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शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५
६१५ कोमी सागरोपमनी बे, तेने मिथ्यात्वस्थिति साथें वेंचतां एक सागरोपमना पांत्रीश जाग करीयें. एवा नव जागनो बंध होय. एवं चोराशी प्रकृति थः
स्त्रीवेद, मनुष्यछिक, शातावेदनीय, ए चार प्रकृतिनो बंध एक सागरना चौद जाग करीयें, एवा त्रण नाग, अथवा सात दोढ नाग, एवं श्रहासी प्रकृति थ,
स्थिर, शुज, सुजग, पुंवेद, सुस्वर, श्रादेय, यशःकीर्ति, हास्य, रति, शुजखगति, प्रथमसंघयण, प्रथमसंस्थान, सुगंध, शुक्लवर्ण, मिष्टरस, शुजस्पर्श चतुष्क, एउंगणीश प्रकृतिनी दश कोमाकोमी सागरोपमनी स्थिति मे,तेने मिथ्यात्वमोहनीय वेचतांबंध साता एकनाग होय. पीतवर्ण, आम्लरस, ए बे प्रकृतिनो बंध,अहावीशीश्रा पांच नाग, तेवार पड़ी एकेका वर्णे अने एकेका रसें, अहावीशी एकेक नाग वधारता जवू. एटले रक्त वर्ण अने कषायला रसें अहावीशीश्रा उ नाग, एम शेष वर्ण तथा शेष रसने विषे अनुक्रमें कहेवो, एवं ॥ ११५ ॥
तथा बीजे संघयणे अने बीजे संस्थाने पांत्रीशीश्रा जाग, तथा त्रीजे संघयणे अने त्रीजे संस्थाने पांत्रीशीथा सात नाग, तथा चोथे संघयणे अने चोथे संस्थाने, पांत्रीशीथा आठ नाग, तथा पांचमे संघयणे अने पांचमे संस्थाने, पांत्रीशीया नव जाग, ए एकेजियने उत्तरप्रकृतिनो उत्कृष्टस्थितिबंध सामान्य कह्यो; केम के एकेजियने एकसो ने नव प्रकृतिनो बंध जे ते मध्ये नरायु तथा तिर्यगायुनो उत्कृष्टस्थितिबंध पूर्व कोडीनो अने शेष एकसो ने सात प्रकृतिनो उत्कृष्टस्थितिबंध नहीं कह्यो. ए एकसो ने सात प्रकृति मध्ये पण पूर्वे बावीश प्रकृतिनो जघन्य स्थितिबंध सामान्यपणें कह्यो बे, अने शेष पंचाशी प्रकृतिनो जघन्यस्थितिबंध कहे जे. एवं एकसो ने त्रेवीश प्रकृति थ. ___ अहीं वर्णादिक सविस्तर वीश प्रकृतिनो बंध कह्यो, तेथी एकसो ने वीश प्रकृति थर, परंतु ए वर्णादिक सामान्य चार लेतां एकसो ने सात प्रकृति थाय, तेमांहेली ज्ञानावरणीय पांच, दर्शनावरणीय चार, अंतराय पांच, संज्वलना चार. पुंवेद एक, शातावेदनीय, उच्चैर्गोत्र, श्रने यशःकीर्ति, ए बावीश प्रकृतिनो जघन्यस्थितिबंध मूकीने तेथी शेष रही जे पंचाशी प्रकृति तेनो जघन्य स्थितिबंध स्वामी एकेंजिय . ते पंञ्चाशी प्रकृतिनो एकेजियने विषे उत्कृष्ट स्थितिबंध जे कह्यो तेने अज्ञापल्योपमने असंख्यातमें नागें हीन करतां, एकेजियने विषे जघन्य स्थितिबंध थाय ते कहे . निझा पांच, तथा अशातावेदनीय, ए प्रकृतिनो जघन्यस्थितिबंध सातीश्रा बेनाग,पथ्योपमने असंख्यातमे नागें हीणा जाणवा,तथा मिथ्यात्वमोहनीयनो एक कोमाकोमी सागरोपम पठ्योपमने असंख्यातमें जागे हीन जाणवो,एम जे कर्म प्रकृ
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