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शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ स्थानकें बीजी विरोधिनी प्रकृतिनो बंध न थाय. ते जणी ए पण ध्रुवबंधिनी प्रकृति जाणवी, एम अंतरायकर्मनी पांच प्रकृति पण दशमा गुणगणा लगें सर्व जीवने अवश्य बंधाय, तेथी एने पण ध्रुवबंधिनी प्रकृति कहीये. एवं ए सुमतालीश कर्मप्रकृति श्रापणा मिथ्यात्व, अविरति अने कषायादिक हेतुना सनावे सर्व जीवने श्रवश्य बंधाय. ते जणी एने ध्रुवबंधिनी कहीये. तेमध्ये ज्ञानावरणीयनी पांच, दर्शनावरणीयनी नव, मोहनीयनी उंगणीश, नामकर्मनी नव अने अंतराय कर्मनी पांच, एम सूल पाँच कर्मनी थश्ने उत्तर प्रकृति सुमतालीश थाय. ॥
अने वेदनीय तथा गोत्र, ए बे कर्मनी मूल प्रकृतिनी अपेक्षायें ध्रुवबंधिनी जाणवी. परंतु उत्तर प्रकृतिनी अपेदायें अध्रुवबंधिनी जाणवी.
॥ हवे अध्रुवबंधिनी प्रकृति कहे. ॥
॥अथा ऽध्रुवबंधिन्यः॥ तणु बंगा गिअ संघय, ण जाइ गइ खगई पुछि जिणुसा- ..
सं ॥ उजो आयव परघा, तसवीसा गोअ वेयणियं ॥३॥ अर्थ- तणुवंग के तनुत्रिक अने उपांगत्रिक, श्रागिय के० श्राकृति एटले संस्थान ब, संघयण के संघयण ब, जाई के जाति पांच, गश्के० गति चार, खगई के० विदायोगति बे, पुवि के आनुपुर्वीचतुष्क, जिणुसासं के जिननामकर्म अने उवासनामकर्म, उजोयायव के उद्योतनाम तथा आतपनाम, परघा के० पराघातनाम, तसवीसा के त्रस दशक अने स्थावर दशक, ए बे मलीने वीश प्रकृति जाणवी. गोश्र के गोत्रहिक, वेअणिश्र के वेदनीयछिक, एवं बाशठ प्रकृति थ.
तनु एटले शरीरनामकर्म, ते मध्ये तैजस अने कार्मण, ए बे शरीर तो पूर्वे अध्रुवबंधी कह्यांडे, अने शेष औदारिक, वैक्रिय अने थाहारक, एत्रण शरीर तथा एज त्रण शरीरनां अंगोपांग, ते मध्ये मनुष्य तथा तिर्यंचने औदारिक होय अने देव तथा नारकी प्रायोग्य वैक्रिय होय, ते अध्रुवबंधिनी प्रकृति कहीयें, अने आकृति एटसे संस्थान संघयण ब बे, ते मध्ये एक समये एकज बंधाय. ते जणी एने पण अध्रुवबंधी कहीये. तथा संघयण प्रण मनुष्य, तिर्यंच प्रायोग्य बांधतां एक समयें एकज बंधाय अने देवता तथा नारकी प्रायोग्य बांधतां संघयणनो बंध न होय, माटें अध्रुवबंधिनी कहीये. तथा एकेंजिय, बेंजिय, तेंजिय, चौरिंजिय अने पंचेंजिय, ए पांच जातिमध्ये एकैछियादिक स्वस्व प्रायोग्य एक जातिज बंधाय, ते माटें श्रध्रुवबंधिज कहीयें. तथा चार गतिमध्ये पण एक समयें एकज देवादिकनी गति बंधाय, ते माटे ए पण
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