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________________ ६१४ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ वसाय स्थानक जे ते नणी. तथा एनी श्रवाधा पण अंतरमुर्त प्रमाण , ते श्रबाधायें हीन जघन्य स्थितिनो निषेक काल जाणवो. ए रीतें संज्वलना क्रोध, मान, माया, ए त्रणनी जघन्य स्थिति अनुक्रमें कही. अने पुमवरिसाणि के० पुरुषवेदनो जघन्य स्थितिबंध नवमा गुणगणाने प्रथ. म नागें चरमबंध आठ वर्षनो होय, एना बंधकमांहे एहिज अतिविशुकि बे. एनी जघन्य अबाधा अंतरमुहूर्त्तकाल प्रमाण जे. ए बावीश प्रकृतिनो जघन्य स्थितिबंध कह्यो, तथा श्रायु चार, वैक्रिय षट्रक, जिननाम, अने थाहारकटिक, ए तेर प्रकृतिनो जघन्य स्थितिबंध, स्वामीत्व प्रस्तावे जूदो कहेशे. एवं पांत्रीश प्रकृति विना शेष पंचाशी प्रकृतिनो जघन्य स्थितिबंध कहेवाने करण कहे . पंञ्चाशी प्रकृतिनी जघन्यस्थिति एके प्रिय जीवने विषे प्राप्यमाण , ते कहे . सेसाणुकोसा के शेष प्रकृतिउनो जे उत्कृष्ट स्थितिबंध ले ते मिछत्तहिएजलडं के० मिथ्यात्वमोहनीयनी उत्कृष्ट स्थिति साथें वेंचता जे लाजे, ते जघन्य स्थिति कहेवी; एटले ज्ञानावरणीयादिकनी उत्कृष्टी स्थिति त्रीश कोमाकोडी सागरोपमनी बे, ते मिथ्यात्वमोहनीयनी उत्कृष्टी स्थिति सीतेर कोमाकोडी सागरोपमनी जे, तेणे नाग देतां, पूर्ण सागरोपम नावे तेथी एक सागरोपमना सात जाग करीयें, तेवारें त्रीश कोमाकोमी सागरोपमना बसें ने दश सातीश्रा नाग थाय. ते सीतेर कोमा. कोमी साथें वेंचतां त्रण नाग श्रावे अने वीश कोमाकोमीना सातीश्रा एकसो चालीश नाग थाय, तेने सीत्तर कोमाकोमी साथें वेंचता सातीश्रा बे जाग श्रावे, ए. टले एकेजियने झानावरण पांच, दर्शनावरण नव, अंतराय पांच, श्रने अ. शातावेदनीय एक, एवं वीश प्रकृतिनो उत्कृष्ट स्थितिबंध, सागरोपमना सातश्या त्रण जाग जाणवा, तथा शोल कषायना सातश्या चार नाग, अने मिथ्यात्वमोहनीयनो एक सागरोपम संपूर्ण जाणवो. एवं सामत्रीश प्रकृति थइ. तथा त्रसचतुष्क, अस्थिर षट्क, औदारिकछिक, तिर्यंचटिक, एकेंजियजाति, पंचेंजियजाति, कुखगति, निर्माण, थातप, उद्योत, स्थावर, तेजस, कार्मण, गुरुलघु, जपघात, उश्वास, हुंडसंस्थान, बेवहं संघयण, कृसवर्ण, तीक्ष्णरस, अशुजस्पर्श चतुष्क, उगंध, थरति, शोक, जय, जुगुप्सा, पराघात, थने नपुंसकवेद, ए एकतातीश प्रकृतिनी उत्कृष्ट स्थिति वीश कोमाकोमीनी , तेने मिथ्यात्वनी स्थिति साथें वेंचतां सातश्या बे नागनो बंध होय. एवं होतेर प्रकृति थइ. - सूदमत्रिक तथा विकलजाति त्रिक, ए उ प्रकृतिनी उत्कृष्ट स्थिति अढार कोडा For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002168
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1912
Total Pages896
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size27 MB
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