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________________ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ ८६७ रीने पूर्वे द्विचरम समयने विषे सुडतालीश प्रकृतिनी सत्तानो व्यवच्छेद देखाड्यो अने चरम समयें तो उत्कृष्टथी बार प्रकृति ने जघन्यथी गीघार प्रकृतिनो व्यae a म योगी अवस्थायें तो जे प्रकृतिनो उदय होय, तेनोज चरम समयें सत्ताथी विछेद थाय बे, छाने जेनो उदय न होय ते द्विचरम समयेंज य थाय बे. तेथ यागल हवे जीवने कर्मसंबंध मूकाणो, ते माटे मूकाणा फलथी जेम एरंफलनी पेरें एटले मोदें जातां केवी गति करे ? तोके, जेम मोकामांदेथी मूकाएं एरंमफल ते स्वनावविशेषें करी आकारों उडे अथवा जेम धूमनी गति सहेजें नंचीज होय अथवा जेम बाप, धनुष्यमांथी बूयुं पाधरुंज जाय अथवा जेम तुंबडुं पाणीमध्ये नाखेलुं उंचुं चडी आवे, तेम दंकें फेरव्या चक्रक्रमनी पेरें पूर्व संयोगें करी जीव, कर्मबंधनथकी मूकाणो तेथी जीवनी सहचारी गति उंची बे माटें ते जीव, एक समयमां उंचो लोकांतें जाय, पण बीजो समय स्पर्शे नहीं. ते जीव उंचो जातो जे श्राकाशप्रदेशें यहीं अवगाही रह्यो होय तेहीज श्राकाशप्रदेशनी समपीयें एक समयमां अन्य प्रदेशने अस्पर्शतो अंकुश समान गति करी जाय. उक्तं च घ्यावश्यकचूर्णो " जत्तीए जीवोवगाहो, तावश्याएउ गाइणाए उहुंउजुगं गन नवं कबीयं च समयं न फुसइत्ति” ॥ जे जणी वचला प्रदेशने स्पर्शे तो घणा समय थ‍ जाय केमके जीव तथा परमाणु एक आकाशप्रदेशथ की बीजे श्राकाशप्रदेशें जाय, ए उपाधें उपलक्षित काल तेने समयकाल कहीयें तो तेम करतां घणा समय लागे, तेथी अस्पर्शन तियेंज एक समयमां उंचो जाय, तिहां शाश्वतां सुख अनुभवे, ते क हे बे. ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ ८‍ ॥ यह सुख सयल जगसिद, र मरुव निरुव निरुवम सदाव सिद्धिसुदं ॥ नियण मधाबादं, ति रयण सारं अवंति ॥ ० ॥ अर्थ - अह के० छाथ दवें कर्मक्षय कस्या पढी छानंतर समयेंज सुइय के० शुचि एकांत शुद्ध एटले राग द्वेषादिकरूप मल तेणें रहित सयलजग सिहरं के० सकल संपूर्ण जगत् जे सांसारिक सुख, तेनुं शेखरभूत सर्वोत्तम सर्वधी अधिक जे जी सिद्धनां सुख तो रूव के० रुज बे एटले रोगादिक तथा मनपीडादिक कष्टें करी रहित होय, केमके रोग तो शरीरने होय, ते शरीर तो तिहां नथी छाने संसारमध्यें तो ते बेहु कष्ट संजवे बे. माटें ते सरखं संसारमध्ये कोइ सुख नश्री के जेनी उपमा छापीयें; माटें निरुवम के० निरुपम बे. एटले एवं कोइ पण सुख संसारने विषे नथी के जेनी उपमा श्रापीने तुल्यता करीयें; माटें सिद्धनां सुख निरुपम बे. वली ते सुख केवुं बे, तो के सहाव के० खजावथी उपजेलुं बे पण सांसारिक सुखनी For Private Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002168
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1912
Total Pages896
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size27 MB
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