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________________ ६१६ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. Ա तिनी वीश कोमाकोडी सागरोपमनी उत्कृष्टी स्थिति बे, तेनी जघन्य स्थिति, साती बे जाग, जेनी दश कोडाकोडीनी उकृष्टी स्थिति तेनी जघन्य स्थिति साती एक जाग ने जेनी पंदर कोडाकोडी सागरोपमनी उत्कृष्ट स्थिति तेनी जघन्यस्थिति चौदीचा त्रण जाग, ते सर्व पट्योपमने असंख्यातमें जागे ऊणा जाणवा; तेमज जेनी दार कोडाकोडी सागरोपमनी उत्कृष्टी स्थिति, तेने सागरोपमना पात्रीशी श्रा नव जाग पल्योपमना श्रसंख्यातमें जागें ऊणा जाणवा. ए रीतें पंच्चाशी प्रकृतिनो एकेंद्रिय विषे जघन्य स्थितिबंध जाणवो. ॥ ३६ ॥ प्रय मुकोसो गिंदिसु, पलियासंखंस दीए बहु बंधो ॥ कमसो पणवीसाए, पन्ना सय सदस संगुणि ॥ ३७ ॥ अर्थ- मुकोसोगं दिसु के० ए अनंतरोक्त एकेंद्रियने एकसो ने सात प्रकृतिनो उत्कृष्ट स्थितिबंध, ते पलियाऽसंखसही पलहुबंधो के० पस्योपमने असंख्यातमे जागें ही करतां एकेंद्रियने एकसो सात प्रकृतिनो जघन्य स्थितिबंध थाय. हवे प्रसंगात एकेंद्रियना स्थितिबंध कह्या, पठी त्रण विकलेंद्रिय तथा असंज्ञिपंचेंद्रिय उत्कृष्ट तथा जघन्य स्थितिबंध, कड़े बे. कमसो के० अनुक्रमें पणवीसाए के० पचवीश गुणो बेंद्रियने एटले एकेंद्रियने जे एकसो ने सात प्रकृतिनो उत्कृष्ट स्थितिबंध को, तेथी पच्चीश गुणो बेंद्रियने उत्कृष्ट स्थितिबंध होय, एटले ज्ञानावरणीयादिक वीश प्रकृतिनो सागरोपमना सातइया पंच्चोत्तेर जाग. एम दश सागरोपमस्थितिवाला कर्मना सातइया पचीश जाग, एम शोल कषायना सातइया सो जाग, मिथ्यात्वमोहनीयनो बंध पच्चीश सागरोपम, एम जेनी उत्कृष्ट स्थिति वीश starकोडी सागरोपमनी तेने सात सागरोपम ने सात एक जाग उपर, जेनी पंदर कोडाकोडी सागरोपमनी उत्कृष्टी स्थिति तेने सागरोपमना चौदिया पंच्चोतेर जाग एटले पांच सागरोपमने चौदिया पांच जाग उपर, जे कर्मनी अढार कोमाकोमी सागरोपमनी स्थिति तेना पांत्रीशीया बसें ने पच्चीश जाग एटले ब सागरोपम ने पात्रीशी या पंदर जाग उपर जाएवा. ए रीतें बेंद्रियनें एकसो ने सात प्रकृतिनो उत्कृष्ट स्थितिबंध जाणवो. हवे तेंद्रियनो उत्कृष्ट स्थितिबंध कहे बे. जेटलो एकेंद्रियने एकसो ने सात प्रकृतिनो उत्कृष्ट स्थितिबंध कह्यो, तेथी पन्ना के० पञ्चाशगुणो ने बेंद्रियना स्थितिबंध थकी बमणो जावो, एटले ज्ञानावरणादिक वीश प्रकृतिनो उत्कृष्ट स्थितिबंध एकवी सागरोपम ने सातइया त्रण जाग उपर, तथा मिथ्यात्वमोहनीयनो पञ्चाश सागरोपम, एम सर्व प्रकृतिउने विषे तेंद्रियनो उत्कृष्ट स्थितिबंध जाणवो. Jain Education International For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002168
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1912
Total Pages896
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size27 MB
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