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________________ ६४६ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ ए अध्रुवबंधिनी तहोंत्तेर प्रकृतिनो जघन्यपदें तथा उत्कृष्टपदें निरंतरपणे बांधवानो काल कहे . ते माहे जिननाम, आहारकछिक अने श्रायुचतुष्क, ए सात प्रकृतिनो जघन्यपदें निरंतरपणे बांधवानो काल, अंतर मुहूर्त प्रमाण जाणवो. जे जणी उपशम श्रेणीथी पमतो अंतरमुहूर्त लगें, जिननाम तथा आहारकछिक, ए त्रण प्रकृति बांधी, वली बीजी वार श्रेणी पडिवजतो अपूर्व करणने सातमे नागें एनो श्रबंधक थाय, ते. अपेक्षायें लेबु. तथा श्रायु चारनो तो निरंतरपणे अंतर मुहर्त बंध होय, अने शेष नाशक प्रकृतिनो जघन्य तो एक समय बंध पण होय, एम तहोंत्तेर प्रकृतिनो जघन्य सतत बंध कही, हवे उत्कृष्ट नागें निरंतर बंध कहे . पद्धतिगंसुरविउविगे के देवगति, देवानुपूर्वी तथा वैक्रियशरीर अने वैक्रियअंगोपांग, ए चार प्रकृतिनो सतत बंध जघन्य एक समयनो होय, जे जणी शुन परिणामें एक समय, ए चार प्रकृति देव प्रायोग्य बांधीने परिणाम नेदें समयांतरें वली मनुष्यादिक प्रायोग्य बांधतां जाणवो, अने एनो उत्कृष्टो निरंतर बंध त्रण पट्योपमायुना धणी युगलीयाने नव प्रथम समयथी देवप्रायोग्य नामकर्मनी श्रहावीश प्रकृति बांधतां जाणवो. केम के, तेने नवप्रत्ययें नरक, तिर्यंच अनेः मनुष्य, ए त्रण गति प्रायोग्य नामकर्मनो बंध नथी तेथी परिणाम नेदें पण अन्य एवी विरोधि प्रकृतिनो एने बंध नथी, ते माटें नव प्रथम समयथी लश्ने त्रण पक्ष्योपमना चरम समय लगें ए चार प्रकृतिनो सतत बंध होय. एटले एक, बे, त्रण, संख्याता, असंख्याता समय लगें निरंतरपणे ए चार प्रकृतिनो बंध होय. ॥ इति समु० ॥५॥ समया दसंख कालं, तिरि उग नीएसु आज अंतमुहू ॥ नरलि असंख परट्टा, साय हि पुव कोडूणा ॥ ५ए॥ अर्थ-तिरिग के तिर्यंचहिक, नीएसु के नीचैर्गोत्र, ए त्रण प्रकृतिनो तिर्यंच प्रायोग्य बंधाध्यवसायें समय मात्र रहीने वली तथाविध संक्वेश विशेषे नरक प्रायोग्य ण बांधे, अने विशुफि विशेषे देव, मनुष्य प्रायोग्य पण बांधे, तेनी अपेक्षायें जघन्यथी एक समय बंध होय, अने उस्कृष्ट पदें तो तेल, वानमांहे असंख्यातो काल रहेतो थको तिहां एत्रण प्रकृतिनी विरोधिनी बीजी प्रकृति न बांधे, केमके, तेज श्रने वायु मांहेथी एक तिर्यंच गतिमाहेज अवतरे पण बीजी त्रण गतिमां अवतरे नहीं, तथा तिहां उच्चैर्गोत्र पण न बांधे, तेथी समयादसंखकालं के असंख्यात लोकाकाश प्रदेश प्रमाण समय लगें ए त्रण प्रकृतिनो निरंतर बंध लाने, ए व्यवहार राशि जीवनी अपेदायें लेखववो. बीजा श्राश्रयी तो अनंत काल पण संनवे. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002168
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1912
Total Pages896
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size27 MB
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