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शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५
५६ए ॥ तिहां प्रथम छारें सुडतालीश ध्रुवबंधिनी प्रकृति कहे जे ॥ वम चउ तेअ कम्मा, गुरु लहु निमिणो वघाय जय कुबा ॥ मिल कसाया वरणा, विग्धं धुवबंधि सगचत्ता ॥२॥ अर्थ-वलचल के वर्णचतुष्क, तेथ केए पांचमुं तैजस नाम, कम्मा के हुँ कार्मणनामकर्म, अगुरुलहु के सातमुं गुरुलघुनामकर्म, निमिणं के श्रापमुं निर्माणनामकर्म, उवघाय के नवमुं उपघातनामकर्म, जय के० दशमुं जयमोहनीय, कुछा के अगीयारमुं जुगुप्सामोहनीय, मिठ के बारमुं मिथ्यात्वमोहनीय, कसाया के शोल कषाय, एवं अहावीश थ. तथा वरणा के ज्ञानावरण पांच अने दर्शनावरण नव, ए चौद प्रकृति. एवं सर्व मली बेंतालीश प्रकृति थर तथा विग्धं के अंतराय पांच, एवं सगचत्ता के० ए सुमतालीश ध्रुवबंधिनी प्रकृति जाणवी. ॥२॥
वर्ण, गंध, रस अने स्पर्श, ए चार प्रकृतिनुं नाम वर्णचतुष्क कहीयें. एक तैजसशरीर, बीजुं कार्मणशरीर, त्रोजु श्रगुरुलघुनामकर्म, चोथु निर्माणनामकर्म, श्रने पांचमुं उपघातनामकर्म. ए पांच अने पूर्वोक्त वर्णचतुष्क, ए नव नामकर्मनी प्रकृति ध्रुवबंधिनी कहीये. जे लणी चार गतिना जीवने तैजस कार्मणशरीर होय, तथा वर्ण, गंध, रस अने स्पर्श, ते औदारिक अने वैक्रियशरीरना बंधे होय, तथा निर्माणनामकर्म पण अंगोपांग श्राश्रयी होय, वली अगुरुलघु तथा उपघात नामकर्म पण, शरीरबंधे होय, तेथी स्व स्व गति प्रायोग्य ए नामकर्मनी नव प्रकृति आपणा अविरति कषायादिक हेतु बते बंधाय. तेथी ए नव प्रकृतिने ध्रुवबंधिनी प्रकृति कहीये.
जयमोहनीय श्रने जुगुप्सामोहनीय, एबे प्रकृतिनी बंधविरोधिनी प्रकृति नथी, तेथी ध्रुवबंधिनी कहीयें. तथा मिथ्यात्वमोहनीय पण निज हेतु मिथ्यात्वोदय सनावें अवश्य बंधाय . ते नणी एने पण ध्रुवबंधिनी प्रकृति कहीयें, एवं त्रण थ. तथा अनंतानुबंधिया कषायोदय हेतु सनावें अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया अने लोज, ए चार, अवश्य बंधाय. तेमज अप्रत्याख्यानोदयसनावें अप्रत्याख्यानीया चार बंधाय, अने प्रत्याख्यानोदयरूप निज हेतु बते चार प्रत्याख्यानीया बंधाय. संज्वलनकषायोदयरूप निज हेतु बतां संज्वलना चार कषाय बंधाय. एवं शोल कषाय बंधाय. ए सर्व मली उंगणीश प्रकृति मोहनीयनी थ. '. तथा ज्ञानावरणीयनी प्रकृति पांच अने दर्शनावरणीयनी प्रकृति नव, ए चौद श्रावरण पण सर्व जीवने पोतपोताना बंध विछेद स्थानक लगें अवश्य बंधाय, तेने
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