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शतकनामा पंचम कर्मग्रथं. ५ : हास्य अने रति, ए युगल बांधतां शोक अने अरति, ए युगल न बंधाय, अने शोक अने भरति बांधतां, हास्य अने रति न बंधाय. तेथी ए चार प्रकृतिनो बंध सांतरपणे बंधाय. तेथी ए अध्रुवबंधिनी बहा गुणगणा लगे जाणवी, अने तेथी भागले निरंतरपणे बंधाय माटें पड़ी ध्रुवबंधी कहेवाय. एमज अशातावेदनीय पण जाणी लेवी, तथा एमज नीचैर्गोत्र पण वीजा गुणगणा लगें अध्रुवबंधी ने पड़ी ध्रुवबंधी जाणवो.
स्त्रीवेद, पुरुषवेद अने नपुंसकवेद, ए त्रण प्रकृतिमध्ये पण एक समय एकज बंधाय. तेमां नपुंसकवेद मिथ्यात्व लगें आने स्त्रीवेद सास्वादन लगें बंधाय, तेथी बागल निरंतर पुरुषवेद बंधाय; तथा एक देवायु, बीजुं नरकायु, त्रीगँ तिर्यंचायु, अने चोथु मनुष्यायु, ए चार आयुमांहेलो एक नवमां एकजवार एक गतिनुं श्रायु बंधाय; माटें श्रध्रुवबंधिनी जाणवी. ए रीतें ए तहोंत्तेर प्रकृति अध्रुवबंधिनी कहीये. केम के केवारेक बंधाय, केवारेंक न बंधाय, केवारेंक तेने स्थानकें विरोधिनी बीजी प्रकृति बंधाय, तेथी एनो बंध, निश्चल न होय तेथी एने अध्रुवबंधिनी कहीये. . अहींयां ध्रुवाध्रुवने विषे चार नांगा अवतारियें, अनादि ने सादि, ए वे पद आगल प्रत्येकें अनंत ने सांत, ए बे पद जोमिये, तेवारें एक अनादि अनंत, बीजो अनादि सांत, त्रीजो सादि अनंत अने चोथो सादि सांत, ए चार नंग थाय. जे कर्मप्रकृतिनी प्रवाहरूपें बंधनी आदि न पामीये. एटले (१) जे ए आठ कर्मनी प्रकृति पूर्वे न हती अने अमुक दिवसथी नवी थक्ष, एम को वारें पण न कहेवाय, ते अनादि. (२) अने जे प्रकृतिनुं अनुबंधकपणुं थया पली वली पहेलां बांधी, ते सादि. (३) जे प्रकृतिनो बंधविछेद न होय, त्यां लगें अनंत. (४) तथा जेवारें बंधनो अंत करे, तेवारें सांत. ए जेम बंधमां नांगा कह्या, तेम उदय अने उदीरपायें पण सादि, अनादि, सांत अने अनंत, ए चार नांगा जाणवा. ॥४॥
पढम बिआ धुव उदश्सु, धुवबंधिसु तश्अ व नंगतिगं॥ मिम्मि तिन्नि नंगा, उदावि अधुवा तुरिअनंगा ॥५॥
अर्थ-पढम के पहेलो अने बिश्रा के बीजो, ए बे लांगा, धुवनदश्सु के० ध्रुवोदयी प्रकृतिने विष होय, अने धुववंधिसुतश्शवानंगतिगं के ध्रुवबंधी प्रकृ. तिने विषेत्रीजो नांगो वर्जीने शेष त्रण नांगा होय तथा मिडम्मितिन्निनंगा के मिथ्यात्वमोहनीयने विषेत्रण नांगा लाने. वली उहाविअधुवा के बे प्रकारनी
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