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शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ.५
६४५ ते पण स्वमतें कह्यु. केम के सिद्धांतमतें तो सम्यक्त्वथकी मिथ्यात्वें श्रावे, पण मिों न श्रावे, एवी व्याख्या बे. पणिं दिसुप्रबंधविश्परमा के ए सन्नीथा पंचेंजिय जीवनी अपेक्षायें परम अबंधकालनी स्थिति लेवी, पण बीजा जीवनेदें ए न संजवे. यदुक्तं “मिबत्तासंकंती, अविरुष्का होश सम्म मीमेसु ॥ मीसा उवा दोसु, सम्मा मिछं न उमीसं ति" ॥१॥ इति समुच्चयार्थः ॥ ५७ ॥
॥ हवे ए एकतालीश प्रकृतिनो अबंधकाल पूवानो उपाय कहे . ॥ विजयाश्सु गेविडो, तमाश् दहि सय उतीस तेसह ॥ पण सी ॥ अथ त्रिसप्ततीनामध्रुवबंधिनीनामुत्कृष्टं संततबंधमा
द॥ सयय बंधो, पल्लतिगं सुरविनविवि उगे ॥ ५ ॥ अर्थ-विजयाश्सु के विजय, वैजयंत, जयंत अने अपराजित, ए चार अनुत्तर विमानें बे वार बाश सागरोपम मनुष्य नवें जाजेरो सम्यक्त्व काल पूरे. वली अंतरमुहूर्त मिों रही त्रण वेला अच्युत देवलोके बावीश सागरोपमायु जोगवतां बाश सागरोपम मनुष्य नवें अधिक बीजी वेला सम्यक्त्व काल पूरतां, सयपुतिस के एकसो बत्रीश सागरोपम अने गेवि के ग्रैवेयकना एकत्रीश सागरोपम नेलतां तेसह के एकसो ने वेशह सागरोपम मनुष्य जवना पूर्व कोडी पृथक्त्वें अधिक जाणवा. तेमा वली तमाश्दहि के तमःप्रनानामा बही नरक पृथ्वीना नारकीर्नु बावीश सागरोपमायु नेसतां, पणसी के0 एकसो ने पंचाशी सागरोपम पूराय, अहीं सघले स्थानकें वचला मनुष्य नवनुं श्रायु साधिक जाणवं. यहीं केटलेक स्थानकें सम्यक्त्व प्रत्ययें ए प्रकृति न बंधाय, अने किहांएक तो नव प्रत्ययें न बंधाय. एम एकतालीश प्रकृतिनो उत्कृष्ट अबंधकाल, पंचेंज्यमध्यें पामीरें. तेमा तिर्यंचत्रिक, नरकत्रिक अने उद्योतनाम, ए सात प्रकृतिनो एकसो बेशक सागरोपम प्रमाण अबंधकाल अने स्थावरचतुष्क तथा जातिचतुष्क भने श्रातप, ए नव प्रकृतिनो एकसो पंच्चाशी सागरोपम अबंध काल अने शेष पच्चीश प्रकृतिनों एकसो बत्रीश सागरोपम अबंधकाल ते सर्व पूर्व कोमी पृथक्त्वें अधिक लेवं तथा बे ठेकाणे चार पट्योपम अधिक लेवू. एम बंधांतर कडं.
हवे सययबंधो के सतत एटले निरंतरपणे बंध लखीयें बैयें. औदारिक हिक, वैकियहिक, थाहारकठिक, ब संघयण, ब संस्थान, पांच जाति, चार गति, चार थानुपूर्वी, जिननाम श्वासोश्वास, उद्योत, आतप, पराघात, सदशक, स्थावरदशक, वेदनीयधिक, गोत्रहिक, हास्यादिचतुष्क, वेद त्रण, खगतिहिक अने आयुचतुष्क,
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