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शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५
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होय, तोपण ययुः कर्मनी जघन्य स्थिति अल्प बे माटे अध्यवसाय स्थानक थोडां होय, ते माटें श्रायुष्यना श्रध्यवसाय स्थानकथी नामकर्म छाने गोत्रकर्मनां स्थितिबंधाध्यवसाय स्थानक, असंख्यात गुणां जाणवां.
ते की ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, अने अंतराय, ए चार कर्मनां स्थितिबंधाध्यवसायस्थानक, असंख्यात गुणां जाणवां. जे जणी नामकर्म अने गोत्रकर्म की दश कोडाकोडी सागरोपमनी स्थिति एनी अधिक बे ने पल्योपमना
संख्यांश मात्र स्थिति वृद्धियें अध्यवसाय स्थानक, बमणां वधे, छाने दश कोमाकोमी सागरोपममध्यें तो असंख्याता पल्योपमना श्रसंख्यांश होय, तेथी संख्यात में अध्यवसाय स्थानकनी द्विगुण वृद्धि करतां नामकर्म अने गोत्रकर्म थकी ए चार कर्मनां संख्यात गुणां अध्यवसाय स्थानक होय. छाने ए चारे कर्मनां मांदोमां रसपरस अध्यवसायस्थानक तुल्य बराबर होय.
थकी व चारित्रमोहनीयनी स्थितिनां अध्यवसाय स्थानक असंख्यात गुणां जाणवां, जे जणी ज्ञानावरणीयनी स्थितिथकी कषाय चारित्रमोहनीयनी स्थिति, दश कोडाकोडी सागरोपमनी वधती बे. तिहां असंख्याता पल्या संख्यांशें असंख्याती द्विगुण वृद्धि होय, ते माटें असंख्यात गुणां अध्यवसायस्थानक जाणवां.
ते की दर्शनमोहनीयनां असंख्यात गुणां अध्यवसाय स्थानक, स्थितिबंधना हेतु जावा. जे जी चारित्रमोहनीयनी स्थितिथकी त्रीश कोडाकोमी सागरोमनी स्थिति, दर्शनमोहनीयनी वधती बे. तेमाटें तेना पण पूर्वोक्त युक्तियें करी असंख्यात गुणां अध्यवसायस्थानक होय. ए रीतें आठ कर्मनां स्थितिना श्रध्यवसाय स्थानकनां पबहुत्व पण प्रसंगें कह्यां.
तथा एकेक अध्यवसाय स्थानकें वर्त्तता त्रस जीव, जघन्य पदे एक, बे, उत्कृष्टा तो आवलीना संख्यांश समय प्रमाण जाणवा, अने स्थावर जीव अनंता जाणवा. तथा त्रस जीवयुक्त निरंतरपणे जघन्यपदें बे श्रध्यवसाय स्थानक ने उत्कृष्टपदें श्रावलीना श्रसंख्याता समय मात्र प्रमाण होय, तेथी उपरांत अवश्य शून्य होय, उत्कृष्टपढ़ें असंख्य लोकाकाश प्रदेश प्रमाण होय, अने स्थावर शून्य अध्यवसायस्थानक न होय, जे जणी अनंतानंत निगोदी या जीव, ते सहु स्थावर बे. एम अध्यवसायस्थानके जीव प्ररूपणा कही
तथा जघन्य स्थितिने जघन्य अध्यवसाय स्थानकें अनंता रसविजाग जाणवा. ते की वली एज प्रथम स्थितिने उत्कृष्ट श्रध्यवसाय स्थानकें अनंतगुणा रसविजाग जावा, तेथकी वलं. द्वितीय स्थितिने जघन्य अध्यवसाय स्थानकें अनंतगुणो रस
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