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________________ बंधस्वामित्वनामा तृतीय कर्मग्रंथ. ४३१ प्रकृति देवता अने नारकी प्रायोग्यत्वे के अने नारकी तो मरीने फरी देवगति तथा नरकगतिमांहे उपजे नहीं, तेथी ए आठ प्रकृति न बांधे. तथा सूक्ष्मनाम, अपर्याप्तनाम अने साधारणनाम, ए त्रण प्रकृति पण न बांधे. केमके सूक्ष्म एकेंजियमध्ये तथा थपर्याप्तातिर्यच अने मनुष्यमध्ये तथा साधारण वनस्पतिमध्ये पण नारकी अवतरे नहीं. एवं अगीआर प्रकृति थ. तथा एकेजियजाति, स्थावरनाम, आतपनाम, ए त्रण प्रकृति एकेंपिय प्रायोग्य , तथा विकलजातित्रिक. ते विकलेंजिय प्रायोग्य जे. ते पण नारकीने एकेंजिय तथा विकलेंजियमांहे अवतर नथी, तेमाटे एन प्रकृति पण नारकी न बांधे तथा थाहारकछिक पण चारित्रने अनावें न बांधे. ए रीतें नरकगतिना जीव, नवप्रत्ययें ए जंगणीश प्रकृति न बांधे, तेमाटे ए जंगणीश वर्जीने शेष ज्ञानावरणीय पांच, दर्शनावरणीय नव, वेदनीय बे, मोहनीय बवीश, श्रायुनी बे, नामनी पचाश, गोत्रनी बे, अंतरायनी पांच, ए रीतें एकसो ने एक प्रकृतिनो बंध, उघे के सामान्य होय. एटले अमुक नरकगतिमां तथा अमुक गुणगणे इत्यादिक विशेषपणुं कस्याविना बांधे. नारे नरकगतिमा कर्मप्रकृतिनो बंध होय, ते कह्यो. हवे गुणगणादिक विशेषापेक्षायें नरकगतिमांहे बंधस्वामित्व कहे. ते एकसो ने एक प्रकृतिमध्ये पण तीर्थंकरनामकर्म, मिथ्यात्वगुणगणे न बांधे. जेमाटे तीर्थंकरनामकर्म, सम्यक्त्व विना न बंधाय. अने मिथ्यात्व गुणगणे सम्यक्त्व नथी तेमाटे जिननाम पण न बांधे. शेष एकसो प्रकृतिज बांधे. ___ त्यां नपुंसकादिक चार प्रकृतिनो विछेद होय जे जणी नरकत्रिक, जातिचतुष्क, थावरचतुष्क, हुंमसंस्थान, श्रातपनाम, बेवडंसंघयण, नपुंसकवेद, मिथ्यात्वमोहनीय, ए शोल प्रकृति मिथ्यात्वप्रत्ययिकी बे ते मांहे नरकत्रिक, सूक्ष्म त्रिक, विकलत्रिक, एकेंजियजाति, स्थावरनाम, पातपनाम, ए बार प्रकृतिनो तो नारकीने नवप्रत्ययें श्रबंध , तेथी ते अहीं लोधी नथी. शेष नपुंसकवेद, मिथ्यात्वमोहनीय, हुंमसंस्थान अने बेवहं संघयण. ए चार प्रकृति मिथ्यात्वथी बंधाय अने सास्वादनगुण. गणे मिथ्यात्व नथी, पण अविरति बे तेथी पूर्वोक्त सो प्रकृतिमाहेथी ए चार प्रकृति टालीये, ते वारें बन्नु प्रकृतिनो बंध नरकगीतमाहे सास्वादनगुणगणे होय ॥५॥ ___ त्यां सास्वादनगुणगणे मिथ्यात्व अविरति प्रत्ययिकी पच्चीश प्रकृतिनो बंधविछेद थाय ते पागले गुणगणे न बंधाय, ते कहेले. विणु अण वीस मीसे, बिसयरि सम्मंमि जिण नरान जुआ ॥ श्य रयणाइसु नंगो, पंकाइसु तिवयर हीणो ॥ ६॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002168
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1912
Total Pages896
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size27 MB
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