SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 454
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बंधस्वामित्वनामा तृतीय कर्मग्रंथ. ४२ अर्थ - जि के० जिननाम, सुर के० सुरद्विक, विजव के० वैक्रियद्विक, आहार to हारकद्विक, टु के० ए त्राद्विक, एवं सात प्रकृति य. देवाजा के० देवायु, निरय के० नरकत्रिक, सुदुम के० सूक्ष्मत्रिक, विगल के० विकल त्रिक, तिगं के० एत्रण त्रिक जाणवां. एगिंदि के० एकेंद्रियजाति, यावर के० स्थावरनाम - कर्म, वायव के० यातपनामकर्म, नपु के० नपुंसकवेद, मित्रं के० मिथ्यात्वमोहनीय, हुंक के हुंमसंस्थान, बेव के० बेवहुं संघयण ॥ इत्यरार्थः ॥ ३ ॥ हवे ग्रंथ गौरव टालवा जणी कर्मप्रकृति न्यूनाधिक करवा निमित्त जेम व्याकरणादिकमां वर्ण संख्या अल्पाक्षरें जाणवा निमित्त श्राद्यकरांत्याक्षर साथै कहेतां प्रत्याहार संज्ञा करी बे. तेम हींयां पण जे प्रकृति यगले संख्यापद होय, ते प्रकृतिथी तेटली प्रकृति लेवी, एवी संज्ञा करे बे. जेम जिननामथी आागली प्रकृति १ जिननाम, २ देवगति, ३ देवानुपूर्वी, ४ वैक्रियशरीर, ५ वैक्रियांगोपांग, ६ आहारकशरीर, याहारक अंगोपांग, देवायु, to नरकगति, १० नरकानुपूर्वी, ११ नरकायु. ए जिनैकादश कहीयें. ए एकेंद्रिय ने विकलें प्रियने नवप्रत्ययें न बंधाय सूक्ष्मयी लेइ तेर प्रकृति कहेवी, ते सूक्ष्मत्रयोदशक. १ सूक्ष्मनाम, २ अपर्याप्तनाम, ३ साधारणनाम, ४ बेंद्रियजाति, ५ तेंद्रियजाति, ६ चरिंद्रियजाति, 9 एकें - डियजाति, स्थावरनाम, ए श्रातपनाम, १० नपुंसक वेद, ११ मिथ्यात्वमोहनीय, १२ हुंकसंस्थान, १३ बेवहुं संघयण, ए सूक्ष्मत्रयोदशक; ए मिथ्यात्वप्रत्ययिक मिथ्यात्वें बंधाय तथा सुरद्विक, वैक्रियद्विक, याहारकद्विक, सुरायु, एवं सात. नरकत्रिक, सूक्ष्मत्रिक, विकलजातित्रिक, एवं शोल. एकेंद्रियजाति, स्थावरनाम, प्रातपनाम, एटंगणी प्रकृतिनुं नाम सुरएकोनविंशतिक कहीयें. १ नपुंसक, २ मिथ्यात्व, ३ हुंडसंस्थान, ४ बेबहुं संघयण, ए नपुंसकचतुष्क कहीयें. ए रीतें ज्यां ज्यां जेटली प्रकृतिनुं काम होय, त्यां त्यां ते ते प्रकृति धुर देश तेटली तेटली संख्या जोमीयें, ते संज्ञा होय. ए गाथामां चोवीश प्रकृति कही, ते मध्यें एक मिथ्यात्व, बीजी नपुंसकवेद, ए बे प्रकृति मोहनीयनी. अने देवायु, नरकायु, ए बे आयुनी. शेष वीश प्रकृति, नामकर्मनी बे ॥ ३ ॥ पण मजागिर सँघयण, कुखगइ नि इवि दग श्रीतिगं ॥ नको तिरिडुगं तिरि, नरान नर नरल डुग रिसदं ॥ ४ ॥ अर्थ- पूर्वोक्त चोवीश ने ए के अनंतानुबंधी कषाय चार, मजागिर के० मध्याकृति एटले मध्यसंस्थान चार, सँघयण के० मध्यसंघयण चार, एवं बत्रीश. कुख Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002168
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1912
Total Pages896
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size27 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy