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________________ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ ५७३ श्रध्रुवबंधी प्रकृति एटले एक अध्रुवबंधिनी, बीजी अध्रुवोदयी, ए बेने विषे तुरिश्रनंगा के एक सादि सांत नामें चोथो नांगो होय. ॥५॥ तेमांहे पहेलो अनादि अनंत तथा बीजो अनादि सांत, ए बे नांगा एक मिथ्यात्वमोहनीय विना शेष बबीश ध्रुवोदयी प्रकृति आश्री लाने. जे लणी अजव्यने निर्माणादिक बबीस प्रकृतिना उदयनी आदि न पामीयें; तेम श्रागला गुणगणाने अनावें उदय विछेद पण न पामीयें, तेथी अनंत एटले अनादिश्रनंत नांगो जाणवो, तथा नव्यनी अपेक्षायें ए बबीशनी आदि नथी पण बारमे, तेरमे अने चौदमे गुणगणे उदयनो अंत थशे, तेथी सांत माटे अनादि सांत, ए बीजो नांगो पामीयें. तथा ध्रुवबंधिनी वर्णचतुष्कादिक सुमतालीश प्रकृतिना बंधनी अपेक्षायेंत्रण नांगा होय, ते श्रावी रीतें जे अजव्य जीव अनादिकालनो ए ध्रुवबंधिनी प्रकृति सर्वदा बांधे बे, तेथी अनादि तथा आगलां गुणगणाने अनावें बंधव्यवछेद पण पामशे नहीं, तेथी अनंत. ए अनादिअनंत नामा प्रथम नांगो अजव्य आश्रयी कह्यो; तथा जव्य जीव जे अनादि मिथ्यात्वी, तेने अनादिसांत नांगो जाणवो. अने जे जव्य जीव अगीश्रारमे गुणगणे ए प्रकृतिनो अबंधक थश्ने वली तिहाँ थकी पमतो बंध पारंने, तिहां सादि, ते वली अवश्य प्रबंधक थशे, तेथी सांत, ए चोथो सादिसांत नामा नांगो कह्यो. ए रीतें त्रण नंग कह्या.. . हवे मिथ्यात्वमोहनीयनो बंध तथा उदय त्रण नांगे लाने, तिहां अजव्यने मिथ्यात्वनो बंध तथा उदय अनादिअनंत नांगो तथा अनादि मिथ्यात्वी जव्य जीवने अनादिसांत नांगो जाणवो. केम के ते सम्यक्त्व पामशे तेवारें मिथ्यात्वनो अंत थशे, तथा जे सम्यक्त्व वमीने मिथ्यात्वे जाय ते सादि मिथ्यात्वी तेनी अपेक्षायें ए चोथो सादिसांत जंग जाणवो. अने त्रीजो श्रादिश्रध्रुव नांगो शून्य जाणवो. जे जणी सादि तो जव्यनेज होय अने ते तो अवश्यमेव मुक्तियें जाय. तेवारें तिहां बंध तथा उदयनो अंत करे, तेथी सादि श्रध्रुव नांगो खोटो जाणवो. अहींयां ध्रुवबंधिनी तथा ध्रुवोदयी प्रकृतिमध्ये मिथ्यात्वमोहनीय कयुं बे, पण अहींयां ते बेहुथी जूई एटला वास्ते कयु डे के, जो पण ध्रुवबंधिनी अपेक्षायें त्रण नांगा कह्या, ते बंधे थावे पण उदयें त्रण जांगा न आवे, अने मिथ्यात्वमोहनीयना तो उदयना पण त्रण मांगा डे ते विशेष जाणवाने अर्थे जिन्न कडं. ___ तथा जे प्रकृति बंधे अने उदय पण अध्रुव ते अध्रुवपणा जणीज एक चोथे सादिसांत नांगे कहेवाय परंतु एने विषे शेष त्रण जांगा न होय. ॥५॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002168
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1912
Total Pages896
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size27 MB
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