीय, हुंडसंस्थान, बेवळं संघयण, ए सात प्रकृतिनो बंधविछेद होय तेवारें, सास्वादनगुणगणे शेष बन्न प्रकृतिनो बंध होय, ते मांहेथी अनंतानुबंध्यादिक प्रत्ययिकी अनंतानुबंध्यादिक ब्वीश प्रकृति विना शेष Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४१ बंधस्वामित्वनामा तृतीय कर्मग्रंथ. सीत्तेर प्रकृतिनो बंध त्रीजे मिश्रगुणगणे होय. तेमध्ये जिननाम अने नरायु, ए बे नेली तेवारें चोथे गुणगणे बहोंतेर प्रकृतिनो बंध जाणवो. एम देवताना उघबंध विशेषबंध सरखो सौधर्म अने ईशान, ए बे देवलोकना देवोनो पण बंध जाणवो. जे नणी ए देव, पृथ्वी, अप अने वनस्पति एकेंजियमांहे पण अवतरे तेथी, एकेंजियादिक त्रिकनो पण बंध करे, तेथी तेमज जाणवू. हवे ते एकसो ने चार प्रकृतिरूप देवताना उचे बंध डे तेने जिननामथी हीन करीयें, तेवारें एकसो नेत्रण प्रकृतिनो बंध उ तथा मिथ्यात्वे जे नणी अहींयां जिननाम ते कर्म पूर्वे काढ्यु डे तेथी अहीं मिथ्यात्वगुणगणे हीन नथी करवू. माटे ए चंद्र सूर्यादिक ज्योतिषी तथा जुवनपति अने व्यंतर एत्रण निकायना देवताने बंध प्रकृति उचे एकसो त्रण, अने मिथ्यात्वे पण एकसो त्रण, सास्वादने बन्नं, मिथें सीत्तेर, अने चोथे गुणगणे नरायुनो बंध वधे, तेवारें एकोतेर प्रकृतिनो बंध थाय, अने एत्रण निकायना देवतामांहेलो श्राव्यो तीर्थंकर न थाय. जे माटे एहने जे श्रवधिज्ञान डे ते जीवने परनवे श्रावी न शके अने श्रीतीर्थकर तो त्रण ज्ञाने सहित उपजे, तेथी ए देवोने जिननाम न बंधाय एटबुं विशेष बे. शेष पूर्ववत् ॥ ११ ॥ ॥ तथा १ सौधर्म, २ ईशान, बिहुँ देवलोकें बंधवामित्वयंत्रकमिदम् ॥ देवगतो. बंधप्रकृतयः m | अबंधप्रकृतयः | ~ बंधविच्छेदप्रकृतयः ज्ञानावरणीय. ee दर्शनावरणीय. 20 | वेदनीयप्रकृतयः मोहनीय प्रकृतयः -- आयुप्रकृतयः ] नामप्रकृतयः गोत्रप्रकृतयः - | अंतरायप्रकृतयः मूलप्रकृतयः उ १०४१६ OSO १०३ १७ 2 OSU । ए६ २४ २६ मिथ्यात्वे. सास्वादने. मिों. अविरते. २५ त ०५० ०५६ १ए. ३५ | १५ ७ २ .५६ २ | १५ | १ ३३ | १५gs Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४३ बंधस्वामित्वनामा तृतीय कर्मग्रंथ. ॥ ज्योतिषी, जुवनपति, वानमंतरव्यंतरेषु बंधस्वामित्वयंत्रकमिदम् ॥ ज्योतिषी जुवनपति व्यंतरादिकेषु.. बंधप्रकृतयः मूलप्रकृतयः बंधविच्छेदप्रकृतयः aa] श्रबंधप्रकृतयः ज्ञानावरणीय. १ दर्शनावरणीय. | वेदनीय. ३ नामकर्म. ६ अंतराय. ७ Samm मोहनीय. ४ min| गोत्रकर्म. ७ 2010 | आयुःकर्म. ५ 4 ISU नं. १०३ १७ । मिथ्यात्वें. १०३ १७ ७ ए ए ६३ ५५ ५५ 3SC __ सास्वादने | ए६ २५ २६ ५ ए | २ |२५| २ | | २ | ५ | su मिग्रॅ. |७०/५० 0 ५६२ १५० |३५| १ | ५७ | अविरतें. | १ ४ए . ५ | ६२ । १५ १३५ १ ५/s | रयणुव सणं कुमारा, आणयाइ जजो चनरहिया ॥ अपज तिरिअव नव सय, मिगिदि पुढवि जल तरु विगले ॥ १२॥ अर्थ- रयणुव के० रत्नप्रजानारकीनी पेरें सणंकुमाराश् के सनत्कुमारादिक देवलोकने विषे उघे एकसो एक, मिथ्यात्वे सो, सास्वादने उन्नु, मिश्रे सीत्तेर, अने अविरतियें बहोंतेरनो बंध जाणवो. श्राणयाश् के० आणतादिक चार देवलोक तथा नव ग्रैवेयकें उजोअचउरहिया के उद्योतादिक चार प्रकृति रहित करीयें, तेवारें उधे सत्ताएं, मिथ्यात्वे बन्नु, सास्वादने बाएं, मिङसीत्तेर अने अविरतियें बहोंतेरनो बंध होय तथा अपऊतिरिअव के० अपर्याप्ता पंचेंजिय तिर्यंचनी पेरें नवसय के० एकसो ने नव प्रकृतिनो बंध मिगिदि के० एकेजिय, पुढवि के० पृथिवीकाय, जल के० अप्काय, तरु के वनस्पतिकाय, विगले के बेइंडियादिक, त्रण विकलेंजिय. एवं सातेने बंध होय. रत्नप्रजापृथ्वीना नारकी जेटली प्रकृति, उ तथा गुणस्थानकविशेषं बांधे, तेटली सनत्कुमार, मोहेंज, ब्रह्म, लांतक, शुक्र, अने सहस्रार, एब देवलोकना देवता बांधे. जे जणी ए देवता पण चवीने एकेजियमांहे न उपजे, तेथी एकेंजिय जाति, थावरनाम अने श्रातप, ए त्रपनो बंध उचें तथा मिथ्यात्वं न होय, तेवारें Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधस्वामित्वनामा तृतीय कर्मग्रंथ. ४४३ एकसो ने एक उचे बांधे तेने जिननाम हीन करीयें, तेवारें मिथ्यात्वें सो प्रकृति बांधे. तेमाथी नपुंसकादिक चतुष्क हीन करतां सास्वादने बन्न प्रकृति बांधे. तेमांदेथी अनंतानुबंध्यादिक बबीश प्रकृति टले, तेवारें शेष सीत्तेर प्रकृति मिश्रगुणगणे बांधे, तेने जिननाम तथा नरायु सहित करीयें, तेवारें बहोंतेर प्रकृति, चोथे गुणगणे बांधे. एना हेतु पूर्वनी परें लेवा. थाणत, प्राणत, श्रारण अने श्रच्युत, ए चार देवलोक तथा नउ, सुजन, सुजात, सौमनस्य, प्रियदर्शन, सुदर्शन, अमोघ, सुप्रतिबद्ध, अने यशोधर, ए नव अवेयक तथा पांच अनुत्तर विमान, एवं चौद स्थानकें तथा अढार स्थानकें उद्योतनाम तिर्यंचत्रिक, ए चार प्रकृति न बांधे, जे जणी त्यांनो श्रावेलो जीव, मनुष्यज थाय, पण तिर्यंच न थाय, तेमाटे तत्प्रा. योग्य ए चार प्रकृति न बंधाय तेमादे मूलौघमाहेथी सुरहिकाहिक उंगणीश प्रकृति अने ए चार प्रकृति, एवं त्रेवीश प्रकृति टले, तेवारें शेष ज्ञानावरणीय पांच, दर्शनावरणीय नव, वेदनीय बे, मोहनीय बवीश, श्रायुनी एक, नामनी समतालीश, गोत्रनी बे अने अंतरायनी पांच, एवं सत्ताणुं प्रकृतिनो बंध उचे होय तेने जिननाम हीन करतां मिथ्यात्वे बन्नु प्रकृतिनो बंध शेष पूर्वली पेरें जाणवो. तथा अनुत्तरविमानवासी देवोने एकज चोथु गुणगणुं होय, शेष गुणगणां न होय तेथी तेने उधे एटले सामान्ये तथा विशेषे बहोतेर प्रकृतिनोज बंध जाणवो. एम देवगतियें बंधस्वामित्व कह्यु. अहीं सुधी गतिमार्गणाना चार नेदें बंधस्वामित्त्व कडं. हवे इंजियमार्गणायें तथा कायामार्गणायें बंधस्वामित्त्व कहे . त्यां इंजियमार्गणामध्ये एकेंजिय, बेंजिय, तेंजिय, अने चौरिंजिय, ए चार मार्गणा अने काय मार्गणामध्ये पृथवी, थप अने वनस्पतिकाय, ए त्रण मार्गणा, ए बेहु मली सात छारे उघबंध लब्धिअपर्याप्ता, पंचेंप्रिय तिर्यंचनी पेरें एकसो ने नव प्रकृतिनो बंध होय, केमके ते जीवोने सम्यक्त्व चारित्र नथी तथा ते देवगति अने नरकगतिमाहे न उपजे, तेथी जिननाम, सुरत्रिक, नरकत्रिक, वैक्रियछिक, थाहारकछिक, ए अगीबार प्रकृति विना शेष एकसो ने नव प्रकृति उ तथा मिथ्यात्वे बांधे. पण लब्धि अपर्याप्ता पंचेंजियतिर्यंचने एकज मिथ्यात्वगुणगणुं होय. अने ए सातने तो मिथ्यात्व अने सास्वादन ए बे गुणगणां संजवे, जे माटे ए मध्ये सम्यक्त्व वमतो जीव, अवतरे ते कारणे अपर्याप्तावस्थायें सास्वादनपणुं संजवे, ए विशेष . ॥ १२ ॥ Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ მმმ बंधस्वामित्वनामा तृतीय कर्मग्रंथ. ॥ श्राणतादिचतुष्टये तथा ग्रैवेयकनवके बंधस्वामित्वयंत्रक मिदम् ॥ तादिचतुष्टये तथा ग्रैवेयकनव के. बंधप्रकृति. बंधप्रकृति. विच्छेदप्रकृतिः उघें. मिथ्यात्वें. सास्वादनें. मिश्र. विरतें. ७२ ४० ज्ञानावरणीय. // दर्शनावरणीय वेदनीय कर्म. उ १ Ա ६ २४ ४ ५ एश् २८ ३१ ए go ५० ० ए 0 ա ए मोहनीय कर्म. श्रायुकर्म. नामकर्म. अंत रायकर्म. गोत्रकर्म. मूलप्रकृति. ६ ६ २ २ २ २ २ 吧 १ २६ | १ ४७ २ 更 9So २६ १ ४६ २ ५ 950 950 9 २४ १ ५४ D 5 Yr m १ ३२ For Private Personal Use Only ३३ ‍ ए १ ए ५ १ बनवइ सासणि विष्णु सुदु, म तेर केइ पुए बिंति चडनवइ ॥ तिरिच्य नराऊदि विणा, तणु पत्तिं न जंति जर्ज ॥ १३ ॥ OSE अर्थ - विणुसुदुमतेर के० सूक्ष्मादिक तेर प्रकृतिना बंध विना बनवास ho प्रकृति सास्वादन गुणठाणे बांधे, केइ के० कोइएक आचार्य पुण के० वली - वीँ रीतें बिंति के० कदे बे के तिरिनराऊहिविषा के० अपर्याप्ता तिर्यंचनुं श्रायु मनुष्यायु, ए वे प्रकृति विना चडनवइ के० चोराएं प्रकृति, सास्वादनें बांधे, जेमाटे तणुपत्तिं के० शरीरपर्याति नजं तिजर्ज के० सास्वादनपणे पूरी न करे तेमाटे. १३ जवनपति, व्यंतर, छाने ज्योतिषी, ए त्रण; सौधर्म, ईशान, ए वे वैमानिक, देवता मिथ्यात्व प्रत्यें एकेंद्रिय प्रायोग्य श्रायु बांधी, पढी वली अध्यवसाय विशुद्ध सम्यक्त्व पामी मरणसमयें सम्यक्त्व वमतो, पृथिवी, छाप, वनस्पती, ए एकै प्रियमांहे अवतरे, तेने शरीरपर्याप्ति पूर्ण कर न होय तेथी पहेलां सास्वादन होय, तेने बन्नु प्रकृतिनो बंध होय. जे जणी सूक्ष्म त्रिक, विकलजातित्रिक, एकेंद्रियजाति, थावर, श्रातप, नपुंसकवेद, मिथ्यात्वमोहनीय, हुंमसंस्थान, सेवार्त्तसंघयण, ए तेर प्रकृति मिथ्यात्व विना न बंधाय, तेथी अहींयां एकसो ने नव मांहेथी तेर टालतां शेष बन्नु प्रकृति सास्वादनें बंधाय. अहींथां कोइएक आचार्य श्रीचंद्रसूरि प्रमुख एकैंडियादिक साते मार्गणाद्वारे ज्ञानावरणीय पांच, दर्शनावरणीय नव, वेदनीय बे, मोहनीय चोवीश, नामनी सडतालीश, गोत्रनी बे, अंतरायनी पांच, एवं चोराणुं प्रकृतिबंधाय एवं कदे बे, जे जणी ए सात मार्गणायें करण पर्याप्तावस्थायेंज सास्वादनपणुं हुंते पण Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधस्वामित्वनामा तृतीय कर्मग्रंथ. ४४५ पर्याप्तावस्थायें सम्यक्त्व नथी, तो तेथी वमतां सास्वादनें जावपणे केम होय ? तेणे ते सास्वादन गुणठाणे वर्त्ततां शरीरपर्याप्ति पूरी न करे अने शरीरइंद्रियपर्याप्ति पूरी कस्याविना करण पर्याप्ता, परजवायु न बांधे तेथी सुरायु अने नरकायु, ए बे प्रकृति जवप्रत्ययें नथी, छाने तिर्यगायु तथा मनुष्यायु ए वे पण करण अपर्याप्ता न बांधे, ते या विना मूलप्रकृति सात अने उत्तर प्रकृति चोराएं बांधे, जे जणी तनुपर्याप्तिकाल ए आवलि अधिक अंतर मुहूर्त्त प्रमाण सास्वादन कालस्तोक, ते जणी विकलें प्रियमध्यें मनुष्य छाने तिर्यंच सम्यक्त्व वमतो यावे. कोइएक श्र चार्य कड़े बे के सास्वादनगुणठाएं शरीरपर्याप्ति पूर्ण थया पढी रहे, तेवारें बे श्रायु बांधे, वीजा थाचार्य वली एम कहे बे के शरीरपर्याप्ति पूरी थया पढी रहे, तेवारें बे बांधे, बीजा आचार्य वली एम कहे बे के शरीरपर्याप्ति पूरी यया पढी साखादनगुणठाणुं रहे, तेवारें बे श्रायु न बांधे. कर्मग्रंथना टबाकार श्रीजीववीजयजी माहाराजे एम लख्युं बे के सास्वादन गुणठाणे सूक्ष्म त्रिकादिकथी बेवठा सुधी तेर प्रकृति, एकसो नवमांथी उठी कीधे थके उन् बांधे, एने बेज गुणवाणां होय. छाने केटलाएक आचार्य कहेबे के तिर्यंचायु छाने म नुष्यायु विना चोराएं बांधे, जे जणी, एकेंद्रियादिक सास्वादनवंत थको शरीरपर्याप्त पण पूरी न करी शके तो आयु केम बांधे ? तेवारें त्यां पहेले मतें शरीरपर्याप्ति पूरी पढी पण सास्वादन रहे, त्यां श्रायु बांधे, तेवारें ते बन्नुं प्रकृति बांधे ने बीजे तें तो शरीरपर्या तिथी श्रागलज सास्वादन जाय तो श्रायु क्यांथी बांधे, तेवारें ते चोरापुंज बांधे, ए बे मत जाणवा. एमांहे चोरानो मत खरो जासे बे, जे जणी एकेंद्रियादिकनुं जघन्यायु पण बसो उपन्न यावलिकानो कुल्लक जव होय, ते श्रायुना जाग गये के एकसो ने एकोतेरमी श्रावलिकायें श्रायु बंधाय, छाने सास्वादनपएं तो उत्कृष्टुं पण यावलिकानुं होय, तेटलामांहे परजवनुं श्रायु केम बंधाय ? ते माटे. चोराज बांधे. ए मत शुद्ध जणाय वे छाने ग्रंथकारें बन्नुं कही तेतो कोण जाणे शे शयें कही हशे ? तथा श्रागलें श्रदारिक मिश्रने पण सास्वादने श्रायुबंध निवायो बे "सास चिनवइविणा, नरतिरियाऊ सुदुमतेर " ए गाथायें निवारयो बेता ते श्रींयां पण एमज जोइयें, केमके ते अने ए सास्वादन, एकज बे. ॥ १३ ॥ एटले इंद्रियाने काय मार्गणा मांहेला सातद्वारे बंधस्वामित्व कयुं. एवं श्रगी आर मार्गणा द्वार थयां. For Private Personal Use Only Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४६ बंधस्वामित्वनामा तृतीय कर्मग्रथं. ॥ अपर्याप्ता एकेंजिय, पृथ्वी, अप्, वनस्पति, विकलत्रय बंधस्वामित्व यंत्रकम् ॥ अपर्याप्ताएकेंजियादिक बंधस्वामित्व यंत्रकमिदम् मूलप्रकृति. बंधणप्रकृति. अवंधप्रकृति. झानावरणीय. ' | विवेदप्रकृति. दर्शनावरणीय. वेदनीय. आयुःकर्म. | मोहनीय. गोत्रकर्म. - | अंतरायकर्म. | 66 नामकर्म. | " F - | उघं. १०ए | OSO मिथ्यात्वे. १०५ ११ Su सास्वादनें. | ९६ ३४ . ५ ए ३ २४ २ ५ २ ५ ७० उहु पणिंदि तसेगइ, तसे जिणिकार नरतिगुच्च विणा ॥ मणवय जोगे उहो, उरले नरजंगु तम्मिस्से ॥ १४ ॥ अर्थ- उंहु के उघबंध, पणिं दि के० पंचेंजियमार्गणायें, तसे के त्रसकायमार्गणायें उ, मिथ्यात्वे अनेसास्वादनादिकें एम मूल बंधस्वामित्व जाणवू. तथा गश्तसे के० गतित्रस ते तेउकाय मार्गणायें जिणिकार नरतिगुच्चविणा के० जिनादिक श्रगीधार प्रकृति तथा मनुष्य त्रिक, उच्चैर्गोत्र, ए पंदर प्रकृति विना एकसो पांच प्रकृतिनो बंध जाणवो, मणवयजोगेठहो के चार मनोयोगमार्गणायें, चार वचनयोगमार्गणायें, मूल खेवो. उरले के औदारिक औदारिककाययोगें नरनंग के मनुष्यना बंधनी पेरे बंधनो नांगो लेवो, तम्मिस्से के तेमज आगल औदारिकमिश्रयोगे पण लेवो. इत्यदरार्थः१४ माताना उदरमांहे उपजे, ते वेलायें औदारिककाय पूरी न थाय. त्यां लगें औदारिकमिश्र होय, तेने एकसो ने चौद प्रकृतिनो बंध होय, पनी उघ के जे बीजे कर्मस्तवें सर्व जीवनी अपेक्षायें जे गुणगणे बंध कह्यो, तेहिज जाणवो. एटले उधे एकसोने वीश, मिथ्यात्वे एकसो ने सत्तर, इत्यादिक चौद गुणगणां पर्यंत बंधस्वामित्व जे प्रमाणे सर्व जीवनी अपेक्षायें कर्मस्तवमां कडं जे ते प्रमाणे पंचेंजिय मार्गणाझारें अने त्रसकायमार्गणाधारें बंधखामित्व जाणी लेवु. एवं तेर.. हवे गति त्रस एटले जोपण स्थावरनामकर्मना उदयथी लब्धिस्थावर बे, तो पण चालवाने साधर्मे त्रस होय एटले तेउ, अने वाउ, ए बे काय ऊर्ध्वगमन तिर्यग्गमन करे, ते माटे एने गतित्रस कहीये, ते गतित्रसने विषे जिनादिक अगीवार Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधस्वामित्वनामा तृतीय कर्मग्रंथ. ४४० प्रकृति तथा मनुष्यत्रिक, उच्चैर्गोत्र, एवं पंदर प्रकृति न बंधाय. जे जणी तेउ अने वायुमध्येथी देवता,नारकी तथा मनुष्य न उपजे, तेथी तत्प्रायोग्य देवत्रिक, नरकत्रिक, वैक्रियधिक, जिननाम, थाहारकछिक, मनुष्यत्रिक, अने उच्चैर्गोत्र, एवं पंदर प्रकृति न बांधे, तेवारें शेष ज्ञानावरणीय पांच, दर्शनावरणीय नव, वेदनीय बे, मोहनीय बवीश, आयुनी एक, नामनी बप्पन्न, गोत्रनी एक अने अंतरायनी पांच, एवं एकसो ने पांच प्रकृति बांधे, ए तेज श्रने वाज ए बे एकज तिर्यंचगतिमा अवतरे, तेथी तिर्यंचमध्ये तो जवप्रत्ययें एक नीचैर्गोत्रज उदय होय, तेथी उच्चैर्गोत्र पण न बांधे, ए बेमांहे सास्वादन गुणगणुं न होय जे नणी सम्यक्त्व वमतो पण ए बेमांहे को अवतरे नहीं. एम इजियमार्गणा तथा कायमार्गणा कही; एटले पूर्व गतिमार्गणानां चार छार कहेला डे अने इंघिय तथा कायनां अगीयार घार, एम बधां मली पंदर मार्गणाधारे बंधस्वामित्वपणुं कर्तुं. हवे योगमार्गणायें बंधस्वामित्व कहे. त्यां एक सत्यमनोयोग, बीजो असत्यमनोयोग,त्रीजो सत्यामृषामनोयोग, चोथो असत्यामृषामनोयोग, ए चार मनोयोग ,अने सत्यवचनयोग, असत्यवचनयोग, सत्यमृषावचनयोग, असत्यमृषावचनयोग, ए चार वचनयोग , ए श्राठे योग पहेला गुणगणाधी मामीने बारमा क्षीणमोद गुणगणां लगें बे. तेथी बीजे कर्मग्रंथे जे गुणगणाथाश्रयि मूलबंध कह्यो एटले उचे एकसो ने वीश प्रकृतिनो बंध तथा जिननाम अने थाहारगगे हीन, मिथ्यात्वे एकसो सत्तर प्ररुतिनो बंध, सास्वादने एकसो ने एकनो बंध, मिों चमोत्तेरनो बंध,अविरतियें सत्त्यो. तेरनो बंध, देश विरतियें शमशनो बंध, प्रमत्तें त्रेशउनो बंध, एम बारमा गुणगणालगें पूर्वोक्त रीतें बंधस्वामित्व जाणवू. ए पाठ योगें बार गुणगणां होय. बे मनना, अने बे वचनना योग, तेरमे गुणगणे होय. ए रीतें मन तथा वचनना आठ योगने विषे बंध करो. एटले सत्तर मार्गणाधार थयां. हवे सात काययोगें बंध कहे. ते सात काययोगमध्ये औदारिककाययोगें तो म. नुष्यनी पेरें बंधस्वामित्व जाणवं. जे जणी औदारिक शरीर मनुष्य ने तिर्यच विना न होय तेमांहे पण अधिक गुणस्थानके अधिक प्रकृतिना बंधस्वामी मनुष्य डे, तेथी अहीं मनुष्यनो नांगोज कह्यो एटले उचे एकसो वीश प्रकृतिनो बंध, मिथ्यात्वे एकसो सत्तर,सास्वादने एकसो ने एक, तेमांथी सुरायु तथा अनंतानुबंध्यादिक एकत्रीश, एवं बत्रीश प्रकृति हीन करतां मिर्को गणोतेर, ते वली सुरायु तथा जिननाम सहित अविरतियें एकोतेर बांधे अने देशविर तियें शडशठ, प्रमत्तें त्रेशन, Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ बंधस्वामित्वनामा तृतीय कर्मग्रंथ. एम पूर्वली पेरें तेर गुणगणे बंधस्वामित्व लेखव. एम औदारिक काययोगें बंधस्वामित्व कयु. ॥ १४ ॥ ॥ हवे ते औदारिककार्मणसाथें मिश्र काययोगी अपर्याप्तावस्थायें जे मनुष्य तथा तिर्यंच होय, त्यां बंधवामित्व कहेजे.॥ आहारग विणोदे, चन्दससन मिति जिण पणग हीणं ॥ सासणि चन नव विणा, तिरिअ नराउ सुहुम तेर ॥१५॥ अर्थ- श्राहारगविण के श्राहारक विना उदे के उचे चउदससउ के० एकसो ने चौद प्रकृति बंधाय, अने मिडि के मिथ्यात्वे जिणपणग के जिनपंचकनी पांच प्रकृति, हीणं के हीन करीयें, तेवारें एकसो नव बांधे. तथा सासणि के साखादनगुणगणे तो चलनव के चोराणुं प्रकृति बंधाय, तिरिश्र के० तिर्यंचायु, नराउ के मनुष्यायु, सुहमतेर के सूक्ष्मादिक तेर प्रकृति, विणा के० विना चोराणुं प्र. कृति बंधाय ॥ १५ ॥ ते औदारिकमिश्रयोगी जीवने थाहारकशरीर, श्रने श्राहारकअंगोपांग, ए बे प्रकृति अप्रमत्तगुणस्थानकने अनावें न बंधाय, तथा सुरायु अने नरकत्रिक ए चार प्रकृति सर्व पर्याप्ति पूर्ण कस्याविना न बंधाय, माटे ए ब प्रकृति अपर्याप्तावस्थायें न बंधाय, तेथी ज्ञान पांच, दर्शन नव, वेदनीय बे, मोहनीय बवीश, आयु बे, नामनी त्रेशठ, गोत्रनी बे श्रने अंतरायनी पांच, एवं एकसो ने चौद प्रकृति उँचे औदारिक कार्मण मिश्रकाययोगें वर्ततो मनुष्य तथा तिर्यंच बांधे. अहीं जे शरीरपर्याप्ति पूरी कस्याविना औदारिकयोग माने तेने मते औदारिक मिश्रयोगीने नरायु तथा तिर्यगायुनो बंध पण न घटे ? शरीरपर्याप्ति पूरी थया पली मनुष्यने अने तिर्यंचने आयुं बंधाय तेमाटे तेना मतें एकसो ने बार प्रकृतिनो बंध उचे होय, तेमांहेथी जिननाम, सुरगति, सुरानुपूर्वी, वैक्रियशरीर, वैक्रीयअंगोपांग, ए पांच प्रकृति मिथ्यात्वी मनुष्य तथा तिर्यंचने अपर्याप्तावस्थायें तथाविध विशुछिने अनावे न बं. धाय, तेथी औदारिक मिश्रयोगी मिथ्यात्वीने ए पांच प्रकृतिनो बंध न पामीयें, शेष एकसो नव प्रकृतिनो बंध मिथ्यात्वे होय. तेने सास्वादनगुणगणे नरायु, तिर्यगायु, ए बे प्रकृति शरीरपर्याप्ति पूरी कस्याविना न बंधाय. केमके सास्वादननावें वर्ततो अपर्याप्तावस्थायें शरीरपर्याप्ति पूरी न करे, तेथी ए बे प्रकृति न बंधाय, तथा मिथ्यात्वनो उदय नथी तेथी सूक्ष्म त्रिक,विकलत्रिक, एकेंजियजाति, थावर, श्रातप, नपुंसक, मिथ्यात्व, डैमसंस्थान, बेवई संघयण, ए Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधस्वामित्वनामा तृतीय कर्मग्रंथ. ४४ तेर प्रकृति न बांधे. एवं पंदर प्रकृति पूर्वोक्त एकसो ने नव मांहेथी हीन करीयें तेवारें शेष ज्ञानावरणीय पांच, दर्शनावरणीय नव, वेदनीय बे, मोहनीय चोवीश, नामनी समतालीश, गोत्रनी बे छाने अंतरायनी पांच, एवं चोराएं प्रकृतिनो बंध श्रदारिकमिश्रकाययोगी ने बीजे गुणठाणे होय. तथा मिश्रगुणठाणे वर्त्ततो जीव, मरण न पामे तेथी उपजे पण नहीं तेथी अपयतावस्थायें जावी औदारिक मिश्रयोगें मिश्रगुणठाएं न कयुं ॥ १५ ॥ ॥ हवे चोथा गुणवाणानां बंधस्वामित्व कहेबे - ॥ ण चवीसाइ विणा, जिणपण जु सम्मि जोगिणो सा॥ वितिर नरा कम्मे, वि एवमादारsगि उदो ॥ १६ ॥ अर्थ - चवीसाइविषा के अनंतानुबंध्यादिक चोवीश प्रकृति विना जिणपण ho जिनपंचक, जुा के० युक्त, पंचोतेर प्रकृति सम्मी के० अविरति सम्यकदृष्टिगुणबांधे, जोगिणोसायं के० सयोगी गुणठाणे एक शातानो बंध तथा तिरिनराज के० तिर्यंच ने मनुष्यायु, ए वे प्रकृति विणु के० विना शेष कम्मेवि के० कार्मण काय योगीने पण दारिक मिश्रयोगीनी पेरें एवमाहारडुगिनुहो के० एमज आहारककाययोगें ने आहारक मिश्रकाययोगें पण उघ एटले कर्मस्तवमां कह्या मुजब बंध कदेवो. ॥ इत्यर्थः ॥ १६ ॥ ते चोराएं प्रकृतिमांथी अनंतानुबंधी या चार, मध्यसंस्थान चार, मध्यसंघयण चार, कुखगति, नीचैर्गोत्र, स्त्रीवेद, दौर्भाग्यनाम, दुःस्वर, अनादेय, थीएद्धी त्रिक, उद्योत, तिर्यग्गति, तिर्यगानुपूर्वी, ए चोवीश प्रकृति अनंतानुबंधीयाकषायने उदये बंधाय. ते उदय चोथे गुणगणे न होय, तेथी न बंधाय, तेथी शेष सीत्तेर प्रकृति रही तेमध्यें विशुकाध्यवसायें करी पांच प्रकृतिनो बंध होय, तेवारें ज्ञाननी पांच, दर्शननी ब, वेदनयनी बे, मोहनीयनी उंगणीश, नामनी सामत्रीश, गोत्रनी एक, अंतरायनी पांच, ए पंचोतेर प्रकृति बंधाय. दवे ते पांच प्रकृतिनां नाम कहेबे जिननाम, देवगति, देवानुपूर्वी, वैक्रियशरीर, वैक्रिय अंगोपांग, ए पांच प्रकृति, सम्यक्त्वप्रत्ययें बांधे. तेमाटे ते लतां अविरतिसम्यकदृष्टि गुणठाणे पंच्चोतेरनो बंध होय. छाहींयां सिद्धांतमतें वैयिलब्धि तथा श्राहारकलब्धि वैक्रियादिक शरीर करतां श्रदारिक मिश्रयोग मान्यो, पण ते अहींयां विवदयो नहीं, तेथी प्रमत्त तथा देशविर तिगुणापानो बंध न कह्यो. तथा दारिक मिश्रकाययोगना स्वामी मनुष्य अने तिर्यंच बे तेने चोथे गुणगणे सीतेर तथा एकोतेर प्रकृतिनो बंध कह्यो. नरद्विक, औदारिकद्विक, प्रथमसं ५७ For Private Personal Use Only Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५० बंधस्वामित्वनामा तृतीय कर्मग्रंथ. घयण, ए पांच प्रकृतिनो बंधस्वामी, चोथे गुणठाणे वर्त्ततो कोण श्रदारिक मिश्र - योगी न पामे ? तथा अनंतानुबंध चोवीश यादें देश, अहींयां चोवीश श्रागल यदि शब्द को बे तेथे श्रादिशब्दथी बीजी के प्रकृति शेष लेवी, तेथी जाणीयें यें, जे ए पांच प्रकृति, आदिशब्दथकी लेवी तेथी मनुष्य तिर्यंचने त्रीजे चोथे गुठाणे पण एकत्री विना शेष सीत्तेर प्रकृति कही, तेम अहींश्रां नरायु अने तिर्यगायु एबे पूर्वे टाली बे तेथी शेष उगणत्रीश प्रकृति चौराणुंमांदेथी काढी यें छाने जिनपंचक घालतां सीत्तेर प्रकृतिनो बंध होय एम संजवे बे. पढी जेम बहुश्रुत कड़े, ते प्रमाण बे. तथा सयोगी गुणठाणे केवली केवलसमुद्घात करे, त्यां बीजे, बहे अने सातमे, ए समयें औदारिक मिश्रयोग होय तेने योग प्रत्ययि एक शातावेदनीय प्र कृतिबंध होय, मिथ्यात्व अविरतिय तथा कषायने जावें शेष प्रकृति न बंधाय एम औदारिक मिश्रयोगीनी पेरें कार्मणयोगीनुं बंधस्वामिवत्व पण जाणवुं. परं एटलुं विशेष जे कार्मणकाययोग परजवथी यवतां एक, तथा बे तथा त्रण समय लगें विग्रहगतियें होय तथा तेरमे गुणठाणे व समयनो केवली समुद्घात करतां त्रीजे, चोथे ने पांचमे, ए त्रण समय आत्मप्रदेशें करी सर्व लोक पूरे, तेवारें कार्मणकाययोग त्यां होय. आयुबंध न होय, एने गुणठाएं पहेनुं, बीजं, चोयुं अने तेरमुं होय तेथी त्यां तिर्यगायु, नरायु, ए बे प्रकृति टाली शेष दारिक मिश्रयोगीनी पेरें लेवुं, एटले मूलौघ एकसो ने वीश तेमांहेश्री आहारबक्क तथा ए वे आयु, एवं आठ प्रकृति हीन करतां शेष एकसो ने बार प्रकृतिनो घे बंध ते जिनपंचकविना शेष एकसो ने सात मिथ्यात्वें बांधे ने सूक्ष्मादिक तेर प्रकृति हीन चोराएं साखादनें बांधे, ते अनंतानुबंध्यादिक चोवीश प्रकृति हीन अने जिनपंचक युक्त करतां पंचोतेर प्रकृति चोथे गुणठाणे बांधे, अने तेरमे गुणठाणे एक शातानो बंध कार्मणकाययोगें होय. एवी रीतें एक आहारककाययोग, बीजो आहारक मिश्रकाययोग, ए बे योगें उघ कहेतां बीजा कर्मस्तवमध्ये जे प्रमत्त गुणठाणें त्रेशव प्रकृतिनो बंध कह्यो ते लेवो. जे ए योग चौद पूर्वधर जेवारें श्राहारकशरीर करे, त्यां होय. त्यां लब्धि प्रयुंजता प्रमत्त होय. तथा श्राहारकयोगें अप्रमत्त गुणवाएं मानतां थकां त्रेशहमांहेथी व प्रकृति काढीने एक सुरायु जेलीयें तेवारें अठावन्न प्रकृतिनो बंध होय, माटे पंचसंग्र दने मतें आहारक शरीर करीने चाले तेवारें त्रेशव अथवा सत्तावन अथवा श्रावन अथवा गणशात प्रकृति बांधे, त्रेसठ प्रकृतिनो बंध कह्यो ते लेवो "सगवन्ना तेवहि For Private Personal Use Only Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधस्वामित्वनामा तृतीय कर्मग्रंथ. ४५१ बंधंति श्राहारउनएसु" ए पंचसंग्रहमध्ये कह्यो जे तेथी बन्ने गुणगणे श्राहारकशरीरने सत्तावन्न प्रकृतिनो बंध होय. अस्थिरहिक, अयश, अयश अशाता, परति श्रने शोक, ए प्रकृति विशुद्ध नणी न बंधाय. अने थाहारकमिश्रयोगें त्रेशठ प्र. कृति बंधाय. ए प्रारंजवेलायें औदारिकसाथें मिश्र होय. ॥ १६ ॥ सुरउँदो वेगवे, तिरिअ नरान रदिअ तम्मिस्से ॥ वेअ तिगा इम बिअतिअ, कसाय नव 5 चल पंचगुणा ॥१७॥ अर्थ-वेउवे के वैक्रियकाययोगने सुरहो के देवतानी पेरें बंध कहेवो. उ. एकसो चार, मिथ्यात्वे एकसो ने त्रण. इत्यादिक. तम्मिस्से के तेमज वैक्रिय मिश्रकाययोगीने तिरियनरामरहि के तिर्यंचायु अने मनुष्यायु ए बे प्रकृतिथी रहित वैकियनी पेरें कहेवं. हवे वेदादिकमार्गणायें बंध कहेजे. वेअतिग के वेद त्रणेने प्र. थम नव के नव गुणगणां होय, आश्म के० श्रादिम कषाय ते अनंतानुबंधी चार कषायवंतने 5 के धुरलां बे, गुणगणां होय. विश्र के बीजा अप्रत्याख्यानीश्रा चार कषायवंतने चज के० धुरलां चार गुणगणां होय. तिथ के त्रीजा प्रत्याख्यानीथा कषायवंतने पंचगुणा के पांच गुणगणां होय ॥ इत्यदरार्थः ॥ १७ ॥ देवगतिनी पेरें बंधस्वामित्व वैक्रिय काययोगें ले. अहीं सहेजतो वैक्रिययोग देवता तथा नारकीनी अपेक्षायें लीधो, तेणे मनुष्य अने तिर्यंचने उत्तरवैक्रिय करतां वैक्रिययोग होय, त्यां अधिक गुणगणां होय. तथा अधिक प्रकृति बांधे ते पूषण न लेखवq, तेणे मूलौघ एकसो ने वीश प्रकृतिमाहेथी सुरादिक शोल प्रकृति वि. ना उ एकसो ने चार प्रकृतिनो बंध जाणवो. तेमांथी जिननाम हीन करतां मिथ्यात्वे एकसोने त्रणनो बंध, तेमांथी नपुंसकादिक चार, एकेंजिय, थावर, थातप, ए सात प्रकृति विना सास्वादने बन्नुनो बंध. तेमांथी अनंतानुबंध्यादिक बबीश प्रकृति हीन करतां मिों सीत्तेरनो बंध, तेने जिननाम तथा मनुष्यायु सहित करतां शविरतिगुणगणे बहोंतेर प्रकृति बंधाय. एम वैक्रिययोगनी पेरें वैक्रिय मिश्रयोगें पण बंधस्वामित्व जाणवू,पण एटखं विशेष जे अहींयां मिश्रगुणगणुं न संजवे, तेथी जेनणी देवता नारकीने अपर्याप्तावस्थायें कार्मणसाथे मिश्रव क्रिययोग ते लीधो. त्यां मिश्रगुणगणुं न होय. शेष त्रण गुणगणे पण तिर्यगायु अने मनुष्यायु ए बे आयु, न बधि. लब्धि अपर्याप्तो देवता तथा ना. रकी न होय तेथी अपर्याप्तावस्थायें श्रायु न बांधे. तेवारें ए बे श्रायु, सुरधिक, वै. क्रियटिक, सुरायु, थाहारकछिक, नरकत्रिक, सूक्ष्म त्रिक, विकलत्रिक, ए अढार प्रकृति विना शेष ज्ञानावरणीय पांच, दर्शनावरणीय नव, वेदनीय बे, मोहनीय बबीश, ना. Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५२ बंधस्वामित्वनामा तृतीय कर्मग्रंथ. मनी त्रेपन, गोत्रनी बे, अंतरायनी पांच, एवं एकसो ने बे प्रकृतिनो बंध उचें जाणवो, तेने जिननाम हीन करतां मिथ्यात्वें एकसो एक बंधाय. तेमांथी एकेंद्रियजाति थावर, तप, नपुंसक, मिथ्यात्वमोहनीय, हुंडसंस्थान, बेवडुं संघयण, ए सात प्रकृति हीन करतां सास्वादने चोराएं प्रकृति बंधाय. तेमांथी अनंतानुबंध्यादिक चोवीश प्रकृति हीन करी जिननाम सहित करतां एकोतेरनो बंध चोथे गुणठाणे जावो. एने शेष गुणवाणां न संभवे तथा यहींयां लब्धिप्रत्ययि ए पर्याप्तो वैक्रिय मिश्र न लेखवं. तेथी देशविरति घने प्रमत्त ए वे गुणगणां न कां. एटले पूर्वला सत्तर मार्गणा द्वारमा ए कायमार्गणा जेलवतां अढार मार्गणाद्वारें बंधस्वामित्व क. हवे ग्रंथगौरव टालवा जणी शेष चुम्मालीश मार्गणाद्वारें गुणगणानी संख्या कहीने जिहां जेटलां गुणगणां होय, तिहां तेटलां गुणस्थानकनो बंध कर्मस्तव जोइ कहेवो. त्यां स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद, ए त्रण वेदमार्गाद्वारें मिथ्यात्वा दिक नव गुणठापां होय. तिहां उधें एकसो ने वीशनो बंध, मिथ्यात्वें एकसो ने सत्तर, साखादने एकसो एक, मिश्र चम्मोतेर, श्रविरतिसम्यकदृष्टियें सत्योतेर, देशविर तियें शडशव, प्रमत्तें त्रेशर, अप्रमतें जंगणशाव, अठावन्न, अपूर्वगुणठाणे अठावन्न, उपन्न, बबीश, बादरसं परायें बावीश, एकवीरा, तेवार पढी वेदोदय टले. अहींयां वेदादिक कहेतां वेदोदयवंत जीव द्रव्यपर्यायनी अभेदविवक्षायें लीधां. एवं एकवीरा मार्गपाठारें बंधस्वामित्व क. हवे कषायमार्गणायें बंधस्वामित्व कहे . प्रथम कषाय अनंतानुबंधी या चार, त्यां मिथ्यात्व छाने सास्वादन, ए बे गुणगणां होय ते मध्ये उधे एकसो ने सत्तर प्रकृतिनो बंध. अनंतानुबंधीयाने उदयें सम्यक्त्व छाने चारित्र ए वे न होय तेथी तत्प्रायोग्य जिननाम तथा श्राहारकद्विक ए त्र प्र कृति न बंधाय. मोटे एकसोने सत्तर प्रकृति बंधाय तथा बीजा कषाय प्रत्याख्यानावरणनी प्रकृति चार, त्यां मिथ्यात्वादिक चार गुणarvi होय. त्यां घें एकसो ने ढार प्रकृति बंधाय, जे जणी ए चार, गुणठाणाने उदयें चारित्र न होय. तेथी आहारकद्विक न बंधायाने मिथ्यायें जिननाम हीन एकसो सत्तर बंधाय, सास्वादने एकसो एक, मिझें चम्मोतेर, ने अविरतियें सत्त्योतेर बंधाय. श्रीजा प्रत्याख्यानावरण कषाय चार. त्यां मिथ्यात्वादिक पांच गुणगणां होय तेमध्यें Ada एकसो ने ढार, मिथ्यात्वें एकसो सत्तर, सास्वादनें एकसो एक, मिश्र चम्मोतेर, विर तियें सत्योतेर, देशविरतियें शडशह, यहीं प्रकृतिनी संख्या कर्मस्तवथी लेवी. हिंयां कषाय शब्दे कषायोदयवंत जीव लेवा. त्यां गुणस्थानक संजवे. For Private Personal Use Only Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधस्वामित्वनामा तृतीय कर्मग्रंथ. ४५३ संजलण तिगे नव दस, लोहे चन अज उति अनाणतिगे॥ बारस अचकु चकुसु, पढमा अहखाइ चरिम चक ॥२७॥ अर्थ- संजलणतिगे के संज्वलनत्रिक, नव के० नवमा गुणगणा सुधी दसलोदे के संज्वलनो लोन, दशमा गुणगणा सुधी चउ के चार गुणगणां अजश के अविरतिमार्गणायें होय, उतिअनाण तिगे के बीजं अथवा त्रीजुं गुणगणुं, अज्ञानत्रिकने होय. बारसअचरकुचरकुसुपढमा के० अचकुदर्शन, चतुदर्शन मार्गणाने विषे पहेला बार गुणगणां होय. अने अहखाश्च रिमचऊ के यथाख्यातचारित्रमार्गणा छारें, बेहेलां चार गुणगणां होय ॥ इत्यदरार्थः॥ १७ ॥ अहीं जीवऽव्ये कषाय पर्यायनो उपचार. संज्वलना क्रोध, मान ने माया, एत्रण संज्वलना कषायोदयवंतने मिथ्यात्वादिक नव गुणगणां होय, त्यांचे एकसो वीश, मिथ्यात्वे एकसो ने सत्तर, सास्वादने एकसो एक, मि2 चम्मोतेर, अविरतियें सत्योतेर, देशविरतियें शडश, प्रमत्तें त्रेशठ, अप्रमत्तें जंगणशाव, तथा श्रापमा निवृत्तियें अहावन, बपन्न अने बवीश, अनिवृत्तियें क्रोधे बावीश, एकवीस, वीश; अने माने बावीश, एकवीश, वीश ने जंगणीश; मायायें बावीश, एकवीश, वीश, अंगणीश ने अढार, प्रकृतिनो बंध जाणवो. संज्वलनलोनें मिथ्यात्वश्री मामीने सूक्ष्मसंपराय लगें दश गुणगणां होय, जे जणी दशमा गुणगणा लगें संज्वलनना लोजनो उदय होय, तेथी औदयिकनिष्पन्ननामें संज्वलनलोजोदयवंत जीव, तेने उचे एकसो अढार, मिथ्यात्वे एकसो सत्तर, इत्यादिक यावत् सूक्ष्मसंपरायें सत्तर प्रकृतिनो बंध जाणवो. एवं पच्चीश. ___ संयममार्गणामध्ये एक अविरतिमार्गणायें प्रथम चार गुणगणां होय, त्यां श्राहारकहिक हीन उधे एकसो अढार, मिथ्यात्वे एकसो सत्तर, सास्वादने एकसो एक, मिों चम्मोतेर, अने अविरतियें सत्त्योतेरनो बंध जाणवो. अहीं सम्यक्त्वप्रत्ययें जिननामबंधाय माटे. एवं बबीश मार्गणाधारें बंधस्वामित्व कह्यु. ज्ञानमार्गणामध्ये त्रण अज्ञानमार्गणाधार जे जीव मिथ्यात्वथकी मिश्र गुणवाणे जाय तेने मिथ्यात्वनो अंश अधिक होय, तेथी मिों अज्ञान लेखवतां अज्ञानने त्रण गुणगणां होय, अने जे जीव सम्यक्त्वश्री मिश्रगुणगणे श्रावे तेने सम्यक्त्वांश अधिक होय, ते नणी मिझें ज्ञान लेखवतां अज्ञानने पहेलां बे गुणगणां होय. एम को श्राचार्य कहे के, त्रण अज्ञाने त्रण गुणगणां होय श्रने कोइ कहेले के त्रण अज्ञानने बे गुणगणां होय, त्यां उघं एकसो सत्तर, मिथ्यात्वे एकसो ने सत्तर, सास्वादने एकसो एक थने मिधे चम्मोतेर प्रकृतिनो बंध होय. एवं उंगणत्रीश. Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधस्वामित्वनामा तृतीय कर्मग्रंथ. दर्शनमार्गणामध्यें चक्कुदर्शन ने चक्कुदर्शन, ए वे मार्गणा द्वारें मिथ्यात्वादिकथी क्षीणमोहात बार गुणवाणां होय. अहींयां दर्शन शब्दे श्रनेदोपचारें दर्शनवंत जीव लेवा. ए क्षायोपशमिकनाम तेने बार गुणगणां होय. त्यां उघें एकसो वीश, मिथ्यात्वें एकसो सत्तर, सास्वादनें एकशो एक, मिलें चम्मोतेर, अविरतियें सत्योतेर, देशविर तियें शमशव, प्रमत्तें त्रेशठ, श्रप्रमत्तें उगणशाव, अठावन, निवृत्तियें अठावन्न, उपन्न, बवीश, अनिवृतियें एकवीश, बावीश, वीश, जंगणीश, खढार, सूक्ष्मसंपरायें सत्तर, उपशांतमोहें एक, क्षीणमोहें एक, प्रकृतिनो बंध जाणवो. ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीयना क्षयोपशमथी चक्कुदर्शन, अचकुदर्शन बार गुणठाणां लगें होय. जेजणी आगले गुणठाणें इंद्रियजन्य ज्ञान दर्शन न होय, अतींद्रिय होय. एवं एकत्रीश मार्गणा द्वारें बंधस्वामित्व कं. ४८४ संयममार्गणामध्ये एक यथाख्यात चारित्रे एटले यथाख्यातचारित्रवंत जीवने चरमच के० बेहेला उपशांतमोह, क्षीणमोह, सयोगी ने योगी, ए चार गुणवगणां होय, तेमध्यें पलां त्रण गुणठाणे एक शातावेदनीयनो बंध होय, अने अयोगी गुणठाणे बंधक होय, जेमाटे त्यां योगाश्रव नथी तेजणी अगी चारमानुं पशमिक नाम बे, शेषनुं कायक नाम बे. एवं बत्रीश मार्गणाद्वार थयां ॥ १८ ॥ मणनाणी सग जयाइ, समइा बेच् चन पुन्नि परिदारो ॥ केवल पुगि दो चरिमा, अजयाइ नवमइसु दि ङगे ॥ १९ ॥ अर्थ- मणनाणी के० मनः पर्यवज्ञानीने सगजयाइ के० प्रमत्तादिकथीमांनी सात गुगां होय, समय के० सामायिक छाने वेदोपस्थापनीय चारित्रने च के० नवमा सुधी चार गुणवाणां होय छाने परिहारो के० परिहार विशुद्धि चारि पुन्नि के बहु ने सातमुं, ए बे गुणवाणां दोय, केवलडुगि के० केवलज्ञानी केवलदर्शनी ए बेने दोचरिमा के० बेहेलां वे गुणवाणां होय. मश्सु के० मतिज्ञानी श्रुतज्ञानीने विषे तथा उदिडुगे के० अवधिज्ञानी अवधिदर्शनी ए चारने विषे जया नवम के० श्रविरतिसम्यक् ष्टिथी क्षीणमोह लगें नव गुणवाणां होय ॥ इत्यक्षरार्थः ॥ १५ ॥ ज्ञानमार्गणामध्ये मनःपर्यव ज्ञानवंतने संयतादिक सर्वविरति प्रमत्तादिक सात गुणगणां दोय, त्यां बंध, उघें पांव प्रकृतिनो होय, जे जणी त्रेशव, प्रमत्तनी प्रकृतिमांहे आहारगडुग लतां उघें पांशठ, प्रमत्ते त्रेशठ, अप्रमत्तें उगणशाव, अठावन्न, निवृत्तियें घावन, बपन्न, बवीश, छानिवृत्तियें बावीश, एकवीरा, वीश, जंगणीश ने - ढार, सूक्ष्मसंपरायें सत्तर उपशांतमोहें एक, क्षीणमोहें एक, सात गुणगणां होय. Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधस्वामित्वनामा तृतीय कर्मग्रंथ. ՍԱԱ ए क्षायोपशमिकनाम चारित्रमार्गणामध्यें सामायिक चारित्रे तथा बेदोपस्थापनीय चारित्रे संयतादिक प्रमत्तादिक चार गुणठाणां होय, त्यां श्राहारकद्विक, सहित उ बंध पांशठ, प्रमतें त्रेसठ, अप्रमत्तें उगणशाव, अट्ठावन्न, निवृत्तियें अठावन्न, बपन्न, श, निवृत्तियें बावीश, एकवीरा, वीश, जंगलीश ने अढार. ए क्षायोपशमिक जावें अनेदें चारित्रवंत परिहारविशुद्धि चारित्रे वर्त्ततां जीवने प्रमत्त, अप्रमत्त, ए गुणठाणां होय. त्यां उघें बंध पांशठ, आहारकद्विक बांधे, पण वेदे नहीं. जे जणी एने चौद पूर्व, संपूर्ण न होय, तेथी आहारक शरीर न करे, माटे प्रमत्तें त्रेशठ, अप्रमत्तें श्रावन्ननो बंध. ए क्षायोपशमिकनाम ए बत्री शमं मार्गणा द्वार. केवलज्ञान ने केवलदर्शन ए बे मार्गणाद्वारें एटले एतत्कायिक निष्पन्न केवल - ज्ञानी केवलदर्शनी जीवने चरम कहेतां बेहेलां बे गुणगणां होय, त्यां सयोगी ruary योगप्रत्ययें एक शातावेदनीय बांधे. अने योगी प्रबंधक बे. एवं ३८. ज्ञानमार्गणामध्यें मतिज्ञान अने श्रुतज्ञान तथा अवधिडुग के० अवधिज्ञान ने अवधिदर्शन, ए चार, क्षायोपशमिक निष्पन्न भेदे जीवनाम त्यां असंयतादिक - विरतिसम्यकदृष्टि मांगीने क्षीणमोइलगें नव गुणवाणां होय त्यां वें बंध जंगणाएंशी, केमके विरतियें सत्योतेर बे ते मांहे श्राहारक शरीर, आहारक अंगोपांग, ए बे प्रकृति घालियें तेवारें उधें उगणाएंशी होय, अविरतियें सत्योतेर देशविर तियें शमशव, प्रमत्तें त्रेशठ, अप्रमत्तें उगणशाव, अद्वावन्न, निवृत्तियें अठावन्न, उपन्न अने वीश, निवृत्तियें बावीश, एकवीश, वीश, अंगणी अने अढार; सूक्ष्मसंपरायें सत्तर उपशांत मोहें एक, क्षीणमोहें एक, ए नव गुणवाणां होय तेनो बंध कह्यो ॥ १९ ॥ एवं तालीश मार्गणाद्वारे बंध को. नवसमि च वेगि, खइए इक्कार मित्र तिमि देसे ॥ सुमि सवाणं तेरस, आहारग नि नि गुणोहो ॥ २० ॥ अर्थ- मनवसमि के० चोथा थकी अगीआरमा सुधी आठ गुणठाणा उपशमसम्यक्वीने होय. चवेागी के० चोथाथी सातमा सुधी चार गुणठाणां वेदक क्षायोपश मिक सम्यक्त्वने होय. खइएइक्कार के० कायिकसम्यक्त्वीने चोथाथी चौदमा लगें अगी र गुणा होय. मिठतिगि के० मिथ्वात्व, सास्वादन छाने मिश्र, देसे के० देशविरति, सुदुमि के० सूक्ष्मसंपराय चारित्र एटलाने सवाणं के० पोतपोताने नामे एकेक गुठाणं होय. तेरस आहारग के० आहार करे ते व्याहारकमार्गणा तेने सयोगी लगें तेर गुणवाां होय, ए सर्व पूर्वे कां. तेने निश्रनिगुण के० श्रापश्रापणे गुणठाणे प्रकृतिनो बंध हो के वें एटले कर्मस्तवें कह्यो ते लेवो. ॥ इत्य दरार्थः ॥ २० ॥ 0 Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८६ बंधस्वामित्वनामा तृतीय कर्मग्रंथ. चो, पांच, बहु ने सातमुं, ए चार गुणगणां ग्रंथिनेद करतां देश विरति सर्वविरति सहित उपशमिक सम्यक्त्व पामे, तेथी नाना जीवनी अपेक्षायें होय. तथा आठमुं, नवमुं, दशमं ने अगीयारमुं, ए चार गुणठाणां उपशमश्रेणियें होय. वली वेदक एटले क्षायोपशमिकसम्यक्त्व जाणवुं. परंतु यहीं सम्यक्त्व मोहनीय वेदे ते माटे वेदक नाम कयुं. त्यां चोथुं, पांचमुं, बहुं अने सातमुं, ए चार गुणवाणां होय, त्यांचें बंध गणाएंशी प्रकृतिनो, अविरतिये 39, देशविरतियें ६०, प्रमत्तें ६३, श्रप्रमत्तें उगणशाव, अठावन एवं तेतालीश मार्गणा द्वार थयां. कायिकसम्यक्त्व मार्गणायें चोथाथी मांगीने योगी गुणवाणासुधी श्री चार गुणगायें वें बंध गएाएंशीनो, अविरतियें 99, देशविर तियें शडराव, प्रमत्ते ६३, यप्रमत्ते २० - ५०, निवृत्ते ५०-२६, - २६ निवृत्तियें २२, इत्यादिक अहींयां विचारवा योग्य बे; जे जणी पूर्ववद्धायुमनुष्य, दायक सम्यक्त्व लहे, तेने तो आयु बांधवं नश्री, पूर्वे बांध मुक्युं बे माटे. अने अबद्धायु मनुष्य कायिकसम्यक्त्व लहे, ते तो चरमशरीरी होय तेने पण आयुबंध न होय तो पांचमे अने बडे गुणगाणे सुरायुबंधनो स्वामी कोण ? तथा कोइ कदेशे जे "पडवगोडमणुसो, निश्वगोचजसु विगइसु" ए अपेक्षायें दनायिक निष्ठापक मनुष्य अने तिर्यंच देशविरति गुणठाणे सुरायु बांधे, ते खोटुं बे. जे जणी ते तो असंख्याता वर्षायुवाला मनुष्य तिर्यंच होय तेने देश विरति गुणठाएं तिवयरत्तंसमत्तखईासत्तमाइतईथाए न होय पण हीं संतवियें ढैयें जे " इत्यादिकनी पेरें साथै संज वियें बैयें. एवं ४४. मिथ्यात्व, सास्वादन, मिश्र, ए त्रण सम्यक्त्वमार्गणामध्यें तथा चारित्रमध्यें देश विरतिचारित्राने सूक्ष्म संपराय ए वे चारित्रमार्गणा, एवं पांच मार्गणाद्वारें पोतपोताने नामे एकेक, गुणाएं होय, त्यां बंध जे प्रमाणे कर्मस्तवमध्यें कह्यो बे, ते लेवो. त्यां मिथ्यात्व मार्गणायें प्रथम गुणठाणे बंध एकसो सत्तरनो सास्वादने बंध एकसो एकनो, मिलें बंध चमोतेरनो, देश विरतियें बंध शडशनो यने सूक्ष्म संप रायमार्गणायें बंध सत्तर प्रकृतिनो लेवो. प्रकृतिनी संख्या कर्मस्तवथी लेवी. एवं ४५. 35 मिथ्यात्वथी मांगीने तेरमा सयोगी गुणवाला लगें आहारपर्याप्ति, एटले तेजस - दारिकादिक नामकर्मने उदयें जीव श्राहारी होय. तेथी आहारकमार्गणाद्वारें तेर ठाणे कर्मस्तवें जे बंध कह्यो, ते लेवो. एटले उधें एकसो वीश, मिथ्यात्वें एकसोसत्तर, सास्वादने एकसो एक ने मि चमोतेर इत्यादिक. एवं पञ्चाश. एम जे जे मार्गणाद्वारें जे जे गुणगणां जेनी साथै कह्यां, तेटलां गुणवाणांनुं तेमज कर्मस्तवमये ते जेम बंध को तेमज ते गुणठाणे बंधस्वामित्व लेबुं. एमां जेटलुं विशेष ते ते कहे. For Private Personal Use Only Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधस्वामित्वनामा तृतीय कर्मग्रंथ. ३ परमुवसमिवहंता, प्रान न बंधंति तेण प्रजयगुणे ॥ देवमा दीणो, देसाइसु पु सुराजविणा ॥ २१ ॥ अर्थ - परम के० एलुं विशेष के जे जवसमि के० श्रपशमिक सम्यक्त्वें वहंता to वर्त्तता जीव, खाज के० परजवायु नबंधंति के० न बांधे, तेण के० तेजणी श्रजयगुणे के० श्रविरतिसम्यकदृष्टि गुणठाणे देवमणु आउदीणो के० देवायु, अने मनुष्या, ए वे प्रकृति हीन करवी, अने देसाइस के० देशविरति प्रमत्त अप्रमत्त गुणापाने विषे पुण के० वली सुरार्जविषा के० एकज देवायु विना बंध कदेवो ॥ इत्यरार्थः ॥ २१ ॥ ४ पशमिक सम्यकदृष्टि जीव, एक परजवायुबंध, बीजो मरण, त्रीजो अनंतानुबंधीया कषायनो बंध तथा उदय, ए चार वानां न करे, सास्वादने करे, ते श्रायुबंध हेतुनूत अध्यवसाना नावे खोपशमसम्यक्त्वें सुरायु ने मनुष्यायु, एबे न बांधे, ने नरकायु तथा तिर्यंचायु, ए वे श्रायु तो पूर्वेज निषेध्यां बे. बाकी ए बेनो यहां संव होय ते पण निषेध्यो बे तेवारें उधें ज्ञान पांच, दर्शन ब, वेदनीय बे, मोहनीय जंगणीश, नामनी अंगणचालीश, गोत्रनी एक छाने अंतरायनी पांच, ए सत्योतेर प्रकृतिनो बंध जाणवो. तेमध्यें चारित्र प्रत्ययि श्राहारक द्विक, अविरतिसम्यकदृष्टिगुणठाणे न बंधाय, तेथी शेष पंचोतेर प्रकृति बांधे, तेमांथी बीजा प्रत्याख्यानावरण कषाय चार, चौदारिकद्विक, प्रथमसंघयण, मनुष्य द्विक, ए नव प्रकृतिनो बंध विच्छेद के पांचमे गुणगाणे बारा प्रकृतिनो बंध. अहींयां सुरायुबंध उघथी टले, तेथी यहां लीधो नहीं, तथा प्रमत्तगुणठाणे त्रीजा प्रत्याख्यानावरण कषाय चार, न बांधे, तेथी बारात प्रकृतिनो बंध श्रप्रमत्तें जाणवो, अने प्रमतें पूर्वली परें douशावनो तथा ठावननो बंध, निवृत्तिगुणठाणे अठावन्न, बप्पन ने बवीश; निवृत्ति गुणठाणे बावीश, एकवीश, वीश, अंगणीश अने अढार; सूक्ष्म संपरायें सत्तर उपशांतमोहे एक, शातावेदनीयनो बंध जाणवो. एम व गुणठाणे श्रपशमीकसम्यकूटष्टिनो बंध को. अहींथां औपशमिक छाने क्षायोपशमिक सम्यक्त्वमांडे एटलुं विशेष जे अनंतानुबंधीया चार, मिथ्यात्व मोहनीय ने मिश्रमोहनीय एनो रसोदय टले ने प्रदेशोदय ढुंते थके जे तत्वरुचि होय, ते क्षायोपशमीक सम्यक्त्व कहीयेने सात प्रकृतिना बेहु उदय टले थके औपशमिक सम्यक्त्व होय ॥ २१ ॥ एवं सर्व मी एकावन्न मार्गणा द्वारे बंधस्वामीत्व को. ५८ Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४UG बंधस्वामित्वनामा तृतीय कर्मग्रंथ. ३ ॥ हवे लेश्यामार्गणा छारें बंधस्वामित्व कहे .॥ उदे अहारसयं, आदार उगूणमा लेस तिगे॥ तं तिबोणं मिजे, साणासु सवहिं उदो ॥२२॥ अर्थ-उहे के सामान्य श्राहारगणं के श्राहारहिकऊणो करतां श्रहारसयं के एकसो ने श्रढार प्रकृतिनो बंध आश्लेसतिगे के श्रादिनी त्रण लेश्याने विषे होय. तं के ते तिलोणं के तीर्थकरनामक, हीन करीयें, तेवारें मिले के मिथ्यात्व गुणाणे एकसो ने सत्तर प्रकृति बांधे, अने साणासुसबहिं के० सास्वादनादिक आगले सर्व गुणगणे उहो के कर्मस्तवनी पेरें सामान्य बंध जाणवो. ॥ श्त्यदरार्थः ॥ २॥ प्रथम कृल, नील अने कापोत, ए त्रण अशुज लेश्यावंत जीवने उचें एटले सामान्य जीवस्थानादिक नेद विवदा कस्या विना एकसो अढार प्रकृतिनो बंध जाणवो. जे जणी आहारकशरीर तथा आहारकअंगोपांग, ए बे प्रकृतिनो बंध श्रशुन लेश्या त्रण मध्ये न होय, ए बे प्रकृतिनो बंध तो अप्रमत्तगुणगणे होय, त्यां अशुल लेश्या न होय. अशुजलेश्या तो प्रमत्तगुणगणा सुधी होय, त्यां ए बे प्रकृतिनो बंध नथी. अहीं कोइएक देवता तथा नारकीने व्यलेश्या शरीरवर्णरूप माने जे जे नणी ते कहे जे के सातमी नरकपृथवीयें सम्यक्त्व प्राप्ति कही अने त्यां कृप्सलेश्या व्यथी कही अने श्री आवश्यकमध्ये शुजलेश्यायें सम्यक्त्व प्राप्ति कही डे तेथी एम जाणीयें बैये जे अव्यलेश्या शरीररूज जाणवी अने अध्यवसाय विशेष जावलेश्या ते जावपरावर्ते उ लेश्या होय, तेथी तेने शुजलेश्या नावपरावर्ते होय, एवं कहे ते अयुक्त जे. जे जणी जो शरीरवर्णरूप अव्यलेश्या होय तो श्री जगवती सूत्रमध्ये प्रथम शतकें “नेरश्याएंजते सवे ससमवमा गोयमानोश्ण समहे नेरश्याणंनंतेसवे समलेस्सा. " ए बे सूत्र जिन्न करी कहेत नहीं तेथी अहींयां लेश्या ते काषायिक दल संबंधजन्य जीवनो अशुङ खनाव जाणवो अने जावपरावर्तिये उ लेश्या कही, तेनो ए अर्थ डे के जेम वैमुर्यमणि राते सूत्रं परोयो को रक्तरूप न थाय पण राती जेवी बाया देखाय, तेम कृमलेश्यादिकाव्य तेजोलेश्यादिक जव्यसंबंधे करी तेजोलेश्यापणे परिणमे नही पण आकार नावमात्र तथा प्रतिबिंबरूपें तेजोलेश्या सरखी देखाय, तेथी सम्यक्त्व प्राप्ति सातमी नरकें विशुद्ध नहीं पण परमार्थे ते कृष्णलेश्याज जाणवी. एम अनव्यने शुक्ललेश्या पण तेमज जाणवी. तेणे अव्यथी जाणवी, तेम अशुन लेश्यायें, मिथ्यात्वं, जिननाम बंधाय नहीं तेथी एकसो ने सत्तर प्रकृतिनो बंध मिथ्यात्वे जाणवो अने साखादनादिक पांच Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधस्वामित्वनामा तृतीय कर्मग्रंथ. ३ ४यल गुणठाणे उघ के० कर्मस्तवमध्ये जे प्रमाणे गुणवाणानो बंध कह्यो, ते यहीं पण लेवो. एटले सास्वादने एकसो ने एक, मिलें चम्मोतेर, अविरतियें सत्योतेर, देश विरतियें शमशव अने प्रमत्तें त्रेशठ प्रकृतिनो बंध जाणवो यहींथां कोई पूढे जे चोथा गुणगणाथी आगल, सुरायुबंध केम होय ? जे जणी अशुभ त्रण लेश्यामांदे सम्यदृष्टि मनुष्य, तिर्यंच, एक देवायु न बांधे. एम श्री जगवती सूत्रना एकत्री शमे शतकें वरुणातूयानो मित्र सम्यक्त्वधारी दतो पण कमलेश्या माटें देवता न थयो पण मनुष्य थयो एम कयुं छे. तथा जे लेश्यायें श्रायु बांधे ते लेश्यायेंज मरण पामे अने तेज लेश्यावंत देवोतरे तो वैमानिक देवोमध्यें अशुभलेश्या नथी, तो क्यां श्रावी उपजे ? तेथी चोथे गुणगणे बहोंतेर, पांचमे बारा, बहे बाराव प्रकृति बांधे. सुरायुबंधस्वामि तिहां न पामियें, तेजी ए वात बहुश्रुतने विचारवा योग्य बे. ॥२२॥ मां तेऊ निरय नवूणा, उको चन निरय बार विष्णु सुक्का ॥ विष्णु निरय बार पम्हा, अजिणादारा इमा मिळे ॥ २३ ॥ अर्थ - तेऊ निरयनवूणा के० तेजोलेश्यायें नरकादिक नव प्रकृतियें ऊणो, उघें एकसो ने गीर प्रकृतिनो बंध करे. उोचन के० उद्योतादिक चार ने निर array ho नरकत्रिकादिक बार, एवं शोल प्रकृति विना शेष एकसो ने चार प्र कृतिनो बंध उ सुक्का के० शुक्ललेश्यावंतने जावो. विणुनिरयबार के० नरकत्रिकादिक बार प्रकृति विना शेष एकसो ने आठ प्रकृति पन्हा के० पद्मलेश्या मार्गायें बांजिाहराइमा के० जिननाम तथा श्राहारकद्विक, ए त्रण प्रकृति वर्जीने शेष बंधप्रकृति, मिछे के० मिथ्यात्वें कहेवी. तेजोलेश्यामार्गणायें तेजोलेश्यावंत जीवने सात गुणवाणां होय, ते त्यां उधे एकसो air प्रकृतिनो बंध होय, जेजणी एकसो वीशमांहेथी नरकत्रिक, सूक्ष्मनाम, अ. पर्याप्तनाम, साधारण नाम, बेंद्रियजाति, तेंद्रियजाति, चरिंद्रियजाति, ए नव प्रकृति न बंधाय. जेजणी नारकी अने सूक्ष्म एकेंद्रिय तथा विकलेंद्रियमध्यें तेजोलेश्यावंत देवता पण ए पांचमध्ये न उपजे, अहीं नारकीमां नारकीत्रिक, तथा सूक्ष्म एकप्रियमां सूक्ष्म त्रिक, तथा विकलेंद्रियमां विकलें प्रियत्रिक, एवं नव प्रकृति विना शेष एकसो ने गीर प्रकृति उधें बंधाय शुक् लेश्यावंत जीवने उधे एकसो ने चार प्रकृतिनो बंध होय, जे जणी एकसो वीश प्रकृति मांथी उद्योतनाम, तिर्यंचगति, तिर्यचानुपूर्वी, तिर्यंचायु, ए ज्योतचतुष्क तथा नरकगति, नरकानुपूर्वी, नरकायु, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, विकलजातित्रिक, For Private Personal Use Only Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६० बंधस्वामित्वनामा तृतीय कर्मग्रंथ. ३ एकेजियजाति, थावरनाम, श्रातपनाम, ए नरकादिक बार प्रकृति. एवं शोल प्रकृति न बंधाय. जे जणी प्रायें सहस्रार देवलोकथी उपरला घणा शुक्ललेश्यावंत देवताउँने ए शोल प्रकृति न बंधाय. अहीं देवधिक तथा वैक्रियछिकनो बंध मनुष्य तिर्यंचनी अपेक्षाये लेवो. तथा लांतक, शुक्ल ने सहस्रारना देवता शुक्ल लेश्यावंत पण तिर्यंचमाहे अवतरे, तेथी तेमने उद्योत चतुष्कनो बंध पण पामीये, परंतु अहींयां विवदो नही तेथी जाणीयें बैये के श्रानंतादिकना देवनेज शुक्कलेश्या लेखववी. तेवारें ज्ञानावरणीय पांच, दर्शनावरणीय नव, वेदनीय बे, मोहनीय वीश, आयुनी बे, नामनी त्रेपन, गोत्रनी बे अने अंतरायनी पांच, एवं एकसो ने चार प्रकृतिनो बंध उचे होय. नरकत्रिक, सूक्ष्म, अपर्याप्त अने साधारण. ए सूदमत्रिक, विकलजातित्रिक,एकेंजियजाति, स्थावर अने आतप, ए बार प्रकृतिनो बंध पद्मलेश्यावंतने न होय जे जणी नारकी तथा सूदमत्रिक एकेंजियजाति अने विकलेंजियमध्ये पद्मलेश्या न होय. तेथी तत्प्रायोग्य ए बार प्रकृति अहीं न बंधाय तथा पद्मलेश्यावाला सनत्कुमारादिक देवलोकना देवता चवीने, एकेजियमध्ये न उपजे, तेथी शेष ज्ञानावरणीय पांच, दर्शनावरणीय नव, वेदनीय बे, मोहनीय बबीश, श्रायुनी त्रण, नामनी बपन्न, गोत्रनी बे अनेअंतरायनी पांच, एवं एकसो ने आठ प्रकृति उचे बांधे. तेमाहे जिननाम, थाहारकशरीर अने आहारकअंगोपांग, ए त्रण प्रकृति सम्यक्त्व चारित्र प्रत्ययिक नणी मिथ्यात्व गुणगणे न बंधाय, तेथी एकसो ने श्राप प्रकृतिमांडेथीत्रण प्रकृति टले, तेवारें एकसो ने पांच प्रकृति पद्मलेश्यावंतने मिथ्यात्वगुणगणे बंधाय. तेमांथी मिथ्यात्व प्रत्ययिक नपुंसकवेद, तिथ्यात्वमोहनीय, डैमसंस्थान, बेवहुं संघयण, ए चार प्रकृति न बंधाय, तेवारें शेष एकसो ने एक प्रकृति, सास्वादने बंधाय, अने मिङ चम्मोतेर, अविरतियें सत्योतेर, देशविरतियें शमशन, प्रमत्तें त्रेशठ अने अप्रमत्तें उंगणशाउ, अहावन्न. इत्यादिक पूर्वली परें बंधस्वामित्व लेवु. शुक्ललेश्यायें जिननाम अने श्राहारकछिक विना शेष एकसो ने एक प्रकृति मिथ्यात्वें बंधाय. ते नपुंसकादिक चज कहीने शेष सत्ताणुं प्रकृति, सास्वादने बंधाय. बीजे कर्मग्रंथें साखादन गुणगणे एकसो ने एक प्रकृतिनो बंध कह्यो जे तेमांहेथी उद्योतादिक चार प्रकृति शुक्ललेश्यावालाने उघेज न बंधाय माटे ते अहीं न लेवी, तेथी ते काढीयें, तेवारें शेष सत्ताणुं प्रकृति शुक्ललेश्यायें सास्वादन गुणगणे बंधाय, मिङ चम्मोतेर, अविरतियें सत्त्योतेर, देशविरतियें शमशठ, प्रमत्तें वेशठ, अप्रमत्तें उगणशाउ, अमावन्न अनिवृत्तियें अहावन्न, बपन्न, बबीश; निवृतियें बावीश, एकवीश, Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधस्वामित्वनामा तृतीय कर्मग्रंथ. ३ ४६१ वीश, उंगणीश, श्रढार; सूक्ष्मसंपरायें सत्तर; उपशांत मोहें एकनो बंध जाणवो. एवं सत्तावन मार्गणा छारें बंधस्वामित्व कह्यु.॥२३॥ सब गुण नवसन्निसु, उह अनवा असन्नि मिनिसमा । सासणि असन्नि सन्निव, कम्मणनंगो अणाहारे ॥२४॥ श्रर्थ-नवसन्निसु के जव्य अने संज्ञी, ए बे मार्गणाने विषे सवगुण के० सर्वे गुणगणां होय. त्यां प्रकृतिनो बंध, उहु के० उघनी पेरें कहेवो, अने बजबाथसन्नि के अजव्यमार्गणायें अने असंझिमार्गणायें तो मिछिसमा के० मिथ्यात्वगुणगणा सरखा बंध कहेवा, अने सासणि के० सास्वादने असन्नि के असंझी ने सन्निव के० संझीनी पेरें बंध कहेवो, तथा अणाहारे के० अणाहारीने विषे कम्मणनंगो के. कार्मणकाययोगीनो नांगो कहेवो. ॥ इत्यदरार्थः ॥२४॥ हवे पारिणामिकनाव निष्पन्न जव्याजव्य मार्गणामध्ये जव्यमार्गणायें तथा दायोपशमिकनाव निष्पन्न मनोविज्ञानवंत ते संझी जीव, तेनुं बंधस्वामित्व कहे . नव्यजीवमध्ये तथा संज्ञीया जीवमध्ये सर्वे चौदे गुणगणां पामीये. त्यां बंधस्वामित्व उघ के बीजा कर्मग्रंथे जेम कडं तेमज लेवं. एटले उचे एकसो विश, मिथ्यात्वे एकसो सत्तर, साखादने एकसो ने एक, मिधे चम्मोतेर, श्रविरतियें सत्त्योतेर, देशविर तियें शडशठ, प्रमत्तें त्रेशठ, अप्रमत्ते उंगणशाठ, अहावन; निवृत्तियें श्रावन्न, बपन्न, बबीश, अनिवृत्तियें बावीश, एकवीश, वीश, जंगणीश ने अढार; सूझसंपरायें सत्तर, उपशांतमोहें एक, कोणमोहें एक, सयोगीयें एक अने अयोगी अबंधक, अहींयां अव्यमनने संबंधे संझी लेवो, अन्यथा बार गुणाणां लाने. सिद्धांतमाहे केवलीने नावमन नथी तेमाटे नोसंझी, नोअसंझी, कह्या बे, ते अभिप्रायें तो संझीने बार गुणगणां घटे, पण अहिंयां केवलीने ऽव्यमन डे ते विवक्षायें संझी कह्यो. अनव्यजीवने तथा मनोविज्ञानरहित असंझीश्रा जीवने सम्यक्त्व चारित्र न होय. तेथी तत्प्रत्ययिक जिननाम तथा आहारकटिक, ए त्रण प्रकृति न बंधाय. बाकी एकसो सत्तर प्रकृतिनो बंध, उपें तथा मिथ्यात्वे होय. ते मांहे अजव्यने एकज मिथ्यात्व गुणगणुं होय, बीजां गुणगणों न होय, अने श्रसन्निया एकेंजियथी मांगी पंचेंजियतिर्यंच पर्यंत तिर्यंचमध्ये सम्यक्त्व वमतां थकां एवा पण कोइ जीव अवतरे, तेथी तेमां अपर्याप्तावस्थायें सास्वादनपणुं पण पामी, तेथी असन्नीयाने सास्वादनगुणगणे सन्नीबानी पेरें सास्वादननो बंध कहेवो. एटले एकसो ने एक प्रकृतिनो बंध कहेवो, पण अही विचारवा योग्य . जे जणी श्रसन्नीयाने अपर्याप्तावस्थायें काभण तथा औदारिक मिश्रयोग होय, ते योगमध्ये तो सास्वादनापगणे ब्वें Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२ बंधस्वामित्वनामा तृतीय कर्मग्रंथ. ३ तथा चोराणुं प्रकृतिनो बंध कहेवो. सुरत्रिक, तथा वैक्रियहिक, ए पांच प्रकृतिनो बंधस्वामी कोण योगमध्ये पामीयें ? जे जणी पंचसंग्रहमध्ये कडं , जे शरीरपर्याप्ति पूरी कन्या विना पहेलु सास्वादनपणुं टले, तो नरायु अने तिर्यगायुनो बंध पण केम बंधाय ? तेथी जाणीय बैये जे शरीरपर्याति पूरी कस्या पड़ी औदारिकयोग मानतां तथा त्यां सुधी सास्वादनगुण रहे , एवं मानतां ए वात घटे , पण ए दीर्घदृष्टियें करी बहुश्रुतें विचार. - तथा श्रणाहारक जीवने गुणगणां पांच होय. एक मिथ्यात्व, बीजं सास्वादन, त्रीजुं अविरतिसम्यक्दृष्टि, चोथु सयोगीकेवली अने पांचमुंअयोगी केवली, ए पांच बे, तेमध्ये जीव, विग्रहगति करे त्यां वचला एक, बे, त्रण समय लगें औदारिक शरीर संबंधने अजावें अणाहारी होय, ते अपेक्षायें पहेढुं, बीजें अने चोथु, ए त्रण गुणगणां संजवे, तथा केवली समुद्घात करे, त्यां त्रीजे, चोथे तथा पांचमे, ए त्रण समय अणाहारी होय, ते अपेक्षायें सयोगीगुणगणुं लीधुं.ए चार योगें कामणयोगर्नु बंधस्वामित्व ले. जे नणी एकसो वीश मध्ये आहारकछिक, देवायु अने नरकत्रिक, ए । प्रकृतिनो बंध न होय, तथा नरायु अने तिर्यगायुनो पण बंध न होय; शेष एकसो ने बार प्रकृतिनो बंध उचे बंधाय, तेमांथी जिननाम, सुरछिक, वैक्रियधिक, ए पांच काढीये, तेवारें मिथ्यात्वे एकसो ने सात बंधाय, तेमांथी सूक्ष्म त्रिक, विकलत्रिक, एकेंजियजाति, स्थावरनाम, श्रातपनाम, नपुंसकवेद, मिथ्यात्वमोहनीय, हुंडसंस्थान, बेवहुं संघयण, ए तेर प्रकृति मिथ्यात्व विना न बंधाय, तेथी सास्वादने चोराणुं प्रकृति बंधाय. तेमांथी अनंतानुबंध्यादिक चोवीश प्रकृति काढीये, तेवारें सीत्तेर होय, अने जिनपंचक अहीं बंधाय, ते नेली, तेवारें चोथे गुणगणे पंचोतेर प्रकृतिनो बंध जाणवो, अने सयोगीगुणगणे एक शातावेदनीयनो बंध होय, एम कार्मणयोगनी पेरे चार गुणगणे बंध होय, अने चौदमे गुणगणे प्रबंधक होय. ए श्रणाहारमार्गणानुं बंधस्वामित्व कह्यु.॥२४॥ तिसु उसु सुकाइ गुणा, चन सग तेरत्ति बंधसामित्तं ॥ देविंदसूरिरश्रं, नेयं कम्मबयं सोऊं ॥५॥ इति बंधस्वामित्वाख्यस्तृतीयः कर्मग्रंथः॥३॥ - अर्थ-तिसु के कृप्लादि त्रण लेश्याने विषेचन के चार गुणगणां होय, उसु के० तेजो ने पद्म, ए बे लेश्याने विषे सग के सात गुणगणां होय, सुक्काश्गुणा के शुक्ललेश्याने विषे गुणगणां तेरत्ति के तेर होय. इति बंधसामित्तं के बंधस्वामित्वपj कडं. देविंदसू रिरश्शं लहिरं के० जहारक श्रीदेवें सुरियें रच्यु अथवा लख्यु. नेयंक Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधस्वामित्वनामा तृतीय कर्मग्रंथ. ३ ४६३ म्मबयंसो के जाणवा निमित्तें बंधस्वामित्वने कर्मस्तव सांजलीने चित्तमांधारवो.२५ ___कृक्ष, नील, अने कापोत, ए त्रण लेश्यायें मिथ्यात्वश्री मांगी चोथा गुणगणां पर्यंत चार गुणगणां होय, अने तेजोलेश्यायें तथ पद्मलेश्यायें मिथ्यात्वथी अप्रमत्त लगें सात गुणगणां होय तथा शुक्कलेश्यावंतने मिथ्यात्वादिक तेर गुणगणां लाने. लेश्या ते योग प्रवृत्तिरूप दे, माटे ते योगने अनावें न होय, तेथी अयोगी केवली लेश्यारहित अलेशी जाणवा; तेथी शेष तेर गुणगणां होय, त्यां उचे लेश्यायें एकसो श्रढार प्रकृति बंधाय, श्रने प्रथम त्रण लेश्यायें मिथ्यात्वे एकसो अढार, सास्वादने एकसो एक, मिझें चम्मोतेर, अविर तियें सत्योत्तर, एम चार गुणगणानुं बंधस्वामित्व का. अहींयां षडशीतिकामध्ये प्रथमनी त्रण लेश्यायें प्रथमनां गुणगणां कह्यां, तेथी ते मते उ गुणगणांनुं बंधस्वामित्व कहेवू, ए त्रण लेश्यामध्ये प्रथम चार गुणगणांनी प्राप्ति होय, ए अपेक्षाये कडं अने देशविरति तथा सर्व विरतिनी प्राप्ति न होय, पण ए बे विरतिपणां पाम्या पली ए त्रण लेश्या जो श्रावे, तो विरतिनो जंग न होय. ते अपेक्षायें त्यां गुणगाणां कहां. अने पद्म शुक्कादिक लेश्यानो अर्थ सुगम , तेथी गुणगणां माफक बंध कहेवो. ए रीतें पूर्वली सत्तावन्नमांहे नव्यानव्य, संझी, असंझी अने अनाहारक, ए पांच छार मेलवतां सर्व मली बाशठ मार्गणाधारें बंधस्वामित्व कयु, एम बंधस्वामित्व जाणवू. ते परमगुरु गछाधिराज जहारकश्रीश्रीजगच्चंसूरीश्वर तत्पद्यालंकारश्रीश्रीदेवेंसूरीश्वरें घणा संदिप्तरुचि जव्य जीवना उपकारने अर्थे श्रीपंचसंग्रह कर्मप्रकृत्यादिक प्राचीनग्रंथने अनुसार थोडे अकरें घणो अर्थावजास थाय, तेवी रीतें लख्यो. ते बीजो पोतानो करेलो जे कर्मस्तव, तेमध्ये जे उघं बंधवामित्वपणुं कडं, ते धारीने वहीं पण ज्यां जेटली प्रकृतिनुं बंधवामित्व घटे, त्यां तेटली प्रकृतिनुं बंधस्वामित्व जाणी लेवू, तथा पूबनारने सावधानपणे कदेवू. जेम जिनवचन पूषाय नहीं तेम कहेवु.२५ ॥ श्लोक ॥ ॥ बंधस्वामित्वेऽस्मिन् टबार्थलिखनाद्यदर्जितं सुकृतं ॥ तेनास्तु कर्मबंधानधिकारीनव्यसंदोहः ॥ १॥ तृतीयज्ञानशुझान्तुष्टानातिकृते कृतीन् ॥ एतत्रयग्रंथाथान् यशः सोममुखावृणु ॥२॥ अष्टादश द्वादशक घनश्रलिखत् स्वकालिखेत् ॥ लिखेस्वकवेखा, ऊयसोमसुधारिमामुक्तिम् ॥३॥ अर्थ- बारने बार गुणा करीयें, तेवारें एकसो ने चुम्मालीश थाय. तेने फरी बार गुणा करीयें, तेवारें एक हजार सातसो ने अहावीश थाय, तेमांथी बार काढीयें, तेवारें सत्तरसो ने शोल (१७१६) रहे, ते वर्षे आ ग्रंथनो बालावबोध कस्यो बे. Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ मार्गणा. नरकगतौ. प्रजादि. ३ पंकप्रजादि. ३ तमतमप्रजा. तिर्यचपर्याप्त. · तिर्यच पर्याप्त. मनुष्यपया. मनुष्य पर्याप्त. देवगति. नवनव्यंतरज्योतिष्य. सौधर्म ईशान. सनत्कुमारादि ६ अनंतादि ४ नवग्रैवेयक अनुत्तर विमान एक चोथुं गुणठाणं. एकें प्रिय. बेंद्रिय . प्रिय. चौरिंडिये. पंचिद्रिय. पृथ्वी काय. झापूकाय. ते काय. वाडकाय. वनस्पतिकाय. त्रसकाय. मनोयोग. ४ वचनयोग. ४ बंधस्वामित्वनामा तृतीय कर्मग्रथं. ३ गुण उघ १ २ १४ बंध ४ १०१ १०० ९६७०७२ ४१०११०० ए६ ७०७१ ४ १०० १०० ९६५० ७१ ४५ए६ ११० १० ५११७११७१०१६७७०६६ ११००१० ३ ४ ५ ६ ७ ८ ९ १० ११ १२ १३ १४ १४ १२० ११७ १०१६७१ ६५ ६३ ५० ९८२२१७ १ १ १ ११०१० ४१०४ १०३ ६ १० ७२ ४ १०३ १०३ ४ १०४ १०३ ४१०१ १०० ४६२५० ७२ ए६ ७० ७१ ६ १०७२ ६ १० ७२ १ ७२ १७२ १०८१०२५ २ १० १० २१००१० २१०१०० १४ १२० ११७१०१७४७७ ६५ ६३ ५० ५०२२ १७ १ १ १ २१००१००१४ २१०० १०० १४ १ १०५१०५ ११०५१०५ २ १० १० ११ १४ १२० ११७ १०१७४७७६७ ६३ ५०९८२२१७ १ १ १ १३ १२० ११७ १०१ ७४ ७७६५ ६३ ५० ५८ २२१७ | १३ | १२० ११७ १०१ ७४ ७७६७६३ ५० ५८ २२१७ For Private Personal Use Only १ १ १ १ १ १ Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधस्वामित्वनामा तृतीय कर्मग्रंथ. ३ ४६५ मार्गणा. गुण घ. २४. बंध १ २ ३ ४ ५ ६ ७0 ए १० ११ १२ १३ १४ . औदारिककाय योग. औदारिकमिश्रकाय योग. चैक्रियकाय योग. वैक्रियमिश्रकाय योग. आहारककाय योग. आहारकमिश्रकाय योग. कामेणकाय योग. १३१२०११७१०१७४७७६७६३ ५५० २२१७ १ १ १ ४११४१ए ए४५ ४१०४१०३ ए६७०७२ ३.१०२१०१ ए। ന് Gra ന ४११२१०७ एप र वेद. पुरुषवेद. नपुंसकवेद. ए१२०११७१०१७४७७६७६३/एएए०२२ ए१२०१९७११४७६७६३/५७५७२२ ए१२०११७११७६७६३५५५०२२ _til at la salt it अनंतानुबंधी. अप्रत्याख्यानावरण. प्रत्याख्यानादरण. संज्वलन ३. संज्वलनलोन. २११७११७१०१ ४११०११७१०१ ७४/७७ ५११०११७१०१७४/७७६७ ए१२०११७१०१/७४/७७६७६३५एए०२२ १०१२०११७१०१७४/७७६७६३५एए०२२१७ V gu Ugu ए ७६७६३५५५७ २२१७ १ १ १७६७६३ एएएण२२१७ ११ ७७६७६३५एए २२१७ १ १ ६३ ५५५७२२१७ ११) मतिझानी. श्रुतझानी. अवधिज्ञानी. मनःपर्यवज्ञानी. केवलझानी. मतिअज्ञानी. श्रुतमझान. विनंगअज्ञान. ¤ ¤ ३११७११७१०१७४ १०१७४ ३११० ११७१०१७ ४ ६५ २६५ ६३५एए०२२ ६३५५ ५७२२ । ६३५ सामायिकचारित्र. वेदोपस्थापनीयचारित्र. परिहारविशुद्धि चारित्र. सूक्ष्मसंपरायचारित्र. यथाख्यातचारित्र. देशविरतिचारित्र. । Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६६ बंधस्वामित्वनामा तृतीय कर्मग्रंथ. ३ गुण उघ मार्गणा १ २ ३ ४ ५ ६ ७ ए १०१११२१३१५ १४ बंध असंजत. ४११७११७१०१७४७७ चकुदर्शन अचतुदर्शन. अवधिदर्शन. केवलदर्शन. १२१२०११७१०१७४७७६७६३एएए७२२/१७ ११ १२१२० ११७१०१७४७७ एएए०२२१७ ११ एए एए५७२२१७ १ १ कृमलेश्या. नीललेश्या. कापोतलेश्या. तेजोलेश्या. पद्मलेश्या. शुक्कलेश्या. ४११७११७१०१ ७४/७७ ४११७११७१०१ ७४७७ ४११०११७१०१७ ७११११००१०१७ ७११११० ०७१०१७४७७६७६३५॥ ६३५ १३१०४१०१ ए७७४ ६३५५५७२२१७ १११ ه ६३५ए जव्य. अजव्य. १४१२० ११७१०१७४७७६७६३/एएए७२२१७१११ १११७११७ ७५६६६२५०५०२२१७ १ नपशमिक. सास्वादन. झायोपशमिक. झायिक. ४ खए ७७६७६३५ ७७६७६३५५०२२१७ १ ४ मिश्र. १४ १११७११७ मिथ्यात्व. संझी. असंही. १४१२० ११७/१०१ ७४७७६७६३५५५७ २२१७ १ १ १ २११७११७१०१ आहारी. अणाहारी. १३१२०११७१०१७४७७६७६३ एएएन२२१७१११ ५११२१०७ ए४७ Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधस्वामित्वनामा चतुर्थ कर्मग्रंथ. ४ ॥ अथ ॥ बालावबोधसहित षडशीतिकाख्य चतुर्थकर्मग्रंथः प्रारभ्यते ॥ ॥ तत्र ॥ || दो बालावबोधकारप्रणीत मंगलाचरणम् ॥ ॥ श्रर्यावृत्तम् ॥ प्रणिधाय परं तेजो, जीव गुणमार्गणाचलितरूपम् ॥ षडशीतिके बार्थ, लिखाम्यहं मुग्धबोधाय ॥ १ ॥ ॥ मूल गाथा ॥ नमि जिणं जिया मग्गण, गुणवाणु वर्जग जोग लेसार्द्धं ॥ बंध प्पबहु जावे, संखिजाइ किमवि बुद्धं ॥ १ ॥ अर्थ-मित्र जिणं के० नमिने जिन प्रत्यें एक जिा के० जीवस्थानक, बीजुं मग्गण के० मार्गणा द्वार, त्रीजुं गुणवाण के० गुणस्थानक, चोथुं जवर्जंग के० उपयोग, पांचमुंजोग के० योग द्वार, बहुं लेसा के० लेश्या द्वार, सातमुं बंध के० बंध द्वार, यामुं बहू के पबहुत्व द्वार, नवमुं जावे के० नाव द्वार, दशमं संखिजाइ के० संख्यातादिक एटले संख्याता ११ असंख्याता १२ अनंतानो विचार, किम विवुखं ० कांइक कही. ॥ ४६७ जिन श्रीवीतराग देवप्रत्यें नमस्कार करीने १ चौद जीवस्थानकें विचार, २ मार्गपास्थान विचार, ३ गुणवाणानो विचार, ४ उपयोग एटले जीवलक्षणभेद, तेनो विचार, ५ योग एटले करणवीर्य ते मनवचनादिक जाणवा, तेनो विचार, ६ लेश्या एटले द्रव्यकषायसाथै जीवनो परिणाम विशेष, जेम नीला पीलादिक द्रव्यसंबंधें स्फटिकनुं रूप नीलु पीलु कहेवाय, तेम कषायादिक संबंधें जीवनो जे अशुद्ध शुद्धखनाव, ते कमलेश्यादिक कहेवाय, तेनो विचार, 9 बंधहेतु जे मिथ्यात्वादिक सत्तावन, तेनो विचार, पबहुत्व एटले कोण कोणथी अल्प अने घणा, तेनो विचार, ए नाव एटले उपशमादिक पांच तथा ब, तेनो विचार, १० संख्यातादिक एटले संख्याता नव आदि शब्दकी श्रसंख्याता नव ने अनंता नव, तेनो विचार, ए दश द्वार. ए दश द्वारें कांइक थोमोएक अर्थ विचार कही. एटले मंदमति जीवने बोध थवा मा कही. ॥ १ ॥ For Private Personal Use Only Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ មនុច बंधस्वामित्वनामा चतुर्थ कर्मग्रथं. ४ हवे उक्तमार्गणादिक, सहु जीवने होय, ते जणी त्यां प्रथम जीवनेदें प्रतिहार कहेवाने अर्थे गाथा कहे . नमिअ जिणं वत्तवा, चनदस जिअगणएसु गुणग णा॥ जोगुवउंगो लेसा, बंधोद दीरणा सत्ता ॥२॥ पागंतरं ॥ चनदस जिअगणेसु, चन्दस गुणगणगाणि जोगाय ॥ नवउंग वेस बंधो, दउंदीरण संत अपए ॥२॥ अर्थ-नमिअजिणं के जिनने नमस्कार करीने वत्तवा के वक्तव्या एटले ए बोल कहेवा. चन्दसजिगणएमु के० चौद जीवस्थानकनेविषे गुणगणा के एक गुणगणां, जोग के बीजायोग, नवगो केन्त्रीजा उपयोग, खेसा के चोथी वेश्या, बंध के पांचमो मूलप्रकृतिनो बंध,नद के बहो उदय, दीरणा के सातमी उदी रणा, सत्ता के श्रापमी सत्ता, ए आठ घार कहीशुं ॥इति समुच्चयार्थः ॥२॥ - हवे पागंतर गाथानो अर्थ कहेजे. चउदस जियगणेसु के दश अव्यप्राण अने ज्ञानादिक नावप्राणने धरे, तेने जीव कहीये, ते जीवना चौद नेदने विषे गुणगणादि आठ प्रतिछारनो विचार कहीशुं. ते आठ प्रतिहारनां नाम कहे . प्रथम चउदसगुणगणगाणि के० मिथ्यात्वादिक चौद गुणगणां माहेलां कयां गुणगणां कया जीवस्थानकें होय ? ए प्रथम प्रतिहार. बीजो अर्थ, गुण जे ज्ञानादिक तेनी शुद्धि अविशुछिनां गम, अध्यवसाय विशेष ते कहीशु. बीजो जोगाय के मन, वचन अने काया संबंध जन्य जीव, एटले जे प्रदेशनुं चलाचलकरणवीर्य ते योग कहीये, ते कया जीव स्थानकें केटला योग होय ? ते कहीशु. ए बीजुं प्रतिहार, त्रीजें जवढंग के उपयोग जे जीवन बोधस्वरूप, ते कया जीवस्थानकें केटला होय, एत्रीजु प्रतिहार. चोथु लेस के० कृक्षादिक वेश्या मांहेली कया जीवस्थानकें केटली होय? ते चोडुं प्रतिहार. पांचमुं बंध के कया जीवने केटलां बंधस्थानक होय? ते पांचमुं प्रतिधार. बहुं उद के कया जीवस्थानकें केटलां उदयस्थानक होय? ते बहुं प्रतिहार. सातमुं दीरण के कया जीवस्थानकें कयां कयां उदीरणास्थानक होय ? ते सातमुं प्रतिद्वार. आठमुं संत के कया जीवने कया मूल पाठ कर्ममांदेला केटला केटला कर्मनी सत्ता होय ? ते श्रावमुं प्रतिहार. अहपण के ए श्राप प्रतिहार चौद जीव नेदछारें विवरशु.॥इति समुच्चयार्थः॥२॥ Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधस्वामित्वनामा चतुर्थ कर्मग्रंथ.४ ४६ए एमज ए जीवनेदगति इंडियादिक ने करी जिन्न करतां चतुर्विध पंचविधादिक होय, तेनी मार्गणा विचारणानां मूल द्वार चौद , तेने विषे न प्रतिधार कहे . ॥ तह मूल चनद मग्गण, गणेसु बासहि उत्तरेसु च ॥ जिअ गुणजोगु वऊंगा, लेस प्पबहुं च उहाणा ॥३॥ पागंतरं ॥ चनदस मग्गणगणेसु, मूलयएसु बिसहि इ अरेसु ॥ जिअगुणजोगुवउंगा, लेसप्पबहुत्तउत्तहाणा ॥ ३ ॥ अर्थ-तह के तेमज वली मूलचउदमग्गणगणेसु के मूल चौद मार्गणास्थानकने विषे अने वासहिउत्तरेसुच के उत्तर बाशठ मार्गणा स्थानने विषे जिअ के एक जीवनेद, गुण के बीजां गुणगणां, जोग के त्रीजा योग, उवजेगा के चोथा उपयोग, लेस के पांचमी लेश्या, अप्पबहुंच के बहुं अल्पबहुत्व, बहाणा के ए बस्थानक कहीशु.॥३॥ हवे पागंतर गाथानो अर्थ कहेडे. मूलपएसु के० मूलपदें, चउदसमग्गणगणेसु के गति, इंडियादिक मूल चौद मार्गणानां स्थान तेने विषे तथा बिसहिअरेसु के० गत्यादिक मूलमार्गणाना अवांतर नेद बाशठ, जेम गतिचार, इंजिय पांच, इत्यादिकनां नाम आगल ग्रंथकर्ता पोतेंज कहेशे. तेथी अहींयां नथी लख्यां, ते कर का मार्गणायें केटला केटला जिथ के जीवनेद होय ? ते कहेवानुं प्रथम हार, तथा गुण के कश् क मार्गणायें केटलां केटलां गुणगणां होय ? ते कहेवानुं बीजुं हार, तथा जोग के कर कर मार्गणायें केटला योग होय ? ते कहेवानुं त्रीजुं हार, तथा उवजेगा के कर कर मार्गणायें केटला केटला उपयोग होय ? ते कहेवार्नु चोथु छार, तथा लेस के कश कर मार्गणायें केटली केटली लेश्या होय ? ते कहेवानुं पांचमु छार, तथा अप्पबहुत्त के सहु मार्गणायें कोण अल्प, कोण बहु ? ए कहेवानुं हुं छार, हाणा के ए ब विचारस्थानक बाशठ मार्गणायें विवरी कहीशुं॥ इति समुच्चयार्थः ॥३॥ ॥हवे ए मार्गणाहार स्थितजीव गुणगणी होय, तेथी गुणगणाधारें प्रति दश हार कहेशे, ते कहे . ॥ चन्दस गुणेसु जिअजो, गु वढंग लेसाय बंधहेकय ॥ बंधाश्श चन अप्पा, बहुं च तो नाव संखाई ॥४॥ पागंतरं ॥ चनदस गुणगणेसु, जिअ जोगुवांग लेस्स बं. धाय ॥ बंधुदयु दीरणा, संतप्प बहुत्त दसहाणा ॥४॥ Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० बंधस्वामित्वनामा चतुर्थ कर्मग्रंथ. ४ अर्थ-चलदसगुणेसु के वली चौद गुणगणाने विषे जिथ के० १ जीवना नेद, जोग के०२ योग, उवउंग के०३ उपयोग, खेसाय के० ४ लेश्या, बंधहेऊय के० ५ बंधहेतु,बंधाश्यचड के बंधादि चार,एटले बंध, उदय, उदीरणा अने सत्ता,एवं नव. अप्पाबहुंच के० १० एनुं थल्पबहुत्व तो के तेवार पली नावसंखाई के० ११ नाव अने १५ संख्यातादिकनो विचार कहीशु,एत्रण छारें करी तथा त्रण प्रक्षेप गाथा अने त्रण पागंतर गाथायें करी जे द्वार कह्यां, ते अनुक्रमें कहेशे. ॥ इति समुच्चयार्थः ॥४॥ हवे पागंतर गाथानो अर्थ कहे . चउदसगुणगणेसु के० जो पण जीवना असंख्याता अध्यवसायस्थानकन्नेदें असंख्य गुणस्थानक होय बे, तो पण स्थूल व्यवहारें चौद गुणगणां कह्यां ते चौद गुणगणाने विषे जिथ के कया कया गुणगणे केटला जीवनेद पामीयें? ते कहेवानुं प्रथम हार, जोग के कया कया गुणगणे केटलायोग पामीये? ते कडेवानुं वीजें हार, उवउंग के कया गुणवाणे केटला उपयोग पामीयें ? ते कहेवानुं त्री घार, तथा लेस्स के कया गुणगणे केटली लेश्या पामीयें? ते कहेवानुं चोथु घार, बंधाय के कया गुणगणे केटला मिथ्यात्वादि बंधहेतु पामियें? ते कहेवानुं पांचमुं घार, तथा बंध के कया गुणाणे केटला कर्मना बंधस्थानक पामीयें ? ते कडेवानुं बहुंछार, तथा उदय के कया गुणगाणे केटला कर्मनां जदयस्थानक पामीये? ते कहेवा, सातमुंहार, तथा उदीरणा के कया गुणगणे केटला कर्मनी उदीरणानां स्थानक पामीयें ? ते कहेवानुं श्रापमुं छार, तथा संत के कया गुणगणे केटला कर्मनी सत्ता पामीयें ? ते कहेवानुं नवमुं द्वार, तथा अप्पबहुत्त के चौदें गुणगणे वर्त्तता जीवोनुं अल्पबहुत्व कहेवानुं दशमुं हार, दसहाणा के० ए दश स्थानक एटले दश वोलनो विचार चौद गुणगणे विवरीशं. ॥४॥ हवे प्रथम जीवना चौद नेद जाएया विना मार्गणास्थान गुणस्थानादिक नेद जाएया न जाय, जे नंणी मार्गणादिक नेदें जीवतत्वन विचारवं, तेनणी स्थूलव्यवहारनयें जीवना चौद नेद बे, ते कहे . दार गाहा ॥ अथ जीवस्थानान्याद ॥ इद सुहुम बायरेगिं, दि बि ति चन असन्नि सन्नि पंचिंदी ॥ अपजत्ता पजत्ता, कम्मेण चनदस जिहाणा ॥५॥ अर्थ-इह के० था जगत्माहे आवी रीतें विचारतां जीवना चौद नेद थाय. १ सुहम के सूक्ष्मनामकर्मना उदयथी सूक्ष्म शरीरधारी, सर्वलोकमांहे व्यापी रह्या एवां जे पृथ्वी, पाणी, तेज, वायु अने वनस्पति. ए पांच जातिना जीव व्यवहार अयोग्य Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधस्वामित्वनामा चतुर्थ कर्मग्रंथ. ४ ४७१ पांच यावर ते प्रथम सूक्ष्म एकेंद्रिय कहीयें, छाने बायरेगिंदि के बादरनामना उदयथी बादर व्यवहारयोग्यशरीरधारी पांच थावर, ते बीजा बादर एकेंद्रिय कहीयें. बि के० त्रीजा जे स्पर्शन ने रसन ए बेंडियने धारे, ते बेंद्रियसंख्या दिकने कही यें, ति के० चोथा स्पर्शन, रसन अने घ्राण, ए त्रण इंडिय बे जेने ते तेंद्रिय कही थें, च के० पांचमा स्पर्शन, रसन, घाण अने चतु, ए चार इंद्रियने जे धारे, तेने चौरिंडिय कहीयें. सन्नि के बडा पांचेंद्रिय पूर्ण होय, पण बहुं मन न होय, तेने सन्निधा पंचेंद्रिय संमुहिम, मनुष्य, तिर्यंच जीव कहीयें, ने सातमा सन्निपंचिंदी के० जेने मन सहित पंचेंद्रिय होय, ते सन्निया पंचेंद्रिय गर्भज मनुष्य, तिर्यंच तथा उपपातिक देव, नारकी जीव जाणवा. ए सात नेद अपजत्ता के० अपर्याप्ता. तेमज सात नेद पत्ता के० पर्याप्ता. एवा कम्मेण के० अनुक्रमें ए पर्याप्ताऽपर्याप्ता थश्ने चउदस जि - हा के० चौद जीवनां स्थानक एटले नेद, सर्व संसारी जीवना होय. ॥ इति॥५॥ त्यां एकेंद्रियने १ आहार, २ शरीर, ३ इंद्रिय, ४ श्वासोश्वास, ए चार पर्याप्त पहेले समयें करवा मांडे. ते ज्यां सुधी पूरी न थाय, त्यां सुधी अपर्याप्ता कदीयें, ते चारे पूरी करया पढी पार्याता कहीयें. एम बेंद्रिय, तेंद्रिय, चौरिंद्रिय छाने अस न्निर्ड पंचेंद्रिय, ए चार जातिना जीव, आहार, शरीर, इंद्रिय, श्वासोश्वास अने जाषा, ए पांच पर्यासि साथै खारंजे, ते ज्यां सुधी पूरी न करे त्यां सुधी ते चारने अपर्याप्ता कहीयें, ने पांचे पर्याप्ति पूरी करया पढी पर्याप्ता कहीयें. तेमज ए पांच पर्याप्त आरंजी, पूरी नथी करता त्यां सुधी सन्निया पंचेंद्रिय अपर्याप्ता कहीयें, अने एब पर्याप्ति पूरी करया पछी पर्याप्ता कहीं यें. दवे ते पर्याप्ता वली बेंदें बे. एक तो यारंजी पर्याप्ति पूरी करया विना मरे ते लब्धि अपर्याप्ता कहीयें. छाने ज्यां सुधी पर्याप्ति पूरी नयी करी, त्यां सुधी तेने करण अपर्याप्ता कहीये. मांदे पण प्रथमनी त्रण पर्याप्ति पूरी करया विना कोइ जीव मरे नहीं. कारण श्राहारपर्याप्ति, शरीरपर्याप्ति ने इंद्रियपर्याप्ति पूरी करया विना तो परजवनुं यु पण न बंधाय, तो ते आयु बांध्या विना क्यां जई उपजे ? तेमाटे ए त्रण नियतपर्यात हीं अपर्याप्तकरण विवक्षायें जाणवी. एम चौद जेद जीवना कह्या. ए जे चौद द जीवना कह्या ते गुणठाणा विना न होय, जे जणी ज्ञानादिक गुना वृद्धिहानीनेदें गुणवाणाभेद कहेवाय, अने ज्ञानादिक गुणशून्य आत्मा होय तो द्रव्य न कहेवाय, तेमाटे जे गुणनो आश्रय ते द्रव्य कहीयें ॥ इति समुच्चयार्थः ते ज्ञानादिगुण ज्यां परम एटले उत्कृष्ट हीणा पामीयें ते मिथ्यात्व गुणठाएं जाणवुं. एम चढते चढते गुणठाणे चौद गुणठाणावर्त्ति सर्वजीवनेदें गुणवाणां कही यें ढैयें. ॥ Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७३ बंधस्वामित्वनामा चतुर्थ कर्मग्रंथ. ४ ॥ श्रथ जीवस्थानेषु गुणस्थानान्याह ॥ बायर असन्नि विगले, अपजि पढम बिअ सन्नि अपजत्ते ॥ अजय जुअ सन्निपऊ, सवगुणा मिबसेसेसु ॥६॥ अर्थ-बायर के बादरएकैप्रिय, असन्नि के० असं झिपंचेंजिय, विगले के० विकलें. जिय त्रण, अपति के ए पांच अपर्याप्ताने पढमबिश्र के पहेलुं अने बीजुं गुणगणुं होय, अने सन्निअपजत्ते के सन्निया पंचेंजिय अपर्याप्ताने अजयजुश्र के अविरतिगुणगणा सहित त्रण गुणगणां होय, अने सन्निपङो के सन्निपंचेंजियपर्याप्ताने सबगुणा के० सर्वगुणगणां होय, तथा सेसेसु के शेष सर्व जीवने मित्र के मिथ्यात्वगुणगणुं जाणवू ॥ इति समुच्चयार्थः ॥६॥ ___ बादर, एकेप्रिय, पृथ्वी, अपने प्रत्येक वनस्पतिमाहे तथा बीजा असन्निया पंचेंजिय तिर्यंच तथा विकलेंजिय, ते बेंजिय, तेंघिय, अने चौरिंजिय, ए पांच अपर्याप्त जीवन्नेदें पहेलुं मिथ्यात्व अने बीजु सास्वादन ए बे गुणगणां होय. तेमाहे पण सास्वादन गुणगणुं करणअपर्याप्तानेज होय, अने पहेलुं गुणगणुं लब्धियपर्याप्ता तथा करणअपर्याप्ता ए बेहुने होय. जे जणी सम्यक्त्ववमतो जीव, ए पूर्वोक्त ए पांच करण अपर्याप्तामांहेज अवतरे पण लब्धिअपर्याप्ता पांचमध्ये न अवतरे, तेथी तेमांहे सास्वादनपणुं न संनवीयें. तथा बादर अपर्याप्त तेज, वायुमध्ये अने पांच सूममध्ये तो सम्यक्त्व वमतो पण को जीव श्रावी उपजे नहीं, तेश्री तेने मिथ्यात्वगुणगणुंज होय, ए पांच नेदें गुणगणां कह्यां. बहा संझी पंचेंजिय अपर्याप्ता जीवन्नेदमध्ये तो एक मिथ्यात्व, बीजुं सास्वादन, अनेत्रीजु अविरतिसम्यक्दृष्टि, ए त्रण गुणगणां संजवे, केमके परजवथी को जीव सम्यक्त्व सहित ए संझी पंचेंजियमांहे श्रावी अवतरे, तेने अपर्याप्तावस्थायें अविरति चोथु गुणगणुं होय. तथा जे जीव सम्यक्त्व वमतो एमांदे अवतरे, तेने शरीरपर्याप्ति पूर्ण कस्या पहेतुं सास्वादनगुणगणुं होय. ए बे विना शेष जीवोने मिथ्यात्वगुणगणुं होय, लब्धि अपर्याप्ता सन्निया पंचेंजिय जीवने एकज मिथ्यात्वगुणगणुं होय. सातमा सन्निया पंचेंजियपर्याप्ता ए जीवन्नेदें मिथ्यात्वथी मामीने अयोगी लगें सर्वे चौदे गुणगणां संनवे, केम के मनुष्य पण सन्निया पंचेंजिय ने तेने चौदे गुणगणां होय तथा केवली पण अव्य मनसंबंधे सन्नि कह्यो, तेथी बेहां बे गुणगणां पण मनुष्यमां जाणवां. समस्त ए कह्या जे सात जीवनेद तेथी शेष रह्या जे सूक्ष्म एकेजिय पर्याप्ता तथा अपर्याप्ता बेंजियपर्याप्ता, तेंजियपर्याप्ता, चौरिंजियपर्याप्ता, Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधस्वामित्वनामा चतुर्थ कर्मग्रंथ. ४ ४७३ सन्निपंचेंद्रियपर्याप्ता, बादरएकेंद्रियपर्याप्ता, ए सात जीवनेदें मिथ्यात्वगुणठाएं होय. ए रीतें चौद जीवनेदने विषे चौद गुणठाणां कलां. पी तेही जीव ए गुणठाणे रह्या बता मन, वचन, अने कायाना व्यापाररूप योगें करी कर्म बांधे, तेजणी योगद्वार जीवनेदें विवरीयें ढैयें. ॥ ६॥ हवे जीवनेदें योग संख्या कहे. अथ योगानाद || अपजत्त बक्कि कम्मुर, लमीस जोगा - पऊ सन्नी ॥ ते सविनवमीसएसु, तणु पसु उरलमंन्ने ॥ ७ ॥ अर्थ - पत्तनकि के० अपर्याप्ता व जीव भेदने विषे कम्मुरलमीसजोगा के० दारिक कार्म्मण अने श्रदारिक मिश्र, ए वे योग होय, अने अपऊसनीसु के० पर्याप्ता, सन्निया पंचेंद्रियने विषे ते के० ते पूर्वला वे योगने विजविमीस के० वैक्रियमि स के० सहित करतां त्रण योग होय. एसुतणुपसु के० एमां वली शरीर पर्याप्ताने विषे उरलमन्ने के० औदारिक योग कोइएक आचार्य माने बे ॥ इत्यक्षरार्थः ॥ ७ ॥ सन्नि पर्याप्ता विना बीजा व जे एकेंद्रियादिक अपर्याप्ता जीव नेद बे, तेने एक कार्म्मण ने बीजुं श्रदारिक कार्म्मण साथै मिश्र, ए बे योग संजवियें; केमके दारिक शरीरी एकेंद्रिय होय, तेथी तेने परजवथी श्रावतां विचालें कार्म्मण शरीर होय, तेमाटे त्यां कार्म्मणयोग होय श्रने अवस्था पढी ज्यांसुधी पर्याप्ति पूरी न करे, त्यांसुधी कार्म्मणपुलें करी श्रदारिक पुफल मिश्र होय, तेथी मिलें पुजलने उपष्टंजें जीवनुं जे करणवीर्य, ते श्रदारिक मिश्रयोग जाणवो. ए ब अपर्याप्तालब्धि तथा करण ए बेदु प्रकारना लेवा. ए व जीवनेदें योग कला. अपर्याप्ता, सन्नी, पंचेंद्रियने विषे वे योग पूर्वली परें लेवा, श्रनेत्री जो वैक्रियमिश्रयोग पण होय, जे जणी सन्नी या पंचेंद्रियमांहे देवता तथा नारकी पण यावी गया, तेमने तो वैक्रियशरीर पण करवुं बे. तेथी ते कार्म्मणपुल वैक्रिय साथै मिश्र करे, तेथी तेने परजवथी श्रावतां रस्तामहे कार्म्मणयोग होय अने व पर्याप्ति रंज्या पी ज्यांसुधी पूरी न करे त्यांसुधी वैक्रियमिश्रयोग होय. ए बे योग याय मनुष्य तथा तिर्यंचनी अपेक्षायें त्रीजो श्रदारिक मिश्रयोग पण लेवो. तें त्रण योग होय. अहींयां मतांतर देखाडे बे. कोइएक आचार्य, शरीरपर्याप्ति पूरी करया पढी शेष पर्याप्तायें करी अपर्याप्ताने श्रदारिकयोग माने बे. तेथ तेना मतें देवता ने नारकीने पण शरीरपर्याप्ति कस्या पक्षी वैक्रिय ए Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधस्वामित्वनामा चतुर्थ कर्मग्रंथ. ४ योग मानवो जोयें, तो तेना मतें सन्निया अपर्याप्ताने विषे १ औदारिक, २ औदारिकमिश्र, ३ वैक्रिय, ४ वैक्रियमिश्र,५ कार्मणयोग, ए पांच योग संजवे, तथा श्रीशीलांकाचार्यने मते चार योग होय, जे जणी एब नेद, अपर्याप्ता जे कह्या ते लब्धियी अपर्याता पण सेवा, श्रने देवता तथा नारकी तो लब्धि अपर्याप्ता न होय, तेथी चार योग सन्निथा अपर्याप्ताने होय. ॥७॥ सचे सन्निपजत्ते, उरलं सुटुमे सन्नासु तं चनसु ॥ बायरि सविनवि अगं, (अथोपयोगानाद )॥ पजसन्निसु बार उवउँगा॥॥ अर्थ-सवेसन्निपजत्ते के संझी पंचेंजिपर्याप्ताने सर्व पंदर योग होय, अने सुहुमे के सूक्ष्म एकेजिय पर्याप्ताने उरलं के० एकज औदारिककाययोग होय, सनासुतंचनसु के तेहिज नाषा सहित विकलत्रिक अने असंझी पंचेंजिय, ए चार पर्याप्ता जीवन्नेदें एक औदारिकयोग अने बीजो सनासु एटले जाषासहित एटले सत्यामृषावचनयोग, ए बे योग होय, अने बायरि. के बादर एकेजियपर्याप्ताने विषे सविन विगं के० औदारिकसाथें वैक्रिय अने वैक्रिय मिश्र सहित करतां ए बे योग तथा औदारिक, एवं त्रण योग होय. हवे उपयोग कहे . पजसन्निसुबारउवउंगा के० पर्याप्ता संझी पंचेंजियमांहे बार उपयोग होय. संझी पंचेंजिय पर्याप्ताने विषे मनना योग चार, वचनना योग चार, औदारिक, थाहारक, श्राहारकमिश्र, वैक्रिय, वैक्रियमिश्र, औदारिकमिश्र अने कार्मण, ए पंदरे योग होय. तेमांहे वैक्रियछिक देवता नारकी अपेक्षायें तथा उत्तरवै क्रियशरीर करतां प्रारंजवेलायें मनुष्य तथा तिर्यंचने पण वैक्रिय औदारिकसाथें मिश्र होय. पनी वैकिययोग होय तथा आहारकशरीर चौद पूर्वधर मनुष्य जिनशधि देखवानिमित्तें करे, तेवारेंथारंजती वेलायेंते औदारिकसाथें श्राहारक पुजल मिश्र करे, त्यां श्राहारकमिश्रयोग होय. पडी थाहारकयोग होय, तथा केवलीने श्राप समयनो केवलसमुद्घात करतां बीजे, बहे अने सातमे, ए त्रण समयें औदारिकमिश्र योग होय, तथा त्रीजे, चोथे अने पांचमे, एत्रण समयें कामणकाययोग लेवा. पण अपर्याप्तावस्थायें जे कार्मणकाययोग होय ते न लेवा. केमके ते अपर्याप्तामांदेज गण्या . ए सौ पंदर योग होय. सूक्ष्मएकेजिय पर्याताने एकज औदारिकयोग होय. जे जणी तेने वैक्रिया दिकयोग करवानी शक्ति नथी, तेम मन अने वचन पण नथी; औदारिकमिश्र कार्मण तो अपर्याप्तावस्थायें होय पण पर्याप्तावस्थायें नहिं होय. हवे औदारिक योग अने Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधस्वामित्वनामा चतुर्थ कर्मग्रंथ.४ य असत्यामृषावचनयोग, ए वे योग, चउसु के बे इंडियपर्याप्ता, तेंजियपर्याप्ता, चौरिजियपर्याप्ता अने असंझिपंचेंजियपर्याप्ता, ए चार जीवन्नेदें होय, जे जणी एने मोहोडं सेथी व्यवहार नाषा बोले. बादर एकेजियपर्याप्ताने एक औदारिक, बीजो वैक्रिय अने त्रीजो वैक्रिय मिश्र, ए त्रण योग संनवीयें, जे जणी बादरएकेंजियपर्याप्ता वायुकाय जीवने वैक्रियल ब्धि ने तेथी ध्वजाने आकारें वैक्रियरूप करें तेवारें श्रारंजतां वैक्रिय मिश्र होय, अने शरीर पूर्ण कस्या पली वैक्रिय होय; माटे ए बे योग अने सहेज शरीरें औदारिक होय. पर्याप्ता शेष चार स्थावरने एक औदारिक योग होय. ए रीतें पंदर योग कह्या. ___ए योगें करी जीवना शुनाशुन उपयोग होय ते जणी हवे पड़ी उपयोग कहीयें बैयें. पर्याप्ता संझीया पंचेंजियने विषे बार उपयोग पामीयें, जे नणी मनुष्यमांहे बार उपयोग लाने जे त्यां एक समयें जीवने एक उपयोग होय, ते उपयोग बद्मस्थने अंतरमुहर्त काल अने केवलीने सामायिक के एक समय त्यां ज्ञान पांच, अज्ञान त्रण, एवं या उपयोग जाणवा. साकार श्रने चार दर्शन ते निराकारोपयोग. एम बार उपयोग जाणवा. एवं बार उपयोग होय, निराकारं साकारं दर्शनं. ॥ इति ॥ ७॥ पज चरिंदि असन्निसु, उदंस ऽअनाण दससु चस्कुविणा ॥ सनिअप मण ना, ण चस्कुकेवल उगविहुणा ॥ ए॥ अर्थ-पजचजरिदिअसन्निसु के० पर्याप्ता चौरिंजियने तथा असंझीपंचेंजियपर्याताने उदंस के बे दर्शन अने अनाण के बे अज्ञान, एवं चार उपयोग होय. अने शेष दससु के दश जीवनेदने विषे चरकुविणा के चकुदर्शन विना त्रण उपयोग होय, अने सन्निअप के० संझी अपर्याप्ताने मणनाण के एक मनःपर्यवज्ञान, चस्कु के बीजुं चकुदर्शन अने केवलग के केवलछिक, ए चार विहणा के विना शेष आठ उपयोग होय. ॥ ए॥ पर्याप्ता चौरिंजिय तथा असंझीया पंचेंजिय, ए बे जीवन्नेदें एक चक्कु अने बीजें अचा, ए बे दर्शन तथा मतिअज्ञान, अने श्रुतअज्ञान, ए बे अज्ञान. एवं उपयोग होय. केमके ए मिथ्यात्वगुणगणे होय. माटे बे अज्ञान कह्यां, शेष सूक्ष्म एकेंजिय पर्याप्ता तथा अपर्याप्ता, बादर एकेंघिय पर्याप्ता तथा अपर्याप्ता, बेंघिय पर्याप्ता तथा अपर्याप्ता, तेंजिय पर्याप्ता तथा अपर्याप्ता, चौरिंजिय अपर्याप्ता अने असन्निश्रा पंचेंप्रिय अपर्याप्ता, ए दश जीवन्नेदें पूर्वोक्त चार उपयोगमाहेथी एक चतुदर्शन न होय तेथी मतिअज्ञान, श्रुतअज्ञान अने अचकुदर्शन, ए त्रण उपयोग होय. ए कर्मग्रं Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७६ बंधस्वामित्वनामा चतुर्थ कर्मग्रंथ. ४ थनो मत कह्यो, अने सिद्धांतने मतें बेंछियादिक चारने अपर्याप्तावस्थायें सास्वादनपणुं संजवीयें, तो त्यां मिथ्यात्वने अजावें मतिज्ञान अने श्रुतज्ञान, ए वे ज्ञान कह्यां तो ते अपेदायें बेंजियादिक चार अपर्याप्ताने पांच उपयोग संजवे बे. तथा एकेडियादिक दश जीव जेदने विषे श्रोत्रज्ञान, लब्धिज्ञान विना पण श्रुत श्रज्ञान कडं ते आहारादिक संज्ञानी अपेक्षायें कडं बे. जे नणी बुधावेदनीयना उदयश्री आ पुजलग्रहण कस्याथी महारी सुधा निवर्ते, पुष्टि होय, एवो शब्दार्थ पर्यालोचनरूप वस्तु पामवानो अशुभ अध्यवसाय, ए श्रुतनेदने थाहारसंझा कहीये. ते अध्यवसाय अव्यक्तपणे एकेंजियने पण तो आहार लेवाने प्रवर्ते बे, तथा एक स्पर्शेनेजिय. तो ए जीवोने दे अने ते विना बीजा चक्कुरादि अव्ये जिय लब्धि शून्य एवा एकेडिय कह्या ने, तो पण ते ने सूक्ष्म जावेंजिय पांचवें ज्ञान सिद्धांतें मान्युं बे. यत : “ जसुहुमं नावेंदिय, नाणं दबिंदियाण विरदेवि ॥ दवसुयानावं मि, विनावसुअंपछिवाणं ॥१॥ पंचिंदियव बउलो, नरुवसबवि सजवलंनाउं" इति विशेषावश्यकनाष्ये जेम पारो, स्त्रीनुं रूप देखीने दोडे तथा बकुलादिक फूले. ए मेलें एकेंजियने श्रुत कडं. ___ संझी पंचेंजिय अपर्याप्ताने विषे बार उपयोग मांदेला चार उपयोग न होय तेनां नाम कहे . एक मनःपर्यवज्ञान अपर्याप्तावस्थायें विरति न होय ते नणी ए ज्ञान पण न होय. तथा चतुरिंजियनो व्यापार नथी, ते माटें बीजो चनुदर्शन पण न होय, वली केवलझान अने केवलदर्शन, ए बे पण कर्मक्षयने अनावें त्यां न होय, शेष त्रण ज्ञान, त्रण अज्ञान अने बे दर्शन, ए श्राप उपयोग होय, केमके जिनादिक पुरुषो ज्ञानसहित उपजे जे ते अपेक्षायें होय. ए रीतें त्रण ज्ञान, त्रण श्रज्ञान अने बे दर्शन, ए आठ सन्निाने अपर्याप्तावस्थायें पामीये. ए सौ करण अपर्याप्ता सेवा, एटले त्रीजुं उपयोगहार जीवस्थानने विषे कयं ॥ ए॥ हवे शुनाशुन उपयोगें प्रवर्ते, ते लेश्या कहीये, तेथी उपयोगटार कह्या पनी . चोथु खेश्याछार कहे. . सन्नि उगि ब लेस अप, जा बाययरे पढम चन तिसेसेसु ॥ (अथ बंधादि चन द्वाराणि) सत्त बंधुदीरण, संतुदया अह तेरससु॥१०॥ अर्थ- सन्निपुगि के सन्निशाना बेहु नेदें बलेस के लेश्या पामीयें, तथा अपजाबायरे के अपर्याप्ता बादर एकेंजियमांहे पढ़मच के प्रथमनी चार लेश्या Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधस्वामित्वनामा चतुर्थ कर्मग्रंथ. ४ ४७ होय, अने तिसेसेसु के शेष अगीश्रार जीवन्ने त्रण लेश्या होय. लेश्यायें करी जीव कर्मबंध करे ते जणी हवे बंध उदय उदीरणाने सत्ता कडेले. सत्ता के सात तथा आठ कर्मनो बंधुदीरण के बंध तथा उदीरणा होय, अने संत के सत्ता तथा उदयाबह के उदय श्राप कर्मनो तेरससु के प्रथम तेर जीवन्नेदने विषे जाणवो. ॥ इत्यदरार्थः ॥ १० ॥ ॥ अथ जीवन्नेदेषु लेश्यामाह ॥ सन्निश्रा पंचेंघिय पर्याप्ता तथा अपर्याप्ता, ए बे जीवनेदें कृप्लादिक गए लेश्या संजवे. एमां करणथपर्याप्ता लेवा. बाकी लब्धि अपर्याप्ताने प्रथमनी त्रण लेश्या होय. बादर एकेंजिय अपर्याप्तामांहे प्रथमनी चार लेश्या पामीयें, केमके नवनपति, ज्योतिषी, व्यंतर अने ईशानदेवलोक सुधीना वैमानीक देवो पण चवीने रत्नादिकपृथ्वी, अप, प्रत्येक वनस्पति, एवा प्रत्येक बादरमांहे श्रावी उपजे . ते देवता तो पोताना नवनी लेश्यायें चवीने ए त्रण मांहे श्रावी अवतरे, त्यां ज्योतिषी तथा सौधर्म अने ईशान देवलोकना देवोने तेजोलेश्या होय, तेथी अपर्याप्तावस्थायें ए त्रणने ते चोथी लेश्या पण पामीयें. बाकीना जीवने शेष त्रण लेश्या होय. एत्रण जीवनेदथी शेष रह्या जे अगीबार जीवन्नेद, तेने विषे कृल, नील ने कापोत, ए त्रण लेश्या होय एटले जीवना चौद नेदें लेश्या हार कडं. ॥ हवे लेश्यायें करी जीव, कर्मबंध करे ते नणी बंध, उदय, उदीरणा अने सत्ता कहे .॥ ॥अथ बंधादि द्वाराणि ॥ एक संज्ञी पंचेंजिय पर्याप्ता विना शेष तेर जीवन्नेदें सात तथा आठ ए बे बंधस्थानक तथा उदीरणास्थानक जाणवां. त्यां तथा पोताना नवने त्रीजे, नवमे तथा सत्तावीशमे इत्यादिक जागशेषं परजवायु बांधे ते कालें त्यां पाठ कर्मनो बंध जाएवो. अने शेष कालें सात कर्मनो बंध जाणवो. तथा आयुःकर्म उदय प्राप्त एक श्रावलीमात्र शेष रहे, त्यां सुधी था कर्मनी उदीरणा जाणवी. अने उदयप्राप्तनी एक उदयावलिका थाके तेवारें उदयावलिका उपरांत कर्मदल रह्यं नथी, तेथी शानी उदीरणा करे ? जे जणी जीवयोगकरणे करी उदयावलिथी उपरखुं कर्मदल उदयावलिमांहे खेंची लावी आणीने वेदे, तेने उदीरणा कहीये. तेमाटे ते श्रावली शेष आयुष्य रहे थके सात कर्मनी उदीरणा होय, ए लब्धि अपर्याप्ता लेवा. केमके करणथपर्याप्ताने सातमी उदीरणा न होय. __तथा एहिज तेर जीवस्थानके श्राप कर्मनो उदय निश्चे होय, अने सत्ता पण श्राव कर्मनी होय, जे जणी सातमुं, अने अगीश्रारमुं गुणगएं, एमां पण सत्ता Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HIG बंधस्वामित्वनामा चतुर्थ कर्मग्रंथ. ४ श्राप कर्मनी लाने, अने सात कर्मनी सत्ता तो बारमे गुणगणे लाने. ते तेने न होय, एम तेर जीव स्थानकें बंध, उदय, उदीरणा श्रने सत्तानां स्थानक कह्यां. ॥ १० ॥ ॥ हवे सन्निश्रा पंचेंजिय पर्याप्ताने विषे बंधादि स्थानक कहेजे. ॥ सत्तह बेग बंधा, संतु दया सत्त अच्चत्तारि ॥ सत्त: पंचगं, उदीरणा सन्निपजत्ते ॥११॥ अर्थ-सत्तह के सातनो तथा श्रानो बेग के बनो तथा एकनो बंधा के ए चार बंधस्थानक संझी पंचेंजियने होय, अने सत्तश्रध्चत्तारि के सातनुं, श्राग्नु अने चारनुं, ए त्रण संतुदया के सत्तास्थानक तथा उदयस्थानक होय. अने सत्तहमपंचगं के सात, आठ, ब, पांच अने बे, ए पांच उदीरणा के उदीरणास्थानक सन्निपात्ते के संझीपंचेंजिय पर्याप्ताने विषे होय. ॥ इत्यदरार्थः ॥११॥ _ सन्नीथा पंचेंजिय पर्याप्ताने विषे ज्यां सुधी श्रायु न बांधे त्यां सुधी सात कमनो बंध होय अने परजवतुं श्रायु बांधे, तिहां थाठ कर्मनो बंध होय, थने दशमे गुणगणे चढ्यो मोहनीय तथा श्रायु ए बे न बांधे, त्यां कर्मनो बंध होय, थने अगीधारमा गुणगणा उपरांत एक वेदनीयनो बंध होय,एवं चार बंध स्थानक होय. तथा तेने सत्तास्थानक त्रण होय, तिहां आठ कर्मनी सत्ता अगीधारमा गुण. गणा सुधी होय, त्यां वली मोहनीय क्ष्य कस्या पली बारमे गुणगणे सात कर्मनी सत्ता होय. तिहां वली ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय अने अंतराय, ए त्रण कर्मक्षय कस्या पली तेरमे अने चौदमे गुणगणे चार कर्मनी सत्ता होय, ए त्रण सत्तास्थानक. एज रीतें दशमा गुणगणा सुधी था कर्मनो उदय होय, अने अगीारमे तथा बारमे, ए बे गुणगणे मोहनीय विना सात कर्मनो उदय होय, अने सयोगी तथा अयोगी ए बे गुणगणे चार अघातीया कर्मनो उदय होय. ए मनुष्यने संजवे तेथी मनुष्यनी अपेदायें संज्ञीश्रा पंचेंजियने त्रण उदय स्थानक कह्यां. हवे उदीरणास्थानक कहे . आवलिका शेष निजलवायु रहे, त्यांसुधी पाठ कर्मनी उदीरणा होय, ए प्रथम स्थानक, श्रने आयुनी बेहेली उदयावलिकायें उदीरणा टली जाय, तेवारें सात कर्मनी उदीरणा जाणवी. ए बीजं स्थानक श्रने बहा गुणगणाथी श्रागडे वेदनी अने श्रायु, ए बे कर्मनी उदीरणा न होय माटे तिहां कर्मनी उदीरणा होय. ए त्रीजु स्थानक; तथा दशमे गुणगणे वेदनीय, श्रायु अने मोहनीय, ए त्रण कर्मना पांच कर्म विना उदीरणा उपशांत मोह गुणगणा सुधी पामीयें, केमके, श्रावलीमात्र रहे, त्यां मोहनीयनी उदारणा न होय, Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधस्वामित्वनामा चतुर्थ कर्मग्रंथ. ४ ४ ए माटे ए चोथु स्थानक तथा ज्ञानावरणीय अने अंतराय, ए त्रण कर्म श्रावलिका मात्र थाकतां होय, तेवारें बारमे गुणगणे एनी उदीरणा नहीं जाणवी. तेथी त्यां पड़ी नाम श्रने गोत्र, ए बे कर्मनीज उदीरणा होय, एम सयोगीये पण बेनी उदीरणा अने अयोगी अनुदीरक होय, ए पांचमुं स्थानक. एम ए सर्व मनुष्यने विषे संनवे बे. ते जणी सन्नियो पंचेंजिय पर्याप्ताने विषे ए पांच उदीरणास्थानक कह्यां. एटले मूल जीव नेद छारें गुणगणादिक आठ बोल कह्या, ए जे जीवना नेद कह्या ते जीवना जेद गत्यादिक ने करी विचारतां चतुर्विध पंचविधादिक थाय, तेथी चौद नेदर्नु अनियतपणुं देखाड्यु.॥ ११ ॥ उक्तानि जीवस्थानेषु गुणस्थानादीन्यष्टौ हाराणि. ॥श्रथ मार्गणास्थानान्याह ॥ गइ इंदि एअ काए, जोए वेए कसाय नाणेसु ॥ संजम दंसण लेसा, नव सम्मे सन्नि आहारे॥१२॥ श्रर्थ-ग के० गति चार, इंदिएथ के पांच एकेंपियादिक इंजिय, एवं नव.काए के पृथ्वीकायादिक ब जीव निकाय, जीवसमूह ते निकाय कहीयें, एवं पंदर, जोए के बोल, चालवू, इत्यादिक चेष्टायें जोवे ते योग त्रण, एवं श्रढार. वेए के इंजिये करी सुख वेदीयें, ते नणी वेद त्रण, एवं एकवीश. कसाय के कष एटले संसार तेनो श्राय एटले लाल होय ते जणी कषाय कहीये, तेनी चार मार्गणा, एवं पच्चीश. नाणेसु के जाणी वस्तुपर्यायशुं णे, ते जणी ज्ञान कहीये. तेनी मार्गणा श्राठ. एवं तेत्रीश थ३. संजम के० सावद्ययोगथकी निवर्त्तवं तेने संयम कहीये. तेनी मार्गणा सात, एवं चालीश. दंसण के दर्शन सामान्यावबोध तेना नेद चार, एवं चुम्मालीश. लेसा के कषायोदयें अशुमाध्यवसाय थाय तथा योगप्रवृत्ति ते वेश्या तेनी न मार्गणा, एवं पञ्चाश. नव के० नव्यानव्यमार्गणा, एवं बावन्न. सम्मे के सम्यक्त्व मिथ्यात्वादि नेदें तत्त्वज्ञानवंत जीव नेद ब, एवं अहावनः सन्नि के० मनसहित ते संझीया बाकी असन्निा ,एम बेनेदें जीव,एवं शाप. आहारे के उजाहारादिक करे ते आहारी अने आहार न करे, ते अणाहारी, एम बे नेदें जीव. एवं बाश नेद उत्तर जाणवा. ॥ इति समुच्चयार्थः ॥१२॥ हवे चौद मूल मार्गणाधारनां उत्तर बाशठ मार्गणाधार कहेले. सुर नर तिरि निरय गइ, ग बिअ तिअ चन पणिंदि बकाया ॥ नू जल जलणा ऽनिल वण, तसाय मण वयण तणु जोगा. ॥१३॥ Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ដូច០ बंधस्वामित्वनामा चतुर्थ कर्मग्रंथ. ४ __ अर्थ- जवनपति, व्यंतर, ज्योतिषी अने वैमानिक, ए चार. सुर के देवगतिनाम, नर के मनुष्यगतिनाम, एकेजिय, विकलेंजिय, पंचेंजिय, जलचर, स्थलचर ने खेचर, ए सर्व, तिरि के० तिर्यंचगतिनाम. साते नरकना नारकीने निरय के नरकगतिनाम. एम गतिनी अपेक्षायें सर्व संसारी जीव विचारतां चार नेदें होय. ए प्र. थम चार, ग के० गतिमार्गणा जाणवी. ग के एकेंजिय ते पृथिव्यादिक पांच स्थावर , विष के बेंजिय, ते शंखादिक, तिथ के० तेंजिय, ते कीमीप्रमुख, चउ के० चरिंजिय ते जमरादिक, पर्णिदि के देवता, नारकी, असंज्ञीश्रा, संझीश्रा, मनुष्य तथा तिर्यंच, एम विचारतां इंजियवंत जीवनी अपेक्षायें सर्व संसारी जीव, पांच प्रकारे होय. ए बीजी इंजियमार्गणा पांच प्रकारे जाणवी. बकाया के प्रकारना जीव कायमार्गणायें विचारतां होय, त्यां नू के० माटी, पाषाण, धातुना नेद तथा मीतुं, पारो, जोमल, रत्ननी जाति, ए सर्व बादर पृथ्वीकाय तथा सूक्ष्म पृथ्वीकाय जीव चौदराजलोके जाणवा तथा जल के० पाणी, हीम, करहा इत्यादिक अपूकाय जीव जाणवा. जलण के अग्नि, वीजली, इत्यादिक तेलकाय जीव जाणवा. अनिल के वायुकाय ते गुंजवायु, विटोली इत्यादिक जाणवा, वण के० आंब निंबादिक, ते प्रत्येक वनस्पति तथा अनंतकाय निगोद सूक्ष्म बादर ए बेनेद वनस्पतिकाय. तसाय के विकलेंज्यि अने पंचेंजिय, ए त्रसकाय जाणवा. एम काया. पेक्षायें उनेदें जीव जाणवा. ए कायमार्गणा त्रीजी जाणवी. मणवयणतणुजोगा के काययोगें करी मनोवर्गणायें अव्य ले मनपणे परिणमावे तेनी साथे संबंधजन्य जीवनुं करणवीर्य, ते मनोयोग. एम जापापणे परिणमे अव्यसं. बंधजन्य जीववीर्य ते वचनयोग, ज्यां श्रात्माप्रदेश विस्तारे, ते काया, तेह संबंधजन्य जे जीववीर्य , ते काययोग, ए त्रणे योगें करी सयोगी जीव, त्रण नेदें जाणवा. एम सर्व जीव, योगमार्गणायें विचारतां मनयोगी, वचनयोगी अने काययोगी, एत्रण प्रकारे जाणवा. ए चोथी योगमार्गणा. ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ १३ ॥ ॥वेष नरि बि नपुंसग, कसाय कोद मय माय लोनित्ति ॥ म सुअऽवदि मण केवल, विनंग मसुअ नाण सागारा ॥१४॥ अर्थ-वेध के वेदमार्गणायें वेदनी अपेक्षायें विचारतांत्रण नेदें सर्व संसारी जीव बेत्यां जे दाढी, मुंब सहित मुखपुरुषाकारवंत, ते अव्यपुरुष जाणवो,अने जे स्त्री विषयिणी अनिलाषारूप मैथुनसंज्ञा सहित जे जीव वर्ते, ते नावपुरुष जाणवो. ए नर के० Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१ षडशीतिनामा चतुर्थ कर्मग्रंथ. ४ पुरुष वेद कह्यो तथा स्तन, योनि प्रमुख अवयव सहित श्रने दाढी मुड रहित एवा मुखने जे धारण करे, ते व्यस्त्री जाणवी. अने पुरुषविषयिणी जिलाषारूप मैथुनसंज्ञा सहित जे जीव ते नावस्त्री जाणवी, ए बीजो कि के० स्त्रीवेद. तथा स्त्रीना अवयव स्तनादिक तथा पुरुषना अंग, दाढी, मूब प्रमुख ए बेहु जेने न होय ते ऽव्यन'सक जाणवा तथा स्त्री थने पुरुष, ए बेहु विषयिणी अनिलाषायें जे जीव वर्ते ते नावनपुंसक जाणवा. ए त्रीजो नपुंसग के नपुंसक वेद. एम वेद आश्री अव्य अने लावनेदें करी जीव त्रण प्रकारे जाणवा. ए पांचमी वेदमार्गणा त्रण प्रकारे जाणवी. ___ कसाय के कषायोदयनेदें विचारतां कोहमयमायलोनित्ति के क्रोधी, मानी, मायी अने लोनी, ए चार ने सर्व संसारी जीव होय, त्यां बीजानी साथें चित्तनुं विघट्टन परिणत ते क्रोधी. पोताने विषे अधिकता बुद्धिये अनमन विनावपरिणति, ते मानी. परनें वंचवा हेतु कुटिलता परिणति, ते मायी. परव्य साथै अन्नेदताबुझिपरिणति, ते लोजी. ए चारे कषाय, उदय विरोधी बे. जे जणी क्रोधादिकने उदयें मानादिकनो उदय न होय, अने मानने उदयें क्रोधनो उदय न होय, ए रीतें बही कषायमार्गणा चार प्रकारे जाणवी. झान, अज्ञाननेदें करी जीवन्नेद विचारतां श्राप प्रकारमांहे सर्व जीव आवे, ए दायोपशमिक दायिकपर्यायें जाणवा. त्यां इंघिय पांच, अने नोजिय, ए निमित्त वर्तमान विषय ज्ञान विशेष, ते प्रथम म के मतिज्ञान. शब्द संबंध अर्थविषयक त्रिकाल विषयवस्तुपर्यालोचन ज्ञान विशेष, ते बीजुं सुश्र के श्रुतज्ञान. अवधि एटले मर्यादायें रूपिडव्यविषयप्रत्यद, ते त्रीजु अवहि के अवधिज्ञान. मनुष्य क्षेत्रमांहे जे सन्नीथा पंचेंजिय जीवना मनोगत नाव नेदर्नु जाणवू, ते चोथु मण के० मनःपर्यायान. सकल थावरणरहित संपूर्ण सर्ववस्तु विषयि अनंतव्यवीषश्लं झान, ते पांचमुं केवल के केवलज्ञान जाणवू. मिथ्यात्वें करी विरुकनंगे विपरीतपणे वस्तुनो परिछेद, ते बई विजंग के विनंगज्ञान कहीये. जेम शिवराजर्षि सात बीप अने समुख देखी जाणवा लाग्यो, जे में सर्व हिप, समुफ, दीग; एम मिथ्यात्वने उदये जे श्रवधिज्ञान ते बहुं विजंगज्ञान कहीयें, तथा मिथ्यात्वीने एक मति, बीजूं श्रुत, ते पण अज्ञान कहीयें. जे जणी अनंतधर्मात्मक वस्तुने एकरूपे पूर्ण करी जाणे, ने संसारहेतु तेने मोहेतुरूप जाणे, एकज विधिरूप जाणे, अथवा निषेधरूप जाणे, एम एकांत जाणे पण उजयरूपें न जाणे तेथी अज्ञानी मिथ्वात्वी कह्या. सम्यकदृष्टिमा एक ज्ञानी ते केवली; अने बे शानी, ते मतिज्ञानी अने श्रुतझानी; तथा त्रण ज्ञानी, ते मति, श्रुत Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८‍ षडशीतिनामा चतुर्थ कर्मग्रथं. ४ अने अवधिज्ञानी; तथा चार ज्ञानी, ते मति, श्रुत, अवधि अने मनःपर्यवज्ञानी; ए चार ज्ञानी का. ए व नाप के० ज्ञान, ते साकारोपयोग सामान्य विशेषात्मक वस्तुने विषे जाति, गुंण क्रिया विशिष्ट वस्तुनुं जाणवुं. ते सागारा के० साकारोपयोग जाएं. ए सातमी ज्ञानमार्गणा व नेदें जाणवी ॥ १४ ॥ || हवे विरति अविरति मार्गणा वे मली सात मेंदें कहे . ॥ सामाइ बेच् परिहा, र सुहुम प्रदखाय देस जय जया ॥ चकु प्रचकु जैदी, केवलदंसण अणागारा ॥ १५ ॥ - सामा के० सामायिकचारित्र, बेा के० बेदोपस्थापनीयचारित्र, परिहार to परिहारविशुद्विचारित्र, छाने सुदुम के० सूक्ष्मसंपरायचारित्र, अहखाय के० यथाख्यातचारित्र, देसजयाजया के० देश विर तिचारित्र, अने अविरतिचारित्र, ए सात चारित्र, छाने चरकु के० चतुदर्शन ने अचरकु के० चतुदर्शन, उही के० अवधिदर्शन, केवल के केवल दर्शन, ए चार दंसण के० दर्शन, ते णागारा के अनाकारोपयोग जाणवा. १५ हवे सातमी चारित्रमार्गणा कहे बे. सर्वविरति, देशविरति अने अविरति, एवी तें विचारतां सात दे सर्व संसारी जीव होय. तिहां सम के० ज्ञान, दर्शन अने चारित्रनो ज्यां याय के० लाज होय ते जणी सामायकचारित्र सर्व सावद्य विरतिरूप प्रथम जाणवुं, अने जे पूर्वपर्याय बेदीने बीजा विशुद्ध पर्यायनुं उपस्थापन करवुं, ते बीजुं बेदोपस्थापनीय चारित्र, ते एक सातिचार खने बीजो निरतिचार, एवा बे दें जावं. त्यां श्री वीर तीर्थकरना साधुने दूषण लागे थके जे व्रत पर्याय बेदे, जेम विषधर जे सर्प तेथे डंशेली चांगलीने शरीर राखवाने हेतें बेदे. एम व्रत राखवा निमित्तें सदूषण व्रत पर्याय बेदी उगमणी करीयें, ते सातिचार बेदोपस्थापनीय कहीयें, छाने बीजो निरतिचार ते श्रीपार्श्वनाथना शिष्य श्रीवीर जिनपासें फरी श्री व्रत उच्चरे, ते निरतिचार बेदोपस्थापनीय चारित्र बीजुं जावं. एटले तीर्थथकी अन्य तीर्थे संक्रमण करे, जेम श्रीपार्श्वनाथना साधु केशी गांगेय प्रमुखे श्रीवीरना शासनमां श्रावी पंच महाव्रत उच्चरी पूर्व पर्याय बेदी नवो पर्याय ग्रह्मो, ए निरतिचार कहीयें. त्रीजुं परिहार तपोविशेष, त्यां सामानव पूर्वधर तो अंगणत्रीश वर्ष उपरांत वहे, तेइने नवनो गठ होय. तेमध्यें एक वाचनाचार्य ने चार साधु परिहार तपोनिविष्ट तथा चार साधु तेनुं वैयावच्च करे, ते व मासनुं तप पूर्ण करे, तेवारें ते चार वैयावच्ची साधु तप दाने तप करी रह्या जे चार साधु, ते तेनुं व मास सुधी वैयावच्च करे, वतुं मास सुधी वाचनाचार्य तप करे, बीजा साधु तेनुं वैयावच्च करे, एम - द्वार मासनुं तप करे, ते तपनी विगत यावी रीतें वे के, उष्ण कालें जघन्य चोथ For Private Personal Use Only Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७३ षडशीतिनामा चतुर्थ कर्मग्रंथ. ४ लगें, मध्यम बह अने उत्कृष्ट अहम तप करे. शीतकालें जघन्य. बह, मध्यम अहम थने उत्कृष्ट दशम तप करे. वर्षाकालें जघन्य अहम,मध्यम दशम अने उत्कृष्ट ज्वालश तप करे. पारणे श्रायंबील करे. एम तप पूर्ण करी जिनकल्प पडिवजे तथा गहमांहे श्रावे, ते परिहार विशुद्धिचारित्र त्रीजुं जाणवू. सूझसंपराय गुणगणे सूक्ष्मसंपराय चारित्र चोथु होय. अगीधारमा गुणगणाथी मामीने चाग गुणगणे श्रीवीतरागर्नु निरतिचारचारित्र ते पांचमुं यथाख्यातचारित्र जाणवू. देशविरति निरपराध निरपेक्ष संकल्पी त्रस जीव न हणुं, ते बहुं देशविरति चारित्र, इत्यादिक सर्व विरति, देशविरति चारित्र जाणवां. अने ए बे मांहेथी एके न होय ते सातमुं अविरतिचारित्र जाणवू. ए आठमी चारित्रमार्गणा सात ने जाणवी. हवे नवमी दर्शनमार्गणा कहे . जे अांखें करी देखg,ते चतुदर्शन. अचकु क. हेतां आंख विना शेष इंडिय चार तथा मन तेणें करी जे वस्तुनु सामान्यांश ग्रहण ते बीजं अचकुदर्शन. अवधि एटले अव्य, देत्र, कालादिक मर्यादायें सामान्यपणे रूपी अव्यनुं ग्रहण, ते त्रीजु अवधिदर्शन अने संपूर्ण अव्यविषय सामान्यांशनुं ग्रहण विषयक केवलदर्शन ते चोथु जाणवू. ए चारे अनाकार जे. जे जणी जाति, गुण, क्रियादिक विशेषण रहित वस्तु आकार रहित कांइएक एवं देखीयें, ते जणी अनाकारोपयोग कहीयें, ए नवमी दर्शनमार्गणा जाणवी. ॥ १५ ॥ ॥ हवे दशमुं वेश्यामार्गणानुं हार कहे. ॥ किएदा नीला काऊ, ते पम्दाय सुक्क नविअरा ॥ वेअग खश्गुवसममित्र मीस सासाण सनिअरे ॥ १६ ॥ अर्थ-किएहा के कृष्ल लेश्या, नीला के नील लेश्या, काऊ के० कापोत लेश्या, ते के तेजोलेश्या, पम्हाय के० पद्मलेश्या, सुक्क के० शुक्ललेश्या, नव के जव्य, श्रा के स्तर एटले अन्नव्य, वेश्रग के वेदक सम्यक्त्व, खग के दायिकसम्यक्त्व, उवसम के औपशमिक सम्यक्त्व, मिठ के मिथ्यात्वसम्यक्त्व, मीस के० मिश्रसमकित, सासाण के० सास्वादनसमकित, सन्निवरे के० सन्निया अने इतर बीजा असन्निया, ए तेरमी संज्ञी मार्गणा जाणवी. ॥ इत्यदरार्थः॥ १६॥ लेश्या औदयिक पर्याय नेदें करी जीवनेद विचारतां बनेदें सर्व जीव जाणवा, कृक्षादिक जव्यसंबंधे जीवनो कर्मरस परिणमनहेतु अशुधनाव ते वेश्या कहीयें. तेनुं स्वरूप जंबूफल खावा निमित्त बे, ते पुरुषना अध्यवसाय नेदें जाणवू. जेम पुरुषं जंबूवृक्ष फल्यो देखी एके चिंतव्यु के, ए वृक्ष मूलथकी बेदीयें, ए कृम वेश्या Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८४ षडशीतिनामा चतुर्थ कर्मग्रंथ. ४ वंत. बीजे कयुंके, शाखा बेदीयें, ए नीललेश्या. त्रीजे कयुं, लघु शाखा बेदो, ए कापोत लेश्या. चोथे कयुं, गुछ बेदो, ए तेजो लेश्या. पांचमे कयुं, फल तोमी लियो, ए पद्मलेश्या. बठे कयुं, नीचें पड्यां फल लइयें, ए शुक्ल लेश्या. एम बनेदें जीव होय. ए दशमी लेश्यामार्गणा जाणवी . हवे जव्यमार्गणायें पारिणामिक नावें जीवनेद विचारतां बे दें सर्व संसारी जीव बे. त्यां मुक्ति जावा योग्य जे जीव द्रव्य ते जव्य जीव छाने जे केवारे पण मुक्तियें न जाय ते अजव्य जीव. ए अगी चारमी जव्य मार्गणा बे नेदें जावी. 7 हवे नवतत्वश्रद्धानर्गुण मुख्यतायें क्षायोपशमिक, कायिक, औपशमिक छाने दकि, ए चार पर्याय मेंदें विचारतां व जेद सर्व जीवना थाय. त्यां प्रथम वेदक कहेतां सम्यक्त्व मोहनीयना प्रदेश तथा रस वेदे बे. एनुं नाम क्षायोपशमिक कहीयें. जे जणी मिथ्यात्व मोहनीयनो रस सर्व घाती उदयें आव्यो थको जोगवी क्षय कीधो ने उदय नथी आव्यो, एवो जे अनुदय रूप ते उपशम्यो बे एने श्रांतरे जे श्रात्मानी तत्वरुचि ज्यां लगे जागे, ते पहेलुं क्षायोपशम सम्यक्त्व कहीयें. उक्तंच "मिछतं जमुन्नं तं खीणं अणुइयं च जवसंतं ॥ मीसी जावंपरिणय, वेइद्वंतं खर्जवसमं” ॥ १ ॥ तथा श्री जिनकालें प्रथम संघयणी मनुष्य रूपक श्रेणि करतो पहेला अनंतानुबंधीया चार कषाय तथा त्रण दर्शन मोहनीय, ए सात प्रकृति खपावे, तेवारें जे प्रथम कह्यो आत्मानो शुद्ध श्रद्धान स्वजाव, ते बीजुं क्षायिक सम्यक्त्व. ए बद्धायु पामे, तेनी अपेक्षायें तो चारे गति मध्यें पामीयें तथा ए साते प्रकृति रसथी तथा प्रदेशथी उपशमावे थके जे शुद्ध श्रद्धान गुण प्रगट्यो ते श्रीजुं पशमिक सम्यक्त्व जाणवुं. मिथ्यात्वने उदयें विपरीतरुचि ते चोथं मिथ्यात्व. तथा मिश्र ने उदयें मिश्ररुचि ते पांचमुं मिश्र तथा सम्यक्त्व वमतो, मिथ्यात्वें नथी पहोतो, एनी बच्चे जे शुद्धरुचि ते बहुं सास्वादन सम्यक्त्व जाए. ए बारमी समकित मार्गणा व दें जावी. हवे संज्ञा क्षायोपशमजन्य जीवनुं ज्ञान विशेष ते पण श्रहींयां दीर्घकालिकी संज्ञा तेणे सहित ते सन्नीथा जीव मन सहित जाणवा. तथा ते संज्ञायें रहित जेने मन न होय ते सन्नीच्या जीव. एम संज्ञामार्गणायें विचारतां सर्व जीव बे प्रकारें जावा. ए संझिमार्गणा तेरमी वे नेदें जाणवी ॥ १६ ॥ आदारेच्यर नेच्या, सुर निरय विनंग मइ सु दि डुगे ॥ सम्मत्त तिगे झपा, सुक्का सन्नीसु सन्निगं ॥ १७ ॥ For Private Personal Use Only Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षडशीतिनामा चतुर्थ कर्मग्रंथ. ४ ४G५ - अर्थ- थाहारेश्ररथा के० आहारक श्रने इतर ते अणाहारक ए बे जेद आहा. रक मार्गणाना, ए चउदमी मार्गणा. हवे वाशठ मार्गणायें चौद जीवनेद कहे . सुर० के० देवगति, निरय के नरकगति, त्रीजु विनंग के० विनंग ज्ञान, चो, म के मतिज्ञान, पांचमुं सु के श्रुतझान, हिगे के अवधिज्ञान अने अवधिदर्शन, एवं सात. सम्मत्ततिगे के सम्यक्त्वनुं त्रिक, एवं दश. अने पह्मा के श्रगी. श्रारमी पद्मलेश्या, बारमी सुका के शुक्ल लेश्या, तेरमी सन्निसु के० सन्नीथा, ए तेर मार्गणायें सन्निगं के संझी पंचेंजिय पर्याप्ता अने अपर्याप्ता, ए बेजेद जीवना होय. ॥ इत्यदरार्थः ॥ १७ ॥ ___ चौदमी आहारकमार्गणा, त्यां प्रथम श्राहार त्रण प्रकारना . एक उजार, अप र्याप्तावस्थायें होय तथा बीजो लोमाहार अने त्रीजो प्रदेपाहार, ए बे थाहार पर्याप्तावस्थायें होय, ए त्रणे आहारें करी कुधोपशम हेतु शरीरादिक पुजल श्राहारे, तेने आहारक कहीये. तेथी इतर के बीजा अनाहारक जाणवा. जे कार्मणकाययोगी विग्रहगति समापन्न जीव तथा अयोगी केवली इत्यादिक अणाहारक जीव जाणवा. एम विचारतां वे ने सर्व जीव जाणवा, ए चौदमी आहारकमार्गणा कही. ए रीतें मार्गणाना उत्तर नेद बाश: कह्या. - हवे बाशठ मार्गणाधारे चौद जीवनेद विचारे . देवगति अने नरकगति, ए बे गतिमार्गणामध्ये संझी पंचेंजिय अने पर्याप्तो करण अपर्याप्तो लेवो केमके लब्धि अपर्याप्तो देव श्रने नारकी न होय माटें. त्रीजा विजंग ज्ञाने अपर्याप्तावस्थायें विनंग ज्ञानी होय. ते अपेक्षायें खेतुं तथा पंचसंग्रहमांहे विनंगें एकज जीवनेद मात्र सन्निपर्याप्तोनोज कह्यो बे ते असंझीया माहेथी आव्यो जे देवता, अने नारकी तेने अपयोप्तावस्थायें विनंगशान न होय. तेथी ते अपेक्षायें एकज नेद लीधो ले. ए विशेष बे. मतिज्ञान, श्रुतझान, अवधिज्ञान, ए त्रण ज्ञान अने दर्शनमार्गणामांदे एक अवधिदर्शन ए चार मार्गणाधार संझी पंचेंजिय करण अपार्याप्तो जीव त्रण ज्ञान सहित सम्यकदृष्टि अवतरे, ते अपेक्षायें अपर्याप्ता लीधा, तथा बीजा संझी पर्याप्ता सम्यक दृष्टि जीवने पण होय, एटले बे जीवनेद होय. त्रण सम्यक्त्वे पण ए बे जीवनेद जाणवा. त्यां बझायु सात प्रकृति मोहनी खपावी, चार गतिमाहे उपजे, त्यां अपर्याप्तावस्थायें दायिक सम्यक्त्व होय. ते श्रपेदायें एक संजीआ अपर्याप्ता लेवा तथा उपशमश्रेणिये उपशम सम्यकदृष्टि पण Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ षडशतिनामा चतुर्थ कर्मग्रंथ. ४ मरण पामीने अनुत्तरवासी देवता थाय. ते अपेक्षायें बीजा संझी अपर्याप्ता पण खेवा. अहीं कोई कहे जे संज्ञी अपर्याप्ताने उपशम सम्यक्त्व केम होय ? तेनो उत्तर जे अहीं करण अपर्याप्ता लेवा पण लब्धि अपर्याप्त। न लेवा. वेदक सम्यक्त्वे, पद्मलेश्यायें, शुक्ललेश्यायें तथा संझी मार्गणायें, ए चार मार्ग. णायें तथा पूर्वली नव, एवं तेर मार्गणास्थाने सन्निगं के संझीयाना बे नेद होय, एटले पर्याप्तो अने अपर्याप्तो ए बे नेद होय, त्यां अपर्याप्ता उपजती वेलायें करणथी लेवा जे जणी लब्धिअपर्याप्ता तो तथाविध विशुछिने बनावें ए तेर मार्गपाहारें न पामीयें. ए तेर मार्गणायें जीव नेद कह्या. अहीं वेदक अने दायोपशमिक सम्यक्त्व एकज जे. ए तेर मार्गणा थ. ॥ १७ ॥ तमसन्नि अपजाजुअं, नरे सबायर अपज तेकए ॥ थावर शगिदि पढमा, चन बार असन्नि उछ विगले ॥ १७ ॥ अर्थ-तं के० ते बे नेद असन्निश्रपङाजुओं के असंझीया लब्धि अपर्याप्ता सहित ए त्रण नेद, नरे के मनुष्यगतिने विष होय, सवायरअपजातेऊए के ते बे बादर अपर्याप्ता सहित त्रण भेद तेजोलेश्यामांहे होय. अने थावरगिदि के पांच स्थावरकाय अने इंजियमार्गणामांहेली एकेजिय, ए उ बोलने विषे पढमाचल के प्रथमना चार नेद जीवोना होय. तथा बारअसन्नि के प्रथमना बार नेद असंझीमां होय, अने ऽऽविगले के बेबे जीवनेद प्रत्येक विकलेंजियमांहे होय. ॥ इत्यक्षरार्थः ॥ १७॥ ते संज्ञीपर्याप्तो अने संझी अपर्याप्तो, ए बे नेद अने असंझी लब्धि अपर्याप्तो, एत्रण नेद मनुष्यगतिमाहे पामीयें, जे जणी मनुष्यना मल मूत्रादिक चौद स्थानकें संमूमि मनुष्य, असंख्य उपजे, ते अपर्याप्ताज मरण पामे. पण पूरी पर्याप्ति न करे. गर्ज़ज बे नेदे होय, ते गर्भज मनुष्य सन्नीथाना बे नेद तथा बादर एकेंजिय अपर्याप्ता सहित त्रण जीव जेद ते तेजोलेश्यायें होय. जे नणी बादर एकेंजियमांदेखा पृथ्वी, अप् अने वनस्पतिमध्ये देवता लेश्या सहित अवतरे बे. तेनी अपर्यातावस्था होय तेवारें तथा सन्निधाने पर्याप्ता अपर्याप्ता ए बेहु अवस्थायें तेजोलेश्या होय. अहींां पण करणअपर्याप्ता बेवा. हवे बकायमार्गणा हारने विषे एक त्रसकाय मार्गणा रहेवा दीजें, ते मूकीने बाकीनी पांच स्थावर कायमार्गणा अने इंजिय हारने विषे बेंजिय, तेंजिय, चौरिंप्रिय अने पंचेंजिय रहेवा दीजें, बाकी एकेजियनी एकज मार्गणा लहीये, तेवारें Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षडशीतिनामा चतुर्थ कर्मग्रंथ. ४ ដូចៗ पांच थावरने विषे पण जीवना चार नेद लाने अने इंजिय छारमाहेला एकेजिय मध्ये पण जीवना चार नेद लाने, ते चार नेदनां नाम कहे . एक सूक्ष्मएकेंजियपर्याप्तो, बीजो सूक्ष्मएकें जियश्रपर्याप्तो, तथा त्रीजो बादरएकेजियपर्याप्तो, चोथो बादरएकेंजियअपर्याप्तो, ए रीते पांच स्थावरकायमार्गणा तथा बही एकेजियमार्गणा, ए मार्गणाधारे पूर्वोक्त चार जीवनेद होय. ___ ए रीतें पूर्वली गाथामां तेर मार्गणा छारें जीवनेद कह्या अने आ गाथामां अहीं सुधी मनुष्यगतिमार्गणा तथा तेजोलेश्यामार्गणा, पांच स्थावरकायमार्गणा अने एक एकेजियमार्गणा, एम सर्व मली एकवीश मार्गणायें जीव नेद कह्या. ___ बावीशमी असंझी मार्गणायें बार जीवजेद होय. तेनां नाम कहे जे. सूक्ष्मएकेजिय पर्याप्ता अने अपर्याप्ता, बादरएकेंजिय पर्याप्ता श्रने अपर्याप्ता, बेंजिय पर्याप्ता अने अपर्याप्ता, तेंजिय पर्याप्ता श्रने अपर्याप्ता, चौरिजिय पर्याप्ता श्रने अपर्याप्ता, असंही पंचेंजिय पर्याप्ता अने अपर्याप्ता, ए बार नेद असंझी मार्गणायें होय, जे जणी एउँने जव्यमन न होय अने जावमन होय. ते जणी असंझी कहीये. ए बावीश मार्गणा छारें जीवनेद कह्या. त्रेवीशमी बेइंडिय मार्गणायें बेंजिय पर्याप्ता अने अपर्याप्ता, ए बे जीवजेद पामीये. चोवीशमी तजियमार्गणायें तेंज्यि पर्याप्ता अने अपर्याप्ता, ए बे जीवजेद पामीयें, पच्चीशमी चौरिंजिय मार्गणायें चौरिंघिय पर्याप्ता अने चौरिंजिय अपर्याप्ता, ए बे जीवनेद पामीयें. ॥ १७ ॥ दसचरिम तसे अजया, हारग तिरि तणु कसाय 5 अनाणे ॥ पढम तिलेसा नविअर, अचकु, नपु मिबि सवेवि ॥ १ ॥ अर्थ-दसचरिम के दश नेद बेसा, तसे के० त्रसकायमार्गणायें पामीयें तथा अजयाहारग के अविरतिमार्गणा, थाहारकमार्गणा, तिरि के तिर्यंचगति, तणु के काययोगमार्गणा, कसाय के चार कषायमार्गणा, मुथनाणे के बे अज्ञानमागणा, पढमतिलेसा के प्रथमनी त्रण लेश्या मार्गणा, नविथर के० जव्यमार्गणा अने इतर ते अजव्यमार्गणा, अचस्कु के थचकुदर्शनमार्गणा, नपु के नपुंसकवे. दमार्गणा, मिलि के० मिथ्यात्वमार्गणा, एटली मार्गणायें सवेवि के० सर्व चौदे जीवनेद पामीये. ॥ इत्यदरार्थः ॥ १॥ सूक्ष्मएकें जिय पर्याप्ता अने अपर्याप्ता तथा बादरएकेंजिय पर्याप्ता अने अपर्याप्ता, एवं चार नेद विना बाकी चौदमाथी चरम एटले ब्रह्मा दे इंडियादिक दश Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ មចុច षडशीतिनामा चतुर्थ कर्मग्रंथ. ४ जीवनेद त्रसकाय मार्गणायें पामीये. जे जणी ३जिय, तेंजिय, चौरिप्रिय अने पंचेंजिय जीवने त्रस नामकर्मनो उदय डे, तेथी पोताने बलें हाले चाले ले. अने एक संयम मार्गणामध्ये अविरतिमार्गणायें, बीजी आहारकमार्गणामध्ये श्राहारकमार्गणाये, त्रीजी गतिमार्गणामध्ये तिर्यंचगतिमार्गणायें, चोथी योगमार्गणामध्ये काययोगमार्गणायें तथा चार कषाय मार्गणायें एवं आठ मार्गणा. तथा मति अने श्रुत ए बे अज्ञानमार्गणायें, एवं दश. वेश्यामार्गणामध्ये कृप्स, नील अने कापोत, एत्रण लेश्यामार्गणायें, एवं तेर, तथा जव्य अने इतर के अजव्य ए बे मार्गपायें, एवं पंदर तथा दर्शनमार्गणामध्यें थचकुदर्शनमार्गणायें, एवं शोल, वेदमार्गणामध्ये नपुंसकवेद मार्गणायें, एवं सत्तर, सम्यक्त्व मार्गणामध्ये मिथ्यात्वमार्गणाये, एवं अढार मार्गणामध्ये १ सूक्ष्मएकेजिय, २ बादरएकेंजिय, ३ ३जिय, ४ तेंजिय, ५ चौरिंजिय, ६ असंझीपंचेंजिय, ७ संझीपंचेंजिय, ए सात पर्याप्ता तेमज ए सात अपर्याप्ता, एम चौद नेद जीवना होय. जे नणी १ अविरतिपणुं, २ आहारकपएं, ३ तिर्यंचपएं, ४ काययोगीपणुं, चार कषायनो उदय, बे अज्ञान, कृस, नील अने कापोत ए त्रण लेश्या, नव्यपणुं, अजव्यपणुं, अचनुदर्शन, नपुंसकवेद, मिथ्यात्व, ए अढारे बोल चौद जीवनेदमाहे संजवे, त्यां मिथ्यात्व तो एकेंजियादिक बार जीवजेदने विषे एक अनाजोग मिथ्यात्वज होय, जे जणी तेउँने अव्यक्तपणे तत्वरुचि नथी तेथी तेने तत्वरुचि विना मिथ्यात्व कहीयें, तथा पंच संग्रहमध्ये ए बारजीवजेदने अननिग्रहित मिथ्यात्व कह्यु बे, जे जणी एणे कोश् देव गुरुने ग्रहण कस्यो नथी ते अपेदायें कडं ने तथा ए लब्धियी तथा करणथी अपर्याप्ता बेहु अहीं लेवा. अहीं इंजियपर्याप्ति पूरी कस्या विना अव्येजियने अनावें पण अचकुदर्शन कडं ते एटला वास्ते जे श्रांख विना बीजा इंजिय तथा नोजिय तथा अव्येडियने श्रजावें जे इंज्यिविषयि सामान्यावबोध ते अचकुदर्शन जाणवू. जे जणी विग्रहगतिने विषे तथा कार्मणयोगें पण अनाकारोपयोग सिद्धांतमां कडं बे. त्यां वाटेंवहेता जीवमा जे अवधिदर्शनी जीव नथी, तेने बीजुं कयुं दर्शन होय ? ते नणी त्यां पण अचकुदर्शन मान्युं बे. एटले मूलथी चुम्मालीश मार्गणाघारे जीवनेद कह्या. ॥ १ ॥ पजासन्नि केवल दुग, संजम मणनाण देस मण मीसे ॥ पण चरिम पज वयणे, तिय वि पजिपर चकुंमि॥२०॥ . . अर्थ- पङसन्नि के पर्याप्ता संझी पंचेंजियनो एक नेद, ते अगीबार मार्गणा Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षडशीतिनामा चतुर्थ कर्मग्रंथ. ४ ४नए छारें पामीय, तेनां नाम कहे जे. केवलग के केवलज्ञान ने केवलदर्शन, संयम के संयम मार्गणा मांदेली पांच मार्गणायें, एवं सात. मणनाण के मनःपर्यवज्ञान, देस के० देशविरति, मण के मनोयोग, मीसे के मिश्रदृष्टिमार्गणायें. एवं अगीबार मार्गणानेविषे पूर्वोक्त एकज जीवनेद होय. तथा पणचरिम के पांच बेझा जीवनेद पऊ के पर्याप्ताना ते वयणे के एक वचनयोगमार्गणाने विषे होय, अने तिय के त्रण अथवा एज त्रणने पछिअर के पर्याप्ता तथा अपर्याप्ता ए बे नेदें करतां बवि के ब जीवन्नेद चकुंमि के एक चकुदर्शनमार्गणाने विषे होय. ॥ इत्यक्षरार्थः ॥२०॥ हवे करणपर्याप्तो संझी पंचेंजियनो एक जीवन्नेद अगीश्रार मार्गणाद्वारे पामीयें, ते अगीयारनां नाम कहे . १ केवलज्ञान, २ केवलदर्शन, ३ सामायिकचारित्र, ४ बेदोपस्थापनीयचरित्र, ५ परिहार विशुकिचारित्र, ६ सूक्ष्मसंपरायचारित्र, ७ यथाख्यातचारित्र, ७ मनःपर्यवज्ञान, ए देश विरति, १० योगमार्गणामांहे एक मनोयोग, ११ मिश्रदर्शन, ए अगीआर मार्गणा संज्ञी पंचेंजियपर्याप्ताने होय, अहीं केवलज्ञानी अने केवलदर्शनी पण, अव्यमन संबंधे संझी केवली होय, ते अपेक्षायें संझी लेवो. बीजु केवलीने मतिज्ञानावरणीय दायोपशमजन्य ज्ञान विशेष नावमन न होय. जे नणी केवलीनुं ज्ञान दायिकनावें वे पण दायोपशम नावें नथी. ए पर्याप्तो लब्धिथी तथा करणथी उन्नयप्रकारें लेवो. बीजा तेर जीवन्नेदें ए अगीबार बोल न पामीये. देशविरतिचारित्र अने सर्व विर तिचारित्र पण संझी पर्याप्तानेज होय. पणचरिम के पांच जीवनेद बेल्हा पर्याप्ताना लेवा, एटले १ बेंजिय, २ तेंजिय, ३ चौरिंजिय, ४ असंझी पंचेंजिय, ए पांच पर्याप्ता करणथी तथा लब्धिथी उलय प्रकारें लेवा. ए पांच नेद वचनयोगमार्गणायें होय. केमके ए पांच जीव जेदने नाषा होय, शेष नव जीवजेदने नाषा न होय माटें. त्रण तथा ब द एटले १ चौरिंजियपर्याप्तो, ५ असंझीपंचेंजियपर्याप्तो, ३ संझी. पंचेंजियपर्याप्तो, ए त्रण जीवना जेद चकुदर्शनमार्गणायें होय. तथा कोइएक श्राचार्य इंजियपर्याप्ति पूरी कस्या पली इतर एटसे शेष पर्याप्तियें करी अपर्याप्ता एवा एज त्रण जीवनेद, एवं उ नेद होय. एटले एज त्रण नेद पर्याप्ताना अने एज त्रण नेद अपर्याप्ताना, एवं जीवस्थानकें चकुदर्शन होय, एम कहे . एटले सत्ताबन मार्गणाबारे जीवनेद कह्या. ॥ २० ॥ Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ए षडशीतिनामा चतुर्थ कर्मग्रंथ. ४ थी नर पणिदि चरमा, चन अणदारे उसन्नि उ अपजा ॥ ते सुहुम अपऊ विणा, सासणि इत्तो गुणे वुद्धं ॥२१॥ अर्थ- थीनरपणिदि के स्त्रीवेद अने पुरुषवेद तथा पंचेंजिय, ए त्रण मार्गणायें चरमाचल के बेहा चार जीवन्नेद जाणवा, अने अणहारे के० अणाहारक मार्गणायें उसन्नि के बे संझीथा, अपजा के उ अपर्याप्ता, ए श्राप जीवनेद होय. ते के० ते आठ नेदमांश्री सुहमअपजाविणा के० सूक्ष्म अपर्याप्ता विना बाकीना सात जीवन्नेद, सासणि के० सास्वादनमार्गणायें जाणवा. इत्तोगुणेवुहं के हवे अहींआंथी श्रागले बाश मार्गणाधारे गुणगणां कहीशु. ॥ इत्यक्षरार्थः ॥१॥ - वेदमध्ये स्त्रीवेद अने पुरुषवेद तथा इंजियमध्ये पंचेंद्रिय, एत्रण मार्गणाद्वारे बेला चार जीवन्नेद होय, एटले असंझी पंचेंजियपर्याप्तो अने अपर्याप्तो तथा संझीपंचेंजियपर्याप्तो अने अपर्याप्तो ए बेहा चार जीवनेद होय, अहींआं स्त्री पुरुष चिन्हरूप वेद असन्निाने लेवा पण नाववेद तो नपुंसक वेदेंज . शेष बे नेद न होय तथा सन्नि पण करणअपर्याप्तो लेवो. केम के लब्धि अपर्याप्ताने तो नपुंसक वेद होय. ___ अनाहारक मार्गणाछारें केवली समुद्घातनी वेलायें १ संझी पंचेंघिय पर्याप्तो लेवो, २ अपर्याप्तो, ३ सूक्ष्म एकेंजिय अपर्याप्तो, ४ बादर एकेंजिय अपर्याप्तो, ५ बेंघिय अपर्याप्तो, ६ तेंद्रिय अपर्याप्तो, चौरिंजिय अपर्याप्तो, असंझीपंचेंजिय अपर्याप्तो, ए आठ जीवनेद होय. तिहां अपर्याप्ता वक्रगतियें बे, त्रण समय लगें होय, त्रण समय अनाहारी रहे. ए अपेदायें ए साते अपर्याप्ता अनाहारक मार्गणायें पामीयें तथा केवली समुदघात करतो त्रीजे, चोथे अने पांचमे, ए त्रण समयें कार्मणयोगी नणी श्रणाहारी होय. ते माटें संझी पंचेंजियपर्याप्ता पण लेवा. जे नणी अव्य मनसंबंधे केवलीने सन्नि कहीये. १ बादर एकेंजिय, २ बेंजिय, ३ तेंजिय, ४ चरिंजिय, ५ असंझी पंचेंजिय, ६ संज्ञी पंचेंजिय. ए जीव नेद अपर्याप्ताना अने सातमो संझी पंचेंजियपर्याप्तो, ए सात जीव जेद सास्वादन मार्गणायें लाने, केम के कोइ जीव सम्यक्त्व वमतो सूदम एकें जियमांहे न उपजे, तेथी अपर्याप्तावस्थायें सास्वादनपणुं सूदमएकेजियने न होय, ते नणी बाकीना ब जीवन्नेद अपर्याप्ताना लीधा, केमके ए बए करण अपर्याप्तामांहे सम्यक्त्व वमतो जीव अवतरे, ते अपेक्षायें लीधा, तथा सन्निा अपप्तिाने ग्रंथिनेदें उपशम सम्यक्त्व लही एक समय जघन्य अने उत्कृष्ट ब आवलिशेषसम्यक्त्वें प्रथम कषायोदयें पमतां तथा उपशमश्रेणीथी पमतां साखादन श्रावे Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सव॥ षडशीतिनामा चतुर्थ कर्मग्रंथ. ४ ४ए माटें कह्यो. एम बासह मार्गणाद्वारे जीवजेद कह्या. गुण बाहिरा एटले ए सर्व मार्गणास्थित जीव गुणगणा विना न होय, ते नणी गुणगणां अनुक्रमें मार्गणाघारें जिहां जेटलां संनवे, तिहां तेटलां कहीयें बैयें. ॥१॥ पण तिरि चन सुर निरए, नर सन्नि पणिंदि नव तसि सवे॥ ग विगल नदगवणे, एगं गई तस अनवे ॥२२॥ अर्थ- पण तिरि के पांच गुणगणां तिर्यंच गतियें होय. चनसुरनिरए के चार गुणगाणां देवगति अने नरकतियें जाणवां, तथा नरसन्निपणिं दिनवतसि के १ मनुष्यगति, ५ संझी, ३ पंचेंजिय, ४ नव्य थने ५ त्रस, ए पांच मार्गणायें सवे के सर्व गुणगणां होय, तथा गविगल के० एकेंजिय, विकलेंज्यि, नूदगवणे के० पृथ्वी, अप आने वनस्पति. ए सात मार्गणायें मुमु के बेबे गुणगणां होय, अने एगंगइ. तसअनवे के गतित्रस तथा अजव्यने विषे एगं एटले एक मिथ्यात्व गुणगणुंज होय. ॥ इत्यदरार्थः ॥२५॥ __ गतिमार्गणामांहे तिर्यंचगतियें मिथ्यात्वथी मामीने देश विरति लगें पांच गुणगणां पामीयें. शेष नव गुणगणां नवप्रत्ययेंज तेने न होय. अने मिथ्यात्वथी मांडीने अविरतिसम्यदृष्टि लगें चार गुणगणां देवगति तथा नरकगतिमध्ये लाने. शेष दश गुणगणां जव प्रत्ययेंज विरतिने अन्नावें तेउने न होय. एवं त्रण गतिमार्गणा थई. - गतिमध्ये मनुष्यगतिमार्गणा,बीजी सन्निमध्ये संझी मार्गणा, त्रीजी इंजियमार्गणामध्ये पंचेंजिय मार्गणा, चोथी नव्यमध्ये नव्यमार्गणा, पांचमी कायमार्गणामध्ये त्रसकायमार्गणा, ए पांच मार्गणाद्वारे मिथ्यात्वथी मांडीने अयोगी केवली पर्यंत चौदे गुणगणां लाने. जे जणी मनुष्य, संन्नि, पंचेंजिय, जव्य अने त्रस, तेने सर्व गुणगणां संजवे. एवं श्राप मार्गणायें गुणगणां कह्यां. इंजियमार्गणामध्ये एकेंजिय, बेंजिय, तेंघिय अने चौरिंजिय, एवं चार अने का. यमार्गणामध्ये पृथ्वी, अप अने वनस्पति. ए त्रण मार्गणा. एवं सात मार्गणामध्ये मिथ्यात्व ने सास्वादन, ए बे गुणगणां लाने. केमके जे सम्यक्त्व वमतो पूर्वबझायु ए सातमध्ये अवतरे, तेने थपर्याप्तावस्थायें सास्वादन गुणगणुं होय. बीजुं सर्वदा मिथ्यात्व गुणगणुंज होय, जे जणी ए सर्वने अनाजोगपणे तत्वश्रझान एणे ग्रयु नथी, तेथी ए अननिग्रहीतपणे कहीये. एवं पंदर मार्गणा थई. गतित्रस ते आत्मशक्तियें हालवे चालवे करी त्रस जाणवा, पण त्रसपणे त्रसनामकर्मना उदयथी त्रस नहीं, एटले तेउकाय, अने वायुकाय, ए बे मार्गणाना जीव ल Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पए षडशीतिनामा चतुर्थ कर्मग्रंथ. ४ ब्धि त्रसगतियें त्रस कहेवाय तेने, तथा अजव्यमार्गणायें, ए त्रणे मार्गणायें, मिथ्यास्वगुणगणुं होय, जे जणी ए मध्ये को जीव, सम्यक्त्व वमतो पण न उपजे, तथा अजव्यनें तो सम्यक्त्व स्पर्शेज नहीं, तेथी अजव्यने सास्वादन गुणगणुं न होय. एवं अढार मार्गणाधारें गुणगणां कह्यां. ॥॥ वेअ ति कसाय नव दस, लोने चन अजउ ति अनाण तिगे ॥ बारस अचस्कु चस्कुसु, पढमा अहखाइ चरिम चऊ ॥ २३ ॥ अर्थ- वेअतिकसाय के त्रणे वेद,अनेक्रोध, मान, माया, एत्रणे कषाय, नव के नव गुणगणां होय, अने दसलोने के लोनमार्गणायें दश गुणगणां होय. चनअजश् के० चार गुणगणां श्रविरतिमार्गणायें होय. उतिथनाणतिगे के बे तथा त्रण गुणगणां अज्ञानत्रिकें होय. तथा बारसथचस्कुचरकुसुपढमा के० अचकुदर्शनीय श्रने चकुदर्शनीय जीवने पढमा एटले प्रथमनां बार गुणगणां होय, अने श्रहखाश्चरिमचऊ के यथाख्यातचारित्रं बेहवां चार गुणगणां होय. ॥ २३॥ स्त्री, पुरुष अने नपुंसक, ए त्रण नाववेद तथा क्रोध, मान थने माया, ए त्रण कषाय, एवं ब प्रकृतिना उदयवंत जीवने प्रथमनां नव गुणगणां होय, केम के नव गुणगणां पर्यंत त्रण कषायनो उदय डे, तेथी एणे औदयिक पर्यायने नव गुणगणां लाने. एवं चोवीश मार्गणा थई. लोजकषायमार्गणायें सूमसंपरायगुणगणुं होय, जे जणी मिथ्यात्वथी मामीने दशमा गुणगणा सुधी लोचनो उदय , तेथी लोजी जीवने दश गुणगाणां होय, बीजा गुणगाणां वेद अने कषायने विषे न संचवे. पहेले गुणगणे अनंताबंधीयाने सरखो संज्वलनो क्रोध,त्रीजे मिश्रगुणगणे अविरति अपच्चरकाणियाने सरखो संज्वलनो क्रोध, देशविरतिगुणगणे पच्चरकाणीयाने सरखो संज्वलनो क्रोध तथा प्रमत्तगुणगणाथी मामीने संज्वलनाने सरखो संज्वलन होय. एवं पञ्चीश. - असंयति एटले विरति रहित जे जीव, तेने विषे मिथ्यात्वथी मामीने श्रविरति सम्यक्दृष्टि सुधीनां चार गुणगणां लाने, जे जणी पांचमे गुणगणे देशविरति होय, अने उपरला नव गुणठाणे सर्व विरति होय पण त्यां अविरति नहीं होय माटे. बबीश. मतिबझान, श्रुतबझान अने विनंगज्ञान, ए त्रण मार्गणायें जो सम्यक्त्वांश मिश्रगुणगणे अधिक होय तो तेवारे त्रण अझानने बे गुणगणां होय, अने मिश्रगुपगणे मिथ्यात्वांश अधिक होय तो अज्ञान घणुं होय, तेवारें मिथ्यात्व अधिक Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षडशीतिनामा चतुर्थ कर्मग्रंथ. ४ ४ए३ होय अने एकगणीयु मिथ्यात्व वेदे, तेवारें सम्यक्त्व अधिक होय तथा जे मते सम्यक्त्व विना सर्व अज्ञानी जीव कह्या, ते मते ए त्रण अज्ञानने त्रण गुणगणां लाने, जे जणी मिश्रदृष्टि पण अज्ञानी , मिश्रगुणगणे पण अर्धं मतिज्ञान अने अधैं मतिअज्ञान तथा अर्धं श्रुतदान, अने अधुं श्रुतअज्ञान होय, तथा अधु विनंगज्ञान अने अर्धं श्रवधिज्ञान होय तथा पूर्ण मतिमझान अने पूर्ण विनंग. झान, तेवारें पहेले, बीजे गुणगणे त्रण अज्ञान होय. वली कोश्क श्राचार्य कहे बे के मिश्रगुणगाणे मिथ्यात्व घणुं होय तेवारें मिश्रगुणगणे त्रणे अज्ञान होय, ए बे मत बे. पडी साचं खोटुं तो ज्ञानी जाणे. एवं गणत्रोश मागेणा थई. प्रथमनां बार गुणगणां एटले मिथ्यात्वथी मामीने बारमा दीणमोह गुणगणा सुधीनां बार गुणगणां, चतुदर्शन तथा अचकुदर्शन, ए बे मार्गणा छारें होय. जे जणी ए बे दर्शन, दायोपशमिकनावें होय अने आग बे गुणगणे दायोपशमिक नाव नथी. तिहां दायिकत्नाव होय अने श्रागले बे गुणगणे केवलीने केवलदर्शन अने केवलझान डे पण केवलीने इंजियजन्य ज्ञान तथा दर्शन, ए बेहु न होय. केवलीनुं पारमार्थिक प्रत्यक्ष सकल ज्ञान बे, ते नणी ए बेहु दर्शनें बार गुणगणां पहेला संजवे. अहीं श्रन्नेदनयें जीवदर्शन जाणवू. एवं एकत्रीश. यथाख्यातचारित्र मार्गणायें बेहबां चार गुणगणां होय एटले उपशांत मोह, दीणमोह, सयोगी अने अयोगी, ए चार गुणगणां होय, तिहां श्रगीश्रारमे गुणगणे कषायोपशमश्री यथाख्यातचारित्र औपशमिकनावें होय, अने शेष त्रण गुणगणे कषायदय थयाथी दायिकनावें यथाख्यातचारित्र वीतरागचारित्र होय. श्रही श्रां पण चारित्रवंतने अनेद विवदायें लीधा. एवं बत्रीश मार्गणा छारें गुणगणां कह्यां. ॥२३॥ मणनाणि सग जयाई, समश्य अचन उन्नि परिहारे ॥ . केवल उगि दोचरिमा, जयाइ नव मसु उदि उगे ॥२४॥ अर्थ- मणनाणिसगजयाई के मनःपर्यवज्ञानमार्गणायें प्रमत्तादिक सात गुणगणां होय, समश्यअचल के सामायिक अने दोपस्थापनीय चारित्रे चार गुणगणां होय. परिहारेकुन्नि के परिहार विशुछिचारित्रे बे गुणगणां होय. केवलागिदोचरिमा के केवलज्ञान अने केवलदर्शन, ए बे मार्गणायें बे नेवां गुणगणां होय, तथा अजयाश्नव के अविरत्यादिक नव गुणगणां मसु के मतिज्ञानमार्गणाने विषे तथा हिपुगे के अवधिज्ञान अने अवधिदर्शनने विषे जाणवां. ॥३. त्यदरार्थः ॥२४॥ Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ए४ षडशीतिनामा चतुर्थ कर्मग्रंथ. ४ __मनःपर्यवज्ञानमार्गणायें जया के० यत्नावंतसाधु तेनां गुणगणां प्रमत्तादिकथी मामीने क्षीणमोह लगें सात गुणगणां होय. एटले चारित्रियाने अप्रमत गुणगणे मनःपर्यवज्ञान उपजे, ते वली प्रमत्तें श्रावे, ते अपेक्षायें प्रमत्त गुणगणुं पण कद्यु अने बीजा गुणगणायें ते साधु उपशमश्रेणि तथा क्षपकश्रेणि करे, ते अपेक्षायें सात गुणगणां लाने. अहीं पण ज्ञानवंतने अनेद विवदायें गुणगणां कह्यां. एवं तेत्रीश. _संयममार्गणामध्ये सामायिक अने दोपस्थापनीय, ए बेहु चारित्रे एटले ए बे चारित्रवंत जीवने प्रमत्त, अप्रमत्त, निवृत्ति अने अनिवृत्ति, ए चार गुणगणां लाने. ए बेहु चारित्र दायोपशमिकनावें तथा उपशम श्रेणियें नवमे गुणगणे औपशमिक चारित्र होय, तेने मतें औपशमिकनावे तथा दपकश्रेणिये नवमे गुणगणे दायिकनावें, एमत्रण नावें होय, एवं पांत्रीश मार्गणा थई. ___परिहार विशुद्धिचारित्रे प्रमत्त अने अप्रमत्त, ए वे गुणगणां होय. ए चारित्र उपशमश्रेणी तथा रूपकश्रेणी, ए बेहु श्रेणी न होय, तेथी भागला गुणगणां ए चारित्रं न होय. ए चारित्र दायोपशमिकना होय. एवं त्रीश. __ केवलज्ञान अने केवलदर्शन, ए बे मार्गणाद्वारे चरमा के बेवांबे गुणगणां होय, एटले एक सयोगी ने बीजुं अयोगी, ए बे गुणगणां होय, त्यांज केवलज्ञान अने केवलदर्शन होय. ए बेहु दायिकनावें ज्ञानज्ञानवंतने अजेदनयें पर्यायार्थिकनयें मुख्यतायें ज्ञानमार्गणायें गुणगणां कह्यां. एवं आडत्रीश. अविरति सम्यकदृष्टिगुणगणाथी मांडीने बारमा क्षीणमोह पर्यंतनां नव गुणगणां १ मतिज्ञान, २ श्रुतज्ञान, ३ अवधिज्ञान, ४ अवधिदर्शन, ए चार मार्गणायें होय. केम के सम्यक्त्वने अनावें मिथ्यात्वादिक त्रण गुणगणे ज्ञान न होय, तथा अवधिदर्शन मिथ्यात्वादिक त्रण गुणगणे सिद्धांतें मान्युं बे, पण कर्मग्रंथने मतें न मान्यु, तेथी त्यां पण नव गुणगणां कह्यां. तथा सयोगी अने अयोगी, ए बे गुणगणे केवलज्ञान अने केवलदर्शन, ए बे होय. तेमांहे बाझस्थिक सर्व ज्ञान दर्शन श्राव्यां. एवं बेंतालीश मार्गणाधारें गुणगणां कह्यां ॥२४॥ अड जवसमि चन वेअगि, खइए इक्कार मित्र तिगि देसे ॥ सुदुमे स्सहाण तेर, स जोग आदार सुक्काए ॥२५॥ ' अर्थ- अमउवसमि के श्राउ गुणगणां औपशमिक सम्यक्त्वे होय. चनवेथगि के चार गुणगणां, वेदकसम्यकदृष्टिनें होय. खरएक्कार के दायिकसम्यक्त्वें अगीथार गुणगणां होय. मितिगि के० मिथ्यात्व, साखादन ने मिश्र, एत्रण तथा Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षडशीतिनामा चतुर्थ कर्मग्रंथ. ४ पए देसे के देशविरति, सुहुमे के सूक्ष्मसंपराय, एवं पांच मार्गणा स्सहाण के० पोतपोताने गुणस्थानकें होय. अने तेरस के तेर गुणगणां, जोग के योगनी त्रण मा. र्गणा तथा आहार के० आहारमार्गणा अने सुक्काए के शुक्ललेश्यामार्गणा, एवं पांच मार्गणायें होय. अविर तिथी मांडीने श्रगीधारमा गुणगणां लगे श्राप गुणगणा सुधीमां औपशमिक सम्यक्त्व मार्गणा होय. तेमांहे अविरति, देशविरति, प्रमत्त अने अप्रमत्त, ए चार गुणगणां ग्रंथिन्नेद करतां देश विरति तथा सर्व विरति लहे, ते अपेक्षायें सेवा. तथा श्रागलां चार गुणगणां उपशमश्रेणीयें होय. एवं तेंतालीश. अविरति, देशविरति, प्रमत्त, अने अप्रमत्त, ए चार गुणगणां वेदक के दायोपशमिक सम्यक्त्वे होय, अने श्रागले गुणगणे श्रेणी करतां औपशमिक तथा कायिक सम्यक्त्व होय, पण तिहां सम्यकत्व मोहनीय वेदवाने अजावें वेदक सम्यक्त्व न होय. एवं चुम्मालीश मार्गणायें गुणगणां कह्यां. दायिक सम्यक्त्वमार्गणायें अविरतिगुणगणाधी मांडीने अयोगी लगें अगीयार गुणगण होय, अहीं प्रथमनां त्रण गुणगणों न होय, जे जणी चोथे, पांचमे, बहे अने सातमे, ए चार गुणगाणे तो जेणे मोदनीयनी सात प्रकृत्ति खपावी ने पूर्वे परनवश्रायु बांध्यु होय ते रहे. तथा जो अबझायु दपक श्रेणी करे तो तेनी अपेक्षायें अगीपार गुणगणां होय. अहींयां को पूजे जे सम्यक्त्व मोहनीयना क्षयथी थयुंजे तत्वज्ञान, तेने सम्यक्त्व केम कहीयें ? तत्रोत्तरं. जे मिथ्यात्वना पुजल, मादक शक्तिरहित शोध्या तंबूलनी पेरें कख्या तेने सम्ययक्त्व मोहनीय कहीयें तेनी पेरें दायथी प्रगट्यो जे आत्मानो शुक श्रमानगुण, जेम आबां पडल उतारे अांखनां पडल मटे, तेज प्रगट थाय, तेनी परें जे शुभत्मिगुण प्रगटे तेने सम्यक्त्व कहीये. ते पाम्या पलीत्रण जव करे, जो पूर्वे देवायु तथा नरकायु बांध्युं होय तो त्रण नव करे, थने मनुष्यायु तथा तिर्यंचायु बांध्या पली ए सम्यक्त्व लहे, तो जेणे असंख्याता वर्षायु युगलीयानुं बांध्युं होय तेज जीव, सम्यक्त्व आहे. पण जेणे संख्यात वर्षायुनो बंध कस्यो होय तो ते जीव पली दायिक सम्यक्त्व न लहे, तो ते अपेदायें चार नव करे. यतः " तंमियतश्शचनलं, नवंमि सितंति खश्वसम्मत्ते ॥ सुर निरय जुगलि सुगई; शमं तुजिणकालिशनराणं ॥१॥" एवं पीस्तालीश मिथ्यात्वमार्गणायें पहेलु मिथ्यात्व गुणगएं होय, सास्वादनमार्गणायें सास्वादन Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ए६ षडशीतिनामा चतुर्थ कर्मग्रंथ. ४ गुणगणुं होय, मिश्रमार्गणायें मिश्रगुणगणुं होय, ए मिथ्यात्वादिक त्रिकने विषे आप श्रापणा नामनुं गुणगणुं एकेक होय तथा देश विरतिमार्गणायें पांचमुं गुणाएं होय, तथा सूदमसंपरायचारित्रमार्गणायें एक सूक्ष्मसंपराय नामे दशमुं गुणगणुं होय. एम ए पांच मार्गणाद्वारे स्सहाण के० पोतपोतानां नाम सर एकेक गुणगणुं जाणवू. अहींयां पण अजेदनयें जीवडव्यने मिथ्यात्वादिक पर्याय अनिन्न विवदिने गुणगणुं जाणवू. एवं पञ्चाश मार्गणाधारे गुणगणां कह्यां. . मनोयोग, वचनयोग अने काययोग, ए त्रण योगें सामान्यनये मिथ्यात्वीथी ले। तेर गुणगणां लाने, अने विशेषापेक्षायें तो एक सत्य, बीजुं असत्यामृषा, ए बे मनोयोगें श्रने एज बे वचनयोगें तेर गुणगणां होय, अने बीजा मनोयोगें तथा वचनयोगे जे चार योग थाय, ते चार योगें बार गुणगणां जाणवां. औदारिकमिश्रकाययोगें १ मिथ्यात्व, २ सास्वादन, ३ अविरति अने ४ सयोगी, ए चार गुणठाणां जाणवां तथा वैक्रियकाययोगें प्रथमथी मांडीने सातमा लगें सात गुणगणां जाणवां, तथा वैक्रिय मिश्रकाययोगें १ मिथ्यात्व, २ सास्वादन, ३ अविरति, ४ देशविरति अने ५ प्रमत्त, ए पांच गुणगणां जाणवां. थाहारककाययोगें प्रमत्त अने अप्रमत्त, ए बे गुणगणां जाणवां. आहारकमिश्रकाययोगें एकज प्रमत्त गुणगणुं जाणवं, तथा कार्मणकाययोगें एक मिथ्यात्व, बीजं सास्वादन, त्रीजु अविरति, चोथु सयोगी, ए चार गुणगणां होय. एवं त्रेपन मार्गणा थई. श्राहारीनी मार्गणायें पहेलां तेर गुणगणां जाणवां. तथा शुक्ललेश्यामार्गणायें पण ए तेर गुणगणां जाणवां. तथा चौदमे अयोगी गुणगणे अणाहारीअलेशी होय. एवं पंचावन मार्गणाधारे गुणगणां कह्यां ॥ २५॥ असन्निसु पढम उग, पढम तिखेसासु बच्च उसु सत्त ॥ पढमंतिम उग अजया, अणदारे मग्गणासु गुणा ॥१६॥ अर्थ- असन्निसुपढमगं के असंझीमार्गणायें प्रथमनां बे गुणगणां होय. पढमतिलेसासुबच के पहेली कृष्णादिक त्रण वेश्यो मार्गणायें ब गुणगणां जाणवां. अने मुसुसत्त के तेजो अने पद्म ए बे लेश्यायें सात गुणगणां जाणवां. पढमंतिमग के प्रथमनां बे गुणगणां, अने अंतना बे गुणगणां, एवं चार तथा श्रजया के अविरतिगुणगणुं, एवं पांच गुणगणां, अपहारे के० अणाहारकमार्गणायें जाणवां. ए मग्गणासु के बाशक मार्गणाधारने विष गुणा के गुणगणां विवरीने कह्यां. ॥ इत्यदरार्थः ॥ २६ ॥ Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षडशीतिनामा चतुर्थ कर्मग्रंथ. ४ ४ाए दीर्घकालिकी संज्ञारहित एवो असंझी जीव, तेमांहे मिथ्यात्व अने सास्वादन, ए प्रथमनां बे गुणगणां लाने, ते मध्ये सास्वादन तो एकेडियादिक असंझीश्रा जीवमध्ये सम्यक्त्व वमतो देवतादिक अवतरे, तेने करण अपर्याप्तावस्थायें साखादन होय. शेष सर्व मिथ्यात्वी जीव जाणवा. एवं बप्पन्न. कृम, नील अने कापोत, ए प्रथमनी त्रण लेश्यावंत जीवने मिथ्यात्वथी प्रमत्तसुधी प्रथमनांब गुणगणां होय, ए गुणगणे ए त्रण लेश्या पामीयें. बीजु वली देशविरतियें तथा सर्व विरतियें ए त्रण अशुभ लेश्या न पामीये. ते मत लेश्ने बंधस्वामित्वमाहें ए त्रण लेश्यायें चार गुणगणां कह्यां ने. अहींयां तो पूर्वे देशविरति तथा सर्व विरति गुण पामीने ए लेश्यायें वर्ते तो पण ए बेहु गुणगणां न जाय, माटे ए बे गुणगणे कृसादिक त्रण अशुभ लेश्या पण ओवे. एम पूर्व प्रतिपन्ननी अपेक्षायें अहीं ब गुणगणां कह्यां. पण तेश्री उपरांत गुणगणां ए लेश्यावंतने न होय, तेथी अहींयां को विरोध न जाणवो. “सम्मत्तसुरं सवा, सु लहर सुहासु तिसुवचारित्तं ॥ पुवपडिवन्नपुण, श्रणयरी ए लेसाए." एवं उंगणशात. तेजोलेश्या तथा पद्मलेश्या, ए बेहु लेश्यायें पदेला मिथ्यात्वथी मामी सातमा अप्रमत्त गुणलगें साते गुणगणां पूर्व प्रतिपन्नने तथा पडिवजताने पण होय. एवं एकशह. हवे अनाहारकमार्गणायें गुणगणां कहे . मिथ्यात्व अने साखादन, ए पहेला बे गुणगणां तथा अविरति, सम्यकदृष्टि, ए त्रण गुणगणां अहींथां वक्रगति पांच समयनी करतां वचला त्रण समय अथवा चार समय, अणाहारी होय. तेनी अपेक्षायें पहेला बे तथा चोथु, ए त्रण गुणगणां वाटें वदेतां जीवमध्ये पामीयें. जे जणी यतः “ जोएणकस्सएणं, श्राहारेई अणंतरं जीवो ॥ तेण परं मीसेणं, जीवसरीरनिपत्ती ॥१॥” ते जणी विग्रहगतियें अणाहारीनां ए त्रण गुणगणां जाणवां, तथा केवली केवलसमुद्घात आठ समयनो करे तेमध्ये त्रीजे, चोथे अने पांचमे, ए त्रण समयें कार्मणयोगी नणी अणाहारी होय, तथा अयोगीगुणगणुं चौदमुं" अइजल” एवा पांच हव. अदर उच्चारतां होय तेटलो काल अणाहारी होय अथवा अनादि अनंत सिह जीव तेने पण योगने बनावें अणाहारकपणुं होय. बीजा जीव एक समयमात्र पण अणाहारी न होय. ए रीतें श्रणाहारकमार्गणायें एक मिथ्यात्व, बीजु सास्वादन, त्रीजु अविरति, चोथु सयोगी अने पाँचमुं योगी, ए पांच गुणगणां संनवे. श्रहीयां को कद्देशे के जीव बारमे, तेरमे, अने त्रीजे, ए त्रण गुणगणे केम मरे नहीं अने बीजा श्रगीथार गुणगणे मरण पामे तो त्यां विग्रहगति करे, तो ते गुणगणे अणाहारी न होय ? तत्रोत्तरं. ए Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाएन षडशीतिनामा चतुर्थ कर्मग्रंथ. ४ अगीपार गुणगणे मरण पामे एम जे कडं बे, ते व्यवहारमतें कडं बे, बीजु मरणसमयें जीव अविरति होय जे नणी ते समय, परनवायुनो . विरति तो श्रा जवना आयु लगें जे. एम बाशमार्गणाद्वारे प्रत्येकें प्रत्येकें गुणगणां विवरीने कह्यां॥२६॥ हवे ते मार्गणा स्थित जीवना गुणनुं तरतमपणुं योगजन्य बे. जे लणी आठ करण करी कर्मने विचित्रपणे जीवने गुणगणानो नेद बे. तिहां करण के० योगवीर्य जाणवू सुगम थाय, ते जणी गुणगणां कह्यां. पली पन्नर योग बाशठ मार्गणाछारें जिहां जेटला संजवे, तिहां तेटला देखाडे जे. ॥ श्रथ मार्गणासु योगानाह ॥ सच्चेअर मीस असच्च, मोस मण वय विनवि आदारा ॥ उरखं मीसा कम्मण, श्अजोगा कम्म अणदारे ॥२७॥ अर्थ- त्यां प्रथम सचे के सत एटले साधने हेतु ते सत्य, यथा जीवादिक पदार्थ अव्यरूपें नित्य, पर्यायरूपें अनित्य, ए जेम अनेकांतपणे चिंतववं, ते सत्यमनोयोग अने तेथी श्यर के विपरीत पणे एकांतपणे नित्य विश्वव्यापि इत्यादिक चिंतव, ते असत्यमनोयोग. तेमज साचा वचननु आत्माने जोमवं, ते सत्यवचनयोग. तथा असत्यवचनसाथे श्रात्मानुं जोमवू, ते असत्यवचनयोग, अने ते असत्ययोगें करी मीस के० मिश्र एटले कांशएक सत्य अने कांइएक असत्यपणे, जेम था गाममध्ये दश जाया तथा दश मुवा, अहींां कांश साधु कांश जूतुं चिंतवq, ते सत्यामृषामनोयोग; अने तेम बोलवू, ते सत्यामृषावचनयोग. तथा आमंत्रणा याचना, जेम के, हे देवदत्त ! श्रा अमुक वस्तु लाव्य, आले, इत्यादिक जे चिंतवq तेथी जिनवचन विरोधाय नहीं. माटें जूठ पण नहीं, अने आराधक पण नही, एटले साच पण नहीं, ते जणी असच्चमोस के० असत्यामृषामनोयोग. अने ए रीतें बोले, ते असत्यामृषावचनयोग. ए व्यवहारनयमतें चार मनना तथा चार वचनना योग होय. अने निश्चयनयमतें जे शुद्ध. परिणाम विवदापूर्वक ते प्रथम सत्य मण के० मनोयोग. बीजो मिथ्यात्वादिक सहित जे चिंतवे, ते असत्यमनोयोग. एमज वय के० ए बे प्रकारे जे बोलवू ते एक सत्यव. चनयोग अने बीजो असत्यवचनयोग, त्रीजो सत्यामृषावचनयोग, चोथो असत्यामृषावचनयोग, एवं चार मनना तथा चार वचनना मली आठ योग थया. विजवि के वै क्रियशरीरें करी आत्मानो वीर्यव्यापार ते वैक्रिययोग. ते बे नेदें . एक लब्धिजन्य मनुष्य तथा तिर्यंचने होय, अने नवधारणीय देवता तथा नारकीनां शरीर जाणवां. तेनी साथे श्रात्मशक्तिनुं जोडq ते बीजो बैंक्रिययोग. Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षडशीतिनामा चतुर्थ कर्मग्रंथ. ४ ४ आहारा के० चौद पूर्वधरमुनि पोताना मनना संशय टालवाने तथा जिनरुद्धि देवाने तुं स्फटिक सरखुं मुंढ हाथ प्रमाण शरीर करे, ते आहारक शरीर. तेनी साथै श्रात्मानं जोम, श्राहारकशरीरजन्य व्यापार, ते आहारकयोग. उरलं के० श्रदारिक शरीरने योगें जे जीवव्यापार ते चौदारिकयोग जाणवो. हवे त्र योगने मीसा के० मिश्र करवा एटले अपर्याप्तावस्थायें मनुष्य तिर्यंचने कार्मण साथै मिश्र जे औदारिकपुजलजन्यव्यापार ते प्रथम दारिक मिश्रयोग जावो. ए तथा देवता ने नारकीने अपर्याप्तावस्थायें कार्मणसायें मिश्र जे वैक्रियपुङ्गल अथवा मनुष्यादिकने उत्तरखैक्रिय करतां ज्यांसुधी तेनी पर्याप्ति पूर्ण श्र‍ नथी, त्यांसुधी श्रदारिक पुजलसायें वैक्रियपुङ्गल मिश्र होय तेथी थयो जे जीववीर्य विशेष ते बीजो वैक्रियमिश्रयोग जाणवो. तथा आहारक शरीर करतां ज्यांसुधी तेनी पर्याप्ति पूरी करी नथी त्यांसुधी आहारक पुल औदारिकसाथै मिश्र होय तजन्य जीववीर्य विशेष ते त्रीजो श्राहारक मिश्रयोग जाणवो. तेम आहारकशरीरने संहरता पण आहारक मिश्रयोग होय. कम्मण के कर्मदलायें आत्मप्रदेशनुं मलवुं, ते कार्मणशरीर कहीयें. तेणे करी परजवादिकथी आगमनशक्ति ते चोथो कार्मणयोग. ए चार योग मिश्रना तथा त्रण पूर्वेका जे त्रण शरीरना, एवं सर्व मली सात कायाना योग थया, तथा चार मनना ने चार वचनना, एवं पंदर योग कह्या. कोशे जे तैजस पण शरीर बे, तेणे करी पण जीवने तेजोलेश्या मूकवा सेवा दिनुं कर तथा जोजन पाचनादिक व्यापारें प्रवर्त्ततो बतो तैजसपणे योग केम न कह्यो ? तिहां उत्तर कहेबे के, जीवने तैजसशरीर, अने कार्मणशरीर सर्वदा होय. तेथी कार्म्मणयोगमांहेज ए लीधुं, ए नाव बे. इ जोगा के० एम नामी तथा स्वरूपथी ए पंदर योग कह्या. ॥ हवे बाश मार्गणा द्वारें ए पंदर योग विवरे बे. ॥ कम्म हारे के० णाहारी मार्गणायें एकज कार्मणयोग होय. बीजा चौद योगें वर्त्ततो जीव, आहारी होय छाने कार्मणयोगें वर्त्ततो जीव घणाहारी होय, तेम आहारी पण होय, जे जणी प्रथम समयें कार्मणयोगें खाहारी होय ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ २७ ॥ नर गइ पििद तस तपु, प्रचकु नर नपु कसाय सम्मगे ॥ सन्नि लेसा दारग, जव मइ सुख उदि पुगि सवे ॥ २८ ॥ Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षडशीतिनामा चतुर्थ कर्मग्रंथ. ४ अर्थ-गतिमांदे नरग के० १ मनुष्यनी गति, इंजियमध्ये पर्णिदि के०५ पंचेंजिय, कायमध्ये तस के० ३ त्रसकाय, योगमध्ये तणु के० ४ काययोग, दर्शनमध्ये श्रचरकु के० ५ अचकुदर्शन, वेदमध्ये नर के० ६ पुरुषवेद, तथा नपु के० ७ नपुंसकवेद, कसाय के० कषायमध्ये क्रोधादिक चारे कषाय सेवा, एवं अगीबार मार्गणा थई. अने सम्मउगे के सम्यक्त्वमार्गणामध्ये दायिक अने दायोपशमिक, ए बे सम्यक्त्वमागणा, एवं तेर. सन्नि के० १४ संज्ञीमार्गणा, बलेसा के कृष्णादिक बए लेश्या, एवं वीश. थाहारग के० २१ श्राहारीमार्गणा, नव के २२ नव्यमार्गणा, ज्ञानमार्गणामध्ये मश्सुअहिऽगि के मतिज्ञान, श्रुतज्ञान अने अवधिझान, ए त्रण मार्गणा, अने दर्शनमार्गणामध्ये फुगशब्दें अवधिदर्शन, साथे ले. तेथी अवधिदर्शन मार्गणा. एवं बबीश मार्गणाद्वारे सव्वे के सर्वे पंदरे योग संजवे, जे जणी मनुष्य पंचेंजियने सर्व योगनो संजव डे ते माटे. श्रही आहारीमार्गणायें कोइएक श्राचार्य कार्मणयोग मानता नथी, जे जणी ते " अकम्मगा आहारगेसु” एम पद कहे . तो तेना मते श्राहारक मार्गणायें एक कार्मणयोग न होय, शेष चौद योगज होय पण ते केम घटे ? जे लणी रुजुगतियें आवीने जीव, उपजवाने समय कार्मणयोगे थाहार लीये . बीजो कोश योग तिहां नथी, ते अपेदायें कार्मणयोग आहारी जीवने पण होय तथा निश्चयनये जे ग्रहवा मांड्यं ते ग्रां तेणे औदारिक पुजलाहारणसमयें औदारिकपुजलमिश्र कार्मणपुजलसाथें होय. तजन्यशक्ति विशेष ते औदारिकमिश्र कहीये. तेथी प्रथम समयें औदारिकमिश्रयोगी श्राहारक होय, पण कार्मणयोगी न होय, एवं पण न घटे. जे जणी प्रथम समयें उपजतुं कार्यज, आपणुं कारण केम होय ? जेम घमो उपजतो पोतानुंज कारण न होय, तेम औदारिकमिश्र उपजतोज पोतानुं कारण केम होय ? ते जणी जीव, प्रथम समये कार्मणयोगें श्राहार ले ते औदारिकपणे परिणमावे, तेवारें बीजे समयें औदारिका मिश्रयोगी होय. ए वचन विरोध नथी लागतो. पनी तत्वं केवलीगम्य. __तथा अहींयां पण मनुष्यादिक औदयिक पर्यायमुख्यतायें ज्ञानादिक दायोपशमिकपर्याय अने दायिकसम्यक्त्वे दायिकपर्याय तथा मनुष्य नवादिक पारिणामिक पर्यायमुख्यतायें अनेदनयें जीवजव्य विवदायोग, तिहां संजवे. ए गाथामां बबीश मार्गणाधारे योग कह्या, अने एक छारें पूर्वली गाथामां योग कह्या. ए सर्व सत्तावीश घार थयां ॥ इति समुच्चयार्थः २० ॥ Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षडशीतिनामा चतुर्थ कर्मग्रंथ. ४ ५०१ तिरिवि अजय सासण, अनाण जवसम अनव मिलेसु ॥ तेरादार गूणा, ते उरखगूण सुर निरए ॥ ॥ . अर्थ- तिरि के १ तिर्यंचगतिमार्गणा, शनि के० ५ स्त्रीवेदमार्गणा, अजय के० ३ अविरतिमार्गणा, सासण के०४ सास्वादनमार्गणा, अनाण के त्रण अज्ञाननी त्रण मार्गणा, एवं सात; जवसम के0 G औपशमिक सम्यक्त्वमार्गणा, अनव के० ए अनव्यमार्गणा, मिसु के० १० मिथ्यात्वमार्गणा,एवं दश मार्गणाधारें वर्त्ततां जीवोने विषे तेराहारगृणा के पंदर योग, मांदेथी श्राहारकठिक हीन करतां तेर योग होय. तिहां कार्मणयोग, वाटें वहेतां बे जवने वच्चे जीवने होय, तथा स्त्रीने केवल समु रातमा पहेले त्रण समयें होय, तथा औदारिक मिश्रयोग अपर्याप्तावस्थायें होय. तथा औदारिकादिक अगीयार योग पर्याप्तावस्थायें होय. तिहां वैक्रिय अने वैकियमिश्र, ए बेहु योग तिर्यंच उत्तरवैक्रिय करे, ते अपेदायें कह्या . शेष थाहारक अने आहारकमिश्र, ए बे योग चारित्रने अनावें चउद पूर्वी विना न होय. केमके ते विना श्राहारकलब्धि पण न उपजे, तेथी ए बे योग न होय. तथा श्रहीं स्त्रीवेद कह्यो ते अव्यथी देवो. जे जणी थहीं सर्वस्थानके अन्यथीज वेदनी विवक्षा बे, जो नाववेद कही तो बार उपयोग जे कह्या , ते मांहेला केवलज्ञान श्रने केवलदर्शन ए बे योग, जाववेदें केम संनवे ? जे नणी केवली अवेदी बे माटें केम संनवे ? ते जणी अहींयां सर्वस्थानकें अव्यवेद कह्या बे, तथा स्त्रीने चारित्र होय, पण तुलता गारवबहुलतादिक दोष जाणवा. तेथी स्त्रीने चौद पूर्व जणवं निषेध्यु बे; तेथी ते विना ए थाहारक अने थाहारकमिश्र, ए बे योग, थाहारकलब्धि विना न होय, शेष तेर योग होय. तथा उपशमसम्यक्त्वे पण शुद्ध परिणाम बे, ते जणी आहारकल ब्धिनुं प्रयुंजवू नथीमानता, तेथी तेने आहारकयोग बेहु न होय,तथा वैकिययोग तो देवता तथा नारकी गंठीनेद करतो उपशम सम्यक्त्व लहे, ते वैक्रिययोगी होय.ए थपेक्षायें अहीं लीधुं तथा कार्मण अने वैक्रिय मिश्र, एबे योग उपशमश्रेणीमांहें काल करे, ते अनुत्तर विमानवासी देव हाय तो तेने मते मतांतरें अपर्याप्तावस्थायें उपशमसम्यक्त्व होय. एम मानतां ए बे योग संजवे. पण औदारिकमिश्रयोग क्याही पण संनवतो नथी, जे जणी उपशम श्रेणीनुं उपशमसम्यक्त्व होय, तिहां मनुष्य अने तिर्यंचनु अपर्याप्तपणुं न संजवे. अने मनुष्य तथा तिर्यंचने ग्रंथिनेद पण अपर्याप्तावस्थायें न संजवे. तथा ते उपशमसम्यक्त्वें मरे पण नहीं के जेथी जे परजवतुं कहीयें, अने केवली विना औदारिक मिश्रयोग अपर्याप्तावस्थायेंज होय तो उपशमसम्यक्त्वें औदारिकमिश्रयोग केम लाने ? ते बहुश्रुतें विचार तथा ते ग्रंथिनेद Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०५ षडशीतिनामा चतुर्थ कर्मग्रथं. ४ करीने मनुष्य, उपशमसम्यक्त्व पामे तेवारें कोइ एकने वैक्रियलब्धि होय तेथी वैक्रियशरीर करतां औदारिकमिश्र योग होय ने तेथी मनाय खलं पण ते सिकांतमतें कडं बे, परंतु कर्मग्रंथने मतें नथी मानता. माटें ए वात केवलीगम्य बे. अने पूर्वोक्त ए दश मार्गणामांथी शेष सात मार्गणायें चारित्र नथी, तेथी त्यां तो स्वनावें आहारकयोग बन्ने नथी. शेष तेर योग होय. तेउरलगूणसुरनिरए के० ते पूर्वे कह्या जे तेर योग तेमाहेलां औदारिकशरीर देवता तथा नारकीने नथी होता, ते माटें औदारिक तथा औदारिकमिश्र,एबे योग नारकीने न होय, शेष मनोयोग चार तथा वचनयोग चार, वैक्रिय ने वैक्रिय मिश्र तथा कार्मण, ए अगीयार योग होय.ते मध्ये कार्मणयोग परनवथी श्रावतां देवता तथा नारकीमांहे उपजतां प्रथम समयलगें होय, तेवार पड़ी ज्यां लगें सर्व पर्याप्ति पूरीन करे, त्यां लगें वैक्रिय मिश्र होय, अने पर्याप्ता थया पली शेष नव योग संजवे. आहारकना बे योग तो तेने चारित्र नथी, ते जणी न होय. एम ए बेहु गतिमार्गणायें अगीयार योग कह्या. एवं सर्व मली उंगणचालीश मार्गणाधारे योग कह्या ॥ इति समुचयार्थः ॥ ए॥ कम्मुरलज्ज्गं थावरि, ते सविनवि उग पंच इग पवणे ॥ अ सन्नि चरिम वयजुञ, ते विनवि गूण चन विगले ॥३०॥ अर्थ- कम्मुरलगंथावरि के० थावर, एटले गतिथावर, अहीं तेजकाय पण गतिथावरमध्ये गणीये जे जणी इंधनादिक संयोग विना तेउकाय, स्थानांतरे न जाय अने वायुकाय तो स्वशक्तियें योजनना शतवक जाय, माटें ते गति त्रस कहीये. एटले ए वायुकाय गतित्रस विना शेष पृथ्वी, अप, तेज अने वनस्पति, ए चार थावरकायने उपजतां एक कम्म एटले कार्मणयोग होय, वली एने अपर्याप्तावस्थायें उरलगं एटले औदारिक मिश्रयोग होय, अने पर्याप्ता थया पठी एक औदारिकयोग होय. एम चार मार्गणाबारें एक औदारिक, बीजो औदारिकमिश्र अने त्रीजो कामण, ए त्रण योग होय. ते के ते पूर्वोक्त त्रण योगने सविउवियुग के एक वैक्रिय अने बीजं वैक्रियमिश्र, ए बे योगेंसहित करीये तेवारें पंच के पांच योग रहे, ते गपवणे के ए. केंजिय अने वायुकायनेविषे होय, तेमध्ये कार्मण अने औदारिकमिश्र, ए बे योग वायुकायने अपर्याप्तावस्थायें होय, तथा औदारिकयोग तो मूलशरीरनी अपेक्षायें होय, तथा बादरवायुकाय, ध्वजाने श्राकारें उत्तरवैक्रियरूप करे, तिहां एक वैक्रिय Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षडशीतिनामा चतुर्थ कर्मग्रंथ. ४ ५०३ बीजो वैक्रियमिश्र, ए वे योग होय. एवं वायुनें पांच योग होय. ते वायरो एकेंद्रिय बे, तेथी ए एकेंद्रियमार्गणायें पण एहिज पांच योग संजवे. - सन्नि के० संज्ञ मार्गणा एटले मनरहित जीवने विषे व योग होय. ते यावी रीतें के, पूर्वै कहेला पांच योगनी साथै चरिम के० बेल्लो वयजुथ के० वचनयोग एटले असत्यामृषावचनयोगें युक्त करीयें, ते वारें ब योग वायुकायसहित संज्ञी बे माटें होय. केमके असत्यामृषा ए योग बेंद्रियादिक जीव पण असंज्ञी बेतेनें पण होय ते अपेक्षायें लीधुं, तथा कार्म्मण ने औदारिक मिश्र, ए वे अपर्याप्तावस्थायें होय. दारिकपर्याप्तावस्थायें होय. तथा वैक्रियना वे योग वायुकायने होय. एम व योग, मनरहित जीवनें होय. dhod पूर्वोक्त योगमांहेथी विजविडुगूण के० वैक्रिय छाने वैक्रियमिश्र, ए बे योग ऊणा करतां बाकीना चल के० चार योग, विगले के० विकलेंद्रियनें होय, एटले बेंद्रिय, तेंद्रिय ने चौरिं प्रिय, ए त्रणने विकलेंद्रिय कहीं यें, जेने पूर्ण इंद्रिय तथा योग न होय, तेनें विकलें प्रिय कहीयें. तेने वैक्रियलब्धि न होय तेथी वे वैक्रिययोग न होय, शेष चार योग होय, तेमध्यें कार्मण ने औदारिक मिश्र, ए वे योग अपर्याप्ताव - स्थाये होय. छाने दारिक तथा असत्यामृषावचन, ए वे योग पर्याप्तावस्थायें होय. एम चारे योग बेइंद्रियादिक ऋण मार्गणाद्वारें होय. एवं उगणपञ्चाश मार्गणाने विषे योग का . ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ ३० ॥ कम्मुरलमीस विष्णु मण, वय समइ बेच्द्र चकु मण नाणे ॥ नरल डुग कम्म पढमं, तिम मण वय केवल डुगंमि ॥ ३१ ॥ अर्थ - कम्म के० एक कार्म्मण अने बीजो उरलमीसविणु के० श्रदारिक मिश्र, एबे योग विना शेष तेर योग व मार्गणाना द्वारने विषे होय. ते ब मार्गणानां नाम कहे बे. मण के० एक मनयोगी, वय के बीजो वचनयोगी, समय के० त्रीजो सामायिक चारित्र, बेटा के० चोथो बेदोपस्थापनीयचारित्री, चरकु के‍ पांचमो चतुदर्शनी, मणनाणे के० बडो मनःपर्यवज्ञानी, ए व मार्गणाद्वारने विषे कार्मणयोग न होय. जे जणी कार्मण योग परजवथी आवतां वादें होय. तिहां तो जीवने ए मनोयोगादिक व न होय, छाने केवलसमुद्घात करतां वच्चें त्रण समये कार्मणयोग होय, तिहां पण मन अने वचन ए बे योग न होय, तथा तिहां चारित्र तो यथाख्यात होय पण सामायक ने बेदोपस्थापनीय ए बे न होय; अने दर्शन पण तिहां केवलदर्शन होय पण चतुदर्शन न होय. अने मनः पर्यवज्ञान पण न होय For Private Personal Use Only Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०४ षडशीतिनामा चतुर्थ कर्मग्रंथ. ४ तेथी ए मार्गणाधारे वर्त्तता जीव, कार्मणयोगी न होय, तेमज औदारिक मिश्रयोगी पण न होय, शेष मनोयोग चार, वचनयोग चार, वैक्रिय, वैक्रियमिश्र, आहारक, आहारकमिश्र अने औदारिक, ए तेर योग होय. एवं पंचावन मार्गणा थई. उरलयुग के औदारिक अने औदारिकमिश्र, ए बे योग तथा त्रीजो कम्म के कार्मणयोग, ए त्रण काययोग अने पढमंतिममणवय के पहेलो अने बेहेलो, ए बे मनयोग तथा एज बे वचनयोग एटले सत्यमनोयोग, असत्यामृषामनोयोग, सत्यवचनयोग,असत्यामृषावचनयोग.एवं ए चार योग तथा पूर्वला त्रण मलीने सात योग ते केवलगंमि के केवलज्ञान अने केवल दर्शन, ए बे मार्गणाद्वारे होय, तिहां वेदनीयादिक कर्मथी श्रायुःकर्म थोडं होय, तेवारें तेने सर कर वाने अर्थे केवली केवलसमुदघात करे, त्यां प्रथम समयें शरीर प्रमाण जामो एवो उंचो, नीचो, लोकप्रमाणे मंग करे, त्यां औदारिक योगी होय. बीजे समयें बन्ने पासें पसरें, तिहां लोकार्कवच्चे कपाटप्राय होय. तिहां एक औदारिक अने बीजो मिश्र ए बे योगी होय, त्रीजे समयें बे योग लब्धि प्रयुंजे तेथी मंथाणानी पेरें चार श्रेणी करे. चोथे समये अांतरा पूरे, पांचमे समयें मंथांतर संहरे, ए त्रण समय कार्मणयोगी होय, ब समयें मंथ संहरे, सातमे समयें कपाट संहरे, ए बे समय औदारिकमिश्रयोग होय. आठमे मंग संहरे तिहां औदारिकयोगी होय. ए रीतें त्रण काययोग नाववा, तथा अनुत्तर विमानवासी देवता संदेह पूजे, तेनो प्रत्युत्तररूप अव्यरूप मन परिणमे तेवारे ते देवताने सूक्ष्म मनोजव्य विषय करे. एवं अवधिज्ञान, तेणे करी ते मनोजव्य जाणे, संदेह टले, एम अव्यमनोयोग केवलीने होय. अने नावमन केवलीने न होय अने वचनयोग तो उपदेशादिक आपतां प्रश्नोत्तर कहेतां होय. ए रीते सात योग केवलज्ञानी अने केवलदर्शनीने होय. एवं सत्तावन मार्गपाहार थयां ॥३१॥ मणवय उरला परिदा, र सुमि नव तेन मीसि सविनवा ॥ देसे सविनविज्गा, सकम्मुरल मीस अहखाए ॥ ३३ ॥ अर्थ- मणवय के मनोयोग चार, अने वचनयोग चार, उरला के० औदारिक काययोग एक, एवं नव के नव योग ते परिहार के० परिहार विशुकिचारित्र अने सुहुमि के सूक्ष्मसंपरायचारित्रनेविषे लाने. शेष ब योग न होय जे जणी ए बे चारित्रने विषे वर्तमान साधु होय ते लब्धि प्रयुंजे नही, तेथी वैक्रियना बे योग Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षडशीतिनामा चतुर्थ कर्मग्रंथ. ४ ५०५ अने थाहारकना बे योग, ए चार योग न लाने. केम के परिहार विशुद्धिचारित्रवालाने उत्कृष्टुं श्रुत नव पूर्व पर्यंत होय, अने थाहारक शरीर तो चौद पूर्व विना न होय. वली वैक्रियलब्धि प्रयुंजवानी ए चारित्रेधाज्ञा नथी तथा अपर्याप्तावस्थार्ये कार्मण अने औदारिकमिश्रयोग होय, तिहां चारित्र न होय, अने केवलसमुद्घातमध्ये तो यथाख्यात चारित्र होय, तेश्री समुद्घात मिश्र तो यथाख्यात चारित्रे होय, तेथी ते स. मुद्घातनी अपेक्षायें पण ए बे योग ए चारित्रं न संजवे, शेष नव योग लाने. एवं जंगणशाठ मागेणाद्वारे योग कह्या. तेउमीसिसविडवा के० तेहीज पूर्वोक्त नव योगने वैक्रिययोगसहित करी तेगरें दश योग थाय, ते सम्यक्त्व मार्गणामध्ये एक मिश्रसमकितमार्गणायें होय, तिहां वैक्रिययोग देवता तथा नारकीने मिश्रगुणवाणुं होय तेने वैक्रिययोग होय तथा मिों काल न करे, तेथी अपर्याप्तावस्थायें मिश्र न होय, तेथी वैक्रिय मिश्रयोग न कह्यो तथा वैक्रिय करवा समय मिश्रलब्धि न होय अथवा बीजे कशे कारणे वैक्रियमिश्रयोग नथी कह्यो, श्रने बेहु थाहारकयोग तो बे चारित्र नथी ते जणी न होय, तथा मिश्रगुणगाणे जीव अपर्याप्ता न होय, तेथी औदारिकें मिश्रकामण योग पण न होय. एवं शाठ मार्गणाधार योग कह्या. देसेसविउविडुगा के देशविरतिमार्गणायें प्रथम कहेला नव योगने वैक्रिय तथा वैक्रिय मिश्र, एबे योगेंसहित करियें तेवारें अगीवार योग होय, तिहां वैक्रियमिश्र ए बे योगें लब्धि प्रयुंजे बे, ए अपेक्षायें लीधा, केमके देशविरति अंबमादिकें लब्धि प्रयुंजी ने, माटें अगीवार योग होय, शेष चार योग न होय. एवं एकशठ मार्गणाछारें योग कह्या. ___ सकम्मुरलमीसबहखाए के ते पूर्वोक्त चार मनना श्रने चार वचनना, एवं आठ योग तथा नवमो औदारिककाययोग, तेने कार्मण अने औदारिकमिश्र ए बे योगें सहित करतां अगीधार योग यथाख्यातचारित्रमार्गणायें होय. जे जणी ते चारित्रि लब्धि प्रयुंजे नही, तेथी तेने आहारकना बे तथा वैक्रियना बे, एवं चार योग न होय, अने औदारिकमिश्र तथा कार्मण, ए बे योग केवलसमुद्घातमाहे होय, केमके समुद्घातनी वखते ए चारित्र जे. एवं बाश मार्गणायें योग कह्या. इति समुच्चयार्थः ॥ ३ ॥ हवे बाशमार्गणाझारें बार उपयोग कहे . योगने शुज अशुनपणे शुनाशुन उपयोग होय ते योग निवर्ते, तेवारें आत्मप्रदेशनी चलाचल मटे तेवारें शुकोपयोगी जीव होय, माटें हवे मार्गणाने विषे उपयोग कहे जे ॥ अथ मार्गणापूपयोगानाह ॥ Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०६ षडशीतिनामा चतुर्थ कर्मग्रंथ. ४ ति अनाण नाण पण चन, दंसण बार जिअलखणुवउंगा ॥ विणु मण नाण केवल, नव सुर तिरि निरय अजएसु॥३३॥ · अर्थ-तिहां प्रथम बार उपयोगनां नाम कहे जे. तिअनाण के० मतिअज्ञान, श्रुतश्रान अने विनंगज्ञान, ए त्रण अज्ञान मिथ्यात्वीने होय, अने नाणपण के १ मतिज्ञान, २ श्रुतझान, ३ अवधिज्ञान, ४ मनःपर्यवज्ञान, ५ केवलज्ञान, ए पांच ज्ञान, सम्यक्दृष्टिने होय. ए श्राप साकारोपयोग अने चनदसण के अनाकारोपयोग ते दर्शन कहीयें; ते चार प्रकारें बे. १ चतुदर्शन, २ अचकुदर्शन, ३ अवधिदर्शन, ४ केवलदर्शन, ए चार सामान्यावबोध, एवं वारजिअलकणुवढंगा के बार उपयोग थया. उपयोग एटले वस्तुनुं परिछेदक प्रकाश, ते प्रत्ये जे उपयोगी होय ते नणी एने उपयोग कहीयें. ए जीवनुं लक्षण जीवस्वजाव चेतनारूप जाणवू. ते उपयोग बे नेदें . एक साकार, बीजो अनाकार, त्यां पांच ज्ञान अने त्रण अज्ञान, ए थाउने साकार कहीयें, तथा चार दर्शनने अनाकार कहीये. ए बार उपयोगनां नाम कह्यां. हवे ए बार जपयोग बाशह मार्गणाधारे विवरे बे. .. ए बार उपयोगमाथी विणुमणनाणकेवल के मनःपर्यवज्ञान अने केवलज्ञान अने केवलदर्शन, ए त्रण उपयोग विना शेष नव के० नव उपयोग ते सुरतिरिनिरय के सुरगति, तिर्यंचगति अने नरकगति, ए त्रण गतिमार्गणा तथा अजएसु के० असंयत एटले अविरति सम्यकदृष्टिमार्गणा, ए चार मार्गणाधारें होय, जे जणी ए चार मार्गणायें चारित्र न होय. तेथी मनःपर्यवादिक त्रण उपयोग पण न होय. शेष नव उपयोग होय. त्यां मिथ्यात्वीमांहे त्रण अज्ञान, अने अचलु तथा चतु ए बे दर्शन, एवं पांच उपयोग लाने. अने सम्यक्दृष्टि देवादिक चार मार्गणामध्ये त्रण ज्ञान, त्रण दर्शन, एवं बलाने. एक समयें जीवने एक उपयोग होय.पण एउघमात्र कह्या ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ ३३॥ तस जोअ वेअसुक्का, दार नर पणिदि सन्नि नवि सबे ॥ नयणे अरपण लेसा, कसाय दस केवल उगूणा ॥ ३४ ॥ अर्थ- तस के० १ त्रसकाय, जोश के त्रण योग, एवं चार. वेथ के त्रण वेद, एवं सात, सुक के० ७ शुक्ल वेश्या, श्राहार के ए आहारी मार्गणा, नर के० १० मनुष्यगति, पर्णिदि के० ११ पंचेंजियजांति, सन्नि के० १५ संझीमार्गणा, नवि के १३ जव्यमार्गणा, ए तेर मार्गणाद्वारे सवे के० सर्वे बारे उपयोग पामीये. जे नणी ए तेर बोल तेरमा गुणगणा सुधी होय. अहीं श्रां त्रण वेद जे कह्या डे, ते अव्यरूप Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षडशीतिनामा चतुर्थ कर्मग्रंथ. ४ ५०७ लेखवा. जे जणी जिलाषारूप जाववेद बे ते तो नवमा गुणगणा सुधी बे. तिहां तो केवलज्ञान ने केवलदर्शन केम होय ? जे जणी ते केवल डिक श्रवेदीने होय ते जणी स्त्री पुरुषाकाररूप द्रव्यवेदें बार उपयोग संजवे. नयणेश्वर के० चतुदर्शन ने इतर एटले चतुदर्शन, पणलेसा के० शुहत्रेश्या तो प्रथम कही बे. बाकी कृमादिक पांच लेश्या, कसाय के० चार कषाय, एवं अगीआर मार्गणाद्वारें दस केवल डुगुणा के० केवलज्ञान ने केवलदर्शन ही न करतां बाकी दश उपयोग पामीयें, जे जणी ए अगीआर बोलें केवलज्ञान अने केवलदर्शन न होय. अहीं प्रथमनी लेश्या त्रण बडा गुणवाणा सुधी होय, अने पाबली बे लेश्या सातमा गुणठाणा लगें होय, अने कषाय दशमा गुणगण लगें होय, तथा चक्षु चतु, ए वे बारमा गुणठाणा लगें होय. पण तेरमे गुणठाणे ए अगर मार्गणामांहेलो को नथी अने केवल द्विक तो तेरमे गुणापेंज होय ते जणी ए वे उपयोग न होय ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ ३४ ॥ चरिंदि प्रसन्ना ना, एा इदंस इग बिति यावरि अचरकु ॥ ति नाण दंसण डुगं, अनाण तिगि नवमि डुगे ॥ ३५ ॥ अर्थ - चरिंदि के० १ चौरिंडियमार्गणा, सन्नि के० २ असंझी मार्गणा, ए बे मार्गाद्वारे अना के० मतिज्ञान श्रने श्रुतज्ञान तथा डुदंस के० चक्कुदर्शन, अने चतुदर्शन, एवं चार उपयोग होय केम के एने चक्षु बे तेथी चतुदर्शन होय. तथा इग बितिथावरि के० इंडियमार्गणामध्ये एकेंद्रिय, बेंद्रिय, तेंद्रिय, ए त्रण तथा कायमार्गणामध्यें पृथिव्यादिक पांचे यावर, एवं आठ मार्गणाद्वारें बे प्रथमनां अज्ञान अने एक अचरकु के० चतुदर्शन, एवं त्रण उपयोग होय. केम के एमने चतु नथी माटें. तिचनापदंसणडुगं के० त्रण अज्ञान तथा चतुदर्शन थाने चतुदर्शन, एवं पांच उपयोग व मार्गणाद्वारें होय ते मार्गणानां नाम कहे बे. अन्नातिगि के० त्रण अज्ञानमार्गणा अजब के० चोथी अव्यमार्गणा अने मिठडुगे के० पांचमी मिथ्यात्व तथा बही सास्वादन, एवं व मार्गणाद्वरें पांच उपयोग पामीयें, जे जी हां सम्यक्त्व न पामीयें, तेथी शेष सात उपयोग न होय ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ ३५ ॥ केवल डुगं निप्रडुगं, नव ति अनाणविणु खइ दंसण नाण तिगंदे, सि मीसि अन्नाण मीसंतं ॥ ३६ ॥ खाए || Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०० षडशीतिनामा चतुर्थ कर्मग्रंथ. ४ अर्थ- केवलगं के केवलज्ञान आने केवलदर्शन, ए बे मार्गणाधारें निश्रागं के० एहिज बे उपयोग पामीये. तेथी निज हिक का, जे जणी शेष गनस्थिक जे दश उपयोग बे, ते केवलीने न होय. ___ हवे ते बार उपयोगमाहेथी तिथनाणविणु के त्रण अज्ञान विना शेष नव के० नव उपयोग, खश्वग्रहखाए के दायिक सम्यक्त्व अने यथाख्यातचारित्र, ए वे मार्गणाधारने विषे पामीये. त्यां मतिझान, श्रुतज्ञान, श्रवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान, चकुदर्शन, अचकुदर्शन ने शवधिदर्शन, एवं सात उपयोग अगीश्रारमे श्रने बारमे गुणगणे यथाख्यातचारित्र होय ते अपेक्षायें सेवा. अने केवलज्ञान, तथा केवलदर्शन, ए बे उपयोग केवलीनी अपेक्षायें यथाख्यातचारित्र डे माटें लेवा. एवं नव उपयोग होय. विरति जणी अज्ञान त्रण न होय. दसणनाणतिगंदेसि के एक केवलदर्शन विना त्रण दर्शन अने मति, श्रुत अने अवधि, एत्रण ज्ञान, एवं उपयोग, देशविरतिमार्गणाये पामीये. विरति जणीत्रण - शान न होय. तिहां आणंदादिक श्रावकनी पेरें अवधिछिक संजवे. मिसि के तेहीज उपयोग मिश्रमार्गणायें पामीयें, पण एटदुं विशेष जे त्रण झान ते अन्नाणमीसंतं के थाने करी मिश्र लेखक्वां. तिहां मतिज्ञान, मति. झानें मिश्र अने श्रुतज्ञान, श्रुतश्रज्ञाने मिश्र, विजंगशवधिज्ञाने मिश्र होय. एमज त्रण दर्शन पण मिश्र लेवां, एवं उपयोग मिश्रमार्गणायें पामीयें ॥ इति समुच्चयार्थः॥३६॥ मण नाण चरक वजा, अणदारे तिन्नि दंस चउनाण ॥ चन नाण संजमो वस, म वेअगे उदि दंसे॥३७॥ अर्थ- मणनाणचकुवजा के मनःपर्यवज्ञान अने चतुदर्शन, ए बे वर्जीने शेष दश उपयोग, अणहारे के अनाहारकमार्गणायें पामीये, जे जणी अणाहारकपणुं विग्रहगतियें तथा केवलसमुद्घातमांहे तथा सिझने होय. तिहां मनःपर्यवज्ञान अने चकुदर्शन ए बे न होय. अहीं त्रण ज्ञान अने त्रण दर्शन सहित तीर्थकरादिक अवतरे, तेमने अंतरालगतें अनाहारकपणुं होय तथा त्रण अज्ञान तो, मिथ्यात्वी विग्रहगतियें उपजे तेने होय, ते अपेक्षायें जाणवा. एटले सिझनां तथा केवलसमुद्घातनां केवलज्ञान अने केवलदर्शन ए बे उपयोग तथा समकेतधारीने अंतरालगतें मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अने अवधिज्ञान, ए त्रण उपयोग अने मिथ्यास्वीने मतिश्रज्ञान, श्रुतअज्ञान अने विनंगज्ञान, एत्रण, एवं उ अने सम्यक्त्व Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ · षडशीतिनामा चतुर्थ कर्मग्रंथ.४ ५०ए धारीने तथा मिथ्यात्वीने वाटें जातां श्रचक्षुदर्शन अने अवधिदर्शन, ए बे होय. एवं सर्व मली दश उपयोग पामीये. - तिन्निदंसचउनाण के० १ चकुदर्शन, ५ अचकुदर्शन, ३ अवधिदर्शन, ५ मतिज्ञान, ५ श्रुतज्ञान, ६ अवधिज्ञान, ७ मनःपर्यवज्ञान, एवं सात उपयोग, ते थग्यारमार्गपाहारें होय तेनां नाम कहे . चउनाण के केवलज्ञान विना चार ज्ञान मार्गणा छार तथा संजम के चार संयममार्गणा एटले एक सामायकचारित्र, बीजुं दोपस्थापनीयचारित्र, त्रीजु परिहार विशुद्धिचारित्र, अने चोथु सूक्ष्मसंपरायचारित्र, ए चार मार्गणा, एवं श्राप मार्गणाधार तथा उवसम के नवमी उपशमसम्यक्त्व मार्गणा, वेश्रगे के० दशमुं वेदक एटले दायोपशमिक सम्यक्त्व, ए बे सम्यक्त्वमार्गणा उहिदंसेश के अगीथारमी अवधिदर्शन मार्गणा. एवं अगीार मार्गणाधारने विषे चार ज्ञान अनेत्रण दर्शन, ए सात उपयोग पामीये. अहींयां अवधिदर्शन मार्गणाने विषे मति अज्ञानादिक त्रण श्रज्ञान सिद्धांत सम्मत , पण कशा कारणे पूर्वाचार्य निषेध्या ते नथी जणातां ? अन्यथा दश उपयोग होय. अहींयां योगमार्गणा झारे मतांतर देखाडे २ ॥ इति समुच्चयार्थः॥ ॥हवेत्रण योग मार्गणा विषे जीवस्थान, गुणस्थान, योग अने उपयोग श्राश्रयीने मतांतर कहे जे.॥ पूर्वे योग विवया ते अन्ययोग सहित श्रथवा उपयोग रहित एम सामान्य कह्या. शहां अन्य योगांतरजाविनी नूतवत् उपचारनान्येन मुख्यतारहित योगें स्वमुख्यतायें १ जीवस्थान, ५ गुणस्थान, ३ योग, ४ उपयोग, ए चार बोल विवरी कहे . दो तेर तेर बारस, मणे कमा अउ च च वयणे ॥ चन पण तिन्नि काए, जिअगुण जोगोवांगन्ने ॥ ३० ॥ श्रर्थ-त्यां वचनयोग अने काययोग रहित केवल एकज मनयोगने विषे संझी पंचेंजिय पर्याप्तो, थने अपर्याप्तो, ए दो के बे जीवनेद होय, अने एने चौदमा गुणगणा वगर बीजा तेर के० तेर गुणगणां होय, तथा एने कार्मण अने औदारिकमिश्र, ए बे योग विना बीजा तेर के तेर योग होय, जे नणी केवलसमुद्घातावस्थायें प्रयोजनने अनावें त्यां मनोयोग न होय. तथा उपजतां अपर्याप्तावस्थायें पण मनोयोगन होय, अने कामण तथा औदारिकमिश्र तो तिहांज होय. ए माटें एबे योग मनोयोगीने न होय, अने एमनोयोगीने विषे उपयोग बारस के बार कमा के अनुक्रमें मणे के मनोयोगीने विषे पामीयें. Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१० षडशीतिनामा चतुर्थ कर्मग्रंथ. ४ वचनयोगी ने एटले मनोयोग रहित काययोगरहित केवल एकज वचनयोगने विषे १ बेंद्रिय, २ तेंद्रिय, ३ चौरिंद्रिय, ४ असंज्ञी पंचेंद्रिय, ए चार अपर्याप्ता छाने ए चार अपर्याप्ता एवं अ० श्राव जीव नेद होय, अहींयां योग्यतारूपें वचनयोग लेवो अन्यथा बेंद्रिय अपर्याप्तावस्थायें जाषापर्याप्ति पूरी कश्या विना वचनयोगी केम होय ? तथा तिहां एक मिथ्यात्व अने बीजुं सास्वादन, एडु के० बे गुणठाणां पामीयें. केम के ए आठ जीवनेदें वे गुणठाणांज होय. तेथी बे गुणठाणां कां, तथा एने विषे १ औदारिक, २ औदारिक मिश्र, ३ कार्म्मण, ४ असत्यामृषा, एवं चल के० चार योग पामीयें. अने १ मतिज्ञान, १ श्रुतश्रज्ञान, ३ चक्कुदर्शन, ४ चतुदर्शन, ए च के चार उपयोग वयणे के० वचनयोगीने विषे पामीयें. 4 तथा मनोयोग ने वचनयोग ए वे योगें रहित केवल एकज काययोगीने विषे एकेंद्रिय सूक्ष्म ने बादर ते वली पर्याप्ता ने अपर्याप्ताना ने करी च के चार जीवनेद पामीयें. केम के केवल काययोग एनेज होय, अने मिथ्यात्व तथा सास्वादन, एडुके० बे गुणवाणां पृथिव्यादिकमांहे सम्यक्त्व वमतो देवादिक अवतरे, ते अपेक्षायें होय. तथा १ श्रदारिक, २ चौदारिक मिश्र, ३ वैक्रिय, ४ वैक्रियमिश्र, ५ कार्म्मण, एवं पण के० पांच योग पामीयें, श्रहींयां वैक्रियशरीर वायुकायनी अपेक्षायें लीधुं. तथा १ मतिज्ञान, २ श्रुतज्ञान, ३ चतुदर्शन, ए तिनि के० त्रण उपयोग काए के० एकज काययोगने विषे पामीयें. ए रीतें मतांतरें योगमार्गणायें जीवनेद, गुणठाणां, योग, अने उपयोग, ए चार बोल अन्य आचार्य कहे बे. ते कथा. एटले पूर्वे जे योग कह्या तिहां काययोग सर्व जीवने को. अने वचनयोग बेंद्रियादिक सर्वने कह्यो, अने मनोयोग संज्ञी पंचेंद्रियने को. ने यहींयां मतांतरें अनेरा आचार्य कहे बे, जे एक योग होय तेनें बीजो योग न कहीयें, संज्ञी पंचेंद्रियनें मनयोग बे, तेने वचनयोग काययोग नहीं. विकलेंद्रिय संज्ञी पंचेंद्रियने वचनयोगज कद्देवो. अने एकेंद्रियने काय - योग कहीयें. तेने मतें ए वात कही बे ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ ३८ ॥ हवे मार्गाद्वारे व लेश्या कहेते. जे जणी मार्गणास्थित जीवनी उपयोगशुद्धि लेश्याशुद्धियें करी जाय तथा शुभयोग प्रवृत्ति पण शुभ उपयोगें जाय. अशुभयोग प्रवृत्ति अशुभ उपयोगें होय, ते जणी उपयोग का पढी लेश्या द्वार कहे बे. बसु सासु सवाणं, एगिंदि प्रसन्न नूदगवणेसु ॥ पढमा चउरो तिन्निन, नारय विगलग्गि पवणेसु ॥ ३० ॥ Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षडशीतिनामा चतुर्थ कर्मग्रंथ. ४ ५११ अर्थ-उसुलेसासु के ब लेश्यामार्गणाद्वारे सगणं के स्वस्थान ते श्राप श्रापणी एकेकी लेश्या होय एटले कृमलेश्यामार्गणायें कृमलेश्या अने नीललेश्यामार्गणायें नीललेश्या होय, एम खख मार्गणायें स्वस्व लेश्या एकेकी होय, एगिदि के एक एकेंजियमार्गणा, असन्नि के बीजी असंझीमार्गणा, नूदगवणेसु के त्रीजी पृथवीकायमार्गणा, चोथी अपकायमार्गणा, पांचमी वनस्पतिकायमार्गणा, ए पांच मार्गणाछारने विषे पढमाचलरो के प्रथमनी चार लेश्या होय, एटले कृम, नील, कापोत थने तेजो, ए चार लेश्या पामीये. त्यां त्रण लेश्या सहेजें होय अने चोथी तेजोलेश्या तो पृथिवी, अप अने वनस्पतिमाहे सौधर्म, इर्शान देवलोकना देवता चवीने श्रवतरे, जे जणी ते देवता पोताना नवनी लेश्या शेष होय, तेनी साथे चवे तेथी एकेंजियादिक मध्ये तेजोलेश्या पामीयें. तिनिउ के कृप्स, नील अने कापोत, ए त्रण लेश्या अशुन परिणामें होय. ते नारय के नरकगतिमार्गणा तथा विगलग्गि के विकलेंजियनी त्रण मार्गणा अने पांचमी अग्निकायमार्गणा, तथा पवणेसु के बही वायुकायमार्गणा, ए मार्गणाझारे ए प्रथमनी त्रण लेश्या होय. ए बए मार्गणा स्थित जीव अशुन अध्यवसाय स्थानकें वर्ते ले ते जणी एने ए अशुजलेश्या त्रण होय, शेष त्रण शुज लेश्या न होय ॥ ३ ॥ अदखाय सुहुम केवल, अगि सुक्का गवि सेस गणेसु ॥ नर निरय देव तिरिआ, थोवा दु असंखणंत गुणा ॥४०॥ अर्थ- श्रहखाय के यथाख्यातचारित्र अने सुहुम के० सूक्ष्मसंपरायचारित्र, केवलागि के० केवलज्ञान अने केवलदर्शन, एवं चार मार्गणाधारें सुका के० शुक्ललेश्या होय, जे जणी अतिविशुक अध्यवसायस्थानके ए वर्ते, ते नणी एने शेष पांच लेश्या न होय, अने बाविसेसगणेसु के शेष एकतालीश मार्गणाधारें 3 लेश्या पामीयें, ते एकतालीश मार्गणानां नाम कहे बे. देव, मनुष्य ने तिर्यच, ए त्रण गतिमार्गणा तथा एक पंचेंजियमार्गणा तथा त्रण योगनी त्रण मार्गणा, एक त्रसकाय मार्गणा, त्रण वेदनी त्रण मार्गणा, चार कषायनी चार मार्गणा, एवं पंदर, सात छाननी सात मार्गणा, पांच संयमनी पांच मार्गणा, त्रण दर्शननी त्रण मार्गणा, एवं त्रीश; जव्य तथा अजव्यमार्गणा, ब सम्यक्त्वनी मार्गणा, संझीमार्गणा, थाहारकमार्गणा अने अनाहारकमार्गणा; एवं एकतालीश मार्गणायें बए लेश्या होय. अहीं जो पण अजव्यादिकने अशुभ परिणाम नणि अशुद्ध लेश्या कहीयें, तो पण व्यवहारें शुजयोग प्रवृत्तियें करी जैनशुव्य क्रियायें करी नवमा अवेयक सुधी पहोंचे ते जणी एने पण शुक्ललेश्या कहीयें. Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षडशीतिनामा चतुर्थ कर्मग्रंथ. ४ हवे ए लेश्यावंतादिक जीव चौद मार्गणाधारे विचारतां कया जीव कया जीवनी अपेक्षायें थोमा तथा घणा अथवा तुल्य होय ? एवो शिष्यनो संशय टालवा नि. मित्त नवमुं अल्प बहुत्व हार कहेजे. ते कहेतां थकां अव्यप्रमाणादिकछार पण सुगम थाय, ते जणी एकेक मार्गणायें अल्प बहुत्व कहे . . त्यां प्रथम गतिमार्गणायें सर्व जीवथी नर के मनुष्य गतिना जीव थोवा के थोमा जाणवा. त्यां गर्ज़ज मनुष्यनी संख्याना जंगणत्रीश श्रांक लखीयें बेंयें. ७, ए, २७, १, ६५, ५१, ४२, ६, ४३, ३७, ५ए, ३, ५४, ३ए, ५७, ३३६, एटला थांकनी संख्यायें गर्ज़ज मनुष्य जाणवा, अने उत्कृष्टपदें तेथी असंख्याता संमूर्बिम होय. केम के मनुष्य बे प्रकारना बे. एक गÓज अने बीजा संमूर्छिम, तेमां संमूर्बिम ते गर्तज मनुष्यना मल मूत्र शुक्र, शोणीत, मांस, परू, कलेवर प्रमुख अपवित्र चौद स्थानकादिकथी उपजे तेने कहीयें, ते संमूर्डिम यद्यपि असंख्याता डे तथापि ते अध्रुव बे, जे नणी तेनुं श्रायु अंतरमुहर्त्तनुं होय तथा देखाय नहीं, अने तेने उपजवानो वीरहकाल जघन्यथी एक समय तथा उत्कृष्टश्री चोवीश मुहूर्त , तेथी ते केवारें होय अने केवारे निर्लेप पण थाय. एटले न पण होय, अने गर्भजनो विरह तो नज होय, ते गर्भज तो सदैव होयज, ते वली ते संख्याताज होय पण असंख्याता न होय, त्यां संख्याताना संख्याता नेद ले. माटे ते मनुष्य केटला . तेनुं प्ररूपण करे . ___ कोइएकराशि, तेहिजराशि साथें गणीये तेने वर्ग कहीये. त्या एकनो वर्ग न होय श्रने बेनो वर्ग चार थाय, ए प्रथम वर्ग. अने चारनो वर्ग सोल, ए बीजो वर्ग, शोलनो वर्ग बसें ने उपन्न, ए त्रीजो वर्ग. एनो वर्ग पांशठ हजार, पांचसे ने उनीश थाय. ए चोथो वर्ग. ४२एवएशए६ ए पांचमो वर्ग. १४४६७०४०७३७०ए५५१६१६ ए हो वर्ग. ते पांचमा वर्ग साथै गुणीयें, तेवारें पूर्वोक्त श्रांक थाय. ते श्रांकनी संख्या सात कोडाकोनी कोमाकोमी, बाणुं लाख कोडाकोमी कोमी, अहावीश हजार कोडाकोडी कोडी, एकशो कोडाकोडी कोमी, बाशठ कोमाकोडी कोमी, एकावन लाख कोडाकोडी, बेंतालीश हजार कोडा कोडी, बसें कोमाकोमी, तेंतालीश कोडाकोमी, साडतीश लाख कोडी, उंगणशाठ हजार कोडी, त्रणशे कोमी, चोपन कोडी थने उपर उंगणचालीश लाख, पञ्चाश हजार, त्रणसें ने बत्रीश थया. अथवा एकने बन्नुवार गणां बमणां करीयें तो पण एटलीज राशि थाय. ए पन्नवणामां कडं डे, एटला जघन्यपदें गर्भज मनुष्य होय श्रने जेवारें संमूर्छिम होय ते साथें गणीयें, तेवारें उत्कृष्टपदें असंख्याता होय. असंख्याती उत्सर्पिणी अने अवसर्पिणीना जेटला Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षडशीतिनामा चतुर्थ कर्मग्रंथ. ४ समय थाय, एटले क्षेत्रथकी सात राज प्रमाण घनीकृत लोकनी एक प्रदेशन। श्रेणी ते श्रेणीना अंगुलप्रमाण क्षेत्रने विषे जेटला आकाशप्रदेश होय, तेनुं प्रथम वर्गमूल त्रीजा वर्गमूलना प्रदेश साथै गुणीयें, ते गुणतां जेटला प्रदेश थाय, तेटला प्रदेशनुं एकेक खंमुक कल्पीयें. अहीं अंगुलप्रमाण सूचीदेत्रने विषे श्राकाशप्रदेश असंख्याता . पण असत्कल्पनायें बसें ने उप्पन्न कल्पीयें तेनुं पहेलु वर्गमूल शोल थाय, अने बीजु वर्गमूल चार थाय, त्रीजें वर्गमूल बे थाय. ए त्रीजें वर्गमूल, पहेला वर्गमूल साथें गुणतां बत्रीश थया, एटला प्रदेशनुं खंमुक थयु. एवा एकेका खेमुकें ए. केक मनुष्य अपहारतां जो एक मनुष्य अधिको होत, तो समग्र एकश्रेणी अपहरात्, एटला उत्कृष्ट पदें संमूर्छिम तथा गर्भज मलीने मनुष्य थाय, ते माटें नारकी प्रमुख सर्व थकी मनुष्य थोमा जाणवा. ते मनुष्यथकी निरय के नारकगतिना जीव असंख्यातगुणा अधिक होय, कालथकी असंख्याती उत्सर्पिणी अवसर्पिणीना जेटला समय थाय, तेटला नारकी जे. क्षेत्रथकी प्रतरने असंख्यातमे नागें असंख्याती श्रेणीना जेटला आकाशप्रदेश थाय तेटला . ते केवी रीते-तो के, अंगुलप्रमाण प्रतर देत्रने विषे जेटली आकाशप्रदेशनी श्रेणी होय, तेना वर्गमूल असंख्याता उठे. त्यां पहेढुं वर्गमूल बीजा वर्गमूल साथें गुणीयें, तथा असत्कल्पनायें अंगुलप्रमाण प्रतरने विषे बसें ने बप्पन्न श्रेणी , तेनुं पहेलुं वर्गमूल शोल, बीजुं चार, ते शोलने चारें गुणतां चोशठ थाय. ते श्रेणी असंख्याती जाणवी. एटली श्रेणीनी पहोलपणे सूची अहीं ग्रहण करवी, एटली श्रेणीमांहे जेटला आकाशप्रदेश होय तेटला नारकी बे. ते माटें मनुष्यथकी असंख्यात गुणा होय. ते नारकीथकी देव के देवता असंख्यातगुणा होय. ते केवी रीतें ? तो के अंगुलमात्र क्षेत्रना प्रदेश- पहेलुं वर्गमूल तेने असंख्यातमे लागें जेटली प्रदेशनी श्रेणी, तेना जेटला आकाशप्रदेश होय तेटला तो असुरकुमार देवता . तेटला वली नागकुमार देवता डे, यावत् तेटला स्तनितकुमार देवता . तथा संख्यात योजन प्रमाण आकाशप्रदेशनी सूचीरूप जेटले खंमुकें करी एकेक व्यंतर अपहरीयें तो घनीकृत लोकनो मांडाने श्राकारें समग्र प्रतर अपहराय, तेटला व्यंतर देवता बे तथा बसें ने बप्पन्न अंगुल प्रमाण आकाशप्रदेशनी सूचीरूप जेटले खंमुकें करी एकेक ज्योतिषी अपहरीयें, तो घनीकृतलोकनों समग्र प्रतर अपहराय, तेटला ज्योतिषी देवता . तथा एक अंगुलमात्र देत्रना प्रदेशनुं त्रीजुं वर्गमूल तेनुं धन करीयें, तथा बीजुं वर्गमूल त्रीजा वर्गमूलसाथें गुणीयें, तेटली घनीकृतलोकनी एक प्रदेशनी श्रेणीना Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१४ षडशीतिनामा चतुर्थ कर्मग्रंथ. ४ जेटला प्रदेश होय, तेटला वैमानिक देवता बे. एम सर्व नवनपति, व्यंतर, ज्योतिषी, अने वैमानिक देवता मलीने नारकीयकी असंख्यातगुणा . ए रीतें मुअसंखा के मनुष्यथकी नारकी अने नारकीयकी देवता, ए बे असंख्यातगुणा अनुक्रमें एक बीजाथी जाणवा. ते देवताथकी तिरिश्रा के तिर्यंच अणंतगुणा के अनंतगुणा बे. केमके ते तिर्यचाहे वनस्पतिना जीव, निगोदिया ते अनंता . ए अनुक्रमें अहीं असंख्याताना असंख्याता नेद , श्रने अनंता नेद डे माटे उक्त विरोध जाणवा नहीं. ए गतिर्नु अल्पबहुत्व कयु. इति समुच्चयार्थः॥४॥ पण चनति एगिंदी, थोवा तिन्नि अदिया अणंत गुणा ॥ तस थोव असंखग्गी, न जलानिल अहिअ अणंता॥४१॥ अर्थ-बीजी इंजियमार्गणामध्ये सर्वथी थोवा के थोमा पण के० पंचेंजिय जीव, जे जणी सातराज प्रमाण घनीकृत लोकनी एक प्रदेशनी सूची श्रेणीना असंख्येय योजन कोडाकोमी प्रमाण तेना जेटला श्राकाश प्रदेशराशि तेटला पंचेंजिय जीव बे, ते थकी कांइएक अधिका जिहांसुधी बमणा न होय त्यांसुधी विशेषाधिक कहीये. तेटला चउ के० चौरिंघिय जीव, ते थकी विशेषाधिक ति के तेंजिय जीव, ते थकी विशेषाधिक 3 के बेंजिय जीव, ए रीतें चौरिंजिय, तेंजिय अने प्रिय, ए तिनि के त्रण जीवराशि अहिया के अनुक्रमें एक बीजाथी अधिका अधिका जाणवा, अने ते बेंजिय जीव थकी एगिंदी के एकेंजिय जीव, अणंतगुणा के अनंतगुणा जाणवा.जे जणी एकेजियमांहे वनस्पतिकाय आवे, ते मध्ये निगोदीआजीव पण श्रावी गया. माटें ते सर्व त्रसश्री अनंतगुणा होय. ए बीजी इंजियमार्गणायें अल्पबहुत्व विचाऱ्या. हवे त्रीजी कायमार्गणामध्ये तसथोव के सर्वश्री थोमा त्रस कायिथा जीव जे जणी घनीकृत लोकनी असंख्य योजन कोटा कोटी प्रमाणनी प्रदेशरा शिप्रमाण त्रस जीव जे. ते थकी असंखग्गी के अग्निना जीव असंख्यात गुणा बे, केम के असंख्य बोकाकाश प्रदेशप्रमाण बे, ते माटे. तथा तेथी नूजलानिलअहिथ के० पृथवीकायिथा जीव विशेषाधिक बे. ते थकी अपका यिथा जीव, विशेषाधिक बे. ते थकी श्रनील एटले वायुकायिथा जीव विशेषाधिक . ए चार कायना जीवनुं प्रमाण, सूत्रने विषे असंख्यात लोकाकाशप्रदेश प्रमाण अविशेषे कडं . पण असंख्याताना असंख्याता नेद . तेमाटें अल्पबहुत्व घटे . तेथकी वली वनस्पति कायना जीव अणंतो के अनंतगुणा जाणवा, जे नणी निगोदीया जीव अनंता , माटें. ए त्रीजी कायमार्गणायें अल्पबहुत्व कह्यं ॥ इति समुच्चयार्थः ॥४१॥ Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षडशीतिनामा चतुर्थ कर्मग्रंथ. ४ मण वय काय जोगी, थोवा प्रसंखगुणा अांतगुणा ॥ पुरिसा योवा इची, संखगुणा प्रांतगुणा कीवा ॥ ४२ ॥ अर्थ- हवे चोथी योगमार्गणामध्यें सर्व थकी मण के० मनोयोगी जीव थोवा के० थामा जाणवा. जे जणी संज्ञी पंचेंद्रिय जीव मनोयोगी होय, ते सर्वथी स्तोक बे. .ते थकी वयण के० वचनयोगी जीव, असंखगुणा के० श्रसंख्यातगुणा जाणवा. जे बेंद्रिय, तेंद्रिय, चौरिंद्रिय, असंज्ञी पंचेंद्रिय अने संज्ञी पंचेंद्रिय, ए पांच जीवराशि सहु वचनयोगी बे, तेथी असंख्याता बे. ते माटें ते जेलतां असंख्यातगुणा होय. ते थकी कायजोगी के० काययोगी जीव, अांतगुणा के० अनंतगुणा बे, जे जणी एकेंद्रिय निगोदादिकना अनंता जीव पण काययोगी बे. ए चोथी योगमार्गणायें अल्पबहुत्व कयुं. हवे पांचमी वेदमार्गणामध्यें पुरिसायोवा के० सर्व थकी पुरुषवेदी जीव थोमा जावा, ते थकी बी के० स्त्रीवेदी जीव, संखगुणा के० संख्यातगुणाधिक जाणवा. जे जणी देवता थकी देवी बत्रीरूपें अधिक बत्रीश गुणी अधिकी होय, श्र मनुष्य की मनुष्यणी सत्तावीरूपें अधिक सत्तावीश गुणी जाणवी ने तिर्यंच पुरुषकी तिची स्त्री त्रिगुणी त्रणरूपें अधिक होय. ए रीतें स्त्री पुरुष थकी संख्यात गुणी अधिक जाणवी. ते थकी कीवा के क्लीब एटले नपुंसकवेदी जीव, अणंतगुणा के० अनंतगुणा जाणवा. जेजणी एकेंद्रिय, विकलेंद्रिय, तथा संमूर्तिम मनुष्याने तिर्यंच तथा नारकी, ए सर्व नपुंसकवेदी बे. तेमांहे एकेंद्रियमां पण वनस्पतिना जीव अनंता बे. माटें अनंतगुणा कया. ए पांचमी वेदमार्गणायें अल्पबहुत्वकयुं ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ ४२ ॥ माणी कोही माई, लोजी यदि मणनाणिणो योवा ॥ दि प्रसंखा मइ सुप्र, प्रदिच्य सम संख विनंगा ॥ ४३ ॥ ५१५ अर्थ-बी कषायमार्गणामध्यें सर्वथकी स्तोक माणी के० मानी जीव जाणवा. जे जी कोधादिक परिणमन कालयकी मानपरिणमन काल स्तोक बे. ते जणी मानी जीव स्तोक जाणवा. तेथ की कोही के० क्रोधी जीव अहि के० विशेषाधिक बे, जे मानपरिणमन कालथकी क्रोधपरिणमन काल विशेषाधिक बे, माटें. तेथकी वली माई के० मायी जीव विशेषाधिक बे, जे जणी घणा कालपर्यंत माया बहुल होय, माटें. तेथकी लोजी के० लोजी जीव विशेषाधिक, जे जणी दशमा गुणगणासुधी पण लोज होय, ते माटें. ए बडी कषायमार्गणायें अल्पबहुत्व क. सातमी ज्ञानमार्गणामध्यें मणना पिणोथोवा के० सर्वस्तोक मनः पर्यवज्ञानी जाएवा. Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१६ षडशीतिनामा चतुर्थ कर्मग्रंथ. ४ जे जणी सर्वथकी थोमा गर्मज मनुष्य, तेमांहें पण चारित्रिया थोमा, वली चारित्रियामाहे पण अप्रमत्त थोमा, तेमांहे पण शकिप्राप्त मनःपर्यवज्ञानी स्तोक जाणवा. तेथकी वली उहि के अवधिज्ञानी जीव असंख्यगुणा, जे जणी मनुष्यथकी पण सम्यकदृष्टि देवता नारकी असंख्यात गुणा बे. तेने तो अवधिज्ञान जे. ते अवधिज्ञानीथी एक मर के मतिज्ञानी, बीजा सुश्र के० श्रुतज्ञानी, ए बेहु अहिश्र के विशेषाधिक जाणवा. जे नणी देवता, नारकी, सम्यक्दृष्टिने मत्यादिक त्रण झान होय, अने मनुष्य तथा तिर्यंच सम्यकूदृष्टिने मति तथा श्रुत, ए बे ज्ञान होय, अने अवधिज्ञाननी जजना होय, तेथी विशेषाधिक कह्या; अने मति तथा श्रुत, ए बेहु मांहो. मांहे सम के सरखा जाणवा. केम के, ए बेहु साथेंज होय माटें. तेथकी असंखवि. नंगा के० विनंगज्ञानी जीव, असंख्यातगुणा जाणवा. जे जणी सम्यकदृष्टि देवता तथा नारकीथी मिथ्यात्वी देवता तथा नारकी असंख्यातगुणा . ते सर्वने विनंगज्ञान होय, ते जणी मति, श्रुत, ए बेहुथी विनंगज्ञानी असंख्यातगुणा जाणवा.॥इति समुच्चयार्थः॥४३॥ केवलीणोणंतगुणा, म सुअ अन्नाणिणंतगुण तुल्ला ॥ सुहुमा थोवा परिदा, र संख अहखाय संखगुणा ॥४४॥ अर्थ-ते विनंगज्ञानीथकी केवलीणोणंतगुणा के केवलज्ञानी जीव अनंतगुणा जाणवा. जे जणी सिद्धना जीव, केवलज्ञानी बे. ते देव तथा नारकीथी अनंतगुणा बे. ते केवलज्ञानीथी वली मश्सुअ अन्नाणिणंतगुणा के० मतिअज्ञानी अने श्रुतअज्ञानी जीव अनंतगुणा , जे जणी सिमथकी पण निगोदिया जीव अनंतगुणा बे, ते सहुने मतिश्रज्ञान तथा श्रुतअज्ञान जे. तेथी अने ए बेहु मांहोमांहे तुझा के बराबर सरखा बे. केम के जेने मतिअज्ञान तेने श्रुतअज्ञान पण बे, तेथी ए बेहु मांहोमांहें सरखा . जिहां श्रुत होय, तिहां मतिपूर्वक श्रुत डे, मिथ्यात्वी जणी अज्ञान कहीये. ए सातमी ज्ञानमार्गणायें अल्पबहुत्व कयु. हवे आठमी संयममार्गणामध्ये सुकुमायोवा के सूनसंपरायचारित्रिया जीव सर्वथकी थोमा जे. जे जणी ते उत्कृष्टा तो एक समयें शतपृथक्त्व पामीयें, पृथक्त्व एटले बेथी मामीने नव पर्यंत संझा जाणवी. तेथी परिहारसंख के० परिहारविशुरुचारित्रिया संख्यातगुणा होय. जे जणी ते उत्कृष्टा एक समयें सहस्र पृथक्त्व होय, माटें सो थकी सहस ते दशगुणा थया, ते थकी वली अहखायसंखगुणा के यथाख्यातचारित्रिया संख्यातगुणा होय, जे नणी ते कोटी पृथक्त्व उत्कृष्टा होय माटें सहस्रथी कोटी दश सहस्र गुणी होय ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ ४ ॥ Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१७ षडशीतिनामा चतुर्थ कर्मग्रथं. ४ आ समश्य संखा, देस असंखगुणऽणंतगुण अजया॥ थोव असंख जुर्णता, उहि नयण केवल अचकु ॥ ४५ ॥ अर्थ-तेथकी बेया के बेदोपस्थापनीयचारित्रिया संख्यातगुणा जाणवा. जे जणी ते शतकोटी पृथक्त्व लाने, माटें. तेथकी वली समश्य के सामायिकचारित्रिया संखा के० संख्यातगुणा जाणवा. केम के ते सहस्त्रकोटी पृथक्त्व उत्कृष्टा होय, ते वास्ते तथा ते सामायिकचारित्रियाथी वली देस के देशविरति जीव, असंखगुण के असंख्यातगुणा जाणवा. जेजणी असंख्याता तिर्यंचने देश विरतिपणुं होय, तेजणी असंख्यगुणा कह्या. तेथकी वली अजया के० थविरतिजीव, श्रणंतगुण के अनंतगुणा जाणवा. जे जणी प्रथमना चार गुणगणे वर्त्तता जीव सर्व अविरति . तेमध्ये निगोदीआ जीव अनंता मिथ्यात्वी ते सर्व अविरति ले. ते जणी अनंता कह्या. ए आठमी संयममार्गणायें अल्पबहुत्व कह्यु.। __ हवे नवमी दर्शनमार्गणायें चार दर्शनमांहे हि के अवधिदर्शनी जीव थोव के सर्वथी स्तोक, जे जणी देवतादिक अवधिज्ञानीने अवधिदर्शन होय, माटें. तेथकी वली नयण के चकुदर्शनी जीव, असंख के० असंख्यातगुणा होय. जे जणी चौरिंजियादिकने तथा मनुष्य, तिर्यंच पंचेंजियने अने मिथ्यात्वी देवादिकने पण चहुदर्शन होय ते माटें, तथा तेथकी उणंता के बे अनंता कहेवा. एटले तेथकी केवल के केवलदर्शनी जीव अनंतगुणा जाणवा. जे नणी सिझना जीवोने केवलदर्शन बे, अने ते जीवो वसथकी अनंतगुणा . तेथकी अचस्कू के० श्रचकुदर्शनी जीव, अनंतगुणा जाणवा. जेजणी एकेंजियादिकने पण थचकुदर्शन बे, ते अपेक्षायें लेवा. ए नवमी दर्शनमार्गणायें अल्पबहुत्व कडं ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ ४५ ॥ पबाणु पुविलेसा, थोवा दोऽसंखणंत दोअदिआ॥ अन्नवि अर थोवऽणंता, सासण थोवोवसमसंखा ॥ ४६॥ अर्थ- हवे पहाणुपुविलेसा के० दशमी लेश्यामार्गणायें पश्चानुपूर्वी एटले शुक्लखेश्याथी मामीने कृमलेश्या लगें अल्पबहुत्व ले. ते देखाडे जे. थोवा के सर्व स्तोक शुक्कलेश्याना जीव, केम के लांतकथकी मामीने अनुत्तर विमानवासी देवता तथा अकर्मनूमिना मनुष्य अने तिर्यंच तथा को संख्यातायुवाला मनुष्य तथा तिर्यचने शुक्ललेश्या होय, तेमाटें सर्व थकी थोमा कह्या. तेथकी पद्मलेश्यायें वर्त्तता जीव, असंख्यातगुणा जाणवा. जे नणी लांतकादिक देवोयी सनत्कुमार, माहेंज, ब्रह्मदेवलोकना देवता, असंख्यातगुणा बे, तेने पद्मलेश्या होय, तेजणी. तेथकी तेजोलेश्याना जीव, असंख्यात गुणा जाणवा. जे जणी सौधर्म, ईशानना देवता तेथकी Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षडशीतिनामा चतुर्थ कर्मग्रथं. ४ संख्यातगुणा बे, माटें. ए दोऽसंखगुणा के० वे स्थानके असंख्यात गुणा सेवा. अने केली एक प्रतिमां ए बे राशिना जीव संख्यातगुणा अधिक लखेला बे ते सुझोयें विचारी जोनुं, तेथी कापोतलेश्याना जीव, अांत के० अनंतगुणा जाणवा. जेजणी निगोदीच्या जीवने पण कापोतलेश्या होय, तेथकी दोहिया के० वे स्थानकें विशेबाधिक कहेवा. एटले कापोतलेश्या थकी नीललेश्याना जीव, विशेषाधिक जाणवा. जेजणी नीललेश्यावंत नारकी प्रमुख तेमांहे घालीयें, तेवारें विशेषाधिक थाय. तेथकी कमलेश्याना जीव, विशेषाधिक. केम के घणा जीवने कमलेश्या बे, यद्यपि निगोदी जीवमां त्रणे लेश्या छे, तथापि त्यां कृमलेश्याना जीव अधिक, ते माटें. दशमी लेश्यामार्गणायें अल्पबहुत्व कयुं. ए ५१ हवे विरोवता के० अगीधारमी जव्यमार्गणामध्यें अजव्य स्तोक, जे. जणी अनव्यजीव जघन्य युक्त चोथे अनंते बे. तेजणी तेथकी इतर जे जव्य जीव ते अनंतगुणा जाणवा. जेजणी अनंतकालें पण तेनो अंत नहीं आवे एटला जव्य जीवो बे, जोपण सदा मुक्तिमार्ग वहेज बे तोपण को वारें नव्यजीवथकी शून्य लोक थशे नहीं. ए जव्यमार्गणायें अल्पबहुत्व क. वे बारम सम्यक्त्वमार्गणामध्यें सासणथोवा के० साखादनी जीव, सर्व थकी स्तोक, केस के एगुणठाणे उपशमसम्यक्त्वथी पडतां कोइएक जीव होय, ते जणी. तेथकी उवसमसंखा के० योपशमिक सम्यकदृष्टि जीव, संख्यात गुणा जाणवा. जे जणी केटलाएक न पण पडे, तेनी अपेक्षायें जाणवा ॥ ४६ ॥ मीसा संखा वेग, प्रसंख गुण खइ मित्र प्रांता ॥ सन्नि र योवणंता, अणदार योवेअर असंखा ॥ ४७ ॥ अर्थ - ते पशमिक सम्यकदृष्टिश्री मीसासंखा के० मिश्रदृष्टि जीव संख्यातगुणा जाणवा. केम के सम्यक्त्वथकी पण जीव, मिश्र श्रावे ने मिथ्यादृष्टि जीव पण मि यावे, ते वास्ते. हवे ते मिश्रदृष्टिथकी वेाग के० क्षायोपशमिक सम्यकदृष्टि जीव, संखगुण के० संख्यातगुणा बे. जे जणी तेनो स्थितिकाल असंख्यातगुणो बे, केम के उत्कृष्ट बाराह सागरोपम जाजेरा वेदकसम्यक्त्वें जीव रहे बे. ते छापेकायें कह्या, ते थकी खरा मित्रता के० एक हायकसम्यक्त्वी तथा बीजा मिथ्यादृष्टि, ए बे अनुक्रमें एक बीजार्थी अनंतगुणा कडेवा, एटले क्षायोपशमिकथकी कायिकसम्यकदृष्टि जीव, अनंतगुणा बे. जेजणी सिद्धना जीव अनंता बे. तेने ए सम्यक्त्व बे ते अपेक्षायें कह्या, ते थकी मिथ्यात्वी जीव अनंतगुणा बे. जेजणी Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षडशीतिनामा चतुर्थ कर्मग्रंथ. ४ ५१ निगोदी जीव सिद्धथी पण अनंतगुणा बे. ते सर्व मिथ्यात्वी बे. ए बारमी सम्यक्त्वमार्गणायें पबहुत्व कयुं. सन्नता के संझी संज्ञी मार्गणामांहे संज्ञीय जीव थोमा, जेजणी गज मनुष्य, तिर्यंच, देवता ने नारकी, ए जीव सन्निया बे, ते थकी इतर जेसन एकेंद्रियादिक जीव बे, ते अनंतगुणा निगोदीच्या जीवनी अपेक्षायें d. ए तेरमी सन्निमार्गणायें अल्पबहुत्व कयुं. हवे हारथोवेअर असंखा के० आहारक मार्गणायें आहारी अने श्रणाहारी जीवांणाहारी जीव स्तोक, जेजणी विग्रहगतियें वर्त्तता त्रण समय लगें जीव हारी होय, तथा सिद्धना जीव अणाहारी बे. ते अपेक्षायें कह्या. तथा ते थकी हारी जीव संख्यातगुणा जाणवा. जेजणी जो पण अनंता जीव बे, तो पण आयुःस्थिति असंख्यात समयनी होय, तिहां एकेक समयोत्पन्न जीव अनंता होय, तथापि श्रसंख्य समयोत्पन्न जणी असंख्यातगुणा कया. जो पण सिद्धना जीव अनंता हारी वे तो पण निगोदीखाना अनंता आगल सिद्धनुं अनंतु कोइ लेखामां नथी तेथी श्रसंख्यातगुणा होय. ए चौद मार्गणायें अल्पबहुत्व कह्युं ॥ ४७ ॥ हवे चौद गुणस्थानकें जीवस्थानादिक दश बोल विचारे बे. जेजणी मार्गणास्थितजीवगुणस्थानकशून्य न होय तेथी विशेषादेशें मार्गणाने गुणठाणे जीव दादिक दश बोल कहे बे. तिहां प्रथम गुणठाणाने विषे जीवनेद कहे बे. ॥ अथ गुणस्थानेषु जीवनेदानाद ॥ सब जिप्राण मिचे, सग सासणि पण अप सन्नि डुगं ॥ सम्मे सन्नी विदो, सेसेसु सन्नि पात्तो ॥ ४८ ॥ अर्थ- सब जिमिछे के० तिहां प्रथम मिथ्यात्वगुणगाणे एकेंद्रियादिक चौदे जीवनेद सर्वपामीयें. केम के सर्व जीवनेदें मिथ्यात्वीपणुं अवश्य होय, तेजणी. सास बीजे साखादनगुणठाणे सग के० सात जीवस्थानक पामीयें. तेनां नाम कहे वें. एकेंद्रिय बादर, बेंद्रिय, तेंद्रिय, चौरिंडियं, अने असंज्ञी पंचेंद्रिय. ए पण के० पांच कर पर्याप्ता अने सन्नि पंचेंद्रिय पर्याप्तो तथा अपर्याप्तो, ए सन्निगं के० वेद सन्निधाना एवं सात होय. एटले एकें प्रियादिकमध्यें सम्यक्त्व वमतो जीव अवतरे, तेथी अपर्याप्तावस्थायें साखादनगुणठाएं होय, अने संज्ञी पर्याप्ताने ग्रंथिनेदथी परुतां सास्वादन होय. तथा सम्मेसन्नी डुविहो के० चोथे अविरति सम्यकदृष्टि गुणठाणे सन्नि पर्याप्तो तथा अपर्याप्तो ए वे नेद होय, केम के सम्यक्त्वसहित यावी अवतरे. ते संज्ञि करणपर्याप्तो होय, ए पूर्वोक्त त्रण गुण For Private Personal Use Only Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२० षडशीतिनामा चतुर्थ कर्मग्रंथ. ४ गणाथी सेसेसु के शेष रह्यां जे अगीश्रार गुणगणां तेने विष सन्निपजत्तो के सन्निपर्याप्तानो एकज नेद होय. ॥ ४ ॥ ॥ हवे चौद गुणगणे योग कहे .॥ ॥ अथ गुणगणेषु योगानाद ॥ मिब उगि अजइ जोगा, दार गूणा अपुव पणगेन ॥ मण वय उरख सविनवि, मीसी सविनवि उग देसे ॥ ए॥ अर्थ- मिगि के मिथ्यात्व श्रने सास्वादन, ए बे गुणगणा अने त्रीजुंअजय के अविर तिसम्यक्दृष्टि, ए त्रण गुणगणे जोगाहारगृणा के थाहारक अने थाहारकमिश्र ए बे योग न होय. बीजा तेर योग होय. तिहां कार्मण अने औदारिकमिश्र ए बे योग, अपर्याप्तावस्थायें मनुष्य तथा तिर्यंचने होय, ने वैक्रियमिश्र ए एक योग, देवता नारकीने अपर्याप्तावस्थायें होय, शेष मनना चार, वचनना चार, औदारिक अने वैक्रिय, ए दश योग, पर्याप्तावस्थायें होय, अने चारित्र, ए त्रण गुणगणे नथी तेलणी थाहारहिक न होय. तथा अपुवपणगेउ के अपूर्वादिक पांच गुणगणां एटले अपूर्वकरण, बादरसंपराय, सूक्ष्मसंपराय, उपशांतमोह अने वीणमोह, ए पांच गुणगणे मण के मनना चार योग, तथा वय के वचनना चार योग अने उरल के० औदारिक, ए नव योग पामीयें. ए अपूर्वादिक पांच गुणगणे अतिविशुद्ध चारित्रजणी वैक्रिय तथा श्राहारक शरीर न करे, तेथी तेना चार योग एने न होय. श्रहींयां अपर्याप्तो न होय माटे औदारिकमिश्र ने कार्मण, ए बे योग पण न होय. शेष नव योग होय. अने मीसी के त्रीजे मिश्रगुणगणे सविना के० ते पूर्वोक्त नव योगने वैक्रिय सहित करीयें, तेवारें दश योग होय. जेनणी देवता तथा नारकीने पण मिश्रगुणगणुं होय तेथी तेने वैक्रिययोग पण होय. तथा देसे के० देशविरति नामें पांचमें गुणगणे सविनविपुग के० पूर्वोक्त नव योगने वैक्रियधिक सहित करीयें, तेवारें अगीयार योग होय, तिहां एक वैक्रिय अने बीजो वैक्रिय मिश्र, ए बे योग लब्धिप्रत्यय होय, तेजणी मनोयोग चार, वचनयोग चार, औदारिकयोग एक, अने वैक्रिययोग बे, एवं अगीवार योग होय ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ ४ ॥ सादारजग पमत्ते, ते विनवादार मीस विणु श्अरे ॥ कम्मुर खड्गंताश्म, मण वयण सजोगिन अजोगि॥५०॥ Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षडशीतिनामा चतुर्थ कर्मग्रंथ. ४ ५२१ अर्थ-ए पूर्वोक्त श्रीधर योगने साहारडुग के० आहारक अने आहारक मिश्र योग सहित करीयें, तेवारें पमत्ते के० प्रमत्तसंयतनामे बडे गुणगणे होय, केम के आहारकना बे ने वैक्रियना वे, एवं चार योग लब्धिप्रत्ययें होय. तिहां लब्धि प्रयुंजतां प्रमत्त होय, तेजणी. ते विजवाहारमीसविणु के० तेहीज तेर योगमा थी एक हारक मिश्र अने बीजो वैक्रियमिश्र, ए वे योग अप्रमत्तगुणठाणे न होय. जे जणी ए वे योग वैक्रिय तथा आहारक प्रारंभतां होय, तिहां तो लब्धि प्रयुंजे तेवा प्रमत्तें होय, पण श्रप्रमत्तें लब्धिनुं प्रयुंजवुं नथी तेथी प्रमत्तें होय, पण एबेहु शरीर बतां श्रप्रमत्तपणं श्रावे ते अपेक्षायें वैक्रिय अने आहारक ए बे योग का, छाने एना मिश्र न होय. माटें ए बे विना अरे के० प्रमत्तयी इत्तर जे प्रमत्त गुणाएं तेने विषे अगीयर योग होय, कम्मुरलडुग के० एक कार्मण बीजो दारीक मिश्र, ए द्विक तथा ताइममणवयण के अंतादिम एटले धुरला अने बेला ए बे मन योग अने एज बे वचनयोग, एटले सत्यमनोयोग अने असत्यामृषामनोयोग, वली एज बे वचनना योग, एवं सात योग, सजोगि के० सयोगिनामा तेरमे गुणठाणे होय. तिहां मनोयोग अनुत्तर विमानना देवता जेवारें संदेह प्रश्न पूबे, तेवारें उत्तर यापवा निमित्तें तेहीज रूपें मनोद्रव्य परिणमावे तिदां मनोयोगनुं कार्य पडे श्रने वचन योग धर्मदेशना कार्य कालें होय, अने श्रौदारिकमिश्र तथा कार्मण ए वे योग केवलसमुद्घातमांदे होय ने श्रदारिकयोग मूल होय. जोग के योगी गुणठाणे चपलता टली ते माटें एके योग न होय. ॥ ५० ॥ हवे चौद गुणठाणे बार उपयोग विवरे ढे, जे जणी गुणस्थानक विशुद्धे वर्त्ततो जीव, विशुद्धयोगें करी उपयोग शुद्धि पामे. ते जणी योग कह्या पढी उपयोग कहे बे. ॥ अथ गुणठाणेषूपयोगाना || ति नाडु दंसाइम, डुगे अजय देसि नाण दंस तिगं ॥ मसि मीस समा, जयाइ केवल 5 अंत डुगे ॥ ५१ ॥ अर्थ - तिना के श्रज्ञान अने डुडुंस के० चतुदर्शन ने अचतुदर्शन, ए बे दर्शन. एवं पांच उपयोग, इमडुगे के० श्रादिम बे गुणठाणे होय, एटले मिथ्यात्व अने सास्वादन ए वे गुणठाणे पूर्वोक्त पांच उपयाग होय, अने अजय के० श्रविरतिनामे चोथे गुण तथा देसि के० देश विरतिनामें पाचमें गुणठाणे नागदंसतिगं के० मति, श्रुत ने अवधि, एत्रण ज्ञान, अने चक्षु, श्रचतु अने अवधि, ए त्रण दर्शन, एवं ब उपयोग होय. देशविर तिमां मनः पर्यवज्ञान, केवलज्ञान ने केवलदर्शन, ए त्रण ६६ Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२२ षडशीतिनामा चतुर्थ कर्मग्रंथ. ४ उपयोग न होय, तथा ए गुणगणे रहेला जीव, मिथ्यात्वी न होय, माटें एने त्रण श्रज्ञान पण न होय. एवी रीतें उ उपयोग न होय. ते मीसिमीस के तेज त्रण अज्ञान साथें मिश्र थएखा एवा त्रण ज्ञान तथा तेमज त्रण दर्शन, एवं उ उपयोग मिश्रगुणगणे लाने. केम के जेने सम्यक्त्वांश बहुल होय तेने झानांशबाहुल्य होय, अने जेने मिथ्यात्वांश बहुल होय तेने अझानबाहुख्य होय. अहींबा मिश्रगुणगणे जे अवधिदर्शन कडं ते सिद्धांतने अभिप्रायें जाणवू, पण कार्मग्रंथिकना अनिप्रायें न जाणवू. समणा के ते पूर्वोक्त उ उपयोगने मनःपर्यवज्ञान सहित करीयें. एटले चार झान अने त्रण दर्शन, एवं सात उपयोग जया के प्रमत्तादिक एटले प्रमत्तगुणगणाथी मांमीने बारमा क्षीणमोहगुणगणा सुधीनां सात गुणगणे वर्त्तत्ता जीव, सर्व विरति होय तेथी एने मनःपर्यवज्ञान पण लाने, माटें सात उपयोग होय अने अंतगे के सयोगी ने अयोगी, ए अंतना बे गुणगणे केवल के० केवलज्ञान अने केवलदर्शन, ए बे उपयोग होय, शेष दश उपयोगी गद्मस्थिक ते इहां न होय. ॥इति समुच्चयार्थः॥५१॥ हवे सूत्रसम्मतपणे केटलाएक बोल थहींयां कर्मग्रंथें नयी मान्या, ते देखाडे . सासण नावे नाणं, विनब गाहारगे उरल मिस्सं ॥ नेगिदिसु सासाणो, नेहादि गयं सुअ मयंपि ॥ ५ ॥ अर्थ-सासणजावेनाणं के सास्व दननावे सास्वादनगुणगणे सास्वादनसम्यकदृष्टि जणी सिद्धांतमाहे मति अने श्रुतज्ञानी पण कह्या . एटले बेंजियादिक विकलेंजियमां उपजता जीव सास्वादनपणे ज्ञानी कह्या . तेज कर्मग्रंथानिप्रायें ज्ञान नथी कडं. तेनो ए अनिप्राय जे सास्वादनपणुं सम्यक्त्वथी पडतां होय , ते मिथ्यात्वने सन्मुख ने माटें मलीनसम्यक्त्व ले. तेथी त्यां ज्ञान पण मलीन डे माटें अज्ञानज कह्यु. तथा पन्नवणा अने जगवती प्रमुख सूत्रने विषे विजव्वगाहारगे के वैक्रिय अने आहारकशरीरवालाने एटले लब्धिप्रत्ययिक वैक्रिय शरीर अने थाहारकशरीरने प्रथम प्रारंजकालें उरलमिस्सं के वै क्रियपुजल औदारिक साथें मिश्रनाव माटें औदारिक साथें मिश्र होय, तेथी ते योगनुं नाम औदारिकमिश्र श्रीसिझांतने विषे कडं बे. ते कर्मग्रंथें अंगीकार न कह्यु, अने कर्मग्रंथने अभिप्रायें तो लब्धिजन्य शरीरने मुख्यताजणी वैक्रिय वैक्रिय मिश्र का, तथा श्राहारक आहारकमिश्र कह्यु पण औदारिकमिश्र न कह्यु, तेनो हेतु श्राम डे के जे गुणप्रत्ययिक लब्धिने बलव Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षडशीतिनामा चतुर्थ कर्मग्रंथ.४ ५२३ त्तरपणे करीने जे शरीर करवा मांडे ते शरीरनुं बलवत्तरपणुं होय. ते माटें एने प्रारंजकालें तथा परित्यागका पण वैक्रियमिश्र अने आहारकमिश्र कह्यां.. तथा नगिदिसुसासाणो के सिद्धांतने विषे एकेजियमांहे सास्वादनपणुं नथी कडं. सास्वादनी जीव एकेजियमांहे न उपजे, अने कर्मग्रंथवाले एकेंजियमांडे सास्वादनपणुं कर्वा डे एनो हेतु कांश जणातो नश्री; जे सिद्धांतें स्पष्ट ना कही , ते कर्मग्रंथवाले श्रादह्यु ए तत्व, केवली जाणे. नेहा हिगयंसुश्रमयंपि के ए त्रण बोल सर्व सूत्रे मान्या पण एनुं अहीं ग्रहण नथी कडे. इत्यर्थः॥ __तथा वली अहींयां गाथामां तो नथी कडं पण एवी रीतेंज सिझांतमाहे मिथ्यात्वादिक त्रण गुणगणे अवधिदर्शन अनिश्चयपणे कडं बे, केम के विनंगे मिथ्यात्वज्ञानजणी वस्तुनो निश्चय न कह्यो. अवधिदर्शन नथी सामान्यावबोधजणी वस्तुनो निश्चय न होय तेथी ए बन्ने जूदा खरा, पण एकरूप जणी पूर्वोक्त त्रण गुणगणे ए बे उपयोग होय, एम कडं श्रने कर्मग्रंथने मतें चोथे गुणगणे सम्यक्दृष्टिने अवधिदर्शन होय, पण प्रथमना त्रण गुणगणे अवधिदर्शन न होय एम कह्यु, अने श्रीनगवती, पन्नवणा तथा जीवा जिगमप्रमुख सूत्रमाहे पहेला गुणगणाथी मांगीने बारमा गुणगणा सुधी अवधिदर्शन होय, एम कडं बे. अने अहीं कर्मग्रंथने मतें विघ्नंगानीने अवधिदर्शन न होय, एम मानीने चोथा गुणगणाथी बारमा पर्यंत अवधिदर्शन होय एम कर्यु. . तेमज वली सिद्धांतने मते ग्रंथिनेद करतां, प्रथम दायोपशमिक सम्यक्त्व पामे अने कर्मग्रंथना मतें प्रथम औपशमिक सम्यक्त्व पामे. एम मतन्नेद ले. पण अहीं सिद्धांतमत श्राश्रयो नथी, अने कार्मग्रंथिक मत आश्रयो बे. माटें एमां का विरोध न जाणवो ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ ५ ॥ हवे चौद गुणगणे लेश्या कहे . जे जणी उपयोग सुधी लेश्या सुधीयें होय ते जणी उपयोग कह्या; पनी खेश्या कहे . ॥ अथ गुणस्थानेषु वेश्यामाह ॥ सु सवा तेन तिगं, इगि बसु सुक्का अजोगि अलेसा ॥ बंधस्स मिड अविरइ, कसाय जोगत्ति चन देक॥ ५३ ॥ अर्थ-उसु के मिथ्यात्वधी मामीने प्रमत्तलगें ब गुणगणानेविषे सबा के० सर्व कृमादिक बए लेश्या होय, तेजतिगं के तेजोलेश्या, पद्मलेश्या अने शुक्ललेश्या, ए त्रण खेश्या. इगि के एक अप्रमत्तनामें सातमुं गुणगणुं, तिहां एक पूर्वप्रतिपन्न Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२४ षडशीतिनामा चतुर्थ कर्मग्रंथ. ४ तथा बीजो प्रतिपद्यमानक तेने होय, अहीं प्रथमनी कृष्लादिक त्रण बेश्या न होय, केम के अहीं थार्त श्रने रौष, ए वे ध्यान न होय, अहीं विशुद्धपरिणामें धर्मध्यान तथा शुक्लध्याननो पहेलो पायो होय, अने बसु के श्रापमा गुणगणाथी मांमीने तेरमा पर्यंतनां ब गुणगणां विषे सुक्का के एक शुक्ललेश्याज होय, केमके अहीं अतिविशुद्ध परिणाम होय, ते नणी तथा अहीं प्रत्येके एकेकी लेश्याना तीवमंदपणे अध्यवसायनां स्थानक पण असंख्यातां तीवमंदपणे होय, तेथी शुक्ललेश्या मंदपणे पहेले गुणगणे होय, अने तीव्रपणे तेरमे गुणगणे होय, तेमज कृतखेश्या तीव्रपणे पहेले गुणगणे होय, श्रने मंदपरिणामें बहे गुणगणे होय, माटें ए वातमां विरोध नथी; तथा थजोगिश्रद्धेसा के अयोगी गुणगणे योगने अजावें लेश्या न होय जेजणी योगप्रवृत्ति ते लेश्या कहीये. ते माटें योगने अनावें ए पण प्रवृत्तिपणे न होय. एम चौद गुणगणे लेश्या कही. ते लेश्या कषायोदय सहित योगप्रवृत्ति तेथी बंधनो हेतु होय, तेथी कषाय अने योग, ते मध्ये योगें करी प्रकृतिबंध तथा प्रदेशबंध करे अने कषायें करी स्थितिबंध तथा रसबंध करे, ते जणी लेश्या कहीने हवे बंधहेतुसंख्या कहेले. ___बंधस्स के ज्ञानावरणीयादिक कर्म बांधवानां मूल चार कारण बे. तेनां नाम कहे . मिह के एक मिथ्यात्व एटले विपरीतरुचि, तत्वार्थनी अरुचि, कदाग्रहरूप ते मिथ्यात्व. बीजो मन, वचन, अने कायाना मलीनयोगथी जे निवृत्तिनो अनाव, ते अविर के अविरतिपणुं कहीये. त्रीजो कसाय के कषाय चारित्रमोहनीय, चोथो जोग के योग त्रण पूर्व कह्या ते तिचउदेऊ के इति ए चार मूल बंधहेतु कह्या. अहीं कोई कदेशे के प्रमादपणुं पांचमुं श्राश्रव, सिद्धांतें कडं बे, ते अहीं केम न कयु ? तेने उत्तर कहे के, मद विषयादिकरूप जे प्रमाद , ते पण अविर तिनामा आश्रवमांहे अंतनवे . अने कषाय तो अहीं पण जूदा कहीने नामज कह्या तथा विकथादिक सहयोगमाहेश्रावी गया.एमत्रण बंधहेतुमाहेअंतर्नवे बे तेथी प्रमाद जूदो न कह्यो. एम कर्मबंधना मूलहेतु सामान्य बंधनां कारण चार कह्यां. ५३ ॥ हवे ए मूल चार बंधहेतुना उत्तर नेद सत्तावन कहे . ॥ अनिगदिश मणनिगदिश्रा, निनिवेसिअ संसश्त्र मणानोगा ॥ पण मिड बार अविरइ, मण करणाऽनिअमु उजिअवदो ॥ ५४॥ अर्थ- अजिगहिश्र के प्रथम अनियहित एटले गुण अवगुण विचास्याविना जे मत ग्रहण कयुं तेहीज नर्बु जाणे अने बीजानी निंदा करे, कहे के अमारा वडेरा Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षडशीतिनामा चतुर्थ कर्मग्रंथ. ४ ५३५ करता हता ते श्रमे पण करीशु. इत्यादिक परीक्षा कस्याविना जे पोताना धर्मनो कदाग्रह होय ते प्रथम अनिग्रहीतमिथ्यात्व जाणवू. अने बीजु मण निगहिश्र के० जेणे करी सर्व दर्शन जला एम कहे पण को विशेषपणुं जाणे नहीं एवो कोएक मध्यस्थ परिणामे गुण अवगुणनी परीक्षा करे नहीं ते बीजं अननिग्रहीत मिथ्यात्व जाणवू. त्रीजु अनिनिवेसिश्र के अनिनिवेश एटले पोतानो बोल थापवाने अर्थे सूत्र अर्थ मरडे, कुयुक्ति मांडे, जेम गोष्टामाहिल निन्हव कर्मजीवनो संबंध कंचुकनी पेरें कहेतां थकां तेने उर्बलिकापुष्पमित्र अनेक प्रकारे समजाव्यो निरुत्तर कस्यो, तो पण तेणे पोतानो हल मक्यो नहीं, ए त्रीजुं अनिनिवेशिकमिथ्यात्व जाणवू. चोथु संसश्त्र के० सांशयिकमिथ्यात्व एटले जिनोक्त तत्वने विषे संशय धरतो रहे एटले गुरुगीतार्थनी सामग्री बतां पण मनमां विचारे जे हुं जो पूबीश तो रखे मुंजने गुरु अज्ञानी जाणशे ? एम जाणीने गीतार्थ गुरुने पूछे नहीं, संशयवंत थकां, तथा अविश्वासी थको रहे, तेने चोथु सांशयिक मिथ्यात्व कहीयें. श्रने पांचमुं मणाजोगा के अनाजोग मिथ्यात्व एटले जेथकी कोइ पण दर्शन मुंडं नवँ न जाणे, जेम मूळ पामेलो मनुष्य कडुनो रस तथा शाकरनो रस विशेष न जाणे, तेनी पेरें जे एकेंजियादिक जीवो ले ते तत्वातत्व न जाणे, माटें ए सह अनाजोगिक मिथ्यात्ववंत . ए पांचमुं मिथ्यात्व कडं. पण मिठ के ए पांचप्रकारनां मिथ्यात्व कह्यां. हवे बार के बार नेदें अविर के अविरति कहे . प्रथम मण के० मननी अविरति ते श्रावी रीतें के मनने विषे हिंसादिकनो संकल्प करवो, ते कर्मबंधनो हेतु बे. एवं जाणीने पण मनने न संवरे. ते मननी थविरति. तेमज करण के पांच इंघियना विषयने संसारहेतु जाणीने पण पोतपोताना विषयश्री इंजियने अनिअमु के० निवर्ताववानो परिणाम न करे, ते पंचेंजियनी अविरति पांच प्रकारे जाणवी, तथा जियवहो के पांच प्रकारना स्थावर जीवोनी पांच निकाय तथा बही त्रस निकाय, ए ब जीवनिकाय, तेनी हिंसा संसारदेतु जे. एम जाणीने पण ते हिंसाथकी विरमवानो परिणाम नहीं ते बकायनी अविरति. एवं बार अविरति थई. ते मध्ये सम्यकदृष्टि अविरति जीव जाणे पण विरमे नहीं, बीजा तो जाणे नाहं जेजणी तेने जिनवचनने अनुसार विषयने निवारवा, तथा बकायबंधनुं स्वरूप ज्ञान नथी ते माटे ते जाण्याविना तेने केम विरमे. अहीं मृषावादादिक विरमण ते पण ए बार प्रकारनी अविरतिमध्ये अंतर्नवे जे जेजणी ज्यां इंजियना विषयथी विरम्या तेवारे त्यां मृषावादादिक थकी अवश्य विरम्या जाणवा. ते विना सर्वथी विरमी न शके. ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ ५४॥ Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२६ षडशीतिनामा चतुर्थ कर्मग्रंथ. ४ नव सोल कसाया पन, रि जोग इअनत्तरा उसगवमा ॥ ग चन पण ति गुणेसु, चन ति ७ ग पञ्च बंधो ॥ ५५ ॥ अर्थ-नव के नव नोकषाय एटले हास्य षट्रक तथा त्रण वेद, एवं नव तथा सोलकसाया के अनंतानुबंधीयादिक शोल कषाय. ए शोल कषाय सर्व कर्म प्रकृ. तिना रसबंधना हेतु बे, केम के कषायविशेषे रसविशेष होय. ते जणी ए विशेषबंधहेतु जाणवा. ए पच्चीश कषाय कह्या. तथा पनरिजोग के मनना चार, वचनना चार अने कायाना सात, एवं सर्व मली पंदर योग जे जे, ते प्रदेशबंधना हेतु ले. एवं मिथ्यात्व पांच, अविरति बार, कषाय पञ्चीश, तथा योग पंदर, श्व के ए सर्व मली चार मूल हेतुना उत्तराऊ के उत्तरनेद, सगवला के सत्तावन होय. एणे करी जीवने कर्म बंधाय. जेम घमनालें करी तलावमाहे पाणी श्रावे, तेम ए पण कर्म भाववानां बारणां जाणवां, तेजणी ए सत्तावनतुं नाम, श्राश्रव पण कहीये. हवे चौद गुणगणे मलबंधहेतु कहे . अहींत्रीजा पदनी संख्या, चोथा पदनी संख्या, अनुक्रमें जोडीयें, तेवारे ग के एक मिथ्यात्वगुणगणे एनी साथे चज के चउपद जोमीयें, तेवारें एक मिथ्यात्वगुणगणे कर्मबंध चतुःप्रत्ययि होय, एटले एक मिथ्यात्व, बीजो अविरति, त्रीजो कषाय अने चोथो योग. ए चार मूल कारणे करी बंध होय, हवे चल के एक साखादन, बीजुं मिश्र, त्रीजु अविरति, चोधुं देशविरति, ए चार गुणगणे ति के० त्रिप्रत्य यि कर्मबंध होय. श्रहीयां मिथ्यात्व टल्युं माटें एक मिथ्यात्व विना अविरति, कषाय अने योग, ए त्रण हेतुयें करी बंध होय. तथा पण के एक प्रमत्त, बीजु अप्रमत्त, त्रीजुं अपूर्वकरण, चोथु बादरसंपराय, अने पांचमुं सूक्ष्मसंपराय, ए पांच गुणगणे एक कषाय अने बीजा योग, ए बे मूलबंध हेतुयें करी कर्मबंध होय, ते जणी मु के हिकप्रत्ययि बंध जाणवो. वहीं अविरतिपणुं पण टट्यु, अने तिगुणेसु के एक उपशांतमोह, बीजु क्षीणमोह, अने त्रीजु सयोगी, ए त्रण गुणगणे ग के एक योग पञ्चउँबंधो के प्रत्ययिर्डज बंध जाणवो. केम के अहींयां कषाय टल्यो, माटें मात्र एक योगें करीज कर्म बंधाय . अने चौदमे गुणगणे ए पूर्वोक्त चार हेतुमांहेलो एक पण हेतु नथी, माटें हेतुने अनावें बंध पण न होय. इति समुच्चयार्थः ॥ ५५॥ ॥ हवे एकसो ने वीश उत्तर कर्मप्रकृति श्राश्रीने मूल बंधहेतु विचारे ले.॥ चन मित्र मित्र अविरश, पञ्चश्मा साय सोल पणतीसा ॥ जोग विणु ति पच्चश्या, दारग जिण वऊ सेसा ॥५६॥ Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षडशीतिनामा चतुर्थ कर्मग्रंथ. ४ ५७ अर्थ-अहींयां बीजा पदना त्रण पद साथै प्रथमनां त्रण पद जोमीयें, एटले साय के एक शांता वेदनीय, चन के चारे बंध हेतुयें करीने बंधाय, तिहां मिठ के मिथ्यात्वगुणगणे मिथ्यात्वप्रत्ययिकी बंधाय, केम के ए वेदनीयनी प्रकृति मिथ्यात्वथी मामीने सयोगी गुणगणा लगें बंधाय , ते माटें. एक मिथ्यात्वें मिथ्यात्वप्रत्ययिकी बंधाय, अने बीजं साखादन, त्रीजें मिश्र, चोथु अविरति, पांच, देशविरति, ए चार गुणगणां सुधी थविरति प्रत्ययिकी बंधाय, अने प्रमत्तादिक पांच गुणगणे कषायप्रत्ययिकी बंधाय. अने उपशांतमोहादिक त्रण गुणगणे योगप्रत्ययिकी बंधाय. एम शातावेदनीयना बंधमांहे चार हेतुमांहेलो एक हेतु होय, त्यां लगे पण बंधाय. ते जणी चतुःप्रत्ययिकी बंधाय. नरकत्रिक, एकेंजियादिक चार जाति, थावरनाम, सूक्ष्मनाम, अपर्याप्तनाम, श्रने साधारणनाम, ए स्थावरचतुष्क तथा ढुंमसंस्थान, आतपनाम, नपुंसकवेद, बेवहुं संघयण श्रने मिथ्यात्वमोहनीय, ए सोल के शोल प्रकृति मिथ्यात्वने उदयें बंधाय, ते विना न बंधाय. ते नणी मिल के मिथ्यात्वप्रत्ययिकी कहीये. - अनंतानुबंधीया चार, मध्यसंस्थान चार, मध्यसंघयण चार, कुखगति, दौर्जाग्यत्रिक; एवं शोल तिर्यंचत्रिक, मनुष्यत्रिक, औदारिकहिक, स्त्रीवेद, नीचैर्गोत्र, श्रीणकीत्रिक, एवं उगणत्रीश; उद्योतनामकर्म, वजषजनाराचसंघयण श्रने अप्रत्याख्यानावरण चार कषाय, ए पणतीसा के पांत्रीश प्रकृति मिथ्यात्व गुणगणे मिथ्यावप्रत्ययिकी बंधाय. अने मिथ्यात्वथी आगले गुणगणे अविरति प्रत्ययिकी बंधाय. एम मिथ्यात्व तथा अविरति, ए बे मांहेलो एक हेतु होय तो पण बंधाय, परंतु ए विना बीजा हेतुयें न बंधाय, तेजणी ए पांत्रीश प्रकृति मिथ्यात्व तथा अविर के० अविरति पञ्चश्या के प्रत्ययिकी बंधाय. तथा आहारगजिणवऊसेसाठ के थाहारकधिक श्रने जिननामकर्म वर्जीने शेष ज्ञानावरणीयनी पांच, दर्शनावरणीयनी ब, अशातावेदनीयनी एक, मोहनीयनी पंदर, नामनी बत्रीश, उच्चैर्गोत्रनी एक अने अंतरायनी पांच, ए पांश प्रकृति तथा देशविरतिगुणगणे जे शमश: प्रकृतिनो बंध बे, तेमांहेथी जिननाम तथा शातावेदनीय, ए बे प्रकृति विना शेष पांश प्रकृति, जेवारें मिथ्यात्व गुणगणे बंधाय, तेवारें मिथ्यात्वप्रत्ययिकी कद्देवाय. अने जेवारें सास्वादनादिक चार गुणगणा लगें बंधाय, तेवारें अविरति प्रत्ययिकी बंधाय, अने तेथी आगल कषाय प्रत्ययिकी बंधाय. ए रीतें जोगविणुतिपच्चश्या के एक योग बंधहेतु विना शेष एक मिथ्यात्व, बीजो Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एशन षडशीतिनामा चतुर्थ कर्मग्रंथ. ४ श्रविरति, त्रीजो कषाय, त्रण बंध हेतु प्रत्ययिकी, ए पांशह प्रकृति बंधाय, परंतु ए त्रण बंधहेतु विना केवल एकज योग बंधहेतुयें करीन बंधाय. थाहारकशरीर, थाहारकअंगोपांग, ए बे प्रकृति, निरवद्य योगरूप सराग संयमप्रत्ययें करी बंधाय, तथा जिननाम कर्म तो अरिहंतादिकनी लक्तिरूप सम्यक्त्वकर्तव्य करी बंधाय. परंतु प्रशस्तरागें करी बंधाय, तेथी ए पण परमार्थे कषायप्रत्ययिकी होय, एम सर्व प्रकृति एकसो ने वीश बंधयोग्य , तेना मूल बंधहेतु विचास्या. जीवविजयजीयें तो ए त्रण प्रकृति चार हेतुमाहेला कोश् हेतुयें न बंधाय, मात्र एक सम्यक्त्वगुणें करीनेज बंधाय, एम लख्युं बे. “सम्मत्तगुणनिमित्तं तिछयरं संजमेण थाहारं ” इति वचनात् ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ ५६ ॥ ॥ हवे चौद गुणगणे उत्तर बंधहेतु कहे जे. ॥ पणपन्न पन्न ति बदि, अचत्त गुणचत्त बचन उगवीसा ॥ सोलस दस नव नव स, त्त देनणों नन अजोगंमि ॥ ५ ॥ अर्थ-मिथ्यात्वगुणगणे पणपन्न के पंचावन बंधहेतु होय तथा सास्वादने पन्न के पच्चास बंधहेतु होय अने मिथें तिथ के तेंतालीश बंधहेतु होय, तथा अविरतियें बहिथचत्त के बेंतालीश बंधहेतु होय, तथा देश विरतिगुणगणे गुणचत्त के जंगणचालीश बंधहेतु होय, अने प्रमत्तें, अप्रमत्तें तथा अपूर्वकरणे, ए त्रण गुणगणे अनुक्रमें बचउपुगवीसा के बबीश, चोवीश श्रने बावीश, बंधहेतु जाणवा. अने अनिवृत्तिबादरें सोलस के सोल बंधहेतु जाणवा. सूक्ष्मसंपरायें दस के दश बंधहेतु जाणवा. उपशांतमोहें नव के नव बंधहेतु जाणवा. क्षीणमोहें नव के नव बंधहेतु जाणवा. सयोगी सत्त के सात बंधहेतु जाणवा. अने हेजणोननथजोगंमि के अयोगीगुणगणे बंधना अनावमाटें बंध हेतु पण नथी. ॥ ७ ॥ पणपन्न मिबि दारग, उगूण सासाणि पन्न मिडविणा ॥ मी स जग कम्म अण विणु, तिचत्त मीसे अदब चत्ता ॥ ५ ॥ अर्थ-मिलि के मिथ्यात्वगुणगणे उचे सर्व जीवनी अपेदायें आहारगडुगूण के० थाहारकहिके हीन पणपन्न के पंचावन कर्मबंधना हेतु होय. जेनणी तेने विशिष्ट चारित्र नथी तेथी थाहारक लब्धि न होय, माटें श्राहारक शरीर अने श्राहारकमिश्र, ए बे योग न होय. शेष मिथ्यात्व पांच, अविरति बार अने कषाय पञ्चीश तथा योग तेर, एवं पंचावन कर्मबंधना हेतु पामी, अने विशेषादेशे एक जीवप्रत्ये एक समयें जघन्यपदें दश बंध हेतु होय. अने उत्कृष्टा अढार कर्मबंधना हेतु होय. Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षडशीतिनामा चतुर्थ कर्मग्रंथ. ४ ५ शए एम १०-११-१२-१३-१४-१५-१६-१७-१७ ए नव स्थानक होय, अने सासाणि के बीजे साखादन गुणगणे मिळविणा के पांच मिथ्यात्व न होय. माटें पंचावनमांहेथी पांच मिथ्यात्व काढीयें, तेवारें श्रविरति बार, कषाय पच्चीश अने योग तेर, एवं पन्न के पञ्चाश बंधहेतु उचे होय, तथा विशेषादेशे एक जीवप्रत्ये एक समयें जघन्यपदें दश हेतु होय. एम एकेक वधतो होय, तेवारें उत्कृष्ट सत्तर बंधहेतु होय. एम दशथी मांगीने सत्तर लगें आठ बंधहेतुना स्थानक होय, अने मीसग के० मिश्रधिक एटले औदारिकमिश्र अने वैक्रियमिश्र, त्रीजो कम्म के० कार्मणयोग, ए त्रण योग अने अण के अनंतानुबंधीया कषाय चार, एवं सात कर्मबंधना हेतु विणु के० विना शेष अविरति बार, कषाय एकवीश श्रने योग दश, एवं तिचत्त केण्तेंतालीश बंधहेतु उ मीसे के मिश्रगुणगणे होय, अने विशेषादेशे एक जीवप्रत्यें एक समय पंचेंजियमध्ये एक इंडियनी अविरति, बकायना बंधमध्ये एक कायनोबंध, बे युगलमध्ये एक युगल, तथा त्रण वेदमध्ये एक वेद, तथा चार कषायमध्येंना त्रण नेद होय; तथा दश योगमध्ये एक योग, एवं नव बंधहेतु जघन्यथी होय, अने उत्कृष्टथी तो बकायनो बंध, एक इंडियनी अविरति, एक युगल, एक वेद, कषायना त्रण नेद, जय, जुगुप्सा अने एक योग, ए शोल बंधहेतु लाने, ए मिश्रगुणगणे जीव काल न करे, तेथी अपर्याप्तावस्थायें जावीत्रण योग न होय, अने बंधहेतुस्थानक नवथी मांडीने सोल लगें श्राप होय. श्रह के श्रथ एटले हवे अविरति, सम्यक्त्वदृष्टिनामा चोथे गुणगणे उचत्ता के तालीश बंधहेतु होय, तेमध्ये तेंतालीश मिश्रमां कह्या, ते सेवा. हवे था गाथामां मिथ्यात्व, सास्वादन अने मिश्र, ए त्रण गुणगणे कर्मबंधना हेतु कह्या. तेना जेटला नांगा थाय, ते अनुक्रमें ए त्रणे गुणगणाना लखीयें बैयें. पंच्चावन बंधहेतु, मिथ्यात्वगुणगणे उघे होय, अने विशेषादेशें तो एक समय एक जीवने मिथ्यात्वे जघन्यथकी दश बंधहेतु होय, अने उत्कृष्टा. अढार बंधहेतु होय. केम के पांच मिथ्यात्वमांहेढुं एक मिथ्यात्व होय. तथा बकायमध्ये एक कायनो बंध होय, केम के बकायमध्ये कोई एक जीव, केवारें कायनोज वध करे, ते पण पृथ्वीकायनोज वध करे, अथवा अपकायनोज वध करे. ए रीतें बकायना ब नांगा थाय. तेमज वली को एक जीव, एक समयें बे कायनो पण वध करे तेना हिकसंयोगीया पंदर नांगा थाय, तथा को एक जीव, त्रण कायनो वध करे तेना त्रिकसंयोगीया वीश नांगा थाय, तथा को एक जीव, चार कायनो वध करे, तेना चतुःसंयोगी पंदर जांगा थाय, तथा को एक जीव, पांच कायनो वध करे, तेना Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३० षडशीतिनामा चतुर्थ कर्मग्रंथ. ४ पंच संयोगी व जांगा याय, छाने कोइ एक जीव, बक्कायनो वध करे, तेनो षट्संयोगी एक जांगो याय. पांच इंद्रियमांहेला एक इंडियनो विषय होय. तेनी श्रविरति होय, त्रण वेदमध्यें एक वेद होय. हास्य छाने रति तथा शाक अने अरति, ए बे युगलम हेलुं एक युगल होय. एवं व थया, तथा चार कषायमांदेला एक कषायना अप्रत्याख्यानी एक, प्रत्याख्यानी बीजो, संज्वलनो त्रीजो, ए त्रण वेदे, जेजणी क्रोधादिक उदय विरोधी बे. तेथी क्रोधादिकने उदयें मानादिकनो उदय न होय, तथा उपशमश्रेणी यें अनंतानुबंधीयानी विसंयोजना करे, तेवारें तेनी सत्ता टले. ते श्रेणीथी कालदयें करी पमतो अनुक्रमें पहेले गुणगणे आवे. त्यां वली मिथ्यात्वने उदये अनंतानुबंधीया बांधे, श्रने बीजी यावलीयें तेने संक्रमावे, ते एक बंधावली बीज संक्रमावली, ए बे यावली लगे अनंतानुबंधीयानो उदय न पामीयें, तेथी ए प्रत्याख्यानादिक कषाय त्रणनोज बंध पामीयें एटले एक कषायना त्रणज नेद पामीयें, एवं नव थया. तथा मिथ्यात्वगुणठाणे अनंतानुबंधीयाना उदय विना मरे नहीं, तेथी पर्याप्तावस्थाजावी एक कार्मण, बीजो श्रदारिकमिश्र, त्रीजो वैक्रियमिश्र, ए त्रण योग पण न लाने. अने आहारकना बे योग तो पूर्वज काढी नाख्या a. शेष दश योगमांहेलो एक योग होय. एम जघन्यथी दश हेतु एक समयें मिथ्यात्वी जीवनें होय. त्यां जांगा बत्रीश हजार होय. जे जणी पांच मिथ्यात्वने काना बंध साथै गुणतां त्रीश थाय. तेने पांच इंद्रिय साथै गुंणतां दोढसो थाय. तेने हास्याने रति तथा शोक ने रति, ए बे युगलसायें गुणतां त्रणसो थाय, तेने त्र वेद साथै गुणतां नवसें थाय. तेने चार कषाय साथै गुंणतां बत्रीशसें थाय. तेने दश योग साथै गुणतां बत्रीश हजार याय. ए दश हेतुना जांगा थया. तेमध्यें जय तथा जुगुप्सा तथा बेकायनो बंध तथा अनंतानुबंधी एक जेलतां चार प्रकारें अधार हेतु होय. त्यां जांगा ( २००००० ) थाय. एमांहे वे भेलतां बार बंधहेतु होय त्यां. ( ५४६६०० ) जांगा होय अने त्रण नेलतां तेर बंधहेतुयें ( ८५६००० ) जांगा होय अने चार जेलतां चौद बंधहेतुयें ( ००२००० ) जांगा होय, पांच लतां पंदर बंधहेतु, त्यां जांगा (६०४८०० ) होय, अने व नेलतां सोल धहेतु, त्यां जांगा (२६६४०० ) याय, तथा सात नेलतां सत्तर बंधहेतु, त्यां जांगा ( ६०४०० ) थाय ने एक जय, बीजी जुगुप्सा, त्रीजो अनंतानुबंधी तथा taaraat बंध, एवं नव. दशमुं मिथ्यात्व एक युगल, एवं बार. त्रण वेद, एवं पंदर. काय नेारमो योग ए उत्कृष्ट एक समय ढार बंधहेतु होय. अहीं जांगा (१८००) एम सर्व मली मिथ्यात्वें ( ३४००६००) जांगा होय. For Private Personal Use Only Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षडशीतिनामा चतुर्थ कर्मग्रंथ. ४ तथा बकायमा एक कायबंधना जांगा ब, बे काय बंधना नांगा पंदर, त्रण बंधना नांगा वीश, चार बंधना नांगा पंदर, पांच बंधना नांगा ब, अने उ बंधनो नांगो एक, तेथी ज्यां जेटला बंध होय, त्यां तेटला नांगा साथें पांच मिथ्यात्व गुणीयें, तेने पांच इंजिय साथै गुणी. एम गुणतां नांगा नीपजे, तथा जिहां अनंतानुबंधीयासहित गुणीये तिहां तेर योग साथै गुणी, अही मननी अविरति इंजियमांहे श्रावी गइ. जेजणी प्रायें बायें जियनी विरति, मनोविरतिपूर्वक बे. तेजणी थहीयां विशेषार्थे पंचसंग्रह जोवो. हवे ते नांगा विवरीने देखाडे . दश बंधहेतुना प्रथम (३६००० ) नांगानी रीत उपर कही . तेनी साथै नय प्रदेपीयें तेवारें अगीधार हेतु थाय. त्यां पण एमज (३६०००) नांगा थाय, तथा कुछा नेलीयें, तेवारे पण बत्रीश हजार नांगा थाय, तथा अनंतानुबंधीयो कषाय नेलवीये तेवारे पण चार कषायें श्रगीबार बंधहेतु थाय. परंतु पूर्वोक्त रीतें (३६०००) ना श्रांकने दश योगें गुएयो , तेने ठेकाणे तेर योग साथै गुणीयें, तेवारें (४६००) नांगा थाय, तथा बकायमांहेथी बे कायनो बंध विवक्षी, तेवारें छिकसंयोगी पंदर जांगा थाय. तेनी साथे पूर्वोक्त रीतें गुणीने एटले पंदरने पांच मिथ्यात्व साथें गुणतां (७५) थाय. तेने पांचेंजिय साथें गुणतां (३७५) थाय. तेने बे युगल साथें गुणतां (७५०) थाय, तेने त्रण वेद साथें गुणतां (२२५०) थाय, तेने चार कषाय साथे गुणतां (ए000) थाय, तेने दश योग साथै गुणतां (ए००) थाय, ए अगीआर हेतुना चार विकल्प नेला करीयें, तेवारें शरवाले (2000) नंग थाय. हवे पूर्वोक्त दशमध्ये जय श्रने कुछा नेलीयें, तेवारें बार हेतु थाय. तिहां (३६०००) जंग थाय, तथा जय अने बे काय लेखवीयें, तेवारें बे कायना पंदर जंग साथै गुणतां (ए0000) जंग थाय, तथा कुछा अने बे काय साथें गुणता (ए००० ) जंग थाय, तथा त्रण कायनो वध लेखवीयें, तेवारें वीश नांगा साथें गुणतां (१२०००० ) थाय, तथा अनंतानुबंधीनो उदय होय, तेवारें अनंतानुबंधी अने जय नेलवीयें, तिहां योग तेरहोय. तेवारें (४६०० ) जंग थाय, तेमज अनंतानुबंधी थने कुछा नेलवतां पण (४६०० ) जंग थाय, तथा अनंतानुबंधी अने बे काय लेखवतां (१९७०००) जंग थाय. ए बार हेतुना सात विकल्पं थश्ने (५४६६००)नंग थाय. __ हवे पूर्वोक्त दश मध्ये जय अने कुछा नेलीयें अने बे काय लेखवीयें, तेवारें तेर हेतु थाय. तिहां (एल०००) जंग थाय, तथा नय अने त्रण काय लेखवीयें, तेवारें (१२०००) जंग थाय, तथा कुबा अनेत्रण काय लेखवीये तेवारें पण (१२००००) जंग थाय, तथा अनंतानुबंधीने उदय जय अने कुबा नेलीये तेवारें तेर योग साथें Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३२ षडशीतिनामा चतुर्थ कर्मग्रंथ. ४ गुणतां ( ४६७०० ) जंग थाय, तथा अनंतानुबंधी जय श्रने बे काय लेखवतां (११७००० ) जंग थाय, तेमज अनंतानुबंधी कुछा श्रने बे काय बेखवतां पण ( ११७००० ) जंग थाय. तेम वली अनंतानुबंधी अने त्रण काय लश्ये, तेवारें त्रिकसंयोगी वीश नंगे गुणतां ( १५६०००) जंग थाय, तेमज पूर्वोक्त दश साथें चार काय लेखवीये तेवारें (ए0000) जंग थाय. ए तेर हेतुना आठ विकल्पं थश्ने शरवाले (७५६७०० ) जंग थाय. हवे प्रोक्त दशमध्ये जय श्रने कुछा नेलीयें अने त्रण काय गणीयें, तेवारें चौद हेतु थाय. तिहां ( १२०००० ) जंग थाय. जय नेलीयें, अने काय चार लेखवीयें, तेवारें (ए0000) नंग थाय. कुछा नेलीने चार काय लेखवीयें, तेवारें पण (ए0000) जंग थाय, काय पांच गणीयें, तेवारें पांच संयोगी जंगें गुणतां (३६००० ) जंग थाय. अनंतानुबंधीने उदये जय, कुछा नेलीयें अने बे काय गणीयें, त्यां योग तेर होय. तेवारें (१९७००० ) जंग थाय, अनंतानुबंधी जय श्रने त्रण काय गणतां (१५६०००)जंग थाय, तेमज अनंतानुबंधी, कुछा अनेत्रण काय गणतां (१५६०००) जंग थाय, तथा अनंतानुबंधी श्रने चार काय गणतां ( १९७००० ) जंग थाय. एम चौद हेतुना आठ विकल्पं थश्ने (२०००) नंग थाय. हवे ए पूर्वोक्त दश मध्ये जय, कुछा नेलीये अने चार काय लेखवीयें, तेवारें पंदर हेतु थाय. तिहां नंगा (ए0000) थाय, जय श्रने पांच कायना (३६०००) थाय, कुछा अने पांच कायना ( ३६०००) थाय. बकाय नेले (६००० ) थाय, तथा अनंतानुबंधीने उदयें योग तेर होय, तिहां अनंतानुबंधी अने नय, कुबा, नेलीयें भने काय त्रण गणीय, तेवारें ( १५६००० ) थाय, अनंतानुबंधी तथा जय नेलीयें, तथा चार काय गणीयें, तेवारे ( १९७००० ) थाय. अनंतानुबंधी, कुछा अने चार काय नेलवीयें, तेवारें ( ११७००० ) थाय, अनंतानुबंधी अने पांच काय लेखवीये तेवारें (४६००) थाय, ए पंदर हेतुना विकल्प बाउ, तेना शरवाले नंगा (६०४७००) थाय. पूर्वोक्त दशमां जय, कुछा अने पांच काय, एवं शोल हेतुना जंग ( ३६००० ) थाय, तथा जय अने बकाय लेखवीयें, तेवारे (६०००) जंग थाय. तेमज कुबा अने बकाय सेखवीये, तेवारें पण (६००० ) जंग थाय. अनंतानुबंधी, जय अने कुछा अने चार काय साथें गुणतां ( १९७०००) थाय. हवे अनंतानुबंधी, जय तथा पांच काय साथें गुणतां पण (४६७००) जंग थाय. तेमज अनंतानुबंधी, कुछा श्रने पांच काय साये गुणतां पण (४६७००) नंग थाय. अनंतानुबंधी अंने बकाय नेलीयें, Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षडशीतिनामा चतुर्थ कर्मग्रंथ. ४ तेवारें ( 3700 ) नंग थाय, ए शोल हेतुना सात विकल्पं श्रश्ने (२६६४०० ) जंग बंधहेतुना थाय. __हवे ए पूर्वोक्त दशमध्ये जय, कुछा श्रने बकायनो वध लश्ये, तेवारें सत्तर बंधहेतु थाय. तिहां जंग (६००० ) थाय, अने अनंतानुबंधीने उदये जय, कुला तथा पांच कायनो वध लेखवीयें,तेवारे (४६७००) नंग घाय. अनंतानुबंधी, जय श्रने बकाय सेखवता (10) नंग थाय, तेमज अनंतानुबंधी, कुछा अने बकाय लेखवतां पण (30) जंग थाय, ए सत्तर हेतुना चार विकल्पं थश्ने (६४०० ) जंग थाय. हवे बकाय, एक मिथ्यात्व, एक इंजिय, चार कषाय, एक हास्यादिक युगल, एक वेद, एक योग, एक नय अने एक कुछा, ए श्रढार हेतुना ( 30 ) नंग थाय. ए रीतें मिथ्यात्वगुणगणे दशथी मामीने अढार सुधीना हेतुने नव विकल्पं थश्ने (३४७६०० ) जंग थाय. हवे सर्व जांगानो शरवालो करी देखाडे ले. दश बंधहेतुना नंगा ( ३६००० ), अगीवार बंधहेतुना नांगा (२०००), बार बंधहेतुना नांगा (५४६६०० ), तेर बंधहेतुना नांगा (५६००), चौद बंधहेतुना नांगा (२०००), पंदर बंधहेतुना नांगा (६०४00 ), शोल बंधहेतुना नांगा ( २६४०० ), सत्तर बंधहेतुना लांगा ( ६ ०), अढार बंधहेतुना नांगा (100), एकंदर शरवाले नांगा (३४७७६००) होय. हवे बीजा सास्वादन गुणगणे (३०३०४०) नांगा थाय, ते कहे . तिहां जघन्य हेतु दश होय जेजणी अहीं मिथ्यात्व न होय, पण एक कषायना चार नंग होय. केम के अनंतानुबंधी पहेला कषायोदय विना ए बीजुं गुणगणुं न होय, तेथी ए कषाय चार, एक वेद, एक युगल, एक इंडियनी अविरति, एवं आग; एक कायनो बंध, अने तेर योगमध्ये-एक काययोग, ए दश हेतु होय श्रने उत्कृष्टा सत्तर हेतु एक समय होय, तेवारें दशथी सत्तरपर्यंत थाउ विकल्प होय,पण एटलुं विशेष जे नपुंसकवेदे वैक्रिय मिश्रयोग न होय, केम के नारकी, अपर्याप्तावस्थायें सास्वादनी, न होय तेथीत्रण वेद, तेर योग साथै गुणतां उंगणचालीश थाय. तेमांदेथी एक रूप काढीयें, तेवारें आडनीश होय. ते बकोयना बंध साथें गुणतां बसो ने अहावीश थाय, तेनें पांच इंजिय साथे गुणतां ( १९४०) थाय. तेने युगल साथें बमणा करतां (२०) थाय. तेने चार कषायथी चार गुणा करतां (ए१२०) जांगा थाय. ते दश हेतुमध्ये जय नेलीये, तेवारें श्रगीधार हेतु थाय. तिहां पण ( ए१२०) नंग थाय. एमज कुबा नेलतां पण (ए१२०) जंग थाय, तथा बे काय खेखवीयें, Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ થw षडशीतिनामा चतुर्थ कर्मग्रंथ. ४ तिहां बेकायना हिकसंयोगी पंदर जंग साथै गुणाकार करतां (२०) जंग थाय. एम त्रण विकल्पं थ अगीबार हेतुना नांगा (४१०४०) थाय. हवे पूर्वोक्त दश हेतुमध्ये जय श्रने कुछ। बेनेलीये, तेवारें बार हेतु थाय, तिहां (ए१२०)नंग थाय. तथा एक जय श्रने बे कायनो वध लश्ये, तेवारे (२२७००) थाय. तेमज एक कुडा ने बे कायनो वध लेतां पण (श्श्ज००) थाय, तथा त्रण कायनो वध खश्य, तेवारें त्रण कायना त्रिकसंयोगी वीश जंग साथें गुणाकार करतां (३०४००) जांगा थाय. ए चार विकल्पं बार हेतुना (५१२०) नांगा थाय. हवे पूर्वोक्त दश हेतुमाहे जय, कुछा नेलीयें श्रने बे कायनो वध लश्ये, तेवारें तेर हेतु थाय, तिहां (२०००) थाय. तथा एक नय अने त्रण काय लश्य तेवारें (३०४००) थाय. तथा एक कुछा अने त्रण काय लश्ये, तेवारे (३०४०० ) थाय. अने मात्र चार कायनोज वध लश्ये, तेवारें (२०) थाय. ए चार विकल्पं तेर हेतुना (२०६४०० ) नांगा थाय. हवे पूर्वोक्त दश मध्ये जय, कुछा अने त्रण कायनो वध लश्ये, तेवारें चौद हेतु थाय. तिहां ( ३०४०० ) नांगा थाय. तथा एक जय अने चार काय लश्ये, तेवारें (२०) थाय. कुछा अने चार काय लीजें तेवारें (२०) थाय. पांच काय लीधे (ए१२०) थाय. ए चार विकल्प चौद हेतुना (५१२०) नांगा थाय. हवे पूर्वोक्त दशमध्ये जय, कुछा अने काय चार नेलीयें, तेवारें पंदर हेतु थाय. तिहां जांगा (२०) थाय. जय श्रने पांच काय लीधे (ए१२०) थाय. कुछा अने पांच काय सीधे (ए१२०) थाय. तथा बक्काय लीधे (१५२०) नांगा थाय, एवं चार विकल्पं पंदर हेतुना(४२५६०) नांगा थाय. पूर्वोक्त दशमध्ये जय , कुछा अने पांच काय नेलीये, तेवारे शोल हेतु थाय. तिहां नांगा (ए१२०) थाय. जय अने बक्काय नेले तेवारें ( १५२०) थाय. कुछा अने बक्काय नेले (१५२०) थाय. एम त्रण विकल्पं थश्ने (१५१६० ) नांगा थाय. हवे बकाय, एक इंजिय, चार कषाय, युगल बे मांहेलो एक, वेद एक, जय एक, कुछा एक, योग एक, ए सत्तर हेतुना नांगो (१५२०) थाय. ए रीतें सास्वादन गुणगणे था विकल्प थश्ने (३३०४० जंग थाय. हवे मिश्रगुणगणे (३०२४००) नांगा होय. ते केवी रीतें? तोके मिर्को उत्कृष्टा तेंतालीश हेतु कह्या अने जघन्यथी अनंतानुबंधी न होय माटें एक जीवने एक समय नव, दश, अगीथार, बार, तेर, चौद, पंदर ने उत्कृष्ट शोल हेतु होय. तिहां जघन्यथी काय एक, इंडिय एक, कषाय त्रण, हास्यादि युगल एक, वेद एक, अने दश Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __षडशीतिनामा चतुर्थ कर्मग्रंथ. ४ ५३५ योगमांहेलो एक योग, ए नव हेतु होय. तिहां एक कायना नांगा ब, ते पांच इंजिय साथें गुणतां त्रीश थाय. तेने चार कषाय साथें गुणतां (१२०) थाय. ते युगल साथें गुणतां (२४०) थाय.ते त्रण वेद साथें गुणतां (०२०) थाय. तेने दश योग साथे गुणतां (२००) थाय. ए नव हेतुना नांगा कह्या. ए पूर्वोक्त नव मध्ये जय नेलतां, दश बंधहेतुना (२००) नांगा थाय. तथा कुडा नेलता (७२००) नांगा थाय. तथा बे कायनो वध खेतां (२०७०) थाय. एम त्रण विकल्पें थ दश हेतुना (३२४०० ) नांगा थाय. पूर्वोक्त नवमध्ये कुछा बने जय, बे नेलतां अगीयार बंधहेतुना (२००), कुछा अने बे काय साथे (२०००), जय अने बे काय साथे लीधे (२०००), त्रण काय लेता (४०००), एम चार विकल्प अगीवार हेतुना (६७२०) नांगा थाय. पूर्वोक्त नवमध्ये नय, कुबा थने बे काय लीधे तेर हेतुना (१००), जय श्रने त्रण काय लीधे (२०००), कुछा अने त्रण काय लीधे (२०००), तथा चार काय लीधे (१७०००), ए चार विकल्पं बार हेतुना (100) नांगा होय. पूर्वोक्त नवमध्ये जय, कुडा अने त्रण काय लेतां तेर हेतुना (२४०००), जय अने चार काय लीधे ( १७०००), जुगुप्सा श्रने चार काय लीधे ( १७०००), अने पांच कायज लीधे (१२०० ), ए चार विकल्पं तेर हेतुना ( ६७२०० ) नांगा थाय. हवे पूर्वोक्त नवमध्ये जय, कुबा श्रने चार काय नेले, चौद हेतुना ( १७००), जय अने पांच काय लीधे (७२००), जुगुप्सा बने पांच काय लीधे (१२०० ), बक्कायज लीधे ( १२०० ), ए चार विकल्पं ( ३३६००) नंग थाय. पूर्वोक्त नवमध्ये नय, कुछा अने पांच काय नेलवतां पंदर बंधहेतुना नांगा (उ२००), जय श्रने बकाय लीधे (१२००), जुगुप्सा ने बकाय लीधे ( १२०० ), ए त्रण विकल्पं पंदर हेतुना ( ए६०० ) नंग थाय. बकाय, एक इंजिय, त्रण कषाय, हास्यादि युगल एक, वेद एक, योग एक, जय एक, कुला एक, एवं शोल हेतुना ( १२००) नांगा थाय. ए थाठे विकल्पं थश्ने मिश्रगुणगणे (३०२४००)नंग थाय ॥ इति समुच्चयार्थः ॥५०॥ सजमीस कम्म अजए, अविर कम्मुरत मीस बिकसाए॥ मुत्तु गुण चत्त देसे, वीस सादार उ पमत्ते ॥ ५॥ अर्थ-ते पूर्वोक्त तेतालीश हेतु, मिश्रगुणगणे कह्या. तेने समीसम्म के एक वैक्रिय मिश्र, बीजो औदारिकमिश्र, अने त्रीजो कामण, ए त्रण योग सहित करीयें, एट ए त्रण योग, अहींयां होय. जेजणी अपर्याप्तावस्थायें पण ५ गुण Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३६ षडशीतिनामा चतुर्थ कर्मग्रथं. ४ गणुं होय. ते जणी तालीश बंधहेतु, अजए के अविरति गुणगणे श्रहीयां उघे होय अने विशेषादेशे जघन्यथी तो तेमज मिश्रनी पेरें नव बंधहेतु होय, अहींयां उत्कृष्टा शोल बंधहेतु अने बंधस्थानक मिश्रनी परें थाठ होय. . . हवे अविर के अविरतिमध्ये एक त्रसकायनी थविरति तथा योगमध्ये कम्मुरखमीस के एक कार्मणयोग, बीजो औदारिक मिश्रयोग, एवं बे योग तथा कषायमध्ये बिकसाए के बीजा अप्रत्याख्यानावरण कषाय चार, एवं सात हेतु, देशविरतिगुणगणे न होय. माटें ते मुत्तु के टालीयें, तेवारें गुणचत्तदेसे के० देशविरति गुणगणे जंगणचालीश बंधहेतु होय, एटले अविरति अगीआर, कषाय सत्तर, योग अगीवार, एवं उंगणचालीश हेतु, उचे होय, अने विशेषादेशे जघन्यपदें, पांच कायना बंधमध्ये एक कायनो बंध, इंजियनी अविरतिमध्ये एकेंडियनी अविरति, एक युगल, एक वेद, चार कषायमध्ये एक कषायना बे नेद, श्रगीआर योगमध्ये एक योग, एवं श्राप हेतु लाने. __बवीससाहारउपमत्ते के प्रमत्त गुणगणे बबीश बंधहेतु लाने, जेनणी श्राहारकयोग अने आहारकमिश्र, ए बे योग, त्यां संनवे जे. जेवारें चौद पूर्वधर शरीर करे, तेवारें श्रारंजती वेलायें आहारकमिश्रयोग होय, तेनी व पर्याप्ति प्ररी कस्या पली आहारकयोग होय. अहीं मिश्रता औदारिक सायें लेवी. अहीं देशविरतिगुणगणाना उंगणचालीश बंधहेतुसा| ए आहारकना बे योग नेलीयें, तेवारें एकतालीश बंधहेतु थाय. तेमांधी पंदर बंधहेतु कहामी नाखवा, ते आगली गाथायें कहे . हवे ए था गाथामां अविरति अने देशविरति, ए बे गुणगणाना बंधहेतु कह्या, तेना नांगा कहे . तिहां प्रथम चोथे गुणगणे बझा मली (३५२७००) नंग थाय. ए गुणगणे जघन्य नव श्रने उत्कृष्ट शोल बंधहेतु होय. ए चोथे गुणगणे स्त्रीवेदें एक औदारिकमिश्र, बीजो वैक्रियमिश्र, त्रीजो कार्मण, एत्रण योग, प्रायें न होय तथा नपुंसकवेदें औदारिक मिश्रन होय, जे जणी स्त्रीवेदीने प्रायें अपर्याप्तावस्थायें चोथें गुणगणुं न होय, परंतु ब्राह्मी, सुंदरी, महीनाथ तथा राजीमत्यादिक अनुत्तर विमानथी श्राव्यां, तेने सम्यक्त्व पण होय ते जणी प्रायें कडं अने नपुंसकवेदी सम्यकदृष्टि जीव, मनुष्य तथा तियंचमाहे न आवे. तेथी तेने औदारिकमिश्र निश्चे न होय, तेथी तेर योग, त्रण वेद साथें गुणतां उंगणचा. लीश थाय. ते मांदेथी चार रूप काढीयें, तेवारें पांत्रीश रहे, तेने बकायना बंध साथै गुणतां (१०) थाय. तेने पांच इंडिय साथें गुणतां ( १०५०) थाय. तेने युगलसाथै बमणा करतां (२१००) थाय. तेने चार कषाय साथें गुणतां (४००) नांगा, Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षडशीतिनामा चतुर्थ कर्मग्रंथ. ४ -५३७ नव बंधहेतुना थाय. ते मध्ये जय, जुगुप्सा तथा एक कायनो बंध नेलतां दश हेतुयें नंग (३000) थाय. तथा बे कायनो बंध नेलतां अगीवार हेतुयें (उ४००), त्रण कायनो बंध नेलतां बार हेतुयें (एG000), चार कायनो बंध नेलतां तेर हेतुयें (400), पांच कायनो बंध जेलतां चौद हेतुयें (३ए२००), बकायनो बंध नेलतां पंदर हेतुयें ( १९२००), जय, जुगुप्सा अने बकाय साथै शोल हेतुयें ( १४००) थाय. एम सर्व मली चोथे गुणगणे ( ३५२७००) नंग थाय. हवे पांचमे देशविरतिगुणगाणे ( १६३६७०), नांगा उपजे. केम के ए जीव त्रस कायथी विरम्या माटें पांच कायना एक संयोगी नांगा पांच, हिकसंयोगी नांगा दश भने त्रिकसंयोगी नांगा दश तथा चतुःसंयोगी जांगा पांच अने पंचसंयोगी नांगो एक. अहींयां एक जीव श्राश्री जघन्यश्री आठ, नव, दश, अगीबार, बार, तेर, उत्कृष्टा चौद हेतु होय. ए रीते सात विकल्प थया. तिहां जघन्यथी काय एक, इंज्यि एक, कषाय बे, हास्यादियुगल, वेद एक, योग अगीश्रारमांहेलो एक, ए श्राप हेतु होय. तिहां पांच कायना नांगा पांच होय. श्रहीं पांच कायना बंधने पंचेंजिय साथें गुणतां पञ्चीश थाय. तेने युगल साथें गुणतां पञ्चाश थाय, तेने त्रण वेद साथें गुणतां दोढसो थाय, तेने चार कपाय साथें गुणतां बसें थाय, तेने अगीथार योग साथै गुणतां बाराहसें जंग श्राव हेतुना थाय. - तेमध्ये जय तथा जुगुप्सा तथा बे कायना बंध साथै नव हेतु करीयें, तेवारें जयथी बाशठसे अने तेमज जुगुप्सा .साथें बाशहसें अने बे कायना बंध साथें (१३२००) थाय. एमत्रण विकल्पं नव बंधहेतुना नांगा (२६४०० ) थाय. तथा नय, जुगुप्सा लीधे दश बंधहेतुना नांगा (६६००), नय, तथा बे काय बंधे नांगा ( २३२०० ), कुछा अने बे काय बंधे नांगा (१३२००), तथा त्रण कायबंधे पण (१३५०० ) नांगा थाय. एवं दश हेतुना चार विकल्पं थई (४६२००) नांगा थाय. - एम जय, जुगुप्सा अने बे काय बंधे अगीवार हेतुना नंग (१३२००), नय अने त्रण काय लीधे ( १३५०० ), कुछा अने त्रण काय लीधे ( १३५०० ), चार काय नेले (६६००), ए चार विकल्प अगीबार हेतुना (४६२०० ) थाय. जय अने चतुष्कायबंधे बार हेतुयें नांगा (६६००), जुगुप्सा अने चतुष्काय बंधे नांगा (६६००), जय, जुगुप्सा अनेत्रण कायबंधे नांगा ( १३१००), पांच काय. बंधे नांगा ( १३२०.), एम सर्व मली बार हेतुना चार विकल्पें नांगा (२०२०). ६८ Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३८ षडशीतिनामा चतुर्थ कर्मग्रंथ. पूर्वोक्त श्राव मध्यें जय, कुछा छाने चार काय लीघे ( ६६०० ), जय ने पांच काय ली ( १३२० ), कुन्छा ने पांच काय लीधे ( १३२० ), ए त्रण विकल्पें थमें तेरहेतुना ( २४० ) जांगा याय. पूर्वोक्त श्रवमांहे जय, कुष्ठा अने पांच काय लीधे चौद हेतुना ( १३२० ) जांगा था. एम पांचमे गुणठाणे ए साते विकल्पें थने ( १६३६०० ) जांगा थाय ॥ ५‍ ॥ विरइ इगार तिकसा, य व अपमत्ति मीस डुग र दिया ॥ चवीस पुछे पुण, डुवीस प्रविधि आहारा ॥ ६० ॥ अर्थ- पांच इंडियाने बहुं मन, ए व अविरति तथा पांच यावरनी अविरति, एवं अविरश्श्गार के अगी धार अविरति तथा तिक सायवज के० त्रीजा प्रत्याख्या. नावरण कषाय चार एवं पंदर बंधहेतु वर्जवा तेवारें शेष बवीश बंधहेतु, प्रमत्तगुणठाणे होय ने विशेषादेशें त्रण वेदमध्यें एक वेद, संज्वलनना चार कषायमध्ये पहेलो अथवा बीजो एक कषाय, हास्या दिक युगलमध्ये एक युगल, तेर योगमध्ये एक योग, ए पांच हेतु जघन्यपदें एक जीवने एक समयें होय, अने उत्कृष्टा सात होय, तिहां स्त्रीवेदें आहारक ने श्राहारक मिश्र, ए बे योग न होय, तेथी वेद तेर योग साथै गुणतां उगणचालीश घाय, ते मांहेथी वे रूप काढीयें, तेवारें सामत्रीश रहे. तेने युगल साथै गुणतां चम्मोतेर थाय. तेने चार कषाय साथै गुणतां (२०६ ) जांगा, ए पांच बंधहेतुना थाय. तेमध्यें जय जेलतां पण ( २०६ ) थाय तथा कुछ जेलतां पण ( २०६ ), एवं (५२) व हेतुना जांगा थाय. छाने जय तथा कुछा, बे नेले सात हेतुना जांगा (२०६) थाय. एम सर्व मली त्रण विकल्पें थइने ( १९८४ ) जांगा, प्रमत्तगुणठाणे लाने. बंधस्थानक पांच, व घने सात, ए त्रण होय. पति के अप्रमत्तगुणगणे मी सडुगर दिश्रा के० आहारक मिश्र अने वैक्रियमिश्र, ए बे योग न होय. जेजणी आहारक तथा वैक्रियशरीर करवा मांडतां तेनी पर्याप्तियें पर्याप्तानें ए योग होय, तिहां तो लब्धि प्रयुंजवा जणी प्रमत्त होय, वलतो अप्रमत्तगुणठाणे यावे, तिहां ए वे मिश्रयोग न लाने. तेथी कषाय तेर अने योग अगीर, एवं चडवीस के० चोवीश बंधहेतु, उधें होय, अने विशेषादेशें एक जीवने एक समय जघन्यपढ़ें संज्वलनो एक कषाय, एक वेद, एक युगल ने rior योगमध्ये एक योग, एवं पांच होय. त्यां अगी चार योग त्रण वेद सायें गुणतां तेन्रीश थाय, तेमांथी स्त्रीवेदें श्राहारक न होय, ते जणी एक रूप कहाढीयें, वारें बनी रहे, तेने युगल साथे गुंणतां चोशह थाय. तेने संज्वलन चार कषाय Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षडशीतिनामा चतुर्थ कर्मग्रंथ. ४ ५३ए साथै गुणतां बसें ने उपन्न नांगा पांच बंधहेतुना थाय, तथा जय जेलतां (२५६) अने जुगुप्सा नेलतां ( २५६ ), एम (५१५) नांगा, ब बंध हेतुना थाय अने जय तथा कुछा, बे नेलवाथी सात हेतुना (२५६) थाय. एम त्रण बंधहेतुस्थानकें (१०२४) जंग, सातमे अप्रमत्तगुणगणे थाय. अपुवे के अपूर्वकरणनामें आठमे गुणगणे पुण के० वली अविठविधाहारा के० वैक्रिय अने आहारक, ए बे योग न होय, जेनणी श्रेणी, औदारिक शरीरी पडिवजे, पण वैक्रिय अने थाहारक शरीरी पडिवजे नहीं, माटें ए बे कहाढी नाखतां शेष संज्वलन चार कषाय, वेद त्रण, हास्यादिक उ तथा योग नव, एवं सर्व मली मुवीस के बावीश बंधहेतु उचे होय. तिहां पूर्वली पेरें जघन्य हेतु पांच होय.तेमा हास्यादि युगलने त्रण वेदसाथें गुणतांब जंग थाय, ते चार कषाय साथें गुणतां चोवीश थाय. ते नव योग साथे गुणतां बसें ने शोल थाय, तेमां जय नाखतां (२१६) तथा जुगुप्सा नाखतां पण (१६) थाय. एवं (४३) बंधहेतुना नांगा जाणवा. अने जय तथा कुछा, ए बे साथे नेलतां सात बंधहेतु थाय. तिहां नांगा ( १९६) एम सर्व मली पारसे ने चोश जांगा होय. तिहां बंधहेतुनां स्थानक, त्रण जाणवा ॥ इति समुच्चयार्थ ॥ ६॥ अब दास सोल बायरि, सुहुमे दस वेअ संजयण ति विणा ॥ खीणु वसंति अलोना, सजोगी पुबुत्त सग जोगा ॥६॥ अर्थ-ते बावीश बंधहेतुमाहेथी अबहास के हास्य एटले हास्यादिक उ नोकषाय, बादरसंपरायनामा नवमे गुणगणे न होय. तेथी शेष कषाय सात अने योग नव, एवं सोल के शोल बंधहेतु, बायरि के बादरसंपरायनामा नवमे गुणगणे उचे होय, अने जघन्यपदें एक जीवने बे बे बंध हेतुनां स्थानक होय. संज्वलनो कषाय एक तथा योग एक, एवं बे होय श्रने उत्कृष्ट एक वेद सहित त्रण होय. एम बे बंधस्थानक होय. तिहां कषाय चारने योग नव साथें गुणतां बे बंधहेतुना बत्रीशनंग थाय, तथा वली कषाय चार, त्रण वेद साथें गुणतां बार जांगा थाय. ते नव योग साथै गुणतां (१७) जंग थाय.ए बे विकल्पना मलीनेशरवाले एकसो चुम्मालीश नांगा होय. सुहुमे के सूक्ष्मसंपराय नामा दशमे गुणगणे वेधसंजलणतिविणा के संज्वलनो क्रोध, मान अने माया, तथा त्रण वेद, एवं 3 बंधस्थानक विना शेष संज्वलनो लोज एक श्रने योग नव. एवं दस के दश बंधहेतु उचे होय. अने जघन्यपदें तो एक जीवने एक समयें बेबे बंधहेतु होय अने उत्कृष्टधी पण एक संज्वलन लोन Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४० षडशीतिनामा चतुर्थ कर्मग्रंथ. ४ अने एक योग, एवं बे, बंधहेतुज होय. अहींश्रां नव योग होय, ते जणी नव जंग था. अहींयां उत्कृष्ट जघन्यपणुं नथी. खीवसंति के क्षीणमोह बारमे गुणठाणे अने उपशांतमोद अगीश्रारमे गुणगणे ते पूर्वोक्त दश हेतुमांहेथी अलोजा के० वीतराग जणी एक लोज न होय, तेथ नव योगज बंधहेतु उधें होय. छाने एक जीवने एक समयें जघन्यपढ़ें एक योग होय, तेथी नव नव जंग, बन्ने गुणवागणे होय. सजोगि के तेरमे सयोगि गुणठाणे पुहुत्त के पूर्वोक्त एटले पूर्वे का ते प्रमाणे बे मनना, बे वचनना श्रने त्रण कायाना एवं सगजोगा के० सात योगरूप सात बंधहेतु सामान्यें होय, छाने विशेषादेशें एक जीवने एक समय एक योग होय, ते माटें सात योगना सात जंग होय, एम सर्व गुणठाणे मली बेंतालीस लाख, ब्याशी हजार, सातसें ने सीतेर बंधहेतुना जांगा होय. ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ ६१ ॥ ए सत्तावन्न बंधहेतुयें करी आठ कर्मनो वंध होय. तेवारे पढी ते बांध्या कर्मनो विपाककालें उदय होय. ते उदीरणाकरणें करी उदयावली मांदे प्रवेशीयें, तेने नदीरणोदय कहीयें, छाने ते सर्व कर्म, सत्तायें होय, ते जणी चौद गुणठाणे ज्यां जेटला बंधा दिकनां स्थानक संजवे, ते कहे बे, ए वात विस्तारें पंचसंग्रहनी टीकामध्ये बे. मत्तंता सत्त, ठम्मीस प्रपुव बायरा सत्त ॥ बंध बस्सुमो ए, ग मुवरिमाऽबंधगा जोगी ॥ ६२ ॥ अर्थ - श्रपमत्तंता के० श्रप्रमत्त गुणाला लगें एटले एक मिश्रगुणगणा विना मिथ्यात्वथी मांगीने बड़ा गुणवाणापर्यंत सतह के० आयुः कर्म बांधे, तेवारें आठ कर्मनो बंध होय, छाने खायु न बांधे, तेवारें सात कर्मनो बंध होय. म्मीस के० श्रीजुं मिश्रगुणाएं, अपुन के आठमुं पूर्वकरण गुणठाएं, बायरा के नवमुं बादरसंपराय गुणठाएं, ए त्रण गुणठाणे श्रायुबंध न होय, तेथी सत्तबंध के० सात कर्मनो बंध होय. अने बस्सुमो के सूक्ष्मसंपरायनामा दशमे गुणठाणे एक श्रायु बीजं मोहनीय, ए बे कर्म, अतिविशुद्धाध्यवसाय जणी न बंधाय, तेथी शेष कर्म बांधे, ने एगमुवरिम के० उपरला उपशांतमोह, क्षीणमोह अने सयोगी, एत्र गुणवणे एक वेदनीय कर्म बांधे, तथा अबंधगाजोगी के० अयोगी गुणगणे कोइ न बांधे, तेमाटें प्रबंधक होय. इति समुच्चयार्थः ॥ ६२ ॥ हवे गुणगणे उदयाने सत्तानां स्थानक कहे . याहुमं संतुद, अवि मोद विष्णु सत्त खीणंति ॥ चन चरिम डुगे अन्न, संते नवसंति संतुदए ॥ ६३ ॥ For Private Personal Use Only Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षडशीतिनामा चतुर्थ कर्मग्रंथ.४ ५४९ अर्थ- आसुहुमं के० मिथ्यात्व गुणगणाथी मामीने दशमा सूक्ष्मसंपराय गुणगणा खगें संतुदएश्रवि के ज्ञानावरणीयादिक श्राप कर्मनो उदय तथा श्राप कर्मनी सत्ता पण होय, अने मोहविणुसत्तखीणंति के एक मोहनीय विना क्षीणमोहनामा बारमे गुणगणे सात कर्मनो उदय तथा सात कर्मनी सत्ता होय, तिहां वीतराग , ते जणी मोहनीयनो उदय न होय, सत्ता पण न होय. अने चरिमागे के० तेरभु सयोगी अने चौदमुं अयोगी, ए बेहां बे गुणगणे चल के नाम, आयु, गोत्र अने वेदनी, ए चार कर्मनो उदय तथा एज चार कर्मनी सत्ता पण होय, अने अहसंतेउवसंतिसंतुदए के० उपशांतमोहनामें अगीथारमे गुणगणे मोहनीयकर्मनो उदय नथी. तेथी मोहनीयविना सात कर्मनो उदय भने सत्ता पाठ कर्मनी होय, केम के अहीं मोहनीय उपशम्युं बे, तेथी एनो उदय नथी, परंतु सत्तायें बे. एम गुणठाणे उदयस्थानक तथा सत्तास्थानक कह्यां. ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ ६३ ॥ ॥ हवे गुणगणे उदीरणा स्थानक कहे जे.॥ जरंति पमत्ता, सगठ मीसह वेअ आउ विणा ॥ . बग अपमत्ताश् त, उ पंच सुहुमो पणु वसंतो ॥६॥ अर्थ-पमत्तता के० मिथ्यात्वगुणगणाथी मांगीने प्रमत्तगुणगणा लगें एक मिश्र गुणगणा विना शेष पांच गुणगणे सगरंति के श्राप कर्मनी उदीरणा होय. तेमां हेली श्रावलीयें श्रायुःकर्मनी उदीरणा न होय, तेवारें शेष सात कर्मनी उदीरणा होय तथा मीसह के मिश्रगुणगणे काल न करे, तेथी आयुनी अंत्यावलिका पण तिहाँ न होय, तेथी तिहां आठ कर्मनोज उदीरक होय. अहीं नदीरणास्थानक श्राग्नुं जाणवू, अने अपमत्ताश्त के अप्रमत्त, अपूर्वकरण, अने अनिवृत्ति, ए त्रण गुणठाणे वेअथाजविणा के एक वेदनीय अने बीजु श्रायु, ए बे कर्मनी उदीरणा न होय.ते विना शेष बग के कर्मनो उदीरक न कर्मनी उदीरपायें होय. अहीं वेदनीय भने आयु, ए बेनी उदीरणा न होय, केवल उदयेंज होय, तथा उपंचसुद्धमो के सूक्ष्मसंपराय दशमे गुणगणे आवलीमात्र रहे, तिहां लगें पण कर्मनी उदीरणा होय, अने बेहली थावलीयें मोहनीयनी पण उदीरणा टले, तेवारें मोहनीय विना शेष पांच कर्मनी उदीरणा होय, माटें बे उदीरणानां स्थानक होय, अने पणुवसंतो के उपशांतमोहनामा अगीआरमे गुणगणे मोहनो उदय नथी,माटें एनी उदीरणा पण न होय. शेष ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, नाम, गोत्र अने अंतराय, ए पांच कर्मनी उदीरणानुं स्थानक होय॥इति समुच्चयार्थः॥६॥ Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४२ षडशीतिनामा चतुर्थ कर्मग्रंथ. ४ पण दो खीण उ जोगी, ऽणुदीरगु अजोगि थोव उवसंता ॥ संख गुण खीण सुहुमा, निअहि अपुव सम अदिआ ॥६५॥ अर्थ- पणदोखीण के० एहीज पांच कर्मनी उदीरणा, दीणमोहनामा बारमा गुणगणानी अंत्यावलिका थाकता लगें होय, अने देहली श्रावलीयें ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, अने अंतराय, ए त्रण कर्मनी उदीरणा टले तेवारें शेष नामकर्म, अने गोत्रकर्म, ए बे कर्मनी नदीरणा होय. एटले बे उदीरणानां स्थानक होय. अने जोगी के एहिजबे कर्मनी उदीरणा सयोगी गुणगणे पण होय, तथा णुदीरगुलजोगी के अयोगी चौदमे गुणगणे को कर्मनी उदीरणा न होय, जे जणी उदीरणा ते करण डे, ते योगथी थाय. ते योग तिहां नथी ते माटें उदीरणा पण न होय, जे नणी योग ते करणवीर्य कहीये. ते जणी योग करण नहीं तेथी अयोगी अनुदीरक कह्या. . हवे चौद गुणगणे वर्त्तता जीवमध्ये कया गुणगणे घणा पामीयें ? अने कया गुणगणे थोमा पामीयें ? तथा कया गुणगणे सरखा पामीयें ? एम अस्पबहुत्व कहे ३. ते मध्ये मिथ्यात्व, अविरति, देशविरति,प्रमत्त, अप्रमत्त अने सयोगी, ए गुणगणे वर्त्तता जीव, लोकमध्ये सर्वदा पामीयें, तेथी एब गुणगणा अशून्य , अने शेष आठ गुणगणाना जीव, केवारेंक लोकमध्ये पामीये अने केवारेंक शून्यपणुं पण पामी, तेथी तेउनुं अल्पबहुत्व अनियतपणे होय, ते अपेक्षायें विचास्यु जे. तिहां थोवनवसंता के० सर्व थकी थोमा उपशांतमोह नामे अगीश्रारमे गुणगणे वर्त्तता जीव होय, जे जणी उपशमश्रेणीना आरंजक उत्कृष्टपदें चोपन्न जीव पामीये, ते थकी संखगुणखीण के० संख्यातगुणा अधिक जीव दीणमोहनामा बारमे गुणगणे वत्तेता पामीये, जे जणी क्षपकश्रेणी पडिवजता जीव, एकसो ने श्राप पामीयें, ते अपेक्षायें उत्कृष्टपणे लेवा. अन्यथा विपरीतपणे होय, तथा सुदुमा के सूक्ष्मसंपरायगुणवाणुं दशमुं, नियहि के निवृत्ति बादर गुणगणुं नवमुं, अपुत्व के अपूर्वकरण गुणगणुं श्रापमुं, ए त्रण गुणगणाना जीव, माहोमांहे सम के सरखा जाणवा, अने दीणमोह गुणगणाथकी अहिआ के० विशेषाधिक जाणवा. जे जणी अहींां चोपन उपशम श्रेणीना तथा एकसो ने आठ पकश्रेणीना एवं एकसो ने बाश उत्कृष्टपदें ए त्रण गुणगणे वर्त्तता जीव पामीये, माटें क्षीणमोहना एकसो ने श्राग्थकी विशेषाधिक कह्या. अने सर्व जीवने श्रेणीयें ए त्रण गुणगणां होय, माटें परस्परें सरखां जाणवां ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ ६५ ॥ Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जोगि अविर षडशीतिनामा चतुर्थ कर्मग्रंथ. ४ पमत्त इयरे, संखगुणा देस सासणा मीसा ॥ जोगि मिचा, असंख चउरो डुवेणंता ॥ ६६ ॥ अर्थ - तेथक जोगि के० सयोगी गुणठाणे वर्त्तता योगसहित केवली जीव, संख्यातगुणा जाणवा. जे जणी कोटी पृथक्त्व उत्कृष्टा पामीयें, माटें संख्यातगुणा का, तेथ की पमत्त के० अप्रमत्तगुणठाणे वर्त्तता जीव, संख्यातगुणा जाणवा. जे जणी ए कोटीसहस्र पृथक्त्व प्रमाण लाने, तेथकी इयरे के० इतर जे प्रमत्त गुणाएं तेने विषे वर्त्तता जीव, संखगुणा के० संख्यातगुणा जाणवा. जे जणी अप्रमाद कालथी प्रमादनो काल संख्यातगुणो होय, ते अपेक्षायें केवारेंक अधिका पण होय, तेथकी देस के देश विरतिगुणगणाना जीव, असंख्यात गुणा होय. जेजणी गर्प्रज पंचेंद्रिय तिर्यंचने पण देशविर तिगुणगाणं होय, ते तो असंख्याता बे, ते माटें कह्या, तेथकी सासणा के० सास्वादन गुणठाणें वर्त्तता जीव, जो होय तो, उत्कृष्टपदें श्रसंख्यातगुणा होय, अन्यथा केवारेंक उत्कृष्टपदें न पण होय, अने जघन्यें केवारेंक बे, त्रण एम पण होय, तेथकी वली मीसा के० मिश्रगुणठाणे वर्त्तता जीव, श्रसंख्यातगुणा होय, केम के सास्वादननावलिका प्रमाण काल की मिश्रनो काल अंतरमुहूर्त्त बे, ते असंख्यात गुणो बे ते माटें कह्या. ते थकी अविर के० अविरतिनामा चोथा गुणठागाना जीव, संख्यातगुणा बे, केमके सर्वदा ए गुणठाएं चारे गतिमध्यें पामीयें, तथा काल पण घणो बे, ते माटें कह्या. ते थकी जोगी के० योगी जीव, अनंतगुणा बे, जेजणी सिद्धना जीव पण योगरहित बे, तेथी तेने पण अयोगी कहीयें. ते अनंता, माटें अनंतगुणा कह्या. ते थकी मिठा के० मिथ्यादृष्टि जीव, अनंतगुणा a. म. के सिद्ध की निगोदीच्या जीव, अनंतगुणा बे, ते सर्व मिथ्यात्वी बे, तेमार्डे सिद्धकी अनंतगुणा कह्या. अहींयां देशविर तिथी मांगीने चउरो के चार प असंख के० संख्यातगुणा कहीयें. अने डुवेणंता के० एक योगी ने बीजामया एबे पढ़ें अनंतगुणा कहीयें. एम चौद गुणठाणे दश बोल जीवजेदा विक विचारा. एक सास्वादन, बीजुं मिश्र, त्रीजुं अपूर्वकरण, चोयुं अनिवृत्ति, पांच सूक्ष्म संपराय, बहुं उपशांतमोह, सातमुं क्षीणमोह अने आठमुं अयोगी, ए गुणठाणे जीव केवारेंक पामीयें अने केवारेंक न पामीयें, अने केवारेंक एक गुणठाणे पामीयें, केवारेंक पांशठसें ने शाठ जांगा पामीयें, केवारेंक अनेक पामीयें, माटें ए आठ गुणठाणे एक साथै श्रावाने अनेक साथै आठ, एवं शोल जांगा तथा द्विक्संयोगी जांगा अहावीश, ते गुणगणाना त्रिकसंयोगी जांगा बप्पन्न, 0 " ५४३ For Private Personal Use Only Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४४ षडशीतिनामा चतुर्थ कर्मग्रंथ. ४ चतुःसंयोगी जांगा सीत्तेर, पंचकसंयोगी नांगा उपन्न, षट्संयोगी नांगा अगवीश, सप्तसंयोगी लांगा श्राउ, अने अष्टसंयोगी नांगो एक, तेना एकत्वपृथक्त्वें करी गुणतां शरवाले थ पांशठसे ने शाप जांगा थाय. इति समुच्चयार्थः ॥ ६६ ॥ अष्ट सप्त षट्क पंच चतु त्रिक दिक एक जाग | ४७ ११२ ५६ १६७० ११२० १७एश १७एश १२ १०२४ २५६ १ २५६ ६५६० २८ १७ २७ ५६ ७० ५६ २०८ सयोग नांगा २५६१२० ६५ ३२ १६ ४ ३ एकशु अनेक एम गुणगणे वर्त्तता जीवनुं अल्पबहुत्व कहीने हवे कर्मनो उपशम, दय, मिश्र उदय अने परिणामादिक, जावजीव एटले नावजीवने गुणगणादिक संनवे, तेजणी नावखनाव संख्यासन्निपातनिरूपण नाम नवमुंहार देखाडे बे. नवसम खय मीसोदय, परिणामा 3 नव गर गवीसा॥ तिअनेअ सन्नि वाश्म, सम्मं चरणं पढम जावे ॥६॥ " अर्थ- मोहनीयना उपशमथकी प्रगट्यो एवो जे जीवस्व नाव तेनुं नाम उवसम के औपशमिक नाव कहीयें, तथा जे कर्मना खय के० यथकी एटले मूल उल्लेदथकी थयो एवो जे जीवखजाव, ते दायिक कहीयें तथा जे मीस के उदय श्राव्या कर्मनो क्षय कस्यो, अने जे उदय नयी आव्या तेना अनुदयें रसने अवेदवे तेना अंतरालें प्रगट्यो जे जीवस्वनाव, ते कायोपशमिक कहीयें, एने मिश्र पण कहीयें. उदय के कर्मना उदयथी थयो जे जीवनो पर्याय, ते औदयिकनाव जाणवो, अने परिणामा के औदयिकस्वनावपणे परिणमवं, ते पारिणामिकनाव, एना अनुक्रमें * सादि अनादि " जुनवगरगवीसातिअनेथ के बे, नव, अढार, एकवीश अने त्रण नेद जाणवा. एटले औपशमीक नावना बे नेद, दायिकना नव नेद, मिश्रनावना अढार.नेद, औदयिकनावना एकवीश नेद, पारिणामिकनावना त्रण नेद, एम सर्वे मलीने मूल पांच नावना उत्तरत्नेद त्रेपन्न जाणवा; अने बे, त्रण, चार नाव एका मले तेने सन्निवाश्य के० सन्निपात कहीये, तेथी थयो जे जीवनो पर्याय, ते Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४५ षडशीतिनामा चतुर्थ कर्मग्रंथ. ४ हो सान्निपातिक नाव जाणवो. हवे ते विवरीने कहेले. सम्मंचरणपढमनावे के अनंतानुबंधीया चार अने दर्शनमोहनीय त्रण, ए सात प्रकृतिनो रस तथा प्रदेश न होय ते औपशमिक कहीये. तेथकी प्रगटीजे तस्वरुचि, ते औपशमिकसम्यक्त्व कहीये. अने शेष पच्चीश मोहप्रकृतिनो उपशम थयाश्री जे स्थिरतारूप चारित्र प्रगट थाय, तेने बापशमिक चारित्र कहीये. ए प्रथम औपशमिक नावना बे नेद कह्या. ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ ६ ॥ बीए केवल जुअलं, सम्मं दाणा लछि पण चरणं ॥ तइए सेसुव ऊँगा, पणलही सम्म विरइ उगं ॥ ६७ ॥ अर्थ- बीए के हवे बीजो दायिकलाव तेना नव नेद कहेजे. केवलजुश्रलं के एक केवलज्ञानावरणीयना यथी उपनुं जे केवलज्ञान ते प्रथम नेद, बीजं केवलदर्शनावरणीयना यथी उपनुं जे केवलदर्शन, ते बीजो नेद, ए केवल युगल दायिकनावे जाणवो. जे नणी केवलज्ञानावरणीय अने केवलदर्शनावरणीय, ए सर्वघातिनी प्रकृति तेनो सर्वथा नाश थवाथी श्रात्मानो सर्व गुण प्रगट थाय. ते गुण वली केबारें अवराय नहीं, ते नणी ए बे दायिकना जाणवा, तथा अनंतानुबंधीया कषाय चार अने दर्शनमोहनीय त्रण, एवं सात प्रकृति दय थ, तेथी जे श्रात्माने तत्वरुचि गुण प्रगट थाय, ते त्रीजो दायिक सम्मं के सम्यक्त्व नामे नेद जाणवो. ए कर्मक्ष्यथी होय. तथा दाणाइल छिपण के दानांतरायादिक पांच प्रकृतिना दयथी उपनी जे पांच दायिकलब्धि एटले एक दानलब्धि, बीजी लाजलब्धि, त्रीजी नोगलब्धि, चोथी उपनोगलब्धि, पांचमी वीर्यलब्धि, जेणे करी दानादिक विषयिणी श्छा नथी ते दानादिक पांच सब्धि दायिकनावे जाणवी. ए पांच नेद साथे पूर्वला त्रण नेद मेलवतां श्राप नेद थया. तथा सर्व जीवने अजयदान देवा समर्थ थया अने पच्चीश मोहनीयनी प्रकृतिना यथी प्रगट थयो जे चरणं के चारित्रगुण तेने दायिकचारित्र कहीये. एवं नव जेद, दायिकनावना थया. तइएसेसुवढंगा के त्रीजे दायोपशमिक जावें शेष एटले एक केवलज्ञान अने बीजुं केवलदर्शन, ए बे विना शेष दश उपयोग तथा पणलकि के० दानादिक पांच लब्धि बद्मस्थनी लेवी, एवं पंदर तथा सम्म के दायोपशमिक सम्यक्त्व अने विर. श्गं के विरतिछिक, एटले सर्व विरति, अने देश विरति, एवं अढार नेद दायोपशमिक जावना जाणवा. तिहां मतिझानावरणीय अने श्रुतज्ञानावरणीय, चकुदर्शनावरणीय, अचकुदर्शनावरणीय, ए चारनो उदय, बारमा गुणगणा लगें Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४६ षडशीतिनामा चतुर्थ कर्मग्रथं. ४ देशघाती होय, ते उदयावली प्रविष्टरसने ये अप्रविष्टरसने अनुदयरूप उपशमे अने केटलाएक स्पर्फकने उदयें उदयानुविक दायोपशमिक होय, तथा श्रवधि अने मनःपर्यव, ए वे ज्ञानावरण तथा अचह्नदर्शनावरण अने अवधिदर्शनावरणना सर्वघाती रस स्पर्फकने उदयें केवल औदयिक नाव होय. अने जेवारें विशुद्धाध्यवसायविशेषे ते देशघातीपणे परिणमावी मंदरस करी उदयावली प्रविष्ट अंशनेदयें तथा अप्रविष्टने उपशमे अने वर्तमानने उदये जे अवधि, मनःपर्यव, चकुदर्शनादिक गुण प्रगटे, ते दायोपशमिक उदयानुविक होय. तथा मोहनीयनी प्रकृति जे प्रथमना बार कषाय अने तेरभु मिथ्यात्वमोहनीय, ए तेर प्रकृति सर्वघातिनी , तेनो रसो. दय बतां दायोपशम न होय अने प्रदेशोदय बतां होय, जे जणी ते प्रदेश वेदतां देशघातीरसमांहे श्राणीने वेदे, तेथी ते सर्वघातीया न होय. शेष मोहप्रकृति ने रसोदय तथा प्रदेशोदय हुँते पण देशघातीश्रा नणी दायोपशम अविरोधिपणे होय. एम अंतरायनी प्रकृतिनो पण रसोदय तथा प्रदेशोदय हुँते पण दायोपशमिक अव. रोधिपणे होय. तेथी सर्व जीवने पांच लब्धि दायोपशमिकनावें होय तथा त्रण अज्ञान पण मति, श्रुत अने अवधिज्ञानावरणना क्षयोपशमविशेषे करी होय. तथा अनंतानुबंधिया चार मिथ्यात्वमोहनीयना दयोपशमें होय. अने सम्यक्त्वमोहनीयना उदयने वेदे तिहां वेदकसम्यक्त्व होय. देशविर तिचारित्रपणुं अप्रत्याख्यानीयाने क्षयोपशमें होय, अने सामायिकादिक त्रण चारित्र प्रत्याख्यानीयादिकने क्षयोपशमें होय. तेथी ए श्रढार मिश्रजावना नेद जाणवा. ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ ६ ॥ ॥ हवे औदयिक जावना नेद कहेले. ॥ अन्नाण मसिइत्ता, संजम लेसा कसाय गश्वेआ ॥ मिचे तुरिए नवा, ऽनवत्त जिअत्त परिणामे ॥६५॥ थर्थ-अन्नाण के मिथ्यात्वमोहनीयना उदयथी मिथ्यात्वीनुं ज्ञान, ते अज्ञान कहीयें. ए प्रथम अज्ञान नामें औदयिक नाव जाणवो. जेम पुर्वचनने अवचन कहीये, माग शीलने अशील कहीये, तेम असदध्यवसायें ज्ञानने पण अज्ञान कहीयें. तथा आठ कर्मना उदयथी जे जीवने असिकपणुं संसारीपर्यायपणुं थयु, ते मसित्ता के असित्वनामें औदयिकनाव बीजो जाणवो, तथा अप्रत्याख्यानावरण चार कषायने उदयें जे जीवने असंजम के असंयमपणुं, अविरतिपणुं थयुं, ते त्रीजो औदयिकन्नाव जाणवो. तथा जे श्राचार्य, श्राप कर्मपरिणतिरूप लेश्या माने, तेने मते आठ कर्मने Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४७ षडशीतिनामा चतुर्थ कर्मग्रंथ. ४ उदयें औदयिकनाव जाणवो. तथा जे कषायोदयजन्य अशुद्ध स्वजावने लेश्या माने , तेने मते मोहने उदयें औदयिकनाव जाणवो. तथा जे आचार्य,योग प्रवृत्तिरूप सेश्या माने जे तेना मतें नामकर्मना उदयथी औदयिकनाव जाणवो. एम त्रण मतें औदयिकनावें लेसा के प्रकारनी लेश्याना नेदें करी औदयिकनाव पण उ प्रकारें कहीयें, अने कसाय के चार कषाय पण मोहनीयना उदयश्री होय बे, ते जणी कषाय चार पण औदयिकनावे होय. एटले एक अज्ञान,बीजो श्रसिद्धतात्रीजो असंयम अने लेश्या तथा चार कषाय,एवं तेर नेद औदायकनावना थया; अने गश्के0 चार गति पण नामकर्मना उदयथी जीव, देवता, नारकी, मनुष्य तथा तिर्यंच कहेवाय, माटें ए चार गति पण औदयिकनावे जाणवी. एवं सत्तर नेद थया. तथा वेथा के वेद त्रण स्त्री, पुरुष, नपुंसकनी अभिलाषारूप नाववेद पण मोहनीय कर्मना उदयथी होय. तथा स्त्रीश्रादिक चिन्हरूप अव्यवेद, ते अंगोपांग नामकर्मना उदयथी होय, ए अव्य नाव बेहुने पण औदायिकनावमा खेवा. एवं वीश थया. मि के मिथ्यात्वमोहनीयना उदयथी विपरीत श्रझानरूप मिथ्यात्व होय. ए पण औदयिक नाव जाणवो. एम पूर्वाचायें एकवीश औदयिकनाव कह्या, तेथी अमें पण कह्या. बीजा पण जे जे कर्मप्रकृतिना उदयथी जे जे जीवना पर्याय उठे, ते ते सर्व औदयिकनाव कहीयें, तेवा श्रौदयिकजावना असंख्याता नेद थाय, ए तुरिए के चोथा औदयिक नावना नेद कह्या. हवे पारिणामिकनावना नेद कहे . जे मुक्ति जावा योग्य जीवस्वजाव ते नवा के नव्यपणुं ए सहज सि. तेथी प्रथम पारिणामिकनाव जाणवो, बीजो मुक्ति जावाने अयोग्य जे पर्याय ते अन्नवत्त के अजव्यत्व नामे अनादि अनंत पारिणामिक नाव, बीजो जाणवो. जिअत्त के अव्यप्रमोण तथा नावप्रमाण धारणस्वन्नाव जे जीवपर्याय, ते त्रीजो जीवत्व कहीयें. ए पण अनादि अनंत सिक डे, परंतु कोश्नो कस्यो नथी. एम ए त्रण नेद जीवना परिणामे के पारिणामिकना जाणवा. ए सर्व थश्ने त्रेपन उत्तरजाव थया. तथा नथी जीव एवो जे पर्यायते अजीवत्वपारिणामिक अनादि अनंत धर्मास्तिकायादिकने विषे होय. बीजा पण प्रयोगसा, विस्रसा अने मिश्रसा, प्रयोगथी कपहुं, रोटी, विश्रसा ते इंजधनुष, मिश्रसा ते खीचमी, ए त्रण नेदें मिश्रजावें झानादिक, पारिणामिक नावें जीवत्वादिक, औदयिकजावें देवगत्यादिक.॥इति समुच्चयार्थः ॥६ए॥ ॥ हवे ए उपशमादिकनावना नांगा कहे.॥ चन चन गईसु मीसग, परिणामुदएदि चनसु खइएहिं ॥ जवसम जुएहि वा चन, केवलि परिणामुदय खइए ॥ ७० ॥ Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ UG षडशीतिनामा चतुर्थ कर्मग्रंथ. ४ . अर्थ-हवे ए औपशमादिक पांच नावना विकसंयोगें दश नंग अने त्रिकसं. योगें दश जंग तथा चतुःसंयोगें पांच नंग अने पंचसंयोगें एक नंग, मलीने बवीश नांगा थाय. ए वीश सान्निपातकना नेद थाय. ते माहेला उ नेद जीवने विषे होय, तेमांत्रण नेद तो चार गति आश्री तेना चार त्रिक बार नेद थाय. अने त्रण बीजा होय. एम मूलनंग ब होय. बाकी सन्निपातना वीश नंगनो तो संजव न होय, शेष बनो संजव होय, ते न जंगना वली उत्तर नेद, गति श्राश्री पंदर थाय, ते कही देखाडे बे. ते मांहे एक त्रिकसंयोगी दशमो जंग, तेना चनगईसु के चार गति श्राश्री चन के चार नेद थाय. ते कही देखाडे जे. जे जणी मनुष्यनी गतिमां मनुष्यने मीसग के मिश्रजावें ज्ञान, श्रज्ञान अने दर्शनलब्धि एक अने परिणामुदएहि के पारिणामिकनावें जीवपणुं तथा नव्यपणुं, अने औदायिकत्तावें मनुष्यनी गति, वेश्या, वेद श्रने कषाय होय. ए प्रथम जंग जाणवो. . तेमज देवताने पण मिश्रजावें ज्ञानादिक ने पारिणामिकनावें जीवत्वादिक तथा औदयिकनावें देवगत्यादिक देवप्रायोग्य, ए बीजो जंग जाणवो. तेमज तिर्यंचमध्ये पण मिश्रनावें ज्ञानादिक अने पारिणा मिकनावें जीवत्वादिक तथा औदयिकनावें तिर्यंचगत्यादिक, ए त्रीजो जंग जाणवो. तेमज नरकगतिमध्ये पण मिश्रनावें ज्ञानादिक ने पारिणामिकनावें जीवस्वादिक तथा औदयिकनावें नरकगत्यादिक, ए चोथो नंग जाणवो. एमत्रण नाव एक जीवने मले, तेथी ए त्रिकसंयोगीश्रा नांगा चार, मूल जंग एक, दशमो जाणवो. तथा एहिज चउसु के चार गतिना सन्निया पंचेंप्रिय जीवने पूर्वोक्त त्रण नावनी साथें चोथो खरएहिं के० दायिकन्नाव मेलवीयें, .तेवारें चतुःसंयोगी नांगो थाय. एटले दायिक सम्यकदृष्टि जीवने दायिकन्नावें दायिकसम्यक्त्व अने मिश्रनावें ज्ञानादिक तथा औदयिकन्नावें मनुष्यगत्यादिक अने पारिणामिकन्नावें जीवस्वादिक, ए चार नाव मले, तेश्री ए चतुःसंयोगीना चार गतिनी अपेक्षायें सान्निपातिकना चार नांगा होय. तेमज वली वा के० अथवा उवसमजुएहिचन के० उपशम सम्यक्त्वसहित करीयें, तेवारें औपशमिक सम्यकदृष्टिने औपशमिकन्नावें औपशमिकसम्यक्त्व अने मिश्रन्नावें ज्ञानादिक तथा औदयिकन्नावें मनुष्यगत्यादिक तथा पारिणामिकन्नावे जीवत्वादिक, ए चार गतिना जीवनें होय. तेथी एना पण चार जंग थाय. Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षडशीतिनामा चतुर्थ कर्मग्रंथ. ४ "ყო एम चार गतिना दें करी त्रण भावना बार जांगा थया, तथा केवलिपरिणामदयखइए के० केवलीने तेरमे ने चौदमे गुणठाणे कायिकजावें केवलज्ञानादिक नव होय, किनवें मनुष्यगत्यादिक त्रण होय, तथा पारिणामिकजावें एक जीवत्व होय, एम त्रिकसंयोगी जांगो एक होय. यहीं केवलीने घातीयां कर्म न होय, तेथी मिश्राव तथा औदारिकनाव, ए बेजाव न होय. ए त्रिकसंयोगीनो एकज नवम जांगो होय. अहींयां केवली मनुष्यज होय, परंतु शेष ऋण गतिमध्यें न होय. तेथी एकज जांगो होय. एवं तेर जांगा थया. sa संयोगादिकना जांगा कही देखाडे ते. एक श्रपशमिक ने क्षायिक, बीजो औपशमिक ने मिश्र, त्रीजो औपशमिक ने चौदयिक, चोथो औपशमिक ने पारिणामिक, पांचमो क्षायिक ने मिश्र, बडो क्षायिक ने श्रदयिक, सातमो कायिक ने पारिणामिक, ए जांगो, सिद्धमां होय. श्रमो मिश्र ने औदयिक, नवमो मिश्र ने पारिणामिक, दशमो श्रौदयिक ने पारिणामिक, ए दश द्विकसंयोगी थया. ते मध्ये सातमो नांगो सिद्धनो वसतो जाणवो. शेष नव जंग शून्य बे. ea त्रिसंयोगी जांगा कहेबे एक औपशमिक, क्षायिक ने मिश्र; बीजो औपशम, क्षायिक ने दयिक; त्रीजो उपशम, कायिक ने पारिणामिक; चोथो उपशम, मिश्र ने दकि; पांचमी श्रपशमिक, मिश्र ने पारिणामिक; बघो औपशमिक, औौदयिक ने पारिणामिक; सातमो क्षायिक, मिश्र ने श्रदयिक; प्राठमो कायिक, मिश्र ने पारिणामिक; नवमो कायिक, औौदयिक ने पारिणामिक, ए केवलीने होय. दशमो मिश्र, श्रोदयिक ने पारिणामिक, ए जांगो, चार गतिना जीवनें होय. ए त्रिसंयोगी दश जांगा थया. तेमध्यें नवमो जांगो केवलीनो, अने दशमो जांगो, चार गतिना जीवनो, ए बे जांगा वसता ते विना शेष श्राव जंग शून्य बे. हवे चतु:संयोगी जांगा कहे बे. एक औपशमिक, क्षायिक, मिश्र ने औदयिक, ए शून्य बे. बीजो औपशमिक, क्षायिक, मिश्र अने पारिणामिक, ए पण शून्य बे. श्रीजो औपशमिक, क्षायिक, औदयिक अने पारिणामिक, ए पण शून्य बे. चोथो पशमिक, मिश्र, औदयिक ने पारिणामिक, ए जंगो चार गतिना उपशम सम्यदृष्टि जीवने होय. पांचमो क्षायिक, मिश्र, श्रदयिक अने पारिणामिक, ए जंगो चार गतिना कायिक सम्यकूदष्टि जीवनें होय. पशम, क्षायिक, मिश्र, श्रदयिक ने पारिणामिक, ए पंच संयोगी सान्निपातिकनाव, उपशमश्रेणीयें वर्त्तता मनुष्यनें नवमे, दशमे अने अगी आरमे, ए त्रण गुणवणे होय. ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ ७० ॥ For Private Personal Use Only Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ԱԱԾ षडशीतिनामा चतुर्थ कर्मग्रंथ. ४ खय परिणामे सिक्षा, नराण पण जोगु वसम सेढीए॥ श्अ पनर सन्निवाश्म, नेा वीसं असंजविणो॥१॥ अर्थ- विकसंयोगीश्रामांहेलो सातमो नांगो, सिझा के सिकना जीवनें पामियें. जे जणी सिकने ज्ञान, दर्शन, सम्यक्त्व, खय के दायिकनावें बे. अने जीवत्वपj, परिणामे के० पारिणामिकनावें . ए बे नावनो मेलापक सिकनें जे. बीजो कोय न संजवे. एवं चौद सान्निपातिक नाव थाय. तथा उपशम सम्यकदृष्टि, नराण के मनुष्य उवसमसेढीए के उपशमश्रेणी करे, तेने उपशमश्रेणीने विषे नवमे, दशमे अने अगीश्रारमे, ए त्रण गुणगणे पण जोग के पांच नावनो एक जीवने विषे एक समयें मेलापक होय, जे नणी तेने बादरकषायने उपशमाववे करी औपशमिकनावें चारित्र होय, अने दायिकनावें सम्यक्त्व होय, तथा मिश्रनावें ज्ञान, दर्शनादिक होय, औदयिकनावें मनुष्यगत्यादिक होय श्रने पारिणामिकनावें जीवत्वादिक होय, एम पंचसंयोगी सान्निपातिक होय. ए रीते सर्व मली ब सानिपातिक होय. जे जणी ए ब नांगें कोइ पण जीव पामीये, पण ए उ नांगा खाली न होय. एब नंगना वली पंदर नांगा थाय, जे नणी चार गतिमांहे मिश्र, औदायिक ने पारिणामिक, ए एक त्रिकसंयोगी नंग पामीयें. तथा दायिक, मिश्र, औदयिक ने पारिणामिक तथा औपशमिक, मिश्र, औदायिक, अने पारिणामिक, ए बे चतुःसंयोगी नांगा पामीयें. ए त्रण नांगाने, चार गति साथें गुणीयें, तेवार बार नांगा थाय, अने तेरमो केवलीने दायिक, औदयिक अने पारिणामिक, ए त्रिकसंयोगी एक नांगो, तथा चौदमो सिद्धने दायिक, पारिणामिक ए हिकसंयोगी एक नांगों होय, तथा पंदरमो उपशमश्रेणी मनुष्यने दायिक, सम्यक्त्वे पंच संयोगी एक नांगो होय, श्अपनरसन्निवाश्य के एपंदर नेद,सान्निपातिकना वसतां होय, शेष हिकसंयोगी नांगा नव, त्रिकसंयोगी नांगा थाउ, चतुःसंयोगी नांगा त्रण, एवं नेवीसंथसंनविणो के वीश नेद असंजावी एटले शून्य बे. केवल नांगा उपजाववाने अर्थ देखामवा. पण तिहां कोई जीवन्नेद नयी पामता ॥१॥ हवे ए औपशमादिक नाव श्राव. कर्मने विषे विवरीने देखाडे . कोण कर्मनो उपशम, कोण कर्मनो क्षयोपशम, कोण कर्मनो क्षय, कया कर्मनो उदय, कोण कर्म, पारिणामिकनावें होय ? ते कहेडे. मोदो वसमो मीसो, चन घाइसु अ कम्मसु असेसा ॥ धम्मा पारिणामित्र, नावे खंधा उदइ एवि ॥ २॥ Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ षडशीतिनामा चतुर्थ कर्मग्रंथ. ४ । ut अर्थ- मोहोसमो के० मोहनीय कर्मनो उपशम होय. जेम राखें ढाक्यो अग्नि दीपे नहीं, तेम ज्यां कषायनो उदय न होय, तेने उपशम कहीये. अहींां रसनो तथा प्रदेशनो उदय न होय. तथा मोसो के दायोपशम एटले जे उदयप्राप्त रस तेने जोगवी, क्षय पमाड्यो श्रने जे उदय नथी श्राव्यो तेनुं अनुदयरूप उपशम कस्यो, तेनी वच्चें जे उदयनु आंतरं, ते दायोपशम रसोदयनी अपेदायें जाणवू. ते क्षयोपशम, चउघासु के एक झानावरणीय, बीजु दर्शनावरणीय, त्रीजु मोहनीय, चो, अंतराय, ए चार घातीयां कर्म जे.जे नणी ए ज्ञानावरणादिक जे बे, ते जीवना गुणप्रत्ये हणे . ते जणी एनो क्षयोपशम नाव होय. तेणे करी ज्ञानादिक गुण- तरतमपणुं होय श्रने एथी असेसा के शेष रह्या जे त्रण नाव एटले एक दायिक, बीजो औदयिक, त्रीजो पारिणामिक, ए त्रण नाव अकम्मसु के सर्वश्राठे कर्मने विषे होय. __ एटले मोहनीय कर्मने विषे पांचे नाव होय, अने ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, अने अंतराय, ए त्रण कर्मने विषे एक औपशमिक विना शेष चार नाव होय, तथ, नाम, गोत्र, आयु अने वेदनीय, ए चार कर्मने विषे एक दायीक, बीजो औदयिकत्रीजो पा.रिणामिक, ए त्रण नाव पामीयें. एम कर्मनी अपेदायें नाव कह्या. हवे अजीवनी अपेक्षायें नाव कहे. धम्मापारिणामिअन्नांवे के एक धर्मा, स्तिकाय, बीजो अधर्मास्तिकाय, त्रीजो आकाशास्तिकाय, चोथो पुजलास्तिकाया पांचमो काल, ए पांच अव्य, अनादि पारिणामिकनावें बे. केम के पोतपोताने नावेंज परिणम्या बे. पण ते परतावें परिणमता नथी, ते माटें अनादि पारिणामिक नावें बे. तेमांहे पण पुजल घ्यणुकादिक खंधा के खंध ते सादिपारिणामिक जावें होय तथा अनंतप्रदेशी पुजलस्कंध ते उदए वि के औदायिकनावे पण होय. जे नणी कर्मपुजल खंध, जीव संबंधे पुजलविपाकनी कर्मप्रकृतिने उदयें औदारिक नोकर्मना पुजलनेविषे वर्णादिक होय, माटें अनंतप्रदेशी स्कंध, कर्मवर्गणादिक पुजल, ते सर्व औदयिकनावें होय. शुरूपणुं बांडे, घटे,मटे ते माटें॥इति समुच्चयार्थः॥७॥ हवे एक जीवने जे जे गुणगणे जेटला जेटला नाव होय, तिहां तिहां तेटला तेटला नाव कहेले. मूलजावनी अपेक्षायें मिथ्यात्व, सास्वादन अने मिश्र, ए त्रण गुणगणे मिश्रनावें अज्ञानादिक दश उपयोग होय अने औदयिकनावें गत्यादिक होय. तथा पारिणामिकनावें जीवत्व, जव्यत्वादिक ए त्रिकसंयोगी नांगो औपशमिक अने दायिक एवं वे नाव विनानो होय. सम्माश् चनसु तिग चन, नावा चन पणु वसामगुवसंते ॥ चनखीणाऽ पुवे ति, निसेस गुण गणगे गजिए॥७३॥ Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५२ षडशीतिनामा चतुर्थ कर्मग्रंथ.४ अर्थ-सम्माश्चउसु के० सम्यक्त्वादिक चार गुणगणे एटदें चोथे, पांचमे, बछे अने सातमे ए चार गुणगाणे तिगचनावा के त्रण अथवा चार नाव होय. एटखे जो दायोपश मिकसम्यक्त्व होय, तो एक दायोपशमिकलावें सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन श्रने विरति पणुं होय, बीजु औदयिकत्नावें गत्यादिक होय,त्रीजुंपारिणामिकनावें जीवत्व, नव्यत्व. होय, ए त्रिकसंयोगी नांगो एक होय. अने दायिकसम्यकदृष्टिने एक दायिकत्तावें सम्यक्त्त्व होय, बीजो दायोपशमिकनावें ज्ञानादिक होय, त्रीजो औदयिकनावें गत्यादिक होय, अने चोथो पारिणामिकनावें जीवत्व, जव्यत्व होय. ए चार नाव होय. अने तेमज औपशमिक सम्यकदृष्टिने पण दायिकसम्यक्दृष्टिनी पेरेंत्रण सान्निपातिक होय, अने चोथो औपशमिकसम्यक्त्व होय. एम दायोपशमिक सम्यकदृष्टिने त्रण नाव होय, तथा दायिक अने औपशमिक सम्यकदृष्टिनें चार नाव होय. अने सर्व जीव आश्रयी तो पांच नाव होय. तथा चजपणुवसामगुवसंते के अहीं औपशमिक ते नवमुं अने दशमुं गुणगाएं जाणवू. तथा उपशांत ते अगीयारमुं गुणगणुं जाणवू. ए त्रण गुणगणे एक जीवने उपशमश्रेणी करतां नवमे, दशमे अने अगीश्रारमे, ए त्रण गुणगाणे चल पण एटले चार तथा पांच नाव होय, ते आवी रीते के, एक दायोपशमिकनावें ज्ञानादिक होय, बीजु औदायिकनावें गत्या दिक, त्रीजुं पारिणामिकनावें जीवत्व, नव्यत्वादिक अने चो, औपशमिकनावें सम्यक्त्वचारित्र होय. ए चार सान्निपातिकनाव होय. तथा जे जीव, दायिकसम्यक्त्वें औपशमश्रेणी पमिवो, तेने एक दायिकलावें सम्यक्त्व होय, बीजो औपशमिकलावे चारित्र होय, त्रीजो दायोपशमिक नावे झानादिक होय, चोथो औदयिकनावे गत्यादिक होय, अने पांचमो पारिणामिकनावें जीवत्व, नव्यत्वादिक होय. ए पांच नाव एकग होय माटें पंचकसंयोगीनांगो होय. तथा चउखीणा के० दपक श्रेणीय क्षीणमोहनामें बारमे गुणगणे एक दायिकनावें चारित्र होय, तथा दायिकनावें सम्यक्त्व पण होय, बीजो मिश्रनावें ज्ञानादिक होय, त्रीजो औदयिकनावे गत्या दिक होय, चोथो पारिणामिकनावें जीवत्व, जव्यत्वादिक होय. ए चार नाव नेला होय. तथा अपुवे के अपूर्वकरणनामा आउमे गुणगणे पण दायिकसम्यक्त्वीने दायिकनावें दायिकसम्यक्त्व होय, बीजो मिश्रजावें ज्ञानादिक अने विरतिपणुं होय, त्रीजो औदयिकनावें गत्यादिक होय, अने चोथो. पारिणामिक नावें जीवत्वादिक होय, तथा औपशमिक सम्यक्त्वीने एक औपशमिकलावें औपश मिकसम्यक्त्व होय, बीजो मिश्रनावें ज्ञानादिक होय, त्रीजो औदायिकनावें गत्यादिक होय, अने चोथो पारिणामिकनावें जीवत्वादिक एटले जीवपणुं होय. ए रीतें बे प्रकारे चार नाव कह्या. Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षडशीतिनामा चतुर्थ कर्मग्रंथ. ४ ५५३ तथा तिन्निसेसगुणगणगेगजिए के तेथी शेष रह्यां जे पांच गुणगणां तेमध्ये मिथ्यात्वादिक त्रण गुणगणे एटले पहेले, बीजे, त्रीजे, ए त्रण गुणगणे तो कह्यो जे त्रिकसंयोगीश्रानो दशमो नांगो एटले एक औदयिक, बीजो पारिणामिक अने त्रीजो दायोपशमिक, ए त्रण नाव होय, अने तेरमे तथा चौदमे, ए बे गुणगणे एक दायिकन्नावें सम्यक्त्वादिक नव होय, तथा बीजो औदयिकन्नावें गत्यादिक होय, अने त्रीजो पारिणामिकनावें जीवत्वादिक होय. ए पूर्वोक्त त्रिकसंयोगी नवमो नांगो होय. एम एगजिए एटले एक जीवने एक समय एटला नाव होय. हवे औपशमिकनावना उत्तरनेदनी संख्या गुणगणे कहे. तिहां औपशमिक सम्यक्त्व, चोथा गुणगणाधी मामीने अगिधारमा गुणगणा पर्यंत लाने बे. अने नवमे, दशमे तथा श्रगीश्रारमे, ए त्रण गुणगणे उपशमचारित्र पण होय, तेथी ए बे औपशमिक नाव, उपर कहेला गुणगणे होय. कायिकनावना उत्तर नेदनी संख्या गुणगणे कहे . एटले चोथा गुणगणाथी अगीथारमा लगें दायिकन्नार्वे एक दायिकसम्यक्त्व होय, अने बारमे गुणगणे कायिकसम्यक्त्व तथा दायिकचारित्र, ए बे दायिकन्ना होय. तेरमे श्रने चौदमे गुणगणे सम्यक्त्व, चारित्र, केवलज्ञान अने केवलदर्शन, ए चार दायिकन्नावें होय, तथा दानादिक पांच लब्धि दायिकन्नावें होय. ए रीतें ए अंसनां बे गुणगणे एनव कायिकन्नाव लाने. एटले दायिकन्नाव कह्यो. हवे कायोपशमिक नावना उत्तर नेदनी संख्या गुणगणा श्राश्री कहे . मिश्रनावें त्रण अज्ञान तथा चा अने अचतु, ए बे दर्शन, अने दानादिक पांच मिश्रलब्धि, ए दश नाव प्रथमनां बे गुणगणे होय. त्रीजे गुणगणे मिश्रज्ञान त्रण, तथा दर्शन त्रण अने दानादिक लब्धि पांच तथा मिश्रमोदनीय एक, ए बार नाव होय. तथा चोथे गुणगणे मिश्रमोहनीय टालीयें, अने दायोपशमिक सम्यक्त्व नेलीयें, तेवारें वार नाव होय. पांचमे गुणगणे, देशविरति सहित तेर नाव होय. तथा बजे अने सातमे गुणठाणे, मनःपर्यवज्ञानसहित चौद नाव होय. तथा थाठमे, नवमे अने दशमे, ए त्रण गुणगाणे, दायोपशमिक सम्यक्त्व न होय, तेथी शेष तेर नाव होय. तथा अगीयारमे अने बारमे गुणगणे, दायोपशमिक चारित्र न होय, तेथी शेष बार नाव मिश्रना होय, अने तेरमे तथा चौदमे गुणगणे, घातीयां कर्म कयें गयां, तेमाटें मिश्रनाव नज होय. हवे औदयिक जावना उत्तर नेदनी संख्या गुणगणे कहेले. तिहां प्रथम मिथ्यात्वगुणगणे गति चार, कषाय चार, वेद त्रण, लेश्या उ, एवं सत्तर, तथा अझान एक, Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षडशीतिनामा चतुर्थ कर्मग्रंथ । असिझत्व एक, अविरति एक अने मिथ्यात्व, ए एकवीश औदयिकनाव होय. बीजे गुणगाणे, मिथ्यात्व विना शेष वीश नाव होय; तथा त्रीजे अने चोथे गुणगणे, एक अज्ञान न होय, शेष अंगणीश होय. पांचमे गुणगणे, नरकगति, तथा देवगति, ए बे विना शेष सत्तर औदयिकनाव होय, बहे गुणगणे तिर्यंचगति तथा असंयम, ए बे विना शेष पंदर नेद होय. सातमे गुणगणे, प्रथमनीत्रण लेश्यायें हीन करीयें, तेवारें बार नेद होय. आपमें तथा नवमे गुणगणे, पद्म श्रने तेजोलेश्या विना शेष दश नेद होय. दशमे गुणगणे त्रण वेद श्रने त्रण कषाय विना चार नेद औदयिकनावना होय. तथा अगीथारमे,बारमे अने तेरमे ए त्रण गुणगणे एक मनुष्यगति, बीजो शुक्ललेश्या, त्रीजो असिमत्व, ए त्रण औदयिकनावना नेद होय, तथा चौदमे गुणगणे एक शुक्ललेश्या विना असिहत्व अने मनुष्यगति, ए बे औदयिकनावना नेद होय. हवे पारिणामिक नावना उत्तर दनी संख्या, गुणगणे कहेजे. तिहां मिथ्यात्व गुणगणे जव्यत्व, अजव्यत्व अने जीवत्व, ए त्रण पारिणामिकनावना नेद होय. अने सास्वादनथी मामीने बारमा गुणगणा सुधी एक अजव्यस्व विना शेष बे पारिणामिक जावना नेद होय, अने तेरमे तथा चौदमे, ए बे गुणगणे श्रासन्नसिझावस्था जणी तथा घातीयां कर्म खपाठयां, तेजणी तथा बीजा को कारणने लीधे पूर्वाचार्य जव्यस्वपणुं विवयुं नथी, तेथी एकज जीवत्वपणुं पारिणामिकनावें होय. एम जे गुणगणे जेटला उत्तरतावना नेद होय, तेने संबंधे अनेक सान्निपातिकनेद यथासंजवें विचारीने कहेवा. ए उत्तरत्नावनेद, गुणगणे कह्या ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ ३॥ ___ एम सविस्तरपणे नाव- स्वरूपसंख्या विजागनिरूपण कयु. हवे ते औपशमिकादिक नावें वर्त्तता जीव अव्यनुं परिमाण तथा तेने मांहोमांदे अटपबहुत्वनुं विचारहारनिरूपण, संख्यात, असंख्यात अने अनंताने ज्ञानें करी सुगम थाय, ते जणी संख्यातादिकना विचारनु चार दशमुं कहेले. ॥ हवे संख्याता, असंख्याता अने अनंताना नेद कहे. ॥ संखिळेग मसंखं, परित्त जुत्त निअ पय जुअंतिविहं ॥ एव मणंतंपि तिदा, जदन्न मझुकसा सवे ॥ ४ ॥ अर्थ-संस्किोग के संख्यातो काल एकज जाणवो अने मसंखं के असंख्यातो काल त्रण नेदें बे. ते कहे. एक परित्त के प्रत्येकासंख्यातुं, बीजु जुत्त के युक्तासंख्यातुं, त्रीजुं निअपयजुअंतिविहं के० पोताना पदसंयुक्त करीयें, तेवारेंअसंख्यातासंख्यातुं, थाय. ए त्रण नेद थया. एवं के ए रीतें मणंतपितिहा के॥ त्रण अनंता पण एहिज नामें जाणवा. तद्यथा ते कहे . एक प्रत्येकानंतुं, बीजु युक्तानंतु, त्रीजुं Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षडशीतिनामा चतुर्थ कर्मग्रंथ. ४ ԱԱԱ अनंतानंतु, एम सर्व थइ सात जेद थया. ते पण वली एकेकना जहन्नम कुक्कसासत्रे के० एक जघन्य, बीजो मध्यम, त्रीजो उत्कृष्ट, एवा त्रण त्रण भेद होय, तेवारें एकवीश नेद याय. ari नाम कहे . एक जघन्यसंख्यातुं, बीजुं मध्यमसंख्यातुं, त्रीजुं उत्कृष्टसंख्यातुं, एत्रण संख्यातानां नाम कह्यां. तेमज एक जघन्य प्रत्येकासंख्यातुं, बीजुं मध्यमप्रत्येका संख्यातुं, त्रीजुं उत्कृष्टप्रत्येकासंख्यातुं, चोथुं जघन्ययुक्तासंख्यातुं, पांचमुं मध्यमयुक्तासंख्यातुं, बहुं उत्कृष्टयुक्त संख्यातुं, सातमुं जघन्य संख्याता संख्यातुं श्रावसुं मध्यम संख्यातासंख्यातुं, नवमं उत्कृष्ट संख्याता संख्यातुं, ए नव असंख्यातानां नाम कह्यां तेमज असंख्यातानी पेरें नव अनंतानां नाम पण कद्देवां एटले एक जघन्यप्रत्येकानंतुं, बीजुं मध्यमप्रत्येकानंतुं, त्रीजुं उत्कृष्टप्रत्येकानंतुं, चोथुं जघन्ययुक्तानंतुं, पांचमुं मध्यमयुक्तानंतु, बहुं उत्कृष्टयुक्तानंतुं, सातमुं जघन्यथनंतानंतु, आठमुं मध्यम अनंतानंतु; छाने नवमं उत्कृष्टानंतानंतुं. ए नव अनंतानां नाम कह्यां ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ ७४ ॥ हवे ए एकवीश जेद विवरी देखाडे बे. तिहां प्रथम त्रण संख्याताना नेद, देखाडे बे. तेमां एकनी संख्या नहि, जे जणी एक घडो दीठे ए घमो बे. एम कहेवाय, पण या एटला घडा बे. एम संख्या न होय. लढु संखिऊं पुच्चिच्छ, अपरं मतिमंतु जागुरुयं ॥ जंबूदीव पमाणय, चपल परूवणाई इमं ॥ ७५ ॥ अर्थ - तेमाटें पुच्चि के० बेथी संख्या मांमीयें तेणे लहुसंखितं के० जघन्य संख्यातुं बेने कहीयें ने अपरं के० ए बेथी पढी उपरांत त्रण, चार, पांच, ब, एम जागुरु के यावत् उत्कृष्टा संख्यातामां एक रूपहीन होय, त्यां लगें मतिमंतु के० मध्यम संख्यातुं कहीयें. दवे उत्कृष्ट संख्यातानी प्ररूपणा कहे बे. जंबूदीवपमाणयचउपलपरूवणाश्श्मं के० जंबूद्वीप प्रमाण चार पालानी प्ररूपणायें करीने उत्कृष्ट संख्यातुं जाए. तद्यथा ते कहे बे. जंबूद्वीप जेवडो एक लाख योजन लांबो, पहोलो वाटलो तो त्रण लाख, शोल हजार, बसें ने सत्तावीश योजन, त्रण कोश, एकसो श्रावीश धनुष्य, तेर अंगुल, एक जव, एक जू, एक लीख ङ वालाय, सात त्रसरेणु, पांच परमाणु, एटली परिधि जावी. अने एक हजार योजन ठंडो तथा श्राव योजननी जगति, ते उपर बे गाउनी वेदिका, एवडो ठंको पालो, ते जेम धान मापवानी पाली होय, तेवो सरसवें करी जरीयें, ते पालो कहीये. ते पालो सिग सूधो सर्व जरीयें, तेमां एक सरसवमात्र ते उपरें तेरे नहिं, एवो जरीयें. पबी ते पालाने उपाकी ते मांहेला एकेक सरसव एकेक द्वीप, समुद्र दीव मूकता जइयें, पी जे द्वीपें अथवा जे समुझें ते पालो गलो थाय तेवडोज वली बीजो पालो Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५६ षडशीतिनामा चतुर्थ कर्मग्रंथ. ४ कल्पीयें तेनुं नाम अनवस्थित पालो कहीये. जे जणी ए पालो उत्तरोत्तर वर्षमान स्वजावने नजशे, पण एटर्बुज नहीं रहे, ते माटें ए पालानुं श्रनवस्थित एवं नाम कहीये, एम अनुक्रमें चार पाला होय, तेनां नाम कहे जे ॥ ५ ॥ पल्लाण वहिअ सिला, ग पडि सिलागा महासिलागरका ॥ जोयण सहसो गाढा, सवेश अंता ससिह नरिया ॥ ६ ॥ अर्थ- पहाणवहिश्र के पहेलो अनवस्थित पालो कहीये. जेजणी जे ही तथा जे समुळं ते पाखो खाली थाय, तेवडो लांबो, पहोलो अने हजार योजन ऊंडो, सामााठ योजन ऊंचो, कल्पता, कल्पतां वधतो जाय तेथी ते अनवस्थित पालो प्रथम जाणवो, अने ते अनवस्थित पालानी गणतीने अर्थे लाख योजन लांबो, पहोलो तथा एक हजार योजन को जगति अने वेदिका उपर तेणे सहित कल्पीयें, ते अनवस्थित गुणवा निमित्तें शलाका एटले सरसव तेनो प्रदेप तेणे करी जराय , तेथी ते वीजा पालानुं नाम पण सिलाग के शलाका पालो कहीयें, तथा ते शलाकानी जरतीनी संख्या निमित्तें वल्ली तेवडोज त्रीजो पालो कल्पीयें. ते मध्ये एकेक प्रतिशलाका मूकीयें, ते मूकतां जराय, ते नणी ते त्रीजानुं नाम, पमिसिलागा के प्रतिशिलाका पाखो कहीये. ववी ते प्रतिशलाकानी संख्या निमित्त, चोथो महासिलागका के महाशिलाकानामें पालो कल्पीयें, ए चार पालानां नाम कह्यां. तिहां जोयणसहसोगाढा के एक हजार योजन धरतीमांहे जंमो, एक हजार योजननु रत्नप्रजा पृथ्वीनुं प्रथम सहस्त्र योजनप्रमाण रत्नकांम नेदीने बीजुं वनकांम ने तेनुं तयं जाणवू; तथा ते उपरें, पाठ योजन ऊंची, बार गाउ नीची, आठ गाउ मध्ये, चार गाउ उपरें पहोली, एवी वनमयी जगति जाणवी. ते उपर वली बे गाउ उंची, पांचसे धनुष्य पहोली, एवी वेदिका जाणवी. सवेश्अंता के० ते वेदिका सहित वेदिकाना अंत सुधी ससिहजरिथा के सिग सूधां सरसवें करी जरियें. जेम ते उपरें एक शलाका मात्र न समाय. तेवी रीतें पहेलो अनव स्थित पालो जरिये; पठी ते अनवस्थित पालाना सरसवने शुं करीये ते श्रागली गाथायें कहेले. इति समुच्चयार्थः ॥ ७६ ॥ . . तो दीव दहिसु शक्कि, क सरिसवं खिवित्र निहिए पढमे ॥ पढमं वतदंतचित्र, पुण नरिए तम्मि तद खीणे ॥ ७ ॥ अर्थ- तो के ते पालाने कोइएक देव अथवा दानव उपामीने पोताना मावा हस्ततल उपर ते प्रथम अनवस्थित पालाने स्थापीने तेमांदेथी एकेक सरसव Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षडशीतिनामा चतुर्थ कर्मग्रंथ. ४ ՄԱՍ जमणा दाथथी लेइने दीवुदहिसुइक्किक के० द्वीप अने समुद्रने विषे एकेको सरिसखिविध के० सरिसव मूकतो जाय, ते जे द्वीपें तथा जे समुझें पढमे के० पहेला पालाना संरसव निठिए के० निठे एटले खाली थाय. पढमं तदं तं चित्रा के वली जे द्वीपें, अथवा जे समुद्र, ते प्रथम अनवस्थित पालो गलो थाय, तेटलोज जांबो, पहोलो एटले वचमांना द्वीप अने समुद्र सर्व तेमध्यें समावे एटलो लांबो, पहोलो तेमज एक हजार योजन जंडो, सामाश्राव योजन उंचो, बीजो पालो कपीने तेने पुणजरिए के० वली पण शिखासहित सरसवें करीने जरीयें, तंम्मितदखीणे के० वली ते पालाने पण तेमज उपाडीने कोइ देवता तेमज वली आगला एकेक द्वीपें अने समुद्र एकेक सरसव मूकतो जाय. एम करतां जे द्वीपें तथा जे समुद्रं ते पालाना सरसव खाली थाय तेवारें शुं करीयें, ते कदे ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ ७७ ॥ खिप्पइ सिलाग पल्ले, गु सरिसवो इय सिलाग खिवणं ॥ पुसो बीत, पुत्रं पिव तम्मि उहरिए ॥ ७८ ॥ अर्थ – तेवारें तेनी संख्या निमित्त खिप्पइसिलागपल्लेगुसरिसवो के० शिलाकनामा बीजा पालाने विषे नेरो एक सरसव नाखीयें; हिंयां कोइएक आचार्य कहेबे के ते सरसव अवस्थित पालामांदेबीज लीजीयें, अने अन्य कोइ आचार्य वली एम कहे बे के ते सरसव बीजो नवो लीजीयें, श्रने शलाका पालामध्ये नाखीयें परंतु नवस्थित पालामांहेथी न लीजीयें, यहीं तत्व केवली जाणे. छात्रे काइ कदेशे के प्रथम जेवारें अनवस्थित पल्य खाली कयुं तेवारें एक सरसव सलाक पय विषे केम नाख्युं नहीं ? अने या बीजी वार अनवस्थित पल्य खाली थये थके एक सरसव शलाक पल्यने विषे नाख्युं कयुं तेनुं कारण शुं ? छात्र गुरु कहे बे के, अनवस्थित पल्य जरीने वलवीयें तेवारें एक शलाका पढ्यने विषे स्थापीयें, एम तिहां प्रथम पल्य तो जंबूद्वीप प्रमाण लक्ष योजन विस्तारवालो हतो तो तेने अवस्थित न कहीयें; केम के तेनुं प्रमाण बे तेमाटें तेने अवस्थित कहीयें. छाने बीजा ने अवस्थित कहीयें. ते छानवस्थित पल्यनी शलाकायें करीने शलाका नामें बीजो पढ्य जरीयें ढैयें. ते कारणे प्रथम पढ्य वर्जीने बीजा पल्यनुं ग्रहण कीधुं बे. श्य सिलागखवणेणं पुष्सोबी के० ए प्रकारें जिहां ते अनवस्थित पालाना सरसव जे द्वीप, समुद्र उपर मूक्या थका खाली यया ते द्वीप समुद्र प्रमाण वली बीज अवस्थित पालो कल्पीयें, तेने वली शिखा पर्यंत सरसवें करीने जरीयें ने For Private Personal Use Only Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ԱՍԵ षडशीतिनामा चतुर्थ कर्मग्रंथ. ४ पूर्वली पेरें द्वीप समुज उपर एकेक सरसव मूकीने खाली करीये तेवारें वली बीजुं सरसव ते शलाका पस्यमांहे घालीये. वली पण जे छीप, समुल उपरें पूर्वे सरसवनो बेह आव्यो बे ते छीप, समुज प्रमाण त्रीजो अनवस्थित पत्य कल्पीयें, तेने वली सरसवें करी जरीयें, वली ते पालाना सरसव पण तेमज पूर्वली पेरें छीप, समुल उपर एकेक मूकतां जेवारें खाली थाय तेवारेंत्रीजुंसरसव शलाका पल्यनेविषे नाखीये, एम नवा नवा अनवस्थित.पल्य जरतां जरतां तथा तेने फरी खाली करतां करता एकेक सरसव शलाकामांहे नाखतां थका जेवारे शलाका संशिक बीजो पत्यः शिखापर्यंत संपूर्ण जराय; त के० तेवार पड़ी ते शलाकापल्यने पण पुवं पिवतमिम्मकरिए के पूर्वली पेरें हस्ततल उपर लेने को देव, दानव ते पत्यमांहेलो एकेक सरसव जे बीप, समुळं अनवस्थित पल्यनो प्रांत श्राव्यो तिहांथी श्रागला छीप, समुज उपरें एकेक सरसव मूकतो जाय, एम करतां जे छीप, समुदं ते शलाका पक्ष्य खाली थाय, तेवारें शुं करीये ? ते कहेले. ॥ ॥ खीणे सिलागि तश्ए, एवं पढमेहि बीअयं नरसु ॥ तेदि अ तश्शं तेहिब, तुरिअंजा किरफुडा चनरो॥ ए॥ अर्थ-खीणेसिलाग के एम करतां ते शलाका पालो गलो थये तइए के त्रीजा प्रतिशलाकापालामांहे अनेरो एक सरसव मूकीयें, वली तिहां अनव स्थित कल्पीयें. एवं के० ए रीतें पढमेहि के पहेले अनवस्थित पाले करीने बीअयंजरसु के बीजो शलाकापालो नरी, श्रने तेहिश्रतश्शे के० ते शलाकायें करीने त्रीजो प्रतिशलाका पालो जरीयें, तेहियतुरिनं के० ते त्रीजा प्रतिशलाकाये करीने चोथो महाशलाका पालो जरियें, ते चोथो महाशलाका जस्या पडी वली पूर्वली पेरें त्रीजो प्रतिशलाका जरीयें, ते प्रतिशलाका जरा रह्या पबी वली पूर्वली पेरे पडेला अनवस्थित पाले करी बीजो शलाका पालो जरीयें, ते शलाका जरा रह्या पठी ते त्रणे पाला जे बीप समुजना अनवस्थित पालायें करी जरा रह्या ले ते छीप, समुउपर्यंत नूमी खणीने तेटलो वली अनवस्थित पालो कल्पीने सरसवें करी जरीये. जाकिरफुडाचउरो के जे एटले निश्चे चारे पाला फुडा एटले शीखा सहित संपूर्ण जराणा. इत्यदरार्थः ॥ ए॥ - हवे नावार्थ कहेले. जेवार ते शलाका पत्य खाली थाय, तेवारें तेना जरता गणवा निमित्त तशए केत्रीजा प्रतिशलाकासंझिक पल्यने विषे अनेरो एक सरसव नाखीयें तेवार पड़ी वली ते शलाका पक्ष्यमांहेला सरसवनो जे बी अथवा समुझे अंत श्राव्यो Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षडशीतिनामा चतुर्थ कर्मग्रंथ. ४ ՄԱՍ होय ते द्वीप, समुद्र प्रमाण वली अनवस्थित पल्य कल्पीयें, ते सरसवें करी जरीने वली पूर्वी पढें उपाडी आगला एकेक द्वीप, समुद्रे एकेक सरसवनो दाणो मूकता जइयें; ते जेवारें खाली थाय, तेवारें एक सरसव वली शलाक पल्यमांहे नाखीयें. एमज वली पण जे द्वीप, समुझें ते अनवस्थित पल्य वालो थाय, ते द्वीप, समुद्रपर्यंत फरी अवस्थित पय कल्पीयें, ते पण पूर्वली पठें खाली करीयें तेवारें त्रीजो सरसव वली शलाक पट्य मांहें नाखीयें, एज रीतें नवा नवा प्रमाणे अनवस्थित पल्यने ard खाली करवे करीने एकेक सरसव शलाका पव्यमध्यें नाखतां थकां ते शलाका पल्य जेवारें बीजी वार संपूर्ण शिखासहित नराय तेवारें वली ते शलाका पल्यना सरसवनी एकेक दाणो एकेक द्वीप, समुझें मूकतां जेवारें ते खाली याय, तेवारें बीजा सरसवनो एक दाणो त्रीजा प्रतिशलाका संज्ञिक पढ्यने विषे नाखीयें. एज रीतें वली वधतो वधतो पहेलो नवस्थित पालो जरी जरीने तेना सरसव गले आगले द्वीप, समुद्र मूकतां मूकतां ते अनवस्थितनी संख्या आणवा निमित्तें एकेक सरसवनो दाणो शलाकानामें बीजा पल्यमांदे मूकतां मूकतां एवी रीतें ते शलाकानामें बीजो पल्य शिखास दित जरतां जरतां ते शलाकानी संख्या श्राणवा निमित्त ते शलाकापल्यो एकेक सरसव त्रीजा प्रतिशलाका पल्यने विषे नाखतां थकां जेवारे ते प्रतिशलाका पक्ष्य पण संपूर्ण शिखासहित जराय, तेवारें ते बीजा शलाका पक्ष्यना सरसव खाली करया बे ते सरसवनो प्रांत जे द्वीप, समुझें श्रव्यो बे ते की वली आगला द्वीप, समुद्रने विषे त्रीजा प्रतिशलाका पल्यने उपाडी तेनो एकेक सरसव एकेक द्वीप, समुद्र नाखीयें. एम करतां जेवारें ते प्रतिशलाक पल्य खाली याय, वारे अनेरो एक सरसव महाशलाक नामें चोथा पल्यने विषे नाखीयें नेते प्रतिशलाक पल्यना सरसवनो जिहां प्रांत श्राव्यो बे ते द्वीप, समुद्र प्रमाण वली नव स्थित पालो कल्पीयें, ते वली पूर्वली रीतें जेटली वार जरीने खाली करीयें तेटला सरसव बीजा शलाका पल्यमाहे नाखीयें. एम करतां करतां शलाकापल्यने जरी ते जराया पढी ते शलाका पल्य उपाडी जिहां अनवस्थित पल्यना सरसवनो प्रांत जे द्वीप, समु श्राव्यो ढे तेथी आगला द्वीप, समुद्र उपरें एकेको सरसव मूकतां जे द्वीप, समुद्र उपरें सरसवनो प्रांत यावे शलाका पल्य खाली घाय, तेवारें एक सरसव प्रतिशलाकानामा त्रीजा पल्यने विषे नाखीयें. ए रीतें फरी पण पूर्वली पेरें पला नवस्थित पालायें करी बीजा शलाकापल्यने नरवे खाली करवे करी एकेक सरसवत्रीजा प्रतिशलाकाने विषे प्रक्षेप करतां थकां जेवारें प्रतिशलाक पक्ष्य पूर्ण राय, तेवारें ते उपाडीयें, ने जिहां शलाका पल्यना सरसवनो प्रांत जे द्वीप, For Private Personal Use Only Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६० षडशीतिनामा चतुर्थ कर्मग्रंथ. ४ समुज्ने विषेधाव्यो ने तेथी पागला एकेके छीप,समुज्ने विषे तेमांहेलो एकेको सरसव मूकतां जश्य.एम करतांजेवारे ते प्रतिशलाका पल्य खाली थाय तेवारें बीजो सरसव चोथा महाशलाक पक्ष्यने विषनाखीयें, एवीज रीतें फरी अनवस्थितें करी शलाका जरीयें, अने शलाकायें करी प्रतिशलाका जरी खाली करतां एकेक सरसव, महाशलाकामांहे प्रक्षेप करतां थकां महाशलाका नामे चोथु पत्य पण संपूर्ण शिखापर्यंत जरियें, वली पण श्रनवस्थितनी संख्यायें करी, शिलाका पूर्ण नरियें, तेम वली शलाकाने उलवी उलवीने एकेक प्रतिशलाका सरसवे करी प्रतिशलाका पक्ष्य पण पूर्ण जरियें, श्रने वली पण अनवस्थितनी संख्या करी शलाका पूर्ण नरियें. तेवार पनी वली जिहां जेनो बेहो सरसव मूक्यो, ते दीप श्रथवा समुन जेटलो लांबो, पहोलो, हजार योजन जंडो, साडाथा योजन ऊंचो, एवो अनव स्थित पालो पण सरसवें करी जरियें. एम जाकिरफुडाचउरो के० एम चारे पाला सरसवें करी फुडा एटले शिखापर्यंत संपूर्ण नराय. हवे बागल को पांचमो पालो नथी कल्प्यो के जे पालामांहे महाशिलाका गलववानी संख्या अर्थे दाणो मूकी, तेथी ते चोथो पालो जस्यो रह्यो तथा प्रतिशिलाकाने गलववानी संख्याने काजे दाणो मूकाय, ते पण महाशिलाकामध्ये समावतुं नथी तेथी ते पण नस्यो रह्यो, एम शिलाकासंख्यानो दाणो पण प्रतिशिलाकामांहे न समावे, तेथी ते पण नस्यो रह्यो तथा अनवस्थितनी संख्या सरसव पण शलाकामध्ये न समावे. तेथी ते पण नस्यो रह्यो । उए॥ पढमति पल्लुद्धरिआ, दीवुददी पल्ल चन सरिस वाय ॥ सबोवि एस रासी, रूवुणो परमसंखिऊं ॥ ७० ॥ थर्थ-हवे पढमतिपयुकरिया के पहेला त्रण पाले करी उमस्या जे दीवुदही के छीप, समु, तेना सरसव एटले धुरथी सरसव जे ही, समुळे मूक्या . तेना सरसवनी संख्या अने पहचजसरिसवाय के जे चार पाला नस्या रह्या डे. तेमाहेला सरसवनी संख्या एकठी कीजें. सवोविएसरासी के० सर्व ए राशि जे सरसवना समूह तेमांहेंथी रूवुणो के एक रूप काढी नाखीये. एटले एक सरसव उडी करीयें, तेवारें परमसं खिऊं के उत्कृष्ट संख्यातुं थाय,तेमांदेथी पण एकादिरूप हीन करतां श्रने त्रणथी मांडीने उपरांत मध्यम संख्यातुं थाय. अने बेनी संख्या ते जघन्य संख्यातो जाणवो. एम त्रए संख्याताना नेद कह्या. ॥ ७० ॥ Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षडशीतिनामा चतुर्थ कर्मग्रंथ.४ ५६१ ॥ हवे नव असंख्याताना नेद कहे जे ॥ रूव जुअंतु परित्ता, संखं लहु अस्सरासि अनासे ॥ जुत्तासंखिऊ लहु, आवलिया समय परिमाणं ॥ २ ॥ अर्थ-पूर्वोक्त उत्कृष्ट संख्याता मध्ये रूवजुअंतु के एक रूप नेलतां लहु के० जघन्य परित्ता के प्रत्येक ऽसंखं के० असंख्यातुं होय. अस्स के ए जघन्य प्रत्येक असंख्याताना जेटलां रूप दे, ते एक उलें मांमीये, नीचें तेनो श्रांक मांमीने तेटली वार तेटला गुणा करता जश्यें, एटले तेने रासिअप्नासे के राशि श्रन्यास कहीये. जेम असत्कल्पनायें प्रत्येक असंख्याताना रूप पांच कल्पीयें, ते उपरें पांच एकडा मांमीयें, तेनी हेवल पांच पांचडा माडीयें, गुणतां जश्य तिहा पांचने पांच साथे गुणतां पच्चीस थाय. ते वली पांच साथे गुणतां एकसो ने पच्चीश थाय, तेने वली चोथा पांचमा साथै गुणतां बसें ने पच्चीस थाय. तेने वली पांचमा पांचमा साथें गुणतां त्रण हजार एकसो ने पच्चीश थाय. ___ एम प्रत्येक असंख्याताना जेटलां रूप थाय, तेने वली तेटलीवार तेटला गुणा करतां जुत्तासंखिऊलहु के जघन्ययुक्त असंख्यातुं होय. एटले प्रत्येक संख्याताना जेटलां रूप , तेटला सरसवनो फरी राशि अभ्यास करीयें, अर्थात् तेटला सरसवने तेटलाज वखत तेटला सरसवें करी गुणीये, तेवारें चोथु जघन्ययुक्त असंख्यातुं थाय; तेणे यावलियासमयपरिमाणं के एक श्रावलिना समयनुं प्रमाण थाय. एटले एक श्रावलिकामा एटला असंख्याता समय होय. तेमांहेथी वली एक रूप हीन करीयें, तेवारें उत्कृष्ट प्रत्येक असंख्यातुं त्रीजु थाय, तथा जघन्य प्रत्येक असंख्याताथी मांडीने एक रूपें हीन उत्कृष्ट प्रत्येक असंख्याता लगे सर्व मध्यम प्रत्येक असंख्याता जाणवा. ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ १॥ बित्ति चन पंचम गुणणे, कम्मा सग संख पढम चन सत्त ॥ एंता ते रूवजुआ, मजारुवुण गुरुपवा ॥२॥ अर्थ-श्रहीं वि के असंख्याताना त्रण नेदनी अपेक्षायें बीजु अने नव नेदनी अपेदाये चोथु, एवं जघन्य युक्त असंख्यातुं तेनो राशि अभ्यास करतां, सगसंख के० असंख्याताना नव नेदनी अपेदायें सातमुं जघन्य असंख्यातासंख्यातुं होय. त्ति के असंख्याताना त्रण नेदनी अपेक्षायें त्रीजु जघन्य असंख्यातासंख्यातुं, तेनो वली राशि अभ्यास करतां पढम के पहेतुं अनंतुं होय, एटले नव अनंतानी अपेदायें प्रथम जघन्य प्रत्येकानंतुं थाय. चन Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६२ षडशीतिनामा चतुर्थ कर्मग्रंथ. ४ के मूलनेदनी अपेदायें चोथु प्रत्येकानंतुं , तेनो राशि अभ्यास करतां नव अनंता माहेढुंचन के चोथु जघन्ययुक्तानंतुं होय, पंचम के मूल नेदनी अपेदायें पांचमुं मध्यम युक्तानंतुं डे, तेने गुणणे के राशि अभ्यास करतां सत्तणंता के सातमु जघन्य अनंतानंतुं होय, ए रीतें प्रथम पद साथें बीजु पद कम्मा के अनुक्रमें जोमवु. ते के ते जघन्य युक्तासंख्याताने वली रूवजुश्रा के एकादि रूप नेलीयें, एटले एकादरूपें युक्त करीये तेवारें मद्या के मध्यमयुक्त असंख्यातुं होय, अने रूवुण के एक रूप हीन करीयें, तो तेवारे गुरुपछा के पागढुं प्रत्येकासंख्यातुं उत्कृष्टुं होय. तेम जघन्य असंख्याता असंख्यातामांहे पण एक रूप नेलीयें, तो मध्यम असंख्यातो असंख्यातो थाय, तथा एक रूप काढीये, तो उत्कृष्ट युक्तासंख्यातुं होय, एम जघन्य प्रत्येकानंतामांहेथी पण एक रूप काढे थके उत्कृष्ट असंख्याता असंख्यातुं होय, अने एक रूप नेलतां मध्यम प्रत्येकानंतुं होय. ए रीतें पागल पण सर्वत्र जाणवू. ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ २ ॥ श्य सुत्तुत्तं अन्ने, वग्गिअमिकसि चनबय मसंखं ॥ होइ असंखासंखं, सहु रूवजुअं तु तं मशं ॥७३॥ अर्थ- इयसुत्तुत्तं के ए रीते सूत्रोक्त एटले श्री अनुयोगद्वारादि सूत्रमध्ये नव असंख्यातानां तथा नव अनंतानां स्वरूप ए रीतें कह्यां जे. एटले सूत्रोक्त विधि कह्यो. हवे मतांतरें वली अन्ने के अन्य कोशएक आचार्य बीजी रीते पण एजें स्वरूप कहें बे, ते रीतें कहीयें बैयें. वग्गियमिकसिचननयमसंखं के जे चोथु जघन्य युक्त असंख्यातुं तेनो वर्ग करीए, वर्ग एटलें तजुणो करीये, जेम नवनो वर्ग एक्याशी थाय, तेम जघन्य युक्त असंख्यातुं ते जघन्ययुक्त असंख्याता साथें तमुणो करीयें, तेवारे होश्वसंखासंखंलहु के सातमुं जघन्य असंख्याता असंख्यातुं थाय, तेमांहे रूवजुअंतु के० एकादि रूप नेली, तेवारें तंमचं के मध्यम असंख्याता असंख्यातुं आठमुं थाय. ॥ ३ ॥ रूवृण माश्मं गुरु, तिवग्गि तबिमे दसकेवे ॥ लोगागासपएसा, धम्माधम्मेगजिअ देसा ॥ ४ ॥ अर्थ-रूणमाश्मगुरु के वली तेहीज सातमा जघन्य असंख्याता असंख्यातामाथी एक रूप काढीयें, तेवारें बहुं उत्कृष्ट युक्त असंख्यातुं थाय. तेमाहेथी वली एकादि रूप हीन करता यावत् एक रूपें अधिक ज्यांसुधी चोथु युक्तासंख्यातुं होय, Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षडशीतिनामा चतुर्थ कर्मग्रंथ.४ ५६३ तेने पांचमुं मध्यम युक्त असंख्यातुं कहीये. हवे ते सातमु जघन्य असंख्याता असंख्यातुं तेनो जे अंक तेने तिवग्गि के० त्रण वेला वर्ग करीयें, जेम बगडाने त्रण वेला वर्ग करे उते बसें ने बप्पन्न थाय. एटले बे । चार, ए प्रथम वर्ग, चार चोक शोल, ए बीजो वर्ग, अने शोल शोलां बे बप्पन्नां, ए त्रीजो वर्ग, ए रीतें सातमा असंख्यातानो त्रण वेला वर्ग करीयें, पनी तबिमेदसकेवे के तेमांहे श्मे एटले था दश असंख्यातानी राशि नेलीयें, तेनां नाम कहीयें बैयें. __ एक लोगागासपएसा के लोकाकाशना प्रदेश एटले अंगुल प्रमाण काशखंड मांडेथी समय समय एकेक प्रदेश अपहरीयें, तो पण असंख्याती उत्सपिणी काल व्यतिक्रमे थके, एक अंगुल प्रमाण आकाश खंग निलेप थाय, तेहवा सर्व लोकाकाशना प्रदेश लेवा, तथा धम्माधम्मगजिअदेसा के बीजा तेटलाज धर्मास्तिकायना प्रदेश, त्रीजा तेटलाज अधर्मास्तिकायना प्रदेश, चोथा तेटलाज एक जीवना प्रदेश, ए चार परस्पर तुल्य . तिहां प्रदेश एटले जे केवलीनी प्रज्ञारूप शस्त्रे करी बेदतां जे नागना बीजो नाग कल्पाये नहीं, तेने प्रदेश कहीये. अथवा जेटलुं क्षेत्र पुजल परमाणुयें रुंध्यु तेने प्रदेश कहीये. एम ए चार राशि असंख्यातानी सरखी जाणवी. ए चार ते पूर्वोक्तमांहे नेलीयें, तथा वली बीजी व राशि नेलीयें, ते आगली गाथायें कहे . ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ ४ ॥ विश्बंधश्सवसाया, अणुन्नागा जोग अ पडिनागा ॥ पुण्हय समाण समया, पत्तेअ निगोअए खिवसु ॥ ५ ॥ अर्थ- विश्बंधद्यवसाया केप तथा वली पांचमा कर्मनी स्थितिबंधनाअध्यवसायस्थानक पण असंख्याता बे. ते केम तो के; मोहनीय कर्मनो जघन्य स्थितिबंध, अंतर्मुहूर्त्तनो . ए डेखो संज्वलना लोजनी स्थितिबंधनी अपेक्षायें लेवो. ते अंतरमुहर्त्तने एक, बे, त्रण, ए रीतें समय वधारतां अधिक करतां यावत् सीत्तर कोमाकोमी सागरोपमनी उत्कृष्टी स्थिति पर्यंतना जेटला समय होय, तेटला मोहनीय कर्मना स्थितिस्थानक होय, तिहां एकेक स्थिति स्थानकें वली कषायनी तीवमंदतादिकृत नेदें एवा लोकाकाश प्रमाण असंख्याता अध्यवसाय स्थानक होय. अध्यवसाय एटले कषायोदयने तरतम नेदें जे जीवनो अशुभखनावविशेष, ते अध्यवसाय कहीये. ते असंख्याता होय, जे नणी मोहनीयनी स्थिति को जघन्य, कोश् तीव्र, अध्यवसायें बांधे, कोश तीव्रतर अध्यवसाय तथा मंद, मंदतर अध्यवसायें पण बांधे, तेथी एकेक स्थितिस्थानक दी असंख्यातां अध्यवसायस्थानक होय. ए पांचमी राशि पण तेमध्ये नेलीये. Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६४ षडशीतिनामा चतुर्थ कर्मग्रंथ. ४ तथा बहो कर्मनो श्रणुजागा के अनुनाग एटले रसविशेष, जेम शुज प्रकृतिनो मिष्ट, मिष्टतर अने मिष्टतम, तथा अशुनप्रकृतिनो कटुक, कटुकतर अने कटुकतम, इत्यादिक रसनां स्थानक असंख्याता लोकाकाश प्रदेशप्रमाण बे. तेना बंधना हेतु, असंख्याता अध्यवसाय स्थानक बे, ते पण नेलीये. सातमुं जोग के मन, वचन अने कायार्नु बल करणवीर्य, तेना अपडिनागा के बेद पमिनाग एटले केवलीनी प्रारूप शस्त्रे करी बेदतां जे वीर्यांशनो नाग न देवाय, ते वीर्याशनी वर्गणा स्पर्ककादिकनो विचार कर्मप्रकृतिथी जाणवो. ते वीर्यांश विनागर्नु जघन्य स्थानक निगोदीया अपर्याप्ता जीवने उत्पत्तिने प्रथम समय होय.बीजे समयें बीजं स्थानक होय. एमथसंख्याता वीर्यांश विशेष नणी असंख्याता वीर्य विनागस्थानक होय. ते पण नेलीये. श्रापमा पुण्हयसमाणसमया के उत्सर्पिणी, अवसर्पिणी, ए बेना समान समय बे एटले वीश कोमाकोडी सागरोपमर्नु कालचक्र, तेना जेटला समय थाय. अत्यंत सूक्ष्मजीर्ण वस्त्र, फांडतां जेटलामां एक तंतु त्रुटे तेटली वारमा असंख्याता समय व्यतिक्रमि जाय. एवो अथवा एक परमाणु एक आकाशप्रदेश थकी बीजा श्राकाशप्रदेशे जाय, एटलामां एक समय थाय. तेवा एक कालचक्रना जेटला समय थाय, ते पण नेलीयें. नवमा पत्तेत्र के प्रत्येक जीवना शरीर एटले एक अनंतकाय वर्जीने शेष पृथिवी, अप, तेज, वायु अने वनस्पति तथा त्रस जीव पण असंख्याता , ते पण साथे लेवा. ए नव असंख्याता थया. . दशभु निगोथए के० सूक्ष्म अने बादर निगोदनुं एक साधारणं शरीर तेवा निगोदीया जीवना, असंख्यातां शरीर बे. ते जे असंख्याते ते असंख्यातुं ले. ए दश बोल असंख्याताना ते पूर्वला राशिमांहे खिवसु के० नेलीयें, ते नेलतां जे संख्या थाय, ते संख्याने शुं करीयें ? ते कहे जे ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ ५ ॥ पुण तंमि तिवग्गिए, परित्तणंत लहु तस्स रासीणं ॥ - अग्नासे लहुजुत्ता, अणंतं अन्नव जिअमाणं ॥६॥ अर्थ-पुण के वली तंमि के० ते राशिने तिवग्गिए के त्रण वार वर्गीयें, तेवारें परित्तणंतलहु के जघन्य प्रत्येकानंतो होय. वली तस्सरासीणं अप्लासे के तेनी राशिनो श्रन्यास करीये तेवारें चोथो लहुजुत्ताअणंत के जघन्य युक्तानंतो होय, तेटले जघन्य युक्तानंतें अप्लव जिअमाणं के अनव्य जीवनुं मान होय. ए जघन्य युक्तानंतो चोथो बे. तेटला अनव्य जीव होय. ते मध्ये एक रूप हीन करीयें, तेवारें उत्कृष्ट प्रत्येकानंतो त्रीजो थाय. ॥ ६ ॥ Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षडशीतिनामा चतुर्थ कर्मग्रंथ.४ ५६५ तवग्गे पुण जायज्ञ, णंताणंत लढतंच तिकुत्तो॥ वग्गसु तदवि न तं हो, इणंत खेवे खिवसुबइमे ॥७॥ अर्थ-हवे तवग्गे के० ते चोथा अनंताना वर्ग करीयें, तेवारें पुण के वली पंताणंतलहु के सातमो जघन्य अनंतानंतो जाय के० थाय. वली तंचतिरकुत्तो के० ते जघन्य अनंतानंतने त्रण वेला वग्गसु के० वर्गीयें एटले ए राशिने एज राशि साथें गुणीयें, तेवारे जे राशि यावे, तेने वली तेज राशिसाथें गुणी. ते गुणतां जे राशि आवे, तेने वली तेहीज राशि साथें गुणीये. एम त्रण वेला वर्ग करीयें, तहवि के० तोपण नतंहो के उत्कृष्टुं अनंतानंतुं न थाय, तेवारें मंतखेवेखवसुबश्मे के तेमांहे श्राब अनंता नेलीयें, तेनां नाम श्रागली गाथायें कहेडे. इति समुच्चयार्थः ॥ ७॥ सिक्षा निगोअजीवा, वणस्सई काल पुग्गला चेव ॥ सब मलोग नदं पुण, तिवग्गिलं केवल गंमि ॥1॥ अर्थ-सिका के एक सिझना जीव, ते अजव्यथी अनंता ने तथा बीजा निगोअजीवा के सूक्ष्म अने बादरनिगोदना जीव, साधारण वनस्पतिना जीव, पण अनंत ने ते पण नेलीयें तथा त्रीजा वणस्सई के० प्रत्येक साधारणवनस्पतिना जीव पण अनंता बे, ते पण नेलीयें, अहींयां वनस्पतिमाहे पण निगोद नेली लश्य. चोथा काल के अतीतकाल अने अनागतकालना सर्व समय जे अनंते २ ते पण नेलीये. पांचमुं पुग्गलाचेव के सघला पुजलस्कंधना परमाणु एकेक जीवनी निश्रायें अनंतानंत परमाणु अनिष्ट बे, ते पण नेलीये. बहा सबमलोगनहं के सर्व लोकाकाश अने अलोकाकाशना प्रदेश जे अनंते , ते अनंतो पण ए मध्ये नेलीयें, ते सर्वनो एक राशि करीने पुण के वली तिवग्गिजं के तेनो पण त्रण वेला वर्ग करीयें, ते वर्ग करीने ते मध्ये केवलफुगं के केवलज्ञान अने केवलदर्शनना अनंता पर्याय बे, ते नेलीये, जे जणी सर्व ज्ञेयवस्तुना पर्याय अनंता बे ते विषय पण केवलज्ञाननो बे.॥ ७॥ खित्ते णंताणंतं, हवे जितु ववदर मतं ॥श्य सु-. हमन विआरो, लिहिउँ देविंद सूरीहिं ॥ नए॥ ॥इति षमशीतिकाख्य चतुर्थ कर्मग्रंथः समाप्तः॥ अर्थ-खित्तेणंताणतंहवेजिहंतु के ते देपवे थके नवमुं उत्कृष्ट अनंतानंतुं होय, परंतु ए उत्कृष्टे अनंते कोश् वस्तु लोकालोकमां नथी. माटें ववहरश्मयं के लोकालो Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६६. षडशीतिनामा चतुर्थ कर्मग्रंथ. ४ कमां जेटला पदार्थ बे, तेनो व्यवहार सर्व मध्यम आठमो अनंतानंतोज प्रवर्ते ले पण उत्कृष्टं अनंते को वस्तु नथी. अहीं मतांतरें उत्कृष्टानंतो कह्यो. श्यसुहमबविधारो के० ए सूमार्थ विचार एटले संतिने अगम्य जे जीवादिक पदार्थ तेनो विचार शब्दानिधेय श्रीपंचसंग्रहादिक जोश्ने अरविन्यास कस्यो. देविंदसूरीहिं के तपागाधिराज श्री देवेंअसूरिये लिहिउ के लख्यो. ए षडशीतिकानामें चोयो कर्मग्रंथ समाप्त थयो. ॥ जए॥ ॥श्रत प्रशस्तिः ॥ श्रीमच्चाउकुलांनोधिविधुः सूरीश्वरोऽनवत्॥ श्रीमदानंद विमलो, वैराग्यामृतपूरितः ॥१॥ तविष्यमुख्यसंख्यान, संख्याव्याप्तगुणोत्कराः॥श्रीसोमनिर्मलनामानः बनूवर्मनिविश्रुताः॥२॥श्रीहर्षसोमतचिष्य, प्रज्ञाविज्ञाननार्गवाः॥श्रीयशस्सोमनामानस्तहिनेयाविशारदाः ॥३॥ तत्पदांनोज गेण, लेखो दृदेखनो नृशं ॥ मुग्धानामवबोधार्थ टवार्थः षडशीतिकाख्ये ॥४॥ इति प्रशस्तिः॥ Isks of ote ote ofo she ote ote ote ote ote ote ote ote ote ote ote ote ote ote ote ote ote SAR Asdisolosedseofootcolosoooooooooooooose ॥ इति षडशीतिनामा चतुर्थः कर्मग्रंथः बालावबोधसहितः संपूर्णः॥ Remeseseeyeseenegeregenerosengerejoyeeneryenories 03 Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६७ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ ॥अथ ॥ ॥शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ प्रारज्यते ॥ ॥आर्यावृत्तम् ॥ ऐंड श्रीकरपीडन, विधिसिर्फ ध्वस्तकर्मशत नजरं ॥ कल्याणसिद्धिकरणं, जैन ज्योतिर्जयतु नित्यं ॥१॥ नवशतमथनं शतशो, नत्वा शतमखनतांदिशतपत्रम् ॥ श्रीवीर जिनं धी रं, लिखामि शतके टबार्थमहं ॥२॥ ध्रुवबंधोदय सत्ता, नाशकृते कर्मणांसकृन्नगवान् ॥ त्रिपदीमदीशयां, सा मम मतिमाद्यमपहरतु ॥३॥ नमिअजिणं धुवबंधो, दय सत्ता घाइ पुरम परिअत्ता॥ सेअर चजद विवागा, वुबं बंधविद सामी ॥१॥ अर्थ-नमिश्रजिणं के नमस्कार करीने जिन प्रत्ये धुवबंध के एक ध्रुवबंधिनी प्रकृति, उदय के बीजी ध्रुवोदयी प्रकृति, सत्ता के० त्रीजी ध्रुवसत्ता प्रकृति, घाइ के चोथी घातिनी प्रकृति, पुल के पांचमी पुण्यप्रकृति, परिश्रत्ता के बही परावर्तमान प्रकृति, सेवर के वली एना इत्तर बन्नेद खेवा; एवं बार बार थयां. चउहविवागा के चार नेदें विपाकिनी प्रकृति, वुद्धं के कहेशे तथा बंधविह के० चार बंधविधि. सामीथ के वली चार प्रकारें बंधना खामी कहेशे. एवं चोवीश छार थयां. च एटले वली ॥१॥ तिहां ग्रंथकर्ता श्रीदेवेंपसूरि लघुशतकनामा ग्रंथने आरंने प्रथम समुचितेष्ट देवता नमस्काररूप नाव मंगल निर्विघ्नपणे ग्रंथसमाप्तिने हेतुयें करे बे. नमिश्र के० नमस्कार करीने, कोण प्रत्ये नमस्कार करीने ते कहे . जिण एटले राग येषादिक अंतरंग वैरी जेणे जीत्या एवा जे श्रीजिन जगवंत तीर्थंकरप्रत्ये सर्व थकी अधिक गुणवंत जाणी तेने नमीने आटला छारें करी शतकनामा ग्रंथ कहेशे. हवे ते ग्रंथना अनिधेयनूत बबीश घारनां नाम कहे . त्यां प्रथम जे कर्मप्रकृति श्रापणा निजहेतु मल्यां अवश्य बंधाय पण तेहने स्थानकें बीजी प्रकृति न बंधाय, ते प्रथम ध्रुवबंधिनी प्रकृति जाणवी. अने बीजी जे कर्मप्रकृति आपणा बंधहेतु सामग्री हुँते बते पण केवारेंक बंधाय अने केवारेंक तेने स्थानके तेनी विरोधिनी बीजी प्रकृति बंधाय, ते अध्रुवबंधिनी प्रकृति जाणवी. त्रीजी जे प्रकृतिनो उदय विछेद कालपर्यंत निरंतर होय, पण तेनो उदय तेनो विद थया विना त्रुटे नहीं, ते त्रीजी ध्रुवोदय प्रकृति जाणवी. चोथी जे प्रकृतिनो उदय केवारेंक होय Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ឬច शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ वली केवारेंक न होय, वली होय, एम श्रांतरें उदय होय, ते चोथी अध्रुवोदयी प्रकृति जाणवी. पांचमी जे प्रकृतिनी सत्ता सर्व जीवने एटले मिथ्यात्वीने पण सर्वदा पामियें परंतु नवप्रत्ययादिक कारणीक न होय, ते पांचमी ध्रुवसत्ता प्रकृति जाणवी. तथा बही जे प्रकृतिनी सत्ता नवप्रत्ययें तथा गुणप्रत्ययेंज होय पण अन्यथा न होय, ते बही श्रध्रुवसत्ता प्रकृति जाणवी. सातमी जे प्रकृति आपणा ज्ञानादिक घातें करी आत्माना गुणने श्रावरे, ते सातमी घातिनी प्रकृति जाणवी. श्राठमी जे प्रकृतिना उदयथी श्रात्मानो कशो पण गुण अवराय नहीं, ते श्रामी श्रघातिनी प्रकृति जाणवी, नवमी जे प्रकृतिनो विशुद्ध परिणामें उत्कृष्ट मिगे रस बंधाय तथा जेने उदय जीव, अनुकूलपणे वेदे, ते नवमी पुण्यप्रकृति जाणवी, दशमी जे प्रकृतिनो संक्वेश परिणामे उत्कृष्ट कटुक रस बंधाय, ते दशमी पापप्रकृति जाणवी. अगीधारमी जे कर्मप्रकृति आपणी विरोधिनी प्रकृतिनो बंध तथा उदयने निवारीने, पोतानो बंध तथा उदय देखाडे, ते अगीआरमी परावर्त्तमान प्रकृति जाणवी. बारमी जे कर्मप्रकृतिनो बंध तथा उदय, अन्य प्रकृति साथें विरोधिनी नहीं तेना कारण बते पण होय, ते बारमी अपरावर्त्तमान अविरोधिनी प्रकृति जाणवी. एम ए एक ध्रुवबंधिनी, बीजी ध्रुवोदयी, त्रीजी ध्रुवसत्ता, चोथी घातिनी, पांचमी पुण्य, बही परावर्त्तमान, एथी इतर एटले उपरांठी एक अध्रुवबंधिनी, बीजी अध्रुवोदयी, त्रीजी अध्रुवसत्ता, चोथी अघातिनी, पांचमी पाप, बही अपरावर्त्तमान, एम बनेद साथे मेलवतां बार बार थयां. तथा चार विपाक एटले उदय कालना गम, तेनां नाम कहे बे. एक देत्रविपाकिनी, बीजी नवविपाकिनी, त्रीजी जीववीपाकीनी, चोथी पुजल विपाकिनी, एम जे जे कर्मप्रकृति, जे जे विपाकिनी होय, ते कहीशुं. एटले शोल घार कह्यां तथा चार बंधविधि, एटले बंधना प्रकार तेमा एक प्रकृतिबंध, बीजो स्थितिबंध, त्रीजो रसबंध, चोथो प्रदेशबंध, ए चार प्रकारना बंधने उत्कृष्ट तथा जघन्य नेदें करीने कहीशुं. एवं बीश छार थयां. तथा एक नूयस्कारबंध, बीजो अल्पतरबंध, त्रीजो अवस्थितबंध, चोथो श्रव्यक्तबंध, एनुं खरूप तथा प्रकृति बंधादिक जे उत्कृष्ट जघन्यपणे तेना स्वामी एटले अधिकारी ए चार वानां कहेशे. एम चोवीश हार, शतकनामा ग्रंथनां कह्यां. तथा गाथाने अंतें अकार ने ते चकारने अर्थे जे ते च शब्द थकी उपशमश्रेणी तथा बीजी दपकश्रेणी ए बे श्रेणीनु' स्वरूप कहेगुं. एम बबीश घारनां नाम शतक नामा कर्मग्रंथमां कहेवानां कह्यां. ॥१॥ Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ ५६ए ॥ तिहां प्रथम छारें सुडतालीश ध्रुवबंधिनी प्रकृति कहे जे ॥ वम चउ तेअ कम्मा, गुरु लहु निमिणो वघाय जय कुबा ॥ मिल कसाया वरणा, विग्धं धुवबंधि सगचत्ता ॥२॥ अर्थ-वलचल के वर्णचतुष्क, तेथ केए पांचमुं तैजस नाम, कम्मा के हुँ कार्मणनामकर्म, अगुरुलहु के सातमुं गुरुलघुनामकर्म, निमिणं के श्रापमुं निर्माणनामकर्म, उवघाय के नवमुं उपघातनामकर्म, जय के० दशमुं जयमोहनीय, कुछा के अगीयारमुं जुगुप्सामोहनीय, मिठ के बारमुं मिथ्यात्वमोहनीय, कसाया के शोल कषाय, एवं अहावीश थ. तथा वरणा के ज्ञानावरण पांच अने दर्शनावरण नव, ए चौद प्रकृति. एवं सर्व मली बेंतालीश प्रकृति थर तथा विग्धं के अंतराय पांच, एवं सगचत्ता के० ए सुमतालीश ध्रुवबंधिनी प्रकृति जाणवी. ॥२॥ वर्ण, गंध, रस अने स्पर्श, ए चार प्रकृतिनुं नाम वर्णचतुष्क कहीयें. एक तैजसशरीर, बीजुं कार्मणशरीर, त्रोजु श्रगुरुलघुनामकर्म, चोथु निर्माणनामकर्म, श्रने पांचमुं उपघातनामकर्म. ए पांच अने पूर्वोक्त वर्णचतुष्क, ए नव नामकर्मनी प्रकृति ध्रुवबंधिनी कहीये. जे लणी चार गतिना जीवने तैजस कार्मणशरीर होय, तथा वर्ण, गंध, रस अने स्पर्श, ते औदारिक अने वैक्रियशरीरना बंधे होय, तथा निर्माणनामकर्म पण अंगोपांग श्राश्रयी होय, वली अगुरुलघु तथा उपघात नामकर्म पण, शरीरबंधे होय, तेथी स्व स्व गति प्रायोग्य ए नामकर्मनी नव प्रकृति आपणा अविरति कषायादिक हेतु बते बंधाय. तेथी ए नव प्रकृतिने ध्रुवबंधिनी प्रकृति कहीये. जयमोहनीय श्रने जुगुप्सामोहनीय, एबे प्रकृतिनी बंधविरोधिनी प्रकृति नथी, तेथी ध्रुवबंधिनी कहीयें. तथा मिथ्यात्वमोहनीय पण निज हेतु मिथ्यात्वोदय सनावें अवश्य बंधाय . ते नणी एने पण ध्रुवबंधिनी प्रकृति कहीयें, एवं त्रण थ. तथा अनंतानुबंधिया कषायोदय हेतु सनावें अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया अने लोज, ए चार, अवश्य बंधाय. तेमज अप्रत्याख्यानोदयसनावें अप्रत्याख्यानीया चार बंधाय, अने प्रत्याख्यानोदयरूप निज हेतु बते चार प्रत्याख्यानीया बंधाय. संज्वलनकषायोदयरूप निज हेतु बतां संज्वलना चार कषाय बंधाय. एवं शोल कषाय बंधाय. ए सर्व मली उंगणीश प्रकृति मोहनीयनी थ. '. तथा ज्ञानावरणीयनी प्रकृति पांच अने दर्शनावरणीयनी प्रकृति नव, ए चौद श्रावरण पण सर्व जीवने पोतपोताना बंध विछेद स्थानक लगें अवश्य बंधाय, तेने Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ स्थानकें बीजी विरोधिनी प्रकृतिनो बंध न थाय. ते जणी ए पण ध्रुवबंधिनी प्रकृति जाणवी, एम अंतरायकर्मनी पांच प्रकृति पण दशमा गुणगणा लगें सर्व जीवने अवश्य बंधाय, तेथी एने पण ध्रुवबंधिनी प्रकृति कहीये. एवं ए सुमतालीश कर्मप्रकृति श्रापणा मिथ्यात्व, अविरति अने कषायादिक हेतुना सनावे सर्व जीवने श्रवश्य बंधाय. ते जणी एने ध्रुवबंधिनी कहीये. तेमध्ये ज्ञानावरणीयनी पांच, दर्शनावरणीयनी नव, मोहनीयनी उंगणीश, नामकर्मनी नव अने अंतराय कर्मनी पांच, एम सूल पाँच कर्मनी थश्ने उत्तर प्रकृति सुमतालीश थाय. ॥ अने वेदनीय तथा गोत्र, ए बे कर्मनी मूल प्रकृतिनी अपेक्षायें ध्रुवबंधिनी जाणवी. परंतु उत्तर प्रकृतिनी अपेदायें अध्रुवबंधिनी जाणवी. ॥ हवे अध्रुवबंधिनी प्रकृति कहे. ॥ ॥अथा ऽध्रुवबंधिन्यः॥ तणु बंगा गिअ संघय, ण जाइ गइ खगई पुछि जिणुसा- .. सं ॥ उजो आयव परघा, तसवीसा गोअ वेयणियं ॥३॥ अर्थ- तणुवंग के तनुत्रिक अने उपांगत्रिक, श्रागिय के० श्राकृति एटले संस्थान ब, संघयण के संघयण ब, जाई के जाति पांच, गश्के० गति चार, खगई के० विदायोगति बे, पुवि के आनुपुर्वीचतुष्क, जिणुसासं के जिननामकर्म अने उवासनामकर्म, उजोयायव के उद्योतनाम तथा आतपनाम, परघा के० पराघातनाम, तसवीसा के त्रस दशक अने स्थावर दशक, ए बे मलीने वीश प्रकृति जाणवी. गोश्र के गोत्रहिक, वेअणिश्र के वेदनीयछिक, एवं बाशठ प्रकृति थ. तनु एटले शरीरनामकर्म, ते मध्ये तैजस अने कार्मण, ए बे शरीर तो पूर्वे अध्रुवबंधी कह्यांडे, अने शेष औदारिक, वैक्रिय अने थाहारक, एत्रण शरीर तथा एज त्रण शरीरनां अंगोपांग, ते मध्ये मनुष्य तथा तिर्यंचने औदारिक होय अने देव तथा नारकी प्रायोग्य वैक्रिय होय, ते अध्रुवबंधिनी प्रकृति कहीयें, अने आकृति एटसे संस्थान संघयण ब बे, ते मध्ये एक समये एकज बंधाय. ते जणी एने पण अध्रुवबंधी कहीये. तथा संघयण प्रण मनुष्य, तिर्यंच प्रायोग्य बांधतां एक समयें एकज बंधाय अने देवता तथा नारकी प्रायोग्य बांधतां संघयणनो बंध न होय, माटें अध्रुवबंधिनी कहीये. तथा एकेंजिय, बेंजिय, तेंजिय, चौरिंजिय अने पंचेंजिय, ए पांच जातिमध्ये एकैछियादिक स्वस्व प्रायोग्य एक जातिज बंधाय, ते माटें श्रध्रुवबंधिज कहीयें. तथा चार गतिमध्ये पण एक समयें एकज देवादिकनी गति बंधाय, ते माटे ए पण Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५। अध्रुवबंधिनी प्रकृति कहीयें तथा शुजविहायोगति,अने अशुल विहायोगति, ए बे प्रकृति पण बंधविरोधिनी . तेथी शुजविहायोगति बंधाय, तेवारें अशुजविहायोगति न बंधाय, तेथी ध्रुवबंधिनी कहीये. तथा देवानुपूर्वी, मनुष्यानुपूर्वी, तिर्यंचानुपूर्वी अने नरकानुपूर्वी, ए चार प्रकृति पण बंधविरोधिनी , माटें अध्रुवबंधिनी कहीये. एवं ए तेत्रीश प्रकृति परावर्त्तमान जणी अध्रुवबंधिनी कहीये. जिननामकर्म सम्यक्त्व उतां पण कोश् एकने बंधाय, अने कोइएकने न बंधाय, ते जणीअध्रुवबंधिनी कहीयें, तथा उबासनामकर्म पण पर्याप्त प्रायोग्य बांधतां बंधाय. परंतु थपर्याप्त प्रायोग्य बांधतां न बंधाय, तेथी अध्रुवबंधिनी कहीयें, तथा उद्योतनामकर्म पण तिर्यंच प्रायोग्य बांधतां को एकने बंधाय अने बीजाने न बंधाय, तेथी अध्रुवबंधिनी कहीयें, तथा यातपनामकर्म पण पृथ्वीकाय एकेंजिय प्रायोग्य बांधतां कोएकने बंधाय श्रने कोइ एकने न बंधाय, तेथी अध्रुवबंधिनी कहीयें, तथा पराघातनामकर्म पण पर्याप्त प्रायोग्य बांधतां को एकने केवारेंक बंधाय अने को एकने अपर्याप्त प्रायोग्य बांधतां न बंधाय, तेथी अध्रुवबंधिनी कहीये; तथा त्रसदशक अने स्थावरदशक एटले त्रस, बादर, पर्याप्त अने प्रत्येकादिक, तेमज स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त अने साधारणादिक प्रायोग्य बांधतां बंधाय, परंतु तेथी विपरीत बांधतां न बंधाय, तेथी ए वीश प्रकृति पण अध्रुवबंधिनी कहीयें, तथा उच्चैर्गोत्र बांधतां नीचैर्गोत्र न बंधाय, श्रने नीचैगोत्र बांधतां उच्चैर्गोत्र न बंधाय, माटे ए बे प्रकृति, बंधविरोधिनी नणी एने अध्रुवबंधिनी कहीयें, तथा शाता, अशातावेदनीय पण परावर्त्तमान बंधाय पण बेहु साथै न बंधाय, तेथी ए बे प्रकृति पण अध्रुवबंधिनी कहीये. एवं उंगणत्रीश प्रकृति थ. तथा तेत्रीश आगलनी मेलवतां बाश प्रकृति थ ॥३॥ दासाइ जुअल उग वे, अ आज तेउत्तरी अधुवबंधो॥ नंगा अणा साई, अणतं संतुत्तरा चनरो॥४॥ अर्थ-हासाश्जुश्रल के हास्य अने रति तथा शोक अने अरति, ए युग के० बे युगल, वेथ के त्रण वेद, थान के चार आयु, तेउत्तरी के० ए तहोंत्तेर कर्मप्र. कृति, अधुवबंधो के अध्रुवबंधिनी जाणवी. एना नंगा के चार नांगा, अणासाईश्रणतं के अनादि अने सादि, ए बे पदने थनंत अने संतुत्तराचउरो के सांत, ए बे पद, प्रत्येके श्रागल जोमतां चार नांगा होय, एटले अनादि अनंत, अनादि सांत, सादि अनंत अने सादि सांत, ए बे जोमतां चार थाय. ॥ इत्यदरार्थः ॥४॥ Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकनामा पंचम कर्मग्रथं. ५ : हास्य अने रति, ए युगल बांधतां शोक अने अरति, ए युगल न बंधाय, अने शोक अने भरति बांधतां, हास्य अने रति न बंधाय. तेथी ए चार प्रकृतिनो बंध सांतरपणे बंधाय. तेथी ए अध्रुवबंधिनी बहा गुणगणा लगे जाणवी, अने तेथी भागले निरंतरपणे बंधाय माटें पड़ी ध्रुवबंधी कहेवाय. एमज अशातावेदनीय पण जाणी लेवी, तथा एमज नीचैर्गोत्र पण वीजा गुणगणा लगें अध्रुवबंधी ने पड़ी ध्रुवबंधी जाणवो. स्त्रीवेद, पुरुषवेद अने नपुंसकवेद, ए त्रण प्रकृतिमध्ये पण एक समय एकज बंधाय. तेमां नपुंसकवेद मिथ्यात्व लगें आने स्त्रीवेद सास्वादन लगें बंधाय, तेथी बागल निरंतर पुरुषवेद बंधाय; तथा एक देवायु, बीजुं नरकायु, त्रीगँ तिर्यंचायु, अने चोथु मनुष्यायु, ए चार आयुमांहेलो एक नवमां एकजवार एक गतिनुं श्रायु बंधाय; माटें श्रध्रुवबंधिनी जाणवी. ए रीतें ए तहोंत्तेर प्रकृति अध्रुवबंधिनी कहीये. केम के केवारेक बंधाय, केवारेंक न बंधाय, केवारेंक तेने स्थानकें विरोधिनी बीजी प्रकृति बंधाय, तेथी एनो बंध, निश्चल न होय तेथी एने अध्रुवबंधिनी कहीये. . अहींयां ध्रुवाध्रुवने विषे चार नांगा अवतारियें, अनादि ने सादि, ए वे पद आगल प्रत्येकें अनंत ने सांत, ए बे पद जोमिये, तेवारें एक अनादि अनंत, बीजो अनादि सांत, त्रीजो सादि अनंत अने चोथो सादि सांत, ए चार नंग थाय. जे कर्मप्रकृतिनी प्रवाहरूपें बंधनी आदि न पामीये. एटले (१) जे ए आठ कर्मनी प्रकृति पूर्वे न हती अने अमुक दिवसथी नवी थक्ष, एम को वारें पण न कहेवाय, ते अनादि. (२) अने जे प्रकृतिनुं अनुबंधकपणुं थया पली वली पहेलां बांधी, ते सादि. (३) जे प्रकृतिनो बंधविछेद न होय, त्यां लगें अनंत. (४) तथा जेवारें बंधनो अंत करे, तेवारें सांत. ए जेम बंधमां नांगा कह्या, तेम उदय अने उदीरपायें पण सादि, अनादि, सांत अने अनंत, ए चार नांगा जाणवा. ॥४॥ पढम बिआ धुव उदश्सु, धुवबंधिसु तश्अ व नंगतिगं॥ मिम्मि तिन्नि नंगा, उदावि अधुवा तुरिअनंगा ॥५॥ अर्थ-पढम के पहेलो अने बिश्रा के बीजो, ए बे लांगा, धुवनदश्सु के० ध्रुवोदयी प्रकृतिने विष होय, अने धुववंधिसुतश्शवानंगतिगं के ध्रुवबंधी प्रकृ. तिने विषेत्रीजो नांगो वर्जीने शेष त्रण नांगा होय तथा मिडम्मितिन्निनंगा के मिथ्यात्वमोहनीयने विषेत्रण नांगा लाने. वली उहाविअधुवा के बे प्रकारनी Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ ५७३ श्रध्रुवबंधी प्रकृति एटले एक अध्रुवबंधिनी, बीजी अध्रुवोदयी, ए बेने विषे तुरिश्रनंगा के एक सादि सांत नामें चोथो नांगो होय. ॥५॥ तेमांहे पहेलो अनादि अनंत तथा बीजो अनादि सांत, ए बे नांगा एक मिथ्यात्वमोहनीय विना शेष बबीश ध्रुवोदयी प्रकृति आश्री लाने. जे लणी अजव्यने निर्माणादिक बबीस प्रकृतिना उदयनी आदि न पामीयें; तेम श्रागला गुणगणाने अनावें उदय विछेद पण न पामीयें, तेथी अनंत एटले अनादिश्रनंत नांगो जाणवो, तथा नव्यनी अपेक्षायें ए बबीशनी आदि नथी पण बारमे, तेरमे अने चौदमे गुणगणे उदयनो अंत थशे, तेथी सांत माटे अनादि सांत, ए बीजो नांगो पामीयें. तथा ध्रुवबंधिनी वर्णचतुष्कादिक सुमतालीश प्रकृतिना बंधनी अपेक्षायेंत्रण नांगा होय, ते श्रावी रीतें जे अजव्य जीव अनादिकालनो ए ध्रुवबंधिनी प्रकृति सर्वदा बांधे बे, तेथी अनादि तथा आगलां गुणगणाने अनावें बंधव्यवछेद पण पामशे नहीं, तेथी अनंत. ए अनादिअनंत नामा प्रथम नांगो अजव्य आश्रयी कह्यो; तथा जव्य जीव जे अनादि मिथ्यात्वी, तेने अनादिसांत नांगो जाणवो. अने जे जव्य जीव अगीश्रारमे गुणगणे ए प्रकृतिनो अबंधक थश्ने वली तिहाँ थकी पमतो बंध पारंने, तिहां सादि, ते वली अवश्य प्रबंधक थशे, तेथी सांत, ए चोथो सादिसांत नामा नांगो कह्यो. ए रीतें त्रण नंग कह्या.. . हवे मिथ्यात्वमोहनीयनो बंध तथा उदय त्रण नांगे लाने, तिहां अजव्यने मिथ्यात्वनो बंध तथा उदय अनादिअनंत नांगो तथा अनादि मिथ्यात्वी जव्य जीवने अनादिसांत नांगो जाणवो. केम के ते सम्यक्त्व पामशे तेवारें मिथ्यात्वनो अंत थशे, तथा जे सम्यक्त्व वमीने मिथ्यात्वे जाय ते सादि मिथ्यात्वी तेनी अपेक्षायें ए चोथो सादिसांत जंग जाणवो. अने त्रीजो श्रादिश्रध्रुव नांगो शून्य जाणवो. जे जणी सादि तो जव्यनेज होय अने ते तो अवश्यमेव मुक्तियें जाय. तेवारें तिहां बंध तथा उदयनो अंत करे, तेथी सादि श्रध्रुव नांगो खोटो जाणवो. अहींयां ध्रुवबंधिनी तथा ध्रुवोदयी प्रकृतिमध्ये मिथ्यात्वमोहनीय कयुं बे, पण अहींयां ते बेहुथी जूई एटला वास्ते कयु डे के, जो पण ध्रुवबंधिनी अपेक्षायें त्रण नांगा कह्या, ते बंधे थावे पण उदयें त्रण जांगा न आवे, अने मिथ्यात्वमोहनीयना तो उदयना पण त्रण मांगा डे ते विशेष जाणवाने अर्थे जिन्न कडं. ___ तथा जे प्रकृति बंधे अने उदय पण अध्रुव ते अध्रुवपणा जणीज एक चोथे सादिसांत नांगे कहेवाय परंतु एने विषे शेष त्रण जांगा न होय. ॥५॥ Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ . ॥ अथ ध्रुवोदयिन्यः निरूप्यते ॥ हवे सत्तावीश ध्रुवोदयी प्रकृति कहे ॥ निमिण थिर अधिर अगुरुअ, सुद असुहं तेज कम्म चनवन्ना ॥ नाणंतराय दंसण, मिळं धुव उदय सगवीसा ॥६॥ अर्थ-निमिण के निर्माणनामकर्म, थिर के स्थिरनामकर्म, अथिर के अस्थिरनामकर्म, गुरुथ के० अगुरुलघुनामकर्म, सुहशसुहं के शुजनामकर्म अने अशुननामकर्म, तेश्र के तैजसनामकर्म, कम्म के कार्मणनामकर्म, चवन्ना के वर्णादिक चार, नाणंतराय के ज्ञानावरणीय पांच, तथा अंतराय पांच, दंसण के० दर्शनावरणीय चार, मिठं के मिथ्यात्वमोहनीय, धुवउदयसगवीसा के० ए सत्तावीश कर्मप्रकृतिने ध्रुवोदयी कहीयें ॥६॥ एक निर्माण, बीजं स्थिर, त्रीजुं अस्थिर, चोथु अगुरुलघु, पांचमुंशुल, बहुश्रशुज, सातमुं तैजस, आग्मुं कार्मण तथा चार वर्ण, एवं बार नामकर्मनी ध्रुवोदयी प्रकृति. एनो उदय, चारे गतिना जीवने सर्वदा होय. एना उदयनो व्यवछेद काल, तेरमा गुणगणाना प्रांतें . परंतु तिहां लगें तो सर्व जीवने विषे ए बार प्रकृतिनो उदय पामिये, ते जणी ध्रुवोदयी कहीये. ए मांहे थिर, अथिर, तथा शुज अने अशुन, ए चार प्रकृति विरोधिनी कही बे. पण ते बंधनी अपेक्षायें विरोधिनी लेवी, परंतु एनो उदय विरोधी नथी, जे नणी लोही, लाल, मूत्रादिक पुजलनो अस्थिर बंध अस्थिर कर्मोदयथी होय, तथा हाड, दांतादिकनो स्थिर बंध स्थिरकर्मना उदयथी स्थिर होय. एम चारे प्रकृति उदय अविरोधिनी , तेमज शुजनामोदयें मस्तकादिक शुन अंग होय, अने अशुज नामोदयें पादादिक अंग अशुन होय, ए रीतें उदय अविरोधी बे, ते मात्रै ध्रुवोदयी कही. एवं बार प्रकृति थ. पांच ज्ञानावरणनो उदय पण बारमा गुणगणा सुधी निरंतर सर्व जीवने होय. तेमज दानादिक पांच अंतरायनी प्रकृति तथा चक्कुरादिक चार, दर्शनावरणीयकर्मनी प्रकृति, एनो उदय पण बारमा गुणहाणा लगें होय, तेथी ए चौद प्रकृति पण ध्रुवोदयी कही, तथा मिथ्यात्वमोहनीयनो उदयविछेद प्रथम गुणगणे , ते नणी प्रथम गुणगणे वर्त्तता जीवने मिथ्यात्वमोहनीयनो उदय ध्रुव कहीयें, अने जो पण सास्वादनादिक गुणगणे मिथ्यात्व मोहनीयनो उदय न लाने, तो पण ते अध्रव न जाणवो. जे जणी ध्रवोदयीनुं एज लक्षण जे जे आपणा उदय व्यवछेद स्थानक लगें निरंतर जेनो उदय लाने,ते ध्रुवोदयी कहेवाय.एम सत्तावीश प्रकृतिकही॥६॥ Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. य થાય ॥ हवे एनी विपरीत अध्रुवोदयी प्रकृति कहे.॥ थिर सुन्न अर विणु अधुव, बंधी मिड विणु मोह धुवबंधी॥ निदोव घाय मीसं, सम्म पण नवश् अधुवुदया॥ ७॥ अर्थ-थिर के स्थिरनामकर्म, सुन के शुजनामकर्म, इअर के० एथी इतर ते अस्थिरनामकर्म अने अशुजनामकर्म, विणु के० ए चार प्रकृतिविना शेष शरीर त्रण, उपांग त्रण, संस्थानबक, संघयणबक, जाति पांच, गति चार. एवं सत्तावीश तथा खगतिहिक, श्रानुपूर्वीचतुष्क. एवं तेत्रीश प्रकृति तथा जिननाम, उवास, उद्योत, आतप, पराघात, त्रसचतुष्क, शुनगचतुष्क, एवं बैंतालीश. स्थावरचतुष्क, दौर्जाग्यचतुष्क, गोत्रधिक, वेदनीयछिक, हास्य श्रने रति तथा शोक अने अरति, त्रण वेद श्रने आयुश्चतुष्क. ए उंगणोतेर प्रकृति बंधविरोधिनी जणी अधुवबंधि के अध्रुवबंधिनी कहीये. एने जेम अध्रुवबंधीनी कही, तेम उदयविरोधिनी जणी कोश्क श्रध्रुवोदयी पण जाणवी, केम के जिननामथी पराघातपर्यं तिनी पांच प्रकृति ने तेनो उदय कोइएक जीवने होय ते जणी अध्रुवोदयी कहीये. जो पण ए थविरोधिनी ने तो पण ए वात विचारीने अविरोधिनी न कवी. तथा शोल कषाय, सत्तरमुंजय, अढारमी जुगुप्ता, ए श्रढार मोहनीयनीप्रकृति , ते ध्रुवबंधिनी प्रकृतिमध्ये गणवी, केमके ए मध्ये क्रोधादिकने उदयें मानादिकनो उदय न होय, तेथी ए उदय विरोधी ने पण बंधविरोधी नथी, तेणे करी बंधमां तो ध्रुवबं. धिनी कही पण उदयमा अध्रुवोदयी कहीये. तथालय अने जुगुप्सानो उदय सांतर बे, केमके कोने को वारें होय, कोश्ने को वारें न होय ते जणी ए पण अध्रु. वोदयी कही. तथा मिविणुमोहधुवबंधी के० मिथ्यात्व ध्रुवबंधी उतुं पण ध्रुवोद. यीमध्ये गएयु, तेथी ते वज्यु. शेष अढार प्रकृति, अध्रुवोदयी जाणवी. एम सत्याशी प्रकृति श्रध्रुवोदयी जाणवी. निहोवधायमीशं के० तथा दर्शनावरणीय कर्ममध्ये पाँच निसानो उदय, केवारेंक होय अने केवारेंक न होय. तथा ए पांच निजा पण परस्परें उदयविरोधिनी बे. ते जणी एने पण अध्रवोदयी कहीयें, तथा उपघातनामनो पण कोइएक जीवने कोइएक वारें उदय होय तेथी अध्रुवोदयी कहीयें, तथा मिश्रमोहनीयन उदय पण विरोधी . जे जणी मिथ्यात्व तथा सम्यक्त्वमोहनीयने उदयें एनो उदय न होय, तेम वली सम्म के० सम्यक्त्वमोहनीयनो उदय पण वेदक सम्यक्दृष्टिने होय, ते नणी अध्रुवबंधिनी कहीये. एम ए जघन्य तो अंतर मुहर्त अने उत्कृष्टथी तो बाश सागरोपम उपर त्रण पूर्वकोडी अधिक लगें होय पण तेथी Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '५७६ शतकनामा पंचम कर्मग्रथं. ५ वधारे न होय, ते जणी श्रध्रुवोदयी जाणवी. तथा जो पण सम्यक्त्वनी पेरें सादि सांत नांगे मिथ्यात्व पण बे, तो पण ते अध्रुवोदय। न जाणवू. जे जणी मिथ्यात्वो. दय नूमि प्रथम गुणगणुं ने तिहां तो अवश्य मिथ्यात्वनोज उदय होय ते जणी ए ध्रुवोदयी होय. जो तेनी पोतानी नूमिमध्ये पण केवारेंक एनो उदय न होय, तो अध्रुवोदयी कहेवाय. पणनवश्यधुवुदया के ए पंञ्चाणु प्रकृति, अध्रुवोदयी कही ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ ७॥ ॥अथ ध्रुवसत्ताप्रकृतिराह ॥ हवे ध्रुवसत्ता प्रकृति कहे बे.॥ तस वम वीस सगते, अ कम्म धुव बंधि सेस वेय तिगं ॥ आगि तिग वेअणिअं, 5 जुअल सग उरल सास चक ॥७॥ अर्थ-तस के त्रसदशक तथा थावरदशक, एवं वीश प्रकृति तथा वनवीस के वर्णादिक वीश प्रकृतिनी सत्ता सर्व शरीरधारीने होय, ते नणी वर्णादिक वीश प्रकृति पण ध्रुवसत्ता कही, तथा सगतेथकम्म के तैजस सप्तकमध्ये तैजसशरीरनाम, कार्मणशरीरनाम, तैजससंघातन, कार्मणसंघातन, तैजसतैजसबंधन, कार्मणकार्मणबंधन, तैजसकार्मणबंधन, ए सात प्रकृतिनी सत्ता, सर्व जीवने होय, केम के तैजस अने कार्मणशरीर पण सर्व जीवने होय, ते माटें तेनी ध्रुवसत्ता जाणवी, अने धुवबंधिसेस के ए वर्णचतुष्क, तैजस तथा कार्मण, ए 3 प्रकृतिने मूकी शेष ध्रुवबंधिनी एकतालीश प्रकृति रही तेनां नाम कहे . शोल कषाय, १७ जय, १७ जुगुग्सा, ए मिथ्यात्व, पांच ज्ञानावरणीय, नव दर्शनावरणीय, पांच अंतराय, एवं मत्रीश. ३ए निर्माण, ४० उपघात, ४१ अगुरुलघु, ए एकतालीश प्रकृति पण ध्रुवबंधीनी नणी ध्रुवसत्तापणे होय, एनो बंध, सर्वदा होय तो सत्ता केम न होय ? एवं अहाशी प्रकृति ध्रुवसत्तायें कही. वेयतिगं के वेद त्रणनो बंध तथा उदय जो पण अध्रुव कह्यो बे, तो पण एनी सत्ता ध्रुव कही बे, जे जणी एकेक वेदमध्ये पण त्रण वेदना संक्रांतदल पामीयें, ते नणी ध्रुवसत्ता कहीये. एवं एकाएं प्रकृति थ. श्रागितिग के श्राकृतित्रिक, एटले संस्थानथी त्रिक लेवं. तिहां "तणुवंगागि” ए गाथानी मेले प्रथम बसंस्थान, उ संघयण अने जाति पांच. ए सत्तर प्रकृतिनी सत्ता पण पूर्वली पेरें ध्रुव जाणवी. एटले एकसो ने श्राप थ. अने वेयणियं के वेदनीयछिकनी सत्ता पण परस्पर संक्रांतदलीकनी 'अपेदायें ध्रुवसत्तायें जाणवी. एवं एकसो दश प्रकृति थ तथा पुजुअल के बे युगल एटले हास्य अने रति तथा शोक अने अरति, ए चार प्रकृतिनी सत्ता पण दपक श्रेणीय नवमा गुणस्थानकलगें सर्व Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ ज जीवने होय, तथा सगजरल के० श्रदारिकसप्तक एटले औदा रिकशरीर, ओदारिक - गोपांग, दारिकसंघातन, औदारिक चौदा रिकबंधन, औदारिकतैजसबंधन, औदारिकतैजसकार्मणबंधन ने श्रदारिककार्मणबंधन, ए सात प्रकृतिनी सत्ता पण सर्वदा पामियें, जे जणी मनुष्य, तिर्यंचने ए उदयें होय बे तथा देवता ने नारकीने बंधे होय, ते माटे चारे गतिमांहे एनी सत्ता, ध्रुव होय. तथा सासचऊ के० एक उश्वास, बीजुं उद्योत, त्रीजुं तप, चोथुं पराघात, ए उश्वासचतुष्कनी सत्ता, सर्वदा होय, ते जणी एने पण ध्रुवसत्ताकहीयें, एवं एकसो ने पञ्चीश प्रकृति थइ ॥ इति समुच्चयार्थः ॥८॥ खगइ तिरि डुगनी, धुवसत्ता ( ॥ थाधुवसत्ता निरूप्यते ॥ ) सम्म मीस मणु डुगं || विधिकार जिणार्ज, दारस गुच्चा धुवसत्ता ॥ ए ॥ - खग के शुभ विहायोगति ने अशुभ विहायोगति. ए बेहु प्रकृतिनी सत्ता, जीवने सर्वदा होय, तेथी ध्रुवसत्ता जाणवी. तिरिडुंग के० तिर्यंचनी गति अने तिर्यंचानुपूर्वी, ए बेहु नाम कर्मनी प्रकृतिनी सत्ता पण सर्व जीवने सर्वदा होय, जे जणी जीवने घणी स्थिति तिर्यंचगतिमध्यें होय बे तथा बीजी गतिमध्ये पण एनो बंध होय, ते जणी एनी ध्रुवसत्ता जाणवी. नियं के० निचैर्गोत्रनी ध्रुवसत्ता, तिर्यंचगतिमध्यें नियमा नीचैर्गोत्रनो उदय होय, तेथी ए एकसो ने त्रीश प्रकृतिनी सत्ता, मिथ्यात्वगुणस्थानकें वर्त्तता सर्व जीवने होय, जो पण अनंतानुबंधयानी सत्ताभूमि, सातमा गुणगा लगें बे, अने तेमध्यें पण विसंयोजना कीधे सत्ता ढले तो पण मिथ्यात्वें ध्रुवसत्ता जाणवी. ध्रुवसत्ता के० सत्ता एटले ध्रुवसत्ता प्रकृति एकसो ने त्रीश कही, शेष अहावीश प्रकृति रही, ते एथी विपरीत ध्रुवसत्तायें बे, ते कहे बे. जे प्रकृति उवेल्ये थके तथा बंधें मिथ्यात्व गुणठाणें पण कोई एक जीवने केवारें एक सत्तायें न लाने अने कोइ एकने लाने, एम जजनायें सत्ता होय, तेने अध्रुवसत्ता कहीयें. ते कहे बे. सम्म के० एक सम्यक्त्वमोहनीय, बीजी मीस के० मिश्रमोहनीय, ए बे प्रकृतिनी सत्ता, अनादि मिथ्यात्वी जीवने होय, तथा मिथ्यात्वगुणठाणे सम्यक्त्व वमी श्राव्य होय तेने मिथ्यात्वप्रत्ययें ए वे पुंज उवेली बबीश प्रकृति सत्कर्मा होय, तेने न होय, बीजा जीवने होय, तेथी अध्रुवसत्ता प्रकृति कहीयें. तथा मागं के मनुष्यगति ने मनुष्यानुपूर्वी, ए वे प्रकृति ते ते काय अने वानकायमध्ये जे घणो काल रहे, तो ते उवेले तेने सत्तायें न होय, बीजाने होय. एम ए प्रकृति पण अध्रुवसत्तावाली कहीयें. ७३ For Private Personal Use Only Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ឬ១ច शतत्तनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ तथा विउविकार के एक वैक्रियशरीर, बीजं वैक्रियअंगोपांग, त्रीजुं वैक्रियसंघातन, चोथु वैक्रियबंधन, पांच, वैक्रियतैजसबंधन, बई वैक्रियकार्मणबंधन, सातमुं वैक्रियतैजसकार्मणबंधन, आठमी देवगति, नवमी देवानुपूर्वी, दशमी नरकगति, अगीश्रारमी नरकानुपूर्वी, ए अगीआर प्रकृतिनी सत्ता, अनादि निगोदिया जीवने न होय, बंधने बनावें न होय, तथा उवेले पण टले, तेथी ए अगीर प्रकृतिनी अध्रुवसत्ता जाणवी. - जिणा के जिननामकर्मनी सत्ता, जे सम्यक्त्वप्रत्ययें जिननामकर्म बांधी वली मिथ्यात्व पामे, तेने अंतरमुहर्त लगें होय, बीजाने न होय, तेथी श्रध्रुवसत्ता कही. एमज मनुष्यायु, देवायु, तिर्यंचायु अने नरकायु, ए चारमध्ये कोश् जीवने एकनी सत्ता, कोश् जीवने बेनी सत्ता, एम ए पण अध्रुवसत्ता कही. थाहारसगुच्चाअधुवसत्ता के एक आहारकशरीर, बीजु श्राहारकअंगोपांग, त्रीजुं आहारकसंघातन, चोथु आहारकबंधन, पांचमुं आहारकतैजसबंधन, बहुं आहारककामणबंधन, सातमु आहारककार्मणतैजसबंधन, ए श्राहारकसप्तक, एनी सत्ता जे अप्रमत्तगुणस्थानकें विशुद्ध चारित्रप्रत्ययें श्राहारकशरीर बांधी पड़ी संक्वेश विशेषे मिथ्यात्वे जाय, तेने सत्तायें होय, परंतु बीजाने न होय माटें अधूवसत्ता कहीये. उच्चैर्गोत्रनी सत्ता पण अध्रुव, जे जणी तेन आने वाउमध्ये रहेतो जीव, उचैर्गोत्र उवेले, तेने उचैर्गोत्रनी सत्ता टले बीजाने होय. एम जे प्रकृति मिथ्यात्व गुणगणे वर्त्तता पण कोइ जीवने होय, कोइ जीवने न होय, ते अध्रुवसत्तानी प्रकृति कहीये. ए अहावीश प्रकृति कही, एटले सम्यक्त्व, मिश्र, मनुष्यहि क, वैक्रिय एकादशक, जिननाम, चार श्रायु, आहारकसप्तक अने उचैर्गोत्र, एवं अहावीश थ॥ए॥ ॥हवे गुणगणानी अपेक्षायें प्रकृतिनी सत्तानुं ध्रुवाध्रुवपणुं विचारे .॥ पढम तिगुणेसु मित्रं, निमा अजयाइ अह गे नऊं ॥ . सासाणे खलु सम्म, सत्तं मिबार दसगेवा ॥ १० ॥ अर्थ-पढमतिगुणेसु के० मिथ्यात्व, सास्वादन अने मिश्र, ए प्रथमनां त्रण गुणगणाने विषे मिनिअमा के मिथ्यात्वमोहनीयनी सत्ता निश्चयपणे एटले ध्रुवपणे होय. जे नणी मिथ्यात्वमोहनीयना उदय विना प्रथम गुणगणुं नज होय. तो ज्यां उदय होय, त्यां सत्ता तो ध्रुव होय, अने मिश्रगुणगणे पण मोहनीयना चोवीश, सत्तावीश अने अहावीश, ए त्रण सत्तास्थानक होय, त्यां पण मिथ्यात्वनी सत्ता सघले स्थानकें होय तेणे ध्रुवसत्ता होय. Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ जए शेष अजयाश्यगेनऊ के अजय एटले अविरति सम्यकदृष्टि गुणगणाथी मामीने अगीथारमा उपशांतमोहगुणगणासुधीना आठ गुणगणे नजनायें होय. जे जणी झायोपशमिक सम्यकूदृष्टिने मिथ्यात्वमोहनीय उवेले थके मोहनीयनी त्रेवीश तथा बावीश प्रकृतिनी सत्तायें वर्तताने मिथ्यात्वनी सत्ता न होय, तथा दायिकने पण न होय, अने जेणे मिथ्यात्व उपशमाव्यु होय तेने सत्ता होय, तेथी ए आठ गुणगणे मिथ्यात्वमोहनीयनी अध्रुवसत्ता होय. तथा सासाणेखबुसम्म के सास्वादन गुणपणे वर्ततो नियमा मोहनीय एकज शहावीश प्रकृतिनुं सत्तास्थानक होय, परंतु मोहनीयना बे, त्रण सत्तास्थानक न होय. जे नणी उपशमसम्यक्त्वें करी त्रिपुंज करी त्यांथी पडतो सास्वादनगुणगणे आवे, त्या सर्व मोहनीय प्रकृतिनी सत्ता होय, तेथी सम्यक्त्वमोहनीयनी साखादने ध्रुव सत्तं के सत्ता जाणवी. अने मिबाश्दसगेवा के शेष मिथ्यात्व, मिश्र, अविरति, देशविरति, प्रमत्त, अप्रमत्त, निवृत्ति, अनिवृती, सूक्ष्मसंपराय अने उपशांतमोह, ए दश गुणगणे सम्यक्त्वमोहनीयनी सत्तानी नजना जाणवी, जे जणी सम्यक्त्व पामी पळी मिथ्यावें श्राव्यु होय ते ज्यांसुधी सम्यक्त्वपुंज उवेले नहीं, त्यां लगें सम्यक्त्वमोहनीयनी सत्ता होय, अने सम्यक्त्वपुंज उवेल्या पली तथा अनादि मिथ्यादृष्टि जीवने सम्यक्त्वमोहनीयनी सत्ता न होय, तेमज त्रीजे मिश्रगुणगणे पण जो सम्यक्त्वपुंज उवेली आव्यो होय तेने सम्यक्त्वमोहनीयनी सत्ता न होय, बीजाने होय, तथा अविरत्यादिक श्राप गुणगणे दायिक सम्यकदृष्टिने सम्यक्त्वमोहनीय खपावी तेथी तेने सम्यक्त्वमोहनीयनी सत्ता न होय, तथा दायोपशमिक श्रने औपशमिक सम्यक्ट, ष्टिने ध्रुवसत्ता होय. एम पाठ गुणगणे सम्यक्त्वमोहनीयनी श्रध्रुवसत्ता कही ॥ शति समुच्चयार्थः ॥ १०॥ सासण मीसेसु धुवं, मीसं मिलाइ नवसु जयणाए॥ आइ उग अण नियमा, नश्ा मीसाइ नव गम्मि ॥ ११ ॥ अर्थ-सासणमीसेसु के सास्वादन अने मिश्र, ए वे गुणगणे मीसं के मिश्रमोहनीयनी सत्ता, धुवं के ध्रुव जाणवी. केम के सास्वादने सर्व अहावीशे मोहप्रकृतिनी सत्ता ध्रुव होय, अने मिश्रमोहनीयना उदयविना मिश्रगुणगणुं होयज नहीं, तेथी त्यां पण मिश्रनी सत्ता ध्रुव होय. एम ए बे गुणगणे मिनमोहनीयनी ध्रुवसत्ता जाणवी. Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शकतनामा पंचम कर्मग्रंथ, ५ मिश्र तथा सास्वादन, ए वे गुणठाणाविना शेष मिठाइनवसुजयणाए के० एक मिथ्यात्व, बीजुं विरति, त्रीजुं देशविरति, चोयुं प्रमत्त, पांचमुं श्रप्रमत्त, बहुं निवृत्ति, सात निवृत्ति, आठमुं सूक्ष्मसंपराय, नवमुं उपशांतमोह, ए नव गुणा मिश्रमोहनीयनी सत्तानी जजना जाणवी, एटले कोइएकने होय अने कोइएकने न होय, जे जी मिश्रपुंज उवेल्या पढी मिथ्यात्वें मिश्रमोहनीयनी सता न होय ने जेणे मिश्रपुंज उवेल्यो नथी तेने मिश्रमोहनीयनी सत्ता होय, थवा अनादि मिथ्यात्वीने तो नज होय. तथावित्यादिक व गुणठाणे कायिक सम्यकूदृष्टिने मिश्रमोहनीयनी सत्ता न होय, जे जणी सात प्रकृति खपावीने क्षायिक सम्यक्त्वी थाय, तेथी मिश्रमोहनीयनी सत्ता टले क्षायिक सम्यक्त्व होय तेमाडें. तथा बीजा क्षायोपशमिक तथा श्रौपशमिक सम्यकूटष्टिने मिश्रमोहनीयनी सत्ता होय, तेथी जजना कही, एटले कोइ एकने केवारेंक होय ने कोइएकने केवारेक न होय. एम नव गुणठाणे मिश्रमोहनीयनी ध्रुवसत्ता होय. डुगण नियमा के० श्रादिद्विक एटले पहेले तथा बीजे, ए वे गुणठाणे अनंतानुबंधिया क्राधादिक चारे कषायनी सत्ता निश्चय होय, जे जणी मिथ्यात्व तथा सास्वादन, ए बे गुणठाणे नियमा अनंतानुबंधी या बंधाय तेथी ध्रुवसत्ता जाणवी. Go शेष श्याम साइनवगम्मि के० मिश्रगुणठाणाथी मांगीने उपशांतमोह लगेंनां नव गुणवाने विषे अनंतानुबंधिया कषायनी सत्ता संबंधी जजना जाणवी, जे जणी जे अनंतानुबंधिया विसंयोज्या तथा उवेल्या एटले खपाव्या तेने एनी सत्ता न होय, ने बीजाने होय, माटें जजना जाणवी. ए स्वमतें कह्युं तथा कर्मप्रकृति ने पंचसंग्रहादिकने मतें तो अनंतानुबं धियानी सत्ता टल्याविना श्रेणी खारंजे नहीं थी ते कडे. जे अनंतानुबं धियानी विसंयोजना करीने, उपशमश्रेणी आरंने तेथी तेने सातमा गुणगणाथी उपरले गुणगणे अनंतानुबंधियांनी सत्ता न होय, तथा मिश्रादिक पांच गुणठाणे तो कोइ एकने अनंतानुबंधियांनी सत्ता होय, छाने कोइ - एकने न होय, एम जजना जाणवी, माढ़ें अध्रुवसत्ता जाणवी, छाने मिथ्यात्व तथा सास्वादन, ए बे गुणठाणे अनंतानुबंधियांनी ध्रुव सत्ता होय. एम बेदु मतें अनंतानुधिया कषायी गुणस्थानकनी अपेक्षायें ध्रुवाभ्रुव सत्ता कही ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ ११ ॥ ॥ वे श्राहारकसप्तकनी सत्ता कहे . ॥ आदार सत्तगं वा, सब गुणे बिति गुणे विणा तिचं ॥ नो जय संते मित्रो, अंत मुदुत्तं नवे तिचे ॥ १२ ॥ For Private Personal Use Only Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ ५१ अर्थ-श्राहारसत्तगंवासवगुणे के एक आहारक शरीर, बीजं श्राहारकउपांग, त्रीजु आहारकसंघातन, चोथु आहारकथाहारकबंधन, पांचमुं आहारकतैजसबंधन, हुं आहारककार्मणबंधन अने सातमु थाहारकतैजसकामणबंधन, ए सात प्रकृति जे जीवें तथाविध विशुद्धचारित्र प्रत्ययें अप्रमत्तगुणगणे बांधीने तथाविध संक्लेश अध्यवसायें मिथ्यात्व गुणगणा लगें श्रावे, तथा कोश्एक विशुमाध्यवसायें केवलज्ञान पण पामे तेथी सर्व गुणगणे एनी सत्ता होय अने कोइएक जीव, ए सात प्रकृति बांध्या विनाज सर्व गुणस्थानक स्पर्श, तेने ए सात प्रकृतिनी सत्ता सर्व गुणगणे न होय. ए रीतें नजना जाणवी. ___ तथा जिननामकर्मनी पण ए रीतेंज जजना जाणवी. जे जणी चोथा गुणगणाथी लश्ने श्रपूर्वकरणना बहा पाया लगें जिननामनी बंधनूमि त्यां विशुद्धाध्यवसायें जिननाम बांधी पड़ी संक्लेशे मिथ्यात्वे जाय तेथी मिथ्यात्वे पण एनी सत्ता होय पण बितिगुणे विणातिछं के बीजे अने त्रीजे गुणगणे तीर्थंकरनामकर्मनी सत्तावालो न श्रावे तेथी ए बे गुणगणाविना शेष बार गुणगणे जिननामनी सत्ता पामीये. उपरो गुणगणे पण चढतां जिननामनी सत्ता होय अने जे जीव जिननाम बांध्याविना सर्व गुणगणां स्पर्शे तेनी अपेक्षायें सर्व गुणगणे जिननामनी सत्ता न होय एटले बीजे, त्रीजे गुणगणे जिननामनी सत्ता नज होय अने बीजा गुणगणाउँने विषे जजना जाणवी. नोनयसंतेमिछो के तथा आहारकशरीरादिक सात प्रकृतिनी सत्ता बतां श्रने जिननामनी सत्ता बतां, ए उन्नयनी सत्ता साथें बतां तेने मिथ्यात्व गुणगणुं न होय, जे जणी नामकर्मनुं एकसो त्रण, तथा त्र्याएं प्रकृतिनुं सत्तास्थानक मिथ्यात्वगुणगणे न पामिये, मात्र थाहारकसप्तक तथा जिननाम, ए बेहुमांहेथी एकनी सत्ता बतां मिथ्यात्व होय, तेमध्ये अंतमुहुत्तंनवेतिछे के अंतर मुहूर्त लगें जिननामनी सत्ता मिथ्यात्वें सहीये पण अधिक न पामीयें, जे जणी कोइएक सम्यक्दृष्टि जीवें पूर्व नरकायु बांध्यु डे अने ते जीव श्रायु बांध्या पली दायोपशमिक सम्यक्त्व पामीने तथाविध अध्यवसायें जिननाम बांधे, ते मरण समयें सम्यक्त्व वमतो नरकें जाय, त्यां वली अंतर्मुहूर्त पड़ी वली सम्यक्त्व पामे तो जिननामकर्मनी सत्ता होय; अने जो नरके गया पढ़ी पतितपरिणामे रहे तो अंतर्मुहूर्त पनी जिननामकर्म उवेले तेथी जिननामकर्मनी सत्ता टली जाय. एटले एक ध्रुवसत्ता अने बीजुंअध्रुवसत्तारूप, एम पांचमुं अने बहुं ए बे हार साथें कह्यां ॥ १५॥ Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५‍ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ.. Ա हवे घातिनी प्रकृतिरूप सातमुं द्वार तथा अघातिनी प्रकृतिरूप आठमुं द्वार, ए द्वार साथै कहे. हवे सर्वघातिनी प्रकृति तथा घातिनी प्रकृति कहेते. ॥ अथ सर्व घातिन्यः प्रकृतयः ॥ केवल जुला वरणा, पण निद्दा बारसाइम कसाया ॥ मिवंति सब घाई, चन नाण ति दंसणा वरणा ॥ १३ ॥ - तिहां जे कर्मप्रकृति, श्रात्माना गुणने श्रवरे, ते घातिनी प्रकृति जाणवी. मां सर्वघातिनी प्रकृतिना रसस्पर्द्धक तो ताम्रपत्रनी पेरें निश्वि, तथा स्फटिक ग्रहनी पेरें निर्मल, द्राक्षनी पेरें सूक्ष्म सारप्रदेशें बहुलरस होय, तेथी ते सर्वघा - तिनी प्रकृति प्रदेशें अल्प होय तो पण वीर्ये अधिक जाणवी. हवे तेनां नाम कहे a. केवलजुलावरणा के० केवलज्ञानावरणीय ने केवलदर्शनावरणीय, ए बे प्रकृति, पोतानो याचार जे ज्ञान, दर्शन गुण, तेने सर्वाशें घावरे, जेम सूर्यप्रजा, मेघें करी सर्व वरी कदेवाय तथापि कांश्एक प्रजानो अंश श्रावस्याविनानो पण हे तेथी करी रात्री दिवसनो विजाग जणाय बे, तेम जीवनो पण ज्ञानादिक गुण सर्वघातिनी प्रकृतियें करी सर्व वस्त्रो बे तो पण जेणे कररी जम चैतन्यनो विजाग होय, एटलो चैतन्यांश उघाको रह्यो बे; पणनिद्दा के० तेणे पांच निद्रायें करी पण जे केवलदर्शनावरणीयें ऋण आवस्त्रो एवो जे दर्शनांश ते पण सर्वांशे श्रावरियें, ए निद्रापंचक पण सर्व इंडियना अवबोधने थावरे माटें सर्वघाति कहीयें. यहीं पण मेघदृष्टांत जाववो. जेमाटें जो निद्रामांहे पण शब्दादिक सांजली जागे बे तथापि ए निद्रा पण सर्वघातिनी जाणवी, तथा केवलज्ञान ने केवलदर्शननां यावरण पण सर्वथा टाल्या विना केवलज्ञान उपजे नहीं माटें सर्वघाति कहीयें. एटले ए सात सर्वघातिनी प्रकृति कही. "बार साइमकसाया के एमज यादिना बार कषाय जाणवा. तेमां अनंतानुबंधी या क्रोध, मान, माया ने लोन, ए चार तो सम्यक्त्वगुणने सर्वथा यावरे वे तेथी सर्वघाती का प्रत्याख्यानावरण क्रोधादिक चार पण देशविर तिगुणने सर्वथा श्रवरे बे. तथा प्रत्याख्यानावरण क्रोधादिक चार सर्वविरतिगुणने सर्वथा यावरे बे माटें सर्वघाति जाणवा. अहीं पण मेघनो दृष्टांत जलाव्यो तेथी मिथ्यात्वीने पण कोएक तपश्चर्यादिकनी प्रतिपत्ति जिनवचनयी विरुद्ध होय तथा अविर तिने पण मांसाहारादिकनी निवृत्ति होय तथा देशविर तिने पण जावचारित्र होय, एम ए बार कषायनी प्रकृति पण सर्वघातिनी बे. For Private Personal Use Only Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. u ५८३ मिति घाई के० मिथ्यात्वमोहनीय पण श्री जिननापित जीवाजीवादिक अनंतधर्मात्मक तत्वश्नद्धानरूप सम्यक्त्व गुणने सर्वथा हणे बे, ते जणी ए पण सर्वघाति प्रकृति कहीयें. जो पण एना केटलाएक वे ठाणी तथा एक ठाणी रसस्पर्द्धक देशघातिया बे, तो पण अहींयां शुभाशुभ परिणामें बंधनी अपेक्षायें नयी लीधा. एटले एक केवलज्ञानावरणीय, एक केवलदर्शनावरणीय, पांच निद्रा, बार कषायाने एक मिथ्यात्वमोहनीय, एवं वीश प्रकृति सर्वघातिनी थई. दवे पच्चीस प्रकृति देशघाति कहे बे. तिहां देशघातिनी प्रकृतिना रसस्पर्द्धक स्थूल कमानी पेरें, मध्यमबिद्र कांबलानी पेरें छाने सूक्ष्मबि पटवस्त्रनी पेरें, स्थूल प्रदेश नीरस, असार, बहुप्रदेश अल्पवीर्य, चउनाण तिदंसणावरणा के० एक मतिज्ञानावरणीय, वीजं श्रुतज्ञानावरणीय, श्रीजुं अवधिज्ञानावरणीय, चोथुं मनः पर्यवज्ञानावरणीय, ए चार ज्ञानावरणीयनी प्रकृति तथा चक्षु, अचक्षु, अने अवधि, ए दर्शनावरणीयनी प्रकृति, एवं सात प्रकृति देशघातिनी जाणवी. जे जणी केवलज्ञानावरण, केवलदर्शनावरण, ए बे प्रकृतियें ण श्रावसुं एवं जे ज्ञान ने दर्शननो अनंतमो अंश तेने देशथी हणे, ते जणी देशघातिनी कहीयें. जो पण अवधिज्ञानावरणीय, अवधिदर्शनावरणीय अने मनःपर्यवज्ञानावरणीयना केटलाएक रस स्पर्द्धक सर्वघातिया पण बे जेणे करी पोताना अवधिज्ञानादिकनो अंश मात्र नथी देखातो तो पण एनो रसोदय क्षयोपशम त्र्यविरोधि बे तेथी देशघातिनी कही. ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ १३ ॥ संजल नोकसाया, विग्धं इ देस घाइ (प्रथ घातिन्यः प्रकृतयः ) प्रधाइ ॥ पत्ते तमुठाऊ, तस वीसा गो डुग वसा ॥ १४ ॥ अर्थ- संजल के० संज्वलना क्रोधादिक चार कषाय देशघातिया बे, जे जणी ए सर्वविरतिरूप जीवना गुणने देशथकी हणे बे. केम के एना उदयथी साधुने सातिचार व्रत याय. बीजा कषायना उदयथी मूलजंगे अतिचार होय माटें एने देशघाति कही बे. नोकसाया के दास्यषट्क तथा त्रण वेद, ए नव नोकषायमोहनीय प्रकृति पण देशघातिनी बे, जे जणी ए प्रकृति चारित्रने विषे पण अतिचार मात्र उपजावे, पण एकली अनाचारजनक न होय, माटें देशघातिनी कही. विग्धंश्देघा के० अंतरायकर्मनी पांच प्रकृति, ए पण देशघातिनी होय, जे जणी पुजलद्रव्यनो अनंतमो जाग दान, लाज, जोगादिकने विषे होय Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ बे. जे जणी ग्रहण धारण योग्य जे पुल बे ते पुल, द्रव्यने अनंतमे जागे बे मां पण सर्वनुं दान, लाज, जोग ने उपभोगादिक करी न शके, केम के कर्म नोकर्मादिक तथा श्राहारादिकनुं दान, लाज, जोगादिक सर्व जीवने दोय तेथी देशघातिनी कही. सर्व जीवने एनो क्षयोपशम होयज. तथा वीर्यांतरायनो पण जो सर्वघाती रस होय तो जीवनुं सर्व वीर्य आवरे थके जीव काष्टनी पेरें निश्चेष्टावंत थाय, तेथी आहारादिकने यही परिणामावी पण न शंके; ते जणी ए प्रकृति पण देशघातिनी जाणवी, तेथी सर्व जीवने वीर्यांतराय दयोपशम तारतम्यें, वीर्यतारताम्य होयज बे. केवली जगवानने वीर्यांतरायनो दय होय तेथी तेने अनंत वीर्य होय. एम पच्चीश प्रकृति देशघातिनी कही. ने जो उदयापेक्षायें लेखवीयें तो मिश्रमोहनीय श्रने सम्यक्त्वमोहनीय, ए बे प्रकृति पण देशघातिनी गणतां सत्तावीस प्रकृति थाय. तेनी साथै पूर्वोक्त सर्वधातिनी वीश प्रकृति मेलवीयें तेवारें सुडतालीश प्रकृति घातिनी थाय. तेथी शेष रही जे पंच्चोत्तेर प्रकृति ते अधार के० घातिनी कही बे. जे प्रकृति जीवना ज्ञानादिक गुणने तो कां पण हणे नहीं तथापि जेम चोरनी संगत करतां साधु पण चोर कवाय, तेम ए प्रकृति पण घातिनी प्रकृति साथै वेदतां घातिनी कहेवाय, ते घातीनी प्रकृतिनां नाम कहे बे. पता के० एक पराघात, बीजी उश्वास, त्रीजी यातप, चोथी उद्योत, पांचमी गुरुलघु, बही जिननाम, सातमी निर्माण, अने श्रावमी उपघात, ए प्रत्येक प्रकृति घातिनी जाणवी. ए प्रकृति कोइ आत्माना गुणने न हणे. तनुष्टक एटले " तवंगा गि” ए गाथाने अनुक्रमें एक औदारिक, बीजुं वैक्रिय, त्रीजुं श्राहारक, एत्रण शरीर तथा ए त्रण शरीरना त्रण उपांग तथा एनी साथै कार्मण ने तेजस मेलवीयें, तेवारें तनुष्यष्टक थाय, तथा व संस्थान, ब संघयण, जाति पांच, गति चा, खगतिद्विक, ध्यानुपूर्वी चार एवं पांत्रीश प्रकृति लेवी तथा आज के० आयुनी चार प्रकृति, एवं उगणचालीश ने आठ पूर्वे प्रत्येक प्रकृति कही बे, एवं सुडतालीस घातिनी थइ. तथा तसवीसा के० त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, शुभ, शुजग, सुस्वर, श्रादेय, यशः कीर्ति, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, अथिर, अशुन, दुर्जग, दुःस्वर, नादेय, यश, ए वीश प्रकृतिने त्रसविंशति प्रकृति कहीयें. गोडुग के० गोत्र वेदनीयद्विक, ए उजय द्विकनी चार प्रकृति तथा वसा के० वर्ष, गंध, रस छाने स्पर्श, एवं सर्व मली पंच्चोत्तेर प्रकृति, अघातिनी कही; एटले घातिघाति द्वार संपूर्ण युं ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ १४ ॥ For Private Personal Use Only Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एन५ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ.५ हवे ए कर्मप्रकृतिनुं घाति, अघातिपणुं रसनी अपेक्षायें होय, ते रस, मिष्ट तथा कटुकना न्नेदें करी बे प्रकारे डे. तिहां जे प्रकृतिनो रस मीठगे आनंददायक होय ते पुण्यप्रकृति जाणवी, अने जे प्रकृतिनुं रस मनी पेरें नींबनी पेरें कडवू उःखदायक होय, ते पापप्रकृति जाणवी. त्यां प्रथम पुण्यप्रकृति बैंतालीश कहे . ॥अथ पुण्यप्रकृतयः॥ सुर नर तिगुच्च सायं, तस दस तणु वंग वर चउरंसं ॥ परघासग तिरि आऊ, वण चन पणिदि सुनखग॥१५॥ अर्थ-ते मध्ये प्रथम सुरनरतिगुच्च के सुरत्रिक एटले देवगति, देवानुपूर्वी, श्रने देवायु, ए त्रण प्रकृति शुननावें बंधाय, ते नणी तथा एमां बहुल घणीजे शाता होय, ते नणी पुण्यप्रकृति कहीयें अने नर एटले मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी अने मनुष्यायु, ए मनुष्यत्रिक, ए त्रण नेद पण शुजनावें करी बंधाय. तथा उचैर्गोत्र पण पूज्यजणी पूजनीय योग्यता जणी, ए पण पुण्यप्रकृति जाणवी. तथा सायं के शाता. वेदनीय पण शुजअध्यवसायें करी बंधाय, अनुकूलपणे वेदे ते माटें ए पुण्यप्रकृति जाणवी. तथा तसदस के सदशक ए नामकर्मनी पुण्यप्रकति शुजपरिणामें बंधाय बे. तणुवंग के तणु एटले औदारिकादिक पांच शरीर तथा औदारिक, वैक्रिय अने थाहारक, ए त्रण उपांग, ए आठ प्रकृति पण शुज जाणवी, वर के ब संघयणमध्ये एक वज्रषननाराच संघयण ए पण शुल जाणवू. चउरंसं के संस्थानमध्ये समचतुरस्त्रसंस्थान ए पण शुज . परघासग के पराघात, उश्वास, श्रातप, उद्योत, गुरुलघु, जिननाम अने निर्माण, ए पराघातसप्तक पण शुन जाणवं. तिरिआऊ के तिर्यंचनुं श्रायु, ते पण पुण्यप्रकृति के. जे नणी तिर्यच पण जीव वांछे ने. तथा वमचल के वर्णमध्ये श्वेत, पीत, अने रक्त तथा गंधमध्ये शुनगंध, रसमध्ये कषायल, आम्ल अने मिष्ट, तथा स्पर्शमध्ये लघु, कोमल, चीकट, अने उष्ण, ए रीतें वर्णादिचतुष्क शुज लेवं. पणिदि के जाति पांच मध्ये एक पांचेंजिय जाति, शुल परिणामें बंधाय, ते पुण्यप्रकृति जाणवी. अने सुनखग के० विहायोगतिमध्ये गज तथा हंसनी पेरें जे चाले, ते शुजविहायोगति जाणवी. ए पण शुजपरिणामे बंधाय माटें पुण्यप्रकृति जाणवी. ए बेंतालीश पुण्यप्रकृति जाणवी॥ इतिसमुच्चयार्थः॥१५॥ ॥ अथ पापप्रकृतयः ॥ हवे ब्याशी पापप्रकृति कहेजे. ॥ बायाल पुरम पग, अपढम संगण खग संघयणा ॥ तिरिग असाय नी, वघाय ग विगल निरय तिगं॥ १६ ॥ Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए७६ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ अर्थ-बायालपुलपग के बेतालीश पुण्यप्रकृति कही. जे जणी बंधयोग्यस्थानकमध्ये ए शुनपरिणामें बंधाय तथा संक्वेशपरिणामें मंदरस बंधाय अने विशुपरिणामें तीव्ररस बंधाय. ते जणी ए शुज उत्तम पुण्यप्रकृति जाणवी. हवे पुण्य थकी विरोधी पापप्रकृति ब्याशी कहे बे. ए पापप्रकृतिनो संक्वेश परिणामें तीबरस बंधाय अने विशुद्धपरिणामें मंदरस बंधाय, ते नणी पापप्रकृति कहीयें. अपढमसंगणखगसंघयणा के प्रथम समचतुस्रसंस्थान विना शेष पांच संस्थान तथा प्रथम शुनविहायोगति विना बीजी अशुजविहायोगति, अहीं लेवी, तथा प्रथम संघयण विना शेष पांच संघयण एमां लेवां. ए अगीबार प्रकृति, प्रथमनां बे गुणगणां लगें बंधाय. त्यां संक्लेश परिणामें उत्कृष्ट रस बंधाय अने विशुद्धपरिणामें मंदरस बंधाय, ते नणी ए पापप्रकृति कहीयें. तिरिडुग के० तिर्यंचनी गति, तथा तिर्यंचानुपूर्वी, ए बे प्रकृति अशुन जे. जे जणी ए गतिमध्ये अनंतो काल पण जीव रहे, ए अत्यंत मोहोदय थकी बंधाय,माटें पापप्रकृति जाणवी. तथा असाय के० अशाता वेदनीय पण उदय श्रावे, तेवारे जीवने प्रतिकूलपणुं देखाडे, ते नणी पापप्रकृति कहीयें, तथा नीवघाय के नीचैर्गोत्रने उदयें पण नीच कुलप्रत्ये पामवे करी जीव हेलनीय होय, तेथी ए पण अशुज पापप्रकृति जाणवी, उपघात नामनें उदये पण पडजीनि, चोरदातादिकें करीमुःख पामे, तेथी अशुन जाणवी. गविगल के एकैप्रियजाति तथा विकल एटले जेने पूर्ण पंचेंजिय नहीं होय, ते विकलेंजिय, बेंजिय, तेंघिय अने चौरिंजियने कहीये. ए जातिनाम पण मिथ्यात्वे संवेशे बंधाय, ते माटें अशुन जाणवी. निरयतिगं के नरकगति, नरकानुपूर्वी अने नरकायु, ए त्रण प्रकृति पण मिथ्यात्व विना न बंधाय, ते लणी अशुन पापप्रकृति जाणवी. ए त्रेवीश पापप्रकृति कही. ॥ १६ ॥ थावर दस वम चन, क घाय पणयाल सदिअ बासी॥ पाव पयडित्ति दोसुवि, वरमा गहा सुहा असुदा ॥ १७ ॥ अर्थ-थावरदस के स्थावरदशकने पण अशुजपरिणामें वर्ततो थको जीव पामे, वालचजक के वर्णमध्ये नील अने कृक्ष तथा गंधमध्ये पुरजिगंध तथा रसमध्ये तीखो अने कडवो तथा स्पर्शमध्ये गुरु, खर, खूद अने शीत, ए चारे अशुज लेवा. एने संक्लेशें बांधे, तेजणी पापप्रकृति कहीयें. एवं सामनीश थ. तथा घायपणयाल के0 घाती पीस्तालीश प्रकृति एटले ज्ञानावरणीय पांच, दर्शनावरणीय नव अने मोहनीयनी बबीश तथा अंतरायनी पांच, ए पीस्तालीश घा Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ तिनी प्रकृति श्रात्माना शुरू गुणने हणे, प्रतिकूलपणुं करे. तेथी ए पीस्तालीस घातिनी पापप्रकृति तेने आगली सामंत्रीश प्रकृति सहिथ के० सहित करीयें, तेवारें बासी के ब्याशी पावपयमित्ति के पापप्रकृति थाय. एना विपाक जीव प्रतिकूलपणे वेदे, संक्वेशनी वृहियें एना रसनी वृद्धि होय, ते जणी एने पापप्रकृति कहीयें. ए बंधनी अपेदायें लेवी. अन्यथा तो सम्यक्त्वमोहनीय तथा मिश्रमोहनीय पण सेवाय, परंतु ते एटला माटें न लीधी के, तेनो बंध नथी. अहीं शिष्य प्रश्न करे ने के, हे नगवन् ! आठ कर्मनी मली बंधापेक्षायें, एकसो ने वीश प्रकृति कही बे, अने यहींयां तो पुण्यप्रकृति बैंतालीश तथा पापप्रकृति ब्याशी. ए बेह मेलवतां एकसो ने चोवीश प्रकृति थाय , ते केम घटे ? अहींयां गुरु उत्तर कहे डे के, हे शिष्य ! एकसो ने विंशोत्तर बंध प्रकृतिमध्ये सामान्यपणे वर्ण, गंध, रस अने स्पर्श, ए चार प्रकृति लेखवी ने अने अहीं तो मूल चार प्रकृतिना शुनाशुन विनाग करतां श्वेतादिक शुन अगीआर पुण्यप्रकृतिमाहे गणी ने अने नीलादिक अशुन नव पापप्रकृतिमाहे गणी जे. एम दोसुवि के० बन्ने स्थानकें वसागहासुहाअसुहा के वर्णादिक चार प्रकृतिने विशेषे शुज अने अशुनपणे जूदी जूदी ग्रहण करी तेमाटें एकसो चोवीश थायले अने सामान्य शुन्नाशुन्नने एक ठामे गणतां एकसो ने वीश बंधप्रकृति थाय. अहीं कांश दोष नथी. एम पुण्यप्रकृति तथा पापप्रकृतिनां छार कह्यां ॥ इति पुण्यपापछार ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ १७ ॥ एम पुण्य अने पापने परिणामें करी बंधनुं विरुद्धपणुं होय तेमाटें पुण्यप्रकृति तथा पापप्रकृति कहीने हवे बंधे तथा उदयें विरोधिनी प्रकृति कहे . तेमध्ये पण सूची कटाह न्यायें अल्प संख्यांक प्रकृति नणी प्रथम अपरावर्त्तमान प्रकृतिनुं हार कहेडे. ॥ अथाऽपरावर्त्तमानाः प्रकृतयः॥ हवे अपरावर्त्तमान प्रकृतियो कहे. ॥ नाम धुव बंधि नवगं, दंसण पण नाण विग्घ परघायं ॥ जय कुब मिब सासं, जिणगुण तीसा अपरियत्ता ॥ १७ ॥ - अर्थ-एक वर्ण, बीजो गंध, त्रीजो रस, चोथो स्पर्श, पांचमो तैजस, बहो कामण, सातमो निर्माण, श्राठमो उपघात, नवमो अगुरुलघु, ए नामधुवबंधिनवगं के० नामध्रुवबंधिनुं नवक, ए नामध्रुवबंधिनी नव प्रकृति सर्वथा बंधाय. एना बंधने स्थानकें को शुत्ताशुन परिणाम विशेषं बीजी प्रकृति बंधाय नहीं. केवल एना रस. बंधमांहे नावनी मंदता करे, ते जणी अपरावर्त्तमान कही. Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ឬចុច शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ दसणपणनाणविग्धपरघायं के चकुदर्शनादिक चार दर्शनावरणीय तथा म. तिज्ञानादिक पांच ज्ञानावरणीय, ए नव प्रकृति पण ध्रुवबंधिणी नणी अपरावर्तमान जाणवी. तथा दानांतरायादिक पांच अंतरायनी प्रकृति पण ध्रुवबंधिनी जाणवी तथा पराघात नामकर्म पण ध्रुवबंधी . ए अन्य प्रकृतिनो बंध तथा उदय रंध्या विना पोतानो बंधोदय दीपावे. एनी विजागनी प्रकृति नश्री ते जणी अविरोधिनी बे. जयकुछ मिठसासं के जयमोहनीय तथा जुगुप्सामोहनीय पण पूर्वली युक्तियें अपरावर्तमान प्रकृति के तथा मिथ्यात्वमोहनीय पण ध्रुवबंधि तथा ध्रुवोदयीपणे जणी बंध उदयें अपरावर्त्तमान होय. अने उश्वासनामकर्म पण बंधे तथा उदयें को प्रकृति साथें विरोधि नथी, तेथी अपरावर्त्तमान. जिणगुणतीसाअपरियत्ता के तीर्थकरनामकर्म पण तेमज बंधे तथा उदये थविरोधिनी , ते जणी अपरावर्त्तमान कहीयें. ए सर्व उंगणत्रीश प्रकृति बंधे तथा जदयें बीजी प्रकृति साथें विरोधिनी नथी, तेथी अपरावर्त्तमान प्रकृति कहीयें. अहींयां को पूजे जे सम्यक्त्वमोहनीय तथा मिश्रमोहनीयने उदयें मिथ्यात्वमोहनीयनो उदय न होय, तेथी ए तो उदयविरोधिनी ने तो अपरावर्तमानमांहे केम गणी ? अहींयां उत्तर कहे जे जे, मिथ्यात्वमोहनीयनी बंधोदय नूमि प्रथम गुणगणुं , तिहां सम्यक्त्वमोहनीय श्रने मिश्रमोहनीय नथी. जो ए मिथ्यात्वनी पोतानी नूमिमांहे एनो बंध उदय रंधीने पोतानो बंध उदय देखामत तो विरोधिनी कहेवात, परंतु तेम विरोधिनी नथी माटें अपरावर्त्तमान जाणवी. ए प्रकृतिनो बंध उदय, अनेरी प्रकृ. तिनो बंध, उदय निवारे नही, माटें अपरावर्त्तमान जाणवी. ॥ इति स० ॥ २० ॥ ॥ हवे एहथी विपरीत जणी परावर्त्तमान प्रकृति कहेजे. ॥ ॥अथ परावर्त्तमानाः प्रकृतयो निरूप्यते ॥ तणु अ वेअ उजुअल, कसाय उद्योअ गोय उगनिदा ॥ तस वीसान परित्ता, खित्तविवागा ऽणुपुवी ॥२॥ अर्थ-जे एकेकी प्रत्येक प्रत्येक प्रकृतिनो बंध तथा उदय कोइएक समय होय, जेम औदारिक, वैक्रिय अने थाहारक, एत्रण शरीरमध्ये एकनोज बंध एकवारें होय. एम उपांग, संघयण, संस्थान, जाति, गति, खगति अने श्रानुपूर्वी मध्ये पण जावQ, तेथी एने परावर्त्तमान प्रकृति कहीयें, ते कहे बे. तणुबह के तनुप्रमुख थानी, उत्तरप्रकृति तेत्रीश जाणवी, तेनां नाम कहे. तनुत्रिक, उपांगत्रिक, संस्थानबक, संघयणबक, जाति पांच, गति चार, खगतिहिक, आनुपूर्वी चार, ए तेत्रीश Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकनामा पंचम कमग्रंथ. ५ ԱՆ प्रकृति थ. ते आठ पिंडप्रकृतिमध्ये जे. वेब के वेदत्रिक, ए पण बंध तथा उदयें विरोधी , ते जणी परावर्त्तमान कहीयें. तथा उजुअल के हास्य अने रति तथा शोक अने अरति, ए बे युगलमांहे पण एक समय एक युगलनोज बंध तथा उदय एक जीवने होय, तेथी ए पण परावर्त्तमान प्रकृति कहीयें। __कसाय के क्रोध, मान, माया अने लोन, ए चार कषायमध्ये एक जीवने एक समये एकेकनो उदय होय, एटले जेवारें क्रोधनो उदय होय, तेवारें मानादिक त्रणनो उदय न होय, एम ए कषायनी शोल प्रकृति पण उदयविरोधिनी बे. ते जणी परावर्त्तमान जाणवी. उजोश के उद्योतनामकर्म पण श्रातपनामकर्म साथें विरोधी बे. जेने जे समये श्रातपनामकर्मनो बंध तथा उदय होय, तेने उद्योतनामकर्मनो बंध तथा उदय ते समय न होय, तेथी परावर्त्तमान प्रकृति कहीये. गोयग के गोत्रधिक तथा वेदनीयछिक, ए बे ठिक पण बंधोदय विरोधी . शाताने बंधे तथा उदये अशातानो बंध तथा उदय न होय, नीचेर्गोत्रने बंधे तथा उदये उच्चैर्गोत्रनो बंध तथा उदय न होय, तेथी परावर्त्तमान कहीये. निद्दा के पांच निझा पण उदयविरोधिनी बे. जे जणी एक निखाने उदयें शेष चार निशानो उदय न होय, माटें परावर्तमान कहीये. तसवीसाउ के प्रसादिक दश प्रकृति तेनी साथे प्रत्येक अनुक्रमें स्थावरादिक दश प्रकृति बंधे तथा उदयें विरोधिनी डे केमके त्रसने बंधे तथा उदयें स्थावरनो बंध तथा उदय न होय, तेमज बादर साथे सूक्ष्मनुं विरोधिपणुं अने पर्याप्त साथें अपर्याप्तनुं विरोधिपणुं . एमज प्रत्येक साथे साधारणतुं विरोधिपणुं बे. एम सर्वत्र मेल व. माटें ए वीश प्रकृति पण परावर्त्तमान जाणवी तथा श्रायुःकर्मनी चार प्रकृति जे , ते चारे बंधे तथा उदयें विरोधी बे, जे नणी एक समयें एक आयुनो बंध तथा उदय होय तेथी एने पण परित्ता के० परावर्त्तमान कहीये. ए रीतें तनुअष्टकनी तेत्रीश, वेद त्रण, बे युगल, शोल कषाय, उद्योत, आतप, गोत्र बे, वेदनीय , पांच निडा, त्रस विंशति अने चार आयु, एवं एकाणु प्रकृतिमां को बंधे को उदयें, कोइ बिडं गमे परावर्ति एटले फेरफार होय, ते जणी परावर्त्तमान एवं नाम विरोधिनीपणें कहीये. इति परावर्त्तमानाऽपरावर्तमानकारघ्यं संपूर्ण ॥ ए रीते बार छार संपूर्ण वखाएयां. हवे तेरमुं हार विवरे . त्यां जे विपाकना रसोदय तेनां असाधारण कारण अथवा स्थानक, ते चार प्रकारें बे. एक क्षेत्र, बीजो जीव, त्रीजो जव अने चोथो पुजल, तेमध्ये प्रथम क्षेत्रविपाकीनी प्रकृति कहे . तिहां क्षेत्र एटले श्राकाश प्रदे.. Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पए शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ श विशेष तेनी मुख्यता पामीने जेनो उदय होय, जो पण सर्वप्रकृतिनो उदय अव्य, क्षेत्र, काल अने जावनी सापेक्षतायें होय . पण अहींयां एनीज मुख्यता लेवी. जे नणी जीवने द्विवक्र त्रीवक श्रेणीयें परनव जातां श्रानुपूर्वीने उदयें करी, जेम बलदने नाथ साही फेरवीयें, तेम ानुपूर्वी उदय उत्पत्ति सन्मुख करे. ते नणी खित्तविवागाऽणुपुबीन के क्षेत्रविपाकिनी प्रकृति चारें आनुर्वीने कहीयें. जो पण वक्रगति विना पण संक्रमण करणे देवगति, मनुष्यगति, तिर्यंचगति अने नरकगति, ए चारमध्ये पोतपोतानी श्रानुपूर्वी संक्रमावी उदय श्राणे डे पण अहींयां केवल थानुपूर्वीना उदयनी मुख्यतानी अपेक्षायें वक्रगतिज लीधी ॥ इति समुच्चयार्थः॥१९॥ हवे सर्व प्रकृति पोतानो विपाक जीवने देखाडे बे. तो पण केटलीएक क्षेत्रमुख्यत्तायें विपाक देखामे, ते देत्रविपाकिनी, नवनी मुख्यतायें विपाक देखाडे, ते नवविपाकिनी, जे बाह्य शरीर पुजलने विषे पोतानो विपाक देखाडे, ते पुजल विपाकिनी जाणवो. ए त्रण निरपेक्ष जे श्रात्माने विषे साक्षात् विपाक देखाडे, ते जीव विपाकीनी प्रकृति जाणवी. ते जीवविपाकिनी प्रकृति, हवे कहे . घण घाई गोअ जिणा, तसिअर तिग सुलग उमग चनसासं॥ जातिग जिअ विवागा, आऊ चनरो नवविवागा ॥२०॥ अर्थ-घण के मेघ ते जेम सूर्यनी प्रजानो घाश् के घात करे, आवरे, तेम जे आत्मानां ज्ञान, दर्शन, श्रमान, चारित्र, दानादिक लब्धि, इत्यादिकने आवरे, ते जणी घनघातिनी प्रकृति कहीये. तेनां नाम कहे . ज्ञानावरणीयनी पांच, दर्शनावरणीयनी नव, मोहनीयनी अहावीश अने अंतरायनी पांच, ए सुमतालीश प्रकृति, शरीर पुजलादिक निरपेक्ष विपाक जीवने देखामे, माटे ए प्रकृति जीवविपाकिनी कहीये. उगोथ के एक गोत्रहिक अने बीजं वेदनीछिक, ए बे युगल पण पोतानो विपाक जीवने विषे दीपावे, एथी उच्च नीच तथा सुखी पुःखी, जीव कहेवाय, माटें जीव विपाकिनी कहीयें, तथा जिणा के० तीर्थंकर नामकर्मने उदयें एक परमऐश्वर्य पूजातिशय, बीजो वचनातिशय, त्रीजो ज्ञानातिशय आने चोथो अपायापगमातिशय, ए चार अतिशय जीवने होय, जे थकी जीव, तीर्थंकर परमात्मा कहेवाय. ते जणी ए प्रकृति पण जीवविपाकीनी जाणवी. तसिअरतिग के एक त्रस, बीज़ो बादर अने त्रीजो पर्याप्त, ए वसत्रिक श्रने एथी इतर स्थावर, सूक्ष्म अने अपर्याप्त, ए स्थावरत्रिक, एने उदये जीव, त्रस, वादर अने पर्याप्त तथा स्थावर, सूक्ष्म अने अपर्याप्त, पण कहेवाय. एम एना उदयथी जीवनो Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ पएर पर्याय फरे, ते नणी एने जीवविपाकीनी प्रकृति कहीये. सुजग के एक सौजाग्य, बीजु सुखर, त्रीजु श्रादेय, अने चोथु यश कीर्ति, ए चार प्रकृतिने उदये जीव सौजागी, सुखरवान्, श्रादेय वचनवालो तथा यशस्वी कहेवाय, ते जणी ए प्रकृति पण जीव विपाकीनी बे, अने उनगचनसासं के एक दोनोग्य, बीजुं कुःस्वर, त्रीजुं अनादेयवचन, चोथु अयशःकीर्ति, एने उदये जीव पुर्जागी, सुःखरवान्, अनादेयवचनवालो तथा यशोहीन मागे कवाय, तेजणी ए प्रकृति पण जीवविपाकिनी जे. अने श्वासोश्वासनामकर्म पण जीवविपाकीनी प्रकृति ने, जो पण ए श्वासोश्वास पुजलरूप , तो पण एनी लब्धि जीवने होय, माटें जीवविपाकी कहेवाय. एवं शडशह प्रकृति थ. ___ जातिग के एकेंजियादिक जाति पांच, देवादिकनी गति चार, अने खगति बे, ए अगीबार प्रकृतिमा जातिनामकर्मने उदये जीव, एकैप्रिय, बेंजिय, तेंजिय, चौरिजिय, अने पंचेंजिय कहेवाय. गतिनामकर्मना उदयश्री जीव देवता, मनुष्य, तीर्यच अने नारकी कवाय. खगतिनामकर्मना उदयथी जीवनी सुचाल कुचाल कहेवा. य, ते जणी ए जीव विपाकीनी प्रकृति जाणवी. एवं अहोत्तेर प्रकृति जीअविवागा के जीव विपाकीनी कही. जो पण सर्वे प्रकृति निश्चेनयत्री जीव विपाकीनीज , जे जणी अजीव घटादिक पदार्थने विषे को प्रकृति पोतानी शक्ति देखामती नथी तोपण व्यवहारनयें चिहुं प्रकारे विपाक विचारतां ए अठोत्तेर प्रकृति जीवविपाकीनी कही. हवे श्राऊचउरोनवविवागा के देवतादिकनो जव पामीने ते नवना प्रथम समयथी मांमीने चरम समय लगें निरंतरपणे जे कर्मप्रकृति जीवने विषे स्वशक्ति देखावे, आत्माने हेडनी पेरें रोकी राखे, परनवें जावा न दीये अने जेवारे ते प्रकृति खपावें, तेवारें परजवर्नु थायु उदय आवे थके परनवें जीव जाय, एटले बीजी गतिमां जाय, तेमाटें ए आयु ते नवने विषेज उदय आवे , ते कारणे जवनी मुख्यतायें करी देवायु, मनुष्यायु, तियेंचायु अने नरकायु, ए चार प्रकृति नवविपाकीनी कहेवाय. जो पण चारे गति पण नामकर्मपणे पोतपोताने जवें मुख्यवृत्तियें उदय आवेज डे, तथापि ए प्रकृति नव विपाकिनी कहेवाय. कारण के चरमशरीरी जीव पूर्वबह शेष त्रण गतिना दलीकने मनुष्यगतिना एक श्रायुमा संक्रमावी उदयावलीमां श्राणी वेदीने खपावें, जे जणी प्रदेशथी कर्म वेद्या विना बूटे नहीं, अने आयुष्य संक्रमाव्या विना मोदे न जाय तेथी आयु संक्रमाव्या पली तेने कोइ प्रकारे परजवायुनो उदय न होय, खनवनोज उदय होय, तेथी ए चार प्रकृति नव विपाकीनी कहीये. ॥शति समुच्चयार्थः ॥ २०॥ Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यश शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ ५ हवे पुल विपाकीनी प्रकृति कहे बे. जे पोतानी शक्ति शरीरादिक पुगलने विषे देखा ए प्रकृतिनो करेलो गुण तथा अवगुण, अनुग्रह, उपघात, शरीरादिकनो. कर्मपुलने विषे होय, तेथी ए पुजलविपाकीनी प्रकृति कहियें. जो पण अहीं कंटकादिक अशुभ फल पामी अशातावेदनीयज पोतानो विपाक देखाडे बे. तथा फूल, चंदन, कर्पूर, कस्तुरी प्रमुख शुज पुल लइने शातवेदनीयज पोतानो विपाक देखाडे बे. तोपण ए शाता तथा अशातावेदनीयने पुल विपाकीनी प्रकृति न कही. परंतु ए प्रकृतिनो कस्यो अनुग्रह, उपघात, जीवने होय. माटें ते कहीयें ढैयें. नाम धुवोदय च तणु, वघाय सादारणिय जोतिगं ॥ पुग्गल विवागि बंधो, पयइ हिइ रस पएसत्ति ॥ २१ ॥ अर्थ- नामधुवोदय के एक निर्माण, बीजी स्थिर, त्रीजी अस्थिर, चोथी शुज, पांचमी शुज, बही तैजस, सातमी कार्मण, आठमी वर्ण, नवमी गंध, दशमी रस, अगीयारमी स्पर्श ने बारमी गुरुलघु, ए बार प्रकृति नामधुवोदयी कहेवाय. ए बारने अनुक्रमें अंगोपांग नोकर्मपुङ्गलनुं गमनुं गम जोमयुं, हाड दांतनुं कर्म फलनो स्थिरबंध तथा लोही लालनो अस्थिर बंध, तेमज मस्तकादिक शुभ, पगप्रमुख अशुभ, शरीर पुजलनो वर्ण, गंध, रस, स्पर्शादिक पुगलने विषे होय, ते जी ए बार प्रकृति पुजलविपाकीनी कही, छाने चतणु के० तनुचतुष्कनी श्रढार प्रकृति, तेनां नाम कहे बे. एक तो धौदारिक, वैक्रिय ने श्राहारक, ए त्रण शरीर तथा बीजां एज त्रण शरीरनां उपांग त्रण, त्रीजा संघयण व अने चोथा संस्थान ब, एवं तनुचतुष्कनी अढार प्रकृति पण पुलविपाकीनी बे. जे जणी ए शरीरनामकर्मना उदयकी श्रदारिकादिक शरीरपणे पुजल परिणामे बे. तथा अंगोपांगपणे तथा कारपणे तथा हामसंधिपणे पुजल परिणमे बे. ए कर्मपुङ्गलने विषे पोतानी शक्ति दीपावे . ते जणी पुल विपाकीनी प्रकृति कहीयें. एवं त्रीश प्रकृति कही. उवघाय के० उपघात नामकर्मने उदयें जीवने अंगुली प्रमुख अधिक अंग होय, ते पण पोतानी शक्ति पुगलने विषे देखाडे बे, ते जणी तथा सादारणिय के० साधारण नामकर्मनो उदय पण शरीरपर्याप्ति पूरी करया पढी उदय श्रावे तेथी घणा जी - वनुं एक साधारण शरीर होय, तेथी ए पण पुल विपाकीनी प्रकृति बे, तथा ए थकी इतर प्रत्येक नामकर्म पण शरीराश्रित बे, ते माटें पुल विपाकीनी प्रकृति बे, ने जोतिगं के० उद्योत, श्रातप ने पराघात, ए उद्योतत्रिक पण शरीरपुफलने विषे पोतानी शक्ति दीपावे, तेथी करी जीवनां शरीर, शीतप्रकाशवान् तथा उम For Private Personal Use Only Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. 4. ५०३ प्रकाशवान् परने दुस्सहनीय होय. ते माटें ए पण पुल विपाकिनी प्रकृति जावी. एवं बत्री प्रकृति, पुग्गल विवागि के० पुल विपाकिनी कही. एम अनुक्रमें चार प्रकृति क्षेत्र विपाकिनी, होत्तेर जीवविपाकिनी, चार जवविपाकिनी ने बत्रीश पुल विपाकिनी, ए सर्व मली एकसो ने बावीश प्रकृति उदयनी अपेक्षायें होय, जे जणी विपाकिनी कहेतां रसोदय कहीयें. एम चार विपाक द्वार कां. हवे बंधो के चार बंधनां द्वार कहेते. त्यां जे स्थिति, रस ने प्रदेशवंधनो समुदाय ते पयश के० प्रकृतिबंध जाणवो, तथा योग प्रत्ययें गृह्यां एवां जे कर्म पुल, त्यां अध्यवसाय विशेष कर्मपणे रहेवानी स्थितिनुं मान ते बीजो हिइ के० स्थिति - बंध जाणवो, तथा शुभाशुभ अध्यवसाय विशेष करी जे मीठो रस ते अनुकूल प वेदीयें, ने कमवो रस ते प्रतिकूलपणे वेदीयें. तेमध्यें पण वली एकठाणी, बेठापी, त्रिवाणी, चउठाणी तथा घाति, अघाति, एवा विपाकरसनुं बांध, ते जो रस के० रसबंध जावो. ने जे योगनी उत्कटतायें घणा दल मले अने योगनी मंदतायें थोमां दल मले, एम योगनी तारतम्यें करी कर्मदलनुं तारतम्यप होय; ते चोथो पएसत्ति के० प्रदेशबंध जाणवो. इति के० एम विवक्षायें चार बंध ते एक बांधतां चारे बंधाय. यहींयां लागवाना दृष्टांत पूर्वे को बे ते जाववो. ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ २१ ॥ मध्यें प्रथम प्रकृतिबंध विचारे बे. तिहां एक, बे, त्रण इत्यादिक संख्यायें प्रकृतिनुं बांध, तेने प्रकृतिबंधस्थानक कहीयें. ते बंधस्थानक मूल प्रकृतिखाश्री तथा उत्तर प्रकृतियाश्री, एम वे नेदें होय. ते मध्ये पण अल्पसंख्याथी घणी संख्याने बंधस्थानकें जाय, ते प्रथम नूयस्कार बंध जाणवो, अने जे घणी संख्याथी थोमी संख्याने बंधस्थानके यावे, ते बीजो अल्पतर बंध जाणवो. एकज संख्याने स्थानकें रदेतां त्री जो अवस्थितबधं जावो, अने अधबंक थइने फरी प्रथम एकादि प्रकृति बांधे, तिहां चोथो वक्तव्य बंध जाणवो. एम प्रसंगपणे चार बंध कहेवाय. तिहां प्रयम मूलप्रकृतिना बंध स्थानक कहे थके नूयस्कारादिक सुखें कहे वाय. ते जणी ते मूलप्रकृतिनां बंधस्थानक, प्रथम कहीयें बैयें. तेमज उत्तरप्रकृतिने विषे पण बंधस्थानक कवापूर्वक यस्कारादिक चार बंध कदेशे. मूल पयडीए ड स त बेग बंधेसु तिन्नि नूगारा ॥ अप्पत्तरा ति चनरो, अवहिच्या नहु प्रवत्तवो ॥ २२ ॥ अर्थ- मूलपयमीम के० मूलप्रकृति ज्ञानावरणादिकथी मांडीने अंतरायकर्म ७५ Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकनामा पंचम कर्मग्रथं. ५ पर्यंत ए श्राप कर्म, जेवारें जीव बांधे, तेवारें एक आग्नुं बंधस्थानक कहेवाय, ते अंतरमुहत्ते सुधी रहे, जे जणी श्रायुःकर्मनो बंध आखा नव मध्ये एकजवार अंतरमुहर्त सुधी होय. ए बंध प्रथम गुणगणाथी लश्ने सातमा गुणगणा सुधी पामीयें, तेमाहे पण मिश्रगुणगणे आयु न बंधाय, तेथी त्यां सत्त के सात कमेनुं बंधस्थानक होय. ए सात कर्मनुं बंधस्थानक पण प्रथम गुणगणायी लेश्ने नवमा गुणगणासुधी होय. एनो काल जघन्य तो अंतरमुहूर्त अने उत्कृष्टथी तो पूर्वकोडीने त्रीजे जागें अधिक मास हीन तेत्रीश सागरोपम लगे जाणवो. केमके पूर्वकोमीने त्रीजे जागें देवायु बांधे, तेनी अपेदायें लेवो. ए थाग्नुं तथा सातनुंबे बंधस्थानक थयां. बेगबंधेसुतिन्निनूगारा के० दशमे गुणगणे श्रायु तथा मोहनीय, ए बे कर्म हीन कर्मनो बंध, ए पण अंतर मुहर्त सुधी होय अने उपशांत मोहादिक त्रण गुण. गणे एक वेदनीयनो बंध जाणवो. एनो काल जघन्य अंतर मुहर्त, उत्कृष्टो तो देशोन पूर्वकोमी प्रमाण केवलीनी अपेदायें जाणवो. ए चार बंधस्थानक कह्यां. तेने विषेत्रण नूयस्कारबंध कहे . तिहां एक बांधी पजीब कर्म बांधतां प्रथम समयें प्रथम नूयस्कारबंध, ए अगीयारमे गुणगणे उपश्रमश्रेणीथी पमतां होय, तथा दशमे गुणगाणे कर्म बांधी नवमे गुणगाणे मोहसहित सात कर्म बांधतां प्रथम समयें बीजो नूयस्कारबंध, तेने वली आयु सहित श्राप कर्म बांधतां प्रथम समयें त्रीजो नूयस्कार बंध, एम त्रण नूयस्कारबंध कह्या. अहींयां कोई पूजे जे उपशम श्रेणीयें अगीआरमे गुणगणे आयुक्षयें मरण पामीने, अनुत्तर विमाने देवतापणे उपजे, ते प्रथम समयें चोथे गुणगणे सात कर्म बांधे, तेने प्रथम समय नूयस्कार होय, तो ए चोथो नूयस्कार केम न कह्यो ? तेनो उत्तर कहे के, जो पण एक बंधथी सात कर्म बंध करे, तो पण बंधस्थानक सातनुं एकज बे, ते नणी जूदो न लेखव्यो. बंधस्थानकनो नेद होय तो जूदो नूयस्कार लेखवाय. __ अप्पत्तरातिथ के हवे अल्पतरबंध कहे बे. श्रायुबंध कस्या पठी सात कर्म बांधतां प्रथम समये अहातरबंध पहेलो. जाणवो तथा नवमा गुणगाणाने प्रांतें सात कर्म बंध करी दशमा गुणगणाने प्रथम समय मोहनीय हीन करी कर्म बांधतां, बीजो अल्पतरबंध जाणवो. तथा ब कर्मथी उपशांतमोहें तथा क्षीणमोहें एक कर्म बांधतां, त्रीजो अल्पतरबंध जाणवो.. एमज चउरोअवहिा के चार अवस्थितबंध कहे . जे जणी मूलप्रकृतिनां बधस्थानक चार, ते चार गमें आव्या पली बीजे समयें अवस्थितबंध कहेवाय, जेम Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ पए श्राप कर्मना बंधथी सातनी बंध करतां प्रथम समये अल्पतरबंध पठी ज्यांसुधा तेज बंधस्थानके जीव रहे, त्यांसुधी प्रथम श्रवस्थितबंध कहेवाय. एम सात पड़ी उ बांधतां प्रथम समय शल्पतरबंध; अने पनी बीजो अवस्थितबंध जाणवो, अने थी एक बांधतां प्रथम समये अल्पतरबंध, पनी त्रीजो अवस्थितबंध जाणवो. सातथी. थानो बंध करतां प्रथम समयें नूयस्कारबंध; अने पठी चोथो अवस्थित बंध जाणवो. एम चार अवस्थित बंध कह्या. नहुश्रवत्तवो के मूलप्रकृतिनो अबंधक अयोगी गुणगणे होय श्रने त्यांथी पडQ नथी अने अव्यक्तबंध तो अबंधक थश्ने वली बांधे, तेने अव्यक्तबंध कहीये अने अयोगी गुणगाणा पली कर्मबंधपणुं नथी माटें मूलप्रकृतिनो अव्यक्तबंध नथी. ॥ इति समुच्चयार्थः ॥२॥ ____॥ हवे नूयस्कारादिक बंधनां लक्षण कहे . ॥ एगादहिगे नूढ, एगाई कण गम्मि अप्पतरो ॥ तम्मतो अवहिय, पढमे समए अवत्तबो॥ २३ ॥ अर्थ-एगादहिगेनू के० एक, बे इत्यादिक पूर्वला बंधथकी श्रागडे श्रधिकी प्रकृति बांधे, ते नूयस्कार बंध जाणवो, एटले पूर्वे थोडी प्रकृति बांधतो होय, अने पली एकादि अधिक प्रकृति बांधे, ते नूयस्कारबंध प्रथम समये जाणवो, अने एग्गाऊणगम्मिश्रप्पतरो के पूर्वबंधथी एकादि प्रकृति उडी बांधे, एटले पूर्वे घणी प्रकृति बांधतो होय अने पठी एकादि जणी प्रकृति बांधे, ते प्रथम समय अस्पतरबंध जाणवो. तम्मत्तोश्रवहिय के प्रथम समयें जेटलोज बंध होय, एटले प्रर्व बांधतो होय तेटलीज प्रकृति ज्यांसुधी निरंतर बांधे, त्यांसुधी अवस्थित बंध क. हीये. अने पढमेसमएअवत्तवो के सर्वथा श्रबंधक थश्ने फरी पहेला बंध करे, तेवारें प्रथम समयने विषे अवक्तव्य बंध कहीयें. ए चार बंधनां लक्षण कह्यां. ॥ इति समुच्चयार्थः ॥२३॥ - हवे सामान्य उत्तरप्रकृतिनां बंधस्थानक उगणत्रीश , तेनां नाम कहे. एक, सत्तर, श्रढार, ओगणीश, वीश, एकवीश, बावीश, बबीश, त्रेपन्न, चोपन्न, पंच्चावन्न, बप्पन्न, सत्तावन, अहावन्न, उंगणशाउ, साउ, एकशठ, त्रेशठ, चोशठ, पांशठ, बगशठ, शडशठ, श्रमशठ, जंगणोचेर, सीत्तेर, एकोत्तेर, बहोंत्तेर, तहोंत्तेर अने चम्मोतेर, ए गणत्रीश बंध स्थानक बे, त्यां नूयस्कारबंध अहावीश होय, ते कहेले. Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ս द उपशांतमोगुणठाणे एक वेदनीय बांधीने पडतो दशमे गुणठाणे ज्ञान पांच, र्शन चार, अंतराय पांच, उच्चैर्गोत्र अने यशःकीर्त्ति साथै वेदनीय बांधतां सत्तर प्रकृतिने बंधें प्रथम समये प्रथम नूयस्कार बंध; तिहांथी पकतो नवमे गुणठाणे संज्वलना लोन साथै अढार प्रकृति बांधतां बीजो नूयस्कार; ते मध्यें संज्वलनी माया साथै जंगणीश बांधतां त्रीजो नूयस्कार; तेमध्यें संज्वलना मान सायें वीश बांधतां चोथो नूयस्कार; ते संज्वलना क्रोध साथै एकवीश बांधतां पांचमो नूयस्कार, ते मध्यें पुरुषवेद साथै बावीशनो बंध बांधतां वो नूयस्कार; ते मध्यें हास्य, रति, जय ने जुगुप्सा, ए चार प्रकृतिनो अधिक बंध करतां यपूर्वकरणने सातमे जागें बंध करत सातमो नूयस्कार; ते मध्ये श्रावमाने बहे जागें देवप्रायाग्य नामकर्मनी हावी प्रकृति बांधतां त्रेपननो बंध, यहीं यशःकीर्त्ति पूर्वे वीश प्रकृति मध्यें व बे, तेथी देवप्रायोग्य सत्तावीशने बंधे त्रेपन प्रकृति होय, ए आ मोनूस्कार; तेमध्यें जिननाम बांधतां चोपन्नना बंधें नवमो नूयस्कार; ते त्रेपन ५०६ हारकि साथै बांधतां पंच्चावन्नना बंधें दशमो नूयस्कार; ते पंच्चावन्न जिननामसहित बांधतां उपन्नना बंधें श्रीयारमो नूयस्कार; छापूर्वकरणना प्रथम नागें उपन्नने जिननाम हीन तथा निद्रा, प्रचला सायें बांधतां सत्तावन्नना बंधें बारमो नूयस्कार; ते वली जिननाम सहित अठावन्नना बंधें तेरमो नूयस्कार; ते देवायु साथै प्रमत्तें उगणशाव बांधतां चौदमो नूयस्कार; देशविरति गुणठाणे देवप्रायो नी हावी प्रकृति बांधतां ज्ञान पांच, दर्शन छ, वेदनीय एक, मोहनीय तेर देवायु एक, नामनी अहावीश, गोत्रनी एक, अंतरायनी पाँच, एवं शान प्रकृति बांतां पंदरमो नूयस्कार; ते जिननामसहित एकशठने बंधे शोलमो नूयस्कार; - atri को प्रकारें एक जीवने एक समय बाशव प्रकृतिनो बंध संजवे नहीं, तेथी तेनो नूयस्कार पण न कहो. चोथे गुणठाणे आयुबंध कालें देवप्रायोग्य नामनी हावी प्रकृति बांधतां, ज्ञान पांच, दर्शन ब, वेदनीय एक, मोहनीय सत्तर, गोनी एक, नामनी श्रद्वावीश, अंतरायनी पांच, ए त्रेशव प्रकृति बांधतां सत्तरमो नूयस्कार; देवायुबंध सहित चोशव प्रकृति बांधतां श्रढारमो नूयस्कार; जिननाम सहित पांठ बांधतां उगणीशमो नूयस्कार; चोथे गुणवाले देवता होय, तेने मनुव्यप्रायोग्य त्रीश प्रकृति बांधतां बाराहना बंधें वीशमो नूयस्कार; मिथ्यात्वगुणगणे ज्ञान पांच, दर्शन नव, वेदनीय एक, मोहनीय बावीश, आयुनी एक, नामनी वीश, गोत्रनी एक, अंतरायनी पांच, ए शडशठ प्रकृति बांधतां एकवीशमो जूयस्कार; त्यां नामकर्मनी पच्चीश ने श्रायुरहित खडराव बांधतां, बावीशमो नूयस्कार, ते खायुस For Private Personal Use Only Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ एएस हित उंगणोतेर बांधतांत्रेवीशमो नूयस्कार; ते वली नामकर्मनी बबीश प्रकृति साथै सीत्तेर बांधतां चोवीशमो नूयस्कार; ते आयुरहित अने नामकर्मनी अहावीश साथै एकोत्तर बांधतां पच्चीशमो नूयस्कार, ते गणत्रीश नामकर्मनी साथें बहोतेरना बंधे बबीशमो नूयस्कार, ते श्रायुसहित तहोंत्तर बांधतां सत्तावीशमो नूयस्कार; ते वली नाम कमनी त्रीश बांधतां शान पांच, दर्शन नव, वेदनीय एक, मोहनीय बावीश, आयु एक, नामनी त्रीश, गोत्रनी एक, अंतरायनी पांच, एम चम्मोत्तेर बांधतां श्रहावीशमो नूयस्कार; अहीं प्रकारांतरें अनेक बंधस्थानक संन्नवे, ते आपणी बुद्धिथी विचारी लेवा. एम अहावीश अस्पत्तर बंध पण विपरीतपणे सेवा अने उंगणत्रीश बंधस्थानक नणी अवस्थित बंध पण गणत्रीश लेवा. अहींआं अवक्तव्यबंध न संजवीयें, जे जणी सर्वत्र उत्तरप्रकृतिनो श्रबंधक अयोगीगुणगणे जीव होय, त्यांथी पम नथी माटें अवक्तव्यबंध न होय. ॥ इति समुच्चयार्थः॥२३॥ ॥ ए रीतें उत्तरप्रकृतिना बंध, सामान्ये कही, हवे विशेषे कहे. ॥ नव उ चऊदंसे उछ, ति छ मोहे उगवीस सत्तरस ॥ तेरस नव पण चन ति छ, इक्को नव अ6 दस उन्नि ॥१४॥ अर्थ-प्रथम ज्ञानावरणीय कर्मर्नु एकज बंथस्थानक बे, ते जणी त्यां नूयस्कारादिक न संजवे. अने नवचऊदसे के दर्शनावरणीयमांहे एक नवनो बंध, बीजो उनो बंध, अने त्रीजो चारनो बंध, ए त्रण बंधस्थानक . तेमध्ये सर्व दर्शनावरणीयनी नवे प्रकृति बांधतां प्रथमनां बे गुणगणे नव प्रकृतिनुं बंधस्थानक जाणवू. एनी जघन्य स्थिति अंतरमुहर्तनी थने उत्कृष्ट तो अजव्यनी अपेक्षायें अनादि अनंत अने नव्यनी अपेदायें अनादि सांत, तथा सादि सांत, तेोमयी श्रीणजी, निसानिमा श्रने प्रचलाप्रचला, एत्रण प्रकृतिनो बंध विद थये थके मिश्रादिक गुणगणे प्रकृतिनो बंध जाणवो.ते पण जघन्यथी तो अंतरमुहर्त अने उत्कृष्टथी तो तेत्रीश सागरोपम पूर्वकोडी पृथक्त्वें काफेरा जाणवा. तेमांथी निमा श्रने प्रचला ए बे प्रकृतिना अपूर्वकरणना प्रथम नागें बंध विछेद थये थके आठमाना शेष जागें तथा नवमे अने दशमे गुणगाणे चार प्रकृतिनो बंध जाणवो. ते जघन्य तो एक समय श्रेणी मध्ये मरण पामे तेनीअपेक्षायें जाणवो अने उत्कृष्टपणे अंतरमुहर्त प्रमाण होय, अहीं नूयस्कार तथा अस्पतरना बंध, पुकु के बे बे होय, अने अवस्थितबंध, ति के० त्रण होय तथा अवक्तव्यबंध, 5 के बे होय, ते कही देखाडे जे. तिहां उपशमश्रेणीथी पडतां श्रापमा गुणगणाना बीजा जागें आवतांसुधी दर्शनावरणी. यनी चार प्रकृति बांधतो वली अहीं बंधविछेद कस्यो हतो ते फरीश्रावतां निशा अने Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एएन शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ प्रचला, ए बे प्रकृतिनो बंध करे, ते तेनी साथें मेलवतां ब प्रकृतिनो बंध करवाना प्रथम समयें नूयस्कार बंध पहेलो जाणवो. तथा नवनो बंध करतां बीजो नूयस्कार बंध जाणवो तथा नवनोबंध करी फरी बनो बंध करतां प्रथम समयें प्रथम श्रदपतर बंध, तथा अपूर्वकरण गुणगणानाप्रथम नागें उ प्रकृतिनो बंध करी वली निखा अने पचलानोबंध विछेदी चारनो बंध करतां,प्रथम समये बीजो अल्पत्तर बंध जाणवो. एत्रणे बंध. स्थानकें बीजा समयथी मांडीने ते ते बंधस्थानकना चरम समय लगें त्रण अवस्थितबंध जाणवा, तथा श्रगीश्रारमे गुणगणे दर्शनावरणीयनो प्रबंधक होय अने तिहाथी पडतां दशमे गुणवाणे दर्शनावरणीयनी चार प्रकृति बांधतांप्रथम समयें प्रथम श्रवक्तव्यबंध. तथा जे जीव उपशांतमोह गुणगणे श्रायुःदये मरण पामीने अनुत्तरविमाने देव थाय, तिहां प्रकृति बांधे तेने प्रथम समयें बीजो अवक्तव्यबंध होय, एटले दर्शनावरणीयनां बंधस्थानकें, नूयस्कारबंध, अल्पतरबंध, अवस्थितबंध तथा श्रवक्तव्यबंध कह्या. ॥हवे मोहनीयनां दश बंधस्थानक , ते कहे.॥ मोहे के मोहनीयनी अहावीश प्रकृतिमध्ये सम्यक्त्वमोहनीय तथा मिश्रमोहनीय बांधे नहीं. बाकी बबीश प्रकृति बंध योग्य तेमां पण त्रण वेदमध्ये एक समय एकज वेद बांधे, तथा हास्य अने रति तथा शोक श्रने अरति, ए बे युगल मध्ये पण एकज युगल बंधाय. केमके ए प्रकृति बंधोदय विरोधिनी ले ते जणी मिथ्यात्वगुणगणे 5 के बावीश बंधस्थानक होय. एनी स्थिति अन्नव्यनी अपेक्षायें तो अनादि अनंत अने नव्यनी अपेक्षायें अनादि सांत तथा सादिसांत जाणवी. तेमध्ये पण सास्वादन गुणगणे मिथ्यात्वमोहनीय न बंधाय, तेवारें गवीस के एकवीश प्रकृतिनुं बंध स्थानक होय. अहीं उ तथा श्ग, ए बे शब्दने वीश शब्द जोडवो, एनी स्थिति जघन्य एक समय आने उत्कृष्टथी तो श्रावली प्रमाण जाणवी. तेमध्ये वली मिश्र अने अविरति, ए बे गुणगणे चार अनंतानुबंधीया न बंधाय, तेवारें सत्तरस के सत्तर प्रकृतिनुं बंधस्थानक होय. एनी स्थिति जघन्य तो अंतरमुहत अने उत्कृष्ट तो तेत्रीश सागरोपम काल पूर्वकोडी पृथक्त्व अधिक होय, जे नणी अनुत्तरवासी देव चवीने ज्यांसुधी विरतिपणुं न लहे, त्यांसुधी तेने ए बंधस्थानक होय. ते मध्येथी देश विरति गुणगणे अप्रत्याख्यानीआ कषाय चार, न बंधाय, तेथी तेरस के तेर प्रकृतिनुं बंधस्थानक होय. ए पण जघन्यथी तो अंतरमुहूर्त अने उत्कृष्ट थी तो देशोन पूर्वकोडी प्रमाण जाणवी. तेमध्ये वली प्रमत्त अने अप्रमत्तगुणठाणे प्रत्याख्यानावरण चार कषाय न बंधाय, माटे त्यां नव के० नव प्रकृतिनो बंध Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ एएए होय. एनो काल जघन्य एक समय जे जणी को एक जीव एक समये मात्र सर्व विरतिपणुं लश्ने बीजे समयें मरण पामे, तेनी अपेक्षाये जाणवू, अन्यथा जघन्य अंतरमुहर्त्त अने उत्कृष्टो तो देशोन पूर्वकोमी प्रमाण जाणवो. तेमध्ये हास्य, रति, जय अने जुगुप्सा, ए चार प्रकृतिनो बंधविच्छेद थये थके नवमे गुणगणे पण के पांच प्रकृतिनुं बंधस्थानक होय, तेमांथी वली पुरुषवेदनो बंधविछेद थये थके चल के चारनुं बंधस्थानक होय. तेमांहेथी संज्वलना क्रोधनो बंधविद थये थके ति के त्रण प्रकृतिनुं बंधस्थानक होय. तेमांदेथी संज्वलनो मान विछेद थये थके छ के० बे प्रकृतिनुं बंधस्थानक होय. तेमध्ये थी संज्वलनी मायानो बंधविछेद थये थके को के एक प्रकृतिनुं बंधस्थानक होय. ए दश, बंधस्थानक कह्यां. ए श्रेणीमध्येंना वंधस्थानकनी जघन्य तो एक समयनी स्थिति अने उत्कृष्ट तो अंतरमुहूर्त स्थिति जाणवी. केमके, कोइ एक जीव तो श्रेणीमध्ये ए बंधस्थानक एक समयमात्र स्पर्शिने पण मरण पामे, तेनी अपेदायें समयमान जाणवू. ए दश बंधस्थानकें नव के नव नूयस्कारबंध, अह के श्राप अल्पतरबंध, दस के० दश अवस्थितबंध अने सुन्नि के बे अवक्तव्यबंध जाणवा, ते कहे जे. ते मध्ये प्रथम नव मूयस्कारबंध नावियें बैयें. त्यां जे जीव, उपशम श्रेणीये चढी, अगीथारमुं गुणगणुं अंतरमुहर्त्तनुं , तिहां अंतरमुहर्त रहीने बागल चडवानुं स्थानक नथी, केमके मोहनीयनी प्रकृति उपशमावी , तेनी सत्ता टली नथी, ते सत्ता टल्या विना श्रागला गुणगणां प्राप्त थाय नहीं, ते नणी त्यांथी पमतां दशमे गुणगणे आवे, तिहां पण मोहनीयनो अबंधक होय, तिहांथी पडतां नवमा गुणगणाने पांचमे नागें एक संज्वलना लोजनो बंध करतां प्रथम समयें प्रथम अवक्तव्यबंध तथा आयुःदयें अगीारमे गुणगणे मरण पामीने अनुत्तरविमाने सुर थाय. ते प्रथम सत्तर प्रकृतिनो बंध करे, तेने प्रथम समये बीजो अवक्तव्यबंध. एम बे अवक्तव्यबंध कह्या. तथा नवमाना पांचमा नागथी पडतां चोथे नागें संज्वलनी माया साथें बे प्रकृतिनो बंध करतां तिहां प्रथम समयें प्रथम नूयस्कार. त्रीजे नागें संज्वलनी माया साथें त्रण प्रकृति बांधतां प्रथम समयें बीजो जूयस्कार. बीजे नागे संज्वलना क्रोध साथें चार प्रकृति बांधतां त्रीजो भूयस्कार. प्रथम जागें पुरुषवेद सहित पांच प्रकृति बांधतां चोथो नूयस्कार. तिहाथी थाउमाने डेढे नागें हास्य, रति, जय अने जुगुप्सा सहित नव प्रकृति बांधतां पांचमो नूयस्कार. तिहांथी देशविरति गुणगणे प्रत्याख्यानावरण कषाय चार सहित तेर प्रकृति बांधतां हो चूयस्कार. तिहांधी चोथे गुण. Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०० शतकनामा पंचम कर्मग्रथं. ५ गणे अप्रत्याख्यानावरण कषाय चार सहित सत्तर प्रकृति बांधतां सातमो नयस्कार. ते वली अनंतानुबंधिया चार कषाय सहित एकवीश प्रकृति बांधतां श्राठमो नूयस्कार. ते वली मिथ्यात्वमोहनीय सहित बावीश प्रकृति मिथ्यात्वगुणगणे बांधतां नवमो नूयस्कार. ए नव नूयस्कार कह्या. हवे श्राप अल्पतर कहीयें छैयें. . तिहां मिथ्यात्वगुणगणे बावीशनो बंध करी चोथे गुणगणे सत्तर प्रकृतिनो बंध करता, प्रथम समयें प्रथम अल्पतर जाणवो. वली सत्तरथी तेरनो बंध करतां, बीजो अल्पतर. एम विपरीतपणे लेवा. पण एटद्धं विशेष जे एकवीशना बंधनुं एक अल्प. तर न होय, जे नणी मिथ्यात्वथी सास्वादनें न यावे, त्यां सास्वादन गुणगणुं तो सम्यक्त्वथी पडतांज होय, ते मात्रै बावीशना बंधथी एकवीशना बंधे न आवे, एम थाठ अस्पतरबंध होय, अने दश बंधस्थानकें बीजा समयथी मांडीने चरम चरम समय लगें दश अवस्थित बंध होय. एम मोहनीय कर्मना नूयस्कारादिक बंधस्थानक कह्याँ. ॥ इति समुच्चयार्थः ॥२४॥ ॥ हवे नामकर्मने विषे नूयस्कारादिक कहेवाने अर्थे प्रथम बंधस्थानक कहे. ॥ ति पण व अह नवदिया, वीसा तीसे गतीस इग नामे ॥ बस्सग अह तिबंधो, सेसेसु हाण मिकिकं ॥ २५॥ अर्थ-हवे नामकर्मनी जेटली प्रकृति एक समये जे प्रायोग्य बंधाय तेवा बंधस्थानक थार,ते कहे . तिपणअनव हियावीसा के त्रण, पांच,उ, श्राप, नव, अधिक वीश एटखे वीश शब्द, प्रत्येकनी साथें जोमीये, तेवारें एक वीशनो बंध, बीजो पच्चीशनो, त्रीजो बबीशनो, चोथो अहावीशनो, पांचमो गणत्रीशनो, तीसेगतीसगनामे के हो त्रीशनो, सातमो एकत्रीशनो, अने आठमो एकनो बंधस्थानक. । ए श्रारमध्ये मिथ्यात्वी जीव, मनुष्य, तिर्यंच, मिथ्यात्वगुणगणे अपर्याप्ता एकेंजिय प्रायोग्य एक वर्ण, बीजो गंध, त्रीजो रस, चोथो स्पर्श, पांचमो तैजस, हो कार्मण, सातमो अगुरुलघु, श्राठमो निर्माण, नवमो उपघात, दशमी तिथंचगति, अगीआरमी तिर्यंचानुपूर्वी, बारमी एकेजियजाति, तेरमुं औदारिक शरीर, चौदमुं हुंमसंस्थान, पंदरमुं स्थावरनाम, शोलमुं बादरनाम अथवा सूमनाम, सत्तरमुं अपर्याप्तनाम, अढारमुं प्रत्येकनाम अथवा साधारणनाम, अंगणीशमुं अस्थिरनाम, वीशमुं अशुजनाम, एकवीशमुं दो ग्यनाम, बावीशमुं अनादेयनाम, त्रेवीशमुं अयशनाम, ए वीशने बंधे अहीं प्रत्येक साधारण साथे अने सदमबादर साथै जांगा चार थाय. ए प्रथम नामकर्मनुं बंधस्थानक कबु. Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ ६०१ तेमध्ये पराघात अने उच्चास, ए बे प्रकृति वधारीये अने अपर्याप्ताने स्थान पर्याप्त नामकर्म कहीं तेवारें पच्चीश प्रकृति, पर्याप्त एकेंजिय प्रायोग्य मिथ्यात्वीदेव, मनुष्य तथा तिर्यंच बांधे. अहीं जांगा वीश ते सत्तरीना टबाथी जाणवा, ए बीजं स्थानक, ते पच्चीश प्रकृतिने आतप अथवा उद्योतसहित करीये तेवारें बबीश प्रकृ. तिनो बंध. ए पण पर्याप्ता एकेंघिय प्रायोग्य त्रणं गतिना मिथ्यात्वी जीव बांधे, यहीं नांगा शोल थाय. ए त्रीजुं बंध स्थानक. तथा देवधिक, पंचेंजियजाति, वैक्रियशरीर, वैक्रियांगोपांग, समचतुरस्रसंस्थान, पराघात, उवास, शुजखगति, स, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर अथवा अस्थिर, शुन अथवा अशुन, यश अथवा अयश, सुजग, सुस्वर, श्रादेय, वर्णचतुष्क, तैजस, कार्मण, अगुरुलघु, निर्माण, उपघात, ए अहावीश प्रकृति, देवगति प्रायोग्य मिथ्यात्वी तथा सम्यकदृष्टि मनुष्य अने तिर्यंच बांधे. तिहां स्थिरास्थिरादिक साथें नांगा आठ थाय, तथा तेमज नरकगति प्रायोग्य पण अहावीश प्रकृति बंधाय; पण एटवं विशेष जे, देवहिकने स्थानकें नरकठिक तथा समचतुरस्त्रसंस्थानने स्थानकें डंडसंस्थान श्रने अपरावर्तमान प्रकृति अशुज लेवी. अहींयां अहावीशनो नांगो एकज खेवाय. ए अहावीश प्रकृतिनुं बंधस्थानक चोथु. तथा सम्यक्दृष्टि जीव, जिननामसहित देवप्रायोग्य अहावीश बांधतां उंगणत्रीश प्रकृतिनो बंध. अहीं नांगो एक, जे जणी ए शुनज बंधाय तथा मनुष्यछिक, पंचेंजिय जाति, औदारिकछिक, ब संघयणमाहेबुं एक संघयण, ब संस्थान मांहेलु एक संस्थान, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर अथवा अस्थिर, शुज अथवा अ. शुज, सौलाग्य अथवा दो ग्य, सुखर अथवा पुःखर, आदेय अथवा अनादेय, यश अथवा अयश, शुजखगति अथवा अशुजखगति, पराघात, उश्वास, वर्णचतुष्क, तेजस, कार्मण, अगुरुलघु, निर्माण, उपघात, ए मनुष्य प्रायोग्य उंगणत्रीश प्रकृतिना बंध स्थानकना नांगा, तालीशसें ने श्राप थाय, तेमज पंचेंजिय तिर्यंच प्रायोग्य उगणत्रीश बंधप्रकृतिना पण नांगा एटलाज जाणवा.ए पांचमुंबंधस्थानक. तथा देवगति प्रायोग्य अहावीश प्रकृति ते थाहारकशरीर तथा आहारकअंगोपांगसहित बांधतां त्रीज्ञ प्रकृतिनो बंध, अप्रमत्त साधुने होय. अहींय नांगो एक थाय तथा मनुष्य प्रा. योग्य जंगणत्रीश बंध प्रकृतिने जिननाम सहित बांधतां सम्यक्दृष्टि देवताने त्रीशनो बंध. ए बहुं बंधस्थानक. तथा जिननाम सहित देवप्रायोग्य त्रीश प्रकृति बांधतां, एकत्रीश प्रकृति अप्रमत्त अपूर्वकरणगुणगणावाला साधु बांधे. अहीं पण नांगो एक थाय. ए सातमुं बंधस्थानक, Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०२ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ तथा आठमा गुणगाने बहे जांगें नामकर्मनी त्रीश प्रकृतिनो बंध विच्छेद करी आगले एक यशः कीर्त्ति बांधे, त्यां प्रमुं नामकर्मनुं बंधस्थानक जाणवुं. एम आठ बंधस्थानकें एकेंद्रिय, विकलेंद्रिय, देवता, मनुष्य, तिर्यंच, नारकी, प्रायोग्य बंधने दें करी तेर हजार नवसें ने पीस्तालीश जांगा याय. ते सत्तरीना टबामांहे सविस्तर कही शुं. तिहांषी जोइ लेवा बंधस्थानकने विषे नूयस्कारबंध व के० व बे, ते जावें ढे. त्रेवीशनो बंध करी तथाविध विशुद्धे पच्चीश बांधतां प्रथम समये प्रथम जूयस्कार मिथ्यात्वी ने होय. ते पच्चीश आतप अथवा उद्योत सहित बधीराने बंधे बीजो नूयस्कार अथवा विशुद्धे तथा संक्लेशें देवप्रायोग्य अथवा नरकप्रायोग्य अहावीश बांधतां त्रीजो नूयस्कार. ते देवप्रायोग्य हावीशने जिननाम सहित उगणत्रीश बांधतां चोथो नूयस्कार. ते वली श्री प्रकृति मनुष्यप्रायोग्य अथवा देवप्रायोग्य बांधतां पांचमो नूयस्कार. ते देवप्रायोग्य त्रीशने जिननामसहित एकत्रीश बांधतां, हो नूयस्कार. एमज एक प्रकृति बांधी वली श्रेणीथी पकतो त्रीश तथा एकत्रीश बांधे खरो पण ते बंधस्थानकनुं द नहीं, तेथी तेनो जूदो नूयस्कार न लेखववो. ए व नूयस्कार कह्या. हवे स्सग के० सात अल्पतर कहे बे. त्र्यपूर्वकरणें देवगति प्रायोग्य अहावीश, गणत्रीश, त्रीशाने एकत्रीश, बांधीने श्रेणी चढतां जे बंधने व्युवेदी एक यशः कीर्त्तिज बांधे, ते प्रथम छाल्पतर बंध; तथा कोइएक मनुष्य आहारक द्विक ने जिननाम सहित देवप्रायोग्य एकत्रीश प्रकृति बांधतो मरीने देवलोकें जाय त्यां प्रथम समयें मनुष्यप्रायोग्य त्रीश प्रकृति बांधे, त्यां बीजो अल्पतर बंध; तेहज देवलोक थकी चवी मनुष्य थयो थको जिननाम सहित देवगतिप्रायोग्य उगणत्रीश बांधे, तेने श्रद्यसमयें त्री जो अल्पतर ने जेवारें कोई मनुष्य देवगति प्रायोग्य उगणत्रीश बांधतो, विशुद्धपरिणामें देवगतिप्रायोग्य अहावीश बांधे, तेवारें खाद्य समये चोथो अल्पतर; ते घडावीश बांधतो संक्लिष्ट परिणामने वरों एकेंद्रियप्रायोग्य वीश बांधे, तिहां पांचमो अल्पतर; तेहिज बवीशवालो पच्चीश बांधे, तेवारें बहो श्रल्पतर; ते पच्चीशवालो त्रेवीश बांधे, तेवारें सातमो अल्पतरबंध जाणवो. तथा आवे बंधस्थानकें बीजा समयथी मांगीने चरम समय लगें श्रह के आठ अवस्थितबंध होय. तथा तिबंधों के० त्रण अव्यक्तबंध कहे बे. श्रेणीथी परुतां नामकर्मनो सर्वथा बंधक ने फरी यशः कीर्त्ति नामकर्म • बांधे, तिहां प्रथम समये पहेलो श्रव्यक्तबंध; तथा उपशांतमोगुणगणे भरण पामी काल करीने अनुत्तर विमानें देवता For Private Personal Use Only Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ.५ ६०३ थाय, तिहांधुर समयथी मनुष्यथी मनुष्य प्रायोग्य उगणत्रीश प्रकृति बांधे, ते बीजो अव्यक्तबंध; तथा तिहां कोई एक जिननाम सहित त्रीश प्रकृति बांधे, तेवारें तेनी अपेक्षायें प्रथम समयें त्रीजो श्रव्यक्तबंध जाणवो. ए त्रए अव्यक्तबंध कह्या. एम नामकमनी उत्तरप्रकृतिनां बंधस्थानक, जूयस्कारबंध, अल्पतरबंध,अवस्थितबंध, श्रने अव्यक्तबंध, ए चारे कह्या. सेसेसुहाणमिकिकं के हवे शेष एक ज्ञानावरणीय, बीजु वेदनीय, त्रीजु श्रायु, चो, गोत्र, अने पांच, अंतराय, ए पांच कर्मर्नु एक एक बंधस्थानक होय. केम के झानावरणीय श्रने अंतराय, ए बे कर्म ध्रुवबंधी बे. तेमाटें दशमा गुणगणा सुधी एनी सर्व पांचे प्रकृति नेलीज बंधाय. त्यां नूयस्कार अने अल्पतर बंध न होय अने एक अवस्थितबंध सदाय होय, अने शेष वेदनीय, श्रायु ने गोत्र, ए त्रण कर्मनी प्रकृति बंधविरोधिनी बे, तेथी ते एक समये एकज बंधाय तेथी तेनुं बंध. स्थानक पण एकज होय. अहींश्रां नूयस्कार तथा अल्पतरबंध न होय अने वेदनीय तो तेरमा गुणगणा सुधी बंधाय , माटें ते विना शेष चार कर्मनो श्रव्यतबंध एक होय, केम के अगीथारमे गुणगणे अबंधक होइने फरी बांधतां प्रथम समयें अव्यक्तबंध अने तेवार पनी द्वितीयादिक समयें अवस्थितबंध जाणवो. ए. टले सविस्तर प्रकृतिबंध कह्यो. अहींयां मूलप्रकृतिनो तो जघन्य एक, उत्कृष्टो आउनो बंध ने अने उत्तरप्रकृ. तिनो जघन्य एक, उत्कृष्टो चम्मोतेरनो बंध , अहीश्रां अनादि, सादि, अनंत अने सांत, ए चार नांगा पोतानी मतियें विचारी कहेवा. तिहां मूलप्रकृतिना बंध. स्थानकें, उधे सादि सांत नांगो होय.जे नणी नवनवने विषे एकज वार आयु बांधे, तिहां श्रानो बंध अने शेष कालें सात प्रकृतिनुं बंधस्थानक होय. तथा उत्तरप्रकृतिमध्ये झानावरणीय तथा दर्शनावरणीय- एकेक बंधस्थोनक, अने वेदनीयनो एकनो बंध, तथा मोहनीयनो बावीशनो बंध, गोत्रनो एकनो बंध, अंतरायनो पांचनो बंध, ए. टले बंधे अजव्यनी अपेक्षायें अनादि अनंत अने नव्यनी अपेक्षायें अनादि सांत तथा सादि सांत, एत्रण नांगा होय, अने शेष बंधस्थानकें सादि सांत नांगो एकज होय. ए सादि सांतपणुं ते स्थितिमान जाणवू. ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ २५ ॥ ___एम नूयस्कारादिक प्रकारे करी कर्मप्रकृतिनो बंध कह्यो. ॥हवे मूलप्रकृति तथा उत्तरप्रकृतिनो स्थितिबंध स्वामित्वछारें करीसविस्तरपणे कहे जे.॥ वीसयर कोडि कोडि, नामे गोए य सत्तरी मोरे॥ तीसयर चनसु उदही, निरय सुराजेमि तित्तीसा ॥२६॥ Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०४ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ अर्थ-वीसयर के संख्याये वीश अने अयर एटले तरी शकाय नहीं, ते माटें ए अतर कहेतां सागर तेनी उपमायें करीमन्यु जे कालमान, तेने सागरोपम कहीयें, तिहां पदयनी उपमा पल्योपम कहीये. ते योजन प्रमाणे कूवो असंख्यवाला जरी सो सो वर्षे एकेक केशखंग काहाडतां कूप निर्लेप थाय, तेनो काल, तेने अशापख्योपम कहीये. तेवा दश कोमाकोडी कूपमान क्षेत्र ते सागरोपम, तेने निर्लेपनो काल, तेने अज्ञासागरोपम कहीये. ते अझासागरोपमनी कोडिकोडी के वीश कोडाकोडी नामेगोएय के नामकर्म अने गोत्रकर्मनी उत्कृष्टी स्थिति होय, एटले बांधेदुं कर्मदल विणशे नहीं तो एटलो काल रहे तथा परिणाम विशेषे स्थितिघात करतो अपवर्तनकरणे करी स्थिति घटावतां घटी पण जाय, तेम उतनाकरणे करी स्थितिने वधारे पण खरी अने जो निकाचित्तबंध कस्यो होय, तो बंधे घटे नहीं. एनो थबाधाकाल, बे हजार वर्षनो जाणवो. - तथा सत्तरीमोहे के मोहनीयकर्मनो उत्कृष्ट स्थितिबंध सीत्तेर कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण कह्यो . ए बंध उत्कृष्ट संक्लेशे मिथ्यात्व गुणगणे होय अने श्रबाधा काल सात हजार वर्षहीन कर्मदलनो निषेक कहेतां ए कर्मनो रसोदय काल जाणवो. एटले त्रण कर्म कह्यां अने ए थकीइतर एटले अन्य जे चार कर्म, एटले एक ज्ञानावरणीय, बीजु दर्शनावरणीय, त्रीजुं वेदनीय अने चोथं अंतराय, चउसु के ए चार कर्मनी उत्कृष्टी स्थिति तीसयर केत्रीश कोडाकोडी सागरोपमनी उत्कृष्ट संक्शे मिथ्यात्वगुणगणे होय. ए चार कर्मनो श्रवाधाकाल त्रण हजार वर्षनो, तेत्रण हजार वर्ष हीन त्रीश कोडाकोडी सागरोपम रसोदय काल जाणवो, उदही के समुज एटले परमार्थे सागरोपम जाणवू. तेवा तित्तीसा के तेत्रीश सागरोपम कालनी स्थिति श्रायुःकर्मनी निरयसुरामि के नारकी श्रने देवायुनी अपेक्षायें कहीये. एटले अत्यंत संक्लिष्टपरिणामें मिथ्यात्वीने नरकायुनो बंध तेत्रीश सागरोपम कालप्रमाण होय अने अत्यंत विशुद्धपरिणामें प्रमत्त तथा अप्रमत्तने तेत्रीश सागरोपम सुरायुनो बंध होय. अहीं अबाधाकाल उत्कृष्ट तो पूर्व कोडीनो त्रीजो जाग अने जघन्यथी तो अंतरमुहर्त्तकाल होय.अहींयां उत्कृष्ट आयुबंधे नियत उत्कृष्टो अबाधाकाल न होय, ते जणी, निन्न लेखव्यो. एनो रसोदय काल, तेत्रीश सागरोपम जाणवो, परंतु पूर्वकोडीने त्रीजे नागें हीन न जाणवो. अहीं आयुकमनी मूलप्रकृतिनो उत्कृष्ट स्थितिबंध कहेवाने अवसरें नरकायु तथा देवायु, ए बे उत्तरप्रकृतिनो उत्कृष्ट स्थितिबंध काल कह्यो, ते ग्रंथगौरव टालवा नणी कह्यो, अथवा ए बन्नेनुं किंचित् अनेदपणुं जणाववाने अर्थे कह्यो. ॥ २६ ॥ Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ ६०५ ॥ हवे मूलप्रकृतिनो जघन्य स्थितिबंध कहेले. ॥ मुत्तू कसाय हिश, बार मुहुत्ता जहन्न वेयणिए । अ65 नाम गोए, सु सेसएसु मुहुत्तं तो ॥२७॥ अर्थ-मुत्तूअकसाय के अकषाय एटले कषायोदय रहित एवं अगीश्रारमुं, बारमुं श्रने तेरमुं, ए त्रण गुणगणा मूकीने शेष सरागी गुणस्थानकें वेयणिए के वेदनीय कर्मनो अत्यंत जहन्न के जघन्य हिश्के स्थितिबंध, बारमुहुत्ता के बार मुहूर्त प्रमाण होय, तथा ग्रंथांतरें एक मुहूर्त्तनुं पण कयुं . अहींयां एटबुं विशेष जे कषायोदय रहित जे अगीश्रारमुं, बारमुं, अने तेरमुं गुणगणुं बे, तिहां कषायने अनावें स्थितिबंध, तथा रसबंध न होय. परंतु केवल योग प्रत्या प्रकृतिबंध तथा प्रदेशबंध होय, ते प्रथम समयें बांधे तथा बीजे समय वेदे अने त्रीजे समयें विणशे पण कषाय प्रत्यायिक स्थितिबंध न होय. ते जणी ते गुणगाणां अहीं वर्जित करयां बे. अहीं जघन्य वेदनीय स्थितिबंधे अबाधाकाल पण जघन्य अंतर मुहर्त्तनो होय, तेथी हीन शेष रसोदय काल समजवो अने एक श्रायुविना शेष सात कर्मनो जघन्य स्थितिबंधका अबाधाकाल पण जघन्य जाणवो. __ अध्छनामगोएसु के अने नामकर्म तथा गोत्रकर्म, ए बे कर्मनो जघन्य स्थितिबंधकाल अत्यंत विशुकपणे सूक्ष्मसंपरायने प्रांतें आठ मुहर्त प्रमाण होय, तिहां थबाधाकाल, अंतरमुहर्तनो होय, ए त्रण कर्मनो स्थितिबंध कह्यो. सेसएसुमुदुत्तंतो के तेथी शेष रह्यां जे एक ज्ञानावरणीय, बीजु दर्शनावरणीय अने त्रीजुंअंतराय, ए त्रण कर्मनोसूमसंपराय नामा दशमा गुणगणाने प्रांते अने एक मोहनीयकर्मनुं बादरसंपराय नामा नवमा गुणगणाने प्रांते तथा आयुःकर्मनुं प्रथमनां बे गुणगणे अंतरमुहूर्त प्रमाण जघन्य स्थितिबंध होय. ॥२७॥ ___ ए रीतें सामान्यप्रकारें मूलप्रकृतिनो उत्कृष्ट स्थितिबंध तथा जघन्य स्थितिबंध कही. ने, हवे विशेष प्रकारे एकसो ने वीश उत्तरप्रकृतिनो उत्कृष्ट स्थितिबंध कहीयें बैयें. तथा बांधेतुं कर्म ज्यां लगे पोतानो विपाक देखाडे नहीं, तेने अबाधा कहीयें, तथा अबाधा काल पडी कर्मने वेदवाने प्रथम समय बहु अने तेथी वली द्वितीय समय हीन, तृतीय समयें घणुं हीन, एम कर्मदल वेदवा सन्मुख जे दलरचना विशेष तेने निषेक कहीये. एनी स्थापना कहेशे. विग्घा वरण असाए, तीसं अहार सुदुम विगल तिगे॥ पढमा गिश् संघयणे, दस उसु चरिमेसु उग वुढी ॥॥ Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .६०६ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ अर्थ-विग्घा के एक दानांतराय, बीजो लानांतराय, त्रीजो लोगांतराय, चोथो उपजोगांतराय, पांचमो वीर्यांतराय, ए पांच अंतराय कर्मनी प्रकृति तथा वरण के एक मतिज्ञानावरणीय, बीजो श्रुतज्ञानावरणीय, त्रीजो अवधिझानावरणीय, चोथो मनःपर्यवज्ञानावरणीय, पांचमो केवलज्ञानावरणीय, ए पांच ज्ञानावरणीय कर्मनी प्रकृति, तथा एक चकुदर्शनावरणीय, बीजुं अचकुदर्शनावरणीय, त्रीशुं श्रवधिदर्शनावरणीय, चोथु केवलज्ञानावरणीय, धने पांच निझा, तथा असाए के० अशातावेदनीय, एवं वीश उत्तरप्रकृतिनो तीसं के त्रीश कोमाकोडी सागरोपमनो उत्कृष्ट स्थितिबंध, मिथ्यात्वीने होय. तिहां बाधा त्रण हजार वर्षनी जाणवी. त्रण हजार वर्ष हीन कर्म स्थितिनो रसोदयकाल जाणवो. __ अने अहारसुहुम विगलतिगे के० अढार कोडाकोडी सागरोपमनी उत्कृष्ट स्थितिबंधकाल, एक सूक्ष्म, बीजो अपर्याप्त, त्रीजो साधारण, ए सूक्ष्म त्रिक तथा विकलत्रिक, एटले बेंजियजाति अने चौरिंजियजाति, एवं ब प्रकृतिनो अढार कोमाकोमी सागरोपम प्रमाण उत्कृष्ट स्थितिकाल जाणवो. अहीं अढारसें वर्षनो अबाधाकाल जाणवो. एवं बवीश प्रकृति थ. तथा पढमागिसंघयणे के प्रथमाकृति एटले पहेलुं समचतुरस्रसंस्थान तथा प्रथम वज्रषजनाराचसंघयण, ए बे प्रकृतिनी उस्कृष्टस्थिति दस के दश कोडाकोडी सागरोपमनी जाणवी. अहीं एक हजार वर्ष अबाधाकाल जाणवो. अने कुसुचरिमेसुगवुटि के आगला एकेक संस्थाने तथा एकेक संघयणे, एम बेबे प्रकृतिने विषे अनुक्रमें बे बे कोडाकोमी सागरोपमनी स्थितिबंधमां वृद्धि करीयें, एटले ए नाव जे न्यग्रोधसंस्थाने तथा ऋषजनाराचसंघयणे बार कोमाकोमी सागरोपमनी स्थिति अने बारसें वर्ष अबाधाकाल तथा सादि संस्थान अने नाराचसंघयणे चौद कोडाकोडीनी स्थिति अने चौदसें वर्ष अबाधाकालें हीन निषेक काल जाणवो. तथा वामनसंस्थाने मतांतरें कुब्जसंस्थाने अने अर्धनाराचसंघयणे शोल कोडाकोमी सागरोपम स्थिति तथा शोलसें वर्ष अबाधाकालें हीन निषेक काल तथा कुब्जसंस्थाने मतांतरें वामनसंस्थाने अने कीलिकासंघयणे अढार कोडाकोडी सागरोपमनी स्थिति अने अढारसें वर्षनो अबाधायें हीन निषेक काल तथा डंमसंस्थान अने बेवळे संघयणे वीश कोमाकोमी सागरोपमनी उत्कृष्ट स्थिति अने बे हजार वर्ष अबाधाकालें हीन वीश कोडाकोडी सागरोपम रसोदय काल जाणवो. एम ब संघयण तथा उ संस्थाननो उत्कृष्ट स्थितिकाल कह्यो. एवं आडत्रीश प्रकृतिनो स्थितिबंध कह्यो. ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ ७ ॥ Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ច ១ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ चालीस कसाएसु, मिन लहु निछुएह सुरहि सिय महुरे ॥ दसदो सह समदिया, तेहालिदं बिलाईणं ॥ ए॥ अर्थ- चालीसकसाएसु के अनंतानुबंधीथा चार, अप्रत्याख्यानावरण चार, प्रत्याख्यानावरण चार, संज्वलना चार, ए शोल कषायनो बंध, चालीश कोमाकोमी सागरोपमनी उत्कृष्ट स्थिति बंध उत्कृष्ट संक्शें मिथ्यात्व गुणगणे, संनिया मिथ्यात्वीने होय, अने चार हजार वर्ष अबाधाकाने हीन निषेककाल जाणवो. एटले चोपन्न प्रकृति कही. तथा एक मिन के मृड एटले सुकमाल स्पर्श, बीजो लहु के लघुस्पर्श, त्रीजो निकाह के० स्निग्ध एटले चीकटस्पर्श, अने चोथो उस स्पर्श, पांचमो सुरहि के सुरनि गंध, हो सिय के श्वेत एटले उज्ज्वल वर्ण, सातमो महुरे के मधुर रस, ए सात नामकर्मनी प्रकृतिनी उत्कृष्ट स्थिति, दस के दश कोमाकोमी सागरोपमनी जाणवी. तेनो अबाधाकाल एक हजार वर्ष एटले कालें हीन कर्मदल निषेक रसोदयकाल जाणवो. तेवार पड़ी नामकर्मनी प्रकृतिना एकेका वर्ण तथा एकेका रसें प्रत्येक दोससमहिया के अढी कोमाकोमी सागरोपमनी स्थिति वधारीये. तेहालिदं बिलाईणं के ते केम हालिजवर्ण अने श्राम्ल रस, ए बे नामकर्मनी प्रकृतिनी उत्कृष्ट स्थिति सामावार कोडाकोमी सागरोपमनी ते सामाबारसें वर्ष अबाधा कालेंहीणी स्थिति रसोदय काल जाणवो. तथा रक्तवर्ण अने कषायेलो रस, ए बे नामकर्मनी प्रकृतिनी पंदर कोमाकोमी सागरोपम उत्कृष्ट स्थिति, ते पंदरसें वर्ष अबाधाकालें हीणी कर्मदलनी स्थितिनो रसोदय काल जाणवो. तथा पीतवर्ण अने कटुक रस, ए बे नामकर्मनी प्रकृतिनी सामासत्तर कोमाकोडी सागरोपमनी उत्कृष्ट स्थिति अने साडासत्तरसें वर्ष अबाधा का हीन स्थिति कर्मदलिकनो निषेककाल जाणवो. श्यामवर्ण अने तीदण रस, ए बे नामकर्मनी प्रकृतिनो उत्कृष्ट स्थिति बंध वीश कोमाकोमी सागरोपम, बे हजार वर्ष अबाधाकालें हीन कर्म स्थिति कर्म निषेककाल जाणवो. ॥ इति समुच्च. यार्थः ॥ ए॥ दस सुद विदगइ उच्चे, सुर उग थिर बक्क पुरिस र दासे॥ मिडे सत्तरि मणु उग, इची साएसु पसरस ॥ ३०॥ अर्थ-दस के दश कोमाकोमी सागरोपमनो उत्कृष्टस्थितिबंध,एटली प्रकृतिनो होय, तेनां नाम कहे . सुह विहग के० एक शुजविहायोगति, उच्चे के बीजी उच्चैर्गोत्र श्रने सुरफुग के त्रीजी देवगति, चोथी देवानुपूर्वी तथा थिरबक्क के एक स्थिरनाम, Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ទី ០១ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ बीजी शुजनाम, त्रीजी सौजाग्यनाम, चोथी सुखरनाम, पांचमी आदेयनाम, बही यशःकीर्तिनाम, एवं दश प्रकृति थ तथा अगीधारमी पुरिस के० पुरुषवेद मोहनीयनी प्रकृति, बारमी र के रतिमोहनीय, तेरमी हासे के हास्यमोहनीय, ए तेर प्रकृ. तिनी उत्कृष्टी स्थिति होय. तिहां अबाधाकाल एक हजार वर्षनो होय, तेटला वर्षे हीन दश कोडाकोडी सागर ए तेर प्रकृतिनुं कर्मदल निषेककाल उर्जना अपवर्तना. विना खानाविक वेदनकाल जाणवो. तेमध्ये अपवर्तनायें घटे, उदवर्तनायें तथा संक्रमणादिके करी अधिक स्थिति पण होय. एवं ब्याशी प्रकृतिनी स्थितिनुं कालमान कयु. अने मिसत्तरि के मिथ्यात्वमोहनीयनी उत्कृष्टी स्थिति सीत्तेर कोमाकोडी सागरोपम सात हजार वर्ष, अबाधाकालें हीन उत्कृष्ट स्थिति कर्म निषेककाल जाणवो, श्रने सम्यक्त्वमोहनीयनो स्थितिबंध नथी तेश्री स्थितिबंध तथा अबाधाकाल न कह्यो. अने उदयकाल शठ सागरोपम पूर्वकोमी पृथक्त्वें अधिक जाणवू. तथा मिश्रमोहनीयनो निषेककाल अंतर मुहूर्तनों, एटले पंच्चाशी प्रकृति थर. ___ तथा मणुग के मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी, श्वीसाएसु के स्त्रीवेद अने शातावेदनीय, ए चार प्रकृतिनी उत्कृष्टी स्थिति पमरस के पंदर कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण पंदरसें वर्ष अबाधाकाल ते पंदरसें वर्ष हीन कर्मस्थिति कर्मनिषेक काल जाणवो. अहीं जो पण मनुष्यानुपूर्वीनो उदय तो वक्रगतियें बे त्रण समय लगें होय, तो एटलो निषेक काल केम संनवीयें? तथापि एनो उदय मनुष्यगतिमध्ये संक्रमण करणे करी संक्रमावी लोगवे, तेथी दलिक रचना विशेष निषेककाल जाणवो. एवं नेव्याशी प्रकृति कही ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ ३० ॥ जय कुब अरइ सोए, विनवि तिरि उरख निरय उगनीए॥ तेअपण अधिर बक्के, तसचज थावर ग पणिंदि॥३१॥ अर्थ-नय के जयमोहनीय, कुछ के जुगुप्सा मोहनीय, अरइसोए के परति मोहनीय, शोकमोहनीय, विउवि के वैक्रियशरीर, वैक्रियअंगोपांग तथा मतांतरें वैक्रियसंघातन, वैक्रियवैक्रियबंधन, वैक्रियतैजसबंधन, वैक्रियकार्मणबंधन, वैक्रियतैजसकार्मणबंधन, ए वैक्रिय सप्तक कहीये. जे जणी वैक्रिय शरीर बांधतां ए साते नेली बंधाय. एवं अगीबार थर, तथा बारमी तिरि के तिर्यंचगति, तेरमी तिर्यचानुपूर्वी, ए तिर्यंचहिक, उरल के० चौदमुं औदारिक शरीर, पंदरमुं औदारिक अंगोपांग, ए औदारिकछिक तथा मतांतरे औदारिकसंघातन, औदारिकऔदारिकबंधन, Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ ६०ए औदारिकतैजसबंधन, औदारिककार्मणबंधन, औदारिकतैजसकार्मणबंधन, ए श्रौदारिक सप्तक लीजें, केम के ए औदारिकशरीर बांधतां साते साथें बंधाय. एवं वीश प्रकृति थ३. निरयाग के नरकटिक, नीए के नीचैर्गोत्र, तेथपण के एक तैजस, बीजें कार्मण, त्रीजु गुरुलघु, चोथु निर्माण अने पांचमुं उपघात, ए तैजस पंचक, मतांतरें तैजससंघातन, कार्मणसंघातन, तैजसतैजसबंधन, कार्मणकार्मणबंधन, तैजसकार्मणबंधन, ए नेलतां तैजस दशक थाय. एवं तेत्रीश प्रकृति थक्ष, तथा अथिरबक्के के अथिरनाम, अशुजनाम, दो ग्यनाम, फुःखरनाम, अनादेयनाम अने अयशश्रकीर्ति नाम, ए अथिरषट्क. एवं उंगणचालीश प्रकृति थ. तसचउ के त्रसनाम, बादरनाम, पर्याप्तनाम अने प्रत्येकनाम, ए त्रसचतुष्क. एवं तालीश प्रकृति थश थावर 0 स्थावरनाम, ग के० एकेंजियजाति, पणिदि के० पंचेंजियजाति, ए तालीश प्रकृति श्रा गाथामां कही. ॥ इति ॥ ३१॥ नपु कुखगइ सासचन, गुरु करकड रुक सीय फुग्गंधे ॥ वीस कोडा कोडी, एवश्आ बाद वास सया ॥ ३२॥ अर्थ- नपु के नपुसकवेदमोहनीय, कुखग के अशुजविहायोगति, सासचज के उश्वासनाम, उपघातनाम, आतपनाम अने पराघातनाम, ए उश्वासचतुष्क, गुरु केत गुरुस्पर्शनाम, करकड के कगरस्पर्शनाम, रुक के रूदस्पर्शनाम, सीय के शीतस्पर्शनाम, फुग्गंधे के पुगंधनाम. एवं अगीयार प्रकृति अने पूर्वली गाथामध्ये तासीश प्रकृति कही बे. एम सर्व मली सत्तावन प्रकृतिनो उत्कृष्ट स्थितिबंधकाल वीसंकोडाकोडी के० वीश कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण जाणवो. ए उत्कृष्ट संक्शे वर्त्ततो मिथ्यात्वी जीव बांधे, ते मध्ये पांच प्रकृति मोहनीयनी, एक गोत्रनी अने शेष एकावन प्रकृति नामकर्मनी जाणवी. तिहां श्रवाधाकाल बे हजार वर्षनो होय. त्यांलगें ते कर्म रसथी तथा प्रदेशश्री उदय न श्रावे अने जो संक्रमकरणे करी तुल्यप्रकृति समजातिय मध्ये संक्रमावी उदय आणे, तो एक बंधावलिका, बीजी संक्रमावलिका व्यतित थये थके उदय आवे. जेम अनंतानुबंधीआनी विसंयोजना करी उपशांत मोहथी अकादये पडे तो कोइएक प्रथम गुणगणे आवे. त्यां मिथ्यात्व प्रत्ययें अनंतानुबंधीया चार बांधे, तेनी बंधावली गये थके अप्रत्याख्यानादिक जे पूर्व बांधे. बे तेमांहे संक्रमावी वेदे, तथा अपवर्तनादिक करणे करी, अल्पकालकरी पण वेदे, तथा अबाधा अतिक्रमे थके गायना प्रबनी पेरें. प्रथम बहु विस्तीर्णदल रचना, बीजे समयें विशेष हीन, एम समय समय विशेष हीन हीन करतां ए रीते अर्डमा Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१० शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ त्रस्थिति, प्रांतें अर्डदल होय. ए रीते जे उदयावलिकानुं रचवू, ते निषेक कहीये. तेनो काल ते निषेककाल जाणवो. ते जे कर्मनी जेटली स्थिति, ते मध्ये थी अबाधाकाल काढतां शेष रहे, ते निषेककाल कहीये. एवश्याबाहवाससया के जे कर्मनी जेटला कोमाकोमी सागरोपमनी स्थिति, एटला सश्कडा वर्ष, ते कर्मनीषबाधा जाणवी, ते जघन्य अबाधाकालनी स्थिति अंतरमुहर्तनी , तिहां कंमक एटले अंगुलीनो असंख्यातमो नाग तेना जेटला आकाशप्रदेश तेटलासमय प्रमाण जे कर्मस्थिति विशेष,तेटली स्थिति विशेष अतिक्रमे थके प्रथम जे उत्कृष्ट अबाधाकालनुं स्थानक हतुं, ते अबा. धाकालना स्थानकमांडेथी एक समय हीन अबाधाकालनुं बीजुं स्थानक थाय. एम वली पण कंमक मात्र हीन कर्म स्थिति होय थके समय हीन अबाधाकालनुं त्रीजुं स्थानक थाय, एम कंमक कंडक मात्र स्थितिनी हाणीयें समय समय हीन अबाधाकालर्नु पण स्थानक थाय. एम अबाधाकालनी उत्कृष्ट स्थिति थकी. उतरतां जघन्य स्थितिपर्यंत कंमकसंख्या अने अबाधाकालनां स्थानक यावत् तुल्य थाय. जे मूलप्रकृतिनी तथा उत्तरप्रकृतिनी जेटली कोडाकोमी सागरोपमनी स्थिति होय ते प्रकृतिने तेटला शत वर्षनो अबाधाकाल होय. एटले बांध्या पली पण एटला काल लगें ते कर्म उदय न आवे, तेने अबाधाकाल कहीये. तथा पोतपोताने अबाधाकालें हीन जे कर्म स्थिती, ते कर्मनो निषेक कदेतां नोग्यकाल होय.निषेक ते कर्म उदयकालें प्रथम बहु प्रदेशाग्र सामटो उदय आवे अने पढ़ी समय समय हीन हीनतर थाय. यावत् कर्मनी स्थिति ते बेहले समये अत्यंतम उदय होय, एने निषेक कहीये. ए सत्तावन प्रकृति तथा आगल नेव्याशी प्रकृतिनुं उत्कृष्ट स्थितिबंध कह्यु, अने देवायु तथा नरकायु, ए वे प्रकृतिनुं उत्कृष्ट स्थितिबंध तेत्रीश सागरोपम प्रमाण मूलप्रकृति मध्ये कडं बे. तेहीज शाही पण ले. एम सर्व मली एकसो ने अडतालीश प्रकृतिनुं उत्कृष्ट स्थितिबंध कह्यु. ॥ इति जावार्थः ॥ ३ ॥ .. गुरु कोडि कोडी अंतो, तिबगहाराण निन्नमुद बादा ॥ ॥अथ जघन्य स्थितिबंधः॥ लहु विश् संख गुणूणा, नर तिरियाणान पन्नतिगं॥३३॥ अर्थ-गुरुकोमिकोमीअंतो के० उत्कृष्ट स्थितिबंध अंतःकोमाकोमी सागरोपम कालनो तिलाहाराण के तीर्थकर नामकर्म तथा आहारकशरीर, थाहारकअंगोपांग, थाहारकसंघातन, श्राहारकाहारकबंधन, थाहारकतैजसबंधन, आहारककार्मणबंधन श्रने आहारकतैजसकामणबंधन, ए आहारक सप्तक. एवं नामकर्मनी पाठ प्रकृतिनी, Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ उत्कृष्टी स्थिति कोडाकोडी सागरोपम होय. अहीशा शिष्य पूजे जे के, हे जगवन् कोमाकोमी सागरोपम जिननामनो काल कह्यो एटलो काल तो, जीव तिर्यंचगतिमां गया विना न रहे. अने तिर्यंचगतिना जीवमध्ये तो जिननामनी सत्ता पण निषेधि , तो एटलो काल क्या पूर्ण करे ? तथा तीर्थकरनामकर्म तीर्थंकरजव थकी अर्वाक चीजे नवे बांधे जे एम पण का, ते पण केम घटे ? यहींयां गुरु उत्तर कहे के “जं मिह निकाश्य तिबं, निरय नवे तंनिसेहिकं संतं ॥ श्यरंमि ननिदोसो, उव. दृणा वट्टणामऊ ॥१॥" ___ ए गाथानो अर्थ कहेडे के, तिर्यंचमध्ये जे जिननामनी सत्ता निषेधि तथा त्रीजें जवें बंधाय, ते तो निकाचित जिननामनी थपेक्षायें जाणवो. तीर्थकरजव पहेलो, जीजा नवें निकाचे, ते कर्म सकल करणने असाध्य होय, श्रने जे निकाचित न होय, ते कर्मनी तो अपवर्त्तना कहेतां स्थितिरसनु घटावq अने उद्वर्तना एटले स्थितिरसनुं वधारदुं तथा संक्रम एटले पर प्रकृति मांहे संक्रमाव, तथा उवेलq इत्यादिक करण साध्य होय. ते जिननाम घणा जव पहेलो पण बंधाय. तथा अंतःकोमाकोमी सागरापमे स्थिति पण अपवर्तनायें घटावे,तथा पर प्रकृति मांहे संक्रमावतां कांश दूषण नथी तथा ए श्राप कर्म प्रकृतिनो जिन्नमुहबाहा के अबाधाकाल अंतर मुहर्त बे. ते नणी जिननाम जेणे बांध्यु होय, तेने अंतर मुहूर्त पड़ी जिनादिकनो प्रदेशोदय थाय, तेथी करी तेनो अन्य जीवनी अपेक्षायें महीमा विशेष होय, पूजा महत्वनी वृद्धि होय.एम एकसो ने बपन्न प्रकृतिनी उत्कृष्टि स्थिति कही. __ हवे ग्रंथगौरव टालवा जणी ए पाठ प्रकृतिनी जघन्य स्थिति अहींज कहे . जिननाम अने थाहारक सप्तक, एवं आठ प्रकृतिनी सहुविश्संखगुणूणा के लघु एटले जघन्य स्थिति, उत्कृष्ट स्थिति थकी संख्यात गुणी हीणी जाणवी; जे जणी अंतर मुहूर्त्तनी पेरें अंतःकोडाकोडीना पण असंख्याता नेद होय, जे जणी संझीया पंचेंजिय पर्याप्तानी स्थितिबंधयी अधिक उत्कृष्टी स्थिति साधु बंध खगें जेटला स्थितिबंध, ते सर्व अंतःकोडाकोडी सागरोपम प्रमाण कहीये. हवे शेष बे आयुनो उत्कृष्ट स्थितिबंध कहे . नरतिरियाणाउपातिगं के एक मनुष्य- आयु अने बीजुं तिर्यंचनुं श्रायु, ए बेनो उत्कृष्ट स्थितिबंध, त्रण पथ्योपम जाणवो. जे जणी प्रथम आरे तथा देवकुरु अने उत्तरकुरुना मनुष्य त्रण पक्ष्योपमायु बे. तेनो थबाधाकाल उत्कृष्टथी तो पूर्वकोमीना त्रीजा जाग प्रमाण. जे जणी संख्यातावर्षायुना मनुष्य विना अन्य गतिथी चवी युगलीयुं मनुष्य न थाय ते जणी तेत्रीश लाख, तेत्रीश हजार, त्रणसें ने तेत्रीश पूर्व अने एक पूर्वनो त्रीजो नाग Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ उपर, एटलो उत्कृष्ट अबाधाकाल, ते त्रण पढ्योपमयी अधिक अबाधाकाल जाणवो. ए एकसो थहावन प्रकृतिनो उत्कृष्ट स्थितिबंध कह्यो, अने आठ प्रकृतिनो जघन्य स्थितिबंध काल कह्यो. ॥ इति समुच्चयार्थः॥ ३३ ॥ ॥हवे लाघवें श्रायुबंध एकेंजियादिकन कहे . ॥ ग विगल पुत्र कोमी, पलियाऽसंखंसान चन अमणा ॥ निरुवकमण उमासो, अबाद सेसाण नवंतंसो ॥ ३४ ॥ अर्थ-गविगलपुवकोडी के एकेंजिय जीवने तथा विकलें जिय कहेतां बेंजिय, तेंजिय, चौरी जिय, जीवने परनवायु उत्कृष्ट पूर्वकोमी प्रमाण बंधाय, पण पक्ष्योपम सागरोपम मान श्रायु न बांधे, केमके एकेंजियादिक जीव जे , ते देव नारकी मध्ये तथा असंख्यात वर्षायुवाला मनुष्य तिर्यंचनी गति मध्ये पण अवतरे नहीं, तेथी तत्प्रायोग्य आयु न बांधे, तथा पलियाऽसंखंसआउचउमणा के पल्योपमना असंख्यातमा नाग प्रमाण देवायु, तिर्यगायु, नरकायु अने मनुष्यायु, ए चार आयुष्य असंझीया पंचेंजिय तिर्यंच बांधे. केमके असंझीश्रा पंचेंजिय तिर्यंच चारे गति मांहे अवतरे तो खरा तथापि देवो मध्ये तो नुवनपति तथा व्यंतर मध्येज जाय, परंतु ज्योतषी तथा वैमानिकमध्ये न जाय, अने नरकगतिमध्ये पण प्रथम नरकना त्रण पाथमा लगें जाय, परंतु श्रागडे न जाय; ते माटें पख्योपमना असंख्यांशथी अधिक आयु न बांधे. तेथी तेने अबाधाकाल पूर्वकोमी त्रिन्नाग उत्कृष्टो जाणवो, तेटला कालें हीन पल्यासंख्यांश प्रमाण निषेककाल जाणवो. तथा निरुवक्कमण उ मासो के निरुपक्रमायुना धणी एवा देव, नारकी तथा युगलीया मनुष्य अने तिर्यंच, जेनुं श्रायु अध्यवसाय प्रमुख श्रावलीयें करी घटे नहीं तेवा आयुना धणी जे देवतादिक बे, ते परनवायुनो बंध निजलवायु बम्मास बते बांधे, तेथी तेने परनवायुनो उ महीना अबाधाकाल जाणवो. तथा मतांतरें युगलिया पण पस्योपमनो असंख्यातमो नाग शेष निजलवायु थके परनवायु बांधे, तेथी तेने पल्यासंख्यांश काल प्रमाण अबाधाकाल जाणवो, तथा नगवतीनी वृत्तिमध्ये नारकी अंतरमुहूर्त्तायु शेष परनवायु बांधे, एम कर्यु ले. तेथी नारकीने जघन्य अबाधाज होय. हवे निरुपक्रमायुना धणी मनुष्य अने तिर्यंच मुकीने ते विना अवाहसेसाणजवंतंसो के शेष थाकता जे सोपक्रमायुना धणी मनुष्य तथा तिथंच ते परजवायुबंध पोताना जवना श्रायुनो त्रीजो जाग शेष हुँते तथा त्रीजा नागनो त्रीजो जाग शेष ढुंते एटले स्वनवायुने नवमे जागे अथवा तेने पण त्रीजे नागें एटले सत्तावी Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५। ६१३ शमें नागें अथवा तेने पण त्रीजे नागें एटले एक्याशीमे नागें परजवायु बांधे, तेथी तेनी अबाधा पण तेटलीज होय. एम उत्कृष्ट अबाधासहित उत्तरप्रकृतिनी उत्कृष्ट स्थिति कही. ॥ इति ॥ ३४ ॥ ॥ हवे उत्तरप्रकृतिनो जघन्य स्थितिबंध कहे .॥ लहु विव बंधो संजलण, लोह पण विग्घ नाण दंसेसु ॥ जिन्न मुहुत्तंतेअछ, जसुच्चे बारसय साए ॥ ३५ ॥ अर्थ-लहुविश्बंधो के लघु एटले जघन्य स्थितिबंध ते संजलणलोह के एक संज्वलनलोजनुं नवमा गुणगाणाने पांच में नागें चरमबंधे होय, तथा पणविग्घ के० पांच अंतरायकर्मनी प्रकृति अने नाण के पांच ज्ञानावरणीयनी प्रकृति तथा दंसेसु के चार दर्शनावरणीयनी प्रकृति, एवं चौद प्रकृतिनुं जघन्य बंध सूक्ष्मसंपराय गुणगणाने प्रांत समय होय. जे जणी ए पंदर प्रकृतिना बंधकमांहे एहिज अत्यंतविशुद्धि जे. अने ए पंदरनी अतिविशुद्धपणे जघन्य स्थिति बंधाय, ते जणी निन्नमुदत्तंते के0 चरम बंध अंतरमुहर्त्तनो होय. अने एनो अबाधाकाल पण अंतरमुइतनो जाणवो, जे जणी अंतर्मुहर्त स्थितिबंध कालनो अंतरमुहर्त्तथी संख्यातगुण हीन एवो अंतरमुहर्त्तनो अबाधाकाल होय, अह के आठ अंतरमुहर्त्त प्रमाण जघन्य स्थितिबंध ते जसुच्चे के एक यश कीर्त्तिनाम अने बीजो उच्चैर्गोत्र, ए बे प्रकृतिनो पण जघन्य स्थितिबंध थाप मुहत्ते प्रमाण ते सूदमसंपराय नामे दशमा गुणगणाने प्रांतें एनो चरमबंध होय, एनो अबाधाकाल पण जघन्य जाणवो. __ अने बारसयसाए के सातावेदनीयनो जघन्यस्थितिबंध बार मुहर्त्तनो तथा सिछातमध्ये एक मुहूर्त्तनो पण कहेलो . तथा अबाधाकाल अंतरमुहूर्त्तनो जाणवो, अने ए सातानो तथा उच्चैर्गोत्रनो उदय चौदमा गुणगणा लगें होय. ॥ ३५ ॥ दो ग मासो परको, संजलण तिगे पुम वरिसाणि ॥ सेसाणु कोसा, मिबत्त हिइए जलई ॥३६॥ . अर्थ-दोगमासोपस्को के बे मास, एक मास अने पदनो जघन्य स्थितिबंध, अनुक्रमें संजलण तिगे के संज्वलन त्रिकनो जाणवो. एटले संज्वलना क्रोधनो जघन्यस्थितिबंध, नवमा गुणगणाने बीजे नागें चरमबंधे बे मास प्रमाण होय, तथा संज्वलना माननो एक मासनो जघन्यबंध नवमा गुणगणाने त्रीजे नागें चरम बंधे होय, तथा संज्वलनी मायानो जघन्य स्थितिबंध, एक पखवामानो नवमा गुणगणाने चोथें नागें चरम बंधे होय, एने पोतपोताना बंधकमांहे ए हिज अतिविशुक्रिनुं अध्य Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१४ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ वसाय स्थानक जे ते नणी. तथा एनी श्रवाधा पण अंतरमुर्त प्रमाण , ते श्रबाधायें हीन जघन्य स्थितिनो निषेक काल जाणवो. ए रीतें संज्वलना क्रोध, मान, माया, ए त्रणनी जघन्य स्थिति अनुक्रमें कही. अने पुमवरिसाणि के० पुरुषवेदनो जघन्य स्थितिबंध नवमा गुणगणाने प्रथ. म नागें चरमबंध आठ वर्षनो होय, एना बंधकमांहे एहिज अतिविशुकि बे. एनी जघन्य अबाधा अंतरमुहूर्त्तकाल प्रमाण जे. ए बावीश प्रकृतिनो जघन्य स्थितिबंध कह्यो, तथा श्रायु चार, वैक्रिय षट्रक, जिननाम, अने थाहारकटिक, ए तेर प्रकृतिनो जघन्य स्थितिबंध, स्वामीत्व प्रस्तावे जूदो कहेशे. एवं पांत्रीश प्रकृति विना शेष पंचाशी प्रकृतिनो जघन्य स्थितिबंध कहेवाने करण कहे . पंञ्चाशी प्रकृतिनी जघन्यस्थिति एके प्रिय जीवने विषे प्राप्यमाण , ते कहे . सेसाणुकोसा के शेष प्रकृतिउनो जे उत्कृष्ट स्थितिबंध ले ते मिछत्तहिएजलडं के० मिथ्यात्वमोहनीयनी उत्कृष्ट स्थिति साथें वेंचता जे लाजे, ते जघन्य स्थिति कहेवी; एटले ज्ञानावरणीयादिकनी उत्कृष्टी स्थिति त्रीश कोमाकोडी सागरोपमनी बे, ते मिथ्यात्वमोहनीयनी उत्कृष्टी स्थिति सीतेर कोमाकोडी सागरोपमनी जे, तेणे नाग देतां, पूर्ण सागरोपम नावे तेथी एक सागरोपमना सात जाग करीयें, तेवारें त्रीश कोमाकोमी सागरोपमना बसें ने दश सातीश्रा नाग थाय. ते सीतेर कोमा. कोमी साथें वेंचतां त्रण नाग श्रावे अने वीश कोमाकोमीना सातीश्रा एकसो चालीश नाग थाय, तेने सीत्तर कोमाकोमी साथें वेंचता सातीश्रा बे जाग श्रावे, ए. टले एकेजियने झानावरण पांच, दर्शनावरण नव, अंतराय पांच, श्रने अ. शातावेदनीय एक, एवं वीश प्रकृतिनो उत्कृष्ट स्थितिबंध, सागरोपमना सातश्या त्रण जाग जाणवा, तथा शोल कषायना सातश्या चार नाग, अने मिथ्यात्वमोहनीयनो एक सागरोपम संपूर्ण जाणवो. एवं सामत्रीश प्रकृति थइ. तथा त्रसचतुष्क, अस्थिर षट्क, औदारिकछिक, तिर्यंचटिक, एकेंजियजाति, पंचेंजियजाति, कुखगति, निर्माण, थातप, उद्योत, स्थावर, तेजस, कार्मण, गुरुलघु, जपघात, उश्वास, हुंडसंस्थान, बेवहं संघयण, कृसवर्ण, तीक्ष्णरस, अशुजस्पर्श चतुष्क, उगंध, थरति, शोक, जय, जुगुप्सा, पराघात, थने नपुंसकवेद, ए एकतातीश प्रकृतिनी उत्कृष्ट स्थिति वीश कोमाकोमीनी , तेने मिथ्यात्वनी स्थिति साथें वेंचतां सातश्या बे नागनो बंध होय. एवं होतेर प्रकृति थइ. - सूदमत्रिक तथा विकलजाति त्रिक, ए उ प्रकृतिनी उत्कृष्ट स्थिति अढार कोडा Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ ६१५ कोमी सागरोपमनी बे, तेने मिथ्यात्वस्थिति साथें वेंचतां एक सागरोपमना पांत्रीश जाग करीयें. एवा नव जागनो बंध होय. एवं चोराशी प्रकृति थः स्त्रीवेद, मनुष्यछिक, शातावेदनीय, ए चार प्रकृतिनो बंध एक सागरना चौद जाग करीयें, एवा त्रण नाग, अथवा सात दोढ नाग, एवं श्रहासी प्रकृति थ, स्थिर, शुज, सुजग, पुंवेद, सुस्वर, श्रादेय, यशःकीर्ति, हास्य, रति, शुजखगति, प्रथमसंघयण, प्रथमसंस्थान, सुगंध, शुक्लवर्ण, मिष्टरस, शुजस्पर्श चतुष्क, एउंगणीश प्रकृतिनी दश कोमाकोमी सागरोपमनी स्थिति मे,तेने मिथ्यात्वमोहनीय वेचतांबंध साता एकनाग होय. पीतवर्ण, आम्लरस, ए बे प्रकृतिनो बंध,अहावीशीश्रा पांच नाग, तेवार पड़ी एकेका वर्णे अने एकेका रसें, अहावीशी एकेक नाग वधारता जवू. एटले रक्त वर्ण अने कषायला रसें अहावीशीश्रा उ नाग, एम शेष वर्ण तथा शेष रसने विषे अनुक्रमें कहेवो, एवं ॥ ११५ ॥ तथा बीजे संघयणे अने बीजे संस्थाने पांत्रीशीश्रा जाग, तथा त्रीजे संघयणे अने त्रीजे संस्थाने पांत्रीशीथा सात नाग, तथा चोथे संघयणे अने चोथे संस्थाने, पांत्रीशीथा आठ नाग, तथा पांचमे संघयणे अने पांचमे संस्थाने, पांत्रीशीया नव जाग, ए एकेजियने उत्तरप्रकृतिनो उत्कृष्टस्थितिबंध सामान्य कह्यो; केम के एकेजियने एकसो ने नव प्रकृतिनो बंध जे ते मध्ये नरायु तथा तिर्यगायुनो उत्कृष्टस्थितिबंध पूर्व कोडीनो अने शेष एकसो ने सात प्रकृतिनो उत्कृष्टस्थितिबंध नहीं कह्यो. ए एकसो ने सात प्रकृति मध्ये पण पूर्वे बावीश प्रकृतिनो जघन्य स्थितिबंध सामान्यपणें कह्यो बे, अने शेष पंचाशी प्रकृतिनो जघन्यस्थितिबंध कहे जे. एवं एकसो ने त्रेवीश प्रकृति थ. ___ अहीं वर्णादिक सविस्तर वीश प्रकृतिनो बंध कह्यो, तेथी एकसो ने वीश प्रकृति थर, परंतु ए वर्णादिक सामान्य चार लेतां एकसो ने सात प्रकृति थाय, तेमांहेली ज्ञानावरणीय पांच, दर्शनावरणीय चार, अंतराय पांच, संज्वलना चार. पुंवेद एक, शातावेदनीय, उच्चैर्गोत्र, श्रने यशःकीर्ति, ए बावीश प्रकृतिनो जघन्यस्थितिबंध मूकीने तेथी शेष रही जे पंचाशी प्रकृति तेनो जघन्य स्थितिबंध स्वामी एकेंजिय . ते पंञ्चाशी प्रकृतिनो एकेजियने विषे उत्कृष्ट स्थितिबंध जे कह्यो तेने अज्ञापल्योपमने असंख्यातमें नागें हीन करतां, एकेजियने विषे जघन्य स्थितिबंध थाय ते कहे . निझा पांच, तथा अशातावेदनीय, ए प्रकृतिनो जघन्यस्थितिबंध सातीश्रा बेनाग,पथ्योपमने असंख्यातमे नागें हीणा जाणवा,तथा मिथ्यात्वमोहनीयनो एक कोमाकोमी सागरोपम पठ्योपमने असंख्यातमें जागे हीन जाणवो,एम जे कर्म प्रकृ Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१६ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. Ա तिनी वीश कोमाकोडी सागरोपमनी उत्कृष्टी स्थिति बे, तेनी जघन्य स्थिति, साती बे जाग, जेनी दश कोडाकोडीनी उकृष्टी स्थिति तेनी जघन्य स्थिति साती एक जाग ने जेनी पंदर कोडाकोडी सागरोपमनी उत्कृष्ट स्थिति तेनी जघन्यस्थिति चौदीचा त्रण जाग, ते सर्व पट्योपमने असंख्यातमें जागे ऊणा जाणवा; तेमज जेनी दार कोडाकोडी सागरोपमनी उत्कृष्टी स्थिति, तेने सागरोपमना पात्रीशी श्रा नव जाग पल्योपमना श्रसंख्यातमें जागें ऊणा जाणवा. ए रीतें पंच्चाशी प्रकृतिनो एकेंद्रिय विषे जघन्य स्थितिबंध जाणवो. ॥ ३६ ॥ प्रय मुकोसो गिंदिसु, पलियासंखंस दीए बहु बंधो ॥ कमसो पणवीसाए, पन्ना सय सदस संगुणि ॥ ३७ ॥ अर्थ- मुकोसोगं दिसु के० ए अनंतरोक्त एकेंद्रियने एकसो ने सात प्रकृतिनो उत्कृष्ट स्थितिबंध, ते पलियाऽसंखसही पलहुबंधो के० पस्योपमने असंख्यातमे जागें ही करतां एकेंद्रियने एकसो सात प्रकृतिनो जघन्य स्थितिबंध थाय. हवे प्रसंगात एकेंद्रियना स्थितिबंध कह्या, पठी त्रण विकलेंद्रिय तथा असंज्ञिपंचेंद्रिय उत्कृष्ट तथा जघन्य स्थितिबंध, कड़े बे. कमसो के० अनुक्रमें पणवीसाए के० पचवीश गुणो बेंद्रियने एटले एकेंद्रियने जे एकसो ने सात प्रकृतिनो उत्कृष्ट स्थितिबंध को, तेथी पच्चीश गुणो बेंद्रियने उत्कृष्ट स्थितिबंध होय, एटले ज्ञानावरणीयादिक वीश प्रकृतिनो सागरोपमना सातइया पंच्चोत्तेर जाग. एम दश सागरोपमस्थितिवाला कर्मना सातइया पचीश जाग, एम शोल कषायना सातइया सो जाग, मिथ्यात्वमोहनीयनो बंध पच्चीश सागरोपम, एम जेनी उत्कृष्ट स्थिति वीश starकोडी सागरोपमनी तेने सात सागरोपम ने सात एक जाग उपर, जेनी पंदर कोडाकोडी सागरोपमनी उत्कृष्टी स्थिति तेने सागरोपमना चौदिया पंच्चोतेर जाग एटले पांच सागरोपमने चौदिया पांच जाग उपर, जे कर्मनी अढार कोमाकोमी सागरोपमनी स्थिति तेना पांत्रीशीया बसें ने पच्चीश जाग एटले ब सागरोपम ने पात्रीशी या पंदर जाग उपर जाएवा. ए रीतें बेंद्रियनें एकसो ने सात प्रकृतिनो उत्कृष्ट स्थितिबंध जाणवो. हवे तेंद्रियनो उत्कृष्ट स्थितिबंध कहे बे. जेटलो एकेंद्रियने एकसो ने सात प्रकृतिनो उत्कृष्ट स्थितिबंध कह्यो, तेथी पन्ना के० पञ्चाशगुणो ने बेंद्रियना स्थितिबंध थकी बमणो जावो, एटले ज्ञानावरणादिक वीश प्रकृतिनो उत्कृष्ट स्थितिबंध एकवी सागरोपम ने सातइया त्रण जाग उपर, तथा मिथ्यात्वमोहनीयनो पञ्चाश सागरोपम, एम सर्व प्रकृतिउने विषे तेंद्रियनो उत्कृष्ट स्थितिबंध जाणवो. For Private Personal Use Only Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ ६१७ हवे चौरिंडियो उत्कृष्ट स्थितिबंध ते जेटलो एकेंद्रियने एकसो ने सात प्रकृतिनो स्थितिबंध को ते थकी सय के० सो गुणो ने बेंद्रियना स्थितिबंध थकी चार गुणो तथा तेंद्रियना स्थितिबंध थकी बमणो जाणवो; एटले मिथ्यात्वमोहनीयनो एकसो सागरोपम, तथा ज्ञानावरणादिक वीश प्रकृतिनो बेंतालीश सागरोपम ने सातश्या जाग उपर, शोल कषायना सत्तावन सागरोपम ने सात एक जाग, एम जे कर्मनी वीश कोमा कोमी सागरोपमनी स्थिति होय तेनुं अहावीश सागरोपम ने सातया चार जाग उपर स्थितिबंध होय, एम सर्वत्र लेवुं. सन्नी पंचेंद्रियनो उत्कृष्ट स्थितिबंध एकेंद्रियना बंध थकी सहससंगु - uिd के० हजार गुणो जावो, अने चौरिंद्रियना बंध थकी दश गुणो जावो. एटले. मिथ्यात्वमोहनीयना हजार सागरोपम, शोल कषायना सागरोपमना सातश्या चार हजार नाग एटले पांचसें एकोत्तेर सागरोपम ने सातइया त्रण जाग उपर तथा ज्ञानावरणादिकवी प्रकृतिना सातथा त्रण हजार जाग, तेना चारसें श्रद्वावीश सागरोपम ने सात चार जाग उपर, एम जे कर्मनी वीश कोडाकोमी सागरोपमनी स्थिति तेना बे हजार जाग एटले बसें पंच्चाशी सागरोपम ने सात पांचजाग उपर जावा. जे प्रकृतिनी दश कोमाकोमी सागरोपमनी स्थिति, तेना हजार जाग एटले एकसो बेंतालीश सागरोपम ने सातइया व नाग उपर, तथा जे कर्मनी पंदर को माकोडी सागरोपमनी स्थिति, तेना बसें चौद सागरोपम ने सातथा बे नाग उपर जाएवा. एम उत्कृष्ट स्थिति असन्नी पंचेंद्रिय बांधे. वैक्रिय शरीर, वैक्रिय अंगोपांग, देवगति, देवानुपूर्वी, नरकगति, नरकानुपूर्वी, एवं व प्रकृति, एनी जघन्य स्थितिबंधन स्वामी पण सन्नी पंचेंद्रिय जाणवो. जे जणी एकेंद्रिय तथा विकलेंद्रियने एनो बंध नथी, तेथी देवद्विकनो बंध मूल दश कोमाकोमी सागरोपमनो बे. ते मिथ्यात्वनी स्थितियें वेंचतां सात एक जाग यावे, तेने हजार गुणो करतां सातइश्रा हजार जाग याय. तेना एकसो बेंतालीश सागरोपम उपर सातच्या बाग 1. घ्यावे, तेमज वैक्रियद्विक अने नरकद्विकना सातच्या बे हजार जाग याय, तेना बसें पंच्चाशी सागरोपम ने सातश्या पांच जाग उपर स्थिति जाणवी. ते वली पढ्योपमने असंख्यातमें जागें ऊणी करीयें तेवारे ए व प्रकृतिनो जघन्य स्थितिबंध होय, ने चार युनो पल्योपमना असंख्यातमा जाग प्रमाण बंध जाणवो. एटले एकसो ने शोल प्रकृतिनो जघन्य स्थितिबंध को. ॥ ३७ ॥ ७८ Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१७ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ ॥ हवे विकलें जिय तथा असंन्नीया पंचेंजियनो जघन्य स्थितिबंध कहे .॥ विगल असन्निसु जिठो, कणि पल्लऽसंख लागुणो ॥ सुर निरयान समादस, सदस्स सेसाज खुद नवं ॥ ३ ॥ अर्थ- विगलअसन्निसुजिहो के विकलेंजिय अने असंझी पंचेंजियनो जे उत्कृष्टस्थितिबंध ले ते थकी कणिक के जघन्य स्थितिबंध पक्षऽसंखनागुणो के० पव्योपमने असंख्यातमे नागें ऊणो एक श्रायु वर्जीने शेष प्रकृतिनो बंध जाणवो. एटले बेंजियने ज्ञानावरणादिक वीश प्रकृतिना सातश्या पंच्चोतेर जाग ने तेमांधी पट्योपमने असंख्यातमें नागे जणो जघन्य स्थितिबंध जाणवो; तेंजियने सातीश्रा दोसो नाग ले ते पढ्योपमने असंख्यातमे जागे कणो करतां जघन्य स्थितिबंध थाय, चौरिंजियने सातीया त्रणसो जाग ने तेमांथी पढ्योपमने असंख्यातमें नागें उणो जघन्य स्थितिबंध जाणवो. एम जे प्रकृतिनो जेटलो उत्कृष्ट स्थितिबंध कह्यो डे तेथी पढ्योपमने असंख्यातमे जागें ऊणो जघन्य स्थितिबंध जाणवो. हवे थायुनो जघन्य स्थितिबंध कहे , तेमध्ये सुरनिरयाउसमादससहस्स के देवायु तथा नरकायु, ए बे आयुनो जघन्य स्थितिबंध समान बे केम के देवता तथा नारकी दश वर्षपर्यंत मरण न पामे माटें दश हजार वर्ष जाणवू; तथा दश हजार वर्ष थकी समय समय अधिक करतां यावत् तेत्रीश सागरोपम एक समय हीन सुधीना जे स्थितिनां थानक ते मध्यमायु जाणवो; ते मध्ये परमायु एकेकास्थिति स्थानके असंख्यात देवायु होय, एम नारकीने विषे पण जाणवो. परतुं एटलुं विशेष जे नेवु हजार वर्षथी यावत् दश लाख वर्ष एटली स्थिति ते नरकायु नश्री, बीजा सर्व स्थानक वस्तांबे, ए बे आयुथी सेसाउखुड़नवं के शेष थाकतां रह्यां जे मनुव्यायु तथा तिर्यगायु ए बे आयुनो जघन्य स्थितिबंध खुवकजव एटले सर्वन। अपेदायें न्हानो नव ते बसें ने उपन्न श्रावलिका प्रमाण होय. अहींां श्रागम मध्ये मनुष्य तिर्यचर्नु जघन्यायु अंतरमुहर्त प्रमाण कडं बे. पण जाणीयें ये जे ए अंतरमुहूर्त्त दुखक नव प्रमाण लेवो, जै जणी अंतर मुहूर्त्तना पण असंख्याता नेद जे, ते माटे. ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ ३० ॥ ॥ हवे सर्व प्रकृतिना जघन्य स्थितिबंधे जघन्य अबाधाकाल कहे.॥ सवाणवि लहु बंधे, निन्न मुहु अबाद आन जिवि ॥ के सुरान समजिण, मंत मुहु बिंति आदारं ॥ ३५॥ Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ ६१० अर्थ-सहा विलहुबंधे के० स्वमतें सर्व बंधयोग्य एकसो ने वीश प्रकृतिना जघन्य स्थितिबंधने विषे वाद के० जघन्य अवाधाकाल निन्नमुटु के अंतर मुहूर्त्तनो जावो, एटले जघन्य स्थितियें बांध्युं जे कर्म ते अंतर मुहूर्त्तसुधी पोतानो विपाक देखाडे नहीं, ते अबाधाकालें हीन निषेककाल कहीयें. हवे यहींयां जे विशेष बे ते देखाडे बे. जिवे व के० उत्कृष्ट श्रायुनी स्थितिने विषे जघन्य अबाधाकाल पण होय, ने जघन्य स्थितिना श्रायुमां उत्कृष्ट प्रबाधाकाल पण होय. तथा उत्कृष्ट श्रवखें उत्कृष्ट बाधाकाल होय, तथा जघन्य श्रायुष्यें जघन्य बाधाकाल होय. एम आयुः कर्म विषे बाधाकालनी च जंगी थाय, केम के अंतर मुहूर्त्त - शेष आयुयें पण मनुष्य तथा तिर्यंच परजवायु, तेत्रीश सागरोपमनुं बांधे ठे. अने पूर्व कोमीना त्रीजा जाग शेष आयुयें पण परजवायु जघन्य बांधे बे. तथा पूर्व कोटीनो त्रीजो जाग शेष रहे थके तेत्रीश सागरोपमायु बांधे बे; तथा अंतरमुहूर्त्त शेषं खुलक वायु पण बांधे. एम स्वमतें सर्व प्रकृतिनो जघन्य स्थितिबंध कह्यो. हवे मतांतरें कड़े बे. केश्सुराजसमजिए के० कोइ एक श्राचार्य जिननामकर्मनो जघन्य स्थितिबंध जघन्य देवायु जेटलो होय एम कहे बे. एटले दश हजार वर्षनो जघन्य स्थितिबंध आठमा गुणगणाना बहा जागने प्रांतें चरमबंध एटलो होय, तथा दश हजार वर्ष नरकायु जोगवी पण जिन थाय, तेनी अपेक्षायें पण ए जघन्यबंध माने बे. अहीं तत्व केवलिगम्य बे. तथा मंतमुदुबिंतियाहारं के० श्राहारक शरीर ने हारक अंगोपांग, ए वे प्रकृतिनो जघन्य स्थितिबंध आठमा पठाणाने प्रांतें चरमबंधें अंतरमुहूर्त्त प्रमाण होय, एम माने बे. ते जाणीयें ढैयें के, श्रागमिक मतें अप्रमत्त गुणठाणे अंतरमुहूर्त्तनो बंध पंचाशक मध्यें प्रायश्चित्तविधि पंचाशकनी बेतालीशमी गाथायें कयुं बे, ते अपेक्षायें कहेता हशे, पण ते ने उत्कृष्ट बंधमान पण हशे ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ ३७ ॥ ॥ दवे कुल्लकजवनुं मान कहीयें ढैयें. ॥ सत्तरस समदिया किर, इगाणु पाएं मिहुंति खुड्डु नवा ॥ सगतीस सय तिदुत्तर, पाणू पु इग्ग मुहुत्तमि ॥ ४० ॥ अर्थ-सत्तरससम हि या किर के० सत्तर जव जाजेरा तेरसें पंचाणु अंश, अढारमा जावना अधिक नि इगाणुपाएं मिहुंतिखड्ड नवा के० एक श्वासोश्वासमांहे होय, क्षुल्लक व एटले निगोदियाना न्हाना जव जाणवा. एवा सगतीससयतिदुत्तर के० साडत्रीशसें ने तहोंत्तेर पाणु के० श्वासोश्वास पुण के० वली इग्गमुहूत्तंमि के० एक Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२० शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ मुहूर्त्तमां होय, जे जणी रोग रहित बलिष्ट निश्चिंत एवा तरुण पुरुषना सात श्वासोश्वासे एक थोव थाय. एवा सात थोवें एक लव एटले उगणपञ्चाश श्वासोश्वासें एक लव थाय. एवा सत्तोतेर लवें एक मुहूर्त्त थाय, तेने उगणपच्चाश गुणा करतां त्रण हजार सातसें ने तहोंत्तर श्वासोश्वास अंतर मुहूर्त्तमां थाय. कोइक श्राचार्य नाडीना उलालाने पण श्वासोश्वास कहे बे. छाने बसें उपन्न यावली प्रमाण एक क्षुल्लक जव होय. एवा पांशठ हजार पांचरों ने बवीश कुल्लक जवे एक अंतरमुहूर्त्त थाय, तेथी बसें उपन्नने पांशठ हजार पांचसें ने बवीस सायें गुणतां एक क्रोम, शडशव लाख, सीत्तोतेर हजार, बसें ने शोल, एटली आवली थाय, तेने साडत्रीशसें ने तहों - तेर श्वासोश्वासें वचीयें, तेवारें चुम्मालीशसें ने बेंतालीश आवली एक श्वासोश्वास मां होय, ने शेष वे हजार चारसें ने अहावन घावली रहे, तेने साडीशसें तेरो नाग नावे, तेमाटें एक आवलीना साडीश ने तहोंतेर जाग करीयें. तेवा चोवीश ने श्रावन्न अंश चुम्मालीश ने समतालीसमी छावलीना उपर लाने. एटले एक श्वासोश्वासना क्षुल्लक जव सत्तर, ते एकेका क्षुल्लक जवनी बसें बपन्न यावलीने सत्तर गुणा करतां तेंतालीश ने बावन्न थाय. शेष चोराएं आवली पूर्ण पंच्चामावलीना साडत्रीशसें तहोतेरीया चोवीश ने अहावन जाग उपर, एटलो अढारमा जवन काल गये थके एक श्वास पूर्ण थायः ॥ ४० ॥ पण सठि सदस पण सय, बत्तीसा इग मुहुत्त खुड्ड नवा ॥ प्रावलियाणंदोसय, उप्पन्ना एग खुड्ड नवे ॥ ४१ ॥ अर्थ - हवे पण सहसासयबत्तीसा के पांव हजार, पांचों ने छत्रीश, एटला इगमुदुत्तखुडुनवा के एक मुहूर्त्तना मुलक जव थाय, तेने साडत्रीशसें ने तहोंतेर श्वासोश्वासें वर्हेचीयें, तेवारें एक श्वासोश्वासमां सत्तर जव पूर्ण अने उपर सामत्रीश तहोंतेरीच्या तेरसें ने पंच्चाणु जाग वधे, अने अढारमा नवमां ( ३७७३ ) जाग पूर्ण होय तेवारें जब पूर्ण थाय, मादें शेष अढारमा जवमां ( २३७८ ) छागला श्वासोश्वासना शमां आवे तेवारें जब पूरो थाय, अने वे श्वासोश्वासमां हे चोश्रीश जव पूर्ण थाय. अने पांत्रीशमा जवना ( ३११३ ) तेरीया ( २७५० ) अंश पांत्रीशमा जवना वधे, तथा त्रण श्वासोश्वासमां बावन जव पूरा थाय, अने त्रेपनमा मां (३०७३ ) तेरीया चारसें ने बार अंश पूराय अथवा बे श्वासोश्वासमां पांत्रीश जव गणीयें, तो शेष (९८३) अंश घटे, एम स्वमतें विचारी कहेवा. एम निगोदिउँ Mata एक श्वासोश्वासांहे सत्तर जव जाजेरा करे. For Private Personal Use Only Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ ६१ तथा एक थोवमाहे एकसो ने एकवीश कुबक नव अने एक नवना पांचसें ने ओगणचालीश अंश करीयें, एवा (३१७) अंश (१२२) मा नवना होय, तथा एक लवमध्ये आउसो एकावन कुखक नव पूर्ण होय, अने उपर वली बावनमा नवना सत्तोतेरीआ नव जाग होय. एक लवनी थावली बे लाख, सत्तर हजार, आठसें ने पंचाशी, ते उपर वली एक श्रावलीना सत्तोतेरीया एकोत्तेर नाग; तथा एक थोव मांहे आवली एकत्रीश हजार, एकसो ने बबीश उपर वली एक लवना पांचसे उंगणचालीश नाग करीयें, तेवा त्रणसें ने बे जाग आवे. ॥४१॥ ॥हवे उत्तरप्रकृति श्राश्रयीने उत्कृष्टस्थितिबंधना स्वामि कहे .॥ अविरय सम्मो तिबं, आदार उगा मरान अपमत्तो ॥ मित्रा दिहीबंध, जिह हिश सेस पयमीणं ॥४॥ अर्थ-श्रविरयसम्मोतिछं के अविरति सम्यक्दृष्टि मनुष्य पूर्वे मिथ्यात्व प्रत्ययें नरकायु बांध्यु ले जेणे एवो मनुष्य दायोपशमिक सम्यक्त्व लहीने, तेणे करी तीर्थकरनामकर्म पठी ते नरकगतिमाहे जातो सम्यक्त्व वमतो ते सम्यक्त्व वमताने बेहेले समय जिननामनी उत्कृष्ट स्थिति बांधे. जे नणी ए जिननामना बंधक मांदे एहिज अति संविष्टपणुं , अति संक्शे उत्कृष्ट स्थितिबंध थाय तथा थाहारफुगामराज्अपमत्तो के० थाहारकछिक अने अमरायु एटले देवायु, ए त्रण प्रकृतिनी उत्कृष्टस्थितिबंधनो स्वामी, अप्रमत्त साधु जाणवो. जे जणी आहारकशरीर तथा श्राहारक अंगोपांग, ए बे प्रकृतिनो उत्कृष्टस्थितिबंध प्रमत्तगुणगणाने सन्मुख थयेलो एवो अप्रमत्त यति ते अप्रमत्तगुणगणाने चरमबंधे बांधे एना बंधकमांहे एहिजथति संक्लिष्ट बे, तथा देवताना श्रायुनो उत्कृष्ट स्थितिबंध स्वामी अप्रमत्तगुणस्थानक वर्ति साधु जाणवो; पण एटबुं विशेष जे प्रमत्त गुणस्थानकें आयुबंध आरंजीने अप्रमत्तें चढतो साधु बांधे. श्रायुबंध स्थानक मांहे एहिज अतिविशुधस्थानक , केमके शुन्नायुनो बंध उत्कृष्ट विशुछियें करी होय . • ए चार प्रकृतिथी सेसपयमीणं के शेष थाकती जे एकसो ने शोल प्रकृति तेनो जिहाहर के उत्कृष्ट स्थितिबंधनो स्वामि मिलादिहिबंधश् के० मिथ्याष्टि जीव जाणवो, एटले संझी पंचेंजिय सर्व पर्याप्तिये करी पर्याप्तो मिथ्यादृष्टि जीव बांधे जे जणी ए एकसो ने शोल प्रकृतिमध्ये मनुष्यायु अने तिर्यगायु, एबे आयु विना शेष एकसो ने चौद प्रकृतिनुं उत्कृष्ट स्थितिबंध उत्कृष्ट संक्वेश परिणामे थाय, तेजणी मिथ्यात्वथी अधिक कोइअन्य संक्श स्थानक नथी. यहींयांपण असंख्याता अध्यवसाय स्थानक बे, पण ते मध्ये स्वस्वबंध प्रायोग्य संक्लेशस्थानक सेवां, तथा तेमां पण Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२२ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ.५ - मनुष्यायु तो विशुद्धियें उत्कृष्ट स्थितिक बंधाय अने तेना बंधक मांहे अतिविशुक्रिये अविरति सम्यक्दृष्टि देवता होय, एटले सम्यक्दृष्टि देवता अतिविशुछिये मनुष्यगतिनो बंधक होय, पण ते देवता त्रएय पढ्योपमायु न बांधे, केम के देव तथा नारकीमांदेथी थावेला जीव संख्याता वर्षायुवाला मनुष्य, तिथंच थाय, पण असंख्याता वर्षायुवाला मनुष्य तिर्यंच न थाय तथा मिथ्यात्वगुणगणानी अपेक्षायें सास्वादन विशुक डे, केम के जे जीवें सास्वादन गुणगणुं स्पर्यु ते नियमा जव्य होय अने अर्बपुजलपरावर्त्तमांहे मोद जाय तथापि सम्यक्त्व वमता सास्वादन होय, तेथी संक्लिष्ट जाणवो. तेथी तिहां मनुष्यायु अने तिर्यंचायुनो बंधक संक्लिष्ट परिणामें जाणQ. ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ ४॥ ॥ एम गुणस्थानके स्वामित्व कहीने, हवे जीवनेदें कहेले. ॥ विगल सुहुमानग तिगं, तिरिमणुयासुर विउवि निरयड्गं ॥ एगिदि थावरा यव, आईसाणा सुरु कोसं ॥४३॥ अर्थ-विगलसुहुम के० विकल जातित्रिक तथा सूक्ष्म, अपर्याप्ता अने साधारण, ए सूक्ष्म त्रिक तथा बाउग तिगं के नरकायु, तिर्यंचायु, अने मनुष्यायु, ए त्रण त्रिकनी नव प्रकृति तथा सुर के देवधिक एटवे देवगति ने देवानुपूर्वी तथा विनवि के वैक्रियहिक तथा निरयपुगं के नरकटिक एटले नरकगति भने नरकानुपूर्वी, एवं पंदर प्रकृतिनुं उत्कृष्ट स्थितिबंधनस्वामी तिरिमणुया के पूर्वकोमी मध्यवर्ति श्रायुष्यवाला मिथ्यादृष्टि संझीा गर्भज मनुष्य तथा तिर्यंच पंचेंप्रिय होय, जे जणी ए पंदरमांहेथी मनुष्यायु तिर्यंचायुविना शेष तेर प्रकृतिनो बंध जव प्रत्ययें देवता नारकीने नथी, तथा विकलत्रिक ने सूक्ष्म त्रिकनो बंध, एकेंजिय बेंजियादिकने होय पण तेने उत्कृष्ट स्थितियें न बंधाय तथा मनुष्यायु अने तिर्यंचायु पण देवता तथा नारकी बांधे बे, तो पण ते त्रण पक्ष्योपमनी उत्कृष्टीस्थितिवालो आयु न बांधे, केम के देवता तथा नारकी चवीने पूर्वकोटी वर्षयी अधिक श्रायुष्यवाला मनुष्य तथा तिर्यंचमाहे जवप्रत्ययेज अवतरे नहीं, ते माटें पूर्वकोटी आयुना धणीज मनुष्य तथा तिर्यंच पूर्वकोटीना त्रीजा नागना प्रथम समय परजवायु पूर्वकोटी त्रिनागाधिक त्रएय पक्ष्योपमनुं उत्कृष्टस्थितिक मनुष्यायु तथा तिर्यंचायु बांधे, तेथी ते मिथ्यात्वीज ए बे स्थितिना उत्कृष्ट बंधाधिकारी जाणवा; अने साखादन गुणगणे पडतां जणी तेवी विशुकि न होय, तेथी ते सास्वादनी पण एनो बंधाधिकारी नथी, अहीं स्वस्वबंधयोग संक्वेश लेवो. Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ ६२३ एगिदिथावरायव के० एप्रियजाति, स्थावरनाम, आतपनाम, ए त्रण प्रकृतिनो उत्कृष्टस्थितिबंध, वीश कोडाकोडी सागरोपमरूप सेना बंधाधिकारी आईसाणासुरुकोसं के नवनपति, व्यंतर, ज्योतिषी, ए त्रण तथा सौधर्म थने ईशान, ए आदिना बे देवलोक, एटला स्थानकना मिथ्यात्वी देवता. पृथवी, अप अने वनस्पति, ए त्रणमांहे शुजस्थानमध्ये अवतरे, तेथी तेने तत्प्रायोग्य ए त्रण प्रकृतिनो उत्कृष्ट स्थितिबंध बंधाय, अने मनुष्य तथा तिर्यंच, ए बे तो संक्लेशें करी अढार कोडाकोडीनी स्थिति बांधे, तेथी ए एना अधिकारी न कह्या; अने सनत्कुमारादिक देवलोकना उपरला वैमानिक देवताने पृथवीकायादिक मध्ये अवतरवू नथी तेथी ते ए त्रण प्रकृति न बांधे. तथा एकेन्यि अने विकलेंजिय, ए त्रण प्रकृति बांधे खरा, परंतु तेउने उत्कृष्टस्थितिबंध नथी अने असंख्याता वर्षायुवाला मनुष्य तथा तिर्यंच, ए त्रण प्रकृति न बांधे, जे जणी तेने देवता विना अन्य स्थानकें अवतर, नथी. ॥ इति समुच्चयार्थः ॥४३॥ तिरि जरख उगुजोअं, बिवह सुर निरय सेस चगश्त्रा॥ अथ जघन्यस्थितिबंध स्वामीनाद ॥ आदार जिणमपुवो, नियहि संजलण पुरिसलहू ॥४४॥ अर्थ-तिरिउरलमुगुजोयं के तिर्यंचगति, तिर्यंचानुपूर्वी तथा औदारिक शरीर अने औदारिक अंगोपांग, पांचमुंउद्योतनाम अने बहुं विवह के बेवहुं संघयण, एउ प्रकृतिनो उत्कृष्टस्थितिबंध,वीश कोमाकोमी सागरोपम , तेना बंधाधिकारी स्वस्वप्रायोग्य अति संक्वेशे वर्त्तता सुरनिरय के० मिथ्यात्वी देवता तथा मिथ्यात्वी नारकी होय, केम के मनुष्य तथा तिर्यंच गफ़्रज पंचेंजिय ए प्रकृतिने संक्शे वर्त्ततां अढार कोमाकोमी सागरोपमनी स्थिति बांधे अने तेथी अति संक्विष्ट होय तो नरक प्रायोग्य प्रकृतिनो बंध करे. अने देवता नारकीने तो नरक प्रायोग्य बांधकुंज नथी,ते माटें ते अति संक्लिष्ट ए ब प्रकृतिनो उत्कृष्ट स्थितिबंध करे, तेमध्ये पण औदारिक अंगोपांग अने बेवहुं संघयण, ए बे प्रकृतिनो उत्कृष्ट स्थितिबंध चोथा, पांचमा, छा, सातमा अने श्रापमा देवलोकना देवताने होय पण नीचला देवताने न होय, जे नणी नीचेना देवता तो अतिसंक्वेशे एकेंजिय प्रायोग्य बांधे जे तेथी तेने ए बे प्रकृतिनो अढार कोमाकोमी सागरोपमनो बंध होय, एम चोवीश प्रकृतिना उत्कृष्टी. स्थितिबंध स्वामी कह्या तथा आहारकछिक अने देवायुनो उत्कृष्ट स्थितिबंध स्वामी अप्रमत्त साधु कह्यो, अने जिननामकर्मनो उत्कृष्टस्थितिबंध स्वामी नरकानिमुख सम्यक्त्व वमतो मनुष्य कह्यो. एम अहावीश प्रकृति थ. Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२४ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ .. तेथी सेसचगश्था के० शेष ज्ञानावरणीय पांच,दर्शनावरणीयनी नव,अंतरायनी पांच, शोल कषाय, एवं पांत्रीश तथा जय, जुगुप्सा, वर्णचतुष्क, तैजस, कार्मण, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण, मिथ्यात्व, ए सुमतालीश प्रकृति ध्रुवबंधिनी तथा अशाता, अरति, शोक, नपुंसकवेद, पंचेंजियजाति, ढुंमसंस्थान, पराघात, जश्वास, कुखगति, सचतुष्क, अथिरबक, नीचैर्गोत्र, ए वीश अध्रुवबंधिनी प्रकृति, एवं शमशठ प्रकृतिना उत्कृष्टस्थितिबंध स्वामी अतिसंक्वेशे वर्त्तता चतुर्गतिक मिथ्यात्वी जीव जाणवा. तथा शाता, हास्य, रति, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नरकटिक, आदिनां पांच संस्थान, तथा आद्य संघयणपंचक, शुनखगति, स्थिरषट्क, उच्चैर्गोत्र, ए पच्चीश प्रकृति अध्रुवबंधिनी तेना उत्कृष्टस्थितिबंधक स्वस्वबंध प्रायोग्य अति संक्वेशे वर्त्तता एवा चातुर्गतिक मिथ्यात्वी जीव होय. ए रीतें बाणुं प्रकृतिना उत्कृष्ट स्थितिबंध स्वामी मिथ्यात्वी जीव कह्या. हवे सर्व प्रकृतिना जघन्यस्थितिबंध स्वामी कहे . आहार के आहारक शरीर अने श्राहारक अंगोपांग, ए आहारकछिकनी जघन्य स्थिति अंतःकोडाकोमी अथवा अंतरमुहूर्त प्रमाण अने जिण के० जिननाम कर्मनी जघन्य स्थिति अंतःकोटीकोटी अथवा देश सहस्र वर्ष प्रमाण तेना बंधक पकश्रेणीयें चढतां मपुवो के अपूर्वकरण नामा श्रापमुं गुणगाणुं तेना बहा नागने चरमबंधे वर्त्ततां एवां मनुष्य होय, जे जणी ए त्रण प्रकृतिना बंधकमांहे एहिज अतिविशुद्धता , एथी अधिक विशुद्धि बीजे स्थानकें नथी थने लघुस्थिति पण त्रण आयुविना शेष एकसो सत्तर प्रकृतिनी मननी विशुद्धियेंज होय . नियहिसंजलणपुरिसलहू के अनिवृत्ति करणनामा नवमा गुणस्थानकें रूपकश्रेपीयें चढतां आप श्रापणा बंधव्यवछेदने चरम समयें पुरुषवेदनो आठ वर्षनो, संज्वलना क्रोधनो बे मासनो, संज्वलनमाननो एक मासनो, संज्वलनमायानो अमासनो, संज्वलन लोननो अंतर मुहर्तनो, जघन्य स्थितिबंध अनुक्रमें पहेला, बीजा, त्रीजा, चोथा अने पांचमा नागने प्रांतें बांधे. ए पांच प्रकृतिना बंधस्थानकांहे एहिज श्रति विशुधि बे, जो पण उपशमश्रेणीयें नवमा गुणस्थानकें पांचमा नागने प्रांतें स्वखबंध व्यवछेद संजवे, तथापि ते रूपकथी अति विशुधि नहीं तेथी ते न लीधा. ए श्राप प्रकृतिना जघन्य स्थितिबंध स्वामी कह्या. ॥४॥ साय जसु चा वरणा, विग्धं सुहुमो विनवि व असन्नि ॥ सन्नीवि आज बायर, पो गिदिन सेसाणं ॥४५॥ Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. Ա ६श्य - साय के शातावेदनीय, जसुच्चावरणा के० यशःकीर्त्तिनाम, उच्चैर्गोत्र, तथा यावरण एटले पांच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, एवं बार तथा विग्धं के० पांच अंतराय, ए सत्तर प्रकृतिनो जघन्य स्थितिबंध स्वामी सुदुमो के सूक्ष्म संपरायनामा दशमा गुणस्थानकना चरम समयवर्त्ति जीव होय, जे जणी ए सत्तर प्रकृतिना बंध मां हि विशुद्धि बे, जो पण शातावेदनीयनो बंध एथी विशुद्ध बारमे गुणठाणे पण ते एक सामायिक योग्य प्रत्ययी उस्थितिबंध बे, पण कषाय प्रत्ययी स्थिति - बंध नथी, तेथी ते विवदयो नयी. ए पच्चीश प्रकृति य. aaaa ho बैक्रिय शरीर, वैक्रिय अंगोपांग, देवगति, देवानुपूर्वी, नरकगति अने नरकानुपूर्वी, ए वैक्रियषट्क, ए ब प्रकृतिनो जघन्य स्थितिबंध स्वामी सन्नि के संज्ञ पंचेंद्रिय तिर्यंच होय, केम के एकेंद्रिय छाने विकलेंडियने तो देव तथा नरकगतिमांदे तर नथी, तेथी तेने तत्प्रायोग्य ए ब प्रकृतिनो बंध न होय, छाने सन्निधाने तो उत्कृष्ट स्थितिबंध वीश कोडाकोडी सागरोपमनो होय तेमज सन्नी ने एब प्रकृतिनो जघन्य स्थितिबंध पण अंतः कोडाकोमी सागरोपमनो होय, तेथी ते श्रींयां न लीधा, केम के ए ब प्रकृति नामकर्मनी बे. ते जणी मिथ्यात्व साथै नाग देतां सागरोपमना सातइया बे जाग खावे, तेनो हजार गुणो श्रसन्निया पंचेंद्रियनो बंध बे, ते जणी वैक्रियद्विक, नरकद्विक, ए चार प्रकृतिनो बंध तो सातइया बे हजार जागना बसें ने पंच्चाशी सागरोपम अने उपर सातथा पांच जाग जाणवा, तथा देवद्विकना सातइया हजार जागना एकसो बेंतालीश सागरोपम उपर सात आ बाग ते वली पस्योपमने असंख्यातमे जागें हीन एटलो ए प्रकृतिनो असन्निधा पंचेंद्रिय तिर्यंच सर्व पर्याप्तियें करी पर्याप्ताने जघन्य स्थितिबंध स्वामीत्वपएं होय. सन्नीवि के० संज्ञीपंचेंद्रिय गर्जज, तिर्यच अने मनुष्यने तथा अपि शब्दथकी संज्ञी पण सेवा, तेमादें संज्ञी अथवा असंज्ञी ए आउ के० चारे प्रकारनुं जघन्य स्थितिका बांधे. ते मध्ये एक मनुष्यायु, बीजं तिर्यंचायु, ए बे श्रायुना जघन्य स्थितिबंध स्वामी एकेंद्रियादिकथी मांडीने पंचेंद्रियपर्यंत सर्व जीव होय अने चारे आयुना जघन्य स्थितिबंध स्वामी सन्निधा अने सन्निया ए वे दोय. एवं पांत्रीश प्रकृति यश्. सेसाणं के० तेथी शेष रही जे निद्रापंचक, कषाय बार, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, दास्यपटुक, मिथ्यात्वमोहनीय, मनुष्यद्विक, तियंचठिक, जातिपंचक, श्रदारिक द्विक, तैजस, कार्मण, यातप, उद्योत, उपघात, अशातावेदनीय, अगुरुलघु, निर्माण, संस्थानढक्क, संघयणबक, वर्णचतुष्क, त्रसनवक, स्थावरदशक, पराघात, श्वास, खग For Private Personal Use Only Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२६ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ तिहिक, नीचैर्गोत्र, एपंञ्चाशी प्रकृतिनो जघन्यस्थितिबंध खामी बायरपजोगिंदीउ के लब्धिपर्याप्तो बादर एकेजियपर्याप्तो स्वस्व प्रायोग्य विशुद्धिस्थानकें वर्ततो मिथ्यात्वी जीव होय, जे जणी दशमा तथा नवमा गुणस्थानकवर्ति साधु पण जघन्यबंधनो अधिकारी होय हे, परंतु तेने ए पंञ्चाशी प्रकृतिनो बंध नथी तेथी ते बीजी प्रकृतिना अधिकारी बे; तेथी असंख्यातगुणो बादरपर्याप्ता एकेंजियने जघन्यबंध स्वामीत्व जाणवो. ए तथाविध विशुद्धिमाटें बांधे अने अनेरा एके प्रिय तो तेवी विशुद्धिश्री रहित डे माटें अधिकी बांधे, अने विकलेंप्रिय तथा पंचेंघिय तो स्वजावेंज अधिकी बांधे ते माडे ते न लेवा. एथी बीजा सर्व बंध अधिक .एम जघन्यस्थितिबंध स्वामी कह्या. ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ ४५ ॥ ॥ हवे उल्लष्टादि स्थितिबंधने विषेज चार नांगा स्थितिबंधना कहे .॥ नक्कोस जद मीयर, नंगासाइ अणाइधुव अधुवा ॥ चउदा सग अजहन्ना, सेसतिगे आन चउसु ज्दा ॥ ४६॥ अर्थ-उकोसजहमीयरनंगा के एक उत्कृष्टस्थितिबंध, बीजो जघन्य स्थितिबंध, ते बे थकी इतर एटले बीजा विरोधिनांगा बे कहे. एक अनुत्कृष्ट बीजो अजघन्यस्थितिबंध, एवं चार नंग थया. ए चारमांहे सर्व स्थितिबंध संग्रह्या. तिहां जे सर्व प्रकृतिनो श्रापापणा स्थितिबंधमांहे अधिक स्थितिबंध ते उत्कृष्टस्थितिबंध जाणवो. जेम ज्ञानावरणीय कर्मनो त्रीश कोडाकोडी सागरोपमनो संपूर्ण बंध, ते उत्कृष्ट स्थितिबंध कहीयें अने ते थकी एकसमय हीन, बे समय हीन करता करतां यावत् अंतरस्थितिलगें जेटलां स्थितिबंधनां स्थानक बंधाय, ते सर्व अनुत्कृष्टस्थितिबंधनां स्थानक जाणवां. ते स्थानक असंख्याता होय एटले एक उत्कृष्ट थकी जिन्न ते सर्व अनुत्कृष्टस्थितिबंधनां स्थानक जाणवां. एम ए बे बंधमांहे सर्व स्थितिबंधनां स्थानक संग्रह्यां; तथा जे स्थितिबंध स्थानकथी उतुं बीजुं को स्थितिबंधनुं स्थानक न होय ते जघन्यस्थितिबंध स्थानक जाणवू, अने तेथी समयाधिक समयाधिक स्थानक लेतां यावत् उत्कृष्ट स्थितिपर्यंत जे असंख्यातां स्थानक थाय, ते सर्व अजघन्य स्थितिबंधनां स्थानक जाणवां. एम ए बे बंधमांहे पण सर्व स्थितिबंधनां स्थानक संग्रह्यां, ए रीतें जेवारें उत्कृष्ट स्थिति निन्न विवदीयें, तेवारें तेथी बीजां सर्व अनुत्कृष्ट बंधस्थानक होय, अने जेवारें जघन्य स्थितिबंध एक निन्न लेखवीये तेवारे तेथी बीजा सर्व अजघन्य स्थितिबंधनां स्थानक होय. ए रीतें ए चार बंध कह्या. हवे तिहां वली सादि अनादि प्रकारे चार नांगा कहे जे. जे बंधव्यवछेद थया पली फरी बंधाय, ते प्रथम सा के सादिबंध अने जे बंधना प्रवाहनी आदि न. Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ.५ ६२७ पामीये ते बीजो श्रणा के अनादिबंध अने जे बंधनो प्रवाह केवारे पण विछेद नहीं पामशे, ते त्रीजो धुव के ध्रुवबंध, एटले अनंत, ए थनव्यनी अपेक्षायें जाएवो, तथा जे प्रकृतिनो बंध प्रवाह विछेद पामशे ते अधुवा के अध्रुव एटले सांत, ते नव्यनी अदायें जाणवो. एम ए चार नांगा ते जघन्य अजघन्यादिक स्थितिबंधने विषे विचारे . चउदासगथजहन्ना के त्यां एक श्रायु विना बीजा सात कर्मना अजघन्यस्थितिबंध चार नांगे होय, ते कहेले. एक मोहनीयकर्मर्नु जघन्य नवमा गुणगणाने चरम समयें होय, तथा झानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, नामकर्म, गोत्रकर्म, अने अंतराय, ए उ कर्मनो जघन्यबंध दशमा गुणगणाने बेहेले समय होय. माटें ते स्थानक जे जीवें लडुं नथी तेने सघला अजघन्य स्थितिबंध जाणवा, जे जणी तेणे जघन्य स्थितिबंध लह्यो नथी तेने तेथी अजघन्य अनादि नांगो पहेलो जाणवो.अने जे जीवें उपशम श्रेणीये ते स्थानकें जघन्य स्थितिबंध करी अथवा अबंधक थश्ने पली फरी अजघन्यस्थितिबंध करे ते सादि नामें बीजो नांगो जाणवो, अने जे जव्य हशे ते अवश्य मोदें जाशे, तेवारे ते पकश्रेणीयें अजघन्यबंध करशे तिहां अजघन्य स्थितिबंधनुं सांतपणुं थशे, ते सांत नामा त्रीजो नांगो जाणवो, तथा श्रजव्य केवारे पण श्रेणी करशे नहीं, ते माटें ते जघन्य स्थितिबंध करशेज नहीं, तेथी तेने अजघन्यस्थितिबंध अनंत नामे चोथे नांगे जाणवो. एम सात कर्मनो अजघन्य स्थितिबंध, चार नेदें कह्यो. तथा ए सात कर्मना अजघन्यबंधथी सेसतिगे के शेष रह्या जे जघन्य, उत्कृष्ट थने अनुत्कृष्ट, ए त्रण बंध तथा उचजसु के० श्रायुःकर्मना चार बंध तिहां सादि श्रने सांत, ए उहा के बेबे नांगा होय, ते कहे . ते मध्ये सात कर्मनो उत्कृष्ट बंध तो अति संक्लिष्ट मिथ्यादृष्टि संझी पंचेंजिय पर्याप्ताने होय, ते उत्कृष्टबंध सादि जाणवो. तथा ते उत्कृष्टबंध तो बे समय लगें होय, अने त्रीजे समय ते उत्कृष्टबंध. थकी सत्यादिक हीन अनुत्कृष्टबंध करे ते जणी उत्कृष्टबंध सांत जाणवो, श्रने वली अनुत्कृष्टबंधथकी समयादिक हीन बंध करतां उत्कृष्टबंधनी सादि अने वली पण अनुत्कृष्टबंध करे. तथा प्रबंधक होय तेवारें अनुत्कृष्टबंधनुं सांतपणुं तथा जघन्यबंध एक समयमात्रनो ते नवमा, दशमा गुणगणाने प्रांतसमयें होय, ते एक समय मात्र जणी सादि सांत जाणवो. एम सात कर्मनात्रण स्थितिबंधे सादि श्रने सांत ए बे नांगा कह्या. तथा श्रायुःकर्म नव मध्ये एक वार बंधाय, तेथी तेना उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य अने अजघन्य, ए चारे स्थितिबंध सादि अने सांत, ए बे जांगे होय. केम के Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६श्न . शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ थायु बांधवा मांडे, तेवारें सादि अने अंतरमुहूर्ते बांधी रह्या पली सांत, ए बे लांगा होय ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ ४६॥ ॥ एम मूलप्रकृतिना चार स्थितिबंधना सादि, बीजो अनादि, सांत अने अनंत, ए चार नांगा विचारीने हवे ते चार नांगा उत्तर प्रकृतिने विषे विचारीयें बैयें.॥ चन मे अजदन्नो, संजलणा वरण नवग विग्घाणं॥ ... सेस तिगिसा अधुवो, तह चनदा सेस पयडीणं ॥४७॥ अर्थ-संजलण के संज्वलनो क्रोध, संज्वलनो मान, संज्वलनी माया अने संज्वलनो लोज, ए चार कषायनो जघन्य स्थितिबंध, बे मास, एक मास, अर्डमास अने अंतरमुहूर्तरूप अनुक्रमें जाणवो. ते नवमा गुणगणे स्वस्व बंधविछेदने प्रथम समय होय, तथा श्रावरणनवगविग्घाणं के पांच झानावरण, चार दर्शनावरण, पांच अंतराय, ए चौद प्रकृतिनो जघन्य स्थितिबंध, अंतरमुहर्त मान दशमा गुणगणाने चरमबंधे होय, ते विना बीजा सर्व स्थितिबंध अजघन्य जाणवा. ए अढार प्रकृतिनो चननेउअजहन्नो के अजघन्य स्थितिबंध चार नेदें होय, ते कहे जे. के जीवें नवमुं श्रने दशमुं गुणगणुं कडं नथी, तो तेणे जघन्य स्थितिबंध नथी कस्यो. अजन्यवध अनादि जाणवो. ए प्रथम नंग. तथा जेणे जघन्यबंध करी वली श्रेणीथी पडतां समयाधिक स्थितिबंध अजघन्य करे, तिहां सादि. ए बीजो नंग जाणवो. तथा जे जव्य हशे ते अवश्य श्रेणी करशे, तेवारें तेने अजघन्यस्थितिबंधनुं सांतपणुं थशे, ए त्रीजो जंग जाणवो. श्रने अनव्य जीव ए अढार प्रकृतिनो जघन्य स्थितिबंध केवारें पण नहीं करशे, तेथी तेने ए अढार प्रकृतिनो अजघन्य स्थितिबंध अनंत, ए चोथो नंग जाणवो. एम ए अढार प्रकृतिनो अजघन्य स्थितिबंध चार नांगे होय. . सेसतिगि के० अढार प्रकृतिना शेष उत्कृष्ट, अनुकृष्ट अने जघन्य, ए त्रण स्थितिबंध साश्अधुवो के सादि अने अध्रुव एटले सांत, ए बे नांगे होय. जे जणी ए अढार प्रकृतिमा चार प्रकृतिनो उत्कृष्टस्थितिबंध चालीश कोमाकोडी सागरोपमनो बे, अने चौद प्रकृतिनो त्रीश कोडाकोडी सागरोपमनो उत्कृष्टबंध बे. ए सर्व संक्लिष्टं पंचेंजिय पर्याप्तो जीव बांधे, ए एक समय, बे समय लगें बांधे, वलतो समयादिक हीन स्थिति बांधे, ते अनुत्कृष्ट जाणवोः वली अनुत्कृष्टथी उत्कृष्ट करे, तेश्री ए बे बंधे सादि अने सांत, ए बे नांगा जाणवा, तथा जघन्यबंध पण एनो नवमे बने दशमे गुणगणे एक समय मात्र होय ते जणी सादि सांत होय. .. तह के० तेमज सेसपयमीणं के० ए अढार प्रकृतिथकी शेष रही जे एकसो ने बे प्रकृति तेना चउहा के जघन्यादिक चार प्रकारना स्थितिबंध ते पण सादि अने, Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकंनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ ६२५ सांत, एबे जांगे चारे बंध होय, तेमध्यें निद्रापंचक, प्रथम कषाय बार, मिथ्यात्व, जय, जुगुप्सा, तैजस, कार्मण, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण, ए गणत्रीश प्रकृतिनो जघन्य स्थितिबंध, स्वप्रायोग्य विशुद्धियें करी एकेंद्रिय पर्याप्तानें होय. ते वली कथंचित् हीनाध्यवसायें समयादिक अधिक अजघन्य बंध करे, वली विशुद्धियें जघन्यबंध करे, तेथी जघन्य ने अजघन्यपणे बेहु खख प्रकृतिना स्थितिबंध सादि ने सांतपणे जाणवा. तथा एद्दिज गणत्रीश प्रकृतिना उत्कृष्टबंध संज्ञी पंचेंद्रियपर्याप्ता मिथ्यात्वीने संष्टि परिणामें होय, ते बे समय लगें होय तेवार पढी अध्यवसाय परावर्त्तियें समयादिक हीन अनुत्कृष्ट बंध करे, एम उत्कृष्ट अने अनुत्कृष्टबंध संक्लेश तथा विशुद्धिनी परावर्त्तियें होय तेथी सादि ने सांत ए वे जांगा होय. अने ए गणत्री प्रकृतिथी शेष रही जे तहोंतेर ध्रुवबंधिनी प्रकृति तेनो बंध केवारेंक होय, अने केवारेंक न होय तेथी तेना उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य ने अजघन्य, ए चारे स्थितिबंधें सादि ने सांत, ए वे जांगा होय. केम के जेवारें बंध होय तेवारें सादि ाने जेवारें बंध न होय तेवारें सांत, एम बे जांगा होय. एम उत्तरप्रकृतिना चार स्थितिबंधने विषे सादि, अनाद्यादि जांगा विचारया ॥ ४७ ॥ ॥ दवे गुणठाणा श्रयीने उत्कृष्ट तथा जघन्य स्थितिबंध विचारे बे. ॥ साणाइ प्रपुवंतो, प्रयरंतो कोडि कोडिन नदिगो ॥ बंधो नहु दीणो नय, मिछे नवियर सन्निमि ॥ ४८ ॥ अर्थ- प्रथम जिन्नग्रंथिने अंतः कोटाकोटी सागरोपमथी अधिको स्थितिबंध न होय, ते कहे बे. सापाश्यपुवंतो के० साखादन गुणठाणाथी मांडीने पूर्वकरणनामा आठमा गुणवाणासुधी श्रयरंतो को डिकोडि के० अंतःकोमा कोमी सागरोपम प्रमाण स्थितिबंध संज्ञी पंचेंद्रिय पर्याप्ताने होय, पण तेथकी नहिगोबंधो के अधिक बंध न होय; तेमज अंतः कोमा कोमी सागरोपमयी हीन एटले उंबो बंध पण नहु ho न होय. श्रींश्रां कोई पूछे जे साखादनर्थी श्रावमा गुणठाणा सुधी जो बंधनुं - हीनाधिकपणुं नथी, तो जिहां स्थितिबंधनं अल्प बहुत्व कहेशे, तिहां साधुनी उत्कृष्ट स्थितिबंधथी देश विरतिनो जघन्य स्थितिबंध संख्यातगुणो होय, ते थकी देशविरतिनो उत्कृष्ट स्थितिबंध संख्यातगुणो दोय, ते थकी अविरति सम्यक्टष्टि पर्याप्ता अपर्याप्ताना जघन्य उत्कृष्ट स्थितिबंध असंख्यात गुणा होय, तो ए अल्प बहुत्वप हीनाधिकावें केम घटे ? अहींथां गुरु उत्तर कहे बे के, जेम अंतरमुहूर्त्त नव समयश्री मांगीने एक समय ऊण मुहूर्त्त पर्यंत होय बे, तेना असंख्याता भेद थाय. For Private Personal Use Only Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३० शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ तेम साधुना उत्कृष्ट स्थितिबंधथी लइने अपर्याप्त संज्ञी पंचेंद्रियना उत्कृष्ट स्थितिबंध पर्यंत समयाधिक समयाधिक करतां वचलां संख्यातां स्थितिबंधस्थानक जे दोय, ते सर्व अंतःकोकाकोमी प्रमाण स्थितिबंध कहीयें, एने अंतःकोमाकोडी सागर एवी संज्ञा कहीयें. एम असंख्याता जेद अंतः कोमाकोमी मां होय, तेथी संख्यातगुणा तथा असंख्यात गुणा कदेतां थकां कांइ विघटे नहीं. एम डमरुक मणि न्यायें करी बे. हिणोनयम के तेमज दीनो बंध एटले अंतःकोमा कोमी सागरोपमथी jो बंध मिथ्यात्वीनें पण न होय. तथा सिद्धांतने मतें जेणे ग्रंथिनेद कीधो होय अने ते वली सम्यक्त्व वमीने मिथ्यात्वे जाय तोपण अंतःकोमाकोडी सागरोपमथी स्थितिबंध बोले नहीं, तेथी तेने पूर्वबंधक कहीयें. छाने कर्मग्रंथों मतें ग्रंथिनेद करया पढी पण मिथ्यात्वें सीत्तेर कोडाकोमी सागरोपमनो उत्कृष्टस्थितिबंध करे पण एटलुं विशेष जे ते स्थितिबंध, तीव्ररसें न बांधें, ए जवियरसन्निमि के० जव्य संज्ञी पंचेंद्रियनी अपेक्षायें लेवुं. बीजुं तो एकेंद्रियने मिथ्यात्वगुणठाणे मिथ्यात्वमोहनीयनुं एक सागरोपम, बेंद्रियने पच्चीश सागरोपम, तेंद्रियने पच्चाश सागरोपम, चौरिंडियने सो सागरोपम, अने असंझीया पंचेंद्रियने हजार सागरोपमनी स्थिति बे, एम सास्वादने पण अपर्याप्ता एकेप्रियादिकनो उत्कृष्ट स्थितिबंध सरखो लेवो. ए जव्य, अजव्य, सन्निया पंचेंद्रियने स्थितिबंध कह्यो. ॥ ४८ ॥ ॥ हवे एकेंद्रियादिकने विषे हीनाधिक स्थितिबंधनुं अल्प बहुत्व कहे. ॥ जर बहु बंधो बायर, प प्रसंख गुण सुदुम पहिगो ॥ एसिपका लहू, सुहुमे रप प गुरु ॥ ४५ ॥ अर्थ - ज ० ( १ ) यति एटले साधुनो लहुबंधो के सर्व थकी हीन स्थितिबंध सूक्ष्मसंपय नामा दशमे गुणठाणे वर्त्तता साधुना होय, जे जणी ज्ञानावरणादिक कर्मनो विशुद्धपणे अंतरमुहूर्त्त प्रमाण जघन्य स्थितिबंध चरम समयें होय, तेथी हीणो स्थितिबंध कोइ जीवने नथी. जो पण आगले गुण ठाणे एक समयिकबंध बे, तो पण कषायी जणी तिहां स्थितिबंध विवक्ष्यो नहीं. ( २ ) साधुनो जघन्य स्थितिबंध अंतरमुहूर्त्त प्रमाण अने बादर पर्याप्ता एकैंडियनो जघन्य स्थितिबंध, सागरोपमनो सात एक जाग पल्योपमने असंख्यातमे जागे होय, ते मध्ये तो श्रसंख्याता अंतरमुहूर्त्त थाय, तेथी साधुना जघन्य स्थितिबंधथी बायरपत्रसंखगुण के० बादर एकेंद्रिय पर्याप्तानो जघन्य स्थितिबंध पण असंख्यातगुणो जावो. ( ३ ) बादर पर्याप्ता एकेंद्रियथ की सूक्ष्म पर्याप्ता एकेंद्रियनां योगस्थानक मंद बे, For Private Personal Use Only Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ ६३१ तेथ अध्यवसाय स्थानक पण थोमां होय, तेथी स्थितिस्थानक पण बादरनी छापेकायें थोमां होय, तेणे जघन्य स्थिति बादरनी जघन्य स्थिति थकी उत्कृष्टी वी होय तो स्थिति विशेष पण जंबा होय, तरुं थोडुं ते जणी बादर पर्याप्ता एकेंद्रियना जघन्य स्थितिबंध थकी सुदुमपहिगो के सूक्ष्म एकेंद्रिय पर्याप्ताना जघन्य स्थितिबंध विशेषाधिक का. एटले कांइक जाजेरा जाणवा. (४) एसिप ऊपलहु के० ते थकी ए बन्ने अपर्याप्तानो लघु एटले जघन्य स्थितिबंध यावी रीतें होय, ते कहे बे. सूद एकेंद्रिय पर्याप्ताना जघन्य योगथी बादर एकेंद्रिय पर्याप्ताना योगस्थानक थोमां होय, तेथी अध्यवसायस्थानक तथा स्थितिस्थानक पण थोडां होय, केम के जघन्य ने उत्कृष्ट स्थितिनी वचालें प्रांतरूं योकुं तेथी सूक्ष्म एकेंद्रिय पर्याप्ताना जघन्य स्थितिबंधथ की बादर एकेंद्रिय अपर्याप्तानो जघन्य स्थितिबंध विशेषाधिक जाणवो. ( ५ ) तेथकी सूक्ष्म एकेंद्रिय अपर्याप्तानो जघन्य स्थितिबंध विशेषाधिक होय जे जणी बादर अपर्याप्तानी स्थितिविशेषयी सूक्ष्म पर्याप्तानी स्थिति विशेष थोडी बे. (६) सुडुमेर अपका के० सूक्ष्म अपर्याप्ताना जघन्यस्थितिबंधकी उत्कृष्ट स्थितिबंध विशेषाधिक होय. ( 9 ) ते थकी इतर ते बादरा पर्याप्तानो उत्कृष्ट स्थितिबंध विशेषाधिक जाणवो. जेजणी बादर पर्याप्तानी जघन्यस्थिति सागरोपमानो सात एक जाग पल्योपमने असंख्यातमे जागें ऊणो दोय, ते थकी समयाधिक समयाधिक पस्योपमना असंख्यातमा जागना असंख्य समय नाग प्रमाण स्थिति विशेष ते सर्व स्तोक, तेहने गर्ने सूक्ष्म अपर्याप्तानो स्थिति विशेष, तेहने गर्ने बादर अपर्याप्तानो स्थिति विशेष, तेहने गर्ने सूक्ष्म पर्याप्तानो स्थिति विशेष, सर्व स्तोक ते जण सूक्ष्म अपर्याप्ताना उत्कृष्ट स्थितिबंधथकी बादर अपर्याप्तानो उत्कृष्ट स्थितिबंध विशेषाधिक. (८) तेथकी पगुरु के० सूक्ष्म पर्याप्तानो उत्कृष्टस्थितिबंध विशेषाधिक होय. ( ७ ) तेथकी बादर पर्याप्तानो उत्कृष्ट स्थितिबंध विशेषाधिक. ॥ ४९ ॥ लहु बिपत पको, अपति पर बिप्र गुरु दिगो एवं ॥ ति च प्रसन्निसु नवरं, संखगुणा बिच प्रमणपते ॥ ५० ॥ अर्थ - (१०) बादर एकेंद्रिय पर्याप्ताने मिथ्यात्वमोहनीयनो उत्कृष्ट स्थितिबंध सागरोपम प्रमाण बे ते थकी बिापत के० बेंद्रिय पर्याप्तानो लहु के० जघन्य स्थितिबंध पुरुष वेदादिकनो पण सातइया पच्चीश नाग एटले त्रण सागरोपम उपर सातइधा चार जाग पस्योपमने श्रसंख्यातमे जागें ऊणा होय तेमाटें संख्यात गुणो जावो. जे जणी एकथी त्रिगुणो जाजेरो थयो . For Private Personal Use Only www.jairielibrary.org Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३२ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ (११) प्रिय पर्याप्ताना जघन्यस्थितिबंध थकी अपजो के बेंजिय अपर्याप्तानो जघन्य स्थितिबंध विशेषाधिक होय. जे नणी बेंडिय पर्याप्ताना जघन्य स्थितिबंध विशेष पल्योपमना संख्यातनागना समय जेटला असंख्याता स्थिति विशेष तेने गर्ने बेंजिय अपर्याप्ताना स्थिति विशेष स्तोक होय तेणे जघन्य स्थिति उत्कृष्ट स्थितिनो बंध श्रांतलं स्तोक होय, एटले अगीबार स्थानक थयां. (१५) अपजिविगुरुअहिगो के ते थकी बेंझिय अपर्याप्तानो उत्कृष्टस्थितिबंध विशेषाधिक होय. (१३) ते थकी श्यर के इतर एटले बीजा जे बेंजिय पर्याप्ता जीव ले तेनो उत्कृष्टस्थितिबंध विशेषाधिक एटले कांशएक जाजेलं होय. (१४) एवं तिचउश्रसन्निसु के० एम तेंजिय, चौरि जिय, श्रने असंझी पंचेंजियने विषेपण चार चार बोल कहेवा, परंतु एमां नवरं के एटलुं विशेष ले जे विश्र के बेंजिय पर्याप्तानेविषेशने श्रमणपङो के असंझीपंचेंजिय पर्याप्ताने विषे पहेले बोलें संखगुणणो के० संख्यातगुणों बंध कहेवो. एटले बेंछिय पर्याप्तानो उत्कृष्टस्थितिबंध पच्चीश सागरोपम प्रमाण ने तेथकी तेंघिय पर्याप्तानो जघन्य स्थितिबंध विशेषाधिक होय, जे जणी बेजियथी बमणो बंध तेंजियने बे, अने जो त्रिगुणो होय तो संख्यात गुणो कहीये. परंतु तेथी हीन बे, माटें विशेषाधिक का. अहींयां जो पण तेजियने पुरुष वेदादिकनो जघन्य स्थितिबंध सागरोपमना सातश्या पच्चाश नाग पत्योपमने असंख्यातमे जागें ऊणा ते बंध बेंजियना मिथ्यात्वमोहनीयना बंधथी हीन पण होय, तथापि ते अहीं विवदयो नहीं; परंतु अहीं तो खख प्रकृतिनी अपेक्षायें उत्कृष्टी तथा जघन्य स्थिति लेवी एटले प्रत्येक एकेकी प्रकृतिनी स्थितिमा एक बीजा जीवोना बंधने विषे उत्कृष्टी तथा जघन्य स्थिति लेवी तेणे करीने स्थितिबंधनुं शल्प बहुत्व जाणवू. एवं चौद स्थानक कह्यां. (१५) तेंजिय पर्याप्ताना जघन्य स्थितिबंधथकीतेंघिय अपर्याप्तानो जघन्यस्थितिबंध विशेषाधिक होय, जे नणी तेंजियना जघन्य उत्कृष्ट स्थिति विशेषने गर्ने पर्याप्ताना सर्व स्थिति विशेष बे, (१६) तेथकी तेंजिय अपर्याप्तानो उत्कृष्ट स्थितिबंध विशेषाधिक. (१७) तेथकी वली तेंघिय पर्याप्तानो उत्कृष्टस्थितिबंध विशेषाधिक बे... । (१०) ते थकी चौरिंजिय पर्याप्तानो जघन्यबंध विशेषाधिक बमणा . ते जणी, (१५) ते थकी चौरिंजिय अपर्याप्तानो जघन्य स्थितिबंध कांइएक अधिक डे. (२०) ते थकी चौरिंजिय अपर्याप्तानो उत्कृष्टबंध विशेषाधिक. (२१) ते थकी चौरिंजिय पर्याप्तानो उत्कृष्टस्थितिबंध विशेषाधिक. अहींां विशेषाधिकने स्थानकें Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ ६३३ कोइएक स्थडे संख्यात लागाधिक लेवा. कोइएक स्थडे असंख्याता नागाधिक लेवा. (२२) तेथकी चौरिंजिय पर्यातानो उत्कृष्टस्थितिबंध एकसो सागरोपमनो विशेषाधिक . ते थकी असन्नि के असन्निा पंचेंजिय पर्याप्तानो जघन्य स्थितिबंध संख्यात गुणो, जे नणी चौरिंजियथी एनो दश गुणो बंध कह्यो बे. तेमाटे (२३) ते थकी श्रसन्निश्रा पंचेंजिय अपर्याप्तानो जघन्य स्थितिबंध विशेषाधिक एटले संख्यात नाग अधिक बे, जे जणी हजार सागरोपमनी स्थितिना पण संख्याता पक्ष्योपम होय, ते पण वली पत्योपमने संख्यातमे जागें ऊणो जघन्यबंध . तो पण संख्यातमे नागें अधिक होय. (२४) ते थकी वली असन्निश्रा अपर्याप्तानो उत्कृष्टस्थितिबंध विशेषाधिक बे एटले संख्यात नागाधिक बे. (२५) ते थकी असन्निश्रा पंचेंजिय पर्याप्तानो उत्कृष्ट स्थितिबंध संख्यात नागाधिक होय. इति समुच्चयार्थः ॥ ५० ॥ तो जइ जिठो बंधो, संखगुणो देस विरय दस्सिअरो॥ सम्म चन सन्नि चनरो, हि बंधाऽणु कम संखगुणा ॥ १ ॥ अर्थ-(२६) तो के० ते असन्नीथा पर्याप्ताना उत्कृष्ट स्थितिबंधथकी जश्के० यति एटले प्रमत्तसंयत एटले साधु स्वप्रायोग्य संक्लेशपरिणामें वर्त्ततो तेनो जिठोबंधो के० उत्कृष्ट स्थितिबंध संखगुणो के संख्यातगुणो जाणवो. जे जणी असन्नीश्राने ज्ञानावरणनो स्थितिबंध, चारसे अहावीश सागरोपम उपर सातीया चार नाग प्रमाण बे, श्रने प्रमत्तने अंतःकोडाकोमी सागरोपम प्रमाण जे ते माटे संख्यातगुणो अधिको स्थितिबंध होय. () ते साधुना उत्कृष्ट स्थितिबंधथकी देसविरय के० देशविर तिनो हस्स के इस्ख एटले जघन्य स्थितिबंध संख्यातगुणो जाणवो. (२) श्रो के तेथकी इतर एटले देशविरतिनो उत्कृष्ट स्थितिबंध संख्यातगुणो जाणवो. देशविरति जीवने पर्याप्तावस्थायेंज बंध होय, पण अपर्याप्तावस्थायें देशविरतिपणुं न होय, तेमाटें अपर्याप्तावस्थानो बंध न कह्यो. (शए) तेथकी सम्म के अविरति सम्यक्दृष्टि पर्याप्तानो जघन्य स्थितिबंध, संख्यातगुणो. (३०) तेथकी अविरति अपर्याप्तानो जघन्य स्थितिबंध संख्यातगुणो. (३१) तेथकी अविरति अपर्याप्तानो उत्कृष्ट स्थितिबंध संख्यातगुणो. (३५) तेथकी अविरति पर्याप्तानो उत्कृष्ट स्थितिबंध संख्यातगुणो, केम के सम्यक्दृष्टिपणुं अपर्याप्तावस्थायें पण होय डे, तेथी एना चन के चार बंध कह्या. तेमज सन्निचरो के सन्नीश्रा पंचेंजिय मिथ्यात्वीना पण चार बंध जाणवा, एटले तेथकी (३३) सन्नीश्रा पंचेंजिय पर्याप्ता मिथ्यात्वीनो जघन्य स्थितिबंध संख्यातगुणो. (३४) तेथकी सन्नीश्रा पंचेंजिय अपर्याप्तानो जघन्य स्थितिबंध Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३४ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ संख्यातगुणो. (३५) तेथकी सन्नी पंचेंद्रिय अपर्याप्तानो उत्कृष्ट स्थितिबंध संख्यातगुणो. (३६) तेथकी सन्निया पंचेंद्रिय पर्याप्ता मिथ्यात्वीनो उत्कृष्ट स्थितिबंध, संख्यातगुणो. विंधाऽणुकम संखगुणा के० इहां साधुना उत्कृष्ट स्थतिबंध थकी लेइने नव बंधना स्थानकपर्यंत अनुक्रमे संख्यातगुणा करतां पण कोकाकोडी सागरोपममांहे होय. तेथी ए सर्व बंध अंतः कोकाकोमीना कहीयें. ए परिभाषा जाणवी . एक सन्निया पर्याप्ता मिथ्यात्वीनो उत्कृष्ट स्थितिबंध अंतःकोडकोडी सागरोपमथी अधिक होय. एम साधुना उत्कृष्ट स्थितिबंधथी लेइ सन्निया पंचेंद्रिय पर्याप्ता मिथ्यावीना स्थितिबंध लगें सघला स्थितिबंध संख्यातगुणा लेवा ए स्थितिबंधनों प बहुत्व कहेवे करी उत्कृष्ट तथा जघन्य स्थितिबंधना स्वामी पण कह्या ॥ ५१ ॥ easy कशे के स्थितिबंध छाने रसबंध तो कषाय प्रत्ययिया बे, तेथी शु प्रकृतिनो रस, कषायनी मंदतायें उत्कृष्ट होय अने कषायनी तीव्रतायें जघन्य होय तथा शुन प्रकृतिनो रस कषायनी तीव्रतायें उत्कृष्ट होय ने कषायनी मंदतायें जघन्य होय, तेवीज रीतें शुन प्रकृतिनी स्थति पण कषायनी मंदताये उत्कृष्ट होय छाने कषायनी तीव्रतायें मंद होय, तथा अशुभ प्रकृतिनी स्थिति पण कषायनी मंदतायें उत्कृष्टी होय छाने कषायनी तीव्रतायें मंद होय, एम न कहेतुं जोयें, माटें अहां जे विशेष फेर बे, ते कहे . ॥ सावि जि अमुदा जं साइ संकिलेसेणं ॥ इरा विसोहि पुण, मुत्तं नर अमर तिरि प्रान ॥ ५२ ॥ अर्थ- सवाविजिहहि के० सर्व कर्मप्रकृतिनी उत्कृष्टी स्थिति स्वस्वबंध प्रा योग्य संक्लेश परिणामें बंधाय, ते जणी असुदा के० अशुन एटले मेलें परिणामें बंधाय. जंसा इस किलेसेणं के० जे कारणें उत्कृष्ट स्थिति अतिसंक्लेशें तीव्रकषायोदयें बंधाय बे, तेमाटें शुभ तथा अशुभ प्रकृतिनी जे उत्कृष्ट स्थिति बंधाय, ते सर्व अशु जाणवी. जे जणी स्थितिबंध, सर्व प्रकृतिनो संक्वेशनी वृद्धियें बंधाय बे, अने जेम जेम विशुद्धि होय, तेम तेम स्थितिबंध हीन यातो जाय, पण रसबंधनी पेरें स्थितिबंध शुभाशुभ न लेवो. जे उत्कृष्ट स्थितिबंध बे ते संक्लेशनुं कार्य बे, ते माटें एकसो ने सत्तर प्रकृतिनो उत्कृष्ट स्थितिबंध, पोतपोताना बंधाध्यवसायस्थानकमध्यें मीन ध्यवसाय स्थानकें बंधाय, तेथी ए एकसो ने सत्तर प्रकृतिनो उत्कृष्ट स्थितिबंध, ते शुन कहीयें, अने ए उत्कृष्टी स्थितिथकी इारा के० इतर एटले जो जे जघन्य स्थितिबंध बे ते विसोहि के० विशुद्धिनुं कार्य बे, एटले जैम For Private Personal Use Only Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ս ६३५. जेम उज्ज्वल परिणामनी वृद्धि थाय, तेम तेम हीन हीन स्थिति बंधाय तेथी पोताना बंधास्थानक मांहे जे अत्यंत विशुद्ध बंधाध्यवसायस्थानक होय, तिहां जघन्य स्थितिबंध होय तेथी एने शुभ कहीयें. पुण के० वली नर के० मनुष्यायु तथा अमर के देवायु ने तिरियान के० तिर्यंचायु, ए त्रण श्रायुने मुत्तं के० मूकीने शेष एकसो सत्तर प्रकृतिनी अपेक्षायें ए लेवु." शेष युनी स्थितिबंधनो विशेष कहे बे. मनुष्यायु, देवायु, अने तिर्यगा, एनी स्थिति श्रापणा बंधाध्यवसाय स्थानकमध्यें विशुद्धाध्यवसायें बंधायाने मलीन परिणामें जघन्य स्थिति बंधाय, ए विशेष जावं. ॥ ५२ ॥ वे बंधनुं विषमताएं योगनी विषमतापणे थाय बे. तेथी योगस्थानक निरूपवाने योग कहेवाने, अंतर गाथा लखीयें ढैयें. " परिणामा लंबण गहण, साहणं तेण लद्धनामतिगं ॥ सान्नुन्नसा, पवे सवि समीकयपएसं ॥ १ ॥" हवे गाथाना कहे बे. जे वीर्य विशेष करी श्रदारिकादिक पुजल ग्रहण करे तथा तेने श्वासोश्वासादिकपणे परिणमावीने निःसर्ग एटले स्वाभाविक हेतुक शक्ति विशेषनी सिद्धिने ा अवलंबे जेम कोइ एक आजारी माणस, नगरमां जमवा निमित्तें लाकडी कालीने उठे, पढी जेवारें सामर्थ्य थाय तेवारें लाकडीने मूकी आपे, तेम जीव जाषादिक पुल अवलंबी तजन्य करणवीर्य थये थके तेने मूकी आपे ते परिणाम अवलंबन ग्रहण हेतु जे वीर्य, तेने योग कहीयें. ते योगना मन, वचन ने कायाने नेदें करी त्रण नाम होय वे. तिहां योग, बल, वीर्य, उत्साह, शक्ति, चेष्टा, करण, ए सर्व एना पर्याय नाम जाणवां, अने ते जीवने वीर्यातरायने क्षयोपशमें करी सर्व प्रदेश सरखं वे पण जे प्रदेश कार्यने ढूंकडा होय तिहां घणुं वीर्य जपाय, ने बीजा प्रदेशें थोडुं जणाय; जेम हाथे करी घको उपाडतां हाथ मात्रा प्रदेश ढूंकडा ने तिहां घणुं चलाचलपणुं होय अने खजाने प्रदेशें तो वली घणुंज थोडुं होय तेथी वीर्यनुं विषमपणुं होय. संसारी जीवने वीर्यांतराय . देश घातीने विचित्र क्षयोपशमें करीने अनेक जातनुं क्षायोपशमिक वीर्य, द्मस्थनुं होय वे मध्यें मन चिंतना पूर्वक आहार विहारादिक जे करण व्यापार ते अनिसंधिजवीर्य कहीयें, अने जे मन चिंतना विना केवल वचन अने कायाना व्यापार एकेप्रियादिकने बे तथा पंचेंद्रियने पण मुक्त आहारनुं धरनुं धातु मलपणे परिणमाaj, ते अन जिसंधिज वीर्य कहीयें. तथा कायिक जावें जे करणवीर्य केवलीनुं ते पण बे नेदें बे. एक सलेश्य वीर्य ते सयोगीनुं ग्रहण परिणमन अवलंबन रूप ते त्रण योगना ने त्रिविधें बे तथा बीजुं योगीनुं लेश्य वर्य जाणवुं. तथा बद्मस्थनुं For Private Personal Use Only Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ शुजलेश्यावंतने विशुद्धियें वीर्य वधे, अने अशुल वेश्यावंतने संक्लेशे वीर्य वधे अन्यथा मंदता होय. ए रीतें योगनी उत्कृष्ट मंदता होय. तिहां जघन्यवीर्य जे जीवनो प्रदेश ते वली केवलीना तीक्ष्ण बुद्धिरूप शस्त्रे करी बेदतां जे वीर्यांश निरंश होय नहीं एटखे जे वीयांशनो अंश केवली पण कल्पी न शके ते वीर्यविनाग तथा नावाणु पण तेने कहीये. तेवा लोकाकाशथी असंख्यात गुणा जे वीर्याणु, तेणे करी सहित जे प्रदेश, तेनो समुदाय एटले जीव प्रदेशनी श्रेणी, ते प्रथम वर्गणा. तेथी एक वीर्य विनागें अधिक एवी जे जीव प्रदेशनी श्रेणी, ते बीजी वर्गणा. बे वीर्यविनागें अधिक वीर्य एवी जे जीव प्रदेशनी श्रेणी, ते त्रीजी वर्गणा. एम एकेक वीर्य विनागें अधिक वीर्यवंत जे जीव प्रदेशनी श्रेणी, ते घनीकृत लोकनी एक प्रादेशिक सूची श्रेणीने असंख्यातमे नागें जेटला आकाश प्रदेश होय, तेटली वर्गणायें एक स्पर्डक होय, ते प्रथम स्पर्ककनी उत्कृष्ट वीयांश वर्गणाथी एटले बेबी वर्गणाथी एक, बे अथवा संख्याते वीर्यविनागें अधिका को जीव प्रदेश नथी, परंतु असंख्य लोकाकाश प्रमाण वीयांशें अधिक जे जीव प्रदेशनी श्रेणी, ते बीजा स्पर्ककनी प्रथम वर्गणा जाणवी. वली तेथी एक एक वीर्य विनागें चढता चढता जीव प्रदेशनी श्रेणीनी वर्गणायें करी बीजो स्पर्कक थाय, तेथी वली असंख्य लोकाकाश प्रदेश नाग प्रमाण वीर्याशें अधिक वीर्यवंत जीव प्रदेशनी श्रेणी, ते त्रीजा स्पर्डकनी प्रथम वर्गणा. एणी पेरें श्रेणी प्रदेश असंख्येय नाग प्रमाण स्पर्धके पहेलु जघन्य योगस्थानक होय, ते थकी अंगुलना असंख्यातमा नागना आकाशप्रदेश प्रमाण स्पर्ककें वधतुं बीजुं योगस्थानक होय, तेथी वली तेटलेज स्पर्डके वधतुं वली त्रिजुं योगस्थानक होय. एम अंगुलने असंख्यात नाग प्रदेश प्रमाण स्पर्डक वधता वधतां एवा घनीकृत लोकनी सूची श्रेणीना असंख्यात नाग प्रदेश प्रमाण योगस्थानक गये थके बेळू जे योगस्थानक आवे, तेवारें प्रथम योगस्थानकथी बमणा स्पर्कक होय, तेथी वली तेटला योगस्थानक गये थके तेथी वली बमणा स्पर्डक होय. एम बमणा बमणा. स्पर्धक होय. ते पण योगस्थानक सूक्ष्म झापल्योपमने असंख्यातमे नागें जेटला समय होय तेटला बमणा स्पर्ककवाला पण योगस्थानक होय. प्रथम योगस्थानक घणा अल्पवीय प्रदेशे होय. बीजुं योगस्थानक तेथी थोडे अल्पवीर्य प्रदेशे होय. एम स्पर्डक बंधे, को एक श्राचार्य कहे . जघन्ययोग जीवथी जे वीर्याधिक जीव तेनुं बीजुं योगस्थानक, एम वीर्य वधतां वधतां योगस्थानक नीपजे तेमध्ये जघन्य योगस्थानके जीव, चार समय सुधी रहे, मध्यम योगस्थानकें जीव, आठ समय सुधी रहे, श्रने उत्कृष्ट योगस्थानकें जीक, बे Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ ६३७ समय सुधी रहे. इत्यादिक जघन्य मध्यम प्ररूपणा सर्व कर्म प्रकृतिथी जाणवी ॥ इति॥ ॥ हवे योगस्थानकना स्वामी कहे .॥ सुहुम निगोआ खण, प्पजोग बायरप विगल अमण मणा ॥ अपज लहु पढम 5 गुरु, पजहस्सि अरोअसंख गुणो ॥ ५३ ॥ श्रर्थ-योग ते वीर्यस्थान व्यापार पराक्रम कहीये. वीर्यांतरायना व्यापारथी उपर्नु जे कायादिकन परिस्पंद, ते योग कही. सुहुम निगोआखणप्पजोग के० (१)सूक्ष्म निगोदिया, लब्धि अपर्याप्ताने आदिक्षणे एटले नव प्रथम समये अल्प जघन्ययोग ते स्तोक. (२) तेथकी बायरप के बादर निगोदि लब्धि अपर्याप्तो तेने नव प्रथम समय जे योग ते असंख्यात गुणो जाणवो. (३) तेथकी विगल के बेंजिय, तेंजिय श्रने चौरिंजिय एटले अनुक्रमें बेंडिय अपर्याप्ताने नव प्रथम समये योग असंख्यात गुणो जाणवो. (४) तेथकी तेंघिय अपर्याप्तानो जघन्ययोग, असंख्यात गुणो जाणवो. (५) तेथकी लब्धि अपर्याप्ता चौरिंजिय जीवने नव प्रथम समयें जघन्ययोग असंख्यात गुणो. (६) तेथकी अमण के जेने मन नथी एवा थसनीथा पंचेंजिय लब्धि अपर्याप्ताने नव प्रथम समयें जघन्ययोग, असंख्यात गुणो. (७) तेथकी मणा के मनःपयोतिना श्रारंनक एवा सन्नीया पंचेंजिय लब्धि अपर्याप्ताने नव प्रथम समयें जघन्ययोग असंख्यात गुणो. ए सात अपज के लब्धि अपर्याताना नव प्रथम समय लहु के जघन्ययोग लेवा, तेथकी पढम के प्रथमना बे एटले अपर्याप्ता, सूक्ष्म अने बादर निगोदीओनो गुरु के उत्कृष्ट योग कहेवो. एटले (७) सूदमनिगोदीश्रा लब्धि अपर्याप्तानो उत्कृष्ट योग, असंख्यात गुणो. (ए) तेथकी बादर निगोदोश्रो एकेंजिय लब्धि अपर्याप्तानो उत्कृष्ट योग, असंख्यात गुणो. पजह स्सिअरो के तेथकी एज बे पर्याप्तानो हस्व एटले जघन्ययोग लेवो. एटले (१०) तेथकी सूक्ष्म निगोदीश्रा पयोप्तानो जघन्ययोग असंख्यात गुणो. (११) तेथकी बादर एकेंजिय पर्याप्तानो जघन्ययोग असंख्यात गुणो. तेथकी इतर एटले एज बे सूक्ष्म पर्याप्तानो उत्कृष्ट योग कहेवो. एटले (१२) सूक्ष्म निगोदीया पर्याप्तानो उत्कृष्ट योग असंख्यात गुणो. (१३) तेथकी बादर पर्याप्ता एकेजियनो उत्कृष्ट योग असंख्यात गुणो, एटले ए तेर योगस्थानक कह्यां. तेमध्ये एकेजियना नेद चार बे, ते जघन्य तथा उस्कृष्ट नेदें करी आठ नेद थया, तथा विकलेंजियना त्रण अने असन्नीआ तथा सन्नीआ अपर्याप्ता, एवं पांचना जघन्ययोग कह्या, एवं तेर योगस्थानकनुं अल्प बहुत्व अनुक्रमे असंखगुणो के० असंख्यात गुणुं जाणवू. Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३० शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ अहींयां सघले गुणाकार, सूक्ष्म क्षेत्र पस्योपमना असंख्यातमा नागें वर्त्तता समय प्रमाण जाणवो.एम आगले योगस्थानकें पण एहिज गुणाकार लेवो. ॥ ५३॥ असमत्त तमुक्कोसो, पड़ जहनिअर एव वि गणा॥ . अपजेयर संखगुणा, परमऽपज बिए असंख गुणा ॥ ५४॥ अर्थ-असमत्ततमुक्कोसो के असमाप्त एटले अपर्याप्ता ते पांच त्रस लेवा, एटले विकवेजिय त्रण तथा श्रसन्नीथा, सन्नीया, ए पांच अपर्याप्ता एटले जेणे श्रारंजी पर्याप्ती पूरी नथी करी, ते जीव अपर्याप्ता जाणवा. ते पांचेना उत्कृष्ट योग अनुक्रमे असंख्यात गुणा बे. ते कहे. (१४) ते थकी बेंजिय अपर्याप्तानो उत्कृष्ट योग असंख्यात गुणो. (१५) तेथकी तेंडिय अपर्याप्तानो उत्कृष्ट योग असंख्यात गुणो. (१६ ) तेथकी चौरिंजिय अपर्याप्तानो उत्कृष्ट योग असंख्यात गुणो. ( १७ ) तेथकी श्रसन्नीया पंचेंजिय अपर्याप्तानो उत्कृष्ट योग असंख्यात गुणो. (१०) तेथकी सन्नीश्रा पंचेंज्यि अपर्यासानो उत्कृष्ट योग असंख्यात गुणो. एम वली पङा के० ए पांच पर्याप्तानां जहन्नियर के जघन्य योगस्थानक अनुक्रमें लेवां. एटले (१५) तेथकी बेंजिय पर्याप्तानो जघन्य योग असंख्यात गुणो. (२०) तेथकी तेंजियने पर्याप्तानो जघन्य योग असंख्यात गुणो. (२१) तेथकी चौरिंजिय पर्याप्तानो जघन्य योग असंख्यात गुणो. (२५) तेथकी असन्नीथा पंचेंजिय पर्याप्तानो जघन्य योग असंख्यात गुणो. (२३) तेथकी सन्नीथा पंचेंजिय पर्याप्तानो जघन्य योग असंख्यात गुणो. हवे ए थकी इअर के० श्तर एटले ए पांचे पर्याप्ताना उत्कृष्ट योग अनुक्रमें कहेवा. (२४) तेथकी बैंजिय पर्याप्तानो उत्कृष्ट योग असंख्यात गुणो. (२५) तेथकी तेंघिय पर्याप्तानो उत्कृष्ट योग असंख्यात गुणो. (२६) तेथकी चौरिंघिय पर्याप्तानो उत्कृष्ट योग असंख्यात गुणो. (२७) तेथकी असन्नीया पंचेंजिय पर्याप्तानो उत्कृष्ट योग, असंख्यात गुणो. (२०) तेथकी सन्नीया पंचेंजिय पर्याप्तानो उत्कृष्ट योग असंख्यात गुणो. (शए)ते थकी अनुत्तरसुरनो उत्कृष्ट योग असंख्यात गुणो. (३०) तेथकी ग्रैवेयक सुरनो उत्कृष्ट योग असंख्यात गुणो, (३१) तेथकी युगलियानो उत्कृष्ट योग असंख्यात गुणो. (३२) तेथकी आहारक शरीरनो उत्कृष्ट योग असंख्यात गुणो. तेथकी शेष देव, नारक, तिर्यच अने मनुष्यनो यथोत्तर उत्कृष्ट योग असंख्यात गुंणो जाणवो. एम योगस्थानक कह्यां. - एव के० एमज ए सात पर्याप्त अने अपर्याप्ताना ने करी चौद जातिना जीव, तेना कर्मबंधना जघन्य अने उत्कृष्ट स्थितिना वचमांना अंतरें जेटला समय तेटला विश्गणा के० स्थितिबंधनां स्थानक, तेनुं अल्पबहुत्व कहे डे. Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. Ա ६३ पजेयर संखगुणा के० ( १ ) तिहां सूक्ष्म एकेंद्रिय अपर्याप्तानुं स्थितिस्थानक स्तोक. ( २ ) ते थकी बादर एकेंद्रिय अपर्याप्तानां स्थितिस्थानक संख्यातगुणां. (३) ते थकी सूक्ष्म एकेंद्रिय पर्याप्तानां स्थितिस्थानक संख्यातगुणां. ( ४ ) तेथकी बादर एकेंद्रिय पर्याप्तानां स्थितिस्थानक संख्यातगुणां. (२) ते थकी बेंद्रिय पर्यासानां स्थितिस्थानक असंख्यातगुणां. जे जणी बेंद्रियनी उत्कृष्ट स्थितिथी पल्योपमने संख्यातमे जागें ऊणी जघन्य स्थिति होय, तेथी पढ्योपमना संख्यातमा जागना जेटला समय एटला बेंद्रिय अपर्याप्तानां स्थितिस्थानक होय, श्रने चार एकेंद्रियनां स्थितिस्थानक पल्योपमना असंख्यातमा जागना समयमात्र बे. असंख्या एटले पल्योपम संख्यांशें एक पस्योपमना संख्यातांश होय ते माटें बादर एकेंद्रिय पर्याप्ताना उत्कृष्ट स्थितिस्थानकथी बेंद्रिय अपर्याप्तानां स्थितिस्थानक असंख्यात गुणां जाएवां. (६) ते की वली तेहीज बेंद्रिय पर्याप्तानां उत्कृष्ट स्थितिस्थानक संख्यात गुणां जाणवां. ( 3 ) ते थकी तेंद्रिय अपर्याप्तानां स्थिति स्थानक संख्यातगुणां. (८) ते थकी तेंद्रिय पर्याप्तानां स्थितिस्थानक संख्यातगुणां. ( ९ ) ते थकी चौरिंडिय पर्याप्तानां स्थितिस्थानक संख्यातगुणां. (१०) ते थकी चौरिंद्रिय पर्याप्तानां स्थितिस्थानक संख्याari. ( ११ ) ते थकी असन्नी या अपर्याप्तानां स्थितिस्थानक संख्यात गुणां. ( १२ ) ते थकी सन्नीच्या पर्याप्तानां स्थितिस्थानक संख्यातगुणां, (१३) ते की सन्नी पंचेंद्रिय अपर्याप्तानां स्थितिस्थानक संख्यातगुणां. (१४) ते थकी सन्नी पंचेंद्रिय पर्याप्तानां स्थितिस्थानक संख्यातगुणां. अहींयां सीत्तेर कोमाकोमी सागरोपममध्ये पण पल्योपमना संख्यातांश संख्याता होय, तेथी संख्यातगुणा कहीये. सर्व पदने विषे संख्यातगुणा कहेवा. किंवा कोइक पदने विषे विशेष बे, ते कहे बे. परमपज बिए संखगुणा के० परं केवलं अपर्याप्त हींद्रिय पदने विषे श्रसंख्यातगुणां स्थितिस्थानक कवां ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ ५४ ॥ ॥ दवे जेटली पर्याप्तावस्थायें योग वृद्धि होय, ते कहे . ॥ पइखिए मसंखगुण विरि, य अप हि असंख लोग समा ॥ अद्यवसाया दिया, सत्तसु खासु असंखगुणा ॥ ५५ ॥ अर्थ - पखियं के प्रतिक्षण एटले समय समय प्रत्यें अपर्याप्तावस्थायें जे योगस्थानक होय, तेथी बीजे समयें असंखगुणविरिय के० असंख्यात गुण वृद्धि योगस्थानक होय, तेथी चीजे समये वली असंख्यात गुंण वृद्धि योगस्थानक होय. एम अप के अपर्याप्ताने चरम समय लगें असंख्यात गुण वृद्धि योगस्थानकनी होय, पर्याप्त पूर्ण करा पढी पर्याप्ताने संख्यात गुण वृद्धि, असंख्यात गुण वृद्धि, संख्या For Private Personal Use Only Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४० शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ, ५ त गुण हीन; असंख्यात गुण हीन, कोई तुल्य योग स्थानकें पण होय. एम अनियमें होय, तो कोइ जीव वधते, को घटते, को तुय्य योग स्थानके पण वर्ते पण निऔर न होय. “सबो विअपजातो, पश्खण मसंखगुणाए जोगवुड्डीए ” इति बृहछतकचूर्णी. एम योगवृद्धियें करी कर्मना प्रदेशनी तथा हि के० स्थितिनी वृद्धि होय. हवे जीवने प्रत्येकें एकेक स्थितिस्थानक विशेषे अध्यवसायस्थानके बंधाय, ते कहे . स्थिति, स्थानक स्थानक प्रत्ये तीव्र, तीव्रतर, मंद, मंदतर, मंदतमादिक, असंख्याते अध्यवसाय स्थानकें बंधाय, तिहां जघन्य स्थिति असंखलोगसमा के० श्रसंख्यलोकाकाशप्रदेशप्रमाणे काषायिक अध्यवसाय स्थानकें बंधाय. ते थकी वली समयाधिक स्थिति बंधाय, ते वली विशेषाधिक अध्यवसाय स्थानकें बंधाय. एम छिसमयाधिक, त्रिसमयाधिक स्थितिस्थानकें विशेषाधिक विशेषाधिक स्थितिस्थानक वधारता, वधारतां एक पल्योपमनी असंख्यात नाग मात्र स्थितिस्थानक अतिक्रमे थके, जघन्य स्थितिना अध्यवसाय स्थानकथी बमणां अध्यवसाय स्थानक थाय. एम वली पण तेटलांज स्थितिस्थानक अतिक्रमे थके, बमणां बमणांअध्यवसाय स्थानक थाय, ते पण एक पढ्योपम मात्र स्थिति वृद्धियें असंख्याता छिगुण वृछिनां स्थितिस्थानक पण थाय. एम एक आयुःकर्म विना शेष सत्तसु के सात कर्मनां जघन्य स्थितिस्थानक थकी मामीने अद्यवसायाअहिया के विशेषाधिक, विशेषाधिक, अध्यवसाय स्थानक वधतां होय. । आजसु के आयुःकर्मनी जघन्य स्थितियें जे सर्वस्तोक अध्यवसाय स्थानक होय तेथी द्वितीय स्थितियें असंखगुणा के असंख्यातगुणां होय. तृतीयस्थिति असंख्यातगुणा अध्यवसाय स्थानकें होय. एम असंख्यात गुणां अध्यवसाय स्थानकें करीने समयाधिक स्थिति वधारतां उत्कृष्टस्थिति सुधी जये. एम कषायोदयनेदें करी आत्मानो जे अशुद्ध स्वजाव विशेष, ते अध्यवसायस्थानक जाणवां. ते अध्यवसायस्थानक, रस वीशेषना हेतु जाणवां. अव्य, देत्र, काल, नाव, प्रतिबंध, रस, विपाक, नियामक, ते सात कर्मनी जघन्य स्थितियें असंख्याता अध्यवसाय, ते थकी समयाधिक समयाधिक स्थितियें विशेषाधिक विशेषाधिक अध्यवसायस्थानक वधता होय. ते उत्कृष्ट स्थिति पर्यंत विशेषाधिक, विशेषाधिक, वधतां लेवाय. अने आयुःकर्मनां स्थितिस्थानकें स्थानकें यद्यपि अध्यवसाय स्थानक असंख्यात गुणां वधे डे, तथापि ते सर्व कर्मथी थोमां जाणवां. अने नामकर्म तथा गोत्रकर्मना संख्यातां तथा असंख्यातां पण स्थितिस्थानक Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ ६४१ होय, तोपण ययुः कर्मनी जघन्य स्थिति अल्प बे माटे अध्यवसाय स्थानक थोडां होय, ते माटें श्रायुष्यना श्रध्यवसाय स्थानकथी नामकर्म छाने गोत्रकर्मनां स्थितिबंधाध्यवसाय स्थानक, असंख्यात गुणां जाणवां. ते की ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, अने अंतराय, ए चार कर्मनां स्थितिबंधाध्यवसायस्थानक, असंख्यात गुणां जाणवां. जे जणी नामकर्म अने गोत्रकर्म की दश कोडाकोडी सागरोपमनी स्थिति एनी अधिक बे ने पल्योपमना संख्यांश मात्र स्थिति वृद्धियें अध्यवसाय स्थानक, बमणां वधे, छाने दश कोमाकोमी सागरोपममध्यें तो असंख्याता पल्योपमना श्रसंख्यांश होय, तेथी संख्यात में अध्यवसाय स्थानकनी द्विगुण वृद्धि करतां नामकर्म अने गोत्रकर्म थकी ए चार कर्मनां संख्यात गुणां अध्यवसाय स्थानक होय. छाने ए चारे कर्मनां मांदोमां रसपरस अध्यवसायस्थानक तुल्य बराबर होय. थकी व चारित्रमोहनीयनी स्थितिनां अध्यवसाय स्थानक असंख्यात गुणां जाणवां, जे जणी ज्ञानावरणीयनी स्थितिथकी कषाय चारित्रमोहनीयनी स्थिति, दश कोडाकोडी सागरोपमनी वधती बे. तिहां असंख्याता पल्या संख्यांशें असंख्याती द्विगुण वृद्धि होय, ते माटें असंख्यात गुणां अध्यवसायस्थानक जाणवां. ते की दर्शनमोहनीयनां असंख्यात गुणां अध्यवसाय स्थानक, स्थितिबंधना हेतु जावा. जे जी चारित्रमोहनीयनी स्थितिथकी त्रीश कोडाकोमी सागरोमनी स्थिति, दर्शनमोहनीयनी वधती बे. तेमाटें तेना पण पूर्वोक्त युक्तियें करी असंख्यात गुणां अध्यवसायस्थानक होय. ए रीतें आठ कर्मनां स्थितिना श्रध्यवसाय स्थानकनां पबहुत्व पण प्रसंगें कह्यां. तथा एकेक अध्यवसाय स्थानकें वर्त्तता त्रस जीव, जघन्य पदे एक, बे, उत्कृष्टा तो आवलीना संख्यांश समय प्रमाण जाणवा, अने स्थावर जीव अनंता जाणवा. तथा त्रस जीवयुक्त निरंतरपणे जघन्यपदें बे श्रध्यवसाय स्थानक ने उत्कृष्टपदें श्रावलीना श्रसंख्याता समय मात्र प्रमाण होय, तेथी उपरांत अवश्य शून्य होय, उत्कृष्टपढ़ें असंख्य लोकाकाश प्रदेश प्रमाण होय, अने स्थावर शून्य अध्यवसायस्थानक न होय, जे जणी अनंतानंत निगोदी या जीव, ते सहु स्थावर बे. एम अध्यवसायस्थानके जीव प्ररूपणा कही तथा जघन्य स्थितिने जघन्य अध्यवसाय स्थानकें अनंता रसविजाग जाणवा. ते की वली एज प्रथम स्थितिने उत्कृष्ट श्रध्यवसाय स्थानकें अनंतगुणा रसविजाग जावा, तेथकी वलं. द्वितीय स्थितिने जघन्य अध्यवसाय स्थानकें अनंतगुणो रस For Private Personal Use Only Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४२ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ जाणवो. तेथकी तेज द्वितीय स्थितिना उत्कृष्ट अध्यवसाय स्थानके वली अनंतगुणो रस जाणवो. एम स्थितिविशेषे जघन्य उत्कृष्ट अध्यवसाय स्थानकें अनंतगुणो अनंतगुणो रस वधारतां उत्कृष्ट स्थितिना उत्कृष्ट अध्यवसाय स्थानक लगें कहे. ए रीतें प्रसंगें अध्यवसायस्थानकें रस पण विचास्यो. ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ ५५॥ हवे उत्तर प्रकृति न बंधाय, तो केटलो काल न बंधाय ? तेनो अबाधाकाल कहे . तिहां सर्व प्रकृतिमां जघन्यथी तो एक समय अबाधाकाल होय, अने उत्कृष्टपणे मिथ्यात्व तथा सास्वादन गुणगणे बंधविछेद पामेली एकतालीश प्रकृतिनो पंचेंजियने विषे अबाधाकाल कहे . प्रथम ते एकतालीश प्रकृतिनां नाम कहे . नरकत्रिक, जातिचतुष्क, स्थावरचतुष्क, टुंडसंस्थान, बेवहुं संघयण, आतप, मिथ्यात्व, नपुंसक, ए शोल प्रकृति, मिथ्यात्व व्यवछिन्नबंध अने पच्चीश प्रकृति सास्वादन व्यवछिन्नबंध, एवं एकतालीश प्रकृतिनो उत्कृष्ट बंधांतर कहे बे. अथोत्कृष्ट स्थित्यंतरबंधमाद ॥ तिरि निरयति जोयाणं, नरनवजुअ सचनपल्ल तेसह ॥ थावर चन गविगला, यवेसु पणसी सयमयरा ॥५६॥ अर्थ-तिरिनिरयति के तिर्यंचगति, तिर्यंचानुपूर्वी अने तिर्यंचायु, ए तिर्यचत्रिक तथा नरकगति, नरकानुपूर्वी अने नरकायु, ए नरकत्रिक, सातमुं जोयाणं के उद्योतनामकर्म, ए सात प्रकृतिनो बंध पंचेंज्यि जीवने जो न होय, तो केटला काल लगें न होय ? ते कदे . नरनवजुअ के० मनुष्यना पूर्व कोमी श्रायुना सात नव, स के० सहित चनपस के चार पढ्योपम अने तेसहं के एकसो वेशठ सागरोपम होय, एनी विशेष नावना कहे . कोशएक त्रय पव्योपमायुवालो युगली नवप्रांतें सम्यक्त्व लहीने एक पस्योपमायुवालो देव थाय. हवे तिहां युगलीथाना नवप्रत्ये ए सात प्रकृतिनो बंध नथी. केम के, युगली तो देवता योग्य नामकर्मनी प्रकृति बांधे, पण बीजी प्रकृति न बांधे, अने देवता थया पडी ते देवताना जवें सम्यक्त्व प्रत्ययें तिर्यग् प्रायोग्य नामकर्मनी प्रकृति न बांधे. पड़ी ते देवता सम्यक्त्व सहितज संख्यात वर्षायुष्क मनुष्य थयो, तिहां पण सम्यक्त्व प्रनावें ए सात प्रकृति न बांधी, अने अंतें चारित्र लश् नवमे अवेयकें देव थयो. तिहां कदापि मिथ्यात्वी पण थयो तो पण नवप्रत्ययें एकत्रीश सागरोपम लगें ए सात प्रकृति न बांधे, जे जणी थाउमा देवलोकथी उपरला देवलोकना तिर्यंचाहे न श्रावे, ते वली प्रांत समयें सम्यक्त्व लहीने संख्यातायुष्यवाला मनुष्यमा सम्यक्हाष्टपणे आवी उपजे. वली ते Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ ६४३ मनुष्य चारित्र पाली तेत्री सागरोपमायुवालो अनुत्तर विमाने विजयादिकने विषे देव थाय. वली मनुष्यजव पामीने वली बीजी वार तेत्रीश सागरोपमायुवालो सुर था. एम बे वार विजयादिक गमनें करी बाराह सागरोपम सम्यक्त्व काल पूरी, वली अंतर मुहूर्त्त मिश्र गुणठाणे ज‍, फरी सम्यक्त्व लही, त्रण वेला बावीश सागरोपमायुष्क अच्युत देवलोकमां गमन करी, बीजी वार पण बाराह सागरोपम सम्यक्त्व काल स्पर्शे एम एकसो ने बत्रीश सागरोपम पूर्व कोटी सप्तक अधिक सम्यक्त्व ने मिश्र प्रत्ययें ए सात प्रकृति न बांधे, अने एकत्रीश सागरोपम ग्रैवेयकना तथा चार पल्योपम युगलीया तथा देवायुना मली एकसो शह सागरोपम चार पल्योपम ने पूर्व कोमी सप्तक सुधी, ए सात प्रकृतिनो पंचप्रियने विषे बाधा काल होय. थावरच के० स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त छाने साधारण, एस्थावर चतुष्क ने इग विगल के० एकेंद्रियजाति तथा बेंद्रिय, तेंद्रिय, अने चौरिंद्रिय, ए विकलजाति - त्रिका के० आतपनामकर्म, ए नव प्रकृतिना बंधने विषे पंचेंद्रियपणे तां जो उत्कृष्ट बंध न होय तो पणसीइसयं के० एकसो ने पंच्चाशी यरा के० सागरोपम तथा चार पल्योपम ने पूर्व कोटी पृथक्त्वें अधिक बंधांतर होय. एनी विशेष जावना कहे बे. कोइ एक जीव, बडी नरक पृथिवीयें बावीश सागरोपमायु जोगवी, तिदां जवप्रत्ययें ए नव प्रकृति न बांधे, तिहां अंतसमयें सम्यक्त्व सहित चवीने मनुष्य थयो. ते तिहां देश विरति लहीने त्रण पत्योपमायुयें युगलीक यश तिहांथी एक पस्योपमायुवालो सुर थाय, तिहांथी पण सम्यक्त्व सहित चवी संख्याता वर्षायु मनुष्यमां उपजे, तिहांथी संयम लइ एकत्रीश सागरापमायुयें ग्रैवेयकमां देवपणे उपजे. तिहां मिथ्यात्व लही, बेल्ले सम्यक्त्व पामी मनुष्य यश् वली विशेष संयम पाली विजयादिक विमानें त्रीश सागरोपमायुयें देव थाय. वली मनुष्य जवने श्रांतरे बीजी वार विजयादिक विमानें अवतरी, बाराह सागर सम्यक्त्वकाल पूरो करी, मिश्र 'श्रावी पूर्वोक्त रीतें त्रण वार अच्युतें जाय. एम एकसो त्रेश सागरोपमा धिकमां बावीश सागर नरकायु नेलतां एकसो पंच्चाशी सागरोपम चार पल्य ने पूर्व कोमी पृथक्त्व एटला काल सुधी ए नव प्रकृतिनी स्थितिनो प्रबंधकाल होय. किदांएक सम्यक्त्व प्रत्ययें, किहांएक जवप्रत्यये, बंधकाल होय, एटले बंधनुं प्रांत होय. ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ ५६ ॥ For Private Personal Use Only Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ पढम संघया गि, खगई अण मित्र नग थीतिगं ॥ नि नपु इचितीसं, पणिंद सुप्रबंधविश् परमा ॥ ५७ ॥ अर्थ - अपढमसंघयणागिर के० पहेला संघयण विना शेष पांच संघयण ने श्राकृति पटले प्रथमसंस्थान विना शेष पांच संस्थान, एवं दश ने खगई के० शुविहायोगति के अनंतानुबंधी क्रोधादिक चार, मित्र के० मिथ्यात्वमोहनीय, जग के दौर्भाग्य, दुःखर, अनादेय, ए दौर्भाग्य त्रिक, श्रीपतिगं ho श्रीणीत्रीक, नि के० नीचैर्गोत्र, नपु के० नपुंसकवेद, इति के० स्त्रीवेद, ए पची प्रकृतिनो बंधकाल डुतीसं के० एकसो ने बत्रीश सागरोपममनुष्यजव सप्तक सहित दोय, तेनी जावना कहे बे. कोइएक जीव, क्षायोपशमिक सम्यक्त्व प्रत्ययें एपची प्रकृति मध्यें ढुंडसंस्थान, बेवहुं संघयण, मिथ्यात्वमोहनीय ने नपुंसकवेद, ए चार प्रकृति, मिथ्यात्वोदय विना न बंधाय, छाने शेष एकवीश अनंतानुबंधिया कषायोदय न बंधाय, छाने मिश्रादिक आगला गुण ठाणे ए बेनो रसोदय नथी, तेमाटें तिहां ए पच्चीश प्रकृति न बंधाय, ते श्रावी रीतें जे, कोइएक मनुष्य, पूर्वकोमी परमायु जोगवी, अच्युतदेवलोकें बावीश सागरोपमायुयें सम्यकूदृष्टि देवता याय. वली तिहांथी सम्यक्त्व सहित चवीने मनुष्य याय. तिहां पूर्वकोटी आयु जोगवी, वली अच्युत देवलोकें बावीश सागरायु जोगवे. फरी पूर्व कोमी श्रायुवालो मनुष्य थइ सम्यक्त्व सहित मरण पामी, अच्युतें उत्कृष्टायु पामी, तिहांथी चवी मनुष्य थाय. एम त्रण वार अच्युत देवलोकें बावीश सागरोपमायुना अने चार जव मनुष्योना पूर्वकोमी आयुना जेलतां बारा सागरोपम चार पूर्व कोडी अधिक, उत्कृष्ट सम्यक्त्व काल स्पर्शी तिहांथी अंतर मुहूर्त्त सुधी मिश्र गुणठाएं स्पर्शी, वली बीजी वखत वाराह सागरोपमायु विजयादिक विमानें वे वखत जावे करी पूराय. बेले मनुष्य थई शुद्ध चारित्र पामी मोदें जाय. श्रींयां पांच देवताना जव ने सात मनुष्यना जव लगें मिथ्यात्व तथा साखादन गुणवाणुं न स्पर्श. तेथी ए पच्चीश प्रकृति पण न बंधाय यहां अच्युत देवलोकें त्रण वखत जावे करी, बाशठ सागर ने विजयादिक विमानें बे वखत जावे करी, बाराह सागर सम्यक्त्वकाल अंतर मुहूर्त्त मिश्र ने आंतरें करी एकसो बत्रीश सागरोपम पूर्व कोडी पृथक्त्वें अधिक एटला काल लगें मिथ्यात्व तथा अनंतानुबंधीया कषायना उदयने जावें ए पच्चीश प्रकृति न बांधे. अहीं तत्वार्थ जायें द्विचरमा अनुत्तर सुर कह्या. जे वली अनुत्तर सुर होय, ते चरम शरीरी होय, तेनी अपेक्षायें मुक्ति कही. अहींयां सम्यक्त्वथी मिश्र आवकुं कयुं, ६४४ For Private Personal Use Only Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ.५ ६४५ ते पण स्वमतें कह्यु. केम के सिद्धांतमतें तो सम्यक्त्वथकी मिथ्यात्वें श्रावे, पण मिों न श्रावे, एवी व्याख्या बे. पणिं दिसुप्रबंधविश्परमा के ए सन्नीथा पंचेंजिय जीवनी अपेक्षायें परम अबंधकालनी स्थिति लेवी, पण बीजा जीवनेदें ए न संजवे. यदुक्तं “मिबत्तासंकंती, अविरुष्का होश सम्म मीमेसु ॥ मीसा उवा दोसु, सम्मा मिछं न उमीसं ति" ॥१॥ इति समुच्चयार्थः ॥ ५७ ॥ ॥ हवे ए एकतालीश प्रकृतिनो अबंधकाल पूवानो उपाय कहे . ॥ विजयाश्सु गेविडो, तमाश् दहि सय उतीस तेसह ॥ पण सी ॥ अथ त्रिसप्ततीनामध्रुवबंधिनीनामुत्कृष्टं संततबंधमा द॥ सयय बंधो, पल्लतिगं सुरविनविवि उगे ॥ ५ ॥ अर्थ-विजयाश्सु के विजय, वैजयंत, जयंत अने अपराजित, ए चार अनुत्तर विमानें बे वार बाश सागरोपम मनुष्य नवें जाजेरो सम्यक्त्व काल पूरे. वली अंतरमुहूर्त मिों रही त्रण वेला अच्युत देवलोके बावीश सागरोपमायु जोगवतां बाश सागरोपम मनुष्य नवें अधिक बीजी वेला सम्यक्त्व काल पूरतां, सयपुतिस के एकसो बत्रीश सागरोपम अने गेवि के ग्रैवेयकना एकत्रीश सागरोपम नेलतां तेसह के एकसो ने वेशह सागरोपम मनुष्य जवना पूर्व कोडी पृथक्त्वें अधिक जाणवा. तेमा वली तमाश्दहि के तमःप्रनानामा बही नरक पृथ्वीना नारकीर्नु बावीश सागरोपमायु नेसतां, पणसी के0 एकसो ने पंचाशी सागरोपम पूराय, अहीं सघले स्थानकें वचला मनुष्य नवनुं श्रायु साधिक जाणवं. यहीं केटलेक स्थानकें सम्यक्त्व प्रत्ययें ए प्रकृति न बंधाय, अने किहांएक तो नव प्रत्ययें न बंधाय. एम एकतालीश प्रकृतिनो उत्कृष्ट अबंधकाल, पंचेंज्यमध्यें पामीरें. तेमा तिर्यंचत्रिक, नरकत्रिक अने उद्योतनाम, ए सात प्रकृतिनो एकसो बेशक सागरोपम प्रमाण अबंधकाल अने स्थावरचतुष्क तथा जातिचतुष्क भने श्रातप, ए नव प्रकृतिनो एकसो पंच्चाशी सागरोपम अबंध काल अने शेष पच्चीश प्रकृतिनों एकसो बत्रीश सागरोपम अबंधकाल ते सर्व पूर्व कोमी पृथक्त्वें अधिक लेवं तथा बे ठेकाणे चार पट्योपम अधिक लेवू. एम बंधांतर कडं. हवे सययबंधो के सतत एटले निरंतरपणे बंध लखीयें बैयें. औदारिक हिक, वैकियहिक, थाहारकठिक, ब संघयण, ब संस्थान, पांच जाति, चार गति, चार थानुपूर्वी, जिननाम श्वासोश्वास, उद्योत, आतप, पराघात, सदशक, स्थावरदशक, वेदनीयधिक, गोत्रहिक, हास्यादिचतुष्क, वेद त्रण, खगतिहिक अने आयुचतुष्क, Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४६ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ ए अध्रुवबंधिनी तहोंत्तेर प्रकृतिनो जघन्यपदें तथा उत्कृष्टपदें निरंतरपणे बांधवानो काल कहे . ते माहे जिननाम, आहारकछिक अने श्रायुचतुष्क, ए सात प्रकृतिनो जघन्यपदें निरंतरपणे बांधवानो काल, अंतर मुहूर्त प्रमाण जाणवो. जे जणी उपशम श्रेणीथी पमतो अंतरमुहूर्त लगें, जिननाम तथा आहारकछिक, ए त्रण प्रकृति बांधी, वली बीजी वार श्रेणी पडिवजतो अपूर्व करणने सातमे नागें एनो श्रबंधक थाय, ते. अपेक्षायें लेबु. तथा श्रायु चारनो तो निरंतरपणे अंतर मुहर्त बंध होय, अने शेष नाशक प्रकृतिनो जघन्य तो एक समय बंध पण होय, एम तहोंत्तेर प्रकृतिनो जघन्य सतत बंध कही, हवे उत्कृष्ट नागें निरंतर बंध कहे . पद्धतिगंसुरविउविगे के देवगति, देवानुपूर्वी तथा वैक्रियशरीर अने वैक्रियअंगोपांग, ए चार प्रकृतिनो सतत बंध जघन्य एक समयनो होय, जे जणी शुन परिणामें एक समय, ए चार प्रकृति देव प्रायोग्य बांधीने परिणाम नेदें समयांतरें वली मनुष्यादिक प्रायोग्य बांधतां जाणवो, अने एनो उत्कृष्टो निरंतर बंध त्रण पट्योपमायुना धणी युगलीयाने नव प्रथम समयथी देवप्रायोग्य नामकर्मनी श्रहावीश प्रकृति बांधतां जाणवो. केम के, तेने नवप्रत्ययें नरक, तिर्यंच अनेः मनुष्य, ए त्रण गति प्रायोग्य नामकर्मनो बंध नथी तेथी परिणाम नेदें पण अन्य एवी विरोधि प्रकृतिनो एने बंध नथी, ते माटें नव प्रथम समयथी लश्ने त्रण पक्ष्योपमना चरम समय लगें ए चार प्रकृतिनो सतत बंध होय. एटले एक, बे, त्रण, संख्याता, असंख्याता समय लगें निरंतरपणे ए चार प्रकृतिनो बंध होय. ॥ इति समु० ॥५॥ समया दसंख कालं, तिरि उग नीएसु आज अंतमुहू ॥ नरलि असंख परट्टा, साय हि पुव कोडूणा ॥ ५ए॥ अर्थ-तिरिग के तिर्यंचहिक, नीएसु के नीचैर्गोत्र, ए त्रण प्रकृतिनो तिर्यंच प्रायोग्य बंधाध्यवसायें समय मात्र रहीने वली तथाविध संक्वेश विशेषे नरक प्रायोग्य ण बांधे, अने विशुफि विशेषे देव, मनुष्य प्रायोग्य पण बांधे, तेनी अपेक्षायें जघन्यथी एक समय बंध होय, अने उस्कृष्ट पदें तो तेल, वानमांहे असंख्यातो काल रहेतो थको तिहां एत्रण प्रकृतिनी विरोधिनी बीजी प्रकृति न बांधे, केमके, तेज श्रने वायु मांहेथी एक तिर्यंच गतिमाहेज अवतरे पण बीजी त्रण गतिमां अवतरे नहीं, तथा तिहां उच्चैर्गोत्र पण न बांधे, तेथी समयादसंखकालं के असंख्यात लोकाकाश प्रदेश प्रमाण समय लगें ए त्रण प्रकृतिनो निरंतर बंध लाने, ए व्यवहार राशि जीवनी अपेदायें लेखववो. बीजा श्राश्रयी तो अनंत काल पण संनवे. Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ ६४७ थाउअंतमुहू के चार श्रायुनो बंध जघन्य तथा उत्कृष्टथी अंतर्मुहूर्त्तनो होय. अहीं परिणाम नेदें पण एक समयिक बंध न होय, जे जणी थायुनो तो श्राखा नवमध्ये एकज वार बंध होय, अहीं जघन्यथी उत्कृष्टो अधिक जाणवो. उरलिथसंखपरट्टा के औदारिक शरीरनामकर्मनो निरंतरपणे बंध उत्कृष्टो श्रावलिना असंख्यातमा नागना समय प्रमाण असंख्याता पुजल परावर्त जेटद्यु जाणवू, अने जघन्य तो एक समयनो जाणवो. जे जणी एक समय औदारिक शरीर बांधी वली समयांतरें परिणाम नेदें तहिरोधिनी वैक्रियादिकने बांधतो होय, अने उत्कृष्टथी तो व्यवहारराशियें आवेलो जीव, जो थावरकायपणे रहे तो उत्कृष्टो श्रावलीने असंख्यातमे नागें जेटला समय थाय, तेटला पुजल परावर्तसूधी थावरपणुं नोगवे, तिहां निरंतरपणे औदारिकशरीर नामकर्मनो बंध करे, तेने वैक्रियादिक विरोधि प्रकृतिनो बंध नथी. ते जणी तिहां सतत बंध कह्यो. सायहिश्पुवकोडणा के एक शातावेदनीयनो सतत बंध, जघन्यथी तो एक समय लगें होय. केम के, वली समयांतरें परिणाम नेदें अशाता पण बांधे, ते अपेक्षायें कहे. तथा उत्कृष्टपणे निरंतर बंध तो आठ वर्षे ऊणी पूर्वकोडी जाणवी. केमके, कोश्क पूर्वकोडी आयुवालो जीव, पाठ वर्ष उपरांत सर्व विरतिपणुं लश्ने, क्षपकश्रेणी पडिवजे, केवल ज्ञान पामे, तेने प्रमत्तगुणगणा उपरांत एनी विरोधिनी अशाता वेदनीय Vतनो बंध नथी, तेथी तिहां निरंतरपणे एटला काल लगें एकज शातावे बांधे. ते अपेक्षायें जाणवू. अन्यथा शाता अशातानो बंध तो अंतरमुहर्ते परावर्त्त होय. ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ ५ ॥ जलदि सयं पणसीयं, परघुस्सासे पणिंदि तस चनगे॥ बत्तीसं सुहु विदगइ, पुम सुन्नगतिगुच्चचउरंसे ॥ ६ ॥ अर्थ-सयंपणसीयं के० एम एकसो ने पंञ्चाशी जलहि के० सागरोपम उपर चार पस्योपम पूर्वकोमी पृथक्त्वे अधिक, परघुस्सासेपणिं दितसचउगे के पराघातनाम, उश्वासनाम, पंचेंजियजाति तथा प्रसनाम, बादरनाम, पर्याप्तनाम अने प्रत्येकनाम. ए त्रस चतुष्क. एवं सात प्रकृतिनो उत्कृष्ट निरंतर बंधकाल जाणवो. जे जणी जातिचतुष्क तथा थावरचतुष्क, ए आव एनी विरोधिनी प्रकृति , ते एटला कालपर्यंत न बंधाय. ते वारे ए प्रकृति बंधाय, ते भावी रीतें के, कोइएक जीव नही नरक पृथवीना बावीश सागरोपमायु जोगवी, अंतें सम्यक्त्व लही; मनुष्यजवें देश विरति लही, त्रण पख्योपम युगलीयानुं तथा तिहांथी एक पटयोपम देवायु जोगवी फरी, मनुष्यपणे संयम लश्ने अवेयकें मिथ्यात्वीपणे एकत्रीश सागरोपम Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ៌មចំ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ देवायु जोगवी अंत समयें सम्यक्त्व लही, फरी मनुष्यनवें चारित्र लही, विजयादिक विमानें बे वखत तेत्रीश तेत्रीश सागरोपमायु जोगवतां गश सागरोपम पर्यंत सम्यक्त्व स्पर्शी, पड़ी मिश्रजावें अंतरमुहूर्त रही वली बीजी वेला बाशक सागरोपम सम्यक्त्व काल, त्रण वखत बावीश सागरोपमायुयें अच्युत देवमादे उपजवे करी पूर्ण करे. एम एकसो पंञ्चाशी सागरोपम, चार पस्योपम अने पूर्वकोडी पृथक्त्वे अधिक एटलो सात प्रकृतिनो सतत बंध जाणवो, अहीं किहांएक तो जव प्रत्ययें, किहांएक सम्यक्त्व प्रत्ययें, ए सात प्रकृति बंधाय, पण एनी विरोधिनी प्रकृति न बंधाय. बत्तीसं के० एकसो ने बत्रीश सागरोपम उत्कृष्टो सतत बंध, बाटली प्रकृतिनो करे, तेनां नाम कहे . सुहाविहग के० एक शुनविहायोगति, पुम के० पुरुषवेद, सुजगतिग के सौजाग्य, सुखर अने श्रादेय, ए सौनाग्यत्रिका उच्चचरंसे केव उच्चैर्गोत्र, समचतुरस्रसंस्थान, ए सात प्रकृतिनो निरंतर बंध जाणवो. जे जणी एनी विरोधिनी अशुजविहायोगति, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, दौर्जाग्यत्रिक, नीचैर्गोत्र, ए सात प्रकृतिनो मिश्रादिक गुणगणे बंध न होय, तेथी मिथ्यात्वर्नु अांतरं उत्कृष्टुं एकसो बत्रीश सागरोपमर्नु होय. तेटलो काल, ए सात प्रकृतिनो बंध निरंतरपणे होय. तिहां प्रथम बाश सागरोपम जाजेरांत्रण वेला अच्युत देवलोकना गमनें करी सम्यक्त्व काल पूर्ण करे. वली अंतरमुहूर्त मिश्र गुणगणे रही, बीजी बेला गशक सागरोपम तेत्रीश सागरोपमायुयें विजयादिक अनुत्तर विमानें बे वेला अवतरवे करी, सम्यक्त्व काल पूर्ण करे, एम एकसो बत्रीश सागरोपम अने मनुष्यायु पूर्वकोडी पृथक्त्वें अधिक काल लगें, मिथ्यात्व अने अनंतानुबंधीने अन्नावें एनी अशुन विहायोगत्यादिक विरोधिनी प्रकृतिना बंधने बनावें शुन्नविहायोगत्यादिक सात प्रकृतिनो सतत बंध होय. ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ ६ ॥ असुदखग जाइ आगि, संघयणादार निरयुजोय गं ॥ . थिर सुन्न जस थावर दस, नपु श्बी उजुअल मसायं ॥६॥ अर्थ-असुहखगइ के एक अशुन विहायोगति अने जाइ के० अशुनजाति चार, एटले एकैफिय, बेंद्रिय, तेंजिय, अने चौरिंजिय, ए पांच प्रकृति, मिथ्यात्वगुणगणे अंतरमुहर्त्तने यांतरे एनी सप्रतिपद प्रकृति बंधाय, तेथी अंतरमुहर्तनो सततबंध जाणवो, तेमज आगि के० न्यग्रोध, सादि, वामन, कुब्ज बने हुंड, ए पांच अशुल आकृति एटले संस्थान अने संघयण के० रुषजनाराच, नाराच, अईनाराच, कीलिका अने बेवहुं, ए पांच अशुज संघयण, आहार के आहारकशरीर Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ए शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ अने आहारकांगोपांग, ए आहारकटिक, निरयुजोयगं के० नरकगति, नरकानुपूर्वी, ए नरकठिक तथा उद्योतनाम अने आतपनाम, ए उद्योतहिक, ए सर्व एकवीश प्रकृतिनो सततबंध, अंतर मुहर्त्त लगें मिथ्यात्व अनेसास्वादनगुणगणे होय. अहीं आहारककिनो बंध मिथ्यात्व तथा सास्वादन, ए बे गुणगणे न जाणवो, तथा थिर के एक स्थिर, बीजी सुन्न के शुन, त्रीजी जस के० यशःकीर्ति, थावरदस के० स्थावर दशको, ए तेर प्रकृति पण सप्रतिपदमिथ्यात्वे बंधाय, तेथी एनो अंतरमुहूर्त लगें उत्कृष्टो सततबंध जाणवो. तथा नपुश्ती के नपुंसकवेद अने स्त्रीवेद, ए बे मोहनीयनी प्रकृति पण अंतरमुहूर्त अंतरमुहूर्त परावर्ते मिथ्यात्वें बंधाय. एवं त्रीश प्रकृति थ तथा उजुअल के हास्य अने रति तथा शोक अने अरति, ए बे युगलनी प्रकृति पण बंधविरोधिनी नणी बहा गुणगणा लगें परावर्ते अंतर मुहर्त प्रमाण बांधे, जो पण सातमे अने बाग्मे गुणगणे निःप्रतिपक्षपणे हास्य अने रति, ए एक युगल बंधाय , तो पण ए बे गुणवणानो काल अंतर मुहर्त्तनो होय. तथा मसायं केन्शातावेदनीय पण शातावेदनीयने परवर्ते अंतर मुहर्त्त प्रमाण, बहा गुणगणासुधी बंधाय. ए एकतालीश प्रकृतिनो एक समयथी मामीने उत्कृष्टो अंतर मुहर्त लगें सततबंध होय. जे जणी ए श्रध्रुवबंधिनी परावर्त्तमान प्रकृति बे ते बीजी पोतानी विरोधिनी प्रकृतिना बंधसामग्रीने सन्नावें अंतर मुहुर्त परावर्ते बंधाय. ___ एमां स्थिर, शुज अने यश, ए त्रणनी विरोधिनी अस्थिर, अशुन अने अयश, ए त्रणनो बंध हा गुणगणा सुधी होय. तिहां लगें परावर्ते अंतरमुहूर्त पर्यंत सततबंध जाणवो. श्रागले गुणगणे जो पण ए विरोधिनी प्रकृतिनो बंध नथी, तो पण दशमा गुणगणा लगें केवल यश कीर्तिनो बंध बे. ते पण अंतर मुहर्त लगें जाणवो. तेथी सर्व गुणगणे एकज अंतरमुहर्त पर्यंत बंध होय. ॥१॥ समया दंत मुहुत्तं, मणु उग जिण वश्र नरखुवंगेसु ॥ तित्ती सय रा परमो, अंत मुहुबहुवि आउ जिणा ॥६॥ तिस्थितिबंधः॥ अर्थ- ए पूर्वोक्त एकतालीश प्रकृतिनो समयादंतमुहत्तं के एक समयथी लश्ने अंतर मुहूर्त लगें सततबंध होय. तेमज मणुग के मनुष्यहिक, जिण के जिननाम, वर के वनषननाराचसंघयण, उरबुवंगेसु के औदारिकांगोपांग, ए पांच प्रकृतिनो तित्तीसयरापरमो के तेत्रीश सागरोपम उत्कृष्ट सततबंध होय, तथा अं. तमुहूलहूवि के अंतर मुहूर्त प्रमाण जघन्यथी पण सततबंध थाउजिणा के चार थायुःकर्मनी प्रकृति अने पांचमुं जिमनामकर्मनुं पण होय. ॥ इत्यक्षरार्थः ॥ ३ ॥ ८२ Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५० शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ ए पूर्वोक्त, एकतालीश प्रकृतिनो एक समयश्री मांगीने अंतरमुहूर्त्त लगें निरंतर बंध होय, जे जणी ध्रुवबंधिनी वे ते माटें ते पढी अवश्य परावर्त्त थाय. मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी, जिननामकर्म, वज्रषननाराचसंघयण ने चौदारि - कांगोपांग, ए पांच प्रकृतिनो निरंतरपणे बंध होय, तो उत्कृष्टथी तेत्रीश सागरोपम पर्यंत होय, जे जगी को अनुत्तर सुरने मनुष्य प्रायोग्य प्रकृतिनो बंध बे, तेथी ते सदा काल चोथे गुणगणे होय. ते जणी तेहने जव प्रथम समयथी मांगीने तेत्रीश सागरोपमना बेल्ला समय लगें एनी विरोधिनी नरकद्विक, तिर्यंच द्विक, देवद्विक, वैक्रियक, ने पांच अशुभ, संघयणादिकनो जव प्रत्ययेंज बंध न होय, तथा जिननामनी विरोधिनी प्रकृति कोइ नथी. तेथी ते पण सम्यक्प्रत्ययें करी, तेत्री सागरोपद्म लगें निरंतरपणे बंधाय. अहीं पण एक जिननाम विना शेष चार प्रकृतिनो जघन्य बंध समय मात्र बे. उपरांत परिणाम मेंदें विरोधिनी प्रकृति बांधे, ते अपेक्षायें लेवो. तथा पूर्वे चार युनो निरंतर बंध कह्यो बे, ते मतें चार आयुनो तथा जिननामनो जघन्यपदे पण अंतर मुहूर्त्तमात्र सतत बंध होय, पण ते उत्कृष्टनी अपेक्षायें तो जघन्य बंध मुहूर्त्त विशेष हीनपणे जाणवो. जे जणी अंतरमुहूर्त्तना असंख्याता नेद बे. माटे जिननामनो जघन्य सतत बंध श्रद्धायें उपशम श्रेणीथी पकतां श्रग्मा गुणठाणाने उपांत्य जागें तो जिननाम बंध करतो आठमुं, सातमुं गुणवाएं स्पर्शी वली श्रेणी चढतां श्राढमाने अंत्यजांगें जिननामनो अबंधक थाय, तेनी वचमांनो अंतर मुहूर्त्त बंधक होय. ए रीतें उत्कृष्ट तथा जघन्यथी मूलप्रकृति तथा उत्तरप्रकृतिनो स्थितिबंध ने ए स्थितिबंधना स्वामी तथा सादि अनायादिक चार नेद, चौद जीवने स्थितिस्थानकनुं पबहुत्व, योगस्थानकनुं अल्पबहुत्व, स्थितिबंधनुं जघन्य अने उत्कृष्ट तरुं तथा अध्रुवबंधिनी प्रकृतिना जघन्य उत्कृष्ट सततबंध कह्या . ॥६२॥ हवे अनुभाग एटले रसबंध कहेवानो अवसर बे, ते माटे तेनी व्याख्या करे बे. तिहां प्रथम अनुजागनुं स्वरूप कहे बे. तिहां सर्व जघन्य कर्म वर्गणाने विषे पण सर्व जीव अनंत गुणा परमाणु होय. वली एकेका परमाणुधोने विषे पण जघन्य पढ़ें सर्व जीवथी अनंत गुणा रसविजाग पलिछेद होय, जे रसनो जाग केवलीनी बुद्धिरूप शस्त्रें करी पण याय नहीं, एटले केवली पण जे रसनो विजाग कल्पी न शके, ते विजाग पीछेद एने जावाणु कहीयें. तिहां एक द्रव्य परमाणु सर्व जीव अनंत गुणा रसाविजागें 'युक्त तेना सरखाज जे बीजा परमाणु तेनो समुदाय ते समान जातिय माटें प्रथम एक वर्गणा कहीयें. ते थकी वली एक रसाविजागें अधिक परमाणुनो समुदाय तेनी बीजी वर्गणा जाणवी एम एकेका रसाविजागें For Private Personal Use Only Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ ६५१ चढता चढता परमाणु तेना समुदाय समुदायनी एकेकी वर्गणा करता जश्ये, ते अजव्य जीवथी अनंत गुणी अने सिहजीवना अनंतमा नाग परिमाण निरंतर वर्गणानो समुदाय ते प्रथम स्पर्द्धक होय. जे लणी प्रथम स्पर्ककनी उत्कृष्टी वर्गणायें जे रसाविजाग डे ते थकी एक, बे, त्रण, संख्याता तथा असंख्याता अविनाग पलीछेद वधता परमाणु न पामीयें. परंतु सर्व जीवं थकी अनंतगुणे रसावित्नागें वधता परमाणु तेनो समुदाय ते बीजा स्पर्ककनी प्रथम वर्गणा जाणवी. वली तेथी एक रसावित्नागें वधती बीजी वर्गणा. एम वली एकेका रसाविनागें वधती वधती जेवारें अन्नव्य जीवथी अनंतगुणी वर्गणानो समुदाय थाय, तेवारे बीजो स्पर्कक होय. ते बीजा स्पर्ककनी उत्कृष्ट वर्गणाथी वली सर्व जीव थकी अनंतगुणा रसावित्नागें वधता परमाणुनो समुदाय ते त्रीजा स्पर्ककनी प्रथम वर्गणा. ते थकी वली एक रसाविनागें वधता परमाणुना समुदायनी बीजी वर्गणा. एम वली पण अजव्य जीव थकी अनंतगुणी वर्गणानो समुदाय थाय, तेवारें त्रीजो स्पर्डक थाय, एवा अजव्य जीव थकी अनंतगुणा स्पर्ड के एक अनुनाग एटले रसनुं स्थानक होय. अहीं सघला स्पर्डकने अांतरे सर्व जीवथी अनंतगुणी शून्य वर्गणा उठे. ते हवे सूक्ष्म अग्निकायना जीवथी तेनो कायस्थिति काल असंख्यात गुणो . ते थकी पण असंख्यात गुणां अनुनाग स्थानक थाय. तिहां एक कंमक मात्र अनंत नाग वृषिस्थानक. (१) पली बीजो वली असंख्यात नाग वृद्धिस्थानक. (२) एम कंझक मात्र स्थानकने अांतरें, अांतरे, एकेक असंख्यात नाग वृकिस्थानक खेतां कंमक वर्ग प्रमाण स्थानकें संख्यात नाग वृझिस्थानक. (३) कंमक घन प्रमाण स्थानकें संख्यात गुण वृद्धिस्थानक. (४) कंमक वर्ग वर्ग प्रमाण स्थानके असंख्यात गुण वृद्धिस्थानक. (५) कंडक घन घन प्रमाण स्थानके अनंत गुण वृद्धिस्थानक. (६) तेवे कंमकें षट्स्थान वृद्धिपणे होय. श्रहीयां मूढमतिने समजाववा नणी कल्पनायें सर्व जीवथी अनंत गुणाने एकसो लेखवीयें, ते एकादिके वधती बनव्य थकी अनंत गुणाने पांच लेखवीयें. एटले एकसो उपर एकादिथी पांच पर्यंत प्रथम स्पर्कक, पडी बसें उपर एकादिथी पांच पर्यंत बीजो स्पर्डक, त्रणसे उपर एकादिथी पांच पर्यंत त्रीजो स्पर्कक, चारसे उपर एकादिथी पांच पर्यंत चोथो स्पर्धक, एनी स्थापना सविस्तर कर्म पयमीथी जाणवी. __ अहींयां रागादिकने वश थको जीव, सिडने अनंतमे जागे अने अजव्य थकी अनंतगुणा एटला परमाणुयें निष्पन्न कर्मस्कंधना दलिया जूदा जूदा समय, समय ग्रहण करे . ते दलीयाने विषे परमाणु दीव कषाय विशेष थकी सर्व जीव थकी Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५२ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ.५ अनंतगुणा अनुनाग एटले रस विनागना पलिछेद होय. तेनी संदेप व्याख्या करी. हवे आगल सूत्रं कहे . तिवो असुद सुदाणं, संकेस विसोदि विवजय ॥ मंदरसो गिरि मदिरय, जलरेदा सरिस कसाएहिं ॥ ६३ ॥ अर्थ-असुह के अशुल जे पाप प्रकृति तेनो मागे कमवो रस, लींबमादिकनो रस जेम सहेजनो एक गणी ते कटुक रस होय, ते अग्नि उपरे काढतां शेरनो अर्डशेर रहे, ते कटुकतर बेठाणी रस जाणवो, अने शेरनो त्रीजो नाग रहे, ते त्रिगणी रस, कटुकतम जाणवो, अने शेरनो पाशेर रहे,ते तिबो के तीबरस चोगणी अति कटुकतम होय. तेमज सुहाणं के शुज जे पुण्य प्रकृति तेनो रस, शेलडीनी पेरें मधुर. जेम शेलमीनो एकगणी रस सहेजनो मिष्ट, बेगणी मिष्टतर, त्रिगणी मिष्टतम, चोगणी अत्यंत मिष्टतम. वली तेहीज मीठा रस मांहे एक चलु पाणी घालतां मंद थाय. पशली जर पाणी घालतां मंदतर थाय. करवो, मोरी मात्र पाणी घालतां मंदतम थाय. घमो पाणी नेलतां अत्यंत मंदतम थाय. एम कमवामा पण कटुकपणुं मंद, मंदतर, मंदतम तथा अत्यंत मंद होय. एम अनेक नेद रसने बंधे तथा उदय होय. ए रसनुं तरतमपणुं कषायने तारतम्यपणे होय, जे नणी मंद कषायें पापप्रकृति मंदरसपणे बांधी होय. तेने वली कषायनी तीव्रतायें, तीव्ररसपणे अशुज अध्यवसायें करी जोगवे. तेमज वली शुन अध्यवसायें करी जोगवे तो जे प्रकृति तीवरसपणे बांधी होय, तेने पण मंदरसे करी जोगवे, एटले ब्याशी पापप्रकृतिनो उत्कृष्ट कटुकरस चोगणी ते संकेस के अत्यंत संक्लेशे तीव्र कषायोदयें करी अत्यंत कटुक चोगणी रस बंधाय, श्रने शुज बेंतालीश पुण्यप्रकृतिनो रस, कषायोदय मंदतारूप विसोदि के अतिविशुमाध्यवसायें करी चोगणी रस अति मीगे बंधाय. अने विवढाय के एथी विपरीतपणे एटले संक्वेशनी मंदतायें अने विशुद्धिनी वृद्धि ब्याशी पापप्रकृतिनो मंदरसो के मंद, मंदतर, मंदतम अने अति मंदतम रस बंधाय, अने विशुकाध्यवसायनी हाणीयें मलिन परिणामनी वृद्धिये बेंतालीश पुण्यप्रकृतिनो रस मंद,मंदतर, मंदतम बंधाय. तथा तेमज शुन्न प्रकृतिनी नफर्तना पण विशुद्धाध्यवसायें होय, अने श्रशुनप्रकृतिनी उर्त्तना संक्लेशाध्यवसायें होय. तेम शुज प्रकृतिनी रसापवर्त्तना शुनपरिणामें होय, अने अशुनप्रकृतिनी रसापवर्त्तना अशुनपरिणामें होय. Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ ६५३ गिरि के पर्वतनी राय सरखो अनंतानुबंधी क्रोध, तेम अनंतानुबंधीया मानादिक पण लेवा. तेना उदयें अति संक्लिष्ट मलिन परिणामी जीव, पापप्रकृतिनो अति कट्रक चोगणी रस बांधे तो पण बैंतालीश पुण्यप्रकृतिनो बे गणी रस बांधे. जे लणी शुनप्रकृतिनो एकगणी रस बंधाय नहीं, माटें बेगणी कहो. अने उदयमां एकगणी पण होय. ते वारें अति संक्लेशें करी बेगणी रस, तेने एकठाणी करी उदीरे वेदे. तथा महि के तलावमध्ये पाणी सूकाणा पली माटीनी राय ते सरीखो अप्रत्याखानी क्रोध जाणवो. तेमज अप्रत्याख्यानीथा मानादिक त्रण पण सेवा. तेना उदयें संक्वेशपरिणामें शुज तथा अशुन प्रकृतिनो रस त्रिगेणी बंधाय; पण एटलं विशेष जे,चढते परिणामें शुन प्रकृतिनो रस बंधाय,अने पमते परिणामे अशुज प्रकृतिनो रस बंधाय. एक स्थानकमध्ये पण चढतां पमतां रसस्थानक असंख्यातां असंख्यातां ले. तथा रय के० रज एटले धूलमांहेली रेखा ते सरखो प्रत्याख्यानी क्रोध जाणवो. तेमज प्रत्याख्यानीया मानादिक त्रण पण लेवा. तेना उदयथी पापप्रकृतिनो बेगणी अने पुण्यप्रकृतिनो चोगणी रस बंधाय, तेमध्ये मंद रस बांधे. तथा जलरेहासरिस के पाणीनी रेखा सरखो संज्वलन क्रोध तेमज मानादिक पण लेवा. एना उदय पुण्यप्रकृतिनो तीव्र चोगणी रस बंधाय, अने पापप्रकृतिनो एकगणी रस बंधाय. ए रीतें अशुन प्रकृतिनुं अनंतानुबंधीये, अप्रत्याख्यानीए, प्रत्याख्यानीए तथा संज्वलने, कसाएहिं के कषायें करी अनुक्रमें चोगणी, त्रिगणी, बेगणी, एकगणी रस बंध थाय. तथा शुन प्रकृतिनो संज्वलने, प्रत्याख्यानीए, अप्रत्याख्योनीए, अनंतानुबंधीए करी चोगणीश्रादिक अनुक्रमें रस बंधाय, ते कहे . ॥ इति समुच्चयार्थः॥ ६३ ॥ चन गणाई असुरो, सुदन्नदा विग्ध देस आवरणा ॥ .. पुम संजलणिग छ ति चज, गण रसा सेस उगमाई ॥ ६ ॥ अर्थ-चनमाणाईश्रहो के गिरिरेखा समान अनंतानुबंधीश्रा कषायें करीने अशुज प्रकृतिनो रस चोठगणी बंधाय, पृथवीरेखा समान अप्रत्याख्यानीया कषायें करी अशुन प्रकृतिनो रस, त्रिवाणी बंधाय, रजरेखा समान प्रत्याख्यानीया कषायें करी अशुन प्रकृतिनो रस बेगणी बंधाय, जलरेखा समान संज्वलन कषायें करीने अशुन प्रकृतिनो रस एक गणी बंधाय, अने सुहन्नहा के शुज प्रकृतिनो रस, एथी अन्यथा कहेवो, एटले जलरेखा अने रजरेखा समान संज्वलन तथा प्रत्याख्यानीया कषायें करीने शुज प्रकृतिनो रस चोगणी बंधाय, पृथवीरेखा समान अप्रत्याख्या Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५४ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ नीश्रा कषायें करीने शुज प्रकृतिनो रस त्रिगणी बंधाय, गिरिराय समान अनंतानुबंधीया कषायें करीने शुज प्रकृतिनो रस बेगणी बंधाय. अने एकगणी रस तो शुन प्रकृतिनो नज बंधाय. हवे जे प्रकृतिनो जेटले प्रकारें रस बंधाय, ते कहे. विग्घ के पांच अंतराय, देसथावरणा के केवल छिक वर्जीने शेष चार झाना वरणीय तथा त्रण दर्शनावरणीय, एवं सात, पुम के पुरुषवेद, संजलण के० चार संज्व-- लना कषाय, एवं सत्तर प्रकृतिनो रस ग के० एकगणी, मु के बेगणी, ति के त्रिगणी, चग्गणरसा के चार गणी रस पण बंधाय. एटले ए सत्तर प्रकृतिनो रस, चार प्रकारे बंधाय. तेमध्यें एनो एकगणी रस तो नवमा गुणापाना संख्याता जाग गया पडी बंधाय, अने तेथी नीचेना गुणगाणे बेगणीश्रा, त्रिगणीश्रा, अने चोगणीश्रा रस बंधाय. अने ए सत्तर प्रकृतिथी सेसफुगमाई के शेष रही जे एकसो त्रण प्रकृति, तेनो बेठाणीयादिक रस बंधाय पण एकाणी रस न बंधाय. जे जणी तेमध्ये अशुज पाप प्रकृति पांश , ते तो नवमे गुणगणे बंधातीज नथी, तेथी तेनो एकाणी रस न होय. एमांथी जो पण केवलज्ञानावरणीय तथा केवलदर्शनावरणीय, ए बे प्रकृतिनो नवमे श्रने दशमे गुणगणे बंध , तथापि ते बे प्रकृति, सर्वघातिनी बे; तेनो रस, एकाणी न होय. अने बेंतालीश पुण्य प्रकृतिनो रस तो एकगणी नज बंधाय, जे जणी असंख्याता लोकाकाश प्रदेश प्रमाण संक्लेशनां स्थानक डे ते थकी कांइएक जाजेरां विशकिनां स्थानक बे. ए बे यद्यपि तुल्य तथापि तेमांहे विशुकि स्थानक कांक अधिक जे जे माटें उपशमश्रेणी विशुकि स्थानकें चडे जे अने पळतो पण तेटलेज संक्वेश स्थानकें पाडो उतरे डे एटले तुल्य . चमवानां जेटलां विशुकि स्थानक तेटलांज उतरतां संक्लेशस्थानक होय, जेम प्रासाद उपर चडवानां जेटलां पगश्रीयां तेटलांज उतरवानां पण पगथीयां होय, पण कपकश्रेणीना जे विशुछिना श्रध्यवसाय स्थानकें चडे बे, ते पाडगे उतरतो नथी. तेथी संक्शस्थानक तेटलां बां होय, अने विशुझिस्थानक अधिक बे, तिहां अतिविशुछिस्थानकें शुक्न प्रकृतिनो चोगणी रस बंधाय अने अत्यंत संक्लेशस्थानकें शुज प्रकृतिनो बंध न होय अने नरकप्रायोग्य बांधतां अत्यंत संक्वेशे वैक्रिय, तैजस अने कार्मणादिक जे शुज प्रकृति बंधाय डे ते पण तथा वनावें बेठाणीया रसें बंधाय, पण एकगणीधा रसें न बंधाय, तथा प्रर्व संज्वलन कषायोदयें करी पापप्रकृतिनो एकगणी रस बंधाय. एम कडं ते पण स्थूलनये कयु. जे जणी संज्वलन उदये पाप प्रकृतिनो बेगणी पण रसबंध होय. ए रीतें स्थानक, प्रत्यय, प्ररूपणा कही. ॥ ६ ॥ Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५५ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ ॥ हवे शुनाशुज रस, स्वरूर कहे .॥ निबु श्चुरसो सहजो, उति चन नाग कढि शक जागं तो ॥ ग गणाई असुदो, असुदाण सुदो सुदाणं तु ॥६५॥ अर्थ-निबुझ्छुरसोसहजो के लीबमानो रस- सहेजें कमवो होय, अने श्च एटले शेलमीनो रस, सहेजें खन्नावें मीठो होय, तेम पापप्रकृतिनो रस सहेजें कमवो श्रति उद्वेगहेतु होय, ते एकगणी कहीयें; अने बेंतालीश पुण्यप्रकृतिनो रस सहेजें श्ष्ट श्रानंद हेतु होय, ते एकगणी कहीये. तिहां दृष्टांत कहे जे. ऽतिचउजागकदिश्वनागंतो के बे नागनो रस काढी उकालीने एक नागनो राखीये तेने बे गणी कहीये, त्रण नागनो काढी उकालीने एक नागनो राखीयें, तेने त्रिगपी कहीयें, अने चार नागनो काढी उकालीने एक नागनो राखीयें, तेने चोगणी कहीये. एटखे लींबमाना सहेजना एक शेर रसने अग्नि उपर कढतां अर्धशेर रहे ते घणो कमवो होय. तेम ब्याशी पापप्रकृतिनो बे गणी रस कटुकतर अनिष्टतर होय, शेलमीनो रस काढतां एकगणी अर्कशेर मात्र रहे ते मिष्टतर, इष्टतर, होय. ते बे गणी रस जाणवो, तथा जे काढतां शेरनोत्रीजो नाग मात्र रहे ते त्रिगणी रस होय, ते ब्याशी पापप्रकृतिनो रस कटुकतम, अनिष्टतम होय. बेंतालीश पुण्यप्रकृतिनो रस मिष्टतम, इष्टतम, चित्त प्रसन्नतानो हेतु होय. ते त्रिगणी रस जाणवो; तथा जे रस काढतां थकां शेरनो पाशेर मात्र रहे ते चोगणी रस होय, ते पुण्यप्रकृतिनो तो शुन्न अत्यंत मिष्टतम, अत्यंत इष्टतम, आनंदहेतु होय. श्रने पापप्रकृतिनो अत्यंत कटुकतम, अत्यंत अनिष्टतम, महाउद्वेग हेतु चोगणीश्रा रसनो उदय होय. ए मूढमतिने समजाववा हेतुयें दृष्टांत कह्या. अन्यथा कर्मदलने विषे तो अनंत रसन्नेद होय . गहाणाईशसुहो के ए रीतें अशुन्न प्रकृतिनो रस, एकगणीश्रादिक ते असुहाण के अशुन्नपणे वधतो लेवो अने सुहोसुहाणंतु के शुज प्रकृतिनो रस, शुज मीठगे वधतो जाय माटें शुजपणे वधतो लेवो. अहींओं तु शब्दें विशेषण कहे . ' पुरुषवेदादिक सत्तर प्रकृतिना एकगणीश्रा रस स्पर्कक असंख्याता . तेमध्ये जघन्य रस स्पर्डक पण असंख्याता डे. तेह सहज जघन्य रस स्पर्धक ते लींबमाना रस समान जाणवा. ते थकी बीजो रस स्पर्कक अनंतगुण रसाविजागें अधिक जाणवो. एम अनंतगुण रसाविन्नागें वधतां वधता असंख्याता रस स्पर्कक एकठाणीमा रसना होय. ते थकी अनंतगुण वीर्यवाला बेगणी रसना असंख्याता रस स्पर्डक होय, Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५६ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ ते थकी अनंतगुण वीर्यवाला त्रिगणारा रसना असंख्याता रस स्पक होय, ते थकी अनंत गुण वीर्यवाला चोगपीथा रसना असंख्याता रस स्पर्डक होय. केवलज्ञानावरणीय प्रमुख सर्व घातिनी वीश प्रकृतिना रस स्पर्डक, एकगणीया न होय, अने देशघातिनी प्रकृतिना चोगणीआ तथा त्रिगणीआ रसवाला ते सर्वघातिमा रसस्पर्डक जाणवा. अने बेगणीश्रा रसवाला पण केटलाएक उत्कृष्ट रसवाला ते सर्वघातिथा जाणवा. तथा मंद रसवाला ते देशघातिश्रा रस स्पर्कक जाणवा. तथा एकगणीआ रसवाला जे स्पर्कक होय, ते देशघोतिज जाणवा. ते स्पर्डक स्वरूपें कडानी पेरें स्थूल बिजवंत होय, अने कोशएक कंबलना विवरनी पेरें मध्य बिजवंत होय, अने कोइएक, सूक्ष्म वस्त्रनी पेरे बिजवंत लूखा मलीन होय, अने जे सर्वघातिया रस स्पर्कक होय, ते त्रांबाना पत्रानी पेरें निश्विजवंत घृतनी पेरें चीकणा होय. ते श्रबरखनी पेरें निर्मल एवाजे झानादिक आत्मानागुण श्रावरवा योग्य बे, ते सर्व आवरे. अने बेंतालीश पुण्यप्रकृतिनो रस जघन्यपणे एक गणी न होय, माटें बे गणी सहेजें शेलडीना रस सरखो जघन्य रस स्पर्डक होय, तेथी अनंतगुण वृद्धिगत रसें बीजो स्पर्षक एम अनंते अनंतगुण वृद्धिये बेगणीए रस स्पर्ड असंख्यात स्थानक पूणे थाय. ते थकी वली यानंतगुणवीय वधतां वधता असंख्याता रस स्पर्डक त्रिगणीथाना जाणवा, ते थकी अनंतगुण वीर्य वृद्धिगत चोगणीश्रा रस स्पर्कक, ते पण असंख्याता जाणवा. ए सौ अघातिश्रा जाणवा. एम घाति तथा अघाति ए एक स्थानकादिक रसनी अपेदायें होय. ॥इति ॥६५॥ ॥अथोत्कृष्टरसबंधवा मिन आह ॥ हवे उत्कृष्ट रसबंधना स्वामी देखाडे .॥ तिव मिग थावरायव, सुर मिला विगल सुहुम निरय तिगं ॥ तिरि मणु आज तिरिनरा, तिरिग व सुर निरया ॥६६॥ अर्थ-मिगथावरायव के० एकेजियजाति, स्थावरनाम अने श्रातपनाम, ए त्रण प्रकृतिनो तिव्व के तीन एटले चोगणी उत्कृष्ट रसबंध सुरमिछा के ईशान देवलोक पर्यंतना मिथ्यात्वी देवताने होय, ते मध्ये श्रातपनामकर्म, पुण्यप्रकृति . श्रने तेनो बंध मिथ्यात्वेज बे. तथा तेनुं संक्वेशपणुं अने विशुरूपणुं ए बेहु मिथ्यावेज जे. जे जणी आतपनो तीव्ररसबंध, मिथ्यात्वी देवताने तत्प्रायोग्य विशुछियें लेवो. बीजी प्रकृतिना बंधक अति संक्लिष्ट लेवा, जे जणी एवा संक्शे वर्त्तता जो मनुष्य तथा तिर्यंच होय तो नरक प्रायोग्य बांधे, तेथी ते न लीधा, तथा नारकी अने सनत्कुमारादिक देवलोकना देवता तो नव प्रत्ययेंज एकेंजिय प्रायोग्य ए प्रकृति नथी बांधता, तेथी ते पण एना अधिकारी नश्री. अने सौधर्म, ईशानां सम्यकदृष्टि Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५७ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ देवता तो मनुष्य प्रायोग्य बांधे बे. तेथी ते पण एना बंधाधिकारी नहीं; अने नवनपति, व्यंतर, ज्योतिषी, सौधर्म अने ईशान देवलोकना मिथ्यात्वी देवता आतपनी लघुस्थिति बांधतां एकेंजियजाति तथा स्थावरनाम कर्मनी उत्कृष्ट स्थिति बांधतां तीबरसे बांधे. गल के० विकलत्रिक, सुहम के सूक्ष्म, अपर्याप्त श्रने साधारण, ए सूक्ष्म त्रिक; निरयतिगं के नरकत्रिक अने तिरिमणुश्राउ के० तिर्यंचायु, अने मनुष्यायु; ए अगीश्रार प्रकृतिना उत्कृष्ट रस बंधना अधिकारी सन्निश्रा पंचेंजिय पर्याप्ता मिथ्यादृष्टि संख्याता वर्षायुवाला तत्प्रायोग्य संक्शे वर्तता एवा तिरिनरा के० मनुष्य अने तिथंच होय.जे नणी ए मांदेली पहेली नव प्रकृतिनो बंध, देवता नारकीने तो नव प्रत्येंज नथी, अने मनुष्य तिर्यंचायुनो जो पण देवता नारकीने बंध बे, तो पण एनी उत्कृष्टी स्थिति, त्रण पस्योपम प्रमाण वांधतां उत्कृष्ट रस बंधाय. तेवो बंध तो देव तथा नारकीने युगलीश्राना श्रायुनो बंध नथी तेथी न बंधाय, अने साखादन गुणगणे पण घोलना परिणाम एवडी स्थिति न बंधाय, तेथी ते सास्वादन विना मिथ्यात्वीज उत्कृष्ट रसना बंधाधिकारी लीधा. तथा युगलीश्रा पण उत्कृष्ट त्रण पढ्योपम मनुष्यायु न बांधे, मात्र ते पण न लीधा. श्रने मिश्रादिक गुणगणे मनुष्य तथा तिर्यंच संख्याता वर्षायुवालाने पण ए बे आयुनो बंध नथी, ते माटें मिथ्यात्वीज लीधा. तथा अति संक्लिष्ट श्रायुःकर्म न बांधे, तेथी तत्प्रायोग्य संक्लेशें वर्त्तताज ग्रहण कस्या, एटले चौद प्रकृतिना उत्कृष्ट रस, बंधाधिकारी कह्या. अहीं नरकछिकनो उत्कृष्ट रत्त सर्व संक्लिष्ट मनुष्य तिर्यंच मिथ्यात्वी वांधे, ते अति संक्विष्टपणुं उत्कृष्ट बे समय लगें रहे, अने शेष प्रकृतिना बंधक तत्प्रायोग्य संक्लिष्ट परिणामी सेवा, जे जणी अति संक्लिष्ट जीव, नरक प्रायोग्य बांधे , तथा नरकायु पण अति संक्वेशें बंधाय बे. तिरिग के० तिर्यंचगति, तिर्यंचानुपूर्वी, ए तिर्यंचछिक अने बेवड के० डेवहुं संघयण, ए त्रण प्रकृतिनो उत्कृष्ट रसबंध तो अति संक्लिष्टें मिथ्यात्वी सुर के देवताने होय, जे जणी एवा संक्लिष्ट परिणामें वर्त्तता मनुष्य, तिर्यंच तो नरक प्रायोग्य बांधे, अने देवताने नव प्रत्ययें नरक प्रायोग्यनो बंध नथी, तेथी ते ठेकाणे ए तिर्यंच गति प्रायोग्य बांधे, तेथी मिथ्यात्वी देवता तथा मिथ्यात्वी निरया के० नारकी एना बंधाधिकारी लीधा. तेमध्ये पण बेवहा संघयणना उत्कृष्ट रसबंधना खामी सनत्कुमारादिकथी मामीने सहस्रारांत देवता होय, जे नणी जुवनपति, व्यंतर, ज्योतिषी अने सौधर्म, ईशान देवलोकना देवता, मिथ्यात्वें एवे संक्तिशे वर्त्तता Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५० शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ एकेंजिय प्रायोग्य नामकर्मनी प्रकृति बांधे, परंतु ते बेवहा संघयणना अनुत्कृष्ट रसबंधक होय, तेथी ते न लीधा. तथा सम्यक्दृष्टि देवने ए त्रण प्रकृतिनो बंध नथी, ते जणी ते पण न लीधा ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ ६६ ॥ विनवि सुरा दारग उग, सुख ग वन्न चन तेय जिण सायं ॥ सम चन परघा तस दस, पणिंदि सासुच्च खव गान ॥ ६ ॥ अर्थ-विजवि के वैक्रियशरीर, वैक्रियअंगोपांग, ए वैक्रियधिक तथा सुराहारगडुग के० देवगति, देवानुपूर्वी, ए सुरछिक अने थाहारकछिक तथा सुखग के शुनखगति, वन्नचज के० शुज वर्ण चतुष्क, तेय के तैजस, कार्मण, अगुरुलघु अने निर्माण, ए तैजसचतुष्क, जिण के० जिननामकर्म, सायं के शातावेदनीय, समचल के० समचतुरस्रसंस्थान, परघा के पराघात, तसदस के त्रसदशक, पणिं दि के पंचेंजियजाति, सासुच्च के० श्वासोश्वास, उचैर्गोत्र, ए बत्रीश पुण्यप्रकृतिनो उत्कृष्ट रसबंधक खवगान के रूपक एटले क्षपक श्रेणीयें चढतो मनुष्य तेने रूपक कहीयें. जेम राज्ययोग कुंवरने राजा कहीये, तेम चारित्र मोहनीय क्षपणी कपकश्रेणी जेणे श्रारंजी, तेने झपक कहीयें, ते मध्ये पण शातावेदनीय, उच्चैर्गोत्र अने प्रसदशक मांहेली यशःकीर्ति, एत्रण प्रकृतिनो उत्कृष्ट रस बंधक सूक्ष्म संपरायने चरम जाग वर्ति क्षपक होय. जे जणी ए त्रण प्रकृतिना बंधकमांहे एहिज अति विशुकि, अने पुण्यप्रकृतिनो उत्कृष्ट रसबंध अतिविशुद्धिय होय. जेवारें आपणा रसबधस्थानक अनंतगुण विशुद्धियें होय, तेवारें ए प्रकृति बंधाय ते नणी कही. तथा ए त्रण प्रकृति विना शेष रही जे जंगणत्रीश पुण्यप्रकृति, तेना उत्कृष्ट रसबंध अपूर्वकरणना सात नागमध्ये बरे नागें त्रीश प्रकृतिनो बंध विछेद थाय . ते मध्ये एक उपघात विना शेष जंगणत्रीश प्रकृतिने चरम बंधे दपकने अति विशुद्धि जणी चोगणि रस बंधाय. ए जंगणत्रीश प्रकृतिना बंधक मांहे एहज अति विशुद्ध डे तेथी दपक मनुष्य, एना उत्कृष्ट रस बंधना खामी जाणवा. जे जणी देवता, नारकी तथा तिर्यंचने श्रापमुं गुणगणुं न होय, तेथी ते एना अधिकारी न कह्या. अने जो पण उपशम श्रेणीयें अपूर्वकरण तथा सूदमसंपराय, ए बे गुणगणां होय, अने तिहां ए प्रकृतिनो बंध विवेद पण संनवे तथापि क्षपक श्रेणीना अध्यवसाय स्थानक थको कषायनी सत्ता सहित उपशम श्रेणीना अध्यवसाय स्थानक विशुद्धिनी अपेक्षायें अनंतगुणां हीन होय, अने शुन प्रकृतिनो सर्वोत्कृष्ट रसबंध तो श्रति विशुद्धियें बंधाय जे. तेथी दपक श्रेणीना मनुष्यज एना Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ ६५ए उत्कृष्ट रसना बंधाधिकारी कह्या. एवं (ए) प्रकृतिना उत्कृष्ट रस बंध खामी कह्या. इति समुच्चयार्थः ॥ ६ ॥ तमतमगा उजोयं, सम्मसुरा मणुय उरल उग वरं ॥ अपमत्तो अमराज, चन गश मिडान सेसाणं ॥ ६ ॥ अर्थ-तमतमगा के तमतमा एवे गोत्रे श्रने माघवती नामें सातमी नरक पृथवी. तेना नारकी तथा विध अकाम निरायें करी, कर्म खपावतां थकां विशुद्ध परिणामें करी सम्यक्त्व पामवाने अर्थे यथाप्रवृत्तिकरण करे, तिहां अपूर्वकरणे करी अनंत. गुण विशुद्धियें बहुल कर्म खपावतां ग्रंथिन्नेदे अने अनिवृत्तिकरणे करी मिथ्यात्वनी स्थितिना बे नाग करे, ते अंतर करणथी प्रथम स्थिति, ने चरम समयें जे थकी थागले समय सम्यक्त्व लेशे ते मिथ्यात्व स्थितिने चरम समयें उजोयं के उद्यो. तनाम कर्मनो उत्कृष्ट रसबंध करे, तथा बीजा देवता नारकी तो एवी विशुद्धियें वर्त्तता मनुष्य प्रायोग्य बांधे, तथा तिर्यच तो मनुष्य भने देवता प्रायोग्य बांधे, श्रने सातमी नरकना नारकीने तो नव प्रत्ययें देव तथा मनुष्य प्रायोग्यनो बंध नथी, ते स्थानके ए उद्योतनामनी पुण्यप्रकृति तिर्यंच गति सहचारी बांधे. एना बंधकमांडे एहज अत्यंत विशुद्धि बे. सम्मसुरा के सम्यक्त्वदृष्टि देवता तो मणुयउरलयुग के मनुष्यहिक तथा औदारिकटिक अने वरं के वज्रषजनाराच संघयण, ए पांच पुण्यप्रकृति मनुष्यगति प्रायोग्य अति विशुद्ध सम्यक्दृष्टि देवता, उत्कृष्ट रसें बांधे, तेथी ते एना खामी जाणवा. जे जणी तिर्यंच तथा मनुष्य एवी विशुद्धियें वर्त्ततो देव प्रायोग्यज बांधे, श्रने देवता एवी विशुद्धियें मनुष्य प्रायोग्यज बांधे. तेथी देवताज एना बंधाधिकारी लीधा; अने मिथ्यात्वीने पण एवी विशुद्धि न होय, तेथी सम्यदृष्टि देवताने नंदी. श्वरें चैत्यवंदन, जिनकल्याणक महोत्सवादिक, जिनव्याख्यान श्रवणादिक अनेक सम्यक्त्व उज्ज्वलतानां कारण होय, अने नारकी सम्यदृष्टिने पण एवा कारणने अनावें ए पांच प्रकृतिनो उत्कृष्ट रसबंध न होय, तेथी ते एना उत्कृष्ट रसबंधाधिकारी न कह्या. परंतु देवताज कह्या. अपमत्तो के अप्रमत्त गुणस्थानकें वर्त्ततो साधु प्रमत्त गुणगणाथी श्रमराउ के. देवायु बंध करतो अप्रमत्तें चढे, ते अति विशुद्धियें देवायुनी उत्कृष्टस्थिति तेत्रीश सागरोपमनी बांधतो उत्कृष्ट रसपणे बांधे; देवायुनी उत्कृष्टी स्थिति अने उत्कृष्ट रस, ए बेहु अति विशुद्धपणे बंधाय. देवायुना बंधकमांहे एहिज अति विशुद्ध बंधस्थानक Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६० शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ बे. एम बेतालीश पुण्यप्रकृति अने चौद पापप्रकृति मली बपन्न प्रकृतिना उत्कृष्ट रसबंध स्वामी कह्या. चजगमिछाउसेसाणं के ते थकी शेष ज्ञानावरणीय पांच, दर्शनावरणीय नव, कषाय शोल, मिथ्यात्वमोहनीय, नोकषाय नव, प्रथम संघयण विना शेष पांच संघयण, प्रथम संस्थान विना शेष पांच संस्थान, अशुनवर्ण चतुष्क, अस्थिर षट्क, उपघात, कुखगति, नीचैर्गोत्र, पांच अंतराय, एवं अडशठ प्रकृतिना उत्कृष्ट रसबंध खामी चार गतिना पंचेंजिय पर्याप्ता मिथ्यादृष्टि जीव जाणवा, ते माहे पण वचला संघयण चार अने वचला संस्थान चार, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, हास्य, रति, ए बार प्रकृति विना शेष बपन्न प्रकृतिना उत्कृष्ट बंधाध्यवसाय स्थानकमाहे जे अत्यंत मलिन संक्लिष्ट अध्यवसायस्थानक होय, तिहां उत्कृष्ट रसबंध करे, अने हास्य तथा रतिनो उत्कृष्ट रस मध्यम संक्शें बंधाय, जे जणी उत्कृष्ट संक्तशें तो वेदमध्ये नपुंसकवेद श्रने हास्यादिकमध्ये शोक तथा अरति बांधे डे, संस्थान मध्ये हुंगसंस्थान अने संघयणमध्ये देवहुं संघयण, ए उत्कृष्ट रसे बंधाय, तेथी ए बार प्रकृतिनो रसबंध मध्यम संक्शे होय, तेश्री ए बार प्रकृतिना उत्कृष्ट रसबंधाधिकारी मध्यम संक्वेशी चतुर्गतिक जीव जाणवा. एम अमशठ प्रकृतिना उत्कृष्ट रस बंधाधिकारी कह्या, अने बप्पन्न प्रकृतिना पूर्वे कह्या. एवं सर्व मली एकसो ने चोवीश प्रकृति थ. तेना उत्कृष्ट रसबंधाधिकरी कह्या. ते मध्ये बेंतालीश पुण्यप्रकृति अने ब्याशी पापप्रकृति जाणवी तिमा॥ हवे ए एकसो ने चोवीश प्रकृतिना जघन्य रसबंधाधिकारी कहेजे. जे जणी उत्कृष्ट रस तथा जघन्य रस कदेवाथकी वचलां सर्व मध्यम रसस्थानक सुखें जाएयां जाय, ते जणी जघन्य रसबंधना स्वामी कहे . थीण तिगं पण मिळं, मंद रसं संजम्मुदो मिडो ॥ बिय तिय कसाय अविरय, देस पमत्तो पर सोए ॥६॥ अर्थ-थीण तिगं के थीणद्धीत्रिक, अण के अनंतानुबंधीश्रा क्रोधादिक चार, मिळं के मिथ्यात्वमोहनीय, ए श्राप प्रकृतिनो मंदरसं के० मंद एटले अत्यंत जघन्य रसना बंधाधिकारी संजम्मुहो के जे मनुष्य चारित्रने सन्मुख थएलो एटले जे मनुष्य श्रागले समयें संयमसहित सम्यक्त्व पामशे एवो अनिवृत्ति करणना चरम समयवर्ति मिझो के० मिथ्यात्वी मनुष्य जाणवो. जे जणी ए श्राप प्रकृतिना बंधकमांहे एवी विशुकि बीजा स्थानकें न पामियें, जो पण मिथ्यात्वीथी सास्वादनीना अध्यवसाय उज्ज्वल बे. तथापि सास्वादन गुणगणुं तो पमतां होय . ते अपेक्षायें संक्लिष्ट कहीयें, तेणे थीणकीत्रिक अने अनंतानुबंधीया चारनो बंध, साखादने Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ.५ मध्यम रसें बंधाय, पण मंद रसें तिहां न बंधाय. ए श्राव पापप्रकृति . ते जणी एनो जघन्य रस विशुद्धियें बंधाय, ते विशुद्धाध्यवसाय तो ग्रंथिन्नेद करतां होय, ते मांहे पण वली चारित्र सहित सम्यक्त्व पडिवजनारनी विशुझि अधिक होय , तेथी तेनेज लीधा; अने सम्यक्त्व लह्या पली तो ए था प्रकृतिनो बंध न होय, ते माटें सम्यक्त्व प्राप्तिथी पूर्वलो समय कह्यो; तथा चारित्रसहित सम्यक्त्व अंगीकार करवाना अधिकारी मनुष्यज होय, तेथी मनुष्यज लीधा पण देवादिक न लीधा. बिय के बीजा अप्रत्याख्यानावरण कषायमोहनीयनी चोकमीना जघन्य रसबंधाधिकारी जे श्रागले समयें संयम पडिवजशे, एवा अविरय के० अविरति गुणस्थानकने चरम समयवर्ति मनुष्य जाणवा. एना बंधकमांहे ए थकी अधिक विशुधिस्थानक बीजु कोइ नथी. अहींयां कोशएक देशविरति संयमने सन्मुख थयेलो जीव पण कहे . तथापि देशविरति संयमने सन्मुखनी विशुफि थकी सर्वविरति संयमने सन्मुखनी विशुकि अधिकी होय, एम बहुश्रुतें विचारवं, तत्व केवलीगम्य. एनो मंद रस, अति विशुछियें बंधाय . __ तथा तियकसाय के त्रीजा कषायनी चोकडी एटले प्रत्याख्यानावरण चार कपायमोहनीयनो मंद रसबंध, संयमने सन्मुख थयेलो जे श्रागडे समय चारित्र अवश्य पामशे, एवो देसे के देशविरति मनुष्य जाणवो, जे जणी एना बंधक मांहे एहिज अत्यंत विशुकि बे; अहीं संयम सन्मुख कह्यो मात्रै तिर्यंच न होय, तथा प्रमत्तादिक गुणगणे प्रत्याख्यानीथानो बंध नथी, ते जणी देशविरति कह्यो तथा अप्रत्याख्यानीयानो बंध अविर तिने होय, ते नणी ते न लीधा; संयमसन्मुख अविरति सम्यक्दृष्टिथी पण संयमसन्मुख देशविरति सम्यक्दृष्टिनी अनंतगुण विशुद्धि होय, ते माटें अप्रत्याख्यानीबाना मंद रसथी प्रत्याख्यानीथानो मंद रस हीन होय. पमत्तो के प्रमत्त गुणस्थानक वर्ति साधु जे आगले समय अप्रमत्त थाशे एवो साधु, प्रमत्त गुणगणाना चरम समय एक घर के बरतिमोहनीय, बीजी सोए के शोकमोहनीय, ए बे प्रकृतिनो जघन्य रस बंधाधिकारी होय,जे जणी ए बे प्रकृतिना बंधक मांहे ए हिज अति विशुद्धि होय. एवी बीजे स्थानकें विशुकि न होय, अप्रमत्तादिकने विषे ए बे प्रतिनो बंध नथी, माटें प्रमत्तज कह्यो. एवं अढार प्रकृति थ. ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ ६ ॥ अपमाइ दारग उगं, उनिद्द असुवन्न दासर कुबा ॥ नयमुवघाय मपुवो, अनियही पुरिस संजलणे ॥३०॥ Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ अर्थ-अपमा के० अप्रमादि साधु अप्रमत्त गुणगणा थकी प्रमत्तें आवतो होय, एटले आगले समयें प्रमत्त अवश्य थशे एवो अप्रमत्त साधु, संक्लिष्ट थको हारगपुगं के थाहारक शरीर अने थाहारकांगोपांग, ए बे नामकर्मनी प्रकृतिनो जघन्यरसबंध करे. जे जणी ए बे पुण्यप्रकृति ने, माटे एनो मंदरस संक्शे बंधाय. थाहारकना बंधकांहे एवो संक्वेश बीजे कोइ स्थानकें नश्री, ते माटें. तथा मिथ्यात्वादिक प्रमत्तांत गुणगणे तो ए आहारकड़िकनो बंधज नथी, अने सातमे तथा थाठमे गुणगणे एनो बंध ते गुणगणां तो एथी विशुद्ध जे. केम के प्रमत्तथी अप्रमत्ते चढतो पण विशुक बे. एवं वीश प्रकृति थ. सुनिद्द के एक निडा, बीजी प्रचला, ए निजाहिक; असुवन्न के श्रशुलवर्ण, अशुजगंध, अशुजरस अने अशुजस्पर्श; हासरश्कुछ। के हास्य, रति अने जुगुप्सा तथा जयमुवघाय के जयमोहनीय श्रने उपघात, ए अगीबार प्रकृति थ. तेमां नव प्रकृतिनो मंदरस तो मपुवो के अपूर्वकरणनामा आठमुं गुणगणुं तेना सात नाग , ते मांदेला बहा नागने प्रांतें चरम समयें जघन्यरस बांधे, श्रने निघा तथा प्रचला, ए बे निसानो जघन्यरस अपूर्वकरणना प्रथम नागें आपणा बंधना प्रबंधव्यवछेदथी प्रथम समयेंज जघन्यरस बांधे. ए अगीबार पापप्रकृति . ते जणी श्रति विशुळे मंदरसे बंधाय. एना बंधकमां एहिज अति विशुद्धि , केम के एथी अतिविशुकि श्रागले गुणगणे ने खरी, पण तिहां तो ए श्रगीथार प्रकृतिनो बंधज नथी, तथा अहीं पाठमां कह्यो नथी; तथापि ए अपूर्वकरण कपकश्रेणीनो लेवो, केम के उपशम श्रेणीना अपूर्वकरण थकी दपक श्रेणीनुं अपूर्वकरण अनंतगुणुं विशुक बे. अहीं कोशएक कहे डे के, एम कहेशो तो एना अजघन्य बंधने सादिसांतपणुं न संजवे ? केम के रूपक श्रेणीथी पडवू नथी अने ते तो जघन्य बंधथी पमतो जेवारें अजघन्य रस बाँधे, तेवारें अजघन्यनी सादि होय, अने क्षपक श्रेणी तो जघन्यरस बांधीने वलतो अबंधक थाय ते जणी ए वात विचारवा योग्य बे. एवं एकत्रीश प्रकृति थ. अनियट्टीपुरिससंजलणे के अनिवृत्तिकरण एवे नामे नवमुं गुणगणुं . जीव चारित्रमोहनीय खपाववाने पण त्रण करण करे. तिहां अप्रमत्त गुणगणुं यथा प्रवृत्तिकरण अने आठमुं गुणगणुं अपूर्वकरण तथा नवमुं गुणगणुं अनिवृत्तिकरण, ते नवमा गुणगणाना पांच नाग करीयें, तिहां एकेका नागें अनुक्रमें पुरुषवेद, संज्वलन क्रोध, संज्वलन मान, संज्वलनी माया अने संज्वलनो लोन,ए पांच मोहनीयनी प्रकृतिनो बंध व्यवछेद करे,तिहां पोतपोताना बंधने बेहले बंधे, मंदरस बंध होय. ए पांच पाप Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ ६६३ प्रकृतिनो विशुद्धियें मंदरस बंधाय बे. ए पांचना बंधक मांहे एहिज प्रति विशुद्धता बे एवं बत्रीश प्रकृति थइ ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ ७० ॥ विग्धावरणे सुमो, मणुतिरिच्या सुहुम विगल तिगान ॥ aalaah ममरा, निरया नकोय उरल डुगं ॥ ७१ ॥ अर्थ - विग्धावर के० दानांतरायादिक पांच अंतरायनी प्रकृति, तथा आवरण एटले पांच ज्ञानावरणीय ने चार दर्शनावरणीय, ए चौद प्रकृतिनो जघन्य रसबंध स्वामी, सुदुमो के० सूक्ष्मसंपराय गुणस्थानकवर्त्ति रूपक श्रेणीवालो पोताना बंधने चरम बंधे होय, ए चौद प्रकृतिना जघन्य रसबंधमांदे एथी अधिक विशुद्धि, बीजे कोइ स्थानकें नथी. ए पापप्रकृति बे, माटें विशुद्धियें मंदरस बांधे. सुदुम के० सूक्ष्म, अपर्याप्त अने साधारण, ए सूक्ष्मत्रिक तथा विगलतिग के० विकलजातित्रिक, खाउ के चार गतिनां श्रायु, एवं दश प्रकृति तथा वेविक के० वैक्रियशरीर, वैक्रियांगोपांग, देवगति, देवानुपूर्वी, नरकगति, नरकानुपूर्वी, ए वैक्रिय ट्रक कहीयें. ए शोल प्रकृतिना मंदरसबंधस्वामी मणुतीरिया के० मनुष्य ने तिर्यंच होय. ए शोल प्रकृतिमां देवत्रिक, वैक्रियद्विक, मनुष्यायु छाने तिर्यगायु, ए सात पुण्यप्रकृति बे, ते जणी एनो मंदरस पोताना बंधाध्यवसाय स्थानकमांहे जे मीनाध्यवसाय स्थानक बे, तेणे करी पोताना बंधकमांहे जे प्रति संक्लिष्ट होय ते बांधे, नरकत्रिक, सूक्ष्मत्रिक तथा विकलजातित्रिक, ए नव पापप्रकृति बे, ते जी एना मंदरस बंध स्वामी पोताना बंधाध्यवसाय स्थानक मध्यें जेने घं विशुद्धिपएं होय ते एनो जघन्यरस बंध स्वामी होय, ए शोले प्रकृतिना मंदरस धाधिकारी मनुष्य ने तिर्यंच तत्प्रायोग्य विशुद्धि तथा संशें वर्त्तता होय, जे जणी ए शोल प्रकृति मध्यें मनुष्यायु ने तिर्यगायु, ए बे खायु विना शेष चौद प्रकृतिनो बंध तो जव प्रत्ययेंज देवता तथा नारकीने न होय, तेथी ते, एना बंधाधिकारी नथी, तथा मनुष्यायु ने तिर्यगायुनो पण जघन्य स्थितिबंध करतां मंदबंधा ते जघन्य स्थिति तो कुलकनवरूप बे तेनो बंध देवता नारकीने न होय, तेथी तेने मंदरस न बंधाय. जोय के उद्योतनामकर्म अने उरलडुगं के० श्रदारिक शरीर छाने श्रदारिक अंगोपांग, एत्रण प्रकृतिना जघन्यरस बंधाधिकारी ममरा के० मिथ्यात्वी देवता तथा निरया के० नारकी होय. जे जणी एना बंधाध्यवसायस्थानक मध्यें संक्वेश स्थानके वर्त्तता तिर्यग्गति प्रायोग्य बांधता थका एवा जीव होय, तेमांहे पण श्रदा Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६४ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ रिक अंगोपांगना मंदरस बंधक त्रीजा देवलोकथी मांडीने सहस्रारांत लगेंना देवता तो एवे संक्शे वर्त्तता एकेंजियप्रायोग्य बांधे, ते मध्ये औदारिक अंगोपांगनो तो जघन्यरसबंध नथी, ते जणी ते एना अधिकारी नहीं जाणवा. तथा पर्याता पंचेंजिय, मनुष्य, तिर्यंच पण एवे संक्शे वर्त्तता नरक प्रायोग्य नामकर्म बांधे, ते मध्ये ए त्रण प्रकृतिनो बंध नथी, तेथी ते पण एना अधिकारी न कह्या, अने मिथ्यात्वी देव अधिकारी कह्या. एवं (ए) प्रकृति थ. ॥७॥ .. तिरि जुग नियं तमतमा, जिण मविरय निरय विणिगथा वरयं ॥ - आसुहु मायव सम्मो, वसायथिर सुद जसा सियरा ॥७॥ अर्थ-तिरिऽग के तिर्यंचगति अने तिर्यंचानुपूर्वी, ए तिर्यंचछिका नियं के नीचैर्गोत्र, ए त्रण प्रकृतिना जघन्यरसबंध स्वामी, तमतमा के सातमी नरक पृथवीना नारकी सम्यक्त्वानिमुख एवा मिथ्यात्वने चरम समयें वर्तता होय, जे जणी एवी विशुद्धियें वर्त्तता बीजा देवता तथा नारकी होय तो ते मनुष्य प्रायोग्य बांधे. अने सातमी नरकना नारकीने तो मिथ्यात्व थकां नवप्रत्ययेंज मनुष्य प्रायोग्यनो तथा उचैर्गोत्रनो बंध नथी, तो ते स्थानकें ए त्रण प्रकृतिनो बंध करे, ए त्रणे पापप्रकृति में, ते जणी विशुद्धियें मंदरस बंधाय. एना बंधकमांहे ए हिज अति विशुद्धि , ते जणी ए एना अधिकारी कह्या. जिणमविरय के० जिननामकर्मना जघन्य रसबंधना स्वामी अविरति सम्यकदृष्टि मनुष्य, जेणे नरकायु बांध्या पली दायोपशमिक सम्यक्त्व पामी, कथंचित् वली नरके जातो सम्यक्त्व वमे ते सम्यक्त्व वमतां बेबे समय जिननामकर्मनो मंदरस बांधे, एना बंधकपणामाहे एहिज अति संक्लिष्ट होय. निरयविण के० एक नरकगति विना शेष त्रण गतिना जीव, मिथ्यात्वी मध्यमपरिणामें वर्त्तता त्रस बांधी स्थावर बांधतां पंचेंजियजाति बांधीने गथावरयं के ए. केंजियजाति नामकर्म बांधतां घोलना परिणामी होय. जे जणी अवस्थित परिणामें रहेतां तेवी विशुकि न होय, ते नणी परावर्त्तमान लीधा, तथा नारकी तो जव प्रत्ययेंज एकेंजियजाति अने स्थावरनामकर्मनो बंध नथी करता, तेथी ते एना अधिकारी नथी. ए बे प्रकृति, मिथ्यात्व प्रत्ययिकी बे, ते जणी नारकी विना शेष त्रण गतिना मिथ्यात्वी जीव, एकेंजियजाति तथा स्थावरनाम कर्मना जघन्यरस बंधाधिकारी कह्या. श्रासुहुम के आ एटले मर्यादायें एटले सौधर्म लगेंना देवता जाणवा. अहीयां समश्रेणीयें बेहु देवलोक . ते जणी ईशान देवलोक पण लेवो; एटले नवनपात, Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. Ա ६६५ व्यंतर, ज्योतिषी, सौधर्म ने ईशानना देव देवी मिथ्यादृष्टि अति संक्लिष्ट थका एकेंद्रिय प्रायोग्य बांधतां श्रायव के० आतप नामकर्मनो मंदरस बांधे, जे जणी मनुष्य तथा तिर्यंच, एवे संक्लेरों वर्त्तता नरक प्रायोग्य बांधे. तेथी ते एना अधिकारी नहीं, अने सनत्कुमारादिक देवोने तो एकेंद्रिय प्रायोग्यनो बंधज नथी, तेथी ते पण न लीधा. सम्मोव के सम्यकदृष्टि अथवा मिथ्यादृष्टि पंचेंद्रिय जीव, अंतरमुहूर्त्त अंतरमुहूर्त्तने फेरसारें साय के० शातावेदनीय, थिर के० स्थिर, सुइ के० शुज, जसा के० यश, ए चार प्रकृतिने सइयरा के० इतर सहित करीयें. एटले अशाता, अस्थिर, अशुभ अने यश, एम ए चारे एनी विरोधिनी परावर्त्तमान प्रकृतियें सहित करी तेवारें आठ प्रकृति याय. ते अंतरमुहूर्त्त शाता, अंतरमुहूर्त्त अशाता, ए रीतें घोलना परिणामें बांधतो एश्राव प्रकृतिनो मंदरस बांधे, ते प्रमत्त गुणगणा लगें बांधे, अने उपरले गुणठाणे अध्यवसायस्थानकें अवस्थितपणे रहेतो एक शाताज बंधाय, तेथी मिथ्यात्वादिक व गुणगणां लगें ए आठ प्रकृतिना जघन्य रसबंध स्वामी होय. एवं चोराशी प्रकृति यश. जावना कहे बे. जीवने मिथ्यात्वें अतिसंक्लेशे अशातानी त्रीश कोमाकोमी सागरोपम ने अस्थिर, अशुभ तथा अयशःकीर्तिनी वीश कोडाकोडी सागरोपमनी उत्कृष्टी स्थिति अवस्थितपणे बंधाय, तिहां एनी वीरोधिनी चार प्रकृतिनो बंध नथी, तेथी एकादिक समयनी स्थिति हीन करतां यावत् पंदर कोकाकोडी तथा त्रण प्रकृतिनी दश कोडाकोमी सागरोपम प्रमाण स्थितिबंधना हेतु श्रध्यवसायस्थानक लगें तो ए चार पापप्रकृतिनो निरंतरपणे बंध पडे, ते माटें तिहां मंदरस न होय, तथा जेवारें पंदर कोडाकोडी सागरोपम वेदनीयनो ने दश कोडाकोडी सागरोपम नामकर्मनो जे अध्यवसायस्थानकें बंध पडे तेवारें तिहांथी पढी शाता, अशातानो तथा स्थिर, अस्थिरनो तथा शुभ, अशुजनो ने यश, श्रयशनो परावर्त्ते - तरमुहूर्त्त लगें फेरसारें बंध करें, एमज प्रथम गुणठाणे अंतःको माकोडी प्रमाण स्थितिलगें पण घोलना परिणामे अंतरमुहूर्त्तने यांतरे ए आठ प्रकृतिनो बंध करतो मंदरस बांधे, जे जणी श्रप्रमत्तादिक खागला गुणठाणे विशुद्धि जणी शातादिक चार प्रकृति विरोधिनीपणेज बांधे. तथा एकेंद्रियादिक एनी लघु स्थिति बांधे, पण मंदरस न बांधे ॥ ७२ ॥ तस वन्न ते चन मणु, खगइ डुग पििद सास परघुचं ॥ संघयणा गिइ नपु थी, सुजगि अरति मिचन गइया ॥ ७३ ॥ ૪ Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६६ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ अर्थ-तस के त्रस अने बादर, पर्याप्त अने प्रत्येक, ए सचतुष्क; वन्न के शुनवर्ण, शुनगंध, शुन्नरस श्रने शुनस्पर्श, ए वर्णचतुष्क; तेथचन के तैजस, कार्मण, श्रगुरुलघु अने निर्माण, ए तैजसचतुष्क; ए त्रण चतुष्क. मणु के मनुष्य छिक, खगश्ग के खगतिहिक, पणिं दि के० पंचेंजिय जाति; सास के जश्वासनाम; परघुचं के पराघातनाम, उच्चैर्गोत्र; संघयणागि के० संघयण तथा व संस्थान; नपु के० नपुंसकवेद, थी के० स्त्रीवेद, सुन गिअरति के सुजग, सुखर अने आदेय, ए शुनगत्रिक तथा एना इतर पुर्जाग्य, पुःस्वर, अनादेय, ए दौ ग्यत्रिक; ए चालीश प्रकृतिनो मंदरस, मिडचजगश्था के चारे गतिना मिथ्यात्वी जीव बांधे, तिहां त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, शुनवर्ण, गंध, रस, स्पर्श, तैजस, कार्मण, अगुरुलघु, निर्माण, पंचेंजियजाति, पराघात, जहास, ए पंदर प्रकृतिना तिर्यंचमनुष्य, मिथ्यात्वी तत्प्रायोग्य संक्वेशे नरक प्रायोग्य नामकर्मनी अहावीश प्रकृति बांधतां, मंदरस बांधे. एना बंधकमांहे संक्लिष्टपणुं होय, ए पुण्यप्रकृति बे, एनो संक्लिष्टे मंदरस बांधे, तथा नारकी अने सनत्कुमारादिकथी सहस्रारांत लगेंना मिथ्यात्वी देवता संक्शे तिर्यंचगति प्रायोग्य नामकर्मनी गणत्रीश प्रकृति बांधतां, पण ए पंदर प्रकृतिना मंदरस स्वामी होय, तथा ए पंदर मांहेथी पंचेंजियजाति अने त्रसनाम विना शेष तेर प्रकृतिना मंदरस खामी, नवनपति, व्यंतर, ज्योतिषी, सौधर्म अने ईशानना, देवदेवी, मिथ्यात्वी, एकेंजिय प्रायोग्य बांधता एनो मंदरस बांधे, तथा त्रसनाम श्रने पंचेंजियजाति, एबे प्रकृति कांश एक तेथी पण विशुद्धाध्यवसायें पंचेंजिय प्रायोग्य बांधतां, मंदरसे बांधे, एम पंदर प्रकृतिना मंदरस स्वामी, चतुर्गतिक मि. थ्यात्वी जीव कह्या. तथा स्त्रीवेद अने नपुंसकवेद, ए बे मोहनीयनी प्रकृतिना मंदरस बंध स्वामी चतुर्गतिक जीव मिथ्यात्वी विशुद्ध थका सम्यक्त्वानिमुख थका होय. ए बे पापप्रकृति नणी विशुछियें मंदरस बांधे. मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी, शुनखगति, अशुनखगति, ब संघयण, बसंस्थान, सुनग, सुखर, श्रादेय, दौ ग्य, उःस्वर, अनादेय अने उच्चैर्गोत्र, ए त्रेवीश प्रकृतिना मंदरस स्वामी मिथ्यात्वी जीव घोलना परिणामी परावर्ते एनी विरोधिनी प्रकृति बांधतां एवा चतुर्गतिक जीव जाणवा. जे जणी सम्यकदृष्टि देवता तथा नारकी तो मनुष्य प्रायोग्य बांधतां तिर्यंच गत्यादिक प्रायोग्य विरोधिनी प्रकृति बांधे नहीं, तथा ऋषननाराचादिक संघयण पण न बांधे, तथा सम्यकदृष्टि मनुष्य तिर्यंच तो देवता प्रायोग्य बांधतां समचतुरस्त्र संस्थान बांधे, शेष पांच संस्थान न बांधे, तेमाटें सम्यकदृष्टिने विरोधिनी प्रकृति साथे परावर्ते बंध नथी, तेथी ते मंदरस बंधना Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ ६६७ अधिकारी नथी. तथा मिथ्यात्वी पण अतिसंक्लिष्टे वीश कोमाकोमी सागरोपम प्रमाण स्थितिबंधाध्यवसाय स्थानके वर्त्तता तिर्यगछिक, नरकछिक, हुंमसंस्थान, बेवहुं संघयण, अशुजखगति अने नपुंसक वेदादिक प्रकृतिनो निरंतरपणे उत्कृष्ट रस बांधे. तिहांथी वली अढार कोमाकोमी सागरोपम स्थिति बंधाध्यवसाय स्थानके होय, तेवारें कुजसंस्थान, कालिकासंघयण, पराक्त्त हुँमसंस्थान, अने बेवहा संघयणनो बंध करे, तिहां मंदरस बांधे, अने पंदर कोमाकोमी सागरोपम स्थिति बंधाध्यवसाय स्थानकथी तिर्यग्छिकनो मनुष्यधिक साथे परावर्ति बंध करे, तेम नपुंसकवेदनो स्त्रीवेद साथे परावर्ति बंध करे, अने दश कोडाकोडी सागरोपम स्थिति बंधाध्यवसाय स्थानक पढ़ी दौरोग्यत्रिकनो सौजाग्यत्रिक साथे परावर्ति बंध करे. तिहाथी कोमाकोमी सागरोपम किंचिन्न्यून लगें परावर्ति बंधाय, तेथी हीन स्थितिबंध अध्यवसाय स्थानकें केवल मनुष्यहिक, वज्रषजनाराच संघयण, समचतुरस्त्रसंस्थान, शुज विहायोगति, सौजाग्यत्रिक, पुरुषवेद, ए प्रकृति निरंतरपणे बांधे, परंतु तिहां मंदरस न बांधे, जे नणी विरोधिनी प्रकृति साथे परावर्ते बांधतांज मंदरस बांधे. एम एकसो ने चोवीश प्रकृतिना जघन्य रसबंध खामी कह्या. ॥ ३ ॥ हवे जघन्य, अजघन्य, उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, ए चार प्रकारना रसबंधने विषे सादि, अनादि, सांत अने अनंत, ए चार नांगा विचारे . जे थकी हीन को रसबंध न पामीये, ते जघन्य रसबंध जाणवो, अने ते विना बीजा सर्व अजघन्य रसबंध जाणवा. ए रीतें ए बेहु नेदमां सर्व रसबंध ग्रहण कस्या; तथा उत्कृष्टनी अपेक्षायें लेतां जे थकी अधिक तीव्र रसबंध बीजो को नश्री ते उत्कृष्ट रसबंध जाणवो; अने ते थकी एकादि रसावित्नागें हीन एवा सर्व रसबंध ते अनुत्कृष्ट रसबंध कहीयें. एम पण ए बे नेद मांडे सर्व रसबंध ग्रहण कस्या, तिहां मूल प्रकृति आठ अने उत्तर प्रकृति एकसो ने चोवीश, ए बेहुना एना चारे रसबंधे सादि अनायादिक नांगा ग्रंथ लाघव करवाने साथेंज कहे बे. - चन तेअ वन्न वेअणि, अनाम णुक्कोस सेस धुवबंधी॥ घाईणं अजहन्नो, गोएविदो इमो चउदा ॥४॥ अर्थ-चउतेश्र के तैजस, कार्मण, अगुरुलधु अने निर्माण, ए तैजसचतुष्क; वन्न के शुजवर्णादिक चार; ए आठ नामकर्मनी उत्तरप्रकृतिना अनुत्कृष्ट रसबंधे सादि, अनादि, सांत श्रने अनंत, ए चारे नांगा होय, जे नणी ए श्राप प्रकृतिनो उत्कृष्ट रसबंध, अपूर्वकरणनामा श्रापमा गुणगणाना बहा नागने प्रांतें पोताना चरम बंधे एक उत्कृष्ट रस स्थानक होय, अने ते विना सर्व अनुत्कृष्ट रस स्थानक Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६न शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ जाणवां. जे नणी ए स्थानक, जेणे पाम्युं नथी, तेने सदा अनुत्कृष्ट रसबंध स्थानक जाणवां.ते अनादि जाणवां.तथाजे जीव, उपशमश्रेणीयें उत्कृष्ट रस बांधी, फरी तिहाथी पमतोहीन रसबांधे, तिहां अनुत्कृष्ट रस बंधनी सादि जाणवी, तथा अन्नव्यने तेस्थानक पामवुज नथी, अने उत्कृष्ट रस बांधवोज नथी, तेथीतेने अनुत्कृष्ट रसबंध अनंत नागें जाणवो. अने जव्य जीव हशे ते श्रेणी पामी उत्कृष्ट रस बांधशे, तिहाँ अनुत्कृष्ट रसनुं सांतपणुं जाणवू. एम ए श्राप उत्तरप्रकृतिनो चार नेदें अनुत्कृष्ट रसबंध कह्यो. तथा वेअणिअनामणुकोस के वेदनीयकर्म अने नामकर्म, ए बे मूलप्रकृतिना अनुत्कृष्ट रसबंधने विषे चार नंग कहे बे. ए बे कर्ममांहेली एक शाता, बीजी यशःकीर्ति, ए बे शुनप्रकृतिनो तो उत्कृष्ट रसबंध दपकने दशमा गुणगणाना अंत समयें पामीये. माटें ते स्थानक जे नथी पाम्या तेने अनुत्कृष्टनी अनादि, तथा जे ए स्थानक पामीने पाठा पड्या तेने फरी बांधती वखतें सादि तथा अनव्यने अनंत अने जव्यने उत्कृष्ट रस बंध करशे, माटें अनुत्कृष्ट रस बंधनुं सांतपणुं जाणवू. तथा ए आठ प्रकृतिना जघन्य, अजघन्य अने उत्कृष्ट, ए त्रण बंधने विषे सादि अने सांत ए बे नांगा होय. तिहां ए श्राप प्रकृतिनो उत्कृष्ट रसबंध पकने अपूर्वकरणे होय. ते प्रथम बांधवा मांड्यो ते माटें सादि, ते बंध, एक समयेंज होय. पण आगल न होय, माटें सांत बीजो नांगो तथा ए श्राप शुज प्रकृति डे माटें एनो जघन्यरस सर्वोत्कृष्ट संक्लेशे वर्ततो मिथ्यात्वी जीव, संझी पर्याप्तो बांधे. ते एक समय तथा बे समय लगें बांधे, ते पठी अजघन्य बंध बांधे, ते वार पनी वली कालांतरें सर्वोत्कृष्ट संक्लेश पामीने जघन्यरस बांधे, एम जघन्य, अजघन्यने विषे फरता जीवने सादि अने सांत, ए बे नांगा होय. हवे तैजसचतुष्क विना सेस के शेष रही जे ज्ञानावरणीय पांच, दर्शनावरणीय नव, कषाय शोल, एक मिथ्यात्वमोहनीय, पांच अंतराय, जय, जुगुप्सा, उपघात अने अशुजवणेचतुष्क, ए तेंतालीश प्रकृति धुवबंधी के ध्रुवबंधिनी बे; तेनो अजघन्य रसबंध सादि, अनादि, सांत अने अनंत, ए चार नेदें होय; जे जणी ए अशुन प्रकृतिनो जघन्यरस, विशुद्धियें करी पोताना चरमबंधे होय, अने ते स्थानक जे नश्री पाम्या, तेने अजघन्य रसबंधनी अनादि अने जे श्रेणीथी पमी फरी बंध करे, तेने सादि तथा अजव्य जघन्यरस नहींज बांधे, तेथी तेने अजघन्यरसबंध अनंत, अने नव्य जीव सम्यक्त्व पामशे,, तेवार ते स्थानक लश् जघन्यरसबंध करशे, तिहां अजघन्य रसबंधनुं शांतपणुं जाणवं. एम चार नांगा कह्या. घाईणं अजहन्नो के ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय श्रने अंतराय, ए Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ ६६ए चार मूलप्रकृति, घातिनी जे. एना अजघन्य रसबंधने विष चार नांगा होय, केम के ए चार पापप्रकृति नणी विशुद्धियें मोहनीयनो नवमा गुणगणाने प्रांत अने शेष त्रण कर्मनो दशमा गुणगाणाने प्रांतें जघन्य रस बंधाय, शेष सर्व स्थानकें अजघन्य रस बंधाय, तेने विषे पण चार नंग जाणवा. ते आवी रीतें के, जेणे जघन्यरसबंध नथी लह्यो, तेने अजघन्य रसबंध अनादि, जे जघन्यरस बांधी वली श्रेणीथी पमतां अजघन्य रस बांधे तिहां सादि, अनव्यने अजघन्य रसबंध अनंत जाणवो, अने नव्यने अजघन्य रसबंध सांतपणे जाणवो. ए चार कर्मना अजघन्य बंध विना शेष त्रण बंधने विषे सादि अने सांत, ए बे नांगा लाने. ___ गोएविहो के गोत्रकर्मनो अनुत्कृष्ट तथा अजघन्य, ए बे रसबंधने विषे श्मोचनहा के एमज चार जंग होय. ते कहे जे. तेमध्ये नीच्चैर्गोत्रनो जघन्य रसबंध सातमी नरक पृथवीना नारकी ग्रंथिन्नेद करी मिथ्यात्वने बेहले समयें बांधे, ते स्थानक जे नथी पाम्या तेने अनादिनो अजघन्य रस बंध , अने जेणे एक समयमा जघन्य रस बंध करी फरी अजघन्य रस बांधे तेने सादि, अनव्य जीव ते स्थानक क्यारे पण नहींज पामशे, तेथी तेने अनंत, तथा नव्य जीव जघन्य रसबंध करशे तथा रसबंध विछेद पण करशे, तेथी तेने सांत. तेमज उच्चैर्गोत्रनो विशुक्रिये उत्कृष्ट रसबंध, दशमा गुणगणाने प्रांतें होय. ते विना बीजा सर्व अनुत्कृष्ट रसबंध जाणवा. तिहां जेणे श्रेणी नथी करी, तेणें उत्कृष्ट रसबंध नथी कस्यो. तेने अनुत्कृष्ट रसबंध अनादि अने श्रेणीथी पडतां उत्कृष्ट रस बांधी फरी अनुत्कृष्ट रस बांधे, तिहां सादि. अनव्यने अनुत्कृष्ट रसबंध अनंत अने नव्यने अनुत्कृष्टनो सांत, एम चार नेद जाणवा, अने शेष जघन्य तथा उत्कृष्ट, ए बे एक समयना मात्रै एनेविषे सादि अने सांत ए बे नांगा होय. एम सुमतालीश ध्रुवबंधिनी प्रकृति तेम वर्णादिक चार शुजाशुल गणतां एकावन्न उत्तरप्रकृतिनो जघन्य, अजघन्य, उत्कृष्ट अने अनुत्कृष्ट, एम चार प्रकारना बंधना सादि, अनादि, सांत अने अनंत, एमांना जांगा जिहां जे संजवे, तिहां ते कह्या. ॥ ४ ॥ सेसंमि उदा ॥ अनुनागबंधो सम्मतो ॥ अथ प्रदेशबंधे आदावौदारिकादिवर्गणामाद ॥ग जुग णुगाइ, जा अनवणंत गुणि आणू ॥ खंधा उरतो चि अव, ग्गणान तहअगदणं तिरिया ॥५॥ अर्थ-सेसं मिऽहा के एथी शेष रही जे औदारिक, वैक्रिय धने आहारक, ए त्रण शरीर तथा एज त्रण शरीरनां अंगोपांग त्रण, संस्थान बक्क, संघयण बक, पांचजाति, Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७० शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. Ա गति चार, खग तिद्विक, श्रानुपूर्वी चतुष्क, जिननाम, उश्वास, उद्योत, तप, पराघात, त्रसदशक, तथा स्थावरदशक, ए नामकर्मनी प्रकृति अठावन तथा वेदनीयद्विक, गोत्रक, त्रण वेद, हास्यादि युगल ठिक ने आयु चार, एवं तहोंत्तेर अध्रुवबंधिनी प्रकृतिना उत्कृष्ट अनुत्कृष्ट, जघन्य, अजघन्य, ए चारे बंध सादि ने सांत, एगें होय, केम के, ए प्रकृतिर्जनो बंध केवारेंक होय छाने केवारेंक न होय, जेवारें होय तेवारें सादि, अने न होय, तेवारें सांत. एम सविस्तरपणे रसबंध वखायो. दवे अनुक्रमागत प्रदेशबंध कद्देवाने अवसरें उपोद्घात संगतें करी प्रथम श्रदारिकादिक वर्गणानुं स्वरूप निरूपण कर्म वर्गणा आणवा निमित्तें कहे बे. ( १ ) जेम कुची कर्ण शेवने गाय मेलववानुं व्यसन, तेथी तेणे घणी गायो मेलवी, ad कीधी. पी तेनी गणती आणवाने अर्थे वर्णादिकें सरखी एवी गायोनां टोलां बांध्यां; तेवी रीतें अनंता पुलस्कंधने जूदा लेखवी, तेना नेद पाडवाने श्रर्थे ज्ञानी यें परमाणु संख्यायें सरखा सरखा पुजलस्कंधना टोलां बांध्यां तेनुं नाम वर्गणा कहीयें. जेम जगत्मांहे जे एकला बूटा परमाणुया बे, तेनुं टोलुं ते प्रथम वर्गणा; तेमज वे परमाणु एकता मलवा थकी जे स्कंध होय, तेने एक कहीयें. तेनुं टोलुं ते बीजी वर्गणा, तथा त्रण परमाणुयें निष्पन्न जे स्कंध तेने त्र्यणुक कहीयें. तेनुं टोलुं ते त्रीजी वर्गणा. एम एकेक परमाणुयें वधता वधता स्कंधना सरखां सरखां टोलां तेनी वर्गणा वधती वधती जाय. ( २ ) एम वधती वधती अजव्य जीवथी अनंतगुणा छाने सिद्धना जीवने अनंतमा जागप्रमाण परमाणुयें करी निष्पन्न जे स्कंध ते स्कंध औदारिक शरीर निपजाववा योग्य होय, तेथी ते स्कंध औदारिक शरीरने ग्रहण करवा योग्य होय, ते माटे ते श्रदारिक, ग्रहण योग्य जघन्य वर्गणा होय. ए थकी एक परमाणुयें हीन स्कंध वर्गणा लगें सर्व ग्रहण योग्य वर्गणा कहीयें. जे जणी वे स्कंधें शरीर नीपजे नहीं. हवे ते जघन्य औदारिक शरीर रंजक स्कंधवर्गणा तेथी एकेक परमाणुयें वधता स्कंधनी एवी बीजी, त्रीजी, चोथी, पांचमी, एम वधती वधती अनंत वर्गणा औदारिक शरीरग्रहण योग्यपणे होय. ते औदारिकशरीर ग्रहण योग्य जघन्य वर्गणा थकी अनंतमे जागें वधती औदारिक शरीर ग्रहण योग्य उत्कृष्टी वर्गणा होय, ते अनंतमो जाग पण अनंता परमाणुरूप जाणवो, ते माटे औदारिक शरीरने ग्रहण योग्य पण अनंती वर्गणा जाणवी . (३) ते दारिक शरीरनी नृत्कृष्ट वर्गणा थकी एकेक परमाणुयें अधिक स्कंधनी वर्गणा ते दारिकनी अपेक्षायें बहु प्रदेशोपचित तथा सूक्ष्मपरिणाम For Private Personal Use Only Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ ६७१ परिणत ते दारिकने ग्रहण योग्य ने वैक्रिय शरीर आरंजक स्कंधनी छापेहायें अल्पप्रदेशोपचित तथा बादरपरिणत ते माठें वैक्रिय शरीरने पण ग्रहण योग्य एम एकेक प्रदेशें वधता स्कंध अनंतनी अव्यथी अनंतगुणी अने सिद्धना अनंतमा नागप्रमाण एटली वर्गणा ते वैक्रिय शरीरने ग्रहण योग्य वर्गणा जाणवी. ( ४ ) तेथकी एक प्रदेश अधिका स्कंधनी वर्गणा ते वैक्रिय शरीर आरंभ करतां जघन्य ग्रहण योग्य वर्गणा जाणवी. एम वली एकेक प्रदेशें वधता स्कंधनी अनंती वर्गणा वैक्रिय शरीर निष्पादक होय, ते पण जघन्य वैक्रिय ग्रहण योग्य वर्गणाथी पोताना अनंतमा जाग प्रमाण वधती वैक्रिय शरीरने ग्रहण योग्य उत्कृष्ट वर्गणा होय, तेथी ते पण अनंती वर्गणा जाणवी. (५) ते वैक्रिय ग्रहण योग्य उत्कृष्ट वर्गणा थकी एक प्रदेशें अधिक स्कंधनी वर्गणा ते वैक्रिय दलनी अपेक्षायें बहु प्रदेश निष्पन्न तथा सूक्ष्मपरिणत होय. अने आहारक शरीरप्रायोग्य दलनी अपेक्षायें अल्पप्रदेशिक तथा बादर परिणत होय. ते माटें वैक्रिय तथा आहारक, ए बेहु शरीरने काममां न आवे, ते जणी ते ग्रहण योग्य वर्गणा जाणवी. ते पण एकेक प्रदेश वधता वधता स्कंधनी व्यथी अनंत गुणी सिद्धना जीवोना अनंतमा जागप्रमाण अनंती वर्गणा जाणवी. ए अनंती ग्र हण योग्य प्रदेश वर्गणा होय. (६) पढी ते थकी एक प्रदेश अधिक स्कंधनी वर्गणा तेणे करी ते आहारक शरीर नीपजे, तेथी ते आहारक प्रायोग्य जघन्य वर्गणा होय, ते वली एकादि प्रदेशें वधता अनंता स्कंधनी अनंती वर्गणा थाय, ते जघन्य वर्ग - खाना अनंतमा जाग प्रदेश प्रमाण प्रदेशें वधती एवी उत्कृष्टी आहारक शरीरने ग्रहण करवा योग्य वर्गणा श्रनंती होय. ( 3 ) ते आहारक ग्रहण योग्य उत्कृष्ट वर्गणा थकी एक प्रदेशें वधता स्कंधनी वर्गणा ते आहारकनी अपेक्षायें बहु प्रदेशिक तथा सूक्ष्म ने तैजसनी अपेक्षायें are प्रदेशिक बादर परिणत, ते जणी बेदु शरीरने ग्रहण योग्य एवी जघन्य वर्गणा ते थकी एकादिक प्रदेशें वधती यावत् श्रव्यथी अनंतगुणी वर्गणा, ए बे शरीरने ग्रहण योग्य होय. ते माटें ग्रहण योग्य वर्गणा. ( ८ ) ते उत्कृष्ट अग्र'हण योग्य वर्गणा दल थकी, एक प्रदेशें अधिक स्कंधनी वर्गणा ते तैजस शरीर प्रायोग्य जघन्य वर्गणा जाणवी. पछी ते थकी एकेक प्रदेशें वधता वधता स्कंधनी एव यावत् जघन्य तैजस शरीर वर्गणाने अनंत जागें जे अनंता परमाणु तेणे करी अधिक एवी उत्कृष्ट तैजस शरीरने ग्रहण योग्य वर्गणा अनंती जाणवी . (u) ते तैजस शरीर ग्रहण योग्य उत्कृष्ट वर्गणाना स्कंधथी एक प्रदेशें अधिक For Private Personal Use Only Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. स्कंध ते तैजसनी अपेक्षायें बहु प्रदेशिक सूक्ष्म अने जाषादलनी अपेक्षायें अल्प प्रदेशिक बादर होय, तेथी ए बेह शरीरने काम न आवे,माटे ग्रहण करवाने अयोग्य एवी जघन्य वर्गणा जाणवी. एम एकेक प्रदेश वधता स्कंधनी अजव्यथी अनंतगुणी अने सिझना अनंतमा नागप्रमाण एटली वर्गणा अग्रहण योग्य होय. (१०) ते उत्कृष्ट श्रग्रहण योग्य वर्गणा थकी एक प्रदेशे अधिक स्कंध ते नाषाना दलने काम श्रावे, ते जणीते जघन्य नाषा ग्रहण योग्य वर्गणा होय, ते थकी वली एकादिक प्रदेशें वधती वधती यावत् जघन्य जाषा वर्गणाने अनंतमे नागे जे अनंता परमाणु, तिहां लगें वधता स्कंधनी एवी अनंती वर्गणा नाषाने ग्रहण योग्य होय. (११) ते नाषाने ग्रहण योग्य उत्कृष्ट वर्गणाथी एकोदिक प्रदेशे वधता वधता यावत् अनव्यथी अनंतगुण प्रदेशपर्यंत वधतानी अनंती वर्गणा ते सर्व नाषा शरीरनी थपेक्षायें बह प्रदेशिक सूक्ष्म अने श्वासोश्वासनी अपेक्षायें बादर अस्प प्रदेशिक स्कंध, ते जणी ते वर्गणा ए बेहु शरीरने अग्रहण योग्य एवी वर्गणा अनंती जाणवी. (१५) वली ते थकी एक प्रदेशें अधिक स्कंधनी वर्गणा, तेणे करी श्वासोश्वास नीपजे तेथी तेवा स्कंधनो समुदाय, ते श्वासोश्वास ग्रहण योग्य जघन्य वर्गणा जाणवी. ए थकी एकादिक प्रदेशे वधता वधता यावत् जघन्य वर्गणाना अनंतमा नागमा जेटला प्रदेश तत्प्रामाण तेटला प्रदेशें वधती जे वर्गणा ते श्वासोश्वास ग्रहण योग्य उत्कृष्टी वर्गणा जाणवी. (१३) ते थकी एक प्रदेशे अधिक स्कंधनी श्रग्रहण योग्य वर्गणा पूर्वली पेरें श्वासोश्वासने तथा मनने पण श्रग्रहण योग्य, तेवी एकादिक प्रदेशे वधती वधती यावत् अजव्यथी अनंतगुणी वर्गणा श्रग्रहण योग्य जाणवी. (१४) ए रीतें वली ते वर्गणाथकी एकादिक प्रदेशे वधता स्कंध तेणे करी अव्य, मन, नीपजे, ते जणी ते जघन्य मनोऽव्यग्रहण योग्यवर्गणा जाणवी. तेथी एकादिक प्रदेशे वधता वधता स्कंध ते यावत् निज जघन्य वर्गणा स्कंधने अनंतमे नागे जे प्रदेश होय, तेटले प्र. देशे वधती उत्कृष्टी मनोग्रहणप्रायोग्य वर्गणा होय. (१५) ते थकी एक प्रदेशाधिक पुजल स्कंधनी वर्गणा ते मनोजव्यनी अपेक्षायें बहु प्रदेशिक सूक्ष्म जाणवी, श्रने कर्मदलनी अपेक्षायें अपप्रदेशिक बादर जाणवी. ते जणी बेहु शरीरने श्रग्रहण योग्य एवी अजव्यथी अनंतगुणी वर्गणा जाणवी. (१६) वली ते थकी एक प्रदेशे वधता पुजलस्कंधनी वर्गणा ते कर्मदल ग्रहण योग्य होय, ते नणी ते कर्मप्रायोग्य जघन्य वर्गणा जाणवी. ते थकी वली एकादिक प्रदेशे वधता वधता यावत् आपणी जघन्य वर्गणाना अनंतमा जाग प्रदेश प्रमाण प्रदेशे Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. Ա ६७३ वधती ते उत्कृष्ट कर्म ग्रहण योग्य पुजलनी वर्गणा जाणवी. तेणे करी कर्मदलें कर्मप्रकृति बंधाय. एक कर्मनी जघन्य ने उत्कृष्टनी वचालें अनंती वर्गणा होय, तेवा दक कर्मप्रकृतिबंधाय, ते जणी ए कर्म ग्रहण योग्य वर्गणा कहीयें. ए शोलमी वर्गणा थइ. ए स्वमतें कयुं, तथा वृष्ठतक वृत्तिमध्यें ग्रहण योग्य वर्गणा नथी कही, तेने मतें तो श्रावज वर्गा कही बे. एहवी वर्गणा ते जीवने ग्रहवा योग्य पुजल होय, जीवाश्रित होय, तेथी उपचारें एने सचित्तवर्गणा कहीयें. ने ए थकी एकादिक प्रदेशें अधिक पुजलस्कंध जे जीवने ग्रहण योग्य नहीं, तेथी तेने चित्तवर्गणा कहीयें. ते चित्तवर्गणा पण सर्व जीवी अनंत गुणी बे. ए वर्गणानुं स्वरूप मूढमतिने समजाववा छाने चित्तमां श्रावाने बिंदु कल्पनायें करी देखाड्यं बे. जेम एकादिकथी मांगी दश पर्यंत परमाणु निष्पन्न ग्रहण योग्य वर्गणा जाणवी. ते थकी गीवार, बार अने तेर, परमाणु निष्पन्न ते दारिक ग्रहण योग्य वर्गणा जाणवी. तेथकी बली चौद, पंदर, शोल, सत्तर, छाढार, उगणीश ने वीश, बिंडुरूप ग्रहण योग्य वर्गणा जाणवी . पी एकवीरा, बावीश अने त्रेवीश, बिंडुरूप वर्गणा, ते वैक्रिय शरीरने ग्रहण योग्य वर्गणा जाणवी. एम आठ वर्गणा ग्रहण योग्य जाणवी; अने प्रांतरे प्रांतरे वर्गणा अग्रहण योग्य बे. बेहु मलीने शोल वर्गणा थइ. ए शोल वर्गणा सचित्त जावी. जे जणी एमां आठ वर्गलाना पुल जीवने ग्रहण योग्य होय, तेथी ते उपचारें जीवाश्रित कदेवाय, तेमाटें एने सचित्त कहीयें. ने अंतरालनी आठ वर्गणाना पुजल जीवने अग्रहण योग्य तो पण ते वर्गणा ग्रहण योग्य वर्गणाने श्रांरेबे, ते जणी एने सचित्तवर्गणाज कहीयें. ( १ ) ए पूर्वोक्त उत्कृष्ट कर्म वर्गणा थकी एकादिक प्रदेशें वधता वधता स्कंधनी सर्व जीवथ वनंती वर्गणा, ते निरंतरपणे सदाकाल पामीयें. पण तेहवा स्कंधनी वर्गणा जीवने ग्रहवा योग्य न होय, ते जणी तेने ध्रुवाचित्त जघन्य वर्गणा कहीयें. ते जघन्य वर्गणाथकी उत्कृष्ट वर्गणाना प्रदेश अनंत गुणा होय, तेने उत्कृष्ट ध्रुवा चित्त वर्गणा कहीयें. ( २ ) ते थकी वली एकादिक प्रदेशें अधिक स्कंधनी वर्गणा वनंती सर्व जीव थकी अनंत गुणी. एवा पुल स्कंध, केवारेंक निरंतरपणे होय, छाने केवारेंक सांतरपणे पण होय, ते जणी ध्रुवाचित वर्गणा कहीयें. ( ३ ) ते थकी एकादिक प्रदेशें वधता पुल स्कंधनी वर्गणा न पामीयें, पण यागली वर्गणा स्कंधनुं महत्वपं देखावाने अर्थे प्ररूपीयें, तेवी पण अनंत शून्य वर्गणा होय. ते जघन्य वर्गणाना प्रदेशने क्षेत्र पल्योपमना असंख्यातमा जाग प्रमाण प्रदेशनी राशियें करी ८५ Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७४ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ गुणाकार करीये, तेवारें उत्कृष्ट वर्गणा होय. (४) तेथकी एक प्रदेशाधिक स्कंध, ते साधारण नहीं पण प्रत्येक जीवना औदारिकादिक पांच शरीरना प्रदेश, ते मांहेलो एक प्रदेश सर्व जीवथी अनंतगुणे विश्रसा परिणत सूक्ष्मपुजल स्कंध आश्रित ते स्कंधD नाम, प्रत्येक वर्गणा कहीये. ते पण जघन्य वर्गणा थकी उत्कृष्ट वर्गणा क्षेत्र पस्योपमना असंख्यातमा नागरूप असंख्याता प्रदेशे गुणाकार करता थाय, ते प्राण अनंती वर्गणा जाणवी. (५) तेथकी वली अनंती शून्य वर्गणा प्रदेशोत्तर कल्पीयें, तेपण जघन्य वर्गणा थकी मामीने उत्कृष्टवर्गणा पर्यंत अनंती वर्गणा जाणवी. (६) तेथकी वली एकादिक प्रदेशे वधता पुजलनी वर्गणा ते बादर निगोदीया जीवना त्रण शरीर प्रदेशने श्राश्रित अनंता पुजलस्कंध विश्रसा होय, तेनी पण एकादिक प्रदेशे वधती अनंती वर्गणा जाणवी. ते पण जघन्य वर्गणा थकी उत्कृष्टी वर्गणा प्रदेश संख्यायें असंख्यात गुणी होय. (७) तेथकी वली असत्कल्पनायें अनंती शून्य वर्गणा पूर्वली पेरें जाणवी. (७) ते थकी प्रदेशाधिक स्कंधनी वर्गणा ते सूक्ष्म निगोद शरीर प्रदेशाश्रित अनंत पुजलस्कंध विश्रसा परिणत तेनी अनंती वर्गणा जाणवी, ते पण जघन्य वर्गणो थकी वलीना असंख्यातमा नाग प्रमाण समयनी राशियें जघन्य वर्गणाने गुणतां उत्कृष्टी वर्गणा थाय. (ए) ते थकी वली एकादिक प्रदेशे वधती एवी असत्कल्पनायें अनंती शून्य वर्गणा होय. (१०) ते थकी वली प्रदेशाधिक मिश्र स्कंध जेनुं सूक्ष्मपणा थकी बादरपणुं पामवाने अनिमुख ते मिश्र स्कंधनी वर्गणा अनंती जाणवी. (११) ते थकी अचित्त महास्कंध जे पर्वत कूटादिकने विश्रसा परिणामें आश्रित अनंत प्रदेशात्मक पुजल स्कंध जे विस्रसा परिणामें १ मंग, २ कपाट, ३ मंथ, अंतर पूर्णादिक करतो केवलसमुद्घातनी पेरें आठ सम. यनो अजीव समुद्घात होय. तिहां चोथे समये सर्व लोक प्रमाण स्कंध होय, अजितादिक जिनने वारे त्रस जीव घणा होय, तेवारे ते स्कंध थोडा होय अने जेवारे त्रस जीव थोमा होय तेवारे ते स्कंध घणा होय, ए लोक स्थिति तेनी वर्गणा पण अनंती जाणवी. (१२) एथी पण अधिक प्रदेश स्कंध श्रीपन्नवणामध्ये कह्या ने, ए अहावीश वर्गणा कम्मपयडीने अनुसारें वखाणी, परंतु अहीं कर्मवर्गणा कहे. वानो अवसर बे, अने बीजी औदारिक वर्गणा कर्मदलनी प्रदेश संख्या तथा सूदमा. वगाह क्षेत्र जाणवाने अर्थे उपोद्घात संगतें कही देखामी, तथा आगली बीजी वर्गणा प्रसंग संगतें कही देखाडी. तिहां औदारिक वर्गणा अनुक्रमें एकथी बीजा प्रदेशे वधती वधती जाय अने अवगाहनायें हीन हीन थती जाय. औदारिक वर्गणाने अवगाहनानुं क्षेत्र अंगुलनो असंख्यातमो नाग जाणवो. ते थकी वली Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ . ६७५ ग्रहणयोग्य वर्गणानुं क्षेत्र, संख्यांश हीन जाडं. ते थकी वली वैक्रिय वर्गणा क्षेत्र प्रसंख्यांश दीन जावं. एम सघले असंख्यांश हीन अवगाहना क्षेत्र यतुं जत्य. हवे गाथानो अक्षरार्थ लखीयें ढैयें. इगडुगलुगाइ के० एक, ठिक, अणुकादिक, यहीं श्रणु शब्दने प्रत्येके संबंध बे एटले परमाणु जाणवो. तिहां एकाणुकादिक, यणुकादिक. एटले एक मां बे, तिहां एकाणुकादिक कहेवु. बे आयमांबे, माटें छणुकादिक कहे . अर्थात् एक परमाणुनी, द्विपरमाणुनी, वर्गणा, यदि शब्द थकी त्रण परमाणुनी, चार परमाणुनी, पांच परमाणुनी एम वधतां वधतां जा के० यावत् क्यां सुधी कहेनुं, ते कहे बे. अजवगुणियाखंधा के० अजव्यथी अनंतगुणा परमाणुयें वधती उपलद की सिद्धना जीवने अनंतमे जागें परमाणुयें वधता स्कंधनी वग्गणान के० वर्गणा ते प्रथम उरल के दारिक शरीरने ग्रहण करवाने उचिछा के० उचित एटले योग्य होय. एवी अनंती वर्गणा जाणवी. तह के० ते थकी एकादि परमाणुयें वधती एवी अनंती वर्गणा ते अगहणं तिरिया के० औदारिक शरीरने, अग्रहण प्रायोग्य होय, ग्रहणांतरिता एटले ग्रहण वर्गणा वर्गणांतरित होय ॥ इत्यक्षरार्थः॥७५॥ एमेव विवादा, र तेय नासाणु पाए मए कम्मे ॥ सुहुमा कमावगादो, ऊपंगुल असंखंसो ॥ ७६ ॥ अर्थ-एमेव के० एणी पेरें बीजी विजन के० वैक्रिय शरीरने ग्रहण योग्य वर्गणा, त्रीजी आहार के थाहारक ग्रहण योग्य वर्गणा, चोथी तेा के० तैजस ग्रहण योग्य वर्गणा, पांचमी जसाणुपाण के० जाषा प्रायोग्य वर्गणा, बडी श्वासोश्वास ग्रहण योग्य वर्गणा, सातमी मए के० मनोग्रहण योग्य वर्गणा, श्रवमी कम्मे के० कार्मण ग्रहण योग्य वर्गणा, ए आठ वर्गणा जाणवी. ए आठे वर्गणानुं कमावगाहो के० अनुक्रमे अवकाश क्षेत्र ते एकेक थकी सुदुमा के० सूक्ष्म सूक्ष्म होय, एटले हीन हीन होय. एटले औदारिक ग्रहण योग्य वर्गणाना अवगाहना क्षेत्र थकी दारक ग्रहण योग्य, वर्गणानुं श्रवगाहना क्षेत्र सूक्ष्म, ते थकी वली वैक्रिय ग्रहण योग्य वर्गणानुं अवगाहना क्षेत्र सूक्ष्म, एम सर्व वर्गणानुं श्रवगाहना क्षेत्र, नुक्रमें एकेक थकी ऊणूण के० ऊएं ऊएं होय. अने गुल संखंसो के० ए यावेनुं अवगाहना क्षेत्र, अंगुलने असंख्यातमे जागें होय, अनुक्रमें एकेकथी एकेकनी अवगाहना ऊणी कुणी एटले न्हानी न्हानी होय, केम के पुल द्रव्यने विषे जेम घणा पुजल परमाणुनो समुदाय मले, तेम सूक्ष्म Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७६ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ परिणाम थाय. ते माटें औदारिक ग्रहणयोग्य वर्गणानो अवगाहना क्षेत्र अंगुलने असंख्यातमे जागे होय, ते थकी तेनी अग्रहणयोग्य वर्गणानी अवगाहनान्हानी होय, ते थकी वली वैक्रिय ग्रहण योग्य अवगाहना न्हानी होय. एम अनुक्रमें सर्व वर्गणानी अवगाहना, एकेक थकी न्हानी कहेवी. अने ते वर्गणाना परमाणु, एकेक थक। अधिक होय. ॥ श्त्यदरार्थः ॥ ६ ॥ - शकिक हिआ सिहा, पंतंसो अंतरेसु अग्गहणा ॥ सबब जहन्नुचिया, नियणंतंसादि आ जिता ॥ ७ ॥ अर्थ-इक्विक्वहिआ के एकेक परमाणुयें अधिक अग्रहण योग्य वर्गणा होय. ते केटली होय ? तो के सिकाणंतंसो के० सिझोनो अनंतो अंश एटले सिद्धना अनंतमा नाग प्रमाण ग्रहण योग्य वर्गणाने अंतरेसु के० आंतरे अग्गहणा के० अग्रहणयोग्य धर्गणा अनंती होय, तथा सबबजहन्नुचिया के० सघले गमें ग्रहण योग्य जघन्य वर्गणा थकी निय के वकीय जघन्य वर्गणाना अणंतंसा के अनंतांश एटले अनंतमे जागे अहिया के अधिक जिहा के० ज्येष्ठ एटले उत्कृष्ट ग्रहण योग्य वर्गणा होय. ॥ इत्यदरार्थः ॥ ७ ॥ एक परमाणुथी मांडीने एकेक परमाणुयें वधते स्कंधे वर्गणा अनंती होय, तिहां प्रथम अग्रहण योग्य जघन्य वर्गणाथकी अग्रहण योग्य उत्कृष्टी वर्गणा अनंतगुणी होय, जे नणी जघन्य अग्रहण योग्य वर्गणा एक परमाणुनी , तेथी उत्कृष्ट अग्रहण योग्य वर्गणा सिझना जीवने अनंतमे नागें अने उपलक्षणथी अजव्यानंतगुण निष्पन्न स्कंधनी वर्गणा होय, ते नणी प्रदेशे अनंतगुणी होय. ते थकी वली औदारिक ग्रहण योग्य जघन्य वर्गणा स्कंध रूपाधिक होय, ते थकी औदारिक ग्रहण योग्य उत्कृष्ट वगेणास्कंध अनंतनागाधिक जाणवी. तेथकी वली ते औदारिक श्रने वैक्रिय वर्गणाना अंतरने विषे श्रग्रहणयोग्य जघन्य वर्गणास्कंध रूपाधिक होय, तेथकी वली श्रग्रहण योग्य उत्कृष्ट वर्गणा स्कंध विशेषाधिक जाणवी. जे जणी एनी जघन्य वर्गणा स्कंध सिझानंतनागाधिक अनव्यानंत गुण परमाणुथा मात्र जे. तेमांहे वली अजव्यानंत गुण सिझानंतनाग मात्र परमाणुआ नेलीये, तेवारें अनंतनाग न्यूनथी घणा परमाणुआ थाय, माटें अनंतनागाधिक कही. तेथकी रूपोधिक वैक्रिय ग्रहण योग्य जघन्य वर्गणास्कंध प्रदेश जाणवा. तेथकी वैक्रिय ग्रहण योग्य वर्गणाना उत्कृष्टस्कंधप्रदेश अनंतनागाधिक जाणवा. एम कार्मण वर्गणा पर्यंत समस्त ग्रहण योग्य वर्गणायें पोताना जघन्य वर्गणास्कंधथकी पोतपोताना उत्कृष्ट वर्गणास्कंध अनंतनागाधिक Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ទី១១ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ लेवा, अने अग्रहणयोग्य जघन्य वर्गणास्कंधथकी उस्कृष्ट वर्गणास्कंध विशेषाधिक सेवा. तथा ध्रुवाचित्तवर्गणायें जघन्य वर्गणास्कंधथी उत्कृष्ट वर्गणास्कंध, अनंत गुणा लेवा. तथा एनी शून्यवर्गणाथकी आगली वर्गणायें पोतपोतानी जघन्य वर्गणास्कंधथी उत्कृष्ट वर्गणास्कंध प्रदेश संख्यायें असंख्यातगुणा लेवा. अने सर्व वर्गणाने अवगाह देवनी अपेदायें औदारिक वर्गणास्कंधना अवगाह देत्र थकी असंख्यांश हीन वैक्रिय वर्गणानुं अवगाहना क्षेत्र जाणवू. तेथकी श्राहारक वर्गणानुं अवगाहक्षेत्र असंख्यांश हीन जाणवू. एम आगली सर्व वर्गणायें असंख्यांश हीन हीन अवगाहनाक्षेत्र होय. पुजल व्यनो एहज खनाव , के जेम जेम प्रदेश वधता जाय, तेम तेम सुक्ष्म थाय. जेम कपासमां थोडा प्रदेश तेम घj ठाम रोके, अने पाराना घणा दलिक होय ते थोडं गम रोके, तथा पाली मध्ये तूराना कण थोमा समाय अने राश्ना कण घणा समाय. एम बबीश तथा अहावीश, पुजवस्कंधनी वर्गणा कही. तेमध्ये शोल वर्गणा ग्रंथकारें कही बे. माटें सूत्रोक्त जे जणी अहींयां तेमांदेली एक कर्मवर्गणा दल कहेवानो प्रदेश बंधाधिकारें प्रयोजन . तेनी प्रदेशसंख्या जाणवाने अर्थे शेष पूर्वोक्त पंदर वर्गणा कही.॥॥ ॥ अथ यादृशं कर्मदविकं जीवोगृएहाति तदाह ॥ हवे.. जेवा कर्मदविक जीव ग्रहण करे , ते कहे .॥ अंतिम चन फास गं, ध पंच वन्नरस कम्म खंध दलं ॥ सब जियणंत गुण रस, अणुजुत्त मणंतय पएसं ॥ ७ ॥ अर्थ-कर्मदल ते अगुरुलघु अव्य , ते जणी अरूपी अव्य तथा पांच वर्ण, वे गंध, पांच रस अने चार स्पर्श, एम शोल गुणवंत पुजल ते पण अगुरुलघु कहीयें. हवे अहींयां को कहेशे के कर्मदल मूर्तिमंत डे अने जीव तो अरूपी डे, तो ते जीवने कर्मदलनो करेलो अनुग्रह, उपघात केम होय ? तेनो उत्तर कहे डे के, जेम मूर्तिमंत मदिरापान ; तेणे करी अमूर्तिमंत ज्ञाननो उपघात थाय बे. तथा मूर्तिमंत सारस्वत चूर्णादिकें करी अमूर्तिवंत झाननो गुण प्राप्त थाय . तथा अमूर्त क्रियानो मूर्त अव्य साथे संबंध थाय बे. तथा घटादिक मूर्तिमंत अव्यनो अमूर्त प्रव्य जे आकाशादिक तेनी साथे संबंध थाय , तेम गुरुलघु पुजल अव्य कर्मदलनो श्रगुरुलघु यात्मव्य साथे संबंध होय , तथा तेणे करी आत्मजव्यना ज्ञानादिक गुणने उपघात थाय , तथा जिननाम कर्मादिकें करी पूजा महत्व ऐश्वर्या दिक अनुग्रह पण होय , ते जणी कर्मने अगुरुलघुषव्य थापवा निमित्तें वर्ण, गंध, रस Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ១០ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ अने स्पर्शनी संख्या कहे . तिहां औदारिकवर्गणा, वैक्रियवर्गणा, थाहारकवर्गणां, एत्रण वर्गणाना पुजलस्कंध पांच वर्ण, बे गंध, पांच रस बने थाप स्पर्श, ए वीश गुणवंत होय, तेथी ते गुरुलघु अव्य कहीयें, तथा तैजसदल पण सिझांतने मतें वीश गुणवंत होय तेथी ते पण गुरुलघु अव्य कहीये. अने नाषाजव्य, श्वासोवासजव्य, मनोजव्य अने कर्मवर्गणाजव्य, ए चार वर्गणाना दल शोल गुणवंत होय, तेथी एने अगुरुलघुपव्य कहीयें, ते शोल गुण, गाथाना अर्थे करी विवरीने कहीयें बैये." फासा गुरुलहुमिछ खरा सीजएहसिणि" ए गाथाने अनुसारें. - अंतिमचउफास के बहेला चार स्पर्श तेना नाम कहे . एक शीत, बीजो उष्ण, त्रीजो रूद अने चोथो स्निग्ध, ए चार स्पर्श अगुरुलघुजव्य होय. जे जणी एक परमाणुयें एक वर्ण, एक गंध, एक रस अने बे स्पर्श, एवं पांच गुण होय. केमके रूद अने स्निग्ध परमाणुयें परस्परें बंध होय, तेथी सर्व परमाणुयें ए बे मांहेलो एक स्पर्श, अवश्य होय; तथा शीत अने उष्ण, ए बे मांहेलो पण एक स्पर्श होय. एम बे स्पर्श, एक परमाणुयें अवश्य होय, अने अनंत प्रदेशी ए सूदम परिणत स्कंधे को परमाणु स्निग्ध शीत, कोश स्निग्ध उत, को रूद शीत अने कोश रूक्ष उप्स, एम चार जातिना परमाणुथा मली आवे, तेवारें जोषाव्य, श्वासोश्वासप्रव्य, म. नोजव्य अने कार्मणदल, ए चारे दलें ए चार स्पर्श लाने. ए स्वमतें कडं. तथा कम्मपयडीने मतें पण एज चार स्पर्श कह्या, अने बृहछतकने मतें तो ए चारे वर्गणास्कंधने विषे मृड तथा लघु स्पर्श अवश्य होय श्रने रूद तथा स्निग्ध मांहे. लो एक स्पर्श होय, तथा शीत अने उक्ष, ए बे मांहेलो पण एक स्पर्श होय, एवं चार स्पर्श होय अने ए सूक्ष्मतव्य नणी गुरु तथा कर्कश, ए बे स्पर्श न होय. तथा पुगंध के० एक सुगंध बीजो पुगंध, ए बे गंध अने पंचवन्नरस के कृम, नील, रक्त, पीत, अने शुक्ल, ए पांच वर्ण तथा तीखो, कटुक, कषायल, थाम्ल अने मधुर, ए पांच रस, एवं शोल गुण सहित कम्मखंधदलं के० कार्मणस्कंधन दल पुजल होय. तेमज तैजस, नाषा, श्वासोश्वास अने मनोऽव्य, ए चार वर्गणाना स्कंध पण शोल गुणवाला होय, तथा औदारिक, वैक्रिय बने थाहारक, ए त्रण शरीरअव्य ए नोकर्म पुजलजव्य, पांच वर्ण, बे गंध, पांच रस श्रने श्राव स्पर्श, एम वीश गुणवंत पुजलव्य होय, तथा सिझांतने मतें तैजसअव्य पण वीश गुणवंत होय, तेथी एने गुरुलघुव्य कहीये. । - सबजियणंतगुणरसश्रणु के अहीं सर्व जीव जे अनंते , तेणे करी गुण्या जे रसाणु एटले केवलीनी बुफिरूप शस्त्रे करी कटप्या जे रसना निरंश अंश, ते नावाणु Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ ६ए कहीये. अहीं रसाणु कहेता जीवने काषायिक अध्यवसायजनिते थानंद विषाद हेतु शुनाशुज कर्मनो विपाक इष्ट थनिष्टपणे करी मिष्ट अने कटुक रस एवो व्यवहार करीयें, ते रस जाणवो. पण अहींयां पांच रस महिला को रसनी विवक्षा न करवी. अहीं ए नाव रस सेवा, एवा सर्व जीवथी अनंत गुणा रसा विनागे युक्त जे जीव कर्मना दल ग्रहतो जेम गाय, तृणखलां चरती थकी तृणादिकने विषे मुग्धादिक मिष्ट रस उपजावती ग्रहण करे, तथा सर्प, मुग्धादिकनुं पान करतो थको पण उधने विषे गरलरूप कटुकरस उपजावतो ग्रहण करे, तेम कर्मदलने विष मणंतयपएसं के० अनंत प्रदेशीया स्कंध तेना प्रदेश प्रदेश प्रत्ये अनंता रसाणुयें जुत्त के० युक्तने कर्मपणे जीव ग्रहण करे. अहीं रस शब्दें अनुनाग कहीये, तेना अणुया एटले अंश जाणवा, एटले सर्वे जीवानंत गुण रसाणुश्रा तेणें करी युक्त. अत्र हाई एमबे के सर्व जघ. न्यरसे युक्त जे पुजल तेनो रस केवलीनी प्रज्ञाये बेद्यमान सर्व जीवथी अनंतगुणा रसाविनागोने आपे ले ते जाग अति सूदमतायें करी परजागना अजावधी निरंश अंश अणु कहीयें. "रसाणुया रसावित्नागा रसपलिदो नाव परमाणुया" ए सर्वे एना पर्याय जाणवा. ते रसाणुया प्रतिस्कंध सर्व परमाणुने विषे सर्व जीवोथी अनंतगुणा वर्ने बे. एवारसाणुयें युक्त परिगत कर्मस्कंध दलिक प्रत्ये जीव आहे . जेम निब श्दुरसादिकने अधिश्रयणे करी तंडुलोने विषे प्रत्येके यथा रस विशेष तत्ताप प्रत्ये जणे ने तथा अनुन्नाग बंधाध्यवसायें करी सर्व खंमोने विषे अजव्यानंतगुण प्रदेश निष्पन्नने विषे प्रति परमाणुये सर्व जीवोथी अनंतगुण रसाविनाग पलिदो प्रत्ये जीव जणे जे तथा अणंतपएसंत्ति एटले अनव्यानंतगुण सिक अनंत नाग प्रमाण परमाणु निष्पन्न एकेक कर्मस्कंध प्रत्ये जीव ग्रहे जे तेवा स्कंध पण प्रति समयें अजव्यथी अनंतगुणासिझानंत नाग वर्ति प्रत्ये ग्रहे डे ॥ ७ ॥ ॥ हवे कर्मदलनुं अवगाहना क्षेत्र कहे जे. ॥ एग पएसा गाढं, निअ सब पएस गदेश जि ॥ थोवो आज तदंसो, नामे गोए समो अहिजे ॥ ए॥ अर्थ-एगपएसागाढं के एक एटले अनिन्नपणे जे आकाशप्रदेश जीवें, श्रवगाह्यो बे. तेहीज आकाश प्रदेशे अवगाह्यां जे कर्मदल, तेने एक प्रदेशावगाढ कहीयें, पण एकज श्राकाश प्रदेशे अवगाह्यां, एम अर्थ न करवो, जे जणी कर्मस्कंध पण असंख्यात प्रदेशावगाढ अंगुल असंख्यांश प्रमाण क्षेत्र अवगाढ लीये बे. पण एक प्रदेशावगाढ दल न लीये, तेम जे श्राकाश प्रदेशने विषे जीव अवगाढ ते श्राकाश Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ៤០ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ प्रदेशने विषे कर्म पुजलव्य अवगाढ बे ते रागादिक स्नेह गुणयोगथी श्रात्मप्रदेशने विषे लागे डे पण अनंतर परंपर प्रदेशस्थकर्म पुजलजव्यने गृह्यमाण नथी. हवे जेम तीव्र अग्निने संयोगे पाणी उकालीये तेवारें तलानुं पाणी उपर आवे अने उपरतुं पाणी तलीयें जाय, तेम रागादिक स्नेह गुणयोगें करी श्रात्माना असंख्याता प्रदेश एटले आठ मध्यप्रदेश विना बीजा सर्व प्रदेश ए पूर्वोक्त पाणीनी रीतें थावर्त्त लीये. तिहां आत्मप्रदेशे काषायिक अध्यवसायरूप चीकणता . ते चीकणतायें करी कर्मरूप रज सहित क्षेत्रने विषेज थावर्त करतां जेम चीकणे शरीरें लोटतां शरीरने विषेरज वलगी जाय, बंधाश्जाय, तेम निअसवपएसउँगजि के० पोताना आत्माना सर्व प्रदेश ते अनंतानंत कर्मदलें बंधाय, पण एक प्रदेशे अथवा बे प्रदेशे करी ग्रहे बंधाय नहीं; केमके, जीव प्रदेश सर्वने श्रृंखलावयवनी पेठे परस्पर संबंध विशेषनो नाव . माटें आत्मानो एक प्रदेश कर्मदल ग्रहण करवाने व्यापारतां सर्व प्रदेश व्यापारे. जेम हस्तादिकें करी घटादिक नपाडतां सर्व शरीरें जोर पहोंचे, जेम कोइएक वस्तु लेवाने अर्थे अंगुलि प्रवर्ते तेवारे करतल, मणिबंध, जुजा, खन्नो, ए सर्व परंपरायें बल करे, पण एटलो विशेष के जे अवयव, कार्यने ढुकमा होय ते अवयवोने विषे घणुं जोर पहोंचे, अने जे अवयव कार्यने वेगला वेगला होय, तेने जोर हीन हीनतर पहोंचे, तेम कर्मदल ग्रहतां आत्मप्रदेशने विषे पण हीनाधिक वीर्य जाणवू. हवे ए श्राप कर्मना दलनी नागविजजना कहे जे. जेवारें जीव श्रायुःकर्म बांधे, तेवारें अंतरमुहर्तपर्यंत समय समय जे कर्मदल ग्रहण करे, तेना बाठ नाग करी बाव कर्मने वहेंची दीये, अने जेवारें श्रायुःकर्म न बांधे तेवारें जे कर्मदल ग्रहण करे, ते श्रायु विना शेष सात कर्म बांधतो होय, तेने वहेंची आपे, अने जेवारें दशमे गुणगणे एक श्रायु अने बीजु मोहनीय, ए बे कर्म न बांधे, अने शेष कर्म बांधतो होय, तेवारे जागे वहेंची आपे, अने जेवारें जीव एकज कर्मनो बंधक होय तेवारें तेने नाग पण एकज होय. ते मध्ये थोवोबाउतदंसो के श्रायुःकर्मना जागनो अंश थोमो जाणवो. जे नणी बीजा कर्मनी अपेक्षायें आयुःकर्मनी स्थिति थोडी बे. तेथी तेनां दल पण थोमां होय, थोडे कालें नोगवी खपावे, ते माटें. अने ते थकी वली नामेगोएसमोअहि के नामकर्म अने गोत्रकर्म, ए बे कर्मनो नाग विशेषाधिक जाणवो. जो पण श्रायुःकर्मनी तेत्रीश सागरोपम स्थिति थकी नाम अने गोत्र, ए बे कर्मनी स्थिति वीश कोमाकोमी सागरोपम प्रमाण , ते आयुःकर्मनी स्थिति थकी संख्यातगुणी बे, ते अपेक्षायें संख्यातगुणो नाग लाने ले तथा मनुष्य तिर्यंचना जघन्य अंतरमुहूर्तादि Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ कायुनी अपेक्षायें असंख्यातगुणो नाग लाने डे, पण आयुःकर्म आखा जव मध्ये एकज वार बंधाय, ते अंतरमुहूर्त्तपर्यंत बांधे, अने बीजां कर्म तो जीव सर्वदा निरंतरपणे बांधे बे. ते माटें थोडा कालमा आयुनां दल घणां मेलवां पके, ते कारणथी नाम अने गोत्रकर्मनो नाग विशेषाधिक कह्यो, अने ए बेहुनो नाग, परस्पर तुख्य स्थिति जणी समो एटले सरखो जाणवो. ॥ एं॥ विग्घावरणे मोदे, सबोवरि वेणी जेणप्पे ॥ तस्स फुडतं न हवश्, हि विसेसेण सेसाणं ॥ ७० ॥ अर्थ-नामकर्म अने गोत्रकर्मना दलथकी विग्घ के अंतराय कर्म, अने आवरणे के ज्ञानावरणीयकर्म अने दर्शनावरणीय कर्म, ए त्रण कर्मनी उत्कृष्टी स्थिति त्रीश कोमाकोडी सागरोपमनी जे. ते जणी वीश कोमाकोडी थकी विशेषाधिक होय, माटें ए त्रणनो नाग, विशेषाधिक जाणवो; अने ए त्रणने माहोमांहे तुस्य स्थिति नणी तुल्य नाग एटले सरखे नागें आवे तथा एत्रण कर्म थकी वली मोहे के मोह. नीय कर्मनो नाग विशेषाधिक जाणवो. जे लणी मोहनीयनी स्थिति त्रीश कोडाकोमी सागरोपमश्री बमणी जाजेरीबे, अने त्रिगुणीथी हीन माटें संख्यातगुणी कहीये. एम मध्ये पण दर्शनमोहनीयनी सीत्तर कोमाकोडीनी स्थिति बे, अने चारित्रमोहनीयनी चालीश कोमाकोडी सागरोपमनी स्थिति बे, तेणे स्थितिविशेष करी दलनागर्नु पण विशेषाधिकपणुं ले. ए उक्तमात्र बे. परमार्थथी तो श्रीजिनवचन प्रमाण करवू तथा एक समय एक अध्यवसायें ग्रहीत पुजल श्रावे कर्मपणे प. रिणमे . अहीं जीवनी शक्ति अचिंत्य ले, अने पुमलनो परिणाम विचित्र ते माटे एमां आश्चर्य न समजवू. ___ सबोवरिवेणी के सर्वोपरि सर्व थकी अधिक वेदनीयकर्मनो नाग होय, एटखें मोहनीयना नाग थकी पण वेदनीय कर्मनो नाग विशेषाधिक होय, जे जणी जो पण मोहनीयनी स्थिति थकी ए कर्मनी स्थिति विशेष हीन बे, तो पण मोहनोयना दल उत्कृष्ट रसें डे, अने वेदनीयना दलनो रस अघाती , ते नणी मंदरस होय. जेम घेश, राब प्रमुखनो रस अव्य घणो होय, तोज कुधा उपशमे अने दूध, दही, शिखरणी, खमि तथा घृतादिक अस्प अव्ये पण दुधा उपशमे, तथा पाषाणादिक घणे ऽव्य संबंधे मरण नीपजे, अने विषादिक अल्प अव्य संबंधे पण मरणादिक कार्य नीपजे; तेम मोहनीयादिक कर्मना तीन रस दल ने ते श्रोमा होय, तो पण पोतानुं कार्य आत्मगुण घातवारूप करे, अने वेदनीय कर्मना दल मंदग्स न । Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६न्‍ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ घणां मले, तोज ते पोतानुं कार्य पौलिक सुख दुःखानुजवरूप प्रकट करी शके, पण थोडे द स्वकार्य प्रकट करी न शके. . · जेणप्पे के० जे मार्टे वेदनीयनो जाग अल्प होय तो तस्सफुकतंनहवइ के० ते वेदनीयनुं स्फुटपं एटले सुख दुःखादिकनो अनुभव स्पष्ट न होय. ए स्वजावेंज वेदनयना पुजल घणा मले, तेवारें स्वकार्य करवाने समर्थ थाय, पण थोडे दर्जे वेदनीय. प्रकट न होय. ते माटें वेदनीयनी थोमी स्थिति बतां पण दलनो जाग महोटो जावो, विसेसेणसे साणं के० शेष बीजा सात कर्मना प्रदेशना नागनुं नापि स्थिति विशेष होय, एटले स्थितिनी अपेक्षायें होय. जे कर्मनी स्थिति अधिक ते कर्मनो प्रदेश जाग पण अधिक अने जे कर्मनी स्थिति हीन ते कर्मनो प्रदेश जाग पण हीन होय. ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ ८० ॥ एम मूल प्रकृति जाग रचना कही. हवे उत्तर प्रकृतिने विषे जाग रचना कहे बे. नि जाइ स६ दलिया, एतंसो दोइ सबधाईणं ॥ बसंतीण विजज, सेसं सेसाण पइ समयं ॥ ८१ ॥ अर्थ - तिहां घातिनी प्रकृति मध्यें निजाइ के० पोतपोतानी जातिनी प्रकृतिमध्ये जे जाग लद्ध के० लाधो, ते दलिा के० दलमांहेलो रसदलनो तसोहो६सबधाई के अनंतमो जाग सर्व घातीनी प्रकृतिने थापी ने शेष रसदल जाग जे रहे, ते ते समय बसंतीणविजय के० बंधाती एवी जे देशघातिनी प्रकृति तेने वहेंची श्रपीयें, ते रीत देखाडे बे. प्रथम ज्ञानावरणीय कर्मनो मूलजाग लाधो, तेनो अनंतमो जाग केवलज्ञानावरपणे परिमे, जे जणी कर्म दल मध्ये अत्यंत सरस स्निग्ध दल थोमा होय, ते दल सर्व घातिनी प्रकृति लहे, अने शेष दल जे रहे ते मतिज्ञानावरणादिक चार प्रकृति देशघातिनी बे, तेने परिणमे तथा दर्शनावरणीयनो जे मूल नाग लाधो, तेनो अनंतमो जाग अत्यंत सरस दल पांच निद्रा तथा बहुं केवलदर्शनावरणीय, ए प्रकृति सर्व घातिनीबे तेने व जागे बहेंची श्रापीयें अने शेष रह्यो जे नीरस जांग, ते चक्षुदर्शनावरणादिक ऋण प्रकृति जे देशघातिनी बे, तेने वर्हेची श्रापीयें. तथा शाता, अशाता ए वे प्रकृति बंध विरोधिनी बे. ते जणी एक समये एकज प्रकृति बंधाय, तेथी एने जाग वहें वो नथी. तथा मोहनीयनो मूलजाग जे लाने, तेनो अनंतमो सरस दल जाग, ते बे जागें वर्हेची यें तेमध्यें एक दर्शनमोहनीयनें ने एक चारित्रमोहनीयनें पीयें, वजता For Private Personal Use Only Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ ६५३ चारित्रमोहनीयना वली बार नाग करीये ते बंधाता अनंतानुबंधीया चार तथा थप्रत्याख्यानीथा चार श्रने प्रत्याख्यानीथा चार, एवं बार प्रकृतिने वहेंची थापीयें, अने शेष रह्या जे देशघाती रसवंत दल तेना बे नाग करी, कषाय तथा नोकपायमोहनीयने वहेंची आपीयें, तेमध्ये कषायनो नाग संज्वलना चारे प्रकृतिने थापीयें, अने नोकषायनो नाग एक वेद, एक युगल, जय श्रने जुगुप्सा, ए पांच प्रकृतिने वहेंची थापीयें, तथा आयुःकर्म एकज गति श्राश्रयी बंधाय, तेथी एनो जाग न वहेंचाय. नामकर्मनो मूलनाग जे श्रावे, ते उगणत्रीश नागें वहेंचीयें, तेनां नाम कहे . १ गति, ५ जाति, ३ तनु, ४ उपांग, ५ बंधन, ६ संघयण, ७ संस्थान, ७ आनुपूर्वी, ए थी १५ वर्णचतुष्क, १३ अगुरुलघु, १४ उपघात, १५ जश्वास, १६ निर्माण, १७ जिननाम, १० आतप, १ए शुनाशुज विहायोगति, २० थी।ए त्रस दशक अथवा स्थावर दशक, ए गणत्रीश मध्ये जेटली बंधाती होय, तेटले नागें वहेंची, तेमध्ये पण तनु एटले शरीर नामकर्मनी प्रकृतिना त्रण अथवा चार जाग करीयें; तिहां वैक्रिय, आहारक, तैजस अने कार्मण बांधतां चार नाग करीये, तथा औदारिक, तैजस अने कार्मण अथवा वैक्रिय, तैजस थने कार्मण बांधतां त्रण त्रण नाग करीयें, तथा बंध. नना सात नाग तथा अगीवार नाग करीयें, तिहां मनुष्य श्रने तिर्यच प्रायोग्य बांधतां, औदारिकनां बंधन चार, अने तैजस कार्मणनां बंधन त्रण, एवं सात बंधाय, तेवारें सात नागें वहेंचीयें, तथा देवप्रायोग्य नामकर्मनी एकत्रीश प्रकृति बांधतां वैक्रियना बंधन चार, तथा श्राहारकनां बंधन चार अने तैजस कार्मणनां बंधन त्रण, एवं अगीवार बंधाय, तेवारें अगीबार नागें वहेंचीयें तथा वर्ण नामना पांच नाग, गंध नामना बे नाग, रस नामना पांच नाग, स्पर्श नामना श्राप नाग, एवं वीश नाग थाय, अने शेष प्रकृतिना नाग पत्र को थाय नहीं, जे जणी ते प्रकृति बंध विरोधिनी बे, एक बांधतां बीजी न बंधाय, जेम एक गति बांधतां शेष त्रण गति न बं. धाय. एमज जाति, संघयण तथा संस्थानादिक पण एकज बंधाय, तथा प्रसादिक दशक बांधतां स्थावरादिक दशकनी विरोधिनी प्रकृति न बंधाय. गोत्रकर्मनो पण नागी को नथी. एक समये उंच, नीच, ए बे माहेडं एकज गोत्र बंधाय, तथा अंतरायकर्मनो मूलनाग जे श्रावे, ते तेनी उत्तर प्रकृति पांचने जागे वहेंचीये. एम उत्तर प्रकृतिनी दलविनंजना कही. बद्यंतीण विनय के जे प्रकृति बंधाती होय, ते पोतपोतानो प्रदेशदलिक जाग पामे अने बंध विच्छेदे तेनो नाग जे बीजी सजातीय प्रकृति बंधाती होय ते पामे; थने Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ចម शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ सजातीय न बंधाती होय तो विजातीयने पण नाग श्रावे, जेम थीणहीत्रिकने बंधविष्ठेदें तेनो नाग निता अने प्रचलाने थावे, अने निझा प्रचलाने बंधविच्छेदें चकुदर्शनावरणादिकने थावे, तथा दर्शनावरणने बंधविछेदें तेनो नाग विजातीय प्रकृति वेदनी ने, तेज तिहां ते गुणगणे बंधाय बे, माटें तेने लाने तथा मिथ्यात्वमोहनीयने बंधविच्छेदें एनी सजातीय दर्शनमोहनीयनी प्रकृतिनो पण बंध नथी, ते जणी विजातीय चारित्रमोहनीयनी प्रकृतिने एनो जाग आवे, तेमध्ये पण सरस दल सर्वघाती प्रकृतिने योग्य जे. ते जणी सर्वघातीआ बार कषाय प्रकृतिने ए नाग दल आवे, ए उत्तरप्रकृतिनुं उत्कृष्टपदें तथा जघन्यपदें एकेकथी प्रदेशना अपबहुत्वपणानो विचार जाणवाने अर्थे नीचे यंत्रस्थापना करी बे. एम कर्म प्रकृतिनी टीकाथकी सर्व उत्तर प्रकृतिना प्रदेशनो उत्कृष्टपदें अल्प बहुस्व विचार समजी, गुरु मुखथी निर्णय करी सविस्तरपणे वखाणवो. ॥अथ यंत्रस्थापना ॥ ॥ तत्र उत्तर प्रकृतिषु उत्कृष्टपदे कर्मदलिकनागाल्पबहुत्वमुच्यते ॥ ॥ श्रथ ज्ञानावरणीयेषु प्रदेशाहप-॥ ॥ अथ वेदनीयेषु प्रदे॥ ॥ बहुत्वं ॥ ॥शाटपबहुत्वं ॥ १ केवलज्ञानावरणस्य उत्कृष्टपदे सर्वस्तोकःकर्मद-१ वेदनीयेऽशातस्य जागः सर्वस्तोकः ।। लिकलागः॥ २ ततोवेदनीयशातस्य विशेषाधिकः॥ २ ततो मनापर्यवज्ञानावरणस्य अनंतगुणाः॥ ॥ अथ मोहनीयेषु प्रदेशा॥ ३ ततोऽवधिज्ञानावरणस्य विशेषाधिकः ॥ ॥ पबहुत्वं ॥ ४ ततःश्रुतझानावरणस्य विशेषाधिकः॥ १ अप्रत्याख्यानमानस्य सर्वस्तोकः ॥ ५ ततोमतिज्ञानावरणस्य विशेषाधिकः ॥ २ ततोऽप्रत्याख्यानक्रोधस्य विशेषाधिकः॥ ॥ अथ दर्शनावरणीयेषु ॥ ३ ततोऽप्रत्याख्यानमायायाविशेषाधिकः॥ ॥ प्रदेशाटपबहुत्वं ॥ । ततोऽप्रत्याख्यानलोजस्य विशेषाधिकः॥ १ दर्शनावरणे प्रचलायाः सर्वस्तोकः॥ एवं प्रत्याख्यानावरणचतुष्कस्यापियथोत्तरं विशे० २ ततोनिघाया विशेषाधिकः॥ ए-१२ एवं अनंतानुबंधिचतुष्कस्यापि यथोत्तरं ३ ततःप्रचलाप्रचलायाविशेषाधिकः ॥ विशेषा ४ ततो निषा निजायाविशेषाधिकः ॥ १३ ततो मिथ्यात्वस्य विशेषाधिकः ॥ ५ ततो स्त्याना विशेषाधिकः ॥ १४ ततो जुगुप्साया अनंत गुणः॥ ६ ततःकेवलदर्शनावरणस्य विशेषाधिकः॥ १५ ततो जयस्य विशेषाधिकः ॥ ७ ततोऽवधिदर्शनावरणस्याऽनं० ॥ १६-१७ ततो हास्यशोकयोरपि विशेषाधिकः ॥ - ततोऽचकुदर्शनावरणस्य विशेषाधिकः ॥ . परस्परं स्वस्थाने तुल्यः॥ ए ततश्चक्षुदर्शनावरणस्य विशेषाधिकः॥ १ए ततोरत्यरत्योर्विशेषाधिकः परस्परं स्वस्थाने तुट्यः Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथः ५ ६७५ २०-२१ ततो स्त्रीनपुंसकवेदयोर्विशेषाधिकः परस्परं ६ ततो वैकिय वैक्रिय तेजस बंधनस्य विशेषाधिकः॥ स्वस्थाने तुट्यः॥ ७ ततो वैक्रिय कार्मणबंधनस्य विशेषाधिकः ॥ २२ ततःसंज्वलन क्रोधस्य विशेषाधिकः॥ ततो वैक्रिय तैजस कार्मण बंधनस्य विशेषाधिकः॥ २३ ततः संज्वलनमानस्य विशेषाधिकः ॥ | ए तत औदारिक औदारिक बंधनस्य विशेषाधिकः॥ २४ ततः पुंवेदस्य विशेषाधिकः॥ १० तत औदारिक तैजस बंधनस्य विशेषाधिकः ॥ २५ ततः संज्वलनमायाया विशेषाधिकः ॥ ११ तत औदारिक कार्मण बंधनस्य विशेषाधिकः ॥ २६ ततः संज्वलनलोलस्य संख्यातगुणः॥ १२ तत औदारिक तैजस कार्मण बंधनस्य विशेषा४ चतुर्णामायुषामपि स्वस्थाने तुभ्यः॥ धिकः॥ ॥ अथ नामोत्तरप्रकृतेः प्रदेशाटपबहुत्वं ॥ १३ ततस्तैजस तैजसबंधनस्य विशेषाधिकः ।। १-२ नामकर्मणि देवनरकगत्योः सर्वस्तोकः परस्परं १४ तत स्तैजस कार्मण बंधनस्य विशेषाधिकः ॥ १५ ततः कार्मणकार्मण बंधनस्य विशेषाधिकः ॥ स्वस्थाने तुल्यः ३ ततो मनुष्यगतविशेषाधिकः॥ ॥ संस्थानेषु खट्पबहुत्वं ॥ ४ ततो तिर्यग्गतेर्विशेषाधिकः ॥ १-४ संस्थानेषु मध्यसंस्थानचतुष्के सर्व स्तोकः परस्पर ॥ जातिपंचकेषु स्वदृपबहुत्वं ॥ स्वस्थाने तुझ्यः॥ १- जातिषुधींद्रियादिजातिचतुष्के सर्वस्तोकः स्व ५ ततः समचतुरस्रस्य विशेषाधिकः॥ स्थाने समः॥ | ६ ततो हुंमकस्य विशेषाधिकः ॥ ५ तत एकेंद्रिय जाति विशेषाधिकः ॥ ॥ संघयणेषु स्वदृपबहुत्वं । ॥शरीरनामकर्मणि अपबहुत्वं ॥ १-५ संहननेषु श्राद्यपंचकस्य तुल्यः स्तोकः॥ १ शरीरेषु आहारकस्य सर्वस्तोकः ॥ ६ ततः सेवार्तस्य विशेषाधिकः ॥ २ ततोवैक्रिय शरीरस्य विशेषा० ॥ ॥वर्णेषु स्वरूपबहुत्वं ॥ ३ ततऔदारिकशरीरस्य विशे० ॥ १ वर्णेषु कृष्णस्य सर्वस्तोकः॥ ४ ततो तैजस शरीरस्य विशेषाधिकः ॥ २ ततो नीलस्य विशेषाधिकः॥ ५ ततः कार्मण शरीरस्य विशेषा ३ ततो लोहितस्य विशेषाधिकः ॥ ५ एवं संघातन पंचकस्यापि. । ततो हारिदस्य विशेषाधिकः ॥ ॥ उपांगेषु स्वरूपबहुत्वं ॥ ५ ततः शुक्लस्य विशेषाधिकः॥ १ उपांगेषु आहारकोपांगस्य स्तोकः ॥ ॥गंधेषु स्वटपबहुत्वं ॥ २ ततो वैक्रियोपांगस्य विशेषाधिकः । १ गंधयोर्मध्ये सुरलेः सर्वस्तोकः ॥ .. ३ ततश्रौदारिकोपांगस्य विशेषा० ॥ २ ततो पुरलिगंधस्य विशेषाधिकः ॥ ॥ बंधनेषु स्वदृपबहुत्वं ॥ ॥ रसेषु स्वटपबहुत्वं ॥ १ श्राहारकाहारकबंधनस्य सर्वस्तोकः ॥ १ रसेषु तिक्तरसस्य सर्वस्तोक लागः॥ २ तत आहारक तैजस बंधनस्य विशेषाधिकः॥ २ ततः कटुकस्य विशेषाधिकः ॥ ३ तत थाहारककामणबंधनस्य विशेषाधिकः॥ | ३ ततः कषायस्य विशेषाधिकः॥ ४ तत श्राहारक तैजसकामणबंधनस्य विशेषाधिकः । ततः आम्लस्यत्नागो विशेषाधिकारी ५ ततो वैक्रिय बंधनस्य विशेषाधिकः ॥ । ५ ततो मधुरस्य नागो विशेषाधिकः ॥ Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७६ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ ॥ पछेषु स्वरूपबहुत्वं ॥ ॥अथ जघन्यपदे उत्तर प्रकृतिषु ॥ १-२ स्पर्शेषु कर्कशगुरुस्पर्शयोः सर्वस्तोकः॥ ॥ कर्मदलिकनागाटपबदुत्वमुच्यते ॥ ३-४ ततो मृमुलघुस्पर्शयोर्विशेषाधिकः॥ | १ तत्र केवलज्ञानावरणस्य, जघन्यपदे कर्मदलिक ५-६ ततो रूक्षशीतयोर्विशेषाधिकः॥ जागः सर्वस्तोकः॥ ७-८ ततः स्निग्धोमयोर्विशेषाधिका यत्र सर्वत्र युग्मेषु २ ततोमनःपर्यवज्ञानावरणस्यानंत ॥ परस्परस्तुट्यः॥ | ३ ततोऽवधिज्ञानावरणस्य विशेषाधिकः ॥ ॥श्रानुपूर्वीषु स्वट्पबहुत्वं ॥ ततःश्रुतज्ञानावरणस्य विशेषाधिकः ॥ १-श्यानुपूर्वीषुदेवनारक्यानुपूर्वीषु सर्वस्तोका परस्परं ५ ततो मतिज्ञानावरणस्य विशेषाधिकः ॥ तुष्टयः॥ ॥दर्शनावरणेषु स्वरूपबहुत्वं ॥ ३ ततो मनुष्यानुपूर्विशेषाधिकः ॥ १ दर्शनावरणे निजायाः सर्वस्तोकः ।। ५ ततो तिर्यगानुपूर्वेर्विशेषाधिकः ॥ २ ततःप्रचलायालागो विशेषाधिकः॥ १ खगतिघये प्रशस्त खगतेः स्तोकः ॥ ३ ततो निजानित्रायाः लागो विशेषाधिकः ॥ १ ततोऽप्रस्थखगतेर्विशेषाधिकः ॥ । ततः प्रचला प्रचलाया विशेषाधिकः॥ ॥त्रसविंशतिकेषु स्वरूपबहुत्वं ॥ ५ ततः स्त्याना विशेषाधिकः ॥ १ त्रसविंशतितोत्रसनाम्नः सर्वस्तोकः ॥ ६ ततः केवल दर्शनावरणस्य विशेषाधिकः ॥ २ ततः स्थावरजागो विशेषाधिकः ॥ ७ ततोऽवधिदर्शनावरणस्य अनंत विशेषाधिकः॥ ३ एवं बादरस्य लागः स्तोकः॥ तत अचक्षुदर्शनावरणस्य विशेषाधिकः ॥ ४ ततः सूक्ष्मस्य विशेषाधिकः ॥ ए ततश्चक्षुदर्शनावरणस्य विशेषाधिकः ॥ ५-६ एवं पर्याप्तादप्यपर्याप्तो विशेषाधिकः॥ ॥ वेदनीयेषु स्वपबहुत्वं ॥ 3-२० एवं प्रत्येकेपिघयोध्यो आतपद्योतयोः समं - सन १ वेदनीयेऽशातस्य लागः स्तोकः॥ ___समं वाच्यः परस्परं तुट्यः ॥ | २ ततःशातस्य जागो विशेषाधिकः ॥ ६ निर्माणो १ लास २ पराघातो ३ पघात ४ अगु ॥ मोहनीयेषु स्वट्पबहुत्वं ॥ रुखघु ५ जिननाम ६ अटपबहुत्वं नास्ति परस्परंसजातीय प्रतिपक्षापेक्षालावात् ॥ १ अप्रत्याख्यान मानस्य सर्वस्तोकः ॥ ॥ गोत्रकर्मणि स्वरूपबदुत्वं ॥ २ ततोऽप्रत्याख्यानक्रोधस्य विशेषाधिकः ॥ १ गोत्रयोनींचैर्गोत्रस्यलागः सर्वस्तोकः ॥ ३ ततोऽप्रत्याख्यानमायायाविशेषाधिकः ॥ ५ तत उच्चैर्गोत्रस्यजागो विशेषाधिकः ॥ | ततोप्रत्याख्यान लोनस्य विशेषाधिकः ॥ ॥अंतरायकर्मणि स्वपबहुत्वं ॥ ५-१२ एवं क्रमेण प्रत्याख्यानावरणाऽनंतानुबंधि च । तुष्कयारपि विशेषाधिकः ॥ १ अंतरायेषु दानांतरायस्य सर्वस्तोकः॥ . १३ ततोमिथ्यात्वस्य जघन्य जागो विशेषाधिकः ॥ .२ ततो सालांतरायस्य विशेषाधिकः॥ . १४ ततो जुगुप्साया लागोऽनंतगुणः ॥ ३ ततो जोगांतरायस्य विशेषाधिकः ॥ १५ ततो जयस्य विशेषाधिकः ॥ ४ ततोपनोगांतरायस्य विशेषाधिकः १७ततोहास्यशोकयोर्विशेषाधिकस्वस्थानेपरस्परंतुट्यः ५ ततो वीर्यातरायस्य नागो विशेषाधिकः॥ ॥इति उत्तरप्रकृतिषूत्कृष्टपदे कर्मदलिकलागाइप २०-२५च्यन्यतरस्य वेदस्य नागो विशेषाधिकः ॥ १०-१एततोर त्यरत्योर्विशेषाधिकः परस्परं स्वस्थाने. बहुत्व यंत्रक ज्ञेयं ॥ Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ ច១ २६ ततः क्रोधादिचतुणों संज्वलनानायथोक्तं विशे) ३ ततोऽऽहारकोपांगस्यासंख्येयगु० ॥ - ॥आयुषि स्वदपबहुत्वं ॥ ॥श्रानुपूर्वीषु स्वदृपबहुत्वं ॥ १-२ श्रायुषि तिर्यग्नरायुषोः सर्वस्तोकः ॥ १-२ श्रानुपूर्वीषु नरकदेवगत्यानुपूर्योःसर्वस्तोकापर३-४ ततो देवनरकायुषोऽसंख्येयगुणः ॥ - स्परं स्वस्थाने तुट्यः॥ नामकर्मणि स्वट्पबहुत्वं ॥ ३ ततो मनुष्यानुपूर्व्या विशेषाधिकः ॥ १ ततस्तिर्यग्गतेः सर्वस्तोकः ॥ . ततस्तिर्यग्गत्यानुपूर्व्या विशेषाधिकः ॥ १ ततो मनुष्यगतेर्विशेषाधिकः॥ ॥ त्रसघिंशतिषु स्वपिबहुत्वं ॥ ३ ततो देवगतेरसंख्येयगुणः॥ १ त्रसविंशतस्त्रसनाम्नः सर्वस्तोकः ।। । ततो नरकगतेरसंख्येयगुणः ॥ २ ततः स्थावरनाम्नः विशेषाधिकः॥ ॥ जातिषु स्वट्प बहुत्वं ॥ ३-२० एवं बादर सूक्ष्मयोः पर्याप्ताऽपर्याप्त प्रत्येक जातिषुधींजियादिजातिचतुष्के सर्वस्तोकः परस्परं साधारणयोश्च स्तोकः ॥ ५ तत एकेंजियजातेर्विशेषाधिकः ॥ २१-श्रवशिष्ट विचत्वारिंशत प्रकृतीनां जघन्या_॥शरीरेषु स्वस्प बहुत्वं ॥ दृपबहुत्वं उत्कृष्टवत् ज्ञेयं॥ १ शरीरेषु औदारिक शरीरे सर्वस्तोकः ॥ ॥ गोत्रेषु स्वट्प बहत्वं ॥ ५ ततस्तैजसशरीरस्य विशेषाधिकः ॥ १ गोत्रेषु नीचैर्गोत्रस्य लागःस्तोकः ॥ ३ ततःकार्मण शरीरस्य विशेषाधिकः ॥ २ तत उचैर्गोत्रस्य विशेषाधिकः ॥ ४ ततोवैक्रियशरीरस्यासंख्येयगु० ॥ . ॥अंतरायेषु स्वष्टप बहुत्वं ॥ . ५ ततोऽऽहारकस्यासंख्येयगुणः॥ १ अंतरायेषु दानांतरायस्य सर्वस्तोकः ॥ ६-२० एवं संघातनेषु बंधनेषु स्वपि वाच्यः । १ ततो खालांतरायस्य विशेषाधिकः॥ ॥अंगोपांगेषु स्वरूपबहुत्वं ॥ ३ ततो नोगांतरायस्य विशेषाधिकः ॥ . १ अंगोपांगेषु स्वौदारिकोपांगस्यस्तोकः॥ तत उपनोगांतरायस्य विशेषाधिका १ ततोवैक्रियोपांगस्य असंख्येय० ॥ | ५ ततो वीर्यातरायस्य विशेषाधिकः ॥ । हवे कर्मना प्रदेश वेद्या विना अवश्य निर्धारा न थाय, यद्यपि स्थिति तथा रस ए बे तो वेद्या विना पण शुज अध्यवसायें करी तथा तपसंयमें करी स्थितिघात तथा रसघात करी कर्म निरें, पण प्रदेश सर्व वेदे, तेवारेंज तेनी निर्जरा थाय माटें ते प्रदेश वेदवाने जीव, सम्यक्त्वादिकगुणे करी थोडे कालें घणा प्रदेश निर्जरवाने श्रर्थे वेद्यमान दलने विषे उपरना दल समय समय असंख्यात गुणाकारें सं. क्रमावे, ते जणी एने गुणश्रेणी कहीये. ते गुणश्रेणी अंगीथार बे, ते कहेले. ॥अथ नागसब्धं दसिकगुणश्रेणीरचनयैव क्षिप्यते ॥ . सम्म देस सव्व विरई, अण विसंजोअ दंस खवगे॥ मोदसम संत खवगे, खीण सजोगीअर गुण सेढी ॥२॥ अर्थ-एक सम्म के० सम्यक्त्व प्रत्ययिकी, बीजी देस के० देशविरति प्रत्ययिकी, Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ខ្ញុំ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ त्रीजी सबविर के सर्वविरति प्रत्ययिकी, चोथी श्रण विसंजोश्र के अनंतानुबंधिनी विसंयोजनायें गुणश्रेणी करे, पांचमी दंसखवगेश्र के दर्शनमोहनीय खपावतां गुणश्रेणी करे, बही मोहसम के चारित्रमोहनीय उपशमावतां गुणश्रेणी करे, सातमी संत के उपशांतमोहनीय गुणश्रेणी, आठमी खवगे के० रूपकश्रेणीयें गुणश्रेणी करे, नवमी खीण के क्षीणमोह गुणश्रेणी, दशमी सजोगीअर के० सयोगी केवली गुणश्रेणी अने अगीधारमी ते थकी इतर अयोगी केवलीनी गुणश्रेणी, ए अगीआर गुणसेढी के० गुणश्रेणी जाणवी. ॥ ७ ॥ १ प्रथम सम्यकत्व निमित्तें ग्रंथिनेद करता तथा बीजो अपूर्वकरण करतां स्थितिघात, रसघात, गुणश्रेणी, अपूर्वबंधन, ए चार वानां करतां, प्रति समये असंख्यातगुणी निर्जरा वधारतो जाय, तेम अपूर्व निवृत्तिकरणे पण जाणवो. अने सम्यक्त्व पाम्या पली पण सम्यक्त्व प्रत्यये करी अंतरमुहर्त प्रमाण शेषकर्मदल खपाववाने गोपुडाकारें दलरचना करे, ते प्रथम सम्यक्त्व गुणश्रेणी जाणवी. ए अन्य श्रेणीनी अपेक्षायें सम्यक्त्व प्रत्ययिकी मंद विशुछिनणी दीर्घ अंतरमुहर्ते वेदवा योग्य अने अल्प प्रदेशिक एवी गुणश्रेणी करे. २ ते थकी देशविरति निमित्त श्रपूर्वकरण करतो पहेली गुणश्रेणीना अंतरमुहूतथी संख्यात गुण हीन एवां अंतरमुहूर्ते वेदवा योग्य श्रने पूर्वली श्रेणीथी असं. ख्यात गुण वृद्धि प्रदेशिक दसरचनायें, देशविति गुण प्रत्ययिकी श्रेणी, ते प्रथम गुणश्रेणिनी निर्जराथकी असंख्यातगुणी निर्जरावंत एवी बीजी गुणश्रेणी करे.. _३ ते देशविरति गुणथकी अनंतगुण विशुकि बांधतो सर्व विरति लब्धि निमित्त अपूर्व करण करतो सर्वविरति गुणप्रत्ययिकी देशविरति गुणश्रेणीना अंतरमुहूर्तथी संख्यात गुण हीन एवी अंतरमुहर्ते वेदवा योग्य असंख्यातगुण वृद्धिप्रदेशात्मक असंख्यातगुण निर्जराहेतु एवी सर्व विरतिरूप त्रीजी गुणश्रेणी करे. ४ ते थकी अनंतगुणविशुछियें अनंतानुबंधीया कषाय विसंयोजतो थको सर्वविरति गुणश्रेणीना आंतरमुहूर्तयकी संख्यातगुणहीन अंतरमुहूर्ते वेदवा योग्य असंख्यातगुण वृदलिक एवी चोथी गुणश्रेणी करे. ५ तेथकी पण अत्यंत विशुद्ध परिणामें पूर्वली गुणश्रेणीना अंतरमुहूर्त थकी सं. ख्यातगुण हीन अंतरमुहूर्ते वेदवा योग्य असंख्यातगुण वृहद लिक त्रण दर्शनमोहनीयने खपाववा निमित्त, गुणश्रेणी करे, ते दायिक सम्यक्त्व प्रत्ययिकी असंख्यातगुण निर्जरारूप पांचमी गुणश्रेणी. जाणवी. ६ तेथकी पण संख्यातगुणहीन एवी अंतरमुहूर्ते वेदवा योग्य असंख्यातगुण वृक्ष Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ ६नए दलिक असंख्यातगुणी निर्जराहेतु चारित्रमोहनीय उपशमावतो अपूर्वकरण अनिवृत्तिकरण गुणगणे गुणश्रेणी करे, ते बही गुणश्रेणी जाणवी. ___ तेथकी अनंतगुणविशुद्धियें उपशांतमोह प्रत्ययिकी संख्यातगुण हीन मुहूर्ते वे. दवा योग्य असंख्यातगुण वृद्धिदलिक उपशांतमोह गुणश्रेणी सातमी. ___ तेथकी अनंतगुणविशुछियें संख्यातगुण हीन मुहूर्ते वेदवा योग्य असंख्यातगुण वृद्धिदलिक असंख्यातगुण निर्जरायें वधती चारित्रमोहनीय खपावतां श्रारमे अने दशमे गुणगणे दलिकरचना करे, ते आठमी गुणश्रेणी. ___ए तेथकी अत्यंत विशुद्ध संख्यातगुणहीन अंतरमुहूर्ते वेदवा योग्य असंख्यातगुण वृद्धिदलिक दीणमोह गुणगणा प्रत्ययिकी गुणश्रेणी नवमी जाणवी. १० तेथकी संख्यातगुणहीन अंतरमुहर्ते वेदवा योग्य असंख्यातगुण वृद्धिदलिक सयोगी केवलीने असंख्यातगुणी निराहेतु दलिक रचना करे, ते दशमी. ११ तेथकी इतर अयोगी गुणगणे कर्म खपाववा निमित्त, सयोगी गुणश्रेणीना अंतरमुहूर्त थकी संख्यातगुण हीन अंतर मुहूर्ते वेदवा योग्य असंख्यातगुण वृद्धिदलिक कर्म दल रचना करे, ते अगीआरमी अयोगीकेवली गुणश्रेणी होय. एम अगीआर गुणश्रेणीनी रचनायें करी बहुकाल वेदवा योग्य कर्म ते अल्प काले निर्धारे॥श्त्यर्थः ॥७॥ ॥हवे गुणश्रेणीनुं स्वरूप कहे .॥ गुणसेढी दल रयणा, णुसमय मुदया दसंख गुणणाए ॥ एअगुणा पुण कमसो, असंख गुण निकरा जीवा ॥ ३ ॥ अर्थ-गुणसेढी के० गुणश्रेणी ते दलरयणा के कर्मदलनी नोगवी वेदीने निर्जरा निमित्त, रचना स्थापना. अणुसमयमुदयादसंखगुणणाए के उदय समयथी मामीने समय समय असंख्यात गुणाकारें वधता दलनुं संक्रमावq एश्रगुणापुणकमसो के० ए गुणश्रेणीना वली अनुक्रमें एकेकथी चढता असंखगुण निराजीवा के० असंख्यात गुण निरावंत जीव होय. पहेली गुणश्रेणीथी बीजीना, बीजी गुणश्रेणीथी त्रीजी गुणश्रेणीना जीव चढतां चढतां वधती वधती निरावंत होय. एम सर्वत्र समजवं. ॥ इत्यक्षरार्थः॥ ' गुणाकारें कर्मदल वेदीने निर्जरा निमित्त कर्मदलनुं व्यवस्थायें स्थापवू, उपरली स्थिति थकी उतारी उतारी उदयावलिनी स्थितिना समय समय स्थितिने विषे असंख्यातगुण वधतुं संक्रमावतां जे दलश्रेणी, ते गुणश्रेणी कहीये. एम थोमे कालें घणां कर्मदल निओरे, तेना सुखावबोध निमित्त थापना करी देखामी . तिहां प्रथम गुणश्रेणीनो काल अपूर्वकरण अने अनिवृत्तिकरण काल थकी किंचि Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ दधिक अंतरमुहर्तमान जाणवो. ते वेद्यमान अंतरमुहर्त्तथी उपरली स्थितिना दलिक उतारी, उतारी, वेद्यमान स्थितिना उदयथी प्रतिसमये असंख्यातगणो असंख्यात. गुणो वधतो चरम समय लगें संक्रमावे, एटले उपरली स्थितिनुं उतारयुं जे दल, ते मध्ये प्रथम समयें स्तोक संक्रमावे. तेथी बीजे समये असंख्यातगुणो संक्रमावे. तेथी वली त्रीजे समये असंख्यातगुणो संक्रमावे. एम समयें, समये, असंख्यात गुणाकारें वधारतो, वधारतो अंतरमुहर्त्तने चरम समय सर्वोत्कृष्ट संक्रमावी, नोगवीने खपावे, पण गुणश्रेणीनो काल वधारे नहीं. ए रीतें सर्व गुणश्रेणीनुं स्वरूप जाणवू. पण एकेकथी श्रेणीनुं अंतरमुहूर्त संख्यात गुण हीन हीनकाल पूर्वली श्रेणीनी अपेक्षायें होय, अने कर्मदल असंख्यातगुणां वधता होय. तिहां देशविरति अने सर्व विरतिपणुं पामतो बे करण करे, पण त्रीजु अनिवृत्तिकरण न करे, तथा देशविरति अने सर्व विरतिश्री आजोगें पड्यो, अने वली जे देशविरत्यादिक पमीवजे, तेवा, पण ते बे करण करे, अने अनाजोगें पड्यो ते करण कस्या विना चढे, ए बे करण करी देशविरति सर्व विरत्यादिक गुण लहे तो जीव अवश्य वधते परिणामें होय. तिहां वधते परिणामें केवारें एक असंख्यात जागाधिक अने केवारें एक संख्यात जागाधिक, केवारें एक संख्यात गुणाधिक अने केवारे एक असंख्यात गुणाधिक दलिक रचना करे. तिहां हीयमान परिणामें ए चारे हीयमान दलिक रचना करे, अने तुल्य परिणामें तुल्य दलिक रचना करे, पण पोतपोतानी गुणश्रेणीनुं अंतरमुहर्त्त सरखुंज होय, तथा अनंतानुबंधियानी विसंयोजना देवता, मनुष्य अने नारकी पर्याप्ता अविरति, सम्यक्दृष्टि देशविरति अने सर्वविरति, ए सर्वत्रण करणे करी करे, तिहां अपूर्वकरण अनिवृत्तिकरण कालें गुणश्रेणी करे. ए मध्ये प्रथम त्रण गुणश्रेणी सम्यक्त्व देशविरति अने सर्व विरतिथी सहसात्कारें पड़ता केटलोएक काल मिथ्यात्वगुणगणे पामीये. ए गुणश्रेणीनी सविस्तर वक्तव्यता कर्मप्रकृति तथा पंचसंग्रहनी बृहत्टीका थकी जाणवी. तथा ए श्रगीआर गुणश्रेणीना जीव अनुक्रमें एकेकथी असंख्यातगुणी निर्जरावंत होय, एटले मिथ्यात्व थकी सम्यक्त्व गुणश्रेणीय अनंतगुण निरा होय. जेम कोइएक वृक्ष पुर्बल रोगाक्रांत चित्तचिंतातुर पुरुष होय, ते जेनी धारा न होय, एवा लूंगा काटें नरेला कूहामायें करी बावलीयां तथा खेरना काष्ट वेढाने कापतो घणो सुःखी थाय, तो पण घणे काले थोमांक कापी शके, अने कोइएक तरुण निरोगी निश्चित दृढ संघयणी पुरुष, तीक्ष्ण एवा सार लोह फरशीयें करी, सूकी एरंड तथा श्राकडानी लाकडी थोमा कालमां पण घणी कापी नाखे, तेम मिथ्यात्वी Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ ६१ जीव धीर्ये हीन थको पोतानां अत्यंत चीकणां कर्म तेने अज्ञानोपहत एवा. बालतपश्चरणादिक नूंग शस्त्र प्रायें करी घणा काले पण अल्प कर्म निरे, अने सम्यकदृष्टि जीव ज्ञानादिक गुणे बलिष्ट होय, माटे तेहना शुनपरिणाम वृद्धियें रसघात स्थितिघातें करी नीरस निःसार एरंड जेवा थयला कर्मोने ते अपूर्वकरणादिक तीक्ष्ण शस्त्रे करी अल्प कालें पण घणा बेदी नाखे, ते माटें गुणश्रेणी गुणश्रेणी प्रत्ये यथोत्तर वीर्यवृद्धिये कर्म निःसार होय. तेने गुणनिर्मलतारूप शस्त्रे करी असंख्यगुणी असंख्यगुणीनिर्जीरा वधे, तिहां सर्वोत्कृष्ट कर्म निर्जरा अयोगी केवलीने होय॥३॥ ॥ एम गुण विशुझिये निर्जरा वधे ते नणी गुणगणानो अंतरकाल कहे . ॥ . पलिआ संखंसमुहू, सासण अर गुण अंतरं हस्सं ॥ गुरु मिलि बे सही, इयरगुणे पुग्गलईतो ॥ ४ ॥ अर्थ-सासण के साखादन गुणगणानुं पलियासंखंस के पट्योपमनो असंख्यातमो नाग जघन्यथी आंतरं जाणवू, जे नणी साखोदन गुणगणुं एक वार स्पर्शी, वली बीजी वेलायें स्पर्श. एने वचमांनो काल तेने सास्वादननुं श्रांतलं कहीये, ते जघन्यथी तो पक्ष्योपमासंख्येय जाग प्रमाण होय, जे जणी कोइएक जीव मोहनीयनी बबीश प्रकृतिनी सत्तायेंथको औपशमिक सम्यक्त्व लही, त्रिपुंज करी, अष्टाविंशति सत्कर्मा थाय, तेवारें पमतां सास्वादनपणुं पामे. तिहांथी वली मिथ्यात्वें जाय, तिहां मिथ्यात्वप्रत्ययें सम्यक्त्वमोहनीय मिश्रमोहनीयने समय समय उवेलता, जवेलता, पक्ष्योपमासंख्येय नाग काल प्रमाण ते मोहनीयनी बे प्रकृतिने उवेली रहे, तेवारें मिश्र तथा सम्यक्त्वनी सत्ता रहित थयो थको बबीश सत्कर्मा थाय, वली पण को एक जीव औपशमिक सम्यक्त्व पामी, तिहांथी साखादनपणुं पामे तेणे एथी हीन श्रांतरं न कहुं तथा जे जीव, उपशम श्रेणीथी पमतो साखादनपणुं पामी वली अंतरमुहर्त्तने आंतरें बीजी वेला उपशमश्रेणी पविजे, ते वली तिहाथी पमतो साखादन गुणगणे श्रावे. ए अपेदायें अंतरमुहर्त्तनुं पण आतलं होय. अंतरमुहर्तना असंख्याता नेद , तथा ए गुणगणानो काल पण अंतरमुहूर्त्तनो बे, अने सर्व गुण. "गणां पण अंतरमुहर्त्तमांहे स्पर्श, अहीं विरोध को नथी. ए रीतें अंतरमुहर्त्तनुं 'आंतरं पण साखादननुं लाने, परंतु ते मनुष्यमध्येंज को एकने होय पण देवादिकने न होय, ते माटें श्रदप जणी श्रहींां विवयु नहीं, तथा बीजे कशे कारणे विवद्युं नहीं. तथा ए सास्वादन थकी श्यरगुण के इतर एटले बीजा मिथ्यात्वादिकथी उपशांतमोहपर्यंतना दश गुणगणानुं अंतरंहस्सं के जघन्यथकी आंतरं मुहू के अंतरमुहूर्त अंतर्मुहुर्तनुं जाणवू. जे नणी कोइएक जीव, उपशमश्रेणीश्री पम्तो मिथ्यात्व गुण Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ६०२ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. 4 - गणे श्रावी वली बीजी वखत चडतो सर्वे गुणवाणां स्पर्श, तेवारें अंतरमुहूर्त्तनुं -यांतरुं नाव. तथा बीजे प्रकारें पण जे मतें एक नवें एकज श्रेणी करे, तिहां चडतां तथा पकतां पण एज श्रांतरं जाववुं. अने की मोह, सयोगी तथा योगी, ए त्रण गुंण्ठापाथी पडवुं नथी, ए गुणवाणां एकज वार श्रावे, माटें एनुं जघन्य तथा उत्कृष्ट प्रांतरुं नथी. हवे ए गुणापानुं गुरु के० उत्कृष्ट प्रांत कहे बे. तिहां मिaि के० मिथ्यात्व गुणानुं बेबसी के० वे वखत बाराह सागरोपम पूर्वकोटी पृथक्त्वें अधिक एटलुं उत्कृष्ट आंतरं जाणवुं, जे जणी कोइएक पूर्व कोट्यायु मनुष्य शुद्धसंयम पाली विजय विमानें तेन्रीश सागरोपमायु जोगवी सम्यक्त्व सहित मनुष्यजव पामी वली मनुष्य जवथी विजय विमानें जाय. एम बाराह सागरोपम सम्यक्त्वें रही वली अंतरमुहूर्त्त मिश्र श्रावी फरी सम्यक्त्व लही त्रण वेला अच्युतगमनें मनुष्य जवांतरें बाराह सागरोपम पूरें, एम एकसो ने बत्रीश सागरोपम पूर्वकोटी पृथक्त्वें अधिक मिथ्यात्व गुणगणानुं प्रांतरुं उत्कृष्टुं जाणवुं. ए मिथ्यात्व विना इयरगुणे के० इतर जे बीजा साखादनथी उपशांतमोह पर्यंत दश गुणवाणां बे, तेनुं उत्कृष्ट प्रांत पुग्गलऊंतो के सूक्ष्म क्षेत्र पुल परावर्त्तनुं अर्द्ध कांइएक ऊणेरुं होय, जे जणी उत्कृष्टो किंचिडून अर्द्ध पुल परावर्त्त प्रमाण शेष संसार ढुंते थके जीव, ग्रंथिनेद करे, तेवार पी ए दश गुणवाणां स्पर्शे, तेणे उत्सूत्र जाषणादिक अत्यंत अशातनायें करी अनंत संसार वधारे तो पण जेणे सम्यक्त्व लघुं ते जीव अर्द्ध पुजल परावर्त्तमांहे सीजे, तेवारें वली सर्व गुणठाणां स्पर्शे, ए अपेक्षायें जाववुं, उपरांत संसारमां न रहे ॥ ८४ ॥ हवे पुल परावर्त्तनुं कालमान समजाववाने प्रथम कालमानना नेद कड़े बे. तिहां त्रीश मुहूर्ते एक अहोरात्र अने त्रीश अहोरात्र एक मास, बे मासें एक ऋतु, त्रण तुर्ये एक छायन, बे छायने (१) एक वर्ष, चोराशी लाख वर्षे (२) एक पूर्वांग चोराशी लाख वागें (३) एक पूर्व, चोराशी लक्ष् पूर्वे (४) एक त्रुटितांग, चोराशी लक्ष् त्रुटितांगे (५) एक त्रुटित, चोराशी लक त्रुटितें (६) एक अटटांग, चोराशी लक अटटांगें (i) एक टट, चोराशी लक्ष दें (८) एक अववांग, चोराशी लक्ष् वांगें (ए) एक अवव, चोराशी लक्ष् अववें (१०) एक हूहूआंग, चोराशी लक्ष् हूहूआंगें (११) एक हूहू, चोराशी लक हूहूएं (१२) एक उत्पलांग, चोराशी लक्ष् उत्पलांगें (१३) एक उत्पल, चोराशी लक्ष् उत्पलें (१४) एक पद्मांग, चोराशी लक्ष् पद्मांगें (१५) एक पद्म, चोराशी लक्ष् पद्मे (१६) एक नलिनांग, चोराशी लक्ष् नलिनांगें ( ११ ) एक नलिन, Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ चोराशी लक्ष नलिने(१७)एक अदिनिकुरांग, चोराश। लद अदिनिकुरांगें(रए)एक श्र. दिनिकुर, चोराशी लद अदिनिकुरें(२०)एक अयुतांग, चोराशी लद अयुतांगे (२१) एक अयुत, चोराशी लद अयुते (२२) एक नयुतांग, चोराशी लद नयुतांगे (२३) एक नयुत, चोराशी लद नयुतें(२४)एक प्रयुतांग, चोराशी लद प्रयुतांगें(२५)एक प्रयुत, चोराशी लद प्रयुते (२६) एक चूलिकांग, चोराशी लद चूलिकांगें (५७) एक चूलिका, चोराशी लद चूलिकायें(२७)एक शीर्षप्रहेलिकांग, चोराशी लद शीर्षप्रहेलिकांगें(रए) एक शीर्षप्रहेलिका, अहीं सुधी संख्यातो काल गएयो आवे. ए शीर्षप्रहेलिकायें श्राटला श्रांक श्रावे ते अंक मांडीयें बैयें. ( ३५७२६३२५३०४३१०२४१९५७ए७३५६ए। ७५६ए६४०६१ए६६JGUG०१३शए६२ ) ए चोपन श्रांक आगल एकसो ने चालीश शून्य मांडीयें, तेवारें एकसो ने चोराणुं अंक थाय. त्यांसुधी संख्याता वर्ष जाणवां. उपरांत गणतां नावे ते माटें पाला तथा समुसादिकनी उपमायें करी समजाव्यु जाय, पण गणतां पार न आवे, तेने असंख्याता कहीयें, ते असंख्याता वर्ष प्रमाण पत्योपम सागरोपम जाणवू, तेनुं स्वरूप समजाववाने गाथा कहे . ॥ ४ ॥ ॥अथ पदयोपमस्वरूपमाह ॥ नहार अ६ खित्तं, पलिय तिदा समय वाससय समए ॥ केसव दारो दीवो, दहि आज तसाय परिमाणं ॥ ५॥ अर्थ- धान्य पट्यवत् पट्योपम, तथा वली सागरवत् सागरोपम जाणवू. तेना प्रत्येकें त्रण त्रण नेद बे. तत्र वालाग्र अथवा वालाग्र खंडोनो प्रतिसमयें उधार के० उद्धरण करवो, ते वे प्राधान्य जिहां तेने प्रथम उद्धार पढ्योपम कहीयें; अने अद्ध के अद्धा एटले काल ते प्रस्ताव थकी वालोग्रोने अथवा वालोग्रोना खंमोने अपहारें प्रत्येके वर्ष शत लक्षण प्राधान्य दे जिहां ते बीजो श्रद्धा पस्योपम कहीये; तथा खित्तं के० क्षेत्र जे श्राकाश प्रदेशरूप तेनुं प्राधान्य जिहां ते त्रीजा देत्र पढ्योपम कहीयें. ए तिहा के० त्रणे प्रकारना पलिय के० पस्योपम तेने प्रत्येकें सूक्ष्म अने बादर एम बे बे नेदें करतां बनेद थाय. तेनुं मान कांशएक विस्तारथी लखीयें बैयें. अनंत परमाणुयें एक व्यावहारिक परमाणु थाय, तेवा आठ परमाणुयें एक त्रसरेणु थाय, तेवा आठ त्रसरेणुयें एक ऊर्ध्वरेणु थाय, आठ उर्ध्वरेणुयें एक रथरेणु थाय, आठ रथरेणुयें एक उत्तरकुरु युगलीयानो वालाग्र थाय. तेवा श्राप वाला महाहिमवंत युगलियानो वालाग्र थाय, तेवा आठ वाला हिमवंत युगलियानो एक वालाग्र थाय, तेवा आठ वाला महाविदेहनरनो वालाग्र थाय, तेवा आठ वालायें जरतनरनो एक वालाग्र थाय, तेवा Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ श्राव वाला एक लीख थाय, श्राप लीखें एक जू थाय, आठ जूयें एक यवमध्य थाय, श्राप यवमध्ये एक अंगुल थाय, एम प्रत्येकें या आठ गुणुं करतां एक उत्सेधांगुल थाय, तेवी चोवीश अंगुलें एक हाथ थाय, तेवा चार हाथें एक धनुष्य थाय, सेवा बे हजार धनुष्ये एक कोश थाय, तेवा चार कोशनो योजन थाय, एवा योजन प्रमाण लांबो, पहोलो, जंडो, श्रनेत्रण योजन तथा एक योजननाब नाग करीये तेवो एक नाग उपर एटली परिधिवालो एवो कूपाकार पालो कल्पीयें, ते मध्ये देवकुरु तथा उतरकुरुना युगलिया एक दिवसना जन्मेला, बे दिवसना जन्मेला, यावत् सात दिवसना जन्मेला, तेना मस्तकना वालाग्र खमने सात वखत आठ आठ खंड करतां एक केशना वाश लाख, सत्ताएं हजार, एकसो ने बावन खंड थाय; तेवा खंमें गंशीने ते पख्य जरीयें, ते एवी रीते गंशीने जरीये, के तेना उपर चक्रवर्तिन कटक चाव्युं जाय, तो पण ध्रसके नहीं तथा गंगा नदीनो प्रवाह तेने नेदी शके नहीं, तथा अनियें करीबले नहीं, वायरे करी एक वालाग्र खंड पण ऊडे नहीं, एवो गंशीने जरीयें. तेमाहेंथी समय के एकेक समयें केसवहारो के एकेक केश खंग काहाडतां थका जेटले कालें ते पालो खाली थाय, तेटलो बादर उद्धार पथ्योपमनो संख्याता समय प्रमाण काल होय, जे नणी ते खंड संख्याताज होय मात्रै संख्यातो काल कह्यो. ए बादर उकार पट्योपम जे कयुं ते सूक्ष्म उद्धारपत्योपम सुखें चित्त आणवाने अर्थं कडं परंतु एनुं बीजं करुं पण कार्य नथी. जे जणी ए अंतरमुहूर्त संख्यात समय प्रमाण होय ते जणी सूक्ष्म उद्धार पढ्योपम उपयोगी होय. प्रर्वे जे वालाग्रखमें पक्ष्य नस्यो बे. ते बादर एकेक खंडना असंख्याता सूक्ष्म खंड कल्पीयें, ते एवा कल्पीयें, के जे एक खंडनो वली बीजो खंड केवली केवलज्ञाने करी पण कल्पी न शके, सतेजवंत नेत्रनो धणी जे जालीमाथी सूक्ष्म पुजल सूर्यना तेजें करी देखे, तेनो असंख्यातमो नाग अथवा बादरपर्याप्त पृथिवीका यिश्रा जीवनुं जेवं सूक्ष्म शरीर होय, तेवडे खंडे करी पूर्वोक्त कूवो जरीयें, ते एकेको खंग समय समय कहामता असंख्याता समय लागे, अर्थात् संख्याता वर्षनी कोटीयें करी ते कूप खाली थाय तेने सूदम उझार पत्योपम कहीये. तेवा दश कोमाकोमी पट्योपमें एक सूक्ष्म उझार सागरोपम थाय तेवा अढी सागरोपमना समय प्रमाण दीवोदहि के असंख्याता छीप समुफ जे. ए सूक्ष्म उझार पक्ष्योपम कडं. तथा तेहीज योजन प्रमाण पत्य बादर वाला जस्यो, तेमध्येजी वाससय के सो सो वर्षे एकेक केशखंग काहाडतां ते पक्ष्य संख्याता वर्षनी कोडी प्रमाण कालें निर्लेप थाय, तेवारें बादर अद्धा पट्योपम संख्याता वर्ष प्रमाण थाय. Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ वली तेहिज खंडना पूर्वोक्त रीतें असंख्याता खंड कल्पी ते कल्पना खंम सो सो वर्षे एकेक कहामतां जेवारे ते पक्ष्य निर्लेप थाय, तेवारे सूदम अद्धापक्ष्योपम असंख्याता वर्षनी कोडी प्रमाण थाय. तेवा दश कोडाकोडी सूक्ष्म श्रद्धापट्योपमें एक सूदम अझा सागरोपम थाय, तेवा वली दश कोडाकोडी सागरोपमें एक अवसर्पिणी काल थाय, अने वली एक उत्सर्पिणी काल पण थाय, ए अवसर्पिणी तथा उत्सर्पिणीना बेहुकाल मली वीश कोमाकोमी सागरोपमें एक कालचक्र थाय, ए सूदम अझापढ्योपम अने सागरोपमें करी देवता, नारकी, मनुष्य अने तिर्यचनुं बाउ के श्रायुनुं मान तथा कर्म स्थितिमान तथा काय स्थितिमान तथा नव. स्थितिनुं कालमानादिक मवीयें, ए चोथु सूदम अमापस्योपम कडं, एटले ए सूक्ष्म अहासागरोपमना अनंता पुजल परावर्ते अतीत श्रद्धा तथा अनंता पुजलपरावर्त्त अनागत श्रद्धा एटले अनागत अमानी अनंतता बे, अने अतीत अद्धानी श्रादि नथी, तेथी बेहुने समानपणुं . अन्य आचार्य वली एम कहे डे, के अतीत असाथकी अनागत अहा अनंतगुणा बे. तेनी नावना एम डे, के जो पण समयादिकें करी अनागत असाहीयमान , तो पण अनागत अमानो दय नथी थतो ते माटें अतीत अझा थकी अनागत अफा अनंतगुणी . सांप्रत बे प्रकारना क्षेत्र पट्योपमनुं निरूपण करीयें बैयें. ते प्रर्वोक्त वालाग्रखंमें करी जस्यो जे पट्य ते मध्ये कल्पना करेला वाला स्पा जे आकाशप्रदेश तेमांहेथी एकेक आकाश प्रदेश समए के समय समय कहोडतांजेवारे सर्व वालाग्र स्पष्ट आकाश निर्लेप थाय, तेवारे असंख्याती उत्सर्पिणी थने अवसर्पिणी कालप्रमाण एक बादर क्षेत्र पख्योपम थाय. ते पल्यना सूक्ष्म एकेका वालाग्रने स्पा श्राकाशप्रदेश तथा अणस्पा एवा समस्त आकाशप्रदेशने समय समय कहामतां जेवारे ते पक्ष्य निर्लेप थाय, तेवारें पूर्वोक्त बादर क्षेत्र पस्योपमना कालमान थकी असंख्यातगुणो असंख्याती उत्सपिणी अने अवसर्पिणी प्रमाण सूक्ष्म देत्र पट्योपमनुं कालमान थाय, तेवा दश कोकाकोडी सूक्ष्म देत्र पस्योपमें एक सूक्ष्म क्षेत्र सागरोपम थाय, एणे करी तसायपरिमाणं के प्रसादिक जीवनुं परिमाण करवू, एटले दृष्टिवादने विषे अव्य प्रमाण चिंतवीयें तथा पृथिव्यादिक एकेंजिय त्रसांत जीवन परिमाण करीयें तेने विषे एनुं प्रयोजन बे. अहीं शिष्य पूजे जे के, जो स्पष्ट, अस्पष्ट, ननःप्रदेश अहीं सूदम क्षेत्र पट्योपमें करीने ग्रहण करीयें बैयें, तो वालाग्रोनुं शुं प्रयोजन ? यथोक्त पक्ष्यांतरगत नजःप्रदेशापहार मात्रश्रीज सामान्यपणे कहेवु उचित . तत्र गुरु कहे , के ए Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०६ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ս सत्य बे, किंतु सूक्ष्म क्षेत्र पल्योपमें करी दृष्टिवादने विषे द्रव्य मवीयें ढैयें ते केटarएक यथोक्त वालाग्र स्पष्ट नजः प्रदेशें करी मवीयें बैयें, अने केटलाएक अस्पष्ट नजः प्रदेशें करी मवीयें ढैयें, माटें दृष्टिवादोक्त द्रव्यमानोपयोगीपणाथ की वा लाय प्ररूपणा प्रयोजनवाली बे. एम त्रण सूक्ष्म पल्योपम शास्त्रने विषे उपयोगी होय, छाने त्रण बादर पल्योपम कह्या, ते सूक्ष्मपब्योपमना सुखावबोध थवा माटें कया. अहीं प्रायें घणुंतो सूक्ष्म श्रद्धापस्योपमनुं प्रयोजन बे, ते श्रद्धापल्योपमें करी वीश कोडाकोमी सागरोपमनुं कालचक्र थाय, तेवा अनंतें कालच एक पुजलपरावर्त्त थाय, एवा छानंत पुलपरावर्त्त अतीत श्रद्धा यतिक्रम्या ते जणी एनेविषे पुल परावर्त्त एवी संज्ञा करीयें. जो पण पुल परावर्त्त एवी संज्ञा मुख्यपणे द्रव्यपरावर्त्तने विषे होय. केम के औौदारिका दिक पुलनी परावर्त्त एवी संज्ञा होय बे ते मुख्य कदेवाय, तथापि व्याकाशप्रदेश समय अध्यवसाय परावर्त्ते क्षेत्र, काल ने जाव परावर्त्तादिकने विषे पण जे पुल परावर्त्त एवी संज्ञा करवी ते गौणपणे जाणवी तथा आशांबरमतें नवपरावर्त्त पण मान्युं बे. पण ते हींयां न लीधुं ॥ ८५ ॥ • ॥ दवे पुलपरावर्त्तना आठ भेदनुं स्वरूप त्रण गाथायें करी कहे. ॥ दवे खित्ते काले, जावे चन्द डुद बायरो सुहुमो ॥ होइ प्रस्सप्पिणि, परिमाणो पुग्गल परहो ॥ ८६ ॥ अर्थ- दधे के० द्रव्य पुल परावर्त्त, खित्ते के० क्षेत्र पुल परावर्त्त, काले के० परावर्त्त, जावे के० जाव पुजल परावर्त्त, एम चउह के० चार नेदें पुल 'परावर्त्त बे, ते वली एकेको बायरो के० बादर ने सुमो के सूक्ष्मना दें करी उद के० बे बे प्रकारें होइ के० होय. तुस्सप्पिणि परिमाणो के० अनंती उत्सर्पिणीने अवसर्पिणी काल प्रमाण पुग्गल परहो के पुल परावर्त्तनुं कालमान जावं. ॥८६॥ एक बादर द्रव्यपुलपरावर्त्त, बीजो सूक्ष्म द्रव्य पुलपरावर्त्त, त्रीजो बादर क्षेत्र पुलपरावर्त्त, चोथो सूक्ष्म क्षेत्र पुलपरावर्त्त, पांचमो बादर काल पुलपरावर्त्त, सूक्ष्म काल पुल परावर्त्त, सातमो बादर जावपुलपरावर्त्त, आठमो सूक्ष्म जावलपरावर्त्त. हिंयां कोइएक नवपुलपरावर्त्त सूक्ष्म तथा बादर एम पण माने बे. ते मतें दश ज्ञेद कहे बे. पण स्वमतें तो घाव नेदज का बे. तिहां पूर्णगलन स्वाव तेने पुजल कहीयें. ते अणुने मलवे तथा विघटवे करी जे स्कंधनो नेद ते पुलस्कंध कहीयें, ते सर्व जीवथकी अनंतगुणा बे. सर्व लोकाकाशप्रदेश अनंतानंत पुलस्कंधें जरयो बे. ते जेटले कालें जीव सर्व अणुस्कंध श्रदा For Private Personal Use Only Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ ६०० रिकादिक शरीरपणे ग्रहीने मुके, तेटले काले बादरअव्य पुजलपरावर्त एवी सामान्य संज्ञा होय. ए बाउ जातिना पुजल परावर्त कह्या ले. ते मध्ये पण चार जातिना बादर पुजल परावर्त जे कह्या बे ते सूक्ष्म पुजल परावर्तना सुखावबोधने अर्थ कह्या बे. जे मूढमति, सूक्ष्म पुजल परावर्तन स्वरूप न समजे, तेने बादरनुं स्वरूप समजावीयें, ते बादरना स्वरूपनी समजणमां मति नेदाय तो पनी सूक्ष्म पुजल परावर्त्तनुं खरूप पण सुखें समजी जाय, ते नणी बादर कह्या जे. बीजुं जिहाँ पुजल परावर्त काल शास्त्रे कह्यो तिहां तो सर्व सूक्ष्म पुजल परावर्त लेवा, केमके तेहिज शास्त्रमा उपयोगी . जे सम्यक्त्व पाम्या पठी किंचितन्यून अर्ड पुजल परावर्त मात्र संसारमध्ये रहे, एम कडं , ते पण सूदम क्षेत्र पुजल परावर्त्तनुं थर्ड जाणवू; ते चारे जातिना सूक्ष्म पुजल परावर्त्तमांहेलो एकेक केटले कालें होय, तेनुं मान कहे जे. उत्सर्पिणी कहेतां जिहां जरत ऐरवतना मनुष्यने चढतुं शरीरमान, आयु तथा सुख वधतुं जाय, तेने उत्सर्पिणी काल जाणवो. तिहां प्रथम पुःखमा पुःखमा आरो एकवीश हजार वर्षनो, बीजो कुःखमा थारो एकवीश हजार वर्षनो, त्रीजो दुःखमा सुखमा थारो एक कोमाकोमी सागरोपम बैंतालीश हजार वर्षे न्यूननो, चोथो सुखमा कुःखमा थारोबे कोमाकोडी सागरोपमनो,पांचमो सुखमाआरोत्रण कोमाकोडी सागरोपमनो, अने बहो सुखमा सुखमा थारो चार कोमाकोमी सागरोपमनो. एम जिहां चढतो चढतो काल ते उत्सर्पिणी काल कहीयें, अने जिहां प्रथम सुखमा सुखमा आरो होय, अने हो फुःखमा पुःखमा आरो होय, ते अवसर्पिणी पमतो काल जाणवो. तेहवी अनंती उत्सर्पिणी अने अवसर्पिणी एटले अनंता कालचक्र प्रमाण एकेक पुगल परावर्त ते अनंतानंत नेदें . तेथी एमध्ये पण कालजें अल्प बहत्व कडं बे, ते विरुफ नथी, जे नणी अव्य पुजल परावर्त्त कालस्तोक, तेथी अनंतगुणो देत्र पुगल परावर्त काल जाणवो, तेथी काल पुजल परावर्तनो काल अनंतगुणो जाणवो, ते थकी नाव पुजल परावर्तनो काल अनंतगुणो जाणवो, ए जीवने अतीतकालें जाव पुजल परावर्त अनंतां थयां, तेथी अनंतगुणां काल पुजल परावर्त्त थयां, 'तेथी अनंतगुणां देत्र पुमल परावर्त थयां, तेथी अनंतगुणां अव्य पुजल परावर्त थयां. ॥ ति समुच्चयार्थः ॥ ६॥ ॥ हवे प्रथम अव्यथी बादर तथा सूक्ष्म पुलपरावर्त्तनुं स्वरूप कहे. ॥ उरलाइ सत्त गेणं, एग जि मुअ फुसिय सब अणू ॥ जित्तिअ कालि स थूलो, दवे सुहुमो सगऽन्नयरा ॥ ७॥ . Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६एन शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ ___ अर्थ-उरलासत्तगेणं के औदारिकादिक वर्गणाना पुजल सात प्रकारे करीने एगजि के एक जीव, फसिथ के स्पर्शीने, मुश्र के मूके, सवश्रणू के० लोकमांहेला सर्व परमाणुश्राने जितिकालि के जेटले कालें स्पर्शीने मूके, स के ते कालतुं मान, थूलो के० स्थूल एटले बादर, दवे के अव्यथकी पुजलपरावर्च जाणवू, अने व्यथकी सुहुमोसगऽन्नयरा के सूक्ष्म पुजलपरावर्त एथी अन्यतरें करीने थाय.॥ ७ ॥ औदारिक, वैक्रिय, तैजस, नाषा, श्वासोवास, मन अने कार्मण, ए सात प्रकारे सर्व लोकमांहेला परमाणुन्नेद संघातें तथा बादर सूक्ष्म परिणमने करी स्वस्त वर्गणा योग्य परिणतस्कंध औदारिकादिक नोकर्मपणे तथा कार्मणपणे जेटले कालें एक जीव अनंत जव ब्रमण करतो परिणमावी ग्रही स्पर्शी मूके, तेने बादर अन्य पुजलपरावर्त्त कहीयें. तिहां जे एक वेला ग्रह्या, एवा जे पुजल तेने फरी बीजी वेला ग्रहण करे, ते ग्रहीतग्रहणाधार, तथा पूर्वे के ग्रहण कस्या, केश् श्रग्रहण कख्या, एवा पुजलने ग्रहे, ते मिश्रग्रहणाझार, तथा जे पूर्वे अग्रहण करेला ग्रहे, ते अग्रहीत ग्रहणाछार, तिहां गृहीत ग्रहणाधार तथा मिश्रग्रहणाधार अतिक्रमीने जे अगृहीत ग्रहणाछारें पुजल ग्रहण करे, ते लेखे लेखववा एटले लेखामां गणवा. एम एक औदारिकपणे, बीजो वैक्रियपणे, त्रीजो तैजसपणे, चोथो नाषापणे, पांचमो श्वासोश्वासपणे, बहो मनपणे, अने सातमो कार्मणपणे, ए सातपरिणाम, एकेक अणुना थाय. एम सर्वलोक वतिं पुद्गल ज. व्यनासात परिणमन एक जीव पूर्ण करे, तेवारे बादर अव्यपुद्गलपरावर्त्त पूर्ण थाय. अ. ही आहारक शरीर तो संसारमाहे वसतो जीव, चार वेला करे, तेवारें तेणे करी सर्व पुजलनी परावर्ति न होय, तेथी ते न लीधो. ____ तथा जेवारें सर्वलोक वर्ति अणुने औदारिकादिकपणे परिणमावे, पण एटवू विशेष जे औदारिकपणे परिणमावतां वचले नवें जे जे वैक्रियादिक पुजल ग्रहण करे, ते को लेखामां नावे. एम अनंते नवें करी सर्वलोकना अणु औदारिकपणे परिणमावी ग्रही स्पर्शी मूके, तेवारें प्रथम औदारिक सूक्ष्म अव्य पुनलपरावर्त थाय. वलतुं एज रीतें सर्वाणु वैक्रियपणे परिणमावी ग्रहीने मूके, तेवारें बीजुं वैक्रिय पुजलपरावर्त्त थाय. एमज तैजसशरीरपणे परिणमावी ग्रहीने मूके, तेवारें त्रीजुं तैजस पुजलपरावर्त्त थाय. एमज नाषादलपणे सर्वाणु परिणमावी ग्रहीने मूके, तेवारें चोथु नाषापुजलपरावर्त्त थाय, एमज पांचमुं श्वासोश्वास, बहुं मन अने सातमुं कार्मण पुजलपरावर्त्त पण जाणवू. तिहां सर्व थकी कार्मणपुजलपरावर्त्तकाल अनंतो , परंतु बीजानी अपेदायें स्तोक. तेथकी तैजस पुजलपरावर्तकाल अनंत Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६एए शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ गुणो, तेथकी औदारिक पुजलपरावर्तकाल अनंतगुणो, तेथकी श्वासोश्वास पुजल. परावर्त्त काल अनंतगुणो, तेथकी मनःपुजलपरावर्त काल अनंतगुणो, तेथकी जाषा पुजलपरावर्त्तकाल अनंतगुणो, तेथकी वैक्रियपुशलपरावर्त्त काल अनंतगुणो जाणवो. कार्मण पुजलपरावर्त सर्व नवें ग्रहण करे, तेथी तरत पूराय, श्रने ते कार्मणदलथकी तैजस अनंतगुणो हीन पुजल बे, ते नणी अनंतगुण कालें पूराय, एम पोतानी मतियें विचारीने कहे. अतीतकालें एक जीवने अनंता वैक्रिय पुजलपरावर्त थयां, तेथकी अनंतगुणां नाषा पुजलपरावर्त्त थयां, तेथकी अनंतगुणा मनःपुजलपरावर्त थयां, ते थकी अनंतगुणां श्वासोश्वास पुजलपरावर्त थयां, तेथकी अनंतगुणां औदारिक पुजलपरावर्त्त थयां, तेथकी अनंतगुणां तैजसपुजलपरावर्त्त थयां, तेथकी अनंतगुणां कार्मण पुजलपरावर्त थयां. एम अतीतकालें अतिक्रम्या. अहीं कोइएक श्राचार्य एम कहे, के औदारिक, वैक्रिय, तैजस अने कार्मण, ए चार शरीरपणे सर्वलोकवर्सि परमाणु जे ग्रहे, ते तेना लेखामांहे गणाय. एम करी सर्व परमाणु चार शरीरपणे परिणमाव। ग्रहीने मूके, ते बादर जव्य पुजलपरावते अने अनुक्रमें एक शरीरपणे परिणमावे ते लेखामांहे गणाय. एवी रीते सर्वाणु एक शरीरपणे जेवारें परिणमावी रहे, तेवारें पड़ी वली बीजा शरीरपणे परिणमावे, पण औदारिक परावर्त्तमध्ये वैकियादिक पुजल लीये, ते लेखामांहे गणाय नहीं, एम अनुक्रमें चारे प्रकारे सर्वाणु परिणमावतां सूक्ष्मपुजल परावर्त थाय. इत्यर्थः ॥॥ ॥ हवे बादर तथा सूक्ष्म क्षेत्रादिक त्रण पुजल परावर्त्तनुं स्वरूप कहे . ॥ ... लोग पएसो सप्पिणि, समया अणु नाग बंध हाणाय॥ ... जद तह कम मरणेणं, पुछा खित्ताइ थूलियरा ॥ ॥ अर्थ- लोगपएसो के० चौद राजलोकना आकाश प्रदेश सप्पिणिसमया के जत्सर्पिणी अने अवसर्पिणीना समय श्रने अणुजागबंधहाणाय के अनुनाग बंधनां स्थानक, ते रसबंधना हेतु असंख्यातां अध्यवसाय स्थानक जाणवां. ए त्रणे जहतह के जेम तेम बाघा पाबा मरणेणं के क्रमोत्क्रम मरणें करीने, पुहा के० फरसी रहे, तेवारें कम के अनुक्रमें खित्ताश्के क्षेत्रादिक एटले क्षेत्रथी, कालथीने जावधी थूल के० स्थल एटले वादर पुजल परावर्त्त थाय, अने श्यरा के ए थकी इतर एटले एत्रणे अनुक्रमेज मरण वेलायें फरसे, तेवारें एत्रणे सूक्ष्म पुल परावर्त्त थाय. ॥ इत्यक्षरार्थः ॥ ७ ॥ सर्व लोकना श्राकाशप्रदेश एटले जे अंगुलघन आकाशखंडना प्रदेशापहार स. मय समय प्रत्ये करतां पण असंख्यातां कालचक्र व्यतिक्रमी जाय, एवा सूक्ष्म ननः Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 900 शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ प्रदेश ने. ते सर्व लोकना श्राकाशप्रदेशने जेवारें एक जीव, अनेक नवें करी स्पर्श, एटले सर्व आकाशप्रदेशे मरण पामे, तेमांहे जे श्राकाशप्रदेशे एक वेला मरण पाम्यो, तेज श्राकाश प्रदेशे वली बीजी वेला मरण पामे, ते लेखामां न गणाय, परंतु जे अस्पा प्रदेशने स्पर्शी मरण पामे ते प्रदेश, तेना लेखामां गणाय. एम करतां सर्व लोकाकाश प्रदेशने मरणे करी स्पर्शे. अहींयां जो पण जीव असंख्याता थाकाशप्रदेश अवगाहीने रह्यो बे तो पण मरण वेलायें एक प्रदेशनी मुख्यता लेवी. एने बादर क्षेत्र पुजल परावर्त्त कहीयें. अने जेवारें अनुक्रमें एटले जे आकाशप्रदेशे जीव एक वार मरण पाम्यो, तेज श्राकाशप्रदेशनी श्रेणी जेवारें वली तेनी जोडना बीजा प्रदेशें बीजी वेला मरण पामे, ते लेखामां गणाय, परंतु बीजे स्थानकें बीजे नवें तेनी वचमा असंख्य लोकाकाश प्रदेशे असंख्य वेला मरण पामे, ते वचला मरणना प्रदेश लेखामांहे नावे. एम अनुक्रमें श्रेणीबक, प्रतरबक प्रदेश मरणे करी स्पर्शतो थको सर्व लोकाकाश प्रदेश स्पर्श, तेवारे सूक्ष्म क्षेत्र पुजल परावर्त्त थाय, ते मध्ये अनंता कालचक्र प्रमाण बादर पुजल परावर्त थकी अनंतगुणो काल नीपजे. __ हवे काल थकी पुजल परावर्त्तनुं मान कहे. वीश कोमाकोमी सागरोपम प्रमाण कालचक्र बे. तेना सर्व समय, मरणे करी जीव स्पर्शे, एटले पहेला समय थकी मांडीने बेहला समय सुधी सर्व समये मरण करे, परंतु जे समयें एक कालचक्रमांहे मरण पाम्यो, तेहीज समय बीजा घणा कालचक्रमांहे मरण पामे, ते स. मय लेखामांहे गणाय नहीं. पण अनेरे समये मरण पामे, ते लेखामां गणाय. एम कालचक्रना सर्व समय मरण वेलायें करी जेवारें एक जीव स्पर्शी रहे, तेवारें काल थकी बादर पुजल परावर्त थाय. अने जेवारें ए कालचक्रने पहेले धुरले समय मरण लही वली जेवारें केवारेंक को कालचक्रने बीजे समयें मरण पामे, ते लेखामां गणाय. तेमज कोश् कालच. क्रने त्रीजे समयें जीव मरण पामे, ते लेखामां गणाय. परंतु वचला आगल पाल लना समये अनेक मरण करे, ते लेखामां गणाय नहीं. एम वली जेवारें कोश्एक कालचक्रने चोथे समय मरण लहे, पांचमे समय मरण लहे, यावत् कालचक्रना बेहला समयपर्यंत अनुक्रमें सर्व समय मरणें करी स्पर्श. अहींधा कोश्क कालचक्र दीठ एक समय लेखामां आवे अने वचालें संख्याता, असंख्याता यावत् अनंत कालचक्रनां मरण पण लेखामां न थावे, परंतु जेवारें पागल जे समय मरण पाम्यो होय, तेने वागले समयेंज जेवारें मरण पामे, तेवारें तेज लेखामां आवे. Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ एम संख्याते मरणें पण अनंतां कालचक्र व्यतीत थ‍ जाय तावत् कालप्रमाण सूक्ष्म काल पुल परावर्त्त थाय. ܐܓ हवे जावथी सूक्ष्म बादर पुल परावर्त्त कहे. रसबंध देतु काषायिक अध्यव साय स्थानक मंद, मंदतर, मंदतमना दें असंख्यात लोकाकाश प्रमाण बे. जे जणी सीत्तर कोकाकोमी सागरोपमना समय प्रमाण स्थितिस्थानकें असंख्याता रसबंध हेतु अध्यवसाय स्थानक बे. ते सर्व श्रध्यवसाय स्थानक मरणें करी अनुक्रमें स्पर्शे एटले ते रसबंधनां स्थानक केवारेंक मंद, मंदतम, मंदतर, तीव्र, तीव्रतम, तीव्रतर, एवे स्थानके मरण पामतो जेवारें एक जीव, सर्व स्थानक फरसी रहे तेवारें नाव थकी बादर पुल परावर्त्त थाय. जेवारें प्रथम जघन्य अध्यवसायें मरण पामीने वली जेवारें कोइएक कालातेरे ते थकी चढते बीजे अध्यवसायस्थानकें मरण पामे ते लेखामांहे गणाय, तेवार पी वली कोइक कालांतरें तेथकी चढते त्री जे अध्यवसायस्थानकें वर्त्ततो मरण पामे ते लेखामांदे गणाय, परंतु बीजा श्राघा पाढा अध्यवसायें मरण पामे ते लेखामा न गणय. एम अनुक्रमें निरंतरपणे जघन्यथी उत्कृष्ट अध्यवसायस्थानकपर्यंत सर्व कर्मना संख्याता रसबंधनां छाध्यवसाय स्थानक बे. ते अनुक्रमें मरणे करी स्पर्शे तेनी वचालें जे तेज अध्यवसायें तथा सांतर अध्यवसाय स्थानकें अनंता म रण करे, ते पण लेखामां न आवे, परंतु जे पूर्वलो अध्यवसाय होय, तेथकी चढते अध्यवसायें मरण पामे तोज ते लेखामां आवे, एम अनुक्रमें सर्व अनुजाग बंधस्थानक, जन्म अथवा मरणें करी स्पर्शे, तेवारें जावथी सूक्ष्मपुजलपरावर्त्त थाय. ए रीतें आठ पुलपरावर्त्त कह्यां. ঊ तथा ग्रंथांतरेंवपरावर्त्त कयुं छे. ते कोइएक जीव नरकादिकगतिने विषे दश सहस्रवर्ष जघन्यायुर्थी समयाधिक समयाधिक स्थिति वधारतां नेवु हजार वर्षनी स्थिति - पर्यंत तथा दशलक्ष वर्ष स्थिति की समयाधिक समयाधिक तेत्रीश सागरोपम स्थितिने सर्व रक स्थितिना स्थानकें नारकीना जवें करी तथा देवगतिमध्यें दश हजार वर्षायुधी लइ समयाधिक समयाधिक एकत्रीश सागरोपम लगें सर्वदेवायुस्थितिनां स्थानके देवजवें करी तेमज मनुष्य तिर्यंचगति मध्यें जघन्य क्षुल्लक जवथी लेइने समयाधिक समयाधिक मनुष्य तिर्यक्नी यावत् त्रण पल्योपमायु स्थिति लगेंनां स्थानर्के मनुष्य तिर्यंचना जवें करी, एम सर्वायुस्थान के अनुक्रमें स्पर्शतो बादरजव पुल परावर्त्त याय, छाने समयाधिक समयाधिक स्थिति अनुक्रमें एकेक गतिना क्रमें कमें करी यानां सर्व स्थानक स्पर्शता चारे गतिना सर्वायुस्थानक जीव स्पर्शे, तेवारें Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०‍ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ सूक्ष्म जव पुल परावर्त्त थोय, ए आशांबरमतें मान्यो बे, ते अहीं प्रसंगें जाणवा निमित्त लख्युं बे. ए रीतें उपोद्घात संगतें तथा प्रसंगसंगतें पब्योपम, सागरोपम तथा पुल परावर्तादिकनां स्वरूप कह्यां. प्रकारांतरें वली पांच वर्ण, बे गंध, पांच रस, या स्पर्श छाने अगुरुलघु, ए बावीश दें करीने सर्वलोकवर्त्ति पुल परमाणुया फरसी मूके, तेवारें जावथी बादर पुल परावर्त्त थाय, छाने ए बावीशमांथी एकेकापणे अनुक्रमें सर्व पुल फरशीने रहे, तेवारें जावथी सूक्ष्म पुल परावर्त्त थाय ॥ इति समुचयार्थः॥ ॥ ८८ ॥ प्रकार दवे जे प्रदेशबंधनो अधिकार कहेतां थकां ते मध्ये जे प्रकारें जीव, उत्कृष्ट प्रदेशबंध करे, ने जेहवो थको जे प्रकारें जीव, जघन्य प्रदेशबंध करे, कहे बे. जे जणी प्रदेशबंध तो योगप्रत्ययियो बे, तेथी योगवृद्धियें प्रदेशवृद्धि होय, छाने सर्व जीव नेदमध्यें सन्नी पंचेंद्रिय पर्याप्तानुं उत्कृष्ट योगस्थानक होय, बीजा जीवनेद सर्व एथी हीनयोगी बे. ए स्वरूप जणाववाने गाथा कहे. ॥ श्रथोत्कृष्टजघन्यप्रदेशबंधस्वरूप माह ॥ अप्पयर पयडि बंधी, उक्कड जोगी सन्नि पत्तो ॥ कुइ पर सुक्को, जदन्नयं तस्स वञ्चासे ॥ ८० ॥ अर्थ- परपयमिबंधी के अपतर एटले घणी योकी प्रकृति बांधतो होय, एटले प्रकृति थोडी बंधाती होय तिहां अबंधाती सजातीय प्रकृतिना दलजाग, ते बंधाती प्रकृतिनें जागें घणा लाने, तेथी तेने प्रदेशनी वृद्धि होय, तथा ते पण जक्कजोगी के० उत्कृष्ट योगी एटले उत्कृष्ट योगस्थानकें वर्त्ततो उत्कृष्ट जीव व्यापारें करी घणा कर्मप्रदेशनुं ग्रहण करे, जेम जोरावर पुरुष, तृणादिक संग्रह करतो बीजा निर्बल पुरुषनी अपेक्षायें घणा तृणादिकनो संग्रह करी शके, तेम मंद योगी जीवन अपेक्षायें उत्कृष्ट योगी जीव, घणां कर्मदल ग्रहण करे, तेथी ते लीधो. ते पण सन्नि के० संज्ञी पंचेंद्रिय जीव होय, जे जणी जे जीव, मन सहित होय ते मन लगावीने जे कार्य करे, ते कार्य करतां बीजुं अनाजोगें जे कार्य करे, तेनी उत्कृष्ट चेष्टा होय, तिहां प्रदेशबंध अधिक होय, ते मध्ये पण वली पत्तो के० पयाप्तियें करी पूर्ण होय, तेवारें तेने योग प्रबलतायें प्रदेश पण घणा लेवराय, एने अपर्याप्तावस्थायें पण अंतरमुहूर्त्तसुधी समय समय प्रत्ये असंख्यातगुणवृद्ध योग वधे, एटले संज्ञी पंचेंद्रिय पर्याप्तो, उत्कृष्ट योगस्थानकें वर्त्ततो पोताना बंधयोग्य स्थानकमांहे अल्पसंख्यायें प्रकृतिबंधस्थानकें वर्त्ततो एवो जीव कुणइपएसुक्कोसं के० उत्कृष्टप्रदेशबंध करे. जन्नयं के० जघन्य प्रदेशबंध तो तस्स के० ते उत्कृष्ट प्रदेशबंधस्वामिनी For Private Personal Use Only Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकनामा पंचम कमग्रंथ. ५ ०३ प्रदेशबंध सामग्रीने वच्चासे के० विपर्यासें विपरीतपणे एटले सन्नीयाथी विपरीत असनी लेवो, तथा पर्याप्ताने स्थानके अपर्याप्तो सेवो, अने उत्कृष्ट योगीने स्थानके मंदयोगी खेवो, एटले असन्नी लेवो, तेमांहे पण अपर्याप्तो लेवो, ते पण वली प्रथम समयें घणो मंदयोगी होय, तेथी योगमंदतायें करी तथा मनोयोगने बनावें करी कर्मदल थोमां ग्रहण करे, ते पण पोताना बंधस्थानक मध्ये बहुसंख्येय प्रकृतिबंध स्थानकें वर्त्ततो होय ते लेवो. एटले घणी प्रकृति बांधतां थोडं दल घणी प्रकृतिना जागे वहेंचतांथल्प दल नाग श्रावे, तेथी ते जीव, जघन्य प्रदेशबंध करे ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ ए॥ . - एम सामान्यपणे कर्मप्रकृतिनो उत्कृष्ट प्रदेशबंध तथा जघन्य प्रदेशबंधनो उपाय कही, हवे मूलोत्तर प्रकृतिनो उत्कृष्ट प्रदेशबंध, जे गुणगणे जीवने होय ते कहे डे. तेमध्ये पण मूलप्रकृति आठ अने उत्तरप्रकृति एकसो ने वीशना उत्कृष्ट प्रदेशबंधखामी कहेवाने अवसरें सूचीकटाह न्यायें अल्प वक्तव्यता जणी प्रथम श्रायुःकर्मनी मूलोत्तर प्रकृतिना बांधनार गुणस्थानकनी अपेक्षायें कहे , एटले कया कया गुणगणे श्रायुःकर्मना उत्कृष्ट प्रदेशबंध स्वामी होय ? ते कहे . तेमध्ये मिश्रगुणगणे तो श्रायुनो बंध न होय, अने सास्वादने पडतां घोलना योगीने होय खरो, तो पण तेणें तिहां उत्कृष्ट योगने अनावें तथा अल्पकाल नावीपणे अथवा बीजे कोश कारणे ग्रंथकारें उत्कृष्ट प्रदेशबंध निषेध्यो बे. जे जणी कोइएक श्राचार्यने मतें सा. खादनगुणगणे पण उत्कृष्ट प्रदेशबंध मान्यो . ते मत अहीं उवेखवो. मिश्र तथा साखादन, ए बे गुणगणां मूकीने शेष गुणगणे श्रायुःकर्मना उत्कृष्ट प्रदेशबंधक, गाथायें करी कहे . .. ॥ अथ मूलोत्तरप्रकृतीनामुत्कृष्टप्रदेशबंधवामीनाह ॥ मि अजय चन आज, बि ति गुण विणु मोदि सत्त मिबा॥ . बएवं सतरस सुहुमो, अजया देसा बि ति कसाए ॥०॥ । अर्थ- मिल के एक मिथ्यात्वगुणगणुं अने बीजा अजयचन के अविरत्यादिक चार गुणगणां, एटले बीजु श्रविरति, त्रीजुं देशविरति, चो) प्रमत्त अने पांचमुं अप्रमत्त, ए पांच गुणगणे वर्त्ततो संझी पंचेंछिय जीव, उत्कृष्टयोगस्थानके व तो थान के आयुःकर्मनो उत्कृष्ट प्रदेशबंध करे, जे नणी श्रपूर्वकरणादिक सात गुणगणां तथा मिश्रगुणगणुं, ए आठ गुणगणे आयुनो बंधज नथी, अने सास्वादने उत्कृष्टयोगने अजावें उत्कृष्ट प्रदेशबंध न होय, तथा बितिगुण विणु के बीजुं साखादन, त्रीजु मिश्र, ए बे गुणगणां विना शेष मित्रा के० १ मिथ्यात्व, अवि Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NOH शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ रति, ३ देशविरति, ४ प्रमत्त, ५ अप्रमत्त, ६ निवृत्ति, ७ अनिवृत्ति, ए सत्त के सात गुणगणे सात कर्म बांधतो एवो संझी पंचेंजिय जीव सर्व पर्याप्तियें करी प. र्याप्तो, मोहि के मोहनीय कर्मनो उत्कृष्टप्रदेशबंध करे. अहींयां साखादन तथा मिश्रगुणगणे उत्कृष्ट योग न लाने, तेथी उत्कृष्टदल संचय करी न शके ते नणी निषेध्या; जे नणी मोहनीयनी सत्तर प्रकृति मिों तथा अविरति गुणगणे बंधाय बे, अने जो मिों उत्कृष्ट योगस्थानक होत तो चोथानी पेरें त्रीजे गुणगणे पण अप्रत्याख्यानीआ कषायनो उत्कृष्ट प्रदेशबंध कहेत, पण ते न कह्यो, तेथी जाणीये बैये जे मिश्रगुणगणे उत्कृष्टयोग नथी, तथा श्रायु अने मोह विना शेष बएहं के० मूल कर्मप्रकृतिनो उत्कृष्ट योगी एवो संझी पंचेंड्रिय पर्याप्तो जीव, उत्कृष्ट प्रदेशबंध करे. • एम मूलप्रकृतिना उत्कृष्टप्रदेशबंध स्वामी कही, हवे उत्तरप्रकृतिना उत्कृष्ट प्रदेशबंध खामी कहे . ज्ञानावरणीय पांच, दर्शनावरणीय चार, अंतराय पांच, एक शातावेदनीय, एक उच्चैर्गोत्र अने एक यशःकीर्ति, ए सतरस के सत्तर प्र. कृतिनो उत्कृष्ट प्रदेशबंध स्वामी सुहुमो के सूक्ष्मसंपराय गुणस्थानकवर्ति मनुष्य उ. स्कृष्ट योगी होय, जे जणी श्रायु अने मोदनीयना दलनो नाग पण उ कर्मने यावे, तथा पांच निबानो नाग चार दर्शनावरणीयने आवे, तथा नामकर्मनी सर्व प्रकृतिनो नाग, एक यशःकीर्तिने यावे, तेथी प्रदेशबहुलता थाय. अजया के अविरति सम्यक्दृष्टि गुणगणे वर्ततो उत्कृष्टयोगी पर्याप्तो संझी पं. चेंजिय जीव, बि के बीजी अप्रत्याख्यानावरणीय कषायनी चोकमीनो उत्कृष्ट प्रदेशबंध करे, जे जणी एना बंधकमांहे एहिज अस्पप्रकृतिबंधकपणुंबे, तेथी अनंतानुबंधीआ चार अने मिथ्यात्वमोहनीय, ए पांचना प्रदेश एने अधिक आवे, तथा देसा के० देशविरतिगुणगणे वर्ततो मनुष्य, तिर्यंच उत्कृष्टयोगी सात मूलप्रकृति बांधतो तिकसाए के त्रीजी प्रत्याख्यानावरण कषायनी चोकमीनो उत्कृष्ट बंधक होय, एना बंधकमांहे एहिज अस्पप्रकृतिबंधकपणुं बे, तेथी शेष श्राप कषा. यना दल नाग एने आवे, तथा आयु अने मिथ्यात्वनो पण अंश अधिक आवे. ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ ए॥ - पण अनिअट्टी सुख गइ, नरान सुर सुलग तिग विन विग ॥ सम चनरंस मसायं, वरं मिबोव सम्मोवा ॥१॥ .. अर्थ- पुरुषवेद अने संज्वलना कषायनी चोकमी, ए पण के पांच मोहनीय कर्मनी उत्तरप्रकृतिनो अनिअट्टी के अनिवृत्तिनामा नवमा गुणगणाना पांचे ... वि Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ J०५ जागें अनुक्रमें उत्कृष्टप्रदेशबंध होय, तेमध्ये अनिवृत्तिना प्रथम नागें हास्यादिक चार प्रकृतिनो अधिक जाग लाने, तेथी पुरुष वेदनो उत्कृष्टप्रदेश बंध होय. अने बीजे नागें पुंवेदबंध विच्छेद थये थके बार कषायना दलिकना नाग थावे, तेमां क्रोध कषायनो नाग क्रोधने लाने, तेणे उत्कृष्ट प्रदेश बंध होय. श्रीजे नागें संज्वखनक्रोधनो जाग वली अधिक लाने, तेथी माननो उत्कृष्ट प्रदेशबंधक होय. चोथे नागें वली संज्वलना माननो बंधपण संज्वलनी मायाने आवे, तेथी तेनो उत्कृष्ट प्रदेश बंधक होय. पांचमे जागें समस्त मोहप्रकृतिनो नाग संज्वलना लोनने आवे, तेथी तेनो उत्कृष्ट प्रदेश बंध होय. एम त्रीश प्रकृतिनो उत्कृष्ट प्रदेशबंध कह्यो. सुखग के शुन्नविहायोगति, नरान के मनुष्यायु, सुरसुन्नगतिग के सुरत्रिक अने सौजाग्यत्रिक, विजविगं के० वैक्रियहिक, समचरंस के० समचतुरस्रसंस्थान, मसायं के अशातावेदनीय, वरं के० वज्रषजनाराच संघयण, ए तेर प्रकृतिनो उत्कृष्ट प्रदेश बंधक मिडोवसम्मोवा के० मिथ्यात्वी अथवा सम्यक्दृष्टि उत्कृष्ट योगी जीव होय. तेमध्ये देवायु तथा नरायु ए बे प्रकृतिना स्वामी अष्टाविध बंधक श्रने शेष अगीआर प्रकृतिना उत्कृष्ट प्रदेशबंध स्वामी सप्तविध बंधक जाणवा. अहीश्रां आयुःकर्मना दल नाग अधिक लाने, तेमाटें. तथा तेमध्ये पण १ देवगति, देवानुपूर्वी,३ वैक्रियशरीर, ४ वैक्रियअंगोपांग, ५ समचतुरस्रसंस्थान, ६ शुजखगति, ७ सुजग, ७ सुखर, ए श्रादेय, ए नव प्रकृतिनो उत्कृष्ट प्रदेशबंध खामी तो देव प्रायोग्य नामकमेंनी शहावीश प्रकृति बांधतो होय, तेमा नव प्रकृति तो एहिज बांधे ते जीव होय जे जणी त्रेवीश अने पच्चीशादिक प्रकृतिना बंधस्थानकें ए नव प्रकृतिनो बंध नथी, अने देवप्रायोग्य गणत्रीश, त्रीश तथा एकत्रीशादिक प्रकृतिना बंध स्थानकें ए नव प्रकृतिनो बंध बे खरो, परंतु तिहां घणी प्रकृतिने बंधे घणे नागें वहेंचतां अल्प प्रदेश जाग आवे, तेश्री ते बंधक न लीधा. तथा वज्रषजनाराच संघयणनो उत्कृष्ट प्रदेशबंध स्वामी मनुष्य प्रायोग्य उगणत्रीश प्रकृति बांधतो एवो सम्यकूदृष्टि तथा मिथ्यादृष्टि जीव होय, तथा तिर्यंच प्रायोग्य उंगणत्रीश बांधतो मिथ्यादृष्टिज होय. तिहां मनुष्य प्रायोग्य उंगणत्रीशनां नाम कहे .२ मनुष्यहिक, औदारिकहिक, ५ पंचेंजियजाति, ६ तेजस, ७ कामेण, G वज्रषजनाराचसंघयण, ए समचतुरस्त्रसंस्थान, १० वर्ण, ११ गंध, १२ रस, १३ स्पर्श, १४ अगुरुलघु, १५ उपघात, १६ पराघात, १७ उश्वास, १७ शुजखगति, १ए त्रस, २० बादर, १ पर्याप्त, १२ प्रत्येक, २३ निर्माण, २४ सोनाग्य, २५ सुखर, २६ थादेय, २७ स्थिर अथवा स्थिर, २० शुन अथवा अशुज, श्ए यशःकीर्ति अथवा अयशःकीर्ति, ए मनुष्य प्रायोग्य बांधतो Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०६ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. Ա सम्यकदृष्टि तथा मिथ्यादृष्टि जीव होय, तथा तिर्यंच प्रायोग्य उगणत्रीश बांधततो तिहां मनुष्य द्विकने स्थानकें तिर्यंचद्विक कहेतुं, तथा मनुष्य प्रायोग्य बांधतां मिथ्यादृष्टि जीव पण लेवो, छाने सास्वादने उत्कृष्ट योग न होय, तेजणी ते न लीधो; तथा त्रेवीश, पच्चीशादिकना बंधस्थानकें प्रथम संघयणनो बंध नथी; अने त्रीश, एकत्रीशना बंधस्थान के प्रकृति जाग घणो होय, तेथी उत्कृष्ट प्रदेश बंध नहोय... तथा शातावेदनीयनो उत्कृष्ट प्रदेशबंधक सम्यकदृष्टि तथा मिथ्यात्वी सात कर्मनो बंधक होय. जो पण दशमे गुणठाणे उत्कृष्ट योग ने तो पण तिहां उत्कृष्ट स्थिति बंध न होय, तेथी प्रदेशबंध पण विवक्ष्यो नहीं. एम तैंतालीस प्रकृतिना उत्कृष्ट प्रदेशबंध स्वामी का. ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ १ ॥ निद्दा पयला डु जुल, जयकुच्चाति संमगो सुजइ ॥ आदार डुगंसेसा, नक्कोस परसगा मिचो ॥ २ ॥ अर्थ - निद्दापला के० निद्रा अने प्रचला, डुअल के० हास्य अने रति तथा शोक ने रति, ए बे युगल, एवं ब प्रकृति, जयकुच्छा के० सातमी जय, आठमी जुगुप्सा, तिa ho नवमं तीर्थंकर नामकर्म, ए नव प्रकृतिनो उत्कृष्ट प्रदेशबंधस्वामी संमगो ho सम्यकदृष्ट्यादिक अपूर्वकरणांत पांच गुणस्थानकवर्त्ती जीव सात कर्म बांधतो श्रायुदलनो जाग अधिको लाने, तेजणी. तथा निद्रा प्रचलाने चोथे गुणठाणे श्री किन दलनो जाग अधिक होय, तथा मिश्रगुणठाणे पण थीएसी त्रिकनो बंध नथी, पण ते उत्कृष्ट योगी न होय, तेजणी ते न कह्यो. तथा दास्यादिक बे युगल, जय ने जुगुप्सा, ए व प्रकृतिनो पण मोहनीयनी तेर प्रकृतिने बंधें तथा नव प्रकृतिने बंधे अल्पप्रकृति जणी जाग घणो यावे, तेजणी लेवो, तथा जिननामकर्मनो उत्कृष्ट प्रदेशबंधस्वामी सम्यक्दृष्टि मनुष्य देवगति प्रायोग्य जिननाम सहित उगणत्रीश प्रकृति बांधतो होय ते लेवो, जे जणी त्रेवीशादिक प्रकृतिनां बंध स्थानकें तो जिननाम कर्मनो बंधज नथी, अने त्रीश प्रकृति मनुष्य प्रायोग्य बांधतां तथा एकत्रीश देवगति प्रायोग्य बांधतां प्रकृति घणी होय, तेथी नागें दल स्तोक घ्यावे, तेथी ते न लीधा. सुई के सुयति सुसाधु एटले प्रमाद रहित साधु श्रप्रमत्त अने पूर्वकरण, एबे गुणठाणे वर्त्ततो उत्कृष्ट योगी देव प्रायोग्य त्रीश प्रकृति आहार डुंगं के हारकद्विक सहित बांधतो वे समय सुधी उत्कृष्ट प्रदेश बंध करे, शेष गुणठाणे आहारकद्विकनो बंध नथी, तेथी ते न लोधा, तथा उत्कृष्ट योग स्थानके जीव बें समय पर्यंत रहे. पढी योगस्थानक फरे, तेथी सर्वत्र उत्कृष्ट योगी बे समय सुधीज For Private Personal Use Only Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ होय, तथा एकत्री प्रकृतिना बंधस्थानकें प्रकृतिजागनी बहुलतायें अल्पदल लाने. एम चोपन्न प्रकृतिना उत्कृष्ट प्रदेश बंध स्वामी कह्या. तेथकी सेसा के० शेष रही जे बोराह प्रकृति तेना उक्कोसपएसगा के० उत्कृष्ट प्रदेश बंध खामी मिठो के० मिथ्यात्वी जीव पंचेंद्रिय पर्याप्तो उत्कृष्ट योगी सात कर्म बाँधतो बे समय लगें होय, जेजणी ३ नरकत्रिक, ७ जाति चार, ११ स्थावरचतुष्क, १२ हुंमसंस्थान, १३ बेवहुं संघयण, १४ आतप, १५ नपुंसक वेद, १६ मिथ्यात्व, २० अनंतानुबंधीय कषाय चार, २४ मध्यसंघयण चार, २० मध्यसंस्थान चार, ३१ दौर्भाग्यत्रिक, ३४ थीएसी त्रिक, ३७ तिर्यंचत्रिक, ३८ स्त्रीवेद, ३० उद्योत, ४० कुखगति, ४१ नीचैर्गोत्र, ए एकतालीश प्रकृति मध्यें शोल प्रकृतिनो बंध मिथ्यात्व प्रत्यय नेपच्ची प्रकृतिनो बंध अनंतानुबंधी प्रत्ययि बे, ते मिश्रादिक गुणन बंधायाने साखादन गुणठाणे उत्कृष्ट योगने जावें उत्कृष्ट प्रदेश बंध न होय, तेजी एनो स्वामी मिथ्यात्वीज कह्यो. तथा शेष पच्चीश प्रकृतिनो बंध, जो पण सम्यक्त्वादिक गुणठाणे बे, तो पण १ श्रदारिक, २ तैजस, ३ कार्मण, ७ वर्णचतुष्क, ८ अगुरुलघु, ए उपघात, १० बादर, ११ प्रत्येक, १२ स्थिर, १३ अशुभ, १४ अयश, १५ निर्माण, ए पंदर प्रकृतिनो उत्कृष्ट प्रदेशबंध अपर्याप्ता एकेंद्रिय प्रायोग्य नामकर्मनी त्रेवीश प्रकृति बांधतो थको मिथ्यात्वी जीव करे, जे जणी ४ स्थावरचतुष्क, ५ एकेंद्रियजाति, ६ हुंग संस्थान, तिर्यंचक ने पूर्वली पंदर, एवं त्रेवीश बांधता होय, ते करे, तथा पच्चीशादिकने बंधे जाग बाहुल्य यावे माटे अल्प दल लाने. GOB तथा मनुष्य द्विक, पंचेंद्रियजाति, चौदारिक उपांग, पराघात, उश्वास, त्रस, पर्याप्त, स्थिर अशुभ, ए दश प्रकृतिनो मिथ्यात्वें पच्चीश नाम कर्मनी प्रकृति पर्याप्त स प्रायोग्य बांधतो उत्कृष्ट प्रदेश बंध करे, तेथी ए बाशठ प्रकृतिना उत्कृष्ट प्रदेशबंध स्वामी मिथ्यात्वी कह्या. एम उत्कृष्ट प्रदेशबंध स्वामी कह्या ॥ इति० ॥ ए‍ ॥ दवे जघन्य प्रदेशबंध स्वामी कह्या थकी वचला सर्व मध्यम प्रदेशबंध स्वामी . सुखें समजाय ते जणी एकसो ने वीश प्रकृतिना जघन्य प्रदेशबंध स्वामी कहे बे. ॥ अथ जघन्य प्रदेशबंधस्वामी नाह ॥ सुमुणी डुनि प्रसन्नी, नरय तिग सुराज सुर विजवि डुगं ॥ सम्मो जिणो जदन्नं, सुदुम निगो आइखणि सेसा ॥ ९३ ॥ अर्थ - तिहां सन्नी अपर्याप्तो आपणी प्रकृतिना बंधकमांदे घणी प्रकृति बांधतो जघन्य योगें वर्त्ततो चार समय लगें रहे, एटले जघन्य योगें उत्कृष्टो तो For Private Personal Use Only Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ១០ច शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ चार समय पर्यंत जीव रहे, ते लणी सामान्यपणे ए जघन्य प्रदेश बंध स्वामी कह्यो जे. सुमुणी के अप्रमत्त साधु घोलना योगी देवगति प्रायोग्य एकत्रीश प्रकृति बांधतो थाहारक शरीर तथा थाहारकोपांग, ए सुन्नि के बे प्रकृतिनो जघन्यप्रदेश बंध करे, जे नणी एना बंधकमांहे एज जघन्य प्रकृतिनो बंधक होय. नरयतिग के० नरकगति, नरकानुपूर्वी अने नरकायु, ए नरकत्रिक तथा चोथु सुराउ के देवायु, ए चार प्रकृतिनो जघन्य प्रदेशबंध स्वामी श्रसन्नी के असन्नी पंचेंजिय पर्याप्तो जीव, श्राप कर्म बांधतो घोलना योगी एटले जे एक योग थकी बीजे योगें संचार करतो होय ते घोलना योगी कहीयें, ते जघन्यथी तो एक समय लगें अने उत्कृष्ट तो चार समय लगें जघन्य प्रदेशबंध स्वामी होय, जे जणी जघन्य योगें जीव, चार समय उपरांत न रहे, श्रने सन्नीथाना जघन्य योग थकी असन्नीश्रानो उत्कृष्ट योग पण असंख्यातगुण हीन होय, तो वली जघन्य योग घणोज हीन होय, एमां शुं कहेवानुं ? ते जणी श्रसन्नी लीधो; तथा असन्नीया अपर्याप्ताने तो प्रकृतिनो बंधज नथी,ते जणी अपर्याप्तो न लीधो, अने एकेजियादिकने पण ए प्रकृतिनो बंध नथी, ते नणी पंचेंजियज लीधो, तथा श्राप कर्म बांधती वखतें घणा नागें कर्मदल थोडं थावे, तेमाटें आठ कर्मनो बंधक लीधो. सुर के देवगति श्रने देवानुपूर्वी, ए देवधिक तथा विउविपुगं के वैक्रिय शरीर अने वैक्रिय अंगोपांग, ए वैक्रियधिक अने जिणो के० जिननाम कर्म, ए पांच प्रकृतिनो जहन्नं के० जघन्य प्रदेश बंध स्वामी सम्मो के सम्यकदृष्टि जीव नव प्रथम समय वर्ततो होय, तेमध्ये पण अनुत्तर विमानवासी देव पोताना जव प्रथम समय खप्रायोग्य जघन्य वीर्यवंत थको जिननाम सहित मनुष्य प्रायोग्य उंगणत्रीश प्रकृति बांधतो जिननाम सहित त्रीश बांधे, तेवारें जिननामनो जघन्य प्रदेशबंधस्वामी होय, जे जणी मनुष्य तो देव प्रायोग्य असावीश, उगणत्रीश बांधे बे, पण जिननाम सहित त्रीश न बांधे. वली तिहां प्रकृति अल्प होय ते जणी मनुष्य न कह्यो, श्रने नारकी तो अनुत्तर देवधकी उत्कृष्ट योगी होय, तेथी ते घणा प्रदेश बांधे माटें ते पण न लीधो, तथा चारित्रियाने थाहारकछिक सहित अने जिननाम सहित देव प्रायोग्य एकत्रीशनो बंध होय, तिहां जो पण प्रकृतिनी बहुलता होय, तो पण ते नव प्रथम समयना एवा अपर्याप्ता अनुत्तर सुरथकी उत्कृष्ट योगी होय, तेथी ते पण न लीधो. तेमाटें सम्यक्हष्टि अपर्याप्ता अनुत्तरसुर जिननामनो जघन्यप्रदेशबंध करे, तथा शेष वैक्रियधिक अने देवछिक, ए चार प्रकृतिनो जघन्य प्रदेशबंध, सम्यक्दृष्टि मनुष्य नव प्रथम समयें वर्ततो करे, जे नणी शेषत्रण गतिना जीवने Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. Ա Jou ए गणत्री प्रकृतिनुं बंध स्थानक होय, परंतु त्रीश छाने एकत्रीश प्रकृतिनो बंध तो पर्याप्तावस्थायें होय, तिहां जघन्य योग न होय, तेथी अल्प प्रदेश बंध न करी शके, तेथी ए अपर्याप्तावस्थायें मनुष्यज एना स्वामी कह्या. तथा पिसेसा के० एथी शेष रही जे एकसो ने नव प्रकृति तेनो जघन्य प्रदेशबंध स्वामी सूक्ष्म निगोदियो लब्धि अपर्याप्तो जीव आदि क्ष एटले जव प्रथम समर्ये वर्त्ततो होय, जे जणी पूर्वे गीर प्रकृति जे कही, तेनो बंध निगो दिखाने नथी, तेथी तेना स्वामी जिन्न का . छाने ( १०५ ) प्रकृतिनो बंध एने बे तेथी एनो जघन्य बंधक स्वामी निगोदी कह्यो, केम के एथी अधिक जघन्य योग को बीजा जीवने नथी ते मध्ये पण जव प्रथम समयें वर्त्ततो घणोज जघन्ययोगी होय, तेणें करी अल्प प्रदेशबंध करे, तथा तेमां पण मनुष्यायु अने तिर्यंचायु, ए वे प्रकृतिना अल्प प्रदेशबंधस्वामी जव प्रथम समयवर्त्ति जीव न होय, जे जणी त्रण पर्याप्ति पूर्ण करया विना कोइ परजवायु बांधेज नहीं, तेमाडें ए वे प्रकृतिना जघन्य बंधकमध्यें अपर्याप्तो मात्र लेवो, पण जव प्रथमसमयवर्त्त न लेवो. एम सर्व प्रकृतिना जघन्य प्रदेशबंधखामि का. ॥ ५३ ॥ ॥ वे प्रदेश बंधने विषे सादि अनाद्यादिक जांगा विचारे ठे. ॥ दंसण बग जय कुवा, बि ति तुरिच्य कसाय विग्ध नाणा॥ मूल बगेऽणुकोसो, चन्द डुदा सेसि सवचं ॥ ९४ ॥ अर्थ- चक्षुदर्शनावरणादिक चार, दर्शनावरण तथा निद्रा घने प्रचला, ए दंसबग के० दर्शनावरणषट्क, जयकुला के० जय अने जुगुप्सा, तथा वितितुरिचकसाय ho बीजा प्रत्याख्यानावरण क्रोधादिक चार, त्रीजा प्रत्याख्यानावरण क्रोधादिक चार, चोथा संज्वलना क्रोधादिक चार, विग्ध के० पांच अंतराय, नाणाणं के० पांच ज्ञानावरणीय, एवं त्रीश उत्तरप्रकृतिनो तथा मूलढगे के० एक ज्ञानावरणीय, बीजी दर्शनावरणीय, त्रीजी वेदनीय, चोथी नाम, पांचमी गोत्र अने बडी अंतराय, ए ब - मूलप्रकृतिनो श्रणुकोसो के० अनुत्कृष्ट प्रदेशबंध चन्द के० चार जांगें होय. तिहां मूलप्रकृतिनो तथा पांच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण अने पांच अंतराय एवं चौद उत्तरप्रकृतिनो उत्कृष्ट प्रदेशबंध सूक्ष्म संपरायगुणठाणे होय, तथा संज्वलना चार कषायनो उत्कृष्ट प्रदेशबंध, नवमे गुणगणे होय, तथा निद्रा श्रने प्रचला, ए बे प्रकृतिनो उत्कृष्ट प्रदेशबंध श्रावमा गुणगणाने प्रथम जागें होय, तथा जय ने जुगुसामोहनीयनो उत्कृष्ट प्रदेशबंध, आवमा गुणवाणाने सातमे जागें होय, तथा Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१० शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ प्रत्याख्यानावरण कषाय चारना उत्कृष्ट प्रदेशबंध, पांचमे गुणगणे होय, तथा अप्रत्याख्यानावरण कषाय चारनो उत्कृष्ट प्रदेशबंध, चोथे गुणगणे होय, माटें जे अनादि मिथ्यात्वी जीव ते उत्कृष्ट प्रदेशबंधनां स्थानक एवां गुणगणां नथी पाम्यो, तेने सर्वदा ए त्रीश प्रकृतिनो अनुत्कृष्ट प्रदेशबंध अनादि जाणवो. जे नणी ते जीव. केवारे पण अनुत्कृष्ट प्रदेशबंध थकी उत्कृष्ट प्रदेशबंधे नथी आव्या, तेथी तेने अनुत्कृष्टनी अनादि , ए प्रथम नंग जाणवो. अने जेणे ग्रंथिन्नेद करीसम्यक्त्व पामी ए प्रकृतिना उत्कृष्ट प्रदेशबंध स्थानके बे समय लगें उत्कृष्ट योगस्थान रही तिहां उत्कृष्ट प्रदेशबंध करी वली योगस्थान वरावर्ते तथा अध्यवसाय पमतां अनुत्कृष्ट प्रदेशबंध करे, तिहां सादि नामें बीजो नांगो जाणवो. तथा जिन अने नव्यने सांत नांगे होय, जे जणी ते जीव गुणगणे चमतो उत्कृष्ट प्रदेशबंध करशे, तथा ते उत्कृष्ट प्रदेशबंधनो अंत पण करशे, ते नणी तिहां अनुत्कृष्ट प्रदेशबंधनुं सांतपणुं जाणवू, ए त्रीजो नांगो कह्यो. तथा श्रव्य जीवने उपरला गुणगणां पामवांज नथी, तेथी तेने उत्कृष्ट प्रदेशबंध पण करवो नथी, तथा बंधांत पण करवो नथी, तेने अनुत्कृष्ट प्रदेशबंधनो अनंत नामे चोथो नांगो जाणवो. एम ए त्रीश उत्तरप्रकृतिनो तथा मूल प्रकृतिनो अनुत्कृष्ट प्रदेशबंध चार नांगें कह्यो. अने सेसिसवढं के शेष सर्व त्रणे प्रकारना बंध, ते उहा के बे नांगे होय. तिहां उत्कृष्ट प्रदेशबंध बे समय लगें होय, तेथी सादि अने सांत, ए बे नांगा होय, तथा जघन्य योग चार समय लगें रहे, तिहां जघन्य प्रदेशबंध मिथ्यात्वें पामीयें. फरी अजघन्य बंध करे, तिहां सादि अने सांत, ए बे लांगा बेहु बंधने विषे होय. एम ए त्रण बंध बे जागे होय. ए पूर्वोक्त त्रीश प्रकृति विना शेष नेवु प्रकृति रही, तेमध्ये तहोंत्तेर प्रकति अध्रुवबंधिनी बे. ते केवारेंक बंधाय अने केवारेंक न बंधाय, तेजणी एने विषे सादिसांत नांगो होय, तथा एक मिथ्यात्व, थीणहीत्रिक, अनंतानुबंधीचतुष्क, ए आठ प्रकृतिनो उत्कृष्ट प्रदेशबंध सात कर्म बांधतां संज्ञी मिथ्यात्वीने उत्कृष्ट योगें बे समय लगें होय, तेमाटें सादिसांत नांगा जाणवा, तथा सूक्ष्म निगोदियाने जव प्रथम समयें जघन्य प्रदेशबंध होय, श्रने बीजा जीवने अजघन्य प्रदेशबंध होय, एम ए चारे बंध पाठ प्रकृतिना मिथ्यात्वगुणगणे पामीयें माटें सादि, सांत, ए बे नांगा जाणवा. तथा नाम ध्रुवबंधिनी नव प्रकृतिनो अपर्याप्त एकेंख्यि प्रायोग्य त्रेवीश प्रकृतिने बंधे उत्कृष्ट प्रदेशबंध, मिथ्यात्वीने होय, अने जघन्य प्रदेशबंध सूक्ष्म निगोदियाने जव प्रथम समय होय, तेणे सादि, सांत, ए बे नांगा जाणवा. एम उत्कृष्ट अनु Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ ११ त्कृष्ट अने जघन्य प्रदेशबंधें सादि छाने सांत, ए बे जांगा कह्या. ते प्रायें व्यवहा या जीवने संजवियें बैयें. अन्यथा उत्कृष्ट प्रदेशबंध सन्निया जीवने दोय, अने नादि निगो दिया . जीवें तो संझीपएं पाम्युंज नथी, तो ते उत्कृष्ट प्रदेशबंध क्यां करे ? तेथी तेने अनुत्कृष्ट प्रदेशबंध पण चार जांगे संजवे, ते अहीं न कह्यो. एम योगवृद्धियें प्रदेश वृद्धि होय ते जणी हवे योगस्थानकनुं स्वरूप कहे बे. ॥ अथ योगस्थानान्याह || हवे योगस्थानकनी संख्या कहे बे. ॥ सेढि संखिजसे, जोगठाणाणि पयडि वि ने ॥ विइ बंधनवसाया, अणुभाग गए असंख गुणा ॥ ए५॥ अर्थ-से दिसं खिजसे के० श्रेणीने श्रसंख्यातमें जागें जेटला आकाश प्रदेश होय, ते घनीकृत लोकनी एक प्रदेशिक श्रेणी तेनेसूची श्रेणी सात राज प्रमाणनी कहीयें, तेने संख्यातमे जागें जेटला श्राकाश प्रदेश बे तेटला जोगहाणाणि के० योग स्थानक होय, ते जावीयें ढैयें. सर्वश्री अल्पवीर्यवान् जब प्रथम समयें वर्त्ततो एवो सूक्ष्म निगोदि लब्धि पर्याप्तो जीव, तेना असंख्याता जीव प्रदेश बे ते मध्ये पण जे सर्व जघन्य वीर्य प्रदेश एटले जे प्रदेशमां सर्वश्री जघन्य वीर्य होय, तेना वीर्यना श केवलीनी प्रज्ञारूप शस्त्रें करी बेदतां एटले केवलीयें कल्प्यो जे वीर्य विजाग अर्थात् जे वीर्यांनो अंश केवली पण कल्पी न शके तेने जावाणु पण कहीयें. तेहवा लोक संख्यातमे जागे वर्त्तता जे असंख्याता प्रतर, तेना प्रदेश प्रमाण वीर्यांशें करी सहित ते पण असंख्याता थया, परंतु ते असंख्याताने सत्कल्पनायें दश कल्पीयें, तेवा दश वीर्यांश सहित एवा जे जीवना प्रदेश असंख्येय प्रतर प्रमा नो समुदाय परंतु सत्कल्पनायें तेने त्रण मांडीयें तेनी प्रथम जघन्य वर्गणा जाणवी, ते थकी वली एक वीर्यांरों अधिक वीर्यवंत जीव प्रदेशनो समुदाय तेनी बीजी वर्गणा जाणवी, ते थकी वली एक वीर्यांशें अधिक जीव प्रदेशना समुदायनी त्रीजी वर्गणा जाणवी. एम एकेक वीर्यांशें अधिक अधिक जीव प्रदेशनी समान जातिरूप वर्गणा तेवी घनीकृत लोकनी एक प्रदेशिक श्रेणी तेना असंख्य जाग प्रदेश 'प्रमाण वर्गणा जेवारें थाय, तेवारें असत्कल्पनायें तेने व वर्गणा थापीयें, तेने प्रथम स्पर्द्धक कहीयें, जे जणी एकोत्तर वीर्य विजाग वृद्धियें करीने परस्परें स्पर्धा करे एव वर्गणाने स्पर्द्धक कहीयें. ए प्रथम स्पर्द्धकनी चरम उत्कृष्ट वर्गणाने विषे जेटला वीर्य विजाग बे, ते थकी एक, बे यावत् संख्याते वीर्यांशें अधिक वीर्यवंत जीव प्रदेश न पामीयें, परंतु ते थकी असंख्य लोकाकाश प्रदेश प्रमाण वीर्यांशें अधिक For Private Personal Use Only Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ वीर्यवंत जीव प्रदेश पामीयें, तेवा समान वीर्य विजागें युक्त जीव प्रदेशना समुदायनी वर्गणा ते बीजा स्पर्द्धकनी प्रथम वर्गणा जाणवी. ते थकी वली एक वीर्यांशें अधिक वीर्यवंत जीव प्रदेशनो समुदाय तेनी बीजी वर्गणा जाणवी. एम एकेक वीर्याशें वधते जीव प्रदेशना समुदायनी वर्गणा, ते जेवारें लोकाकाशनी श्रेणीना असंख्येय जागवर्त्ति प्रदेश राशिप्रमाण वर्गणानो समुदाय थाय, तेवारें बीजो स्पर्कक थाय, ते पी बीजा स्पर्द्धकनी चरम वर्गणा थकी वली असंख्य लोकाकाश प्रदेश तुल्य वीर्य विना अधिक वीर्य विभागवाला प्रदेशोनी राशि ते त्रीजा स्पर्द्धकनी प्रथम वर्गणा जाणवी. तेमज वली तेवाज अनुक्रमें त्रीजो स्पर्द्धक करवो, फरी एवाज अनुक्रमें चोथो स्पर्द्धक, एम पांचमो स्पर्कक, ए रीतें लोकाकाश प्रदेशनी श्रेणिना असंख्येय नागप्रदेश राशिप्रमाण स्पर्द्धकना समुदायें एक योग्य स्थानक थाय. ते थकी अन्य किंचित् यधिक वीर्यवंत जंतुनुं पण एवाज अनुक्रमे बीजुं योग स्थानक उपजे, ते थकी अन्य जीवनुं वली तेवाज अनुक्रमें त्रीजुं योग स्थानक उपजे, ते थकी अन्य जीवनुं वली तेवाज अनुक्रमे चोथुं योग स्थानक उपजे. ए प्रकारें करीने नाना जीवोना अथवा काल नेदें करीने एक जीवना लोकाकाशनी श्रेणीने असंख्येय जाग वर्त्ति नजःप्रदेश राशिप्रमाण योगस्थानक होय. हवे ते पूर्वोक्त जघन्य एक योग स्थानकें वर्त्तता एवा त्रस जीव असंख्याता तथा स्थावर जीव तो अनंता पामीयें. तथा पर्याप्ता सूक्ष्म निगोदीच्या जीव, जव प्रथम समयें सघला एकज योगस्थानके रहे, अने बीजे समयें असंख्यात गुण वृद्धिवाला योगस्थान के जाय, खने पर्याप्ता जीव जघन्य योगस्थानके चार समय पर्यंत रहे, तथा मध्यम योगस्थानकें वर्त्ततो चार, पांच, ब, सात, आठ, सात, ब, पांच, चार, त्रण समय मात्र रहे. तथा उत्कृष्ट योगस्थानकें बे समय पर्यंत रहे. एम असंख्यात योगस्थानक ते पण संदेपें मनना चार, वचनना ने कायाना सात, रूप सहकार कारण जेदविवक्षायें पंदर योग कह्या. ते योगस्थानकना जेद यकी वली पयडि के० ज्ञानावरणादिक मूल कर्मप्रकृति तथा उत्तर प्रकृतिना नेद, असंख्यातगुणा बे. जे जणी एकेक योगस्थानके वर्त्तता, नेक जीव बे, तथा कालभेदें एक जीव, सर्व प्रकृति बांधे बे, तथा क्षेत्रादि संबंधें करीने ज्ञानावरणादिकना क्षयोपशम विचित्रे करीने बंधना विचित्रपणाथ की एटले मूल प्रकृति श्राव बे, अने उत्तर प्रकृति एकसो ने श्रावन्न बे, ते क्षेत्रना तारतम्यें क्षयोपशमनेदें करी बंधने विचित्रपणे करी तथा उदयनुं तारतम्य विचित्रपणुं असंख्य दें होय, तेथी प्रकृतिभेद पण असंख्याता जाणवा. ते प्रकृतिभेद की वली विश्ने के० स्थितिबंधना जेद असंख्यातगुणा होय, For Private Personal Use Only Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ ७१३ जे जणी जघन्य स्थिति थकी एक समयाधिक, हिसमयाधिक, त्रिसमयाधिक, करतां करतां एम उत्कृष्ट स्थितिस्थानकपर्यंत एकेकी प्रकृति असंख्यात नेदें बंधाय, ते जणी प्रकृति नेदथकी स्थिति नेद, असंख्यात गुणा बे. ते स्थितिनेद थकी विश्बंधद्यवसाया के स्थितिबंधना अध्यवसायना नेद असंख्यातगुणा बे, जे जणी एकेको स्थितिबंध असंख्याते अध्यवसाय स्थानकें तीत्र, तीव्रतर, मंद, मंदतर, एणी पेरें कषायोदयकृत जीवनो अशुद्ध परिणतिनेद ते अध्यवसाय कहीये. ते अध्यवसाय स्थानक को पण कर्मना एक मुहर्तमात्र स्थितिबंधना हेतुनूत रहे, ते माटें स्थितिनेद थकी असंख्यातगुणा अध्यवसाय होय. जे नणी जघन्य स्थितिबंध पण असंख्य लोकाकाश प्रदेश प्रमाण अध्यवसाय स्थानकें होय . तेथकी वली समयाधिक समयाधिक स्थिति तो विशेषाधिक विशेषाधिक अध्यवसाय स्थानकें होय, एम पट्योपमना असंख्यातमा नाग मात्र स्थितिनेद अतिक्रम्या पली जे स्थितिनेद होय, तिहांसुधी बमणां अध्यवसायस्थानक थाय. एम गुणाक स्थानक पण असंख्यातां होय, तेमाटें स्थितिनेदथकी असंख्यातगुणां अध्यवसायनां स्थानक होय. श्रहींयां कर्मनुं जे अवस्थान एटले रहवं, तेने स्थिति कहीयें, तेनो जे बंध, तेने स्थितिबंध कहीयें, तथा कषायजनित जीव परिणामने अध्यवसाय कहीये. ते अध्यवसायने विषे जीव वसे, तेने स्थान कहीये. ते अध्यवसाय जीवने वसवानां स्थान , माटें एजने अध्यवसायस्थान कहीये. तिहां स्थितिबंधना कारपचूत जे अध्यवसाय स्थानक, तेने स्थितिबंधाध्यवसाय स्थानक कहीयें. तेथकी अणुनागगणअसंख{णा के अनुनाग एटले रसबंध, हेतुनां अध्यवसायस्थानक, असंख्यातगुणां डे. तिहां अनु एटले पश्चात् बंधोत्तर कालें अनुनवीयें, ते अनुजाग शब्दें रस कहीयें, ते असंख्याता . जे नणी अंतरमौहूर्तिक स्थितिबंधाध्यवसायस्थानक होय, ते नगर सरखा तथा ते मध्ये एक, बे, त्रण, चार, पांच, उ, सात अने उत्कृष्ट जे आठ सामयिक रसबंधाध्यवसाय स्थानक होय, ते घर सरखा नाना जीवनी अपेक्षायें असंख्याता होय, तथा एक जीवनी अपेक्षायें तो देश, काल, देोत्र, नाव नेदें जघन्य स्थितिबंध पण असंख्यातलोकाकाशप्रदेश प्रमाण रसबंधाध्यवसायस्थानकें पामीये, ते थकी समयाधिक स्थितिविशेषे वली अधिक अधिकतर रसबंधनां अध्यवसाय स्थानक पामीयें, एम सर्वस्थितिबंधाध्यवसाय स्थानने विषे रसबंधाध्यवसायस्थानकनी जावना करवी. ए कारणथी सर्व स्थितिबंधाध्यवसा. यथी रसबंधाध्यवसायस्थान, असंख्यगुणां जाणवां. ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ ए५॥ Page #739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ तत्तो कम्म पएसा, अणंत गुणिया त सरडेया ॥ जोगा पयडि पएसं, 6ि अणु नाग कसाया ॥ ए६ ॥ अर्थ- तत्तो के० ते कर्मना रसबंधहेतु अध्यवसाय थकी कम्मपएसा के कर्मना प्रदेश एटले दल अणंतगुणिया के अनंतगुणा जाणवा. जे नणी रसबंधहेतु अध्यवसाय स्थानक तो असंख्याता बे. अने कर्मवर्गणा ते पण अनंती . ते वली एकेक वर्गणायें अनंता परमाणुश्रा . तेवी अनंती वर्गणा मिथ्यात्वादिकहेतुयें एक समयने विषे जीव, ग्रहण करे .अने रसबंधनां अध्यवसाय स्थानक तो एक उत्कृष्ट आठ समयपर्यंत रहे , तेमाटें अनंता जाणवा. __ तसरया के खीर नींब रसाना श्रधिश्रयण समान अनुनाग बंध अध्यवसाय स्थानकें करी तंफूलसमान कर्म पुजलोने विषे रस जाणीयें छैये. माटें ते कर्मदलथकी कर्मदलना रसाविजाग अनंतगुणा जाणवा. जे जणी सर्व जघन्य रसाणुने विषे पण सर्व जीवथी अनंतगुणा रसावित्नाग रसाणु होय, जे रसना जाग कल्पता, कल्पतां केवलीनी प्रज्ञारूप शस्त्र करी बेदतां, बेदतां जे निरंश अंश रहे, एटले केवली पण जे अंशनो बीजो अंश कल्पी न शके, ते रसाणुनुं नाम, अविनाग पलीछेद कहीये. ते एकेक कर्माणुने विषे पण सर्व जीवथी अनंतगुणा रसाणु जघन्य पदें होय, तेवारें उत्कृष्टपदनुं तो कहेQज ? अने कर्माणु तो अजव्यथी अनंतगुणा अने सिझने अनंतमे नागें होय, ते अजव्यथी सिफ़ अनंतगुणा बे, ते सिफ थकी वली सर्व जीव अनंतगुणा बे, तेथकी पण कर्मदलना रसाणु अनंतगुणा ने माटें. एम सविस्तरपणे प्रदेशबंध कह्यो. हवे ए प्रकृत्यादिक चार बंधने विषे विशेषहेतु कहे . तिहां जोगा के० मन, वचन अने कायानी चेष्टायें करीने पयडि के० एक तो ज्ञानावरणादिकखनाव, एटले ज्ञानादिकने आवरवानो ने स्वनाव जेने विषे एवो प्रकृतिबंध करे, अने बीजो पएसं के प्रदेशबंध एटले कर्मनो दल संचय, ए बे बंध करे, केम के करणवीर्य जे मनो वचन कायादिकनो योग, तेनी उत्कटतायें जो घणुं वीर्य होय, तो तेथी घणां दल मेलवे, अने मध्यमयोगे मध्यमदल मेलवे, तथा योगनी मंदतायें अल्प दल मेलवे, केम के मिथ्यात्वादिक हेतुविना पण केवल योगें करीज बारमे अने तेरमे गुणगणे शातावेदनीयनो प्रकृतिबंध तथा प्रदेशबंध करे, अने योगने अनावें चौदमे गुणगणे प्रकृतिबंध तथा प्रदेशबंध न करे, तेणे अन्वयव्य तिरेके करी प्रकृतिबंध तथा प्रदेशबंधना हेतु योग कहीये. Page #740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ ७१५ तथा हि के एक स्थितिबंध अने बीजो अणुनागकसाया के अनुन्नागबंध, ए बे बंध, कषायने तारतम्यपणे होय, केम के उत्कृष्ट कसाय संक्लेष स्थिति पण उत्कृष्टी बंधाय, तथा अशुज प्रकृतिनो रस, उत्कृष्ट बंधाय, अने शुज प्रकृतिनो रस मंद बंधाय, तेमज मध्यम संक्षे मध्यम रस बंधाय. एम कषायनी अनुवृत्तियें बंध होय, तथा कषाय पण दशमा गुणगणा पर्यंत होय, अने कर्म प्रकृतिनो स्थितिबंध पण तिहां लगेंज होय, तेमाटें ए बे बंधनुं असाधारण कारण कषाय जाणवो. एम चार बंधना स्वामी तथा हेतु ए उत्कृष्ट जघन्यपणे विस्तार सहित कह्या. ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ ए६ ॥ हवे योगस्थानादिकने विषे लोकाकाशनी श्रेणीनुं असंख्यातनागादिक मान कह्यु, ते जो श्रेणीनु मान जाणीयें, तो सुखें समजी शकीयें, ते माटें श्रेणी प्रतर घनादिकनुं मान कहे . ॥ अथ श्रेणीप्रतरखरूपमाह.॥ चनदस रख लोगो, बुद्धिक सत्त रङ्गु माण घणो॥ तद्दीदेग पएसा, सेढी पयरो अ तवग्गो॥ ए॥ अर्थ- सुप्रतिष्ठित संस्थाने सर्व लोक बे. जेम एक शरावढं अधोमुख राखीये, ते उपर वली एक शरावतुं समुं राखीये, ते उपर वली एक शरावढं अधोमुख राखीयें, ए रीतें नीचो सातमी नरकें सात राज लांबो पहोलो बे, अने त्रिगुणी जाजेरी परिधि जे. तिहाँ थकी एकेक प्रदेशे हीन करता करतां रत्नप्रजा पृथवीयें एक राज लांबो पहोलो होय. तिहांधी वली एकेक प्रदेश वृद्धि होती होती पांचमे देवलोके पांच राज पहोलो होय. तिहांथी वली एकेक प्रदेशें हीन करता करतां लोकाग्र एक राज पहोलो होय. ए श्राकारें चउदसरझुलोगो के चौद राज लोक . ते मध्ये एक राज लांबी, पहोली श्रने चउद राज उंची त्रसनामी बे, ते त्रस जीवें करी सहवर्तमान बे. उपरांत स्थावर जीवो डे ते लोकनो बुद्धिकसत्तरमाणघणो के० "बुझिये कल्पनायें करी घन करतां सात राज लांबो, पहोलो अने सात राज उंचो ' चउरस घन कल्पीयें, ते कल्पनानो प्रकार देखाडे . जे श्राकारें अधोलोक , तेनो एक पाशानो खंग, ते जिहां सातमीना तलने नागें त्रण राज पहोलो , तिहांथी एकेक प्रदेश हीण थातो जिहां एक प्रदेश मात्र रहे, ते प्रदेश- पाशुं जिहां सातमी नरकनो चार राजनो खंग बाकी रह्यो , ते दिशायें राखीयें, अने त्रण राज पहोलुं पाशुं ते एक राज जिहां रत्नप्रजा पृथवी Page #741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१६ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ पहोली ने ते दिशायें राखीये, तेवारें चार राज पहोलपणे अने दीर्घपणे थाय, श्रने सात राज्य जाजेरुं जंचपणे एवो लोकनो अर्डखम थाय, अथवा प्रसनामी थकी दक्षणदिशिना अधोलोकनो खंम, ते नीचें त्रण राज पहोलो बे, अने पडी प्रदेशे प्रदेशें घटतो उपरें एक प्रदेश सांकमो बे, अने उंचो सात राज जाजेरो बे. तेने उपामीने त्रस नामीने उत्तर दिशियें विपरीतपणे जोमीयें, एटले हेग्लनुं पहोलपj ते उपर श्राणीयें, अने उपर सांकमो , ते नीचे लावी मूकीयें, एटले अधोलोक सात राज जाजेरो उंचो श्रने चार राज पहोलपणे सर्वत्र सरखो थाय. हवे अवलोक ऊर्ध्व मामलने श्राकारें बे. तिहांत्रसनामिथी बाहेरनु एक पाशानुं अर्ड,बच्चेथी बेदीने जे पाशाये मध्य त्रण राज पहोर्बु , ते पाशें एक प्रादेशिक तिर्बा नाग उंचा, नीचा जोमीयें, तेवारे त्रण राज लांबो, पहोलो अने किंचिन्न्यून सात राज ऊंचो एवो ऊर्ध्वलोकनो घन थाय, एटले अवलोकें त्रस नामी थकी दक्षणदिशिनो खंग बे राज पहोलो श्रने किचिन्न्यून सात राज उचो तेमांहे ब्रह्म देवलोकना मध्यथकी हेलो श्रने उपरलो खंग करीने त्रस नामीने उत्तर पासें विपरीतपणे थापीयें, एटले पहोलपणुं हेवल करीयें, अने सांकमापणुं वच्चें ब्रह्म देवलोके आणीने थापीयें. एम जेवारे नीचें उपर थापीयें, तेवारें ऊर्वलोक त्रण राज पहोलो अने किंचिन्न्यून सात राज उंचो, सर्वत्र थाय. एवो ऊर्ध्वलोकनो घन थाय. ते किहांएक थोडं अधिकुं उडं होय, तेने पोतानी बुद्धियें अधिकुं उडं मांहे नेलीने सरखं करीये. तेवार पली लोकनुं उपरतुं अर्ड उपामीने अधोलोकने संवर्तिने दक्षणपाशें जोडीयें, एटले सात राज पहोलो, सात राज लांबो अने सात राज ऊंचो, एम समचतुरस्त्र घन लोक थाय. अहीं अधोलोकना सात राज जाजेरा . तेम ऊर्ध्व लोकना सात राज माठेरा बे, ते मेलवतां पूर्ण थाय. __एना एक राज लांबा, पहोला तथा एक राज उंचा, एवा खांमुआ करीयें, तेवारें त्रणसें ने तेंतालीश खंमुक थाय. ए सर्व स्थूल व्यवहारनयें कडं, जे नणी लोक तो वृताकारें बे अने ए घन तो समचतुरस्त्र थयु माटें एने वृताकारें करवाने अर्थे त्रणसें तेंतालीश खंगुकने उंगणीश गुणा करीने बावीश नागें हरीयें, तेवानवृताकारें लांबो, पहोलो थाय, पण ए नय कांशएक ऊणाने पण पूर्ण कहे , ते माटें व्यवहार थकी सर्व ठेकाणे सात राजनोज घन कह्यो बे, तेथी खांमुश्रा न थाय तो पण न गणवो. अहीं एक राज ते स्वयंजुरमण समुअनी पूर्वदिशिनी वेदिका थकी पश्चिम दिशिनी वेदि. Page #742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५. งกุง कापर्यंत तथा उत्तरदिशिनी वेदिकाथकी दक्षिणदिशिनी वेदिकापर्यंत श्रसंख्याता arrant योजन प्रमाण जाणवुं. ए घनवृत लोकना घनवृत चतुरस्र खंडुक (209) थाय. ती गपएसा के० ते घनीकृत सात राज लोकनी एक प्रादेशिक श्रेणी मोतीनी लगनी पेरें (oooooo ) सात राज लांबी एकेका आकाश प्रदेशनी पंक्ति तेने सेढी ० श्रेणी कहीयें, एटले श्रेणी असंख्यांश जे ठेकाणे कयुं होय, तिहां ए श्रेणीनुं संख्यांश लेवुं, अने पयरोखतवग्गो के० ते श्रेणीनो वर्ग करीयें, एटले ते श्रेणीमांदे जेटला प्रदेश होय, तेने तेटला साथै गुणीयें तेने प्रतर कहीयें. एटले सात राज लांबो, पोलो, एक प्रदेशदलें मांडानी पेरें चतुरस्र, ते प्रतर कहीयें, माटें जिहां प्रतर कयुं होय, तिहां एक श्रेणीना वर्ग प्रमाण प्रदेश लेवा, तथा ते प्रतरना प्रदेश ते वली श्रेणीना प्रदेश सार्थे गुणीयें, तेने घन कहीयें, यथा असत्कल्पनायें श्रेणीना पांच प्रदेश बे, ते सूची कहीयें. अने तेने पांच गुणा करतां पच्चीश थाय, तेने प्रतर कहीये, तेने वली तेहीज श्रेणीना पांच प्रदेशें गुणी यें, तेवारें एकसो पच्चीश थाय, तेने घन कहीयें. यहीं सात राज लांबो, सात राज पोहोलो श्रने जाडपणे एक प्रदेशनो प्रतर जाणवो. एम सप्रसंग सविस्तर प्रदेशबंध को ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ ए ॥ इति पएसबंधो सम्मत्तो ॥ हवे च शब्दे संसूचित उपशम श्रेणी तथा रूपक श्रेणीनुं स्वरूप कहे बे. ते मध्यें पण प्रथम अनंतानुवंधियाना उपशमनो विधि कहे . ॥ योपशम श्रेणीमाह. हवे उपशम श्रेणीनुं स्वरूप, अनुक्रमें कहे बे. ॥ दंस नपुंसि बी, वे चकं च पुरिस वेयं च ॥ दोदो एवं तिरिए, सरिसे सरिसं नवसमेइ ॥ ए८ ॥ अर्थ - तिहां एक अविरति सम्यकदृष्टि, बीजुं देश विरति, त्रीजुं प्रमत्त, चोथुं अप्रमत्त, ए चार गुणठाणे वर्त्ततो जीव ज्ञानोपयोगी व लेश्यामांदेली शुन ar लेश्याना परिणामें शुजाध्यवसायें करी पुण्यप्रकृतिना बेठाणीश्र रसने स्थान चोटाणा रसने निपजावतो अने अशुभ प्रकृतिना चोवाणीधा रसने 'स्थानकें बेठाणी रस करतो तिहां बंधविरोधिनी प्रकृतिमध्यें त्रसादिक शुभ प्रकृतिनो बंध करतो अंतरमुहूर्त्त यथाप्रवृत्तिकरणें वर्त्ततो पूर्वला पूर्वला स्थितिबंध थकी आागलो आगलो स्थितिबंध पस्योपमासंख्येय जागें हीन करतो अंतर मुहूर्त्त यथा प्रवृत्तिकरणे रही पी पूर्वकरणे अनंतगुण विशुद्धियें वधतो चडे, तिहां घुरबी स्थितिघात, रसघात, गुणश्रेणी, गुणसंक्रम अने अपूर्वबंध, ए पांच वानां प्रवर्त्ते. तिहां For Private Personal Use Only Page #743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ १८ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ सर्व कर्मनी जेटली स्थिति शेष रही बे तेना उपरला जागथी सागरोपम पृथक्त्व प्रमाण स्थिति खंगी जघन्य तो पढ्योपमासंख्येयजाग प्रमाण स्थिति खंमीने तेना दलीया उदयकालनी स्थितिथी उपरली उपरली स्थितिने विषे ययोक्त असंख्यात गुणाकारें वधता दलिक संक्रमावतो जाय. एम अंतः स्थिति सर्वोत्कृष्ट दल संक्रमावे, तथा एकेक अंतरमुहूर्त्ते स्थिति खं करतो अनेक सहस्र खंम करे; तेथी प्रथम जे रस हतो, तेनो अनंतमो नाग रस शेष रह्यो, बीजो सर्व खपाव्यो, एम दीन रस थया. एव कर्मदल ते जीर्ण काष्टने अनि सुखें बाली शके, तेम एनां कर्म पण सुखें निर्जराय, तेणे असंख्यातगुणी निर्झरा वधे. ए गुणश्रेणी अपूर्वकरणें चढतां जीव विशुद्धि स्थानक विचित्रपणे सत्रिकोण क्षेत्र रुंधे. तथा त्रीजुं छानिवृत्तिकरण मोतीनी लटनी पेरें बे, एने विषे सर्व जीव एकज विशुद्धियें चढे, जे जणी तिहां पण स्थितिघात, रसघात, गुणश्रेणी, गुणसंक्रम, ए चार वानां पूर्वकरणनी पेरें प्रवर्त्ते, पण एटलुं विशेष जे निवृत्तिकरणने संख्यातमे जागें गये थके एक प्रथम स्थिति, बीजो अंतर करण, ए बेहु नवी बंध स्थितिने अंतरमुहूर्त्त प्रमाण नीपजावे. तिहां अंतर करणें अंतरस्थितिनां दल बेइ लेने केटलाक प्रथम स्थितिमध्यें अने केटलाएक उपरली स्थितिमध्यें संक्रमावे, एम संक्रमावतांबे व शेष प्रथम स्थिति रहे, तेवारें गुणश्रेणी निवर्ते, तथा बीजी स्थितिना दलनी उदीरणा ते आगलें कहीयें, ते पण निवर्त्ते ने एकावलिका शेष प्रथम स्थिति रहे, तेवारें रसघात, स्थितिघात अने उदीरणा, ए त्रण नीवर्त्ते. ए प्रथम सम्यक्त्व उपजावे, तिहां उपशमविधि को यहीं अनिवृत्तिकरणें गुण संक्रमे अनंतानुबंधी आनुं दलिक लही प्रत्याख्यानीया कषायादिकपणे संक्रमावतो चरम समये सर्व संक्रम करे. एम ऋण के अनंतानुबंधीय उपशमावे. तेवार पढी मिथ्यात्वमोहनीय, मिश्रमोहनीय, अने सम्यक्त्वमोहनीय, एत्रण दंस के० दर्शनमोहनीयने पण साथै उपशमावे, तेवारें उपशम सम्यकदृष्टि थाय. श्रींयां जोपण वेदक सम्यकदृष्टिने अनंतानुबंधी या कषाय चार तथा मिथ्यात्व - मोहनीयादिकनो रसोदय नथी, तोपण प्रदेशोदयनो विधि जावो. ते पढी जेणे स्त्रीवेदें उपशमश्रेणी खारंजी होय, तो नपुंस के० प्रथम नपुंसकवेद खपावे, पी पुरिसवेच के० ' पुरुषवेद खपावे, अने पढ़ी तक के० हास्यादिक षट्क, ते पी वेि के० स्त्रीवेद उपशमावे अने जो पुरुषवेदें श्रेणी आरंजी होय तो प्रथम नपुंसक वेद, पढी स्त्रीवेद, पढी हास्यादिक षट्क अने पढी पुरुषवेद For Private Personal Use Only Page #744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ १ उपशमावे. तथा नपुंसकवेदें श्रेणी आरंजी होय तो प्रथम स्त्रीवेद, पढी पुरुषवेद, पी हास्यादि षट्क ने पढी नपुंसकवेद उपशमावे. ते पी दोदोएगं तिरिएस रिसेसरिसंडवसमेइ के० अप्रत्याख्यानावरण क्रोध अने प्रत्याख्यानावरण क्रोध, ए बेहु उपशमावे, ते पछी संज्वलनक्रोध उपशमावे, ते पी श्रप्रत्याख्यानावरण मान छाने प्रत्याख्यानावरणं मान, ए बेहु उपशमावे, ते पढी संज्वलन मान उपशमावे, ते पढी अप्रत्याख्यानावरण माया छाने प्रत्याख्यानावरण माया, ए बेहु उपशमावे, ते पछी संज्वलन माया उपशमावे, ते पढी श्रप्रत्याख्यानावरण लोन ने प्रत्याख्यानावरणा लोन उपशमावे, एटले बादर संपरायनामा नवमुं गुणस्थानक पूर्ण थाय. पढी दशमा सूक्ष्म संपरायनामा गुणस्थानके रह्यो, सूक्ष्म संज्वलन लोने स्तिबुक संक्रम प्रकारें उपशमावीने उपशांतमोही थाय, तिहांथी जवहयें पकतो अनुत्तर सुर थाय, जे जणी अबद्धायु तथा बद्ध सुरायुवालो उपशमश्रेणी करे बे. तेमध्यें वायु वालो तो मरण पामे नहीं, अने बद्धायुवालो जो मरे, तो धनुत्तर देव थाय, तिहां गीखारमाथी चोथे गुणठाणे यावे, तिहां सर्व करण समकालें प्रवर्त्ता, अने कालक्षयें पडे तो जिहां चढतां जे बंधादिकनो विछेद कीधो हतो, तिहां हिां वली ते बंधादिक प्रगट करतो जाय, तथा रूपकश्रेणीथी उपशमश्रेणीनी मंद विशुद्ध बे, ते जणी अपूर्वबंध बमणो बमणो करे. सूक्ष्म संपरायना चरम समयें नाम तथा गोत्र कर्मना शोल मुहूर्त्तनो बंध करे, वेदनीयनो चोवीश मुहूर्त्तनो बंध करे, अने ज्ञानावरणादिकनो बे बे मुहूर्त्तनो बंध करे. एम चढतां तथा उतरतां सर्व स्थानें मण मण बंध करे. एम उपशमनावीधि तथा विसंयोजना विधि, सर्वसत्तरी नामा बड़ा कर्मग्रंथना बालावबोध थकी जाणवो, तथा कर्मप्रकृतिनी टीकाथी सविस्तर जावो. ॥ ए८ ॥ ॥ श्रथ रूपकश्रेणीमाह || हवे रूपकश्रेणीनो विधि कडे. ॥ मित्र मीस सम्मं, तियान इग विगल थी। तिगुजो ॥ तिरि निरय थावर डुगं, सादारायव प्रड नपुंसि बी ॥ एए ॥ अर्थ-तिहां रूपक श्रेणीनुं प्रारंजक संख्याता वर्षायुवाली कर्मभूमि जात मनुष्य प्रथम संघयणी अत्यंत विशुद्धमान परिणामी, अविरति, देश विरति, प्रमत्ताने श्रप्रम 'तादिक गुणठाणे वर्त्ततो जो पूर्वधर होय, तो शुक्लध्यानें वर्त्ततो होय, अने बीजो होय तो विशुद्ध धर्मध्यानें वर्त्ततो प्रथम अण के० चार अनंतानुबंधी या कषायनी क्षपणा आरंजे, तेने त्रण करणें करी खपावतां, खपावतां जेवारें अनंतमो जाम शेष रहे, For Private Personal Use Only Page #745 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ तेवारे ते नाग मिठ के मिथ्यात्वमोहनीयमांहे घालीने खपावे, जेम अनिये अर्द्ध बलेलो इंधण त्रीजुं इंधण पामी बेहु बले. एम क्षपण पण तीव्र परिणामे करी ते दल अस्प प्रकृतिमाहे संक्रमावी, बेहुने खपावे. वली मिथ्यात्वनुं शेष दल रहे ते मीस के० मिश्रमोहनीयमां घाली खपावे अने मिश्रमोहनीय, शेष दल रहे, ते सम्यक्त्वमोहनीयमां घाली खपावे.सम्मं के सम्यक्त्वमोहनीयनो लोग्वंम उकेरीने दपककृत करणाझायें वर्ततोजो पूर्वबझायु तिहां मरण पामे, तो अपतित परिणामें देवगति पामे, अने पतितपरिणामें चारे गतिमांदे अवतरे.तिहां ते गतिमध्ये सम्यक्त्वमोहनीय खपावी तेना चरमग्रासें एक समय वेदक सम्यक्त्व लहीने, सर्व सम्यक्त्वमोहनीयने खपावी दायिक सम्यक्त्व लहे, एम दर्शनमोहनीय क्षपणानो आरंजक मनुष्य, क्षपणानी पूर्णता तो चारे गतिमध्ये करे, ते माटें दायिकसम्यक्त्वनो लाज, चारे गतिमध्ये संजवे, तथा बझायुवालाने ए सात प्रकृति खपावी रह्या पनी जो आयु शेष रहे, तो तिहां चारित्रमोहनीयने क्षपणा करनारी श्रेणी न करे, श्रने अबघायु तो चारित्रमोहनीयनी संपूर्ण क्षपणा करीने केवलज्ञान पामे. चारित्रमोहनीयनी क्षपणा मांमतो प्रथम तिबाउ के नरकायु, तिर्यगायु श्रने देवायु, ए त्रण आयु खपावे. अहीं जो पण त्रण श्रायुनी सत्ता नथी, तो पण संजव सत्तानी अपेदायें दपणा कही. जे जणी जेणे पोतपोताना चरमनवने प्रांतें आपापणुं आयु खपावी, मनुष्यजव लही दर्शनमोहनीयनी क्षपणा करी, शेष त्रण नवना थायुनी बंधयोग्यता मटामी , तेहीज चारित्रमोहनीयनी कपणा श्रारंने. ते अपेक्षायें क्षपणा कही, शेष एक मनुष्यायुज उदय तथा सत्तायें वर्ने बे. तेवार पड़ी अपूर्वकरणनामा श्रावमुं गुणगणुं दपणाने अर्थे करी नवमा अनिवृत्ति गुणगणाना नव नाग करी तेने बीजे नागें ग के एकेंपियजाति, विगल के विकलेंजियजाति त्रण, एवं जाति चार तथा श्रीणतिग के० थीणहीत्रिक, उजोडं के उद्योतनाम कर्म, तिरिनिरयथावरफुगं के० तिर्यंचछिक, नरकछिक, थावर अने सूक्ष्म, ए स्थावरहिक, साहारायव के साधारण नाम, श्रातपनाम, ए शोल प्रकृति खपावे. कोशएक आचार्य कहे जे के ए शोल प्रकृति खपावतो वच्चे अम के० अप्रत्याख्यानीय तथा प्रत्याख्यानीय आठ कषाय खपावीने पबी ए शोल प्रकृति खपावे, अने को एकत्राचार्य कहे जे के, ए शोल प्रकृति खपाव्या पली त्रीजे नागें था प्रकृति खपावे, ते पड़ी नपुंसिबी के नपुंसकवेद दय करे, ते पड़ी स्त्रीवेद क्षय करे. ॥एए॥ Page #746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ १ ग पुम संजलणा दो, निदा विग्घावरण खए नाणी॥ देविंद सूरी लिदिअं, सयगमिणं आय सरणा ॥ १० ॥ अर्थ-पढी बग के हास्यादिक ब प्रकृति खपावे, पठी पुम के० पुरुषवेद खपावे, तिहां जो स्त्रीवेदें कपकश्रेणी श्रारंने तो प्रथम नपुंसकवेद खपावे, पनी पुरुषवेद खपावे, पनी हास्यादिक उ प्रकृति खपावे, अने ते पठी स्त्रीवेद खपावे, अने जो नपुंसकवेदें श्रेणी आरंने तो पहेढुं अनुदीरण पण स्त्रीवेद खपावे,पली पुरुषवेद खपावे, पठी हास्यादिक प्रकृति खपावे, ते पड़ी नपुंसकवेद खपावे, अने जो पुरुषवेदें श्रेणी आरंने, तो प्रथम नपुंसक वेद खपावे, पठी स्त्रीवेद खपावे, पनी हास्यादिक उ प्रकृति खपावे, ते पठी पुरुषवेद खपावे. ___ हमणां जे पुरुषवेदे श्रेणी आरंने, ते स्त्रीवेददय साथे पुरुषवेद तथा दास्यादिक प्रकृतिनो बंध व्यवछेद करे, तिहां नोकषायनां दल बे श्रावली शेष हुँते वेद पतग्रह न थाय, तेथी संज्वलन क्रोधमांदे संक्रमावे, एम जे अंतरमुहत्” हास्यादि षट्रक क्षीण थाय, ते समय पुंवेदनो बंध, उदय श्रने उदीरणा विछेद थाय, अहीं बे श्रावली बांध्यु जे पुरुषवेद दल, ते विना बीजुं सर्व वीण थयुं बे. हवे अवेदक थको क्रोध वेदतो स्थिति अझाना त्रण जाग करे. एक अश्वकरणाझा, बीजो कीटीकरणाझा, त्रीजो वेदनोझा, तिहां प्रथमाकायें वर्चतो पुरुषवेद पण समयोन बे श्रावलि काले गुण संक्रमे, संक्रमावतो, संक्रमावतो, बेहेले समये सर्व संक्रमे; संक्रमावे. अहीं पुंवेद क्षीण थयो, अने अश्वकरणाद्धा पूर्ण थयो, ते पनी बीजा कीटीकरणाझायें प्रवेश करे, तिहां एकेका कषायनी अनंती कीटी एटले खंग करे, ते अनंती पण असत्कल्पनायें चार कल्पीयें, तो पण संजलणा के संज्वलना चार कषाय मध्ये जो क्रोधोदयें पमिवजतां शोल अने मानोदयें पडिवजतां बार तथा मायोदयें पविजतां श्राप अने खोजोदयें पडिवजतां चार कोटी होय, ते मांहेलुं एकेक कीटीनुं दल गुण संक्रमें, संक्रमावतो एक चरम कीटी रहे, तिहां संज्वलन क्रोधनो बंध, उदय श्रने उदीरणा विद थाय, परंतु सत्तायें बेहेलु 'बांधेलु बे श्रावली मात्र रह्यु तेने पण माननी प्रथम स्थिति कीटीदलमां क्रोधना दलने आकर्षीने तिहां गुण संक्रमे, संक्रमावे, चरम समयें सर्व संक्रमे, संक्रमावे, तेवारें तिहां क्रोध दीण थयो. ए रीतें संज्वलना माननी कोटी पण उपरली स्थितिमांदेथी नीची स्थितिमांहे उतारी वेदतो गुण संक्रमे, संक्रमावतो, संक्रमावतो, जेवारें चरम एटले बेहेली कीटी रहे, तेवारे तेने मायामांहे संक्रमावी खपावे. तेम Page #747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ मायानी पण चरम कीटी, संज्वलना लोननी प्रथम कीटीमांहे संक्रमावी खपावे, संज्वलन कीटीन दल प्रथम स्थितिगत करी वेदें, ते वेदतो श्रागली कीटीन दल तेनी सूक्ष्क्षसूक्ष्म कीटी करे, ते पण त्यांलगें करे के, ज्यांलगें संज्वलन लोजनी बीजी कीटी समयाधिक श्रावली मात्र रहे, तिहां संज्वलन लोननो बंध व्यवछेद थाय%; तथा बादर कषायनो उदय अने उदीरणा पण व्यवछेद थाय, अनिवृत्तिगुणस्थानकनो काल पण व्यवछेद थाय. ए त्रण साथें व्यवछेद थाय. ते पड़ी सूमसंपराय कीटीदल प्रथम स्थितिगत करी वेदे, तेथी तेने सूक्ष्मसंपराय गुणगणुं कहीये. तेना संख्याता नाग जाय, तिहां लगें मोहनीयमांहे स्थितिघातादिक पांच पदार्थ प्रवर्ते. जेवारें एक नाग शेष रहे, तेवारें स्थितिघातादिक पांच पदार्थ विरमे. शेष ज्ञानावरणादिक कर्मना स्थितिघातादिक रहे, तिहां अपवर्तना करणे करी सूक्ष्मसंपराय असा जेटलो लोन करे, ते संज्वलनो लोन श्रावली मात्र रहे, तेवारें उदीरणा टले, बेहेली श्रावलीयें उदय करी वेदी खपावे. एम सूदमसंपरायना चरम समये सर्व मोहनीयने दीण करी क्षीणमोही थयो. तिहां जेम कोइएक तारु पुरुष, महोटो समुल तरतो थको वचमां छीप पामी विश्राम लेश वली श्रागल तरवा मांडे, तथा कोश्एक योद्धो पुरुष, महासंग्राम करतो शत्रुने हणतो हणतो थाके, तेवारें वली विश्राम ले समूलगो शेष शत्रु जीतवाने सज थाय. तेम ए जीव पण सबल पुर्जय शत्रु जे महामोह तेने कीपतो संग्राम करतो करतो थाको, तेमाटें ते यथाख्यात चारित्ररूप विश्रामस्थानक पामी वली शुक्लध्यानना बीजा पादें प्रवछमान वीर्यवंत थयो थको अंतरमुहूर्त्तना हेला बे समयमध्ये प्रथम समयें निदा के निडा अने प्रचला, ए बे प्रकृति खपावे, अने बेहेले समयें विग्यावरणखए के पांच अंतराय, पांच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, ए चौद प्रकृति खपावी, निश्चय नयें बारमा गुणगणाने बेहेले समय नाणी के केवलझानी थाय, अने व्यवहार नयने मतें तेरमा गुणगणाने प्रथम समयें केवलज्ञानी थाय. एम त्रेश प्रकृतिनो क्षपणाविधि कह्यो. ए दपकश्रेणीने संदेपें कही एनो विस्तार बहा कर्मग्रंथना बालावबोधमां लख्यो , तेमाटें अहींयां थोडा बोलें घणुं जाणवू. ___ए लघुशतक एवे नामें पांचमो कर्मग्रंथ जे जणी महोटो शतक श्रीशिवशर्मसूरिकृत जोश्ने तथा पंचसंग्रह, कर्मप्रकृति प्रमुख शास्त्र तथा चूर्णिका प्रमुख घणा ग्रंथ जोश्ने परमगुरु गठाधिराज तपाबिरुद प्रवर्तक, महावैरागिकशिरोमणि, नहारक श्रीजगञ्चं सूरीश्वर चरणकमलयोरालंबायमान सर्वागमिकचक्रवर्ति बिरुदधारक अनेक विद्यानंद धर्मकीर्ति प्रमुख बहुश्रुत परिवार परिवृता श्राझदिनरुत्य सूत्रवृत्ति Page #748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ ७२३ चैत्यवंदनादि नाष्यत्रितय संघाचारादि तईत्ति लघुउपमिति जवप्रपंचायनेक ग्रंथ सूत्रेण सूत्रधारायमान तपागठाधिराज जट्टारक श्री देविंदसूरिलहिथं के देवेंअसूरिश्वरें लख्यो. सयगमिणं के० शतक एवे नामें ग्रंथ, ते आयसरणछा के पोताना आत्माने संजारवा निमित्तें लख्यो. ते सर्व संघने सुखदायक थाजो. ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ १० ॥ ॥अथ प्रशस्तिः ॥ ॥श्रीवीरपटेश्वरमौलिमौलिः, कलालयोऽझानतमोविनाशी॥अजूत्तपाख्यातिसुकौमुदी. नूत् सूरिङगच्चंग इति प्रसिद्धः॥१॥ तत्पटपुष्कर विनासनराजहंसो, हृद्योऽनवद्यवचन स्थितराजहंसः ॥ देवें सूरिरजवनवतापन्नेदी, वेदीव दीव्यतिपरानुनवस्य यजी ॥२॥ यदुझानादिवियुक्तेषु, प्रियमेलकतामगात् ॥ श्रीमद्देवेंसूरीणां, वचस्तीर्थ पुनातु वः ॥३॥ श्रीमद्देवेंगुरो, मलयगिरिगुरोगिरां गुरुत्वमहो ॥ श्राप्तान्नुन्नयति शिवः स्वज्रमनाप्तांस्तु पातयति ॥ ४॥ सुवर्णा सत्पदन्यासा, सालंकारासुरेंडगौः ॥ श्रवतेऽर्थपयोधारां, मंददोधाऽपि नोदिता ॥५॥ इति शतकटबार्थ प्रार्थनां प्राप्य किंचि, दलिख मिहमदोषामग्रजस्यार्थसारं ॥ हि शशि घन मितेऽन्दे निर्दिशे निर्दिशेयं, यदिह जवति उष्टं तबुधाः शोधयंतु ॥ ६॥ विबुधगुरुवर्णितयश, स्तोमयश स्सोमगुरुशिष्याणुः ॥ जयसोमोऽलिखदेना, नाषामात्मस्मृतौ शतके ॥॥इति प्रशस्तिः॥ Reladdakadcastoteofoteofoteote ote ote otes cococooooooooo១០២១១២២២២២២១២១ ॥इति श्री यशःसोमकृत बालावबोधसहितः शतकनामा पंचम कर्मग्रंथः समाप्तः ॥ % ege accorcareeroyenergerecogeneoegoryeseseesayeseen Page #749 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #750 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ.६ । २५ ॥अथ ॥ ॥श्रीमदत्तराचार्यप्रणीत सप्ततिका नामा षष्ठः कर्मग्रंथः समारन्यते ॥ ॥ तत्र प्रथमं ॥ ॥ बालावबोधकारकृत मंगलाचरणम् ॥ ॥अर्यावृत्तम् ॥ ॥प्रणिपत्य पार्श्वदेवं, स्मृत्वा खगुरुं गिरं च नागवतीं ॥ सप्ततिकायाव्याख्यां, कुर्वेऽहं वालबोधार्थ ॥१॥ मत्तोपि मंदमतयो, न जानते येहि चूर्णिटीकोक्तीः॥ तबोधानुग्रहधी, विषयोयत्नः शुनोयंतत् ॥२॥ केचित्परात्मसंवि, द्विकला विकलाः कलौ खलायंते ॥ तेन्यो न कापि नीतिः, संतः संतोषजाजश्चेत् ॥३॥श्रीहर्षसोमविबुधान्, सुयशः सोमानिधानकविश्रेष्ठान् ॥ नत्वा सप्ततिकाया, लिखामि जननाषया व्याख्याम् ॥४॥ प्रथम श्रीपार्श्वनाथ परमेश्वरने नमस्कार करीने पोताना दीदागुरु अने विद्यागुरु, तेनां पदकमलने नमीने, महारा थकी जे तुलबुझिना धणी, जेने टीका अने चूर्णीयें करी अर्थ समजवामां न आवे, तेवा पुरुषोना हितने अर्थे सत्तरी नामा बहा कर्मग्रंथनो बालावबोध लखुं बुं. ॥ मूल गाथा ॥ सिह पएहिं मह, बंधोदय संत पयडिहाणाणं ॥ वुद्धं सुण संखेवं, नीसंदं दिहि वायरस ॥१॥ अर्थ-सिफ के अचल एटले कोश्थी खोटा करी न शकाय, एवा पएहिं के पद ले जेने विषे, एवा कर्मपाहुडा, कर्मप्रकृति, अने कम्मपयमी प्रमुख जे ग्रंथ जे जणी तेनां पद सर्वज्ञ जाषित ने ते कोश्थी पण खंडी शकाय नहीं; त्यां महबं के० महोटा अर्थ एटले घणा श्रर्थ जे जेने विषे तिहांथी बंधोदयसंतपयमिठाणाणं के बंध, उदय अने सत्तापणे परिणम। जे कर्मनी प्रकृति, तेना स्थानकनो संखेवं के संदेपें एटले थोडे श्रदरें घणो अर्थ समजाय, अथवा विस्तारवंत अर्थ साथें थोडा माहे आणीने एवी रीतें वचन रचना प्रकारें, करी वुद्धं के कहेगु, तेजणी हे शष्य ! तुं सुण के सावधान थश्ने सांजल, पण ते संदेप केवो बे ? ताके-दिहिवायस्स के दृष्टिवाद एटले समस्त जिनागमरूप समूह, तेनुं नीसंदं के करj , जे जणी बारमुं अंग दृष्टिवाद ले तेना एक परिकर्म, बीजुं सूत्र, त्रीजो पूर्वानुयोग, चोथो पूर्वगत अने पांचमी चूलिका, ए पांच अधिकार ले. तेमांहें चोथो पूर्वगतनामा अधिकार , तेने Page #751 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२६ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ । विषे चौद पूर्व बे. ते माहेबुं बीजु श्रग्रायणीनामो पूर्व, ते मध्ये चौद वस्तुपरिमाण बे, ते मांहेला पांचमा वस्तुपरिमाणमां वीश पाहुमा बे. पाहुडा एटले अधिकार विशेष जाणवो. ते वीश पाहुमामांदेलो चोथो कर्मप्रकृतिनामा जे पाहुडो , ते चोवीश अनुयोगद्यारसहित बे, ते पाहुडा थकी बंधोदयसचापणे परणमी जे कर्मनी प्रकृति, तेनां स्थानकनो संवेध एटले विचार ते संदेप थकी हुँ कहीश, एटले ए शास्त्रपरंपरायें सर्वज्ञ नाषित बे, ते जणी सहुने प्रमाण होय ___ अथवा बीजे अर्थे सिद्ध के० स्वसमय प्रसिक जे पद के चौद जीवस्थानक, चौद गुणगणां इत्यादिक पद ते श्राश्रयी बंध, उदय अने सत्तायें प्रकृतिस्थानक सन्नाव आश्री संदेप बोलीश, तथा संवेध एटले विचार अथवा संवेध एटवे परस्परें बंध, उदय, सत्तानुं जोडवू, दृष्टिवाद के बादशांगीतुं रहस्य अथवा दृष्टिवादनी अपेक्षायें ए सत्तरी प्रकरण बिंपुथा समान , ते हे शिष्य ! तुं सांजल. - तिहां आत्मप्रदेशने कर्म परमाणुनी साथें अग्नि लोहनी पेरें सर्वांशे मल, तेने बंध कहीये. ते कर्म परमाणुना शुजाशुन रसनुं नोगवq तेने उदय कहीयें. तेहवा बांध्या तथा संक्रम्या जे परमाणु, ते जिहां लगें निर्जरे नहीं, तिहां लगें तेनो जे सन्नाव, तेने सत्ता कहीयें, अने प्रकृति स्थानक एटले समुदाय, जेम के बे,त्रण,चार, पांच इत्यादिक प्रकृतिना थोकमा ते ज्यां लगें जेटला होय, त्यां लगें तेटला प्रकृतिनां स्थानक जाणवां, ए सर्वनो विचार, तेनो संक्षेप एटले थोडे श्रदरें घणो अर्थ समजाय तेवी रीतें कहीशु, पण ते संक्षेप केवो ? तोके-महब के० घणा अर्थ बेजेमां एवो बे. अहींयां बंधोदय सत्ता प्रकृतिस्थान कहेगुंते अनिधेय जाणवू, अने अनिधायक शास्त्र तेने वाच्यवाचक नाव, ए संबंध जाणवो. तथा एग्रंथें अधिकारी कर्मनी बंधोदय प्रकृति स्थाननी विवेचनाथी महा अधिकारी मोक्षार्थी जीव जाणवा, अने ते कर्म विचारनुं जे समजवु ते अवांतर प्रयोजन जाणवू तथा महाप्रयोजन अथवा परंपराप्रयोजन तो मोक्ष जाणवू. एम अनिधेय, संबंध, अधिकारी श्रने प्रयोजन, ए चार वानां ग्रंथने आरंनें कहेवां ॥१॥ . कर बंधंतो वेअर, कर कई वा संत पयडि गणाणि ॥ मूलुत्तर पगईसु,नंग विगप्पा मुणेप्रवा॥२॥ अर्थ-एq आचार्ये कहे थके, हवे शिष्य पूजे जे के हे नगवन् ! कश्बंधतोवेश के० केटली प्रकृति बांधतो थको जीव केटली प्रकृति वेदें, एटले अनुनवे, वा के अथवा कश्कर के० केटली केटखी प्रकृति बांधतां तथा केटली प्रकृति वेदता थकां संतपय मिगणाणि के केटली केटली प्रकृतिनुं सत्तास्थानक होय ? एवो शिष्ये प्रश्न Page #752 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ.६... कीधे थके मूलोत्तर प्रकृतिने विषे प्रत्येक बंधोदय सत्तानो संवेध कहेवो, ते श्राश्रयी उक्कर जाणीने हवे श्राचार्य सामान्ये प्रत्युत्तर कहे . मूलुत्तरपगईसु के मूलप्रकृति ज्ञानावरणीयादिक थाप अने उत्तरप्रकृति एकसो ने अहावन्न, तिहां बंधोदय सत्तायें प्रकृतिनो संवेध विचारतां नंगविगप्पा के नांगाना विकल्प अनेक उपजे , ते श्रा प्रकरणने विषे लेशथी आगल देखामशे. तिहांथी मुणेश्रवा के जाणवा. तेमध्ये प्रथम मूलप्रकृति आठ, बीजो बंधोदय सत्तायें प्रकृति स्थाननी संख्या, त्रीजो तेनो परस्पर संवेध, ए त्रण अधिकार, चौद जीवस्थानक तथा चौद गुणगणे विवरीने कहेवा. तिहांप्रथम उधे मूलप्रकृति पाउनां नाम, व्युत्पत्ति तथा स्वरूप टीकाकार देखाडे बे. - प्रथम ज्ञानावरणीय कर्म कहे जे. जे थकी घटादिक अर्थ जाणीयें, तेने ज्ञान कहीयें, अथवा जे जाणवू, ते ज्ञान कहीयें, तथा सामान्य विशेषात्मक उन्नयरूप एक वस्तु बे, ते मांहे विशेषांश ग्रहणात्मक जे अवबोधक प्रकाश, ते ज्ञान कहीये. तेना थावरण थाडादक जे कर्मवर्गणाना पुजल माहे ज्ञान श्रावरवानो वजाव ले. केनी पेरें ? तोके-जेम लोचनने तेजन आवरण वस्त्रादिक ने ते जेम जेम सघन होय, तेम तेम अांखनुं तेज मंद, मंदतर थाय. तेवी रीतें जेम जेम ज्ञानावरणनी सघनता होय, तेम तेम श्रात्मप्रकाश ढंकाय, ते प्रथम झानावरणीय कर्म जाणवू. बीजु दर्शनावरणीयकर्म, ते शुं कहीयें ? तोके-देखीये जेणे करी अथवा देख तेने दर्शन कहीये. सामान्य विशेषोनयात्मक वस्तु विष जे जाति गुण क्रियादिक संयोजना हीन केवल धर्म मात्र ग्राहक जे सामान्यांशावबोध, ते दर्शन कहीयें, तेने थावरवानो खनाव जे कर्म पुजलनो , तेने दर्शनावरणीयकर्म कहीयें. जेम पोली पूर थाय तो राजानुं दर्शनमात्र थाय, तथा जे राजानुं दर्शन अनिलाषतो पुरुष पण ज्यांसुधी पोलीथाने शनिप्रेत न होय तो तेने बले राजाने मलवानी इछ। उतां पण राजाने मलवा न दीये,तेम पोलीथा समान जे दर्शनावरणीय श्रने ज्ञानावरणीय कर्म तेणे करी खरड्या एवा जे घटादि पदार्थ तेनुं दर्शन जीवरूप राजाने न होय. अहीं ग्रंथनी साख लखीयें बैयें."दसणसीले जीवे, दंसणघाय करे जे कम्मं ॥ तं प्रमिहारसमाणं, दसणावरणं नवे बीयं ॥१॥ जह रजो पडिहारो, अणनिप्पेअस्स सोउ लोगस्स ॥ रत्नोतह दरिसावं, न देश दउँपि कामस्स॥२॥जह रायाणा जीवो, पमिहारसमंतु दंसणावरणं ॥ तेणहिव बंधगेणं, न पिछए सो घडाश्यं ॥३॥ . त्रीशुं वेदनीकर्म ते शुं कहीयें ? जेने प्रथम श्राव्हाद तथा विषादरूपें अनुजवीयें, जेम मधुयें खरमी तरवारनी धारनुं चाटतुं ते प्रथम चाटतां आब्हाद थाय, अने Page #753 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्न सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ पली जीन बेदाय तेवारें विषाद थाय, तेम शातावेदनीयने प्रांतें अशातावेदनीय होय, एवो जे कर्म पुजलनो स्वनाव ते त्रीजें वेदनीयकर्म जाणवं. चोथु मोहनीयकर्म ते शुं कहीयें ? जे मोहें मुंफाय तेथी हिताहित न जाणे, जेम के थाटलुं नूहुं, पाटबुं रूडं, एमन जाणे इत्यादिक विवेक रहित आत्माने करे, जेम मदिराऽव्ये करी जीवने घेलापणुं प्राप्त थाय, तेथी हिताहित विचार शून्य करे एवो जे कर्मपुजलनो खन्नाव, ते चोथु मोहनीयकर्म जाणवू. पांचमुं श्रायुःकर्म ते शुं कहीयें ? तोके-जे हेडनी पेरें प्रकृति बंध थाय, देवादिकनी गति बांधी त्यां जावा वांबतो होय ता पण ज्यांलगें इह जवायु जोगवq होय त्यांलगें न ज शके. एवो जे कर्मपुजलनो स्वनाव , तेने पांचमुं आयुः कर्म कहीये. बहुं नामकर्म, ते शुं कहीयें ? के जे परमात्मरूपी जीवने पण देव, नरकादिक तथा एकेंज्यि, बेंजिय, तेंजियादिक जातिपणे हीन विशेष करी बोलावीयें, नमावियें: जेम चितारो अनेक वानें करी हाथी, घोमा, माणस इत्यादिकनां रूप आलेखे, तेम नामकर्म पण भिन्न भिन्न प्रकारे देव, नारकादिक स्वरूपें जीवना पर्याय करावे, एवो जे कर्मपुजलनो खनाव बे, तेने हुं नामकर्म कहीयें. - सातमुं गोत्रकर्म ते शुं कहीयें ? तोके-जे थकी जातिकुलादिक उच्चतायें करी गुण- स्थानक होय, पूजा पामे, अने जातिकुलादिक हीनतायें करी लोक मांहे निंदा पामे, पूजा न पामे, एवो जे कर्म पुजलनो स्वनाव बे, ते सातमुं गोत्रकर्म जाणवू. जेम कुंजकार नला घमा करे, तो लोकमांहे तंफूल, फूल, कुंकुमे करी पूजा पामे, अने मदिरानां स्थानकलूंजला घडा करे, तो ते लोक मध्ये निंदा पामे, तेम जीव जच्चैर्गोत्रने उदयें उत्तम जातिकुलने प्रनावें रूप बुध्यादिकें हीन थको पण मान महत्व पामे, श्रने हीन जात्यादिक अवगुणें करी जो पण सुबुद्धिमान् होय तो पण लोकमांहे हेखनीय होय. श्राममुं अंतराय कर्म, ते शुं कहीयें ? के जेणे करी जीवें दान, लान, जोग, उपत्नोग, वीर्यादिकनी लब्धि हणीयें, निवारीयें; जेम राजा, धन धान्यनो धणी बता पण नंडारीना दीधा विना वस्तुनां दान, लाल, नोग करी न शके, तेम जीवरूप राजा पण नंडारीरूप अंतरायकर्मना विवर लह्या विना दानादिक लब्धि न पामे, ते नणी जे, कर्मपुजलनी दानादिक लब्धिने हणवानो स्वनाव , तेने श्रापमुं अंतराय कर्म कहीयें. एटले श्राप कर्मनां मूलनाम तथा स्वरूप अने लक्षण कह्यां. __हवे बंध, उदय अने सत्तायें प्रकृतिनां स्थानक कहे . तिहां मूल आठ प्रकृतिना बंधनी अपेक्षायें आठ, सात, उ अने एक, एवं चार प्रकृतिस्थानक होय. श्रने उद Page #754 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ । यापेक्षायें आठ, सात अनेचार, एत्रण प्रकृतिस्थानक होय, अने सत्तानी अपेक्षायें पण श्राप, सात अने चार, ए त्रज प्रकृतिस्थानक हाय. तिहां जेवारें जीव सर्व कर्म बांधे, तेवारें आठ प्रकृतिनुं बंधस्थानक होय, ते जघन्य तथा उत्कृष्ट अंतरमुहूर्त रहे, केम के आयु बांधतां थकां जीवने ए बंधस्थानक होय अने आयुनो बंधकाल तो निरंतरपणे जघन्य तथा उत्कृष्टो अंतरमुहर्त्तज होय, तेथी ए बंधस्थानकनो काल पण अंतरमुहूर्त्तनो जाणवो. हवे ते माहेश्री जेवारें जीव, श्रायु न बांधे, तेवारें सात प्रकृतिना बंधस्थानके होय, तेनुं कालमान पण जघन्यथकी तो अंतरमुहूर्त प्रमाण जाणवू. कारण के कोइएक अंतरमुहूर्त्तायुवालो जीव, पोताना आयुष्यनो त्रीजो नाग थाकतो रहे, तेवारें परनवायुनो बंध करे, माटें तिहां आठ प्रकृतिनो बंध करी वली सात प्रकृतिना बंधस्थानके आव्यो, तिहां वली कांइएक न्यून अंतरमुहूर्त्तना त्रीजा लाग पर्यंत सात प्रकृतिनो बंध करतो, सात प्रकृतिना बंधस्थानके रही, वली मरण पामी अंतरमुहूर्त्तायुपणे श्रवतस्यो, तिहां पण ते आयुना बे नाग पर्यंत सात प्रकृतिनो बंध करे, पनी त्रीजा नागने धुरे श्रायु बांधे, तेवारें आठ प्रकृतिना बंधस्थानकें श्रावे. एम अंतरमुहर्त्तनो जघन्य काल कह्यो, अने उत्कृष्टो तो तेत्रीश सागरोपम उम्मासे ऊणा ते वली अंतरमुहूर्तोन पूर्वकोटी वर्षना त्रीजा नागें अधिक एटलो काल होय, ते आवी रीतें.-कोशएक जीव, पूर्वकोटी श्रायुवालो पोताना श्रायुष्यनो त्रीजो नाग थाकते अंतरमुहर्त पर्यंत तेत्रीश सागरोपम देवायुनो बंध करे, तिहां श्राप प्रकृतिना बंधस्थानें रही, वलतो पूर्वकोमीनो त्रीजो नाग, अंतर मुहूर्ते ऊणो रहे, त्यां लगे सात प्रकृतिना बंधस्थानकें रही, तिहांथी चवी, देवता थाय. तिहां पण तेत्रीश सागरोपम उम्मासे ऊणा एटला काल पर्यंत तो सात प्रकृतिनो बंध करे. शेष बम्मास आयु विशेष रहे, तेवारें वली परजवायु बांधे. तिहां आठ प्रकृतिना बंधस्थानकें थावे, ते नणी उत्कृष्टथी एटलो काल संजवे बे. अने जेवारें मोहनीय श्रने श्रायु विना बाकी । प्रकृतिनो बंध सूक्ष्मसंपरायनामा दशमे गुणगणे करे, तेवार ते बंध जघन्य तो एक समय लगें होय. ते केम के कोशएक जीव, उपशमश्रेणी करी दशभु गुणगणुं एक समय लगें स्पर्शी, तिहां जवक्षयें दशमे गुणगणेज मरण पामीने अनुत्तर देव थाय, तिहां वली अविरति सम्यदृष्टिपणे सात प्रकृतिनो बंधक होय, ते अपेदायें जघन्य एक समय श्रने उत्कृष्ट तो अंतरमुहूर्त काल प्रमाण होय, ते केमके दशमा गुणगणानुं उत्कृष्ट एटर्बुज कालमान . तिहां प्रकृतिनोज बंध होय, ते अपेक्षायें लेवू. Page #755 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३० सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ तथा एक वेदनीयकर्मनो बंध, अगीश्रारमे, बारमे अने तेरमे गुणगणे होय, अहींयां पण जघन्य तो पूर्वली परें एक समय लगें होय. अहीं अगीआरमुं गुणगणुं एक समय लगें स्पर्शी, नवदये मरण पामे, तेनी अपेक्षायें एक समय लेवं. अने उत्कृष्टुं तो देशे जणी पूर्वकोटी वर्ष प्रमाण, एक वेदनीयनो बंध होय. केमके कोशएक जीव पूर्वकोटी आयुष्यनो धणी सात महीना माताना उदर मांहे रहीने शीघ्र जन्मे; जन्मथकी आठ वर्षने अंतें चारित्र खेश, रूपकश्रेणीयें चढी, केवलज्ञान पामे. तिहां एकज वेदनीय कर्मनी प्रकृतिना बंधस्थानके देशे जणी पूर्वकोटी वर्ष पर्यंत रहे, ते अपेक्षायें ले. __ हवे कयु कयुं कर्म बांधतां कयां कयां बंधस्थानक होय ? ते कहे . अहीश्रा नाष्यनी गाथा लखीये बैयें “आजमि माहे 5, सत्त एक सग थवा तश्ए ॥ बद्यतयंमि बद्यंति, सेसएसुब सत्त 5॥१॥" आयुःकर्म बांधतां एक श्राप कर्मर्नु बंध स्थानक होय, अने मोहनीय कर्म बांधतां एक आउनु, बीजं सातनुं, ए बे बंध. स्थानक होय. त्रीजुं वेदनीय कर्म बांधतां श्राप, सात, ब अने एक, ए चार बंधस्थानक होय. शेष ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, नाम, गोत्र अने अंतराय, ए पांच कर्मना बंधे श्राप, सात अने ब, ए त्रण बंधस्थानक होय. हवे जदयस्थानक त्रण कहे . श्राप, सात अने चार, ए त्रण उदय स्थानकडे. तिहां सर्व आठे कर्मने उदय पहेलु श्राग्नुं उदय स्थानक होय. ए अजव्यनी अपेदायें अनादिअनंत नांगे लेवं, अने नव्यनी अपेक्षायें अनादि सांत नांगे ले. तथा कोश्एक जीव, उपशमश्रेणी चढी तिहां मोहनीय विनां सात कर्मनुं उदयस्थानक स्पर्शी, वली तिहाथी पमतो आउनुं जदयस्थानक स्पर्श, तेनी अपेक्षायें सादि सांत नांगें ले. ए जघन्य तो अंतरमुहूर्त काल प्रमाण जाणवो. केमके को. एक जीव, वली मुहूर्तांतरें श्रेणी पमिवजे, तेनी अपेक्षायें लेवू. तथा उत्कृष्टो तो देशें कणो अर्ड पुजल परावर्त काल जाणवो, जे नणी उत्कृष्टथी फरी उपशमश्रेणी पनिवजवानुं एटझुंज अंतर बे, केम के सम्यक्त्व पाम्या पड़ी संसारमाहे रहेवानो उत्कृष्टो काल एटलोज होय, तेटला काल पर्यंत श्रावनो उदय होय, तथा मोह विना सात कर्मनुं बीजं उदय स्थानक, ते अगीआरमे गुणगणेज होय. ते जघन्यथी तो एक समय लगें होय, जे जणी कोइएक जीव, एक समय मात्र अगीश्रारमुं गुणगणुं स्पीने मरण पामे, तेनी अपेक्षायें जाणवं. अने उत्कृष्ट तो अंतरमुहर्त पर्यंत रहे. केम के अगीआरमा अने बारमा गुणगणानो काल एटलोज डे, अने तिहांज . ए सात प्रकृतिनुं उदय स्थानक पण होय. तथा चार घातीयां कर्म क्षय कस्या पली Page #756 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ । ७३१ नाम, गोत्र, श्रायु अने वेदनीय, ए चार नवोपनाही कर्मनो उदय, तेरमे, चौदमे गुणगणे होय, तिहां जघन्य तो अंतरमुहूर्त्त पर्यंत रहे, अने उत्कृष्टथी तो देशे जणी पूर्वकोमी वर्ष पूर्वली परें नाववां. हवे कर प्रकृतिने उदयें केटलां उदयस्थानक लाने ? ते कहे . मोहनीय कर्मने उदयें एकज पाठ प्रकृतिनुं उदयस्थानकं लाने, तथा ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय अने अंतराय, ए त्रण कर्मने उदयें तो आग्नुं श्रने सातनुं, ए बे उदयस्थानक खाने, अने बाकीना चार कर्मने उदयें तो दशमा गुणगणा लगें थाग्नुं उदयस्थानक होय, तथा अगीआरमे अने बारमे गुणगणे सातनुं उदयस्थानक होय, अने तेरमे तथा चौदमे गुणगणे चार कर्मनुं उदयस्थानक होय. एवं त्रण उदयस्थानक चार कर्मने उदय होय. हवे श्राप, सात ने चार, ए त्रण सत्तास्थानक कहे . तिहां आठ कर्मनी सत्तानुं स्थानक, अगीधारमा गुणगणा लगें होय, ए अजव्यनी अपेक्षायें अनादि अनंत अने नव्यनी अपेदायें अनादि सांत नांगें होय. तथा मोहनीय दय कस्या पळी सात कर्मनुं सत्तास्थानक, बारमे गुणगणे अंतरमुहर्त लगें होय, तथा चार घातीयां कर्मने कयें चार कर्मनुं सत्तास्थानक, तेरमे तथा चौदमे गुणगणे होय. ते जघन्यथी तो अंतरमुहूर्त पर्यंत अंतगड केवलीनी अपेक्षायें जाणवो, अने उत्कृष्टथी तो देशे जणी पूर्वकोटी वर्ष प्रमाण जाणवो. हवे कश कर प्रकृतिनी सत्तायें कयां कयां सत्तास्थानक होय, ते कहे बे. एक मोहनीयनी सत्तायेंथा कर्मनुं सत्तास्थानक होय, मोहनीय विना बीजांघातीआंत्रण कर्मनी सत्तायें श्राग्नुं तथा सातनुं, ए बे सत्तास्थानक होय, अने चार अघातीश्रांनी सत्तायें आठ, सात अने चार, ए त्रणे सत्तास्थानक होय ॥२॥ ॥हवे मूल पाठ कर्मनो बंध, उदय, सत्ता स्थानकनो परस्पर संवेध कहे. ॥ .. अह विद सत्त बब्बं, धएसु अहे व उदय संतंसा ॥ एग विहे ति विगप्पा, एग विगप्पा अबंधमि ॥ ३॥ ' अर्थ-अहविहसत्तबब्बंधएसु के अष्टविध बंधक,सप्त विध बंधक अने षाविध बंधक, एत्रण बंधकने विषे प्रत्येके अवउदयसंतंसा के श्राठे कर्म प्रकृति उदय अने सत्तायें पामीये. श्रही त्रण जंग थया. ते देखाडे जे. प्रथम आउनो बंध, श्राउनो उदय, श्रने श्राग्नी सत्ता, ए नांगो श्रायुबंध कालें अंतरमुहर्त प्रमाण मिथ्यात्वथी मामीने अप्रमत्तगुणगणा लगे जाणवो. तथा सातनो बंध, आग्नो उदय अने बानी सत्ता, Page #757 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३२ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ.६ ए बीजो नांगो, श्रायुबंधने अनावें जघन्य अंतरमुहूर्त अने उत्कृष्टो उ मासे अणो तेत्रीश सागरोपम पूर्वकोमी बिनागें अधिक काल प्रमाण मिथ्यात्वथी मामीने नवमा गुणगणा लगे जाणवो. तथा षड्विध बंध, आपनो उदय अने आपनी सत्ता, ए त्रीजो जांगो, सूक्ष्मसंपराय गुणगणे जघन्य एक समय अने उत्कृष्टो अंतरमुहर्त प्रमाण जाणवो. तिहां मोहनीयनो बंध नश्री, ते माटें कह्यो. तथा एगविहेतिकिगप्पा के एकविध बंधके वेदनीय बांधे, तिहां त्रण नांगा होय, ते कहे जे. एकनो बंध, सातनो उदय अने श्राग्नी सत्ता, ए नांगो उपशांतमोह गुणगणे जघन्य एक समय अने उत्कृष्टो अंतरमुहूर्त लगें पामीयें, केम के अहीं मोहनो उदय नथी, परंतु सत्ता बे, तेमाटें. तथा एकनो बंध, सातनो उदय अने सातनी सत्ता, ए बीजो नांगो दीपमोह गुणगणे अंतरमुहर्त लगें पामीयें, केम के तिहां मोहनीयनी सत्ता पण नथी, ते माटें. तथा एकनो बंध, चारनो उदय अने चारनी सत्ता, ए त्रीजो नांगो सयोगी केवलीने विषेपामीयें; ते घाती कर्मना अनावथी जघन्य अंतरमुहर्त बने उत्कृष्टो देशूणी पूर्वकोडी वर्ष लगे होय. तथा एगविगप्पाबंधमि के बंधकपणाने अनावें चारनो उदय अने चारनी सत्ता, ए एक नांगो अयोगी गुणगणे पामीयें, यहींयां योगने बनावें बंध न होय माटें प्रबंधक कह्या. एवं सर्व मलीने मूल प्रकृतिना सात जंग थया ॥३॥ ॥ हवे ए सात जंग चौद जीवस्थानकें कही देखाडे जे. ॥ सत्त: बंध अहुद, यसंत तेरस सुजीव गणेसु ॥ एगंमि पंच नंगा, दो नंगा हुंति केवलिणो ॥४॥ श्रर्थ-तेरससुजीवगणेसु के एक संझीपंचेंजियपर्याप्ता जीव वर्जिने शेष तेर जीवस्थानकने विषे बे नांगा होय, ते देखाडे . सत्तहबंधश्रदयसंत के सातनो बंध, आउनो उदय अने श्राग्नी सत्ता, ए प्रथम नांगो आयुर्बध काल विना सदा होय, तथा अष्टविध बंध, श्रावनो उदय अने आउनी सत्ता, ए बीजो नांगो श्रायुबंध कालें अंतरमुहर्त लगें होय, अंने एगंमि के एक संज्ञीपंचेंजियपर्याप्ताना जीवस्थानकें पंचनंगा के० धुरला पांच नांगा होय, तिहाँ बे मांगा तो पहेलानी पेरें जाणवा. एटले एक श्रायुबंधकालें पाठनो बंध, श्राफ्नो उदय अने थाउनी सत्ता; बीजो श्रायुबंधकाल विना सातनो बंध, आठनो उदय अने आपनी सत्ता; त्रीजो दशमे गुणगणे मोह अने श्रायु.विना बनो बंध, श्रानो उदय श्रने श्राग्नी सत्ता; चोथा श्रगीश्रारमे गुणगणे एक वेदनीयनो बंध अने मोह विना सातनो उदय अने Page #758 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ ७३३ श्रावनी सत्ता होय; पांचमो बारमे गुणगणे एकनो बंध, सातनो उदय अने सातनी सत्ता; ए पांच नांगा संझीपंचेंजियपर्याप्ताने गुणगणाने नेदें होय. तथा दोनंगाढंतिकेवलिणो के बे नांगा केवलीने होय, ते केम के तेरमे गुणगणे एक वेदनीयनो बंध, चारनो उदय अने चारनी सत्ता, सयोगी केवलीने होय, ए प्रथम नंग. तथा चौदमे गुणगाणे अयोगी केवलीने बंधशून्य होय, अने चारनो उदय तथा चारनी सत्ता होय, ए बीजो नंग जाणवो. ए बे नंग केवलीने होय. यहीं ए नाव जे मनना अनावथी केवलीने सन्नीयापंचेंजियथी जिन्न कह्या, एटले केवलीने अव्यमन होय पण जावमन न होय, माटें संझी पण नहीं, असंझी पण नहीं, परंतु संझासंझी कहीये, तेथी एना नांगा पण जूदा कह्या. एवं सात नांगा चौद जीवस्थानकें कह्या. ॥४॥ ॥ हवे एहिज चौद नांगा गुणगणे विवरीने कहे .॥ असु एग विगप्पो, बस्सु विगुण सन्निएसु ७ विगप्पा ॥ पत्तेयं पत्तेयं, बंधोदय संत कम्माणं ॥५॥ अर्थ-एक मिश्र गुणगणुं अने ओउमाथी मांडीने चौदमा सुधीना सात गुणगणां, एवं असु के० आठ गुणगणांने विषे एगविगप्पो के एकेक नांगो होय. ते केम? तोके-त्रीजुं तथा श्रापमुं अने नवमुं, ए त्रण गुणगणे श्रायु न बांधे,माटें सातनोबंध, आपनो उदय अने आपनी सत्ता, ए एकेक नांगो होय, जे जणी ए त्रण गुणगणे श्रायुबंध योग्य अध्यवसाय स्थानक नथी, तेथी आउनो बंध न होय, तथा सूक्ष्मसंपराय गुणगणे श्रायु अने मोह विना बनो बंध, आठनो उदय अने श्राग्नी सत्ता, ए एकज नांगो होय. अगीयारमे गुणगणे एकनोबंध, मोह विना सातनो उदय अने पानी सत्ता,ए एक नांगो होय, तथा बारमे गुणगणे एकनो बंध, सातनो उदय, अने सातनी सत्ता, ए एकज नांगो होय. तेरमे गुणगणे एकनो बंध, चारनो उदय अने चारनी सत्ता, ए एकज नांगो होय. चौदमे गुणगणे बंध शून्य, माटें चारनो उदय श्रने चारनी सत्ता, ए एकज नांगो होय. एवं श्राप गुणगणे एकेक नांगो होय. तथा बस्सुविगुणसन्निएसु के मिथ्यात्व, सास्वादन, अविरति, देश विरति, प्रमत्त श्रने अप्रमत्त, ए ब गुणगणाने विषे एवी संज्ञा पुविगप्पा के० तेने विषे बे बे विकल्प पामीयें, केम के ए ब गुणगणे श्रायुबंध योग्य अध्यवसाय स्थानक , तेथी श्रायुबंध कालें थानो बंध, थाउनो उदय ने थानी सत्ता, ए नांगो होय; अने आयुर्बध विना सातनो बंध, आपनो उदय अने आउनी सत्ता, ए बीजो नांगो होय; एम ए ब गुणगणे बे बे नांगा होय. एम पत्तेयंपत्तेयं के प्रत्येकें प्रत्येकें, Page #759 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३४ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ । बंधोदयसंतकम्माणं के बंध, उदय अने सत्ताना नांगा अनुक्रमें गुणगणे होय, एटले मूलप्रकृति श्राश्रयी बंधोदय सत्ता संवेध स्वामी कह्या.॥५॥ __ हवे उत्तरप्रकृति श्राश्रयी बंध, उदय अने सत्ता प्रकृति स्थानक, संवेध कहीयें बैयें. तिहां प्रथम आठ कर्ममाहे जे कर्मनी जेटली उत्तर प्रकृति बे, ते कहे बे, ॥अथोत्तरप्रकृतिराश्रित्य संवेधस्वामित्वं माह ॥ पंच नव अलि अहा, वीसा चनरो तदेव बायाला ॥ उलिय पंच य नणिया, पयडी आणुपुवीए ॥६॥ अर्थ-झानावरणीयनी उत्तरप्रकृति, पंच के पांच, दर्शनावरणीयनी उत्तरप्रकृति, नव के० नव, वेदनीयनी उत्तरप्रकृति, पुलि के बे, मोहनीयनी उत्तरप्रकृति, अहावीसा के अहावीश, आयुनी उत्तरप्रकृति, चउरो के चार, तहेव के तथा वली तेमज नामनी उत्तरप्रकृति, बायाला के बेंतालीश, गोत्रनी उत्तरप्रकृति, पुलिय के बे अने अंतरायनी उत्तरप्रकृतिना पंचय के पांच नेद, नणिया के कह्या बे. पयडीउधाणुपुवीए के ए रीतें श्राप मूलप्रकृतिना उत्तर नेद, अनुक्रमें जाणवा. तिहां नामकर्मनी बेंतालीश प्रतिमध्ये चौद पिंमप्रकृतिना नेद करतां पांशठ थाय. तेमध्ये त्रसदशक, स्थावरदशक तथा आठ प्रत्येक प्रकृति मेलवतां त्राणुं थाय. ते आश्रयी विशेष विवरो पहेला कर्मग्रंथना बालावरोधथी जाणवो. ए उत्तरप्रकृति कही. ॥६॥ ॥ हवे उत्तर प्रकृतिनो बंध, उदय अने सत्तानो संवेध कहेजे.॥ बंधोदय संतंसा, नाणावरणं तराइए पंच॥ बंधो चरमे वि उदय, संतंसा हुंति पंचेव ॥ ७॥ अर्थ-बंधोदयसंतंसा के बंध, उदय श्रने सत्ताना अंश ते नाणावरणंतराइएपंच के ज्ञानावरणीय अने अंतराय, ए बे कर्मना पांच पांच प्रकृतिरूप सरखा , ते जणी बंधादिक स्थानकनी प्ररूपणा पण बेनी सोचेंज करे . ज्ञानावरणीयें तथा अंतरायें प्रत्येकें बंध, उदय अने सत्तारूप अंश सम नागें पांच प्रकृति होय, एटले झानावरणीयनुं पांच प्रकृतिनुं एकज बंधस्थानक होय, ए पांचे ध्रुवबंधिनी प्रकृति बे, माटें पांचेनो ध्रुवबंध जाणवो. तथा उदय पण पांचनो ध्रुव जाणवो, अने सत्तास्थानक पण पांचनुं ध्रुव जाणवू. एमज अंतरायनी पांच प्रकृति पण ध्रुवबंधिनी, ध्रवोदयिनी तथा ध्रुवसत्तायें कह। बे. हवे ए बे कर्मे संवेध कहे . ज्ञानावरणीय बंधकालें पांचनो बंध, पांचनो उदय अंने पांचनी सत्ता, ए एक नांगो, एमज अंतरायनो Page #760 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ ७३५ पण एकज नांगो ते दशमा गुणगणा लगें होय. तथा बंधोचरमेवि के आगल ज्ञानावरणीय अने अंतरायना बंधने अन्नावे पण जदयसंतंसाहुँतिपंचेव के पांचनो उदय अने पांचनी सत्तारूपबीजो नांगो अगीआरमे अने बारमे गुणगणे जाणवो. ॥७॥ हवे दर्शनावरणीय कर्मने विषे उत्तरप्रकृति श्राश्रयी बंधादिक स्थानकनी प्ररूपणाने कहे बे. ॥अथोत्तर प्रकृतिराश्रित्य बंधस्थान प्ररूपणार्थमाह. ॥ बंधस्सय संतस्सय, पगहाणा तिन्नि तुल्लाइं॥ उदय हाणा ज्वे, चन पणग दंसणावरणे ॥७॥ अर्थ-दर्शनावरणीय कर्मने विषे बंधस्सयसंतस्सयपगहाणा के0 बंधप्रकृतिनां स्थानक तथा सत्ताप्रकृतिनां स्थानक पण तिन्नि के त्रण त्रण तुझाई के तुल्य , एटले बंधनां स्थानक पण त्रण डे,अने सत्तानां स्थानक पण त्रण बे, माटें तुल्य डे, ते कहे जे. एक नव प्रकृतिनुं स्थानक, बीजुं थीणहीत्रिक हीन करतां ब प्रकृति, स्थानक, त्रीजुं निजा अने प्रचला हीन करतां चार प्रकृतिनुं स्थानक, ए रीतें त्रण स्थानक जाणवां. तिहां नव प्रकृतिनुं बंधस्थानक पहेले तथा बीजे गुणगणे लाने, ते अनव्यने पहेले गुणगणे अनादि अनंत होय, अने नव्यने अनादि सांत होय, तथा सम्यक्त्वी जीव मिथ्यात्वे जाय तेनी अपेक्षायें सादि सांत पण होय, ते जघन्य तो अंतरमुहर्त्त अने उत्कृष्टो तो देशोन अई पुजलपरावर्त काल पर्यंत जाणवो. तथा बीजें ब प्रकृतिनुं बंध स्थानक, मिश्रगुणगणाथी अपूर्वकरणना प्रथम नाग लगें होय, ते जघन्य तो अंतरमुहूर्त अने उत्कृष्टो तो एकसो बत्रीश सागरोपम जाजेरा लगे रहे, जे नणी सम्यक्त्वं बाशक सागरोपम रही, पनी अंतरमुहर्त मिश्रगुणगणे श्रावी, वली बाश सागरोपम सम्यक्त्वें रही, ते पबी कोशएक जीव, मिथ्यात्व पडिवजे, तेवारें नवने बंध स्थानकें जाय, अथवा दपकश्रेणी पविजे, तो ते चारने बंधस्थानकें जाय, तथा चार प्रकृतिनुं बंधस्थानक निसा प्रचलानो बंधविछेद करी थाउमा गुणगणाना बीजा नागथी मामी दशमा गुणगणा लगें होय, ते जघन्यथी तो एक समय होय, जे जणी कोइएक जीव भाउमा गुणगणाने बीजे नागें चार 'प्रकृतिनो बंध करी मरण पामी देवता थाय, तिहां ब प्रकृतिनो बंध करे, ए अपेक्षायें लेवु, तथा उत्कृष्टो तो अंतरमुहर्त काल जाणवो. एम त्रण बंधस्थानक कह्यां. हवे त्रण सत्तास्थानक कहे . तिहीं नवनुं सत्तास्थानक, अनव्यनी अपेक्षायें श्रनादि अनंत अने नव्यनी अपेक्षायें अनादि सांत, ए स्थानक उपशमश्रेणीनी अपेदायें पहेला गुणगणाथी मांडी अगीधारमा गुणगणा लगें होय, श्रने क्षपकश्रेणीनी अपे Page #761 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३६ सप्ततिकानामा पष्ठ कर्मग्रंथ. ६ . कायें तो प्रथम गुठाणाथी मांडी नवमा गुणठाणाना नव जागमांहेला प्रथम जाग लगें होय. तिहां वली श्रीपद्धत्रिकनो कय करे, तेथी तेनी सत्ता टब्या पढी उ प्रकृतिनी सत्ता नवमा गुणवाणाना बीजा जागथी बारमा गुण्ठाबाना द्विचरम समय लगें होय. एनो काल अंतरमुहूर्त्तनो जावो. तथा बारमा गुणगणाने बेद्रेले समयें निद्रा प्रचलाने हयें चारना सत्तास्थानक एक समय लगें होय. तथा उदयाणा के० उदय स्थानक चउपग के० चारनुं तथा पांचनुं, ए डुवे के० वे, दंसणावरणे के० दर्शनावरणीय कर्मने विषे होय; तिहां चतु, अचक्षु, अवधि केवलदर्शनावरणीय, ए चार प्रकृति ध्रुवोदयी बे. ते जणी ए चारनो उदय, सदा होय, माटें एक चारनुं उदयस्थानक मिथ्यात्वथी मांगीने क्षीणमोहना बेहेडा लगें होय, छाने ए चार साथै जेवारें पांचमी एक निद्रानो उदय होय, तेवारें पांचनुं उदयस्थानक बीजं जावं. जे जणी पांच निद्रा अध्रुवोदयी बे ते माटें उदय विरोधी बे, तेथी ए पांच निद्रामांथी एक कार्ले निद्राने उदयें बीजी निद्रानो उदय न होय, तेमाढें जेवारें निद्रानो उदय न होये जवारें चकुदर्शनावरणादिक चारनोज उदय होय, छाने जेवारें निद्रानो उदय होय तैयार पांचनो उदय साथे होय, माटें पांचनुं, अने चारनुं, ए बे उदयस्थानक कह्यां. एम बीज दर्शनावरणीय कर्मना बंधोदय सत्तास्थानक कह्यां ॥ इति ॥ ८ ॥ ॥ हवे ए दर्शनावरणीयना बंधस्थानकादिकनो संवेध, गुणठाणे कहे . ॥ बीयावर नव बं, धएसु चन पंच उदय नव संता ॥ बच्चन बंधे चेवं, चन बंधुदए बलंसाय ॥ ९ ॥ अर्थ- बीघावर के० बीजा दर्शनावरणीयने विषे नवबंधएस के० नवनुं बंधस्थानक, मिथ्यात्व ने साखादन, ए वे गुणवाणाने विषे होय. तिहां चपंचउदय के० चारनुं अने पांचनुं, ए बे उदयनां स्थानक होय. तेमांदे चतुदर्शनावरणादिक चारने उदयें चारनुं उदयस्थानक होय, ने पांच निद्रामांदेली एक कालें एक निद्राने उदयें पांच प्रकृतिनुं उदयस्थानक होय, ने ए बेहु जांगें नवसंता के० सत्तानुं स्थानक तो नव प्रकृतिनुंज होय, एटले नवनो बंध, चारनो उदय ने नवनी सत्ता, ए एक जांगो तथा नवनो बंध, पांचनो उदय ने नवनी सत्ता, ए बीजो जांगो. ए बे जांगा पहेले तथा बीजे गुणगणे लाने. ए बीजा जांगामां एक कालें पांच निद्रामांहेली एकेकी निद्रानो उदय होय, ते एकेकी निद्रानुं नाम लइने कही -. यें, तेवारें एक जांगामां पांच मांगा था. For Private Personal Use Only Page #762 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३७ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ एमज बच्चउबंधेचेवं के निश्चेथी बने बंधे तथा चारने बंधे पण बेबेनांगा होय, ते कहे . तिहां बनो बंध, चारनो उदय अने नवनी सत्ता,ए प्रथम नांगो. तथा बनो बंध, पांचनो उदय श्रने नवनी सत्ता, ए बीजो जांगो. एवं बे नांगा, त्रीजो, चाथो, पांचमो, हो, सातमोश्रने पाठमा गुणगणाना प्रथम नाग लगें होय, जे जणी त्रीजा गुणगणा थकी थीणद्धित्रिक टालीने बाकी प्रकृतिनो बंध होय, तथा उदय तो चारनो ध्रुव होय, अथवा जेवारे निजानो उदय होय, तेवारें पांच प्रकृतिनो उदय पूर्वली पेरें होय, अने सत्ता तो नवनीज होय. दपक साधुने आठमाना प्रथम नागें बनो बंध, चारनो उदय अने बनी सत्ता, ए एकज नांगो पामोयें, जे जणी तेने अतिविशुकपणे करी कोश्पण निडानो उदय न होय. यमुक्तं सत्कर्मग्रंथे "निदाउगस्स उदउँ, खीणखवगे परिवद्यए” ए वचनथी पांचनो उदय न होय, तथा कोश्एक आचार्य, बारमा गुणगणा लगे निमानो उदय मानीने झपकने पण निसानो उदय कहे . पण ते कम्मपयमीनी साथे विरुफ ने तेथी अहीं विवयो नथी. एमज चारने बंधे पण बे नांगा जाणवा, एटले पांच निझा विना चारनोबंध,चारनो उदय श्रने नवनी सत्ता तथा जेवारें निषा श्रथवा प्रचला, ए बेमांडेली एकनो उदय होय तेवारें चारनो बंध, पांचनो उदय अने नवनी सत्ता, ए बे नांगा आठमाना बीजा नागथी मांडीने अगीधारमा गुणगणां लगे उपशमश्रेणीय होय, अने क्षपकने तो निसाना बनाव जणी पूर्वली पेरें एक नांगोज जाणवो. तथा चउबंधुदएबलंसाय के चारने बंधे नवमा गुणगणाना बीजा जागथी थीणजित्रिक नवमाना प्रथम नागें देपवे तेवारें बनी सत्ता होय, अहींयां अंश शब्दें सत्ता कहीये. " अंसति संतंकम्मं जन्नई” एम चूर्णीवचनथी जाणवू. तेवारें चारनो उदय अने उनी सत्ता होय, ए नांगो दशमा गुणगणाना बेवा समय लगें दपकने होय. एम चारने बंधे त्रण नांगा थया ॥ ए॥ उवरय बंधे चनपण, नवंस चनरुदय बच्चनसंत्ता ॥ वेयणियान अ गोए, विनऊ मोदं परं वुबं ॥१०॥ - अर्थ-हवे उवरयबंधे के बंध विरमे थके अगीश्रारमे गुणगणे चउपणनवंस के चारनो उदय अने नवनी सत्ता तथा पांचनो उदय अने नवनी सत्ता, ए बे लांगा पामीयें, जे जणी उपशांतमोहने निसानो उदय संजवे बे; तेथी पांचनो उदय पण लाने. यहीं पण नवंस शब्दें नवनी सत्ता जाणवी. तथा बारमे गुणगणे हेला समयना आगला समय लगें चउरुदयबच्चऊसंता के चारनो उदय अने बनी सत्ता, ए नांगो होय, अने बेहेले समयें तो चारनो उदय तथा चारनी सत्ता, ए नांगो Page #763 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३७ सप्ततिकानामा षष्ठ कमग्रंथ. ६ . होय. केमके हिचरमसमय निमा श्रने प्रचलानो क्षय करे, तेथी चारनी सत्ता होय. एम श्रगीश्रार नांगा दर्शनावरणीय कर्मना होय अने पक क्षीणमोहने विषे जे निघानो उदय माने , तेने मतें चारनो बंध, पांचनो उदय अने बनी सत्ता, ए नांगो नवमे अने दशमे गुणगणे दपकने होय, अने बंधने अनावें पांचनो उदय, उनी सत्ता, ए नांगो क्षीणमोहें हिचरम समय लगें होय. एम ए बे नांगा वधे तेवारे तेर नांगा होय. ते वली जिहां जेटली निना होय तिहां तेटली निखार्नु पृथक् नाम लश् कहीयें तेवारें पच्चीश नांगा थाय. हवे वेदनीय, श्रायु श्रने गोत्र, ए त्रण कर्मने विष संवेध देखाडे बे. वेयणि याजश्रगोए के वेदनीय, आयु अने गोत्र, ए त्रण कर्मने विषे यथागम एटले जेम शास्त्र नाषादिकें कडं, तेम बंधादिक स्थानक संवेध विनऊ के वहेंचीये तिहां वेदनीयकर्मे शाता अथवा यशाता, ए बेमांहेली एकनोज बंध थाय, जे जणी ए बे प्रकृति बंधे तथा उदयें विरोधिनी ले ते माटें एक बंधातां बीजीनो बंध न होय, माटें बंधे एक स्थानक होय. तेम उदय स्थानक पण शाता अथवा अशाता, ए बेमांदेथी एकमुंज होय, अने सत्तास्थानक बेनुं तथा एकमुं, एवं बेहु होय. हवे एना नांगा कहीयें बैये. अशातानो बंध, अशातानो उदय अने शाता, अशाता बेहुनी सत्ता, ए एक नांगो, तथा अशातानो बंध, शातानो उदय अने शाता, अशाता, ए बेनी सत्ता, ए बीजो जांगो. ए बे नांगा मिथ्यात्व गुणगणाथी मामीने प्रमत्तगुणगणा लगें होय, तेवार पड़ी अशातानो बंध बेदाय, माटें एक शातानो बंध, अशातानो उदय थने शाता, अशाता, ए बेनी सत्ता, ए प्रथम नांगो, तथा बीजो शातानो बंध, शातानो उदय अने शाता, अशाता, ए बेनी सत्ता, ए बे नांगा, मिथ्यात्वथी मांडीने सयोगी केवली लगें होय, तेवार पड़ी बंधने अनावें शातानो उदय अने बेहुनी सत्ता तथा अशातानो उदय श्रने बेहनी सत्ता, ए बे नांगा, अयोगीने विचरम समय लगें होय; तेवार पड़ी बहोंत्तेर प्रकृतिमध्ये जेणे अशातानो क्षय कस्यो तेने शातानो उदय भने शातानी सत्ता, ए नांगो अयोगी गुणगणाने नेहेले समय होय, अने जेणे शातानो क्षय कस्यो, तेने अशातानो उदय अने अशातानी सत्ता, ए नांगो अयोगीने बेहेले समय होय. ए बे नांगा एकेक समयना जाणवा. ए सर्व मलीने वेदनीय कर्मना श्राप जांगा कह्या. हवे आयुःकर्मना नांगा कहे बे. श्रायुने विषे सामान्ये एक बंधस्थानक होय. केम के चारे गतिना श्रायुधे तथा उदयें विरोधी , तेमाटें एक वेलायें बे श्रायुनो बंध तथा उदय न होय, अने सत्तास्थानक एक तथा बे होय, ते केवी रीतें ? तो के Page #764 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ ७३ए जिहां लगें परनवन श्रायुं बांध्युं न होय, तिहां लगें एकज आयु वर्ते बे, तेनीज सत्ता जाणवी थने परजवायु बंधकालें तथा बांध्या पडी मरण समय पर्यंत बे आयुनी सत्ता होय, तेवारें एक तो जे गतिमा वर्ते ने तेनो उदय तेनी सत्ता होय, अने बीजो परजवायु बांधे तेनी सत्ता होय, ए वे सत्ता स्थानक जाणवां. .. हवे संवेध कहीयें बैयें. तिहां प्रथम आउखानी त्रण अवस्था कहीये बैयें. पहेली परजवायुबंधना समयथी जे प्रथम ते पूर्वावस्था, बीजी परजवायुबंधकादें बंधावस्था, त्रीजी.परजवायु बांध्या पळीनी परावस्था, तिहां नरकायुनो उदय, नरकायुनी सत्ता, ए नांगो नारकीने परजवना श्रायुबंधकालथकी पहेली अवस्थायें बंधने बनावें प्रथमना चार गुणगणे होय, तथा जे वर्तमाने नारकी डे अने श्रागले नवें तिर्यंच थाशे तेने परजवायुबंधकालें तिर्यंचायुनो बंध, नरकायुनो उदय ने तिर्यगायु तथा नरकायु, ए बेनी सत्ता, ए नांगो मिथ्यात्व तथा सास्वादन, ए बे गुणगणे होय, तेमज जे नारकी, आगले नवें मनुष्य थाशे तेने आयुर्बध कालावस्थायें मनुष्यायुनो बंध, नरकायुनो उदय तथा मनुष्यायु अने नरकायु, ए बेनी सत्ता, ए नांगो पहेले, बीजे अने चोथे, ए त्रण गुणगणे होय. एम ए नारकीने ए बे आयुनोज बंध बे, पण देवता अने नारकीना आयुनो बंध नथी. यमुक्तं "देवनारगेसु नउववजांति” ए वचनथी जाणवू. तथा परनवायु बांध्या पनी उत्तरावस्थायें बंधशून्य बे नांगा होय, ते कहे . एक नरकायुनो उदय अने नरक तथा तिर्यगायुनी सत्ता, बीजो नरकायुनो उदय अने नरक तथा मनुष्यायुनी सत्ता, एम बे नांगा चारे गुणगणे होय. ए रीतें नरकगति मध्ये आयुःकर्मना पांच नांगा लाने, तेमज देवगतिने विषे पण एज पांच नांगा कहेवा, पण एटलुं विशेष जे नरकायुने गमें देवायु कहे. एवं नरक तथा देव, ए बे गतिना दश नांगा थया. हवे तिर्यंच तथा मनुष्यगतिने विषे श्रायु श्राश्री प्रत्येकें नव नव नांगा उपजे, ते लखीयें बैयें. तिहां पण त्रण अवस्था पूर्वली पेरें जाणवी, तेमध्ये तिर्यंचने विषे परनवायु बंधथकी पूर्वे बंधने बनावें तिर्यगायुनो उदय अने तिर्यगायुनी सत्ता, ए नांगो पांच गुणमणां पर्यंत लाने, अने मनुष्यने मनुष्यायुनो उदय अने मनुष्यायुनी 'सत्ता, ए नांगो चौदे गुणगणे लाने, अने परजवायुबंधकालावस्थायें तिर्यंच तथा मनुष्यने प्रत्येकें चार चार नांगा उपजे, ते कहीयें बैयें. जे तिर्यंच मरीने तिर्यंच थाशे तेने तिर्यगायुनो बंध, तिर्यगायुनो उदय तथा बे तिर्यगायुनी सत्ता होय, केमके एक तिर्यगायु बांधे जे अने बीजो जोगवे हे मात्रै बेनी सत्ता कही, ए नांगोप्रथमनां बे गुणगणां लगें होय, जे जणी श्रागला गुणगणे तिर्यगायुनो बंधज नथी, तेजणी बे गुण Page #765 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ गणां कह्यां, अने जे तिर्यंच मरी मनुष्य थोशे तेने मनुष्यायुनो बंध, तिर्यगायुनो उदय अने मनुष्यायु तथा तिर्यगायु, ए बेनी सत्ता जाणवी. ए नांगो पण पहेले अने बीजे ए बे गुणगणे पामीयें, तथा जे तिर्यंच मरी देव थाशे, तेने देवायुनो बंध, तिर्यगायुनो उदय श्रने देवायु तथा तिर्यगायु, ए बेनी सत्ता, ए नांगो एक मिश्रगुणगणा विना देशविरति गुणगणा लगें चार गुणगणे पामीयें. तथा जे तिर्यंच मरीने नरकें जाशे तेने नरकायुनो बंध, तिर्यगायुनो उदय श्रने तिर्यगायु तथा नरकाय ए बेनी सत्ता, ए नांगो मिथ्यात्वीने होय. ए चार नांगा श्रायुबंधकालावस्थायें तिर्यचने होय. हवे आयुर्बध करी रह्या पली पाबली उत्तरावस्थायें बंधशून्य चार नांगा होय, ते देखाडे बे. एक तिर्यगायुनो उदय अने बे तिर्यगायुनी सत्ता, बीजो तिर्यगायुनो उदय अने तिर्यगायु तथा मनुष्यायु, ए बेनी सत्ता, त्रीजो तिर्यगायुनो उदय अने तिर्यगायु, देवायु, एबेनी सत्ता, चोथो तिर्यगायु,नो उदय अने तिर्यगायुनरकायु, ए बेनी सत्ता, ए चार जांगा होय, तेमध्ये जेणे आयुर्वधकालावस्थायें जे गतिनुं श्रायुबांध्यु होय, तेने उत्तरावस्थायें बंधशून्य नांगो जाणवो. एटले नव नांगा तिर्यंचनी गतिथी उपजे. तेम मनुष्यने पण नव जांगा जाणवा, परंतु एटबुं विशेष जे परजवायुबंधावस्थाकालें जे मनुष्य मनुष्यायु बांधे, तेने मनुष्यायुबंध, मनुष्यायुदय अने बे मनुष्यायुनी सत्ता, तेमां एक मनुष्यायु तो जोगवे ते अने बीजो बांधे ते, एम बेहुनी सत्ता होय, तथा जे मनुष्य तिर्यगायु बांधे तेने तिर्यगायुनो बंध, मनुष्यायुनो उदय अने तिर्यगायु तथा मनुष्यायु, ए बेहुनी सत्ता, ए नांगो होय. ए बे जांगा मिथ्यात्व तथा सास्वादन, ए बे गुणगणे लाने, जे नणी मनुष्य तथा तिर्यंच सम्यक्त्वी थका देवायु बांधे, पण बीजुं थायु न बांधे, तेमाटें चोथे गुणगणे ए नांगा न होय. तथा जे मनुष्य देवायु बांधे, तेने देवायुनो बंध,मनुष्यायुनो उदय अने मनुष्य तथा देवायु, ए बेनी सत्ता, ए नांगो एक मिश्रगुणगणा विना अप्रमत्त गुणगणा लगे गुणगणे पामीयें, तथा जे मनुष्य, नरकायु बांधे तेने नरकायुनो बंध, मनुष्यायुनो उदय तथा मनुष्य श्रने नरकायु ए बेनी सत्ता, ए नांगो मिथ्यात्वगुणगणे लाने. ए चार थायुबंध कालावस्थाना नांगा जाणवा. हवे श्रायुबंध काल पड़ी आगले यथानुक्रमें उत्तरावस्थाये ए चार जांगा बंधशून्य कहेवा, ते कहे . एक मनुष्यायुनो उदय, तथा बे मनुष्यायुनी सत्ता, बीजो मनुष्यायुनो उदय श्रने मनुष्य तिर्यगायुनी सत्ता, त्रीजो मनुष्यायुनो उदय अने मनुष्यायु तथा नरकायुनी सत्ता, 'ए त्रण नांगा मिथ्यात्वथी अप्रमत्तगुणगणा पर्यंत लाने. चोथो मनुष्यायुनो उदय अने देव तथा मनुष्यायुनी सत्ता, ए नांगो अगीारमा गुणगणा पर्यंत लाने. केम के देवायु बांध्या पडी वली श्रेणी पण Page #766 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ.६ ७४१ श्रारंजी होय, पण बीजां त्रण आयु बांध्या पली श्रेणी श्रारंने नहीं, तेमाटें बीजा त्रण जांगा, अप्रमत्तगुणगणा लगें कह्या, तथा मनुष्यने विषे परजवायु बंधथकी पूर्वे मनुष्यायुनो उदय अने मनुष्यायुनी सत्ता, ए नांगो प्रथम तिर्यंचना जांगानी साथे कहेलो . एवं नव नांगा मनुष्यगतिने विषे आयुना कह्या, शरवाले थहावीश नांगा आयुःकर्मने संवेधे थाय. हवे गोत्रकर्मने विषे सामान्य एकनो बंध तथा एकनो उदय होय, जे जणी उच्चैर्गोत्र तथा नीचैर्गोत्र, ए बेहु प्रकृति उदय तथा बंधे विरोधिनी . ते जणी बेहुनो उदय तथा बंध साथें न होय, एकेकीनो जूदो जूदो बंध तथा उदय होय, तेथी एकज प्रकृतिनुं बंधस्थानक तथा एकज प्रकृति, उदयस्थानक होय, अने सत्तास्थानक तो एक प्रकृतिनुं तथा बे प्रकृति, एवं बेहु होय, ते कहे जे. जेवारें तेउ अने वाउकायमांहे रहेतो थको जीव उच्चैर्गोत्र उवेलीने सत्ताथी टाले, तेवारें तेज वाज मध्ये तथा तिहांथी मरी बीजा अवतारमा आवीने जिहां लगें फरी उचैर्गोत्र न बांधे, तिहां लगें एक नीचैर्गोत्रनी सत्ता जाणवी, तथा बीजुं अयोगीगुणगणाना चरम समयें एक उच्चैर्गोत्रनुं सत्तास्थानक होय, एम बे प्रकारनु एकेक प्रकृतिनुं सत्तास्थानक पहेवू जाणवू. श्रने बीजं तो वे प्रकृतिनी सत्तारूप सत्तास्थानक जाण. __ हवे गोत्रकर्मने विषे संवेध कहीयें बैयें. एक नीचैर्गोत्रनो बंध, नीचैर्गोत्रनो उदय अने नीचैर्गोत्रनी सत्ता, ए नांगो तेउकाय अने वायुकाय मध्ये उच्चैर्गोत्र उवेट्या पली होय. तथानीचैर्गोत्रनो बंध, नीचैर्गोत्रनो उदय अने उच्च तथा नीचगोत्रनी सत्ता ए एक नंग, तथा नीचैर्गोत्रनो बंध, उच्चगोत्रनो उदय अने उच्च तथा नीच, ए बेहुनी सत्ता, ए बे नांगा मिथ्यात्व तथा साखादन, ए बे गुणगणे होय, केमके श्रागले गुणगणे नीचैर्गोत्रनो बंध नथी, तेजण तिहां न होय, तथा उच्चैगोत्रनो बंध, नीचैगोत्रनो उदय अने बेहु गोत्रनी सत्ता, ए नांगो मिथ्यात्वथी मांमीने देशविरति गुणगणा लगें होय, केमके श्रागले गुणगणे नीचैर्गोत्रनो उदय नथी, ते नणी न होय, तथा उच्चनो बंध, उच्चैर्गोत्रनो उदय अने बेहुनी सत्ता, ए नांगो दशमा गुणबाणा लगें होय. आगले गुणगणे गोत्रबंधना अन्नावथी ए नांगो न होय, तथा उच्चैर्गोत्रनो उदय अने उच्चैर्गोत्र तथा नीचैर्गोत्र, ए बेहुनी सत्तानो नांगो अगीयारमा गुणगणाथी मामीने चौदमा गुणगणाना हिचरम समय लगें होय, तथा उच्चैगोत्रनो उदय अने उच्चैर्गोत्रनी सत्ता, ए नांगो अयोगी गुणगणाना बेहेला समयने विषे होय. एम सात नांगा गोत्र कर्मना संवेधे होय. ए रीतें वेदनीय, श्रायु अने Page #767 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ गोत्रकर्मने विषे संवेध कहीने पढी मोहपरंतु के० मोहनीयकर्मना बंधादिक स्थानक गले कही शुं ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ १० ॥ ॥ हवे ए त्रण कर्मना जांगा गाथायें करी कहे बे. ॥ गोम्मि सत्त जंगा, अन्य जंगा, दवंति वेय लिए । पण नव नव पण जंगा, आन चउकेवि कमसोन ॥ ११ ॥ अर्थ- गोम्मिसत्तगंगा के० गोत्रकर्मने विषे सात जांगा जाणवा. छाने वेयलिए के० वेदनीयकर्मने विषे श्रयजंगाहवंति के व जांगा होय, तथा पण के पांच, नव के० नव, वली नव के० नव, पण के० पांच, ए चार प्रकारें मलीने हावी जंगा के जांगा ते श्रउचक्के वि के० नरकादि चार श्रायुखाने विषे कमसो के० अनुक्रमें होय ॥ ११ ॥ ॥ हवे मोहनीयकर्मनां बंधादिक स्थानक कहे . ॥ बावीस इक्कवीसा, सत्तरसं तेरसे व नव पंच ॥ चन तिग डुगचं इक्कं बंधठाणाणि मोदस्स ॥ १२ ॥ " - एक बावनुं बंधस्थानक, बीजुं एकवीशनुं बंधस्थानक, त्रीजुं सत्तरनुं बंधस्थानक, चोथुं तेरनुं बंधस्थानक, पांचमुं नवनुं बंधस्थानक, बहु पाँचनुं बंधस्थानक, सात चारनुं बंधस्थानक, श्रावमं त्रणनुं बंधस्थानक, नवसुं वे प्रकृतिनुं बंधस्थानक अने दशमुं इक्कं के० एक प्रकृतिनुं बंधस्थानक, ए बंधद्वाणाणि मोहस्स के प्रकृतिबंधकरूप दश बंधनां स्थानक मोहनीयकर्मनां जाणवां. तिहां प्रथम बावीश प्रकृतिनुं बंधस्थानक केम होय ? ते कहीयें ढैयें. मोहनीयनी हावी प्रकृति बे, तेमां सम्यक्त्व छाने मिश्र, ए वे मोहनीय बंध योग्य नथी, तेमाटें बाकी बवीश बंध योग्य रही. तेमांथी पण त्रण वेद मध्यें एक समये एकज वेदन बंध होय, ए विरोधिनी प्रकृति जणी बीजा वे वेदनो बंधन होय, तेमाटें बाकी चोवीश रही, तेमांथी पण हास्य अने रतिनो जेवारें बंध होय, तेवारें एनी विरोधिनी शोकाने अरतिनो बंध न होय, अने जेवारें शोक ने रति बंधाय तेवारें हास्य ने रति, ए बे प्रकृति न बंधाय, तेथी ए चार प्रकृतिमध्यें एक समयें बेज बंधाय, बाकीनी बे बीजी न बंधाय, तेमाटें ए बे कहामतां शेष मोहनीयनी एक समयें उत्कृष्टी तो बावीश प्रकृति बंधाय, पण अधिक न बंधाय; ए बावीश प्रकृतिना बंधनुं स्थानक, मिथ्यात्वगुणठाणे होय. ते अजव्यनी अपेक्षायें अनादि - नंत जांगे होय, तथा जव्यनी अपेक्षायें अनादिसांत तथा सादिसांत, ए बे जांगे For Private Personal Use Only Page #768 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ ७४३ होय. तथा ए बावीश प्रकृतिमाहेंथी जेवारें मिथ्यात्वमोहनीय न बंधाय तेवारें बीजें एकवीश प्रकृतिनुं बंधस्थानक साखादन गुणगणे जघन्य तो एक समय अने उत्कृष्टथी तो ब श्रावलिका प्रमाण होय. अहीं यद्यपि नपुंसकवेदनो पण बंध नथी, तथापि ते स्थानकें स्त्रीवेद अथवा पुरुषवेदनो बंध डे तेथी वेदशून्य न होय. तथा ते बावीश प्रकृति मांहेथी अनंतानुबंधीया क्रोधाधिक चार तथा मिथ्यात्वमोहनीय, ए पांच प्रकृति जेवारें न बंधाय, तेवारें मिश्र तथा अविरति गुणगणे सत्तर प्रकृतिनुं बंधस्थानक जघन्य अंतरमुहूर्त श्रने उत्कृष्टश्री तेत्रीश सागरोपम जाजेरा लगें होय, जे जणी अनुत्तर सुर चवीने देशविरति अथवा सर्व विरतिपणुं ज्यां लगें न पविजे, तिहां लगें तेने सत्तर प्रकृतिनोज बंध होय. ते सत्तरमाहेथी जेवारें अप्रत्याख्यानावरण चार न बांधे, तेवारे देशविरति गुणगणे तेर प्रकृतिनुं बंधस्थानक जाणवू. तेमांवेथकी वली प्रत्याख्यानावरणीय चार न बांधे तेवारें प्रमत्त, अप्रमत्त अने अपूर्वकरण गुणगणा लगें नव प्रकृतिनुं बंधस्थानक जाणवू. अहीं जोपण सातमे तथा आग्मे गुणगणे शोक अने अरतिनो बंध नथी तोपण ते स्थानकें हास्य अने रतिनो बंध जे. ते जणी संज्वलन चार, हास्य, रति, जय, जुगुप्सा अने पुरुषवेद, ए नव प्रकृतिनुं बंधस्थानक होय. तेरनुं तथा नवनुं, ए बे बंधस्थानक जघन्य तो अंतरमुहर्त पर्यंत होय,अने उत्कृष्टां तो देशे जणी पूर्वकोमी लगें होय, तेमाहेथी हास्य, रति, नय अने जुगुप्सा, ए चार प्रकृतिनो अपूर्वकरणना बेहेले नागें बंधविच्छेद थया पली अनिवृत्ति गुणगणाना पाँच नाग मध्ये पहेलेनागें पांच प्रकृतिनुं बंधस्थानक होय. तेमांथी पुरुषवेदनो बंधछेद करी बीजे जागें चारनुं बंधस्थानक होय, तेमांदेथी संज्वलनक्रोधनो बंध छेदे तेवारें त्रीजे नागें त्रण, बंथस्थानक होय. तेमांथी संज्वलन माननो बंध दे तेवारें चोथे नागें बेनुं बंधस्थानक रहे, तेमांथी संज्वलनमायानो बंध दे तेवारें पांचमे नागें एक संज्वलना लोजन बंधस्थानक होय. अहीं ए गुणगणे पांच बंधस्थानक थाय, तेनो काल जघन्य एक समय अने उत्कृष्ट तो अंतरमुहर्त प्रमाण जाणवो. ए मोहनीयकर्मना दश बंधस्थानक कह्यां ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ १२ ॥ ७ ॥ हवे मोहनीयकर्मनां नव, उदयस्थानक कहे ॥ एगं च दोव चनरो, एत्तो एगादिआ दसुकोसा ॥ उदेण मोहणिजे, उदए गणाणि नव ढुंति ॥ १३ ॥ अर्थ-उदेणमोहणिो के उ एटले सामान्य मोहनीयकर्मने विषे उदएग Page #769 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६. पाणिनवडंति के उदयनां स्थानक नव होय, ते कहे . एगंच के एक प्रकृतिनुं उदयस्थानक, दोव के बे प्रकृतिनुं उदयस्थानक, चउरो के चार प्रकृतिनुं उदयस्थानक, एत्तोएगाहिश्रादसुकोसा के० श्रहींथांथी पागल एकेक प्रकृति अधिक उत्कृष्टा दश लगें करीयें एटले पांचनुं उदयस्थानक, अनुं उदयस्थानक, सातनुं उदयस्थानक, श्राग्नुं उदयस्थानक, नवनुं उदयस्थानक, अने दशगें उदयस्थानक, ए नव उदयस्थानक पश्चानुपूर्वीयें देखामीयें बैयें. तिहां संज्वलननी चोकमीमध्ये एकने उदयें प्रथम एकनुं उदयस्थानक, एक पुरुषवेद श्रने चार संज्वलन कषायमांदेलो कोइएक कषाय, ए बे प्रकृतिने जदयें बीजं बेनुं उदयस्थानक, पुंवेद अने संज्वलनो एक कषाय तथा हास्य अने रति, ए चार प्रकृतिने उदयें त्रीजु चारनुं उदयस्थानक. ए चारनी साथें जयमोहनीय लेतां पांच प्रकृतिने उदय चोथु, पांचY उदयस्थानक, ते मध्ये जुगुप्सानो उदय वधारीयें, तेवारें प्रकृतिने उदयें पांचमुं, बर्नु उदयस्थानक, तेमांहे वली चार प्रत्याख्यानीश्रा कषायमांहेलो गमे ते एक कषाय क्षेपवीयें, तेवारें सात प्रकृतिने उदयें , सातनुं उदयस्थानक, तेमांहे वली अप्रत्याख्यानीथा क्रोधादि चार माहेथी एकनो उदय केपवी, तेवारें श्रान प्रकृतिने उदयें सातमुं, थाग्नुं उदयस्थानक. तेमाहे वली अनंतानुबंधीया चार कषायमांहेलो एक कषाय क्षेपवीये, तेवारें नव प्रकृतिने उदयें आठमुं, नवनुं उदयस्थानक. तेमांहे वली मिथ्यात्वमोहनीयनो उदय वधारीयें, तेवारें दश प्रकृतिने उदयें नवमुं, दश- उदयस्थानक जाणवू. एटले सामान्यपणे उदयस्थानकनुं विवेचन कडं, विशेषथी सूत्रकार पोतेज आगल कदेशे, तेथी वहीं विशेष लख्युं नथी ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ २३ ॥ ॥ हवे मोहनीय कर्मना पंदर सत्तानां स्थानक कहे . ॥ अध्य सत्तय बच्चन, तिग उग एगादिया नवे वीसा ॥ तेरस बारिकारस, इत्तो पंचाइ एगूणा ॥ १४ ॥ अर्थ- श्राउ, सात, ब, चार, त्रण, बे अने एक, ए सर्वने एगाहियानवेवीसा के वीशे अधिक करवा, तेवारें अहावीश, सत्तावीश, बबीश, चोवीश, त्रेवीश, बावीश, एकवीश अने तेरसबारिकारस के तेर, बार, अगीआर, इत्तोपंचाएगूणा के अहींयांथी भागले पांच मामीने तेमाथी एकेक जणो करीयें एटले पांच, चार, त्रण, बे अने एक, ए रीतें मोहनीयकर्मने विषे सर्व मली पंदर सत्तास्थानक होय. ते विवरीने लखीयें बैयें. Page #770 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ सर्व मोहनीय प्रकृतिनी सत्तायें अहावीश- सत्तास्थानक, ते सम्यक्त्व पामीने पड्या होय, तेने होय, तेमाथी सम्यक्त्वमोहनीय उवेल्या पनी सत्तावीशनुं सत्तास्थानक, तेमाहेथी वली मिश्रमोहनीय उवेले ब्बीशनुं सत्तास्थानक, तथा अनादि मिथ्यात्वीने पण एज स्थानक होय. वली ते पूर्वोक्त अहावीशनी सत्तावालो जेवारें चार अनंतानुबंधीश्रा खपावे, तेवारे तेने चोवीश प्रकृतिनुं सत्तास्थानक होय, तेमाहेथी मिथ्यात्व खपावे, तेवारें त्रेवीशनुं सत्तास्थानक, तेमांथी मिश्रमोहनीय खपावे, तेवारें बावीशनुं सत्तास्थानक, तेमांहेथी सम्यक्त्वमोहनीय खपावे, तेवारें एकवीशनुं सत्तास्थानक, ए एकवीशनुं स्थानक दायिक सम्यकदृष्टिने होय. हवे ए श्रागला स्थानक दपकने होय, ते कहे . तेमाहेथी अप्रत्याख्यानीथा चार अने प्रत्याख्यानीथा चार, एवं आठ प्रकृति खपावे थके श्रनिवृत्तिकरण गुणगणाने त्रीजे नांगें तेर प्रकृतिनुं सत्तास्थानक होय, तेमांहेथी नपुंसकवेदने क्षयें चोथे नांगें बार- सत्तास्थानक, तेमांथी स्त्रीवेदने क्षयें पांचमें नांगें अगीबारनुं सत्तास्थानक, तेमाथी हास्यादिक प्रकृतिने दयें बछे नांगें पांचनुं सत्तास्थानक होय. तेमांथी पुरुषवेदने आयें सातमे नांगें चारनुं सत्तास्थानक, तेमांथी संज्वलन क्रोधने कयें श्राठमे नांगें त्रणसत्तास्थानक, तेमांथी संज्वलनना मानने दयें नवमे नांगें बेनुं सत्तास्थानक, तेमांथी संज्वलनी मायाने कयें सूदम संपरायें एक संज्वलन लोजनुं सत्तास्थानक जाणवु ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ १४ ॥ संतस्स पयडिगणा, णि ताणि मोहस्स हुंति पन्नरस ॥ बंधोदय संते पुण, नंग विगप्पे बहू जाण ॥२५॥ - अर्थ-संतस्सपयमिगणाणिताणि के० ए सत्तानी प्रकृतिनां स्थानक ते मोहस्स के मोहनीयकर्मनी प्रकृतिनां हंतिपन्नरस के पंदर होय. पुण के वली बंधोदयसंते के ए बंध, उदय अने सत्तास्थानकने विषे प्रत्येकें संवेधे करीने जंगविगप्पेबहजाण के मोहनीयकर्मना नांगाना नेद घणा निपजे, ते घणा नांगा हुँ कहुं हुं. ते मने कहेतां थकां तुं सम्यक प्रकारे जाण. एम शिष्य प्रत्ये आमंत्रण करीने गुरु कहे जे के हे शिष्य! तुं सांजल ॥ इति ॥ १५ ॥ ' ॥अथ मोहनीयबंधस्थानेषु यथासंभवत्वेन नंगानाह ॥ तिहां हवे प्रथम मोह नीयकर्मना बंधस्थानकने विषे यथासंनवपणे नांगा उपजे, ते कहे .॥ बब्बावीसे चन इंग, वीसे सत्तरस तेरसे दोदो ॥ नवबंधगे वि उणि, इकिक अर्ज परं नंगा॥१६॥ अर्थ-डब्बावीसे के बावीश प्रकृतिने बंधे ब नांगा उपजे, ते आवी रीते के-एक Page #771 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४६ सप्ततिकानामा ५४ कर्मग्रंथ. ६ मिथ्यात्व, शोल कषाय, त्रण वेदमांहेलो एक वेद, हास्य अने रति अथवा शोक रति ए वे युगलमांहेलुं एक युगल तथा जय अने जुगुप्सा, ए बावीशने बंधें बांगा था, तेदेखाडे बे. एक हास्य ने रति बांधतां बावीशनो बंध करे, ए प्रथम जांगो, बीजो तेमज हास्य ने रतिने स्थानके शोक ने रति बांधे, तेवारें बीजो जांगो. ए वे जांगा थया, ते बे जांगा पुरुषवेद बंध साथै गणवा वली तेमज स्त्री वेदबंध साथै पण बे नांगा तेज लेवाय, तथा तेमज नपुंसकवेद बंध सार्थे पण एज जांगा लइयें. एम त्रण वेदने वे वे गुणा करतां व जांगा थाय. तथा च गवसे के० एकवीश प्रकृतिने बंधें चार जांगा होय, ते कहे बे. ते पूर्वोक्त बावीशना बंधमांदेथी एक मिथ्यात्वनो बंध हीन करीयें, तेवारें एकवीशनो बंध याय, पण एटलुं विशेष जे यहींयां नपुंसकवेद टालीने बाकीना वे वेद मांहेलो एकेक वेदनो बंध कहेवो. ए एकवीशनो बंध, बीजे गुणगणे होय, तिहां पुरुषवेदें हास्य, रति साथै एक जांगो तथा शोक, अरति साथै बीजो जांगो, वली तेहीज वे नांगा स्त्रीवेदें पण बांधे, माटें सर्व मली चार जांगा था. यहीं मिथ्यात्वने श्रावें नपुंसकवेदनो बंध नयी तेथी तेना वे जांगा न होय. सत्तरसतेरसेदोदो के० सत्तर छाने तेर प्रकृतिना बंधे वे बे जांगा होय, ते कहे बे. पूर्वोक्त एकवीशमांथी अनंतानुबंधीच्या चार कषायना बंध विच्छेदें सत्तरनो बंध त्रीजे छाने चोथे गुणठाणे होय. तेमांथी पण अप्रत्याख्यानिया चारनो बंध विच्छेदे, तेवारें देशविरति गुणठाणे तेरनो बंध होय. तिहां प्रत्येकें वे बे जांगा होय, केमके मिश्र गुपठाणाची मांगीने श्रागले गुणठाणे स्त्रीवेदनो पण बंध नथी, जे जणी अनंतानुबंधिया कषायना उदयने अजावें स्त्रीवेदन बंधाय, तेमाटें स्त्रीवेदना बंधथी उपना जे बे जांगा ते पटले, बाकी मात्र पुरुषवेदें बांधवाना बे बे जांगा होय. तथा नवबंध विuिd के० नव प्रकृतिने बंधस्थानकें पण वे जांगा होय. तिहां संज्वलनना कषाय चार, हास्य अने रति, जय, जुगुप्सा ने पुरुषवेदें एक जांगो अथवा हास्य, रतिने स्थानकें शोक छाने अरति ए युगल लइयें, तेवारें बीजो नांगो . ए बे जांगा प्रमत्त गुणगणे होय, एथी आागल शोक अने रति, ए युगलनो बंध नथी, परंतु हास्याने रतिनोज बंध बे ते माटें अप्रमत्त तथा पूर्वकरण ए बे गुणठाणे नव प्रकृतिने बंधे एकज जांगो होय, परंतु वीजो नांगो न होय. तथा इक्कापरं भंगा के० एथी उपर पंचादिक पांच बंधस्थानकने विषे पण पूर्व करनी पेरें एकेको नांगो होय. ए सर्व मली मोहनीयकर्मना दश बंधस्थानकें थने एकवीश जांगा थाय ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ १६ ॥ For Private Personal Use Only Page #772 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ श्रयैषामेव बंधस्थानानां मध्ये कियंत्युदयस्थानानीत्याह ॥ हवे एज बंधस्थान कमां कयां कयां बंधस्थानकें केटलां केटलां उदयस्थानक होय, ते कहे . दस बावीसे नव इग, वीसे सत्ताइ उदय कम्मंसा ॥ गश्त्र नव सत्तरसे, तेरं पंचाइ अहेव ॥१७॥ अर्थ-दसवावीसेसत्ताश्उदयकम्मंसा के "छाविंशति बंधके सप्तादीनि दशपर्यंतानि चत्वारि उदयस्थानानि नवंति" बावीश प्रकृतिने बंधे सातथी मामीने दशपर्यंत एटले सात, श्राप,नव अने दश,ए चार उदयस्थानक होय. तिहां प्रथम सातनुं उदयस्थानक देखाडे बे. एक मिथ्यात्व, बीजो हास्य, त्रीजो रति, अथवा ए बेने स्थानकें शोक अने अरति पण होय, चोथो त्रणवेद मांहेलो एक वेद, पांचमो एक अप्रत्याख्यानी कषाय, को एक प्रत्याख्यानीयो कषाय, सातमो एक संज्वलनकषाय, ए सात प्रकृतिनो उदय बावीशना बंधक मिथ्यादृष्टिने निश्चे होय. तिहां नांगा चोवीश थाय, ते देखाडे बे. क्रोध, मान, माया अने लोन, ए चारे उदय विरोधी , ते जणी क्रोधादिकने उदयें मानादिकनो उदय न होय, परंतु क्रोधने उदयें तेना हेग्ला सघला क्रोधनोज उदय होय. तिहां अनंता-बंधीआना एक क्रोधने उदयें बीजा अप्रत्याख्यानादिक चारे जातिना क्रोधनो उदय साथेंज होय, अने अप्रत्याख्यानीश्रा क्रोधने उदयें बीजा प्रत्याख्यानादिक त्रणे जातिना क्रोधनो उदय सोयेज होय, तथा प्रत्याख्यानीया क्रोधने उदयें बे जातिना क्रोधनो उदय होय, अने संज्वलन क्रोधने उदयें एकनोज उदय होय, तेमाटें अहींयां अप्रत्याख्यानीथा क्रोधने उदयें त्रणे क्रोधनो उदय होय. तेम मानने उदयें, पण त्रणे माननो उदय होय, अने मायाने उदयें पण त्रणे मायानो उदय होय, अने लोनने उदय पण त्रणे लोजनो उदय जाणवो. ए क्रोध, मान, माया, अने लोजना चार नांगा स्त्रीवेदना उदय साथें गणवा. वली स्त्रीवेदने स्थानकें पुरुषवेदनो उदय होय, तेवारें ए चार नांगा पुरुषवेदने विषे पण पामी, अने ए चार नांगा नपुंसकवेदने उदय पण पामीयें. एम सर्व मली बार जांगा हास्य अने रतिने उदये जाणवा. तेमज वली हास्य अने रतिने स्थान शौक थने अरतिने उदयें पण बार नांगा गणीये. तेवारें चोवीश नांगा थाय. अथवा एक मिथ्यात्व सातने उदयें लहीयें, तथा हास्यादिक एक युगल साथै पुरुषवेदें एक नांगो तथा शोकादि युगल साथें एक नांगो, एम बे नांगा पुरुषवेदें थाय. तेमज स्त्रीवेद साथे पण बे नांगा थाय, अने नपुंसकवेद साथे पण बे जांगा थाय. एवं उ जांगा क्रोधे थया, अने क्रोधने स्थानकें मान लहीयें, तेवा, पण उ Page #773 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४G सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ जांगा थाय. तेमज मायो साथै ब जांगा तथा लोन साथै ब जांगा, एम ब चोक चोवीश जांगा था. ए सातने उदयें मिथ्यात्व लहीयें, तेवारें जांगानी चोवीशी थइ. तथा ए सातना उदय मध्यें जय, जुगुप्सा अथवा अनंतानुबंधीच्या चार कषायमांहेलो एक कषाय, ए त्रण प्रकृतिमांहेथी एकेक प्रकृतिनो उदय क्षेपीयें, तेवारें या प्रकृतिनो उदय थाय. यहीं त्रण चोवीशी नांगानी थाय. ते केम के, ए सातना - उदयमांहें जयनो उदय केपी श्रावना उदय सहित गुणीयें तेवारें जांगानी एक चोवीशी थाय, तथा ते सातना उदय मध्ये जुगुप्सानो उदय केपी श्रावना उदय सहित गुणीयें, तेवारें जांगानी बीजी चोवीशी थाय, अने ते सातना उदयमांहे नंतानुबंधीयानो उद्य वधारीयें, तेवारें आठनो उदय याय. तिहां पण पूर्वली पेरें जांगानी त्रीजी चोवीशी थाय. तथा मिथ्यात्वें अनंतानुबंधी श्रानो उदय तो अवश्य होय, तो सातनो उदय तथा जय, जुगुप्सा ने अनंतानुबंधी या सहित उनो उदय शा कारणे कह्यो ? तेनो उत्तर. जे कोइएक जीव, सम्यकदृष्टि बतां अनंतानुबंधी या चारने विसंयोज्या एटले खपाव्या, ते खपाव्या बतां पण कालांतरें कोइएक बीजनूत मिथ्यात्वनी सत्तायें करी वली पण बंधाय, तेने विसंयोज्या कहीयें, अने जे खपाव्या कह्या होय, ते तो फरी बंधायज नहीं; ए विसंयोज्या श्रने स्वपाव्यानुं विशेष जावं. दवे तेवी सामग्रीने - जावें को एक जीवें मिथ्यात्वादिकने खपाव्यानो उद्यम न कस्यो ते जीव, कालांतरें मिथ्यात्वें गयो, तिहां मिथ्यात्व प्रत्ययिया जणी मिथ्यात्वें करी वली अनंतानुबंधी श्रा चार कषाय बांधे, तेवारें बंधावलिका लगें ते अनंतानुबंधी श्रानो उदय न होय. यहीं कोई कहेशे के बंधकालनी यावलिका पबीज ते प्रकृतिनो उदय होय, ते केम घटे, जे जणी ए अनंतानुबंधी श्रानो अवाधाकाल जघन्य तो अंतरमुहूर्त्तनो अने उत्कृष्टो तो चार हजार वर्षनो को बे, तो अबाधाकाल जोगव्या विना केम बंधावलिका पी एनो उदय होय ? तेनो उत्तर कहे बे जे, बंधसमयथी पण अनंतानुबंधन सत्ता लेखवाय. बंधसत्ता जेवारें होय, तेवारें अनंतानुबंधी या पतद्ग्रह याय, पतद्ग्रह एटले ते बंधाती प्रकृति मध्ये बीजी सजातीय प्रकृतिनां दल तथा रसनो संक्रम, तेनुं गम जावं. एटले जे प्रकृति, बंधन परिणामे परिणम्यो जीव, प्रकृतिमध्ये बीजी सजातीय प्रकृतिनां दलीयां पवीने बांधी प्रकृतिरूपपणे तेने परिणमाaj, तेने संक्रम कहीयें. तेनुं स्थानक तेने पतद्ग्रह कहीयें. ते माटें बंधाता अनंतानुबंधी यामध्ये पण अणबंधाता एवा जे प्रत्याख्यानावरणादिक बीजा कषाय, तेनादलीया संक्रमे, ते अनंतानुबंधी आपणे परिणमे, एटले जेमांदे संक्रमे तेपणे परि For Private Personal Use Only Page #774 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ ४ मे तेनो उदय संक्रमावलिक थया पढी उदयाव लिकायें यावे, तेमाटें अनंतानुबंधी नो बं धावलिका पढी उदय कहीयें. अहींयां कशुं विरुद्ध, नथी. ए वात श्री विशेष कम्म पयमी की जाणवुं; तेमाटें मिथ्यात्वगुणठाणे पण बंधसंक्रमावलिका लगें तो प्रत्याख्यानादिकण कषायनोज उदय होय, केमके एक वेदातें जेटलानो जे गुणठाणे उदय होय, तेटला सर्व समान जातीय माटें तिहां वेदाताज कहीयें. जेमाटें क्रोधादिक चार परस्परें विरुद्ध बे, माटें तेमांहेलो एकनोज समकालें उदय होय, परंतु तिदां एक अनंतानुबंध क्रोध वेदतां सजातीयपणामाटें प्रत्याख्यानादिक बीजा त्रणे क्रोध समकालें सार्थेज वेदाय, परंतु तेनी सायें ते समयें बीजा मानादिकन वेदाय, तेमादें पूर्वोक्त प्रकारें मिथ्यात्वें पण बंधसंक्रमावलिका पठी अनंतानुबंधिच्यानो उदय होय. हवे ए सात प्रकृतिना उदय मध्यें जय अने जुगुप्सा, ए वे प्रकृतिनो उदय वधारीयें, तेवारें नवनो उदय याय. अहीं पण पूर्वी पेरें जांगानी एक चोवीशी थाय, तथा ते सात मध्यें जय ने अनंतानुबंधीयानो उदय मेलवीयें, तेवारें पण नवनो उदय था. यहींथां जांगानी बीजी चोवीशी थाय, तथा ते सात मध्यें जुगुप्सा ने अनंतानुबंधी, ए वे प्रकृति मेलवतां पण नवनो उदय थाय, तिहां जांगानी त्रीजी चोवीशी थाय. एम नवने उदयें सर्व मली जांगानी त्रण चोवीशी थाय. तथा एक मिथ्यात्व बीजुं जय, त्रीजी जुगुप्सा, चोथुं हास्य, पांचमुं रति श्रथवा एने स्थानकें शोक अने घरति पण लइयें, बहो त्रण वेदमांहेलो एक वेद, तथा अनंतानुबंध श्रादिक चारे कषाय, एवं दशनुं उदयस्थानक जेवारें होय, तेवारें पण पूर्वी पेरें जांगानी एक चोवीशी थाय. एम बावीशना बंधे सातनुं, श्रावनुं, नवनुं, दशनुं, ए चार उदयस्थानकें सर्व संख्यायें आठ चोवीशी जांगानी थाय. तथा नवगवी से सत्ताइ के० " एकविंशतिबंधे सप्तादीनि नव पर्यंतानि त्रीणि उदयस्थानानि जवंति " एटले एकवीश प्रकृतिने बंधें सात यादें देने नव लगें त्रण उदय स्थानक होय. तिहां प्रथम एक युगल, त्रण वेदमांहेलो एक वेद, चार कषायमाला क्रोधादिक एक कषायना चार भेद, एम सात प्रकृतिने उदयें पूर्वली पेरें जांगानी एक चोवीशी थाय. ए सातना उदयने जयना उदय सहित करतां आनो उदय थाय. तिहां पण जांगानी एक चोवीशी थाय. तथा जुगुप्सानो उदय मेलवतां पण वनो उदय थाय, तिहां पण मांगानी एक चोवीशी थाय, तथा जुगुप्सा, ए वे प्रकृतिनो उदय सामटो मेलवतां नवनो उदय थाय. तिहां पण पूर्वी पेरें जांगानी एक चोवीशी थाय. एम एकवीश प्रकृतिने बंधें सास्वादन गुणाने विषे त्र उदयस्थानकें यइ जांगानी चोवीशी चार थाय. For Private Personal Use Only Page #775 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ.६ अहीं साखादनना बे नेद बे. एक उपशम श्रेणिगत, बीजो अश्रेणीगत, तिहां श्रश्रेणीगतने विषे तो ए त्रण उदयस्थानक होय, अने श्रेणीगतने विषे वे आचार्यना श्रादेश जाणवा, ते कहे. एक जे अनंतानुबंधीयाने उपशमावीने श्रेणी करे, अने श्रेणीथी पमतो सास्वादन गुणगणुं स्पर्श, तेने मतें तो ए पूर्वे कह्यां तेहीज प्रण उदयस्थानक जाणवां. श्रने जे श्राचार्य अनंतानुबंधीया चारनी विसंयोजनायें श्रेणीनो प्रारंन माने जे, तेने मते श्रेणश्री पमतां अनंतानुबंधीयानी सत्ताने अनावें अनंतानुबंधीयाना उदय रहित सास्वादनपणुं न घटे, जे लणी “ अस्स सासणनावोन नवश्,” एम चूर्णिकारनुं वचन डे माटे. अने जो सम्यक्त्वथी पड्यो ते ज्यां सुधी मिथ्यात्व नूमीने विषे नथी पहोतो तेना वचला कालमां अनं. तानुबंधीपाना उदय विना पण सास्वादन गुणगणुं पामीयें, एम कहीयें तो तिहां उ प्रकृतिनो उदय मान्यो जोश्ये, तेवारें एकवीशने बंधे थी मांडीने नव लगेंना चार उदयस्थानक मान्यां जोश्ये, तेवारें तो तिहां नांगानी चोवीशी पण आठ मानवी जोश्ये. ते अहीं सूत्रकार को कारणे मानी नथी, ते जणी एने मते श्रेणीथी पमतां सास्वादन न होय, एमज कहेवू. हवे बाइअनवसत्तरसे के “ सप्तदशबंधस्थानके षमादीनि नव पर्यंतानि चत्वारि उदयस्थानानि नवंति" एटले सत्तर प्रकृतिने बंधे आदें देश्ने नव लगें चार उदयनां स्थानक होय. अहीं सत्तरनो बंध त्रीजे तथा चोथे गुणगणे होय, तिहां जे मिश्रगुणगणे सत्तरनो बंध होय, तेने विषे सात, आठ अने नव, ए त्रण उदयस्थानक होय, एटले एक मिश्रमोहनीय, बे युगलमांहेद्यं एक युगल, त्रण वेदमांहेलो एक वेद, अने अनंतानुबंधीया विना शेष त्रण कषायनो एकेको नेद, ए सात प्रकृतिनो उदय, मिश्रगुणगणे होय. श्हां पूर्वली पेरें नांगानी चोवीशी एक थाय, तथा ए साथें जय मेलवतां श्राउने उदयें पण नांगानी चोवीशी एक थाय, तथा जयने स्थानकें जुगुप्सा मेलवीयें, तेवारें पण आउने उदयें नांगानी एक चोवीशी थाय, तथा नय श्रने जुगुप्सा बे सामटी मेलवतां नवने उदय पण नांगानी चावीशी एक थाय. एवं मिश्रगुणगणे सत्तर बंधे नांगानी चार चोवीशी थाय. तथा चोथे गुणगणे सत्तरना बंधे ब, सात, आठ अने नव, ए चार उदयनां स्थानक, दायिक सम्यकदृष्टिने होय. तिहां मिश्रने जे सातनो उदय कह्यो, ते मध्येयी मिश्रमोहनीय विना चोथे गुणगणे बनो उदय लेखवतां नांगानी चोवीशी एक थाय, ते उ प्रकृतिना उदय मध्ये जय, जुगुप्सा तथा सम्यक्त्वमोहनीय ए एके Page #776 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकानामा षष्ट कर्मग्रंथ. ६ कनो उदय मेलवतां त्रण प्रकारें सातनो उदय थाय. तिहां एकेका नेदें एकेकी नांगानी चोवीशी थाय, तेवारें सातने उदयें त्रण,चोवीशी नांगानी थाय. तथा ते ना उदयमांहे जय अने जुगुप्सा अथवा जय अने वेदकसम्यक्त्वमोहनीय अथवा जुगुप्सा अने वेदकसम्क्त्वमोहनीय, ए रीतें बेबे प्रकृति सामटी ज्नेलीयें, तेवारें त्रण प्रकारें आग्नुं उदयस्थानकं थाय, तिहां पण प्रत्येकें नांगानी एकेकी चोवीशी गणतां त्रण चोवीशी नांगानी थाय. वहीं सम्यक्त्वमोहनीयना जे नांगा, ते वेदकसम्यकूदृष्टिने जाणवा, अने दायिक तथा उपशमसम्यक्दृष्टिने सम्यक्त्वमोहनीयनो उदय नथी, ते जणी तेने न जाणवा. तथा ते बना उदय, ते मध्ये नय, जुगुप्सा अने वेदकसम्यक्त्वमोहनीय, ए त्रणे प्रकृतिनो उदय सामटो मेलवीयें, तेवारें नव प्रकृतिनो उदय थाय. तिहां पण एक चोवीशी जांगानी थाय. एम सर्व मली चोथे गुणगणे श्राठ चोवीशी नांगानी थाय. ते मध्ये चार दायिक तथा उपशमसम्यकदृष्टिने लेवी, तथा चार दायोपशमिक सम्यकदृष्टिने मिश्रनी पेरें लेवी. तथा ए आठ चोवीशी साथें मिश्रगुणगणानी चार चोवीशी मेलवतां सत्तरने बंधस्थानकें बार चोवीशी नांगानी होय. यद्यपि त्रीजे अने चोथे गुणगणे उदयस्थानक तो तेहीज ने पण तिहां प्रकृति जूदी बे, माटें बे वार लीधा बे. तथा तेरंपंचाश्अहेव के० " त्रयोदश बंधस्थानके पंचादीनामष्टपर्यंतानि चत्वारिउदयस्थानानि स्युः" एटले तेर प्रकृतिने बंधे पांच श्रादें देश आठ लगें चार उदयनां स्थानक होय, एटले पांच, उ, सात अने थाउ, ए चार उदयस्थानक होय, तिहां एक प्रत्याख्यानी क्रोध, बीजो संज्वलनक्रोध,त्रीजो पुरुषवेद,एक युगल,एवं पांचनोउदय होय. थहीं क्रोधने स्थानकें मान, माया अने लोन साथे परावर्त करतां चार मांगा पुरुषवेद साथे थाय.अने जेवारें पुरुषवेदने स्थानकें स्त्रीवेद लश्य,तेवारें पण चार नांगा थाय, श्रने नपुंसकवेद साथे पण चार नांगा थाय. एवं बार नांगा थया.पली हास्य अने रति, ए युगलने स्थानकें शोक अने अरति ए युगल वेश्ये, तो तेंनी साथे पक्षी बीजा बार नांगा थाय. एम नांगानी एक चोवीशी पांचने उदयें थाय. तेमध्ये वली जय अथवा जुगुप्सा अथवा सम्यक्त्वमोहनीय, ए त्रण प्रकृतिमाहेली एकेक मेलवतां बनो उदय त्रण नेदे थाय. तिहां एकेके नेदें एकेक चोवीशी करतां त्रण जेवें बना उदयें त्रण चोवीशी नांगानी थाय, तथा ते पांचना उदयमांहे जय, जुगुप्सा अथवा जय अने सम्यक्त्वमोहनीय अथवा जुगुप्सा अने सम्यक्त्वमोहनीय, ए बे बे प्रकृतिनो उदय सामटो मेलवतां सात प्रकृतिनां उदयस्थानक त्रण थाय. तिहां पण लांगांनी चोवीशी त्रण थाय, तथा ते पांचना उदयमांहे जय, जुगुप्सा अने सम्यक्त्व Page #777 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश् सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ मोहनीय, ए ऋण प्रकृतिनो उदय साथै मेलवीने या प्रकृतिनुं उदयस्थानक करतां तिहां जांगानी चोवीशी एक याय. एम तेरने बंधें चार उदयस्थानकें देश विरति गुणठाणे सर्व मली जांगानी (वीशी आठ याय, तेमध्यें क्षायिक तथा उपशम सम्यकदृष्टिने चार चोवीशी ने बाकीनी चार चोवीशी वेदक सम्यकदृष्टिने श्राय ॥ १७ ॥ ॥ दवे नव प्रकृतिने बंधें जांगा कहे . ॥ चत्तारि आइ नव बंध, एसु नक्कोस सत्त मुदयंसा ॥ पंच विह बंध पुण, उदर्ज हुएदं मुणेो ॥ १८ ॥ अर्थ - चत्तारिया इनवबंध सुनकोससत्तमुदयंसा के० " चत्वारीत्यादि नवबंधकेषु प्रमतादिषु चतुरादीनि सप्तपर्यंतानि चत्वारि उदयस्थानानि जवंति" एटले प्रमत्त, अप्रमत्ता पूर्वकरण, ए त्रण गुणठाणे नव प्रकृतिनां बंधस्थानकें चारनो उदय श्रादें देने उत्कृष्टुं तो सातनुं उदयस्थानक होय, ए जाव. तिहां संज्वलना क्रोधादिक मांदेलो एक कषाय, त्रण वेदमांहेलो एक वेद, हास्ययुगल अथवा शोकयुगल, एवं चारनो उदय क्षायिक तथा उपशम सम्यकूदृष्टिने ध्रुव होय, ते माटें अहींयां जांगानी चोवीशी एक थाय. ते चार मध्यें जय, जुगुप्सा तथा सम्यक्त्वमोहनीय, ए ऋण प्रकृतिमांदेली एकेक जेलतां त्रण प्रकारें पांचनो उदय याय तिहां जांगानी चोवीशी त्रण याय. ते चार मध्यें जय थाने जुगुप्सा, ए वे अथवा जय छाने सम्यक्त्वमोहनीय, एबे, अथवा जुगुप्सा अने सम्यक्त्वमोहनीय, ए बे, एम बे बे प्रकृतिनो उदय मेलवीयें, तेवारें त्रण प्रकारें बनो उदय थाय. तिहां पण जांगानी चोवीशी त्रण याय, तथा ते चारमां जय, जुगुप्सा अपने सम्यक्त्वमोहनीय, ए त्रणे प्रकृतिनो उदय सामटो मेलवीयें, तेवारें सात प्रकृतिनुं उदयस्थानक थाय, तिहां जांगानी चोवीशी एक थाय. एवं नवने बंधें चार उदयस्थानके इने या चोवीशी जांगानी थइ, तेमांदेली चार चोवीशी क्षायिकाने पशमिक सम्यकदृष्टिने होय, तथा चार चोवीशी वेदक सम्यकदृष्टिने होय, ए बहे, सातमे ने श्रावमे गुणगणे होय. तथा पंचविहबंधगेपुण के० वली पांच प्रकृतिना बंधने विषे उदर्ज हुएहं मुवो के० प्रकृतिनुं एक उदयस्थानक जाणवुं. ते आवी रीतें के चार संज्वलनमांहेलो एक क्रोध अथवा मान अथवा माया अथवा लोज होय; अने त्रण वेदमांहेलो एक वेद, ए रीतें बे प्रकृतिनुं उदयस्थानक होय. श्रींयां जांगा बार थाय, जे जणी अहीं हास्यादिको उदय नथी माटें जांगानी चोवीशी न थाय. मात्र चार कषायने त्रण वेद साथै गुणतां बार जांगा थाय. ए बार जांगा नवमा गुणवाणाना पांच नागमांहेला पहेले जागे होय. ॥ १० ॥ For Private Personal Use Only Page #778 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ । ७५३ ॥ हवे आगले बंधस्थानके उदयस्थानक कहे . ॥ इत्तो चन बंधाइ, इकिकुदया दवंति सवेवि ॥ बंधो चरमेवि तहा, उदया नावे विवा हुजा ॥१॥ अर्थ-श्तो के अहींयां पांचना बंधस्थानकथकी पागल हवे चजबंधा के चतुबंधादिक एटले चारनो बंध, त्रणनो बंध, बेनो बंध अने एकनो बंध, ए चार बंधस्थानके शकिकुदयाहवं तिसवेवि के एकेक प्रकृतिनुंज उदयस्थानक सर्व बंधस्थानकने विषे होय. ते केम के पुरुषवेदनो बंध टले, पडी चार संज्वलननोज बंध होय, पुरुषवेदना बंध साथें उदय पण टले तेमाटें तिहां चतुर्विध बंधे एकोदयें चार नांगा होय, जे नणी चार संज्वलना कषाय मांहेलो कोशएकने संज्वलना क्रोधनोज उदय होय, कोशएकने संज्वलना माननोज उदय होय, कोशएकने संज्वलनी मायानोज उदय होय, अने कोशएकने संज्वलना लोजनोज उदय होय. एम चार नांगा, उदयना अनिवृत्तिकरणने बीजे जांगें होय. अहील कोइएक श्राचार्य, चतुर्विध बंधने संक्रम का त्रण वेदमाहेला एक वेदनो उदय माने , तेवारे तेने मते चतुर्विधर्वधने पण प्रथम कालें चार संज्वलनाने त्रण वेद साथें गुणतां बार जांगा छिकोदयना श्रहीं पण थाय, तथा पंचविधबंधे पण हिकोदयना बार नांगा थाय. एम छिकोदयना चोवीश नांगा प्रथम कालें होय.ते पडी चतुर्विधबंधे एकोदयना चार नांगा होय. तेवार पली संज्वलना क्रोधने उच्छेदें अनिवृत्तिने त्रीजे लांगें त्रिविधबंध होय. तिहां एकनो उदय होय, तेना नांगा त्रण उपजे, तेवार पड़ी चोथे नांगे बेने बंधे संज्वलन माया तथा लोन, ए बेमांदेला एकने उदयें बेनांगा होय, तथा एक संज्वलन लोजने एक बंधस्थानके एक संज्वलन लोजनो उदय होय, तेनो एक नांगो नवमा गुणगणाना पांचमा नांगे होय. हवे बंध विमा मात्र उदयनोज एक नांगो थाय, ते कहे . बंधोचरमे वितहा के मोहनीयना बंधने अनावे पण सूक्ष्म संपरायगुणगणे एक संज्वलना लोजर्नु उदयस्था-नक होय. तिहां एक जांगो जाणवो. एम चारने बंधस्थानके नांगा चार, त्रणने बंध, स्थानकें नांगा त्रण, बेने बंधस्थानकें जांगा बे, एकने बंधस्थानके नांगो एक, तथा बंध शून्य करतां नांगो एक, एवं अगीर नांगा एकने उदये थया. अहींयां जोपण संज्वलना क्रोधादिकना उदयमांहे विशेष नथी तोपण बंधस्थानकें विशेषे करी विशेष जाणवू. : पनी उदयाजावेविवाहुजा के उदयने अनावे पण उपशांतमोहें उपशांत कषायनी Page #779 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ अपेक्षायें मोहनीयनी सत्ता होय. ते पण एक नांगो प्रसंगें कह्यो, परंतु अहीं बंध आने उदयना संवेध मांहे सत्तानो नांगो कदेवो. ते निष्कारण जे तेथीन कह्यो, अने वीणमोहे तो सत्ता पण न होय ॥ इति ॥ १५ ॥ ॥अथ दशादिषूदयस्थानेषु यावंतोनंगाः स्युस्तानाह. हवे दशादिक पश्चानुपूर्वियें एक पर्यंत उदयस्थानकने विषे जेटला नांगा होय, ते कहे .॥ श्कग बक्किकारस, दस सत्त चनक श्कगंचेव ॥ एए चन वीस गया, बार उगिकम्मि इक्कारा ॥ तथा मतांतरे, चवीस उगिकमिक्कारा ॥ २० ॥ अर्थ-ग्रहीयां उदयने स्थानकें यथाक्रमें संख्या जोमवी. तिहां दशने जदयें शक्कग के एक चोवीशी, नवने उदयें बक्क के चोवीशी, श्राउने उदयें कारस के अगीश्रार चोवीशी, सातने उदयें दस के० दश चोवीशी, बने उदयें सत्त के सात चोवीशी, पांचने उदयें चउक के चार चोवीशी, चारने उदयें श्वगंचेव के निश्चं एक चोवीशी नांगा होय. एएचवीसगया के ए सर्व मलीने चालीश चोवीशी नांगा थाय. ए नांगा जपजाववानी नावना पूर्वे कही , तेम जाणवी; तथा बारग के बेने जदयें बार नोंगा होय, अने कम्मिश्कारा के० एकने जदयें अगीश्रार नांगा होय, ते केम? जे चारने बंधे चार, त्रणने बंधे त्रण, बेने बंधे बे अने एकने बंधे एक, तथा अबंधे एक, एवं अगीआर जांगा थाय. तथा अन्य आचार्यने मते चनवीसग के बेने यदयें एक चोवीशी जांगा जपजे, एटले बार जांगा पांचने बंधे अने बेने उदयें तथा बार नांगा चारने बंधे अने बेने उदयें, एम चोवीश नांगा उपजे; अने श्कमिक्कारा के एकने बंधे अगीथार नांगा उपजे, ए मतांतर कद्यु. ॥ २० ॥ ॥ एतेषामेव नंगानां विशिष्टसंख्यां पदसंख्यां च खमतेन आह॥ ॥हवे एज नांगानी विशिष्टपणे संख्या थने तेना पदनी संख्या पोताने मतें कहे जे.॥ नव तेसीइ सएहिं, उदय विगप्पेदि मोहिया जीवा ॥ अणुत्तरि सीआला, पयविंद सएहिं विन्नेआ ॥१॥ ॥ अथवा मतांतरेण नंग संख्या पदसंख्यामाद ॥ नव पंचाण उसए, उदय विगप्पेदि मोहिया जीवा ॥ अजणत्तरि एगुत्तरि, पयविंद सएहिं विन्नेआ ॥॥ ___अर्थ-अहींयां दश, नव, थाळ, सात, ब, पांच, अने चार, ए सात उदयस्थान Page #780 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ յԱԱ यइने चालीस चोवीशी जांगानी लाधी, ते चालीशने चोवीश गुणा करीयें, तेवारें ६० याय. तेमध्यें द्विकोदयना बार अने एकोदयना अगीआर, एवं त्रेवीश जांगा मेलवीयें, तेवारें नवतेसी इसएहिं के० नवसें ने त्र्याशी जांगा याय. एमोहनीय कर्मना उदय विगप्पे हिमो हि श्राजीवा के उदयने विषे नव विकल्पें करीने स्वमतें ए८३ जांगा या ते विषे सर्व संसारी जीव मोह्या मुंकाणा पड्या बे. हवे पदसंख्यांक कहे बे. ए ८३ जांगाने विषे उत्तरिसी श्रालापयविंदसएहिंविनेा ० ६४७ एटला पदना वृंद एटले समूह जाणवा. एटले एकेकी प्रकृतिनुं नाम ते एकेकुं पद कहीयें. ते दश प्रकृतिने उदयें एकेका जांगामांहे दश दश पद होय, नवने उदयें एकेका जांगामांहे नव पद होय. एम यावत् एकने उदयें एकेका गामां एक पद होय, ते माटें दशोदयना जांगा दश गुणा करीयें, अने नवोदया जागा नवगुणा करीयें. एम सर्वने गुणाकार करी तेनुं ऐक्य कीधे यके ६९४७ पद, स्वमतें कह्या, एटले जिहां वे प्रकृतिने उदयें बार जांगा कह्या बे, ते खमतें जाणवा. अने मतांतरें बेने उदयें चोवीश जांगा कह्या बे. तेने मतें एकतालीश चोवी शीना ९०४ तथा एक प्रकृतिना उदयना अगीयार जांगा मेलवतां याय. एटला मोहनीयकर्मना विकल्पें करीने सर्व संसारी जीव संसारने विषे मुंफाइ रह्या बे. हवे एना ६५१ पदवृंद प्रकृतिसंख्या थाय, ते करी देखाडे बे. दशने उदयें एक चोवीशी जांगानी बे, तेने दश गुणा करतां दश चोवीशी थाय, तथा नवने उदयें व चोवीशीनी चोपन थाय, तथा श्रावने उदयें गीधार चोवीशीनी अाशी याय, तथा सातने उदयें दश चोवीशीनी सीत्तेर थाय, तथा बने उदयें सात चोवीशीनी बेंतालीश याय, तथा पांचने उदयें चार चोवीशीनी वीश थाय, तथा चारने उदयें एक चोवीशीनी चार थाय, तथा बेने उदयें एक चोवीशीनी बे थाय, एम १०० चोवीशी सरवाले जांगानी थाय, तेने चोवीश गुणा करतां ६९६० याय. तेमध्यें एकोदयना अगीवर नेलीयें, तेवारें ६०११ पदवृंद संख्या - थाय. तेने विषे सर्व संसारी जीव मोह्या मुंकाणा बे. ए सर्व उदयने जांगें जघन्यथी तो एक समय काल छाने उत्कृष्टो तो अंतरमुहूर्त्त प्रमाण काल होय, जे जणी वेद तथा हास्य युगलमाँहेलो एक अंतरमुहूर्त्त पढी फरे, ते पंचसंग्रहनां मूल तथा टीकामांदे को बे, माटें अंतरमुहूर्त्त उपरांत नांगो अवश्य फरे, ने एक समय तो बंधस्थानक फरवानी तथा स्वरूपें उदयांतर करवानी अपेक्षायें जावो, एटले बंधस्थानकना जेदथी अथवा गुणगणाना नेदथी For Private Personal Use Only Page #781 -------------------------------------------------------------------------- ________________ suદ્દ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ अथवा स्वरूपथकी अवश्य अन्य उदयें अन्य जांगांतरें जीव जाय.॥इतिगाथाघ्यार्थः ॥२१॥२२॥ एम बंध स्थानके उदय स्थानकनो संवेध कह्यो. ॥ अथ सत्तास्थानैः सह संवेधमाह ॥ हवे सत्तास्थानक साथे संवेध कहे. ॥ तिन्नेवय बावीसे, गवीसे अवीस सत्तरसे ॥ बच्चेव तेर नव बं, धएसु पंचेव गणाणि ॥ २३ ॥ अर्थ-तिन्नेवयबाबीसे के बावीशने बंधे अहावीश, सत्तावीश श्रने बबीश, एत्रण सत्तास्थानक होय. जे जणी बावीश प्रकृतिनो बंध, मिथ्वात्वीने होय, तिहां -- ए-१०- ए चार उदयस्थानक होय, तेमध्ये सातने उदयें तो एकज अहावीशनुं सत्तास्थानक होय, जे जणी सातनो उदय तो अनंतानुबंधीयाने अनावें होय, अने ते तो जेणे सम्यक्दृष्टि बतां अनंतानुबंधिया उवेल्या होय, ते जेवारें मिथ्यात्वे जाय, तेवारें वली मिथ्यात्वप्रत्ययिक अनंतानुबंधिया चार बांधवा मांडे, ते मिथ्यात्वीने बंधावलिका तथा संक्रमावलिका लगें अनंतानुबंधियाना उदय रहित सातनो उदय पामीयें, तिहां तो तेने निश्चें अहावीशनीज सत्ता होय. तथा श्राप प्रकृतिना उदयस्थानकें अहावीश, सत्तावीश अने वीश, ए त्रण सत्तास्थानक होय. तिहां जे अनंतानुबंधीया रहित पाउनो उदय होय, तिहां तो पूर्वोक्त युक्तियें एक अहावीशनुं सत्तास्थानक होय, अने अनंतानुबंधीश्रा सहित जे श्राउनो उदय होय, तेने विषेत्रण सत्तास्थानक होय, तेमध्ये जिहां लगें सम्यक्त्व मोहनीय उवेदयुं नथी, तिहां लगें अहावीशनुं सत्तास्थानक जाणवू, अने सम्यक्त्व नवेल्या पळी सत्तावाशनुं सत्तास्थानक तथा मिश्रमोहनीय उवेल्या पली बबीशनुं सत्तास्थानक अथवा अनादि मिथ्यात्वीने पण बबीशनुं सत्तास्थानक होय. एमज नवने उदय पण एहिज त्रण सत्तास्थानक कदेवां, श्रने दशनो उदय तो अनंतानुबंधीमा सहितज होय, तो तिहां पण ए त्रण सत्तास्थानक कहेवां. गवीसेअहवीस के एकवीशने बंधे सात, आठ अने नव, ए त्रण उदयस्थानके पण एकज अहावीशनुं सत्तास्थानक होय, जे जणी ए एकवीश प्रकृतिनो बंध सास्वादन गुणगणे होय, अने सास्वादनपणुं तो औपशमिक सम्यक्त्व वमतां होय, तेणे उपशम सम्यक्त्वें करी मिथ्यात्वना दलिकनो एक सम्यक्त्व, बीजो मिश्र अने त्रीजो मिथ्यात्व, एवा त्रण पुंज कस्या, ते माटें त्रणे दर्शनमोहनीयनी सत्ता, साखादने पामीये तेथी अहावीशर्नु एकज सत्तास्थानक एकवीशने बंधे होय. सत्तरसेबच्चेव के सत्तरने बंधे सत्तानां स्थानक होय.ते अहावीश,सत्तावीश, चोवीश, Page #782 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ JUI वीश, बावीश अने एकवीरा, ए व सत्तास्थानक होय. तिहां ए सत्तर प्रकृतिनुं बंधस्थानक त्रीजे अने चोथे गुणगाणे होय, तिहां ढ़, सात, आठ छाने नव, ए चार उदय स्थानक सम्यकदृष्टिने होय, तिहां बनुं उदयस्थानक क्षायिक तथा श्रपशमिक सम्यक्टष्टिने होय. तिहां क्षायिक सम्यकूदृष्टिने एकवीश प्रकृतिनुं सत्तास्थानक होय, जे अनंतानुबंधी चार तथा दर्शनमोहनीय त्रण, ए सात प्रकृतिने दयें कायिक सम्यक्त्व होय बे तेमायें तथा औपशमिक सम्यकदृष्टिने प्रथम ग्रंथि दीपशमिक पामतां तथा उपशमश्रेणिये पण जेणे अनंतानुबंधी श्रा उपशमाव्या होय, तेने धावनुं सत्तास्थानक होय, अने जे अनंतानुबंधीचा विसंयोजीने श्रेणि आरं तेने चोवीश प्रकृतिनुं सत्तास्थानक होय. एम बे सत्तानां स्थानक, उपशमसम्यकूद ष्टिने होय. एटले सत्तरने बंधे अने बने उदयें सर्व मली २८-२४२१ - ए त्रण सत्तास्थानक थयां. मिश्रदृष्टिने सात, आठ घने नव, ए त्रण उदयें अहावीश, सत्तावीश, अने चोवीश, एत्रण सत्तास्थानक होय. तिहां जे अहावीशनी सत्तावालो मिश्रगुणठाएं पविजे तेने अहावीशनी सत्ता होय, अने जेणे मिथ्यात्वी थकां सम्यक्त्व उवेल्युं, अने मिश्रपणं हजी उवेलवा मांड्यं नयी ते सम्यकूत्वज उवेलीने मिथ्यात्वनी निवर्त्तिने फरी परिणामवशें मिलें यावे, तेने सत्तावीशनुं सत्तास्थानक होय, तथा जे सम्य दृष्टि तां अनंतानुबंधी या विसंयोजीने तथाविध परिणामने वशें मिश्रे यावे, तेने चोवीशनी सत्ता होय. ए चोवीशनी सत्ता, चारे गतिने विषे पामीयें, जे माटें चारे गतिना सम्यकदृष्टि अनंतानुबंधिवानी विसंयोजना करे, ए विषे कम्मपडिमध्यें एम कयुं बे, के “चटगश्था पत्ता, तिन्नि विसंजोयणवा विसंयोजंति ॥ करणेहिं तिहिसहिया, पंतरकरणं उवसमोवइति” चार गतिना पर्याप्ता जीव, एक सम्यकदृष्टि, बीजा देशविरति, त्रीजा सर्वविरति, ए त्रणे अनंतानुबंधी विसंयोजना करे, ते वली परिणामने वरों मि पण यावे, तेथी ए नांगो चारे गति मध्यें पामीयें. तथा चोथे गुणठाणे सत्तरने बंधें, सातने उदयें, श्रधावीश, चोवीश, त्रेवीश, बीवी ने एकवीरा, ए पांच सत्तानां स्थानक होय. तिहां श्रद्यावीशनुं औपशमिक तथा वेदक सम्यक्रष्टिने होय, ने अनंतानुबंधिच्या विसंयोज्या पठी चोवीशनुं सत्तास्थानक पण ए बेहुने दोय, तथा मिथ्यात्वने दयें त्रेवीशनुं सत्तास्थानक ने मिथ्यात्व तथा मिश्र, ए बेना दयें बावीश प्रकृतिनुं सचास्थानक, ए बे, वेदक्सम्यक्रदृष्टि, नेज होय, ते केमके ? अनंतानुबंधी चार, तथा मिथ्यात्व अने मिश्र, ए ब प्रकृति For Private Personal Use Only Page #783 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ खपावीने सम्यक्त्वमोहनीय खपावतो तेने चरम ग्रासें वर्त्ततो कोइएक पूर्वबद्धायुजीव तिहां मरीने चारे गति मांहेली जावे, ते एक गतिमांदे जइ उपजे, तेवारें बावीशनी सत्ता, चारे गति मध्यें पामीयें, अने एकवीशनी सत्ता तो क्षायिक सम्यकूटष्टिनेज होय. तथा श्रवने उदयें तो मिश्रगुणठाणे सातना उदयनी पेरें अहावीश, सत्तावीदा अने चोवीश, ए त्रण सत्तास्थानक होय, अने अविरतिसम्यकदृष्टिने तो जेम सातने उदयें पांच सत्तास्थानक कह्यां, ते प्रकारेंज पांच सत्तास्थानक आउने जदयें पण कवां, तेमज नवनो उदय पण अविरति वेदकसम्यकदृष्टिने होय. ते कायोंपशमिक सम्यकदृष्टि माढें एकवीश ने सत्तावीश, ए बे सत्तास्थानक विना शेष २८-२४-२३-२२ ए चार सत्तास्थानक होय. ते पूर्वली पेरें जाववां. तथा तेरनवबंध के० तेरने बंधे ने नवने बंधें प्रत्येक प्रत्येके पंचेवठाणाणि के पांच पांच सत्तानां स्थानक होय, अहावीश, चोवीश, त्रेवीश, बावीश ने एकवीरा, ए पांच सत्तानां स्थानक होय. तेमांदे तेरना बंधक देशविरति होय, ते बे ने बे. एक तिर्यंच, बीजा मनुष्य, तेमध्यें तिर्यंचने पांच, ब, सात अने आठ, ए चारे उदयस्थानकें अहावीश ने चोवीश, ए बे सत्तानां स्थानक होय. तिहां पांच, ब ने सात उदयें औपशमिकसम्यकदृष्टिने श्रद्वावीशनी सत्ता होय, ते को एक ग्रंथि नेदीने सम्यक्त्व सहित देशविर तिपणुं परिवजे, तेनी अपेक्षायें लेवी, जे जणी शतकचूर्णि मध्यें एम कयुं छे के, " उवसमसम्मदिहि, अंतरकरणेवि कोइ देस विरइ कोइ मत्तापमत्त जावं पिगछइ सासायोपुण किमविलहइ " तथा कायोपशमिक सम्यकदृष्टि तिर्यंचने व सात ने आठ, ए त्रण जंदयें चोवीशनी सत्ता होय, ते अनंतानुबंधी या चारनी विसंयोजना पूर्वे चार गति मध्यें कही बे, ते अपेक्षाये लेवा, अने बीजां त्रेवीश, बावीश अने एकवीश, ए सत्तास्थानक देशविरति तिर्यंचने न हाय, जे जणी बावीश ने त्रेवीश, ए वे सत्तास्थानक तो कायिक सम्यत्व उपजती वेलायें होय, ते तो तिर्यंचने न उपजे, अने कायिक सम्यक्त्वनो धणी जेणे पूर्वे तिर्यंचायु बांध्यु होय, तेथी ते तिर्यंच थाय, तो पण ते असंख्याता वर्षायुवाला तिर्यंचमध्ये अवतरे, तेने तो देशविर तिपणुं होयज नहीं, तथा संख्यात वर्षनुं तिर्यंचायु बांध्या पठी तो ते जवें क्षायिक सम्यक्त्व पामेज नहीं, तेथी तिथंच देश विर तिने तेरने बंधें एकवीशनुं सत्तास्थानक न होय. यमुक्तं चूर्णौ " एग वीसा तिरिरकेसु संजयासंजयेसु न संजवर ॥ कई जल संखिद्य वासाउपसु तिरिकेसु खायगसम्मदिहि नजववद्यइ श्रसंखिद्यं वासाउएसु उववद्यर तस्स देस विरइति. "" Page #784 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ.६ - तथा देशविरति मनुष्यने पांचने उदय एकवीश, चोवीश अने अहावीश, ए त्रण सत्तास्थानक होय, तथा बने अने सातने उदयें पांच सत्तास्थानक होय, अने श्राउने उदयें एकवीशनां सत्तास्थानक विना बाकीनां चार सत्तास्थानक होय, जे जणी थाउनो उदय, सम्यक्त्वमोहनीय साथें होय तेमाटें तिहां एकवीश प्रकृतिनुं सत्तास्थानक न होय, बाकीनां चार होय ते वेदकसम्यक्त्वी मनुष्यने देशविरति गुणगाणे होय. एमज नवने बंधे प्रमत्त तथा अप्रमत्त गुणगणे चारने उदयें अहावीश, चोवीश अने एकवीश, ए त्रण सत्तास्थानक होय, तथा पांचने उदयें अने बने उदयें तो जे देशविरतियें कह्यां तेहिज पांच सत्तास्थानक होय, अने सातने उदयें एक एकवीशना सत्तास्थानक विना बाकीनां चार सत्तास्थानक होय. वहीं पण पूर्वोक्त युक्ति करवी ॥ इति समुच्चयार्थः ॥२३॥ पंचविद चनविहेसु, न बक्क सेसेसु जाण पंचेव ॥ पत्तेअं पत्तेअं, चत्तारि अ बंधु वुडेए॥२४॥ अर्थ-तथा पंचविहचविहेसुबबक के पंचविध बंधकने विषे तथा चतुर्विध बंधकने विषे प्रत्येकें ब ब सत्तास्थानक होय, तिहां पांचने बंधे अहावीश, चोवीश, एकवीश, तेर, बार श्रने अगीधार, ए र सत्तानां स्थानक होय, तेमांदेलां अहावीश अने चोवीश, ए बे सत्तास्थानक तो उपशमश्रेणीयें औपशमिक सम्यकदृष्टिने होय. तिहां जेणे नवमा गुणगणाने प्रथम नागे चार अनंतानुबंधीआ विसंयोज्या तेने चोवीशनुं सत्तास्थानक होय, अने एकवीशनुं सत्तास्थानक तो दायिकसम्यदृष्टिने उपशमश्रेणीयें तथा दपकश्रेणीये पण ज्यां लगें अप्रत्याख्यानीथा तथा प्रत्याख्यानीश्रा ए थाठ कषायनो दय न थयो होय, तिहां खगें एकवीशनुं सत्तास्थानक होय, श्रने पाठ कषाय खपाव्या पली तेहिज बंधे तेरनुं सत्तास्थानक होय. तेमांहेथी पण नपुंसकवेद खपावे थके बारनुं सत्तास्थानक होय, तेमांदेथी पण स्त्रीवेद खपावे थके अगीवारनुं सत्तास्थानक होय. पुरुषवेद बांधतां हास्यादिक उ प्रकृतिनो क्षय न थाय तेमाटें तिहां पंचादिक प्रकृतिनुं सत्तास्थानक न होय. तथा चारने बंधे बहावीश, चोवीश भने एकवीश, ए त्रण सत्तास्थानक तो उपशम श्रेणीयें पूर्वली पेरें जाणवां. बाकीनां त्रण सत्तास्थानक रूपकश्रेणीयें होय, तेनुं विशेष कहे .तेमध्ये कोइएक जीवें नपुंसक वेदोदये वर्तता क्षपकश्रेणी मांडी ते स्त्रीने नपुंसक एबे वेद, साथै समकालें खपावे, ते वेलायेंज पुरुषवेदनो बंध विछेदे, तेवार पत्री पुरुषवेद अने हास्यादिक उ, ए साते प्रकृति साथै खपावे. तथा जे स्त्रीवेदें श्रेणी मांडे, ते Page #785 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६० सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ प्रथम नपुंसकवेद खपावी अंतरमुहूर्त्त पछी स्त्रीवेद खपावे, तेनी सार्थेज पुरुषवेदनो बंध विछेदेखने पुरुषवेदबंध बेद्या पढी पुरुषवेद तथा हास्यादिक बनो समकालें क्षय करे. ते ज्यांगें दय न थाय, तिहॉलगें ए बे ठामें चारने बंधें वेदोदयरहित एकोदय वर्त्तताने अगीर प्रकृतिनुं सत्तास्थानक पामीयें, अने ते पुरुषवेद तथा हास्यादिक षट्क, एम सात प्रकृतिनो समकालें दय थये थके चार प्रकृतिनुं सत्तास्थानक होय, एम पांच सत्तानां स्थानक, स्त्रीवेदें छाने नपुंसकवेदें श्रेणी मांडे तेने होय, अने जे पुरुषवेदें रूपकश्रेणी मांडे, तेने दास्यादिक बना क्षयनी साथै पुरुषवेदनो बंध टले ते जणी तेने चतुर्विधबंधकालें अगी धारनुं सत्तास्थानक न होय, पुरुषवेद विना हास्यादिक षट्क टालिये, तेवारें पांच प्रकृतिनुं सत्तास्थानक न होय, ते बे समयोन बे आव लिका लगें होय, तेवार पढी पुरुषवेदनो दय थये थके चारनुं सत्तास्थानक रहे, ते पण अंतरमुहूर्त्त पर्यंत रहे, तेथी एने पण अगीखारनुं सत्तास्थानक टाली बाकी पांच सत्तास्थानक होय. एम चतुर्विध बंधकने विषे २८ - २४-११-११-५-४ ए ब सत्तानां स्थानक होय तथा सेसेसुजाण पंचेवपत्ते पत्ते के० शेष त्रिविध, द्विविध अने एकविध, ए त्रण बंधस्थानकने विषे प्रत्येकें प्रत्यकें पांच पांच सत्तानां स्थानक होय. तिहां त्रणने बंधें हावीश, चोवीश, एकवीश, चार अने त्रण, ए पांच सत्तानां स्थानक होय. तिहां प्रथमनां त्रण सत्तास्थानक तो, उपशमश्रेणीयें होय, बाकी चार नेत्र, ए बे सत्तानां स्थानक रूपकश्रेणीयें होय, ते कही देखाडे बे. संज्वलना क्रोधनी अंतरकर प्रथम स्थिति एक श्रावलिका मात्र शेष बते तेनो बंध, उदय अने उदीरणा समकालें व्युच्छेद याय, तेवार पढी मानादिक त्रणनो बंध होय, तेवारें संज्वलना क्रोधनुं प्रथम स्थितिगत प्रावलिकामात्र छाने बे समयोन बे वलिबंध वस्ता मूकीने अन्य सर्व दयें गयुं, छाने ते क्रोधनी सत्ता पण बे समय ऊणी बे श्रावलिका मात्र का दय पामशे ते ज्यांगें दय न जाय त्यांलगें त्रिविध बंधें चार प्रकृतिनी सत्ता होय, छाने ते संज्वलनो क्रोध दयें गयें थके ऋण प्रकृतिनुं सत्तास्थानक होय, ते मुहूर्त्त लगें जावं. दवे द्विविधबंघें २८ - २४-२१-३-२ ए पांच सत्तास्थानक होय. ए मांलां त्रण तो पूर्वी पेरें उपशमश्रेणीयें जाववां ने बे सत्तास्थानक, रूपकश्रेणी यें जावव. ते पूर्वोक्त क्रोधनी पेरें मानने पण यावलिकामात्र प्रथम स्थितिगत करे ते ज्वलना मानना पण बंध, उदय अने उदीरणा सार्थेज टले, तेवारें द्विविध बंध होय. तिहां बे समयोन बे आवलिका लगें संज्वलमाननी सत्ता होय, तेवारें त्रण प्रकृतिनुं सत्तास्थानक जाणवुं, अने पढी मानने दयें अंतरमुहूर्त्त पर्यंत बे प्रकृतिनुं For Private Personal Use Only Page #786 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ.६ ७६१ सत्तास्थानक जाणवं. तथा एकने बंधस्थानकें पण पांच सत्तास्थानक जाणवां. तेमध्ये त्रण तो पूर्वली पेरें उपशमश्रेणीयें नाववां, अने बे दपक श्रेणी नावां, ते कहे बे. जेवारें संज्वलनी मायानी प्रथम स्थिति आवलिकामात्र रहे, तेवारें संज्वलनी मायानो बंध, उदय अने उदीरणा साथें टले, तेवारे एकनुं बंधस्थानक होय, अने बे समयोन बे श्रावलिका लगें मायानी सत्ता बे, ते जणी बेनी सत्ता होय. तेवार पनी अंतरमुहूर्त पर्यंत एक लोचनी सत्ता होय. ए सर्व नवमे गुणगणे वर्त्ततां जाणवी. चत्तारिअबंधव ए के तथा बंधने व्युछेदें एटले बंधने अजावें सूक्ष्मसंपराय गुणगणे २७-२४-१-१, ए चार सत्तानां स्थानक होय, तेमध्ये त्रण तो पूर्वली पेरें उपशमश्रेणीयें कदेवां, अने एक संज्वलना लोचनी सत्तानुं स्थानक दपक श्रेणीयें होय, अने बंध तथा उदयने अनावे पण उपशांतमोह नामा अगीश्रारमे गुणगणे -२४-२१, ए त्रण सत्तानां स्थानक होय, एनी जावना पूर्ववत् जाणवी. एम उपशमश्रेणीयें अने पकश्रेणी सत्तानो संवेध कह्यो ॥ इति ॥२४॥ दस नव पन्नर साई, बंधोदय संत पयडि गणाणि ॥ नणिआणि मोदणिो , श्त्तोनामं परं वुद्धं ॥ २५॥ अर्थ- दसनवपन्नरसाई के दश,नव अने पंदर, बंधोदयसंत के बंध, उदय अने सत्तानां स्थानक अनुक्रमें एटले दश बंधनां स्थानक, नव उदयनां स्थानक अने पंदर सत्तानां स्थानक, तेना प्रत्येके नांगा अने ते बंधोदय सत्ताने संवेधे पयमिगपाणि के प्रकृतिनां स्थानक ते सर्व मोहणिो के मोहनीयकर्मने विषे नणिश्राणि के कह्यां. श्तो के हवे अहींांधकी आगल नामंपरंवुद्धं के अपर एटले नामकमना बंध, उदय अने सत्ता प्रकृतिनां स्थानक तेहना संवेधे नांगा कदेशे ॥ शति समुच्चयार्थः ॥ २५॥ अथ नामकर्मणि आदौ बंधस्थानान्याह ॥ तिहां प्रथम नामकर्मनां बंधस्थान कहे जे. तेवीस पन्नवीसा, ब्बीसा अहवीस गुणतीसा तीसेगतीस मेगं, बंधाणाणि नामस्स ॥२६॥ अर्थ-पहेलुं त्रेवीशनुं बंधस्थानक, बीजं पञ्चीशनुं बंधस्थानक, त्रीजु बबीशनुं बंधस्थानक, चोडुं अहावीशनुं बंधस्थानक, पांचमुं ओगणत्रीशनुं बंधस्थानक, तीसेगतीस के बहुं त्रीशनुं बंधस्थानक, सातमुं एकत्रीशनुं बंधस्थानक अने आपमें मेगं के एक प्रकृतिनुं बंधस्थानक, ए आउ, बंधहाणाणिनामस्स के नामकर्मनां बंधनां स्थानक ९६ Page #787 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६२ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ होय. ए आठ बंधस्थानक, ते तिर्यंच अने मनुष्यादिगति प्रायोग्यपणे करीने अनेक प्रकारनां ले. तेमाटें तेमज देखामे बे. तिहां तिर्यंचगति प्रायोग्य बांधताने सामान्यपणे २३-२५-२६-ए-३०-ए पांच बंधस्थानक होय. तेमध्ये प्रथम एकेजिय तिर्यंचगति प्रायोग्य २३-२५-२६-ए त्रण बंधस्थानक होय, ते कहे . तिहां १ तिर्यंचगति, २ तियेचानुपूर्वी, ३ एकेंजियजाति, औदारिक, ५ तैजस अने ६ कार्मण, ए त्रण शरीर, ७ हुंमसंस्थान, 6 वर्ण, ए गंध, १० रस, ११ स्पर्श, १५ अगुरुलधु, १३ उपघात, १४ स्थावर, १५ सूक्ष्म अथवा बादर, १६ अपर्याप्त, १७ प्रत्येक अथवा साधारण, १७ अस्थिर, १ए अशुज, २० दो ग्य,१ अनादेय, २२ अयशःकीति, २३ निर्माण, एवं त्रेवीश प्रकृतिना समुदायतुं पहेढुं बंधस्थानक, ए अपर्याप्ता एकेंजिय प्रायोग्य बांधतां तिर्यंच तथा मनुष्य मिथ्याष्टिने जाणवू. अहींयां जांगा चार उपजे, ते कहे . एक सूक्ष्मपणुं साधारण सहित वीश बांधे, बीजुं सूक्ष्मपणुं प्रत्येक सहित त्रेवीश बांधे, त्रीजु बादरपणुं साधारण सहित त्रेवीश बांधे, चोथु बादरपणुं प्रत्येके सहित त्रेवीश बांधे, एवं चार नांगा थाय. तथा ए वीश प्रकृतिमाहे पराघात अने उश्वास, नेले थके पच्चीश प्रकृतिनुं बीजें बंधस्थानक पर्याप्त एकेजिय प्रायोग्य, मिथ्यादृष्टि तिर्यंच तथा मनुष्य श्रने देवता जे एकेजियमांदे जवावाला होय, ते बांधे, श्रहीं अपर्याप्ताने स्थानकें पर्याप्त नाम कहेQअने स्थिर अस्थिरमांहेथी एक तथा शुजाशुजमांदेथी एक तथा यशअयशमाहेथी एक बांधे. अहीं नांगा वीश उपजे, ते कहे . बादर, पर्याप्त अने प्रत्येकने स्थिर साथै पञ्चीश बांधताने एक नांगो तेमज अस्थिर साथें पच्चीश बांधतां बीजो नांगो थाय. ते वली शुजाशुन्ने चार थाय, ते यश अयशें श्राप थाय. एमज वली बादर पर्याप्त साधारणपणुं बांधतां स्थिर अने अस्थिरें बे जागा थाय, अने शुजाशुन्ने चार जांगा थाय. तिहां साधारण साथें यशःकीर्ति न बांधे केमके तिहां अयशनोज बंध होय, तेमाटें तथा एमज वली सूक्ष्म पर्याप्त प्रत्येकना चार नांगा थाय, तथा वली सूक्ष्म पर्याप्त साधारण साथें चार नांगा थाय. एम सर्व संख्यायें पच्चीशने बंधे वीश नांगा उपजे, ए वीशमाहेला एकेंजिय प्रायोग्य देवता जेवारे बांधे, तेवारें तिहां बादर पर्याप्त अने प्रत्येकना आठ नांगा उपजे. हवे ए पच्चीशमाहे आतप नाम अथवा उद्योत नाम, एबे मांहेलो एक नेली, तेवारें बीस प्रकृतिनुं बंधस्थानक थाय, अहीं बादर अथवा सूक्ष्मने स्थानकें एक बादरज लेवो, तथा साधारणने गमें प्रत्येकज लेवो. ए बंधस्थानक पर्याप्ता बादर प्रत्येक एप्रिय प्रायोग्य मिथ्यादृष्टि तिर्यंच, मनुष्य अने देवता एकेजियमांहे जनार होय, ते बांधे. थहींओं श्रातप उद्योत साथें स्थिर, अस्थिर, शुज, अशुज, यश अने Page #788 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ ७६३ अयश, ए प्रकृतिने परावर्ते शोल नांगा जाणवा. अहींयां आतप, ज्योत, ते सक्ष्म, साधारण अने अपर्याप्त साथें न होय तेमाटें ते साथें नांगा न कहेवा. तथा यशःकीर्ति पण सूक्ष्म, साधारण श्रने अपर्याप्त साथें न बांधे. अहींयां एक यातप, स्थिर, शुन अने यश. बीजो तप, स्थिर, शुज, अने अयश. त्रीजो श्रातप, स्थिर, अशुज अने यश. चोथो आतप, स्थिर, अशुज अने अयश. पांचमो आतप, अस्थिर, शुन अने यश. हो थातप, अस्थिर, शुज ने अयश. सातमो श्रातप, अस्थिर, अशुन अने यश. उमो आतप, अस्थिर, अशुज ने अयश, ए आठ नांगे एकेजिय पर्याप्त प्रायोग्य आतप साथें बबीश प्रकृति बांधे, तेमज आउनांगें उद्योत साथै बबीश प्रकृति बांधे, एवं शोल नांगा थया. एम एकेजिय प्रायोग्य बांधतां त्रणे बंधस्थानकें थश्ने चालीश जांगा थाय. हवे बेंज्यि प्रायोग्य बांधताने २५-२५-३० ए त्रण बंधस्थानक होय. तिहां तिर्यचछिक, ३ बेंजियजाति, ५ औदारिकछिक, ६ तेजस, ७ कार्मण, हुंमसंस्थान, ए बेवहुंसंघयण, १० वर्ण, ११ गंध, १५ रस, १३ स्पर्श, १४ श्रगुरुलघु, १५ उपघात, १६ त्रस, १७ बादर, १७ अपर्याप्त, रए प्रत्येक, २० अस्थिर, १ अशुज, २२ दौ ग्य, २३ धनादेय, २४ अयशःकीर्ति, २५ निर्माण, ए पच्चीश प्रकृतिना समुदाय रूप बंधस्थान अपर्याप्त बेंजिय प्रायोग्य मिथ्यादृष्टि मनुष्य तथा तिर्यंच बांधे. अहींयां अपर्याप्त नामनी साथै शुनाशुनादिक परावर्त्तमान प्रकृतिमाहेली अशुजज बंधाय पण शुन न बंधाय, तेथी वहीं बीजो नांगो को उपजे नहीं. मात्र एकज नांगो थाय. हवे ए पूर्वोक्त पच्चीश प्रकतिने १ पराघात, २ जश्वास, ३ अप्रशस्तविहायोगति, ४ पर्याप्त, ५ फुःखर, ए पांच प्रकृति सहित करीयें श्रने अपर्याप्त रहित करीयें, तेवारें जंगपत्रीश प्रकृतिना समुदाय रूप बंधस्थानक थाय, ते पर्याप्ता बेंजिय प्रायोग्य मिथ्यादृष्टि जीव बांधे. अहीं थिर, अथिर, शुल अने अशुज, यश ने श्रयश, ए प्रकृति पर्याप्ता सहित ने तेथी तेनापरावर्ते एक शुज साथै तथा एक अशुन साथे, एवं बे नंग स्थिरना अने बे अस्थिरना, एवं चार थया. ते चार अयशःकीर्ति साथें तथा चार यशःकीर्ति साथें बांधे, तेवारें बाउ नांगा थाय. ते जंगणत्रीश प्रकृतिने उद्योत सहित बांधतांत्रीशनुं बंधस्थानक ए पण पर्याप्त बेंजिय प्रायोग्य मिथ्यात्वीने होय. तिहां पण पूर्वोक्त रीतें मांगा था उपजे. ए सर्व मली बैंजिय प्रायोग्य त्रण बंधस्थानकें थश्ने नांगा सत्तर थया. तेमज तेंजिय प्रायोग्य पण एज त्रण बंधस्थानकें थश्ने सत्तर नांगा कहेवा, पण तिहां एटयु विशेष जे बेंजियजातिने स्थानकें तेंजियजाति कहेवी. तेमज चौरिंजिय Page #789 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६४ सप्ततिकानामा षष्ट कर्मग्रंथ. ६ प्रायोग्य पण एज त्रण बंधस्थानकें जांगा सत्तर कहेवा, अने तेंद्रियजा तिने स्थानकें चौरिंद्रिय जाति कहेवी . एम शरवाले विकलेंद्रियने विषे एकावन जांगा चाय हवे पंचेंद्रिय तिर्यंच प्रायोग्य बांधतां पच्चीश, उगणत्रीश अने त्रीश, एत्रण बंधस्थानक होय. तिहां पच्चीश प्रकृतिनुं बंधस्थानक अपर्याप्त पंचेंद्रिय तिर्यंच प्रायोग्य मिथ्यात्व तिर्यंच ने मनुष्य बांधे, ते प्रकृतिनां नाम अपर्याप्त बेंद्रिय प्रायोग्यनी पेरें कवां. पण एटलुं विशेष जे बेंद्रियजा तिने स्थानकें पंचेंद्रियजाति नाम कहे . गो एक पूर्वली पेरे शुनो जावो. तथा २ तिर्यंचद्विक, ३ पंचेंद्रियजाति, ५ श्रदारिकद्विक, ६ तैजस, 9 कार्मण, संघयणमांदेलुं एक संघयण, ए व संस्थानमांहेलुं एक संस्थान, १३ वर्णचतुष्क, १४ अगुरुलघु, १५ उपघात, १६ पराघात, १७ उश्वास, १० खगति बे मांदेली एक खगति, १० त्रस, २० बादर, २१ पर्याप्त, २२ प्रत्येक २३ स्थिर ने अस्थिर मांदेली एक, २४ शुभ अने अशुनमांहेली एक, २५ सौजाग्य अने दौर्भाग्य मांहेली एक, २६ सुखर दुखर मांहेली एक, २७ प्रादेय अने अनदे मांहेली एक, २० यशः कर्त्ति शः कीर्त्तिमी एक छाने २७ निर्माण, ए जंगपत्रीश प्रकृतिनुं बंधस्थानक पर्याप्त पंचेंद्रिय तिर्यंच प्रायोग्य मिथ्यात्वी ने सास्वादनी चारे गतिना जीव बांधे हीं एटलुं विशेष जे साखादनीने संघयण तथा संस्थान पांच पांचमहेतुं एकेक कहे. केमके हुंमसंस्थान तथा बेवडा संघयणनो बंध, साखादन गुणवाणे न मा. ए बंधस्थानके ( ४६०८ ) जांगा उपजे, ते देखा मे बे. ब संघयणमांहेथी एक संघयणना बंध साथै उगणत्रीश प्रकृति बांधतां एक जांगो याय, तेवा ब संघणें व जांगा याय. ते वली एकेका संस्थानना बंध साथै ब ब जांगा लेतां ब संस्थानना बत्रीश जांगा थाय, ते बत्रीश जांगा शुजखगति साथै यया. तेमज अशुभखगतिना बत्री मेलवतां पर जंग थाय. ते वली स्थिर ने अस्थिर साथै बमणा करतां ( १४४ ) थाय. ते वली शुभ अशुभ साथै बमणा करतां (२८८) थाय. ते वली सुखर तथा दुःखर सायें बमणा करतां (५७६) याय. ते सौभाग्य तथा दौर्भाग्य साथै बमणा करतां (१९५२) थाय. ते श्रादेय अमादेय साथै बमणा करतां ( २३०४ ) थाय. ए ( २३०४ ) यश साथै तथा ( २३०४ ) यश सायें बांधतां याय. बेहु मलीने ( ४६०८ ) थाय. ए जांगा सन्निपंचेंद्रिय तिर्यंचगति प्रायोग्य उगणत्रीश प्रकृतिने बंधें थाय. तिहां विशेष आश्रयीने साखादन आश्रयी बांधतो विचारियें, तेवारें ते सास्वादनी हुंमसंस्थान ने बेवहुं संघयण न बांधे, माटें पांच संघयणने पांच संस्थान साथै गुणतां २५ याय. पढी सात वार पूर्वी पेरें बमणा करीयें, तेवारें For Private Personal Use Only Page #790 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ ३६५ (३५०० ) जांगा थाय. पण ए नांगा तेहीज (४६०७) मांहेला जाणवा, तेमाटें जूदा गणवा नहीं. ते उंगणत्रीश प्रकृतिने उद्योत नामकर्मसहित बांधतां त्रीश प्रकृतिनुं बंधस्थानक थाय. अहींयां पण उंगणत्रीश प्रकृतिने बंधे जे (४६०७) जांगा उपना तेटलाज उद्योतने साथे नेलीने गणतां थाय. एम पंचेंजिय तिर्यंच प्रायोग्य त्रण बंधस्थानकें थश्ने (ए१७) नांगा थाय. हवे मनुष्यगति प्रायोग्य बांधतां पच्चीश, उंगणत्रीश, अने त्रीश, ए त्रण बंधस्थानक होय. तिहां जांगा कहे . तिहां पच्चीशनुं बंधस्थानक, अपर्याप्त मनुष्य प्रायोग्य बांधे, तिहां नांगो एक, तिर्यंचना पच्चीश, प्रकृतिना बंधनी पेरे लेवो. पण एटलुं विशेष जे तिर्यंचछिकने गमे मनुष्यछिक कहे. तथा बीजुं गणत्रीश प्रकृतिनुं बंधस्थानक मिथ्यात्वी, सास्वादनी, मिश्रदृष्टि तथा अविरति सम्यदृष्टि, ए चार वांधे, तिहां मिथ्यात्वी तथा सास्वादनी चारे गतिना जीव बांधे, अने मिश्र तथा अविरति सम्यकूदृष्टि तो देवता नारकीज बांधे, एने विषे पण जेम पंचेंजिय तिर्यंच प्रायोग्य गणत्रीश प्रकृतिना बंधस्थानकने विषे नांगा (४६०७) कह्या, तेमज कहेवा. पण एटदुं विशेष जे ए मांहेलाज सास्वादनीने ( ३२००) नांगा कहेवा. तथा मिश्रदृष्टि श्रने सम्यकूदृष्टि देव, नारकी बांधे, ते नव नामकर्मनी ध्रुवबंधि प्रकृति, १० मनुष्यगति, ११ मनुष्यानुर्वी, १२ पंचेंजियजाति, १४ औदारिककि, १५ समचतुरस्त्रसंस्थान, १६ वजषजनाराचसंघयण, १७ पराघात, १० उश्वास, रए शुजखगति, २० त्रस, २१ बादर, २२ पर्याप्त, २३ प्रत्येक, २४ स्थिर अस्थिरमांहेली एक, २५ शुज अशुज मांदेली एक, २६ सुनग, २७ सुखर, २७ श्रादेय, श्ए यश श्रने अयशमांहेली एक, ए जंगणत्रीशने बंधे नांगा आठ उपजे. केमके अहीं प्रथम संघयण प्रथम संस्थान विना बीजा पांच संघयण तथा पांच संस्थाननो बंध नथी, तथा अशुजखगति, दौ ग्य, पुःस्वर अने अनादेयनो बंध नथी, तेथी तेना विकल्पं जांगा न उपजे, बाकी शुन्न अशुल साथें एकेक ते वली स्थिर तथा अस्थिर साथे बे बे अने यश अयश साथें चार चार, एवं आठ आठ नांगा एकेक 'मुणगणे थाय, पण ते सर्व पूर्वला (४६७) मांहेलाज जाणवा. ते उगणत्रीश प्रकृतिमध्ये तीर्थकरनामकर्म नेलीये, तेवारें त्रीश प्रकृतिनुं बंधस्थानक थाय. ते मनुष्य प्रायोग्य देवता तथा नारकी जे सम्यकूदृष्टि होय, ते बांधे. तिहां पण नांगा श्राप थाय, जे जणी तीर्थकरनामकर्मनो बंध, मिथ्यात्वादिक त्रण गुणगणे न होय, तेथी त्रीश प्रकृतिने बंधे अधिक नांगा न थाय, एम मनुष्यगति प्रायोग्य त्रण बंधस्थानकें थश्ने (४६१७) नांगा थाय. Page #791 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६६ . सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ.६ हवे देवगति प्रायोग्य बांधतां श्रहावीश, उगणत्रीश, त्रीश बने एकत्रीश, ए चार बंधस्थानक होय. ते पंचेंजिय तिर्यंच तथा मनुष्य बांधे. तिहां ५ देवहिक, ३पंचेंजियजाति, ५ वैक्रियहिक, १४ ध्रुवबंधिनी नव प्रकृति, १५ समचतुरस्त्रसंस्थान, १६ शुजखगति, २० त्रसचतुष्क, २१ पराघात, २२ उश्वास, २३ स्थिर अथवा अस्थिर, २४ शुज अथवा अशुन, २५ सुनग, २६ सुखर, २७ श्रादेय, शश यशाकीर्ति अथवा अयशःकीर्ति, ए अहावीश प्रकृतिना समुदायें बांधतां श्रहावीशनुं बंधस्थानक कहीये. ए बंधस्थानक मिथ्यात्वथी मामीने देशविरति गुणगणा खगेंना मनुष्य, तिर्यंच बांधे, अने ते पनी बहा गुणहाणे एकला मनुष्य पण बांधे. अहीं स्थिर श्रथवा अस्थिर, शुज अथवा अशुज, यश अने अयशने परावर्ते आठ नांगा थाय, तथा अप्रमत्त अने अपूर्वकरण गुणगणावाला मनुष्य पण बांधे, परंतु तिहां स्थिर, शुन अने यशज बांधे, अहीं सर्व शुजज बंधाय, माटें एकज नांगो उपजे, ते पण ए आठ माहेलोज डे मात्रै पृथक् गणवो नहीं. ते अहावीशमाहे जिननाम नेलतां ओगणत्रीश प्रकृतिनुं बंधस्थानक देव प्रायोग्य, ते अविरति सम्यकदृष्टि, देशविरति तथा प्रमत्त मनुष्यज बांधे. तिहां पण स्थिर, अस्थिर, शुज, अशुज, यश अने श्रयशने परावर्त्त आठ नांगा थाय. वली ए उंगणत्रीशनुं बंधस्थानक एकली स्थिरादिक शुज प्रकृतियें सहित अप्रमत्त अने अपूर्वकरणवालो मनुष्य पण बांधे. तिहां एकज नांगो थाय, ते तदंतरचूत जाणवो. तथा ते अहावीशमांहे थाहारहिक नेलीयें अने जिननाम नेलीयें नहीं, तेवारें त्रीश प्रकृतिनुं बंधस्थानक देवगति प्रायोग्य अप्रमत्त तथा अपूर्वकरण गुणगणावालो मनुष्यज बांधे. ते पण स्थिर, शुज अने यशज बांध. पण अस्थिर, अशुज अने अयश न बांधे, तेमार्ट तिहां पण एकज नांगो थाय. __ तथा ते त्रीशमाहे वली जिननाम नेलीये, तेवारें एकत्रीश प्रकृतिनुं बंधस्थानक देव प्रायोग्य अप्रमत्त अने अपूर्वकरणवालो मनुष्यज बांधे. अहीं पण शुज प्रकृतिनोज बंध , तेमाटें एकज नांगो होय. एम सर्व मलीने देवगति प्रायोग्य चारे बंधस्थानक थश्ने अढार नांगा थाय. हवे नरकगति प्रायोग्य नांगा कहे . हवे नरकगति प्रायोग्य बांधताने एकज अहावीश प्रकृतिनुं बंधस्थानक होय. २ नरकछिक, ३ पंचेंजियजाति, ५ वैक्रियहिक, ६हुँमसंस्थान, ७ पराघात, श्वास, ए अशुनविहायोगति, १० त्रस, ११ बादर, १२ पर्याप्त, १३ प्रत्येक,१५ अस्थिर, १५ अशुज,१६ दौ ग्य, १७ पुःखर, १७ अनादेय, १ए अयश-कीर्ति, २ नामधूवबंधिनी नव प्रकृति, ए अहावीश प्रकृतिनुं बंधस्थानक पंचेंजिय तिथंच तथा मनुष्य मिथ्यात्व गुणगणा Page #792 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ ७६७ वाला बांधे. अहींयां सर्व परावर्त्तमान मांदेली अशुजप्रकृतिज बांधे, माटें विकल्प नहीं, तेथी नांगो पण एकज होय. . हवे देवगति प्रायोग्य बंध व्युछेद पामे थके पण अपूर्वकरणना सातमा नागथी मामीने सूक्ष्मसंपराय गुणगणाना अंत पर्यंत पण एकज यशःकीर्ति नामकर्मनी प्रकृतिने एकला मनुष्य बांधे. तिहां एकनुं बंधस्थानक लेवु.॥इति समुच्चयार्थः॥२६॥ ॥ श्रथैकस्मिन् बंधस्थाने कति नंगाः सर्वसंख्यायाः स्युरित्याह ॥ ॥ हवे कया बंधस्थानकें केटला नांगा, सर्व संख्यायें होय, ते कहे . ॥ चन पणवीसा सोलस, नव बाण नई सयाय अडयाला ॥ एयालुत्तर गया, लसया इकिकि बंध विदि ॥२७॥ अर्थ-अपर्याप्ता एप्रिय प्रायोग्य त्रेवीश प्रकृतिने बंधे चउ के चार मांगा होय, तथा पच्चीशने बंधे एकेंजिय प्रायोग्य वीश, बेंजिय प्रायोग्य एक, तेंजिय प्रायोग्य एक, चौरिंजिय प्रायोग्य एक, पंचेंजिय तिर्यंच प्रायोग्य एक, अने मनुष्य प्रायोग्य एक, एवं पञ्चीशने बंधे पणवीसा के पच्चीश नांगा होय, तथा एकेजिय बबीशने बंधे सोलस के शोल नांगा होय, तथा देव प्रायोग्य अहावीशने बंधे थाउनांगा अने नरक प्रायोग्य अहावीशने बंधे एक नांगो, एवं अहावीशने बंधे नव के नव नांगा होय. तथा बेंजिय प्रायोग्य पाठ,तेंजिय प्रायोग्य बात, चौरिंजिय प्रायोग्य आग,पंचेंजियतिर्यंच प्रायोग्य बेतालीशसे ने श्राप, पंचेंजियमनुष्य प्रायोग्य तालीशसें ने श्राप अने देवप्रायोग्य आठ, एवं सर्व मली जंगणत्रीश प्रकृतिना बंधस्थानकें बाणनईसयायअडयाला के बाणुसें ने श्रमतालीश नांगा होय, तथा बैंजिय प्रायोग्य पाठ, तेंजिय प्रायोग्य आउ, चौरिजिय प्रायोग्य श्राप, पंचेंजियतिर्यंच प्रायोग्य बेंतालीशसें ने श्राप, मनुष्य प्रायोग्य पाठ अने देव प्रायोग्य एक, एवं सर्व मलीने त्रीश प्रकृतिने बंधस्थानकें एयालुत्तरदायालसया के तालीशसें ने एकतालीश नांगा थाय, थने एकत्रीश प्रकृतिने बंधस्थानकें देव प्रायोग्य, इकिकिबंधविहि के० एकविध बंधनो एकज नांगो होय. ए सर्व मली आठे बंधस्थानकें थश्ने नामकर्मना ( १३ए४५ ) तेर हजार, तवसे ने पिस्तालीश जांगा थाय. ए नामकर्मना नांगा कह्या. इति समुच्चयार्थः ॥७॥ ॥ श्रथ उदयस्थानान्याह ॥ हवे नामकर्मनां बार उदयस्थानक कहे . ॥ वीसिगवीसा चळवी, स गान एगादि याय गतीसा ॥ उदयहाणाणि नवे, नव अध्य हुँति नामस्स ॥२॥ अर्थ-वीसिगवीसा के प्रथम वीश प्रकृतिनुं उदयस्थानक, बीजें एकवीशर्नु Page #793 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६८ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ उदयस्थानक, तेवार पटी चडवी सगाउएगा हियायश्गतीसा के० चोवीश प्रकृतिनां उदयस्थानकथी मांगीने एकेक प्रकृतियें अधिक करतां निरंतरपणे एकत्रीश प्रकृति लगें आठ, उदयहणाणिजवे के० उदयनां स्थानक होय, एटले चोवीशनुं, पच्चीशनुं, बनुं, सत्तावीशनुं, अहावीशनुं, उगणत्रीशनुं, त्रीशनुं अने एकत्रीशनुं, ए आठ थयां, अने बे पूर्वला मली दश उदयस्थानक थयां, तथा गीधारमुं नव के० नव प्रकृतिनुं उदयस्थानक ने बारमुं य के आठ प्रकृतिनुं उदयस्थानक, ए बार उदयस्थानक, हुंति नामस्स के० नामकर्मनां होय. ॥ इत्यक्षरार्थः ॥ २८ ॥ हवे एनुं विवरण लखियें बैयें. एकेंद्रियादिकनी अपेक्षायें अनेक जांगा उपजे, ते देखाडे बे. तिहां एकै प्रियने एकवीरा, चोवीश, पच्चीश, बवीश अने सत्तावीश, ए पांच उदयस्थानक होय. तिहां १ तैजस, २ कार्मण, ३ अगुरुलघु, ४ स्थिर, ५ अस्थिर, ६ शुभ, अशुभ, वर्ण, ए गंध, १० रस, ११ स्पर्श, १२ निर्माण, ए बार प्रकृतिनो उदय ध्रुव बे. तेमाटें ए नामकर्मनी ध्रुवोदथिका बार प्रकृति तेरमा गुणठाणा लगें उदय आश्रीने सर्व जीवने होय, माटें सर्वत्र लेवी, अने २ तिर्यंचद्विक, ३ स्थावर, ४ एकेंद्रियजाति, ५ बादर अथवा सूक्ष्म, पर्याप्त अथवा अपर्याप्त, 9 दौर्भाग्य, श्रनादेय, एयशः कीर्त्ति अथवा अयशःकीर्त्ति, ए नव प्रकृति, पूर्वोक्त बार प्रकृतिमांदे जेलीयें, तेवारें एकवीश प्रकृतिनुं उदयस्थानक, एकेंद्रिय जीवने पूर्वला जवनुं शरीर मूक्या पढी जिहां लगें आगलें जइ श्रवतस्या नथी तेने वचालें जाणवो; एटले जवने अपांतरालें वर्त्तता एकेंद्रियने होय. यहीं जांगा पांच उपजे, ते कहे बे. एक सूक्ष्म पर्याप्त साथै एकवीशने उदयें, बीजो बादर पर्याप्त साथै एकवीशने उदयें, ए बे जाँगा पर्याप्तना या, तेमज वली अपर्याप्त सार्थे पण बे जांगा थाय. ए चार जांगा थया, तेमांदेला सूक्ष्म पर्याप्त श्रने सूक्ष्मपर्याप्त तथा बादर अपर्याप्त, ए त्रण जांगा तो यशःकीर्ति सायें होय, पण तिहां यशःकीर्त्तिनो उदय न होय " गोसुदुम तिगेएजसं " ए वचनथी जाणवुं श्रने बादर पर्याप्त साथै यशःकीर्त्ति सहित एकवीशने उदयें एक जांगो तथा व्ायशःकीर्ति सहित एकवीराने उदयें बीजो जांगो, ए बे जांगा पूर्वला त्रण जांगा सायें मेलवतां पांच नांगा था. अहीं जे जीव, आगलें पोताने योग्य सर्वे पर्याप्त पूर्ण करशे, तेने योग्यपणे करी लब्धि आश्रयीने नवांत - रा पण पर्याप्तो कहीयें. यहीं लब्धि पर्याप्तानीज विवक्षा जाणवी. तेवार पढी ते शरीरस्थने ते एकवीश प्रकृतिना उदयमांहे एक औदारिक शरीर, बीजुं हुं संस्थान, त्रीजुं उपघात, चोथो प्रत्येक अथवा साधारण, ए चार प्रकृति क्षेपीयें, अने एक तिर्यंचनी श्रानुपूर्वी काढी यें, तेवारें चोवीश प्रकृतिनुं उदयस्थानक For Private Personal Use Only Page #794 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ.६ ए होय. अहींयां पूर्वोक्त पांच जांगाने प्रत्येक तथा साधारण साथै बे गुणा करीयें, तेवारें दश नांगा थाय. तेमांहे एक नांगो वैक्रियनो नेलीयें, जे जणी बादर वायुकाय वैक्रियशरीर करे ने तिहां पण चोवीशनो उदय होय, पण एटलुं विशेष जे औदारिकशरीरने स्थानकें वैक्रियशरीर कहे. तिहां बादर, प्रत्येक, पर्याप्त अने अयशःकीर्ति साथें एकज नांगो होय, जे जणी तेउकाय तथा वायुकायने साधारण तथा यशःकीर्त्तिनो उदय न होय, तेथी तेना नांगा न उपजे. एम सर्व मलीने चोवीशने उदयें अगीआर नांगा थाय. तेवार पड़ी ते शरीर पर्याप्ताने चोवीशना उदयमांहे पराघातनो उदय नेलीयें, तेवारें पच्चीश प्रकृतिनो उदय थाय. ए उदय शरीर पर्याप्ति पूरी कस्या पठी होय. तिहां बादर पर्याप्त साथे प्रत्येक तथा साधारण गुणतां बे नांगा थाय, ते यश-कीर्ति तथा अयशःकीर्ति साथै गुणतां चार लांगा थाय. तेमज बादरने स्थानकें सूक्ष्म साथें प्रत्येक अने साधारणना विकल्पं वे नांगा थाय. ए बे लांगे एकली श्रयशकीर्तिज लाने, पण यशःकीर्त्ति न लाने, माटें तेना नांगा न लेवा. एवं उ नांगा थया. तथा बादर वायुकायने वैक्रिय करतां शरीर पर्याप्तियें पर्याप्ता थया पनी पराघातनो उदय नेलतां पण पच्चीश प्रकृतिनुं उदयस्थानक लाने, तिहां पण पूर्वली पेरें एकज नांगो होय. एम सर्व मली पच्चीशने उदयें सात नांगा थाय. तथा श्वासोश्वासपर्याप्तियें करी पर्याप्ता थया पली ते पच्चीशना उदय मांहे वली श्वासोश्वासनो उदय नेलीये, तेवारें वीश प्रकृतिनुं जदयस्थानक थाय. अहीं पण पूर्वली पेरें नांगा थाय, अथवा शरीरपर्याप्तं पर्याप्ताने उश्वासने अनुदयें एटले ज्यांसुधी श्वासोश्वास पर्याप्ति पूर्ण न थाय, त्यांसुधी उश्वासना उदय विना उद्योतनो उदय होय, तेवारें पण बबीश- उदयस्थानक थाय. तिहां बादरने उद्योत सहित बबीशने उदयें प्रत्येक साथें एक नांगो, तेमज साधारण साथे बीजो नांगो, ते बे नांगा यशःकीर्ति साथे लेवा, तथा तेहिज बे जांगा अयशःकीर्ति साथै सेवा. एम चार नांगा थाय. तथा उद्योतने स्थानकें श्रातपनो उदय नेलतां पण बबीशनुं उदयस्थानक थाय. तिहां प्रत्येकने यश तथा श्रयशें करी बे नांगा थाय, केमके श्रोतप ते पृथवीकायमांहेज होय, माटें एक प्रत्येकज लीधो अने उद्योत तो वनस्पतिमाहे पण होय, माटें तिहां प्रत्येक अने साधारण बेहु लीधा, तथा आतप अने उद्योतनो उदय ते बादरनेज होय, पण सुमनें न होय, माटें यहीं सूक्ष्मनो उदय न लीधो, तथा बादर वायुकायने वैक्रिय करतां श्वासोश्वास पर्याप्तियें करी पर्याप्ता वायुकायने ते पच्चीश प्रकृति मध्ये उश्वासनो उदय नेलतां बबीशनो उदय Page #795 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 990 सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ होय. तिहां जांगो एक जाणवो. केमके वायुकायने श्रातप, उद्योत तथा यशःकी. तिनो उदय पण नथी तेमाटें. अहीं बीजा जांगा न पामीये. एम बीश प्रकृतिने जदयें सर्व मली तेर नांगा थाय. तथा ते श्वासोश्वास पर्याप्तिये करी पर्याप्ताने श्वासोश्वास सहित बव्वीशना उदयमांहे, श्रातप तथा उद्योत, ए बे मांहेला एकेकनो उदय नेलतां सत्तावीशनो उदय थाय. तिहां पूर्वली पेरें बबीशना उदयमांहे उद्योतन्नेलतां चार अने यातप नेलतां बे, एवं ए नांगा जे पूर्वे कह्या, तेज अहीं पण जाणवा. जे नणी कांबे के, “ एगेंदिय उदयेसु, पंचयएकार सत्ततेरसय ॥ बकं कमसो नंगा, बायाल हुँति सवेवि ॥” एम एकेजियना उदयस्थानकने विषे एकवीशना उदये पांच, चोवीशना उदयें अगीवार, पच्चीशना उदयें सात, बबीशना उदयें तेर अने सत्तावीशना उदयें उ, ए रीतें पांच उदयस्थानकें अश् सर्व मली बेंतालीश जांगा होय. हवे बेंडियनी एकवीश, बबीश, अहावीश, गणत्रीश, त्रीश अने एकत्रीश, ए ब उदयस्थानक होय. तिहां नांगा कहे बे. तिहां २ तिर्यंचटिक, ३ बेंजियजाति, ५ त्रस, ५ बादर, ६ पर्याप्त, दौर्जाग्य, अनादेय, ए यशःकीर्ति अथवा अयशःकीर्ति, ए नव प्रकृति थ. एनी साथें बार ध्रुवोदयी प्रकृति मेलवतां एकवीश प्रकृतिनुं उदयस्थानक विचालें विग्रहगतियें वर्तता जवने अपांतरालगतियें बेंद्रिय जीवने होय. अहीं अपर्याता साथें अयशःकीर्ति लेतां नांगो एक थाय, तथा पर्याप्ता साथें यशःकीर्ति अने अयशःकीर्ति लेतां बे नांगा पर्याप्ताना थाय. एवं सर्व मसी त्रण मांगा थाय. हवे ते बेंजियने स्वस्थाने अवतस्या पली ते पूर्वोक्त एकवीश प्रकृतिना उदयस्थानक मांहेथी तिर्यगानुपूर्वी काढीयें, अने औदारिकटिक, डंडसंस्थान, बेवहुं संघयण, उपघात अने प्रत्येक, ए प्रकृति नेलीयें, तेवारें बबीश प्रकृति, उदयस्थानक होय. अहीं पण पूर्वली पेरें नांगा त्रण थाय. तेवार पठी शरीर पर्याप्तियें पर्याप्ताने पराघात तथा अशुजखगति, ए बे प्रकृतिनो उदय वधे, तेवारें अहावीश प्रकृतिनुं जदयस्थानक थाय. अहींयां यशःकीर्ति तथा अयश कीर्तियें करीने नांगा बे थाय, केम के अशुनखगतियें अपर्याप्त नामनो उदय नहोय, ते माटें तेनो एक नांगो पूर्वोक्त त्रण माहेथी टले शेष बेनांग होय. ते वली श्वासोश्वास पर्याप्तियें पर्याप्ता थया पठी श्वासोश्वासनो उदय वधे, तेवारे उगणत्रीशने उदयें पण तेमज पूर्वोक्त रीतें बे नांगा होय, अथवा शरीर पर्याप्तियें पर्याप्ताने ते अहावीशना उदयमांहे जश्वासना उदय विना उद्योतनो उदय नेलतां Page #796 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ.६ १ पण जंगणत्रीशनो उदय थाय. तिहां पण नांगा बे होय. एम गणत्रीशने उदयें सर्व मली चार लांगा थाय. ते उश्वास सहित उगणत्रीश प्रकृतिमाहे सुखर, फुःस्वर मांहेला एकनो उदय नेलतां त्रीशनो उदय थाय. श्रहीं यशःकीर्ति तथा अयशःकीर्ति साथै नांगा बे, ते बेनांगा सुखरना अने बे पुखरना, एवं चार नांगा थाय. अथवा श्वासोश्वास पर्याप्तियें करी पर्याप्ताने जिहां लगे नाषा पर्याप्ति पूर्ण करी न होय, तिहां लगें बेह वरना उदय विना उद्योतनो उदय नेलतां पण त्रीशन उदयस्थानक होय. अहीं यशःकीर्ति अने अयशःकीर्तिना विकल्प बे नांगा थाय, एम सर्व मली त्रीशने उदयें व नांगा थाय. तथा स्वर सहित त्रीशना उदय मांहे उद्योतनो उदय नेलतां एकत्रीशनो उदय भाषापर्याप्तियें करी पर्याप्ता जीवने होय. अहींयां यश, अयशें तथा स्वर भने फुःखरना विकल्पें चार नांगा थाय, एम सर्व मलीने एकवीशने उदयेंत्रण, बबीशने उदय त्रण, अहावीशने उदयें बे, गणत्रीशने उदयें चार, त्रीशने उदयें ब, अने एकत्रीशने उदयें चार, एम उदयस्थानकें थश्ने बावीश नांगा बेंजियने तथा तेज बावीश नांगा तेंजियने तेमज चौरिंजियने पण तेटलाज जदयस्थानकें थ बावीश नांगा होय. एम विकलेंजिय मध्ये सर्व मलीने नांगा नाश होय. हवे सामान्य पंचेंजिय तिर्यंच मध्ये उ उदयस्थानक होय, ते कहे बे. एकवीश, बबीश, अहावीश, उगणत्रीश, त्रीश अने एकत्रीश, ए ब उदयस्थानक होय. तिहां २ तिर्यंचछिक, ३ पंचेंजियजाति, ४ त्रस, ५ बादर, ६पर्याप्त अने अपर्याप्तमांदेली एक, ७ सौनाग्य थने दो ग्यमांहेली एक, श्रादेय अने अनादेयमांहेली एक, ए यशःकीर्ति श्रने अयशःकीर्तिमाहेली एक,ए नव तथा बार ध्रुवोदयी, एवं एकवीश प्रकृतिनुं उदयस्थानक, पंचेंजिय तिर्यंचने पूर्वनवनुं शरीर बांड्या पली मार्ग विचालें विग्रहगतियें होय. अहींयां पर्याप्त नामने उदयें वर्त्तताने सुजग उर्जगने विकल्पें नांगा बे, ते वली श्रादेय अनादेयने विकल्पं नांगा चार, ते चार यश कीर्ति साथें अने चार अयशःकीर्ति साथ, एवं श्राप नांगा थाय; अने अपर्याप्त नामने उदयें वर्त्तताने सौजाग्य, श्रादेय श्रने येशःकीर्तिनो उदय न होय. तेमाटें विकल्पने अजावें बीजो नांगो पण न उपजे, मात्रै तिहां एकज नांगो जाणवो. एवं नव नांगा थया. यहीं कोइएक आचार्य कहेडे के, सुजग अने आदेयनो साथेंज समकालें उदय होय, तेम उर्जग श्रने अनादेयनो पण उदय साथेंज होय, तेथी ए बे साथें बे जांगा ते यशःकीर्ति अने अयशःकीर्ति साथें गुणतां चार नांगा पर्याप्त साथें थाय, अने एक अपर्याप्तनो नांगो, Page #797 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ एवं पांच नांगा थाय. एम ए सुनग, उौंग तथा श्रादेय, अनादेयने विषे श्रागडे पण सर्वत्र मतांतरना नांगानो नेद जाणवो. ते पोतानी मतियें विचारी लेवो. तथा तेहिजपंचेंजिय जीव शरीरस्थने अवतस्या पली ते एकवीशना उदयमाहेश्री तिर्यंचानुपूर्वीनो उदय टालीयें, अने औदारिकटिक, उ संघयणमांहेलु एक संघयण, ब संस्थानमांहेदूं एक संस्थान, उपघात अने प्रत्येक, ए बनो उदय नेलीयें, तेवारें बबीशन उदयस्थानक थाय. तिहां पर्याप्त साथें संघयण गुणतां नांगा थाय, तेने उ संस्थाने गुणतां त्रीश थाय. ते सौजाग्य अने दौर्जाग्य साथें गुणतां बहोत्तेर थाय. ते श्रादेय अनादेय साथें गुणतां एकसो ने चुम्मालीश थाय. ते यश, अयश साथें गुणतां बसें ने अव्याशी नांगा थाय, अने अपर्याप्ताने हुंडसंस्थान, बेवहुं संघयण, दौ ग्य, अनादेय अने अयशःकीर्त्तिने उदयें एकज नांगो होय. केमके अपर्याप्ताने परावर्त्तमान अशुज प्रकृतिनोज उदय होय, पण शुन प्रकृतिनो उदय न होय, तेमाटें एकज नांगो थाय. एम बसें ने नेव्याशी नांगा थया, तथा मतांतरें बेबीशने उदयें एकसो पीस्तालीश नांगा पण होय. ते शरीर पर्याप्तें पर्याप्ता थया पठी एक पराघात, बीजी शुन अशुनखगतिमाहेली एक, ए बेनो उदय नेलतां अहावीशनो उदय थाय. तिहां पर्याप्ताना पूर्वोक्त बसें श्रव्याशी जांगाने बे विहायोगतियें गुणतां पांचसे ने बहोंत्तेर नांगा थाय. अहींयां अपर्याप्तो न होय, माटें तेनो एक नांगो न लेवो. ते श्रहावीशमध्ये श्वासोश्वास पर्याप्तियें पर्याप्ताने एक नश्वासनो उदय वधारतां उगणत्रीशनो उदय थाय. अहींयां पण पूर्वली पेरें मांगा (५७६ ) जाणवा, अथवा शरीर पर्याप्तियें पर्याप्ताने श्वासोश्वास विना एक नद्योतनो उदय अहावीशमाहे नेलतां गणत्रीश प्रकृतिनुं उदयस्थानक थाय, तिहां पण (५७६) नांगा थाय. एम उंगणत्रीशने उदयें सर्व थश्ने ( ११५५ ) नांगा थाय. तेवार पड़ी भाषापर्याप्तियें पर्याप्ताने ते उगणत्रीशमाहे सुखर अथवा फुःखरमांहेली एक नेलतां त्रीशनो उदय थाय. अहीं जे पूर्व श्वासोश्वासने उदयें (५७६) नांगा कह्या तेने सुखर कु.स्वरने विकल्पं बमणा करतां ( १९५५ ) नांगा थाय, अथवा श्वासोश्वास पर्याप्तियें पर्याप्ताने स्वरना उदय विना उद्योतनो उदय पूर्वोक्त गणत्रीशमाहे नेलीये, तेवारें त्रीशनो उदय थाय. तिहां पण पूर्ववत् (५७६) नांगा थाय. एम सर्व मली त्रीशने उदय (१७२७) नांगा थाय. तथा स्वर सहित त्रीशना उदयमांहे उद्योतनो उदय नेलता एकत्रीश- उदयस्थानक थाय. अहीं जे पूर्व स्वर सहित त्रीशने उदय नांगा ( १९५२ ) कह्या , तेटलाज Page #798 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ ७७३ नांगा जाणवा. एम सहज पंचेजिय तिर्यंचने एड उदयस्थानकें थश्ने नांगा (४ए०६ ) थाय. _हवे पंचेंजिय तिर्यंचने वैक्रिय करतां पच्चीश, सत्तावीश, अद्यावीश, उगणत्रीश, अने त्रीश, ए पांच उदयस्थानक होय. तिहां ५ वैक्रियधिक, ३ समचतुरस्त्रसंस्थान, ४ उपघात, ५ तिर्यंचगति, ए त्रसचतुष्क, १० पंचेंजियजाति, ११ सौनाग्य अथवा दौ ग्य, १५ श्रादेय अथवा अनादेय, १३ यशःकीर्ति अथवा अयशःकीर्ति, ए तेर प्रकृति साथें बार ध्रुवोदयी मेलवतां पच्चीशनो उदय थाय. अहीं सौनाग्य दौर्लाग्यना विकल्पं नांगा बे थाय, तेने श्रादेय अनादेय साथें गुणतां चार, ते वली यश अयशें गुणतां श्राउ नांगा थाय. अहीं वैक्रियशरीर करतां संघयण न होय, अने संस्थान तो एकज समचतुरस्त्र होय, माटें तेना नांगा न थाय. हवे ते वैक्रीयशरीरनी पर्याप्ति पूरीथयो पली, एक पराघात, बीजी शुनविहायोगति, ए बे नेलतां सत्तावीशनो उदय थाय. तिहां पण तेज श्राव नांगा पूर्ववत् जाणवा. ते पली वैक्रीयशरीरें श्वासोश्वास पर्याप्ति पूरी थया पली उश्वासनो उदय नेलीयें, तेवारें अहावीशनो उदय थाय. अहींयां पण तेहिज बाठ नांगा जाणवा. अथवा शरीर पर्याप्तियें पर्याप्ताने उश्वासने अनुदयें उद्योतनो उदय नेलीये, तेवारें पण अहावीशनो उदय थाय. तिहां पण एज श्राप नांगा जाणवा. एम सर्व मली अहावीशने उदये शोल नांगा थाय. ते वैक्रीय नाषा पर्याप्तियें पर्याप्ताने सुखरनो उदय, ते पूर्वोक्त उश्वास सहित अहावीशमांहे नेसतां उगणत्रीशनो उदय थाय. तिहां पण नांगा थाप अथवा श्वासोश्वास पर्याप्ताने खरने, अनुदयने अने उद्योतने उदयें गणत्रीशनो उदय थाय, तिहां पण नांगा आप जाणवा. एम जंगणत्रीशने उदयें सर्व मली नांगा शोल थाय. तथा सुस्वर सहित गणत्रीशमाहे उद्योतनो उदय नेलतां त्रीशनो उदय थाय. तिहां पण नांगा आप जाणवा. एम सर्व मली वैक्रीयशरीर करतां तिर्यचपंचेंजियने बप्पन्न नांगा थाय. एटले सर्व मली पंचेंजियतिर्यंचने (४ए६२ ) जांगा थाय, अने एकेंजियादिक सर्व तिर्यंचगतिमांहे ( ५०७०) नांगा उपजे. ' हवे मनुष्यने सामान्य एकवीश, बबीश, अहावीश, गणत्रीश अने त्रीश, ए पांच उदयस्थानक होय. ए पांचे स्थानकें सहज नांगा पंचेंशियतिर्यंचनी पेरें जाणवा. पण एटबुं विशेष जे तिर्यंचगति अने तिर्यंचानुपूर्वीने स्थानकें मनुष्यगति अने मनुप्यानुपूर्वी कहेवी, तथा उगणत्रीश प्रकृतिनो उदय, उद्योत रहित कहेवो, तेथी जंगपत्रीशने उदयें (५७६ ) नांगा थाय. केम के तिहां उद्योतना नांगा टले तथा Page #799 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ त्रीशने उदय पण ( ११५५ ) नांगाज थाय, पण अधीक न थाय, जे लणी वैक्रीय तथा आहारक शरीर करतां मात्र साधुने उद्योतनो उदय होय पण बीजामनुष्यने, न होय. एम शरवाले सामान्य मनुष्यने (१६०२ ) नांगा होय. तथा मनुष्यने वैक्रियशरीर करतां पञ्चीश, सत्तावीश, श्रहावीश, उगणत्रीश अने त्रीश, ए पांच उदयस्थानक होय. तिहां प्रथम १ मनुष्यगति, २ उपघात, ३ पंचेंजियजाति, ५ वैक्रीयधिक, ६ समचतुरस्त्रसंस्थान, १० त्रसचतुष्क, ११ सौलाग्य अथवा दौ ग्य, १५ आदेय अथवा अनादेय, १३ यशःकीर्ति अथवा अयशःकीर्ति, अने बार ध्रुवोदयी, एवं पच्चीशनो उदय होय. तिहां पूर्वे जे वैक्रियतिथंचना नांगा कह्या, तेनी पेरें आठ नांगा जाणवा. पड़ी ते वैक्रीयशरीर पर्याप्तियें पर्याप्ताने पराघात अने प्रशस्तगतिने उदय सत्तावीशनो उदय होय, तिहां पण एज श्राव नांगा जाणवा. तेवार पड़ी तेने श्वासोश्वास पर्याप्ति पूरी थये थके सत्तावीशना उदयमांडे उश्वासनो उदय नेलतां अहावीशने उदय पण आउ नांगा जाणवा, अथवा साधुने वैक्रीय करतां शरीर पर्याप्ति पूरी कस्या पड़ी श्वासोश्वासना उदय विना उद्योतनो उदय नेले थके अहावीशनो उदय होय. अहींयां एकज नांगो थाय. जे नणी साधुने दौर्जाग्य, अनादेय, अने अयशःकीर्त्तिनो उदय न होय. एम अहावीशने उदयें सर्व मली नव नांगा थाय. ते पड़ी श्वासोश्वास सहित अहावीशमध्ये नाषा पर्याप्तियें पर्याप्ता थया पड़ी सुखरनो उदय नेलतां जंगणत्रीशनो उदय थाय. अहीं पण पूर्वली पेरें नांगा आव जाणवा, अथवा साधुने स्वरनो उदय थया विना उद्योतनो उदय नेलतां जंगपत्रीशने उदय नांगो एक थाय. सर्व मली उगणत्रीशने उदयें नव जांगा थाय. __ तथा सुखरसहित उगणत्रीशना उदयमांहे उद्योतनो उदय नेलतां त्रीशनुं उदयस्थानक थाय. अहीं पण पूर्ववत् एकज नांगो साधुने जाणवो, एम सर्व संख्यायें वैक्रीयमनुष्यना पांच उयदस्थानकें थश्ने पांत्रीश जांगा थाय.. तथा संयतने आहारकशरीर करतां पण वैक्रियमनुष्यने कह्यां तेहीज पांच उदयस्थानक जाणवां. पण एटबुं विशेष जे वैक्रीयछिकने गमें आहारकटिक कहे, तथा अहीं केवल प्रशस्त पदज होय, एटले संयतने पुर्नग, अनादेय ने अयशनो उदय न होय, तेमाटें पञ्चीशने उदयें एकज नांगोजाणवो. तेवार पड़ी शरीर पर्याप्ताने पराघात अने प्रशस्त विहायोगति नेले थके सत्तावीशनो उदय थाय. तिहां पण पूर्वली पेरें एकज नांगो जाणवो. ते पनी प्राणपान पर्याप्ताने उश्वासनो उदय नेले थके अहा. Page #800 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ งงข वीशने उदयें पण एकज जांगो होय, अथवा शरीर पर्याप्तियें पर्याप्ताने उश्वासने अनुदयें अने उद्योतने उदयें पण अहावीशनो उदय याय यहिं पण एक नांगो होय. एमवीशने उदयें शरवाले बे जांगा थाय. ते पछी जाषा पर्याप्तियें पर्याप्ताने उश्वास सहित अहावीशना उदयमांहे सुखरनो उदय मेले, उगणत्रीशनुं उद्यस्थाकथा. तां पण जांगो एक जाणवो; अथवा श्वासोश्वास पर्याप्तिये पर्याप्ताने सुखरने अनुदाने उद्योतने उदयें पण उगणत्रीशनुं उदयस्थानक थाय. अहीं पण एक नांगो जावो. एम उगणत्रीशने उदयें सर्व मली बे जांगा थाय. ते पी जाषा पर्याप्तियें पर्याप्ताने सुखर सहित उगणत्रीशना उदयमांहे उद्योतनो उदय मेले, त्रीशनो उदय थाय. तिहां पण एकज जांगो जावो. एम सर्व मलीने श्राहारकशरीर करतां संयतने पांच उदयस्थानकें थइने सात जांगा उपजे. हवे केवल मनुष्यने वीरा, एकवीश, बब्बीश, सत्तावीश, अट्ठावीश, उगणत्रीश, त्रीश, एकत्रीश, नव अने आठ, ए दश उदयस्थानक होय. तिहां १ मनुष्यगति, २ पंचेंद्रियजाति, ३ त्रस, ४ बादर, ५ पर्याप्त, ६ सुजग, खदेय, यशः कीर्त्ति, बार ध्रुवोदयी, एवं वीश प्रकृतिनो उदय सामान्य केवली ने केवलसमुद्घात करतां वचला ऋण समय पर्यंत कार्मण काययोगें वर्त्तताने होय. तिहां जांगो एक जावो. तथा तथा तीर्थंकर केवलीने तीर्थंकरनाम सहित एकवीरानो उदय, तीर्थंकरने केवलसमुद्वात करतां वचला त्रण समय लगें होय. तिहां पण जांगो एक जाणवो. तथा पूर्वोक्त वशमां दारिक द्विक, व संस्थानमांहेलुं एक संस्थान, प्रथम संघयण, पघाताने प्रत्येक एव प्रकृति भेलतां वीरानो उदय सामान्य केवलीने समुद्घात करतां बीजे, बठे अने सातमे, ए त्रण समय सुधी औदारिक मिश्रयोगें वर्त्ततां होय. अहींयां व संस्थानें व जांगा घाय, परंतु ते सामान्य मनुष्यना उदयस्थानक मध्यें गाणा डे, माटें यहींयां गण्या नथी, तथा ते बबी शमां तीर्थंकरनामकर्म जेलतां सत्तावीशनुं उदयस्थानक तीर्थकरनो समुद्घात करतां बीजे, बठे अने सातमे समयें होय. तिहां जांगो एकज जाणवो. अहींथां संस्थान एकज समचतुरस्र होय, तेथी गाना विकल्प न थाय. , तथा ते वीश मध्ये १ पराघात, २ उश्वास ३ शुन अथवा अशुनखगति, ४ सुखर अथवा दुःखरमांहेली एक, ए चार जेले त्रीशनो उदय, ए सामान्यकेवलीने दारिक काययोगें वर्त्तताने होय. अहींयां व संस्थानने बे विहायोग तियें गणतां बार; तेने सुखरें, दुःखरें गणतां चोवीश जांगा थाय, परंतु ते सामान्य मनुष्यना उदयस्थानकमांहे गणाणा बे माटें यहीं पृथक् गण्या नथी. For Private Personal Use Only Page #801 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७६ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ.६ ए त्रीशने जिननाम सहित करता एकत्रीशन उदयस्थानक थाय, ते तीर्थंकर सयोगी केवलीने औदारिककाययोगें वर्त्तताने जाणवो. अहींयां समचतुरस्त्रसंस्थान, प्रशस्तविहायोगति अने सुखरनोज उदय होय, तेमाटें एकज नांगो होय. ते एकत्रीश मांहेथी औदारिक काययोग रुंधाय तेवारें वचनयोगनो पण रोध थाय, माटें वचन, योग रुंधे स्वरना उदय विना त्रीशनो उदय थाय. अहीं पण एक नांगो तीर्थकरने जाणवो. ते मांहेथी वली उश्वास रुंधे थके उंगणत्रीशनो उदय थाय. तिहाँ पण जांगो एक, तीर्थकरनेज जाणवो. - हवे सामान्यकेवलीने पूर्वोक्त त्रीशमांश्री वचनयोग रुंधे थके, उगणत्रीशनो उदय, तिहां ब संस्थान अने बे विहायोगतिना नांगा बार थाय, ते सामान्यमनुष्यमां गणाणां बे, माटें अहिं पृथक् न गणवा. ते मध्ये थी वली उश्वास रुंधे अहावीशनो उदय थाय. अहींथां पण ब संस्थान अने बे विहायोगतिना नांगा बार थाय. ते पण सामान्यमनुष्यमां गएया ने माटें पृथक् न गणवा. तथा १ मनुष्यगति, २ पंचेंजियजाति, ३ त्रस, ४ बादर, ५ पर्याप्त, ६ सुनग, ७ श्रादेय, यशःकीर्ति, अने नवमुं तीर्थकरनामकर्म, ए नवनो उदय तीर्थकर अयोगी केवलीने चरम समयें वर्त्तताने होय. तिहां जांगो एक जाणवो. तथा ते नवमांहेथी एक तीर्थकरनामकर्म विना शेष श्राउ प्रकृतिनो उदय, सामान्य अयोगी केवलीने चरम समय वर्त्तताने होय. तिहां पण नांगो एकज जाणवो. एम केवलीना दश उदा यस्थानकना मली नांगा बाशह थाय. ते मध्ये २०-२१-२७-२५-३०-३१-ए-, ए पाठ स्थानकनो प्रत्येकें एकेक जांगो लेवो. तेमां बे सामान्यकेवलीना उदयस्थानकना बे नांगा थने उ तीर्थंकरना उदय स्थानकना नांगा लेवा. एम आठ लांगा, अहीं गणत्रीमा लेवा, अने शेष चोपन नांगा तो सामान्यमनुष्यना नांगामांहेज अंतत गणाणा , तेमाटे ते पृथक् ग्रहण न करवा. एम सर्व संख्यायें सर्व मनुष्यना नांगा (३६२५) थाय. __ हवे देवताने एकवीश, पच्चीश, सत्तावीश, अहावीश, गणत्रीश, अने त्रीश, ए ब उदयस्थानक होय. तिहां देवधिक, ३ पंचेंजियजाति, ४ त्रस, ५ बादर, ६ पर्याप्त, सुन्नग पुर्नगमांदेली एक, ७ श्रादेय अनादेयमांदेली एक, ए यश श्रयशमांहेली एक, अने बार ध्रुवोदयी, ए एकवीश- उदयस्थानक नवनी अपांतरालगतियें वर्तताने होय. तिहां सुनग, पुर्नग, आदेय, अनादेय अने यश, अयश साथे नांगा श्राप होय; अहिं दो ग्य, अनादेय;अने श्रयशनो उदय, ते पिशाचादिकने जाणवो. पड़ी तेहीज शरीरस्थ थया पड़ी ते एकवीश प्रकृतिमाहे वैक्रियटिक, उपघात, Page #802 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ I99 प्रत्येक, समचतुरस्रसंस्थान, ए पांच प्रकृति नेलीयें श्रने वैक्रियानुपूर्वी काढीयें, तेवारें पच्चीशन उदयस्थानक थाय. तिहां पण तेमज श्राप जांगा जाणवा. ते पनी शरीर पर्याप्तियें पर्याप्ताने पराघात तथा प्रशस्त विहायोगति, एबे प्रकृति नेले थके सत्तावीश प्रकृतिनुं उदयस्थानक थाय. तिहां पण आउ नांगा उपजे. अहिं देवताने अशुजविहायोगतिनो उदय न होय, तेथी जांगा वधे नहिं. ते पडी प्राणपान पर्याप्ताने उश्वासनो उदय नेले थके अहावीश- उदयस्थानक थाय. तिहां पण नांगा आठ पूर्ववत् जाणवा. अथवा शरीर पर्याप्ताने उश्वासने अनुदयें अने उद्योतने उदयें पण अहावीशनो उदय थाय. तिहां पण नांगा श्राप जाणवा. एम अहावाशना उदय सर्वे मल। शोल नांगा होय. ते पड़ी नाषापर्याप्तियें पर्याप्ताने सुखरनो उदय नेले थके गणत्रीशनो उदय थाय, तिहां पण नांगा श्राप थाय, देवताने दुःखरनो उदय न होय, अथवा श्वासोश्वास पर्याप्तियें पर्याप्ताने सुखरने अनुदयें अने उद्योतने उदय पण उगणत्रीशनो उदय होय. तिहां पण नांगा श्राप जाणवा. जे नणी उत्तरवैक्रिय करतां देवताने पण उद्योतनो उदय पामीये. सर्व मली उंगणत्रीश उदये शोल नांगा उपजे. ते पड़ी नाषा पर्याप्तिये पर्याप्ताने सुस्वर सहित उगणत्रीशमाहे उद्यातनो उदय नेले थके त्रीशनुं उदयस्थानक होय. श्रहीं पण नांगा था पूर्ववत् जाणवा. एम देवताने ब उदयस्थानकें थश्ने सर्व मली नांगा चोशक उपजे. हवे नारकीने एकवीश, पञ्चीश, सत्तावीश, अहावीश अने उगणत्रीश, ए पांच उदयस्थानक होय. तिहां २ नरकटिक, ३ पंचेंजियजाति, ४ त्रस, ५ बादर, ६ पर्याप्त, ७ उर्जग, ७ अनादेय, ए अयशःकीर्ति, तथा बार ध्रुवोदयी मलीने एकवीशनोज उदय, विग्रहगतियें वर्त्ततां होय. अहीं नांगो एक होय, जे जणी नारकीने परावर्तमान प्रकृतिमांहेली अशुन प्रकृतिनोज उदय होय, तेथी विकल्प न होय. ... पड़ी ते एकवीशमाहे २ वैक्रीयहिक, ३ डैमसंस्थान, ४ उपघात, ५ प्रत्येक, ए पांचनो उदय नेलीयें अने नरकानुपूर्वानो उदय टालीयें, तेवारें पच्चीश प्रकृतिनो उदय नरकमांहे अवतस्या पली शरीरस्थने जाणवो. तिहां पण नांगो एक थाय. ते पली शरीर पर्याप्तियें पर्याप्ताने पराघात तथा अशुनखगति, ए बेनो उदय नेलीयें, तेवारें सत्तावीशना उदयें पण नांगो एक जाणवो. ते पनी प्राणपान पर्याप्तियें पर्याताने श्वासोश्वासनो उदय नेले अहावीशना उदयें पण नांगो एकज थाय. ते पनी जाषापर्याप्तियें पर्याप्ताने पुःखरनो उदय नेले थके, उंगणत्रीशना उदयें पण नांगो ९८ Page #803 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकानामा पष्ठ कमग्रंथ. ६ एक होय. एम पांचे उदयस्थानकें थइने नारकीने जांगा पांच उपजे. एम ए चारे गतिना उदयस्थानकना शरवाले जांगा ( १७९१ ) थाय ॥ इति उदय जांगा संपूर्ण ॥ २८ ॥ ॥ दवे कया उदयस्थानकें केटला जांगा शरवाले होय, ते कहे बे. ॥ इक्क वयालि कारस, तित्तीसा बस्सयाणि तित्तीसा ॥ बारस सत्तरससया, दिगाणि बि पंच सीईदिं ॥ २५ ॥ 966 अर्थ-बी प्रकृतिने उदय स्थानके इक्क के० एक जांगो केवलीने होय. तथा एकवीशने उदयस्थानकें एकेंद्रियना पाँच, विकलेंडियना नव, पचेंद्रिय तिर्यंचना नव, मनुष्यना नव, केवलीनो एक, देवताना याठ, तथा नारकीनो एक, एवं बयाल के० तालीश जांगा होय. तथा चोवीशने उदयस्थानकें इक्कारस के० अगीआर जांगा एकेंद्रियना होय. तथा पच्चीशने उदयें एकेंद्रियना सात, वैक्रियतिर्यंचना आठ, वैक्रियमनुष्यना आठ, आहारकनो एक, देवताना आठ, अने नारकीनो एक, एवं तित्तीसा के० तेन्रीश जांगा होय. तथा बवीशना उदयें एकेंद्रियना तेर, विकलें प्रियना नव, पंचेंद्रिय तिर्यंचना बसें ने नेव्याशी, अने सहेज मनुष्यना बसें ने नेव्याशी, एवं स्याणि के० बसें जांगा होय. तथा सत्तावीशने उदयें एकेंद्रियना छ, वैक्रियतिर्यंचना आठ, वैक्रियमनुष्यना आठ, आहारकनो एक, केवलीनो एक, देवताना ad, अने नारकीनो एक, एवं तित्तीसा के तेत्रीश जांगा होय. तेवार पढी बारससत्तरससया के० बारस एटले बारसें अने सत्तर एटले सत्तरसें ते बि के० बे पंचसी हिं के० पचाशीयें करी हिगाणि के० अधिकानि एटले अधिक जाणवा, एटले अनुक्रमें बारसें उपर बे अधिक छाने सत्तरसें उपर पंच्चाशी अधिक, एम अनुक्रमें वीशने उदयें बारसें ने वे तथा उगणत्रीशने उदयें सत्तरसें ने पंच्चाशी जांगा जावा, तेज कही देखाडे बे. तिहां अहावीशने उदयें विकलेंडियना ब, पंचेंद्रिय - तिर्यंचना पांच ने बहोंत्तेर, मनुष्यना पांच ने उहोंत्तेर, वैक्रिय तिर्यंचना शोल, वैमनुष्यना नव, आहारकना वे, देवताना शोल, अने नारकीनो एक, एवं बा रसें ने बे जांगा था. तथा उगणत्रीशने उदयें विकलेंद्रियना बार, पंचेंद्रिय तिर्यंचना अरने बावन, मनुष्यना पांचसें बहोंत्तेर, वैक्रियतिर्यंचना शोल, वैक्रियमनुtयना नव, श्राहारकना बे, केवलीनो एक, देवताना शोल ने नारकीनो एक, एवं सत्तरसें ने पंच्चाशी जांगा होय ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ २५ ॥ अणत्ती सिक्कारस, सयाणि दिय सतर पंच सहीहिं ॥ इक्विक गंच वीसा, दहुदयंतेसु उदय विदी ॥ ३० ॥ For Private Personal Use Only Page #804 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ अर्थ- - तथा उपत्ती सिक्कारससयाणि के० उगणत्रीशसें अने अगी धारसें, ए बे उपर अनुक्रमें सतर के सत्तर ने पंचसहिहिं के० पांशठ, श्रहिय के अधिक करीयें, तेवारें त्रीशने उदयें बे हजार, नवसें ने सत्तर जांगा था, छाने एकत्रीशने उदयें गीयर ने पांशठ जांगा थाय, ते कही देखाडे बे. एटले त्रीशने उदयें विकलें प्रियना ढार, तिर्यंचपंचेंद्रियना सत्तरसें ने श्रद्वावीश, मनुष्यना श्रीधरसें बावन, वैक्रिय तिर्यंचना याठ, वैक्रियमनुष्यनो एक, आहारकनो एक, केवलीनो एक देवताना श्राव एवं सर्व मली (२०१५) जांगा थाय. तथा एकत्रीशने उदयें विकलेंडियन बार, पंचेंद्रिय तिर्यंचना श्रगी धारसें ने बावन्न अने केवलीनो एक, एवं (१९६५) नांगा था. तथा इक्किक्कगंच के० एकेक जांगो नवना अने श्रावना उदयने विषे केवलीने होय एटले नवने उदयें एक जांगो ने श्रावने उदयें एक जांगो होय. वीसा हुदयंते के० ए वीशना उदयस्थानकथी मांगीने श्रावना उदयस्थानक पर्यंत बार उदयस्थानक तेने विषे उदय विही के० उदयना प्रकार जाणवा. सर्व उदयना जांगानी संख्या ( १ ) जाणवी ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ ३० ॥ ॥ अथ सत्तास्थानान्याह ॥ दवे नामकर्मनां सत्तानां स्थानक कहे . ॥ ति नउई गुण नजई, अडसी बलसी सीइ गुणसीई ॥ अन्य उप्पन्नत्तरि, नव अन्य नाम संताणि ॥ ३१ ॥ अर्थ-तिडुनउई के एक त्र्याणु प्रकृतिनुं सत्तास्थानक, बीजुं बाणु प्रकृतिनुं सत्तास्थानक, गुणनउई के० त्रीजुं नेव्याशी प्रकृतिनुं सत्तास्थानक, अमसी के० चोथुं अय्याशी प्रकृतिनुं सत्तास्थानक, बलसी के० पांचमुं बयाशी प्रकृतिनुं सत्तास्थानक, सीके बहुं एंशी प्रकृतिनुं सत्तास्थानक, गुणसीई के० सातमुं श्रोगरयाएंशी प्रकृतिनुं सत्तास्थानक, अयप्पन्नत्तरि के० श्रमुं होत्तेर प्रकृतिनुं सत्तास्थानक, नवमं बहोंत्तेर प्रकृतिनुं सत्तास्थानक, दशमुं पंच्चोत्तेर प्रकृतिनुं सत्तास्थानक, नव के० गारमुं नव प्रकृतिनुं सत्तास्थानक, अने श्रय के० बारमुं आठ प्रकृतिनुं सत्तास्थानक, एवं बार, नामसंतापि के० नामकर्मनां सत्तास्थानक होय ॥ इत्यक्षरार्थः ३१ दवे ए बार सत्तास्थानकनुं विवरण लखीयें ढैयें. तिहां नामकर्मनी सर्व प्रकृतिना समुदायनी सत्ता होय, तेवारें त्र्याणुनुं सत्तास्थानक, तेमांहे जिननामनी सत्ता जेवारें न होय, तो बानुं सत्तास्थानक तथा त्र्याणुमांहेथी १ आहारकशरीर, २ आहारकअंगोपांग, ३ श्राहारकबंधन, ४ आहारकसंघातन, ए चारनी सत्ता न होय, तेवारें नेव्याशीनुं सत्तास्थानक, तेमध्यें वली जिननामनी सत्ता न होय, तेवारें अव्याशीनं For Private Personal Use Only Page #805 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ सत्तास्थानक, तेमांहेथी देवद्विक अथवा नरकद्विक उवेल्ये थके व्याशीनुं सत्तास्थानक तथा व्याशी माथी तेज ने वायुमांदे वैक्रियाष्टक उवेली एंशीनी सत्तावंत को पंचेंद्रियपणुं पामीने देवगतियोग्य बांधे तो देवद्विक ने वैक्रियचतुष्कने बंधें याशीनुं सत्तास्थानक होय, तथा ते पंचेंद्रियमांहे नरकगति प्रायोग्य बांधतो नरकठिक ने वैक्रियचतुष्कने बंधे पण क्याशीनुं सत्तास्थानक होय. ते पछी नरक द्विक तथा वैक्रियचतुष्कने वेले थके एंशीनी सत्ता होय, अथवा देवद्विकाने वैक्रियचतुष्क 096 वेले पण एंशीनी सत्ता होय. ते पठी मनुष्य द्विक उवेले थके होत्तेरनुं सत्तास्थानक होय, ए सात सत्तानां स्थानक रूपक टालीने अनेरा जीवने होय, तेमां नव्यने तथा पूर्वे प्राप्त सम्यक्त्वने ७०-८० - ८६ - ०० - ए चारज सत्तास्थानक होय. हवे पकने सत्तानां स्थानक होय, ते कदेबे. त्र्याणु मध्येंथी नरक द्विक, तिर्यंचद्विक, एकेंद्रिय, बेंद्रिय, तेंद्रिय, चौरिंद्रिय, ए चार जाति तथा स्थावर, श्रातप, द्योत, सूक्ष्म ने साधारण, ए तेर प्रकृतिने दयें एंशीनी सत्ता तथा बाणुमांहेथी ए तेरने क्षयें उगणाएंशीनी सत्ता तथा नेव्याशी मांहेश्री तेरने कये बहोंत्तेरनी सत्ता तथा श्राशीमांथी तेरने दयें पंच्चोतेरनी सत्ता होय. तथा १ मनुष्यगति, २ पंचेंद्रियजाति, ३ त्रस, ४ वादर, ५ पर्याप्त, ६ सुनग, ७ श्रादेय, ० यशःकीर्त्ति, ए तीर्थंकरनामकर्म, ए नव प्रकृतिनुं सत्तास्थानक तथा तेमध्येंथी तीर्थंकरनामकर्म टालीयें, वारें बीजं आठ प्रकृतिनुं सत्तास्थानक, ए वे सत्तानां स्थानक अयोगी केवलीने बेहले समये होय. ए नामकर्मनां सत्तानां स्थानक कह्यां इत्यर्थः ॥३१ ॥ ॥ हवे संवेधनो अर्थ कहे . ॥ अन्य बारस बारस, बंधोदय संत पयडिवगणाणि ॥ देणाऽसेाय, जब जहा संभवं विभजे ॥ ३२ ॥ अर्थ - नामकर्मनां बंध के बंधस्थानक, अय के० श्राह ने उदय के० उदयस्थानक, बारस के० बार तथा संत के० सत्तानां स्थानक, बारस के० बार बे. पयमिगणाणि के० ए प्रकृतिनां स्थानक ते उद्देणाऽएसेाय के० उघादेशेन एटले सामान्यदेशें जाणवा. जब जहासंजर्व के० जिहां जेटला संजवे, तिहां तेटला विजजे के० विजजेत् एटले वहेंचियें, अमुक बंधस्थानके एटलां उदयस्थानक तथा एटलां सत्तानां स्थानक, एवो संवेध, ते सामान्य देश कहींयें, तथा अमुक गुणठाणे अथवा अमुक जीवस्थानके एटलां बंधस्थानक, वली ते अमुक बंधस्थानकें एटलां उदयस्थानक, एटलां सत्तानां स्थानक, एम परस्परें संवेधनुं विचारखुं तेने विशेषादेश कहीं यें ॥ इति ॥३२॥ Page #806 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ १ ॥ श्रादौ सामान्येन संवेधमाह ॥ तिहां प्रथम सामान्यपणे बंध, ___उदय अने सत्तानो संवेध कहेले.॥ नव पण गोदयसंता, तेवीसे पणवीस ब्बीसे॥ अह चनरध्वीसे, नव सत्ति गुण तीस तीसम्मि ॥ ३३ ॥ अर्थ-तेवीसेपणवीसब्बीसे के० त्रेवीशने, तथा पञ्चीशने अने बीशने, ए त्रण बंधस्थानकें प्रत्येकें प्रत्येके नवपणगोदयसंता के नव नव उदयनां स्थानक होय. अने पांच पाँच सत्तानां स्थानक होय. ते केम? जे जणी त्रेवीशनो बंध थपर्याप्त एकेजिय प्रायोग्यज होय, तेना बांधनारा एकेंड्रिय तथा विकलें प्रिय अने पंचेंद्रियतिर्यंच तथा मनुष्य होय, एने २१-२४-२५-२६-२७-२-ए-३०-३१, ए नव उदयनां स्थानक होय. तेमाहेला नावे ते उदयस्थानकें वर्तता अपर्याप्ता एकेजिय प्रायोग्य त्रेवीश प्रकृतिनो बंध करें, तिहां एकवीशनो उदय तो विग्रहगतियें वर्तता एकेंपिय, विकलें प्रिय अने पंचेंजियतिर्यंच तथा मनुष्यने होय, तिहां सत्तानां स्थानक बाणु, अध्याशी, ब्याशी, एंशी, अने अठोत्तेर, ए पांच सर्व जीवने होय, पण मनुष्यने अठोत्तेरनी सत्ता न होय. जे नणी अहोत्तेरनी सत्ता मनुष्यधिक वेख्ये थाय, ते नवेदयुं नथी माटें मनुष्यने चार सत्तानां स्थानक होय. अने चोवीशनो उदय एकैप्रिय पर्याप्तापर्याप्ताने होय. तिहां पण पूर्वे कह्यां तेज पांच सत्तानां स्थानक होय, पण एटलुं विशेष जे वायुकायने वैक्रिय करतां चोवीशने उदयें वर्तताने एंशीनुं तथा अहोत्तरतुं, ए बे सत्तास्थानक न होय. जे माटें तेने वैक्रियषटक अने मनुष्यधिक निश्चयें लेज, केम के वैक्रिय तो सादात अनुजवे डे, ते माटे ते उवेलतो नथी, अने ते उवेल्या विना नरकटिक तथा देवहिक पण न उवेले, समकालेंज वैक्रियषट्क उवेले, एवा निश्चय माटे. अने वैक्रीयषट्क उवेख्या पली ज मनुष्यधिक उवेले. परंतु तेथी पूर्वे न उवेले तेमाटें एंशीर्नु तथा अहोत्तेर, ए बेसत्तानां स्थानक वर्जीने बाकी वाणु, अध्याशी, तथा व्याशी, एत्रण सत्तास्थानक होय. , तथा पञ्चीशनो उदय पर्याप्ता एकेंजिय, अने वैक्रियतिथंच तथा वैक्रियमनुष्यने होय. तिहां तेउ अने अवै क्रियवायुने तो जे पांच सत्तास्थानक कह्यां, तेज पांच सत्तास्थानक कहेवां, जे जणी अहोत्तेरनी सत्ता तेनेज , बीजाने नथी, बीजा सर्व पर्याप्ता जीव अवश्य मनुष्यछिक बांधे,तथा बीजा एकेंजिय,विकलेंजिय अने पंचेंजिय तिर्यंच, जे तेउ अने वायु मांहेथी आवी अवतस्या होय, ते ज्यांलगें मनुष्यहिक बांधे नहीं, त्यां लगें अपर्याप्तावस्थायें तेने श्रहोत्तेरनी सत्ता होय, तेथी तेने पांच Page #807 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ . सत्तास्थानक होय, अने बीजा पर्याताने अहोत्तेरनी सत्ता विना बाकी चार सत्तास्थानक वैक्रिय तिर्यंच मनुष्यने त्रेवीशने बंधे अने पच्चीशने उदय होय. तथा बबीशनो उदय, पर्याप्ता एप्रिय तथा पर्याप्तापर्याप्ता विकलेंजिय अने तिर्यंच तथा मनुष्यने होय. तिहां पण पूर्वलां पांच सत्तास्थानक होय. तेमध्ये अहोतेरनुं सत्तास्थानक तेज तथा अवै क्रियवायुनी अपेक्षायें लेवं, अने बाकीनां चार सत्तास्थानक बीजा जीवो श्राश्री त्रेवीशने बंधे अने बबीशने उदय होय. __ सत्तावीशनो उदय तेज, वायु वर्जीने पर्याप्ता बादर एकेंज्यि तथा वैक्रिय तिर्यंच मनुष्यने होय. तिहां अठोत्तर विना बाकीनां चार सत्तास्थानक जाणवां, जे जणी तेज तथा वायुने तप अने उद्योतनो उदय नथी, तेथी तेने सत्तावीशनुं जदयस्थानक पण न होय, अने तेज तथा वायु विना तो अहोतेरनी सत्ता बीजे क्यांही न पामीयें तेथी।वीशने बंधे अने सत्तावीशने उदयें चार सत्तानां स्थानक जाणवां. अहावीश, जंगणत्रीश, अने त्रीश, ए त्रण उदयस्थानक पर्याप्ता विकलेंज्यि तथा पंचेंजिय तिर्यंच मनुष्यने होय. तथा एकत्रीशनो उदय. पर्याप्ता विकलेंज्यि तथा तिर्यंच पंचेंजिय मिथ्यादृष्टिने होय. अहींयां मनुष्यधिकनी सत्ता होय, माटें एक अठोत्तेरनुं सत्तास्थानक टाली शेष चार सत्तास्थानक होय. एम वीशना बंधकने यथायोग्य नव उदयस्थानकें थश्ने चालीश सत्तास्थानक होय. .. पञ्चीश तथा बबीशना बंधकने पण एमज नव नव उदयस्थानकें सत्तानो संवेध जाणवो. एटले चालीश नांगा सामान्यादेशे होय. अने विशेषादेशे पण पर्याप्त एकेंजिय प्रायोग्य पच्चीशना बंधक देवताने २१-२५-२७-२७-शए–३०, ए उ उदयस्थानकनेविषे बाणु तथा अध्याशी, ए बे सत्तानां स्थानक प्रत्येकें होय, अने अपर्याप्ता विकसेंजिय तथा अपर्याप्ता पंचेंजिय तिर्यंच अने मनुष्य प्रायोग्य पच्चीश प्रकृतिनो तो देवताने बंध नथी, केमके अपर्याप्तामांहे देवताने उपज, नथी तेमाटें. एटले ए त्रेवीश, पच्चीश तथा बबीशना बंधकना सर्व नव उदयें थश्ने एकसो ने वीश नांगा थयो. ए सर्व मिथ्यात्वीना जाणवा. तथा अचउरहवीसे के अभावीशना बंधकने एकवीश, पच्चीश, बबीश, सत्तावीश, अहावीश, गणत्रीश, त्रीश श्रने एकत्रीश, ए आठ उदयस्थानक होय, अने बाणु, अध्याशी, व्याशी, तथा एंशी, ए चार सत्तास्थानक एकेका उदय होय, ए अहावीशनो बंध, बे नेदें . एक देवगति प्रायोग्य अने बीजो नरकगति प्रायोग्य, तिहां देवगति प्रायोग्य असावीशने बंधे आठ उदयस्थानक अनेक जीवनी अपेक्षायें पामीयें, अने नरकगति प्रायोग्य अंहावीशने बंधे त्रीश अने एकत्रीश, ए वे उदय Page #808 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ ३ स्थानक पामीये. तिहां देवगति प्रायोग्य अहावीशने बंधे एकवीशनो उदय तो दायिक सम्यकदृष्टिने अथवा दायोपशमिक सम्यकदृष्टिने पण पंचेंजिय तिर्यंच तथा मनुष्यने जवापांतरालगतियें एटले बे गतिनी वचाउ वर्तताने होय, पण मिथ्याष्टिने न होय, केमके तिहां मिथ्यादृष्टि देवगति प्रायोग्य अहावीश न बांधे. केमके मिथ्यादृष्टि तो सर्व पर्याप्तियें पर्याप्तोज देवगति प्रायोग्य अहावीश बांधे. अहींयां कोइ कहेशे के जो एम कहो बो, तो वैक्रिय करतां तिर्यंच अने मनुष्यश्५-२-२७शए– ने उदयें वर्तता मिथ्यादृष्टि देवगति प्रायोग्य असावीश बांधे जे ते केम घटे? तत्रोत्तरं. तेणे नवने श्रादें पर्याप्ति पूरी करी बे. पनी वैक्रिय शरीर करतां औदारिक शरीरनी निवृत्ति पर्याप्तपणे उदयथी निवर्ते, तथापि तेने पर्याप्तज कहींयें, तेमाटें पर्यातावस्थायें तो तिहां मिथ्यात्वीने पण अहावीशनो बंधविरोध नथी. ए देवगति प्रायोग्य अहावीशना बंधक एकवीशने उदयें वर्तताने बाणु अने अध्याशी, ए बे सत्ता. स्थानक होय. पण अहींयां जिननामनी सत्ता न होय; जो कदापि जिननामनी सत्ता होय, तो तेनो बंध पण होवो जोश्य. तेवारें तो जंगणत्रीशनो बंधक थाय, तेमाटे जिननामनी सत्ता अहीं न होय. तथा पच्चीशनो जदय, आहारक साधु तथा वैक्रीय तिर्यंच अने मनुष्य सम्यकदृष्टिने होय, तथा मिथ्यादृष्टिने पण होय. तिहां पण सामान्य एज बे सत्तास्थानक होय. पण एटा विशेष जे आहारकना धणीने अहारक चतुष्क अवश्य होय, तेथी तेने एकज बाणुनुं सत्तास्थानक होय. शेष बीजा जीवोने बे सत्तास्थानक होय. ए अहावीशने बंधे पच्चीशने जदयें बे सत्तास्थानक जाणवां. तथा बबीशनो उदय दायिक अने क्षायोपशमिक सम्यक्दृष्टि शरीरस्थ पंचेंजिय तिर्यंच मनुष्यने अहावीश, देवगति प्रायोग्य बांधतां बाणु, अने अठ्याशी, ए बे सत्तानां स्थानक होय. तथा सत्तावीशना उदयें थाहारक साधु तथा वैक्रिय तिर्यंच मनुष्य सम्यकूदृष्टिने तथा मिथ्यादृष्टिने तेहीज बे सत्तानां स्थानक जाणवां. तेमज अहावीश, जंगणत्रीशनो उदय पण अनुक्रमें शरीर पर्याप्तियें करी पर्याप्ताने अहा. वीशनो उदय होय, अने श्वासोश्वास पर्याप्तियें करी पर्याप्ताने उंगणत्रीशनो उदय होय, ते दायिक अथवा वेदक सम्यकदृष्टिने तथा आहारक साधु अने वैक्रिय तिर्यंच मनुष्यने देवगति प्रायोग्य अहावीशने बंधे होय. तिहां बाणु अने अव्याशी, ए वे सत्तास्थानक होय. तथा त्रीशनो उदय पंचेंजिय तिर्यंच मनुष्य सम्यक्दृष्टि तथा मिथ्यादृष्टि तथा आहारक करतां साधुने तथा वैक्रिय करतांसाधुने होय. तिहांसामान्य बाएं, नेव्याशी, Page #809 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ទចម सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ अध्याशी, व्याशी, ए चार सत्तास्थानक होय. अने विशेषादेशे पंचेंजिय तिर्यंच मनुष्य मिथ्यादृष्टिने नरकगति प्रायोग्य असावीश बांधतां त्रीशने उदये बाणु, नेव्याशी, अध्याशी, अने ब्याशी, ए चार सत्तास्थानक होय. तिहां बाणु अने अध्याशी, ए बे पूर्वली पेरें नाववा. अने नेव्याशीनी सत्तानो विधि कहे. कोइएक जीवे, नरकायु बांध्या पली सम्यक्त्व लहीने तीर्थंकर नामकर्म बांध्यु, ते जीव, नरके जावाने सन्मुख थको सम्यक्त्व वमे, तिहां मिथ्यात्वे गया पनी तीर्थंकरनो बंध मटे, अने तीर्थकरनी सत्ता होय, ते तीर्थकरनी सत्ता उतां आहारकनी सत्ता मिथ्यात्वं न होय, " नोजयसंतोमिलो" ए वचनश्री तिहां नेव्याशीनी सत्ता होय. हवे व्याशीनी सत्ता केम होय ? ते कहे . कोर एक सर्व पर्याप्तियें पर्याप्तो एवो पंचेंजिय तिर्यंच अथवा मनुष्य ते तीर्थकरनामकर्म, आहारकचतुष्क, वैक्रियचतुष्क, देवधिक, नरकटिक, ए तेर प्रकृति विना एंशीनी सत्तायें वर्ततो जीव, संक्लिष्टपरिणामे नरकगति प्रायोग्य अहावीश बांधतो वैक्रियचतुष्क अने नरकटिक, ए ड प्रकृतिनो अवश्य बंध करे, तेवारें तेने व्याशीनुं सत्तास्थानक थाय, तथा तेहीज विशुफ परिणामें वर्त्ततो देवगति प्रायोग्य अहावीश बांधतां वैक्रियचतुष्क अने देवछिकनो अवश्य बंध करे, तेवारें पण व्याशीनुं सत्तास्थानक थाय. एम अहावीशने बंधे, त्रीशने उदयें चार सत्तास्थानक होय. तथा एकत्रीशने उदयें ए२-७-६-ए त्रण सत्तानां स्थानक होय. अहीं नेव्याशीनी सत्ता न होय. जे जणी एकत्रीशनो उदय, तिर्यंचने होय, अने ते तिर्यंचमां तो तीर्थंकरनामकर्मनी सत्ता न होय. अने नेव्याशीनी सत्ता तो तीर्थकरनामकर्म सहित होय, तेमाटें नेव्याशी वर्जीने शेष त्रण सत्तास्थानक होय. एम अहावीशने बंधे थाउ उदयस्थानकें थश्ने चार सत्ताने संवेधे नांगा जंगणीश होय. हवे नवसत्तिगुणतीसतीसम्मि के गणत्रीशने बंधे श्रनेत्रीशने बंधे प्रत्येकें एकवीश, चोवीश, पञ्चीश, बबीश, सत्तावीश, अगवीश,उंगणत्रीश, त्रीश, अने एकत्रीश, ए नव उदयस्थानक अने त्र्याणु, बाणु, . नेव्याशी, अध्याशी, व्याशी, एंशी अने अठोत्तेर, ए सात सत्तास्थानक होय. - तिहां पंचेंजिय तिर्यंच अने मनुष्य प्रायोग्य उगणत्रीश बांधता पर्याप्ता अपर्याप्ता एवा एकेंजिय, विकलेंजिय, पंचेंजिय तिर्यंच मनुष्य तथा देवता नारकीने विग्रहगतियें एकवीशनो उदय होय. तिहां बाएं, अध्याशी, व्याशी, एंशी अने अठोत्तेर, ए पांच . सत्तास्थानक होय,पण एटलुं विशेषजे वायुकाय विना बीजा पर्याता एकेंजिय, विकलेंजिय, Page #810 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ IՇԱ तिर्यंच, मनुष्य, देवता तथा नारकीने एक श्रोतेर विना बाकीनां चार सत्तास्था नक होय. एनुं कारण पूर्वेकयुं बे तेम जावं. एम चोवीश, पच्चीश ने बवीश, एत्रण उदयें पण एज पांच पांच सत्तानां स्थानक जावां. तिहां जे वीराने बंधे, उदय, सत्ता, संवेध जांगा विचारतां कयुं, तेम पण जावं. पण एटलुं विशेष जे हीं पच्चीशने उदयें मिथ्यात्वी देव नारकीने पण गणत्रीशनो बंध कहेवो. तथा सत्तावीशनो उदय पर्याप्ता एकेंद्रिय, देवता, नारकी, वैक्रिय तिर्यंच, मनुष्य मिथ्यात्वीने विकलेंद्रिय श्रने तिर्यंच मनुष्य प्रायोग्य योगपत्रीशनो बंध बांधतां बाणु, अध्याशी, बचाशी अने एंशी, ए चार सत्तास्थानक होय. तथा अडावीश, गणत्रीश, ए बे उदय विकलेंद्रिय पंचेंद्रिय तिर्यंच ने मनुष्य तथा वैक्रिय पंचेंद्रिय तिर्यंच, मनुष्य, देव ने नारकीने अंगणत्रीश बांधतां होय. तिहां पण तेहीज पूर्वोक्त चार सत्तास्थानक जाणवां. तथा त्रीशनो उदय विकलेंद्रिय तथा पंचेंद्रिय तिर्यंच अने मनुष्यने तथा उद्योतने उदये देवताने होय, तथा एकत्रीशनो उदय विकलेंद्रिय ने पंचेंद्रिय तिर्यंचने उद्योतने उदयें होय. तिहां मनुष्यगति प्रायोग्य उगणत्रीश बांधतां चार सत्तास्थानक, एकेंद्रिय, विकलेंद्रिय अने पंचेंद्रिय तिर्यंचने होय. तथा तिर्यग्गति ने मनुष्यगति प्रायोग्य गणत्रीश बांधतां मनुष्यने पोतपोतानां उदयस्थानकने विषे यथायोग्यपणे वर्त्तताने पण होत्तेरनुं सत्तास्थानक न होय, जे जणी मनुष्य द्विक बतां श्रोतेरनी सत्ता न होय, ते माटें तेहीज चार सत्तानां स्थानक जाणवां तथा देव, नारकीने पंचेंद्रिय तिर्यंच तथा मनुष्य प्रायोग्य उगणत्रीश बांधतां खखोदयें वर्त्तताने बाणु अने श्रव्याशी, ए बे सतास्थानक होय, तिहां मिथ्यात्वी नारकीने तीर्थंकर नामकर्म बतां मनुष्यगति प्रायोग्य गणत्री बांधतां स्वस्वोदयें यथायोग्यपणे वर्त्तताने एक नेव्याशीतुं सत्तास्थानक होय, जे जी मिथ्यात्वीने घ्याहारकचतुष्क तो जिननाम बतां न होय. ते माढें त्र्याणुमहे श्राहारकचतुष्क काढतां नेव्याशीनुं सत्तास्थानक होय. एम विकलेंप्रिय, पंचेंद्रिय तिर्यंचने, ए बेहुने अहींथां चार सत्तानां स्थानकनी जावना जेम 'वीने बंधे कही तेमज सर्वत्र जाणवी, पण एटलुं विशेष जे मनुष्यगति प्रायोग्य गणत्रीशने बंधे होत्तेर विना बीजां चार सत्तानां स्थानक होय. तिर्यग्गति प्रायोग्य उगणत्रीशने बंधें पांच सत्तास्थानक होय तथा देवगति प्रायोग्य अंगणत्रीश बांधतांविरति सम्यकदृष्टिने एकवीरा, बब्बीश, श्रद्वावीश, अंगणत्रीश छाने त्रीश ए पांच तथा आहारक ने वैक्रिय करतां साधुने पच्चीश, सत्तावीश, श्रधावीश, Ss For Private Personal Use Only Page #811 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ១០ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ.६ उगणत्रीश श्रने त्रीश, ए पांच उदयस्थानक होय, तथा देशविरति मनुष्यने वैक्रिय करतां द्योतनो उदय न होय, तेमाटें त्रीशना उदय विना बीजां चार उदयस्थानक होग, तिहां देवगति प्रायोग्य तीर्थकरनामकर्म सहित उगणत्रीश बांधतां व्याणु तथा नेव्याशी, ए बे सत्तानां स्थानक पांचं उदयस्थानकें होय. तथा थाहारक साधुने देवगति प्रायोग्य उगणत्रीश प्रकृति बांधतां एकज व्याणुर्नु सत्तास्थानक होय. एम सामान्यपणे गणत्रीशने बंधे नव उदयें करी नांगा चोपन शरवाले थाय. . तथा त्रीशना बंधस्थानके जेम तिर्यग्गति प्रायोग्य उंगणत्रीशनो बंध बांधतां एकेजिय, विकलें जिय, तिर्यंच, पंचेंजिय मनुष्य, देव अने नारकीने जेम उदयस्थानक कह्यां, तेम उद्योत सहित तिर्यग्गति प्रायोग्य त्रीशने बंधे एकेंजियादिकने पण उदय सत्तास्थानकनो संवेध नाववो. तथा मनुष्यगति प्रायोग्य तीर्थकरनामकर्म सहित त्रीशनो बंध करतां देवता अने नारकीने जे विशेष बे, ते कहीयें बैयें. देवताने एकवीशने उदयें वर्त्ततां व्याणु अने नेव्याशी, ए बे सत्तास्थानक होय, तथा नारकीने एकवीशने उदयें वर्त्ततां मनुष्यगति प्रायोग्य त्रीश प्रकृति बांधतां एकज नेव्याशी प्रकृतिनुं सत्तास्थानक होय, परंतु नारकीने त्र्याणुनी सत्ता न होय, जे जणी तीर्थकरनाम तथा थाहारक. चतुष्क, ए बेहुनी सत्ता, नारकीने नेली न होय. चूर्णिकारें कडं ले के "जस्स तिथ्थगराहा, रगाणि जुगवंसंति, सोनिरश्एसु न उववद्यई तथा एमज पच्चीश, सत्तावीश, थहावीश अने उंगणत्रीश, ए चार उदयस्थानकें पण देवताने ए बेबे सत्तास्थानक होय, अने नारकीने त्रीशन उदयस्थानक न होय, जे जणी उद्योत नेलतां त्रीशनुं उदयस्थानक थाय. ते उद्योतनो उदय तो नारकीने नथी एम सामान्यपणे त्रीशने बंधे, एकवीशने उदयें सात, चोवीशने उदयें पांच, पच्चीशने उदयें सात, बबीशने उदयें पांच, सत्तावीशने उदयें ब, अहावीशने जदयें ब, उगणत्रीशने जदयें उ, त्रीशने उदय अने एकत्रीशने जदयें चार, एम सर्व मली त्रीशने बंधे नव उदयस्थानकें थश्ने नांगा बावन थाय ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ ३३ ॥ एगेग मेगतीसे, एगे एगुदय अह संतंमि ॥ नवरय बंधो दस दस, वेयग संतंमि गणाणि ॥ ३४ ॥ अर्थः-तथा एगेगमेगतीसे के एकत्रीशने बंधे एगेग एटले एकज उदयस्थानक तथा एकज सत्तास्थानक पण होय. ते आवी रीतें के, देवगति प्रायोग्य जिननाम तथा थाहारकछिक सहित एकत्रीशनुं बंधस्थानक अप्रमत्त तथा अपूर्वकरण गुणगणे Page #812 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ SGO होय . तहां तो वैक्रिय तथा आहारकशरीरनुं करवाएं नथी, तो ते विना बीजा पच्चीश, बबीश, इत्यादिक छाप प्रकृतिना उदय न होय, अने श्रदारिकशरीरी तो सर्व पर्याप्तियें करी पर्याप्तो बे माटे तेने तो त्रीशनोज उदय होय. तिहां तो एकज त्र्याणुनुं सत्तास्थानक होय, परंतु बीजां न होय. केमके एकत्रीश प्रकृतिनो बंध तो श्राहारकचतुष्क तथा जिननाम सहितज होय, तथा एगे गुदयसंतंमि के० एक यशः कीर्त्तिरूप एकने बंधे पण एकज त्रीश प्रकृतिनुं उदयस्थानक होय, तथा तिहां याव सत्तानां स्थानक होय, जे जणी नामकर्मनी एकज यशःकीर्त्तिरूप प्रकृतिनो बंध पूर्वकरणना सातमा जागथी मांगीने दशमा गुणवाणा पर्यंत होय, ते अतिविशुद्ध माटें वैक्रिय तथा थाहारक करे नहीं, तेथ तेने बीजा पच्ची शादिकनां उदयस्थानक वैक्रियादिकनी पर्याप्ति योग्यनां न होय, मात्र एकज त्रीश प्रकृतिनुं उदयस्थानक होय. तिहां त्र्याणु, बाणु, नेव्याशी, श्रव्याशी, एंशी, उगणाएंशी, बहोंत्तेर, अने पंच्चोत्तेर, ए घाव सत्तास्थानक होय, तेमांहेलां ए३-०२-०९-००- ए चार प्रथमनां सत्तास्थानक उपशमश्रेणिनी अपेक्षायें होय, श्रथवा रूपकश्रेणीयें पण ज्यां लगें अनिवृत्तिबादरना प्रथम जागें जश्ने १ स्थावर, २ सूक्ष्म, ४ तिर्यंच द्विक, नरक द्विक, १० जातिचतुष्क, ११साधारण, १२ श्रातप, १३ जयोत, एतेर प्रकृति न खपावे तिहां लगे होय, अने ए तेर प्रकृति दय कस्या पठी अनेक जीवनी अपेक्षायें उपरलां ८०-१०- १६-१५ - ए चार सत्तास्थानक रूपकश्रेणीयें होय. वरयबंधो के० तथा उपरांत बंधे बंधने जावें वेयग के० वेदकने उदयनां स्थानक, दस के० दश होय, छाने संतंमिठाणाणि के० सत्तानां स्थानक पण, दस के० दश होय, तिहां वीरा, एकवीश, बबीश, सत्तावीश, अहावीश, अंगणत्रीश, त्रीश, एकत्रीश, नव ने घाव, ए दश उदयनां स्थानक ने ए३-०२-००-००-००-१९-१६१५-०-०- ए दश सत्तास्थानक होय. तेमध्यें केवलीने व समयनो केवल समुद्घात करतां वचालें त्रीजे, चोथे ने पांचमे, ए त्रण समय पर्यंत कार्मण योगें वर्त्ततां १ पंचेंद्रियजाति, ४ त्रसत्रिक, ५ सुजग, ६ खादेय, ७ यशः कीर्त्ति, मनुष्यगति, छाने बार ध्रुवोदयी, एवं वीश प्रकृतिनो उदय "होय. तिहां सत्तास्थानक उगणाएंशीनुं तथा आहारकचतुष्क विना पंच्चोत्तेरनुं, ए सत्तास्थानक होय. तथा तीर्थंकरने केवल समुद्घात करतां एज वचला त्रण समय पर्यंत तीर्थंकरनामकर्म सहीत एकवीशनुं उदयस्थानक होय. तिहां जिननाम सहित बे माटें एंशी होत्र, ए वे सत्तास्थानक होय. For Private Personal Use Only Page #813 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ.६ : तथा केवलीने समुद्घात करतां औदारिक मिश्रयोगें वर्त्ततां औदारिकट्रिक, वजषजनाराचसंघयण, ब संस्थानमांदेडं एक संस्थान, उपघात अने प्रत्येक, ए ब प्रकृति पूर्वोक्त वीशमांहे नेले थके बबीशनो उदय होय. तिहां बीजे, ब श्रने सातमे, ए त्रण समय पर्यंत उंगणाएंशी अने पंच्चोत्तेर, ए बे सत्तास्थानक होय. तथा तीर्थकरने तेज स्थानकें तीर्थकरनाम सहित सत्तावीशनो उदय होय. तिहां एंशी. अने बहोत्तेर, ए बे सत्तास्थानक होय. • तथा ते बबीशमध्ये पराघात, उश्वास, शुज तथा अशुजखगतिमांदेली एक अने बे खरमांहेली एक, ए चार नेलतां त्रीशनो उदय, औदारिक योगें वर्तता केवलीने अथवा अगीश्रारमे गुणगणे पण होय. तिहांत्र्याणु, बाणु, नेव्याशी, अग्याशी, एंशी, ओगणाएंशी, बहोंत्तेर, अने पंचोत्तेर, ए श्राप सत्तास्थानक, ते मांहेला पहेला चार, उपशमश्रेणीनी अपेक्षायें श्रने हेला चार दीण कषायने तथा सयोगी केवलीने थने तीर्थकरने होय. तिहां श्राहारकचतुष्कनी सत्ता सहित तीर्थकरने एंशी अने अतीर्थकरने ओगणाएंशी श्राहारक वर्जीने तीर्थकरने बहोत्तेर, अतीर्थकरने पंच्चोत्तेर, ए बे बे सत्ता स्थानक होय. तथा एकत्रीशने उदयें एंशी अने उहोंत्तेर, ए बे सत्तास्थानक तीर्थंकर केवलीनेज जाणवां, जे जणी सामान्यकेवलीने तो एकत्रीशनो उदय नज होय. ते एकत्रीश मध्ये थी तीर्थकरने वचनयोग रुंधे त्रीशनो उदय होय, तिहां एंशी अने बहोत्तेर, ए बे सत्तास्थानक होय, तथा सामान्यकेवलीने औदारिक योगें वर्ततां त्रीशने उदयें श्रोगणाएंशी ने पंच्चोत्तेर, ए बे सत्तास्थानक होय. • ते त्रीशमध्ये थी वचनयोग रुंधे सामान्यकेवलीने ओगणत्रीशनो उदय होय. तिहां ओगणाएंशी अने पंचोत्तेर, ए वे सत्तास्थानक होय, तथा तीर्थकरने वचनयोग रुंधे त्रीश, तेमांथी श्वासोश्वास रुंधे ओगणत्रीशनो उदय होय. तिहां एंशी ने बहोत्तेर, ए बे सत्तास्थानक होय. एवं योगणत्रीशने उदयें चार सत्तास्थानक होय. ' तथा सामान्यकेवलीने वचनयोग रुंधे उगणत्रीशनो उदय हतो ते मध्ये थी श्वासो. श्वास रुंधे अहावीशना जदये जंगणाएंशी अने पंच्चोत्तेर, ए बे सत्तास्थानक होय. तथा नवना उदयें तीर्थकरने अयोगी गुणगणे एंशी अने बहोत्तेर तथा लेखे समयें नव, ए त्रण सत्तास्थानक होय. तथा सामान्यकेवलीने आपना उदयें अयोगीना हिचरम समय लगें जंगणाएंशी अने पंच्चोत्तर अने बेबे समयें श्राग्नु, एवं त्रण सत्तास्थानक होय. एम संवेधे नांगा त्रीश होय. ए रीतें ए नामकर्मनो बंधोदय सत्ता संवेध सामान्यदेशे कह्यो ॥ इत्यर्थः ॥ ३४ ॥ Page #814 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ उन्ए ॥ अथैतेषां जीवस्थानानि गुणस्थानानि वाश्रित्य, खामी दर्श्यते ॥ हवे अनुक्रमें ए आठ कर्मनी प्रकृतिनां स्थानक अने तेना जांगा चौद जीवस्थानक अने चौद गुणस्थानक श्राश्रयीने स्वामी प्रत्ये निर्णय करीने विशेषादेशे देखाडे बे. तिविगप्प पग गणे, हिं जीव गुणसन्निएसु गणेसु॥ नंगा पउँजियवा, जब जहा संनवो नव ॥ ३५॥ अर्थ-बंध, उदय श्रने सत्ता, ए तिविगप्प के त्रण विकल्प, तेना पगश्गणेहिं के आठ कर्मनी प्रकृतिनां स्थानक एक, बे, इत्यादिक तेने संवेधे जे नांगा उपजे, ते नांगा जीव के चौद जीव स्थानकने विषे अने गुणसन्निएसुगणेसु के चौद गुणस्थानक विषे पूर्वे जे कह्या, ते रीतें तेना अनुसारें नंगापजियवा के जांगा प्रयुंजवा. जबजहासंनवोनवर के जिहां जे नांगो संनवे, तिहां ते नांगो लगामवो ॥ ३५ ॥ ॥ अथ प्रथमजीवस्थानान्यधिकृत्याह ॥ हवे प्रथम चौद जीवस्थानक थाश्रयीने ज्ञानावरणीय तथा अंतरायकर्मना नांगा कहे . तेरससु जीव संखे, वएसु नाणंतराय तिविगप्पो॥ श्कमि ति उ विगप्पो, करणं पश्श्ब अविगप्पो ॥३६॥ अर्थ-तेरससुजीव के एक संझी पर्याप्तो टालीने पहेलां तेर जीवस्थानकने विषे संखेवएसु के संकेचे एटले थोडामांहे घणा जीव नाम कहीये. ते जणी संदेप जीवनेद पाठ कह्यो. तिहां नाणंतराय के एक शानावरणीय अने बीजें अंतराय, ए बे कर्मना बंध, उदय अने सत्ता, ए तिविगप्पो के त्रण विकल्पनो एक नांगो होय. एटले पांचनो बंध, पांचनो उदय श्रने पांचनी सत्ता होय. एना बंध, उदयश्रने सत्ता ध्रुव , ते जणी सर्वने होय. तथा कमि के एक संकी पंचेंजिय पर्याप्ता जीवनेदने विषे तिऽविगप्पो केण्त्रण विकल्प तथा बे विकल्पनो एकेक नांगो होय. एटले पांचनो बंध, पाँचनो उदय अने पांचनी सत्ता, एत्रणनो विकल्प, दशमा गुणगणा लगें होय, अने तेवार पदी ज्ञानावरणीय तथा अंतरायनोबंध नथी माटें पांचनो उदय अने पांचनी सत्ता, एबेनो विकल्प अगीधारमा अने बारमा गुणगणा लगें होय तथा करणंपवय. विगप्पो के करण एटले अव्यमननी अपेदायें संज्ञी जे सयोगी केवली तथा श्रयोगी नवस्थ केवली, तेने विषे ज्ञानावरणीय अने अंतरायनो बंध, उदय अने सत्तानो एक पण विकल्प नथी माटें अविकल्प बे. अहींयां अव्यमननी अपेक्षायें केवलीने संझी कह्यो. चूर्णिकारें असंझी कह्यो . "मणकरणं केवलिणो, विश्रवि तेणसनिए रोवुच्चंति ॥ मणोविनाणपडुच्च, तेणसन्निणोनहवंति” ॥ इति ॥ ३६ ॥ Page #815 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ ॥ छाथ दर्शनावरणजीवस्थानेष्वाह || हवे दर्शनावरणीयना बंधोदय सत्तास्थानकना जांगा चौद जिवस्थानकने विषे विचारे बे. ॥ ქათ तेरे नव च पणगं, नव सत्ते गम्मि जंगमिक्कारा ॥ वेणि प्रान गोए, विजय मोदं परं वुद्धं ॥ ३७ ॥ 60 अर्थ - तेरेनवच के० संज्ञी पंचेंद्रिय पर्याप्ता विना तेर जीवस्थानकने विषे दर्शनावरण कर्मनो नवनो बंध, चारनो उदय ने नवसत्ते के० नवनी सत्ता, तथा नवनो बंध, पणगं के० पांचनो उदय ने नवनी सत्ता, ए बे जांगा होय. श्रने एगम्मि जंग मिक्कारा के एक संज्ञी पंचेंद्रिय पर्याप्ता जीवस्थानकने विषे पूर्वे जे दर्शनावरणीयना संवेधें सामान्यें गीर जांगा कहा, ते श्री आर अहींथां लेवा. दवे वेणीगो के वेदनीय, श्रयु छाने गोत्र, ए त्रण कर्मने विषे बंध, उदय ने सत्तायें प्रकृतिनां स्थानक ने जांगा ते श्रागमोक्त प्रकारें जीवस्थानकने विषे कही ने विजयमोदं परं के० पठी मोहनीय कर्मना जांगा वहेंचीने कदेशे ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ ३७ ॥ ॥ अथ वेदनीयगोत्रयोर्जंग ज्ञानार्थ मियमंतर्नाष्यगाथा. हवे वेदनीय छाने गोत्रकर्मना जांगा चौद जीवनेदें वर्हेचवाने जाष्यनी गाथा कहे . ॥ पत्तग सन्निरे, ठ चक्कं च वेयणिय जंगा ॥ सत्तय तिगं च गोए, पत्ते जीवठाणेसु ॥ ३८ ॥ अर्थ - पात्तसन्नि के० संज्ञी पंचेंद्रिय पर्याप्ताने विषे वेदनीयकर्मना श्रह के० श्राव जांग जे पूर्वे सामान्यपणे कला, ते वहीं विशेषपणे लेवा, तथा इवरे के० ए संज्ञी पंचेंद्रिय पर्याप्ता विना बीजा तेर जीवस्थानकें १ अशातानो बंध, अशातानो उदय ने बेहुनी सत्ता, २ घशातानो बंध, शातानो उदय ने बेहुनी सत्ता, ३ शातानो बंध, अशातानो उदय ने बेहुनी सत्ता, ४ शातानो बंध, शातानो उदय ने बेहुनी सत्ता, ए चक्कंचवेय पियगंगा के० ए चार जांगा वेदनीयना तेर जीवनेदें होय. अहींयां सयोगी केवलीने प्रयोगी केवलीनी पेरें द्रव्यमनना संबंध जणी संज्ञी लेखवतां विरोध नहीं. अन्यथा श्रागला आठ मांहेला चार जांगा तो केवलीनेज होय, ते कारण माटें पर्याप्त संज्ञीने विषे वेदनीयना आठ नांगा का aai विरोध नथी. तथा सत्तयतिगंचगोए के० गोत्रकर्मना जे पूर्वे बंध, उदय ने सत्तानो संवेध करतां सामान्यादेशें सात जांगा कह्या, तेज यहीं थां पर्याप्ता सन्निपंचेंद्रियने सात जांगा लेवा. For Private Personal Use Only Page #816 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ.६ ए तेमांहे नीचैर्गोत्रनो बंध, निचैगोत्रनो उदय, नीचैर्गोत्रनी सत्ता, ए प्रथम जांगो तेज, वाजमांहे घणो काल रहेता जे जीवें उच्चैर्गोत्र जवेल्युं होय, ते जीव, तेज, वाउमांहेथी आवी पर्याप्ता संझी पंचेंजियपणे अवतरे, तेने केटलाएक काल पर्यंत, ए नांगो पामी, परंतु बीजा जीवने विषे ए नांगो न पामीयें, तथा बीजा नांगा जेम पूर्वे कह्या, तेम अहीश्रां पण लेवा. तथा बीजा तेर जीवन्नेदें १ नीचैर्गोत्रनो बंध, नीचनो उदय श्रने नीचनी सत्ता, ५ नीचनो बंध, नीचनो उदय अने बेहनी सत्ता, ३ जंचनो बंध, नीचनो उदय अने बेहुनी सत्ता, ए त्रण नांगा होय. तेमाहे पहेलो नांगो तो तेज, वाजमांडेथी उच्चैर्गोत्र नवेलीने बीजे जीवनेदें अवतरे, तेनी अपेक्षायें लेवो, परंतु बीजाने न होय. तथा उच्चैर्गोत्रनो उदय तो तिर्यंचगतिमाहे तथा अपर्याप्तानेविषे न होय, तेमाटें बीजा चार नांगानो तेर जीवनेदें निषेध जाणवो. परंतु जे जांगाने विषे नीचनो उदय होय, ले यहींयां लेवा. पत्तेअंजीवाणेसु के० ए तेर जीवस्थानकने विषे प्रत्येकें त्रण नांगा होय ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ ३०॥ . . ॥ श्रथ आयुग्नंगप्ररूपणार्थमियमंत॥ष्यगाथा ॥ हवे ए चौद जीवनेदें श्रायुःकर्मना नांगा प्ररूपवाने अर्थे नाष्यनी गाथा लखीयें बैयें. ॥ पऊत्ता पजत्तग, समणा पजत्त अमण सेसेसु ॥ अहावीसं दसगं, नवगं पणगं च आनस्स ॥ ३॥ अर्थ-पात्तापऊत्तगसमणा के पर्याप्ता अने अपर्याप्तासमणा एटले मन सहित तेने संज्ञी कहीयें ,एटले संझी पंचेंजिय पर्याप्ता ने बीजा संझी पंचेंजिय अपर्याप्ता जाणवा. तिहांसंझी पंचेंजिय पर्याप्तामांहे आयुःकर्ममा नांगा, अहावीसं के० अहावीश होय. तेमध्ये नारकीना पांच, तिर्यंचना नव, मनुष्यना नव, अने देवताना पांच, एम अहावीश नांगा पूर्वे कह्या ने तेम जाणवा. तथा संज्ञी पंचेंजिय अपर्याप्तामांहे श्रायुःकर्मना नांगा दसगं के० दश होय. केम के ए अपर्याप्ता लब्धियी जाणवा. ते लब्धि अपर्याप्ता तो मनुष्य श्रने तिर्यंचज होय. तथा देव अने नारकी, ए बेहु लब्धि अपर्याप्ता नज होय, माटें देवताना पांच अने नारकीना पांच, एवं दश जांगा पूर्वोक्त अहावीशमांदेयी टले, तेवारें अढार नांगा रहे. तेमध्येंथी वली सन्निश्रा अपर्याप्ताने देव नारकीनो बंध न होय. तेमाटें, देव नारकीना बंध प्रायोग्य जे मनुष्य तिर्यंचने विष जे आयुःकर्मना नव नव जांगा कह्या बे तेमध्ये थी पण एक देवायुनो बंध, तिर्यंचायुनो उदय अने बेहु आयुनी सत्ता; बीजो नरकायुनो बंध, तिर्यगायुनो उदय अने बेहु आयुनी सत्ता, ए बे नांगा Page #817 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ श्रायुबंधकालावस्थाना जाणवा. तथा उत्तरावस्थायें बंधन्यशून्य काले तिर्यगायुनो उदय अने देवायु तथा तिर्यगायुनी सत्ता, चोथो तिर्यगायुनो उदय श्रने नरकायु तथा तिर्यगायुनी सत्ता, ए चार नांगा तिर्यंचना, तेवाज चार नांगा मनुष्यमांहेला, एवं श्राव लांगा टले, तेवारें शेष दश जांगा रहे, तिहां तिर्यंचगतिमध्ये एक आयुबंधथी पूर्वावस्थानो तथा बे बंध कालावस्थाना अने एक तिर्यगायुनो उदय, तथा बे तिर्यगायुनी सत्ता, बीजो तिर्यगायुनो उदय, अने तिर्यग् तथा मनुष्यायुनी सत्ता, ए बे उत्तरावस्थायें वंधशून्य कालें होय. एवं पांच तिर्यंचगतिना, तेमज पांच मनुष्यगतिमाहेला, एवं दश जांगा श्रायुना संज्ञी अपर्याप्तामांहे लाने. तथा पत्तश्रमण के मनरहित एटले पर्याप्ता असंझी पंचेंडियने विषे नवगं के श्रायुःकर्मना नव जांगा जे पूर्वे तिर्यंचगतिमध्ये सामान्य कह्या, ते अहीश्रां पण सेवा, केमके देव श्रने नारकी तो असन्नीया होयज नहीं, अने मनुष्य पण असन्नि पर्याप्तो न होय, मात्र तिर्यचज असन्नि पर्याप्तो होय, तेने चारे गतिना आयुनो बंध होय, माटें एने तिर्यंचगति मांदेला नवे नांगा होय. : ए रीते एक संझी पंचेंजिय पर्याप्तो, बीजो संझी पंचेंजिय अपर्याप्तो, त्रीजो असंझी पंचेंजिय पर्याप्तो, ए त्रण जीवनेद टाली, सेसेसु के शेष रह्या जे अगीबार जीवनेद, तेने विषे प्रत्येकें प्रत्येकें पणगंचआउस्स के आयुःकर्मना पांच पांच नांगा होय. ए श्रगीबारे जीवस्थानकें तिर्यंच होय, अने ते देव तथा नारकीर्नु श्रायु न बांधे, तेमाटें श्रायुबंध कालथी पूर्वे एक नांगो तथा श्रायुबंध कालें बे गतिना बे लांग अने आयु. बंध काल पड़ी बे लांगा, एवं पांच नांगा होय. एमां असंझी पंचेंद्रिय संमूर्छिम अपर्याता मनुष्य पण होय, तेवारें पांच तिर्यंचना अने पांच तेना पण जांगा उपजे. एवं दश नांगा उपजे पण ते अहीं सूत्रकारें कह्या नथी, ते शुं जाणीयें शा हेतुयें विवदा करी नहीं ? ते विचार, ॥ इति ॥ ३५ ॥ ॥अथ जीवस्थानेषु मोहनीयकर्माह॥हवे चौद जीवस्थानकने विषमोहनीयकर्मना बंध, __उदय अने सत्तानां स्थानकनो संवेध विवरीने कहे . ॥ असु पंचसु एगे, एग उगं दसय मोह बंध गए॥ तिग चन नव उदय गए, तिग तिग पन्नरस संतंमि॥४०॥ अर्थ-अहसुपंचसुएगे के श्राप जीवस्थानकने विषे तथा पांच जीवस्थानकने विषे अने एक जीवस्थानकने विषे अनुक्रमें एगपुगंदसय के एक, बे अने दश, मोहबंधगए के० मोहनीयप्रकृतिनां बंधस्थानक होय तथा अनुक्रमें ते एकेका बंध. Page #818 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ ए३ स्थानकें तिगचजनवउदयगए के त्रण, चार अने नव, उदयनां स्थानक होय.अने अनुक्रमें तिगतिगपन्नरससंतंमि केत्रण,त्रण अने पंदर सत्तानां स्थानक होय.॥इत्यक्षरार्थः सूक्ष्म एकेंजिय पर्याप्ता अने अपर्याप्ता,३बादर एकेंघिय अपर्याप्ता, बैंजिय अपप्तिा,५ तेंघिय अपर्याप्ता,६ चौरिंडय अपर्याप्ता,असंझी पंचेंद्रिय अपर्याप्ता,अनेन्संज्ञी पंचेंजिय अपर्याप्ता, ए था जीवनेदें एकज बांवीश प्रकृतिनुं बंधस्थानक होय. जे जणी ए लधिनी अपेक्षायें अपर्याप्ता कह्या , माटें तेने तो मिथ्यात्वज होय. ते मिथ्यात्वें तो बावीशनोज बंध होय, तिहां त्रण वेदें बे युगल साथे नांगा ब प्रर्वली पेरें लेवा, तथा आठ, नव श्रने दश, ए त्रण उदयस्थानक होय. अहींयां सातनुं उदयस्थानक न होय, केमके सातनो उदय अनंतानुबंधीया विना होय रे ते तो उपशमश्रेणीथी पडतां मिथ्यात्वे आवे, तिहां श्रावलिकामात्र लगें होय, ए श्राव जीवनेदे श्रेणी नथी माटें सातनो उदय न होय, तथा एकेका उदयें अहावीश, सत्तावीश अने बबीश, ए त्रण सत्तास्थानक होय. बादर एकेंजिय तथा त्रण विकलेंघिय अने असन्नीया पंचेंजिय, ए पांच पर्याप्ता जीवन्नेदने विषे वावीश, एकवीश, ए बंधस्थानक होय. तिहाँ लब्धि पर्याप्ता केटलाएकने करण अपर्याप्तावस्थायें सास्वादननावें मिथ्यात्वनो बंध न होय, तेवारें एकवीशनो बंध पामीये. अहीं बावीशना बंधे सात, आठ, नव अने दश, ए चार उदयस्थानक होय. अने एकेका उदयें अहावीश, सत्तावीश अने बबीश, ए त्रण सत्तास्थानक होय, तथा एकवीशने बंधे सात, आप अने नव, ए त्रण उदयस्थानक होय, अने ते एकेके उदयस्थानकें एकेकुं अहावीशनुं सत्तास्थानक होय. केमके एकवीशनो बंध, ते सास्वादनेंज होय. तिहां सास्वादने तो निश्छे अहावीशनुज सत्तास्थानक होय. तथा एक संझीपंचेंजिय पर्याप्ताना जीवनेदनेविषे दशे बंधस्थानक होय, अने नवे उदयस्थानक होय, तथा पंदरे सत्तास्थानक होय. तेनुं खरूप अने जांगा पूर्वली पेरें जाणी लेवा॥श्त्यर्थः॥४०॥ ॥अथ नामकर्म जीवस्थानेवाह॥हवे चौद जीवस्थानकने विष नामकर्मना बंध, उदय अने सत्तानां स्थानक बे गाथायें करी कहेले. ॥ पण जुग पणगं पण चज, पणगं पणगा हवंति तिमेव ॥ पण बप्पणगंज, प्पणगं अहह दसगंति ॥४१॥ सत्ते व अपजता, सामी सुहुमाय बायराचेव ॥ विगलिंदि आ तिन्निन, तदय असन्नी अ सन्नी॥४३॥ १०० Page #819 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ अर्थ-अहींआ प्रथम गाथायें बंध, उदय अने सत्तानां स्थानक कहे , अने बीजी गाथायें तेना स्वामी कहे , माटें बे गाथानो अर्थ नेलो जोमीयें, एटलेपणपुग के पांच बंधस्थानक, अने बे उदयस्थानक, पणगं के पांच सत्तास्थानक, एना सत्तेवश्रपड़तासामी के सात अपर्याप्ता जीवनेद, ते एना खामी जाणवा. तथा पणचउप णगं के पांच बंधस्थानक, चार उदयस्थानक, अने पांच सत्तास्थानक, तेना स्वामी सुहुमाय के० सूदम एकेंछिय पर्याप्ता जाणवा, तथा पणगाहवं तितिमेव के त्रणे पांच पांच स्थानक जाणवां एटले पांच बंधस्थानक, पांच उदयस्थानक अने पांच सत्तास्थानकना स्वामी होय, ते कोण होय? तोके-बायराचेव के बादर एकेंघिय पर्याप्ता एना स्वामी होय, तथा पणछप्पणगं के० पांच बंधस्थानक, ब जदयस्थानक अने पांच सत्तास्थानक, एना स्वामी विगलिं दियाउँतिनिउ के बेंजिय, तेंज्यि अने चौरिंजिय, ए त्रणे विकलेंज्यि पर्याप्ता जाणवा. तथा बचप्पणगं के बंधस्थानक, उदयस्था. नक अने पांच सत्तास्थानक, एना खामी असन्नीथ के असंझी पंचेंजिय पर्याप्ता जीव जाणवा. तहय के तेमज अहदसगंति के पाठ बंधस्थानक, थाउ उदयस्थानक अने दश सत्तास्थानक, एना स्वामी सन्नीथ के संझी पंचेंजिय पर्याप्ता जाणवा ॥ इति गाथाध्यादरार्थः॥४१॥४॥ हवे विस्तारें अर्थ लखीयें बैयें. अपर्याता सूक्ष्मादिक सात जीवनेद, तेने देव, नरकगति प्रायोग्य बंध न होय, तेमाटें थहावीश, एकत्रीश अने एक, ए त्रण बंध. स्थानक विना त्रेवीश, पच्चीश, बबीश, उंगणत्रीश, अने त्रीश, ए पांच बंधस्थानक तिर्यंच अने मनुष्य प्रायोग्यज होय. तिहां एकेका अपर्याप्ताने विषे (१३५१७ ) बंध नांगा उपजे, तथा ए सात जीवन्नेदमाहेला अपर्याप्ता सूदम अने बादर एकेंजिय, ए बे जीवन्नेदने विषे एकवीश अने चोवीश, ए बे उदयस्थानक होय, तिहां एकवीशने उदयें सर्व अशुल पद नणी एकज नांगो होय. तथा चोवीशने उदयें प्रत्येक अने साधारणना विकल्पं बे नांगा होय. एम बेहुना मली एकेका जीवनेदें त्रण त्रण नांगा होय. अने शेष पांच अपर्याप्ताना जीवन्नेदें एकवीश अने बीश, ए वे बे उदयस्थानक प्रत्येकें होय. अहींां बबीशना उदयमांहे साधारणनो उदय नथी, माटें एकेका उदयें एकेक नांगोज उपजे, तेथी बन्ने उदयना बे बे नांगा एकेका जीवनेदें होय, तथा सन्नीथा अपर्याप्तामां बे तिर्यंच पंचेंजियना अने बे मनुष्यना, एम चार नांगा प्रत्येकें होय. ए सात अपर्याप्ता जीवन्नेदें प्रत्येकें बाणु, अध्याशी, ब्याशी, एंशी अने अहोत्तेर, ए पांच पांच सत्तास्थानक होय. अहींयां तिर्यंचगति Page #820 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ एय मांहे जिननामनी सत्ता न होय, माटे त्र्याणु अने नेव्याशी, ए बे सत्तास्थानक न होय. जे आहारकचतुष्क संयम प्रत्ययिक बांधीने वली मिथ्यात्वे गयो होय, तेने जिहांसुधी आहारकचतुष्क उवेले नहीं तिहांसुधी बाणुनी सत्ता होय अने चोक उवेल्या पली अध्याशीनी सत्ता होय तथा तेज, वाउमाहे मनुष्यधिक उवेलीने ए स्थानकें अवतस्यो होय तेनी अपेक्षायें अहोत्तेरनुं सत्तास्थानक लेवु. एमज एंशी तथा ब्याशी, ए सर्व सत्तास्थानकनुं स्वरूप अने नांगा उपजाववा ते पूर्वली पेरें जाणवा. तथा सूक्ष्म एकैप्रिय पर्याप्ताने २३-२५-२६-२५-३०, ए पांच बंधस्थानक होय. 'एने तिर्यंच, मनुष्यमांहेज जावू डे माटे तत्प्रायोग्य एज बंधस्थानक बे. अहीं बंधना जांगा (१३५१७) होय. एने २१-२४-२५-२६, ए चार उदयस्थानक होय. तिहां एकवीशने उदयें एक नांगो, चोवीशने उदयें बे, पच्चीशने उदय बे अने बबीशने उदयें बे, एम चार उदयस्थानके नांगा सात होय. तथा प्रत्येके एकेका उदयस्थानके ए-10७६-10-30, ए पांच सत्तास्थानक होय. तेमध्ये तेन वायु विना बोजा सर्व जीव शरीर पर्याप्तियें पर्याप्ता थका निश्चे मनुष्यहिक बांधे, माटे ते ठिक उतां अहोत्तेरनुं सत्तास्थानक न होय. प्रत्येक पर्याप्ता जीवमांहे पण तेज, वायु विना बीजा सर्व जीवने पच्चीश अने ब्बीश, ए बे उदय साधारण पद सहित जे माटे ए स्थानकें अहोत्तेर विना बीजां चार सत्तास्थानक होय. ए पच्चीश तथा बबीशनो उदय तो शरीर पर्याप्तियें पर्याप्तानेज होय, तेमाटे साधारण सूक्ष्मपर्याप्ताने पच्चीश, बबीशने उदयें बहोत्तेरनी सत्ता न पामीयें, अने प्रत्येक पदमाहे तेउ तथा वायु नेला आव्या, ते माटें ते अपेदायें प्रत्येकमांहे अहोत्तरनी सत्ता पामीयें. ए बे नांगे चार सत्तास्थानक श्रने पांच लांगे पांच सत्तास्थानक होय. तिहां बाणुनुं सत्तास्थानक तो श्राहारक बांधी मिथ्यात्वें गयो, तिहां थाहारकचतुष्कनी सत्ता बतां मिथ्यात्वने वशे सूक्ष्ममांहे अवतरे, तेनी अपेक्षायें लेवो. तथा बादर एकेंजियपर्याप्ताने विषे पण २३-२५-२६-ए-३०, ए पांच बंधस्थानक तिर्यंच, मनुष्य प्रायोग्य जाणवा. केमके एने मनुष्य अने तिर्यंच, ए बे गति मध्ये जावू डे माटें तत्प्रायोग्य बांधे, तिहां नांगा १३ए१७ होय. अहीं जदयस्थानक २१-२४-२५-२६-२७, ए पांच होय. तिहां एकवीशने उदयें बे, चोवीशने उदयें पांच, पञ्चीशने जदयें पांच, बबीशने जदयें अगीआर अने सत्तावीशने उदय ब. एम सर्व मली पांच उदयस्थानकें नांगा जंगणत्रीश होय. अने एश--०६-0-3, ए पांच सत्तास्थानक होय. अहींयां पञ्चीश अने बबीशने उदयें प्रत्येक अने अयशःकीर्ति साथे एकेको नांगो बे, ते बे स्थानकना बे लांगा तथा एकवीशना उदयना वैक्रिय वायु विनाना नांगा तथा चोवीशना उदयना बे लांगा, एम आव नांगाने विषे Page #821 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए६ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ पांच सत्तास्थानक होय. अने शेष एकवीश जांगाने विषे अठोत्तेर विना बाकीनां चार सत्तास्थानक होय. __ तथा त्रण विकलेंजिय पर्याप्ताने प्रत्येंकें त्रेवीश, पञ्चीश, बबीश, गणत्रीश, अने त्रीश, ए पांच बंधस्थानक मनुष्य तिर्यंच प्रायोग्य होय. एने देव तथा नारक, एबे गतिमध्ये जावू नथी तेथी बीजां बंधस्थानक न होय. अहीं नांगा १३५१७ तथा १२६-२-ए-३०-३१-ए उदयस्थानक होय. तिहां नांगावीश पूर्वे कह्या बे, तेरीतें जाणवा, तथा ए-1-६-10--ए पांच सत्तास्थानक होय. तेमध्ये एकवीशना उदयना नांगा बे तथा बबीशना उदयना नांगा बे, एवं चार नांगे तो प्रत्येके पांच पांच सत्तास्थानकज होय. केमके तेउ अने वायुमांहेथी श्रावेला विकलेंजिय पर्याप्ताने पण करण अपर्याप्तापणे कियत्काल लगें अमोत्तेरनुं सत्तास्थानक पामीयें, पड़ी चार सत्तास्थानक होय, अने शेष शोल नांगें एक अठोत्तर वर्जीने चार चार सत्तास्थानक प्रत्येके होय. जे जणी शोल नांगा शरीरपर्याप्तियें पर्याप्तानेज होय. तिहां तो अवश्य मनुष्यछिकनो बंध होय तेवारें तेने अठोत्तेरनी सत्ता न होय, बाकी चार सत्तास्थानक होय. ए रीतें बेंजिय, तेंजिय श्रने चौरिंजिय पर्याप्ताने एके. काने प्रत्येकेंड उदयस्थानकें वीश जांगा होय, तेमांहे चार चार नांगा, पांच पांच सत्तास्थानकवाला अने बीजा शोल शोल नांगा, चार चार सत्तास्थानकवाला जाणवा. तथा असन्नीया पंचेंजिय पयाप्ताने २३-२५-२६-२७-ए-३०- ए ब बंधस्थानक होय. जे जणी देव अने नरकगति प्रायोग्य अहावीशनो बंध पण एने होय. केम के ए मरीने चारे गतिमध्ये जाय बे ते माटें तत्प्रायोग्य बंध होय. अहीं नांगा १३एश्६ एने १-२६-२७-ए-३०-३१- ए उदयस्थानक होय. ते उदयना नांगा ४ए०४ होय. ए वैक्रिय न करे माटें वैक्रियनो नांगो न होय. तेमध्ये एकवीशना उदयना नांगा श्राम अने बबीशना उदयना नांगा (२७), एवं (शए६ ) नांगे बाणु, अठ्याशी, ब्याशी, एंशी अने अठोत्तेर, ए पांच सत्तास्थानक होय, अने शेष (४६०७) नांगा शरीर पर्याप्ति पूरी कस्या पठी होय, ते नणी एक अहोत्तेर विना बाकीनां चार सत्तास्थानक होय. तथा सन्नीश्रा पंचेंघिय पर्याप्ताने २३-२५-२६-२७-२५-३०-३१-१-ए आवे बंधस्थानक होय. केम के एमां मनुष्य पण आव्या माटे तेने सर्वे बंधस्थानक होय, तिहां नांगा १३ए४५ अने २१-२५-२६-२७-२-ए-३०-३१-ए आठ उदयस्थानक होय. २०-२४-७-ए, ए चार न होय, केमके अहींआं केवलीने नाव मनशून्य नण। सन्नीआमाहे गएया नहीं तेथी २०-७-ए, ए त्रण केवलीनां न गएयां, अन्यथा Page #822 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ ए अगीबार उदयस्थानक कहेत, अने बारमो चोवीशनो उदय तो एकेजियनेज होय, बीजाने न होय, तेथी तेना अगीपार जांगा टले तथा एकवीशने उदयें सात अपर्याप्ताना सात नांगा अने संझीश्रा असंझीया नेला गणतां पंचेंख्यितिथंचनो एक नांगो तथा मनुष्यअपर्याप्तानो एक तथा बबीशने उदयें, त्रण विकलेंजियना त्रण, श्रने असन्नी पंचेंख्यितिथंच तथा मनुष्यना बे, एम पांचना पांच नांगा अप. र्याप्ताना टले, तथा वीश, श्राप अने नव, ए त्रण उदयना त्रण नांगा, एवं सर्व थश्ने अहावीश नांगा पूर्वोक्त उदयनांगा { ए१ ), मांथी कांढतां शेष (७७६३ ) नांगा उदयस्थानकना सन्नीया पंचेंजिय पर्याप्ता जीवांहे पामीयें, तेमध्ये एकवीशना उदयना (४०), बबीशना उदयना ( ५५५ ), एवं ( ६३५ ) नांगे प्रत्येके पांच सत्तास्थानक कहेवां. अने बीजां चार सत्तास्थानक ते सामान्यादेशे नव श्रने आउना उदय विनां दश, सत्तास्थानकना जीवनी अपेक्षायें लेवा. हवे संवेध लखीयें बैयें. सूक्ष्म अपर्याप्ता एकेंजियने त्रेवीशने बंधे, एकवीशने उदयें पांच सत्तास्थानक, तेम चोवीशने उदय पण पांच सत्तास्थानक,एवं बे उदयनामली दश सत्तास्थानक थयां. तथा पच्चीशने बंधे पण एज बे उदय होय, तिहां पण सत्तास्थानक दश होय. तेम बबीश, उगणत्रीश बने त्रीश, ए त्रण बंधे पण दश दश नांगा करतां पांच स्थानकें थर, पञ्चाश सत्तास्थानक होय. तथा ए सूक्ष्म अपर्याप्ता एकेंजिय विना शेष ब अपर्याप्ताना जीवस्थानकें पण एज रीतें पञ्चाश पञ्चाश बंध, उदय अने सत्ता संवेधे नांगा होय, पण एटबुं विशेष जे बेंजियादिक पांच अपर्याप्ताने चोवीशना उदयने स्थानकें बबीशनो उदय लेवो. ___ तथा सूक्ष्म एकेंजिय पर्याप्ताने पण एहीज पांच बंधस्थानक ले. तिहां एकेक बंधस्थानकें १-२४-२५-२६, ए चार उदयस्थानक गणतां वीश थयां. ते एकेका उदयस्थानके पांच पांच सत्तास्थानक गणतां एकसो नांगा थाय. तथा बादर एकेंघिय पर्याप्ताना एहीज पांच बंधस्थानक, तिहा एकेके बंधस्थानकें १-२४-२५-२६-२७, ए पांच उदयस्थानक गणतां पच्चीश उदयस्थानक थाय, तेमाहे पांच उदयस्थानके अहोत्तेर विना चार चार सत्तास्थानक होय. तेना वीश नांगा 'अने वीश उदयस्थानकें पांच पांच सत्तास्थानक लेतां सो नांगा थाय. एम शरवाले एकसो ने वीश बंध नदय सत्ता संवेधे नांगा होय. तथा बेंजियपर्याप्तामांहे चोवीशने बंधे ब उदयस्थानक होय, ते माहेला एकवी. श अने बबीश, ए बे उदयें पांच पांच सत्तास्थानक होय. अने २७-२५–३०-३१ए चार उदयस्थानके चार चार सत्तास्थानक होय. शरवाले बबीश नांगा एक Page #823 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ១ប០ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ बंधस्थानकें होय. एम पांच बंधस्थानकना एकसो ने त्रीश जांगा बेंजिय पर्याप्तान थाय. तेम तेंजिय पर्याप्ताना तथा चौरिंजिय पर्याप्ताना पण एटलाज नांगा जाणवा. तथा श्रसन्नी पंचेंजिय पर्याप्ताने पण त्रेवीश, पच्चीश, बबीश, उगणत्रीश अने त्रीश, ए पांच बंधस्थानकें तो प्रत्येके विकलेंजियनी पेरें बबीश बबीश जांगा गणतां (१३०) सत्तानां स्थानक थाय, अने अहावीशने बंधे त्रीश अने एकत्रीश, ए बे उदयस्थानक होय. तिहां एकेका उदय बाणु, अठ्याशी अने ज्याशी, ए त्रण सत्तास्थानक होय. तेना नांगा थाय. जे जणी अहावीशनो बंध, देव तथा नरकगति प्रायोग्यज होय, तिहां तो एंशी अने अमोत्तेरनी सत्ता न होय, केमके देव नरकगति प्रायोग्यनो बंध तो पूर्ण पर्याप्तानेज होय. एम शरवाले असंझी पंचेंजियने बंधस्थानके थक्ष उदय सत्ताना नांगा ( १३६) थाय. तथा पर्याप्ता संज्ञी पंचेंजियने त्रेवीशने बंधे तो जेम पूर्वे डबीश सत्तानां स्थानक असंझीने कह्यां, तेम अहींश्रां पण जाणवां, तथा पच्चीशने बंधे एकवीश तथा बबीशने उदयें पांच पांच सत्तास्थानक होय, तथा पच्चीशने उदयें अने देव नारकीने सत्ता. वीशने उदयें, ए बे उदयें बाणु अने अध्याशी, ए बेबे सत्तास्थानक होय, एवं चौद थयां, तथा शेष चार उदयस्थानकें चार चार सत्तास्थानक होय. एम सर्व मली पच्ची. शने बंधे त्रीश सत्तास्थानक होय, तेवीज रीतें बबीशने बंधे पण त्रीश सत्तास्थानक होय.तथा अहावीशने बंधे श्राप उदयस्थानक होय, तेमध्ये एकवीश, पच्चीश, बबीश, सत्तावीश, अहावीश अने जंगणत्रीश, ए ड उदयें बाणु अने अध्याशी, ए बेबे सत्तास्थानक होय. तथा त्रीशने उदयें बाणु, अध्याशी, व्याशी अने एंशी, ए चार सत्तास्थानक होय. अने एकत्रीशने उदयें बाणु, अध्याशी, अने बयाशी, ए त्रण सत्तास्थानक होय. एम सर्व अहावीशने बंधे उगणीश सत्तास्थानक होय. तथा जंग. पत्रीशने बंधे पण पच्चीशना बंधकनी पेरें सत्तास्थानक त्रीशसेवांवली विशेष बीजां पण , ते कहीयें बैयें. अविरति सम्यकदृष्टिने देवगति प्रायोग्य उंगणत्रीश बांधतां १-२६-२७-२५-३०, ए पांच उदयें ए३-ए ए बे बे सत्तास्थानक होय, तथा एज बे बे सत्तास्थानक पच्चीश तथा सत्तावीशने उदयें वैक्रीय देशविर तिने पण होय, अथवा आहारक साधुने पण तेहीज बे उदयें व्याणुनी सत्ता होय. एवं चौद सत्तास्थानक पूर्वला त्रीशमांहे मेलवतां गणत्रीशने बंधे चुम्मालीश सत्तास्थानक होय. एम त्रीशने बंधे पण पञ्चीशना बंधनी पेरें त्रीश सत्तास्थानक लेवां, ते उपर जे विशेष ले, ते कहे डे. मनुष्यगति प्रायोग्य, जिननाम सहित त्रीश बांधतां एकवीश, पच्चीश, सत्तावीश, Page #824 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ जएए अहावीश, गणत्रीश अने त्रीश, ए उदयें ए३-जए ए बेबे सत्तास्थानक खेतां बार नांगा थाय. ते नेलतां बेंतालीश सत्तास्थानक त्रीशने बंधे थाय. तथा एकत्रीश बांधनारो जिननाम तथा आहारकहिक सहित बांधे, तेवारें तेने एकज व्याणुनी सत्ता होय, तथा एकने बंधे श्राप सत्तास्थानक होय. तिहां ए३-ए-नए-1, ए चार उपशमश्रेणीनी अपेक्षायें तथा Go-ए-७६-७५-ए चार दपकश्रेणीनी अपेक्षायें होय. तथा बंधने अनावे पण एज आठ सत्तास्थानक होय, परंतु एटटुं विशेष जे प्रथमनां चार सत्तास्थानक अगीआरमे गुणगणे आगली तेर प्रकृतिना दय कस्या पली क्षीणमोहने लेवा. एम सर्व मली पर्याप्ता संझीपंचेंजियने (२७) सत्तास्थानक होय , अने जो अव्य मनने संबंधे केवलीने पण सन्नी कहींयें, तो तेना वली बबीश सत्तास्थानक मेलवतां (२३४) सत्तास्थानक, संझीपंचेंपिय पर्याप्तानां थाय ॥४॥ ॥ श्रथ गुणस्थानान्यधिकृत्याह ॥ हवे आठ कर्मना बंधोदय सत्तास्थानकना नांगा, चौद गुणगणा श्राश्रयीने कहे .॥ नाणं तराय ति विदम, वि दससु दो हुँति दोसु गणेसु ॥ मिनासाणे बीए, नव चन पण नव य संतंसा ॥४३॥ अर्थ-मिथ्यात्वथी मामीने दशमा सूक्ष्मसंपराय गुणगणा सुधीना दससु के० दशे गुणगणाने विषे नाणंतराय के ज्ञानावरणीय अने अंतराय, ए बेहु कर्मनो तिविहमवि के त्रिविध एटले पंचविध बंध, पंचविध उदय, अने पंचविध सत्ता, ए नांगो होय. तेवार पड़ी दोसुगणेसु के उपशांतमोह अने क्षीणमोह, ए बे गुणगणे बंधने अनावें दोहुँति के मुविध एटले पांचनो उदय अने पांचनी सत्ता होय, अने तेवार पड़ी तो उदय अने सत्ता पण न होय. हवे बीए के बीजु दर्शनावरणीय कर्म तेनो मिछासाणे के मिथ्यात्व अने सास्वादन गुणगणे नव के नवविध बंध, चउपण के० चतुर्विध अथवा पंचविध उदय श्रने नवयसंतंसा के० नवविध सत्ता होय. ए बे गुण. गणे थीणबीत्रिकनुं नियमाबंध होय माटें नवविध बंध कह्यो. अहीं बे नांगा थाय. एक नवविध बंध, चतुर्विध उदय अने नवविध सत्ता. बीजो नवविध बंध, पंचविध उदय अने नवविध सत्ता. ए बे नांगा होय ॥ इति समुच्चयार्थः ॥४३॥ मिस्सा नियट्टी, बचनपण नवय संत कम्मंसा ॥ चन बंधतिगे चन पण, नवंस उसु जुअल बस्संता॥४४॥ अर्थ-मिस्साइनियट्टी के मिश्रगुणगणाथी मामीने निवृत्तिकरण नामे श्रापमुं गुणगणुं बे, तेना पहेला नाग लगें, श्रीणहीत्रिकनो बंध टल्यो माटें बच्चउपणनव. Page #825 -------------------------------------------------------------------------- ________________ G00 सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ यसंतकम्मंसा के बनो बंध, चार तथा पांचनो उदय श्रने नवविध सत्ता होय. एटले बनो बंध, चारनो उदय अने नवनी सत्ता, ए प्रथम नांगो; तथा बनो बंध, पांचनो उदय अने नवनी सत्ता, ए बीजो नांगो; ए बे नांगा निश्चे होय. तेवार पड़ी अपूर्वकरणना शेष नाग अने अनिवृत्तिकरण तथा सूक्ष्मसंपराय, ए त्रण गुणगणे निशा अने प्रचला, ए बे पण बंधथकी टली माटें चनबंध के चतुर्विधबंध, चतुर्विध उदय श्रने नवविध सत्ता, ए तिगे के बंध, उदय अने सत्ता, त्रणेनो एक नांगो तथा चपणनवंस के चतुर्विधबंध, पंचविध उदय थने नवविध सत्ता. अहीं अंशशब्दें सत्ता जाणवी. ए बीजो नांगो. ए बे नांगा त्रण गुणगणे होय. ए बे मांगा उपशमश्रेणीनी अपेक्षायें जाणवा. हवे दपक श्रेणीनी अपेक्षायें कहे . उसु के नवमे श्रने दशमे, ए बेगुणगणे जुअल के बंध अने उदयनुं जोमयुं एटले चतुविध बंध अने चतुर्विध उदय होय. अहीं चारनी संख्या पालथी लेवी श्रने बस्संता के षड़विध सत्ता एटले चारनो बंध, चारनो उदय अने बनी सत्ता, ए एक नांगो आपकने होय. नवमा गुणगणाना बीजा नांगें थीणजीत्रिकनो क्षय थया पली नवमे अने दशमे गुणगणे एज नांगो होय. जे जणी कम्मपयमीनी चूर्णिमध्ये कडं बे के, दपकने अतिविशुद्धि नणी निमा अने प्रचलानो उदय न होय, ते माटें पंचविध उदयनो नांगो पण न होय ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ ४४ ॥ जवसंते चन पण नव, खीणे चन रुदय बच्च चनसत्ता ॥ वेअणिअ आजगोए, विनऊ मोदं परं वुबं ॥ ४५ ॥ अर्थ-उवसंते के उपशांतमोह नामा अगीश्रारमे गुणगणे बंधने अन्नावें चनपण के चतुर्विध उदय, तथा पंचविध उदय अने नव के नवविध सत्ता, एटले चारनो उदय अने नवनी सत्ता तथा पांचनो उदय श्रने नवनी सत्ता, ए बे नांगा होय. उपशांतमोहने तथाविध विशुछिने बनावें निशा प्रचलानो पण उदय संजवे, ते माटें पंचविध उदय कह्यो तथा खीणे के क्षीणमोहगुणगणे चउरुदय के चतुविध उदय अने उच्च के० षइविध सत्ता, ए नांगो बेहला समय विना बाकीना सघला समयें होय, एटले हिचरम समय लगें होय, अने चरम समयें तो बे निखानी सत्ता पण टले, माटे चतुर्विध उदय अने चउसत्ता के चतुर्विध सत्ता, ए नांगो होय. एम बे नांगा दपकने होय. ते पठी जदय तथा सत्ता सर्व टले. हवे वेअणिअाउगोए के वेदनीय, आयु अने गोत्र, 'ए त्रण कर्मना जांगा गुणगणे विनऊ के कहीने मोहंपरंवुद्धं के पनी मोहनीय कर्मना नांगा कहीशुं ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ ४५ ॥ Page #826 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ G०१ ॥ अथ वेदनीय गोत्रयोनंगानार्थ मियं नाष्यगाथा ॥ तिहां वेदनीयकर्म अने गोत्र कर्मना जांगा जाणवाने माटें नाष्यनी गाथा कहे .॥ चन बस्सु उन्नि सत्तसु, एगे चन गुणिसु वेअणि अनंगा ॥ गोए पण चन दो तिसु, एगऽसु उन्निश्कंमि॥४६॥ अर्थ-उस्सु के मिथ्यात्वथी मांडीने प्रमत्तांत लगें उ गुणगणे अशातानो बंध, अशातानो उदय अने बेहुनी सत्ता; बीजो अशातानो बंध, शातानो उदय अने बेहुनी सत्ता; त्रीजो शातानो बंध, अशातानो उदय अने बेहुनी सत्ता; चोथो शातानो बंध, शातानो उदय अने बेहुनी सत्ता; ए चज के चार नांगा, बहा गुणगणा 'लगें सघलें होय. अने अप्रमत्तथी मांडीने तेरमा गुणगणा सुधीना सत्तसु के सात गुणगणे एक शाताज बांधे माटे, वेदनीयना श्राव नांगा मांहेलो त्रीजो अने चोथो, ए उन्नि के बे लांगा होय. तथा एगेचजगुणिसु के एक अयोगी गुणगणे चार नांगा होय. एक शातानो उदय, बेहुनी सत्ता, बीजो अशातानो उदय अने बेहुनी सत्ता, ए बे नांगा हिचरम समय लगें होय अने चरम समयें एक शातानो उदय बने शातानी सत्ता, बीजो अशातानो उदय अने अशातानी सत्ता, ए बेनांगा होय, एवं चार लांगा होय. ए वेधणिअनंगा के वेदनीयकर्मना आठ नांगा चौद गुणगणे कह्या. हवे गोत्रकर्मना नांगा गुणगणे कहे . गोए के० गोत्रकर्मना पण केस पांच नांगा पहेले गुणगणे होय, ते कहे . एक नीचगोत्रनो बंध, नीचनो उदय अने नीचनी सत्ता; बीजो नीचनो बंध, नीचनो उदय अने बेहुनी सत्ता; त्रीजो नीचनो बंध, उंचनो उदय अने बेहुनी सत्ता, चोथो उंचनो बंध, नीचनो उदय अने बेहनी सत्ता; पांचमो उंचनो बंध, उंचनो उदय अने बेहुनी सत्ता; ए पांच जांगा, मिथ्यात्व गुणगणे होय, अने साखादन गुणगणे तो पूर्वोक्त मिथ्यात्वना पांच नांगा मांहेलो पहेलो नांगो न होय. बाकी चल के चार नांगा होय, केमके पहेलो नांगो तो तेउ वायु मांहे होय अथवा तेज वान माहेश्री चवीने बीजे स्थानकें अवतरता कैटलोएक काल पर्यंत होय. तिहां तो सम्यक्त्व नथी माटे क्याथी पमीने सास्वादने श्रावे ? तेमाटे प्रथम जंग निषेध्यो तथा मिश्र अने थविरति सम्यक्दृष्टि तथा देशविरति ए तिसु के० त्रण गुणगणे चोथो अने पांचमो, ए दो के बे नांगा होय, केमके नीचगोत्रनो तिहां बंध नथी, ते जणी प्रथमना त्रण नांगा न होय, तथा कोशएक श्राचार्य कहे डे के देशविरतिने एकज पांचमो नांगो होय, परंतु बीजो जांगो १०१ Page #827 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ न होय, जे जणी "गइजाइ परुच्च उच्चगोश्र उच्च होई” ए वचने उच्चैर्गोत्रनोज तिहां उदय होय, तथा बसु के प्रमत्त गुणठाणाथी मांमीने आठ गुणठाणे प्रत्येक एग के० एकेक नांगो होय. तिहां प्रमत्तथी सूक्ष्म संपराय लगें पांच गुणठाणे तो उंच गोत्रनोज बंध, उदय होय, माटें एक पांचमो नांगोज होय. धने उपशांतमोड़, क्षीणमोह ने सयोगी, ए त्रण गुणठाणे गोत्रनो बंध नथी माटे उच्चैर्गोत्रनो उदय ने बेहुनी सत्ता, ए बहो जांगो होय, तथा इक्कमि के० एक छायोगी गुणठाणे पुन्नि to बे जांगा होय. तिहां उंचनो उदय ने बेनी सत्ता, ए बठो जांगो, द्विचरम समय लगें होय अने उंचनो उदय तथा उंचनी सत्ता, ए सातमो जांगो, चरम समय लगें होय ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ ४६ ॥ ८०‍ ॥ अथ श्रायुर्जगज्ञानार्थमियमंतव्यगाथा | हवे आयुः कर्मना जांगा जाणवाने जायनी गाथा कहे . ॥ वादिगवीसा, सोलस वीसं च बारस व दोसु ॥ दो चसु ती इकं, मासु प्रान नंगा ॥ ४७ ॥ अर्थ-हिगवीसा के० प्रथम गुणठाणे श्रद्वावीश जांगा ने बीजे गुण ठाणे वीश जांगा, त्री जे गुणठाणे सोलस के० शोल जांगा, चोथे गुणठाणे वीसंच के० वीश जांगा, पांचमे गुणठाणे वारस के० बार जांगा, दोसु के० बहे अने सातमे गुणठाणे के जांगा, चउसु के० आठमे, नवमे, दशमे अने श्री रमे गुणगणे दो के बेबे जांगा; तीसु के० बारमे, तेरमे ने चौदमे, ए त्रण गुणठाणे इकं के० एक जांगो. ए रीतें मिठासुख उपजंगा के० मिथ्यात्वादिक चौद गुणठाणे श्रायुःकर्मना जांगा जाएवा ॥ इत्यक्षरार्थः ॥ ४७ ॥ मिथ्यात्व गुणठाणे तो पूर्वे कदेला अहावीशे जांगा आयुना होय, जे जणी चारे गतिना जीव मिथ्यादृष्टि होय. तथा मिथ्यात्वें चारे युनो पण बंध बे, तेथी देवना पांच, नारकीना पांच, तिर्यंचना नव छाने मनुष्यना नव, ए सर्व होय. तथा सास्वादने नरकायुनो बंध नथी माटें तिर्यंच तथा मनुष्यने आयुर्बंध कालावस्थाना नरकायु बंधना बे जांगा टले, तेवारें शेष बवीश जांगा होय. तथा मिश्रा युनो बंधज नथी माटें बंधकालावस्थाना देव नारकीना बे बे तथा तिर्यंच ने मनुष्यना चार चार, एवं बार जांगा टले तेवारें शोल जांगा रहे. तथा अविरति सम्यक् ष्टिमां. तो तिर्यंच ने मनुष्यने एक देवगति विना शेष त्र गतिनां यु न बांधवा संबंधिना त्रण त्रण जांगा टले ने देव तथा नारकी मध्यें For Private Personal Use Only Page #828 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ तिर्यंचायु बंधनो एकेको नांगो टले. एवं घाव जांगा टले, तेवारें शेष वीश जांगा रहे. तथा देश विरतिगुणठाएं तो मनुष्य ने तिर्यंचने होय, ते तो देश विरति बतां देवायुज बांधे तेमाटें मनुष्य, तिर्यंचने प्रत्येकें बंधकालावस्थायें एकज जांगो तथा परजवायुर्बधकाल की पूर्वे एकेको नांगो ने श्रायुर्बंध काल पढी चारे जांगा होय. जे कोइक तिर्यंच अथवा मनुष्य चारे आयु मांदेलुं एक श्रायु बांधीने पढी देशविर तिपणुं पामे तेनी अपेक्षायें उत्तरावस्थाना चार जांगा कह्या. ए रीतें ब ब जांगा तिर्यंच ने मनुष्यना लेतां बार जांगा पांचमे गुणठाणे पामीयें. तथा प्रमत्ताने अप्रमत्त, ए बे गुणगणां मनुष्यनेज होय, माटे मनुष्यना ब जांग देशविर तिनी पेरें जाणवा, ए गुणठाणे तिर्यच नथी तेथी तेना जांगा टल्या. ८०३ तथा श्रावमे, नवमे, दशमे, अने अगी श्रारमे, ए चार गुणठाणे उपशमश्रेणीनी अपेकायें बेबे जांगा होय, एक मनुष्यायुनो उदय ने मनुष्यायुनी सत्ता, ए जांगो, श्रायुबंधकाली पूर्वलो होय, छाने मनुष्यायुनो उदय तथा मनुष्यायु ने देवायुनी सत्ता, ए बीजो गार्बंध काल पढी उत्तरावस्थानो होय, ए बे जांगा होय. एने बंधकालावस्थानो जांग न होय, जे जण । ए अत्यंत विशुद्ध बे माटें श्रायु न बांधे अने श्रायु बांध्या पठी उपशमश्रेणी पमीवजे, तोपण देवायु बांध्या पठी पडीवजे. परंतु बीजां त्रण गतिनां श्रायु बांध्या पढी उपशमश्रेणी परिवजे नहीं. जे जणी कम्मपयडीमध्यें शीवशर्म सूरियें कथं वे "तिसु आउगेसु बसु, जेण सेढि न आरोहइति” अने पूर्वं श्रायुबंध का पी पकश्रेणी करे नहीं माटें रूपकने मनुष्यायुनो उदय भने मनुष्यायुनी सत्ता, रूपकश्रेणीयें ए चार गुणठाणे श्रायुःकर्मनो एकज जांगो होय, तथा कमोद, सयोगी ने अयोगी, ए त्रण गुणठाणाने विषे मनुष्यायुनो उदय ने मनुष्यायुनी सत्ता, ए एकज जांगो होय.: ए मिथ्यात्वादिक चौद गुणगाणे आयुःक ना बंधोदय सत्ता संवेधें जांगा कह्या. ते सर्व मलीने (१२५) थाय ॥ इति समुच्चयार्थः ४७ ॥ अथ गुणस्थानेषु मोहनीयस्य बंधस्थानान्याह || हवे चौद गुणगणाने विषे मोहनीय कर्मनां बंधस्थानक विवरीने कड़े बे ॥ गुणवाणगे असु, इक्किक्कं मोह बंधवाणं तु ॥ पंचानिहि ठाणा, बंधोवरमो परं तत्तो ॥ ४८ ॥ अर्थ- गुणठाणगेसुअसु के० मिथ्यात्वादिक व गुणवाये इक्किकंमोहबंधवाणंतु के० मोहनीयकर्मनुं एकेकुं बंधस्थानक होय, एटले मिथ्यात्वें बावीशनो बंध, सास्वादने एकवीरानो बंध, मिश्र ने अविरतियें सत्तर सत्तरनो बंध, देशवि For Private Personal Use Only Page #829 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ចុច៖ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ रतियें तेरनो बंध तथा प्रमत्त, अप्रमत्त अने श्रपूर्वकरण, ए त्रण गुणगणे नव नव प्रकृतिनुं एकेकुं बंधस्थानक होय, तिहां नांगा मिथ्यात्वे उ, सास्वादने चार, मिश्रे बे, अविर तियें बे, देशविरतियें बे, प्रमत्तें बे अने अप्रमत्तें तथा अपूर्वकरणे अरति शोक, ए युगलना अनावें एकविध बंधने सीधे एकेको नांगो होय. तथा पंचानिया, हिगणा के अनिवृत्ति बादरें पांच, चार, त्रण, बे अने एक, ए पांच बंधस्थानक, पांच जांगे होय. तिहां नांगो एकेको होय, बंधोवरमोपरंतत्तो के० तेवार पड़ी सूक्ष्मसंपरायादिक गुणगाणे मोहनीय कर्मनो बंध नथी, माटें बंधने अनावें मात्र उदयस्थानकज होय, ते कहे . ॥ इति समुच्चयार्थः ॥४॥ ॥अथ उदयस्थानान्याह ॥ हवे चौद गुणगणे मोहनीयकर्मनां उदयस्थानक कहे .॥ सत्ताइ दस मिने, सासायण मीसए नवुक्कोसो॥ गई नवन अविरई, देसे पंचाइ अव ॥४॥ थर्थ-मिन्छे के० मिथ्यादृष्टिने सत्ताश्दस के सातथी दश पर्यंत 5-5-५–१०, ए चार उदयस्थानक होय. तिहां नांगानी चोवीशी पूर्वे कही, ते रीतें अहीं पण श्राप चोवीशी जाणवी. तथा सासायणमीसएनवुक्कोसो के सास्वादन अने मिश्र, ए बे गुणगणे सातथी मामीने नव पर्यंत सात, आठ अने नव, ए त्रण उदयस्थानक होय. तिहां सास्वादने चार चोवीशी अने मिधे पण चार चोवीशी नांगानी उपजे तथा बाईनवनयविरई के अविरति गुणगणे बथी मामीने नव पर्यंत एटले ब, सात, श्राप अने नव, ए चार उदयस्थानक होय. तिहां नांगानी चोवीशी श्राप उपजे, तथा देसेपंचाश्यठेव के देशविरति गुणगणे पांचथी मामीने श्राप पर्यंत एटले पांच, ब, सात अने श्राउ, ए चार उदयस्थानक होय. तिहां पण जांगानी थाठ चोवीशी उपजे ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ ४ ॥ विरए खवसमिए, चनराई सत्त बच पुर्वमि॥ अनियहि बायरे पुण, इक्कोव उवेव जदयंसा ॥५०॥ अर्थ-विरएखवस मिए के० श्रेणीथी देठे वर्त्ततो तेने दायोपशमिक विरती कहीये. ते दायोपशमिक विरति प्रमत्त तथा अप्रमत्त गुणगणावालो जाणवो. तिहां प्रमत्त अने अप्रमतें प्रत्येक प्रत्येक, चनराईसत्त के० चारश्री मांडीने सात पर्यंत चार, पांच, न अने सात, ए चार उदयस्थानक होय, तिहां जांगानी आठ चोवीश प्रमत्ते अने आठ चोवीशी अप्रमत्ते उपजे. तथा बच्चपुवंमि के अपूर्वकरणगुणगणे चारथी मांमीने पर्यंत एटले चार, पांच अने ब, ए त्रण उदयस्थानक होय. तिहां चार Page #830 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ G न्य चोवीशी जांगानी थाय तथा अनियट्टिबायरेपुरा के० वली निवृत्तिबादर पठाणाने विषे shayariसा के० एक अथवा बे उदयस्थानक होय. तिदां संज्जलना चार कषाय मांहेलो एक कषायाने त्रण वेदमांहेलो एक वेद, ए बे प्रकृतिनुं स्थानक होय. तिहां चार कषायने त्रण वेदना विकल्पें गुणतां बार जांगा थाय. तेवार पी वेदनो उदय टले थके एकना उदयनुं स्थानक रहे, ते चतुर्विध, त्रिविध, द्विविधा एकविध बंधने विषे पामीयें. तिहां यद्यपि पूर्वे चतुर्विधबंधें चार, त्रिवि - धबंधे त्रण, द्विविधबंधें बे ने एकविधबंधें एक, एवं दश उदय जांगा कह्या बे. तो पण हीं सामान्य विवक्षायें चार, त्रण, बे छाने एक, ए चार बंधस्थानकनी अपेक्षायें एकेक जांगो लेखवतां चार जांगा विवक्षीयें, एटले नवमे गुणठाणे शोल जांगा होय. एगं सुदुम सरागो, वेएइ जंगाणं च पमाणं, पुबुद्दि वेगा जवे सेसा ॥ नाय ॥ ५१ ॥ - एगंदुमसरागो के० सूक्ष्मसंपराय गुणठाणे एक की टिकृत संज्वलनो लोन वेश के० वेदे, ते माटें एकतुं उदयस्थानक होय. तेनो एक जांगो होय, एटले दशमे गुणठाणे बंध विना एक संज्वलना लोजनो उदय होय. अने वेगावेसे के० शेष उपरला उपशांतमोहादिक चार गुणठाणे मोहोदय नथी, माटें अवेदक होय, केमके तिहां मोहनीयनो उदय न होय. अहीं मिथ्यात्वादिक गुणठाणे उदयस्थानकना जंगाणंचपमाणं के० जांगानुं प्रमाण अने जांगानुं उपजावतुं ते, पुहुदिmarna ho पूर्वै मोहनीयना उदयस्थानक विचारवाने अवसरें देखाड्यां तेमज पूर्वोक्त प्रकारें जाणवां ॥ इति ॥ ५१ ॥ || हवे ए दशादिक उदयस्थानकें गुणठाणा श्राश्रयी जांगानी संख्या कड़े बे. ॥ इक्कग मिक्कियारि, कारस इक्कार सेव नव तिन्नि ॥ एए चवीस गया, बारडुगं पंच इक्कंमि ॥ ५२ ॥ अर्थ-दशने उदयें इक्कग के० एक चोवीशी नांगानी मिथ्यात्व गुणठाएँ जाणवी, म ए दशनो उदय, मिथ्यात्वेंज बे माटें तथा नवने उदयें बम के० ब चोवीशी जांगानी, तेमध्यें मिथ्यात्वें त्रण, सास्वादनें एक, मिलें एक अने अविरतियें एक. तथा वने उदयें इक्कियार के० अगीआर चोवीशी. ते मध्यें मिथ्यात्वें त्रण, सास्वादने बे, मि वे, विरतियें त्रण छाने देशविर तियें एक. तथा सातने उदयें पण इकारस ho गीार चोवीशी, तेमध्यें पहेले, बीजे अनेत्री जे गुणठाणे एकेकी, चोथे अने For Private Personal Use Only Page #831 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ចុច៖ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ पांचमे त्रण त्रण, तथा बहे अने सातमे एकेक, तथा उने उदय पण इक्कारसेव के अगीबार चोवीशी, तिहां चोथे श्रने श्राठमे एकेकी तथा पांचमे, बडे बने सातमे त्रण त्रण, तथा पांचने उदयें नव के नव चोवीशी. तिहां एक देशविरतियें तथाप्रमत्त अने अप्रमत्तेंत्रण त्रण अने अपूर्वकरणे बे.तथा चारने उदय तिन्नि के त्रष चोवीशी. तिहां प्रमत्त, अप्रमत्त अने अपूर्वकरणे एकेकी जाणवी. एएचवीसगया के० ए सर्व मलीने बावन चोवीशी थ. तथा मुगं के० बेने उदयें बार के0 बार नांगा अने कमि के० एकने उदयें पंच के पांच नांगा, एम सर्व मली बावन चोवीशी अने उपर सत्तर नांगा थया ॥ इति समुच्चयार्थः ॥५५॥ ॥ हवे सर्व जांगानी शरवाले संख्या कहे जे. ॥ बारस पणसहिसया, उदय विगप्पेदि मोदिआ जीवा ॥ चुलसीई सत्तुत्तरि, पयविंद सएहि विने ॥५३॥ अर्थः- बावन चोवीशीने चोवीश गुणा करी छिकोदयना बार अने एकोदयना पांच, एवं सत्तर नांगा नेलीयें, तेवारें बारसपणसहिसया के बारसे ने पांशठ नांगा थाय. उदयविगप्पे हिमोहियाजीवा के० एटला उदयने नांगे करीने सर्व संसारी जीव मोहनीयकम मोह्या मुंजाणा पड्या बे. हवे तेनी पदसंख्या कहे . अहीं मिथ्यात्व, अनंतानुबंधी क्रोध इत्यादिक मोहप्रकृतिने पय के० पद एवी संज्ञा कही बे. तेना विंदसएहि के वृंद जे दश, नव, इत्यादिक उदय नांगाना पद एटले प्रकृति तेना शतक एटले शेकडा केटला थाय ? ते कहे जे. चुलसीई के चोराशीसो अने उपर सत्तुतरी के सत्तोतेर थाय, एटला मोहनीय कर्मना पदबूंदें करी सर्व जीव मुंफाणा थका विनेया के० जाणवा. अहीं एकेका नांगामांहे मोहनीयनी जेटली प्रकृति बोलाय ते नांगामांहे तेटलां पद कहीये. जेम दशने जदयें एक चोवीशी माटे दशने दश गुणा करीये तेवारें दश चोवीशी थाय. नवने उदयें चोवीशी माटें गुणा करतां चोपन चोवीशी थाय, एम धाउने जदयें अगीआर चोवीशीयें गुणतां श्रव्याशी, सातने अगीआरें गुणतां सत्त्योतेर, बने अगीबारें गुणतां शठ, पांचने नवें गुणतां पीस्तालीश, चारने त्रणे गुणतां बार, ए सर्व मती त्रणसें ने बावन चोवीशी थाय. ते एकेकमध्ये चोवीश माटे चोवीश गुणा करतां (4) थाय. ते मध्ये छिकोदयना बारने उगुणा करतां चोवीश थाय तथा एकोदयना पांच, एवं उगणत्रीश नेलीये तेवारें ( 9 ) एटला मोहनीयनां पदवृंद गुणगणानी अपेक्षायें थाय ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ ५३ ॥ Page #832 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ.६ ចច ។ ॥अथ मिथ्यादृष्टयादिषु उदयनंगसूचिकानाष्यगाथामाह॥हवे मिथ्यात्वादिकगुणगणे प्रत्येके मोहनीयना उदय नांगा प्ररूपवाने अर्थे नाष्यगाथा कहे . अहग चन चन चनर, गाय चनरो अहंति चवीसा॥ मिबार अपुवंता, बारस पणगं च अनिअट्टी ॥५४॥ अर्थ-मिबाश्यपुवंता के० मिथ्यात्वथी मामीने अपूर्वकरणनामा श्राउमा गुणगणा पर्यंत अनुक्रमें नांगा कहे . एटले मिथ्यात्वें अहग के श्राप चोवीशी, साखादने चन के चार चोवीशी, मिों चल के चार चोवीशी, तेवार पनी चोथे, पांचमे, उसे अने सातमे, ए चउरहगाय के चार गुणगणे आठ आठ चोवीशी अने श्रापमे गुणगणे चउरोगहुँतिचठवीसा के चार चोवीशी नांगानी उपजे. एम मिथ्यात्वथी मामीने अपूर्वकरण लगें बावन चोवीशी नांगानी थाय. पली बारसपणगंचशनिबट्टी के अनिवृत्ति गुणगणे बेने जदयें बार नांगा अने एकने उदयें चार नांगा तथा एक नांगो एकोदये सूक्ष्मसंपरायनो, एवं सत्तर नांगा उपर थाय. तेनी साथै बावन्न चोवीशीना ( १२१७ ) मेलवतां ( १२६५ ) नांगा थाय. ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ ५४॥ ॥ अथैषां नंगानां पदानां योगादिनिर्गुणानाह ॥ हवे ए मोहनीयना उदय नांगा तथा उदय पदवृंद ते योग, उपयोग अने वेश्या साथें गुणवा, ते उपदेश कहे .॥, जोगोवग लेसा, इएहिं गुणिआ दवंति कायवा ॥ जे जब गुणहाणे, दवंति ते तब गुणकारा ॥ ५५॥ अर्थ-जोगोवढंगलेसाश्एहिं के योग, उपयोग, अने लेश्यादिकें करीने उदय नांगा तथा पदवृंद ते गुणियाहवंतिकायबा के० गुणा करवा ते जेजबगुणगणे के० मिथ्यात्वादिक गुणगणे जे जिहां योग, उपयोग, लेश्या, जेटलां हवंति के होय, तेतबगुणकारा के ते तिहां तेटला गुणा करवा. ॥ ५५ ॥ . ___ तिहां प्रथम योगना गुणाकारनी नावना लखीयें बैयें. चार मनोयोग, चार वचन योग अने औदारिक काययोग, ए नव योग तो मिथ्यात्वधी मांडीने दशमा गुणगणा पर्यंत दशे गुणगणे होय. ते दश गुणगणाना सर्व संख्यायें उदयनांगा (१९६५). तेने नव योग साथें गुणतां ( १९३०५) उदयना नांगा थाय..... __ तथा वली मिथ्याष्टिने वैक्रिय काययोगें वर्त्ततां श्राप चोवीशी नांगानी होय. तथा वैक्रियमिश्र, औदारिकमिश्र अने कार्मण, ए त्रण योगें वर्त्ततां मिथ्यात्वीने प्रत्येके आउना उदयनी एक, नवना उदयनी बे अने दशना उदयनी एक, एवं चार चार चोवीशी जांगानी अनंतानुबंधीश्रा सहितवाली पामीयें, परंतु बीजी चार Page #833 -------------------------------------------------------------------------- ________________ GOG सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ चोवीशी अनंतानुबंधीयाना उदय विनानी न पामीयें, जे नणी जेणे पूर्वे सम्यक्त्वे करी अनंतानुबंधीआ विसंयोज्या होय, ते वली कर्मवशें परिणामनी . परावर्तिये मिथ्यात्व पामे तेवारें फरी अनंतानुबंधीआ बांधवा मांडतां मात्र बंधावलिका लगेंज अनंतानुबंधीयानो उदय न पामीयें अने एवी रीतें जे अनंतानुबंधी विसंयोजीने मिथ्यात्वे श्रावे, तेनुं जघन्यथी पण अंतरमुहर्तायु तो अवश्य होय. केमके अनंता - बंधीयाना उदय विना मिथ्यात्वीने काल करवो निषेध्यो बे. ते जीव, तिहां रह्यो मिथ्यात्व प्रत्ययें वली अनंतानुबंधीया बांधे ते उदय श्राव्या पली मरण पामीने जेवारें बीजे स्थानकें जाय, तेने वचाउ अपांतरालगतियें वर्त्ततां तथा उपजती वेलायें ए त्रण योग अनंतानुबंधीना उदय विनाना मिथ्यात्वीने होय. तिहां कार्मणयोग वाटें वर्ततां जीवने होय, तथा औदारिकमिश्र योग तिर्यंच, मनुष्यने उपजती वेलायें होय, अने वैक्रिय मिश्र देव तथा नारकीने उपजती वेलायें होय. ए प्रायिक बोल वे. अन्यथा मिथ्यात्वी तिर्यंच, मनुष्यने वैक्रियशरीर करतां तथा मूकतां पण वैकियमिश्र योग होय, पण ते चूर्णिकारें अहींयां विवदयुं नथी, एम श्रागल पण चूर्णिकारनो मत जावो. ते माटें ए त्रण योगने विषे अनंतानुबंधी थाना उदयरहितनी चार चार चोवीशी नांगानी जे, ते न पामीयें, बाकी चार चार चोवीशीज पामीये. शरवाले वीश चोवीशी मिथ्यात्वे होय. तथा सास्वादने कार्मणयोगें चार, वैक्रियकाययोगें चार, अने औदारिक मिश्रकाययोगें चार, एवं बार चोवीशी होय तथा मिश्रदृष्टिने वैक्रिय काययोगें चार चोवीशी होय. तथा अविरति सम्यक्दृष्टिने मात्र वैक्रिय काययोगेंज आठ चोवीशी होय. तथा देशविरतियें वैक्रिय योगें आपथने वैक्रिय मिश्र योगें श्राउ, एवं शोल चोवीशी थाय तथा प्रमत्त साधुने पण वैक्रिय तथा वैक्रियमिश्रयोगें प्रत्येकें आठ आठ चोवीशी गणतां, शोल चोवीशी थाय तथा अप्रमत्त साधुने वैक्रिय योगें श्राप चोवीशी श्रने वैक्रिय मिश्र तो अप्रमत्तने न होय, केमके चोथा गुणगणाथी उपरांत वैक्रिय तथा वैक्रियमिश्र काययोग लब्धि प्रत्ययिक होय. तेमांहे वैक्रिय मिश्रकाययोग तो वैकियशरीर श्रारंजता तथा मूकता वखतज होय, अने अप्रमत्त साधुने तो विशुकपणाथी लब्धि प्रयुंजवाने अनावें वैक्रियनु आरंज नथी तथा मूकवू पण नथी अने प्रमत्त साधुने वैक्रिय आरंनी पनी विशुद्धिने वशे वैक्रियशरीर बतां अप्रमत्त थाय, ते अपेक्षायें अप्रमत्तने वैक्रियकाययोग होय, ते माटें अप्रमत्तें वैक्रियनी श्राव चोवीशी कही एटले शरवाले वैक्रिययोगें मिथ्यात्वे आठ, साखादने चार, मिझें चार, अविरतियें आठ, देश विरतियें आठ, प्रमत्तें आठ, तथा अप्रमत्तें आठ, एवं अमतालीश Page #834 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ GOL चोवीशी इ. तथा वैक्रिय मिश्रकाययोगें मिथ्यात्वें चार, देशविर तियें आठ ने प्रमत् आठ, एवं वीश चोवीशी थ. तथा औदारिक मिश्रयोगें मिथ्यात्वें चार श्रने साखादने चार, एवं आठ चोवीशी थाय. तथा कार्मणयोगें पण मिथ्यात्वें चार ने साखा - दने चार, एवं आठ चोवीशी थाय. एम सर्व मली चोराशी चोवीशी नांगानी थाय. तेने चोवीशे गुणतां (२०१६) जांगा थाय. ते पूर्वोक्त नव योग साथै गुणेला (११३८५) जांगा साथै मेलवतां ( १३४०१ ) जांगा थया. दवे वैक्रियमिश्र ने साखादने तथा चोथे गुणठाणे कार्मणयोगें वर्त्तताने विशेष बे. तेजी तेना जांगा जूदा कही देखाडे बे. वैक्रियमिश्रयोगें साखादने वर्त्तताने नपुंसकवेदनो उदय न होय, जेनणी वैक्रियमिश्रयोगी नपुंसकवेदीने नारकी प्रमुखांदे साखादने वर्त्ततां उपजवं नथी तेजणी वैक्रियमिश्रयोगें जे चार चोवीशी उदय जांगानी बे, ते मध्येंथी नपुंसकवेदथी उत्पन्न थयेला आठ व जांगा टले. बाकी शोल शोल जांगा रहे माटें चार चोवीशीने वामे चार षोडशक जांगा सास्वादने वैक्रियमिश्रयोगी ने होय. तथा अविरति सम्यकदृष्टि वैक्रियमिश्र तथा कार्मणयोगी, "ए बेहुने स्त्रीवेदनो उदय न होय जेजणी वैक्रियकाययोगी अविरति सम्यक्दृष्टि जीव, स्त्रीवेदमांदे न उपजे, ते माटें चोथे गुणठाणे ए बेहु योगें वर्त्तताने घाव आठ चोवीशीने गमे aa षोडश जांगा होय. अहींयां केवल स्त्रीवेदना विकल्पथी उपजेला आठ sa जांगा, चोवीशी चोवीशी मांहेथी काढीयें. ए टीकाकारनुं मत अवलंबीने क अन्यथा चूर्णिमांदे तो कदाचित् स्त्रीवेदीमांहे पण अवतरे, एम पण कयुं बे. तेनो पाठ "कावि हुवे सुवि वेवि मी सगस्स. "" तथा प्रमत्तसाधुने आहारक तथा आहारकमिश्र, ए वे योगें वर्त्ततां स्त्रीवेदनो उदय न होय, जेजणी थाहारक मिश्रयोग चौद पूर्वधर पुरुषनेज होय, स्त्रीने तो चौद पूर्वनुं जवं निषेध्युं वे जेजणी सूत्रे कह्युं बे के " तुहागारवबहुला, चलिंदिया डुब्बला - धी ॥ अश्वसेस कायणा, नूअवार्ड अ नो हीणं ॥ १ ॥ नूतवाद के० दृष्टिवाद बारमुं अंग, ते स्त्रीने न जणाववुं, जेजणी स्त्रीजाति खनावें तोबडी होय बे तेमाटें "गर्व घोकरे, विद्या जीरवी न शके. इंद्रिय चंचल होय, बुद्धि उबी होय, ते माटे ए अतिशय पाठ जणी स्त्रीने निषेध्युं बे, ते दृष्टिवादमांदे चोथे अधिकारें पूर्व बे माटे पूर्व या विना स्त्री आहारकशरीर न करे, ते माटे प्रमत्त अप्रमत्त गुणवाणे प्रत्येक एकेका योगें उदय जांगानी आठ आठ चोवीशी मांहेथी स्त्रीवेदना त्रीजा जागना व जांगा कामतां शेष शोल षोमशक जांगा होय. १०२ For Private Personal Use Only Page #835 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१० सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ.६ तथा अप्रमत्त साधु एक आहारकयोगीज होय, परंतु आहारकमिश्रयोगी न होय, केमके ए योग तो श्राहारकशरीर श्रारंजतां तथा मूकतां होय, ते तो अप्रमत्त साधुने लब्धिमुं प्रयुजवू नथी तेजणी अहीं नांगानां आठ षोडशक होय. ए सर्व चुम्मालीश षोमशक थयां. ते चुम्मालीशने शोलें गुणतां (०४ ) नांगा थाय, ते पूर्वोक्त (१३४०१ ) मध्ये मेलवतां ( १४१०५ ) उदय नांगा थया. तथा औदारिक मिश्रकाययोगीने चोथे गुणगणे स्त्रीवेद अने नपुंसकवेदनो उदय न होय, तेमांहे औदारिकमिश्रयोगी सम्यकदृष्टिने उपजवू नथी तेनणी ए चोथे गुणगणे आठ चोवीशीने स्थानकें केवल पुरुषवेद विकल्पना औदारिकमिश्रयोगें आठ अष्टक नांगा होय. अहींआंबे वेदना शोल नांगा प्रत्येक चोवीशी मध्ये थी टालवा. ए प्रायिक बोल जाणवो, अन्यथा ब्राह्मी, सुंदरी, मल्लीनाथ, राजीमती प्रमुख सम्यदृष्टि थकां अहींआं स्त्रीवेदें उपन्यां, तिहां उपजतां औदारिकमिश्रयोग केम न होय, माटे ए केम घटे? ए आठ अष्टकना चोशठ नांगा पूर्वला (१४१०५) मांहे मेलवतां ( १४१६ए ) उदय नांगा थया ॥ ५५ ॥ ॥अथ पदवृंदानि योगगुणितानि नाव्यंते. तत्रोदयप्ररूपिका जाण्यगाथामाह ॥ हवे उदयपदवृंद योग साथै गणवा, ते नावे . तिहां चौद गुणगणे . उदय पदवृंद प्ररूपवाने अंतर नाष्यगाथा कहे बे.॥ अहही बत्तीसं, बत्तीसं सहि मेव बावन्ना ॥ चोभाल दोसु वीसा, मिना माईसु सामन्नं ॥५६॥ अर्थ-मिथ्यात्व गुणगणे अहही के अडशठ पद, सास्वादने बत्तीसं के बत्रीश पद, मिग्रॅ बत्तीसं के० बत्रीश पद, अविरतियें सहि के० शा पद, मेव के० एमज देशविरतिये बावन्ना के बावन पद, तेवार पली प्रमत अने अप्रमत्तें ए दोसु के वे गुणगणे प्रत्येके चोभाल के० चुम्मालीश चुम्मालीश पद होय. तथा अपूर्वकरणे वीसा के वीश पद होय. ए सर्व मली ( ३५२ ) पद होय. एटली चोवीशी थाय. माटें एने चोवीश गुणा करता (1) थाय अने अनिवृत्तिबादरें हिकोदयना बार जांगा तेमाटें तेने बमणा करीयें, तेवारें चोवीश थाय. तेनी साथै एकोदयना पांच नांगा मेलवतां उंगपत्रीश थाय. ते पूर्वला (UG) मध्ये नेलतां (1 ) एटला मोहनीयना उदय पदवृंद मिलामाईसुसामन्नं के० मिथ्यात्व आदें देश्ने सर्व गुणगणे थश्ने सामान्यपणे थाय. हवे उदय पदवृंद योग साथे गणवां, ते नावीयें बैयें. तिहां पूर्वोक्त ( 19 ) पदवृंद थया ने तेने चार मनोयोग, चार वचनयोग, तया श्रौदा Page #836 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ ११ रिककाययोग, ए नव योग तो दशमा गुणगणा लगें ध्रुव होय माटे नवे योग साथै गुणतां ( ए३) पदवृंद नव योग साथें गुणतां थाय. मिथ्यात्व गुणगणे सातना उदयनी एक चोवीशी नांगानी ले तेमाटें सात एकुं सात तथा थाना उदयनी त्रण चोवीशी डे माटें आपत्रिक चोवीश, एम नव त्रिक सत्तावीश, दश एकुं दश, एम मिथ्यात्वे अडशठ पद थाय तथा तेवार पली सर्व गुणगणे जेटलां जेटलां उदयस्थानक होय, ते एकेका जदये जेटली जेटली नांगानी चोवीशी बे तेटली उदयना यांक साथै गुणीयें, तेवारें पद थाय. __ हवे वैक्रिययोगें मिथ्यात्वें श्रमशठ पद, पाठ चोवीशी ने तेमाटें. अने वैक्रियमिों अनंतानुबंधी सहित चार चोवीशी पामीयें, तेमाटे पाउनो उदय एक नेदे, माटें श्राप एकुंबात अने नवनो उदय बेनेदे, माटे नवे ऽश्रढार अने दशनो उदय एक नेदे,माटे दशएकुं दश,एवं त्रीश पद थयां तेमज औदारिकमिों पण बत्रीश,अने कार्मणे पण त्रीश, शरवाले ( १७६ ) मिथ्यात्व गुणगणे चार योगनां उदयपद थाय. तथा सास्वादने वैक्रिययोगें बत्रीश, औदारिकमिग्रॅ बत्रीश, कार्मणे बत्रीश, मली बन्नु थाय. तथा मिश्रगुणगणे वैक्रिययोगें बत्रीश थाय. एमत्रण गुणगणे मली (३०४) उदय पद थाय. तथा वैक्रिययोगें चोथे गुणगणे शाळ, पांचमे बावन्न, बहे चुम्मालीश अने सातमे चुम्मालीश, शरवाले बसो उदयपद थाय. तेनी साथै आगला त्रण गुणगगाना (३०४ ) नेलतां (५०४) थाय. __ तथा वैक्रियमिश्रयोगें देशविरतियें बावन्न, प्रमत्तें चुम्मालीश, शरवाले बन्नु थया. ते पूर्वोक्त पांचसो चार साथे नेलतां सो उदयपदनी चोवीशी थाय, ए सर्वनो विधि पूर्व उदयनांगामां कह्यो जे तेने चोवीश गुणा करतां ( १४००० ) पद थाय. तथा वैक्रिय मिश्रयोगें सास्वादने नपुंसकवेद न होय, तेलणी बत्रीश षोडशक थाय तथा चोथे गुणगणे वैक्रियमिश्र तथा कार्मणयोगें स्त्रीवेद न होय माटें शाठ शाउ षोडशक होय. एवं (१५२ ) षोमशक थयां तथा प्रमत्तें थने अप्रमत्तें, ए बे गुणगणे थाहारकयोगीने स्त्रीवेद न होय माटे बे वेद श्राश्री प्रत्येक गुणगणे चुम्मालीश चुम्मालीश षोडशक थाय अने प्रमत्ते थाहारकमिश्रयोगीना चुम्मालीश षोडशक लेवां. एवं सर्व मली (२४) षोडशकने शोल गुणां करतां (४५४४) थाय. तेनी साथे पूर्वला (१६७३ ) तथा ( १४४०० ) मेलवता ( एए३७ ) थया. तथा औदारिकमिश्रयोगीने चोथे गुणगणे स्त्रीवेद तथा नपुंसकवेद न होय, तेजणी तिहां मात्र पुरुषवेदनाज शाउ अष्टक नांगा लेवा, तेना (4) थाय. ते पूर्वला Page #837 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ राशिमाहे नेलतां ( एए७१७ ) एटला पदवृंद योग साथै गुणतां थाय. यमुक्तं "सत्तर सत्तसया, पण नउई सहस्त पयसंखा” इति वचनात्. हवे उपयोग साथें गुणतां जे उदय नांगा होय, ते कहीयें बैयें. तिहां मिथ्यात्व अने सास्वादन, ए बे गुणगणे प्रत्येकें एक मतिअज्ञान, बीजु श्रुतअज्ञान, त्रीजं विनंगश्रज्ञान, चोथु चकुदर्शन, पांचमुं अचदुदर्शन, ए पांच उपयोग होय; तथा त्रीजे, चोथे अने पांचमे, ए त्रण गुणगणे त्रण ज्ञान अने अवधिदर्शन सहित त्रण दर्शन, एवं उ उपयोग प्रत्येकें होय, तथा बहाथी दशमा गुणवाणा लगें तेहीज ब उपयोग साथें सातमुं मनःपर्यवज्ञान पण होय, माटें सात उपयोग होय. तिहां मिथ्यात्वे आठ अने सास्वादने चार, एवं बार चोवीशी नांगानी बे गुणगणे मलीने जे. तेने पांच उपयोग साथै गुणतां शाम चोवीशी थाय. तथा मिों चार, अविरतियें आठ अने देश विरतियें थान, एवं त्रण गुणगणे वीश चोवीशी नांगानी बे, तेने उ उपयोग साथें गुणतां (१२०) उदय नांगानी चोवीशी थाय. तथा प्रमत्तनी बाग, अप्रमत्तनी आठ, अपूर्वकरणनी चार, एवं त्रण गुणगणानी वीश चोवीशीने सात उपयोग साथें गुणतां (१४०) चोवीशी उदय नांगानी थाय. अहीं सुधी सर्व मली ( ३२०) चोवीशी उदय नांगानी थइ तथा जे श्राचार्य, मिश्रगुणगणे पण पांच उपयोग माने , तेना मतें (३१६) चोवीशी थाय. तिहां पहेला मतें (३०) ने चोवीश गुणा करता (७६७०) नांगा थाय, अने बीजा आचार्यना मतें चार चोवीशी काहामी नाखतां (३१६) ने चोवीश गुणा करतां (७५४) नांगा थाय. तेवार पड़ी छिकोदयना बार नांगा अने एकोदयना पांच, एवं सत्तर नांगाने सात उपयोग साथें गुणतां (११ए) नांगा थाय, ते पूर्वली राशिमाहे नेलतां (ए) उदय नांगा थाय, तथा मिश्रगुणगणे पांच उपयोग माने, तेना मतें ( ०३ ) उदयस्थान नांगा थाय, हवे एनां पदवृंद विचारे . तिहां मिथ्यात्वे सामान्य पद अडश अने साखादने बत्रीश, एवं एकसो थयां, तेने पांच उपयोग साथें गुणतां पांचसे पद थाय. ए चोवीशीना श्रादि पद तेजणी चोवीश गुणा करतां बार हजार पदवृंद थाय. तथा मिों बत्रीश, अविरतियें शाठ अने देश विरतियें बावन्न, ए त्रण गुणगगाना( १५४ ) सामान्यपद , तेने उ उपयोग साथे गुणतां (६४) चोवीशी उदयपदनी थाय, तेने चोवीश गुणा करतां ( २०७३६ ) पदबंद थाय. तथा प्रमत्तें चुम्मालीश, अप्रमत्तें चुम्मालीश, अने अपूर्वकरणे वीश, एम त्रण गुणगणे थक्ष (१७) सामान्यपद थाय. तेने सात उपयोग साथै गुणतां (७५६) Page #838 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ.६ G१३ पद थाय. तेने चोवीश गुणा करतां (१९४४) पदवृंद थाय. ए सर्व मली (५०) एटला दश उपयोग साथें आठ गुणगणे पदवृंद थाय. तेमध्ये छिकोदयना चोवीश श्रने एकोदयना पांच, ए उंगणत्रीशने सात उपयोग साथै गुणतां (२०३) थाय. ते पूर्वला पदवृंद राशिमध्ये नेलीयें, तेवारें (५१०३) एटला दश उपयोगना दश गुणगणे थर पदवृंद थाय तथा पूर्वला मतांतरें सर्व सामान्यपद (२००७) होय, तेने चोवीश गुणा करतां (५०११५) थाय, ते मांहे (२०३ ) छिकोदयवाला पद नेलतां ( ५०३१५) पदवृंद उपयोग साथै थाय. हवे लेश्या साथै मोहनीयना उदय नांगा विचारे . तिहां मिथ्यात्वथी मांडीने चोथा गुणगणा लगें उए लेश्या होय माटे चार गुणगणानी चोवीश चोवीशीने उ लेश्या साथें गुणतां (१४४) चोवीशी थाय. तथा पांचमे, बहे अने सातमे, ए त्रण गुणगाणे कृष्णादिक त्रण लेश्यामांहे देशविरति तथा सर्वविरतिर्नु पनिवजवं न होय तेथी प्रथमनी त्रण लेश्या अहीं निषेधी माटे बाकी तेजो, पद्म अने शुक्ल, ए त्रण लेश्या होय, अन्यथा देशविरति तथा सर्व विरति लह्या पड़ी तो उ लेश्या पण होय. ए वचन विरोध न विचारवो, माटे ए त्रण गुणगणानी चोवीश चोवीशीने त्रण लेश्यायें त्रिगुणा करतां बहोत्तेर चोवीशी थाय. तथा अपूर्वकरण गुणगणे एक शुक्कलेश्याज होय, माटें चार चोवीशी होय. ए सर्व मली बसें ने वीश थाय, तेने चोवीश गुणा करतां (५०) नांगा थया. तेमध्ये छिकोदयना बार अने एकोदयना पांच, ए सत्तर मध्ये तो एकज शुक्कुलेश्या होय, माटे ते सत्तर नांगा नेलतां (५५ए ) उदय नांगा लेश्या साथें थाय. हवे लेश्यायें पदवृंद कहे . तिहां मिथ्यात्वे श्रमशठ, सास्वादने बत्रीश, मिझें बत्रीश अने अविरतियें शाठ, शरवाले (१ए) सामान्यपद होय. तेने उ लेश्यायें गुणतां ( १९५२) थाय. तथा देशविरतियें बावन्न, प्रमत्ते चुम्मालीश अने अप्रमत्तें चुम्मालीश. एवं ( १४०). तेने त्रण लेश्यायें त्रिगुणा करतां (४२०) थाय. तथा अपूर्वकरणे वीश, तिहां एक शुक्ल लेश्यायें गुणतां वीश थोय, एम शरवाले (१५एर) लेश्यायें सामान्यपद थाय. तेने चोवीश गुणा करतां (३२) थाय. तेमध्ये छिकोदयना चोवीश अने एकोदयना पांच, नेलतां (३७२३७ ) एटला पदवृंद खेश्या साथें गुणतां थाय. एनी गाथा कहे “ तिगहीणा तेवन्ना, सया उदयाण हुँति सेसा ॥ श्रमतीस सहस्साशं, पयाण सयदोय सगतीसा ॥१॥” एम योग, उपयोग, लेश्या साथै मोहनीयना उदयस्थानकना नांगा विचाया. वली सुबुधियें विशेषे विचारवा ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ ५६ ॥ Page #839 -------------------------------------------------------------------------- ________________ G१४ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ.६ ॥ श्रथ सत्तास्थानान्याह ॥ हवे गुणगणे मोहनीयकर्मनां सत्तास्थानक कहे . ॥ तिन्नेगे एगेगं, तिगमीसे पंच चसु तिग पुवे ॥ कारबायरंमिज, सुहुमो चतिनि उवसंते ॥ ५॥ ' अर्थ-तिन्नेगे के एक मिथ्यात्वगुणगणे त्रण सत्तास्थानक होय, तिहां जे त्रण पुंज करी मिथ्यात्वे जाय, तेने अहावीशनी सत्ता, तेमध्ये थी सम्यक्त्व पुंज उवेल्या पली सत्तावीशनी सत्ता, मिश्रपुंज नवेल्या पली अथवा अनादि मिथ्यात्वीने बबीशनी सत्ता जाणवी. एनी नावना सर्व पूर्वे मोहनीयनां सत्तास्थानक सामान्य विचारवाने प्रस्तावें विस्तारें नावी , तेमाटें श्रहींयां नथी जावता. तथा एगेगं के एक साखादने एकज थहावीशनुं सत्तास्थानक होय, जेनणी ए गुणगणुंत्रण पुंज उतां सम्यक्त्व वमतांज होय, तेमाटें. तथा तिगमीसे के मिश्रगुणगाणे त्रण सत्तास्थानक होय. तिहां त्रिपुंजीने अहावीशनु, सम्यक्त्व उवेलें सत्तावीशनुं तथा अनंतानुबंधीश्रा विसंयोज्या पली जे पमतो मिथें आवे, तेने चोवीशनुं सत्तास्थानक जाणवू. तथा चोथे पांचमे, बछे अने सातमे, ए चउसु के चार गुणगणे प्रत्येके पंच के पांच पांच सत्तास्थानक होय, तिहां त्रण पुंज उतां श्रहावीशनु, अनंतानुबंधीथा विसंयोज्ये चोवीशनु, तेमध्येथी मिथ्यात्व दय गये त्रेवीशन, तेमांथी मिश्र दयें बावीशर्नु, तेमांधी सम्यक्त्व क्षये एकवीशर्नु, ए सत्तास्थानक दायिक सम्यदृष्टिने होय. तथा तिगपुवे के अपूर्वकरण गुणगणे त्रण सत्तास्थानक होय, तिहां दायिक सम्यक्हष्टिने दपकश्रेणी अथवा उपशमश्रेणीयें एकवीशनुं सत्तास्थानक तथा औपशमिक सम्यक्त्वे उपशमश्रेणीयें अहावीश अने चोवीशनुं सत्तास्थानक होय, तथा श्कारबायरंमिज के बादर संपरायें अगीआर सत्तानां स्थानक होय. तिहां अहावीश अने चोवीश उपशमश्रेणीनी अपेक्षायें अने एकवीशनी सत्ता, उपशमश्रेणीये दायिक सम्यदृष्टिने होय, अथवा दपक श्रेणीये पण ज्यांसुधी थाप कषायनो दय नथी कस्यो, तिहां लगें एकवीशनी सत्ता होय, तेवार पली श्राप कषायना ये तेरनी सत्ता,तेमांथी नपुंसकवेद क्षयें बारनी सत्ता, स्त्रीवेद दयें अगीधारनी सत्ता, दास्य षट्कने दयें पांचनी सत्ता, पुरुषवेद दयें चारनी सत्ता, संज्वलनक्रोध दयेंत्रणनी सत्ता, संज्वलनमान दयें बेनी सत्ता, संज्वलनमाया दयें एकनी सत्ता होय. तथा सुहुमोचन के सूक्ष्म संपराय गुणगणे चार सत्तास्थानक होय. तिहां अहावीश, चोवीश, उपशमश्रेणीनी अपेक्षायें तथा एकवीशन दायिक सम्यकदृष्टिने उपशमश्रेणिनी अपेक्षायें अने एक प्रकृतिनुं सत्तास्थानक रूपक श्रेणीनी अपेक्षायें जाणवू तथा तिनिउवसंते Page #840 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ G१५ के उपशांतमोह गुणगणे अहावीश, चोवीश अने एकवीश, ए त्रण सत्तास्थानक होय. ए पूर्वली पेरें जावा. हवे एनो संवेध कहे . मिथ्यात्वे बावीशर्नु एकज बंधस्थानक बे. तिहां सात, थाउ, नव अने दश, ए चार उदयस्थानक . तेमध्ये सातने उदयें एकज अहावीशनी सत्ता होय, अने बीजा त्रण उदयें अहावीश, सत्तावीश अने बबीश, ए त्रण त्रण सत्ता प्रत्येके होय. एवं मिथ्यात्वं सर्व थर दश सत्तास्थानक होय. तथा सास्वादने एकवीशना बंधस्थानकें सात, थाप अने नव, ए त्रण उदयस्थानकने विषे प्रत्येके अहावीशनी सत्ता होय. एम त्रण सत्तास्थानक होय. ___ तथा मिों सत्तरनो बंध , तिहां सात, थाउ, नव, ए त्रण उदयस्थानकें प्रत्येकें अहावीश, सत्तावीश अने चोवीश, ए त्रण सत्ता गणतां नव सत्तास्थानक होय. __ अविरतियें सत्तरनो बंध , तिहां ब, सात, आठ अने नव, ए चार उदयस्थानक होय. तिहां बने उदयें थहावीश, चोवीश अने एकवीश, ए त्रण सत्तास्थानक होय, तथा सात अने श्राउ, ए बे उदय प्रत्येकें अहावीश, चोवीश, त्रेवीश, बावीश अने एकवीश, ए पांच पांच सत्तास्थानक होय, तथा नवने उदयें एकवीश विना बाकीनां चार सत्तास्थानक होय. एवं शरवाले सत्तर सत्तास्थानक होय. देशविरतियें तेरनो बंध जे, तिहां पांच, ब, सात अने आउ, ए चार उदयस्थानक होय. तिहां पांचने जदयें अहावीश, चोवीश अने एकवीश, ए त्रण सत्ता होय. तथा बने उदयें अहावीश, चोवीश, त्रेवीश, बावीश अने एकवीश, ए पांच सत्ता. तेमज सातने उदय पण एज पांच सत्तानां स्थानक होय, तथा धाउने उदयें एकवीश विना शेष चार सत्ता होय. एम सर्व थर सत्तर सत्तानां स्थानक होय. प्रमत्तें नवनो बंध, तिहां चार, पांच, ब अने सात, ए चार उदयस्थानक होय, तिहां चारने उदयें अहावीश, चोवीश अने एकवीश, ए त्रण सत्ता होय; पांच अने बने उदयें अहावीश, चोवीश त्रेवीश, बावीश अने एकवीश, ए पांच सत्ता प्रत्येकें होय; अने सातने उदयें एकवीश विना चार सत्ता होय. एम सर्व थर सत्तर सत्तास्थानक होय. तेवीज रीतें अप्रमत्ते पण एज सत्तर सत्तास्थानक जाणवां. - तथा अपूर्वकरणे नवनो बंध , तिहां चार, पांच अने ब, ए त्रणे उदयस्थानकें प्रत्येके अहावीश, चोवीश अने एकवीश, ए त्रण सत्ता गणतां नव सत्ता होय. अनिवृत्तियें पांच, चार, त्रण, बे अने एक, ए पांच बंधस्थानक होय. तिहां पांचने बंधे, बेने उदयें, श्रहावीश, चोवीश, एकवीश, तेर, बार अने अगीआर, ए ड सत्तास्थानक होय. तथा चारने बंधे, एकने उदयें, अहावीश, चोवीश, एकवीश, अगीश्रार Page #841 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ पांच अने चार, ए सत्ता होय, तथा त्रणने बंधे, एकने उदयें, अहावीश, चोवीश, एकवीश, चार अनेत्रण, ए पांच सत्ता होय. तथा बेने बंधे, एकने उदयें, अहावीश, चोवीश, एकवीश, त्रण अने बे, ए पांच सत्ता होय. तथा एकने बंधे, एकने उदयें, अहावीश, चोवीश, एकवीश, बे अने एक, ए पांच सत्ता होय. एवं सर्व मली पांच बंधस्थानकें थश्ने शरवाले सत्तावीश सत्तास्थानक होय. सूदमसंपरायें बंध विना एकने उदयें श्रहावीश, चोवीश, एकवीश अने एक, ए चार सत्तास्थानक होय, तथा उपशांतमोहें बंधोदय विना अहावीश, चोवीश अने एकवीश, ए त्रण सत्तास्थानक होय. एम सर्व गुणगणे सर्व मली ( १३३) मोहनीयनां सत्तास्थानक होय. एनुं स्वरूप सर्व पूर्वे नाव्युं . इति समुच्चयार्थः ॥ ५ ॥ ॥ श्रथ नामकर्मणि बंधस्थानादीन्याह॥हवे चौद गुणगणे नामकर्मना बंधोदय सत्तास्थानक श्रने नांगा कहे .॥ बन्नव बक्क तिग सत, उगं उगं तिगगं तिअ चन ॥ जग बचन उगपण चड, उगचज चक पणग एगचन ॥ ५ ॥ अर्थ-मिथ्यात्व गुणगणे बन्नवबक के बंधस्थानक, नव उदयस्थानक अने व सत्तास्थानक होय. बीजे गुणगणे तिगसतगं के त्रण बंधस्थानक, सात उदयस्थानक, श्रने बे सत्तास्थानक होय. त्रीजे गुणगणे फुगंतिगपुगं के बे बंधस्थानक, त्रण उदयस्थानक अने बे सत्तास्थानक होय. चोथे गुणगणे तिअड्चन के त्रण बंधस्थानक, आठ उदयस्थानक, अने चार सत्तास्थानक होय. पांचमे गुणगणे मुगलचन के बे बंधस्थानक, उ उदयस्थानक, अने चार सत्तास्थानक होय. बहे गुणगणे मुगपणचन के बे बंधस्थानक, पांच उदयस्थानक अने चार सत्तास्थानक होय. सातमे गुणगणे उगचञ्चऊ के0 बे बंधस्थानक, चार जदयस्थानक श्रने चार सत्तास्थानक होय. श्रापमे गुणगणे पणगएगचज के पांच बंधस्थानक, एक उदयस्थानक श्रने चार सत्तास्थानक होय. इत्यक्षरार्थः ॥ ५ ॥ हवे संवेध कहेले. तिहां मिथ्यात्व गुणगणे २३-२५-२६-२७-ए-३०, एड बंधस्थानक बे. तिहां अपर्याप्ता एकेजिय प्रायोग्य त्रेवीश बांधतां बादर, सूक्ष्म अने प्रत्येक साधारण पदें चार नांगा थाय तथा पर्याप्ता एकेंघिय प्रायोग्य पच्चीश बांधतां वीश नांगा अने अपर्याप्तात्रण विकलें जिय तथा पंचेंजिय तिर्यंच मनुष्य प्रायोग्य पच्चीश बांधतां, एकेको जांगो सर्वसंख्यायें पच्चीशने बंधे पञ्चीश नांगा होय. तथा पर्याता एकें जिय प्रायोग्य बबीश बांधतां शोल नांगा, तथा देवगति प्रायोग्य बहावीश Page #842 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ G१७ बांधतां आठ जांगा, नरकगति प्रायोग्य अहावीश बांधतां एक नांगो. एवं नव नांगा श्रहावीशने बंधे होय. तथा पर्याप्त बेंजिय, तेंजिय श्रने चौरिंजिय, प्रायोग्य उंगणत्रीश बांधतां प्रत्येके श्राप नांगा होय. तथा पर्याप्ता पंचेंजिय तिर्यंच प्रायोग्य उगणत्रीश बांधता (४६०७ ) नांगा तथा पर्याप्ता पंचेंजिय मनुष्य गति प्रायोग्य उगणत्रीश बांधतां (४६०७) नांगा, सर्व मली उंगणत्रीशने बंधे (ए४०) नांगा थाय. अहीं तीर्थकर सहित देवगति प्रायोग्य जंगणत्रीश प्रकृतिना बंधना नांगा थाठ न पामीयें, केमके सम्यक्त्व विना तीर्थकर नामकर्मनो बंध न होय. तथा पर्याप्त बेंजिय, तेंजिय अने चौरिंजिय प्रायोग्य त्रीश बांधतां प्रत्येके श्राप, श्राप नांगा होय, तथा पंचेंजियतिर्यंच प्रायोग्य त्रीश बांधतां (४६०७), शरवाले त्रीशने बंधे (४६३२) नांगा थाय. एवं उ बंधस्थानकें थश्ने मिथ्यात्व गुणगणे सर्व मली ( १३ए२६) नांगा होय. अहीश्रां श्राहारकछिक सहित देवगति प्रायोग्य त्रीशना बंधनो नांगो एक तथा जिननाम सहित मनुष्यगति प्रायोग्य त्रीशना बंधना नांगा था, एवं नव नांगा न होय. बाकीना नांगा होय. मिथ्यात्वें २१-२४-२५-२६-२७-२०-२५-३०-३१- ए नव उदयस्थानक होय. तिहां आहारकसंयत, वैक्रियसंयत अने केवली, एटला मिथ्यात्वं न होय. माटें ते संबंधी नांगा थहीं न कहेवा. शेष सर्व ४१-११-३५-६००-३१-११एए-११-२१४१९६४-शरवासे (१७७३) नांगा होय, एटले नव उदयस्थानकना नांगा ( १) पूर्व सामान्यादेशे जाव्या बे, ते मध्ये थी केवलीना श्राउ, थाहारकसाधुना सात, अने उद्योत सहित वैक्रियमनुष्यना त्रण नांगा, उंगणत्रीश, त्रीश, अने एकत्रीश, ए त्रण उदयनो एकेको नांगो उद्योत सहित वैक्रियसाधुने तथा देवताने होय. तेमां देवताने उत्तरवैक्रियना नांगा जूदा नथी लेखव्या श्रने साधु तो बहे, सातमे गुणगणे होय, पण मिथ्यात्वं न होय. माटें ए अढार उदय नांगा टाली बाकी (१७७३) उदयस्थानकना नांगा सर्व जीवनी अपेक्षायें होय, ते सर्व पूर्वे करा .तिहाथी जोश्लेवा. हवे मिथ्यात्वे व सत्तास्थानक होय, ते कहे . तिहां बाणुनी सत्ता चारे गतिना मिथ्यात्वी जीवने होय तथा जेवारें कोइएक वेदक सम्यकदृष्टि जीवें पूर्वे नरकायु बांध्यु ले तेमाटें ते अंत समय सम्यक्त्व वमीने नरकें जाय तेने अंतरमुहर्त पर्यंत नेव्याशीनी सत्ता होय तथा अंतरमुहर्त पड़ी ते वलीसम्यक्त्व पामे. अहीं आहारकचतुष्क, तथा जिननाम, ए बेहुनी समकालें नरकमांहे सत्ता न होय,तेजणीत्र्याणुनुं सत्तास्थानक नरक मांहे न होय, तथा अव्याशीनी सत्ता पण चारे गतिना मिथ्यात्वी जीवने होय, तथा ज्याशीनुं सत्तास्थानक, एकेंजियने विषे देवगति प्रायोग्य अथवा नरकगति १०३ Page #843 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१७ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ प्रायोग्य उवेत्ये थके पामीयें तथाएंशीनुं सत्तास्थानक तोत्र्याणु मध्ये थी तीर्थकरनाम,श्राहारकचतुष्क, वैक्रियषट्रक, नरकटिक, ए तेर प्रकृति उवेले थके एकेंख्यि मध्ये पामीयें, तेवार पठी ते एकेंशिय मध्येथी निकलीने विकलें जिय तथा पंचेंजियतिर्यंच मनुष्यमांहे अवतरी पर्याप्तो थया पली पण अंतरमुहूर्त लगें तेमांहे एंशीनुं सत्तास्थानक पामी अने ते अंतरमुहूर्त वीत्या पड़ी अवश्य वैक्रीयादिकनो बंध होय, तेमाटें. तथा ते एंशीमांदेथी वली मनुष्यगति अने मनुष्यानुपूर्वी उवेले थके तेज वाज मध्ये श्रहोत्तेरनी सत्ता पामीयें अथवा तेउ वाउ मध्ये थी श्रावेला विकलें छिय तथा पंचेंजियतिर्यंच तेमध्ये पण अहोत्तेरनुं सत्तास्थानक अंतरमुहूर्त लगें पामीये श्रने पर्याप्ता थया पली अवश्य मनुष्यहिक बांधे, माटे तिहां अहोतेरनी सत्ता न होय. एम सामान्य बंध, उदय अने सत्तानां स्थानक मिथ्यात्व गुणगणे कह्यां. ___ हवे सत्ता संवेधे नांगा कहे . तिहां मिथ्यात्वीने अपर्याप्ता एप्रिय प्रायोग्य त्रेवीश बांधतां सर्व नवे उदयस्थानक संजवे पण तेमध्ये पच्चीशने उदयें देवताना नांगा आठ अने नारकीनो नांगो एक, एवं नव तथा सत्तावीशने उदयें देवताना श्राव तथा नारकीनो एक तथा अद्यावीशने उदयें देवताना शोल अने नारकीनो एक, तेटलाज वली उंगणत्रीशना नदयना पण लेवा. तथा त्रीशने उदयें देवताना आठ, एवं शा नांगा त्रेवीशना बंधे न होय, जेजणी नारकी तो एकेजियमांहे जाय नहीं श्रने देवता पण अपर्याप्ता एकेजियमध्ये न जाय तेमाटें तेना शाउ जांगा टाली बाकी बझा उदयना ( ७७१३) उदय नांगा त्रेवीशने बंधे होय, तिहां बाणु, अठ्याशी, ज्याशी, एंशी अने बहोत्तेर, ए पांच सत्तास्थानक तो एकवीश, चोवीश, पच्चीश श्रने बच्चीश, ए चार जदयस्थानकें प्रत्येकें होय. तिहां पच्चीशने उदयें तेज वाजना जे उदयें सात नांगा , तिहां अघोत्तेरनी सत्ता, परंतु बीजे नांगे न होय. अने बबीशना उदयें मनुष्यना नांगा विना बाकी (३११) नांगे तेज वाजमांहेथी आव्या होय, तेनी अपेक्षायें अहोत्तरनी सत्ता होय, बीजे नांगे न होय. तथा बीजा सत्तावीश, अहावीश, जंगणत्रीश, त्रीश श्रने एकत्रीश, ए पांच उदय होतेर विना बाकीना चार चार सत्तास्थानक होय. एम शरवाले त्रेवीशने बंधे चालीश सत्तास्थानक होय. एमज पच्चीशने बंधे पण चालीश अने बीशने बंधे पण चालीश सत्तास्थानक होय पण एटलुं विशेष जे पर्याप्त एकेंद्रिय प्रायोग्य पच्चीशने बंधे श्रापणे उदयें देवताना पण उदय नांगा होय, तेथी अज उदय नांगे ए बे बंधस्थानक होय. अने नारकीना पांच उदय नांगा थहींयां न होय पण देवता जे एकेंजिय प्रायोग्य पच्चीश Page #844 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ ८१ल प्रकृतिनो बंधे करे तिदां बादर प्रत्येक पर्याप्त प्रायोग्य व जांगा बांधे. बाकी बार गान बांधे, केमके सूक्ष्म साधारण अपर्याप्ता मध्ये देवताने उपजवुं नथी ते माटे. श्रावीशने बंधें मिथ्यात्वीने त्रीश छाने एकत्रीश, ए बे उदयस्थानक होय. तिहां श्रीशनुं पंचेंद्रिय तिर्यंच तथा मनुष्यने दोय अने एकत्रीशनुं पंचेंद्रिय तिर्यंचने होय. त्रीशने उदयें पंचेंद्रिय तिर्यंच ने मनुष्यने देवगति प्रायोग्य तथा नरकगति प्रायोयावीशनो बंध होय. बाकी विकलेंद्रियना त्रीश जांगा उदयना न होय. ए बे उदयें यइ (४०४८ ) जांगे अहावीशनो बंध होय. तिहां त्रीशने उदयें बाणु, नेव्याशी, याशी ने ब्याशी, ए चार सत्ता होय, छाने एकत्रीशने उदयें नेव्याशीनी सत्ता न होय, तीर्थंकर सहित नेव्याशीनी सत्ता, तिर्यंचने विषे न पामीयें, तेथी त्रण सत्ता होय, तथा त्रीशने उदयें पण जे वेदकसम्यक्त्व वमी, जिननाम सहित मिथ्यात्वें गयो, तेने नरक प्रायोग्य श्रद्वावीश बांधतां पण नेव्याशीनी सत्ता होय. एम श्रद्वावी - शने बंधें सात सत्तानां स्थानक जाणवां. देवगति प्रायोग्य विना बीजी मनुष्य, तिर्यंचगति प्रायोग्य उगणत्रीशने बंधें वीश, नव विना बीजां सर्व उदय स्थानक होय. तथा बाणु, नेव्याशी, श्रयाशी, बथाशी, एंशी छाने अघोत्तेर, ए व सत्तास्थानक होय. तिहां एकवीराने उदयें व सत्ता होय, कहे . जिननाम बांधी सम्यक्त्व वमीने नरके जाय तेनी वच्चें एकवीशनो उदय होय, तिहां नेव्याशीनी सत्ता होय. तथा बाणु अने अव्याशी, ए वे सत्तास्थानक चतुर्गतिना जीवने विग्रहगतियें एकवीशने उदयें होय, तथा व्याशी अने एंशी, ए बे सत्ता, देव, नारकी विना बीजा जीवोने होय. अने थोत्तेरनी सत्ता देव, नारकी तथा मनुष्य विना बीजा जीवोने होय. एम एकवीशने उदयें व सत्तास्थानक होय तथा चोवीशने उदयें एक नेव्याशी विना बाकीनां पांच सत्तास्थानक, एकेंद्रियने होय. बीजा जीवोने ए उदय न होय तथा पच्चीशने उदयें व सत्तास्थानक होय, तथा बवीशने उदयें नेव्याशीनी सत्ता विना बाकी पांच सत्ता होय, जेनणी नेव्याशीनी सत्ता नारकीने दोय तेने तो बघीशनुं उदयस्थानकज नयी तथा सत्तावीशने उदयें होत्र विना पांच सत्ता होय, ते एकवीशना उदयनी पेरें जाववाँ. जेजणी तेज वाने सत्तावीशनो उदय नथी, बाकी एकेंद्रियादिकने पण पर्याप्तावस्थायें ए उदय होय, तेणे ते मनुष्यद्विक अवश्य बांधे, माटें अहोत्तेरनी सत्ता यहीं ए उदयमां वने उदयें पांच सत्ता होय तेमध्यें व्याशीनी सत्ता विकलेंद्रिय तथा पंचेंद्रिय तिर्यंच मनुष्यनी अपेक्षायें लेवी ने वीजां सत्तास्थान पूर्वली पेरें जावां तथा उगणत्रीशने उदयें पण एज पांच सत्ता पूर्वली पेरें जाववी तथा त्रीश तथा For Private Personal Use Only Page #845 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज२० सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ.६ ने उदयें नेव्याशी विना, बाकी तेहीज चार सत्ता, वीकलेंघिय अने तिर्यंच मनुष्यनी श्रपेक्षायें होय, अने नेव्याशीनी सत्ता तो जिननाम बांधी सम्यक्त्व वमी नरकें जाता एवा मिथ्यात्वी नारकीने होय. तिहां तो त्रीशन उदयस्थानक न होय, तथा तेहीज चार सत्तास्थानक एकत्रीशने उदयें पण मनुष्य विना बीजा जीवोने होय जे जणी एकत्रीशनो उदय, सामान्यमनुष्यने नथी, केवलीने दे. एम सर्व थव गणत्रीशने बंधे (४५) सत्ता होय. देवगति प्रायोग्य त्रीशना बंध विना विकलेंजिय तथा पंचेंजिय प्रायोग्य त्रीशने बंधे सामान्य वीश, श्राप अने नव, ए त्रण उदयस्थानक विना बाकीनां नव नदयस्थानक होय, तिहां नेव्याशी विना पांच सत्ता होय जेजणी तिर्यंचगति मध्ये जिननामनी सत्ता न होय. तिहां एकवीश, चोवीश, पच्चीश, श्रने बबीश, ए चार उदयें पांच पांच सत्तास्थानक होय अने बीजा पांच उदयें अघोत्तर विना चार चार सत्तास्थानक होय. एवं नव उदयें थश् चालीश सत्ता होय. अहीं नेव्याशीनुं सत्तास्थान तो देवगति प्रायोग्य आहारकठिक सहित त्रीशने बंधे अने जिननाम सहित मनुष्य प्रायोग्य त्रीशने बंधे होय, ए बेहु मिथ्यात्वीन बांधे. एटले ए मिथ्यात्व गुणगणे ब बंधस्थानकें नव उदयें यश् बसें ने बार सत्तास्थानक होय. हवे साखादने बंधस्थानक कहे जे. साखादने वर्त्ततां श्रहावीश, उगणत्रीश अने त्रीश, ए त्रण बंधस्थानक होय. देवगति प्रायोग्य अहावीशना श्राप नांगा साखादने बंधाय, तेना बांधनार पंचेंजिय तिर्यंच तथा मनुष्य होय अने नरक प्रायोग्य अहावी. शनो बंध तो मिथ्यात्व प्रत्ययि ने तेजणी साखादने न बंधाय तथा पंचेंजियतियंच प्रायोग्य अने मनुष्य प्रायोग्य गणत्रीश प्रकृति बंधना नांगा (६४०० ) नो बंध, एकेंजिय, विकलेंजिय तथा तिर्यंच, मनुष्य, देवता, नरकीने साखादने होय. तिहां हुंम संस्थान अने बेवकुं संघयण न बंधाय, तेथी पांच संघयण अने पांच संस्थान तथा सप्त युगलना विकल्पं करी बत्रीशसें नांगा प्रत्येकें मनुष्य तिर्यंचगति प्रायोग्य गणत्रीशना बंधे होय. ए बेहुना मली (६४०० ) नांगा होय. तथा पूर्वे कह्यो जे एकेंजियादिकने सास्वादने उद्योत सहित त्रीशनो बंध पंचेंजिय तिर्यंच प्रायोग्यज करे, तिहां (३२००) होय. ते पूर्वे विस्तारें कह्या बे, तिहांथी समजी सेवा. शरवाले त्रणे बंधस्थानकें थश्ने नांगा (ए६०७) होय. __ साखादने एकवीश, चोवीश, पञ्चीश, बबीश, उगणत्रीश, त्रीश अने एकत्रीश, ए सात उदयस्थानक होय. तिहां नारकी विनात्रणे गतिना जीवनी अपेक्षायें एकवीशनो .. उदय, बे गतिने विचालें वाटें वदेतां जीवने होय. तिहां उदय नांगा बत्रीश होय. Page #846 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ ८२१ ते केवी रीतें ? तो एकवीशने उदयें सर्व मली बेंतालीश जांगा कह्या बे तेमध्यें सात अपर्याप्ताना, एक सूक्ष्म पर्याप्तानो, एक नारकीनो अने एक केवलीनो, एवं दश जांगा सास्वादने न होय, शेष बत्रीश जांगा होय. तथा चोवीशनो उदय तो एकेंद्रियने उत्पन्न मात्रने होय. यहीं पण, बादर पर्याप्ताने यश यशना विकल्पें बे जांगा सास्वादने लाने, बाकी सूक्ष्म साधारणवाला जांगा न होय, अने वैक्रियवालो नांगो तेज वाउने होय, ते पण तिहां साखादने न होय. तेजणी ते पण न लेवो. तथा पच्चीशनो उदय तो देवतामहे उत्पन्न मात्रनेज होय, अने कोइएकने न पण होय. तिहां देवताना श्राव जांगा सुजग, दुर्जग, खदेय, श्रनादेय, अयश, यशें उपजे तथा वीशनो उदय तो विकलेंद्रिय, पंचेंद्रिय तिर्यंच, मनुष्यमांदे उत्पन्न मात्रनेज होय. तिहां पर्याप्तानो एकेको जांगो टालीने विकलेंद्रिय पर्याप्ताना ब, पंचेंद्रिय तिर्यंचना ( २०० ), मनुष्यना ( २८० ), एवं (५०२ ) जांगा, बवीशने उदयें होय. तथा सत्तावीश ने श्रद्वावीशनो उदय तो साखादने होयज नहीं, केमके ए बे उदयस्थानक तो उपना पढी अंतरमुहूर्त्त गया पढी होय बे, घने सास्वादन तो ब यावली माठेरी लगेंज होय, ते माटें ते न होय. तथा गणत्रीशनो उदय तो देव, नारकीने पर्याप्तावस्थायें प्रथम प्राप्त सम्यक्त्वथकी प्रगताने पामीयें, तिहां देवताना व अने नारकीनो एक, एवं नव जांगा होय. तथा त्रीशनो उदय तो पंचेंद्रिय तिर्यंच, मनुसर्व पर्याप्त पूरी कश्या पढी श्रपशमिक सम्यक्त्वथी पकतां होय. तथा उत्तर वैक्रियें वर्त्ततां देवताने उद्योतना उदयें होय. तिहां मनुष्य अने तिर्यंचना प्रत्येक प्रत्येकें ( ११५२ ) जांगा लेवा तथा देवताना याव जांगा लेवा, एम सर्व मली (२३१२ ) उदय जांगा होय. तथा एकत्रीशनो उदय पंचेंद्रिय तिर्यंच पर्याप्ताने प्रथम सम्यक्त्व वमतानें होय. तिहां जांगा ( ११५२ ) होय. एम शरवाले सात उदयना यर साखादनें उदय जांगा (yog ) होय. साखादने सत्तास्थानक बाणु ने अयाशी, ए बे होय. तिहां श्राहारकचतुष्क बांधी उपशमश्रेणीथी परुतां साखादन गुणवाणुं पामे, तेने बाणुनुं सत्तास्थानक होय यशीनी सत्ता तो चारे गतिना साखादनीने होय. हवे संवेध कहे बे. डावीशने बंधें सास्वादने त्रीश छाने एकत्रीश, ए बे उदयस्थानक होय. जेजणी देवगति प्रायोग्य श्रद्वावीश प्रकृति, करण अपर्याप्तो न बांधे तेमाटें बीजां उदयस्थानक एने न होय. तिहां मनुष्य बंधकनी अपेक्षायें त्रीशने उदयें बाणु ने याशी, ए बे सत्तास्थानक होय. छाने तिर्यंचने उपशमश्रेणी न दोय, माटे उपशमश्रेणीथी पडवाने जावें बाणुनी सत्ता न होय, एक अय्याशीनीज For Private Personal Use Only Page #847 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ होय. तथा तिर्यच, मनुष्य प्रायोग्य उगणत्रीश बांधतां, साखादनीने साते उदयस्थानक होय. तिहां पोतपोताने उदयस्थानकें एकेकुंअध्याशीनुं सत्तास्थानक होय, तथा मनुष्यने त्रीशने उदयें वर्तताने बाणु अने अध्याशी, ए बे सत्तास्थानक होय, शेष सर्वने एकज अध्याशीनु होय. तथा एम त्रीशना बंधकने पण संवेध कहेवो. सर्व मली साखादने अढार सत्तास्थानक होय. । हवे मिश्रगुणगणे नामकर्मना अहावीश अने उगणत्रीश, ए बे बंधस्थानक होय. तिहां मिश्रदृष्टि तिर्यंच, मनुष्यने देवगति प्रायोग्य अहावीशनो बंध होय, तिहां नांगा श्राठ होय, अने मनुष्य प्रायोग्य अंगणत्रीशनो बंध मिश्रदृष्टि देव, नारकीने होय. तिहां स्थिर, अस्थिर, शुज, अशुन, यश, अयशने विकल्प नांगा थापामीयें, बीजा जेब संस्थानादिकना विकल्प नांगा जपजे, ते अहींयां न होय, एम आगले गुणगणे पण जाणवू. शरवाले बंध जांगा शोल होय. मिों उंगणत्रीश, त्रीश श्रने एकत्रीश, ए त्रण उदयस्थानक होय, तिहां उंगणत्रीशने उदयें देवना नांगा आठ अने नारकीनो एक, एवं नव नांगा होय. तथा त्रीशने उदय पंचेंजिय तिर्यंचना जदय नांगा ( १७२७), मनुष्यना ( १९५५ ), एवं (२०) त्रीशने उदयें उदय नांगा होय. तथा एकत्रीशनुं उदयस्थानक, पंचेंज्यि तिर्यंचने होय, तिहां नांगा ( ११५१ ). सर्व थर मिश्रगुणगणे उदयत्नांगा (४०४१) होय. अहींयां सत्तास्थानक बाणु अने अठ्याशी, ए बे होय. हवे संवेध लखे जे. अहावीशने बंधे मिश्रष्टिने त्रीश अने एकत्रीश, ए बे उद. यस्थानक होय. तेने विषे प्रत्येकें बाणु अने अध्याशी, ए बे सत्तास्थानक होय, तथा उगणत्रीशना बंधकने एकज उंगणत्रीशनुं उदयस्थानक होय, तिहां पण तेहीज बे सत्तास्थानक जाणवां. सर्व मली मिश्रगुणगणे ब सत्तास्थानक होय. अविरति गुणगणे अहावीश, जंगणत्रीश अने त्रीश, ए त्रण बंधस्थानक होय. तिहां तिर्यंच, मनुष्यने चोथे गुणवाणे देव प्रायोग्य बांधतां अहावीशनो बंध होय. तिहां नांगा थाप, तथा मनुष्यने देवगति प्रायोग्य जिननाम सहित बांधतां गणत्रीशनो बंध होय. अहीं पण आठ नांगा तथा देवता अने नारकीने चोथे गुणगणे मनुज्यगति प्रायोग्य उंगणत्रीश बांधतां नांगा आठ तथा देव नारकीने सम्यक्त्व प्रत्यय जिननाम सहित मनुष्य प्रायोग्य त्रीश बांधतां पण नांगा आठ होय, एवं बंधनांगा बत्रीश थया. अहींयां अविरति सम्यकदृष्टि जीव अपर्याप्ता मध्ये न उपजे माटे अपर्याप्तानो एक नांगो टालीयें, बाकी आठ नांगा लेवा. अविरति गुणगणे एकवीश, पच्चीश, बबीश, सत्तावीश, अहावीश, गणत्रीश Page #848 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ.६ २३ त्रीश थने एकत्रीश, ए आठ उदयस्थानक होय. तिहां एकवीशने उदये देवताना उदय नांगा आठ, मनुष्यना श्राप, पंचेंजियतिर्यंचना श्राप लेवा. केम के अविरति सम्यक्दृष्टि अपर्याप्तामध्ये न उपजे, माटें अपर्याप्तानो नांगो टाली शेष श्राप आठ नांगा लेवा तथा नारकीनो एक, एवं पञ्चीश उदय नांगा होय. ए दायिक सम्यकदृष्टि पूर्वबझायुवालो चारे गतिने विषे उपजे पण ते अपर्याप्ता मध्ये न उपजे, तेनी अपेक्षायें एकवीशनो उदय लेवो. पच्चीश तथा सत्तावीशनो उदय, देव अने नारकीने तथा वैक्रिय तिर्यंच मनुष्यने होय. तिहां नारकी दायिक तथा वेदक सम्यक्दृष्टि जाणवा अने देवता त्रिविध सम्यक्त्वी होय, एम चूर्णिमध्ये कडं . तथा बबीशनो उदय, पंचेंजियतिथंच मनुष्य दायिक तथा वेदक सम्यकदृष्टिने होय जेनणी उपशम सम्यक्दृष्टि तो तिर्यंच मनुष्य मध्ये न उपजे, तेमांहे पण वेदक सम्यक्दृष्टि तो मोहनीयनी बावीश प्रकृतिनी सत्तावालोज होय तथा अहावीश अने उगणत्रीश, ए बे उदय नारकी, तिर्यंच अने देवताने होय तथा त्रीशनो उदय एक नारकी विना बीजी त्रणे गतिमध्ये होय. तथा एकत्रीशनो उदय, पंचेंजियतिर्यंचने होय. अहीं सर्वना पोतपोताना उदय नांगा लेवा. अविरतियें सत्तास्थानक चार होय. तिहां जे अप्रमत्त, तथा अपूर्वकरण गुणगणे थाहारकठिक तथा जिननाम सहित देव प्रायोग्य एकत्रीश बांधीने वलतो मरण पामी देव थाय, तेनी अपेक्षायें त्र्याणुनी सत्ता जाणवी. तथा थाहारक चतुष्क बांधी वली परिणाम परावर्तियें मिथ्यात्व पामी चारगतिमाहेली नावे ते गतिमांहे उपजीने वला तिहां सम्यक्त्व पामे, तेने बाणुनी सत्ता जाणवी. ए सत्ता, देव, मनुष्यमांहे मिथ्यात्वें गया विना पण होय, माटे आंहीं लीधी तथा नेव्याशीनी सत्ता तो देव, मनुष्य अने नारकी अविरति सम्यकदृष्टिने जिननामनो बंध , ते माटें होय, तथा अव्याशीनी सत्ता चारे गतिना सम्यक्दृष्टिने होय. हवे सत्ता संवेध कहे . अविरति सम्यकदृष्टि पंचेंजिय तिर्यंच, मनुष्यने देव प्रायोग्य अहावीशने बंधे श्राप उदयस्थानक होय. तिहां पच्चीश श्रने सत्तावीशनो उदय, वैक्रिय तिर्यंच, मनुष्यने होय. बीजा उ सामान्य होय. ते एकेका उदयें वाणु अने अध्याशी, ए बेबे सत्तास्थानक होय. एम आउ उदयनां शोल सत्तास्थानक होय, तथा उगणत्रीशनो बंध एक देवगति प्रायोग्य, बीजो मनुष्यगति प्रायोग्य होय. तिहां देवगति प्रायोग्य जिननाम सहित अंगणत्रीशना बंधक मनुष्यज होय, परंतु तिर्यंच न होय, तेने एकत्रीशना उदय विना साते उदयस्थानक होय, केमके मनु Page #849 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२४ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ यने एकत्रीशनो उदय नथी, ते एकेका उदये त्र्याणु ने नेव्याशी, ए वे बे सत्तास्थानक होय. तथा मनुष्यगति प्रायोग्य उगणत्रीशनो बंध, देव, नारकीने होय. तिहां २१-२५-२७-२८-२०- ए पांच उदयस्थानक होय. एकेका उदयें बाए अने याशी, ए बेबे सत्ता होय, तथा मनुष्यगति प्रायोग्य जिननाम सहित त्रीशनो बंध पण देव, नारकीने होय. तिहां २१ - २५-२७-२८-२०-३०, ए व उदयस्थानक होय. तिहां प्रत्येक घ्याणु अने नेव्याशी, ए वे बे सत्ता, देवताने होय, अने नारकी ने पांच उदयस्थानक होय. तिहां प्रत्येके एकज नेव्याशीनी सत्ता होय, केमके, जिननामनी सत्ता बतां श्राहारकनी सत्ता नरकमध्यें न होय ते माटें त्र्याणुनी सत्ता नारकी मध्यें न पामीयें, छाने एकत्रीशने उदयें बे सत्ता होय. सर्व थइ चोपन्न सत्ता थइ. देशविरति गुणगणे अहावीश ने उगणत्रीश, ए बे बंधस्थानक होय. तिहां मनुष्याने तिर्यंच, देशविरति, देवगति प्रायोग्य अहावीश बांधे, तिहां जांगा a. तथा तेहीज जिननाम सहित उगणत्रीश प्रकृति एकला मनुष्य देशविर तिज बांधे पण तिर्यंच न बांधे, तिहां जांगा था. सर्व मली जांगा शोल होय. 1 देशविर तियें सामान्यें २५-२१-२८-२०-३०-३१ - ए ब उदयस्थानक होय. तिहां श्रावने बंधे प्रथमना चार उदय तो वैक्रिय तिर्यंच, मनुष्यने होय, तिहां एकेको नांगो करतां चार जांगा थया तथा अद्यावीश, जंगपत्रीश, ए उदय सामन्या तिर्यंच, मनुष्यने तथा वैक्रियने पण होय. तिहां उदय जांगा व तथा त्रीशनो उदय तिर्यंच, मनुष्यने, तिहां ब संघयण, व संस्थानना विकल्पें जांगा बत्रीश, ते सुखर दुःखरें बहोत्तेर, ते शुनाशुन खगतियें ( १४४ ), प्रत्येक एकेका उदयें होय. हीं दौर्भाग्य, श्रनादेय ने यशः कीर्त्तिनो उदय गुण प्रत्यय जणी न होय तेथे तेना विकल्पना जांगा न होय, तथा वैक्रिय तिर्यंचनो उदय जांगो एक, मली ( २० ) जांगा थाय. तथा एकत्रीशनो उदय तिर्यंचने होय. तिहां जांगा (१४४) एम शरवाले (४४३ ) अहावीराने बंधें उदय जांगा होय. तथा गणत्रीशने बंधें मनुष्यने २५-२७-२८-२०-३०, ए पांच उदयस्थानक होय. तिहां प्रथमनां चार उदयस्थानक वैक्रियनां बे, तेनो नांगो एकेक तथा त्रीशना उदयनांगा ( १४४ ) मली ( १४८ ) जांगा थाय. शरवाले (२०१ ) जांगा याय. देशविर तिये ३-२-८० - ८०, ए चार सत्तास्थानक होय. तिहां जे श्रप्रमत्त, पूर्वकरणवालो तीर्थंकर तथा आहारक बांधीने पडे, ते परिणामे देशविरति याय तेने त्र्यानी सत्ता होय. शेषनी जावना अविरतिनी पेरें जाणवी. वे संवेध कहे बे. देशविरति मनुष्यने श्रद्वावीशने बंधें पच्चीश, सत्तावीश, · For Private Personal Use Only Page #850 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ श्रावीश, उगणत्रीश अने त्रीश, ए पांच उदयस्थानक होय. तिहां प्रत्येकें बाणु अने अध्याशी, ए बेबे सत्ता होय. तेम तिर्यंचने पण एकत्रीश सहित उ उदयें बे बे सत्ता होय. तथा गणत्रीशनो बंध देश विरति मनुष्यनेज होय. तिहां पच्चीशथी त्रीशवालां तेहीज पूर्वलां पांच उदयस्थान लेवां. तिहां त्र्याणु अने नेव्याशी, ए बेबे सत्तास्थानक होय. सर्व थ देशविरतियें बावीश सत्ता होय. हवे प्रमतें बंधादिक संवेध कहे . प्रमत्त साधुने अहावीश, उंगणत्रीश, ए वे बंधस्थानक देशविरति मनुष्यनी पेरें नाववां. तिहा प्रत्येक बंधे मनुष्यना नांगा श्राप था लेतां शोल नांगा थाय तथा २५-२७--ए-३०, ए पांच पांच उदयस्थानक होय. तिहां प्रथमना चार उदय तो आहारक अने वैक्रिय शरीर करनारा साधुनी अपेक्षायें लेवा. तिहां पच्चीश अने सत्तावीशना उदयें बे बे नांगा तथा अहावीश अने उगणत्रीशना उदयें चार चार नांगा अने त्रीशनो उदय, सहज मनुष्यने होय. तिहां नांगा बे आहारक वैक्रियना अने (१४४ ) सहजना मलीने (१४६), एम सर्व मली एकेका बंधस्थानकें (१५७) नांगा करतां (३१६) उदय नांगा थाय, तिहां व्याणु, बाणु, नेव्याशी अने अव्याशी, ए चार सत्तास्थानक होय. हवे संवेध देखाडे . अहावीशने बंधे पांचे उदये बाणु अने अव्याशी, ए बे सत्ता होय. तिहां आहारकें बाणुनीज सत्ता होय अने जिननाम सत्तायें उतां अहावीशनो बंध न होय तेमाटे त्र्याणु अने नेव्याशी, एबे सत्ता जंगणत्रीशने बंधे पांचे उदयस्थानकें प्रत्येकें होय, जेजणी उंगणत्रीशनो बंध जिननाम बांधतांज होय. एम सर्व थ वीश सत्तास्थानक प्रमतें होय. हवे अप्रमतें बंधादिक सत्ता संवेध कहे . अप्रमत्त साधुने अहावीश, जंगणत्रीश, त्रीश, एकत्रीश, ए चार बंधस्थानक होय, तिहां प्रथमनां बे तो प्रमत्तनी पेरें नाववां तथा आहारकछिक सहित बांधतां अनुक्रमे त्रीश, एकत्रीशनो बंध होय. ए चार बंधस्थानकें प्रत्येकें एकेको नांगो करतां चार बंध नांगा थाय, केमके अहीं अस्थिर, अशुज, अयशनो बंध अप्रमतें नथी माटे. तथा प्रत्येक बंधस्थानकें जंगणत्रीश अने त्रीश, ए बे बे उदयस्थानक होय. तिहां जे प्रमत्त थको वैक्रिय तथा थाहारक थारंजी अप्रमतें आवे तेने उद्योतने उदयें उगणत्रीशनो उदय होय. तथा त्रीशनो उदय सहज होय, तिहां प्रत्येक उदयें एक नांगो वैक्रियनो तथा थाहारकनो, एवं बे उदय बे नांगा तथा सहज शरीरें अप्रमत्तने त्रीशने उदयें पूर्वे देशविरतिस्थाने ( १४६ ) नांगा कह्या, ते होय. सर्व मली एकेका बंधे उदय नांगा (१४७) होय. शरवाले चार बंधना मलीने (एए) उदय नांगा होय. तिहां १०४ Page #851 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ अहावीशने बंधे बेहु उदय प्रत्येकें अठ्याशीनी सत्ता होय; अने उंगणत्रीशने बंधे बेहु उदय प्रत्येकें नेव्याशीनी सत्ता होय; तथा त्रीशने बंधे बेहु उदयें प्रत्येकें बाणुनी सत्ता होय; तथा एकत्रीशना बंधे बेहु उदये प्रत्येकें त्र्याणुनी सत्ता होय. अंहींयां जे तीर्थकर तथा श्राहारक निश्चे बांधे, तेने एकेकी सत्ता होय. एवं श्राप सत्ता थाय. ____ हवे अपूर्वकरणे बंधोदय सत्ता संवेध कहे . अपूर्वकरणे अठावीश, उंगणत्रीश, त्रीश, एकत्रीश अने एक, ए पांच बंधस्थानक होय. तिहां प्रथमनां चार, अप्रमत्तनी पेरें लेवां, तथा एक यशःकीर्तिनो बंध, ते सातमे नागें देवगति प्रायोग्य बंधना विजेदें होय, तिहां नांगो प्रत्येकें एकेक होय. सर्व थर बंधनांगा पांच होय. तिहां प्रत्येक बंधस्थानकें एकत्रीशनुंज उदयस्थानक होय. तिहां प्रथम संघयणने उ संस्थानना विकल्पं न नांगा, ते शुनाशुन खगतियें बार अने सुखर मुखरें चोवीश नांगा थाय. अने कोइएक श्राचार्य, पहेला त्रण संघयणे उपशमश्रेणीनो आरंज माने बे. तेना मतें बहोत्तेर उदय नांगा होय. शरवाले पांच उदयना (३६० ) नांगा थाय तथा तिहां प्रथम चार बंधस्थानके त्रीशने उदयें अनुक्रमे अध्याशी, नेव्याशी, बाणु अनेत्र्याएं, ए एकेक सत्तास्थानक होय, अने एकने बंधे त्रीशने उदयें ए चारे सत्ता होय. शरवाले आठ सत्तास्थानक होय. ॥ ५ ॥ एगेग मह इगेग, महब उनमब केवल जिणाणं ॥ एगं चन एगं चन, अह चन उ बक्कमुदयंसा ॥ ५ ॥ अर्थ-नवमे गुणगणे एगेगम के एक बंधस्थानक, एक उदयस्थानक अने आठ सत्तास्थानक होय. दशमे गुणगणे गेगमह के एक बंधस्थानक, एक उदयस्थानक श्रने पाठ सत्तास्थानक होय. तथा बलम के उद्मस्थ यतिने उपशांतमोह, वीणमोह, श्रने केवल जिणाणं के केवली जिन ते सयोगी केवली तथा अयोगी केवली, ए चार गुणगणावालाने नामकर्मनो बंध न होय. तिहां उपशांतमोहने एगचउ के एक उदयस्थानक अने चार सत्तास्थानक होय, तथा क्षीणमोहने एगंचल के एक उदयस्थानक, अने चार सत्तास्थानक होय. सयोगी केवलीने बचन के श्राप उदयस्थानक श्रने चार सत्तास्थानक होय अने अयोगी केवलीने सुबक के बे उदयस्थानक अने सत्तास्थानक होय, ए रीतें मुदयंसा के उदय अने अंश एटले सत्ता तेनां स्थानक चार गुणगणे जाणवां. हवे अनिवृत्तिबादर तथा सूक्ष्मसंपरायें बंधादिक कहे . ए बेमुणगणे एक यशःकी. तिनो बंध अने त्रीशनो उदय होयं. तिहां दपकने नांगा चोवीश अने औपशमिकने Page #852 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ २७ त्रण संघयणना विकल्पें नांगा बहोंत्तेर उदयना जाणवा तथा व्याणु, बाणु, नेव्याशी अठ्याशी, एंशी, उंगणाएंशी, बहोत्तेर अने पंच्चोत्तेर, ए आठ सत्तास्थानक होय. तिहां पहेलां चार सत्तास्थानक तो उपशमश्रेणीनी अपेक्षायें होय तथा पकश्रेणी पण ज्यांसुधी नामकर्मनी तेर प्रकृति दय न थाय, त्यां लगे जाणवां अने तेर प्रकृतिना दय पी 0-30-७६-७५- ए चार सत्तास्थानक होय. अहीं बंधोदयनो ज्नेद नथी ते माटें संवेध नथी देखाड्यो. ___ उपशांतमोहें बंधने अनावें एकज त्रीश प्रकृतिनुं उदयस्थानक . तिहां नांगा बहोत्तेर होय अने ज्याणु, बाणु, नेव्याशी अने अठ्याशी, ए चार सत्ता होय. तथा दीपमोहें एकज त्रीशनुं जदयस्थानक . तिहां जांगा चोवीश, तिहां पण तीर्थकर नाम सहितने सर्व संस्थानादिक प्रशस्तज होय, ते माटें. तिहां ज०-७६- ए वे सत्ता तीर्थंकरने तथा ए–७५, ए बे सत्ता, अतीर्थकरने, एवं चार सत्ता होय. __सयोगी केवलीने वीश, एकवीश, बबीश, सत्तावीश, अहावीश, उंगणत्रीश, त्रीश अने एकत्रीश, ए पाठ उदयस्थानकना नांगा बसें पूर्व सामान्यादेशे विचास्या , तिहांधी जाणवा. अहीं सत्तास्थानक चार क्षीणमोहनी पेरेंज लेवां तथा संवेध चौद जीवस्थानक विचारें संझी पर्याप्ता छारें कह्यो , तिहांथी लेवो. __ अयोगी गुणगणे नव अने आउ, ए बे उदय होय, तेना नांगाबे अने Go-su७६-७५-ए--ए ब सत्ता होय. तिहां तीर्थकरने नवने उदय ७०-७६-ए-ए त्रण सत्ता होय तथा सामान्य केवलीने आग्ने उदये ए-७५--ए त्रण सत्ता होय. एम चौद गुणगणे श्राप कर्मनो बंध, उदय, सत्ता संवेध देखाड्यो. ॥ श्रथ मिथ्यात्वस्य त्रयोविंशत्यादिक बंधस्थानषट्के क्रमेण नंगप्ररूपिकां नायगाथामाह ॥ हवे मिथ्यात्वगुणगणानां जे त्रेवीशादिक उबंधस्थानक बे, तेने विषे अनुक्रमें केटला बंधना नांगा उपजे, ते प्ररूपवाने नाष्यगाथा कहे .॥ चन पणवीसा सोलस, नव चत्तालासयाय बाणनइ ॥ बत्ती सुत्तर गया, खसया मिबस्स बंध विही ॥६०॥ अर्थ-त्रेवीशने बंधस्थानकें चल के चार लांगा, पच्चीशने बंधे पणवीसा के पच्चीश नांगा, बबीशने बंधे सोलस के शोल नांगा, अहावीशने बंधे नव के नव जांगा, उगणत्रीशने बंधे चत्तालासयायबाण के बाणुसें ने चालीश नांगा, त्रीशने बंधे बत्तीसुत्तरगयालसया के तालीशसें ने बत्रीश जांगा उपजे, ए मिस्सबंधविही Page #853 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जश्न सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ.६ के मिथ्यात्वगुणगणे उ बंधस्थानकें थश्ने ( १३एश६ ) नांगा होय. एनी भावना पूर्वे कही डे त्यांची जाणवी. ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ ६॥ ॥अथ सास्वादनेऽष्टाविंशत्यादि बंधस्थानत्रयत्नंगप्ररूपकानाष्यगाथामाह ॥ ॥ हवे सास्वादन गुणगणानां जे अहावीशादिक त्रण बंधस्थानक , तेने विषे बंधना केटला नांगा उपजे, ते प्ररूपवाने नाष्यगाथा कहे .॥ अह सया चनसही, बत्तीस सयाई सासणे नेआ ॥ अहावीसाईसु, सवाणादिअ उन्नन ॥६॥ अर्थ-अहावीशने बंधे अह के आठ नांगा अने उगणत्रीशने बंधे सयाचनसही के चोशठसें नांगा, त्रीशने बंधे बत्तीससया के बत्रीशसें नांगा, ए रीतें सासणेनेत्रा के साखादन गुणगणे नांगा उपजे. अठावीसाईसु के अहावीशादिक त्रण बंधस्थानकें थश्ने सवाणशाहिउन्नतश् के सर्व मली उन्नुसें ने श्राप नांगा उपजे, तेनी नावना पूर्वे कही अने मिश्रादिक गुणगणे तो बंधस्थानकना नांगा थोडा ठे तेमाडे ते पूर्वे कह्या , तेम जाणवा. ॥अथ मिथ्यात्वसत्कैकविंशत्यायुदयस्थानके नंगप्ररूपिका गाथा ॥ हवे मिथ्यात्व गुणगणे एकवीश श्रादे देश्ने नव उदयस्थानके नांगा प्ररूपवा गाथा कहे .॥ एगचत्तिगार बत्ति, स उसय गतिसिगार नव नन॥ . सत्तरिगंसिगुत्तिस, चन्द गार चनसहि मिबुदया ॥ ६२॥ अर्थ- एकवीशने उदयें एगचत्त के एकतालीश नांगा, चोवीशने उदयस्थानके गार के अगीश्रार नांगा, पच्चीशने उदयें बत्तीस के बत्रीश नांगा, बबीशने उदयें उसय के बसें नांगा, सत्तावीशने उदय गतिस के एकत्रीश नांगा, अहावीशने उदये गारनवनउ के अगीबारसे ने नवाणु नांगा, गणत्रीशने उदयें सत्तरिगंसि के सत्तरसे ने एक्याशी नांगा उपजे. त्रीशने उदय गुत्तिसचनद के उंगणत्रीशसें ने चौद नांगा, एकत्रीशने उदयस्थानके गारच-सही के अगीथारसे ने चोशठ नांगा उपजे, मिबुदया के० मिथ्यात्वगुणगणे ए नव उदयस्थानकें थश्ने (१७७३) नांगा होय. ॥६॥ ॥ अथ सास्वादनकविंशत्यायुदयस्थानसप्तकनंगप्ररूपिकानाष्यगाथामाह ॥ ॥हवे सास्वादने एकवीशादि सात उदयस्थानकें नांगा प्ररूपवा नाष्यगाथा कहे .॥ बत्तीस उन्नि अध्य, बासी सयाय पंच नव उदया॥ बारदिआ तेवीसं, बावन्निकार ससयाय ॥६३ ॥ Page #854 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ नए अर्थ- एकवीशने उदय बत्तीस के बत्रीश नांगा, तिहां श्राउ मनुष्यना, विकलेंजियना, श्राप देवताना, आठ तिर्यंचना, बे एकेंजियना. चोवीशने उदयें सुन्नि के० बे नागा तियंचना जाणवा. तथा पञ्चीशने उदयें अध्य के आठ नांगा देवताना होय, बबीशने उदयें बासीइसयायपंच के पांचसे ने व्याशी नांगा होय. तिहां ()मनुष्यना, (२) तिर्यंचना, ब विकलेंजियना; उंगणत्रीशनें उदयें नवउदया के नव उदय नांगा होय, तेमध्ये श्राप देवताना, एक नारकीनो जाणवो. त्रीशने उदयें बारहिभातेवीसं के त्रेवीशसें ने बार नांगा, तेमध्ये ( ११५५ ) मनुष्यना, (१९५५) तिर्यचना, आठ देवताना जाणवा. एकत्रीशने उदयें बावन्निकारससयाय के अगीवारसें ने बावन नांगा तिर्यंचना होय. सर्व मली साते उदयस्थानकें थश्ने (४०) उदयनांगा थाय. एनी नावना पूर्ववत्. अने मिश्रादिक गुणगणे उदयनांगा पोतानी मेलेंज विचारीने कहेवा ॥३॥ ॥अथ गतिचतुष्कक्रमेण बंधोदयसत्तास्थानान्याह॥ ॥हवे गत्यादिक बाश मार्गणाधारें नामकर्मनां बंधोदय सत्ता स्थानक कहे . तिहां प्रथम नरकादिक चार गति मार्गणाने विषे अनुक्रमें बंधोदय सत्तास्थानक कहे जे ॥ दो बक । चनकं, पण नव इकार उकगं उदया ॥ नेर आइ सु सत्ता, ति पंच इक्कारस चनकं ॥ ६ ॥ अर्थ-नरकादि चार गति अनुक्रमें लेवी. तिहां नरकगतिने विषे गणत्रीश ने त्रीश, ए दो के बे बंधस्थानक, तिहां उंगणत्रीशर्नु मनुष्यगति प्रायोग्य तथा तिर्यच प्रायोग्य होय, अने त्रीशनुं तिथंच प्रायोग्यज होय. एना नांगा पूर्वे कह्या , तेम खेवा. तथा तिर्यंचने २३-२५-२६-२७-२ए-३०-ए बक के बंधस्थानक होय. तथा मनुष्यने २३-२५-२६-२७-ए-३०-३१-१, ए अह के० थाठ बंधस्थानक होय, तथा देवताने २५-२६-ए-३०, ए चनकं के चार बंधस्थानक होय. ए चार गतिने विषे बंधस्थानक कह्यां. हवे चार गतिने विषे अनुक्रमें उदय स्थानक कहे . नारकीने १-२५-२७--ए- ए पण के पांच उदयस्थानक होय. तिर्यंचने २१-२४-२५२६-२७-२-ए-३०-३१,ए नव के नव उदयस्थानक होय. मनुष्यने २०-२१-२५२६-२७-२-ए-३०-३१-ए-, ए श्कार के अगीबार उदयस्थानक होय. देवताने २१-२५-२७--ए-३०,ए बक्कगंजदया के उदयस्थानक होय. हवे नेरश्याश्सुसत्ता के नरकादिकगतिने विषे अनुक्रमें सत्तास्थानक कहे . नारकीने बाणु, नेव्याशी, अने अठ्याशी, ए ति के त्रण सत्तास्थानक होय. तिर्यंचने बाणु, अव्याशी, ज्याशी, एंशीअने अठोत्तेर, ए पंच के पांच सत्तास्थानक होय. मनुष्यने एक अहोत्तेर Page #855 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ विना बाकीनां इकारस के श्रगीबारे सत्तास्थानक होय. अने देवताने त्र्याणु, वाणु, नेव्याशी अने अग्याशी, ए चउकं के चार सत्तास्थानक होय. हवे संवेध कहे . नारकीने पंचेंजिय तिर्यंच प्रायोग्य उंगणत्रीश बांधतां पोताना पाँच उदयस्थानकें प्रत्येके बाणु अने अठ्याशी, ए बे सत्तास्थानक होय. तीर्थकरनामनी सत्तायें तिर्यंचगति प्रायोग्य बंध न होय तेजणी नेव्याशीनी सत्ता न होय, तथा मनुष्यगति प्रायोग्य उगणत्रीशने बंधे पांच उदयस्थानकें नेव्याशी सहित त्रण त्रण सत्ता होय, तथा उद्योत सहित तिर्यंचगति प्रायोग्य त्रीशने बंधे जंगणत्रीशना बंधनी पेरें पांचे उदयें बेबे सत्ता होय. तथा जिननाम सहित मनुष्यगति प्रायोग्य त्रीशने बंधे पांचे उदयें एक नेव्याशीनी सत्ता, प्रत्येकें होय. सर्व थर नरकगतिने विषे चालीश सत्तास्थानक होय. तिर्यंचगतिने विषे बंधोदय सत्ता संवेध कहे जे. त्रेवीशने बंधे एकवीश, चोवीश, पच्चीश, बबीश, ए चार उदयें ए२-७-६--७, ए पांच पांच सत्ता अने बाकीनां २७-२-ए-३०-३१, ए पांच उदयें अहोत्तेर विना चार चार सत्ता होय. सर्व त्रेवीशने बंधे चालीश सत्ता थ. तेम पच्चीश तथा बबीशने बंधे पण चालीश, चालीश सत्ता जाणवी तथा उगणत्रीश अने त्रीशने बंधे पण एमज चालीश सत्ता कदेवी. पण एटलुं विशेष जे मनुष्यगति प्रायोग्य जंगणत्रीशने बंधे सर्व उदयस्थानके अठोत्तेरनी सत्ता न होय, बाकी चार सत्ता सर्व उदय होय. तथा अहावीशने बंधे चोवीशनो उदय न होय, केमके चोवीशनो उदय एकेजियने होय. तेने अहावीशनो बंध नथी, जेमाटे देव, नारकी, ए बे गतिमध्ये एकेजियने जावू नथी अने अहावीशनो बंध तो देव, नरक प्रायोग्य . माटें बाकी आठ उदय होय, तिहां एकवीश, बीश, अहावीश, उंगणत्रीश श्रने त्रीश, ए पांच उदयस्थानक दायिक सम्यक्दृष्टि तथा वेदक सम्यकदृष्टि तो जेने मोहनीयनी बावीशनी सत्ता होय,एवाने पूर्वे आयु बांध्यां उदय होय, तेनी अपेक्षायें जाणवा. तिहां एकेका उदय बाणु अने अव्याशी, ए बे सत्तास्थानक प्रत्येकें होय, तथा पच्चीश श्रने सत्तावीश, ए बे उदयस्थानक वैक्रिय करतां पंचेंजिय तिर्यंचने होय. तिहां पण तेहीज बे सत्तास्थानक होय, तथा त्रीश, एकत्रीश, ए बे उदय सर्व पर्याप्तियें पर्याप्ता एवा सम्यक्दृष्टि तथा मिथ्यादृष्टिने जाणवा, तिहां बाणु, श्रव्याशी अने व्याशी, ए, प्रण सत्ता होय. तिहां व्याशीनी सत्ता, मिथ्याष्टिनेज होय. अने सम्यकदृष्टिने 'अवश्य देवछिकनो बंध होय, तेथी तेने ए सत्ता न होय. सर्व अहावीशने बंधे अढार सत्ता होय. एम तिर्यंचगति मध्ये सर्व बंधस्थानकें (१७) सत्ता होय. Page #856 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ मनुष्यगतिने विषे संवेध कहे बे. तिहां मनुष्यने त्रेवीशने बंधे २१-२५-२६-29२८-२०-३०- ए सात उदयस्थानक होय, तेमध्यें पच्चीश ने सत्तावीश, ए बे उदय, वैक्रिय करतां लेवा. पण आहारके त्रेवीशनो बंध नथी तेजणी ते आहारक न लेवो. ए बे उदयें बाणु अने श्रव्याशी, ए वे सत्ता होय अने बीजा पांच उदयें ब्याशी, शी, ए वे अधिक होय तेमाटें तिहां चार सत्तास्थान लेवां. सर्व य‍ त्रेवीशने बंधें चोवीश सत्ता होय, एम पच्चीशने बंधें तथा बवीशने बंधे पण चोवीश चोवीश सत्ता लेवी तथा मनुष्यगति यने तिर्यंचगति प्रायोग्य जंगपत्रीश अने त्रीशने बंधे पण एमज चोवीश सत्ता कदेवी तथा व्हावीशने बंधे पण सात उदय बे. तेमध्यें एकवीरा, बब्वीश, ए वे उदय, सम्यकदृष्टिने करण अपर्याप्ता वेलायें होय. तथा पच्चीश, सत्तावीश श्रावीश ने गणत्रीश, ए मांदेला बे बे उदय, वैक्रिय, आहारक करतां सम्यकदृष्टिने होय. त्रीशनो उदय, मिथ्यात्वीने पण होय. ए उदयें बाणु, अव्याशी, ए बेबे सत्तास्थानक होय. तथा त्रीशने उदयें नरक प्रायोग्य अावीशने बंधें नेव्याशी तथा ब्याशी, ए बे सत्ता अधिक जेलतां चार सत्ता होय. एम हावी - शने बंधें सर्व थइ शोल सत्ता थाय तथा जिननाम सहित देव प्रायोग्य गणत्रीशने बंधें सात उदय अठावीशना बंधनी पेरें लेवां. पण एटलुं विशेष जे त्रीशनो उदय सम्यक्त्वीने लेवो, तेथी साते उदयें त्र्याणु अने नेव्याशी, ए बे सत्तास्थानक होय. तिहां श्राहारकने तो त्र्याणुनीज सत्ता होय. सर्व संख्यायें जिननाम सहित उगणत्रीशने बंधे चौद सत्तास्थानक होय तथा आहारकद्विक सहित त्रीशने बंधे उगणत्रीश ने त्रीश, ए बे उदयस्थानक होय. तिदां जेणे आहारक शरीर प्रमत्त ठाणे करीने अंतकालें अप्रमत्तें यावे, तेनी अपेक्षायें गणत्रीशनो उदय लेवो. बीजे स्थानकें त्रीशनो उदय होय, तिदां प्रत्येक उदयें बाणुनी सत्ता होय. तथा एकत्रीशने बंधें एकज त्रीशनो उदय होय छाने तिहां एकज त्र्याणुनी सत्ता होय, तथा एकने बंधें त्रीशनो उदय होय. तिहां ए३-०२-०७-००-०० - १०–१६–१५, ए सत्तास्थानक होय, शरवाले त्रेवीश, पच्चीश, बब्वीशना बंधने विषे चोवीश "चोवीश सत्ता ने अगवीशना बंधने विषे शोल सत्ता तथा मनुष्य छाने तिर्यंचगति प्रायोग्य उगणत्रीश तथा त्रीशना बंधने विषे चोवीश चोवीश सत्ता तथा देवगति प्रायोग्य तीर्थंकर सहित गणत्रीशना बंधे चौद सत्ता तथा एकत्रीशना बंधने विषे एक सत्ता एक प्रकृतिना बंधे आठ सत्ता सत्तास्थानक, एम (१५९) सत्ता मनुष्य मध्यें होय. वे देवताने विषे संवेध कहे बे. देवताने पच्चीशने बंधें व उदयें प्रत्येकें बाणु व्याशी, एबे सत्ता होय. एम बवीश तथा उगणत्रीशने बंधे पण जाणवुं For Private Personal Use Only ८३१ : Page #857 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३२ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ तथा उद्योत सहित पंचेंजियतिर्यंच प्रायोग्य त्रीशने बंधे पण एमज जाणवू. तथा जिननाम सहित मनुष्यगति प्रायोग्य त्रीशने बंधे उदयस्थानकें प्रत्येके ज्याणु,नेव्याशी, ए बे सत्तास्थानक जाणवां. एम चार बंधमध्ये त्रीशनो बंध, मनुष्य तथा तिर्यच प्रायोग्य होय, माटे ते बे स्थानक गणतां पांचे स्थानकें बार बार सत्ता होय. सर्व थर देवगतिमध्ये शाठ सत्ता स्थानक होय. एम गति श्राश्री संवेध देखाड्यो. ॥६॥ ॥ अथेंजियमाश्रित्याह ॥ हवे इंजिय श्राश्रयी नामकर्मनां बंधोदय सत्ता कहे . ॥ झग विगलिंदिअ सगले, पण पंचय अह बंध गणाणं ॥ पण बकिकारुदया, पण पण बारसय संताणि ॥६५॥ अर्थ-गविगलिंदिवसगले के एकेंजिय, विकलेंजिय अने सकल ते पंचेंजियने अनुक्रमें बंधस्थानक कहे . तिहां एकेजियने २३-२५-२६-ए-३०, ए पण के० पांच बंधस्थानक होय, तथा त्रणे विकलेंजियने एहीज पंचय के पांच बंधस्थानक होय, तथा पंचेंजियने २३-२५-२६-२-ए-३०-३१-१, एवं अठबंधगगाणं के श्राप बंधनां स्थानक होय. तथा एकेजियने २१-२४-२५-२६-२७, ए पण के पांच उदयस्थानक होय. तथा त्रणे विकलेंजियने २१-२६-२७-ए-३०३१, ए बक के उदयस्थानक होय, तथा पंचेंजियने २०-१-२५-२६-२७-२०शए-३०-३१-ए-ज-ए कारुदया के० अगीबार उदयस्थानक होय. तथा एकेजियने एश--द-10-9- ए पण के पांच सत्तास्थानक होय. तथा त्रणे विकवेजियने ए३-७-६-10-3G, एज पण के पांच सत्तास्थानक होय. तथा पंचेंजियने ए३-ए-ए-G७-६-10-30-3G-६-७५-0-, ए बारसयसंताणि के बार सत्तानां स्थानक होय ॥ एनो संवेध पूर्वे चौद जीवनेदें नामकर्मनो संवेध विचास्यो , तिहांथी जो लेवो, तथा निपुण बुझिये विचारी करवो. ॥ ६५ ॥ श्य कम्म पगाणा, णि सुहु बंधुदय संत कम्माणं ॥ गश्त्राएदि अहसु, चनप्पयारेण नेआणि ॥६६॥ गदिए अकाए, जोए वेए कसाय नाणे॥ संयम दंसण खेसा, नवसमे सन्निहारे ॥६॥ संत पयपरूवणया, दवपमाणं च खित्त फुसणाय ॥ कालं तरंच नावो, अप्पा बहुयं च दारा॥६॥ थर्थ-श्य के ए उक्तप्रकारें सुछु के० सुष्टु एटले जले प्रकारे अत्यंत उपयोग Page #858 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ . ३३ राखीने कम्मपगश्गणाणि के० श्रावे कर्म प्रकृतिनां स्थानक, बंधुदयसंतकम्माण के बंध, उदय, सत्ता, कर्मनी तेना संवेधे गश्याएहिं के० गत्यादिक एटले गति, इंजिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, वेश्या, नव्य, सम्यक्त्व, संझी, श्राहारी, ए चौद जीवस्थानकें तथा ए चौदना उत्तर बाशठ मार्गणा नेदने स्थानकें करीने सत्पद प्ररूपणादिक असु के आठ अनुयोगहारने विषे चनप्पयारेण के प्रकृतिबंध, स्थितिबंध, रसबंध अने प्रदेशबंध, ए चार प्रकारे कदेवाने नेत्राणि के जाणवा. ॥ ६६ ॥ ६७॥ हवे ए आठ अनुयोग हार लखीयें बैयें. संतपयपरूवणाए एटले बता पदनी प्ररूपणा, ए एक पद नणी घट पदनी पेरें अतुं न होय, जे बता पदार्थ वाचक पद न होय, ते एक पद पण न होय. जेम वंध्यापुत्र, ए शब्द बे पदनो माटे ते पद श्रब्तुं . तेनी पेरें ए पद नथी, तेजणी ए पद साचां ने एटले अर्थ प्ररूपणाना नेद ते अनु कहेतां वस्तु प्रतिपादन कस्या पली योग कहेतां सर्व प्रकारे वस्तु श्राप अनुयोगधार, अणु कहेतां सूत्र तेनी साथें योग कहेता अर्थजोमवं, तेनां छार कहेतां बारणां एटले वस्तुनो निर्णय करवो, तेनां छार श्राव जाणवां. तिहां प्रथम उता पदनी प्ररूपणा, ते जेम बंध, उदय, सत्ता तथा प्रकृति, स्थिति, रस, प्रदेश, ए सर्व पद साचां , आप आपणा पदार्थनां वाचक , एकेक पद जणी घट पदनी पेरें उतांबे, पण वंध्यापुत्रनी पेरें अबतां नथी, तेनां स्थानक, जेनो जिहां सन्नाव, ते तिहां कहेवा. ते प्रथम बता पदनी प्ररूपणा नामा द्वार जाणवू. तथा बीजु अव्यप्रमाण हार. ते एम के, ए प्रकृति स्थानकना अव्य केटलां होय ? एम प्रमाणन कहे, ते बीजुं छार. तथा एकेक प्रकृतिस्थान अव्य, केटला आकाश प्रदेश क्षेत्र रुंधे, ए अर्थ कहे ते क्षेत्रप्रशंसानामा त्रीजु धारतथा एकेक स्थानके जीव केटला काल पर्यंत रहे, एम कहेवू ते चो) काल छार, तथा ए बंधस्थानक तथा उदयस्थानक बांड्युं ते वली केटले कालें जघन्य तथा उत्कृष्टे श्रांतरे लहे, ए पांचमुंअंतर छार. तथा लोकने केटले नागें एकेक स्थानक होय, एम कहे, ते हा जाग हारनो विचार जाणवो. तथा कयुं स्थानक उदयिका दिक बनाव मध्ये कया नावें होय, ते सातमुं नाव हार. तथा कया स्थानकथी कयु स्थानक अव्य, क्षेत्र, काल अने नावनी अपेदायें घणुं होय तथा थोडं होय, . अथवा बराबर होय, एम विचारवं, ते बाग्मुं अल्पबहुत्व धार. ए था अनुयोगहारे करी विचारतां पदाथेनुं सम्यज्ञान होय, तिहां सत्पदप्ररूपणायें करीने पणगणाने विषे गति तथा इंजियमार्गणायें बंधोदय सत्तानो संवेध करो. एने १०५ Page #859 -------------------------------------------------------------------------- ________________ G३४ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ अनुसार काययोगादिक मार्गणायें पण कदेवो, श्रने शेष जे अव्यप्रमाण क्षेत्र, स्पर्शनादिक सात अनुयोग द्वार, ते कर्मप्रकृति कर्मप्राभृत प्रमुख ग्रंथोने सम्यक प्रकारें जोश्ने कहेवांपण आज ते ग्रंथना अनावथकी लेशमात्र पण कही न शकीयें तेमाटें प्रकृति, स्थिति, रस श्रने अनुनाग, ए चार प्रकारें कहेवां. तिहां प्रकृति श्राश्रयी बंध, उदय, सत्तास्थानक पूर्व कह्यां, तेना अनुसारें स्थितिना बंधादि स्थान, रसस्थान तथा प्रदेशस्थान पण मार्गणाछारें एवाज अनुक्रमें कहेवां. ॥६॥ अहींयां बंधोदय सत्तानो संवेध कह्यो. तिहाँ उदय कह्यो, पण उदीरपा न कही, ते शामाटें न कही ? ते कहे बे. उदयस्सुदीरणाए, सामित्ताउँ न विजा विसेसो ॥ मुत्तूणय गयालं, सेसाणं सब पयमीणं ॥६ए । अर्थ-उदयस्सुदीरणाए के अहीं बंधोदय सत्ता संवेध विचारतां उदीरणा, उदयमध्ये कहेवाणी पण उदीरणा उदयथकी जूदी न कही तेनुं कारण कहे . अहींओं काल प्राप्त कर्मनुं अनुनववं ते उदय कहीये. अने काल अप्राप्त उदयावलिथकी बाहेर रह्यां एवां जे कर्मदल तथा रस, जेनो उदय काल श्राव्यो नथी ते कर्मदलने जीव, कषाय सहित योग, एवे नामें जे वीर्य विशेष, तेणे करी आकर्षीने उदय श्राव्या दलमांहे नेलीने उदय प्राप्त कर्मपरमाणु साथें अनुजवे, ते करणर्नु नाम उदीरणा कहीये. तेमाटें उदय अने उदीरणानुं सामित्तार्जुन विद्यश्विसेसो के स्वामित्वपणा श्राश्रयीने का विशेष नथी एटले ज्ञानावरणादिक जे कर्म तेना उदयनो स्वामी तेहीज जीव ज्ञानावरणादि कर्मनी उदीरणानो पण स्वामी जाणवो. "ज उदय तह उदीरणा, जब उदीरणा तब उदय” ए वचन प्रमाण थकी एमज जाणवू. परंतु एटटुं विशेष जे मुत्तुणयगयालं के० एकतालीश प्रकृति श्रागली गाथायें कहेशे, ते मूकीने सेसाणंसवपयमीणं के शेष सर्व प्रकृतिनो उदय अने उदीरणा सार्थेज समकालें प्रवर्ते, तेमाटें जे उदयनो स्वामी तेहीज उदीरणानो पण स्वामी जाणवो. ॥ ६ ॥ ॥ एकचत्वारिंशत्प्रकृतीराह ॥ हवे एकतालीश प्रकृतिने उदय, उदीरणायें फेर के एटले उदय, उदीरणानुं अंतर होय, ते विशेषे वे गाथायें करी कहे जे.॥ नाणंतराय दसगं, दंसण नव वेयणिक मितं ॥ संमत्तलोल वेत्रा, आणि नव नाम उच्चं च ॥ ७० ॥ Page #860 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ.६ मणुय गइ जाइ तस बा, यरं च पळत्त सुनग आश्छ। जस कित्ती तिबयरं, नामस्स हवंति नव एया ॥१॥ अर्थ-नाणंतरायदसगं के पांच ज्ञानावरणीय अने पांच अंतराय, एवं दश प्रकृति तथा दसणनव के दर्शनावरणीय नव, वेयणिज के वेदनीयनी बे प्रकृत्ति, मिहत्तं के मिथ्यात्वमोहनीय, संमत्त के० सम्यक्त्वमोहनीय, लोन के संज्वलनलोन, वेशाज्याणि केत्रण वेद अने चार थायु, नवनाम के नामकर्मनी नव प्रकृत्ति जे चौदमे गुणगणे रहे जे ते तथा उच्चंच के० उच्चैर्गोत्र, एवं एकतालीश प्रकृति जाणवी. ॥ इत्यदरार्थः ॥ ७० ॥ तिहां ज्ञानावरणीय पांच, अंतराय पांच, तथा चार दर्शनावरणीय, एवं चौद प्रकृतिनो उदय अने उदीरणा, बारमा गुणगणानी एक श्रावली थाकती होय, तिहां सुधी सर्व जीवने साथेंज प्रवर्ते श्रने उदय, उदीरणा विछेद थया पली केवल जदयावलिका थाकती होय, तेमध्ये सर्व कर्मदल पेसे पण बाहीर बीजुं को कर्मदल रहे नहीं तो पड़ी शानी उदीरणा करे ? माटें ए चौद प्रकृतिनी बारमा गुणगणानी बेहली श्रावलिकायें उदीरणा न होय. तथा पांच निजानीज उदीरणा, शरीरपर्याप्ति पूरी थया पड़ी ज्यां लगे इंजियपर्याप्ति पूरी न करे, तिहां लगें उदीरणा न होय, केवल उदयज होय श्रने शेष कालें तो उदय, उदीरणा साथेंज प्रवर्ते, तथा साथेंज निवर्ते. तथा वेदनीयनी बे प्रकृतिनां उदय तथा उदीरणा बहा गुणगणा सुधी साथेंज प्रवर्ते अने ते उपरांत तो उदयज होय, पण उदीरणा न होय. तथा प्रथम सम्यक्त्व उपार्जतां अंतर करण कस्या पली मिथ्यात्वनी प्रथम स्थितिनी एक श्रावलि रहे त्यांसुधी मिथ्यात्व मोहनीयना उदय तथा उदीरणा सार्थेज प्रवर्ते अने बेहली श्रावलियें मिथ्यात्वनो उदय होय पण उदीरणा न होय. ___ तथा वेदकसम्यक्दृष्टिने दायिक सम्यक्त्व उपजावतां मिथ्यात्वमोहनीय अने मिश्रमोहनीय, ए बेहु खपाव्या पड़ी सम्यक्त्वमोहनीय सर्व अपवर्तनायें अपवर्तिने अंतरमुहर्त स्थितिमात्रनुं करे, तेने उदय तथा उदीरणायें नोगवतां जेवारें शेष एक आवलीमात्र रहे तेवारें उदीरणा टले केवल उदयावली खगें उदयज होय. अथवा उपशमश्रेणी पडिवजतां सम्यक्त्वमोहनीयनुं अंतर करण कस्या पली प्रथम स्थिति आवलिका मात्र रहे, तिहां लगें सम्यक्त्व मोहनीयनां उदय तथा उदी. रणा सार्थेज होय, अने पली बेहली श्रावलिये उदीरणा न होय, मात्र उदयज होय. संज्वलना लोचनां उदय तथा उदीरणा ज्यां लगे सूक्ष्मसंपरायनी एक श्रावलिका Page #861 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८३६ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ थाकती होय, त्यां लगें सार्थेज होय, अने बेहली आवलियें तो मात्र उदयज होय, पण उदीरणा न होय. तथा त्रण वेदमांहेली जे वेदें श्रेणी पडिवो तिहां अंतर करण कीधे थके ते वेदन प्रथम स्थिति घ्यावलिका थाकतों लगें उदय तथा उदीरणा सार्थेज होय श्रने बेहली श्रावलियें तो उदीरणा न होय, मात्र उदयज होय. तथा चारे छानो पोतपोताना जवनी बेहली यावलिकायें उदय होय, पण उदीरणा न होय, अने मनुष्यायुनो प्रमत्त गुणठाणा लगेज उदय तथा उदीरणा दोय, गले गुणठाणे केवल उदयज होय, पण उदीरणा न होय. ॥ इत्यर्थः ॥ ७० ॥ तथा मनुष्यगति, पंचेंद्रियजाति, त्रस, बादर, पर्याप्त, सुजग, श्रदेय, यशः कीर्त्ति तीर्थंकरनाम, ए नव नामकर्मनी प्रकृति तथा उच्चैर्गोत्र, ए दश प्रकृतिनां सयोगी केवली गुणठाणा लगें उदय तथा उदीरणा सार्थेज समकालें प्रवर्त्ते तेवार पछी - योगी गुणठाणे ए दश प्रकृतिनो उदय होय पण उदीरणा न होय. एम ए एकता - लीश प्रकृतिनां उदय ने उदीरणानुं विशेष देखाड्यं श्रने शेष पंच्चाशी प्रकृतिनां उदय तथा उदीरणा समकालें प्रवर्त्ते ने समकालें निवर्त्ते ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ ७१ ॥ ॥ अथ कस्मिन गुणस्थानके काः प्रकृतिर्वनंतीत्याह ॥ ॥ हवे कया गुणठाणे कइ प्रकृति बांधे बे तिचयरा दारग विर, दिया वे सब पयडीजे ॥ मित्तवेगो सा, साणो गुणवीस सेसा ॥ ७२ ॥ ? एवो बंध विशेष सर्व गुणठाणे कहे . ॥ अर्थ- बंध योग्य एकसो वीश प्रकृति मध्येथी तियराहारग के तीर्थंकरनाम आहारकद्विक, ए त्रण प्रकृति विरहियान के० रहित करीने सवय - मी के बाकी एक्सो सत्तर प्रकृति सर्व उपार्जे, एटले बांधे, ते कोण जीव क्यां बांधे ? तो वे गो के० मिथ्यात्वनो वेदक एवो मिथ्यादृष्टि जीव मिथ्यात्व ruary rarat बांधे ने जिननाम सम्यक्त्व प्रत्ययि बे तथा श्राहारकद्विक संयम प्रत्ययि बे तेथी मिथ्यात्वें सम्यक्त्व तथा संयम बेहुने अजावें एत्रण प्रकृति न बांधे; तथा सासापोगुणवीससे साठ के० सास्वादन गुणठाणे वर्त्ततो जीव १ जिननाम, ३ श्राहारकद्विक, ४ नपुंसकवेद, ५ नरकगति, ६ नरकानुपूर्वी, ७ नरकायु, संस्थान, बेवहुं संघयण, १० आतप, ११ स्थावर, १२ सूक्ष्म, १३ साधारण, १४ पर्याप्त, १५ एकेंद्रिय, १६ बेंद्रिय, १७ तेंद्रिय, १० चौरिंद्रियजाति, १० मिथ्यात्वमोहनीय, ए जंगणी प्रकृति विना शेष एकसो ने एक प्रकृति बांधे, जेजणी नपुं For Private Personal Use Only Page #862 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ ३ सकादिक शोल प्रकृतिनो बंध, मिथ्यात्व प्रत्ययिर्ड , ते श्रहींचा साखादने न बंधाय. ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ ७ ॥ गयाल सेस मीसो, अविरय सम्मो तिाल परिसेसा॥ तेवन्न देस विर, विरचे सगवन्न सेसा ॥ ३ ॥ अर्थ-जंगणीश प्रकृति पूर्वं कही ते तथा तिर्यंचत्रिक, श्रीणझीत्रिक, दो ग्यत्रिक, अनंतानुबंधिचतुष्क, मध्यसंस्थान चार, मध्यसंघयण चार, नीचैर्गोत्र, उद्योत, अशुनविहायोगति, स्त्रीवेद, मनुष्यायु अने देवायु, ए बायाल के बेंतालीश प्रकृति वर्जीने सेसमीसो के शेष चमोत्तेर प्रकृति मिश्रगुणगणे वर्ततो जीव बांधे अने अविरयसम्मो के अविरति सम्यक्दृष्टि गुणगणे पूर्वोक्त बैंतालीश मध्येथी तीर्थकरनाम, मनुष्यायु, अने देवायु, ए त्रण बांधे माटे तिालपरिसेसा के तालीश प्रकृति वर्जीने शेष सत्त्योतेर प्रकृति बांधे तथा देस विरठ के देशविरति गुणगणे वर्त्ततो जीव, वज्रषजनाराच संघयण, मनुष्यत्रिक, अप्रत्याख्यानीश्रा चार कषाय, औदारिकड़िक, एवं दश प्रकृति पूर्वोक्त तालीशमां नेलीये, तेवारें तेवन्न के त्रेपन प्रकृति न बांधे, ते वर्जीने शेष शमशठ प्रकृति बांधे. तथा विर के सर्वविरति प्रमत्त साधु, बछे गुणगणे पूर्वोक्त त्रेपन्ननी साथे प्रत्याख्यानावरण कषाय चार नेलतां सगवन्न के सत्तावन्न प्रकृति न बांधे, ते वर्जीने सेसा के शेष त्रेशठ प्रकृति बांधे. ॥ ३ ॥ श्गुसहि मप्पमत्तो, बंधश् देवानअस्स श्अरोवि ॥ अमावस्म मपुवो, उप्पन्नं वावि ब्बीसं ॥४॥ अर्थ-तथा ते पूर्वोक्त त्रेशव प्रकृतिमध्ये थी शोक, अरति, अथिर, अशुल, अयश अने अशाता, ए प्रकृति काढीयें अने श्राहारकटिक नेलीयें, तेवारेंगसहि के उंगणशाठ प्रकृति अपमत्तो के० अप्रमत्त गुणगणे बंधश्के बांधे, अथवा देवाजअस्सश्रोवि केव देवायु पण प्रमतें बांधवा मांडे, ते बांधतो थकोज प्रमत्त थकी इतर अप्रमत्तें श्रावे, तिहां ते बंध पूरो करे, पण अप्रमत्त थको देवायु बांधवा न मांडे तेमाटे देवायु विना श्रावस के अठावन्न प्रकृति बांधे तथा मपुत्रो के अपूर्वकरण गुणगणाना सात जाग कल्पीयें. तिहां पहेले नागे तो तेहीज पूर्वोक्त अहावन बांधे, अने बीजे, त्रीजे, चोथे, पांचमे, अने छे, ए पांच नागें निवाहिक न बांधे. शेष बप्पन्नं के पन्न प्रकृति बांधे, वावि के अथवा बेहले नागें देवछिक, पंचेंजियजाति, शुजखगति, त्रसादि नव, औदारिक विना चार शरीर, बे उपांग, समचतुरस्त्र, निर्माण, तीर्थकर, Page #863 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ वर्णादि चार तथा अगुरुलघु चतुष्क, ए त्रीश प्रकृति पण न बांधे, तेवारें बबीसं के Tata प्रकृतिनो बंध पण होय. ॥ ७४ ॥ ८३८ बावीस गुणं, बंध अठारसंत निट्टी ॥ सत्तर सुदुम सरागो, साय ममोदो सजोगित्ती ॥ ७५ ॥ अर्थ-वे निट्टी के० अनिवृत्तिगुणगणाना पांच जाग कल्पीयें, तिहां पहेलें जागें हास्य, रति, जय, कुछा, ए चार पण न बांधे, तेवारें बावीस के० बावीशनो बंध होय. तेवार पढी द्वितीयादिक जागें एगुणं के० एकेक प्रकृति ऊणी करता जइयें एटले बीजे जागें पुरुषवेदन बांधे, तेवारें एकवीशनो बंध, त्रीजे जागें संज्वलन क्रोध टले वीरानो बंध, चोथे जागें संज्वलन मान टले उगणीशनो बंध, पांचमे जागें संज्वलनी माया टले, तेवारें श्रद्वारसंत के० श्रढार प्रकृति पर्यंतज बंधइ के० बांधे तथा सत्तरसुहूमसरागो के० सूक्ष्मसंपराय गुणठाणे संज्वलनो लोन पण न बांधे, तेमादें सत्तर प्रकृति बांधे, तेवार पढी ज्ञानावरणीय पांच, दर्शनावरणीय चार, अंतराय पांच, उच्चैर्गोत्र अने यशः कीर्त्ति, एवं शोल प्रकृति पण न बांधे, तेवारें एकज साय के शातावेदनीयनो बंध, मोहोसजो गित्ती के० अमोही गुणगणाना धणीने होय. एटले गीयारमा, बारमा अने सयोगी तेरमा गुणठाणावालाने एकज शातानो बंध होय. ॥ इति ॥ ७५ ॥ एसो न बंधसामि, त्त दो गइआइएसवि तदेव ॥ दार्ज सादिक, जब जढ़ा पयडि सनावो ॥ ७६ ॥ अर्थ - एसोबंधसामित्त के० ए उघपणे चौद गुणठाणे बंधस्वामित्व कयुं. जेम बीजा कर्मग्रंथमध्ये कयुं बे तेम अहींथां पण जाणवुं तदेव के० तेमज गइयाइए सुवि के० गत्यादिक मार्गणाने विषे पण बंदु के० उद्यथकी कहेवो. जे रीतें त्रीजे कर्मग्रंथें बाशठ मार्गणायें बंध कह्यो बे, तेम अहींथां पण कदेवो. उहाउसाहित के० प्रथम सामान्य प्रकारें कयुं बे तेमज कहेतुं जहजहापय मिसनावो के० जिहां जे गुणगणे जेटली प्रकृति बांधवानो सद्भाव होय, एटले जेने जेटली प्रकृति बांधवी घटे तेने तेली विचारीने कवी. ॥ ७६ ॥ ॥ दवे जे गतिने विषे जेटली प्रकृति सत्तायें पामीयें ते कहे बे. ॥ तिचयर देव निरिच्या, त्र्यंच तिसु तिसु गईसु बोधवं ॥ अवसेसा पयडीजे, दवंति सव्वासु विगईसु ॥ 99 ॥ Page #864 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ.६ ७३ए अर्थ-तिबयरदेवनिरिथाउअंच के तीर्थकर नामकर्म, देवायु अने नरकायु, ए त्रण प्रकृति तिसुतिसुगईसुबोधवं के त्रण त्रण गतिने विषे होय एम जाणवू. तिहां तीर्थकरनामकर्मनी सत्ता, नारकी, देवता तथा मनुष्यगतिने विषे होय, पण तियंचगतिमध्ये न होय. केमके, तीर्थकर सत्कर्मा तिर्यंचमध्ये जाय नहिं तेमाटे. तथा देवायुनी सत्ता, मनुष्य, तिर्यंच अने देवगति मध्ये होय, पण नारकी मध्ये न होय, तथा नरकायुनी सत्ता, मनुष्य, तिर्यंच अने नरकगति मध्ये होय, पण देवगतिमध्ये न होय, अने अवसेसापयडी के अवशेष सर्व प्रकृतिनी सत्ता, हवं तिसवासुविग सु के० सर्व चारे गतिने विषे पण होय. एटले तिर्यंचमध्ये तीर्थकरनाम विना सर्व प्रकृति सत्तायें होय, देवगतिमध्ये नरकायु विना सर्व प्रकृति सत्तायें होय, नरकगतिमध्ये देवायु विना सर्व प्रकृति सत्तायें होय. ॥ ७ ॥ ॥ हवे गुणगणाने विषे पूर्व जे बंधोदय सत्तास्थानकनो संवेध कह्यो, ते गुणगणां तो प्रायें उपशमश्रेणीयें तथा दपकश्रेणीय होय, तेमाटे ते श्रेणी कहे .॥ ॥तिहां प्रथम उपशमश्रेणि कहे .॥ पढम कसाय चनकं, दसण तिग सत्तगावि नवसंता ॥ अविरय सम्मत्ता, जाव नियहित्ति नायबा ॥ ७ ॥ अर्थ-पढमकसायचजकं के पहेला अनंतानुबंधीआ चार कषाय तथा सणतिग के दर्शनत्रिक, ते मिथ्यात्वमोहनीय, मिश्रमोहनीय अने सम्यक्त्वमोहनीय, ए सत्तगाविउवसंता के सात प्रकृति उपशांत होय. ते अविरयसम्मत्ता के अविरतिसम्यकदृष्टि गुणगणाथकी मामीने जावनियहित्तिनायबा के० यावत् निवृत्तिनामे आठमा गुणगणा लगे जाणवी. तिहां सातमा लगें यथायोग्यपणे उपशांत होय अने अपूर्वकरणे तो निश्चयथकीज उपशांत होय. ॥ ७ ॥ प्रथम अनंतानुबंधीया चार कषाय तथा दर्शन त्रिक एटले मिथ्यात्वमोहनीय, मिश्रमोहनीय श्रने सम्यक्त्वमोहनीय, ए सात मोहनीयनी प्रकृतिना रसोदयनी अपेक्षायें अविरतिसम्यक्दृष्टि गुणगणाथी मामीने अपूर्वकरणनामा बाग्मे गुणगणे चढतां पर्यंत उपशांत पामीयें अने कोशएकने प्रदेशोदयनी अपेक्षायें पण अविरति सम्यक्दृष्टिने एज चोथे गुणगणे उपशांत पामी कहीये. तथा अपूर्वकरणे तो ए साते प्रकृति रसोदय आश्री तथा प्रदेशोदय श्राश्री पण उपशांत पामी कहीयें. तिहां प्र. थम अनंतानुबंधीयानी उपशमनानो प्रकार कहे . थविर तिसम्यक्दृष्टि, देशविरति, प्रमत्त तथा अप्रमत्त, ए चार गुणगणे वर्तता जीवमांहेलो कोइ पण जीव, जघन्य परिणामे तेजो, मध्यम परिणामें पद्म अने Page #865 -------------------------------------------------------------------------- ________________ GHO सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ.६ उत्कृष्ट परिणामें शुक्ल, ए त्रण विशुवेश्यामांहेली कोइ पण बेश्यायें वर्ततो ज्ञानोपयोगें उपयुक्त एक आयुःकर्म विना बीजा साते कर्मनी स्थिति जोगवीने बाकी कांशएक ऊपी एक कोमाकोमी सागरोपम मात्र जोगववी रहे, तेवारें अंतरमहर्त पर्यंत अवदायमान परिणामें एटले विशुद्ध चित्तवृत्तिवंतयको रहे. एवी रीते रह्यो थको परावर्त्तमान प्रकृतिमांहेली सर्व शुज प्रकृतिनेज बांधे, पण अशातादिक अशुन प्रकृति न बांधे अने जे अपरावर्त्तमान ध्रुवबंधिनी ज्ञानावरणीयादिक अशुन प्रकृति बांधे, तेनो पण चौगणी रसबंध टालीने, बे गणी रसबंध करे अने शुन प्रकृ. तिनो बेठाणी रसबंध टालीने चौगाणी रसबंध करे अने एक स्थितिबंध पूर्ण करी बीजो स्थितिबंध बांधवा मांडे, ते पूर्व पूर्व स्थितिबंधनी अपेक्षायें पस्योपमसंख्येय नागहीन स्थिति करीने बांधे. ए रीते जे जे श्रागलो आगलो स्थितिबंध करे, ते ते पूर्व पूर्व स्थितिबंधथी पढ्योपमसंख्येय नागहीन स्थितिनो बंध करे. एम करण कालथकी पूर्वे अंतरमुहूर्त काल पर्यंत रहीने तेवार पड़ी अनुक्रमें प्रत्येकें अंतरमुहर्त प्रमाणनां एवां त्रण करण करे, तिहां प्रथम यथाप्रवृत्तिकरण, बीजें अपूर्वकरण अने त्रीजु अनिवृत्तिकरण, चोथी उपशांत अझा, तेनी पण स्थिति अंतरमुहर्तनीज जाणवी. तिहां प्रथम यथाप्रवृत्तिकरणे प्रवेश करतो प्रतिसमय अनंतगुण वृद्धि विशुकिये करी प्रवेश करे, तिहां पूर्वोक्त शुजप्रकृतिना बंधादिकने बे गणिया रसने चोगणी करतो बांधे अने अशुन प्रकृतिना चोठाणीया रसने बे गणि रस करतो बांधे, परंतु तिहां तथाविध तत्प्रायोग्य विशुछिने अनावें स्थितिघात, रसघात, गुणश्रेणी अने गुणसंक्रम, ए चार वानांमांहेलुं एक वार्नु पण नहीं करे. ए करणमा प्रवर्तमान जीवने समय समय प्रत्ये नाना जीवनी अपेदायें असंख्यात लोकाकाश प्रदेश प्रमाण श्रध्यवसायस्थान प्रथम समय होय. ते पण षटस्थानपतित होय. ते वली पहेला समयनां अध्यवसायस्थानथकी बीजा समयनां अध्यवसायस्थान विशेषाधिक होय. एम बीजा समयना अध्यवसायस्थानथकी त्रीजा समयनां अध्यवसायस्थान विशेषाधिक होय, एम आगला श्रागला समयनां अध्यवसायस्थानक ते पूर्व पूर्व समयनां अध्यवसायस्थानकथकी विशेषाधिक विशेषाधिक होय. एम करतां तेनी स्थापना विषमचतुरस्रक्षेत्र रुंधे बे. ए रीतें यथाप्रवृत्तिकरणनो बेहलो समय श्रावे, त्यांसुधी कहे. श्रहींयां अध्यवसायस्थानक विशुछिनी अपेक्षायें एक एकथी बहाण वमीयां होय, ते श्रावी रीते-जेम असत्कटपनायें बे पुरुष, युगपत् यथाप्रवृती. करणप्रतिपन्न डे तेमांहे एक तो सर्वं जघन्य विशुछि श्रेणी प्रतिपन्न डे अने बीजो सर्वोत्कृष्ट विशुछिनां अध्यवसायस्थानक श्रेणीय प्रतिपन्न . ते बेहुनी विशुछिनु ता. Page #866 -------------------------------------------------------------------------- ________________ G४१ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ.६ रतम्यपणुं देखाडे जे. त्यां प्रथम जीवने प्रथम समयने विषे सर्व जघन्य मंद विशुद्धि सर्वस्तोक ले. तेथकी ते पुरुषनेज वली बीजे समयें जघन्यविशुद्धि अनंतगुणी बे. तेथी वली त्रीजे समय जघन्यविशुकि अनंतगुणी . एम त्यां खगें कहे. ज्यां लगे यथाप्रवृत्तिकरण कालनो संख्यातमो नाग जाय त्यां लगें कहे. तेवार पड़ी ते जघ. न्य पद विशुद्धिवाला पुरुषनी जे बेहला समयनी जघन्यविशुद्धि य ते थकी बीजा पुरुषनी पहेला समयनी उत्कृष्ट विशुद्धि अनंतगुणी होय. ते थकी पण जे जघन्यविशुद्धिस्थानथकी निवत्यो हतो ते पुरुषने उपरितन जघन्यविशुद्धि अनंतगुणी होय . ते थकी बीजा समयनी उत्कृष्ट विशुद्धि अनंतगुणी, तेथी त्रीजा समयनी जघन्यविशुछि अनंतगुणी, तेथी वली श्रागला समयनी उत्कृष्ट विशुद्धि अनंतगुणी. एम उपर अने हे एकांतरें एकेकुं विशुद्धिस्थानक, अनंतगुणी करतां बेहु जीवने त्यांसुधी कहेवं ज्यांसुधी यथाप्रवृत्तिकरणना बेहला समयने विषे जघन्यस्थानक होय त्यांसुधी कहे. ते पली उत्कृष्ट विशुकि स्थानक ते नथी कहेलां तेने निरंतरपणे बेहला समय लगें अनंतगुणी वृद्धिवालां कहेवां, ते यावत् चरम समयनुं उत्कृष्टुं विशुछिस्थानक आवे, त्यां लगें कहेवां. एम यथाप्रवृत्तिकरण कडुं. हवे अपूर्वकरण कहीयें बैयें. तिहां श्रपूर्वकरणे प्रतिसमय असंख्यात लोकाकाश प्रदेश प्रमाण अध्यवसायस्थानक होय, ते प्रतिसमयें बहाणवलिया होय, एटले उ वृद्धि भने उ हाणि होय, तिहां एक उत्कृष्टविशुझिस्थानकथकी बीजुं विशुझिस्थानक विशुछिनी अपेक्षायें जो हीन होय, तो अनंतजाग हीन होय, तथा असंख्यातजाग हीन होय, तथा संख्यातनाग हीन होय, तथा संख्यात गुणहीन होय, तथा असंख्यात गुणहीन होय, तथा अनंत गुणहीन होय. ए रीतें ब हाणिनां स्थानक कह्यां तथा अध्यवसायस्थानक विशुधिनी थपेक्षायें बीजुं अध्यवसायस्थानक वधतुं होय, तो पण बनेदें होय, ते कहे . एक अनंतनागाधिक, बीजुं असंख्यातनागाधिक, त्रीजुं संख्यातनागाधिक, चोथु संख्यातगुणाधिक, पांचमुंअसंख्यातगुणाधिक, बहुअनंतगुणाधिक, एम परस्परें उ वृद्धिनां तथा उ हानिनां घटतां वधतां अध्यवसायस्थानक होय. तिहां अपूर्वकरणना प्रथम समयें जघन्यविशुद्धि सर्व थकी थोडी होय, ते पण यथाप्रवृत्तिकरणना चरम समयनी उत्कृष्टी विशुझिस्थानथकी अनंतगुणी अधिकी जाणवी. ते थकी वली प्रथम समयनीज उत्कृष्ट विशुद्धि अनंतगुणी होय, तेथकी वली बीजे समय जघन्यविशुछि अनंतगुणी, तेथकी वली तेहीज बीजे समयें उत्कृष्ट विशुद्धि अनंतगुणी, तेथकी त्रीजा समयनी जघन्यविशुद्धि अनंतगुणी होय. तेथकी वली तेहीज त्रीजा समयनी उत्कृष्ट विशुछि अनंतगुणी होय. एम अपूर्वकरणना चरम Page #867 -------------------------------------------------------------------------- ________________ G४२ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ समय लगें कहे. ए अपूर्वकरणने विषे प्रवेश करतो जीव, प्रथम समयथीज १ स्थितिघात, २ रसघात, ३ गुणश्रेणि, ४ गुणसंक्रम, ५ अन्यस्थितिबंध, ए पांच वानां समकालें एकगं करवाने प्रवर्ते. । तिहां प्रथम स्थितिघात एटले शुं ? तोके- जे क्रोधादिकनी स्थिति जोगववी रही होय, ते सत्तामध्ये थी अग्रजागनी स्थिति उकेरे, एटले ते स्थितिसत्तानो अपनाग उत्कृष्टो तो घणा सागरोपम प्रमाण होय अने जघन्यश्री तो पक्ष्योपमना असंख्यातमा नाग प्रमाण होय, ते स्थितिखंमने खंमें एटले उकेरे .ते उकेरीने तेनुं दलिक जे हेग्ली श्राद्यस्थिति खंमन करवाने रही , ते दलमध्ये तेना दलने प्रदेपे. ए रीतें अंतरमुहूर्त्तकालें ते स्थितिखंडन उकेरे. एमज वली जे शेष स्थिति रहे, तेना अग्रजागथकी पत्योपमना असंख्यातमा नाग प्रमाण स्थिति करी तेनुं दल अंतरमुहूर्ते पूर्वोक्त प्रकारेंज बाकी रहेला, हेठला स्थितिदलमध्ये नेले, एम अंतरमुहूर्ते अंतरमुहूर्ते स्थितिमाहे तेनुं दल नेलतां अपूर्वकरणना कालमांहे घणा हजार स्थितिना खंड खपी जाय,तेवारे जे अपूर्वकरणने प्रथम समयें जेटली कर्मनी स्थितिनी सत्ता हती, तेथकी संख्यातगुणहीन स्थितिनी सत्ता थ. ए स्थितिघातनुं स्वरूप कडं. __ हवे रसघात कहे जे. रसघात ते जे अशुज कर्मनो रस जोगव्या विनानो रह्यो बे, ते रसनो अनंतमो नाग मूकीने शेष अनुनागना नाग सर्व अंतरमुहूर्ते खपावे, विनाशे, तेवार पठी वली पण जे अनंतमो नाग रह्यो बेतेनो अनंतमोजाग मूकीने शेष अनुजागना जाग सर्व आंतरमुहूर्ते खपावे, तेवार पड़ी वली ते पूर्वे मूक्यो एवो जे अनंतमो नाग रह्यो ने तेनो वली अनंतमो नाग मूकीने शेष अनुनागना नाग सर्व अंतरमुहूर्ते विनाशे. एम अनुनाग खंमनां अनेक सहस्त्र, एक स्थितिखंमने विषे व्यतिक्रमे अने ते स्थितिखंमना अनेक सहस्रं अपूर्वकरण समाप्त थाय. रसखंमना कालथकी स्थितिखंडनो काल संख्यातगुणो अधिक जाणवो. तेथकी अपूर्वकरण काल संख्यातगुणो अधिक बे. हवे गुणश्रेणि कहे . गुणश्रेणि ते अंतरमुहूर्त प्रमाण कर्मस्थिति थकी उपरली कर्मस्थिति जे वर्त बे, ते मध्ये थी दलिक लेने पोतानी उदयावलिकानी नपरली स्थितिमाहे समय समय प्रत्ये असंख्यातगुण असंख्यातगुण चढतुं दल संक्रमावे, नेले, ते श्रावी रीते जे प्रथम समयें स्तोक, तेथकी बीजे समये असंख्यातगुणुं चढतुं नेले, ते थकी वली त्रीजे समय असंख्यातगुणुं वधतुं नेले, एम यावत् अंतरमुहूर्त्तना चरम समय पर्यंत कहे. ते अंतरमुहर्त तो अपूर्वकरण अने अनिवृत्तिकरणना कालथकी लगारेंक अधिक जाणवं. ए प्रथम समयें ग्रडं जे दल, तेनो निक्षेप विधि कह्यो. एम द्वितीयादिक समयथी मामीने यावत् बेहला समय पर्यंत समयें समय Page #868 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ G४३ ग्रहीत दलियानो पण निदेप विधि जाणवो. एटले जे समय समय प्रत्ये दलिक लीयें, ते सर्व प्रत्येके अंतरमुहर्त्तना सघलां प्रति समयना दल मध्ये एमज असंख्यातगुणु चढतुं नेले. एम करतां जे समय नोगवतो जाय, ते समयथी श्रागला शेष समयना दलमांहे नेले एटले अपूर्वकरणना समयें,अनिवृत्तिकरणना समये अनुक्रमे घटते थके शेष शेषने विषे गुणश्रेणी दलिकनो निक्षेप शेष शेषने विषे होय ते उपरांत वधे नहीं. हवे गुणसंक्रम कहे . गुणसंक्रम ते जे अपूर्वकरणना प्रथम समयने विषे अणबंधाती एवी जे अनंतानुबंधीश्रादिक अशुनप्रकृति तेनुं दल बंधाती एवीजे संज्वलनादिक परप्रकृति, तेमध्ये समय समय दीठ असंख्यातगुणुं चढतुं संक्रमावे, संक्रमावीने पर प्रकृतिरूपपणे परिणमावे, तेने गुणसंक्रम कहीये. ते पहेले समय सर्वस्तोक संक्रमावे, तेथकी बीजे समये असंख्यातगुणुं संक्रमावे, एम समय समय दीठ असंख्यातगुणुं चढतुं दल संक्रमावे. __हवे अन्य स्थितिबंध कहे जे. अन्य स्थितिबंध ते अपूर्वकरणथी पूर्वला समयें जे कर्मनो स्थितिबंध कह्यो, तेनी अपेदायें अपूर्वकरणना प्रथम समय जे बीजो स्थितिबंध श्रारंने, ते स्तोक जाणवो. माटें अपूर्व स्थितिबंध कह्यो. अहींयां स्थितिबंध अने स्थितिघातनो काल, सरखोज जाणवो. ए बेने समकालें प्रारंने बे, अने समकालें सरखाज नीठे पूरा पाडे. एम ए पांच पदार्थ अपूर्वकरणे प्रवर्ते बे. हवे अनिवृत्तिकरण कहीयें वैयें. अनिवृत्तिकरण श्रारंजतां तुख्य कालना एटले एकज कालें अनिवृतिकरणें प्रवेश करनारा सर्व जीवोने प्रथम समये एकज सरखं अध्यवसायस्थानक होय, एटले अनिवृत्तिकरणना प्रथम समयने विषे जे वर्ते जे अने जे पूर्वे वर्त्या अने आगमिककालें जे वर्तशे; ते सर्वनुं पण सरझुंज अध्यवसायस्थान बे, तेमज बीजो समयने विषे जे वर्ते डे, वा डे अने वर्त्तशे,ते सर्वनुं पण एकरूपज अध्यवसायस्थान . हवे पहेला समयनां अध्यवसायस्थानकथकी बीजा समयनां अध्यवसायस्थानक अनंत गुणविशुकिये होय. एम जेटला समय अनिवृत्तिकरणना बे, तेटला समयनां अध्यवसायस्थानक ते पाबला पाबला अध्यवसायस्थानकथकी आगढुं "आगलुं अध्यवसायस्थानक अनंतगुण विशुशिवालुं होय. अहींयां एने अनिवृत्ति एवं नाम तेमाटें कहीयें बैयें,जेमाटे जे एने विषे प्रवेश करे, ते सर्वने अध्यवसायस्थानकनी परस्पर निवृत्ति अने व्यावृत्ति न होय, तेनी अपेक्षायें अनिवृत्ति एटले नेद न होय. सर्व जीव सरखे अध्यवसायस्थाने होय माटें अनिवृत्ति कही. अहींयां समय समय दी एकेक अध्यवसायस्थानक, तेनी स्थापना मुक्तावलीनी पेरें स्थापवी. DIDI अहीं पण पहेला समयथीज स्थितिघातादिक पांच पदार्थ, समकालें अपूर्वकरणनी Page #869 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ पेरें सार्थेज प्रवर्ते. ए रीते अनिवृत्तिकरण कालना संख्याता नाग गये थके शेष एक जाग रहे थके अनंतानुबंधीआनी देवली उदयावलिका मात्र स्थिति मूकीने बाकी अंतरमुहर्त प्रमाण संक्रमावी नोगवे. जेम मनुष्यगतिमध्ये शेष त्रणे गति संक्रमावीने अयोगी हिचरम समयें जोगवे, ते स्तिबुकसंक्रम कहीयें. अंतरकरणने अनिनवस्थितिबंधना काल प्रमाण अंतरमुहूर्त्तनो कहे के एटले ते अंतरमुहूर्त नवी स्थतिबंधाझा समान जाणवो. ते अंतरकरण- दली उकेरी, उकेरी बंधाती पर प्रकृतिने विषे संक्रमावे, अने प्रथम स्थितिनुं दलीलं आवलिकामात्र ते वेद्यमान उदयवती पर प्रकृतिने विषे स्तिबुकसंक्रमे करीने संक्रमावे. स्तिबुक संक्रम एटले जे अनुदय प्रकृतिनुं दल ते उदयवती प्रकृति मध्ये संक्रमाववं, तेने स्तिबुकसंक्रम कहीयें. हवे अंतरकरण कर्या पली बीजे समये अनंतानुबंधीयानी उपरली स्थितिनुं दली उपशमाववा मांझे, ते श्रावी रीतें-प्रथम समयें स्तोक उपशमावे, बीजे समय तेथी असंख्यातगुणुं उपशमावे, ते संक्रमावी नोगवे. जेम मनुष्यगतिमाहे शेष त्रण गति संक्रमावी अयोगी केवली हिचरम समयें जोगवे, तेम जाणवू. एम समय समय असंख्यातगुणुं चढतुं उपशमावतां अंतरमुहर्त्तने चरम समयें अनंतानुबंधीयानुं सर्व दल उपशमित थाय. उपशमाव्या के जेम धूलना पुंजने पाणीना बिंपुश्री सींची सींचीने घणादिकें, पबरादिकें कूट्यो थको निस्पंद एटले हीन बारीक सूक्ष्म थाय ते कोश्ने ग्राह्य पण न होय, एवो न थाय. तेम कर्मरूपरेणुना समूहने पण विशुद्धिरूप पाणीना प्रवाहथी सींची सींचीने अनिवृत्तिकरणरूप पररूपथी कूटी लासोडीने एवी सूक्ष्म करे, के जे थकी ते बंधन, संक्रमण, उदय, उदीरणा, निफत अने निकाचनादिक करणने पण अयोग्य थाय. तेने उपशमना कहीये. ए कोशएक आचार्यना मत आश्री अनंतानुबंधीयानी उपशमना कही. हवे कोइएक श्राचार्य कहे डे के, अनंतानुबंधीआनी उपशमना न होय, पण विसंयोजनाज होय. विसंयोजना एटले कपणाविशेष, तेनो प्रकार कही ये बहीं श्रेणी श्रणपमिवजतां पण चारे गतिना संझी पंचेंजिय पर्याप्ता अविरति सम्यकदृष्टि जीव तथा तिर्यंच श्रने मनुष्य, ए बेह गतिना देश विरति जीव, तथा प्रमत्त अने अप्रमत्त मनुष्य, अनंतानुबंधीया चार कषाय खपाववाने श्रर्थे जे रीतें पूर्व कह्या, तेमज यथाप्रवृत्त्यादिक त्रण करण करे. पण एटटुं विशेष जे अनिवृत्ति करणे पेठगे थको अंतरकरण न करे. तो शुं करे ? ते कहे . हलना संक्रमे करीने हेपली एक श्रावलिकामात्र मूकीने उपरला निर्विशेषपणे समस्त अनंतानुबंधीयानां दल खेरू करे. तिहां उछलमान संक्रमनुं स्वरूप, कर्मप्रकृतिथी लखीये बैयें. जे अनंतानुबंधी Page #870 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ G४५ श्रादिक प्रकृतिर्नु, कर्मप्रकृतिनुं दल, प्रथम समये पक्ष्योपमना असंख्यातमा जाग प्रमाण स्थितिखंड तेने अंतरमुहर्ते उकेरीने परप्रकृतिमध्ये संक्रमावे. एम बीजे समयें बीजो स्थितिखंग करी तेनो केटलोएक नाग परप्रकृतिमध्ये संक्रमावे तथा केटलोएक पोतानी हेग्ली स्थितिमध्ये संक्रमावे, पण परप्रकृतिमध्ये जेटबुं संक्रमावे, तेथकी थापणी हेग्ली स्थितिमध्ये जे संक्रमावे ते असंख्यातगुणुं जाणवू. एम समय समय जे स्थितिखंड करे, ते पाबला पाउला स्थितिखंमनी अपेक्षायें विशेष हीनदलनी अपेक्षायें असंख्यातगुणुं होय. अने संक्रमाक्वाने समय पण आपणी हेली स्थितिमध्ये असंख्यातगुणुं संक्रमावे, तथा परप्रकृतिमध्ये विशेष हीन हीन घटतुं घटतुं संक्रमावे, एम विचरम समय लगें संक्रमावे. अने बेहले समयें तो श्रापणी स्थितिशेषने बनावें सर्व दल परप्रकृतिमध्ये संक्रमावे, तेनुं नाम सर्वसंक्रम कहीं बैयें. एम उछलना संक्रमें करी आवलिकामात्र मूकी बाकी सर्व अनंतानुबंधीया खपावे अने जे श्रावलिमात्र रहे, तेने स्तिबुकसंक्रमे करी वेद्यमान प्रकृतिमध्ये संक्रमावी खपावे, ते अनंतानुबंधीया विसंयोज्या कडेवाय, ते अंतरमुहर्त पनी शनिवृत्तिकरणने बेहडे शेष कर्मनां स्थितिघात, रसघात अने गुणश्रेणी न होय. केम के ते जीव खनावस्थज रहे, सहज अवस्थायें रहे. ए रीतें अनंतानुबंधीनी विसंयोजनानी रीत कही. हवे दर्शनमोहनीयत्रिकनी उपशमनानो प्रकार लखीये वैयें. तिहां मिथ्यात्वनी नपशमनानो मिथ्यात्वीने तथा दायोपशमिक सम्यकदृष्टि, ए बेहुने होय. अने सम्यक्त्व तथा मिश्र, ए बेनी उपशमना तो दायोपशम सम्यक्दृष्टिनेज होय. तिहां मिथ्यात्वीने तो ग्रंथिन्नेद करतां प्रथम उपशम सम्यक्त्व जपजाववावालाने मिथ्यात्वनी उपशमना होय, ते प्रकार कहीयें बैयें. को संझी पंचेंजिय जीव, सर्व पर्याप्तियें करी पर्याप्तो करणकालथकी पूर्वे अंतरमुहर्त्त काल लगें समय समय प्रत्ये अनंतगुणावधती विशुछिये प्रवर्ततो एवो अन्नव्यसैहिक जीवनी विशुद्धिनी अपेक्षायें अनंतगुणविशुछिमंत एवो मतिअज्ञान, श्रुतअज्ञान अने विनंगज्ञान, ए मांहेला अनेरे साकारोपयोगें उपयुक्तथको मनादिक त्रण योगमाहेला कोइ पण अनेरे योगें वर्त्ततो जघन्य परिणामें तेजोलेश्यायें अने मध्यमपरिणामें पद्मवेश्यायें तथा उत्कृष्टपरिणामें शुक्ललेश्यायें वर्ततो मिथ्यादृष्टि चारे गतिमांहेलो कोइ पण गतिनो जीव कांइएक ऊंणी एक कोमाकोमी सागरोपमनी स्थिति, साते कर्मनी थाकती रही होय, इत्यादिक सर्व पूर्वोक्त प्रकारे ज्यांसुधी यथाप्रवृत्तिकरण अने अपूर्वकरण, ए बेहु मिथ्यात्व उपशमाववाने परिपूर्ण करे, तिहां लगें कहे. पण एटयुं विशेष जे Page #871 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ अहींयां अपूर्वकरणे गुणसंक्रम न करे. किंतु ? अहीं स्थितिघात, रसघात, गुणश्रेणी अने अन्य स्थितिबंध, ए चार वानांज प्रथम समयथी थारंने. गुणश्रेणीदलिक रचना पण उदय समयथी मांडीने जाणवी. तेवार पली अनिवृत्तिकरणने विषे पण एमज कहे. हवे अनिवृत्तिकरणाझाना संख्यातनाग गये थके अने एक संख्यातमो जाग थाकतो रहे, तेवारें मिथ्यात्वनी हेग्ली प्रथम स्थिति अनंतानुबंधीनी परें अंतरमुहः तैमात्र जेटली नीचें मूकी बांडीने उपरें अंतरमुहर्त मात्र अनिनवस्थितिबंधना अंतरमुहूर्त जेवडी पहेली स्थितिना अंतरमुहूर्तथी कांइएक जाजेरी अनिनवस्थितिबंधना काल सरखी एवी मिथ्यात्वीनी अंतरकरणाझा करे, ते अंतरकरणवाद्यु कर्मदल कांइएक उकेरीने प्रथम स्थितिमध्ये नेले अने कांइएक बीजी उपरली स्थितिमध्ये नेले. तिहां प्रथम स्थितिने विषे वत्ततो जीव, उदीरणा प्रयोगें करीने प्रथम स्थितिनुं दल उदयावलिका उपरतुं तेने श्राकर्षीने उदयावलिकामध्ये घालें तेने उदीरणा कहीये. अने जे वली बीजी स्थितिना समीपथकी उदीरणा प्रयोगे करीनेज तेमांहेलु दल आकर्षीने उदयावली मध्ये नाखी, जोगवे, ते आगलने पण पूर्वाचायें उदीरणानुज विशेषनाम विशेष प्रतीपत्तिने अर्थे बीजुं नाम कयुं . हवे उदय उदीरणायें करीने प्रथम स्थितिनुं दल जोगवतो जेवारे ते प्रथम स्थिति शेष बे आवलिका रहे, तेवारें पागलनो बेद आवे, तेवारें एक आवलिका लगें उदय, उदीरणा प्रवर्ते अने हेली प्रावलियें तो उदीरणा पण विरमे, तेवारें बेहली आवलियें केवल उदयज नोगवे, पनी ते आवलिकाने बेदले समयें बीजी स्थितिनां दलिकनो रस नेद करी त्रण पुंज करे, एटले तेने त्रण नागें वहेंची नाखे, ते आवी रीते के तेमध्ये जे देशघाती एकगणीआ रसस्पर्धक तथा उत्कृष्ट रसोदीरणापेक्षायें बेगणीथा रस सहित जे दल, ते प्रथम सम्यक्त्वपुंज तथा केटलाएक एकगणीश्रा रस स्पर्धक सर्वघाति सहित डे तथा केटलाएक बेगणीश्रा रसनां स्पर्कक सर्वघाती सहित बे, ते बीजो मिश्रपुंज. तथा सर्वघातीा चोगणीआ तथा त्रिगणीमा रसस्पर्धक सहित जे दल , ते त्रीजो मिथ्यात्वपुंज जाणवो. उक्तंच कर्मप्रकृतिचूर्णी " चरम समय मिडदिहि. सेकाले उवसमसम्मदिहिन होतंढे लिए अंतंपि तं अणुनाग करे तं जहा सम्मत्तं सम्मा मिबत्तं मित्तचेति ततोणंतर समये मिठादिही" तेवार पड़ी श्रागल तेथी अनंतर समयें मिथ्यात्व दलिकना उदयना अनावथकी औपशमिक सम्यक्त्व पामे, जे जणी ग्रंथें कडं जे के “मितुदए खीणे लहर सम्मत्तमो वसमिश्र सोलंनेण जस्स लंज आयहिय मलकपुवंजं." ए रीतें मिथ्यात्वनी सर्व प्रकारें उपशमनाथकी प्रथमसम्यक्त्वनो लाज होय . ए सम्य Page #872 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ ८४७ क्व पामतो कोइएक देश विरति सहित अने कोइएक सर्वविरति सहित पण पडिवजे, जे जी कयुं बे के "सम्मत्तेणं सम्मग, सर्वदेसंच कोइ परिवड” ते माटें देश विरति तथा प्रमत्त अने अप्रमत्त संयतने विषे पण मिथ्यात्वनी उपशमना पामीयें ढैयें. वे वेदसम्यक् ष्टिने प्रदेशोदयनी अपेक्षायें मिथ्यात्वनी उपशमनानो प्रकार he a. कोक वेदसम्यकदृष्टि जीव, संयमने विषे प्रवर्त्तमान थको अंतरमुहूर्त्त मात्र का दर्शन त्रिकने उपशमावे बे. तिहां दर्शनत्रिक उपशमावतां त्रण करण करपडे, तेनो विधि पूर्वे कह्यो. ते रीतें त्यां लगें जाणवो, ज्यांलगें छा निवृत्तिकरणद्धाना संख्याता जाग गये थके अंतरकरण करे बे. ते अंतरकरणी अंतरकरण करतो को सम्यक्त्वनी प्रथम स्थिति अंतरमुहूर्त्त प्रमाण स्थापे घने मिथ्यात्व, मिश्रमोहनीयनी प्रथम स्थिति यावलिकामात्र स्थापे पछी तेना दलिक उकेरी उकेरीने सम्यक्वनी प्रथम स्थितिमध्यें प्रक्षेपे. तिहां मिथ्यात्व अने मिश्र, ए बेहुनी प्रथम स्थितिनुं जे दलिक बेतेने सम्यक्त्वनी प्रथम स्थितिमध्यें स्तिबुक संक्रमे करी संक्रसम्यक्त्व प्रथम स्थितिना दलना रसोदय विपाकना अनुजववाथकी जोगवतां ते अनुक्रमें ही थाय. तेवारें औपशमिकसम्यकदृष्टि थाय. अने ए त्रणे मोहनीयनी उपरली स्थितिनुं दल उपशमाववानो तो पूर्व जेम अनंतानुबंधी श्रानी उपरली स्थितिनी उपशमनानो प्रकार कह्यो बे, तेनी पेरें जावो. ए रीतें दर्शनमोहनी ने उपशमावीने पढी चारित्रमोहनीय, उपशमाववाने प्रवर्त्ततो पुरुष वली पण तेहीज यथाप्रवृत्त्यादिक त्रण करण करे. तिहां श्रप्रमत्तने श्रप्रमत्तगुणठाणें यथाप्रवृत्तिकरण, तथा पूर्वकरण गुणगणे अपूर्वकरण अने निवृत्तिकरण गुणठाणे निवृत्तिकरण, तथा ए त्रण करण करे तेनुं स्वरूप पूर्वली पेरें जाणवुं, पण अहींयां एटलुं विशेष जे पूर्व करणें गुणसंक्रम तो न बंधाती एवी सघली अशुभ प्रकृतिनोज प्रवर्त्ते. तथा पूर्व कराना संख्याता जाग गये थके निद्रा प्रचलानो बंधविच्छेद यते ढुंते वारी घणा स्थि तिखंगनां सहस्र यतिक्रमते थके अपूर्व करणाद्धाना संख्याता जाग गये थके शेष एक जाग थाकते थके देवद्विक, पंचेंद्रियजाति, वैक्रियद्विक, दारक, तेजस, कार्मण, समचतुरस्रसंस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, त्रसनवक, देय, निर्माण अने जिननाम, ए त्रीश प्रकृतिनो बंधविच्छेद थाय, तेवार पी स्थितिखंग पृथक्त्व गये थके अपूर्वकरणने बेहले समयें हास्य, रति, जय अने जुगुप्सा, ए चार प्रकृतिनो बंध विच्छेद हुंते हास्य, रति, रति, शोक, जय ने जुगुप्सा, ए बनो उदय तिहां होय. हीं सर्व मोहनीयकर्मना बेहले समयें देशोपशमना, निधत्ति, निकाचनाना करणने विछेदे. तेवार पढी यागले समयें अनिवृत्तिकरणें प्रवेश करे, तिदां For Private Personal Use Only Page #873 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४८ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ पण स्थितिघातादिक पाँच पदार्थ तेमज पूर्वली पेरेंज प्रवर्त्ते ॥ इति समुच्चयार्थः ॥७८॥ ॥ दवे निवृत्तिवादर गुणठाणे उपशमश्रेणिवालाने मोहनीयकर्मनी पूर्वनी सातथकी रंजीने पच्चीस पर्यंत प्रकृति उपशम पामे, तेनुं स्वरूप देखाडे बे. ॥ सत्त नवय पनरस, सोलस प्रहार सेव इगुवीसा ॥ गादि चवीसा, पणवीसा बायरे जाण ॥ ७९ ॥ अर्थ- सत्त नवयपनरस के अंतरकरण कीधे थके सात प्रकृति उपशांत होय, ते पठी नपुंसकवेद उपशमे थके आनो उपशांत थाय, ते पछी स्त्रीवेद उपशमे थके नवनो उपशांत याय. ते पी हास्यादिषट्क उपशमे थके पंदरनो उपशांत थाय. ते पछी सोलसहार सेवइगुवीसा के० पुरुषवेदनो बधोदय उपशमे थके शोलनो उपशांत थाय, ते पी प्रत्याख्यानी ने प्रत्याख्यानी, ए वे क्रोध समकालें उपशमे थके अढारनो उपशांत थाय. ते पढी संज्वलनक्रोधने उपशमे उगणीशनो उपशांत याय. एगा हिडुचनवीसा ho ते पी प्रत्याख्यान ने प्रत्याख्यान, ए वे मानने समकालें उपशमावे के एकवीरानो उपशांत थाय. ते पछी संज्वलन मानने उपशमाववे बावीशनो उपशांत थाय. ते पी प्रत्याख्यान तथा प्रत्याख्यान, ए बेहु मायाने समकालें उपशमाad करी चोवीश प्रकृतिनो उपशांत थाय. ते पढी संज्वलनी मायाने उपशमाववे करी पणवीसा के० पच्चीश प्रकृतिनो उपशांत बायरेजाए के० श्रनिवृत्तिबादरगुणठाणे उपशमित प्रकृति जाणवी ॥ ७९ ॥ हवे ते निवृत्तिकरण श्रद्धाना संख्याता जाग गये थके चारित्रमोहनीयनी एकवीश प्रकृतिनुं अंतरकरण करे. तिदां चार संज्वलन कषायमांहेलो जे कषाय उदय प्राप्त होय ते कषायाने त्रण वेदमध्यें पण जे वेद उदय प्राप्त होय, ते वेद, ए बेतु प्रकृतिनी प्रथम स्थिति थापणा उदय काल प्रमाणनी होय, ते बेहु टालीने तथा बाकी उगणीश प्रकृति जेनो उदय नथी, तेनी प्रथम स्थिति श्रावली मात्र होय. तिहां पोताना उदयकालना प्रमाणनुं श्ररूपबहुत्व कही यें बैयें. त्रण वेद मध्यें स्त्रीवेद ने नपुंसकवेदनो उदयकाल थोडो होय, अने स्वस्थानमां परस्पर तुल्य होय, तेथी पुरुषवेदनो उदयकाल संख्यातगुणो जावो. तेथी संज्वलना क्रोधनो उदयकाल विशेषाधिक जाणवो. तेथी संज्वलना माननो उदयकाल विशेषाधिक, तेथी संज्वलनी मायानो उदयकाल विशेषाधिक, तेथी संज्वलना लोजनो उदयकाल विशेषाधिक. तिहां संज्वलन क्रोधोदयें करी उपशमश्रेणी श्रारंने, तेने ज्यां लगें अप्रत्याख्यानीयो ने प्रत्याख्यानी यो, एबे क्रोध उपशमे नहीं, त्यां लगें संज्वलना क्रोधनो उदय होय. एमज संज्वलनमानोदयें जे श्रेणी आरंजे तेने ज्यां लगें प्रत्याख्यानी अने प्रत्याख्यानी मान, उपशमे नहीं, त्यां लगें संज्व For Private Personal Use Only Page #874 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ GUए लनमाननो उदय होय. एमज संज्वलनमायाना उदयें उपशमश्रेणी पमिवजनारने ज्यां सुधी अप्रत्याख्यानी श्रने प्रत्याख्यानी माया उपशमे नहीं, त्यां सुधी संज्वलनमायानो उदय होय. एमज संज्वलनलोजोदयें उपशमश्रेणी पमिवजनारने अप्रत्याख्यानी तथा प्रत्याख्यानी, ए बेहु लोन, ज्यां सुधी उपशमे नहीं त्यां सुधी बादर संज्वलना लोननो उदय होय. एम पोतपोताना उद कालनी अपेदायें तेना उदयें प्रवर्त्ततो श्रेणी आरंने, ते जे कषाय तथा जे वेदना उदय प्रवर्त्ततो श्रेणी श्रारंने, ते कषाय तथा ते वेदनो उदयकाल थाकतो हुँतो तेनी तेटला कालनी तेवमी प्रथमस्थिति होय. बीजा सर्वनी आवलिमात्र प्रथम स्थिति होय. अहींआं जेटले कालें स्थितिखंडनो घात करे, तथा बीजो कालनो अन्य स्थितिबंध करे, तेटला कालें अंतरकरण पण करे, ए त्रणे साथें एक कालें मांझे अने ए सार्थेज पूर्ण करे, पण तेनो काल प्रथम स्थितिथकी असंख्यातगुणो अधिक जाणवो. हवे अंतरकरणना दलनो प्रदेपविधि लखीयें बैयें. जे प्रकृतिनो तिहां बंध अने उदय, ए बेहजे, ते प्रकृतिनां अंतरकरण सत्कदल कांइएक प्रथमस्थिति मध्ये नेलीयें अने कांइएक बीजी स्थितिमध्ये नेलीये, जेम पुरुषवेदने उदयें श्रेणी श्रारंने, तेने पुरुषवेदनो बंध होय, तथा उदय तो डेज, तेथी पुरुषवेदना अंतरकरणदल बेहु स्थितिमध्ये नेलीये तथा जे प्रकृतिनो उदय डे, पण बंध नथी, तेना अंतरकरणनुं दल प्रथमस्थितिमध्येज नेलीयें,जेम स्त्रीवेदनो तिहां उदय ,पण बंध नथी, तेणे स्त्रीवेदोदयें जे श्रेणी पडिवजेते अंतरकरण सत्कदल आपणी प्रथम स्थितिमध्येज नेले, तथा जे प्रकृतिनो तिहां उदय नथी श्रने बंधतेनां अंतरकरणदल,बीजी स्थितिमध्ये नेले पण प्रथम स्थितिमध्ये न नेले. जेम संज्वलनक्रोधने उदये श्रेणी पडिवजे, ते शेष त्रण संज्वलनना कषायज बांधे बे ते तेनां अंतरकरण दल बीजी स्थितिमध्ये नेले तथा जे प्रकृतिनो बंध तथा उदय, ए बेहु नथी, तेनां अंतरकरण दल, पर प्रकृतिमध्ये नेले, जेम बीजा अप्रत्याख्यानीआ अने त्रीजा प्रत्याख्यानीश्रा कषायनां अंतरकरण दल संज्वलन परप्रकृति बे तेमध्ये नेले. अहीं घणी वात लखवानी बे परंतु ग्रंथ वधवाना जयथी नथी "लख्यु, पण जेने विशेष जाणवानी श्छा होय, तेने कर्मप्रकृतिनी वृत्ति जोवी. एम अंतरकरण करी पली पहेलो नपुंसक वेद उपशमावे, ते पहेले समय थोडं दल उपशमावे, बीजे समय तेथी असंख्यातगुणुं, एम समय समयने विषे असंख्यातगुj चढतुं उपशमावतां बेहले समये सर्व उपशांत होय. तिहां प्रथम समयथी मामीने हिचरम समय लगें उपशमाव्यां जे दल, ते थकी असंख्यातगुणुं दल, परप्रकृतिमध्ये केपवे, अने बेहले समय जे परप्रकृतिमध्ये देपवे, तेथकी असंख्यातगुणुं उप Page #875 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ शमावे, एम नपुंसकवेद उपशमावे थके पूर्वली अनंतानुबंधी चार तथा दर्शनत्रिक मली सात सहित श्राप मोहनीयनी प्रकृति उपशांत होय, तेवार पनी उक्तप्रकारें अंतरमुहर्त्त पर्यंत स्त्रीवेद उपशमावे, तेवार पली हास्यादिक प्रकृति अंतरमुहत्त उपशमावे, तेवारें शरवाले मोहनीयनी पंदर प्रकृति उपशांत होय. ते समयें पुरुषवेदना बंध, उदय अने उदीरणानो विछेद थाय अने तेनी प्रथम स्थितिनो पण विछेद थाय. तिहां पुरुषवेदनी प्रथम स्थिति बे श्रावली शेष बते, पूर्वोक्त आगाल न थाय, तेवारें मार्गदल विशेषदल थया नणी तिहां हास्यादिक र प्रकृतिनां दल पुरुषवेदमां प्रदेप थाय नहीं. तेवारे ते हास्यादिक बनुं दल, संज्वलनाक्रोधादिकमध्ये नेलीयें, जेजणी कम्मपयमीमध्ये क डे के, बे श्रावलि प्रथम स्थितिनी शेष होय, तेवारें वेदपतह न थाय, एम हास्यादिक उ प्रकृति उपशमाव्या पली एक समय ऊणी बे श्रावलीये सर्व पुरुषवेद उपशमे, ते पण प्रथम समय सर्वस्तोक तेथी बीजे समयें असंख्यातगुणुं उपशमावे, तेथकी त्रीजे समयें असंख्यातगुणुं उपशमावे. एम समय समय दीव असंख्यातगुणुं चढतुं दल उपशमावे. एम यावत् समयें ऊपी बे श्रावलिका होय, तिहां सुधी कहे, अने केटढुंएक दल परप्रकृतिमध्ये यथाप्रवृत्त संक्रमें करी संक्रमावे, पण प्रथम समयथी बीजे समयें विशेष हीन संक्रमावे. एम समय समय विशेष हीन हीन संक्रमावतो आवलिकाना चरम समय लगें जाय. ए रीतें पुरुषवेद उपशांत थये थके मोहनीयनी शोल प्रकृतिन उपशांतत्व थाय. तेवार पढ़ी जे समयें दास्यादिक ब प्रकृति उपशमे, ते समयथी पुरुषवेदनी प्रथम स्थिति क्षीण थ. तदनंतर अप्रत्याख्यानीक्रोध अने प्रत्याख्यानीउक्रोध तथा संज्वलनक्रोध, ए त्रणे क्रोधने साथेंज उपशमाववा मांडे, तेने पूर्वली पेरें उपशमावतां जेवारें संज्वलनक्रोधनी प्रथम स्थिति एक समय ऊणी त्रण श्रावली शेष रहे, तेवारें अप्रत्याख्यानीथा अने प्रत्याख्यानीश्रा, ए बेहु क्रोधनुं दल संज्वलना क्रोधने विषे न प्रदेपे पण संज्वलना मानादिकमध्ये नेले, जे जणी त्रण श्रावली शेष, सं. ज्वलनो क्रोध रह्यो थको तेमध्ये को प्रकृतिनां दल पतगृह न थाय एटले तेमध्ये को एक पण प्रकृतिनुं दल संक्रामाव्युं न जाय अने तेनी बे श्रावली शेष रहे, तेवारें तिहां श्रागाल विछेद थाय अने एक श्रावली शेष रहे, तेवारें संज्वलनाक्रोधनो बंध, उदय, उदीरणा विछेद थाय अने अप्रत्याख्यानी तथा प्रत्याख्यानी क्रोध उपशांत होय, एटले अढार प्रकृति उपशांत थाय. तेवारें संज्वलन क्रोधनी प्रथम स्थितिनी एक श्रावलिकानुं दल अने बे आवली एक समय ऊणी अहींयां बांध्यु जे उपरली स्थितिनुं दल, ते विना बाकी सर्व उपशांत थयु जे. ते पड़ी जे संज्वलन क्रोधनुं प्रथम Page #876 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ स्थितिनुं एकावलिका दल ते संज्वलन मानमध्ये स्तिबुकसंक्रमे करी संक्रमावे श्रने समय ऊणी बे श्रावलिकाना बंधनुं उपरली स्थितिनुं दल, ते पुरुषवेद उपशमनाधिकारना प्रस्तावेंजे रीतें उपाय कह्यो ,ते रीतें उपशमावे तथा परप्रकृतिमध्ये संक्रमावे. एम समय कणी बे आवलीयें संज्वलनक्रोध उपरली स्थितिनुं तेने उपशमावे, एटले मोहनीयनी उंगणीश प्रकृति उपशांत थश्. हवे जेवारें संज्वलनाक्रोधनो बंध, उदय, उदीरणा विछेद थयो, ते समयथी मांगीने संज्वलना माननी बीजी स्थितिमध्येथी दल आकर्षीने तेने प्रथम स्थितियें करीवेदे, तिहां उदय समयने विषे स्तोक प्रक्षेपे ने भने ते थकी बीजा समयने विषे असंख्यातगुणो प्रदेपे. एम समय समय असंख्यातगुणो. चढतो चढतो प्रदेपतां यावत् प्रथम स्थितिना चरम समय पर्यंत लीजीयें. प्रथमस्थितिकरणना पहेला समयश्री मांगीने अप्रत्याख्यानावरण तथा प्रत्याख्यानावरण अने संज्वलनमान, ए त्रणे मानने सायेंज उपशमाववा मांडे, ते तेमज जेवारें संज्वलना माननी प्रथम स्थिति समयोन त्रण श्रावली शेष रहे, तेवारें पूर्वे कह्यो ते प्रकारे संज्वलन मानने विषे परप्रकृतिनुं पतग्रह न थाय, तेवारें प्रत्याख्यानीयादिक माननुं दस संज्वलननी मायामध्ये संक्रमावे. एम क्रोधनी पेरें माननी उपशमनानी विधि जाणवी. ए अप्रत्याख्यानी, प्रत्याख्यानी मान उपशमावे, तेवारें मोहनीयनी एकवीश प्रकृतिनो उपशम थयो. ते समय संज्वलनमाननां बंध, उदय, उदीरणा विछेद थाय, तेवार पड़ी एक श्रावलिकायें संज्वलन क्रोधनी पेरें संज्वलन मानने उक्तप्रकारे उपशमावे. तेवारें बावीश प्रकृति उपशमी. तथा जे समयें संज्वलन माननो बंध, उदय, उदीरणा विछेद होय तेथी भागले समयथी मांडीने संज्वलन मायानी बीजी स्थितिमध्ये थी दल आकर्षीने पूर्वे कह्यो, ते प्रकारे प्रथम स्थिति. गत करे, करीने वेदे, ते समयधीज मांडीने त्रणे मायाने उपशमाववा मांमे ते पण माननी पेरें एक श्रावली हुँते संज्वलनी मायानां बंधोदय, उदीरणा विछेद थाय, ते समय अप्रत्याख्यानी प्रत्याख्यानी माया उपशांत थाय, तेवारें मोहनीयनी चोवीश प्रकृतिनो उपशांत थाय. ते समयें संज्वलन मायानी प्रथमस्थितिगत एकावलिकाने तथा समयोन श्रावलिकाहिकें बांधेदुं जे उपरली स्थितिगत दलिक तेने मूकीने शेष अन्य सर्व जपशांत थाय बे. ते पनी ते प्रथम स्थितिगत एकावलिकाने स्तिबुक संक्रमे करीने संज्वलन लोजने विषे संक्रमावे अने समयोन श्रावलिकाहि बांधेला दलिकने पुरुषवेदमां कहेला उक्तप्रकारे करी उपशमावे बे तथा संक्रमावे बे. ते पठी समयोन बे श्रावलिकायें सज्वलन माया उपशांत थाय. तेवारे मोहनीयनी पच्चीश प्रकृति उपशांत थर जेवारें संज्वलनी मायानो बंधादिक विछेद Page #877 -------------------------------------------------------------------------- ________________ GUR सप्ततिकानामा षष्ट कर्मग्रंथ. ६ होय, तेथी आगले समय संज्वलन लोजनी बीजी स्थितिमाहेथी दल आकर्षीने प्रथम स्थिति रचे ते प्रथम स्थिति लोनवेदनाद्धाना त्रण विजागध्य प्रमाण करे, करीने वेदे. तिहां प्रथम विनागर्नु नाम, थश्वकर्णकरणाझा, बीजा त्रिजागर्नु नाम, किट्टिकरणाझा. तिहां प्रथम अश्वकरणाझा त्रिजागें वर्ततो पूर्वस्पर्डकमध्येथी दल खेश्ने अपूर्वस्पर्डक करे..अहींया स्पर्डक एटले शु? तोके, जीव अनंतानंत कर्म पर। माणुये निष्पन्न स्कंध तेने कर्मपणे ग्रहे बे. तिहां एकेक कर्मस्कंधमध्ये जे सर्व जघन्य रस ते पण केवलीना ज्ञानरूप शस्त्रे दातो, बेदातो पण सर्व जीवथकी अनंतगुण रसविनाग प्रत्ये श्रापे . तथा एवां जे सरखां सरखां जघन्य रसनां कर्मस्कंधदल तेनो समुदाय, ते वर्गणा कहीये. तेथी एक रसविनागें चढता कर्मस्कंधनी बीजी वर्गणा, तेथी बे रस अविनांगें चढता कर्मस्कंधनी त्रीजी वर्गणा, एम एकेका रसविजागें चढती चढती वर्गणा करतां अनव्यथी अनंतगुणी अने सिझने अनंतमे जाग प्रमाण वर्गणानो समुदाय, तेनुं नाम स्पर्कक कहीये. ते स्पर्ककनी उपरली वर्गणाना रसविनागथी एक रसविनागें थधिक, तथा बेहु रसविनागें अधिक रस विनाग सहित, एम यावत् सर्व जीवथी अनंतगुण पर्यंतथी एक रसविनागें हीन रसोपेत कर्मस्कंध दल न पामीयें, एटले सर्व जीवथी अनंतगुण रसविनागें अधिक रस सहित जे कर्मस्कंधदल होय, एवा स्कंधनो समुदाय, ते बीजा स्पईकनी प्रथम वर्गणा जाणवी. तेथी एक रसविनागें अधिक कर्मस्कंधनो समुदाय, ते बीजी वर्गणा. एम एकेक रसविनागें चढती चढती अजव्यथी अनंतगुणी वर्गणा होय. तेना समुदायने बीजो स्पर्कक कहीये. एमज वली सर्व जीवथी अनंतगुण रसविनागें अधिक नेलतां कर्मस्कंधना समुदायनी त्रीजा स्पर्ककनी प्रथमवर्गणा, एम ते पण पूर्वोक्त अजव्यानंतगुण अनंतवर्गणायें स्पर्कक होय. एवा अनंता स्पर्कक जीवें पूर्वे बांध्यां ने तेजणी एने पूर्वस्पर्कक कहीये. ते मध्ये थी दल लेश्ने ते दलने प्र. कर्ष विशुझिना वशथकी अत्यंत रस हीन करीने अपूर्वस्पर्कक करे, केमके, था संसार मध्ये परित्रमण करता जीवें कोश्वारें बंध आश्री एवा रसस्पर्कक नथी कस्या पण हमणांज विशुद्धिने वशे करे बे. तेजणी एने थपूर्वरसस्पर्डक कहीये, ते अ. श्वकर्णकरणाझा वीत्या पली बीजो किट्टिकरणाद्धायें प्रवेश करे. तिहां पूर्वस्पर्डकथी बीजा अपूर्वस्पर्डकथी दल लेश्ने तेना रसनी प्रतिसमये अनंती किहि करे, किहि कहेतां जे पूर्वस्पर्ककथी तथा अपूर्वस्पर्धकथी वर्गणा वेश बेश्ने तेने अनंतगुण रस हीनताने पमाडीने घणे श्रांतरे आंतरे थाप. जेम असत्कल्पनायें जेना एकसो रसविनाग , अथवा एकोत्तरसो, बीडोचरसो हता, तेना पांच, पंदर, पञ्चीश, रसवि: Page #878 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ G५३ जाग राखवा, तेने कट्टि कहीये. ते किट्टिकरणाऱ्याने बेहले समयें समकालें अप्रत्याख्यान ने प्रत्याख्यानी, ए वे लोन उपशमे छाने ते समज संज्वलना लोजनो पण बंध विछेद था. छाने बादर संज्वलन लोजना उदय, उदीरणानो व्यवच्छेद थाय. निवृत्तिबादर गुणवाणानो पण व्यवच्छेद थाय. एम नवमे गुणठाणे सातथी ainla पच्ची पर्यंत मोहनीयनी प्रकृति उपशांत पामे ॥ इति ॥ ७९ ॥ ॥ हवे दशमे गुणठाणे जे प्रकृति उपशांत पामीयें, ते कहे ॥ सत्तावीसं सुहुमे, अठावीसं च मोद पयडीजे ॥ वसंत वीरागे, जवसंता हुंति नायवा ॥ ८० ॥ अर्थ- सत्तावीसंमे के० ते पटी प्रत्याख्यान ने प्रत्याख्यान, ए बेहुलोसमकालें उपशम थये थके सूक्ष्मसंपरायगुणठाणे सत्तावीश प्रकृति उपशांत थाय. डावी संचमोहपयमी के तेवार पछी संज्वलनो लोन उपशमे थके हा वीश मोहनीयनी प्रकृति, जवसंतवीरागे के० उपशांतवीतराग नामे श्रीश्रारमे गुठाणे वसंता तिनाय वा के० उपशांत होय. एरीतें ज्ञातव्या इति एवं जाणवुं ॥ ६०॥८० एम नवमाने बेहले समयें प्रत्याख्यानी ने प्रत्याख्यानी लोजनी बे प्रकृति उपशमे थके सूक्ष्मसंपराय गुणठाणे सत्तावीश मोहनीयनी प्रकृति उपशांत पामीयें, ते सूक्ष्मसंपराय गुणठाणानो काल, अंतरमुहूर्त्त प्रमाण बे तेने विषे पेठो थको जीव, संज्वलनलोजनी उपरली स्थितिमध्येंथी केटलीएक किट्टि आकर्षीने तेनी प्रथमस्थिति सूक्ष्मसंपरा श्रद्धा जेटली करीने वेदे. सूक्ष्म किट्टि कस्युं जे दलिक ने समय की वे श्रावलि बांध्युं जे दल, ते उपशमावे, चरम समयें संज्वलनो लोन उपशांत होय, तेहीज समयें ज्ञानावरण पांच अंतराय पांच, दर्शनावरणीय चार, उच्चैर्गोत्र छाने यशःकीर्त्ति, ए शोल प्रकृतिनो बंध, व्यवच्छेद करे, तेवार पछी बीजे समयें उपशांत कषाय थाय. तिहां मोहनीयनी अहावीश प्रकृति उपशांत याय. ते उपशांत कषायवंतथको जीव, जघन्यथी तो एक समय रहे अने उत्कृष्टो अंतरमुहूर्त्त पर्यंत रहे, उपरांत अवश्य पडे, ते तिहांथी पकवाना बे प्रकार बे. एक जवक्षयें पडे बीजो का पडे. तिहां जेनुं आयु पूर्ण थाय, तेवारें ते मनुष्यजवने कयें मरण पामीने अनुत्तर विमानें देवता याय. तिहां प्रथमसमयेंज बंध संक्रमणादिक वे करण तथा उदय प्रवर्त्तावे, ते पाघरो अगीयारमा गुणगणाथी चोथे गुठाणे आवे. वचला गुणगणानो तेने स्पर्श थाय नहीं. तथा औपशमिक सम्यक्त्वश्री पीने ते समय वेदकसम्यकदृष्टि थाय. तथा जे जीव, काल दयें अगीधारमा गुणगणानो अंतरमुहूर्त्त काल पूर्ण जोगवीने श्रागल चढवाने जावें तिहांथी पाठो For Private Personal Use Only Page #879 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ԵԱՑ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ पडे, ते तो जीहां जिहां बंध, उदय, उदीरणादिक प्रकृति व्यवछिन्न थर होय, तेने तेने फरी तिहां श्रारंजतो जे रीतें चड्यो हतो, तेमज पडे. ते पडतो प्रमत्त थाय तथा कोइक अविरतिपणाने पण पामे, कोइएक सास्वादन पामी मिथ्यात्वें पण जाय, ए श्रेणी उत्कृष्ट तो एक जवमध्यें बे वार करे, पण जे बे वार उपशम श्रेणी करे, ते नियमा तेहीज नवें क्षपकश्रेणी न करे छाने एक वार उपशमश्रेणी करीने बीजी वार रूपकश्रेणी करे तेनी ना नथी. ए रीतें उपशमश्रेणीनुं स्वरूप कयुं. ॥ रूपकश्रेणीमा || ॥ हवे रूपकश्रेणीनुं स्वरूप कहीयें यें. ॥ पढम कसाय चकं, इत्तो मिबत्त मीस सम्मत्तं ॥ विरय सम्मे देसे, पमत्ति अपमत्ति खीयंति ॥ ८१ ॥ अर्थ- पढमकसायचक्कं के० प्रथम तो अनंतानुबंधीच्या चार कषाय इणे, विसंयोजना करे, इत्तो के तेवार पटी मित्तमीससम्मत्तं के० मिथ्यात्वमोहनीय, मिश्र - मोहनी ने सम्यक्त्वमोहनीय, ए त्रणेनो समकालें तय करे, ते अविरयसम्मेदेसेपत्तापमत्ति के० अविरतिसम्यकदृष्टि, देशविरति, प्रमत्त तथा अप्रमत्त गुणठाणे खीयंति के० क्षय करे, एटले सत्ताथी टाले. रूपकश्रेणीनो पडिवजनार पुरुष, आठ वर्षथी उपरनी उमरनो बतां वज्ररुषननाराच संघयणी, शुद्धध्यानवंत, अविरति, देशविरति, प्रमत्त, अप्रमत्त, संयतिमांहेलो कोइ पण होय. पण एटलुं विशेष जे, केवल अप्रमत्त संयत होय, तो पूर्वनो जाए होय अने शुध्यानोपगत होय ने बीजा सर्व धर्मध्यानोपगत होय. एवो जीव शुभयोगें वर्त्ततो रूपकश्रेणी श्रारंजे ते प्रथम चार अनंतानुबंधी या विसंयोजीने खपावे, तेनी विसयोजनानो प्रकार, पूर्वे को बे, तेमज जाणवो. तेवार पढी त्रण दर्शनमोहनीय खपाववाने प्रवर्त्ते. तिहां यथाप्रवर्त्त्या दिक ऋण करण पूर्वे कह्यां, ते रीतेंज करे, पण एटलुं विशेष जे पूर्वकरणना प्रथम समयथीज अनुदित मिथ्यात्व तथा मिश्रनां दल ते उदयवंत सम्यक्त्व मोहनीयमध्ये गुणसंक्रमें करी संक्रमावे छाने ते बेदुनो उद्वले एटले संक्रम पण करवा मांडे. तिहां पहेलो तो मदोटो स्थितिखंग जवेले, तेथी बीजो स्थितिखंग विशेषहीन उवेले, तेथी वली त्रीजो स्थितिखंड विशेषहीन उवेले, एम करतां करतां पूर्वकरणना बेहला समय पर्यंत कदेवु. तिहां पूर्वकरणना प्रथम समय जे स्थितिनो सत्तावंत होय ते थकी असंख्यात गुणहीन स्थितिनो सत्तावंत याय. तेवार पढी श्रागले समयें अनिवृतिकरणमध्यें प्रवेश करे, तिहां पण स्थितिघातादिक सर्वने तेहीज प्रकारें करे बे. निवृत्तिकरणना प्रथम समयें दर्शन त्रिकनी पण For Private Personal Use Only Page #880 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्य सप्ततिकानामा षष्ट कर्मग्रंथ. ६ देशोपशमना, निझत्ति, निकाचनानो व्यवछेद करे: तिहां प्रथम समयथी दर्शनमोहर नीयत्रिकनी स्थितिसत्तानो घात करतो करतो सहस्रगमे स्थितिखंमें गये थके पांकी जेवारें असंझी पंचेंडियनी स्थितिसत्ता समान स्थिति रहे.तेवार पठी वली पण तेटलांज स्थितिखंमनां सहस्र गये थके चौरिंजियनी स्थिति समान सत्ता रहे.वली पण तेटलांज स्थितिखंगनां सहस्त्र गये थके तेंजियनी स्थिति समान सत्ता रहे. वली तेटलांज स्थि. तिखंडना सहस्र गये थके बैंजियनी स्थिति समान सत्ता रहे, वली पण तेटलां स्थितिखंडनां सहस्र गये थके पथ्योपमना असंख्यातमा नाग प्रमाण दर्शनत्रिकनी स्थितिनी सत्ता रहे, तेवार पड़ी ते त्रणे दर्शनमोहनीयनो पण प्रत्येके एकेक संख्यातमो नाग मूकीने बाकीनी स्थिति सर्व खपावे, तेवार पबी वली पण बाकी मूकेला संख्यातमा नागनो एक संख्यातमो नाग मूकीने बाकी सर्व स्थितिनो घात करे. ए रीतें बाकी रहेला नागनो संख्यातमो नाग मूकी, मूकी, शेष सर्व स्थितिनो घात करतो, करतो स्थितिघातनां घणां सहस्र अतिक्रमे, तेवार पड़ी मिथ्यात्वना असं. ख्यात नागने खंडे अने मिश्र तथा सम्यक्त्वना तो संख्यात नागने खंडे, ते पळी एम घणा स्थितिखंड गये थके जेवारें मिथ्यात्वनुं दल श्रावलिकामात्र रह्यं अने मिश्र तथा सम्यक्त्व, ए बेहुनुं दल तो पट्योपमना असंख्यातमा नाग प्रमाण रहे. हवे ए स्थितिखंगना दलने खंडवानो प्रत्येक विधि कहीयें बैयें. तिहां खंमन करेला एवां मिथ्यात्वनां दल तेने मिश्र,तथा सम्यक्त्व, ए बेहुमध्ये प्रक्षेप करे अने मिश्रनां दलमात्र सम्यक्त्वमध्येज प्रदेपे अने सम्यक्त्वनां दल सम्यक्त्वनी पोतानी हेग्ली स्थितिमध्ये प्रक्षेपे, ते पडी जे मिथ्यात्व दलिक श्रावलिकामात्र रह्यु, ते पण स्तिबुकसंक्रमें करीसम्यक्त्वमध्ये संक्रमावे, एटले मिथ्यात्व क्षीण थाय, तेवार पड़ी मिश्रना तथा सम्यक्त्वना असंख्याता जाग करी तेने खंडें शेष एक नाग राखे. वली तेना पण असंख्याता नाग करे, तेमध्येंथी एक जाग राखी बाकी सर्वने खंडे, एम करतां करतां केटलाएक स्थितिखंक गये थके, मिश्रमोहनीय एक श्रावलिकामात्र रहे, तेवारें सम्यक्त्वमोहनीयनी स्थितिसत्ता, श्राठ वर्ष प्रमाणनी रहे ते वेलायें निश्चयनयने मते सर्व विघ्न टल्यां माटे एने दर्शनमोहनीयनो कपक कहीये. तेवार पबी वली सम्यक्त्वना स्थितिखंमने अंतरमुहर्त्त प्रमाण उकेरे, तेनुं दल उदयसमयथी आरंजीने सघली स्थितिसत्ता, समय समय संक्रमावे . तेमध्ये पण उदयसमय सर्वस्तोक सक्रमावे. तेथकी बीजे समय असंख्यातगुणो, तेथकीत्रीजे समय असंख्यातगुणो, एम बागले बागले समये असंख्यातगुणो संक्रमावतां, संक्रमावतां, ते गुणश्रेणीना माथा खगें जाणवू. ते पनी उपर तो विशेषहीन विशेषहीन ज्यां लगें स्थि Page #881 -------------------------------------------------------------------------- ________________ G५६ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ तिनो बेहलो समय होय, त्यां लगें संक्रमावे. एम अंतरमुहूर्त अंतरमुहूर्त प्रमाण अनेक स्थितिखंडोने उकेरे , अने निदेपण करे बे. ते स्थितिदलमाहे संक्रमावतो हिचरम स्थितिखम लगें जाय, ते हिचरम स्थितिखंमथकी हलो खंग असंख्यातगुणो करे. ते लेहलो स्थितिखंम जेवारें उकेरे, एवाने दपककृतकरण एवं नाम कहीयें. ५ कृतकरणाझायें वर्त्ततो एवो जीव, कोश एके पूर्व आयु बांध्यु होय तो ते आयुकायें मरण पामीने चारे गतिमाहेली जावे ते गतिमध्ये अवतरे, अने लेश्याने विषे पण पूर्वे तो शुक्लबेश्यामां हतो अने सांप्रत तो अन्यतम लेश्यामध्ये जाय . ते माटें सप्तक दयनो मांडनार प्रस्थापक थश्ने मनुष्य, निष्ठापक बतो चार गतिमाहेलो जीव कह्यो , तथा जे पूर्व बद्धायु थको दपकश्रेणी मांडे, अने अनंतानुबंधीया चार खपावीने पठी मरण पामवाना संजव थकी जो श्रेणी थकी विरमे तो पण अनंतानुबंधीयानुं बीजनूत मिथ्यात्व , तेनो विनाश थयो नथी तेजणी वली पण कदाचित् अनंतानुबंधीया सजीवन करता लहे. पण जेणे मिथ्यात्व क्षय कह्यु, ते मिथ्या. त्वना विनाशथी वली अनंतानुबंधीया न बांधे, जेजणी बीज नथी तो अंकूर केम होय ? अने ए सात प्रकृति दय करीने जो चमते परिणामें वर्ततो मरण पामे तो अवश्य देवगतिमध्येंज उपजे अने जो पतित परिणामें थाय, तो नानाप्रकारना परिणामना संजवथकी जेवा परिणामनी विशुद्धिये प्रवर्ततो मरण पामे, तेवी गतिमध्ये अवतरे, अने जेणे पूर्वे आयु बांध्युबे, एवो जीव, जो ते वखते तिहां काल न करे तो पण सात प्रकृतिने दयें निश्चयें ते तेवाज परिणामें रहे, परंतु आगल बीजी चारित्र. मोहनीयनी प्रकृति खपाववानो उद्यम न करे, तथा क्षीणसप्तक पूर्वबद्धायु जणी ते नवें मुक्ति न पामे, तो पण त्रीजे नवें श्रथवा चोथे नवें अवश्य मुक्ति पामे, केमके जेणे देवायु अथवा नरकायु बांध्यु होय,तो ते देव तथा नारकीनो नव करी तिहांथी मनुष्य थश्ने त्रीजे नवें मोद जाय. अने जे मनुष्य तथा तिर्यंचायु बांध्या पली सप्तकक्षय करे, ते नियमा असंख्य वर्षायु बांधे पण संख्यात वर्षायु बांध्या पठी सतक दीण न करे तेवारे ते युगलीया मध्ये जाय. तिहां तो नवप्रत्ययेंज नियमा देवायुनोज बंध होय. तेथी ते देवगतिमध्ये जाय श्रने देवगतिमध्ये तो नवप्रत्ययें सम्यक्त्व उतां मनुष्यायुनोज बंध होय, तेथी ते देवता चवी मनुष्य थाय. तिहां वलतुं वायु न बांधे, केवल चारित्र लश्शेष एकवीश मोहनीयनी प्रकृति खपावी मुक्ति पामे, ते अपेदायें चोथे नवें मोद जाय. तिहां पंचसंग्रहनी साख लखीयें बेये " तश्य चढ्ने तम्भिव, जवम्मि सिद्यति दंसणे खीणे ॥ देव निरअसंखा, उचरम देहेसुते हुँति ॥” ए सातनो दय अविरति गुणगणे होय. ए सूत्रनो अर्थ बे. अन्यथा तो अविरतिस Page #882 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ GU स्थकदृष्टि, देश विरति, प्रमत्त, अप्रमत्त साधु, ए चार मांहेलुं जावे ते सप्तक क्षीण करे बे, तथा जो बद्धायु थको रूपकश्रेणी खारंजे तेवारें ए सप्तकनो य करे, तो ते नियमथी अनुपत परिणामवंत थको चढते परिणामें आगले चारित्रमोहनीयनी प्रकृति खपाववाने खर्थे उद्यम करे. एम जाष्यमध्यें कयुं बे. " इयरो अणुवर उच्चिय, सयलं सेटिं समाणे " हवे चारित्रमोहनीयनी शेष एकवीश प्रकृति खपाववाने का उद्यम करतो एवो पुरुष, यथाप्रवृत्त्यादिक त्रण करण करे. तिहां करणनुं स्वरूप पूर्वी पेरेंज जाए. यहीं अप्रमत्त गुणठाणे यथाप्रवृत्तिकरण, तथा पूर्वकरण गुणगणे अपूर्वकरण ने अनिवृतिबादर गुणठाणे श्रनिवृत्तिकरण करे. तिहां अपूर्व करणे स्थितिघातादिक करी अप्रत्याख्यानीचा चार अने प्रत्याख्यानीश्रा चार, एवं आव कषाय एवी रीतें खपावे, के जेवी रीतें अनिवृत्तिकरणाद्धाने प्रथम समयेंज ते कषायाष्टकनी पल्योपमना असंख्यातमा जाग प्रमाण मात्र स्थिति शेष थाय ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ ८१ ॥ ॥ तेवार पढी निवृत्तिबादर गुणठाणे शुं हणे ? ते कहे . ॥ अनि बायरथी, एण गिदि तिग निरय तिरि नामा ॥ संखित इमे सेसे, तप्पाउंगार्ड खीयंति ॥ ८२ ॥ לי अर्थ-निट्टिबारे के० निवृत्तिबादर गुंणठाणाना प्रथम समयें श्रावकपाय पस्योपमना असंख्यात जाग प्रमाण स्थितिना थाय. पढी थीए गिद्धिति के श्री द्धित्रिक, नरकद्विक, तिर्यंचद्विक, एकेंद्रियजाति, बेंद्रियजाति, तेंद्रियजाति, चौरिंडियजाति, स्थावर, श्रातप, उद्योत, सूक्ष्म, साधारण, ए निरयतिरिचनामार्जतपार्टगार्ड के० नरक अने तिर्यच ए बे गति, तत्प्रायोग्य नामकर्मनी तेर प्रकृति तथा पूर्वोक्त थी द्धित्रिक ते दर्शनावरणीयनी प्रकृति, एवं शोल प्रकृतिने उलनासंक्रमें करीने प्रतिसमय वेली जवेली जेवारें पल्योपमना असंख्यातमा जाग प्रमाणमात्र स्थिति शेष रहे, तेवारें ते शोल प्रकृतिने प्रतिसमय बंधाती प्रकृतिमध्यें गुणसंक्रमें करी संक्रमावी संक्रमावीने क्षीण करतो करतो अ निवृत्तिबादर गुणठाणाना संखितइमेसेसे ho संख्याता जाग गये थके अने शेष एक जाग थाकते थके ते सघली प्रकृति श्रीयंति के क्षीण करे. श्रहींथां श्रप्रत्याख्यानीया तथा प्रत्याख्यानीया आठ कषाय पूर्वै खपाववा मांड्या हता पण हजी क्षीण थया नथी तेना वचमां पहेल वहेलीज ए शोल प्रकृतिनो दय कस्यो ने कोइएक प्राचार्य वली एवं कड़े बे के, ए शोल प्रकृति खपावतां वचालें व कषाय खपावीने पी ए शोल प्रकृति खपावे. ॥ इत्यर्थः ॥ ८२ ॥ १०८ Page #883 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ՇԱՐ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ इत्तो दइ कसाय, इगंपि पचा नपुंसगं इवी ॥ तो नोकसायबक्क, बुदइ संजलण कोम्मि ॥ ८३ ॥ पुरिसं कोदे कोदं, माणे माणं च बुदइ मायाए ॥ मायंच बुदइ खोदे, लोदं सुहुमंपि तो दाइ ॥ ८४ ॥ अर्थ - इत्तोदकसायपि के० तेवार पी वली प्रत्याख्यानीच्या चार श्रने प्रत्याख्यानी या चार, ए आठ कषायने निःशेषपणे अंतरमुहूर्त्त मात्र काले करी ते हणे, पठानपुंगी के पढी नपुंसकवेद खपावे, पढी स्त्रीवेद खपावे, तोनोकसायकं के० तेवार पी हास्यादिक व नोकषायनुं दल पवतां रयुं, ते संजल कोह म्मि के० संज्वलनक्रोधने विषे बुद के देपवे, संक्रमावे ॥ इति समु० ॥८२॥ पुरिसं के० पुरुषवेदना बंधादिक विच्छेद या पी आवलिका शेष प्रत्ये करण विशेषें करी संज्वलन कोहे के० क्रोधमध्ये गुण संक्रमें करीने संक्रमावे, अने कोई के० संज्वलनक्रोधना बंधादिक विछेद थये के वलिकाशेषप्रत्यें करण विशेष करी सज्वलन माणे के० मानमध्यें गुणसंक्रमे करी संक्रमावे तथा माणंच के० संज्वलन मानना बंधादिक विवेद यये थके आवलिका शेष प्रत्ये करणविशेषें करी मायाए के० संज्वलन मायामध्ये बुह के० संक्रमावे, नाखे, एटले गुणसंक्रमें करी संक्रमावे तथा मायंच के० संज्वलन मायाना बंधादिक विछेद था पढी यावलिका शेष प्रत्यें करण विशेष करी लोहे के संज्वलनलोजमध्यें बुह के० गुणसंक्रमें करी संक्रमावे. तेवार पी लोहं के० संज्वलन लोजना बंधादिक विच्छेद या पी श्रावलिका शेष प्रत्यें करण विशेष करी हणे, तो के० तेवार पढी सुदुमंपि के० अत्यंत सूक्ष्म थाकतो एवो सत्तारूप जे लोन तेने पण हइ के० हणे, विनाशे, सत्ताथी टाले, एम सूक्ष्मसंपरायने तें मोहनीयकर्मने मूली टाली नाखे ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ ८३ ॥ एटले व कषाय खपावीने अथवा मतांतरें शोल प्रकृति खपावीने पबी अंतरमुहूर्त्ते नव नोकषाय तथा चार संज्वलनानुं अंतरकरण करे, ते करीने प्रथम नपुंसकवेदना उपरली स्थितिवाला दलिक जवेलवानो विधि करी खपाववा मांडे ते अंतरमुहूर्त्त मध्ये जवेलतां जवेलतां पल्योपमना असंख्यातमा जाग प्रमाण स्थितिशेष रहे, तेवारें बंधाती प्रकृतिमध्यें तेनुं दल गुणसंक्रमे करी संक्रमावे, एम करतां अंतरमुहूर्त्त कालें ते सघलुं दीप थाय. हवे ते नपुंसक वेदनी देवली स्थितिनुं दल, ते जो नपुंसकवेदने उदयें श्रेणि मांडी होय, तो वेदतां वेदतां खपावे अन्यथा तो आवलिकामात्र ते दल रधुं होय, तेने For Private Personal Use Only Page #884 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ.६ उपए उदयवती वेद्यमान प्रकृतिनेविषे स्तिबुकसंक्रमें करी संक्रमावे. एम नपुंसकवेद क्षय कस्या पली अंतरमहरौं स्त्रीवेद पण एज रीतें खपावे, तेवार पली हास्यादिक बए प्रकृतिने साथेंज समकालें खपाववा मांडे. पडी ते नोकषायनां उपरखी स्थितिना दल पुरुषवेदने विषे पतग्रह न थाय, माटें तेने पुरुषवेदमध्ये न संक्रमावे किंतु संज्वलनक्रोधमध्ये पूर्वे कयुं ते रीतें तेने संक्रमावे. एम संक्रमावतां अंतरमुहूर्त्तमात्रमा ते नोकषायबक सर्व क्षीण थाय. ते समयेंज पुरुषवेदनो बंध, उदय अने उदीरणानो विछेद थाय. अने एक समय ऊपी बे श्रावलिये बांध्यु जे पुरुषवेदनुं दल, ते मूकीने बाकी सघलो वीण थयो, ते समय श्रवेदक थयो. ए प्रकारे जे पुरुषवेदोदय श्रेणी श्रारंजे, तेनो ए विधि करो. . ___ अने जो नपुंसकवेदोदयें श्रेणी आरंने, तो ते पहेलोज स्त्रीवेद श्रने नपुंसकवेद, ए बेहुनो समकालें कय करे, ते दयने समयेंज पुरुषवेदनो बंधादिक विछेद थाय, तेवार पड़ी अवेदक थको पुरुषवेद अने हास्यादिक षट्क समकालें क्षय करे. ___ अने जो स्त्रीवेदोदयें श्रेणि पडिवजे, तो प्रथम नपुंसकवेद खपावे. पड़ी स्त्रीवेद खपावे, ते क्षयने समयेंज पुरुषवेदनो बंध, उदय अने उदीरणानो विछेद थाय. तेवार पड़ी पुरुषवेद अने हास्यादिक षट्कने समकालें क्षय करे. हवे जे पुरुषवेदें श्रेणी पारंजे, ते आश्रयीनेज कहे जे. क्रोध वेदतां पुरुषवेदी क्रोधना त्रण जाग करे. एक घोडाना काननी पेरें जे न्हाना न्हाना कर्मना पुनस तेना न्हाना न्हाना खंझ करे, जे थकी काल विशेषे तेने अश्वकर्णकर्णाद्धा कहीये. ते रससहित कर्मनां दलिकने कूटी कूटीने किहिनी पेरें अत्यंत सूक्ष्म करे, तेने बीजो किट्टिकरणाझा कहीये. ते किट्टिकरणझा कस्या पली ते किहि करी तेने वेदे, ते त्रीजो किहिवेदनाफा कहीयें. तिहां शश्वकर्णकरणकायें वर्ततो थको समय समय प्रत्यें अनंताश्रपूर्व स्पर्धक संज्वलना चतुष्कना अंतरकरण थकी उपरली स्थितिने विषे करे, एटले संज्वलन चतुष्कना अंतरकरणनी उपरली स्थितिना प्रतिसमये अनंत अपूर्व स्पर्धक करे,ते स्पर्डकनुं स्वरूप, पूर्वे कयु , तिहांधी जाणवू. .. ए अश्वकर्णकरणाझायें वर्त्ततो पुरुषवेदने पण समय ऊणी बे श्रावलिकारूप कालें करी क्रोधनेविषे गुणसंक्रमें करी संक्रमावतो थको बेहले समये सर्व संक्रमें करी संक्रमावे. ए प्रकारें अहींयां पुरुषवेद वीण थयो भने श्रश्वकर्णकरणाझा पण पूर्ण थई. तदनंतर किटिकरणाझायें पेगे थको संज्वलन चतुष्कनी उपरली स्थितिगतदलिकनी किहि करे, ते किहि परमार्थे तो अनंती ने तथापि बाल समजाववाने अर्थ Page #885 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६० सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ स्थूलदनी अपेक्षायें, छासत्कल्पनायें एकेका कपायनी त्रण त्रण कल्पनायें कल्पीयें, तेवारें बार किहि होय. ए क्रोधें रूपक श्रेणी पडिवजतांने जाणवुं. जो मानोद श्रेणी पडिवजे, तो तेने उल नाना विधियें करी, क्रोध खपावे थके शेष ऋण कषायनी पूर्वक्रमें करी नव किट्टि करे. जो मायाने उदयें श्रेणी आरंजी होय तो क्रोध अने मान, ए वे उलना विधियें खपावे थके शेष बे कषान किट्ट करे तथा जे लोजोदयें श्रेणी मांगे, ते क्रोध, मान, माया, ए त्रण उना विधि वेली खपावे, शेष एक लोजनीज त्रण किट्टि करे. ए किट्टि करवानो विधि को एकिकरणाका पूर्ण यये थके पढी किट्टिवेदनाकाने विषे पेठो थको जे जीवें क्रोधें श्रेणी श्रारंजी के ते क्रोधनी बीजी स्थिति मध्ये रहेलुं प्रथम किट्टिनुं दलितं बीजी स्थितिमध्ये श्री प्राकर्षीने प्रथम स्थितिगत करे ने वेदे, ते ज्यां लगें समयाधिक एक व्यावलि शेष रहे त्यां लगें वेदें, तेवार पढी तेना अंतरसमयमां उपरली बीजी स्थितिमध्यें रहेलुं बीजी किट्टिनुं दल, तेने श्राकर्षी प्रथम स्थितिगत करी वेदे, ते पण त्यां लगें वेदे, ज्यां लगें समयाधिक श्रावलिमात्र शेष रहे. तेवार पी वली उपरली स्थितिनी त्रीजी किहिनां दल आकर्षीने प्रथम स्थितिगत कर वेदे . एम ए त्रणे किट्टिवेदनाद्धाने विषे उपरली स्थितिनुं दलिक तेने गुणसंक्रमें करी प्रतिसमय असंख्येय गुणवृद्धि लक्षण संज्वलनमानने विषे प्रदेपे बे. एम त्रीजी किट्टवेदनाद्धाना चरम समयने विषे संज्वलनक्रोधनो बंध, उदय ने उदीरणानो सार्थेज व्यवच्छेद थाय छाने सत्ताये पण बेहली समयोन बे श्रावलियें बांध्युं दल र बे पण ते विना बीजुं नथी. सर्वने मानने विषे प्रदेप्यं बे. तेने वागले समयें माननी बीजी स्थिति मध्येंथी प्रथम किट्टिनुं दल आकर्षी प्रथम स्थितिगत करी अंतरमुहूर्त्त लगें वेदे, तिहां जे क्रोधनुं दल शेष रह्युं बे, तेने समयोन बे श्रावलिकायें गुणसंक्रमें करी संक्रमावे छाने चरम समयें तो सर्व संक्रमे करी संक्रमावे, एटले क्रोध कय प्रयो. एम माननी पहेली किट्टिनुं दल प्रथम स्थितियें करे बेतेने वेदतां वेदतां समयाधिक धावली शेष रहे, तेवार पछी बीजा समयमां माननी उपरली स्थितिनी बीजी किट्टिनुं दल आकर्षी प्रथम स्थितिगत करी एज रीतें वेदतां वेदतां समयाधिक श्रावलि शेष रहे, ते पछी अनंतरसमयमां माननी उपरली स्थितिनी त्रीजी किट्टिनुं दल आकर्षी तेने प्रथम स्थितिगत करीने वेदे, ते त्यां लगें वेदे, ज्यां लगें समयाधिक व्यावलिमात्र शेष रहे, तेवारें तेना चरमसमयें माननो बंध, उदय ने उदीरणानो समकाले विछेद थाय नै सत्तायें पण समयोन बे श्रावलिनुं बांध्युं दल रहे, ते विना बीजो सर्व मायाने विषे प्रक्षेपे करी खपाव्यो बे मादें. For Private Personal Use Only Page #886 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६१ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ.६ पली मायानुं बीजी स्थितिगतनी प्रथम किहिन दल, तेने प्रथम स्थितिगत करी अंतरमुहूर्त पर्यंत वेदे, तेमध्ये शेष माननुं दल जे रघु हतुं, तेने समयोन बे आवलिकायें गुणसंक्रमें करी अंतरमुहर्त लगें मायाने विषे संक्रमावे, बेहले समयें तो सर्व संक्रमे करी संक्रमावे, एटले माननो दय थाय अने मायानो पण प्रथम किहिदल वेदतां वेदतां समयाधिक श्रावलिमात्र रहे, ते पनी अनंतर समयें पागली बीजी किहिना दलने प्रथम स्थितिगत करी वेदे, ते ज्यांसुधी समयाधिक श्रावलिकामात्र शेष रहे त्यांसुधी वेदे. ते षबी अनंतर समयने विषे बीजी स्थितिगत रहेलु एवं त्रीजी किट्टिनुं दलिक तेने आकर्षीने प्रथम स्थितिगत करीने वेदे. एम पूर्वली पेरें सर्व मायानी किहिनां दल वेदतो वेदतो, बेहली किहिनां दल प्रथम स्थितिगत करी वेदतां जेवारें समयाधिक श्रावलिकामात्र शेष रहे, तेवारें मायानो बंध, उदय अने उदीरणा, ए त्रणे साथेंज विछेद थाय, मात्र समयोन बे आवलिनु बांध्युं दल सत्तायें रां बे. बाकी सर्व संज्वलनलोजमध्ये देपव्यु बे. तेवार पनी संज्वलन लोजनी उपरली स्थितिनी प्रथम किहिन दल, आकर्षी प्रथम स्थितिगत करी, तेने अंतरमुहर्त वेदेतिहाँ शेष रह्यं समयोन बेश्रावलिमात्र, संज्वलन मायानुं दल, तेने अंतरमुहूर्त लगें गुणसंक्रमे करी लोजनेविषे संक्रमावतो अंतरमुहूर्त्तने लेहले समयें सर्व संक्रमें करी संक्रमावे, तेवारें संज्वलन लोजनी प्रथम किटिनुं दल पण समयाधिक श्रावलिमात्र रहे..तेवार पठी अनंतर समयें संज्वलन लोजनी उपरली बीजी स्थितिनी बीजी किट्टिनुं दल खेंचीने प्रथम स्थितिगत करी वेदे, ते वेदतो वेदतो श्रागली त्रीजी किहिनां दलने ग्रहण करीने तेनी सूक्ष्म सूक्ष्म किहि करे, ते पण त्यां लगें करें, ज्यां लगे बीजी संज्वलन लोजनी किहिन दल जे प्रथम स्थितिगत कस्खु जे तेनी समयाधिक श्रावलिमात्र शेष रहे, त्यां लगे करे, ते समयेंज संज्वलन लोननो बंध विद थाय, तथा बादर कषायनो उदय अने उदीरणा पण विछेद थाय, श्रने अनिवृत्ति गुणस्थानकनो काल पण विछेद थाय. ए त्रणेनो साथेंज विद थाय. तेने श्रागले समयें लोजनी सूक्ष्म किदिनुं दल उपरली बीजी स्थितिमध्येथी आकर्षीने तेने प्रथम स्थितिगत करी वेदे, तेने सूक्ष्मसंपराय कहीये. पूर्वे जे त्रीजी किट्टिनी शेष श्रावलिकानी बेहली किहि रही, ते सर्व वेदाती परप्रकृतिमध्ये स्तिबुकसंक्रमे करी संक्रमावे, एटले लोजनी प्रथम किहिनी शेष थावलिका, ते बीजी किटिना दलमध्ये संक्रमावे, अने बीजी किहिनी शेष श्रावलिका, त्रीजी किहिना दलमध्ये संक्रमावी वेदे. हवे लोजनी सूक्ष्म किहिन दल अने पूर्व समयोन बे श्रावलिनुं बांध्यु दल, तेने Page #887 -------------------------------------------------------------------------- ________________ G६२ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ प्रतिसमये स्थितिघातादिकें करी वेदतो वेदतो त्यां लगें खपावे, ज्यां लगे सूक्ष्मसंपराय अझाना संख्याता नाग जाय, अने एक नाग शेष रहे, त्यां लगें खपावे. हवे शेष एक जाग रहे, तेवारें संज्वलन लोजने सर्व अपवर्तनाकरणे अपवर्त्तिने एटले अपवर्तना तेने कहीयें के जे कर्मनी स्थितिरसन घटामवं एटसे संज्वलन लोजनी स्थितिरस घटाडीने शेष सूक्ष्मसंपराय अझा जेटलो राखे, हजी पण सूक्ष्मसंपराव अझा अंतरमुहर्त प्रमाण रही , तेवारें मोहनीयना स्थितिघातादिक पांच पदार्थ विरम्या, परंतु हजी बीजा कर्मोनां: स्थितिघातादिक प्रवर्ते ले. अहींयां जे कर्मनी स्थिति तथा रसनुं घटाडतुं तेने थपवर्त्तना कहीयें. एटले संज्वलना लोजनी स्थिति तथा रसने घटामीने शेष सूक्ष्मसंपराय असा जेटलो राखे. हवे ते लोजनी अपवतेली स्थितिने वेदतो वेदतो त्यां लगें गयो, ज्यां लगे संज्वलन लोन समयाधिक श्रावलि मात्र रह्यो, तिहां एनी उदीरणा विराम पामी, केवल उदयें करीज वेदे दे, ते बेहला समय लगें जाणवू. अने बेहले समय ज्ञानावरणपंचक, अंतरायपंचक, द. र्शनावरण चार, उच्चैौत्र, यशःकीर्ति, ए शोल प्रकृतिनो बंधविछेद थाय तथा मोहनीयनो उदय अने सत्ता पण विछेद थाय ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ ४ ॥ खीण कसाय उ चरिमे, निदं पयलं च दिणग्न मबो॥ आवरण मंतराए, उन मदो चरम समयम्मि ॥ ५॥ अर्थ- संज्वलन लोन सर्व क्षय कस्या पनी क्षीण कषाय थयो तेने पण मोहनीय विना बीजां शेष कर्मोनी स्थितिघात, रसघात, गुणश्रेणी, गुणसंक्रम, तेमज पू. र्वली रीतें प्रवर्ते. ते दीण कषायाछाना संख्याता जाग जाय, त्यां लगे प्रवर्ते अने शेष एक नाग रहे, तेवारें पांच ज्ञानावरण, पांच अंतराय, चार दर्शनावरण अने बे निजा, एवं शोल प्रकृतिनी सत्तानी स्थिति सर्व अपवर्तनायें अपवर्तिने एटले घटामीने दोण कषायनी श्रद्धा सरखी करे, पण निमाछिकनी स्थिति स्वरूपनी अपेदायें एक समय हीन करें अने कर्मरूं बराबर होय ते क्षीण कषाय अशा इजी अंतरमुहर्त प्रमाण रही , तेवार ते शोल प्रकृतिनां स्थितिघातादिक विराम पामे, बीजी शेष प्रकृतिनां स्थितिघातादिक हजी विराम पाम्यां नथी, ए शोल प्रकृतिने उदय उदीरणायें करीने वेदतां वेदतां समयाधिक श्रावलि मात्र शेष रहे, त्यां लगें वेदे, पनी उदीरणा विरमे, तेवारें एक श्रावलिकामात्र केवल उदयें करीने वेदे. ते यावत् खीणकसायाचरिमे के वीणकषायना हिचरम समयें एटले बेहला समयथकी पूर्वलो समय तेने विचरम समयें कहीये त्यांसुधी वेदे, पड़ी ते विचरम समयें ।नदंपयलंचहिणवउमडो के० निशा अने प्रचलाने बद्मस्थ थको हणे एटवे Page #888 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ.६ निवाहिक स्वरूप सत्तापेक्षायें क्षय थाय. पठी आवरणं के ज्ञानावरण पांच, दर्श. नावरण चार अने अंतराएबजमछो के थंतराय पांच, एवं चौद प्रकृतिने पण बमस्थ थको चरमसमयम्मि के बेहला समयने विष हणे ॥ ५ ॥ ते चौद प्रकृति क्षय कस्या पली बांगले समयेंज व्यवहारनयमतें सयोगी केवली थाय अने निश्चयनयमतें तो तेहीज समय केवली कहीये, ते केवलझाने करी सर्व लोकालोक सर्वाशें अव्य गुण पर्यायस्वरूपें देखे, जाणे. सर्वदर्शी थाय. एवं कांश थयुं नश्री, थशे पण नहीं अने थतुं पण नथी, के जे केवली न देखे. एम जघन्य तो अंतरमुहर्त पर्यंत अने उत्कृष्टो तो श्राप वर्षे जणी पूर्वकोटी वर्षपर्यंत पृथवीतलने विषे विचरीने पली जेने वेदनीयादिक कर्म आयुःकर्मथकी अधिका नोगववां रह्यां होय, तेवां शेष क. मोने श्रायुःकर्म बराबर करवाने अर्थे ते श्राप समयनो समुद्घात करे, पण बीजा न करे. तिहां पहेले समयें पोताना शरीर प्रमाण जामो तथा उंचो, नीचो, लांबो, चौद राज प्रमाण पोताना श्रात्मप्रदेशनो विस्तार, दंडाकार करे. तथा बीजे समयें ते दंडमध्ये थी बेह पासें प्रदेश श्रेणि विस्तरे, ते लोकांत खगें उत्तर दक्षिणे पसरे, तेवारें कमाडने श्राकारें आकार देखाय, तेने कपाट कहीये. त्रीजे समय पूर्व अने पश्चिमें वली बे प्रदेशनी श्रेणि करे, ते पण लोकांत लगें पसरे, तेवारें मंथाणनी पेरें चार फडसुत्रां निकले, एवा आकारें आत्मप्रदेशनी श्रेणी पसरे. तथा चोथे समय ते मंथाण श्राकारना चारे अांतराना आकाश प्रदेश समस्त रह्या ३ तेने यात्मप्रदेशें करी पूरीने समग्रलोक व्यापी थाय. पांचमे समय वली मंथाणना आंतराने संहरे, बछे समय मंथाण संहरे, सातमे समये कपाट संहरे, आठमे समयें दंग पण संहरीने शरीरस्थ खजावस्थ थाय. तिहां पहेले समये अने पाठमे समयें औदारिक काययोगी होय, तथा बीजे, बहे अने सातमे, ए त्रण समयें औदारिक मिश्रकाययोगी होय. अने वचला त्रण समय कार्मणकाययोगी होय. ए त्रणे समये अणाहारी होय. इत्यादिक अहींां घणो विचार डे परंतु विस्तारना नयथी नथी लख्यो. _हवे कोशएक केवली समुद्घात कस्या विना पण मुक्तियें जाय. जे जणी श्री पन्नवणामध्ये कां ने “सवेविणंनंते केवली समुग्घायं गल गोयमा नोश्णमठे समझे जस्सा जएण तुलाई बंधणेहिं विश्हेय नवो पज कम्मा ॥ न समुग्घायं समगधई अगंतुण समुग्धाय मणंतकेवली जिणा जरामरण विप्पमुका सिडिवर गयं गया" ॥ जेने आयुःकर्मनी स्थितिना कर्मपरमाणु सरखाज नवोपग्राही वेदनीयादिक कर्म होय, ते समुद्घात न करे, श्रने जे करे, ते पण अंतरमुहूर्त व यु थाकतेज केवली Page #889 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६४ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ समुद्घात करे. हवे ते बेहु सयोगी केवली पण जवोपग्राही कर्म क्षय करवाने बेश्यातीत अत्यंत प्रकंप परम निर्झरानुं कारण, एवा शुक्लध्याननो त्रीजो पायो taraara dient योगनिरोध करवा मांगे, तिहां अंतरमुहूर्त्तमां योग रुंधे, तेमध्यें प्रथम बादर वचनयोग निरोधने अर्थे प्रवर्त्तमान थाय. तिहां बादरकाययोगें करीने बादर मनोयोगने अंतरमुहूर्त्ते रुंधे. तेवार पढी सूक्ष्ममनोयोगें करी बादरवचनयोग रुंधे, तेवार पढी सूक्ष्मकाययोगें करी बादरकाययोग रुंधे, वली तेणे करीज सूक्ष्ममनोयोग रुंधे. ते पी सूक्ष्मवचनयोग रुंधे, ते पढी सूक्ष्मकाययोग रुंधतो थको सूक्ष्म क्रिया प्रतिपाति त्रीजे शुक्लध्यानें चढे, तेना सामर्थ्य थकी वदनोदरादिक विवर पूरवे करीने देहनो त्रीजो जाग संकोचीने शेष बे जागनो प्रदेशघन करे. ते ध्याने वर्त्ततां स्थितिघातादिकें करी सयोगी गुणठाणाने चरम समयें एक विना बीजांण कर्मने अयोगी गुणठाणानी अवस्थाना सरखा स्थितिवंत या पण एलुं विशेष के, जे कर्मनो योगी गुणठाणे उदय नथी ते कर्मनी स्थिति, स्वरूपापेक्षायें समय ऊणी करे, कर्मखरूपनी अपेक्षायें योगी अवस्थासमान स्थिति करे. ते सयोगी गुणवाणाने चरमसमयें २ श्रदारिकद्विक, ३ तैजस, ४ कार्मण, १० संस्थान, ११ प्रथम संघयण, १५ वर्णचतुष्क, १६ अगुरुलघु, १७ उपघात, १७ पराघात, २० शुभाशुभ विहायोगति, २१ प्रत्येक, १२ स्थिर, २३ अस्थिर, २४ शुन, २५ अशुन, २६ निर्माण, २७ सुखर, २८ दुःखर, २‍ उश्वास अने ३० वे वेदनीयमांहेली एक वेदनीय, ए त्रीश प्रकृतिनां उदय ने उदीरणा विछेद थाय, तेने यागले - समयें योगी केवली थाय. तेनुं कालमान पांच इव अक्षर उच्चार प्रमाण अंतरमुहूर्त्तनुं होय. तिहां सूक्ष्म क्रियाध्यान पूर्ण करीने व्युपरत क्रिया प्रतिपाति नामें शुक्लध्यानने चोथे पाये चढे. ए गुणठाणे स्थितिघातादिक रहित थको जेटली उदयवती प्रकृति बे, तेने वेदतो थको खपावे ने जे प्रकृतिनो उदय नथी, मात्र सत्ता बे, नांदलिक स्तिबुकसंक्रमें करी उदयवती प्रकृतिमध्यें संक्रमावी वेदी वेदीने पावे. एम योगीना द्विचरम समय लगें करे ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ ८४ ॥ ॥ हवे तिहां जे प्रकृति खनावें खपावे, ते कहे. ॥ देवगइ सहगया, डु चरिम समयं जविच्यंमि खीति ॥ सविवागे र नामा, नीच्या गोपि तचैव ॥ ८५ ॥ अर्थ- देवगइस गयार्ज के० देवगति सहचारिणी एटले देवगतिना बंधन साथै एकांतेज बंध बे जेनो, एवी देवगति सहगत प्रकृति दश बे, तेनां नाम कहे बे. २ For Private Personal Use Only Page #890 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ ७६५ वैक्रिय बने थाहारक शरीर अने ४ वैक्रियाहारक बंधन, ६ वैक्रियथाहारकसंघातन, वैक्रिय थाहारकांगोपांग, ए. देवगति, १० देवानुपूर्वी, ए दश प्रकृति देवगति सहगत कहीयें. ए दश प्रकृति, पुचरिमसमयंजविअंमिखीअंति के नव्यमोक्षगामी जीवने विचरम समयें क्षय जाय. तथा सविवागेअरनामा के० तथा तेहीज हिचरम समय जे प्रकृति विपाके वर्ते बे, एटले जे नामकर्मनी नव प्रकृतिनो तिहां विपाक एटले उदय , ते थकी इतर एटले बीजी प्रकृति, जे प्रकृतिठनो तिहां उदय नथी, तेवी प्रकृतिनां नाम कहे . ३ औदारिक, तैजस अने कार्मण, ए त्रण शरीर, ६ तथा ए त्रणनां बंधन, ए ए त्रणनां संघातन, १५ र संस्थान, १ संघयण, २२ औदारिकांगोपांग, २६ वर्णचतुष्क, २७ मनुष्यानुपूर्वी, २७ पराघात, ए उपघात, ३० अगुरुलघु, ३५ शुनाशुनखगति, ३३ प्रत्येक, ३४ अपर्याप्त, ३५ उश्वास, ३६ थिर, ३७ अथिर, ३० शुन, ३ए अशुज, ४० सुखर, ४१ पुःखर, ४२ पुर्नग ४३ अनादेय, ४४ अयशःकीर्ति, ४५ निर्माण, ए पिस्तालीश प्रकृति पण विच, रम समयें क्षय पामे तथा नीआगोशंपितलेव के नीचगोत्र श्रने अपि शब्दथकी बे वेदनीयमांहे एक वेदनीय, ए सर्व मली प्रथमनी दश नेलतां सत्तावन प्रकृति हिचरम समयें क्षय थाय, सत्ताथी टले. अन्नयर वेअणिजं, मणुानअ मुच्चगोअ नवनामे ॥ वेएइ अजोगि जिणो, नकोस जहन्न मिक्कारे ॥६॥ अर्थ-हवे हिचरम समय क्षय गयुं जे वेदनीय, तेथकी अन्नयरवेअपिऊ के० अनेरे शाता अशातामांहेलु एक वेदनीय अने मणुयाउअं के मनुष्यायु, उच्चगोश के उच्चैर्गोत्र, नवनामे के नामकर्मनी नव प्रकृति, एवं बार प्रकृतिने, वेएश्चजोगिजिणो के अयोगी केवली वेदे . ते नकोस के उत्कृष्टपणे तीर्थकर वेदे ने अने जहन्नमिकारे के जघन्यथकी तो सामान्य केवली होय. ते तीर्थकरनामकर्म विना अगीचार प्रकृति वेदे ॥ इति समुच्चयार्थः॥ ६॥ ॥ हवे नामकर्मनी नव प्रकृतिनां नाम कहे . ॥ मणुअगइ जा तस बा, यरं च पळत्त सुलग आऊं ॥ जसकित्ती तिबयरं, नामस्स हवंति नव एआ॥७ ... अर्थ-मणुश्रग के मनुष्यगति, जा के पंचेंजियजाति, तस के प्रसनाम, बायरंच के बादरनाम, पजात्त के पर्याप्तनाम, सुलग के सुजगनाम, थाइड के १०९ Page #891 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ.६ श्रादेयनाम, जसकित्ती के यशःकीर्तिनाम, तिबयरं के तीर्थकरनाम, नामस्सहवंतिनवएथा के० ए नानकर्मनी नव प्रकृति होय, तेनां नाम कह्या इति समुच्चयार्थः ॥७॥ ॥ हवे श्रहीं वली ए गुणगणे मतांतरपणुं देखामे बे. ॥ तच्चाणु पुचि सदिआ, तेरस नवसिअिस्स चरमंमि॥ संतं सग मुक्कोसं, जहन्नयं बारस हवंति ॥ ७ ॥ अर्थ- पूर्वोक्त मनुष्यायु अने उच्चैर्गोत्र, ए बे प्रकृतिमध्ये तच्चाणुपुबिसहिया के त्रीजी श्रानुपूर्वी एटले मनुष्यानुपूर्वी, ते मनुष्यानुपूर्वीय सहित पूर्वोक्त बार प्रकृति करीयें, तेवारें तेरसजवसिहिस्सचरमंमि के० तेर प्रकृति नवसिरिया एटले तदन- मोक्षगामी जीव एवा अयोगीने चरम समयें संतंसगमुक्कोसं के उत्कृष्टपणे सत्तायें कर्मप्रकृति होय अने जहन्नयं बारसहवंति के० जघन्यथकी तो तीर्थंकरनामकर्मविना बार प्रकृतिनी सत्ता होय. ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ ७ ॥ ॥ ए शा सारु होय ? माटें हवे एनो हेतु कहे .॥ मणुअ ग सदगया, नवखित्त विवाग जिअ विवागाउँ ॥ वेअणि अन्नरुच्चं, चरम समयमि खीयंति ॥ नए ॥ अर्थ- मणुश्रगश्सहगया के० मनुष्यगति साथेंज जेनो उदय , तेने मनुष्यगति सहगत अगीयार प्रकृति कहीये, पण ते केवी बे ? तोके, नव के नवविपाकी तो मनुष्यायु डे, तथा खित्तविवाग के क्षेत्रविपाकी तो मनुष्यानुपूर्वी , तथा बाकीनी नामकर्मनी नव प्रकृति जे पूर्वे कही, ते जिअविवागार्ड के जीव विपाकीनी जाणवी. तथा वेश्रणिश्रवन्नरुच्च के बे वेदनीयमांडेलुं अनेरुं एक वेदनीय अने उचैर्गोत्र, उत्कृष्टपदें ए तेर प्रकृति अने जघन्यपदें तीर्थंकरनाम विना बार प्रकृति के ते जव्यसिद्धिक एवा जीवने योगी गुणगणाना चरमसमयंमिखीयंति के चरम समयने विषे कये जाय बे, अहीं मनुष्यानुपूर्वी ते मनुष्यगति बे, माटें तेर प्रकृति साथेंज क्षय जाय. एम मतांतरें कडं. अनेरा श्राचार्य वली एम कहे जे के मनुष्यानुपूर्वीनी छिचरम समयेंज सत्ता व्युछेद थाय बे, उदयना अनावथकी उदयवती प्रकृतिने स्तिबुकसंक्रम न होय ते माटें स्वस्वरूपें करीने चरम समयने विषे तेनां दलिक देखाय जे एम युक्त डे, तेमनो चरम समयमा सत्ता व्युछेद होय , आनुपूर्वी चार तो क्षेत्र विपाकी डे माटें नवापांतरालगतियेंज एनो उदय होय, ते कारण माटें जवस्थ जीवने श्रानुपूर्वीवो उदय न होय अने उदयविना तो अयोगी अवस्थाने विचरम समयेंज मनुष्यानुपूर्वीनी सत्ता व्युवेद थाय, एवा मतने अनुस Page #892 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ ८६७ रीने पूर्वे द्विचरम समयने विषे सुडतालीश प्रकृतिनी सत्तानो व्यवच्छेद देखाड्यो अने चरम समयें तो उत्कृष्टथी बार प्रकृति ने जघन्यथी गीघार प्रकृतिनो व्यae a म योगी अवस्थायें तो जे प्रकृतिनो उदय होय, तेनोज चरम समयें सत्ताथी विछेद थाय बे, छाने जेनो उदय न होय ते द्विचरम समयेंज य थाय बे. तेथ यागल हवे जीवने कर्मसंबंध मूकाणो, ते माटे मूकाणा फलथी जेम एरंफलनी पेरें एटले मोदें जातां केवी गति करे ? तोके, जेम मोकामांदेथी मूकाएं एरंमफल ते स्वनावविशेषें करी आकारों उडे अथवा जेम धूमनी गति सहेजें नंचीज होय अथवा जेम बाप, धनुष्यमांथी बूयुं पाधरुंज जाय अथवा जेम तुंबडुं पाणीमध्ये नाखेलुं उंचुं चडी आवे, तेम दंकें फेरव्या चक्रक्रमनी पेरें पूर्व संयोगें करी जीव, कर्मबंधनथकी मूकाणो तेथी जीवनी सहचारी गति उंची बे माटें ते जीव, एक समयमां उंचो लोकांतें जाय, पण बीजो समय स्पर्शे नहीं. ते जीव उंचो जातो जे श्राकाशप्रदेशें यहीं अवगाही रह्यो होय तेहीज श्राकाशप्रदेशनी समपीयें एक समयमां अन्य प्रदेशने अस्पर्शतो अंकुश समान गति करी जाय. उक्तं च घ्यावश्यकचूर्णो " जत्तीए जीवोवगाहो, तावश्याएउ गाइणाए उहुंउजुगं गन नवं कबीयं च समयं न फुसइत्ति” ॥ जे जणी वचला प्रदेशने स्पर्शे तो घणा समय थ‍ जाय केमके जीव तथा परमाणु एक आकाशप्रदेशथ की बीजे श्राकाशप्रदेशें जाय, ए उपाधें उपलक्षित काल तेने समयकाल कहीयें तो तेम करतां घणा समय लागे, तेथी अस्पर्शन तियेंज एक समयमां उंचो जाय, तिहां शाश्वतां सुख अनुभवे, ते क हे बे. ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ ८‍ ॥ यह सुख सयल जगसिद, र मरुव निरुव निरुवम सदाव सिद्धिसुदं ॥ नियण मधाबादं, ति रयण सारं अवंति ॥ ० ॥ अर्थ - अह के० छाथ दवें कर्मक्षय कस्या पढी छानंतर समयेंज सुइय के० शुचि एकांत शुद्ध एटले राग द्वेषादिकरूप मल तेणें रहित सयलजग सिहरं के० सकल संपूर्ण जगत् जे सांसारिक सुख, तेनुं शेखरभूत सर्वोत्तम सर्वधी अधिक जे जी सिद्धनां सुख तो रूव के० रुज बे एटले रोगादिक तथा मनपीडादिक कष्टें करी रहित होय, केमके रोग तो शरीरने होय, ते शरीर तो तिहां नथी छाने संसारमध्यें तो ते बेहु कष्ट संजवे बे. माटें ते सरखं संसारमध्ये कोइ सुख नश्री के जेनी उपमा छापीयें; माटें निरुवम के० निरुपम बे. एटले एवं कोइ पण सुख संसारने विषे नथी के जेनी उपमा श्रापीने तुल्यता करीयें; माटें सिद्धनां सुख निरुपम बे. वली ते सुख केवुं बे, तो के सहाव के० खजावथी उपजेलुं बे पण सांसारिक सुखनी For Private Personal Use Only Page #893 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ पेरें कारमुं परकत्रिम नथी, एवं सिद्धिसुदं के० सिद्धपदनुं सुख अनिर्वचनीय श्रानिय के० निधन एटले जेनो केवारें नाश नथी अर्थात् जेनो केवारें बेहको नथी, अंत न आवे, जेनो दय नथी तथा राग द्वेषादिक जे सुखना बाधक बे, तेने सर्वथा दय कया महाबाहं के० छाव्याबाध एटले बाधाकारी पीकाकारी एवा जे रोगादिक ते मूलथी उन्मूल्या बे ते जणी ते फरी प्रगट न थाय. ते विना पीडा न उपजे ते मातें. व्याबाध सुख बे. वली तिरयणसारं के० त्रण रत्न जे ज्ञान, दर्शन अने चारित्र, तेनो सार एटले फलभूत बे एटले रत्नत्रयीनो यत्न करवायी कर्म दय थाय बे अने कर्म क्षय थयाथी मोदसुख लइयें ढैयें. माटे सिद्धिसुखनो अभिलाष करनारायें अवश्य र त्रयीनो आश्रय करवो, केमके सिद्धना सुखनुं कारणभूत ते रत्नत्रयज बें, एवा मोक्षसुखप्रत्यें ते परमात्मा सिद्ध जीव अणुहवंति के अनुजवे बे ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ ए० ॥ ॥ हवे विशेष जाणवानी अभिलाषावंतने उपदेश कहे . ॥ डरदिगम निजण परम, व रुइर बहु जंग दिठिवायाई ॥ अवा अणुरिवा, बंधोदय संत कम्माणं ॥ ८१ ॥ अर्थ - डुरहिगम के डुरधिगम ते गंजीरार्थ एटले प्रमाण, नय, निदेपादिकें करी घणो दुर्लन लहीयें, एवो अर्थ बे जेने विषे, वली निजल के० निपुण एटले सूझबुद्धिने गम्य एवो परम के० परमउत्कृष्ट अथवा परमार्थ एटले यथावस्थित छा नो विचार, तेणे करी रुइर के० रुचिर एटले सुद्दामणुं सूक्ष्ममतिना घणीना मनने श्राह्रादनुं करनार, एवं तथा बहुजंग के० बंधोदय सत्ताना घणा जांगा एटले वि. कल्प बे जेने विषे एवं जे दिवाया के० दृष्टिवादनामा बारमुं अंग ते थकी बंधोदयसंतकम्माणं के० बंधोदय सत्तावंत कर्मप्रकृतिना श्रासरित्र्यवा के० अहींयां जे नयी कह्या, ते अर्थ, सर्व तिहांथी जाणवा, जे जणी अहीं तो संदेपरुचि जीवना अनुग्रहने ा लेशमात्र अर्थ देखाड्यो बे, पण विशेषार्थ तिहांथी समजवो ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ १ ॥ ॥ हवे ग्रंथकर्त्ता श्राचार्य, पोतानुं मानरहितपणुं श्रने अनुप देखाडे बे. ॥ जो जब पडिपुन्नो, अहो अप्पागमेण बंधोति ॥ तं खमण बहुसुया, पूरे ऊणं परिकदंतु ॥ २ ॥ अर्थ- जोजन अपमिपुन्नोवो के० ए सप्ततिकानामा ग्रंथने विषे जिहां बंधोदय सत्ताने विषे जे जे अर्थ अपरिपूर्ण एटले अधुरो कहेवाणो होय, केमके अप्पागमेष For Private Personal Use Only Page #894 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ G६ए बंधोति के में अल्पागमपणे बांध्यो , एटले में अस्प शास्त्रने जाणवे करी बांध्यो ने तेथी पूर्ण अर्थ बांध्यो न होय, इति एटखे एवा हेतु माटें ते ते अर्थ बंधाविकने विषं जिहां जेटलो उदो कहेवाणो होय तंखमिऊण के० ते रूप महारो अपराध जे अजाणपणुं तेने खमीने बहुसुश्रा के बहुश्रुत बहुसिकतना जाण जे गीतार्थ होय तेमणे पूरेऊणं के ते उंबा अर्थनी प्रतिपादक एवी गाथादिकें करी पूरीने ते तत्प्रतिपादक गाथा ग्रंथमध्ये प्रक्षेपीने शिष्य बागलें तथा श्रोताजनो भागले परिकहंतु के० परिसमाप्त एटले संपूर्ण अर्थ कहेवो. जे जणी बहुश्रुत सजान ते सहेजें परिपूर्ण ज्ञान सारसंपत्तिनी युक्ततायें करी परोपकार करवाने रसिकज होय . माटे महारी उपर तथा शिष्य उपर उत्कृष्ट उपकारने कर्त्ता एवा ते बहुश्रुत सऊन ते अवश्य महारो अपरिपूर्ण अर्थानिधानलक्षणरूप अपराध, तेने सहन करी परिपूर्ण अर्थ पूरीने शिष्यने कहो. ते नणी बहुश्रुतने ए प्रार्थना युक्तज २ ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ ए॥ ॥हवे गाथामान कहे .॥ गादग्गं सयरीए, चंदमहत्तर मयाणु सारीए॥ टीगाइ नियमि आणं, एगूणा दोश् ननई ॥५३॥ अर्थ- गादग्गंसयरीए के० ए सप्ततिका ग्रंथना कर्ता चंजमहत्तराचार्य पूर्व तो सीत्तेर गाथाज करी हती, जे मात्रै ए ग्रंथ- सप्ततिका एवं नाम थयु. चंदमहत्तरमयाणुसारीएटीगाशनियमिथाणं के तेवार पडी ए ग्रंथनी टीकाकर्तायेंए पुर्बोध ग्रंथ जापीने ग्रंथकर्ता चंडमहत्तराचार्यनी मतिने अनुसारें जिहां जोश्य, तिहां नाष्यनी गाथा नेखीने सुबोध कीधो, तेवारे ते चंप्रमहत्तरनी यंत्री शांकली गाथा मूकीने टीकाकारें ए सप्ततिकानी गाथा एगणाहोश्नई के एकूणी ने एटले सर्व मलीमे नेव्याशी गाथा संपूर्ण करी. ए रीतें ए सप्ततिकानामें हो कर्मग्रंथ समाप्त थयो ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ ३॥ ॥ इति सप्ततिकानामा षष्ठः कर्मग्रंथः समाप्तः ॥ ॥ अथ प्रशस्तिः ॥ ॥ श्रीचंगछांबरपूर्णचंसो, मेधाविधिष्ण्योपगतो वितंडः ॥ प्राप्तप्रतिष्ठोयवनेश्व. सत्सु, सूरीश्वरोऽनूहिजयादिसेनः ॥१॥ तत्पट्टपूर्वाचलचित्रलानुः, कुपक्षकक्षोख्वणचिबनानुः ॥ महातपाख्यातधरो धरायां, जीयात्स सूरिविजयादिदेवः ॥२॥ तत्पट्टना. व्यप्रियमौलिपृष्ठोऽनूसूरिराजो विजयादिसिंहः॥ यमोचरस्पृथकूप्रशमोमृतोमात्, पु Page #895 -------------------------------------------------------------------------- ________________ G90 सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ.६ उत्तचित्रत्रिपूपलोमे ॥३॥ तदीयगछांबुजराजहंसः, सहित संविज्ञजनावतंसः वि. ध्वस्तदोषकृतशेषशेषो, जवेद्यशस्सोमगुरुयशस्वी ॥४॥ किं वर्ण्यतेऽन्यजणगौरवं गिरा, मोघौतु मोघाचरणस्य तस्य ॥ यदीयविद्याधनतर्कितोंतरा, कि सेवते देवगुरुन नाकम् ॥५॥ यज्ञयतस्तशुरुहस्तसिकि, योगाजाडोपीदृशशास्त्रवेत्ता ॥ किं योगिपाणीरितचूर्णयोगा, बोहं न लोहोत्तमतां दधाति ॥६॥श्रा प्रशस्तिमा प्रतियो घणी न मलवाथी केटलेक ठेकाणे अशुद्धता दीगमां आवे ने ते सजनोए सुधारी वांच. ॥ इति सप्ततिकानामा षष्टः कर्मग्रंथः संपूर्णः ॥ ॐ तत्संपूर्ती च प्रकरणरत्नाकरानिधपुस्तकस्य चतुर्थो नागः समाप्तः॥ गुरुश्रीमच्चारित्रविजयसुप्रसादात् Printed by B. R. Ghanekar at the Nirnaya-sagar Press, 23, Kolbhat Lane, Bombay. Published by Mr. Bhanji Maya for Bhimsi Manek, House No. 228-231, Shaka Lane, Mandvi, Bombay. Page #896 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BO