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________________ ឬច शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ वली केवारेंक न होय, वली होय, एम श्रांतरें उदय होय, ते चोथी अध्रुवोदयी प्रकृति जाणवी. पांचमी जे प्रकृतिनी सत्ता सर्व जीवने एटले मिथ्यात्वीने पण सर्वदा पामियें परंतु नवप्रत्ययादिक कारणीक न होय, ते पांचमी ध्रुवसत्ता प्रकृति जाणवी. तथा बही जे प्रकृतिनी सत्ता नवप्रत्ययें तथा गुणप्रत्ययेंज होय पण अन्यथा न होय, ते बही श्रध्रुवसत्ता प्रकृति जाणवी. सातमी जे प्रकृति आपणा ज्ञानादिक घातें करी आत्माना गुणने श्रावरे, ते सातमी घातिनी प्रकृति जाणवी. श्राठमी जे प्रकृतिना उदयथी श्रात्मानो कशो पण गुण अवराय नहीं, ते श्रामी श्रघातिनी प्रकृति जाणवी, नवमी जे प्रकृतिनो विशुद्ध परिणामें उत्कृष्ट मिगे रस बंधाय तथा जेने उदय जीव, अनुकूलपणे वेदे, ते नवमी पुण्यप्रकृति जाणवी, दशमी जे प्रकृतिनो संक्वेश परिणामे उत्कृष्ट कटुक रस बंधाय, ते दशमी पापप्रकृति जाणवी. अगीधारमी जे कर्मप्रकृति आपणी विरोधिनी प्रकृतिनो बंध तथा उदयने निवारीने, पोतानो बंध तथा उदय देखाडे, ते अगीआरमी परावर्त्तमान प्रकृति जाणवी. बारमी जे कर्मप्रकृतिनो बंध तथा उदय, अन्य प्रकृति साथें विरोधिनी नहीं तेना कारण बते पण होय, ते बारमी अपरावर्त्तमान अविरोधिनी प्रकृति जाणवी. एम ए एक ध्रुवबंधिनी, बीजी ध्रुवोदयी, त्रीजी ध्रुवसत्ता, चोथी घातिनी, पांचमी पुण्य, बही परावर्त्तमान, एथी इतर एटले उपरांठी एक अध्रुवबंधिनी, बीजी अध्रुवोदयी, त्रीजी अध्रुवसत्ता, चोथी अघातिनी, पांचमी पाप, बही अपरावर्त्तमान, एम बनेद साथे मेलवतां बार बार थयां. तथा चार विपाक एटले उदय कालना गम, तेनां नाम कहे बे. एक देत्रविपाकिनी, बीजी नवविपाकिनी, त्रीजी जीववीपाकीनी, चोथी पुजल विपाकिनी, एम जे जे कर्मप्रकृति, जे जे विपाकिनी होय, ते कहीशुं. एटले शोल घार कह्यां तथा चार बंधविधि, एटले बंधना प्रकार तेमा एक प्रकृतिबंध, बीजो स्थितिबंध, त्रीजो रसबंध, चोथो प्रदेशबंध, ए चार प्रकारना बंधने उत्कृष्ट तथा जघन्य नेदें करीने कहीशुं. एवं बीश छार थयां. तथा एक नूयस्कारबंध, बीजो अल्पतरबंध, त्रीजो अवस्थितबंध, चोथो श्रव्यक्तबंध, एनुं खरूप तथा प्रकृति बंधादिक जे उत्कृष्ट जघन्यपणे तेना स्वामी एटले अधिकारी ए चार वानां कहेशे. एम चोवीश हार, शतकनामा ग्रंथनां कह्यां. तथा गाथाने अंतें अकार ने ते चकारने अर्थे जे ते च शब्द थकी उपशमश्रेणी तथा बीजी दपकश्रेणी ए बे श्रेणीनु' स्वरूप कहेगुं. एम बबीश घारनां नाम शतक नामा कर्मग्रंथमां कहेवानां कह्यां. ॥१॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002168
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1912
Total Pages896
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size27 MB
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