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________________ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ ६४७ थाउअंतमुहू के चार श्रायुनो बंध जघन्य तथा उत्कृष्टथी अंतर्मुहूर्त्तनो होय. अहीं परिणाम नेदें पण एक समयिक बंध न होय, जे जणी थायुनो तो श्राखा नवमध्ये एकज वार बंध होय, अहीं जघन्यथी उत्कृष्टो अधिक जाणवो. उरलिथसंखपरट्टा के औदारिक शरीरनामकर्मनो निरंतरपणे बंध उत्कृष्टो श्रावलिना असंख्यातमा नागना समय प्रमाण असंख्याता पुजल परावर्त जेटद्यु जाणवू, अने जघन्य तो एक समयनो जाणवो. जे जणी एक समय औदारिक शरीर बांधी वली समयांतरें परिणाम नेदें तहिरोधिनी वैक्रियादिकने बांधतो होय, अने उत्कृष्टथी तो व्यवहारराशियें आवेलो जीव, जो थावरकायपणे रहे तो उत्कृष्टो श्रावलीने असंख्यातमे नागें जेटला समय थाय, तेटला पुजल परावर्तसूधी थावरपणुं नोगवे, तिहां निरंतरपणे औदारिकशरीर नामकर्मनो बंध करे, तेने वैक्रियादिक विरोधि प्रकृतिनो बंध नथी. ते जणी तिहां सतत बंध कह्यो. सायहिश्पुवकोडणा के एक शातावेदनीयनो सतत बंध, जघन्यथी तो एक समय लगें होय. केम के, वली समयांतरें परिणाम नेदें अशाता पण बांधे, ते अपेक्षायें कहे. तथा उत्कृष्टपणे निरंतर बंध तो आठ वर्षे ऊणी पूर्वकोडी जाणवी. केमके, कोश्क पूर्वकोडी आयुवालो जीव, पाठ वर्ष उपरांत सर्व विरतिपणुं लश्ने, क्षपकश्रेणी पडिवजे, केवल ज्ञान पामे, तेने प्रमत्तगुणगणा उपरांत एनी विरोधिनी अशाता वेदनीय Vतनो बंध नथी, तेथी तिहां निरंतरपणे एटला काल लगें एकज शातावे बांधे. ते अपेक्षायें जाणवू. अन्यथा शाता अशातानो बंध तो अंतरमुहर्ते परावर्त्त होय. ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ ५ ॥ जलदि सयं पणसीयं, परघुस्सासे पणिंदि तस चनगे॥ बत्तीसं सुहु विदगइ, पुम सुन्नगतिगुच्चचउरंसे ॥ ६ ॥ अर्थ-सयंपणसीयं के० एम एकसो ने पंञ्चाशी जलहि के० सागरोपम उपर चार पस्योपम पूर्वकोमी पृथक्त्वे अधिक, परघुस्सासेपणिं दितसचउगे के पराघातनाम, उश्वासनाम, पंचेंजियजाति तथा प्रसनाम, बादरनाम, पर्याप्तनाम अने प्रत्येकनाम. ए त्रस चतुष्क. एवं सात प्रकृतिनो उत्कृष्ट निरंतर बंधकाल जाणवो. जे जणी जातिचतुष्क तथा थावरचतुष्क, ए आव एनी विरोधिनी प्रकृति , ते एटला कालपर्यंत न बंधाय. ते वारे ए प्रकृति बंधाय, ते भावी रीतें के, कोइएक जीव नही नरक पृथवीना बावीश सागरोपमायु जोगवी, अंतें सम्यक्त्व लही; मनुष्यजवें देश विरति लही, त्रण पख्योपम युगलीयानुं तथा तिहांथी एक पटयोपम देवायु जोगवी फरी, मनुष्यपणे संयम लश्ने अवेयकें मिथ्यात्वीपणे एकत्रीश सागरोपम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002168
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1912
Total Pages896
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size27 MB
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