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________________ ४१६ कर्मस्तवनामा वितीय कर्मयंक. अपवर्तना,५ उपशमना, ६ निधत्त, निकाचनादिकरण पण अयोगीगुणगणे न होय, जो पण बार उदयवती प्रकृतिमाहे अनुदयवती तहोंतेर प्रकृति स्तिबुक संक्रमे संक्र मावती कही, पण संक्रमणकरण न होय, ए तत्व ॥ २४ ॥ एसा पयडी तिगुणा, वेअणि आदार जुअल थीण तिगं ॥ मणु आउ पमत्तंता, अजोगिअणुदीरगो जयवं॥श्यानदीरणा सम्मत्ता ॥ अर्थ-एसापयमी के ए उदीरणाप्रकृति ते उदयथकी तिगुणा के त्रण ऊणी जाणवी वेथणि के वेदनीय बे, आहारजुथल के अहारकटिक, थीण तिगं के० श्रीणनीत्रिक मणुश्राज के मनुष्यायु, ए आठ प्रकृतिनी उदीरणा, पमत्ता के प्रमत्तगुणगणान अंतलगेज होय. अजोगिअणुदीरगोजयवं के अयोगी नगवान् सर्वकर्मनो अनुदीरर जाणवो. ॥२५॥ उदीरणासम्मत्ता के ए उदीरणाधिकार संपूर्ण थयो.॥ ए उदीरणा अप्रमत्तादिक सात गुणगाणे उदयथी त्रण प्रकृति उठी उणी जाण केमके ए सर्वगुणगणे मूलनी प्रकृतिनी उदीरणा होय, एटले वेदनीयनी बे, श्रम मनुष्यायु, ए त्रण प्रकृतिनो उदय होय पण उदीरणा न होय, तेथी मूल प्रकृति तेनी, उत्तरप्रकृति तहोंतेरनी उदीरणा लेवी, तेथी अप्रमत्तगुणगणे बहोंतेर प्रकृति उदय श्रने तहोंतेर प्रकृतिनी उदीरणा तेमांडेथी एक सम्यक्त्वमोहनीय अने थर्ड नाराच, कीलिका अने वहुं, ए त्रण संघयण, एवं चार प्रकृतिनी उदीरणाविले श्रये थके आपमे गुणगणे जंगणोतेर प्रकृतिनी उदीरणा होय, तेमांथी हास्य, रति,अर ति, जय, शोक, जुगुप्सा, ए ब प्रकृतिनी उदीरणा विछेदे, नवमे गुणगणे त्रेशन प्रकृति उदीरणा जाणवी. तेमांथीत्रण वेद,संज्वलनोक्रोध, संज्वलनो मान,अनेसंज्वलनीमा. या, एत्रण संज्वलनी प्रकृती मलीन प्रकृतिनी उदीरणा विजेद थये थके दशमे गुणगारे सत्तावन प्रकृतिनी उदीरणा जाणवी. तिहां सूक्ष्मलोचनी उदीरणा विछेद थये हो मोहनीयनी उदीरणा विछेद थर, तेवारें शेष पांच कर्मनी प्रकृति एटले ज्ञानावरण पांच, दर्शनावरणीयनी ब, नामनी उंगणचालीश, गोत्रनी एक अने अंतरायनी पांड उप्पन प्रकृतिनी उदीरणा अगीश्रारमे गुणगणे होय. तिहां षजनाराच अने ना ए बे प्रकृतिनी उदीरणा विछेदें शेष चोपन्न प्रकृतिनी उदीरणा वीणमोहगुणगाणे हर तेना त्रण नांगा करतां समयाधिक श्रावलिशेष निजा अने प्रचलानी उदीरणानि अने आवविशेषे ज्ञानावरणीय पांच, दर्शनावरणीय चार अने अंतराय पांच, ५ चौद प्रकृतिनी उदीरणाविछेदे, तेवारें बारमा गुणगणानी अंत आवलीयें नामकर्म सामंत्रीश, श्रने गोत्रनी एक. एवं थामत्रीश प्रकृतिनी उदीरणा लाने. जे जणी इ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002168
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1912
Total Pages896
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size27 MB
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