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शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५। अध्रुवबंधिनी प्रकृति कहीयें तथा शुजविहायोगति,अने अशुल विहायोगति, ए बे प्रकृति पण बंधविरोधिनी . तेथी शुजविहायोगति बंधाय, तेवारें अशुजविहायोगति न बंधाय, तेथी ध्रुवबंधिनी कहीये. तथा देवानुपूर्वी, मनुष्यानुपूर्वी, तिर्यंचानुपूर्वी अने नरकानुपूर्वी, ए चार प्रकृति पण बंधविरोधिनी , माटें अध्रुवबंधिनी कहीये. एवं ए तेत्रीश प्रकृति परावर्त्तमान जणी अध्रुवबंधिनी कहीये.
जिननामकर्म सम्यक्त्व उतां पण कोश् एकने बंधाय, अने कोइएकने न बंधाय, ते जणीअध्रुवबंधिनी कहीयें, तथा उबासनामकर्म पण पर्याप्त प्रायोग्य बांधतां बंधाय. परंतु थपर्याप्त प्रायोग्य बांधतां न बंधाय, तेथी अध्रुवबंधिनी कहीयें, तथा उद्योतनामकर्म पण तिर्यंच प्रायोग्य बांधतां को एकने बंधाय अने बीजाने न बंधाय, तेथी अध्रुवबंधिनी कहीयें, तथा यातपनामकर्म पण पृथ्वीकाय एकेंजिय प्रायोग्य बांधतां कोएकने बंधाय श्रने कोइ एकने न बंधाय, तेथी अध्रुवबंधिनी कहीयें, तथा पराघातनामकर्म पण पर्याप्त प्रायोग्य बांधतां को एकने केवारेंक बंधाय अने को एकने अपर्याप्त प्रायोग्य बांधतां न बंधाय, तेथी अध्रुवबंधिनी कहीये; तथा त्रसदशक अने स्थावरदशक एटले त्रस, बादर, पर्याप्त अने प्रत्येकादिक, तेमज स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त अने साधारणादिक प्रायोग्य बांधतां बंधाय, परंतु तेथी विपरीत बांधतां न बंधाय, तेथी ए वीश प्रकृति पण अध्रुवबंधिनी कहीयें, तथा उच्चैर्गोत्र बांधतां नीचैर्गोत्र न बंधाय, श्रने नीचैगोत्र बांधतां उच्चैर्गोत्र न बंधाय, माटे ए बे प्रकृति, बंधविरोधिनी नणी एने अध्रुवबंधिनी कहीयें, तथा शाता, अशातावेदनीय पण परावर्त्तमान बंधाय पण बेहु साथै न बंधाय, तेथी ए बे प्रकृति पण अध्रुवबंधिनी कहीये. एवं उंगणत्रीश प्रकृति थ. तथा तेत्रीश आगलनी मेलवतां बाश प्रकृति थ ॥३॥
दासाइ जुअल उग वे, अ आज तेउत्तरी अधुवबंधो॥
नंगा अणा साई, अणतं संतुत्तरा चनरो॥४॥ अर्थ-हासाश्जुश्रल के हास्य अने रति तथा शोक अने अरति, ए युग के० बे युगल, वेथ के त्रण वेद, थान के चार आयु, तेउत्तरी के० ए तहोंत्तेर कर्मप्र. कृति, अधुवबंधो के अध्रुवबंधिनी जाणवी. एना नंगा के चार नांगा, अणासाईश्रणतं के अनादि अने सादि, ए बे पदने थनंत अने संतुत्तराचउरो के सांत, ए बे पद, प्रत्येके श्रागल जोमतां चार नांगा होय, एटले अनादि अनंत, अनादि सांत, सादि अनंत अने सादि सांत, ए बे जोमतां चार थाय. ॥ इत्यदरार्थः ॥४॥
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