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शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५
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मनुष्य चारित्र पाली तेत्री सागरोपमायुवालो अनुत्तर विमाने विजयादिकने विषे देव थाय. वली मनुष्यजव पामीने वली बीजी वार तेत्रीश सागरोपमायुवालो सुर था. एम बे वार विजयादिक गमनें करी बाराह सागरोपम सम्यक्त्व काल पूरी, वली अंतर मुहूर्त्त मिश्र गुणठाणे ज, फरी सम्यक्त्व लही, त्रण वेला बावीश सागरोपमायुष्क अच्युत देवलोकमां गमन करी, बीजी वार पण बाराह सागरोपम सम्यक्त्व काल स्पर्शे एम एकसो ने बत्रीश सागरोपम पूर्व कोटी सप्तक अधिक सम्यक्त्व ने मिश्र प्रत्ययें ए सात प्रकृति न बांधे, अने एकत्रीश सागरोपम ग्रैवेयकना तथा चार पल्योपम युगलीया तथा देवायुना मली एकसो शह सागरोपम चार पल्योपम ने पूर्व कोमी सप्तक सुधी, ए सात प्रकृतिनो पंचप्रियने विषे बाधा काल होय.
थावरच के० स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त छाने साधारण, एस्थावर चतुष्क ने इग विगल के० एकेंद्रियजाति तथा बेंद्रिय, तेंद्रिय, अने चौरिंद्रिय, ए विकलजाति - त्रिका के० आतपनामकर्म, ए नव प्रकृतिना बंधने विषे पंचेंद्रियपणे तां जो उत्कृष्ट बंध न होय तो पणसीइसयं के० एकसो ने पंच्चाशी यरा के० सागरोपम तथा चार पल्योपम ने पूर्व कोटी पृथक्त्वें अधिक बंधांतर होय. एनी विशेष जावना कहे बे.
कोइ एक जीव, बडी नरक पृथिवीयें बावीश सागरोपमायु जोगवी, तिदां जवप्रत्ययें ए नव प्रकृति न बांधे, तिहां अंतसमयें सम्यक्त्व सहित चवीने मनुष्य थयो. ते तिहां देश विरति लहीने त्रण पत्योपमायुयें युगलीक यश तिहांथी एक पस्योपमायुवालो सुर थाय, तिहांथी पण सम्यक्त्व सहित चवी संख्याता वर्षायु मनुष्यमां उपजे, तिहांथी संयम लइ एकत्रीश सागरापमायुयें ग्रैवेयकमां देवपणे उपजे. तिहां मिथ्यात्व लही, बेल्ले सम्यक्त्व पामी मनुष्य यश् वली विशेष संयम पाली विजयादिक विमानें त्रीश सागरोपमायुयें देव थाय. वली मनुष्य जवने श्रांतरे बीजी वार विजयादिक विमानें अवतरी, बाराह सागर सम्यक्त्वकाल पूरो करी, मिश्र 'श्रावी पूर्वोक्त रीतें त्रण वार अच्युतें जाय. एम एकसो त्रेश सागरोपमा धिकमां बावीश सागर नरकायु नेलतां एकसो पंच्चाशी सागरोपम चार पल्य ने पूर्व कोमी पृथक्त्व एटला काल सुधी ए नव प्रकृतिनी स्थितिनो प्रबंधकाल होय. किदांएक सम्यक्त्व प्रत्ययें, किहांएक जवप्रत्यये, बंधकाल होय, एटले बंधनुं प्रांत होय. ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ ५६ ॥
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