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शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५
॥अथ ॥ ॥शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ प्रारज्यते ॥
॥आर्यावृत्तम् ॥ ऐंड श्रीकरपीडन, विधिसिर्फ ध्वस्तकर्मशत नजरं ॥ कल्याणसिद्धिकरणं, जैन ज्योतिर्जयतु नित्यं ॥१॥ नवशतमथनं शतशो, नत्वा शतमखनतांदिशतपत्रम् ॥ श्रीवीर जिनं धी रं, लिखामि शतके टबार्थमहं ॥२॥ ध्रुवबंधोदय सत्ता, नाशकृते कर्मणांसकृन्नगवान् ॥ त्रिपदीमदीशयां, सा मम मतिमाद्यमपहरतु ॥३॥
नमिअजिणं धुवबंधो, दय सत्ता घाइ पुरम परिअत्ता॥
सेअर चजद विवागा, वुबं बंधविद सामी ॥१॥ अर्थ-नमिश्रजिणं के नमस्कार करीने जिन प्रत्ये धुवबंध के एक ध्रुवबंधिनी प्रकृति, उदय के बीजी ध्रुवोदयी प्रकृति, सत्ता के० त्रीजी ध्रुवसत्ता प्रकृति, घाइ के चोथी घातिनी प्रकृति, पुल के पांचमी पुण्यप्रकृति, परिश्रत्ता के बही परावर्तमान प्रकृति, सेवर के वली एना इत्तर बन्नेद खेवा; एवं बार बार थयां. चउहविवागा के चार नेदें विपाकिनी प्रकृति, वुद्धं के कहेशे तथा बंधविह के० चार बंधविधि. सामीथ के वली चार प्रकारें बंधना खामी कहेशे. एवं चोवीश छार थयां. च एटले वली ॥१॥
तिहां ग्रंथकर्ता श्रीदेवेंपसूरि लघुशतकनामा ग्रंथने आरंने प्रथम समुचितेष्ट देवता नमस्काररूप नाव मंगल निर्विघ्नपणे ग्रंथसमाप्तिने हेतुयें करे बे. नमिश्र के० नमस्कार करीने, कोण प्रत्ये नमस्कार करीने ते कहे . जिण एटले राग येषादिक अंतरंग वैरी जेणे जीत्या एवा जे श्रीजिन जगवंत तीर्थंकरप्रत्ये सर्व थकी अधिक गुणवंत जाणी तेने नमीने आटला छारें करी शतकनामा ग्रंथ कहेशे.
हवे ते ग्रंथना अनिधेयनूत बबीश घारनां नाम कहे . त्यां प्रथम जे कर्मप्रकृति श्रापणा निजहेतु मल्यां अवश्य बंधाय पण तेहने स्थानकें बीजी प्रकृति न बंधाय, ते प्रथम ध्रुवबंधिनी प्रकृति जाणवी. अने बीजी जे कर्मप्रकृति आपणा बंधहेतु सामग्री हुँते बते पण केवारेंक बंधाय अने केवारेंक तेने स्थानके तेनी विरोधिनी बीजी प्रकृति बंधाय, ते अध्रुवबंधिनी प्रकृति जाणवी. त्रीजी जे प्रकृतिनो उदय विछेद कालपर्यंत निरंतर होय, पण तेनो उदय तेनो विद थया विना त्रुटे नहीं, ते त्रीजी ध्रुवोदय प्रकृति जाणवी. चोथी जे प्रकृतिनो उदय केवारेंक होय
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