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________________ ४३० बंधस्वामित्वनाम तृतीय कर्मग्रंथ. ग के अशुजखगति, निश्र के नीच्चैर्गोत्र, इलि के स्त्रीवेद, एवं उंगणचालीश. उहग के दौ ग्यत्रिक, थीणतिगं के थीणनीत्रिक, एवं पीस्तालीश. उजोथ के उद्योतनाम. तिरिगं के० तिर्यंचहिक, तिरि के० तिर्यंचायु, नराउ के मनुष्यायु, नर के मनुष्यछिक, उरलयुग के औदारिकछिक, रिसहं के वज्रषजनाराचसंघयण. एवं पंचावन्न प्रकृति थ ॥ इत्यदरार्थः ॥ ४॥ अनंतानुबंधीनी चोकमी अने मध्य एटले पहेला श्रने देहला ए बे विना वचला आकृति कहेतां श्राकार विशेष एटले संस्थान चार, तेमज वचलां संघयण चार, एवं बार प्रकृति थ. कु एटले अशुन खगति, एटले हिंमवानी गति जेथकी अशुन होय, ते नामप्रकृति, नीचैर्गोत्र, स्त्रीवेदनोकषाय, मोहनीय, दौर्जाग्य, उःस्वर, अना. देय, ए दौ ग्यत्रिक. एवं अढार प्रकृति थ. श्रीणही, निसानिका ने प्रचलाप्रचला, ए थीणद्धीत्रिक; नद्योतनामकर्म, तिर्यंचगति, तिर्यंचानुपूर्वी, ए तिर्यंचहिक एवं चोवीश प्रकृति अनंतानुबंधीयाने उदयें बंधाय, ते नणी मिश्रादिक गुणगणे न बंधाय. ए अनंतानुबंधी चतुर्विशतिक कदेवाय. ते मध्ये तिर्यंचायु अने मनुष्यायु, ए बे प्रकृति सहित करतां अनंतानुबंध्यादिक षड्विंशतिक कहीयें. तथा मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी, एवं थहावीश. अने औदारिकशरीर, औदारिकअंगोपांग, ए औदारिकहिक, अने वजषजनाराचसंघयण, एम ए बीजी गाथामध्ये अनंतानुबंध्यादिक एकत्रीश प्रकृति कही. तथा पूर्वली गाथामां चोवीश प्रकृति कही, ए बेहु मली पंचा. वन्न प्रकृति कही, तेमां दर्शनावरणीयनी त्रण, मोहनीयनी सात, श्रायुनी चार, गोत्रनी एक, शेष नामकर्मनी चालीश प्रकृति कही, एम संज्ञासंग्रहगाथा बे कही॥ ४॥ ॥ हवे प्रथम गतिमार्गणामध्ये नरकगतिनेविषे बंधस्वामित्वपणुं विचारे ने ॥ सुरगुण वीस वज, इगस उदेण बंधहिं निरया ॥ तिबविणा मिचि सयं, सासणि नपु चनविणा ग्नु ॥५॥ श्रर्य-सुरश्गुणवीसव के सुरादिक जंगणीश प्रकृति, एकसो वीशमाहेथी वर्जीयें, तेवारें गस के० एकसो ने एक प्रकृति, उहेण के उचें एटले सामान्यपणे बंधहिंनिरया के० नरकगतिना जीव बांधे. अने तिबविणामिबिसयं के तीर्थकरनामकर्म विना तेह मिथ्यात्व गुणगणे सो प्रकृति बांधे अने सासणि के सास्वादनगुणगणे नपुचजविणा के नपुंसकादिक चतुष्क विना बनु के० बन्न प्रकृति बांधे ॥ ३० ॥५॥ १ सुरहिकादिक उंगणीश प्रकृतिमध्ये सुरहिक, वैक्रियहिक, देवायु, नरकगति, नरकानुपूर्वी, नरकायु, ए आठ प्रकृतिनो बंध, नारकीने न होय, जेमाटे ए श्राप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002168
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1912
Total Pages896
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size27 MB
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