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शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५
पढम संघया गि, खगई अण मित्र नग थीतिगं ॥ नि नपु इचितीसं, पणिंद सुप्रबंधविश् परमा ॥ ५७ ॥ अर्थ - अपढमसंघयणागिर के० पहेला संघयण विना शेष पांच संघयण ने श्राकृति पटले प्रथमसंस्थान विना शेष पांच संस्थान, एवं दश ने खगई के० शुविहायोगति के अनंतानुबंधी क्रोधादिक चार, मित्र के० मिथ्यात्वमोहनीय, जग के दौर्भाग्य, दुःखर, अनादेय, ए दौर्भाग्य त्रिक, श्रीपतिगं ho श्रीणीत्रीक, नि के० नीचैर्गोत्र, नपु के० नपुंसकवेद, इति के० स्त्रीवेद, ए पची प्रकृतिनो बंधकाल डुतीसं के० एकसो ने बत्रीश सागरोपममनुष्यजव सप्तक सहित दोय, तेनी जावना कहे बे. कोइएक जीव, क्षायोपशमिक सम्यक्त्व प्रत्ययें एपची प्रकृति मध्यें ढुंडसंस्थान, बेवहुं संघयण, मिथ्यात्वमोहनीय ने नपुंसकवेद, ए चार प्रकृति, मिथ्यात्वोदय विना न बंधाय, छाने शेष एकवीश अनंतानुबंधिया कषायोदय न बंधाय, छाने मिश्रादिक आगला गुण ठाणे ए बेनो रसोदय नथी, तेमाटें तिहां ए पच्चीश प्रकृति न बंधाय, ते श्रावी रीतें जे, कोइएक मनुष्य, पूर्वकोमी परमायु जोगवी, अच्युतदेवलोकें बावीश सागरोपमायुयें सम्यकूदृष्टि देवता याय. वली तिहांथी सम्यक्त्व सहित चवीने मनुष्य याय. तिहां पूर्वकोटी आयु जोगवी, वली अच्युत देवलोकें बावीश सागरायु जोगवे. फरी पूर्व कोमी श्रायुवालो मनुष्य थइ सम्यक्त्व सहित मरण पामी, अच्युतें उत्कृष्टायु पामी, तिहांथी चवी मनुष्य थाय. एम त्रण वार अच्युत देवलोकें बावीश सागरोपमायुना अने चार जव मनुष्योना पूर्वकोमी आयुना जेलतां बारा सागरोपम चार पूर्व कोडी अधिक, उत्कृष्ट सम्यक्त्व काल स्पर्शी तिहांथी अंतर मुहूर्त्त सुधी मिश्र गुणठाएं स्पर्शी, वली बीजी वखत वाराह सागरोपमायु विजयादिक विमानें वे वखत जावे करी पूराय. बेले मनुष्य थई शुद्ध चारित्र पामी मोदें जाय. श्रींयां पांच देवताना जव ने सात मनुष्यना जव लगें मिथ्यात्व तथा साखादन गुणवाणुं न स्पर्श. तेथी ए पच्चीश प्रकृति पण न बंधाय यहां अच्युत देवलोकें त्रण वखत जावे करी, बाशठ सागर ने विजयादिक विमानें बे वखत जावे करी, बाराह सागर सम्यक्त्वकाल अंतर मुहूर्त्त मिश्र ने आंतरें करी एकसो बत्रीश सागरोपम पूर्व कोडी पृथक्त्वें अधिक एटला काल लगें मिथ्यात्व तथा अनंतानुबंधीया कषायना उदयने जावें ए पच्चीश प्रकृति न बांधे. अहीं तत्वार्थ जायें द्विचरमा अनुत्तर सुर कह्या. जे वली अनुत्तर सुर होय, ते चरम शरीरी होय, तेनी अपेक्षायें मुक्ति कही. अहींयां सम्यक्त्वथी मिश्र आवकुं कयुं,
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