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शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ जाणवो. तेथकी तेज द्वितीय स्थितिना उत्कृष्ट अध्यवसाय स्थानके वली अनंतगुणो रस जाणवो. एम स्थितिविशेषे जघन्य उत्कृष्ट अध्यवसाय स्थानकें अनंतगुणो अनंतगुणो रस वधारतां उत्कृष्ट स्थितिना उत्कृष्ट अध्यवसाय स्थानक लगें कहे. ए रीतें प्रसंगें अध्यवसायस्थानकें रस पण विचास्यो. ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ ५५॥
हवे उत्तर प्रकृति न बंधाय, तो केटलो काल न बंधाय ? तेनो अबाधाकाल कहे . तिहां सर्व प्रकृतिमां जघन्यथी तो एक समय अबाधाकाल होय, अने उत्कृष्टपणे मिथ्यात्व तथा सास्वादन गुणगणे बंधविछेद पामेली एकतालीश प्रकृतिनो पंचेंजियने विषे अबाधाकाल कहे . प्रथम ते एकतालीश प्रकृतिनां नाम कहे . नरकत्रिक, जातिचतुष्क, स्थावरचतुष्क, टुंडसंस्थान, बेवहुं संघयण, आतप, मिथ्यात्व, नपुंसक, ए शोल प्रकृति, मिथ्यात्व व्यवछिन्नबंध अने पच्चीश प्रकृति सास्वादन व्यवछिन्नबंध, एवं एकतालीश प्रकृतिनो उत्कृष्ट बंधांतर कहे बे.
अथोत्कृष्ट स्थित्यंतरबंधमाद ॥ तिरि निरयति जोयाणं, नरनवजुअ सचनपल्ल तेसह ॥ थावर चन गविगला,
यवेसु पणसी सयमयरा ॥५६॥ अर्थ-तिरिनिरयति के तिर्यंचगति, तिर्यंचानुपूर्वी अने तिर्यंचायु, ए तिर्यचत्रिक तथा नरकगति, नरकानुपूर्वी अने नरकायु, ए नरकत्रिक, सातमुं जोयाणं के उद्योतनामकर्म, ए सात प्रकृतिनो बंध पंचेंज्यि जीवने जो न होय, तो केटला काल लगें न होय ? ते कदे . नरनवजुअ के० मनुष्यना पूर्व कोमी श्रायुना सात नव, स के० सहित चनपस के चार पढ्योपम अने तेसहं के एकसो वेशठ सागरोपम होय, एनी विशेष नावना कहे . कोशएक त्रय पव्योपमायुवालो युगली नवप्रांतें सम्यक्त्व लहीने एक पस्योपमायुवालो देव थाय. हवे तिहां युगलीथाना नवप्रत्ये ए सात प्रकृतिनो बंध नथी. केम के, युगली तो देवता योग्य नामकर्मनी प्रकृति बांधे, पण बीजी प्रकृति न बांधे, अने देवता थया पडी ते देवताना जवें सम्यक्त्व प्रत्ययें तिर्यग् प्रायोग्य नामकर्मनी प्रकृति न बांधे. पड़ी ते देवता सम्यक्त्व सहितज संख्यात वर्षायुष्क मनुष्य थयो, तिहां पण सम्यक्त्व प्रनावें ए सात प्रकृति न बांधी, अने अंतें चारित्र लश् नवमे अवेयकें देव थयो. तिहां कदापि मिथ्यात्वी पण थयो तो पण नवप्रत्ययें एकत्रीश सागरोपम लगें ए सात प्रकृति न बांधे, जे जणी थाउमा देवलोकथी उपरला देवलोकना तिर्यंचाहे न श्रावे, ते वली प्रांत समयें सम्यक्त्व लहीने संख्यातायुष्यवाला मनुष्यमा सम्यक्हाष्टपणे आवी उपजे. वली ते
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